मनुष्य गतिपूरा
स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद की आगति एवं गति लिखिए।
उ. स्त्रीवेद की आगति 371 की (समुच्चय जीववत् 563 में से 7 नारकी, 86 युगलिक मनुष्य और 99 जाति के देवता, इन 192 के अपर्याप्त को छोड़कर शेष 371 की ) ।
गति-561 की (सातवीं नरक का अपर्याप्त पर्याप्त छोड़कर)
पुरुषवेद की आगति 371 की (समुच्चय जीववत्)। गति-563 की । नपुंसकवेद की आगति 285 की (179 की लड़, 99 जाति के देवता और सात नरक के पर्याप्त)
मुक्ति का दरवाजा जहा खोल बन्ध होता वे क्षेत्र के पर्याप्त मनुष्य के भेद कितने*❓
💚🅰 *15 -10**
15 कर्मभूमिज सन्नी मनुष्य की आगति एवं गति लिखिए।
उ. 15 कर्मभूमिज सन्नी मनुष्य की आगति 276 की- ( 99 जाति के देवता, पहली से छठी तक ये छः
नरक, एवं 179 की लड़ में से तेउकाय, वायुकाय के 8 भेद छोड़कर 171 की, इस प्रकार
171+99+6=276)
15 कर्मभूमिज सन्नी मनुष्य की गति 563 की।
(g) देवकुरु-उत्तरकुरु के युगलिक आयुष्य पूर्ण कर कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
उ. पहले किल्विषी तक (भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिषी पहला, दूसरा देवलोक तथा पहला
किल्विषी में)
कौन से भगवान के तीर्थ में हरिवंश कुल की उत्पत्ति हुई।
🅰️ श्री शीतलनाथ जी
भरत क्षेत्र में हरिवंश कुल की उत्पत्ति करने वाले युगलिया मर कर कहां गए।
🅰️ नरक में
*प्रणाम*
*आज का विषय मनुष्य गति*
🌹 *1 -563 जीवभेद में से मनुष्य के कितने भेद*❓
💚🅰 *1 - 303*
🌹 *2 - 303 भेद में से गर्भज के कितने भेद*❓
💚🅰 *2 - 202*
🌹 *3 - 303 मनुष्य भेद में से जम्बूद्वीप में कितने भेद*❓
💚🅰 *3 -27*
🌹 *4 -सदाकाल कर्मभूमि के मनुष्य किस क्षेत्र में*❓
💚🅰 *4 - महाविदेह*
🌹 *5 - अढ़ाई द्वीप में मनुष्य संख्या कितने अंक प्रमाण*❓
💚🅰 *5 - 29*
अढ़ाई द्वीप में कभी भी मनुष्य की संख्या 29 अंक प्रमाण से न ज्यादा होती हे न ही कम
🌹 *6 - नन्दीश्वर द्वीप का मनुष्य काल कर के कितने देवलोक तक जा सकता है*❓
💚🅰 *6- अढ़ाई द्वीप के बाहर मनुष्य हे ही नही*
🌹 *7 - हम से 10 योजन ऊचाई पर रहने वाले मनुष्य कौन से*❓
💚🅰 *7- विद्याधर*
🌹 *8- हेमवय क्षेत्र के मनुष्य में संस्थान कितने*❓
💚🅰 *8 - सिर्फ एक*
सम चतूरस्त्र संस्थान
🌹 *9 - 800 धनुष्य की उत्कृष्ट अवगाहना किसकी*❓
💚🅰 *9 - 56 ,अन्तरद्वीपज मनुष्य की*
🌹 *10 - महाविदेह के मनुष्यनी के जीव को काल करने के बाद कहा प्रवेश निषिद्ध*❓
💚🅰 *10 - सातवी नरक*
🌹 *11 - एरवत क्षेत्र के मनुष्य को कितने शरीर मिल सकते है*❓
💚🅰 *11 -पांचो*
🌹🙏🏻 *12 - हेमवय क्षेत्र का मनुष्य वेक्रिय शरीर करे तो उत्कृष्ट कितना बड़ा शरीर बना सकता है*❓
