शरीर 5



शरीर नश्वर है, पर इस मानव शरीर से हम सदुपयोग करके मानवता का विकास कर सकते हैं। मानव शरीर दुर्लभ है। यह शरीर सन्मार्ग पर चलकर अनंत कार्यों से मुक्त हो सकते हैं। आत्मा की पवित्रता की प्राप्ति हो सकती है। आचार्य श्री ने कहा कि साधन का सदुपयोग करना साधना, धर्म का रूप बन जाता है। कर्मों से छुटकारा पाना है। कष्टों से मुक्त होना है तो सन्मार्ग का अनुसरण करें। आत्मा की शुद्धि बाह्य तत्वों से नहीं धर्म-पथ से होती है। शरीर के लिए भोजन है, आत्मा के लिए प्रभु स्मरण, भजन है, जो मन को सात्विक बनाती है।


शरीर- शरीर याने देह 


नाम कर्म का एक भेद होता है शरीर नाम कर्म जिसके उदय से जीव के शरीर की रचना होती है !


मुक्त होने से पहले आत्मा जिस पुद्गल के साथ संसार भ्रमण करती है, उसे शरीर कहते हैं !


यहाँ हम बेहद संक्षिप्त में जानेंगे, किन्तु इस विषय को सूक्ष्मता से जानने के लिए "तत्वार्थसूत्र जी" के दूसरे अध्याय के 36 से लेकर 49 तक के सूत्र पढ़ने परम आवश्यक हैं !


तत्वार्थसूत्र जी के दूसरे अध्याय की 36वें सूत्र में लिखा है :-


"औदारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्माणानि शरीराणि !!36!!"


याने, शरीर 5 प्रकार के होते हैं।

१ - औदारिक शरीर

२ - वैक्रियिक शरीर

३ - आहारक शरीर

४ - तैजस शरीर, और

५ - कार्माण शरीर 


1 - औदारिक शरीर


- जो शरीर गर्भ या सम्मूर्च्छन जन्म से उत्त्पन्न होता है ! वह औदारिक शरीर है !

- यह सप्त धातु (रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य) सहित होता है !

- मनुष्य और त्रियंचों के औदारिक शरीर होते हैं !

- सारे शरीरों में औदारिक शरीर सबसे "स्थूल" है !


2 - वैक्रियिक शरीर


- विक्रिया माने शरीर के स्वाभाविक आकार के अलावा दूसरे आकार बना लेना !


- जैसे टीवी पर रामायण में हनुमान अपने शरीर के कभी छोटे कभी बड़े आकार करते दिखाई पड़ते हैं !

- यह सप्त धातु (रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य) रहित होता है !

- देवों और नारकियों के वैक्रियिक शरीर होता है !

- कह सकते हैं कि "उप्पाद जन्म" लेने वालों के वैक्रियिक शरीर होता है !


महामुनियों को भी विशेष तप से "विक्रिया ऋद्धि" प्राप्त हो जाती है, और वह भी अपना शरीर इच्छा-अनुसार छोटा-बड़ा कर सकते हैं !


यह विक्रिया-ऋद्धि भी आगे 11 प्रकार कि होती है !

पूजन पाठ प्रदीप में या किसी भी पूजन संग्रह में "अथ परमर्षि स्वस्ति (मंगल) विधान" में 64 ऋद्धियों में इन ऋद्धियों का वर्णन है !


3 - आहारक शरीर


- सूक्ष्म तत्व की जिज्ञासा होने पर, अन्य क्षेत्र में विराजमान वर्त्तमान केवली या श्रुत केवली के पास भेजने को या असंयम को दूर करने के लिए "छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त-संयत साधु" जिस शरीर की रचना करते हैं, उसे आहारक शरीर कहते हैं !


- यह शरीर सूक्ष्म होता है, पहाड़ों से टकराता नहीं है, शस्त्रों से छिन्न-भिन्न नहीं होता, अग्नि से जलता नहीं है, पानी में भीगता नहीं है !

- यह केवल ऋद्धिधारी मुनियों के ही हो सकता है !

- मुनि के मस्तक से 1 हाथ के परिमाण वाले सफ़ेद रंग के पुतले के रूप में यह शरीर निकलता है, इसे सीमित समय के लिए ही उत्त्पन्न किया जाता है !

- इसकी अवधि अन्तर्मुहुर्त होती है ! और अपने उद्देश्य को पूर्ण करके 1 अन्तर्मुहुर्त में यह मुनि के शरीर में ही प्रवेश कर जाता है !

- यह शरीर एक क्षण में कई लाख योजन तक जा सकता है !


4 - तैजस शरीर


तैजस शरीर 2 प्रकार का होता है


१ - एक अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है जो औदारिक शरीर (जैसा हम लोगों का है) में रहकर उसे कांति/तेज देता है, उसे गर्मी देता है, तथा खाये हुए भोजन को पचाने में कारक होता है !

यह वाला तैजस शरीर तो सभी संसारी जीवों के होता है !


२- यह तैजस शरीर से निकल कर बाहर जाने वाला शरीर होता है ! जैसे हमने आहारक शरीर का पढ़ा था !

ऋद्धिधारी मुनियों के दायें/बाएं कंधे से बाहर निकलने वाला शुभ व अशुभ रूप तैजस शरीर होता है !

इसे तैजस समुदघात भी कहते हैं !


इसे आगे "समुदघात" में पढ़ें !


5 - कार्माण शरीर


यह सब शरीरों का जनक है, सबमे प्रमुख है ! यह हर जीव के होता है !


ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के ही कर्म स्कंध को "कार्माण शरीर" कहते हैं और ये तो हम जानते ही हैं कि कर्म अनादिकाल से आत्मा के प्रदेशों के साथ जुड़े हुए हैं ! यह सबसे सूक्ष्म शरीर है, इसलिए हर पल साथ होने पर भी दिखायी नहीं देता।


इसका होना ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे, कैसेट में गाने डाले हुए हैं, वो म्यूजिक प्लेयर में बज तो रहे हैं परन्तु अंदर कैसेट में किस रूप में और कहाँ पर हैं वो हम नहीं देख सकते, उसी तरह कार्माण शरीर है !


शरीर, अन्य जानने योग्य बातें 


इन शरीरों की बढ़ते हुए क्रम में "सूक्ष्मता" :-


औदारिक शरीर < वैक्रियिक शरीर < आहारक शरीर < तैजस शरीर < कार्माण शरीर

याने की औदारिक शरीर सबसे स्थूल और कार्माण शरीर सबसे सूक्ष्म होता है !


प्र :- एक समय में कितने शरीर हो सकते हैं ?

उ :- प्रत्येक संसारी जीव के हर समय तैजस और कार्माण शरीर तो होते ही हैं।


अब अगर वह देव/नारकी हुआ तो उसके वैक्रियिक, तैजस और कार्माण 3 शरीर होंगे !


मनुष्य/त्रियंच हुआ तो उसके औदारिक, तैजस और कार्माण 3 शरीर होंगे !


ऋद्धिधारी मुनि हुए तो उनके औदारिक, आहारक, तैजस और कार्माण 4 शरीर हो सकते हैं !


मृत्यु हो जाने के बाद, हमारा औदारिक शरीर तो आत्मा को छोड़ देता है, किन्तु तैजस और कार्माण शरीर आत्मा के साथ भव-भवान्तर तक साथ बने रहते हैं !


सभी कर्मों का नाश हो जाने पऱ, या कहिये कि जीव के सिद्ध हो जाने पर ही ये साथ छोड़ते हैं !


इस प्रकार हमने 5 प्रकार शरीरों को जाना ...


