देव
देव
एक साथ बीस तीर्थंकरों का निर्वाण कल्याणक इन्द्र कैसे करते होंगे?
वैक्रिय शरीर बनाकर बीस तीर्थंकरों का निर्वाण कल्याणक इन्द्र करते हैं, ऐसा आचार्यों का अभिमत है।✅
वैक्रिय शरीर से देवों के द्वारा भिन्न भिन्न रूपों का निर्माण करना विकुर्वणा कहलाता है।
विकुर्वणा के दो प्रकार हैं-
१) एक रूप की विकुर्वणा,
२) बहुत रूपों की विकुर्वणा ।
एक रूप की विकुर्वणा- जो यह निकुर्वणा करते है, वे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के रूप बना सकते हैं।
बहुत रूपों की विकुर्वणा-जो यह विकुर्वणा करते है, वे बहुत सारे एकेन्द्रिय रूपों से पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं ।
देव संख्यात अथवा असंख्यात, (एक समान) या भिन्न-भिन्न और संबद्ध (आत्मप्रदेशों से समवेत)असंबद्ध (आत्मप्रदेशो से भिन्न) नाना रूप बनाकर इच्छानुसार कार्य करते हैं ।
देव नर अहियलक्खं, तिरियाणं नव य जोयण-सयाई ।
दुगुणं तु नारयाणं, भणियं वेउव्विय-सरीरं ॥ ९ ॥
गाथार्थ : देवों का उत्तर वैक्रिय शरीर 1 लाख योजन
और मनुष्यों का 1 लाख से अधिक है । तिर्यंचों का 900
योजन है । नारकों का वैक्रिय शरीर उनके मूल शरीर से
दोगुना है ॥९॥
अंतमुहुत्तं निरए, मुहुत्त चत्तारि तिरिय-मणुएसुः ।
देवेसु अद्धमासो, उक्कोस विउव्वणा-कालो ॥ १० ॥
गाथार्थ : उत्कृष्ट विकुर्वण का काल नरक में
अन्तर्मुहूर्त, तिर्यंच व मनुष्य में चार मुहूर्त और देवताओं में
आधा मास (15 दिन) है ॥१०॥
देवों में एक भी संहनन नहीं होता हैं । उनमें न हड्डी होती है, न शिरा(धमनी नाडी)और न स्नायु।
संहनन अर्थात् हड्डियों की रचना विशेष को संहनन कहते हैं ।
संहनन छह प्रकार के हैं-
१) वज्रऋषभ नाराच, २) ऋषभनाराच, ३) नाराच, ४) अर्धनाराच, ५) कीलिका और
६) सेवार्त ।
अब हम देव-देवियों की उनकी शरीर रचना पर दृष्टिपात करते हुए, देव असंहनन होते है ।
देवों का शरीर बंधारण
देवों के शरीर का बंधारण भी विशेष प्रकार का..
संस्थान :-
संस्थान का अर्थ-आकृति वह छ: प्रकार के हैं । उनमें देवों के शरीर दो प्रकार के हैं-
१) भवधारणीय और २) उत्तरवैक्रिय
जो भवधारणीय शरीर है उसका समचतुरस्र संस्थान चौरस है जो उदार वैक्रिय शरीर है उनका संस्थान (आकार) नाना प्रकार का होता है क्योंकि वे इच्छानुसार आकार बना सकते है।
दस प्रकार के भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पोपपन्न वैमानिक देवों का भवधारणीय शरीर भवस्वभाव से तथाविध शुभनाम कर्मोदयवश समचतुरस्त्रसंस्थान वाले होते है । इच्छानुसार प्रवृत्ति करने के कारण इनका
उत्तरवैक्रियशरीर नाना संस्थान वाला होता है। उसका कोई एक नियत आकार नहीं होता ।
नौ ग्रैवेयक के देव तथा पाँच अनुत्तर विमानवासी देवों को उत्तरवैक्रिय शरीर का कोई प्रयोजन न होने से वे उत्तरवैक्रिय शरीर का निर्माण ही नहीं करते, क्योंकि उनमें परिचारणा या गमनागमन आदि नहीं होता। अत: उन कल्पातीत वैमानिक देवों में केवल भवधारणीय शरीर ही होता है और उसका संस्थान समचतुरस्र ही होता है l
