भक्तामर काव्य प्रश्नोत्तरी
🌹भक्तामर स्तोत्र के प्रथम काव्य पर आधारित १८ प्रश्नोत्तर,काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-1
भक्तामर- प्रणत- मौलिमणि - प्रभाणां-
मुद्योतकम् - दलितपाप- तमोवितानम्।
सम्यक्-प्रणम्य- जिनपाद- युगम्- युगादा-
वालम्बनम्-भवजले- पतताम्-जनानाम्॥१॥
अर्थ : झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करूँगा)|
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भावार्थ :१०० इन्द्र तथा और मुकुटधारी देव जब उनके भि पुज्य ऋषभदेव भगवान के समक्ष नतमस्तक होते है, तब भगवान के स्वयंप्रभासे देवोंके मुकुट पर लगे रत्नादि भि चमकने लगते है, ऐसी प्रभायुक्त भगवान ऋषभदेव, जिन्होने कर्मयुग के आरंभ के संसार के दु:खों में गोते खाने वाले अपने भक्तों को तारकर जीने की राह बतायी तथा पापरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले भगवान के चरण युगल में मैं मानतुंग मन वचन- काय से नत होकर वंदन करके उनकी स्तुति करता हूँ ।
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प्रथम काव्य पर आधारित १८ प्रश्नोत्तर
प्रश्न १. भक्त किसे कहते हैं ?
उत्तर—पंचपरमेष्ठी के गुणों में अनुराग करने वाला भक्त कहलाता है।
प्रश्न २. ‘प्रणत मौलि’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—झुके हुये / नम्रीभूत मुकुट।
प्रश्न ३. ‘पाप तम: वितानम्’ को स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—पाप रूपी अंधकार का विस्तार।
प्रश्न ४. ‘जिन पाद युगं’ को बताइये ?
उत्तर—जिनेन्द्र भगवान के द्वय चरण।
प्रश्न ५. ‘जिन’ का तात्पर्य क्या है ?
उत्तर—अरिहंत भगवान को ‘जिन’ भी कहते हैं।
प्रश्न ६. अरिहंत भगवान कैसे हैं ?
उत्तर—चार घतिया कर्मों को नष्ट करने वाले एवं देवों के द्वारा पूज्य हैं वे अरिहंत हैं।
प्रश्न ७. परमेष्ठी किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो परम/श्रेष्ठ पद में स्थित हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं।
प्रश्न ८. परमेष्ठी कितने हैं ?
उत्तर—५ हैं।
प्रश्न ९. कौन—कौन से है ? कृपया नाम बताइये।
उत्तर—१ अरिहंत, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय, ५. सर्वसाधु।
प्रश्न १०. सिद्ध परमेष्ठी किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिन्होंने आठों कर्मों को नष्ट कर अशरीरदशा को प्राप्त कर लिया है। वे सिद्धभगवान/ परमेष्ठी हैं।
प्रश्न ११. प्रथम काव्य में कौन से भगवान की स्तुति की गई है ?
उत्तर—आदिनाथ भगवान की।
प्रश्न १२. स्तुति किसके द्वारा की गई हैं ?
उत्तर—देवों द्वारा।
प्रश्न १३. देवों को क्या कहा है ?
उत्तर—अमर।
प्रश्न १४. भगवान आदीश्वर के चरणों को किसकी उपमा दी है ?
उत्तर—कमलों की।
प्रश्न १५. चरण कमल कैसे हैं ?
उत्तर—पापनाशक व संसार समुद्र में डूबते प्राणियों के लिये आलम्बन स्वरूप है।
प्रश्न १६. आचार्य मानतुंग स्वामी ने भक्तामर की रचना कब की ?
उत्तर—लगभग १३०० वर्ष पूर्व सातवीं शताब्दी में।
प्रश्न १७. प्रथम काव्य में भक्त किसको कहा है ?
उत्तर—देवों को।
प्रश्न १८. ‘सम्यक्’ शब्द का आशय बताइये ?
उत्तर—समीचीन/भलीप्रकार/मन—वचन—काय से।
✋शुभाशीर्वाद
U
28-11-2020
🌹भक्तामर स्तोत्र के दूसरे काव्य पर आधारित १८ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-2
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यः संस्तुतः सकल वाङ्मय तत्वबोधा- ।
दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः ॥
स्तोत्रैर्जगत्रितय चित्त हरैरुदारैः ।
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥
अर्थ :
सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करूँगा|
भावार्थ :
सकल वाङ्मय अर्थात् श्रुत ज्ञानसे युक्त सुरेन्द्र जब भक्तिवश ऐसे मनोहारी स्तोत्रों की रचना करके भगवान की स्तुति करता है, जो तीनों लोकों के समस्त मनों - हृदयों को हरनेवाले है, तब मैं भी उस प्रथम जिनेन्द्र भगवान आदिनाथ की स्तुति के लिये कटिबध्द होता हूँ ।।
प्रश्न १. द्वितीय काव्य का प्रारम्भ कैसे किया है?
उत्तर—मानतुंग स्वामी ने काव्य का प्रारम्भ संकल्पपूर्वक किया।
प्रश्न २. स्तुति किसके द्वारा की गई ?
उत्तर—देवलोक के इन्द्र द्वारा।
प्रश्न ३. कैसे स्तोत्र के द्वारा स्तुति की गई ?
उत्तर—तीनों लोकों के जीव के चित्तहरण करने वाले उत्कृष्ट/प्रशंसनीय/श्रेष्ठ स्तोत्र के द्वारा प्रभु की स्तुति की गई।
प्रश्न ४. ‘सकल वांग्मय’ का अर्थ बताइये ?
उत्तर—सम्पूर्ण/समस्त/पूर्ण द्वादशांग।
प्रश्न ५. द्वादशांग किसे कहते हैं ?
उत्तर—अरिहंत देव द्वारा अर्थ रूप से प्रतिपादित, गणधर द्वारा सूत्र ग्रंथ रूप से रचित बारह (१२) अंग वाले अंग प्रविष्ट श्रुत को द्वादशांग कहते हैं।
प्रश्न ६. अंग प्रविष्ट के १२ अंग बताइये ?
उत्तर— १. आचारांग|२. सूत्रकृतांग|
३. स्थानांग|४. समवायांग|५. व्याख्या प्रज्ञप्ति|
६. ज्ञातृ धर्मकथांग|७. उपासकाध्यानांग|
८. अन्तकृत दशांग|९. अनुत्तरौपपादिक दशांग।
१०. प्रश्नव्याकरणांग।११. विपाक सूत्रांग।
१२. दृष्टिवादांग।
प्रश्न ७. क्या द्वादशांग के कोई भेद भी हैं ?
उत्तर—हाँ ! दो (२) भेद हैं। (१) ग्यारह अंग, (२) चौदह पूर्व।
प्रश्न ८. द्वादशांग के सम्पूर्ण पद की संख्या बताइये ?
उत्तर—‘‘एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच’’ है।
प्रश्न ९. क्या इसे संख्या में भी बता सकते हैं ?
उत्तर—हाँ ! हाँ ! क्यों नहीं, ११२ करोड़ ८३ लाख ५८ हजार ५।
प्रश्न १०. ‘त्रितय—चित्त—हरै’’ का आशय बताइये ?
उत्तर—तीनों लोक के जीवों के चित्त / मन को हरने वाले।
प्रश्न ११. ‘बुद्धि पटुभि:’ का अर्थ बताइये ?
उत्तर—बुद्धि की चतुरता से।
प्रश्न १२. मुनिमानतुंग स्वामी कैसे प्रभु को नमस्कार कर रहे हैं ?
उत्तर—जिनके वीतरागता, हितोपदेशिता एवं सर्वज्ञता ये तीन लक्षण है, ऐसे अरिहंत देव/सच्चे देव को नमस्कार किया है।
प्रश्न १३. सच्चे देव कोन हैं कैसे हैं ?
उत्तर—जो १८ दोषों से रहित वीतरागता आदि लक्षण युक्त हैं।
प्रश्न १४. १८ दोषों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर—१. भूख,२. प्यास,३. बुढ़ापा,४. रोग,
५. जन्म,६. मरण,७. भय,८. गर्व,९. राग,
१०. द्वेष,११. मोह,१२. आश्चर्य,१३. आरत/अरति,१४. खेद,१५. शोक,१६. निद्रा,१७.चिंता,१८. स्वेद।
प्रश्न १५. प्रथम एवं द्वितीय काव्य की उपासना किसके द्वारा की गई ?
उत्तर—श्रेष्ठी हेमदत्त के द्वारा।
प्रश्न १६. उपासना के फलस्वरूप कौन सी देवी उपस्थित हुयीं ?
उत्तर—विजया देवी।
प्रश्न १७. चौर्य (चोरी) कला में सिद्धहस्त कौन था।
उत्तर—सुदत्त चोर।
प्रश्न १८. प्रथम, द्वितीय काव्य का ऋद्धिमंत्र बता दीजिए ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो, जिणाणं’’। ‘‘णमो ओहि जिणाणं।।
✋शुभाशीर्वाद
U
29-11-2020
🌹भक्तामर स्तोत्र के काव्य नं. ३ पर आधारित ८ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-3
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बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ ।
स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब ।
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥
अर्थ : देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं|
भावार्थ :जिनका पादपीठ अर्थात जहा भगवान पैर रखते है,वो भि देवोद्वारा पुज्य है, ऐसे पादपीठ कि भि यथार्थ स्तुति करने कि मेरी पात्रता नही है। लेकिन जल मे चंद्र का प्रतिबिम्ब देख, मात्र एक छोटासा बालक हि, जिसे यथार्थ का ज्ञान नही है, उसे पाने का यत्न करता है, अर्थात मै अपनी बुध्दी कि मर्यादा को समझते हुए भि भक्तिवश मै उनके भक्ति मे स्तोत्र कि रचना करता हुँ।
प्रश्न १. मानतुंगाचार्य ने स्वयं को कैसा बताया ?
उत्तर—बुद्धिहीन/अल्पज्ञ एवं लघु बताया।
प्रश्न २. ‘पादपीठ’ का अर्थ बताइये ?
उत्तर—पैरों के रखने का आसन।
प्रश्न ३. ‘विगतत्रप:’ का आशय क्या हैं ?
उत्तर—लज्जा को छोड़कर/लज्जा रहित होकर।
प्रश्न ४. आचार्य मानतुंग स्वामी ने कैसे भक्ति की है ?
उत्तर—मान/अभिमान/अहंकार/घमण्ड/गर्व को छोड़कर भक्ति की है।
प्रश्न ५. अहंकार छोड़कर भक्ति करने को क्यों कहा है ?
उत्तर—सच्ची भक्ति निरहंकारी होने पर ही होती है।
प्रश्न ६. भगवान के चरणों में कैसे जाना चाहिए ?
उत्तर—प्रभु चरणों में िंककर/दास/सेवक/अनुचर बनकर जाना चाहिए।
प्रश्न ७. विनय गुण किसका प्रतीक है ?
उत्तर—विनय गुण महानता का प्रतीक है।
प्रश्न ८. काव्य नं. ३ का ऋद्धि मंत्र बता दीजिए ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि—जिणाणं’’।
✋ शुभाशीर्वाद
U
30-11-2020
🌹भक्तामर काव्य नं. ४ पर आधारित १६ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-4
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वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान् ।
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥
कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं ।
को वा तरीतु मलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥
अर्थ : हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|
भावार्थ :प्रलयकाल के प्रचंड शक्तिशाली वायु जो समुद्र मे बडे बडे भंवर निर्माण कर रही है और उसके वजह से महाकाय मगरमच्छ भि व्याकुल होकर जल मे इधर उधर घुम रहे हो, ऐसे समुंदर मे मात्र बाहुबल से तैरने का साहस किसमे होता है? अर्थात नही हो सकता, वैसेहि आप गुणोंको जो समुद्र के रत्नभांडार समान अनंत तथा अद्भुत है, चंद्रमा के समान गुणोंको कोई देवोंका गुरु बृहस्पति भि वर्णन करनेका सामर्थ्य नही रखता, फिर भि मै यह प्रयत्न करुंगा।
प्रश्न १. गुण समुद्र की व्याख्या कीजिए ?
उत्तर—जैसे समुद्र अपार, असीम, अपरिमित होता है उसी प्रकार भगवान भी अपार, असीम, अपरिमित, अनन्त गुण के धारी हैं।
प्रश्न २. गुण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर—ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आत्मा के अनंत गुणों से है।
प्रश्न ३. कल्पान्तकाल का अर्थ बताइये ?
उत्तर—प्रलयकाल, जो काल के अन्त में होता है।
प्रश्न ४. काल के भी कोई भेद हैं क्या ?
उत्तर—हाँ ! काल के २ भेद किये हैं। (१) उत्र्सिपणी, (२) अवर्सिपणी।
प्रश्न ५. उत्सर्पिणी काल किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिस काल में मनुष्य /तिर्यंचादि की आयु, बल, अवगाहना एवं विभूति आदि बढ़ती जाती है वह उत्र्सिपणी काल है।
प्रश्न ६. अवर्सिपणी काल भी बता दीजिए ?
उत्तर—जिसमें आयु आदि घटती रहे वह अवर्सिपणी काल है।
प्रश्न ७. एक काल कितने समय तक रहता है ?