💚🅰 *12 - उन्हें वेक्रिय शरीर बनाने की लब्धि नही मिलती*
🌹 *13 - अवसर्पिणी काल के प्रथम आरे की सभी लाक्षणिकता हमेशा कहा मिलेगी*❓
💚🅰 *13 - देवकुरु, उत्तर कुरु क्षेत्र*
🌹 *14 - देव कुरु के मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति कितनी*❓
💚🅰 *14 -3 पल्योपम*
🌹 *15 -मुक्ति का दरवाजा जहा खोल बन्ध होता वे क्षेत्र के पर्याप्त मनुष्य के भेद कितने*❓
💚🅰 *15 -10*
भरत, एरवत की
🌹 *16 -303 मनुष्य भेद में से पूर्व घातकी खंड में मनुष्य के कितने भेद मिलेंगे*❓
💚🅰 *16 -27*
भरत, एरवत, महाविदेह, 6 अकर्मभूमि यह 9 के अपर्याप्त, पर्याप्त और समूर्छिम
9 × 3 = 27
🌹 *17 - लवण समुद्र मेँ मनुष्य गति के जिव के कितने भेद*❓
💚🅰 *17 - 168*
56 अन्तरद्वीपज के ऊपर बताये अनुसार 3 भेद यानी कुल 56 × 3 = 168
🌹 *18 - कालोदधि समुद्र में मनुष्यगति के जीव के कितने भेद*❓
💚🅰 *18 - एक भी नही*
🌹 *19 -पुष्करार्ध द्वीप में अभी मनुष्य के कितने भेद*❓
💚🅰 *19 - 54*
पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुस्करार्ध मिलाकर 54 भेद भरत, एरवत, महाविदेह, 6 अकर्मभूमि यो 9 के ।
9 × 2 × 3 = 54
🌹 *20 - 101 सन्नी मनुष्य भेद में मोक्ष की साधना कर मुक्त बनने की योग्यता कितने मनुष्य में*❓
💚🅰 *20 - 15 कर्मभूमि*
🌹 *21 -मनुष्य भव में तिर्यन्च का रूप किसने लिया*❓
💚🅰 *21 -स्थूलभद्र जी*
सिंह का रूप बनाया
🌹 *22 - देवगति से भी ज्यादा, मनुष्य गति की महिमा, वजह बताओ ज्ञानी तुमसब, 2 अक्षर की महिमा*❓
💚🅰 *22 - व्रत*
सामायिक, संयम, मुक्ति मार्ग की साधना, देव गुरु धर्म का संयोग आदि, सब✔
🌹 *23 - हेरण्यवयवत क्षेत्र के मनुष्य को अभी कितना अवधिे ज्ञान हो सकता है*❓
💚🅰 *23 -नही, उन्हें सिर्फ मति, श्रुत दो ही ज्ञान मिलते।*
🌹 *24 - रम्यकवास के मनुष्य में कितनी लेश्या*❓
💚🅰 *24 - प्रथम चार*
🌹 *25 - किन मनुष्य की आगति में 4 गति से , और गति में 5 भी हो सकती ( पांचवी मोक्ष गिनकर )*❓
💚🅰 *25 - 15 कर्म भूमि मनुष्य*
🌹 *26 - 303 भेद मनुष्यो में एकांत नपुंसक वेद के कितने भेद*❓
💚🅰 *26 -101 समूर्छिम मनुष्य*
🌹 *27 -303 भेद एकांत सम्यग्दृष्टि मनुष्य कौन*❓
💚🅰 *27 - कोई भी नही*
यहाँ 303 की अपेक्षा से।
🌹 *28 -हरीवास के मनुष्यकी उत्कृष्ट आयु कितनी*❓
💚🅰 *28 -2 पल्योपम*
🌹 *29 -एकांत मिथ्यादृष्टि मनुष्य में पर्याप्त कितने*❓
💚🅰 *29 - 56 अन्तरद्वीपज*
🌹 *30 - वैताढ़य पर्वत के विद्याधर मनुष्य उत्कृष्ट कितनी नरक तक जा सकता है*❓
💚🅰 *30 - 7 वि नरक तक, कर्मभूमि मनुष्यवत्*
जिन आज्ञा विरुद्ध अंशमात्र लिखा हो
तो मिच्छामी दुक्कड़म
🙏🏻🌹🙏🏻🌹🙏🏻🌹🙏🏻🌹🙏🏻
मनुष्यगति में कितने गुणस्थान होते हैं ?