जैनम् जयतु शासनम् 


देव और नारकी जीव वैक्रिय शरीर (बिना हाड़ मांस वाला शरीर/ पल में कपूर की भांति उड़ जाने वाला शरीर, जिसमे म्रत्यु के पश्चात कुछ अवशेष नही रहता) के साथ पैदा होते है। मनुष्य और त्रस जीव औदारिक शरीर (हाड़ मांस वाला शरीर/ स्पर्श से महसूस होने वाला एवम दृश्य शरीर, जिसमे म्रत्यु के पश्चात अवशेष रह जातें है) के साथ। तेजस ओर कार्मण शरीर हमेशा आत्मा से चिपके रहते है जीव को मुक्ति मिल जाने से ही तेजस ओर कार्मण शरीर से मुक्ति मिलती है।


जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्ति तक जीव निम्न चार गतिओं में भ्रमण करता है -

1 नरक गति

2 तिर्यंच गति

3 मनुष्य गति

4 देव गति

शरीर पाँच माने जाते है-

1 औदारिक शरीर , जोकि सभी मनुष्य एवं तिर्यंच गति (पशु, पक्षी, छोटे बङे सभी तरह के शेष कीटाणु आदि जीव) के होता है।

2 वैक्रिय शरीर, जोकि देव और नरक गति के सभी जीवो का होता है ।

3 तैजस शरीर, यह शरीर मोक्ष प्राप्ति तक सभी गतिओं के जीवों के साथ ही रहता है।

4 कार्मण शरीर, यह शरीर भी तैजस शरीर की तरह सभी गतिओं के जीवो के साथ ही रहता है।

5 आहारक शरीर, यह शरीर विशिष्ठ ज्ञानधारी जैन साधुओं के ही होता है।इसका उपयोग केवल ज्ञानी भगवंत से साधु अपनी जिज्ञासा के समाधान हेतु या किसी विशिष्ठ प्रयोजन आदि कारणों से उपयोग कभी कभी करते है ।

अतः अलग अलग गति के जीवो के शरीर उपरोक्त अनुसार होते है । मोक्ष में केवल आत्मा ही जाती है यानि सभी तरह के शरीर यही छुट जाते है ।







*प्रतिभा कोठारी का सादर प्रणाम👏🏻*


*आज का टॉपिक:- पांच शरीर*


🙇‍♀1) शरीर किस कर्म की देन है?

💁1) शरीर नाम कर्म


🙇‍♀2) कितने शरीर के अंगोपांग होते है?

💁2) 3- औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर


🙇‍♀3) औदारिक शरीर के साथ कौन से शरीर की नियमा है?

💁3) तेजस और कार्मण


🙇‍♀4) देव के उत्तर वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट स्थिति कितनी?

💁4) 15 दिन


🙇‍♀5) नारकी के उत्तर वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट स्थिति कितनी?

💁5) अन्तर्मुहूर्त


🙇‍♀6) यह शरीर का निर्माण एक भव में 2 बार हो सकता है?

💁6) आहारक शरीर


🙇‍♀7) सबसे सूक्ष्म शरीर कौन सा?

💁7) कार्मण शरीर


🙇‍♀8) आहारक शरीर का निर्माण कौन से गुणस्थान में होता है?

💁8) छट्ठे गुणस्थान 


🙇‍♀9) शरीर के मुख्य अंग कितने व कौन कौन से?

💁9) 8- दो हाथ, दो पैर, सिर, छाती, पेट और पीठ


🙇‍♀10) कौन से द्रव्य की सहायता से शरीर मिलता है?

💁10) पुद्गल द्रव्य


🙇‍♀11) सबसे ज्यादा शरीर कौन से?

💁11) तेजस व कार्मण 


🙇‍♀12) महाविदेह के मनुष्य ने वैक्रिय शरीर बनाया तो उत्कृष्ट से कितने काल तक टिक सकता है?

💁12) 4 मुहूर्त


🙇‍♀13) आहारक शरीर के साथ कौन से शरीर की नियमा है?

💁13) औदारिक, तेजस और कार्मण


🙇‍♀14) भव प्रत्ययिक वैक्रिय शरीर कितने गुणस्थान तक पाए जाते है?

💁14) पहले से  चौथे गुणस्थान तक


🙇‍♀15) वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट स्थिति कितनी?

💁15) 33 सगरोपम


🙇‍♀16) कार्मण शरीर की स्थिति कितनी?

💁16) भवी जीव की अपेक्षा अनादिसान्त और अभवी की अपेक्षा अनादिअनंत


🙇‍♀17) आहारक शरीर का बंध कितने गुणस्थान में होता है?

💁17) सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के 6th भाग तक


🙇‍♀18) कर्मभूमिज संज्ञी मनुष्य एक भव में कितनी बार वैक्रिय शरीर बना सकता है?

💁18) संख्यात बार


🙇‍♀19) जन्मसिद्धता शरीर कौन से?

💁19) औदारिक शरीर-मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा तथा वैक्रिय शरीर-नरक और देव की अपेक्षा


🙇‍♀20) ऐसा शरीर जो  कृत्रिम भी और जन्मसिद्ध भी?

💁20) वैक्रिय शरीर-जन्मसिद्धता देव और नारक की अपेक्षा और कृत्रिमता मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा


🙇‍♀21) कौम से शरीर कृत्रिम ही है?

💁21) आहारक शरीर


🙇‍♀22) उपभोग सहित शरीर कितने और उपभोग रहित शरीर कितने?

💁22) कार्मण शरीर उपभोग रहित है शेष चार उपभोग सहित 


🙇‍♀23)  औदारिक शरीर का बंध कितने गुणस्थान तक होता है?

💁23) पहले से चौथे गुणस्थान तक


🙇‍♀24) वैक्रिय शरीर का बंध कितने गुणस्थान तक होता है?

💁24) पहले गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के 6th भाग तक 


🙇‍♀25) औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति ?

💁25) 3 पल्योपम


🙇‍♀26) कौन से शरीर सिर्फ समचतुरस्त्र संस्थान वाले ही होते है?

💁26) आहारक शरीर


🙇‍♀27) तीर्थंकर अगर वैक्रिय शरीर बनाये तो कितने काल तक टिक सकता है?

💁27) नही बनाते


🙇‍♀28) असंख्यात वर्ष के आयु वाले मनुष्य ने वैक्रिय शरीर बनाया तो कितने काल तक टिक सकता है?

💁28)असंख्यात वर्ष के आयु वाले मनुष्य यानी युगलिक वैक्रिय शरीर नहीं बनाते।


🙇‍♀29) तैजस और कार्मण शरीर के अंगोपांग क्यों नहीं होते?

💁29) तैजस और कार्मण शरीर सूक्ष्म शरीर हैं। ये शेष तीनों शरीरों के आधार पर आकार ग्रहण करते हैं अतः इन  के अंगोपांग नहीं होते। जिस प्रकार पानी जिस बर्तन में डालते हैं वैसा आकार ग्रहण कर लेता है। उसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीर भी अन्य शरीरों के समान आकार ले लेता है।


जिनाज्ञा विरुद्ध अंश मात्र भी ✍🏽लिखने में आया हो और किसी के मन को संक्लेश पहुंचाया हो तो मन वचन काया से मिच्छामि दुक्कड़म 🙏🙏


। शरीर नश्वर है, पर इस मानव शरीर से हम सदुपयोग करके मानवता का विकास कर सकते हैं। मानव शरीर दुर्लभ है। यह शरीर सन्मार्ग पर चलकर अनंत कार्यों से मुक्त हो सकते हैं। आत्मा की पवित्रता की प्राप्ति हो सकती है। आचार्य श्री ने कहा कि साधन का सदुपयोग करना साधना, धर्म का रूप बन जाता है। कर्मों से छुटकारा पाना है। कष्टों से मुक्त होना है तो सन्मार्ग का अनुसरण करें। आत्मा की शुद्धि बाह्य तत्वों से नहीं धर्म-पथ से होती है। शरीर के लिए भोजन है, आत्मा के लिए प्रभु स्मरण, भजन है, जो मन को सात्विक बनाती है।


शरीर- शरीर याने देह 


नाम कर्म का एक भेद होता है शरीर नाम कर्म जिसके उदय से जीव के शरीर की रचना होती है !


मुक्त होने से पहले आत्मा जिस पुद्गल के साथ संसार भ्रमण करती है, उसे शरीर कहते हैं !


यहाँ हम बेहद संक्षिप्त में जानेंगे, किन्तु इस विषय को सूक्ष्मता से जानने के लिए "तत्वार्थसूत्र जी" के दूसरे अध्याय के 36 से लेकर 49 तक के सूत्र पढ़ने परम आवश्यक हैं !


तत्वार्थसूत्र जी के दूसरे अध्याय की 36वें सूत्र में लिखा है :-


"औदारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्माणानि शरीराणि !!36!!"


याने, शरीर 5 प्रकार के होते हैं।

१ - औदारिक शरीर

२ - वैक्रियिक शरीर

३ - आहारक शरीर

४ - तैजस शरीर, और

५ - कार्माण शरीर 


1 - औदारिक शरीर


- जो शरीर गर्भ या सम्मूर्च्छन जन्म से उत्त्पन्न होता है ! वह औदारिक शरीर है !

- यह सप्त धातु (रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य) सहित होता है !

- मनुष्य और त्रियंचों के औदारिक शरीर होते हैं !

- सारे शरीरों में औदारिक शरीर सबसे "स्थूल" है !