उत्तर—१० कोड़ाकोड़ी सागर तक।
प्रश्न ८. एक कोड़ा—कोड़ी का प्रमाण बता दीजिए ?
उत्तर—एक करोड़ में एक करोड़ का गुणा करने पर जो गुणनफल आये वो एक कोड़ाकोड़ी जानना चाहिए।
प्रश्न ९. कल्पकाल किसे कहते हैं ?
उत्तर—उत्र्सिपणी—अवर्सिपणी दोनों के मिलने/पूर्णता पर कल्पकाल होता है।
प्रश्न १०. कल्पकाल कितने समय वाला होता है ?
उत्तर—एक कल्पकाल २० कोड़ाकोड़ी सागर का होता है।
प्रश्न ११. दोनों कालों के कोई भेद हैं क्या ?
उत्तर—प्रत्येक के ६—६ भेद होते हैं, इसे षटकाल परिवर्तन कहते हैं।
प्रश्न १२. षटकाल के नाम बता दीजिए ?
उत्तर—अवर्सिपणी काल के नाम—(१) सुखमा—सुखमा, (२) सुखम, (३) सुखमा—दुखमा, (४) दुखमा—सुखमा, (५) दुखमा, (६) दुखमा—दुखमा।
प्रश्न १३. इन कालों की समय स्थिति क्या है ?
उत्तर—प्रथमादि क्रमश: काल स्थिति—४ कोड़ाकोड़ी सागर, ३ कोड़ाकोडी सागर, २ कोड़ाकोड़ी सागर। ४२ हजार वर्ष कम १ कोड़ाकोड़ी सागर। २१ हजार वर्ष, २१ हजार वर्ष।
प्रश्न १४. काव्य ३ एवं ४ की आराधना किसने कहां की ?
उत्तर—वणिक पुत्र सुदत्त ने जहाज में की।
प्रश्न १५. आराधना के प्रभाव से कौन सी देवी प्रगट हुई ?
उत्तर—प्रभावती देवी।
प्रश्न १६. इस काव्य का ऋद्धि मंत्र कौन सा है ?
उत्तर—ऊँ ह्री अर्हं णमो सव्वेहि जिणाणं’’।
✋शुभाशीर्वाद
U
01-12-2020
🌹भक्तामर काव्य नं. ५ पर आधारित ९ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-5
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सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश ।
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥
प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं ।
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥
अर्थ : हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
भावार्थ :जिस प्रकार से सिंह के समक्ष आये हुए अपने शावक को बचानेके लिये हरिणी, अपने शक्ति का विचार ना करते हुए, बीच मे आ जाती है, और उसके रक्षण के लिये उद्यत होती है, उसी प्रकारसे हे, समस्त मुनियोंके स्वामी, हे मुनिश, मै भि अपनी अल्पमती का विचार ना करते हुए, आपके भक्तिवश, अपने शक्ति से ज्यादा कार्य, अर्थात आपकि स्तुति करने कटीबध्द हुआ हुँ l
प्रश्न १. स्तवन किसे कहते है ?
उत्तर—भक्ति के साथ भगवान के गुणों का र्कीितन करना स्तवन कहलाता है।
प्रश्न २. ‘‘विगत शक्ति: अपि’’ का अर्थ लिखिए ?
उत्तर—शक्तिहीन होते हुए भी।
प्रश्न ३. ‘मृगेन्द्रम्’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर—सिंह / शेर।
प्रश्न ४. काव्य नं. ५ की आराधना किसने कहाँ की ?
उत्तर—सुभद्रावती नगरी के देवल ने की थी।
प्रश्न ५. आराधना से कौन सी देवी प्रकट हुई ?
उत्तर—अजिता नाम की देवी।
प्रश्न ६. ‘स्तवं कत्र्तुं’ का आशय लिखिए ?
उत्तर—स्तुति करने के लिए।
प्रश्न ७. काव्य नं. ५ का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्री अर्हं णमो अणंतोहि—जिणाणं’’।।
प्रश्न ८. किसकी रक्षा के लिए किसने किसका सामना किया ?
उत्तर—निज शिशु की रक्षार्थ हिरणी ने शेर का सामना किया।
प्रश्न ९. वह हिरणी कैसी थी ?
उत्तर—सद्य प्रसूता थी।
✋शुभाशीर्वाद
U
02-12-2020
🌹भक्तामर काव्य नं. ५ पर आधारित ९ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-5
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सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश ।
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥
प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं ।
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥
अर्थ : हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
भावार्थ :जिस प्रकार से सिंह के समक्ष आये हुए अपने शावक को बचानेके लिये हरिणी, अपने शक्ति का विचार ना करते हुए, बीच मे आ जाती है, और उसके रक्षण के लिये उद्यत होती है, उसी प्रकारसे हे, समस्त मुनियोंके स्वामी, हे मुनिश, मै भि अपनी अल्पमती का विचार ना करते हुए, आपके भक्तिवश, अपने शक्ति से ज्यादा कार्य, अर्थात आपकि स्तुति करने कटीबध्द हुआ हुँ l
प्रश्न १. स्तवन किसे कहते है ?
उत्तर—भक्ति के साथ भगवान के गुणों का र्कीितन करना स्तवन कहलाता है।
प्रश्न २. ‘‘विगत शक्ति: अपि’’ का अर्थ लिखिए ?
उत्तर—शक्तिहीन होते हुए भी।
प्रश्न ३. ‘मृगेन्द्रम्’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर—सिंह / शेर।
प्रश्न ४. काव्य नं. ५ की आराधना किसने कहाँ की ?
उत्तर—सुभद्रावती नगरी के देवल ने की थी।
प्रश्न ५. आराधना से कौन सी देवी प्रकट हुई ?
उत्तर—अजिता नाम की देवी।
प्रश्न ६. ‘स्तवं कत्र्तुं’ का आशय लिखिए ?
उत्तर—स्तुति करने के लिए।
प्रश्न ७. काव्य नं. ५ का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्री अर्हं णमो अणंतोहि—जिणाणं’’।।
प्रश्न ८. किसकी रक्षा के लिए किसने किसका सामना किया ?
उत्तर—निज शिशु की रक्षार्थ हिरणी ने शेर का सामना किया।
प्रश्न ९. वह हिरणी कैसी थी ?
उत्तर—सद्य प्रसूता थी।
✋शुभाशीर्वाद
U
03-12-2020
🌹भक्तामर काव्य नं. ६ पर आधारित २३ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-6
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अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम् ।
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति ।
तच्चारुचूत कलिकानिकरैकहेतु ॥६॥
अर्थ : विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं|
जैसे आम्र वृक्ष मे मोहर कलिका आते हि, कोयल अपने आप को रोक नही पाती और कुजन करने लगती है, वैसे हि ज्ञानी लोगोके उपहास का पात्र मैं अल्पमती, आपके प्रति मेरे भक्ति के प्रति विवश होकर हि आपकि स्तुति मे उद्युक्त हुआ हुँ।
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग स्वामी का अल्पश्रुत से क्या आशय था?
उत्तर—अल्पज्ञान या अल्पज्ञानी से अर्थात् श्रुत (ग्रंथों) का अल्प अभ्यायी हूँ यद्यपि उनके ज्ञान का पता तो उनकी बहु आयामी स्तोत्र रचना से ही होता है, फिर भी अपनी लघुता का दिग्दर्शन ऐसा कहकर कराया है। विद्वानों की यही लघुता उनकी विद्वता की सूचक है।
प्रश्न २. श्रुत किसे कहते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की वाणी को श्रुत कहते हैं अथवा जिनेन्द्रदेव की वाणी जिनशास्त्रों में निहित है, निबद्ध है उन शास्त्रों को श्रुत कहते हैं।
प्रश्न ३. ‘श्रूतवतां परिहास धाम’ का क्या आशय हैं ?
उत्तर—विद्वानों / मनीषियों के द्वारा हँसी का पात्र हूँ।
प्रश्न ४. कोयल कब कूकती / बोलती हैं?
उत्तर—बसन्त ऋतु में।
प्रश्न ५. कोयल के बोलने में क्या कारण है ?
उत्तर—आम मंजरी का समूह।
प्रश्न ६. ज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर—८ भेद हैं।
प्रश्न ७. कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्यायज्ञान, (५) केवलज्ञान।
प्रश्न ८. क्या ये ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं ?
उत्तर—हाँ ! सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
प्रश्न ९. मिथ्याज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर—मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहते हैं।
प्रश्न १०. मिथ्याज्ञान के भी कोई भेद हैं ?
उत्तर—उपर्युक्त पांच ज्ञान में से आदि के तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं।
प्रश्न ११. तो कृपया उन मिथ्याज्ञान के नाम बता दीजिए ?
उत्तर—१. कुमतिज्ञान, २. कुश्रुतज्ञान, ३. कुअवधिज्ञान।
प्रश्न १२. इस काव्य से सम्बन्धित कथा के कथानायक कौन हैं ?
उत्तर—सम्राट हेमवाहन के पुत्र भूपाल कथानायक है।
प्रश्न १३. हेमवाहन कहाँ के सम्राट थे ?
उत्तर—काशी नगरी के।
प्रश्न १४. हेमवाहन के कितने पुत्र थे ?
उत्तर—दो पुत्र थे।
प्रश्न १५. उनके नाम भी बता दीजिये ?
उत्तर—(१) भूपाल, (२) भुजपाल।
प्रश्न १६. राजपुत्रों का अध्ययन किसके द्वारा हुआ था ?
उत्तर—श्रुतधर पंडित के द्वारा।
प्रश्न १७. युगल पुत्र कितने वर्ष में विद्या पारंगत हुये ?
उत्तर—छोटा पुत्र भूपाल १२ वर्षों में समस्त शास्त्रों में पारंगत हो गया।
प्रश्न १८. बडा पुत्र भूपाल क्या शास्त्र निष्णात नहीं हुआ ?
उत्तर—भूपाल जाति मंदबुद्धि था।
प्रश्न १९. भूपाल ने कुशाग्र बुद्धि के लिए क्या किया ?
उत्तर—छठवें काव्य का ऋद्धि मंत्र सहित जाप्य किया।
प्रश्न २०. मंत्र जाप कितने दिन तक किया ?
उत्तर—२१ दिन तक।
प्रश्न २१. छठवें काव्य का ऋद्धि मंत्र कौन सा है ?
उत्तर—ऊँ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठबुद्धीणं’’।
प्रश्न २२. मंत्र की आराधना से कौन सी देवी प्रगट हुई ?
उत्तर—ब्राह्मी नाम की देवी।
प्रश्न २३. मंत्राराधना से भूपाल विद्वान बन गया क्या ?
उत्तर—हाँ ! मंत्राराधना से धुरन्धर विद्वान बन गया।
✋शुभाशीर्वाद
U
04-12-2020
🌹भक्तामर काव्य नं. ७ पर आधारित ८ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-7
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त्वत्संस्तवेन भवसंतति सन्निबद्धं ।
पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ॥
आक्रान्त लोकमलिनीलमशेषमाशु ।
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥
अर्थ : आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|
जैसे सूर्य के उदय मात्रसे उसके प्रकाशसे रात्री मे छाया अंधकार विपलमे नष्ट हो जाता है, वैसेहि आपके नाम मात्र लेनेसे, अनेक जन्मोंमे एकत्रित किये हुए, उस प्राणीके पाप पलभरमे नष्ट हो जाते है, अर्थात आपके नाम कि महिमा अपरंपार है।
प्रश्न १. ‘भव सन्तति’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर—जन्म, जरा और मृत्यु की सनातन परम्परा से है।
प्रश्न २. पाप किसे कहते हैं ?
उत्तर—बुरे कार्यों को पाप कहते हैं।
प्रश्न ३. पाप कितने व कौन—कौन से होते हैं ?
उत्तर—पाप पाँच होते हैं ? (१) िंहसा, (२) झूठ, (३) चोरी, (४) कुशील, (५) परिग्रह इनके अलावा जितने प्रकार के परिणामों की संक्लेशता है वह सब पाप कहलाते हैं।
प्रश्न ४. ‘‘सूर्यांर्शुिभन्न’’ का आशय बताइये ?
उत्तर—सूर्य की किरणों से छिन्न—भिन्न।
प्रश्न ५. ‘‘अलिनीलम्’’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—भ्रमर के समान काले।
प्रश्न ६. काव्य नं. ८ का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो बीज बुद्धीणं।’’
प्रश्न ७. इस मंत्र की आराधना किसने की ?
उत्तर—सम्यक्त्वी रति शेखर ने की।
प्रश्न ८. मंत्राराधना से कौन सी देवी प्रगट हुयी ?
उत्तर—जिनशासन अधिष्ठात्री जृम्भादेवी।
✋ शुभाशीर्वाद
U
05-12-2020
🌹भक्तामर काव्य नं. 8 पर आधारित 9 प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-8
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मत्वेति नाथ्! तव् संस्तवनं मयेद ।
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु ।
मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥
अर्थ : हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|
हे भगवन्। जैसे पानि एक बुंद कमलपत्र के सानिध्य से मानो मोती का रुप धारण करती है, अर्थात कमलपत्र गिरी एक पानी कि बुंद मोतीसमान दिखती है, वैसे हि आपके प्रभाव मेरा यह सामान्य स्तोत्र भि जन जन का चित्त हरने वाला होगा, जिसे मै अब करने जा रहा हुँ l
प्रश्न १. आचार्य श्री मानतुंग स्वामी क्या मानकर भगवान जिनेन्द्र का स्तवन प्रारम्भ कर रहे हैं ?