भोगभूमि के मनुष्यों में 1 से 4 तक गुणस्थान होते हैं एवं कर्मभूमि में 1 से 14 तक गुणस्थान होते हैं।. *जिनवाणी - श्रुतधारा*
*卐 महावीर वाणी 卐*
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*ग्रुप एडमिन, कल्याणमित्र*
१६-४-२०२१
*📕भाग - 91*
*लेखक : पू. पंन्यासप्रवर श्री रत्नसेनविजयजी गणिवर्य*
*संकलन : नीतेश बोहरा, रतलाम*
*🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*कर्म प्रकृति*
*【कर्म सिद्धांत – कर्म विज्ञान】*
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*18-04-22 【6️⃣7️⃣】*
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*आठ कर्मों की उत्तर प्रकृत्तियाँ*
*बंध के कारण*
*और फलभोग*
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*पाँचवा कर्म– आयुष्य कर्म*
( भाग – 7 )
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*आयुष्य कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ*
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. *( 3 ) मनुष्य आयुष्य–*
☝️जिस कर्म के उदय से मनुष्य गति में जन्म हो *अथवा* जिस कर्म के विपाक स्वरूप मनुष्य भव में जीवन बिताना पड़े, *मनुष्य आयुष्य कर्म है।*
☝️मनुष्यों के 303 प्रकार होते हैं। इन 303 प्रकारों में से किसी भी प्रकार से मनुष्य भव में उत्पन्न होना *मनुष्य आयुष्य कर्म का काम है।*
*🙏यह शुभ आयुष्य कर्म है।*
*मनुष्य आयुष्य बन्ध के कारण–*
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*( 1 ) प्रकृति भद्रता–*(सरल स्वभाव)
मन-वचन-काया की एकरूपता रखना सरलता है। ह्रदय में सरलता रखना *मनुष्य आयुष्य बंध का कारण है।* दिखावट या बनावट न करना इसी श्रेणी में आते हैं।
*( 2 ) विनीत स्वभाव–* बड़ों, गुरुजनों, गुणीजनों के प्रति अहोभाव रखना विनम्रता है।
>> नम्र स्वभाव रखना,
>> गुणों का गुणकीर्तन करना,
>> उनकी आशातना न करना,
>> आज्ञा का पालन करना,
>> उनकी सेवा-वैयावृत्य आदि करने वाला *विनीत स्वभावी* कहलाता है और वह मनुष्य आयुष्य का बंध करता है।
*( 3 ) दयाशीलता–*
>> दूसरों के दु:ख से दु:खी होना,
>> अनुकम्पा भाव रखना,
>> दु:खी-रोगी जीवों पर करुणा करना,
>> दूसरों के कष्टों को दूर करने का भाव मन में रखना *मनुष्य भव बंध का कारण है।*
*( 4 ) ईर्ष्या रहित होना–* दूसरों के सुखों को देखकर मन में उत्पन्न होने वाली जलन *ईर्ष्या भाव* है।
>> मन में अमत्सरता का भाव रखना,
>> अहंकार न करना,
>> किसी की मदद करके गुणगान न करना,
>> तुच्छ वृत्ति न रखना।
☝️ये सब ईर्ष्या भाव से रहित होने की निशानी है और *ईर्ष्या भाव रहितता मनुष्य भव बंध का कारण है।*
🙏आगामी पोस्ट में हम जानेंगे *देवायुष्य* और *देवायुष्य बन्ध के कारण* के बारे में ...
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*प्रस्तुति –* सुरेश चन्द्र बोरदिया भीलवाड़ा
. *एडमिन*
जैन उत्तम पी कानुंगा (अहमदाबाद)
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प्रश्न ७. उनका आयुष्य कितना है ?
उत्तर : उनका आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का है। उनके अड़तालीस मिनिट की अवधि में बारह बार जन्म-मरण हो जाता है।
प्रश्न ८. क्या वे पर्याप्त होते हैं ?
उत्तर : वे पर्याप्त नहीं होते, अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं ।
प्रश्न ६. गर्भज मनुष्य के कितने प्रकार हैं ?
उत्तर 1: गर्भज मनुष्य के तीन प्रकार हैं १. कर्मभूमिज २. अकर्मभूमिज
प्रश्न १० कर्मभूमि किसे कहते हैं?
उत्तर
३. अन्तर्द्वीपज
जिस क्षेत्र के निवासियों को पेट भरने के लिए कुछ कर्म-पुरुषार्थ करना होता है, उसे कर्मभूमि कहते हैं, उसे धर्मभूमि भी कहते हैं। पांच भरत, महाविदेह ये १५ क्षेत्र कर्मभूमि हैं । पांच एरावत, पांच
प्रश्न ११. तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि तिरेसठ शलाकापुरुष कहां होते हैं? उत्तर 1: सभी शलाकापुरुष कर्मभूमि क्षेत्र में होते हैं। राजा प्रजा आदि की व्यवस्था कर्म-भूमि क्षेत्रों में ही होती है।
प्रश्न १२. क्या कर्मभूमि क्षेत्रों में राजा प्रजा की व्यवस्था सदैव रहती है ? उत्तर पांच महाविदेह क्षेत्रों में यह व्यवस्था सदैव रहती है। पांच भरत एवं पांच एरावत क्षेत्रों में यह व्यवस्था अवसर्पिणी' काल के तीसरे, चौथे, पांचवें अर तथा उत्सर्पिणी काल के दूसरे, तीसरे और चौथे अर में रहती हैं।
प्रश्न १३ अकर्मभूमि किसे कहते हैं?