2 - वैक्रियिक शरीर


- विक्रिया माने शरीर के स्वाभाविक आकार के अलावा दूसरे आकार बना लेना !


- जैसे टीवी पर रामायण में हनुमान अपने शरीर के कभी छोटे कभी बड़े आकार करते दिखाई पड़ते हैं !

- यह सप्त धातु (रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य) रहित होता है !

- देवों और नारकियों के वैक्रियिक शरीर होता है !

- कह सकते हैं कि "उप्पाद जन्म" लेने वालों के वैक्रियिक शरीर होता है !


महामुनियों को भी विशेष तप से "विक्रिया ऋद्धि" प्राप्त हो जाती है, और वह भी अपना शरीर इच्छा-अनुसार छोटा-बड़ा कर सकते हैं !


यह विक्रिया-ऋद्धि भी आगे 11 प्रकार कि होती है !

पूजन पाठ प्रदीप में या किसी भी पूजन संग्रह में "अथ परमर्षि स्वस्ति (मंगल) विधान" में 64 ऋद्धियों में इन ऋद्धियों का वर्णन है !


3 - आहारक शरीर


- सूक्ष्म तत्व की जिज्ञासा होने पर, अन्य क्षेत्र में विराजमान वर्त्तमान केवली या श्रुत केवली के पास भेजने को या असंयम को दूर करने के लिए "छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त-संयत साधु" जिस शरीर की रचना करते हैं, उसे आहारक शरीर कहते हैं !


- यह शरीर सूक्ष्म होता है, पहाड़ों से टकराता नहीं है, शस्त्रों से छिन्न-भिन्न नहीं होता, अग्नि से जलता नहीं है, पानी में भीगता नहीं है !

- यह केवल ऋद्धिधारी मुनियों के ही हो सकता है !

- मुनि के मस्तक से 1 हाथ के परिमाण वाले सफ़ेद रंग के पुतले के रूप में यह शरीर निकलता है, इसे सीमित समय के लिए ही उत्त्पन्न किया जाता है !

- इसकी अवधि अन्तर्मुहुर्त होती है ! और अपने उद्देश्य को पूर्ण करके 1 अन्तर्मुहुर्त में यह मुनि के शरीर में ही प्रवेश कर जाता है !

- यह शरीर एक क्षण में कई लाख योजन तक जा सकता है !


4 - तैजस शरीर


तैजस शरीर 2 प्रकार का होता है


१ - एक अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है जो औदारिक शरीर (जैसा हम लोगों का है) में रहकर उसे कांति/तेज देता है, उसे गर्मी देता है, तथा खाये हुए भोजन को पचाने में कारक होता है !

यह वाला तैजस शरीर तो सभी संसारी जीवों के होता है !


२- यह तैजस शरीर से निकल कर बाहर जाने वाला शरीर होता है ! जैसे हमने आहारक शरीर का पढ़ा था !

ऋद्धिधारी मुनियों के दायें/बाएं कंधे से बाहर निकलने वाला शुभ व अशुभ रूप तैजस शरीर होता है !

इसे तैजस समुदघात भी कहते हैं !


इसे आगे "समुदघात" में पढ़ें !


5 - कार्माण शरीर


यह सब शरीरों का जनक है, सबमे प्रमुख है ! यह हर जीव के होता है !


ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के ही कर्म स्कंध को "कार्माण शरीर" कहते हैं और ये तो हम जानते ही हैं कि कर्म अनादिकाल से आत्मा के प्रदेशों के साथ जुड़े हुए हैं ! यह सबसे सूक्ष्म शरीर है, इसलिए हर पल साथ होने पर भी दिखायी नहीं देता।


इसका होना ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे, कैसेट में गाने डाले हुए हैं, वो म्यूजिक प्लेयर में बज तो रहे हैं परन्तु अंदर कैसेट में किस रूप में और कहाँ पर हैं वो हम नहीं देख सकते, उसी तरह कार्माण शरीर है !


शरीर, अन्य जानने योग्य बातें 


इन शरीरों की बढ़ते हुए क्रम में "सूक्ष्मता" :-


औदारिक शरीर < वैक्रियिक शरीर < आहारक शरीर < तैजस शरीर < कार्माण शरीर

याने की औदारिक शरीर सबसे स्थूल और कार्माण शरीर सबसे सूक्ष्म होता है !


प्र :- एक समय में कितने शरीर हो सकते हैं ?

उ :- प्रत्येक संसारी जीव के हर समय तैजस और कार्माण शरीर तो होते ही हैं।


अब अगर वह देव/नारकी हुआ तो उसके वैक्रियिक, तैजस और कार्माण 3 शरीर होंगे !


मनुष्य/त्रियंच हुआ तो उसके औदारिक, तैजस और कार्माण 3 शरीर होंगे !


ऋद्धिधारी मुनि हुए तो उनके औदारिक, आहारक, तैजस और कार्माण 4 शरीर हो सकते हैं !


मृत्यु हो जाने के बाद, हमारा औदारिक शरीर तो आत्मा को छोड़ देता है, किन्तु तैजस और कार्माण शरीर आत्मा के साथ भव-भवान्तर तक साथ बने रहते हैं !


सभी कर्मों का नाश हो जाने पऱ, या कहिये कि जीव के सिद्ध हो जाने पर ही ये साथ छोड़ते हैं !


इस प्रकार हमने 5 प्रकार शरीरों को जाना ...


जैनम् जयतु शासनम् 


देव और नारकी जीव वैक्रिय शरीर (बिना हाड़ मांस वाला शरीर/ पल में कपूर की भांति उड़ जाने वाला शरीर, जिसमे म्रत्यु के पश्चात कुछ अवशेष नही रहता) के साथ पैदा होते है। मनुष्य और त्रस जीव औदारिक शरीर (हाड़ मांस वाला शरीर/ स्पर्श से महसूस होने वाला एवम दृश्य शरीर, जिसमे म्रत्यु के पश्चात अवशेष रह जातें है) के साथ। तेजस ओर कार्मण शरीर हमेशा आत्मा से चिपके रहते है जीव को मुक्ति मिल जाने से ही तेजस ओर कार्मण शरीर से मुक्ति मिलती है।


जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्ति तक जीव निम्न चार गतिओं में भ्रमण करता है -

1 नरक गति

2 तिर्यंच गति

3 मनुष्य गति

4 देव गति

शरीर पाँच माने जाते है-

1 औदारिक शरीर , जोकि सभी मनुष्य एवं तिर्यंच गति (पशु, पक्षी, छोटे बङे सभी तरह के शेष कीटाणु आदि जीव) के होता है।

2 वैक्रिय शरीर, जोकि देव और नरक गति के सभी जीवो का होता है ।

3 तैजस शरीर, यह शरीर मोक्ष प्राप्ति तक सभी गतिओं के जीवों के साथ ही रहता है।

4 कार्मण शरीर, यह शरीर भी तैजस शरीर की तरह सभी गतिओं के जीवो के साथ ही रहता है।

5 आहारक शरीर, यह शरीर विशिष्ठ ज्ञानधारी जैन साधुओं के ही होता है।इसका उपयोग केवल ज्ञानी भगवंत से साधु अपनी जिज्ञासा के समाधान हेतु या किसी विशिष्ठ प्रयोजन आदि कारणों से उपयोग कभी कभी करते है ।

अतः अलग अलग गति के जीवो के शरीर उपरोक्त अनुसार होते है । मोक्ष में केवल आत्मा ही जाती है यानि सभी तरह के शरीर यही छुट जाते है ।




वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)


*(3) आहारक शरीर* आहारक शरीर केवल साधु के ही हो सकता है वह भी 14 पूर्वधर साधु के।

चतुर्दश पूर्वधर मुनि आवश्यक कार्य उत्पन्न होने पर जो विशिष्ट पुद्गलोंका शरीर बनाते हैं, वह आहारक शरीर है। आहारक शरीर वाले जीव सबसे कम होते हैं।

*(4) तैजस शरीर --*  जो शरीर आहार आदि को पचाने में समर्थ है और जो तेजोमय है, वह तैजस शरीर है। उसे विद्युत् शरीर भी कहा जाता है। यह सभी संसारी जीवो में होता है।

*(5) कार्मण शरीर --* ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के पुद्गल-समूह से जो शरीर बनता है, वह कार्मण शरीर है। यह सब शरीर का कारण है। इसे कार्य शरीर भी कहा जाता है।

इनमें तैजस और कार्मण --  ये दो शरीर प्रत्येक संसारी आत्मा के हर समय विद्यमान रहते हैं। औदारिक शरीर जन्म-सिद्ध होता है। वैक्रिय शरीर जन्म-सिद्ध और लब्धि-सिद्ध दोनों प्रकार का होता है। आहारक शरीर योग-शक्ति से प्राप्त होता है। प्रवाह रूप में आत्मा और शरीर का संबंध अनादि है और व्यक्तिरूप से सादि।

औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के अंगोपांग होते हैं, शेष दो तेजस् और कार्मण शरीरों के अंगोपांग नहीं होते।

औदारिक आदि चारों शरीरों का निमित्त है कार्मण शरीर। कार्मण शरीर का निमित्त है आश्रव।
जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर सकता है। पर कैसे? यह समस्या कभी-कभी कुछ आत्मवादियों के चिंतन का विषय भी बन जाती है। जैन दर्शन में प्रतिपादित कार्मण शरीर का ज्ञान होने पर यह समस्या सरलता से सुलझ जाती है। जब तक मुक्ति नहीं होती तब तक आत्मा अशरीरी भी नहीं होती। आत्मा एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में तभी प्रवेश कर सकती है जबकि कार्मण शरीर आत्मा के साथ लगा रहे। तैजस और कार्मण शरीर अत्यंत सूक्ष्म शरीर है। अतः सारे लोक की कोई भी वस्तु उनके प्रवेश को रोक नहीं सकती। सुक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्र प्रवेश कर सकती है, जैसे अति कठोर लोह-पिंड में अग्नि।

तैजस और कार्मण -- ये दो शरीर सभी संसारी जीवों में प्रवाह रूप से सदा होते हैं। औदारिक आदि बदलते हैं। एक साथ एक संसारी जीव के कम से कम दो और अधिक से अधिक चार तक शरीर हो सकते हैं, पांच कभी नहीं। क्योंकि वैक्रिय और आहारक दोनों में से एक बार में एक ही शरीर हो सकता है । दोनों एक साथ नहीं।

*जीव की अपेक्षा से एक साथ शरीर*

एक साथ दो --( तैजस और कार्मण अंतराल गति में)

एक साथ तीन  -- तैजस, कार्मण और औदारिक। या तैजस, कार्मण और वैक्रिय।

एक साथ चार -- तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रिय। या तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक ।

*कौन-कौन से शरीर किन-किन प्राणियों में*

*(1) औदारिक शरीर  --* मनुष्य और तिर्यंच में पाए जाते हैं।

*(2) वैक्रिय शरीर --* मूलतः(भवजनिक) देवता तथा नारक में और लब्धि की दृष्टि से चारों ही गति में पाया जाता है। वायु काय में औदारिक और वैक्रिय दोनों शरीर पाए जाते हैं।

*(3) आहारक शरीर --* आहारक 14 पूर्व धारी साधु में (लब्धि प्राप्त)  पाया जाता है।

*(4) तैजस शरीर --* प्रत्येक संसारी प्राणी में होता है।

*(5) कार्मण शरीर --* प्रत्येक संसारी प्राणी में होता है।

*क्रमशः ...........*

Day - 44

*पच्चीस बोल का*

*सातवां बोल है - शरीर पांच*

*भाग  -- 4*

*1 औदारिक  2 वैक्रिय  3 आहारक  4 तैजस  5 कार्मण*

*शरीर के काल की स्थिति*

*(1) औदारिक शरीर*

*जघन्य --* अन्तर्मुहूर्त्त

*उत्कृष्ट --* 3 पल्योपम ( युगलिया की अपेक्षा )

*(2) वैक्रिय शरीर*

*जघन्य --* दस हजार वर्ष

*उत्कृष्ट --* तैंतीस सागर

*(3) आहारक शरीर*

*जघन्य --* अन्तर्मुहूर्त्त

*उत्कृष्ट --* अन्तर्मुहूर्त्त

*(4) तैजस शरीर*

अनादि काल से जीव के साथ सतत् रहने वाले।

*(5) कार्मण शरीर*

अनादि काल से जीव के साथ सतत् रहने वाले।

*शरीर की अवगाहना*

*(3) आहारक शरीर*

*जघन्य --* कुछ कम एक हाथ।

*उत्कृष्ट --* एक हाथ।

*(4) तैजस शरीर*

*जघन्य --* अंगुल का असंख्यातवां भाग।

*उत्कृष्ट --* लोकान्त से लोकान्त तक अर्थात् सम्पूर्ण लोकप्रमाण।

*(5) कार्मण शरीर*

*जघन्य --* अंगुल का असंख्यातवां भाग।

*उत्कृष्ट --* लोकान्त से लोकान्त तक अर्थात् सम्पूर्ण लोकप्रमाण।

*शरीर में संस्थान*


*आहारक शरीर में* --  समचतुरस्र संस्थान।

स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न औदारिक शरीर है तथा सूक्ष्म पुद्गलों से निष्पन्न कार्मण शरीर है। शेष शरीर क्रमशः सूक्ष्म है। सबसे अधिक जीव तैजस और कार्मण शरीर के है तथा सबसे कम जीव आहारक शरीर के है।

*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*










 


*** यहाँ हम बेहद संक्षिप्त में जानेंगे, किन्तु इस विषय को सूक्ष्मता से जानने के लिए "तत्वार्थसूत्र जी" के दूसरे अध्याय के 36 से लेकर 49 तक के सूत्र पढ़ने परम-आवश्यक हैं !!! तत्वार्थसूत्र जी के दूसरे अध्याय की 36वें सूत्र में लिखा है :-

"औदारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्माणानि शरीराणि !!36!!"

याने, शरीर 5 प्रकार के होते हैं ...
१ - औदारिक शरीर
२ - वैक्रियिक शरीर
३ - आहारक शरीर
४ - तैजस शरीर, और
५ - कार्माण शरीर ...

1 - औदारिक शरीर









2 - वैक्रियिक शरीर

वैक्रियशरीर – विविध रूप बनाने में समर्थ शरीर । यह नैरयिक तथा देवों के जन्मजात होता है । वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न  मनुष्यों और तिर्यन्चों तथा वायुकाय के भी होता है । (जैपाश 273)  





  


- विक्रिया माने शरीर के स्वाभाविक आकार के अलावा दूसरे आकार बना लेना !

छोटाबड़ाहल्काभारीअनेक प्रकार का शरीर बना लेना विक्रिया कहलाती है। विक्रिया ही जिस शरीर का प्रयोजन हैवह वैक्रियिक शरीर कहलाता है।



- जैसे टीवी पर रामायण में हनुमान अपने शरीर के कभी छोटे कभी बड़े आकार करते दिखाई पड़ते हैं !
- यह सप्त धातु (रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य) रहित होता है !
- देवों और नारकियों के वैक्रियिक शरीर होता है !
- कह सकते हैं कि "उप्पाद जन्म" लेने वालों के वैक्रियिक शरीर होता है !

महामुनियों को भी विशेष तप से "विक्रिया ऋद्धि" प्राप्त हो जाती है, और वह भी अपना शरीर इच्छा-अनुसार छोटा-बड़ा कर सकते हैं !!!
यह विक्रिया-ऋद्धि भी आगे 11 प्रकार कि होती है !!!
पूजन पाठ प्रदीप में या किसी भी पूजन संग्रह में "अथ परमर्षि स्वस्ति (मंगल) विधान" में 64 ऋद्धियों में इन ऋद्धियों का वर्णन है !

3 - आहारक शरीर

आहारक शरीर – संशय-निवारण के लिए चतुर्दशपूर्वी प्रमत्त सयंति के द्वारा आहारक लब्धि से निर्मित किया जाने वाला शरीर । (जैपाश 58)

विशिष्ट योगशक्ति सम्पन्न अभिन्नाक्षर चतुर्दश पूर्वधर मुनि  विशिष्ट प्रयोजनवश - यानि ---- अगर 14 पूर्व चितारते हुए कोई शंका हो, अथवा कोई वादी आकर मुनिराज को कोई प्रश्न पूछे और उसका उत्तर 14 पूर्वों में न हो, अथवा उस समय मुनिराज को उपयोग न लगे अथवा  तीर्थंकर भगवान की ऋद्धि - दर्शन , या नया ज्ञान सीखने का प्रश्न उपस्थित होने पर आहारक लब्धि से सम्पन्न मुनि जघन्य देश न्यून एक हाथ उत्कृष्ट एक हाथ  प्रमाण अति विशुद्ध स्फटिक के समान निर्मल शरीर की संरचना करते हैं ,  उसे आहारक शरीर कहते हैं ।

नोट : क्या ऐसा हो सकता है कि 14 पूर्वो में कोई उत्तर न हो, जैसा कि  ऊपर लिखा हुआ है ?