उत्तर—प्राणियों के अनेक जन्मों में उर्पािजत किए हुये पाप कर्म श्री जिनेन्द्र देव के सम्यक स्तवन करने से क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। ऐसा मानकर प्रभु का स्तवन प्रारम्भ कर रहे हैं।
प्रश्न २. भक्तामर स्तोत्र कैसा है ?
उत्तर—सज्जनों के चित्त को हरण करने वाला है।
प्रश्न ३. सज्जन और दुर्जन में अन्तर बताइये ?
उत्तर—जो मोक्षमार्गी संतों की चरण वंदना करते हैं, उनके आचरण की कामना करते हैं तथा सत्य के उपासक होते हैं। ऐसे सदाचारी जीवों को सज्जन कहते हैं। जो मोक्षमार्गी संत चरणों से दूर उनकी िंनदा के उपासक होते हैं, सत्य से कोसों दूर होते हैं ऐसे दुराचारी जीवों को दुर्जन कहते हैं।
प्रश्न ४. जल बिंदु किस पर कैसी कांति को प्राप्त होती हैं ?
उत्तर—कमलिनी के पत्तों पर मोती की कांति को प्राप्त होती हैं।
प्रश्न ५. काव्य नं. ८ का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो पदाणु सारीणं।’’
प्रश्न ६. इस मंत्र की आराधना किसने और क्यों की ?
उत्तर—धनपाल वैश्य ने, निर्धन एवं नि:संतान होने के कारण की।
प्रश्न ७. किनके द्वारा आराधना करने का मार्ग बताया गया ?
उत्तर—चन्द्रर्कीित एवं महीर्कीित दिगम्बर मुनिराज के द्वारा।
प्रश्न ८. आराधना के फलस्वरूप कौन सी देवी प्रकट हुयीं ?
उत्तर—मंत्र की अधिष्ठात्री महिमा देवी प्रकट हुई।
प्रश्न ९. धनपाल ने धन की प्राप्ति होने पर क्या संकल्प लिया ?
उत्तर—जिनेन्द्र देव के जिनालय निर्माण कराने का संकल्प लिया।
✋शुभाशीर्वाद
U
06-12-2020
🌹भक्तामर काव्य नं. ९ के १० प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-9
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आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त दोषं ।
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ॥
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव ।
पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥
अर्थ : सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|
जैसे कमल को विकसित करने के लिये स्वयं सूर्य को सरोवर तक नही जाना पडता, उसकी लाखो मिल दूर कि प्रभा, एक किरण हि वह कार्य कर देती है, वैसेहि, आपकि कथाहि प्राणीमात्र के दु:खनिवारण का कार्य कर लेती है, उसके लिये समस्त दोषोसे रहित ऐसी आपकि स्तुति करना अनिवार्य नही है।
प्रश्न १. भगवान का नामोच्चारण क्या दूर करता है ?
उत्तर—समस्त दोषों को दूर करता है।
प्रश्न २. आचार्य मानतुंग भगवन् ने पवित्र कथा का वर्णन किस प्रकार किया है ?
उत्तर—आचार्य श्री कहा है–कि हे जिनेन्द्र ! आपका निर्दोष स्तोत्र तो दूर रहे, आपके गुणों की चर्चा मात्र से ही पापों का समूल नाश हो जाता है।
प्रश्न ३. सूर्य किरणें दूर रहने पर भी क्या करती हैं ?
उत्तर—सरोवरों में कमलों को विकसित करती हैं।
प्रश्न ४. सूर्य किरणें कितनी होती है ?
उत्तर—सूर्य में १२,००० किरणें होती हैं।
प्रश्न ५. कथा किसे कहते है ?
उत्तर—महापुरुषों के जीवन चरित्र के ऐसे कथानक जो मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले हैं तथा मोक्ष पुरुषार्थ में कारणभूत सातिशय पुण्य का संचय कराने वाले धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थ का सम्यक् निरूपण करते हैं वे कथा संज्ञा को प्राप्त होते हैं।
प्रश्न ६. तो क्या पुण्य भी मोक्ष का कारण है ?
उत्तर—हाँ ! भगवान जिनेन्द्र के स्तवन, गुणगान से संचित निदान रहित पुण्य परम्परा से मुक्ति का कारण है।
प्रश्न ७. निदान किसे कहते हैं ?
उत्तर—धर्म /पुण्य/ स्तवन आदि करते—करते सांसारिक सुखों की इच्छा करना ही निदान बंध कहलाता है?
प्रश्न ८. काव्य नं. ९ की आराधना से किसको
उत्तर—सम्राट हेमब्रह्म एवं रानी हेमश्री को पुत्र की प्राप्ति हुई।
प्रश्न ९. हेमब्रह्म कहां के सम्राट थे ?
उत्तर—कामरूप देश की भद्रावती नगरी में।
प्रश्न १०. बिना श्रद्धा की भक्ति किस प्रकार की है ?
उत्तर—मुर्दे का शृंगार के समान, रेत से तेल निकालने के समान, पानी को मथकर मक्खन निकालने की इच्छा करने के समान है।
✋ शुभाशीर्वाद
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U
06-12-2020
💎 :~ *भक्तामर स्तोत्र* 📝
🅿️ जैन परम्परा में कौन सा स्तोत्र सर्व मान्य हैं ?
🅰️ भक्तामर स्तोत्र।
🅿️ कौन भक्तामर स्तोत्र का पाठ बड़ी श्रद्धा से करते हैं ?
🅰️ शेताम्बंर , दिग्मबर ।
🅿️ समस्याओं का सामना करने के लिए किसकी जरूरत पड़ती हैं ?
🅰️ मनोबल ।
🅿️ भक्तामर स्तोत्र की रचना कीसने की थी ?
🅰️ मानतुंग सुरिजी ने ।
🅿️ मानतुंग सुरिजी को कितनी मंजिल पर कैद किया था ?
🅰️ चार मंजिल के महेल में।
🅿️ महेल के अंदर कहां पर कैद किया ?
🅰️ तलधर में।
🅿️ कौन से आचार्य ने भक्तामर के कई कल्प तैयार किये थे ?
🅰️ उत्तवर्ती आचार्य जी ने।
🅿️ भक्तामर के कौन से श्लोक में प्रभु रिषभदेव जी को प्रणिपात किया गया है ?
🅰️ प्रथम ।
🅿️ किसमे किसी भी प्रकार की निराशा नहीं है , व लापरवाह नहीं है ?
🅰️ मानतुंग सुरिजी।
🅿️ मानतुंग सुरिजी ने स्वयं को किस रूप में प्रस्तुत किया है ?
🅰️ बालस्था में।
🅿️ मानतुंग सुरिजी के लिए किसकी अल्पता उनके लिए खेद का विषय हैं
🅰️ बुद्धि बल का।
🅿️ बाधाओं को हटाने का सबसे बड़ा आलंबन कौन बनता हैं ?
🅰️ भक्तामर स्तोत्र।
🅿️ भक्तामर के कौन से श्लोक में प्रभु रिषभदेव जी की स्तुति की गई हैं
🅰️ दूसरी गाथा में।
🅿️ मानतुंग सुरिजी को पूरा शरीर किससे जकडा था ?
🅰️ लोहे की जंजीरों से।
🅿️ कौन से परंपरा में हजारों लोग भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते हैं ?
🅰️ जैन में।
🅿️ भक्तामर स्तोत्र कैसा हैं ?
🅰️ मंत्र गर्भित ।
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🌹भक्तामर काव्य नं. १० के ८ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग-10
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U
07-12-2020
नात्यद् भूतं भुवन भुषण भूतनाथ ।
भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा ।
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥
अर्थ : हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
हे त्रिभुवन नाथ! हे समस्त प्राणीयोंके स्वामी! सत्य गुण को धारण करके जो भि आपकि इस पृथ्वीतल पर स्तुति भक्ती करता है, वह शीघ्र आपके समान लक्ष्मी का ( मोक्षलक्ष्मी) धारक हो जाता है, इसमे आश्चर्य क्या है? क्योंकि ऐसे स्वामी का प्रयोजन जो अपने सेवक को अपने समान ना कर दे। अर्थात आप हि एक ऐसे स्वामी है, जो अपने भक्तोंको अपने समान बननेका अवसर देते हो।
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग स्वामी ने काव्य नं १० में जिनेन्द्र प्रभु को किन विशिष्ट विशेषणों से संबोधित किया है ?
उत्तर—जिनेन्द्र भगवान के लिए भुवन भूषण और भूतनाथ विशेषणों से संबोधित किया है।
प्रश्न २. भुवन भूषण का अर्थ बताइये ?
उत्तर—भुवन यानि लोक, भूषण यानि अलंकार / शृंगार/ आभूषण अर्थात् लोक के अलंकार यही भुवन भूषण का अर्थ है।
प्रश्न ३. ‘भुवि’ का अर्थ बताइये ?
उत्तर—पृथ्वी।
प्रश्न ४. भूतनाथ का अर्थ बताइये ?
उत्तर—भूतयानि प्राणी, नाथ यानि स्वामी अर्थात् प्राणियों के स्वामी।
प्रश्न ५. काव्य नं १० का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—ऊँ ह्रीं अर्हं णमो सयं बुद्धाणं।’’
प्रश्न ६. इस मंत्र की अधिष्ठात्री देवी का नाम बताइये ?
उत्तर—रोहिणी देवी।
प्रश्न ७. इस मंत्र की आराधना किसने ? कहाँ ? कितने दिन की ?
उत्तर—श्री दत्त वैश्य ने अंध कूप में तीन दिन तक की।
प्रश्न ८. अंधकूप में क्यों गिरा?
उत्तर—लोभ के कारण।
✋ शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं. ११ के ८ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ भाग-11
U
08-12-2020
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दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं ।
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥
पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः ।
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥
अर्थ : हे अनिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |
आप का दर्शन ऐसा है, कि अनिमेष ( पलक झपकाये बगैर) देखते हि रह जाये। जो एक बार आपके दर्शन कर ले, उसे कही और किसीके भि दर्शन से संतुष्टता नही मिलती, जैसे एक बार क्षीरसमुद्र का चंद्रकांतिके समान और मधुर जल पीने के बाद लवण समुद्र के जल किसे पसंद आयेगा?
प्रश्न १. अपलक या अनिमेष का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर—एकटक अर्थात् बिना पलक झपाये देखना।
प्रश्न २. तीर्थंकर प्रभु को देखने के बाद क्या विशेषता प्रगट की गई है ?
उत्तर—परमात्मा को देखने के बाद अन्य देवी—देवताओं के रूप से संतोष नहीं होता। अर्थात् देवाधि देव वीतराग प्रभु को देखने पर ही संतोष होता है।
प्रश्न ३. अन्य देवों के रूप में मन संतोष को क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
उत्तर—क्योंकि अन्य देवों का रूप शाश्वत नहीं है, अन्य देवों में रागद्वेष की प्रचुरता भी पाई जाती है, जबकि देवाधिदेव रागद्वेष से रहित है।
प्रश्न ४. ‘जलनिधेक्षारं’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—समुद्र के खारे।
प्रश्न ५. काव्य नं ११ का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—ऊँ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय बुद्धाणं।।’’
प्रश्न ६. इस मंत्र की आराधना किसने ? कहाँ की ?
उत्तर—तुरंग कुमार ने रत्नापुरी नगरी में की।
प्रश्न ७. तुरंग कुमार के पिता श्री कौन थे ?
उत्तर—सम्राट रूपद्रसेन थे।
प्रश्न ८. आराधना के प्रेरणा स्रोत कौन थे ?
उत्तर—दिगम्बर मुनि चन्द्रर्कीित जी थे।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं. १२ के १२ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ
भाग:-12
U
09-12-2020
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यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं ।
निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां ।
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥
अर्थ : हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |
हे त्रिभुवन के एकमेव अनुपम आभुषण जैसे भगवन। आपको बनानेमें इस पृथ्वी के समस्त अद्भुत और सुन्दर परमाणू खर्च हो गये, और यह या ऐसे परमाणु अब इस पृथ्वीपर नही पाये जाते, अर्थात आपके रुप का धारी अब इस धरा पर कोई और हो हि नही सकता। अर्थात आप अनुपम और अद्वितीय सुन्दर हो।
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग भगवन् ने प्रभु की देह कैसे परमाणु से निर्मापित कही है ?
उत्तर—देह को मोह, ममता, राग आदि के क्षय से उत्पन्न एवं प्रशांत रस की कांति वाले अर्थात् वीतराग भावना के उत्पादक परमाणुओं से निर्मापित कही है।
प्रश्न २. वीतराग अर्हंत प्रभु का कैसा शरीर होता है ?
उत्तर—परम औदारिक।
प्रश्न ३. शरीर कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर—५ प्रकार का होता है।
प्रश्न ४. कृपया नाम बताइये ?
उत्तर—(१) औदारिक, (२) वैक्रियक, (३) आहारक, (४) तैजस, (५) कार्माण।
प्रश्न ५. अधिक से अधिक एक साथ एक जीव के कितने शरीर हो सकते हैं ?