उत्तर
: जिस क्षेत्र के निवासियों को पेट भरने के लिए पुरुषार्थ करने की अपेक्षा नहीं रहती, जैसे खेती, व्यवसाय आदि। जिनकी हर आवश्यकता की पूर्ति कल्पवृक्षों से हो जाती है, उसे अकर्मभूमि कहते हैं। युगल साथ में जन्मने से उस क्षेत्र के निवासियों को यौगलिक कहते हैं
१. २. ३. अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी ये कालचक्र के अलग-अलग १०-१० करोड़ाकरोड़ सागर
समय वाले हैं। इन दो के मिलने से २० करोड़ाकरोड़ सागर का कालचक्र बनता है। सर्प के मुंह से पूंछ तक शरीर क्रमशः पतला होता है। वैसे ही अवसर्पिणी में इसके छह अर (विभाग) क्रमशः समय की दृष्टि से छोटे होते चले जाते हैं। उत्सर्पिणी में सर्प के पूंछ से मुंह तक के बढ़ते मोटेपन की भांति छह अर बड़े होते जाते हैं
४. बारहमासी फल देने वाला सदाबहार वृक्ष, इसे देव वृक्ष भी कहते हैं। यौगलिक काल में दस प्रकार के कल्पवृक्ष हुआ करते थे जिनसे यौगलिकों की भोजन, आवास, प्रकाश आदि जीवनोपयोगी अपेक्षाओं की पूर्ति होती थी।
प्रश्न १४ अकर्मभूमि में कितने क्षेत्र हैं?
उत्तर : अकर्मभूमि में देवकुरु, उत्तरकुरु, हरिवास, रम्यक्वास, हेमवय, अरुणवय ये छह नाम हैं। प्रत्येक नाम के पांच-पांच क्षेत्र हैं, इस तरह कुल तीस क्षेत्र हो गये।
प्रश्न १५ अकर्मभूमि एक जगह है या अलग-अलग क्षेत्रों में है?
उत्तर : अकर्मभूमि एक जगह नहीं, अलग-अलग क्षेत्रों में हैं। तीन कर्मभूमि भरत, एरावत, महाविदेह इन तीनों के बीच उपरोक्त छह-छह क्षेत्र हैं। इस क्रम से जंबूद्वीप' में छह, घातकी खण्ड द्वीप में बारह और अर्धपुष्कर द्वीप में बारह क्षेत्र हैं।
प्रश्न १६. अकर्मभूमि के क्षेत्रों में उत्पन्न
है या अलग-अलग ?
यौगलिकों का आयुष्य व अवगाहना
उत्तर : अकर्मभूमि में उत्पन्न यौगलिकों का आयुष्य व अवगाहना (शरीर की लम्बाई)
समान नहीं, पृथक्-पृथक् है, वह इस प्रकार है
यौगलिक
देवकुरु, उत्तरकुरु
हरिवास, रम्यक्वास
हेमवय, अरुणवय
आयुष्य
३ पल्योपम
२ पल्योपम
१ पल्योपम
प्रश्न १७ इन क्षेत्रों के मनुष्यों का भोजन कैसा है?
उत्तर
अवगाहना
३ को
२ कोस
१ कोस
इन क्षेत्रों का भोजन वनस्पति का है। कल्पवृक्षों का फल ही वहां का मुख्य आहार है। उन क्षेत्रों में कोई मांसाहारी नहीं होता। उनके भोजन का क्रम इस प्रकार है पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु के यौगलिकों का आहार तीन दिन से होता है। एक दिन भोजन कर लेने के बाद तीन दिन तक उन्हें भूख ही नहीं लगती। आहार की मात्रा भी उनकी बहुत थोड़ी होती है। एक चने जितना आहार उनके लिये पर्याप्त है। एक चने जितने भोजन में इतने तत्त्व विद्यमान रहते हैं कि तीन दिन तक उनके दीर्घकाय शरीर के लिये पर्याप्त है। पांच हरिवास, पांच रम्यक्वास के यौगलिक दो दिन से भोजन करते हैं। इनके भोजन की मात्रा बोर जितनी है। पांच हेमवय, पांच अरुणवय क्षेत्र के यौगलिक एक दिन के अन्तराल
से भोजन करते हैं। इनके आहार की मात्रा आंवले जितनी है। प्रश्न १८ अकर्मभूमि में उत्पन्न बच्चों का पालन-पोषण कैसे होता है ?
