कयवन्ना
कयवन्ना( कृतपुण्यक शेठ)और माया का अपूर्व चमत्कार
प्रथम प्रकरण
पूर्व देश में राजग्रही नगरी थी। जिसमें धनदत्त नामक
शेठ रहता था जिसके कोई पुत्र नहीं था। भाग्यवश प्रौढ़ावस्था में उसके एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम कयवन्ना रखा गया था। जिसके लक्षण ओर चेष्टा से यह पाया जाता था कि वह विवेक विद्या और नीति में निपूण होगा। प्रकृति का, यह सदा नियम है कि आत्मा जिस २ गृह (काया) में रहता है और जैसे २ कर्तव्य करता है उसी अनुसार पुनर्जन्म में वे ही अनुभव दूसरे गृह में प्रवेश करते समय साथ चले जाते हैं । इसलिये बहुत से मनुष्य जन्म से दुष्ठता की तरफ झुकते जाते हैं। और बहुत से भक्ति नीति-और देश सेवा की तरफ अपना लक्ष खिंचते रहते हैं ।
इसी नियमानुसार कयवन्ना बालवय से ही नीति ओर वैराग्य की तरफ झुका हुआ था और वह मात्र अभ्यास, शुभ भावना, और वैराग्य में ही आनन्द मानता था । धनवानों का पुत्र होने पर भी कनक कामिनी की, ओर का प्रेम तनिक मात्र भी न था। उसका मन यहां तक भद्रिक था कि वह अपनी देवांगना समान स्त्री की तरफ तिरछी नजर से भी नहीं देखता था और न उसकी स्त्री के हाव भाव और श्रृंगार भी उसके मन को आकर्षित कर सके। जब स्त्री ने देखा कि कयवन्ना उसकी परवा भी नहीं करता है । जयश्री को विकार और कामदेव सताने लगे।
यहां तक कि मन्मथका मंथन सहन न कर सकी और वेबस होकर अन्तमें अपनी सास को जो न कहने योग्य बात थी उसको भी विवेक छोडकर कहने को आरूढ हुई।
सास नियमानुसार बहू की माता के समान होती है। क्योंकि जन्मदाता माता को तो पति के सुख के लिये छोडकर सास के आधार'पर रहती है । तो जो स्त्री एसी बहू को अपनी पुत्री के समान न गिने तो उसके जैसी दुष्ठा और कौन होगी ! क्योंकि उसने (बहूने ) सास के पुत्र के सुख के लिये अपना देश नगर गृह और कुटुम्ब छोडकर प्रदेश में आ उनके चरणों में रहती है।
आजकल के गृहस्थाश्रम को देखने से मालूम होता है कि जिस घर में एक वक्त भोजन को भी न हो तो भी सास अपने लडके की स्त्री को बहु या बेटी न समझ कर एक सेवकिन से बदतर समझती है मानो यह बनारकी खरीदी हुई भानी है। वह उसको ताने लगाने में प्रत्येक."संबोधन में असभ्य शब्दो की बौछार करने में, चाकरानी से भी विशेष शक्ति के उपरान्त मजदूरी लेने में और तरह २ के जूलम गुजारने में कुछ भी बाकी नहीं छोडती है।
धिक्कार ! ऐसी सास को कि जिन दृष्टाओं के आधीन एक सच्चे, सरल, और विनयवंत बालाओं (नव वधूओं) का जीवन सौंपा जाता है कि जिससे उनका जीवन भ्रष्ट होकर वे अपना जन्म निरर्थक बिताती है। इतना ही नहीं बल्कि वे अपने पति वा पूत्र की सेवा सश्रुषा भी अच्छी तरह नहीं करने पाती है बल्कि जिस समय वे (वधूएं) जब सास बनती है तो वे भी वही आदतें सीख जाती है और अपनी नववधूओ पर दुगना जूलम गुजारती है।
पाठकगण ! कयवन्ना की माता जयश्री की सास ऐसी वैसी स्त्री नहीं थी परन्तु वह अपने पुत्र वधू के साथ पुत्र वात्सल्यता रखती थी बल्कि यहां तक उसकी हिदायत थी कि कोई भी छोटे से छोटा दुःख क्यों न हो अवश्य अपने सास से कह दे और निशंक वह बहुत प्रेम के साथ दूर करने का प्रयत्न किया करती थी।
