108 पार्श्व नाथ
3:1:21
1श्री शंखेश्र्वर पारश्र्वनाथ परमात्मा(गुजरात)
1,श्री शंखेश्र्वर पार्श्वनाथजी परमात्मा
भारतभर में विद्यमान जिन-प्रतिमाओं में प्राय: सबसे अधिक प्राचीन श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है, जो करोड़ो देवताओं और मनुष्यों के द्वारा पूजी गयी है| जिसके दर्शन-वंदन-पूजन और भक्ति और हजारो-लाखो आत्माओं ने सम्यगदर्शन को प्राप्त किया है-प्राप्त सम्यगदर्शन को निर्मल बनाया है,
शंखेश्वर गाँव में सात फनों से अलंकृत श्वेतवर्णीय अत्यंत ही मनोहर यह प्रतिमाजी ७१” ऊँची है| दर्शक के मन को प्रसन्नता से भर देनेवाली है|
अनेक पूर्वाचार्य महर्षियों ने अपने ग्रंथो के मंगलाचरण के रूप में श्री शंखेश्वर पार्श्वप्रभु को याद किया है|
अजोड महिमावंत इस प्रतिमा का इतिहास भी रोमांचित कर देनेवाले है|
जंबुद्वीप का यही भरत क्षेत्र !
गत उत्सर्पिणी काल में हुए नौवे तीर्थंकर परमात्मा दामोदर प्रभु का शासन था|
एक बार अष्ट महा प्रातिहार्य और चौतीस अतिशयो से युक्त दामोदर परमात्मा पृथ्वीतल को पावन करते हुए एक नगर में पधारे|
प्रभु के आगमन के साथ ही चारो निकाय के असंख्य देवताओं का आगमन हुआ…रत्न-सुवर्ण और रत्नमय गढ़ से युक्त समवसरण की रचना हुई| प्रभु की देशना सुनने के लिए हजारो नर-नारी और पशु-पक्षी भी समवसरण में पधारे|
प्रभु ने जगत के जीवों के उद्धार के लिए धर्म देशना दी| उस देशना को सुनकर हजारों आत्माओं में सम्यगज्ञान का प्रकाश पैदा हुआ…मिथ्यातत्व का अंधकार दूर हुआ|
उसी समय मानव-पर्षदा में रहे अषाढ़ी श्रावकजी ने प्रभु को पूछा, “मुझे यह संसार अत्यंत ही भयंकर लग रहा है| हे प्रभो| मेरी आत्मा इस भव बंधन से कब मुक्त बनेगी ?”
अषाढ़ी श्रावकजी के इस प्रश्न को सुनकर दामोदर जी परमात्मा ने कहा ” हे भाग्यशाली ! आगामी
चौबीसी में 23 वे पार्शवनाथ प्रभु के गणधर बनकर उसी भव में तुम मोक्ष में जाओगे |”
प्रभु के मुख से अपने भावी मोक्ष को जानकार असाढ़ी श्रावकजी का मन प्रसन्नता से भर गया| उनके अंतर्मन में “पार्श्व प्रभु का नाम गूंजने लगा| उन्होंने उसी दिन से पार्श्व प्रभु के नाम के स्मरण द्वारा प्रभु की नामकी भक्ति चालु की…उसके बाद उन्होंने पार्श्व प्रभुजी की प्रतिमा बनवाई और वह उसकी नियमित पूजा-भक्ति करने लगे|
उन्होंने जीवन पर्यंत पार्श्वप्रभुजी की खूब भक्ति की| आसाढ़ी श्रावक जी मरकर सौधर्म देवलोक में पैदा हुए| और अवधिज्ञान द्वारा पूर्व भव में निर्मित पार्श्वप्रभुजी की प्रतिमा को देखा| वह देव उस प्रतिमा को देवलोक में ले गया| उस देवलोक में भी असंख्य वर्षो तक उस प्रतिमा की खूब पूजा भक्ति व् अर्चना की|
सौधर्म इंद्रने भी दीर्घकाल तक उसकी पूजा की … फिर सौधर्म इंद्र ने वह प्रतिमा ज्योतिष देवलोक के सूर्यदेव को प्रदान की| उसने भी दीर्घकाल तक उसकी पूजा भक्ति की| उसके बाद चन्द्र ने विमान में, फिर सौधर्म ईशान व प्राणात देवलोक में दीर्घकाल तक पूजी गई| उसके बाद लवण समुद्र के अधिष्ठायक वरुणदेव जी नागकुमार तथा भवनपति देवों ने पूजा भक्ति की|
एक बार , सेनपल्ली गाँव के पास कृष्ण वासुदेव और जरासंघ का भयंकर युद्ध हुआ| जरासंघ के पक्ष में अन्य सभी राजा थे, जब की कृष्णजी के पक्ष में सिर्फ५६ कोटि यादव थे|
इस युद्ध में कृष्णजी सैन्य के पराक्रम को देख जरासंघ ने कृष्णजी के सैन्य पर जरा विद्या का प्रयोग किया| उस विद्या के प्रयोग से कृष्ण का सैन्य दल व्याधि व जरावस्था से पीड़ित होकर मुर्छित सा हो गया|