उत्तर : अकर्मभूमि में उत्पन्न बच्चों का पालन-पोषण उनके माता-पिता के द्वारा होता
१. जैन भूगोल में सबसे छोटा एक लाख योजन का द्वीप
२. जंबूद्वीप से चार गुना बड़ा व लवण समुद्र व कालोदधि समुद्र का मध्यवर्ती द्वीप।
है। पांच देवकुरु, उत्तरकुरु क्षेत्र के बच्चों का उनपचास रात्रि तक पालन-पोषण करना होता है। इतने कालमान में वे युवा बन जाते हैं। पांच हरिवास, रम्यक्वास के बच्चों का पालन तिरेसठ रात्रियों तक होता है। पांच हेमवय, अरुणवय के बच्चों का पालन उनियासी रात्रियों तक होता है।
प्रश्न १६. इन क्षेत्रों के उत्पन्न यौगलिकों का पारिवारिक सम्बन्ध क्या है ?
उत्तर : वहां पारिवारिक संबंध केवल पति-पत्नी, माता-पिता, भाई बहिन पुत्र पुत्री तक सीमित है। जीवन के आखिरी समय में एक युगल का जन्म होता है। क्रमशः ४६, १९६३, ७६ रात्रियों तक बच्चों का पालन करने के बाद उनकी मृत्यु हो जाती है।
प्रश्न २० अकर्मभूमि के मनुष्य मरकर कहां जाते हैं? उत्तर : वे देव बनते हैं। उनकी गति देवत्व की है। तीन पल्योपम तक की स्थिति वाले
देव बन सकते हैं।
प्रश्न २१. मरने के बाद उनके शरीर का अंतिम संस्कार कैसे होता है ? उत्तर : मरने के बाद उनका शरीर कपूर की भांति स्वतः बिखर जाता है या भारंड आदि
पक्षी अन्यत्र ले जाते हैं। निर्जीव शरीर वहां टिकता नहीं है। उनके शरीर का अग्नि संस्कार या जमीन में दफनाना आदि उपक्रम नहीं है।
प्रश्न २२ छप्पन अन्तद्वीप कहां हैं?
उत्तर : जंबूद्वीप में दो विशिष्ट पर्वत हैं चुल्ल-हिमवान् और शिखरी। ये दोनों पर्वत जंबूद्वीप में पूर्व पश्चिम में फैले हुए हैं। दोनों का कुछ हिस्सा पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र में गया हुआ है। दोनों पर्वतों की समुद्र में दाढ़ानुमा दो-दो पर्वत श्रृंखला पूर्व-पश्चिम दोनों ओर निकली हुई हैं। चार चुल्ल हिमवान् पर्वत की और चार शिखरी पर्वत की श्रेणियां हैं। एक-एक श्रेणी पर सात-सात द्वीप हैं। इस प्रकार पर्वत श्रेणी ७ द्वीप ५६ अन्तद्वीप हो जाते हैं। कई इन्हें इन पर्वतों की ठीक सीध में लवण समुद्र में तीन सौ योजन जाने के बाद क्रमशः सात-सात उभरे हुए दाढ़ानुमा द्वीप मानते हैं। उन पर जो मनुष्य रहते हैं, वे अन्तर्द्वीपज कहलाते हैं। उनका स्वरूप अकर्मभूमि की भांति ही समझना चाहिए। वे भी
यौगलिक हैं, उनकी भी कल्पवृक्षों से आवश्यकता पूरी होती है। प्रश्न २३. अकर्मभूमि और अन्तद्वीप के मनुष्यों में क्या चारित्र होता है ?
उत्तर : नहीं, उनमें कोई साधु या श्रावक नहीं होता। वे सहज जीवन जीने वाले होते हैं। न वे ज्यादा पाप करते और न ही क्रियात्मक धर्म
प्रश्न २४ अकर्मभूमि और अन्तद्वीप के मनुष्यों में क्या सम्यक्त्व होती है ? उत्तर 1 अकर्मभूमि के मनुष्यों में सम्यक्त्व हो सकती है। अन्तद्वीप के मनुष्यों में इतना बोध नहीं होता, अतः वे सम्यक्त्वी नहीं होते।
२५ पैंतालीस लाख योजन प्रमाण इस मनुष्य क्षेत्र से कहीं भी सिद्ध हो सकता है, ऐसा माना गया है। जबकि चारित्र केवल पन्द्रह क्षेत्रों में है, फिर सब जगह मुक्त कैसे बनते होंगे ?
उत्तर
: चारित्र तो केवल पन्द्रह कर्मभूमि के आर्य क्षेत्र में ही होता है। बहुत सीमित क्षेत्र में संयम की साधना करने वाले होते हैं, किन्तु मुक्त होने का क्षेत्र पैंतालीस लाख योजन है। अन्य स्थान में लब्धि से मुनि जा सकते हैं। समुद्र, नदी, नालों, झीलों में दुश्मन देव द्वारा फेंक दिये जाते हैं। मुनि वहीं पर ध्यानारूढ़ अवस्था में सर्वज्ञ बनकर मुक्त हो जाते हैं ।
प्रश्न २६. मनुष्य भव को मोक्ष का द्वार क्यों कहा? क्या अन्य योनि से कोई मुक्त नहीं हो सकता ?
