नव पुण्य
यह नौ पुण्य क्रमशः पुण्यानुबंधी पुण्य के कारण है और आत्मा के विकास की प्रारंभिक अवस्था है। नवपद यह आत्मा के विकास का शिखर है, उस शिखर पर पहुंचने के लिए नवपद के ही अंशरूप इन नौ पुण्यो में प्रव्रत्ति करनी चाहिए, ऐसी परमात्मा की आज्ञा है।
इन सभी पुण्य का पात्र में सदुपयोग करने से किस प्रकार 18 पापों की शुद्धि होती है, उसका संक्षेप से सापेक्ष रूप से इस प्रकार विचार कर सकते हैं।
(1) अन्न पुण्य:-
प्राणों को धारण करने में अन्न की अत्यंत जरूरत है। अन्न के बिना लंबा जीवन नहीं जिया जा सकता है। इतना ही नहीं परंतु अन्न का दान करने से जीवनदान दिया ऐसा माना जाता है। अन्न यह दुनिया में प्राण रूप है।
1) अन्न देने के द्वारा अन्य जीवो के प्राण धारण में सहायक बनने से हिंसा-पाप की शुद्धि होती है, हिंसाजन्य पाप का नाश होता है।
2) अन्न द्वारा दूसरों को प्राण देने वाला व्यक्ति मृषावाद करते हुए दूसरे जीव को दु:खी नहीं कर सकता, दूसरे जीवो के प्रति दया की सच्ची लगन प्रकट होने पर किसी जीव को दिल से ठेस पहुंचे ऐसे कठोर या असत्य वचन का प्रयोग करने का भी अपने आप बंद हो जाता है, इस प्रकार अन्न पुण्य से प्रथम के दो पाप स्थानको की शुद्धि होती है और नए पापों को बांधने की वृत्ति रुक जाती है।
(2) जल पुण्य :-
जीवन धारण करने में जल की आवश्यकता अन्न से भी अधिक है। तृषा तुर व्यक्ति को जल देने से उसकी बाह्यतृषा शांत होती है, इससे उनका दिल संतोष के मीठे रस का अनुभव करता है, साथ ही जल-पुण्य से बाह्यतृषा दूर करनेवालों की अंतर तृषा भी शांत हो जाती है। दूसरे की मालिकी की अनधिकार की या नहीं दी गई किसी वस्तु को ले लेने की या दूसरों की स्त्रियों को विकार भरी दृष्टि से देखने की मलिन वासना शांत होते ही संतोष और शील में उपादेयता की और अदत्तग्रहण एवं मैथुन मे हेयता की बुद्धि उत्पन्न होती है, इस प्रकार जल पुण्य से अदत्त और मैथुन इन दोनों पापों की शुद्धि और उस पापवृत्ति का क्षय होता है।
(3) वस्त्र पुण्य :-
वस्त्र आदि शील-संयम और शरीर रक्षण के साधन है। जीव को उसका दान करने से वस्त्र आदि की मूर्च्छा-ममता दूर हो जाती है, अपनी वस्तु दूसरों को देने से परिग्रह का पाप धुल जाता है और परीग्रह के कारण उस वस्तु के रक्षण आदि के लिए जो रौद्रध्यान अर्थात क्रोध आदि कषाय होते हैं वे भी रुक जाते हैं यानी की वस्त्र पुण्य से परिग्रह और क्रोध इन दोनों की शुद्धि और यह पापो की शुद्धि और यह पाप करने की वृत्ति नष्ट हो जाती है।
(4) आसन पुण्य :-
दूसरे व्यक्ति को बैठने के लिए आसन देने से सामने वाले व्यक्ति का बहुमान होता है, उससे हमारे में नम्रता आती है। मान चला जाता है। मान चले जाने से सरलता उत्पन्न होती है जिससे माया भी चली जाती है।