मात्र कृष्ण जी बलदेवजी व नेमिकुमारजी पर इस विद्या का प्रभाव नहीं पड़ा|
अपने सैन्य की इस दुर्दशा को देखकर निराश हुए कृष्णजी ने नेमिकुमार जीको जरा विधा की युक्ति का उपाय पुछा|
नेमिकुमारजी ने कहा “नागराज धरणेन्द्र जी के पास पार्श्व प्रभु की प्रतिमा के नह्वनजल से तुम्हारे सैन्य की मूर्च्छा दूर हो जाएगी |”
श्री कृष्णजी ने अट्टम तप किया| सैन्य के रक्षण की जवाबदारी नेमीकुमारजी ने ली|
अट्टम के प्रभाव से धरणेन्द्र जी ने पार्श्वप्रभु की प्रतिमा कृष्ण को प्रदान की| श्री कृष्ण खुश हो गए| पार्श्वप्रभु के नह्वनजल के छटकाव से कृष्ण का सैन्य पुन: जागृत हो गई| जरासंघ और कृष्ण के बीच पुन: युद्ध हुआ| उस युद्ध में कृष्ण की जय हुई|
युद्ध में विजय की प्राप्ति के प्रतीक रूपमें कृष्ण ने शंख बजाया| वहां पर शंखपुर नगर बसाया गया| उस गाँव में प्रभुजी का भव्य जिनालय तैयार कर उसमे प्रभुजी को बिराजमान किया गया|
उस गाँव के नाम से वे प्रभुजी शंखेश्वर पार्श्वनाथ के नाम से प्रख्यात हुए| लगभग ८६,५०० वर्ष से यह प्रतिमा यहाँ पूजी जा रही है|
इस तरह शंखेश्वर तीर्थ की महिमा अपरंपार है।आज कल हम सब शंखेश्वर जाते है पर इसके बाद के रोचक इतिहास के बारे में बहुत कम लोग जानते है......
*क्या आप जानते की शंखेश्वर दादा के दर्शन करने का भी मुल्य देना पड़ता था....?*
सन् 1750 साल की बात है.....
उस काल में शंखेश्वर का जिनालय अभी जैसा विशाल नही था। मुग़ल बादशाओंं द्वारा वो क्षतिग्रस्त था। दादा पार्श्वनाथ की प्रतिमा वहा के ठाकुर के कब्जे में थी......
बात है 1750 सन् की....
खेड़ा के संघ में शंखेश्वर यात्रा का प्रस्ताव उदयरत्नजी वाचक ने रखा।
संघ ने उनकी बात मानकर हर्ष उल्हास से वाजते गाजते उदयरत्नजी की निश्रा में संघ प्रयाण किया।
संघ धुम धाम से शंखेश्वर पहुंचा.....
उदयरत्नजी दादा के दर्शन हेतु निकल पड़े तो लोगो ने कहा आप पहले ठाकुर से दर्शन का कर *(TAX)* अदा कर दो......
बात कुछ समझे नही उदयरत्नजी...
लोगोने बताया की दादा की प्रतिमा ठाकुर के कब्जे में है और हर भक्त को दर्शन का कर ठाकुर को देना होता है।
*यह सुनते ही उदयरत्नजी के पैरो तले जमीन फट गयी.....*
प्रतिमा अपनी , और हम ही दर्शन हेतु कर दे........?
बहुत दुखी और व्याकुल हुए वाचक। अब तो दर्शन बिना कोई मुल्य दिये बिना ही करेंगे यह निश्चय किया उदयरत्नजी ने।
वो निकल पड़े ठाकुर के पास.....
बोले प्रतिमा जैनों की हम *कर* नही देंगे। ठाकुर जैसा जालिम थोड़ी मानने वाला था। दोनों में खुप बहस हुई।
उदयरत्नजी बोले तू क्या हमे मना करेगा? दादा को हम बुलायेंगे तो दादा स्वयंम हमे दर्शन देगा....
*उदयरत्नजी ने पूछा अगर ऐसा हुआ तो क्या तुम कर लेना बंद करोगे ठाकुर?*
ठाकुर ने बात मान ली.....
बंद दरवाजे के पास पुरे संघ के साथ उदयरत्नजी ने गाना शुरू किया....
पूरी लगन से..... बिलकुल परमात्मा को अंतर्मन से पुकारते हुए....
*पास शंखेश्वरा, सार कर सेवाका*
*देव! कां एवड़ी वार लागे*
*कोडी कर जोड़ी, दरबार आगे खड़ा*
*ठाकुरा चाकुरा मान मागे*
उदयरत्नजी की मधुर और बुलंद आवाज में जैसे जैसे स्तवन चलता रहा वैसे वैसे एक परिवर्तन वातावरण में होने लगा.......
*साक्षात नागराज धरणेँद्र और पदमावती प्रसन्न हुए।*
बंद दरवाजे अपने आप खुलने लगे...
लोगो ने जयजयकार शुरू की....