उत्तर
: मुक्त होने के लिए चारित्र की साधना जरूरी है। इसके बिना सर्वज्ञता नहीं मिलती, सर्वज्ञता के बिना मोक्ष नहीं होता। चारित्र की साधना मनुष्य शरीर से ही की जा सकती है। अन्य शरीर चारित्र की साधना की दृष्टि से अनुपयुक्त है, इसलिए मोक्ष का द्वार मनुष्य भव को कहा गया है।
प्रश्न २७. मनुष्य में निर्जरा के भेद कितने हैं ?
उत्तर : समनस्क मनुष्य में निर्जरा के बारह ही भेद पाते हैं, जबकि अमनस्क मनुष्य में एक कायक्लेश का भेद पाता है।
🍁🍁मनुष्य गति 🍁🍁
🍁तीसरी गति मनुष्य गति होती है। जो जीव कम से कम पाप करता हुआ निरंतर धर्म-ध्यान में जीवन व्यतीत करता है। उसे मनुष्य गति प्राप्त होती है। समुद्र में फेंके गए मोती को जैसे प्राप्त करना दुर्लभ है, उसी प्रकार यह मानव जीवन भी महादुर्लभ है, जिसको पाने के लिए देवता भी तरसते हैं।
🍁ओर दरिद्रता, रोग, नौकरी आदि के कारण मनुष्य अपमान का बड़़ा दुःख उठाते हैं। इष्टवियोग अनिष्टसंयोग के दुःख मनुष्य के सामने आया ही करते हैं। दुव्र्यसनी पुत्र, व्यभिचारिणी कलहकारिणी स्त्री, विश्वासघाती मित्र, स्वार्थी भाई मौका पाकर दुःख देते ही रहते हैं। इस तरह मनुष्य गति के भी दुःखों का कुछ पार नहीं।
🍁🍁 देव गति 🍁🍁
🍁देवों में भी छोटे बड़े पन को भेद-जनक दुःख है, नीची जाति के देव उच्च कोटि के जीवों को देखकर मन में घूरते हैं। बड़े देव विषय भोगों में लीन रहकर अपने भविष्य का जीवन बिगाड़ते हैं, मरने से ६ मास पहले जब उनके गले की माला मुर्झा जाती है तब उनकी देव पर्याय छूटने का जो महान् दुःख होता है उसको वह भुक्त-भोगी जीव जानता है, दूसरा कोई क्या जाने।
🍁जिन देवों को सम्यग्दर्शन एवं आत्मज्ञान होता है वे समझते हैं कि आत्मा का सच्चा हित मनुष्य पर्याय से तपश्चरण द्वारा प्राप्त होगा, इस देव पर्याय में हम आत्म-शुद्धि के लिये तप, त्याग, संयम कुछ नहीं कर सकते। इस तरह देव पर्याय उनके लिये कुछ आनंद की वस्तु नहीं होती।
🚩 अरिहंत परमात्मा की सदा जय हो 🚩
#arihantgitanjali
चारों गतियों में सुख है ही नहीं !! सुख तो स्वयं भीतर में आत्मा में है ।।
चारों गति के बीच में, दुःख सहे अति घोर।
जो इनसे भयभीत हैं, दृष्टि कर निज ओर।।
।
मनुष्य गति के दुःख
नकरों में सागरों पर्यन्त घोर दुख उठाने के बाद किसी महान पुण्य कर्म के कारण मनुष्य गति का बंध किया। वहां से आकर मां के पेट में नवमास पर्यन्त वह घोर दुःख पाया, जिसके विवेचन करना शक्य नहीं है। कभी अल्प आयु लेकर के आये तो पेट में ही मरण को प्राप्त हो गये। जिस समय जन्म हुआ था उस समय क्या दशा हुई थी, अगर आज भी विचार करें तो उस कष्ट का कुछ भाग तो अनुभव में आ ही जाता है। कभी पैदा होते ही समस्त हो गये, अगर बच भी गये तो बालपन खेल-कूद में गंवा दिया कुछ ज्ञान नहीं किया। किया तो सच्चा ज्ञान नहीं लौकिक ज्ञान किया, जो अकेला रहने पर धर्म कार्यों में बाधक होता है। लौकिक ज्ञान करना बुरा नहीं है, ंपरंतु उसके साथ-2 धर्मज्ञान भी होगा तो सार्थकता है, अन्यथा तो किया न किया समान ही है। युवा अवस्था में हितपथ पर न लगे विषय-भोगों में ही लीन रहे; चाह रूपी दाह में जलते रहे और अनेक प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ा। कभी निर्धन बने तो दुःखी रहे, कभी धनवान बने तो पुत्रादि के वियोग जन्य दुःखों से दुःखी रहे। कभी अंगहीन होने से दुःखी रहे, कभी बुद्धिहीन होने से दुःखी