आहारक शरीर अप्रतिहत गति से गमन करके कई लाख योजन तक सूक्ष्म पदार्थों का आहरण करता है  इसलिए इसका नाम पड़ा आहारक।

यह शरीर केवली भगवान के पास शंका निवारण के लिए अथवा प्रश्न का उत्तर लेने के लिए पहुँचता है और केवली भगवान द्वारा प्रश्न का उत्तर देने पर यहाँ बैठे मुनिराज शंका का समाधान प्राप्त कर लेते हैं तब मुनिराज शंका का समाधान दें देते हैं हैं । यह कार्य केवल अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है । सामने बैठे वाले को आभास तक नहीं होता ।
इस शरीर को आहारक  कहते हैं । यह शरीर आहारक पुद्गलों का बना होता है ।
यह शरीर औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म तथा तैजस और कार्मण की अपेक्षा स्थूल होता है । फिर भी इसकी गति में कोई बाह्य पदार्थ बाधक नहीं बन सकता ।

नोट -- आहारक शरीर का निर्माण सिर्फ 14 पूर्वधारी साधु ही लब्धि द्वारा कर सकते हैं । आहारक को पूरे भव चक्रों में कोई अधिकतम ४ बार ही बना सकता है।

इस लब्धि की प्राप्ति 7 th गुणस्थान में होती है , तथा लब्धि का प्रयोग करते समय गुणस्थान छठा आ जाता है ।
लब्धि फोड़ना भी एक प्रमाद है । इस लब्धि की प्राप्ति सातवें गुणस्थान में है । यह गुणस्थान अप्रमाद का है । अप्रमाद में लब्धि फोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता है । अत: लब्धि फेाड़ते समय ( प्रमाद है ) छठा गुणस्थान आ जाता है ।

श्रावक इसशरीर का निर्माण नहीं कर सकते । श्रावक का गुणस्थान पाँचवा है । केवल साधु ही इसका निर्माण कर सकते हैं और व भी जिन साधुओं को 14 पूर्व के ज्ञान के साथ आहारक - लब्धि क प्राप्त हो ।

नोट -हर 14 पूर्वी साधु को आहारक लब्धि की प्राप्ति नहीं होती ।

प्रश्न हो सकता है कि आहारक लब्धि का  प्रयोग किसी जिज्ञासा का  समाधान हेतु किया गया तब भी क्या प्रमाद कहलायेगा ।  
हाँ क्यों कि लब्धि का प्रयोग प्रमाद है। अब उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति है और जिज्ञासा की पूर्ति है वह अलग विषय है प्रमाद लब्धि का प्रयोग है लब्धि फोड़ने पर जीव हिंसा होती है ।अत : प्रमाद है ।

- सूक्ष्म तत्व की जिज्ञासा होने पर, अन्य क्षेत्र में विराजमान वर्त्तमान केवली या श्रुत केवली के पास भेजने को या असंयम को दूर करने के लिए "छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त-संयत साधु" जिस शरीर की रचना करते हैं, उसे आहारक शरीर कहते हैं !

- यह शरीर सूक्ष्म होता है, पहाड़ों से टकराता नहीं है, शस्त्रों से छिन्न-भिन्न नहीं होता, अग्नि से जलता नहीं है, पानी में भीगता नहीं है !
- यह केवल ऋद्धिधारी मुनियों के ही हो सकता है !
- मुनि के मस्तक से 1 हाथ के परिमाण वाले सफ़ेद रंग के पुतले के रूप में यह शरीर निकलता है, इसे सीमित समय के लिए ही उत्त्पन्न किया जाता है !
- इसकी अवधि अन्तर्मुहुर्त होती है ! और अपने उद्देश्य को पूर्ण करके 1 अन्त

र्मुहुर्त में यह मुनि के शरीर में ही प्रवेश कर जाता है !
- यह शरीर एक क्षण में कई लाख योजन तक जा सकता है !

छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि को सूक्ष्म तत्व के विषय में जिज्ञासा होने पर उनके मस्तक से एक हाथ ऊँचा पुतला निकलता हैजहाँ कहीं भी केवलीश्रुतकेवली होते हैंवहाँ जाकर अपनी जिज्ञासा का समाधान करके वापस  जाता है। इसे आहारक शरीर कहते हैं। आहारक शरीर छठवें (प्रमतविरत गुणस्थानगुणस्थानवर्ती मुनि के होता है एवं भाव पुरुषवेद वाले मुनि को होता है। इसके साथ उपशम सम्यकदर्शनमन:पर्ययज्ञान एवं परिहार विशुद्धि संयम का निषेध 

4 - तैजस शरीर

तैजसशरीर – तैजस परमाणुओं द्वारा निष्पन्न शरीर, जिसके द्वारा दीप्ति, पाचन तथा आभामण्डल का निर्माण होता है और जो तेजोलब्धि का निमित्त बनता है । (जैपाश 132)

इस शरीर की उष्णता से खाये हुये अन्न का पाचन होता है ,
जिस प्रकार कृषक खेत में क्यारियों में अलग - अलग पानी पहुँचाता है इसी तरह यह शरीर ग्रहण किये हुये आहार को विविध रसादि में परिणत करके अवयव - अवयव में पहुँचाता है ।
कोई - कोई तपस्वी क्रोध से उष्ण - तेजोलेश्या के द्वारा औरों को हानि पहुँचाते हैं  ( जैसे वैश्यानन ऋषि ने क्रोध में आकर गौशालक पर तेजोलब्धि का प्रयोग किया ) । 

तथा प्रसन्न होकर या बचाव के लिए  कोई (जैसे महावीर ने गौशालक पर शीतोलेश्या का ) शीतलतेजोलेश्या के द्वारा लाभ पहुँचाते हैं , वह इसी तैजस् - शरीर के प्रभाव से होता है ।

अर्थात् आहार के पाचन का हेतु तथा उष्ण तेजोलेश्या और शीतल - तेजोलेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है वह तैजस शरीर है । तैजस शरीर ऊर्जा रूप है । पौद्गलिक ऊर्जा के बिना कोई भी कार्य सम्पन्न होना अशक्य है । अतः सांसारिक जिव को तैजस शरीर की अपेक्षा है ।

नोट - प्रत्येक संसारी जीवों के तैजस और कार्मण शरीर ये दो शरीर अवश्य ( नियमा ) होते हैं । कोई भी संसारी प्राणी इन दो शरीरों के बिना संसार में रह नहीं सकता । इन दोनों शरीरों से छूटते ही आत्मा मुक्त हो जाती है ।फिर उसे संसार में परिभ्रमण नहीं करना पड़ता ।

तैजस और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है अत : सारे लोक की कोई भी वस्तु उनके प्रवेश को रोक नहीं सकती । 
सूक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्रप्रवेश कर सकती है जैसे - अति कठोर लोह - पिण्ड में अग्नि ।
तैजस्कार्मण शरीर के अंगोंपांग नहीं होते। इनका सदैव देशबंध होता हैसर्व बंध कभी नहीं। ये दोनों सुख दुख के अनुभव से रहित हैं।
लेश्या का पौद्गलिक स्वरूप   तैजस शरीर है। A kind of energy body. We can call it bioplasma also.


  1. तैजस शरीर - औदारिक वैक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरों को कान्ति देने वाला तैजस शरीर कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है।
  1. अनिस्सरणात्मक तैजस - जो संसारी जीवों के साथ हमेशा रहता है।
  2. निस्सरणात्मक तैजस - जो मात्र ऋद्धिधारी मुनियों के होता हैयह दो प्रकार का होता है।

अ. शुभ तैजस - जगत् को रोगदुर्भिक्ष आदि से दुखित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई हैऐसे महामुनि के शरीर के दाहिने कंधे से सफेद रंग का सौम्य आकार वाला एक पुतला निकलता हैजो 12 योजन में फैले दुर्भिक्षरोग आदि को दूर करके वापस  जाता है। 

ब. अशुभ तैजस - मुनि को तीव्र क्रोध उत्पन्न होने पर 12 योजन तक विचार की हुई विरुद्ध वस्तु को भस्म करके और फिर उस संयमी मुनि को भस्म कर देता है। यह मुनि के बाएँ कंधे से निकलता है यह सिंदूर की तरह लाल रंग का बिलाव के आकार का 12 योजन लंबा सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन चौड़ा रहता है। अथवा लाऊडस्पीकर के आकार का।


तैजस शरीर 2 प्रकार का होता है

१ - एक अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है जो औदारिक शरीर (जैसा हम लोगों का है) में रहकर उसे कांति/तेज देता है, उसे गर्मी देता है, तथा खाये हुए भोजन को पचाने में कारक होता है !
यह वाला तैजस शरीर तो सभी संसारी जीवों के होता है !