*तब से ठाकुर ने प्रतिमा दर्शन का कर लेना बंद कर दिया। आज इस जगह पार्श्वनाथ दादा का विशाल जिनालय है। दादा की यह प्रतिमा महा चमत्कारी है और सच्चे लगन से अंतर्मन से दादा को बुला के देखो....दादा जरूर सुनते है।*
*हमें आज शंखेश्वर दादा की प्रतिमा जो दर्शन को प्राप्त है उसका पुरा श्रेय उदयरत्नजी को जाता है। वरना पता नही मुरत भारत देश में होती भी या नही। आभारी हम है उदयरत्नजी जैसी पुण्यशाली आत्मा का।*
वि.सं. १९९६ में चाणस्मा गाँव में आचार्य श्री मतिसागरसूरीजी का चातुर्मास था| उनका उपदेश सुनने के लिए जैन-अजैन सभी लोग आते थे| एक बार उन्होंने प्रवचन में शंखेश्वर प्रभु की महिमा का वर्णन किया| उस वर्णन को सुन वहां के जमीदार के मन में शंखेश्वर प्रभु की श्रद्धा दृढ़ हो गयी| एक बार उसके घर कोई मेहमान आए, जो आँख के मोतिया-बिंदु से परेशान थे| जमीदार ने उन्हें शंखेश्वर चलने के लिए प्रेरणा दी| वे दोनों शंखेश्वर पहुच गए| भाव पूर्वक प्रभु के दर्शन कर उन्होंने प्रभु का नह्वन जल अपनी आँखों पर लगाया और आश्चर्य हुआ-आंगतुक मेहमान का मोतिया बिंदु उतर गया….उन्हें स्पष्ट दिखाई देने लगे|
ऐसी एक नहीं , सैकड़ो चमत्कारी घटनाए आए दिन होती रहती है| प्रभु की महिमा अपरम्पार है| बस, अटूट श्रद्धा और विश्वास चाहिए|
*4:1:21*
*108 पार्श्व नाथ तीर्थ*
*2 ,महामहिमश्री जीरावला दादा1*
विश्वशांति मूलाधारम् श्री जीरावला पार्श्वनाथ जैन तीर्थ
आत्मरुपांतरण का बहुआयामी विराट ऊर्जा क्षेत्र
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं… श्रद्धाभ्रष्ट, धर्मभ्रष्ट, निष्ठाभ्रष्ट, वर्तमान मानव मस्तिष्क के लिए आवश्यक है जिनबिंबों की भव्यता, प्रभावकता एवं परमतारकता का परिचय। यह परिचय होते ही उसके अंतर से परम श्रद्धा के स्रोत उमडेंगे… आइये ऐसे ही एक परम पावन श्री जीरावला पार्श्वनाथ तीर्थ का परिचय सौभाग्यपूर्वक प्राप्त करें…
विश्व के विभिन्न देशों में व स्थानों में राजा कहने योग्य यदि कोई स्थान है, तो वह है… राजस्थान… स्थान असंख्य हैं… देश अगणित हैं, परंतु उनमें राजमुकुट पहनने योग्य यदि कोई है, तो वह है राजस्थान… राजस्थान की भूमि हजारों गगनचुंबी तीर्थों के गगनचुंबी शिखरों से सुशोभित है… अलंकृत है… उनमें एक है श्री जीरावला तीर्थ…जिला सिरोही में
अरावली-गिरिमालाओं की गोद में स्थित मंदिरों में श्री जीरावला तीर्थ का स्थान सर्वोपरि है… उसकी महिमा अनोखी और अपरंपार है…
विश्व के समस्त जिन मंदिरों की प्राण प्रतिष्ठा को निर्विघ्न एवं प्रभावक बनाने वाले, भारत वर्ष के सकल श्री जैन संघों की आध्यात्मिक आस्था स्वरुप एवं जग जयवंत श्री जीरावला पार्श्वनाथ प्रभु के अस्तित्व से विभूषित श्री जीरावला पार्श्वनाथ जैन तीर्थ के तीर्थोद्धार एवं भव्य प्रतिष्ठा-अंजनशलाका महोत्सव की शुभ भावना को साकार करने का शुभारंभ भारत के समस्त श्री जैन संघों, पू. आचार्य भगवंतों, मुनि भगवंतों, साध्वी भगवंतों, श्रेष्ठीयों एवं साहित्यकारों आदि को सुअवसर प्राप्त हो रहा है।
सामान्यतः श्री सिद्धाचलजी, श्री गिरनारजी, श्री आबू जी, श्री अष्टापदजी एवं श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थों की गणना महातीर्थों के रुप में की जाती है। श्री जीरावला पार्श्वनाथ तीर्थ भी इन महातीर्थों की पंक्ति में ही बिराजमान है। केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में कहीं भी श्री जिनेश्वर प्रभु के मंदिर की प्रतिष्ठा सुसम्पन्न कराते समय श्री जीरावला पार्र्श्वनाथ परमात्मा का नाम मंत्र ’’ॐ र्ह्रीं श्रीँ श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा’’ प्रभु के पृष्ठ भाग की दीवार पर लिखा जाता है। तत्पश्चात् ही किसी भी श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिष्ठा की जाती है। इतना ही नहीं बल्कि अंजनशलाका प्राणप्रतिष्ठा विधान में सुवर्ण जल को अभिमंत्रित करते समय भी श्री जीरावला प्रभु का स्मरण आवश्यक है। इस प्रकार श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान का प्रत्येक मंदिर तथा उसकी प्रतिष्ठा विधि से अविच्छिन्न संबंध रहा है। प्रभु के असीम प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव कर पूर्वसूरियों ने ’जीरावला दादा’का पुण्यस्मरण करने हेतु ’’नामलेखन’’की पुण्यपरंपरा का सृजन किया है, जो आज भी अक्षुण्ण है।