रहे, वृद्ध हुए तो शरीर ने साथ नहीं दिया, इन्द्रियां भी शिथिल हो गयी, चला-फिरा नहीं गया अर्थात धर्ममृत के समान अवस्था हो गयी। उस समय हमने कितने दुःख हुआ था, उसे तो हम आज भी आंशिक रूप से जान सकते हैं,दूसरों का मरण देखकर। अब हमें यह नरजन्म मिला है, इसे भी उसी प्रकार विषय-भोगों में न व्यतीत कर दें। बाल्यकाल में सम्यग्ज्ञान प्राप्त करें। युवा अवस्था में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषाार्थों को यथाशक्ति अपनाये ंतो बुढ़ापा भी अर्धमृतक के समान व्यतीत नहीं होगा अन्यथा तो पूरे जीवन भर दुःख ही दुःख है।
देवगति के दुख
कभी अकामनिर्जरा की; तो हम भवनत्रिक में उत्पन्न हुए, वहां भी विष्य-चाहरूपी अग्नि में जलते रहे ओर भी अनेक कारणों से दुःखी रहे। कभी अगर विमानवासी भी हुए तो सम्यग्दर्शन के बिना दुःखी रहे। दूसरे देवों का वाहन बनाना पड़ा तब महान दुःख अर्थात चारों गतियों के अंदर सुख है ही नहीं, सुख तो अपने अंदर है अतः हमें चतुर्गतियों से बचना हैं।।
#arihantgitanjali
*🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*कर्म प्रकृति*
*【कर्म सिद्धांत – कर्म विज्ञान】*
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*18-04-22 【6️⃣7️⃣】*
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*आठ कर्मों की उत्तर प्रकृत्तियाँ*
*बंध के कारण*
*और फलभोग*
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*पाँचवा कर्म– आयुष्य कर्म*
( भाग – 7 )
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*आयुष्य कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ*
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. *( 3 ) मनुष्य आयुष्य–*
☝️जिस कर्म के उदय से मनुष्य गति में जन्म हो *अथवा* जिस कर्म के विपाक स्वरूप मनुष्य भव में जीवन बिताना पड़े, *मनुष्य आयुष्य कर्म है।*
☝️मनुष्यों के 303 प्रकार होते हैं। इन 303 प्रकारों में से किसी भी प्रकार से मनुष्य भव में उत्पन्न होना *मनुष्य आयुष्य कर्म का काम है।*
*🙏यह शुभ आयुष्य कर्म है।*
*मनुष्य आयुष्य बन्ध के कारण–*
➖➖➖➖➖➖➖➖
*( 1 ) प्रकृति भद्रता–*(सरल स्वभाव)
मन-वचन-काया की एकरूपता रखना सरलता है। ह्रदय में सरलता रखना *मनुष्य आयुष्य बंध का कारण है।* दिखावट या बनावट न करना इसी श्रेणी में आते हैं।
*( 2 ) विनीत स्वभाव–* बड़ों, गुरुजनों, गुणीजनों के प्रति अहोभाव रखना विनम्रता है।
>> नम्र स्वभाव रखना,
>> गुणों का गुणकीर्तन करना,
>> उनकी आशातना न करना,
>> आज्ञा का पालन करना,
>> उनकी सेवा-वैयावृत्य आदि करने वाला *विनीत स्वभावी* कहलाता है और वह मनुष्य आयुष्य का बंध करता है।
*( 3 ) दयाशीलता–*
>> दूसरों के दु:ख से दु:खी होना,
>> अनुकम्पा भाव रखना,
>> दु:खी-रोगी जीवों पर करुणा करना,
>> दूसरों के कष्टों को दूर करने का भाव मन में रखना *मनुष्य भव बंध का कारण है।*
*( 4 ) ईर्ष्या रहित होना–* दूसरों के सुखों को देखकर मन में उत्पन्न होने वाली जलन *ईर्ष्या भाव* है।
>> मन में अमत्सरता का भाव रखना,
>> अहंकार न करना,
>> किसी की मदद करके गुणगान न करना,
>> तुच्छ वृत्ति न रखना।
☝️ये सब ईर्ष्या भाव से रहित होने की निशानी है और *ईर्ष्या भाव रहितता मनुष्य भव बंध का कारण है।*
🙏आगामी पोस्ट में हम जानेंगे *देवायुष्य* और *देवायुष्य बन्ध के कारण* के बारे में ...