२- यह तैजस शरीर से निकल कर बाहर जाने वाला शरीर होता है ! जैसे हमने आहारक शरीर का पढ़ा था !
ऋद्धिधारी मुनियों के दायें/बाएं कंधे से बाहर निकलने वाला शुभ व अशुभ रूप तैजस शरीर होता है !
इसे तैजस समुदघात भी कहते हैं !!!

इसे आगे "समुदघात" में पढ़ें !!!

5 - कार्माण शरीर

कार्मण

कार्मण शरीर -- कर्म पुद्गलों द्वारा निर्मित शरीर, जो कर्म-समूह का आश्रय बनता है । (जैपाश 90)

कार्मण शरीर हमारा मूल शरीर है । संसार के सभ छोटे बड़े प्राणी इस शरीर से बंधें हैं । गतिजातिकाय या कोईँ भी इसका अपवाद नहीं । प्राणी के संसार भ्रमण का मूल हेतु यह कार्मण शरीर है । मुहावरे की भाषा में - इस शरीर को " काचर का बीज "कहा जाता है । यानि यह सभी शरीरों का बीज है । जिस क्षण यह शरीर क्षीण हो जाता है उसी क्षण प्राणी संसार से मुक्त हो जाता है ।
औदारिक आदि चारों शरीरों का निमित्त है कार्मण शरीर । कार्मण शरीर का निमित्त है आश्रव ।

प्राणी के विचार वचन व्यवहार और शारीरिक क्रियाओं के प्रभाव और संस्कार आत्मा से चिर सम्बन्ध कार्मण - शरीर पर पड़ते हैं । कई बार व्यक्ति का आचरण शुभ और कई बार अशुभ होता है । प्राणी के इन अच्छे - बुरे / शुभ - अशुभ सब कार्यों की खतौनी कार्मण -शरीर  के बही -खाते में अंकित होती रहती है , और नावें ( उधारी ) जमा - राशि के अन्तर के अनुसार वह जीव अपने अगले जन्म की भूमिका तैयार कर लेता है । पुराने शरीर को छोड़कर अपने इसी सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ नवीन उत्पत्ति स्थल पर पहुँचता है ।

कार्मण - शरीर- कार्मण को अगर English में समझा जाये या विस्तार किया जाये तो इसका अर्थ होता है --
कर्म Recorder करने वाला यानियही वह जगह है, यही वह Tap-Recorder है जहाँ हमारा भाग्य लिखा होता है ।
इसमें  हर भव की हर पल की हर क्षण की घटनाएँ अर्थात् कर्म Record रहते हैं । पूर्व में Recorded कर्म ही हमारे आगे के भाग्य का निर्माण करते हैं ।

परन्तु यह Recorder इतना क़रीब होते हुए भी इसके Button पर अर्थात स्वीच पर यानि - Play , Forward एवं Rewind पर हमारा नियन्त्रण ( Control )नहीं होता ।

कुछ महापुरुष जैसे - अतीन्द्रिय ज्ञानी , आदि के हाथों  में इस Taprecorder के switches पर control आ जाता है ।
जिससे वे भूत वर्तमान व भविष्य को साक्षात जान लेते हैं ।

हम भी अगर अरिहन्तों के बताये मार्ग पर चलेंगे तो एक दिन इसका control हमारे हाथ में आ जायेगा और हम भी इस काचर के बीज यानि कार्मण शरीर से सदा के लिए मुक्ति पाकर सिद्ध - बुद्ध - मुक्त हो जायेंगे ।

कार्मण  शरीर  का सम्बन्ध  आठों  कर्म से है। आठों  कर्मो के पुदग्ल-  समुह से जो शरीर  बनता हैवह कार्मण  शरीर  है।

एक साथ एक संसारी जीव में कम से कम दो शरीर अधिक से अधिक चार शरीर हो सकते हैं पाँच कभी नहीं ।

एक साथ दो - तैजस और कार्मण ( अन्तराल गति में )

एक साथ तीन - तैजस कार्मण और औदारिक ( तिर्यंच व मनुष्य में )
या
तैजस कार्मण और वैक्रिय ( नारक व देवता में )

एक साथ चार - तैजस कार्मण औदारिक और वैक्रिय ।( तिर्यंच व मनुष्य में लब्धिजन्य )
या तैजस कार्मण औदारिक और आहारक ।( मुनि की अपेक्षा )

नोट - औदारिक वैक्रिय और आहारक शरीर के अंगोपांग होते हैं । शेष शरीरों के अंगोपांग नहीं होते ।
सभी शरीर कर्म से स्थूल, सूक्ष्म व सूक्ष्मतर पुद्गलों से बने होते है ।



यह सब शरीरों का जनक है, सबमे प्रमुख है ! यह हर जीव के होता है !

ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के ही कर्म स्कंध को "कार्माण शरीर" कहते हैं !
और ये तो हम जानते ही हैं कि कर्म अनादिकाल से आत्मा के प्रदेशों के साथ जुड़े हुए हैं !!!
यह सबसे सूक्ष्म शरीर है, इसलिए हर पल साथ होने पर भी दिखायी नहीं देता ...
इसका होना ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे, कैसेट में गाने डाले हुए हैं, वो म्यूजिक प्लेयर में बज तो रहे हैं परन्तु अंदर कैसेट में किस रूप में और कहाँ पर हैं वो हम नहीं देख सकते ... उसी तरह कार्माण शरीर है !

शरीर, अन्य जानने योग्य बातें ...

क्रम. दण्डकशरीर  संख्या शरीर नाम
.क्रम-1
दण्डकशरीर
सात नारकी और सर्व देवता
संख्या
3
शरीर नाम
वैक्रिय , तैजस , कार्मण।

क्रम2
दण्डकशरीर
4 स्थावर , 3 विकलेन्द्रिय ,
असंज्ञी मनुष्य तथा सर्व युगलिया
संख्या
3
शरीर नाम
औदारिक , तैजस , कार्मण।
क्रम -3
दण्डकशरीर
वायुकाय , संज्ञी तिर्यंच तथा मनुष्यणी
संख्या
4
शरीर नाम
आहारक को छोड़कर

क्रम4
दण्डकशरीर
गर्भज मनुष्य
संख्या
5
शरीर नाम
सभी

सिद्धों में शरीर नहीं पाता ।

अन्तराल गति में दो शरीर तैजस व कार्मण

लघु दंडक में 24 दंडक के आधार पर शरीर बताये गए है। चार इन्द्रिय के जीवो तक वायुकाय को छोड़कर किसी भी जीव में वेक्रिय शरीर नहीं होता  और आहारक भी नहीं होता ।

दंडक के सिवाय भी एक ही दंडक में अगर अंतर होता है तो उसको अलग से बताया गया है। जेसे योगलिक वेसे तो 21 वे दंडक में आ जात है लेकिन उनकी काफी बाते अलग से दर्शाई जाती है।

सिद्धो की बात भी हर द्वार में बता दी जाती है।

जिज्ञासा

प्र. तेजस शरीर की अपेक्षा क्यों पड़ी। न्यूनतम शरीर होते है तो एक कार्मण से काम चल जाता। तेजस का योग भी नहीं होता।   पाचन का कार्य तो औदारिक भी कर लेता।

उ. आहार के पाचन के हेतु के साथ - साथ तेजोलेश्या व शीतोलेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है वह तेजोशरीर ही है । कार्मण व तेजस शरीर दोनों साथ - साथ ही रहते हैं । पाचन का कार्य औदरिक का है ही नहीं । औदरिक शरीर एक vessel की तरह है एवं vessel कभी पचा नहीं सकता । हम जो भी खाते हैं उसे तैजस् शरीर पुन:पचाता है। 
हमारे शरीर को गर्म रखता है। मरने के बाद इसलिए ही शरीर ठंडा हो जाता है।

प्र. स्त्री को केवल ज्ञान हो सकता है। भगवान मल्लिनाथ तीर्थकर थे । फिर स्त्री को आहारक शरीर क्यों नहीं प्राप्त हो सकता । आहारक शरीर के साथ क्या संहनन का संबध रहता है ।

उ. तभी तो यह अच्छेरा ही हुआ था । 14 पूर्वों का ज्ञान ही नहीं होता स्त्रियों को । 14 पूर्वधारी ही आहारक शरीर का निर्माण कर सकते हैं ।  स्त्रियां 14 पूर्वधारी नहीं हो सकती । स्त्री का तीर्थंकर होना अछेरा है । सर्वज्ञता स्त्री पुरुष के लिए सामान्य प्रक्रिया है । सर्वज्ञता कोई लब्धि नही है । आहारक शरीर एक लब्धि है । सम्भवतः लब्धि फोड़ने के लिए जो विश्शेष पराक्रम चाहिए वह स्त्री शरीर द्वारा सम्भव न हो । सर्वज्ञता के लिए आंतरिक और बाह्य विशुद्धि का अधिक महत्त्व है । लब्धि फोड़ना एक रागातमक प्रवृत्ति है ।
सर्वज्ञता ज्ञानावरण का क्षायिक भाव है,क्षय जन्य अवस्था मैं तरतमता नहीं होतीलेकिन क्षयोपशम सबका समान नहीं होता। उसमें category होती है। पुर्वों के ज्ञान के लिये जिस category में ढलना आवश्यक है स्त्री का शरीर वह नहीं कर पाता। physical differences are scientific also.