पाठकों को भलिभांति विदित ही है कि जब कन्या बाल्यावस्था से यौवनावस्था में प्रवेश होती है और सम्पूर्ण अवयवों की वृद्धि होकर कामदेव सताता है उस समय यदि उसकी इच्छा पूर्ण न हो तो उसकी क्या हालत होती है उसका स्वयं विचार कर लें क्योंकि यह बात प्रत्येक गृहस्थी को अनुभव सिद्ध होती है । यद्यपि जयश्री को पुत्र वधू होने के पश्चात और कोई भी दुःख मन में हो तो मात्र इसी बात का था कि उसका पति उससे प्रेम नहीं रखता था।
एक दिन जब जयश्री का हृदय भर आया तो उसने अपना
गुप्त दुःख लज्जा को एक किनारे रखकर अपनी सास को कहने का साहस किया और जिसको उसकी सासने सुनकर अपने मन में खेद कर कहा “ बेटी तेरे इस दुःख को मैं अच्छी तरह जानती हूं परन्तु उसका उपाय क्या हो सकता है ? क्योंकि मोर के सुन्दर पर को कोई चित्रकार क्या तैयार ' करता है? क्या हंश को पद्मिनी की चाल चलना कोई सिखाता है ? क्या चोर को चोरी, कराना कोई सिखाता है ? नहीं यह तो स्वाभाविक ही होता है इसका कोई उपाय नहीं हैं।
जब जयश्री ने उपरोक्त उत्तर सुना तो बहुत घबडाई और
विचार करने लगी कि क्या करना चाहिये ! अन्त में उसने
हिम्मत रखकर अपनी सास से कहा कि ये सब बाते व्यर्थ है। पराई पीडा का दुःख किस को मालूम हो सकता है । यदि स्वयं अपनी पुत्री के उपर ऐसा संकट आ पडता तो हजारो इलाज करने को तत्पर होती परन्तु अन्य प्रदेश से लाई हुई पुत्रवधू की दया कौन देखे ? नहीं तो आप जानती है कि संसार में क्या असाध्य है ? लोहे जैसी कठीन पदार्थ का पानी कर मन माफिक वस्तूएं तैयार की जाती है तो कोमल मन वाले मनुष्य को किसी तरफ मोडने या घूमाने में क्या अशक्य है ?
...इस पर सास को मालूम हुआ कि पुत्र वधू को बहूत दुःख है और जो कुछ कहा है वह सत्य है । अब इसका क्या उपाय करना चाहिये इस पर विचार करने लगी । साथ ही पुत्र वधू को यह कह कर शांत किया कि बैटी ! गभराओ मत मैं तेरे श्वसुरसे मिल सम्मति मिलाकर तेरे दुःखको दूर करने का कुछ न कुछ इलाज़ जरूर करूँगी।
जयश्री की सास वहां से शीघ्रता पूर्वक उठकर अपने पति के पास गई और पुत्र वधूके दुःख का वर्णन कर निवेदन किया कि इसका कुछ न कुछ उपाय जरूर करना
चाहिये । उस पर धनदत्त ने बहुत विचार किया परन्तु उसके ध्यान में कुछ भी नहीं आया। अंतमें चिरकाल के चितवन के पश्चात
वसुमतिने एक उपाय सोचा और अपने पतिकी ओर ध्यान देकर कहने लगी । प्राणनाथ ! पुत्र, वधू का यह वाक्य सत्य है कि संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है । मेरे ख्याल में तो पूत्र को अयाश और रसिक बनाने को किसी इश्की युवा की संगत करा देना उचित है और उसको इसके वास्ते जितना खरचा चाहिये दिया जाय फिर तो थोड़े ही दिनोंमें कयवन्ना की अयाशी देखे किस कदर बढ़ जाती है ? यद्यपि यह राय धनदत्त को अच्छी न लगी परन्तु स्त्री हट के आगे उसका कुछ भी, न चला। आखिर यही उपाय दम्पती की कमिटी में मंजूर हुआ और साथ ही शीघ्रतया कृत्य में लाया गया। अर्थात एक इश्की युवा को ढूंढ़