उत्तर—चार शरीर।
प्रश्न ६. कौन—कौन से कृपया नाम बताइये ?
उत्तर—औदारिक, आहारक, तैजस, कार्माण।
प्रश्न ७. कम से कम कितने शरीर हो सकते हैं ?
उत्तर—दो शरीर।
प्रश्न ८. क्या आप बता सकते हैं कि दो शरीर कौन—कौन से होते हैं ?
उत्तर—हाँ ! हाँ ! तैजस और कार्मण। (विग्रह गति की अपेक्षा)
प्रश्न ९. औदारिक आदि शरीर किसके कौन सा होता है ??
उत्तर—एकेद्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी तिर्यंच और मनुष्य के औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं।
प्रश्न १०. फिर वैक्रियक शरीर के स्वामी कौन हैं ?
उत्तर—देव और नारकी।
प्रश्न ११. क्या देव और नारकियों के एक ही शरीर होता है ?
उत्तर—नहीं ! तीन शरीर होते हैं, वैक्रियक, तैजस और कार्मण।
प्रश्न १२. अधिकाधिक चार शरीरों के स्वामी कौन हैं ?
उत्तर—संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशिष्ट संयमी छठे गुणस्था वर्ती ऋद्धिधारी मुनिराज के चार शरीर हो सकते हैं। १. औदारिक, २. आहारक, ३. तैजस, ४. कार्माण।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं १३ के ७ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ भाग:-13
U
10-12-2020
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वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि ।
निःशेष निर्जित जगत् त्रितयोपमानम् ॥
बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य ।
यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥
अर्थ : हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |
मै आपको चंद्रमा कि उपमा नहि दे सकता, क्युंकि, कहाँ वह कलंकयुक्त चंद्रमा जो दिनमे पलाश के पत्र के समान फिका और कांतिहीन हो जाता है, और कहाँ आपका वह तेजोमय कांतिमान मुख जो मनुष्य, देव, तथा धरणेंद्र के नेत्रोको हरने वाला और तीनो लोकोकि उपमाओंको जितनेवाला अर्थात तिनो लोकोंमे अनुपम है। अर्थात चंद्रमा आपके मुख के समक्ष कुछ भि नही है।
प्रश्न १. भगवान जिनेन्द्र का मुख कैसा है ?
उत्तर—देव, मनुष्य एवं धरणेन्द्रों के नेत्र को हरण करने वाला है।
प्रश्न २. किस उपमा से अलंकृत किया है ?
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु को उपमातीत अर्थात, सम्पूर्ण जगत् की सम्पूर्ण उपमाओं को जीतने वाला कहा है।
प्रश्न ३. तो फिर भगवन् मानतुंग स्वामी ने चन्द्रमा का बिम्ब कैसा बताया है ?
उत्तर—कलंक से मलिन एवं ढाक पत्र (पत्ते) समान पीला सफेद हो जाने वाला बताया है।
प्रश्न ४. देव किसे कहते हैं ?
उत्तर—देवगति नामकर्म के उदर से जीव की पर्याय / अवस्था विशेष को देवगति कहते हैं, उपपाद शय्या एवं वैक्रियक शरीर से जन्म, अणिमादि ऋद्धि युत देव कहलाते हैं।
प्रश्न ५. मनुष्य किसे कहते हैं ?
उत्तर—मनुष्यगति नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय / अवस्था विशेष को मनुष्य गति कहते हैं संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, रजो—वीर्य से गर्भ जन्म वाले मनुष्य कहे जाते हैं।
प्रश्न ६. धरणेन्द्र किसे कहते हैं ?
उत्तर—भवनवासी देवों के १० भेद हैं उन भेदों में नागकुमार जाति के देव हैं, उन देवों के इन्द्र को धरणेन्द्र कहते हैं।
प्रश्न ७. काव्य नं. १३ का ऋद्धिमंत्र बताइये ?
उत्तर—ऊँ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु मदीणं’’
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं १४ के ६ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ भाग:-14
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U
11-12-2020
सम्पूर्णमण्ङल शशाङ्ककलाकलाप् ।
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ॥
ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं ।
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥
अर्थ : पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |
पौर्णिमा के चंद्र के कलाओं समान उज्ज्वल आपके गुण तीनो लोकोंके उनकी स्तुति के द्वारा व्याप्त है, नि:संशय, त्रिलोक के अद्वितीय स्वामि जिनके नाथ हो ऐसे आश्रित गुणोको उन्हे कही भि आने जाने से कौन रोक सकता है । अर्थात आपके उज्ज्वल गुणोंकि चर्चा तिनों लोकोंमे सदैव होते रहती है।
प्रश्न १. जिनेन्द्र भगवान के कितने गुण और कैसे गुणों की चर्चा की है ?
उत्तर—प्रभु की सर्वगुण सम्पन्ना यानि लोक व्यापी गुणों की चर्चा की है।
प्रश्न २. गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो वस्तु के अस्तित्व की पहिचान करायें अथवा जो द्रव्य के आश्रय रहते हैं वे गुण कहलाते हैं। जेसे–जीव के ज्ञानादि गुण, पुद्गल के रसादि गुण।
प्रश्न ३. वे गुण तीनों लोक में क्यों व्याप्त हो रहे हैं ?
उत्तर—क्योंकि उन्होंने अपना आश्रय/सहारा तीनलोक के नाथ का लिया है तब उन्हें त्रयलोक में व्याप्त होने से कौन रोक सकता है।
प्रश्न ४. ‘यथेष्टम् संचरत: का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—अपनी इच्छानुसार विचरण/भ्रमण/घूमने से।
प्रश्न ५. जिनेन्द्र प्रभु के गुणों को किसकी उपमा दी है ?
उत्तर—पूर्णिमा के चन्द्र की कलाओं के सदृश उज्जवल गुणों की उपमा दी है।
प्रश्न ६. काव्य नं. १४ का ऋद्धि मंत्र बता दीजिये ?
उत्तर—‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो विउंल मदीणं।’’
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं १५ के १६ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ भाग:-15
U
12-12-2020
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चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर् ।
नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ॥
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन ।
किं मन्दराद्रिशिखिरं चलितं कदाचित् ॥१५॥
अर्थ : यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं |
जैसे प्रलयकाल कि पर्वतोंको भि हिला देनेवाली वायु, मेरु पर्वत को रजमात्र भि कंपायमान नही कर सकती वैसेहि आप का अविकारी है, यह देवांगनाओ द्वारा किसी भि विकृतिको प्राप्त नही होता, और यह आश्चर्य कि बात भि नही है। आपका मन अविकारी निश्चल है।
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग स्वामी ने १३वें काव्य के माध्यम से क्या कहा है ?
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु का पूर्ण निर्विकारिधना प्रस्तुत किया है।
प्रश्न २. विकार कहाँ और कब उत्पन्न होता है ?
उत्तर—मोह ग्रस्त मन में ही विकार उत्पन्न होता है।
प्रश्न ३. जिनेन्द्र प्रभु में पूर्ण निर्विकारीपना क्यों है ?
उत्तर—मोहनीय कर्म के क्षय कर देने से क्योंकि जहाँ मोह नहीं वहाँ विकार नहीं।
प्रश्न ४. मोहनीय कर्म कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर—दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का होता है।
प्रश्न ५. दर्शन मोहनीय के भेद बता दीजिये ?
उत्तर—(१) मिथ्यात्व, (२) सम्यक् मिथ्यात्व, (३) सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व।
प्रश्न ६. दर्शन मोहनीय का आश्रव किन कारणों से होता है ?
उत्तर—(१) केवलि अवर्णव्द, (२) श्रुत अवर्णवाद, (३) संघ अवर्णवाद, (४) धर्म अवर्णवाद, (५) देव अवर्णवाद, इनसे दर्शन मोहनीय का आश्रव होता है।
प्रश्न ७. अवर्णवाद किसे कहते हैं ?
उत्तर—अंतरंग के कालुष्य परिणाम के कारण किसी में दोष नहीं होने पर भी उसको झूठा दोष लगाना, इसका नाम अवर्णवाद है।
प्रश्न ८. चारित्र मोहनीय के भेद बताइये ?
उत्तर—मूल २ भेद उत्तर भेद २५ है।
प्रश्न ९. २ भेद कौन—२ से हैं ?
उत्तर—(१) कषाय मोहनीय, (२) अकषाय मोहनीय।
प्रश्न १०. कषाय मोहनीय के कितने भेद हैं ?
उत्तर—१६ भेद हैं।
प्रश्न ११. अकषाय मोहनीय के कितने भेद हैं ?
उत्तर—९ भेद हैं (१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद, (९) नपुंसक वेद।
प्रश्न १२. मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बताइये ?
उत्तर—७० कोड़ाकोड़ी सागर की है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं १६ के १३ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ भाग:-16
U
13-12-2020
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निर्धूमवर्तिपवर्जित तैलपूरः ।
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि ॥
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां ।
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ् जगत्प्रकाशः ॥१६॥
अर्थ : हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती |
जिसे प्रलयकाल कि पर्वतोंको भि हिला देनेवाली वायु भि नही बुझा सकती, जिसे जलने के लिये तेल, तथा बाती कि जरुरत नही है, जिसका प्रकाश निर्धुम्र है, और जो तिनो लोक को प्रकाशीत करता है, ऐसे अनुपम, स्वयंप्रकाशीत ज्ञानदीप आप हि हो।
प्रश्न १. जिनेन्द्र प्रभु को कैसे दीपक की उपमा दी है ?
उत्तर—अपूर्व दीपक की।
प्रश्न २. वह अपूर्व दीपक कैसा है ?
उत्तर—धुआं, बत्ती से एवं तेल की पूर्णता से रहित है।
प्रश्न ३. वह अपूर्व दीपक किसका प्रतीक है।
उत्तर—केवलज्ञान का प्रतीत है।
प्रश्न ४. केवलज्ञान का तात्पर्य क्या है ?
उत्तर—केवलज्ञान असहाय अर्थात् अकेला है, जो तीन लोक के समस्त द्रव्य एवं उन द्रव्यों को समस्त पर्यायों को युगपत जानता है।
प्रश्न ५. केवलज्ञान की प्राप्ति कब होती है ?
उत्तर—ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का क्षय होते ही केवलज्ञान प्रकट होता है।
प्रश्न ६. क्षय का तात्पर्य क्या हैं ?
उत्तर—नष्ट/नाश / समाप्त होना।
प्रश्न ७. ‘‘कृत्स्नं जगत्रय’’ का क्या है ?
उत्तर—सम्पूर्ण तीनों लोक।
प्रश्न ८. क्या पंखे आदि की हवा से अपूर्व दीपक बुझ जाता है।
उत्तर—नहीं / केवलज्ञान रूप अपूर्व दीपक को बुझाने में पर्वतों को चलायमान करने वाली प्रचण्ड वायु भी समर्थ नहीं है। फिर पंखे की हवा की क्या शक्ति ?
प्रश्न ९. इस काव्य की आराधना किसने की ?
उत्तर—युवराज क्षेमंकर ने की।
प्रश्न १०. कौन सी देवी उपस्थित हुई थीं ?
उत्तर—जिनशासन की अधिष्ठाती चतुर्भुजी देवी।
प्रश्न ११. युवराज क्षेंमकर के माता—पिता का नाम बताइये ?
उत्तर—पिता महीपचंद्र और माँ सोमश्री थीं।
प्रश्न १२. मित्राबाई ने क्या नियम लिया था ?
उत्तर—रत्नमयी पाश्र्वनाथ की प्रतिम्य के दर्शनोंपरान्त हो भोजन लेंगे।
प्रश्न १३. अध्ययन एवं नियम मित्राबाई ने किस आर्यिका से ग्रहण किया।
उत्तर—पूज्य श्रीमती आर्यिका से।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं १७ के ५ प्रश्नोत्तर काव्य,अर्थ ,भावार्थ भाग-17
🍇🌻🍍🍓🌲🌹🇮🇪🍇🍍🍓
U
14-12-2020
नास्तं कादाचिदुपयासि न राहुगम्यः ।
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ॥
नाम्भोधरोदर निरुद्धमहाप्रभावः ।
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥१७॥
अर्थ : हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |
हे मुनीन्द्र। आप ऐसे प्रकाशपुंज हो, जो ना कि सूर्य के समान कभी अस्तंगत होते है, ना हि राहुसे ग्रसित होते है, और ना हि मेघ आपकि आभा को परास्त कर पाते है; सुर्य से अतिशय महिमाधारी आप तीन लोकोंको एक साथ हि प्रकट अर्थात प्रकाशीत कर देते हो। अर्थात आप के ज्ञान का प्रकाश तिनो लोकोंमे नित्य विद्यमान रहता है।
प्रश्न १. आचार्य भगवन् ने जिनेन्द्र प्रभु को कैसा बताय है ?
उत्तर—सूर्य से भी अधिक महिमाशाली कहा है।
प्रश्न २. किस कारण से सूर्य से अधिक महिमाशाली कहा है ?