जैसे बिना अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किये बिना भी जीव केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है यानि अवधिज्ञान प्रकट हुये बिना भी केवलज्ञान प्राप्त हो सकता है । (अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम करने लायक इनके अध्यवसाय नहीं होते हैं ।)
उसीप्रकार स्त्रियों के अध्यवसाय श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का तीव्र क्षयोपशम करने में असमर्थ होती हैं । ( 14 पूर्वधरों के श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का तीव्र क्षयोपशम होता है )किन्तु केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर लेती हैं । केवलज्ञान तो भावों की निर्मलता से प्रकट हो जाता है ।

नोट: छठे गुणस्थान में पांच शरीर होते है। किन्तु उपयोग चार का ही होता है। उपयोग वेक्रिय और आहारक में एक का हो सकता है ।

संघात अर्थात ग्रहण एवं परिशाट अर्थात परित्याग ।   पूर्वभविक औदरिक आदि शरीर के पुद्गलो को छोड़कर अग्रिम भव में पुन: पुद्गलो का संग्रहण संघातकरण कहलाता है अथवा शरीर योग्य पुद्ग्लाओ का प्रथम ग्रहण संघात है । औदरिक शरीरों को छोड़ते समय अंत में उनका सर्वथा परित्याग करना परिशाट है । संघात और परिशाट का कालमान एक-एक समय है । इन दोनों के मध्य 'संघात-परिशाटयह उभयकरण होता है ।

औदरिकवैक्रिय और आहारक इन शरीरों के संघात आदि तीनों करण होते है । तैजस और कार्मण शरीर प्रवाहरूप से अनादि है अत: इनका संघातकरण नहीं होता । भव्य जीव जो मोक्ष जाते हैं उनकी अपेक्षा से तैजस और कार्मण का परिशाट होता है । मुक्तिगामी भव्यों के शैलाशी अवस्था के चरम समय में तैजस एवं कार्मण शरीर का परिशाट होता है ।
संघातपरिशाट एवं संघात-परिशाट ये तीनों जीव प्रयोगकरण हैं । अभव्य जीवों में तैजस एवं कार्मण शरीर का संघात एवं परिशाट - ये दोनों ही नहीं होते है । संघात-परिशाट रूप उभयकरण उनमें होता है । यह करण भी अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है और सिद्धिगमन करने वाले भव्यों की उपेक्षा सांत है ।     
आध्यात्मिक पहलू

1. हम शरीर को बहुत over-payment करते है ओर return में ज्यादा लेते नहीं है । From now onwards we shall negotiate with this body in tough manner. इसका खानापीनासोना सब नियिमत कर दे और इससे ज्यादा से ज्यादा काम लेतभी अच्छे व्यपारी कहलायेगें ।

​2. ​भगवान् महावीर से पूछा गया - आप ने अपने साधना काल में अपने शरीर को कष्ट दिया । तो भगवान् ने बताया कि मैं तो किसी कष्ट दे ही नहीं सकता । मैंने अपने शरीर को भी कभी कष्ट नहीं दिया । रोगी को रोग हो कडवी दवा ही पीता है । उसको कष्ट नहीं कहा जाता । इसी तरह कर्म जो आत्मा के साथ है वो रोग है । और जो शरीर से तपस्या हो रही है वो कडवी दवा है । अगर कर्ममुक्त होना है तो तपस्या आवश्यक है ।

3. शरीर से भिन्नता उतपन्न करे । हमने सिर्फ अपने शरीर को अपना मान रखा है । हमने कई और शरीरों को भी अपना मान रखा है । एक रूपक के द्वारा समझाया है कि अगर मृत्यु हो जाये और विकल्प रखा जाए कि मृत शरीर जिन्दा हो सकता है अगर कोई ओर परिवार का सदस्य इसकी जगह चला जाएतो सब गली निकाल लेते है और पीछे हट जाते है । तो मेरा शरीर भी मेरा नहीं है ओर दूसरों के शरीर भी मेरे नहीं है ।

4. मोक्ष जाने के लिए औदरिक शरीर आवश्यक । और ये ही शरीर सातवें नरक तक ले जा सकता है । हमें निर्णय करना है हम इसका कैसे उपयोग करते है ।

5. हमें कर्म - शरीर को कृश करना है - त्याग - तपस्या व संयम के द्वारा ।इसके अलावा समता व भावना का बहुत बड़ा हाथ है - कार्मण -शरीर  के कृश करने में । कहा भी गया है -
"
भाव - शुद्धि 
भव -शुद्धि "

6. भगवान् ने कहा है कि दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति भी भोग का परित्याग कर महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला हो सकता है । (भ 7/149)  
शरीर नाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव औदारिक शरीर आदि के प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक शरीर आदि के रूप में उन्हें परिणत कर आत्मप्रदेशों के साथ उनका परस्पर सम्बन्ध कर देता है । (जैपाश 280)

शरीर परिग्रह – शरीर के प्रति होने वाला ममत्व । (जैपाश 280)

शरीरपर्याप्ति – छह पर्याप्तियों में दूसरी पर्याप्ति । शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति की सरंचना । (जैपाश 281)

शरीरबकुश – बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो पैर, नख, मुंह आदि शरीर के अवयवों की विभूषा में प्रवृत रहता है । (जैपाश 281)

शरीरबन्धननाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदरिक शरीर वर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुद्गलो का परस्पर तथा तैजस और कार्मण के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 281)     

शरीरसंघातनाम – नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीरवर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुद्गलों की शरीररचना के अनुरूप व्यवस्था होती है । (जैपाश 281)

शरीरसम्पदा – गणिसम्पदा का एक प्रकार । लम्बाई, चौड़ाई तथा परिपूर्ण इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला शारीरक वैभव । (जैपाश 281)           

शरीरङगो्पाङग्नाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के अंग – सिर, छाती, उदर, पीठ, दो भुजाएं, दो ऊरू और उपांग – अंगुली आदि की रचना होती है । (जैपाश 281)            

औदारिक अस्वध्याय – अस्थि, मांस आदि के परिपार्श्व में तथा चन्द्रग्रहण आदि के समय आगम स्वाध्याय का निषेध । (जैपाश 79)

औदारिककाययोग – औदरिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यंच गति के जीवों की हलन-चलन रूप प्रवृति । (जैपाश 79)

औदारिकशरीरमिश्रकायप्रयोग – औदारिक काययोग का कार्मण, वैक्रिय अथवा आहारक काययोग के साथ होने वाला मिश्रण, जो चार प्रकार से हो सकता है । (जैपाश 79)

औदारिकवर्गणा – वह पुद्गल-समूह, जो औदारिक शरीर के निर्माण के योग्य है । (जैपाश 80)         


वैक्रियकाययोग – वैक्रियशरीरवर्गणा के आलम्बन से होने वाली जीव की शारीरक शक्ति और प्रवृत्ति । (जैपाश 273)

वैक्रियशरीरमिश्रकायप्रयोग – वैक्रियकाययोग का कार्मणकाययोग और औदारिककाययोग के साथ होने वाला मिश्रण । (जैपाश 273)

वैक्रियलब्धि – नाना प्रकार के रूपनिर्माण में समर्थ योगजनित शक्ति । (जैपाश 273)

वैक्रियवर्गणा – वैक्रिय शरीर के प्रायोग्य पुद्गल-समूह । (जैपाश 273)



वैक्रिय समुद्घात – समुद्घात का एक प्रकार । विक्रिया करने के लिए आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना । (जैपाश 273)
आहारक – 1. औदारिक आदि किसी भी वर्गंणा के पुद्गलों को ग्रहण करने वाला । 2. शरीर को पोषण देने वाले पदार्थों को ग्रहण करने वाला । (जैपाश 58)