तीर्थंकर मालिका में पुरुषादानीय विशेषण से विभूषित श्री पार्श्वनाथजी की यह विशेषता है कि उनकी अनेक प्रतिमाओं का निर्माण स्वयं प्रभुजी के जन्म के पूर्व ही सुसंपन्न हुआ था। बाइसवें तीर्थंकर का स्थान ग्रहण करनेवाले श्री नेमिकुमार ने पार्श्वनाथ जी कीप्रतिमा के जल के प्रभाव से यादवों पर आक्रमण जरा का निवारण करवाया था।
800 वर्ष पूर्व जैनाचार्य श्री मेरुतुंगसूरिजी महाराजा द्वारा हस्त लिखित इस भोजपत्र के अनुसार – जब भगवान श्री पार्श्वनाथ विहाररत थे, उस समय उनके प्रथम गणधर श्री शुभस्वामीजी के सदुपदेश से अर्बुदाचल की तलहटी में स्थित रत्नपुर नगर के जिनधर्मपरायण चन्द्रयशा राजा ने इस प्रतिमा का निर्माण दूध-बालु से करवाकर उन्हीं के हाथों अंजन-प्रतिष्ठा करवाई थी। कालांतर में भूमिगत हुई इस प्रभावसंपन्न प्रतिमा को वरमाण के धांधल श्रावक ने स्वप्नादेश से जीरापल्ली समीपस्थ सिंहोली नदी किनारे देवत्री गुफा में से संवत 1109 में प्रकट किया। तत्पश्चात् वि.सं. 1191 में अाचार्य श्री अजितदेव (वादीदेव) सूरीर्श्वरजी के हाथों से शिखरबद्ध प्रासाद में मूलनायक के रुप में प्रतिष्ठा संपन्न हुई। समस्त विर्श्व कल्याणकारक कल्पवृक्ष मानों फिर से नवपल्लवित बना। इसी मंगल स्थान से जीरापल्ली गच्छ की उत्पत्ति भी हुई थी।
कल आगे
जिनाज्ञा विरुद्ध जो कुछ लिखा गया हो तो मन, वचन, काया से त्रिविधे मिच्छामी दुक्कड़़ं ।🙏🏻
Post by: arihant in History
संकलन कर्ता
*अंजुगोलछा*
*5:1:21*
*108 पार्श्व नाथ तीर्थ*
*2 ,महामहिमश्री जीरावला दादा भाग 2*
वर्तमान काल में जिसे वरमाण कहा जाता है एवं प्राचीन काल में जो ब्रह्माण नाम से विख्यात था, उस स्थान में रहनेवाले एक वृद्धा के पास एक गाय थी। गाय प्रतिदिन सिंहोली नदी के तट पर स्थित देवत्री की गुफा में एक विशिष्ट स्थान पर अपने दूध का अभिषेक करती थी। वृद्धा ने यह बात गाँव के धांधल नामक श्रेष्ठी से कही। अधिष्ठायक देव ने स्वप्न में उस स्थान पर एक मनोहर जिनबिंब के अस्तित्व का संकेत दिया।
दूसरे दिन प्रातः इस प्रतिमाजी के प्रगटीकरण के लिए ब्रह्माण ग्राम का संघ एकत्रित हुआ। निकटवर्ती जीरापल्ली ग्राम के कई लोग भी यहाँ आ गए। भूगर्भ से श्री पार्श्वप्रभु की मनोहारी प्रतिमा प्रगट हुयी। परमात्मा का अनुपम सौंदर्य देखकर समस्त लोग भावविभोर हो गये। इस प्रतिमा पर ब्रह्माण एवं जीरापल्ली
गाँवों के संघों ने अपना अधिकार जताया, अब कौनसा गाँव इसे अपने गाँव ले जाएगा? इस बात पर विवाद हुआ।
इस विवाद का निर्णय एक वृद्ध पुरुष ने किया। दोनों स्थानों से एक एक बैल लाया गया, उन्हें एक बैल गाडी से बाँधा गया। बैलगाडी में प्रभुजी बिराजमान हुए। गाडी जीरापल्ली के दिशा में चल दी। जीरापल्ली में एक भव्य प्रवेश महोत्सव संपन्न हुआ। श्री वीरप्रभु के जिनप्रासाद में मूलनायक का स्थान नूतन परमात्मा की प्रतिमा को दिया गया। परमात्मा का प्रागट्य वि.सं.1109 में हुआ। श्रीयुत धांधल श्रेष्ठी ने एक भव्य तथा उत्तुंग जिनालय का निर्माण किया। इस नूतन जिनालय में वि.सं.1191 में मंडार के पूज्य आचार्य श्री अजितदेवसूरिजी ने प्रभुजी को बिराजमान किया।
अर्बुदाचल के शिलालेखों से यह भी प्रमाणित हो चुका है, कि श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा स्वयं ने अर्बुदाचल की स्पर्शना की थी। इस दौरान जीरापल्ली तीर्थ एक प्रतिष्ठा संपन्न तीर्थ की ख्याति पा चुका था। सकल तीर्थ वंदना स्तोत्र में भी ’’जीरावलो ने थंभण पास’’ पंक्ति द्वारा तीर्थ का महिमागान किया गया है।