निकाला और जिसमें कोई परिश्रम का काम न पड़ा क्योंकि ऐसे रंगी, मंगेड़ी, शराबी और इश्की मनुष्यों की संगत सहज में ही हो जाती है परन्तु अच्छी संगत का मिलना कठिन है।
जब कयवन्ना के संगत में इश्कीलाला का साथ हो गया तो
प्रथम साहित्य की बातें शरू की और ऋतुओ के वर्णन की तरफ लक्ष खिंचा और वह भी महाकवि कालीदास* जैसे प्रख्यात कवि के ऋतु वर्णन के विषय के मीठे स्वाद का फिर क्या पूछना ? इतना ही नहीं परन्तु इश्कीलाला ने वर्षाऋतु में बाग बगीचों की हरियाली के बीच में मंगला मुखियों के द्वारा ऋतु, वर्णन संगित में तबले सुरंगी की ठनक और तान के साथ सुनाने लगा और जिसका
असर उस पर इतना हुआ कि उसको ऐसे गायन के सुने बिना चैन नहीं पडता था और साथ ही में मंगला मुखी के हावभाव इशारे और तिरछी नजर के तीर ने कयवन्ना के रोम रोम में ऐसा असर किया कि अंत में उस योगी और महान शांत स्वभाववाले को काम देवने अपने पूर्ण अधिकार में कर लिया । अब तो योगी कयवन्ना भोगी हो गया । प्रेम की बातों का बोछार शरू हुआ।
वैश्या की संगत से उसका प्रेम स्त्री के साथ इतना तो बढ गया कि स्त्री बिना एक पल भर भी पृथक नही रह सकता । उस योगी कयवन्ना पर मदोनमत्त ने इतना तो अधिकार जमा दिया कि उसको मदिरा देवी का भी दास बनना पडा क्योंकि वैश्याओ के प्रेमियो को अकसर मदिरा देवी की सोहबत भी रखनी पडती है कि जिससे सफाई होने में कुछ बाकी न रहे इस प्रकार अब कयवन्ना पूरा आशिक हो गया है।
पाठकगण ! आप अच्छी तरह जानते हैं कि संगत भली या बूरी अपनी असर किये बिना नहीं रहती हैं देखीये छाछ के थोड़े से बिन्दू अथवा निमक की छोटी सी कंकरी की संगत से अमृत जैसी दूधकी क्या हालत हो जाती हैं ! सुगंधीयों में महान मस्त किस्तूरी के ढेर में जरासालेहसन की संगत से सारा ढेर दुर्गधमय होजाता है।
पाठकगण 1 कहां मैनावती गोपीचंद रानाकी माता और
कहां वसुमति कयवन्ना की माता इन दोनो का मुकाबला करते हैं तो एक दूसरे से विरुद्ध पाई जाती है। क्योंकि मैनावती ने अपने पुत्र को जो नाना प्रकार के संसारिक भोगों में लीन हो रहा था उसको उपदेश द्वारा चैतन्य किया कि एक दिन तू कालका ग्रास हो जायगा साथ ही इस बात का शोक करती हुई आसु बहाकर
अपने पुत्र को वैराग्यवंत किया याने महान् भोगी को महान् योगी में पलट दिया। माता की शिक्षा का कितना असर अपनी संतान पर होता है उसका साक्षात् यह दृष्टांत है। शिक्षित माता के संस्कार से राजा गोपीचंद अपने मनुष्य देह का सार्थक और आत्मा का कल्याण
कर सका । जब कि वसुमति ने अपने पुत्र कयवन्ना को जो कि वैराग्यवंत था उसको भोगी बनाकर संसार का भ्रमण कराया। ऐसा क्यों हुआ इस बात का निर्णय सिवाय समर्थ ज्ञानी के अन्य कोई भी नहीं बता सकता । हम आप सब तर्क करते हैं क्योंकि माया के गोद में खेलते हैं और उसकी मायामय जीवन में मनुष्य देह का कुछ भी सार्थक नहीं कर सकते हैं।
क्रमशः.....