उत्तर—लौकिक सूर्य / दिखने वाला सूर्य उदित होकर अस्त को प्राप्त हो जाता है, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अद्वितीय सूर्य हैं, जो कभी भी अस्त को प्राप्त नहीं होते हो। लौकिक सूर्य राहू के द्वारा ग्रस लिया जाता है, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आप राहू के ग्रास गम्य नहीं हैं। लौकिक सूर्य सभी चराचर पदार्थों को प्रकाशित नहीं करता, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अलौकिक सूर्य हैं जो समस्त चराचर पदार्थों तथा तीनों लोकों को शीघ्रता से एक साथ एक समय में ही प्रकाशित करते हो।
प्रश्न ३. राहु क्या है ? और इससे कौन ग्रसा जाता है ?
उत्तर—राहु नवग्रहों में से एक ग्रह है, जो सूर्य तथा चन्द्रमा के ऊपर संक्रमण काल में अपनी छाया डालता है, उसे ही ग्रहण माना जाता है।
प्रश्न ४. ग्रहणकाल में कौन—कौन से सिद्धांत ग्रंथ की वाचना / पढ़ना नहीं चाहिए ?
उत्तर—धवलाजी, षट्खण्डागम, लब्धिसार, क्षपणासार, गोम्मटसार, जीवकांड, त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि सिद्धांत ग्रंथों की वाचना नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न ५. तीन लोकों में सूर्य—चन्द्रमा कहां—कहां है ?
उत्तर—सूर्य—चन्द्रमा केवल मध्यलोक में ही हैं। स्वर्गों में, नरकों में, सिद्धालय भी में सूर्य नहीं है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं १८ के ७ प्रश्नोत्तर भाग:-18
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15-12-2020
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नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं ।
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ॥
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति ।
विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥
अर्थ : हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है |
जो हमेशा उदय मे रहे, मेघ भि जिसे फिका ना कर पाये और राहु से ग्रसित हो, जिसमे कालिमा ना आये ऐसा आपका मुखमण्डल समस्त जगत को अंधकार मे प्रकाशीत करने वाला एक अपुर्व, चंद्रमा के समान है। अर्थात आप मुख के कांति, आभा और शांति समस्त जगत के मोहांधकार को नष्ट कर सम्यक्त्व को प्रकट कराती है। अर्थात आपके दर्शन मात्रसे मोह का नाश हो जाता है।
प्रश्न १. आचार्य भगवन् मानतुंग स्वामी ने जिनेन्द्र प्रभु का मुख कैसा बताया है ?
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु का मुखकमल अद्वितीय चन्द्रबिम्ब की कांति के समान कहा है।
प्रश्न २. भगवान् जिनेन्द्र का मुख चंद्र क्या करता है ?
उत्तर—मोहरूपी महान् अज्ञान अंधकार का नाश करता है।
प्रश्न ३. भगवान् के मुख कमल को अपूर्व चंद्रमा किन विशेषताओं के कारण बताया है ?
उत्तर—आचार्य मानतुंग स्वामी ने भगवान जिनेन्द्र की अपूर्व—चन्द्रमा निम्न कारणों से कहा— लौकिक चन्द्रमा तो मात्र रात्रि में उदित होता है, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अपूर्वचन्द्र हो, जो नित्य ही उदय को प्राप्त है अर्थात् आपका क्षायिक ज्ञान कभी अस्त को प्राप्त नहीं होता, सदा उदित रहता है। लौकिक चन्द्रमा तो चन्द्रग्रहण के समय राहु ग्रह द्वारा ग्रस लिया जाात हे, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आपका अलौकिक मुखचंद्र शुभाशुभ कर्म रूपी राहुग्रह के द्वारा कभी भी नहीं ग्रसा जाता। लौकिक चन्द्रमा की ज्योत्सना बादलों के द्वारा पराभूत हो जाती है, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आपके गुणों की शुभ्र ज्योत्सना बादलों के द्वारा भी अशक्य है। लौकिक चंद्रमा की कांति तो शुक्ल पक्ष की र्पूिणमा के पश्चात् क्रमश: क्षीण होती जाती है, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आपका मुखचंद्र तो पूर्ण चंद्रमा के समान सदैव अनल्पकांति वाला ही रहता है।
प्रश्न ४. काव्य नं. १८ का ऋद्धिमंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व—इड्ठिपत्ताणं’’।
प्रश्न ५. इस काव्य की आराधना किसने की ?
उत्तर—भद्रकुमार ने की।
प्रश्न ६. कौन सी देवी प्रकट हुई ?
उत्तर—वङ्काादेवी प्रकट हुर्इं।
प्रश्न ७. कर्मों का राजा कौन है ?
उत्तर—माहेनीय कर्म।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं १९ के १० प्रश्नोत्तर
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16-12-2020
भाग:-19
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा ।
युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु नाथ ॥
निष्मन्न शालिवनशालिनि जीव लोके ।
कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार नम्रैः ॥१९॥
🔅अर्थ : -हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |
🌲भावार्थ :जैसे पके हुए धान्यके खेतोंसे जो धरती शोभायमान हो रही हो, वहा मेघोंका कोई प्रयोजन नही है, वैसे हि, सुर्य के जैसे दिनका और चंद्रमाके जैसे रात्रीका अंधकार आप अपने आभासे, ज्ञानसे नष्ट करते हो, तो चंद्र और सूर्य कि क्या आवश्यकता? जिसे आपके दर्शन हो जाये, उसे किसी और सुर्य-चंद्र के दर्शन कि कोई जरूरत नही। आप का होना हि, मार्गदर्शक तथा मोहनाशक है।
प्रश्न १. आचार्य भगवन मानतुंग स्वामी ने काव्य नं १९ में भगवान जिनेन्द्रदेव के मुखचंद्र के समक्ष किसको निष्प्रयोजनीय माना है ?
उत्तर—भगवान के मुखचन्द्र के समक्ष दिन सूर्य और रात्रि में चंद्रमा का निष्प्रयोजनाय माना है।
प्रश्न २. जिनेन्द्र प्रभु के मुखचंद्र ने किसका नाश किया ?
उत्तर—समस्त अंतरंग और बहिरंग अंधकार का नाश कर दिया।
प्रश्न ३. प्रभु के मुखचंद्र के समक्ष सूर्य—चंद्र को निष्प्रयोजनी क्यों कहा ?
उत्तर—आगमोक्त कथन है कि तीर्थंकर देव की कांति के कारण २४ घंटे तेज प्रकाश बना रहता है, अतएव वहाँ न तो रात्रि में चंद्रमा की और न ही दिन में सूर्य की कुछ आवश्यकता रहती है।
प्रश्न ४. ‘‘निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि’’ का आशय बताइये ?
उत्तर—‘‘पवे हुये धान्य के खेत शोभाशाली होने पर’’
प्रश्न ५. ‘‘जलभार नम्रै:’’ का अर्थ बता दीजिये ?
उत्तर—जल के भार से झुके हुये।
प्रश्न ६. ‘‘शर्वरीषु शशिना’’ को स्पष्ट कीजिये ?
उत्तर—रात्रि में चन्द्रमा से।
प्रश्न ७. काव्य नं १९ का ऋद्धिमंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो विज्जाहराणं’’।
प्रश्न ८. इस मंत्र की आराधना किसके द्वारा की गयी ?
उत्तर—सुखानंद जौहरी के द्वारा की गयी।
प्रश्न ९. कहाँ और कितने दिन की गयी ?
उत्तर—कारागार में ३ दिन तक की।
प्रश्न १०. कौन सी देवी ने उन्हें संकट मुक्त किया ?
उत्तर—जिनशासन अधिष्ठात्री जम्बूमति देवी।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं २० के ८ प्रश्नोत्तर
भाग-20
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17-12-2020
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं ।
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ॥
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं ।
नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि॥२०॥
अर्थ : -अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता |
भावार्थ :-आपके पास अवकाश पाकर अथवा आपके सानिध्य मे ज्ञान ऐसे सुशोभित होता है, जैसे कांतिमान मणी- रत्नोमें प्रकाश गुणित होता है, बाकि सबका ज्ञान जैसे हरी और हर का, ऐसे लगता है, जैसे काँच के छोटेसे टुकडेपर प्रकाश गिरनेसे दिखता हो। अर्थात आप का ज्ञान इस समस्त विश्व मे एकमेव ज्ञान है, एक ज्ञान है, केवल ज्ञान है, जिसके सामने बाकि ज्ञान जैसे रत्न के समक्ष कोई काँच का टुकडा रख दिया हो।
प्रश्न १. आचार्य भगवन् ने २० वें काव्य में भगवान के कौन से ज्ञान का वर्णन किया है ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के केवलज्ञान का वर्णन किया है।
प्रश्न २. वीतरागी किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिसका राग बीत गया है अर्थात् जो रागद्वेष से रहित हो गये हैं, ऐसे १८ दोषों से रहित भगवान वीतरागी हैं।
प्रश्न ३. अठारह दोष कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—१. क्षुधा, २. प्यास, ३. बुढ़ापा, ४. रोग, ५. जन्म, ६.मरण, ७. भय, ८. मद्, ९. राग, १०, द्वेष, ११. मोह, १२. निद्रा, १३. शोक, १४.िंचता, १५. दु:ख, १६. आरत/अरति, १७. आश्चर्य, १८. स्वेद।
प्रश्न ४. क्या सभी देव वीतरागी होते हैं ?
उत्तर—नहीं, सभी देव वीतरागी नहीं होते अपितु देवाधिदेव ही वीतरागी होते हैं तथा देवगति के समस्त देव सरागी होते हैं।
प्रश्न ५. क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश वीतरागी देव है ?
उत्तर—नहीं, वीतरागी नहीं अपितु सरागी देव हैं।
प्रश्न ६. आचार्य भगवन् मानतुंग ने वीतरागी एवं सरागी देवों को किसके समान कहा है ?
उत्तर—वीतरागी देव को जगमगाती महामिणयों के समान एवं सरागी देव को कांच के टुकड़ों के समान कहा है।
प्रश्न ७. आगम में कितने देवों का वर्णन हैं ?
उत्तर—चार प्रकार के देवों का वर्णन है। (१) देव, (२) अदेव, (३) कुदेव, (४) देवाधिदेव।
प्रश्न ८. उपर्युक्त चार प्रकार के देवों में हमें नमस्कार किसे करना चाहिए।
उत्तर—मात्र देवाधिदेव को नमस्कार करना चाहिए।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं. २१ के ५ प्रश्नोत्तर
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18-12-2020
भाग:-21
मन्ये वरं हरि हरादय एव दृष्टा ।
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमत ॥
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः ।
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥
🌲अर्थ : -हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |
🍍भावार्थ :इस पृथ्वी पर मैने विष्णु और महादेव देखे, तो ठिक हि है, क्योंकि उन्हे देखकर आपको देखने के बाद मन तृप्त हुआ, हृदय को संतोष प्राप्त हुआ, अच्छा हुआ, कि मैने उन्हे पहले देखा, अन्यथा एक बार आपको देखने के बाद क्या इस पृथ्वी का और कोई भि देव जन्म जन्मांतर मे भायेगा? अर्थात आपके समान कोई देव नही, आपकि किसीसे तुलना नही, जो एक बार आपके दर्शन कर ले, आपके चरण मे आ जाये, फिर उसे कोई अन्यमत कि प्रशंसा नही होती। आपका वीतराग रुप हि मन को शांति तथा स्थिरता प्रदान करता है।
प्रश्न १. आचार्य भगवन् मानतुंग स्वामी ने हरिहर आदि देवों को देखना श्रेष्ठ क्यों समझा ?
उत्तर—उन्हें देखकर उनके रागद्वेष, विषय कषायों से युक्त होना ही उनके अरुचि का कारण बना, सरागी हरिहर आदि देवों को देखने बाद ज्यों ही आपको यानि वीतरागी मुद्रा को देखा तो आपके/प्रभु के वीतरागी स्वरूप पर मैं संतुष्ट हो गया।
प्रश्न २. वीतरागी और सरागी देवों में क्या अन्त है।
उत्तर—रागद्वेष आदि १८ दोषों से रहित देव वीतरागी एवं राग—द्वेष कषायों से युक्त देव सरागी होते हैं।
प्रश्न ३. पंच परावर्तन रूप संसार वीतराग प्रभु को देखने के बाद कितना रह जाता है ?
उत्तर—चुल्लू प्रमाण रह जाता है।
प्रश्न ४. सम्यग्दृष्टि आत्मा कैसी होती है ?'
उत्तर—जन्म—जन्मान्तरों में भी सरागी देवों के प्रति आर्किषत नहीं होती हैं।
प्रश्न ५. सच्चा देव किसको माना गया ?
उत्तर—जिसके अन्दर वीतरागता, हितोपदेशिता एवं सर्वज्ञपना हे, वही सच्चा देव है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं २२ के ५ प्रश्नोत्तर
भाग-22
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19-12-2020
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् ।
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं ।
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालं ॥२२॥
🍍अर्थ : सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |
🌹भावार्थ :सैकडो स्त्रिया सैकडो पुत्रोंको जन्म देती है, लेकिन आपको जन्म देने के बाद माता किसी और को जन्म नही देती, जैसे पुर्व दिशा मात्र से हि सूर्य उदित होता है, वैसेही आप अपनी माता के एकमेव पुत्र होते है। अर्थात आप जैसे गुणोके भंडार धारक एक पुत्र को जन्म देने के बाद वह माता धन्य हो जाती है। और कोई संतान वह नही चाहती है, सामान्य पुत्रोंको जन्म देनेवाली माताये अनेक पुत्रोंको जन्म देनेमे हि धन्यता मानती है।
प्रश्न १. इस काव्य में किसकी श्रेष्ठता का वर्णन किया है ?