अन्योन्य शिलालेखों, प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओं के प्रमाणालोक में अनेक सदियों में इस महातीर्थ का जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा विधान होने का तथ्य उजागर हुआ है। विक्रम की चौथी, आठवीं, बारहवीं एवं सोलहवीं सदी में जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठाएँ संपन्न हुई थी और अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी में भी व्यापक तौर पर जीर्णोद्धार एवं निर्माण कार्य होने के प्रबल-प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
पुनः पुनः जीर्णोद्धार का एक महत्त्वपूर्ण कारण मुगलाई आक्रमण रहा था। आर्यावर्त की पश्चिमी सीमा का मरुधर प्रांत होने से विदेशी धर्मांध शक्तिओं के आक्रमणों से सर्वप्रथम नुकसान हमारे तीर्थों एवं मंदिरों को सहना पडा था। धर्मांधों ने मंदिर ध्वस्त किए, मूर्तियाँ खंडित की किंतु जन-जन के हृदय की अवस्था को वे ध्वंस न कर सके। इसी के परिणाम स्वरुप सर्वस्व की न्यौछावरता द्वारा पुनः पुनः तीर्थ निर्माण होता रहा। हमारे पूर्वजों ने पूर्वाचार्यों के सदुपदेश से जो कुछ भी सीमित साधन-सामग्री उपलब्ध थी उसे अपनी श्रद्धा के साथ सम्मिलित कर भगवान की प्रतिमा एवं धाम की महिमा अक्षत रखने का भगीरथी पुरुषार्थ किया। उसी के बल आज भी हमें ये परमात्मा संप्राप्त हो रहे हैं।
*स्थानांतरितश्री जीरावला दादा*
इन जीर्णोद्धारों एवं पुनःप्रतिष्ठाओं की श्रृंखलाओं दरम्यान किसी पल प्रभावशाली प्राचीन श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा को मूल स्थान से चलित कर गर्भगृह के मंडोवर के बाहरी भाग के स्थान पर अलग देवकुलिका में बिराजित कर दिया गया। स्थान परिवर्तन हुअा परन्तु माहात्म्य परिवर्तन न हुअा अौर न कदापि होगा। प्राचीन भगवान का प्रभाव वैसा ही रहा अौर रहेगा।
वि.सं.2020 में संघ द्वारा व्यापक जीर्णोद्धार संपन्न हुअा। कई नर्इं प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित की गयी। मेवाडकेशरी प.पू. तपागच्छाचार्य श्रीमद् विजय हिमाचलसूरीर्श्वरजी महाराजा एवं प.पू. मुनिराज श्री तिलोकविजयजी म.सा. की पावन निश्रा में प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया गया। मूल स्थान पर श्री पुरुषादानीय नूतन जीरावला पार्र्श्वनाथ भगवान को प्रतिष्ठित किया गया।
समकालीन तीर्थोद्धार का जो वातावरण बना है, तदन्तर्गत श्रीसिद्धगिरिराज, श्री शंखेर्श्वरजी, कलिकुण्ड, लोद्रवाजी, वाराणसी, नाकोडाजी, भीलडीयाजी, भोरोल, भाण्डवजी, कुल्पाकजी, भोपावरजी, पालनपुर अादि अनेकानेक तीर्थ मंदिरों की भव्य कायापलट हुई है-हो रही है। सब प्राचीन तीर्थ भव्यता का परिवेश धारण कर रहे हैं, तब जगजयवंत श्री जीरावलाजी का तीर्थधाम क्यों न विर्श्वोन्नत बनाया जाएं? अनेकानेक पूज्य अाचार्यदेवों एवं शिल्पियों का भी पुनः निर्माण-प्रतिष्ठा हेतु सदुपदेश-मार्गदर्शन मिलता रहा हैं।
विर्श्वमहिम श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर अाध्यात्मिक ऊर्जा को सतत उत्सर्जित करें एवं सभी मुमुुक्षुअों की मोक्षसाधना परिपूर्ण हो। भौगोलिक वातावरण, धर्मांध अाक्रमण एवं काल के प्रहरणों को सहते सहते जीर्ण-अतिजीर्ण से बने इस महामंदिर का संपूर्ण नवनिर्माण करना परमावश्यक कर्तव्य बन चुका था। मंदिर की संरचना के असंख्य शिल्प शास्त्रीय अवरोधों को हटा कर संपूर्ण शास्त्रशुद्ध प्रासाद का निर्माण करना वर्तमान समय की अग्रिम अावश्यकता बन चुकी थी अौर अाज हमारी यह भावना परिपूर्ण हो रही है
कल आगे
जिनाज्ञा विरुद्ध जो कुछ लिखा गया हो तो मन, वचन, काया से त्रिविधे मिच्छामी दुक्कड़़ं ।🙏🏻
Post by: arihant in History
संकलन कर्ता
*अंजुगोलछा*
*6:1:21*
*पार्श्वनाथ के 108 तीर्थ*
*3 केशरीया पार्श्वनाथ भगवान*
मूलनायक श्री केशरीया पार्श्वनाथ भगवान
आराधना मंत्र : ॐ ह्रीँ श्रीकेशरीयापार्श्वनाथाय नम:
तीर्थाधिराज :-स्वप्नदेव श्री केशरिया पार्श्वनाथ भगवान, अर्द्ध पद्मासनस्थ मुद्रा,
श्याम वर्ण, लगभग १५२ से.मी.