आहारककाययोग – आहारक शरीर द्वारा की जाने वाली प्रवृत्ति । (जैपाश 58)

आहारकमिश्रशरीरकाययोग – जब आहारक शरीर अपना कार्य सम्पन्न कर औदारिक शरीर में प्रवेश करता है, उस समय औदारिक के साथ आहारकमिश्रशरीरकाययोग होता है । (जैपाश 58)

आहारकलब्धि – विशिष्ट लब्धि, जिसके द्वारा श्रुतकेवली विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर आहारक शरीर का निर्माण करते है । (जैपाश 58)  

आहारकवर्गणा – आहारक शरीर के प्रायोग्य पुद्गल-समूह । (जैपाश 58)

आहारकशरीरबन्धननाम - नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण आहारक शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा तैजस तथा कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 59)      

आहारकसमुद्घात – आहारक शरीर के निर्माण और सम्प्रेषण के समय आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना । यह 

आहारकसमुद्घात शरीरनामकर्म के आश्रित होता है । (जैपाश 59)  

तेजोलब्धि – तैजस शरीर का विकास करने पर उत्पन्न होने वाली तैजस शक्ति । इसके द्वारा शाप व अनुग्रह दोनों किए जा सकते है । (जैपाश 131)

तैजसवर्गणा – तैजस शरीर के प्रायोग्य पुद्गल समूह । (जैपाश 132)

तैजसशरीरबन्धननाम - नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण तैजस शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 132)       
तैजससमुद्घात – तैजस शरीर का विसर्पण करना । इसका प्रयोजन है अनुग्रह व निग्रह । यह तैजस नामकर्म के आश्रित होता है । (जैपाश 132)

कर्मशरीरबन्धननाम - नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण कर्मपुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 83)
  
कर्मवर्गणा – अष्टविध कर्मस्कन्ध  कर्मशरीर के प्रायोग्य पुद्गल समूह । (जैपाश 84)

कार्मणशरीरकायप्रयोग – अन्तराल गति में जीव जब अनाहारक होता है, उस समय कार्मण काययोग होता है । केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे व पांचवे समय में कार्मणकाययोग होता है । (जैपाश 90) 
                   



 


*** इन शरीरों की बढ़ते हुए क्रम में "सूक्ष्मता" :-
औदारिक शरीर < वैक्रियिक शरीर < आहारक शरीर < तैजस शरीर < कार्माण शरीर
याने की औदारिक शरीर सबसे स्थूल और कार्माण शरीर सबसे सूक्ष्म होता है !

प्र :- एक समय में कितने शरीर हो सकते हैं ???
उ :- प्रत्येक संसारी जीव के हर समय तैजस और कार्माण शरीर तो होते ही हैं ...
अब अगर वह देव/नारकी हुआ तो उसके
वैक्रियिक, तैजस और कार्माण 3 शरीर होंगे !
मनुष्य/त्रियंच हुआ तो उसके
औदारिक, तैजस और कार्माण 3 शरीर होंगे !
ऋद्धिधारी मुनि हुए तो उनके
औदारिक, आहारक, तैजस और कार्माण 4 शरीर हो सकते हैं !

मृत्यु हो जाने के बाद, हमारा औदारिक शरीर तो आत्मा को छोड़ देता है, किन्तु तैजस और कार्माण शरीर आत्मा के साथ भव-भवान्तर तक साथ बने रहते हैं !

आगे-आगे के शरीर सूक्ष्म होते हैं। औदारिक शरीर से वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म होता है। वैक्रियिक शरीर से आहारक शरीर सूक्ष्म होता है। आहारक शरीर से तैजस शरीर सूक्ष्म होता है। तैजस शरीर से कार्मण शरीर सूक्ष्म होता है। 

आगे-आगे के शरीर सूक्ष्म होते हैं, तो उनके प्रदेश (परमाणु) भी कम-कम होते होंगे ?

नहीं। औदारिक शरीर से असंख्यात गुणे परमाणु वैक्रियिक शरीर में होते हैं। वैक्रियिक शरीर से असंख्यात गुणे परमाणु आहारक शरीर में होते हैं। आहारक शरीर से अनन्त गुणे परमाणु तैजस शरीर में होते हैं और तैजस शरीर से अनन्त गुणे परमाणु कार्मण शरीर में होते हैं। (तसू,2/38-39) मान लीजिए पाँच प्रकार के मोदक हैं, जो आकार में क्रमशः सूक्ष्म हैं, किन्तु उन में प्रदेश (दाने) ज्यादा-ज्यादा हैं। जैसे-मक्का की लाई (दाने)से बना लड्डू, ज्वार की लाई से बना लड्डू, नुकती (बूदी) का लड्डू, राजगिर का लड्डू एवं मगद (वेसन) का लड्डू। मक्का के लड्डू से आगे-आगे के लड्डू सूक्ष्म होते हैं किन्तु उनमें प्रदेश (दाने) ज्यादा हैं। इसी प्रकार क्रमश: शरीर सूक्ष्म, किन्तु प्रदेश ज्यादा हैं।

 

5. एक साथ एक जीव में अधिक-से-अधिक कितने शरीर हो सकते हैं ?

एक जीव में दो को आदि लेकर चार शरीर तक हो सकते हैं। किसी के दो शरीर हों तो तैजस और कार्मण। तीन हों तो तैजस, कार्मण और औदारिक अथवा तैजस, कार्मण और वैक्रियिक। चार हों तो तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रियिक शरीर (ध.पु., 14/237–238) अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक। एक साथ पाँच शरीर नहीं हो सकते क्योंकि वैक्रियिक तथा आहारक ऋद्धि एक साथ नहीं होती है।

6. कौन से शरीर के स्वामी कौन-सी गति के जीव हैं ?


तैजस और कार्मण--सभी संसारी जीव।

औदारिक ---मनुष्य एवं तिर्यञ्च।

वैक्रियिक --नारकी एवं देव।

आहारक---मनुष्य (प्रमत गुणस्थान वाले मुनि)

तैजस (लब्धि वाला)- मनुष्य (प्रमत्त गुणस्थान वाले मुनि)



सभी कर्मों का नाश हो जाने पऱ, या कहिये कि जीव के सिद्ध हो जाने पर ही ये साथ छोड़ते हैं !!!
इस प्रकार हमने 5 प्रकार शरीरों को जाना ...
बाकी विषयों के लिए पढ़ते रहिये "जैनसार, जैन धर्म का सार

कौन-कौन से शरीर अनादिकाल से जीव के साथ लगे हैं ?

जैसे-चन्द्र, सूर्य के नीचे राहु, केतु लगे हुए हैं, वैसे ही प्रत्येक जीव के साथ तैजस और कार्मण शरीर अनादिकाल से लगे हुए हैं।

 

8. कौन-कौन से शरीर को हम चक्षु इन्द्रिय से देख सकते हैं ?

चक्षु इन्द्रिय से हम मात्र औदारिक शरीर को देख सकते हैं। वैक्रियिक शरीर को हम नहीं देख सकते,किन्तु देव विक्रिया के माध्यम से दिखाना चाहें तो दिखा सकते हैं। आहारक शरीर को भी हम नहीं देख सकते हैं। तैजस और कार्मण तो और भी सूक्ष्म हैं।

 

9. कौन-कौन से शरीर किसी से प्रतिघात को प्राप्त नहीं होते हैं ?

तैजस और कार्मण शरीर किसी से प्रतिघात को प्राप्त नहीं होते हैं। प्रतिघात- मूर्तिक पदार्थों के द्वारा दूसरे मूर्तिक पदार्थ को जो बाधा आती है, उसे प्रतिघात कहते हैं।

 

10. कौन-कौन से शरीर भोगने में आते हैं ?

जिनमें इन्द्रियाँ होती हैं। जिनके द्वारा जीव विषयों को भोगता है। ऐसे तीन शरीर भोगने योग्य हैं। औदारिक, वैक्रियिक एवं आहारक। शेष दो शरीर (तैजस तथा कार्मण) भोगने योग्य नहीं है।

 

11. क्या शरीर दु:ख का कारण है ?

हाँ। हे आत्मन् ! इस जगत् में संसार से उत्पन्न जो-जो दुख जीवों को सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं। इस शरीर से निवृत्त होने पर कोई दुख नहीं है।

 

12. शरीर किसके लिए उपकारी है ?

जिसने संसार से विरत होकर इस शरीर को धर्म पालन करने में लगा दिया है। उसके लिए यह मानव का शरीर उपकारी है।





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