उत्तर—तीर्थंकर की माता की श्रेष्ठता का वर्णन किया है।
प्रश्न २. तीर्थंकर की माता का श्रेष्ठ क्यों माना है ?
उत्तर—तीर्थंकर को जन्म देने के कारण।
प्रश्न ३. क्या अन्य माताएँ तीर्थंकर के समान पुत्र को जन्म नहीं दे सकती ?
उत्तर—नहीं, तीर्थंकर जैसे प्रतापी पुत्र को अन्य/साधारण माताएँ जन्म नहीं दे सकतीं।
प्रश्न ४. इसके लिए आचार्य मानतुंग भगवन् ने कौन सा उदाहरण दिया है ?
उत्तर—जिस प्रकार पूर्व दिशा ही प्रतापी सूर्य को जन्म दे सकती है, अन्य दिशायें नहीं, उसी प्रकार तीर्थकर की माँ ही तीर्थंकर को जन्म दे सकती है।
प्रश्न ५. इस काव्य का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो आगास-गामीणं।’’
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं २३ के ८ प्रश्नोत्तर
भाग:-23
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20-12-2020
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस ।
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं ।
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥
🍍अर्थ :-हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है
🌹भावार्थ :-हे मुनीन्द्र। तप करने वाले, मोक्ष को प्राप्त करने कि चाह करने वाले आप को पाने कि हि चाह रखते है, क्योंकि वे जानते है, आप हि एकमात्र सूर्य के समान निर्मल तेजस्वी और मोहांधकार पार परम पुरुष है। आप हि शिव है और आप हि शिवमार्ग। अर्थात आपहि मोक्ष है और आप हि मोक्षमार्ग। अर्थात मोक्ष कि चाह रखने वालोंको आपके शरण मे आकर आपके बताये हुए रास्ते पर हि चलना है, और दूसरा कोई शिव भि नही और शिव मार्ग भि नही।
प्रश्न १. वीतराग अर्हंत को मुनिजन कैसा मानते हैं ?
उत्तर—मुनिजन सूर्य के समान तेजस्वी, निर्मल, अज्ञान अंधकार से रहित, मृत्युजंयी, मोक्ष के मार्ग को तथा लोकोत्तर/श्रेष्ठ पुरुष को वीतराग अर्हंत मानते हैं।
प्रश्न २. अर्हंत भगवान को अमल क्यों कहा ?
उत्तर—द्रव्यमल, भावमल आदि से रहित होने के कारण ‘अमल’ कहा है।
प्रश्न ३. अर्हंत भगवान को अंधकार रहित क्यों कहा है ?
उत्तर—ज्ञानावरणी कर्म को समूल नष्ट कर मोहान्धकार को समाप्त/ विध्वंस करने के कारण अर्हंत देव को अंधकार से रहित कहा है।
प्रश्न ४. अर्हंत प्रभु को मृत्युञ्जयी क्यों कहा है ?
उत्तर—उन्होंने मृत्यु यानि मरण को जीत लिया है और निर्वाण को प्राप्त होने वाले हैं अत: मृत्युविजयी होने से वे मृत्युञ्जयी कहलाते हैं।
प्रश्न ५. क्या हम भी मृत्युंजयी बन सकते हैं ?
उत्तर—हाँ ! यदि हम अर्हंत जिनेन्द्र की समीचीन शरण प्राप्त कर लें तो हम भी मृत्युंजयी बन सकते हैं।
प्रश्न ६. अर्हंत प्रभु को परम पुरुष क्यों कहा ?
उत्तर—उपर्युक्त लोकोत्तर अवस्थाओं को प्राप्त कर लेने के कारण प्रभु को पुरुषोत्तम/श्रेष्ठ पुरुष/परम पुरुष कहा है।
प्रश्न ७. काव्य नं. २३ का ऋद्धि मंत्र भी बता दीजिए ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो आसी—विसाणं’’।
प्रश्न ८. ‘‘उपलभ्य जयन्ति मृत्युं’’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—प्राप्त करके यानि आपको प्राप्त करके मृत्यु को जीतते हैं।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं २४ के १४ प्रश्नोत्तर
भाग-24
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21-12-2020
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं
ब्रह्माणमीश्वरम् अनंतमनंगकेतुम् ॥
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ।
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥
🍍अर्थ :सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |
🌲भावार्थ :संत पुरुष आपको हि शाश्वत मानते है, जिसका व्यय नही होगा, विभु कहते है, जो सर्वत्र व्याप्त है, अचिन्त्य कहते है, जिसका यथार्थ स्वरुप का चिंतन कोई नही कर सकता, असंख्य कहते है जिसके गुण, रुप असंख्य है; आद्य कहते है, जो कर्मभूमीके प्रारंभसे है, ब्रह्मा कहते है, जो आत्मस्वरुप है, ईश्वर कहते है, जो सबके इश है; अनंत कहते है, जो अनंत गुण, वीर्य, सुख, दर्शन और ज्ञान से अनंत है; अनंगकेतु कहते है, जिसने सब विकारोंका नाश किया हो; योगीश्वर जो योगीयोंके स्वामी है, नाथ है; विदितयोग कहते है, जिसने योग को जाना, धारा है और समझाया है; अनेक जिसका ज्ञान अनेकांतमय है; एक कहते है, जिसे एक मात्र और सम्पुर्ण ज्ञान , केवलज्ञान है; और अमल कहते है, जिसने कर्मरुपी मल को धो दिया है और परमशुक्ल आत्मा को धारण कर रहे है।
प्रश्न १. भगवान को अव्यय क्यों कहा है ?
उत्तर—आत्म ज्ञान का जो अलौकिक स्वरूप प्राप्त हुआ वह स्खलित/समाप्त या विनाश को प्राप्त नहीं होगा, अत: अव्यय कहकर पुकारा है।
प्रश्न २. तो विभु क्यों कहा है ?
उत्तर—प्रभु अंतरंग और बहिरंग ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण विभु हैं।
प्रश्न ३. भगवान को असंख्य क्यों कहा ?
उत्तर—गुण और काल की संख्या से गणना रहित, असंख्य गुणों से सम्पन्न एवं असंख्य हृदयों में विराजमान रहने से प्रभु असंख्य हैं।
प्रश्न ४. प्रभु को आद्य क्यों कहा ?
उत्तर—वर्तमान कर्मभूमि के आदिम तीर्थंकर, मोक्षमार्ग के आद्य प्रणेता, धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर होने से आद्य कहा है।
प्रश्न ५. प्रभु को ब्रह्मा क्यों कहा ?
उत्तर—कर्मभूमि की सृष्टि आपके माध्यम से प्रारम्भ हुई अत: आप ब्रह्मा है। अथवा आप आत्मानंद/स्व में निमग्न रहने से आप ब्रह्मा हैं।
प्रश्न ६. भगवान को अचिन्त्य क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान में अनन्त गुण हैं, जो मन की चिंतन धारा से परे/दूर मात्र वीतराग र्नििवकल्प समाधि द्वारा स्वानुभाव गम्य हैं। अत: उन्हें अचिन्त्य कहा।
प्रश्न ७. भगवान को ईश्वर क्यों कहा ?
उत्तर—अनन्त ज्ञानादि ऐश्वर्य से सम्पन्न होने से भगवान को ईश्वर कहा है।
प्रश्न ८. भगवान को अनन्त क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान अनन्त चतुष्टय के धारी हैं, अन्त अर्थात् मृत्यु से रहित हैं तथा गुणों का अन्त न होने से अनन्त कहा है।
प्रश्न ९. भगवान को अनंगकेतु क्यों कहा ?
उत्तर—अनंग यानि कामदेव और केतु यानि धूमकेतु, कामदेव का नाश करने वाले धूमकेतु के समान होने से भगवान को अनंग केतु कहा है।
प्रश्न १०. भगवान को योगीश्वर क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान को योगियों के स्वामी होने से योगीश्वर कहा है।
प्रश्न ११. भगवान को विदित योग क्यों कहा ?
उत्तर—अष्टांग योग के पारगामी, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि ध्यान योगों का स्वरूप जानने और बतलाने से उन्हें विदित योग कहा है।
प्रश्न १२. भगवान को अनेक क्यों कहा ?
उत्तर—गुण और पर्यायों की अनेकता की अपेक्षा तथा एक हजार आठ नायों से सम्बोधित होने के कारण व अनेकान्त धर्म का निरूपण करने वाले होने से उन्हें अनेक कहा गया है।
प्रश्न १३. भगवान को एक क्यों कहा ?
उत्तर—जीवद्रव्य की अपेक्षा एक होने से एवं तीनों लोकों में आपके सदृश दूसरा न होने से भगवान को एक कहा है।
प्रश्न १४. भगवान को ज्ञान स्वरूप क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान केवलज्ञान स्वरूप है यद्यपि प्रभु निश्चय से स्वयं को तथा व्यवहार से पर पदार्थों को जानते हैं। अन्तरंग में प्रतिक्षण विशुद्ध ज्ञान परिणमन हो रहा है। इसलिये भगवान को ज्ञान स्वरूप कहा है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं २५ के ५ प्रश्नोत्तर
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22-12-2020
भाग-25
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात् ।
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् ॥
धाताऽसि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानात् ।
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥
🍍अर्थ :देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
🌲भावार्थ :विबुध्द जनोसे अर्चित ज्ञान के धनी होनेसे आप बुध्द कहलाते हो; तिनो लोक मे व्याप्त रहकर शांति प्रदान करनेवाले होनेसे आप को शंकर कहा जाता है; जो स्खलनशील है, उनके लिये आप धीर हो, आधार हो; मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करनेसे आप विधान अथवा ब्रह्मा हो, हे भगवन ; नि:संशय पुरुषोमे श्रेष्ठ आपहि नारायण भि कहे जाते हो। अर्थात आपके अनेक रुप है, आपके हि अनेक नाम है।
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग भगवन् ने प्रभु को बुद्ध कहकर क्यों पुकारा ?
उत्तर—जिनको सत् साधना से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, ऐसे केवलज्ञानी की आराधना, उपासना स्वयं इन्द्र ने पृथ्वी पर आकर की, आपने केवलज्ञान को उजागर किया है अत: आप बुद्ध हैं।
प्रश्न २. भगवान को शंकर क्यों कहा ?
उत्तर—शं यानि सुख, शांति, कर यानि करने वाले अर्थात् तीनों लोकों के जीवों को सुख देने/करने वाले, वैलाश पर्वत से निर्वाण को प्राप्त होने वाले आप ही शंकार हो।
प्रश्न ३. भगवान को विधाता क्यों कहा ?
उत्तर—मोक्षमार्ग की विधि का विधान करने से तथा युग के प्रारम्भ में असि, मसि आदि विद्या के प्रदाता होने से आप विधाता है।
प्रश्न ४. भगवान को पुरुषोत्तम क्यों कहा ?
उत्तर—सर्वोत्कृष्ट पुरुषत्व अपनी पर्याय में व्यक्त कर लेने से आप समस्त पुरुषों में उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ हैं।
प्रश्न ५. भगवान जिनेन्द्र में ब्रह्मा, विष्णु, महेश पना कैसे घटित होता है।
उत्तर—सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति से ‘ब्रह्मा’, संसार पर्याय नाश करने से ‘महेश’ तथा जीव द्रव्य सर्व पर्याय में वही होने से पालन कर्ता
‘विष्णु’ हैं।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं 26 के 6 प्रश्नोत्तर
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24-12-2020
भाग-26
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ।
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ॥
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय ।
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय ॥२६॥
🌲अर्थ :हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो|
🍍भावार्थ :आपकि महिमा अपरंपार है। आपको मेरा नमस्कार हो। तिनो लोक के आर्तता अर्थात दु:खोंका नाश करने वाले आप को मेरा बारंबार नमन। इस धरातल के निर्मल आभुषण अर्थात धरातल को सुशोभित करनेवाले आपको मेरा वंदन हो। तिनो जगत के स्वामी, परमेश्वर आपको मेरा प्रणाम हो। संसार समुद्र को सोखनेवाले अर्थात मोक्ष मार्ग प्रकट करनेवाले और स्वयंभि मोक्ष को प्राप्त होनेवाले हे भगवन आपको मेरा बार बार नमन है।
प्रश्न १. काव्य नं २६ में आचार्य भगवन् ने क्या किया है ?
उत्तर—काव्य २६ के माध्यम से भगवान् जिनेन्द्र को नमस्कार किया है।
प्रश्न २. काव्य की प्रथम लाईन में क्या कहते हुए नमस्कार किया है ?
उत्तर—तीनों लोकों की पीड़ा, दु:ख हर्ता कह प्रभु को नमस्कार किया है।
प्रश्न ३. दूसरे पद में क्या कहते हुए नमस्कार किया है ?
उत्तर—हे क्षिति यानि पृथ्वी तल के निर्मल आभूषण आपको नमस्कार हो।
प्रश्न ४. वीतराग भगवान पृथ्वीतल के निर्मल आभूषण कैसे हैं ?