(श्वेताम्बर मन्दिर)
तीर्थ स्थल :-भद्रावती गाँव के निकट विशाल बगीचे के मध्य ।
तीर्थ विशिष्टता :-गत शताब्दी तक प्रतिमा का आधा भाग मिट्टी मे गडा हुआ था जिसे ग्रामीण लोग केशरिया बाबा कहते थे ।और भक्ति से सिन्दूर चढाया करते थे ।इस मंदिर की स्थापना की कथा हैं कि- वि.सं. १९६६ माघ शुक्ला पंचमी के दिन श्री अन्तरिक्ष तीर्थ के मैनेजर श्री चतुर्भुज भाई ने एक स्वप्न देखा कि वे भांडुक के आसपास के घने जगलों में घूम रहे है । अचानक एक नागदेव का दर्शन होता है व नागदेव एक महान तीर्थ का दर्शन कराते हुए संकेत करते है। कि इस भद्रावती नगरी में श्री केशरीया पार्श्वनाथ भगवान का एक बडा तीर्थ है, इसका उद्धार करो । स्वप्न के आधार पर माघ शुक्ला ९ को श्री चतुर्भुज भाई खोज करने निकले । घूमते घूमते उन्हे उसी तीर्थ के दर्शन हुए । उन्होंने सारा वृत्तांत चांदा के श्रीसंघ को सुनाया और संघ ने तुरन्त कार्यवाही करते हुए उक्त तीर्थ को अपने हस्ते लिया तभी से भक्तगण प्रभु को स्वप्नदेव श्री केशरीया पार्श्वनाथ भगवान कहते है ।
श्री केशरिया पार्श्वनाथ – श्री भद्रावती तीर्थ
इस मंदिर के बारे में कहा जाता है की मंदिर प्रथम ईटो का बना व बाद में पत्थरों से निर्मिति हुआ | वि. सं. १८३१ में जीर्णोद्धार होने के प्रमाण मिलते है | उसके पश्चात भी जीर्णोद्धार होने के उल्लेख है | भव्य, चमत्कारिक , भक्तो की मनोकामनाए पूर्ण करने वाली इस प्रतिमा की प्राचीनता व इतिहास के बारे में अनेको मानयताएं है | जैसा पहले भी बताया गया है कि पार्श्वनाथ जी
की कई प्रतिमाएं उनके पहले से ही स्थापित है
उनमे यह भी एक है की यह अलौकिक प्रतिमा बीसवे तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवन के समय प्रतिवासुदेव लंकापति श्री रावण के यहां पूजित थी |
यह मारवाड़ में जैनों का मुख्य तीर्थ-स्थान है |यहा पर जैनेतर भी श्रद्धा व भक्ति पूर्वक हमेशा आते रहते है |भील समुदाय में प्रभु काला बाबा के नाम से प्रचलित है |यहां नई-नई चमत्कारिक घटनाओं का अनेको भक्तो द्वारा वर्णन किया जाता रहाहै |भक्तगण जो भी भावनाए लेकर आते है उनकी इच्छाएं पूर्ण होती है |यहाँ पर केशर चढ़ाने की मान्यता सदियों से चली आ रही है व अत्यधिक मात्रा में केशर चढ़ती है |इसलिए प्रभु को केशरीयानाथ भी कहा जाता है |
ग़ाव के बाहर वृक्ष के नीचे एक देहरी में प्रभु की प्राचीन चरणपादुकाए है |कहा जाता है प्रभु की प्रतिमा यही से प्रकट हुई थी |मेले के दिन प्रभु की रथयात्रा यही पर संपूर्ण होती है | प्रभु-प्रतिमा की कला तो अवर्णनीय है ही, प्रभु का मुखमंडल इतना आकर्षक है की दर्शन मात्र में मन प्रफुल्लित हो उठता है |श्री केशरीयाजी का यह बावन जिनालय दूर से ही अति ही सौम्य प्रतीत होता है।
अर्ध-पद्मासन मुद्रा में भगवान केसरिया पार्श्वनाथ की लगभग 152 सेंटीमीटर ऊंची काले रंग की मूर्ति। मूर्ति के सिर के ऊपर सात कुंडों की छतरी है।
यह भद्रावती गाँव के आसपास के क्षेत्र में एक विशाल उद्यान में है। भक्त भगवान को "स्वप्न देव" सपनो के भगवान केसरिया पार्श्वनाथ कहते हैं।
*एक चमत्कार*
एक बार भारत - पाकिस्तान का युद्ध कई साल पहले चल रहा था। हर कोई डरा हुआ था कि अब क्या होगा। आचार्यजी ने केसरिया पार्श्वनाथजी का एक स्तवन बनाया और पूरा संघ प्रतिदिन इस स्तवन को गाने लगा। एक चमत्कार हुआ 19 दिनों में युद्ध समाप्त हो गया था।संघ ने अपनी यात्रा सफलतापूर्वक पूरी की। आज भी यहाँ कई चमत्कार होते हैं।
विदर्भ का प्राचीन तीर्थ भद्रावती अनेक ऐतिहासिक विशेषताओ के लिये विश्व में प्रसिद्ध है l अर्धपद्मासन में विराजित अलौकिक केसरिया पार्श्वनाथ प्रभू की प्रतिमा हर आने वाले श्रद्धालुओ का दिल जीत लेती है l धरातल से १०८ फुट ऊंची इस नवनिर्मित मंदिर की आभा देखते ही बनती है l भीतरी मकराना मार्बल एवं बाहर वंशीपाठ के संगमरमर के पाषाण पर सुंदर बेहतरीन कारीगरी से शिल्पकला युक्त मंदिर का सौंदर्य मन मोह लेता है l जैन शिल्पकला के साथ राजस्थानी एवं गुजराती शिल्पकला की झलक मिलती है l इस मंदिर के निर्माण मे देशभर के ट्रस्टो, संस्थाओ व हजारो उदारमना भक्तो ने अर्थसहयोग किया है l इस ऐतिहासिक प्रतिष्ठा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसमे किसी भी नई मूर्ती की प्रतिष्ठा नही की गयी है l