श्री कयवन्ना शेठ (कृतपुण्यक शेठ)
द्वितिय-प्रकरण-
संसार में विद्वानों और उपदेशको ने साहित्य और प्रेम के
नाम से दुनिया के पथको को सिधे रास्ते जाते हुए उल्टे
रास्ते जाने का मार्ग बताया है और उनके दिमाग में खलबली उत्पन्न करने वाले गद्य पद्य बनाने की तीव्र ईच्छा ने असभ्य जैसी गोष्ठी का पाठ रखने में और शृंगारिक कविता बनाने में मालूम नहीं क्या लाभ प्राप्त करेगे । संसार में प्रेम बिना घडी भर भी नहीं चल सकता क्योंकि प्रेम ही जगत का सिद्धान्त है। एसी युक्तिओं द्वारा संसारी- जीवों के मन में ठसा कर प्रेम के नाम से विषय विकार में ज़बरन प्रवेश करा देने वाले उपदेशों ने गिरे हुए संसार पर चाबुकों का प्रहार किया हैं।
कयवन्ना को साहित्य के शोक से प्रेम में और प्रेम से इश्क में-और इश्क से व्यभिचार में और व्यभिचार से अनाचार में लगाने में उसके अयाशी मित्र फलिभूत हुए। और अयाशी मित्रों ने अपना जेब लबालब किया साथ ही अपनी इन्द्रिओं को भी खूब पुष्ट किया।
अब कयवन्ना एक वैश्या के घर दिन रात रहने लगा। वैश्या का नाम देवदत्ता था । यद्यपि वह नाचने का व्यवसाय करती थी
"परन्तु सुशील और सुद्धाचारिणी थी और साथ में अपने शियल को आंच न आने दी थी । एसे गुण वैश्याओं में होना असम्भव सा है परन्तु कयवन्ना के भाग्य में एसी वैश्या से संगत हुई । एसी सुस्संकारवाळी नवयुवति वेश्या के साथ कयवन्ना अमन चेन से दिन व्यतित करने लगा। जब कमी खरचे की आवश्यकता पड़ती थी तो वह अपने घर से मंगवाता था । वसुमति बड़े हर्ष के साथ द्रव्य भेजा करती थी। इस धन से कयवन्ना और देवदत्ता खाने पिने
गान तान और खेल कूद में चकचूर रहते थे । धन के द्वारा प्रतिदिन नई २ क्रिडाएं करते थे । इस प्रकार आनन्द युक्त क्रिड़ाओं में लिप्त कयवन्ना को मालूम नहीं रहता था कि किधर सुर्य उदय होता है और कहां अस्त होता है ?
एक दिन कयवन्ना और देवदत्ता दोनों शरद पूर्णिमा की
-रात्रि को अटारी में बैठे थे। प्रकाशमय चन्द्र के साथ देवदत्ता का मुख चन्द्र की बराबरी करता हुआ देख कयवन्ना मुग्ध हो रहा था।
इतने में नीचे से नोकर ने आवाज दी । मालकन का हुकम होते ही एक पुरुष को कयवन्ना के आगे लाया गया ।
पाठकगण ! ये पुरुष कोई नहीं लेकिन वसुमति का भेजा हुआ नोकर था। नोकर सुविनय प्रणाम कर वसुमति का संदेशा कहने लगाः-
नोकर-सेठजी ! माताजी ने आपको आशिर्वाद दिया है।
और कहा है कि बारा 12-12 साल हम को छोड़े हुए हो गए 12 साल से भी तुम घरकी ओर देखते ही नहीं क्या तुम्हारे जैसे लायक और योग्य पुत्र को एसा करना युक्त है। अब तो कृपाकर घर पर आओ। हम तुम्हारे माता पिता वृद्ध हुए हैं हमारे शरीर का अब कुछ भरोसा नहीं और अपने घर दुकान का धंधा संभालनेवाळा तुम्हारे सिवाए दूसरा कोई नहीं है इस बात को क्या तुम नही जानते ?