इस प्रकार सभी देवों का संस्थान होता हैं ।
देव-विभूषा
यहाँ पर देवों की विभूषा का वर्णन देव के प्रकारो के साथ किया जा रहा है-
देव दो प्रकार के हैं-
१) वैकिय शरीर (उत्तरवैक्रिय)
२) अवैक्रिय शरीर (भवधारणीय)
वैक्रियशरीर वालों की विभूषा-जो देव इस शरीर वाले होते हैं वे हारों से सुशोभित वक्षस्थल वाले दसों दिशाओं को उद्योतित करने वाले, प्रभासित करने वाले होते हैं ।
अवैक्रियशरीर :-जो देव इस शरीर वाले होते हैं वे आभरण और वस्त्रो से रहित हैं और स्वाभाविक विभूषण से सम्पन्न हैं ।
देवियाँ की विभूषा
उत्तरवैक्रियशरीर :-जो देवियाँ इस शरीर वाली है, वे स्वर्ण के नूपुरादि आभूषणों की ध्वनि
से युक्त हैं तथा स्वर्ण की बजती किंकिणियों वाले वस्त्रों को तथा उद्भट वेश को पहनी हुई हैं, चन्द्र के समान उनका मुखमण्डल है, चन्द्र के समान विलास वाली हैं, अर्धचन्द्र के समान भाल वाली हैं । वे श्रृंगार का साक्षात् मूर्ति हैं, और सुन्दर परिधान वाली हैं । वे सुन्दर यावत् दर्शनीय, प्रसन्नता पैदा करने वाली और सौन्दर्य की प्रतिक हैं ।
अवैक्रियशरीर :-इस शरीरवली देवियां, आभूषणों और वस्त्रों से रहित स्वाभाविक-सहज
सौन्दर्य वाली हैं।
सौधर्म-ईशान को छोड़कर शेष कल्पों में देव ही हैं, वहाँ देवियां नही हैं। अत:अच्युतकल्प पर्यन्त देवों की विभूषा का वर्णन उक्त रीति के अनुसार है । ग्रैवेयकदेवों की विभूषा आभरण और वस्त्रों से रहित हैं । वे स्वाभाविक विभूषा से सम्पन्न हैं ।
वहाँ देवियां नहीं हैं। इस प्रकार अनुत्तर विमान के देवों की विभूषा होती है ।
इस प्रकार देव-देवियाँ की विभूषा होती है ।
विकुर्वणा :-
वैक्रिय शरीर से देवों के द्वारा भिन्न भिन्न रूपों का निर्माण करना विकुर्वणा कहलाता है।
विकुर्वणा के दो प्रकार हैं-
१) एक रूप की विकुर्वणा,
२) बहुत रूपों की विकुर्वणा ।
एक रूप की विकुर्वणा- जो यह निकुर्वणा करते है, वे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के रूप
बना सकते हैं।
बहुत रूपों की विकुर्वणा-जो यह विकुर्वणा करते है, वे बहुत सारे एकेन्द्रिय रूपों से पंचेन्द्रिय रूपों
की विकुर्वणा कर सकते हैं ।
देव संख्यात अथवा असंख्यात, (एक समान) या भिन्न-भिन्न और संबद्ध (आत्मप्रदेशों से समवेत)असंबद्ध (आत्मप्रदेशो से भिन्न) नाना रूप बनाकर इच्छानुसार कार्य करते हैं ।
यह सौधर्म देव से अच्युत देवों तक समझना चाहिए ।
ग्रैवेयक देव और अनुत्तर विमानों के देव ने उपरोक्त दोनों विकुर्वणा न तो पहले कभी की है, न वर्तमान में करते हैं और न भविष्य में कभी करेंगे । (क्योंकि वे उत्तरविक्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न होने पर भी प्रयोजन के अभाव तथा प्रकृति की उपशान्तता से विक्रिया नहीं करते ।
इस प्रकार देवों की विकुर्वणा का यहाँ विवेचन किया गया है ।
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