संकलन कर्ता
*अंजुगोलछा*
*7:1:21*
*पार्श्वनाथ के 108 तीर्थ*
*4 स्तम्भन पार्श्व नाथ*
(ये भीपार्श्व नाथजी के पूर्व स्थापित मूर्ति है)
*मूलनायक*- 23 सेंटीमीटर ऊंची पद्मासन मुद्रा में भगवान स्तंभन पार्श्वनाथ की, नीली रंग की मूर्ति है। मूर्ति के सर के ऊपर पांच सर्पमुख का एक छत्र है, ।पर्रिकर, में सात सर्प मुख का एक छत्र है। यह तीर्थंकरों की सबसे पुरानी मूर्तियों में से एक है।,
*तीर्थ*-यह खंभात शहर के खारवडा मोहल्ले में है,
*ऐतिहासिकता* खंभात का प्राचीन नाम ट्रंबावटीनगर था। जैन शास्त्रों के अनुसार, इस मूर्ति का बहुत पुराना इतिहास है। पिछले तीर्थंकर श्री नेमिनाथिकला जी के श्री नेमिनाथ भगवान के काल में (समय के पहिए का आरोही आधा) आषाढी श्रावक ने श्री पार्श्वनाथ भगवान की नीलमणि की एक सुंदर मूर्ति बनाई। उन्होंने कई वर्षों तक इस मूर्ति की पूजा की।फिर इस मूर्ति को देवलोक ले जाया गया और लाखों वर्षों तक पूजा की गई
और उसके बाद यह मूर्ति नागराज के हाथों में आ गई। उन्होंने समुद्र तट के पास एक सुंदर मंदिर बनवाया और इस शानदार मूर्ति को मंदिर में स्थापित किया। अन्य देवों केसाथ उन्होंने लंबे समय तक इस मूर्ति की पूजा की। 20 वे तीर्थंकर श्री मुनीसुव्रत स्वामी की अवधि के दौरान, दंडकारण्य में श्री रामचंद्र जी ने 7 माह और 9 दिन तक महासती सीता मां के लाए फूलों से पार्श्व नाथ जी की मूर्ति कीपूजा की थी एकाग्रता के साथ प्रभु से प्रार्थना की, नागराज उनकी प्रार्थना से प्रसन्न हो गए और उनके सामने प्रकट हुए और उन्होंने मूर्ति का इतिहास बताया। मंदिर से बाहर आकर उन्हें बताया गया कि समुद्र का पानी जम गया है और वे अब आसानी से समुंदर पार कर सकते हैं। इस चमत्कार को देखकर,श्री राम जी ने मूर्ति का नाम श्री स्तंभन पार्श्ववनाथ रखा।
श्री कृष्ण ने भी इस मंदिर का दौरा किया वह इस मूर्ति से बहुत प्रभावित थे और इस मूर्ति को द्वारका ले जाना चाहते थे। नागराज ने उन्हें मूर्ति को अपने साथ ले जाने की अनुमति दी.
। उन्होंने माणिक के साथ एक सुंदर मंदिर का निर्माण किया और मूर्ति को मंदिर में स्थापित किया। जब द्वारका जल रही थी, तो मूर्ति को नष्ट होने से बचाने के लिए एक श्रावक ,ने मूर्ति को समुंदर में डुबो दिया। नागराज तक्षशिला ने 80000 वर्ष के तक इस मूर्ति को पाया और उसकी पूजा की और वरुण देव ने 4000 वर्षों तक इस मूर्ति की पूजा की। एक दिनएक चमत्कारिक घटना घटी। जब कांतिपुर का एक व्यापारी धन समुंद्र से जा रहा था, तब उसके जहाज हिलना बंद हो गए और स्थिर हो गए। उन्हें घुमाने का कोई भी प्रयास निरर्थक था। औरतब उन्होंने समुंद्र में कूदने का विचार किया। एक दिव्य आवाज ने उसे कूदने के लिए मना किया और उसे समुंद्र की गहराई से चमत्कारी मूर्ति लेने के लिए कहा, और ये भी कहा उसकी सभी समस्याओं का हल किया जाएगा। और उसे मूर्ति का इतिहास भी बताया। उसने कांतिपुर में एक भव्य मंदिर में नीलम की मूर्ति स्थापित की, उन्हें इस मूर्ति के साथ दो अन्य मूर्तियां भी मिली। चारुप पार्श्वनाथ की मूर्ति को और नेमिनाथ की मुर्ति को श्रीपट्टन में स्थापित किया गया। और आज भी वही हैं। 2000 वर्षों के बाद, श्री पदलिपत्सूरीजी के एक शिष्य, एक योगी नागार्जुन ने अपनी योगसाधना के लिए इस मूर्ति का अपहरण कर लिया। अपने साधना के बाद उन्होंने इस मूर्ति को पलाश वृक्ष के नीचे शेडी नदी के तट पर गाड़ दिया।
