मुक्तक

मुक्तक 
  हर नज़र साधू नहीं ,हर बसर गाँधी नहीं 
 सूत हर रेशम नहीं, वस्त्र हर खादी नहीं 
 नित की कसौटी पर मत कसो इंसान को
 आदमी -है आदमी सोना नहीं चांदी नहीं 


एक शाम मैं घुमने निकला ,दिल में बड़े अरमान थे 
एक तरफ थी झाड़ियाँ ,एक तरफ शमशान थे 
एक हड्डी जो मेरे पांव को छू गई उसके यहीं बयान थे
ए मुसाफिर !जरा संभल के चल हम भी कभी इंसान थे 


मुरझ -मुरझ के गिर जाने को हर कुसुम खिलता  है 
कितने ही दीप जला दो पर  दीप ना दिन को जलता  है
मन चाही हर बात मिले  ऐसी चाह निरर्थक
कितने ही हो रंगीन जिन्दगी ,पर बेरंग कफ़न मिलता



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