उत्तर—वीतरागी भगवान तीनों लोकों के शिरोमणि, रत्नत्रय से मण्डित, अनन्त—चतुष्टय के मणि, नव केवल लब्धियाँ आदि आत्म अलंकार से शोभित होने से आप पृथ्वी तल के निर्मल आभूषण हैं।
प्रश्न ५. तृतीय पद में क्या कहते हुए नस्मकार किया है ?
उत्तर—तीनों जगत के परमेश्वर कह नमस्कार किया है।
प्रश्न ६. भगवान् को भविंसधु शोषक क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान् के दर्शनमात्र से दीर्घ संसार चुल्लुभर, प्रमाण रह जाता है, अत: भगवान को भविंसधु शोषक कहा है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं 27 के 6 प्रश्नोत्तर
U
25-12-2020
भाग-27
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस् ।
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! ॥
दोषैरूपात्त विविधाश्रय जातगर्वैः ।
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥
🌹अर्थ : हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?
🌲भावार्थ : आप गुण के समुद्र है। समस्त गुण आपको अपना यथार्थ स्थान जानकर आपके आश्रय मे रहते है, और सुशोभित होकर अपने आपको धन्य मानते है और किसी और मे नही पाये जाते। औरोंके आश्रय पाकर दोष भि अहंकार युक्त होते है, और आपके पास आनेका विचार उन्हे स्वप्न मे भि नही छुता। अर्थात आप गुणोसे भरपुर और निर्दोष हो।
प्रश्न १. आचार्य भगवन् ने काव्य २७ के माध्यम से क्या दर्शाया है ?
उत्तर—वीतरागी अर्हंत भगवान की निर्दोषता, निर्मलता और अनन्तगुणों से निर्वाचित होना दर्शाया है।
प्रश्न २. गुण और दोष कहाँ रहते हैं ?
उत्तर—जहाँ उन्हें आश्रय मिलता है वहीं रहते हैं।
प्रश्न ३. गुणों को किसका आश्रय मिला ?
उत्तर—भगवान् जिनेन्द्र का आश्रय मिला ?
प्रश्न ४. दोषों को किसका आश्रय मिला ?
उत्तर—अन्य रागी देवी—देवताओं का आश्रय दोषों को प्राप्त हुआ।
प्रश्न ५. भगवान जिनेन्द्र के पास दोष क्यों नहीं ठहरें ?
उत्तर—जिसको जहाँ सम्मान मिलता है वह वहीं रहता है, दोषों को वीतरागी भगवान के पास सम्मान नहीं मिला, अत: वे भगवान् को छोड़कर स्वत: चले गये।
प्रश्न ६. भगवान कब बनते हैं ?
उत्तर—जब दोषों के द्वारा स्वप्न में भी नहीं देखे जाते तथा गुणों के द्वारा निर्वाचित कर लिये जाते हैं, तभी भगवान बनते हैं।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं 28 के 7 प्रश्नोत्तर
U
26-12-2020
भाग-28
उच्चैरशोक तरुसंश्रितमुन्मयूख ।
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ॥
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त तमोवितानं ।
बिम्बं रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति ॥२८॥
🍍अर्थ : ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |
🌹भावार्थ : अष्टप्रातिहार्योंमेसे एक ऐसे अशोक वृक्ष कि छाया मे विराजमान होकर भि आप अपने अतुल्य तेज से आभासे उस छाया को ग्रसित करते ऐसे नजर आते हो, जैसे सघन मेघोंके पास तेजस्वी सूर्य अपनी आभासे अंधकार चिरता हुआ, सुशोभित दिखता है।
प्रश्न १. काव्य नं २८ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—‘‘अशोक वृक्ष’’ नाम के प्रथम प्रातिहार्य का वर्णन है।
प्रश्न २. प्रातिहार्य किसे कहते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की महिमा विशेष का बोध कराने वाले समवसरण में स्थित ८ चिन्हों को प्रातिहार्य कहते हैं।
प्रश्न ३. ८ प्रातिहार्य कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—१. अशोक वृक्ष, २. सिंहासन, ३. चंवर, ४. त्रय छत्र, ५. देवदुन्दुभि, ६. पुष्पवृष्टि, ७. भामण्डल, ८. दिव्यध्वनि।
प्रश्न ४. इन प्रातिहार्यों की रचना कौन करता है ?
उत्तर—इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा होती है।
प्रश्न ५. अशोक वृक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिस वृक्ष के नीचे भगवान योग धारण कर वैâवल्य को प्राप्त होते हैं वह अशोक वृक्ष कहलाता है।
प्रश्न ६. इस वृक्ष की कोई विशेषता बताइये ?
उत्तर—यह वृक्ष शोक, संताप, रोग आदि दोषों का निवारक हो जाता है।
प्रश्न ७. यह वृक्ष कितना ऊँचा होता है ?
उत्तर—तीर्थंकरों की अवगाहना से १२ गुणा अवगाहना वाला होता है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं 29 के 5 प्रश्नोत्तर
U
27-12-2020
भाग-29
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे ।
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥
बिम्बं वियद्विलसदंशुलता वितानं ।
तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥
🔅अर्थ : मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|
🌹भावार्थ : तुंग पर्वत के उंचे शिखर के पास सूर्य अपनी सुनहरी तेजस्वी किरणोके साथ जैसे शोभायमान होकर तेजो:पुंज हो, प्रकाशमान होता है, वैसे हि आप के सिंहासनपर लगे चित्र विचित्र मणियोके परावर्तीत प्रकाशके साथ आपका सुवर्णकांति शरीर उज्ज्वल शरीर शोभायमान होता है॥ यह सिंहासन भि आपका प्रातिहार्य है।
प्रश्न १. काव्य नं. २९ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन है।
प्रश्न २. सिंहासन किसे कहते हैं ?
उत्तर—उत्कृष्ट आसन ही िंसहासन कहलाता है।
प्रश्न ३. वह सिंहासन कैसा हैं ?
उत्तर—विविध प्रकार की मणि—मुक्ताओं की चमचमाती, जगमग किरणों से दैदीप्यमान है।
प्रश्न ४. अर्हंत भगवान का शरीर कैसा है ?
उत्तर—सुवर्ण के समान दैदीप्यमान है।
प्रश्न ५. किसकी शोभा किससे दैदीप्यमान है ?
उत्तर—अर्हंत भगवान के विराजमान होने से सिंहासन दैदीप्यमान है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं 3० के 7 प्रश्नोत्तर
U
28-12-2020
भाग-30
कुन्दावदात चलचामर चारुशोभं ।
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ॥
उद्यच्छशांक शुचिनिर्झर वारिधार ।
मुच्चैस्तटं सुर गिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥
🌹अर्थ : कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है|
🌲भावार्थ : चौसट चामरोसे ढुरता आपका तप्त सुवर्ण के वर्ण का शरीर सुमेरु पर्वत के उस स्वर्णमयी तट के समान सुशोभित प्रतीत हो रहा है, जिसपर चंद्रमा के कांतिके समान उज्ज्वल झरनेके शुभ्र और स्वच्छ जल कि धारा बह रही हो। अर्थात आपके इस प्रातिहार्य चवरोंसे मानो आपके उपर एक शुभ्र जल प्रपात ढुर रहा प्रतित होता है।
प्रश्न 1. काव्य नं 3० में किसका वर्णन है ?
उत्तर—चँवर नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।
प्रश्न २. चँवर किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो भगवान जिनेन्द्र के दोनों ओर व्यजन (पंखे) के समान आजू—बाजू से ढोरे जाते हैं, चँवर कहलाते हैं।
प्रश्न 3. भगवान जिनेन्द्र के आजू—बाजू में कितने चँवर ढुराये जाते हैं ?
उत्तर—चौंसठ चँवर ढुराये जाते हैं।
प्रश्न 4. चँवर किस वर्ण वाले होते हैं ?
उत्तर—कुंदपुष्प के समान अत्यन्त धवल, उज्जवल, शुभ्र होते हैं।
प्रश्न 5. चँवर ढोरने वाले क्या मनुष्य होते हैं ?
उत्तर—नहीं, नहीं ! चौंसठ देव चौंसठ चँवरों को ढोरते हैं।
प्रश्न 6. ढुरते हुए चँवरों से क्या शिक्षा मिलती हैं ?
उत्तर—चँवर की तरह मृदु, धवल एवं विनयी बनों, क्योंकि वो चँवर नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं अर्थात् जो प्रभु चरणों में झुकता है, नतमस्तक होता है वहीं नियम से ऊपर अर्थात् मोक्ष में जाता है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं ३१ के ७ प्रश्नोत्तर
U
29-12-2020
भाग-31
छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त ।
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम् ॥
मुक्ताफल प्रकरजाल विवृद्धशोभं ।
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥
अर्थ : चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|
भावार्थ : आपके उपर सुर्य के ताप को रोकते, चंद्रमा के समान चमकते, मोतीयोंके हारसे सजाये हुए, तीन छत्र उपर कि तरफ छोटे होते, एक के उपर एक लगे है, मानो जैसे आपके तीन लोक के नाथ होनेका घोष कर रहे हो। यह भि आपका प्रातिहार्य है।
प्रश्न १. काव्य नं. ३१ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—त्रय छत्र नामक प्रातिहार्य का वर्णन है ?
प्रश्न २. छत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो धूप, वर्षा आदि को रोकने के लिये सिर के ऊपर लगाया जाता हे, वह छत्र कहलाता है।
प्रश्न ३. भगवान के ऊपर छत्र क्या वर्षा, धूप की बाधा को रोकने के लिए ही लगाये जाते हैं ?
उत्तर—नहीं ! नहीं ! भगवान को एक भी बाधा बाधित नहीं करतीं, अपितु उनकी बाह्य विभूति/ऐश्वर्य को निरूपित करती हैं।
प्रश्न ४. भगवान् जिनेन्द्र के ऊपर लगे छत्र क्या दर्शाते हैं ?
उत्तर—सम्राटों के सम्राट, चक्रवर्ती तथा इन्द्रों के इंद्र अर्थात् इनके स्वामी पने को दर्शाते हैं।
प्रश्न ५. भगवान् जिनेन्द्र के ऊपर तीन छत्र किसके प्रतीक हैं ?
उत्तर—तीन छत्र त्रयलोकों के एक छत्र राज्य के द्योतक हैं अर्थात् तीनों जगत के परमेश्वर पने को प्रगट करते हैं।
प्रश्न ६. वह छत्र किस प्रकार की शोभा से युक्त हैं ?
उत्तर—वह छत्र चंद्रमा की कांति के समान, मोतियों के समूह वाली झालर से युक्त, अत्यन्त शोभा को बढ़ाने वाले हैं।
प्रश्न ७. भगवान तीनों लोकों के स्वामी हैं तो क्या समवसरण में नारकी नहीं होते ?
उत्तर—नहीं, समवसरण में नारकी नहीं होते
है l
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं ३२ के ८ प्रश्नोत्तर
U
30-12-2020
भाग-32
गम्भीरतारवपूरित दिग्विभागस् ।
त्रैलोक्यलोक शुभसंगम भूतिदक्षः ॥
सद्धर्मराजजयघोषण घोषकः सन् ।
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥
अर्थ : गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है| l
भावार्थ : गंभीर और उच्च रव मे दश दिशाओंको गुंजायमान करनेवाला; तिनो लोकोंके समस्त भव्य जीवोंके शुभ संगम कराने मे समर्थ ( भगवान के विहार को जन जन तक पहुंचाता हुआ); भगवान ने बताये हुए समीचीन धर्म के जय कि घोषणा कर; आपका यशगान करने वाला आपका प्रतिहार्य वाद्य देवदुंदुभि अतिशय शोभित हो रहा है।
प्रश्न १. काव्य नं. ३२ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—दुंदुभि वाद्य नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।
प्रश्न २. दुंदुभि किसे कहते हैं ?
उत्तर—मधुर, गूढ़ ऊँचे स्वर से निनादित होने वाले देवोपनीत दिव्य घोष को दुंदुभि कहते हैं।
प्रश्न ३. ये दुंदुभि वाद्य कौन बजाता है ?
उत्तर—देवगण।
प्रश्न ४. दुंदुभिवाद्य देवगण कहाँ पर बजाते हैं ?
उत्तर—भगवान् जिनेन्द्र देव समक्ष एवं विहार करते समय।
प्रश्न ५. समवसरण में कितने वाद्य बजाते हैं ?
उत्तर—साढ़े बारह करोड़।
प्रश्न ६. दुंदुभि वाद्य किसको क्या कहता है ?
उत्तर—तीनों लोकों के प्राणियों को शुभ समाचार देने वाला है।
प्रश्न ७. दुंदुभि वाद्य सुनकर कौन से प्राणी जागते हैं ?
उत्तर—विषय कषाय से र्मूिच्छत प्राणी जागकर शुभ समागम के इच्छुक हो जाते हैं।
प्रश्न ८. दुंदुभि वाद्य क्या करने वाला है ?