कयवन्ना-अरे मूर्ख तू क्या बकता है आश्चर्य में लीन हुआ
कयवन्ना कहने लगा । क्या मैं इस घर में 12 साल से रहता हूँ ! नहीं। नहीं। मैं शायद ही यहां पर थोडी रात रहा हूंगा।
मेरी मातुश्री बहुत प्रेमवाली होने से पुत्र के वियोग को सहन न कर सकने से 12 रात्रि को 12 साल कहती होगी।
नोकर को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और निवेदन किया
"सेठजी माता के प्रेम ने 12 दिन के 12 साल बनाए यह बात एसी नहीं है । परन्तु आपको भ्रम में डालने वाली माया ने 12 साल के 12 दिन किए हैं एसा ही मालूम होता है। रात दिन रंग रागमें मश्त रहने से अगर आप 12 साल को 12 मिनट माने तो भी आश्चर्य नही है"।
कयवन्ना-अगर कभी एसा भी हो तो भी तुझको
इसके साथ क्या गरज है । जाओ! माताजी और पिताजी कोमेरी वंदना कहना और प्रार्थना करना कि थोडे दिनों बाद मैं आपके दर्शन करूंगा।"
नोकर ने कयवन्ना को प्रणाम करके अपना रास्ता मापा और धनदत्त सेठ के घर आकर सब हाल कहा जिसको सुनकर सेठनी उदास हुए और वसुमति को कहने लगे। क्यों देख ? मैं कहता था कि इश्कीलालाओं की संगत का फल बुरा होगा। यह कदापि भी ‘अच्छा हो नहीं सकता I बारह साल हो गये पुत्र घर आता ही नहीं । कुल की लज्जा को छोडकर बेशरमों की तरह दिन रात
'वेश्या के घर में ही रहता है । ये उपाय कराने में तूने और बहू ने क्या फल निकाला ? अब इस दर्द की औषधी ढूंढ निकालो।
सेठ सेठाणी और बहू तीनों ने बहुत विचार किया मगर
बिगड़ी हुई बात को सुधारने का उपाय एक को भी न सूझा । सेठ सेठाणी इसी चिंता रूपी आग में दिन रात सुकने लगे यहां तक कि इसी 'चिन्ता ही चिंता में थोड़े दिनों बाद इस मायावी आळी दूनिया से अपना डेरा डंड़ा उठा लिया यानि काल के ग्रास हुए । अब मात्र
जयश्री अकेली ही रह गई । घरबार बरबाद होने लगा कुछ धन नोकर चाकर चोरी कर ले गये । कुछ सगे सम्बन्धीओं ने हजम कर लिया । कुछ पति की आज्ञानुसार पति को भेजा इस प्रकार सब
उड़ गया । जयश्री के पास अब कुछ भी न रहा कि वह अपना जीवन चला सके । अंत में सूत कातने का धंधा हाथ में लिया और इससे अपना गुजारा करने लगी । जयश्री का किया हुआ उसी को भुगतना पड़ा जयश्री के साथ वही बात बनी कि “ लेने गई पूत खो आई खसम " जब कि जयश्री के भाग्यमें दुःख ही है तो
सुख कहां से मिले । हरेक प्राणी सुख की इच्छा करता है परन्तु सुख और वैभव तो पूर्व कृत शुभ कर्म के प्रभाव से ही मिलता है। जिसने पूर्व जन्म में कुछ सुकृत नहीं किया वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता । बस निश्चय यही बात सिद्ध है कि सुख दुःख के मिलने में, धनवान और कंगाल होने में बुद्धिमान और मुर्खाचार्य होने मे कर्म की प्रधानता है।
क्रमशः........
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