व्यक्ति अपने स्वाभिमान को टिकाने के लिए भी अनेक प्रकार के कपट करता है परंतु नम्रता आ-जाने से मान स्वाभिमान की वृत्ति नष्ट हो जाती है और माया/कपट करने की वृत्ति भी मंद हो जाती है, इस तरह आसन पुण्य से मान और माया स्वरूप दो पापस्थानको की शुद्धि और पाप सेवन की वृत्ति का क्षय होता है।
(5) शयन पुण्य :-
अन्य व्यक्ति को सोने के लिए शयन या या मकान देने से लोभवृत्ति घटती है। इकट्ठा करना और मेरा दूसरों को न देना, इस वृत्ति में लोभ की तीव्रता के साथ राग की प्रबलता भी होती है। परंतु शयन पुण्य से लोभवृत्ति और राग इन दोनों का प्रमाण अल्प होता है, इसीलिए शयन पुण्य से लोभ और राग इन पापस्थानको की शुद्धि और उस पाप सेवन की वृत्ति का क्षय होता है।
(6) मन पुण्य:-
मन से सभी के आत्महित का विचार करने से…
9 प्रकार के पुण्य से 9 प्रकार की वस्तुओं की प्राप्ति होती है। एक भी वस्तु ना मिले तो जीवन दुष्कर बन जाता है। उनमें वस्तुओं में अन्न, जल, वस्त्र आदि का समावेश होता है।
दिये बिना मिलता नहीं, बोए बिना उगता नहीं, ऐसा नियम है।
जो मिला है, उसका कोई मूल्य न गिनकर दुरुपयोग करना और जो नहीं मिला उसका व्यर्थ इंतजार करना भी अज्ञान है। परंतु विचार करे की मन और वचन यदि ना मिले होते तो कैसी दुर्दशा होती? अनमोल पदार्थों का यथास्थान इस्तेमाल नहीं करेंगे तो पुनः उनका अभाव ही प्राप्त होगा।
वस्तु के भोग में 9 पुण्य को भूल जाते हैं, तो फिर से विकास रुक जाता है। पुण्य की उत्पत्ति नवपद की आराधना बिना नहीं हो सकती है।
नवपद में प्रथम श्री अरिहंत परमात्मा है।
(1) श्री अरिहंत परमात्मा यानी विश्वोपकारी, विश्ववत्सल, परार्थ व्यसनी परमात्मा, पुण्योत्पादक, गुण के सागर, कृपासिंधु ऐसे असीम उपकारी श्री अरिहंत देव को भूल जाएंगे, भाव से भक्ति नहीं करेंगे तो भववन में भटकना पड़ेगा।
(2) दूसरे पद पर श्री सिद्ध परमात्मा संपूर्ण गुण और पूर्ण सुख के स्वामी है। अव्याबाध, शाश्वत सुख के मालिक हैं, उनके परम विशुद्ध आत्मा के एक-एक प्रदेश में अनंत सुख रहा है।
(3) नवपद में तीसरे पद पर रहे आचार्य ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार तपाचार तथा वीर्यचार के भंडार हैं। इन 5 आचारवाले आचार्य के भक्ति करने से केवलज्ञान, सम्यक्तव, चारित्र, वीर्य आदि प्राप्त होता है।
(4) चतुर्थ पर विराजमान उपाध्याय भगवंत, विनय गुण के भंडार हैं।
(5) पाँचवे पद पर रहे साधु भगवंत सहाय गुणों के भंडार है। जितने अंश में हम दूसरों को सहाय करते हैं’ उतने अंश में साधु बनते हैं।
(6) छटा दर्शन पद है। दर्शन यानी परजीव-प्रीति, जीवतत्त्व पर गहरी लगन, जीवंत सद्भाव। हमें सर्वाधिक रूचि स्व पर है। हमें जैसी रुचि अपने प्रति है वैसी अन्य के प्रति नहीं हो तो उतने अंश में मिथ्यात्व दर्शन का अंधापन है।
(7) सातवा पद सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान यानी सद्विचार का भं
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