उत्तर—समीचीन धर्म और धर्मराज तीर्थंकर की जय—जयकार करने वाला तथा उनका यशोगान करने वाला है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं ३३ के ७ प्रश्नोत्तर
U
31-12-2020
भाग-33
मन्दार सुन्दरनमेरू सुपारिजात ।
सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा ॥
गन्धोदबिन्दु शुभमन्द मरुत्प्रपाता ।
दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥
🔅अर्थ : सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है|
🍍भावार्थ : आपका और एक प्रातिहार्य पुष्पवृष्टी है। आपके वचनोके समान हि, आकाशसे सुगंधित जल बिंदु और मन्द सुंगधित वायु के साथ समवशरण मे मन्दार, सुन्दर, नमेरु, सुपारिजात और सन्तानक जैसे कल्पवृक्ष के पुष्प आप पर देवोंद्वारा वर्षित किये जाते है।
प्रश्न १. काव्य नं. ३३ में किस प्रातिहार्य का वर्णन है ?
उत्तर—पुष्पवृष्टि नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।
प्रश्न २. पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य क्या है ?
उत्तर—देवगणों के द्वारा आकाश से होने वाली सुगन्धित जल मिश्रित मंद—मंद वायु के साथ पुष्पों की वर्षा ही पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य है।
प्रश्न ३. पुष्पवृष्टि देवगण कहाँ पर करते हैं ?
उत्तर—समवसरण में।
प्रश्न ४. कौन से पुष्पों की वृष्टि करते हैं ?
उत्तर—मंदार, सुन्दर, नमेरु, परिजात, और संतानक नाम के कल्पवृक्षों के सुन्दर—सुन्दर पुष्पों की वृष्टि करते हैं।
प्रश्न ५. वह पुष्पवृष्टि किस प्रकार की होती है ?
उत्तर—वह पुष्पवृष्टि ऊध्र्वमुखी अर्थात् पुष्पों के मुख ऊपर की ओर तथा डंठल भाग नीचे की ओर रहता है, इस प्रकार होती है।
प्रश्न ६. कल्पवृक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर—अपनी इच्छा के योग्य पदार्थों को देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते हैं। जो भोगभूमि और देवों के नन्दनवन में पाये जाते हैं।
प्रश्न ७. क्या इस पुष्पवृष्टि से समवसरण में भव्यजनों को बाधा नहीं होती ?
उत्तर—नहीं, बाधा नहीं अपितु सुख की प्रतीति होती है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं ३४ के ७ प्रश्नोत्तर
U
01-01-2021
भाग-34
शुम्भत्प्रभावलय भूरिविभा विभोस्ते ।
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ॥
प्रोद्यद् दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या ।
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम सौम्याम् ॥३४॥
🔅अर्थ : हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है|
🌲भावार्थ : तिनो लोकोकें दिव्य कांतीमान पदार्थोंकि कांति एकत्र भि कि जाये, तो भि आपके भामंडल के प्रभा के आगे फिकी पड जाये, और शतसूर्योंके समान जिसका तेज हो, ऐसा वह आपका प्रातिहार्य अहाहा अतिशय, कि इतना दैदिप्यमान प्रभावान होकर भि वह भामंडल चंद्रमा कि शीतलता से युक्त सौम्य प्रकाशित सुखदायी निशा को मात दे रहा है।
प्रश्न १. आचार्य भगवान ने इस काव्य में किसका वर्णन किया है ?
उत्तर—भामण्डल नामक प्रातिहार्य का।
प्रश्न २. भामण्डल किसे कहते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की देह से नि:सृत रश्मियों से जो अत्यन्त शोभनीय प्रभामण्डल बनता है वही दैदीप्यमान कांति का गोलाकार मण्डल ‘‘भामण्डल’’ कहलाता है।
प्रश्न ३. यह भामण्डल कहाँ पर बनता है ?
उत्तर—समवसरण में विराजमान अर्हंत भगवान के मस्तक के पीछे बनी गोलाकार दर्पणवत् आकृति भामण्डल है।
प्रश्न ४. भामण्डल की विशेषता क्या है ?
उत्तर—भव्यजनों के ७—७ भवों को परिलक्षित करता है।
प्रश्न ५. वह सात भव कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—३ अतीत यानि भूतकाल के, ३ भविष्यकाल के और १ वर्तमान का।
प्रश्न ६. ये भामण्डल किसे लज्जित करने वाला है ?
उत्तर—तीनों लोकों के कांतिवान पदार्थों की कांति को लज्जित करने वाला है।
प्रश्न ७. भामण्डल की कांति किसे जीत रही है ?
उत्तर—भामण्डल की कांति रात्रि को भी जीत रही हैं।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं ३५ के ८ प्रश्नोत्तर
U
02-01-2021
भाग-35
स्वर्गापवर्गगममार्ग विमार्गणेष्टः ।
सद्धर्मतत्वकथनैक पटुस्त्रिलोक्याः ॥
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसत्व ।
भाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥
अर्थ : आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है|
भावार्थ : तिनो लोक मे केवल आपकि हि दिव्यध्वनी एक ऐसी वाणी या ध्वनी है, जो स्वर्ग या मोक्ष के साधक, या तिनो लोकके भव्य जीवोंको समीचीन धर्म का कथन करनेमे सक्षम और स्पष्ट है और समवशरण मे उपस्थित सब जीवोंको अपने अपने भाषामे (अर्थात सात सौ मुख्य और अठारह गौण) परिवर्तीत होकर सुगम सुनायी देती है, यह भि आपका एक प्रातिहार्य है।
प्रश्न १. इस काव्य में किसका वर्णन है ?
उत्तर—दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन हैं।
प्रश्न २. दिव्य ध्वनि किसे कहते हैं ?
उत्तर—भगवान के परमौदारिक शरीर से खिरने वाली ऊँकार रूप वाणी दिव्यध्वनि कहलाती है।
प्रश्न ३. दिव्य ध्वनि कब खिरती हैं ?
उत्तर—दिव्यध्वनि प्रात:, मध्यान्ह, सांय/ अपरान्हि और मध्यरात्रि में छ: छ: घड़ी के अन्तराल से ४ बार खिरती हैं।
प्रश्न ४. क्या असमय में भी खिरती हैं ?
उत्तर—हाँ ! भगवान की दिव्यध्वनि चक्रवर्ती आदि पुण्य पुरुषों के कारण असमय में भी खिरती है।
प्रश्न ५. भगवान की दिव्यदेशना किसके अभाव में नहीं खिरती ?
उत्तर—गणधर परमेष्ठी के अभाव में।
प्रश्न ६. भगवान की दिव्य ध्वनि कितनी दूर तक सुनाई पड़ती है ?
उत्तर—एक योजन अर्थात् ४ कोस तक।
प्रश्न ७. दिव्य ध्वनि शरीर के किस अंग से खिरती है ?
उत्तर—सर्वांग से या मुख से अनक्षरात्मक / अक्षरात्मक रूप खिरती हैं।
प्रश्न ८. भगवान की दिव्य ध्वनि किस भाषा में सुनाई पड़ती है ?
उत्तर—मागध जाति के देवों के माध्यम से सात सौ अठारह भाषाओं में परिणम हो सुनाई देती है।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं ३६ के ७ प्रश्नोत्तर
भाग-36
U
03-01-2021
उन्निद्रहेम नवपंकज पुंजकान्ती ।
पर्युल्लसन्नखमयूख शिखाभिरामौ ॥
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः ।
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥
अर्थ : पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं|
भावार्थ : नुतन कोमल कमल के वर्ण के समान सुंदर आपके प्रभायुक्त नखोंसे शोभायमान आपके चरण जहाभि, जिस दिशामेंभी जाना या पडना चाहते है, वहाँ देवगण आप के चरणोके निचे १०८ पंखुडीयो स्वर्ण कमलोंकि रचना करते है।जबकि जमीनसे चार अंगुल चलनेसे आप उन कमलोंके कोमल पंखुडीयोंके स्पर्श करे बगैर हि विहरमान होते है। यह आपका देवकृत अतिशय है।
प्रश्न १. आचार्य भगवान् ने इस काव्य में किसका वर्णन किया है ?
उत्तर—देवोंकृत स्वर्ण कमल की रचना जो प्रभु के चरण तले होती है ऐसा देवकृत अतिशय का वर्णन है।
प्रश्न २. देवगण स्वर्णकाल की रचना कब करते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के विहार के समय।
प्रश्न ३. विहार के समय कितने स्वर्ण कमलों की रचना होती है ?
उत्तर—२२५ कमलों की रचना होती है।
प्रश्न ४. तो जिनेन्द्र प्रभू कमलों पर चरण रखते हुए विहार करते हैं ?
उत्तर—नहीं ! नहीं ! कमलों पर नहीं वरन् कमल से चार अंगुल ऊपर अधर में ही विहार करते हैं।
प्रश्न ५. भगवान किस आसन से विहार करते हैं ?
उत्तर—खड़गासन मुद्रा में ही विहार करते हैं।
प्रश्न ६. क्या भगवान का विहार सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में होता है ?
उत्तर—नहीं, सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में नहीं, अपितु भरतक्षेत्र के छहखंडों (पांच मलेच्छ खण्ड और एक आर्यखण्ड) में से मात्र एक आर्यखण्ड में ही होता है।
प्रश्न ७. भगवान जिनेन्द्र धरती से कितने ऊपर आकाश में विहार करते हैं ?
उत्तर—धरती से ५००० धनुष ऊपर।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं ३७ के ५ प्रश्नोत्तर
U
04-01-2021
भाग-37
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र ।
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥
यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा ।
तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३७॥
🔅अर्थ : हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
🌲भावार्थ : हे जिनेन्द्र भगवन। धर्म उपदेश के लिये, शासन के लिये, प्रभावना के लिये आपका यह जो समवशरणरुप ऐश्वर्य है, उसका अंशमात्र भि किसी और के पास नही होता। सार्थ हि है, जो अंधकार हटानेका सामर्थ्य तेजस्वी किरणयुक्त सूर्य के पास होता है, वह शुक्रादि फिके ग्रहोके पास नही होता है।
प्रश्न 1. काव्य नं. ३7 में किसका वर्णन है ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र देव के धर्मोपदेश के समय होने वाली अद्वितीय विभूति का वर्णन है ?
प्रश्न २. भगवान जिनेन्द्र की अद्वितीय विभूति कौन सी है ?
उत्तर—अंतरंग और बहिरंग के भेद से भगवान जिनेन्द्र की विभूति दो प्रकार की है।
प्रश्न 3. अंतरंग और बहिरंग विभूति का तात्पर्य स्पष्ट कर दीजिए ?
उत्तर—अनन्त दर्शन आदि अनन्त चतुष्टय तो अंतरंग विभूति है और बहिरंग विभूति यानि समवसरण, अष्ट प्रातिहार्य आदि है।
प्रश्न 4. समवसरण किसे कहते हैं ?
उत्तर—केवलज्ञान होने के बाद कुबेर द्वारा प्रभु के धर्मदेशना स्थल को समवसरण कहते हैं।
प्रश्न 5. समवरण में 1२ सभाएं होती उनमें कौन और किस क्रम से बैठते हैं ?
उत्तर—(1) मुनिगण, (२) कल्पवासी देवियाँ, (3) आर्यिकाएँ / श्राविकाएँ, (4) ज्योतिष देवियाँ, (5) व्यंतर देवियाँ, (6) भवनवासी देवियाँ, (7) भवनवासी देव, (8) व्यंतर देव, (9) ज्योतिष देव, (1०) कल्पवासी देव, (11) मनुष्य गण, (12) तिर्यंच। पूर्व दिशा में से जानना चाहिये।
✋शुभाशीर्वाद
🌹भक्तामर काव्य नं 38 के 5 प्रश्नोत्तर
भाग-38
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05-01-2021
श्च्योतन्मदाविलविलोल कपोलमूल ।
मत्तभ्रमद् भ्रमरनाद विवृद्धकोपम् ॥
ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं ।
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥
🔅अर्थ : आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता|
🌹भावार्थ : आपके चरण मे शरण प्राप्त प्राणीयोंको उस उदंड ऐरावत समान विशाल हाथी के आक्रमण से भि डर नही लगता जिसके गण्डस्थल से मद झरके गण्डस्थल के मलीन और चंचल बनाते हुआ और उन्मत्त भंवरोको आकृष्ट करके, उनके गुंजारव से और भि क्रोधीत होकर आक्रमण करते चला आ रहा हो।
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग स्वामी ने काव्य नं. ३८ में क्या कहा है ?
उत्तर—हाथी से भय मुक्त की बात कही है।
प्रश्न २. किस प्रकार के हाथी से भय मुक्त कराया है ?
उत्तर—ऐरावत हाथी के समान विशाल, उद्दण्ड, मद से युक्त, क्रोध से उन्मत्त ऐसे हाथी से निर्भयता प्रदान की है।
प्रश्न ३. हाथी का क्रोध कैसे बढ़ा ?
उत्तर—गण्डस्थल अथवा मस्तक पर मड़राते हुये भौरों के गुंजन से।
प्रश्न ४. ऐसे उद्दण्ड हाथी से भला कौन भयभीत न होगा।
उत्तर—केवल भगवान जिनेन्द्र की शरण को प्राप्त भक्त भयभीत न होगा।
प्रश्न ५. क्या प्रभु का शरणागत केवल हाथी के भय पर ही विजय प्राप्त करता है या अन्य पर भी ?
उत्तर—प्रभू की शरण को प्राप्त भक्त जन्म—जरा—मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।
✋शुभाशीर्वाद
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