. *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*कर्म प्रकृति*
*【कर्म सिद्धांत – कर्म विज्ञान】*
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*14-04-22 【6️⃣3️⃣】*
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*आठ कर्मों की उत्तर प्रकृत्तियाँ*
*बंध के कारण*
*और फलभोग*
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*पाँचवा कर्म– आयुष्य कर्म*
( भाग – 3 )
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*आयुष्य कर्म बंध*
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*☝️ जीव का आगामी भव का आयुष्य बंध किस किस समय पर हो सकता है यह हमने पिछली पोस्ट में जाना। आयुष्य कर्म बंध एक बार होने पर पुनः परिवर्तित नहीं होता है। आयुष्य कर्म बंध के समय जिस भावना में या जिस प्रवृत्ति में हम होते हैं उसी के फलानुसार आगामी भव का आयुष्य बंध हो जाता है।*
*जीवन के हर पल को धर्ममय बनाएं*
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*☝️प्रायः किसी को धर्माचरण या तप-त्याग के लिए कहा जाता है तो यही उत्तर मिलता है कि धर्म और तप त्याग जीवन के अंतिम समय में करने के लिए होता है। यहाँ पर विचारणीय बात यह है कि किसी को अपने आयुष्य की जानकारी नहीं होती है। जितना आयुष्य हम मनुष्यगति का बंध करके इस भव में आए हैं उससे आगे एक पल भी नहीं निकलता है।*
*☝️हम हमारे बचपन को , युवावस्था को बिना तप-त्याग के और बिना धर्माचरण के बिता देते हैं। अगर उस समय में आगामी आयुष्य का बंध हो जाता है तो हमारी उत्तम गति होना सम्भव नहीं होता है।*
*🙏उच्च गति का बंध –* जब भी हमारे आगामी आयुष्य का बन्ध हो रहा है और हम यदि धर्माचरण में हैं और हमारे तप-त्याग आदि है निश्चय ही हमारी उत्तम गति का कर्म बंध हो सकता है। यह समय हमें जानकारी में नहीं होता है अतः हमारे से जितना सम्भव हो त्याग-प्रत्याख्यान और धर्म-ध्यान आदि सदैव करते रहना चाहिए। उच्च गति के आयुष्य बंध हेतु निम्न नियम रखे जा सकते हैं _
● हमने जैन कुल में जन्म लिया है यह हमारे पुण्य प्रताप से है। *हमें कम से कम रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए।*
● वनस्पति काय सेवन की सीमा करनी चाहिए। *जमीकंद*(साधारण वनस्पति) *का पूर्णतः त्याग कर देना चाहिए।*
*☝️कहा तो यहाँ तक जाता है कि जिसके रात्रिभोजन चौविहार त्याग है और जमीकंद का पूर्णतः त्याग है – उसका जन्म छठे आरे में नही होता है।*
● कम से कम नवकारसी तप प्रतिदिन करें।
● प्रतिदिन सामायिक, संवर अवश्य करें।
●महाव्रती नहीं बन सकें तो भी बारहव्रती अवश्य बनें।
*☝️इस प्रकार हम छोटे-छोटे नियमों को जीवन का हिस्सा बनाकर जब भी आयुष्य का बंध हो तो तिर्यंच अथवा नरकगति के बंध से बच सकते हैं।*
*☝️धर्म-ध्यान और त्याग तप हमें समझ आने से लेकर हमारे जीवन के अंतिम समय तक जीवन में करते रहना चाहिए। न जाने कब हमारे आयुष्य का बंध हो। हमें मनुष्य गति मिली है और जैन कुल मिला है तो अवश्य ही हमें अपने भव भ्रमण को सीमित करने का प्रयास करना चाहिए।*
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*निम्न गति का बन्ध –* जब हम धर्म-ध्यान और तप-त्याग से रहित जीवनयापन कर रहे होते हैं और हमारे आयुष्य का बंध होता है तो निश्चय ही हमारे निम्न गति (तिर्यंच या नरक) का बंध हो सकता है। एक बार नरकायुष्य का बंध हो जाने पर जीव त्याग तपस्या और धर्म-ध्यान नहीं कर पाता है।
*🙏भगवान् महावीर ने फरमाया है कि उनके शासनकाल में अनन्त जीव मोक्षगामी बनेंगे अर्थात् मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होंगे।*
*हमें चिंतन ये करना है कि उन अनंत जीवों में अपना नम्बर है या नहीं। विशेष कर उन व्यक्तियों को यह चिंतन अवश्य करना चाहिए जो शौक से कंदमूल खाते हैं और रात्रिभोजन करते हैं।*
( आज का विवरण मेरा चिंतन है )
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