बहुत कम उम्र में आचार्य अभय देव सुरी गंभीर रूप से बीमार हो गए, और उन्होंने अनशन (मृत्यु का व्रत) करने की सोची। एक दिव्य आवाज ने उन्हें इस मूर्ति के बारे में शेडी नदी के पास और इस मूर्ति के स्नान के पानी को स्वयं पर छिड़कने के बारे में बताया। कई भक्तों के साथ आचार्य नदी के तट पर गए और गहन भक्ति से उन्होंने "जयतिहुआं स्त्रोत" की रचना की और उनका पाठ किया ।17वें श्लोक का पाठ करने पर, भगवान की मूर्ति जमीन से निकली। आचार्य पर स्नान का पानी छिड़का गया और वह ठीक हो गए। एक मंदिर शेड़ी नदी के किनारे पर बनाया गया था और इस मूर्ति को वहां आचार्य ने स्थापित किया। विक्रम संवत 1368 में इस मूर्ति को खंभात लाया गया और वहां एक मंदिर मेंस्थापित किया गया। निश्चित रूप से,कई नवीनीकरण किए गए। परम पूज्य आचार्य श्रीनेमिसुरीश्वर जी के तत्वावधान में विक्रम युग के वर्ष 1984 में अंतिम जीर्णोद्धार किया।
संकलन कर्ता अंजुगोलछा
*8:1:21*
*पार्श्वनाथ के 108 तीर्थ*
*5 मनमोहन पार्श्व नाथ जी*
मुलनायक: लगभग 127cms ऊँची भगवान मनमोहन पार्श्वनाथ की, सफेद रंग की पद्मासन मुद्रा में मूर्ति, वर्तमान में मुलनायक है। भगवान पार्श्वनाथ मनमोहन की पुरानी और प्राचीन मूर्ति पद्मासन मुद्रा में लगभग 33 सेमी है।
तीर्थ: यह गुजरात के नंदासन गांव के बाहर मेहसाणा राजमार्ग पर है।
ऐतिहासिकता: नंदासन एक प्राचीन तीर्थ है। नया मंदिर
आचार्य श्री विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के निर्देश के तहत बनाया गया था और वि o सँ o. 2052 में आचार्य श्री विजयराजेंद्रसूरीश्वरजी के पूज्य हाथों से भगवान मनमोहन
पार्श्वनाथ की नई मूर्ति वैशाख महीने की उज्ज्वल छमाही के 7 वें दिन मंदिर में स्थापित किए गए थे।
मनमोहन पार्श्वनाथ की पुरानी मूर्ति को लगभग 40 साल पहले नंदासन के पुराने गाँव से लाया गया था ।और यहां एक अभ्यारण में रखा गया। इस तीर्थ को जयत्रिभवन तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति शानदार, मनोहर, रमणीय और चमत्कारी है। दूर-दूर से जैन और गैर जैन यहां प्रार्थना करने के लिए आते हैं। यह माना जाता है कि यदि विश्वास और भक्ति के साथ प्रार्थना की जाए तो श्रद्धालुओं की मुराद पूरी होती है।
संकलन कर्ता अंजुगोलछा
*पार्श्वनाथ जी के 108 तीर्थ*
*6जोतिगड़ा पार्श्वनाथ*
इस मंदिर के
मूल नायक श्री शांतिनाथ जी भगवान है।लगभग 70 सेंटीमीटर ऊंची सफेद रंग की पद्मासन मुद्रा में जोंटी गड़ा पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति है यह मूर्ति शांतिनाथ भगवान की मूर्ति के बगल में है यह तीर्थ गुजरात राज्य के मेहसाणा शहर के मुंजपुर गांव में है ऐतिहासिकता मुंज पुर 11 वीं शताब्दी का एक प्राचीन ऐतिहासिक गांव है परमार वंश के राजा मुंज ने इस शहर को वि oसo1003 में स्थापित किया था। इसका उल्लेख "सोम सौभाग्य" में है कि 15 वीं शताब्दी में मूजिंग नगर के श्रेष्ठी मुंत को धातु से बने तीर्थंकरों की अगणित मूर्तियां मिली और उन्हें आचार्य श्री सोमसुंदरसूरी जी के पूज्य हाथों से स्थापित किया। यह मुंजल नगर आज का मुंजपुर है यह मंदिर 15वीं शताब्दी का है। एक समय में मुंज पुर में तीन मंदिर थे
विoसo1667तक जोतिगड़ा पारसनाथ का एक अलग मंदिर था। परंतु मुस्लिम आक्रमण के दौरान इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था ।और जोतिगड़ापार्श्व नाथ की मूर्ति जो थी शांतिनाथ भगवान के मंदिर में स्थापित की गई। यह शांतिनाथ भगवान का मंदिर है 400 साल पुराना है। माना जाता है कि जोती गड़ा पारसनाथ की मूर्ति राजा संप्रत्ति के काल की थी
जोतिगड़ा पारसनाथकि इस मूर्ति को "मुंशीपुरापारसनाथ" और "जोतिंगा पारसनाथ" के नाम से भी जाना जाता है हर साल मिगसर महीने के उज्जवल आधे पखवाड़े के 11वें दिन एक ध्वजा फहराई जाती है मंदिर का अंतिम जीर्णोद्धार 2001 में किया गया था।
संकलन कर्ता
अंजुगोलछा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें