75 से 115 तक बड़ी साधु वंदना

 बड़ी साधुवंदना - 75

4

श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।

तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।

प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।

सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।


जंबूस्वामी : - यह जिनशासन का एक महत्त्वपूर्ण नाम नही , पर एक अध्याय है। वीर प्रभु के शासन में हुए अंतिम केवली। इनकी गाथा भवोभव की उत्कृष्ट साधना, तप व त्याग बतलाती है।


वीर प्रभुकी केवलीचर्या का करीब मध्यम समय था वह। राजगृही में पधारे हुए प्रभुकी देशना सुनने के लिए देवताओं ने समोवसरण की रचना की।

समोवसरण क्या है? तीर्थंकर प्रभु के केवलज्ञानके बाद प्रथम देशना के लिए तथा बाद में 

जब जिस क्षेत्र में तीर्थंकर प्रभु की देशना सुनने वालों की संख्या बहुतायत में हो, तब देवता उस देशना के लिए भव्यातिभव्य एक सभास्थल या देशना स्थल की रचना करते है। यानी व्याख्यान सुनने की जगह ,जैसे आज महान सन्तो के व्याख्यान मंडप होते है। उसका पूरा विवरण फिर कभी अवसर पर। अभी यह जान ले उस सुवर्णमय, रत्नोसे जड़ित अति ऊंचे भव्यातिभव्य रचना यानी समोवसरण में 3 गति के जीव अपना जातिगत वैर भूलकर देशना सुनते है।


राजगृही में रचे गए समोवसरण में अनेक देवता प्रभुकी देशना सुनने आये। राजा श्रेणिकजी भी उपस्थित थे। उन देवो में एक अत्यंत तेजस्वी कांतिमान देव को देखा । उन्होंने देशना के बाद  प्रभु से उस देव के विषय मे जिज्ञासा व्यक्त की। तब केवलज्ञानी प्रभुने उस विद्युन्माली देव के भूतकाल, वर्तमान व भविष्यकाल - तीनो की जानकारी श्रेणिकजी को दी।

राजा यह सुनकर अत्यंत धन्यता का अनुभव करने लगे।

क्या थी वह कथा।


जंबूस्वामी के पूर्वभव - कई समय पहले मगध में सुग्राम नामक ग्राम में दो ब्राह्मण भाई रहते थे। नाम बड़े भाई भवदत्त तथा छोटे भवदेव । युवावस्था में आये भवदत्त ने आचार्य सुस्थित की वाणी से विरक्त होकर संयम अंगीकार किया। और गुरु के साथ विचरने लगे। वर्षो बाद एक बार फिर अपने गांव पधारे। परिवार को धर्म सन्देश देने वह छोटे भाई भवदेव के यहां गये। उसका हाल ही में ब्याह हुआ था। सभी परिवार जनों को धर्म बोध देकर जब मुनि निकले तब छोटे भाई भवदेव भी उन्हें उनके स्थान तक  पहुँचाने आये। 

भवदत्त मुनि ने गुरु को भाई को दीक्षित करने का कहा। 

भवदेव संकोच में पड़ गया। अरे  मैं तो  अभी-अभी विवाहित हुआ हूं, पत्नी नागिला के साथ अभी तो संसार का सुख भोगना बाकी है , ठीक से नागिला को देखा तक नही, अभी से दीक्षा कैसे ले लूँ ? 

पर भाई मुनि का अनादर कैसे  करुँ । संकोचवश वह मौन रहे। उनके मौन को सन्मति समझकर उन्हें दीक्षित किया गया। और मुनियों के साथ विहार कर दिया ।


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बड़ी साधुवंदना - 76


श्री सुधर्मास्वामी ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।

तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।

प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।

सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।


भवदेव मुनि ने संयम ग्रहण कर वहां से विहार कर दिया। संयम आराधना कर तो रहे थे। 

पर यह संयम वैराग्य जनित नही था। अभी भी संसार का मोह पूरी तरह छूटा नही था। नागिला के तरफ का मोह अभी क्षय हुआ नही था। पर भाई मुनि के आगे कुछ बोल नही सकते थे। संयम चर्या के साथ कभी कभी संसार का मोह कभी कभी जाग उठता था।

कुछ समय बाद भवदत्त मुनि अनशन संलेखना कर कालधर्म को प्राप्त हुए।

भाई मुनि के कालधर्म बाद भवदेव मुनि की संसारिक कामना फिर उद्वेग करने लगी। वर्षो बाद वे फिर सुग्राम आये।


गांव में प्रवेश करते हुए वहां कुएं पर पानी भर रही स्त्री को नागिला के विषय मे पूछा।

वह नारी सावध बनी। उसने मुनि को पहचान लिया।

नागिला के विषय मे उसने बताया कि भवदेव की दीक्षा के बाद वह कुछ दिन उदास रही पर, फिर एक साध्वी वृन्द से धर्म की समझ पाकर स्वस्थ हुई। श्राविका के बारह व्रतों का पालन करते हुए तप से देह को सुखाते हुए स्वस्थ रह रही है।

मुनि नागिला की सुंदरता पूछने लगे। अब वह नारी चोंक गई।

 क्यों कि वह स्वयं ही नागिला थी। उसने भवदेव यानी पूर्वपति को पहचान लिया था। उसे एहसास हो गया कि मुनि पत्नी के मोह में महामूल्य संयम से पतित हो रहे है। पर अब नागिला जैन धर्म मे दृढ़ थी। अपने निमित्त से मुनि अपने संयम धर्म से चलित हो यह मंजूर नही था।  

नागिला ने अपनी पहचान उजागर की। और अपनी बुद्धि, श्रद्धा से चलित हो रहे भवदेव मुनि को धर्म मे पुनः दृढ़ किया। भवदेव मुनि भी संभल गये। मूल्यवान संयम की महत्ता समझकर उस गांव से तत्काल विहार कर गए।गुरु के पास जाकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध बने।  

 आयुष्य के शेष वर्ष में उत्कृष्ट संयम पालन कर देवलोक में उत्पन्न हुए। ऐसे भव करते हुए धर्म के प्रभाव से  शिवकुमार नाम के एक राजकुमार बने। फिर संयम का आकर्षण हुआ। एक मुनि से देशना सुनकर विरक्त हुए।

पर किन्हीं अंतराय से मातापिता ने संयम की अनुज्ञा नही दी। तब घर मे ही रहकर धर्म व तप का उत्कृष्ट आराधन किया। वह भी एक दो नही पूरे बारह वर्ष तक।  उसी के प्रभाव से शिवकुमार अत्यंत सुंदर, तेजस्वी यह विद्युन्माली देव बने।

वीर प्रभु विद्युन्माली की कथा सुनाते हुए श्रेणिक राजा से कह रहे है।

यह उनके पूर्व भव था। विद्युन्माली वर्तमान भव है।

आगामी भव में वे तुम्हारी ही नगरी में आज से सात दिनों बाद रुषभदत्त नामक श्रेष्ठी की धारिणी नामकी पत्नी की कुक्षी में आएंगे। जंबूस्वामी नामक यह मुनि इस भरत क्षेत्र के अंतिम केवली बनेंगे। इनके निर्वाण बाद इस क्षेत्र में दस वस्तुओं का विच्छेद हो जाएगा।


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।बड़ी साधुवंदना - 77


श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।

तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।

प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।

सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।


वीरप्रभु ने श्रेणिक राजा को विद्युन्माली देव के पूर्वभवो की व आगामी भव कहां होगा यह कथा सुनाई। उस समय वहां जंबुद्वीप अधिष्ठाता अनाधृत देव उपस्थित थे। उन्होंने अत्यंत हर्ष व्यक्त किया। तब श्रेणिक की जिज्ञासा पर प्रभुने बताया, यह देव पूर्वभव में रुषभदत्त के भाई थे। उनके परिवार में अंतिम केवली जन्म लेंगे यह सोचकर हर्षित हो रहे है।


राजगृही के रुषभदत्त - व धारिणी के यहां विवाह के काफी वर्षो बाद पुत्र का जन्म हुआ। गर्भधारण के समय देखे हुए जंबुवृक्ष की वजह से पुत्र का नाम जंबुकुमार रखा गया।  धनाढ्य श्रेष्ठी के यहां जंबुकुमार पले। 

करीब 16 वर्ष के हुए। राजगृही की 8 सुंदर श्रेष्ठिकन्याओं के साथ पूर्व ऋणानुबन्ध से उनका विवाह करना निश्चय किया गया। उस दौरान वहां वीरप्रभु के प्रथम पट्टधर सुधर्मास्वामी का शिष्यों के साथ पदार्पण हुआ। धर्मानुरागी प्रजा दर्शन वन्दन करने आई। जंबुकुमार भी आये।


भव्य चरमशरीरी जीव तो थे ही । सुधर्मास्वामी की देशना का निमित्त व उपादान भी मिल गया। जिनवाणी सुनकर विरक्त हुए। और संयम दीक्षा मांगी। सुधर्मास्वामी ने मातापिता की अनुमति का कहा। तब वे अपने घर की तरफ आ रहे थे। मन में उत्साह था कि शीघ्र दीक्षा की आज्ञा लेकर संयम स्वीकार करूँगा। 

नगर में प्रवेश करते ही एक ऊंची  जगह रखी हुई बड़ी पत्थर की शिला उनके रथ के आगे बड़े जोर से आ गिरी। रथ व जंबुकुमार जरा से स्थान फेर होने से बच गए।  भवि जीवो का चिंतन भी कैसा होता है यह देखो । उन्होंने सोचा, यदि इस शिला का मेरे ऊपर पात होता तो मैं बिना कोई भी व्रत ग्रहण किये ही काल को प्राप्त होता। मुझे अब विलंब नही करना है। वे पुनः लौटकर सुधर्मास्वामी के पास आये। ब्रह्मचर्य के व्रत ग्रहण किये फिर घर आकर मातापिता से संयम की आज्ञा मांगी।


मातापिता पर वज्रपात हुआ। धारिणी माता बेहोश होकर गिर पड़ी। होश में आये तब पुनः जंबुकुमार को समझाने लगे। प्रेम की दुहाई, विविध प्रलोभन, कई कर्तव्यों का स्मरण करवा कर उन्हें दीक्षा न लेने को समझाया गया...


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बड़ी साधुवंदना - 78


श्री सुधर्मास्वामी ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।

तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।

प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।

सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।


जंबुकुमार मातापिता से दीक्षाकी अनुमति मांगते है। आख़िर बहुत जंबुकुमार के बहुत  समझाने के बाद रुषभदत्त व धारिणी एक शर्त रखते है। जिन 8 श्रेष्ठी कन्याओ के साथ तुम्हारा विवाह तय हुआ है उनके साथ विवाह कर लो। फिर तुम चाहो तो संयम अंगीकार कर लेना। 

 अंदर से मातापिता को विश्वास था कि 8- 8 अनुपम सुंदरियों को पत्नी रूप में पाकर जंबुकुमार संयम की बात भूल जाएंगे। जंबुकुमार ने अनुमति दे दी। 

यहां किसी के साथ छल का कोई उद्देश्य ही नही था। रुषभदत्त ने यह संवाद, यह समाचार उन 8 कन्याओं के मातापिता तक पहुँचाया। 8  कन्याएँ पूर्वभव की स्नेही थी तथा संस्कार भी उत्तम थे। उनका जवाब आ गया। अब हमने जब जंबुकुमार को मन से पति मान लिया है तब उनकी हर बात स्वीकार्य। हम उन्हीं से विवाह करेंगे। उनके मातापिता ने भी पुत्रियों के दृढ़ विश्वास को देखकर अनुमति दे दी। विवाह की तैयारी शुरु कर दी। सभी को यह लग रहा था कि जंबुकुमार विवाह बाद संयम की बात ही भूल जाएंगे।

आखिर विवाह का दिन आ गया। 8 - 8 सुंदर अप्सरा सी कन्याओं के साथ जंबुकुमार का विवाह हुआ। विपुल धनसामग्री प्रितिदान में आई। विवाह की प्रथम रात्री। सुंदर कक्ष सजाया गया। 8 कन्याएँ सज धज कर अपने पति का संयम आग्रह छुड़ाकर संसार के जीवन  में प्रवेश करने के लिए कटिबद्ध थी। बड़े से महल में जहां बाहर से पधारे अन्य रिश्तेदारों के कक्ष से अलग सजे धजे कक्ष में जंबुकुमार ने प्रवेश किया। 8 विवाहिताओं ने उनका स्वागत किया। एक आसन के चारो तरफ लगे  8 आसन पर सभी बिराजित हुए। 


यह जो मिलन था, इतिहास में एक अनूठा मिलन था, जहां विवाह की प्रथम रात्री में  8 विवाहिताओं ने अपने वैरागी पति को संसार सुख की और मोड़ने का भरपूर प्रयास किया था पर,  अंत  में स्वयं उन्हीं का हृदय परिवर्तन होकर वे भी वीर मार्ग पर चल पड़ी थी।  आठों  कन्याओं ने विविध कथानकों के माध्यम से जंबुकुमार की विरक्ति को मोड़ने का प्रयास किया। 


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बड़ी साधुवंदना - 79


श्री सुधर्मास्वामी ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।

तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।

प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।

सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।


जंबुकुमार व 8 पत्नियों के विवाह की प्रथम रात्री।


जंबुकुमार को वैराग्य से मोड़ने के लिए प्रयासरत आठो पत्नियों ने संसार का सुख, जीवन का आनंद उठाने की बोधरूप कथाएँ कही।

जंबुकुमार ने उन सभी को उन्हीं के कथानकों को एक अलग कथानक से प्रत्युत्तर देकर संसार की विषमता तथा संयम की श्रेष्ठता समझाई। राग के माहौल में उन्होंने वितरागीता को पूर्ण रूप से उजागर किया। ग्रन्थों में यह सब कथाएं उपलब्ध है। विषय की जगह  मिलन की पूरी रात त्याग की बातों में पूर्ण हुई। 

और 

अहो आश्चर्यम !

आठो पत्नियों ने जंबुकुमार की संयम की राह में पत्थर बनने की जगह उसी राह पर अनुगामी बनने का निश्चय कर लिया। यानी की 8 पत्नियों ने भी संयम स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। अदभुत अदभुत!


चिंतन व स्वकल्याण की भावना कितनी अदभुत।

पर अभी एक और घटना बनी वहां

500 साथियों  के साथ एक प्रभव नामक लुटेरा विवाह में आये रिश्तेदारों व प्रितिदान में मिले धन को लूटने वहां आ पहुँचा था। 

अब?

कौन था यह लुटेरा , प्रभव ?


विंध्याचल के एक राज्य का एक गलत राह पर चलकर बिगड़ा हुआ राजकुमार था वह। राजा ने अपने पुत्र को राज्य निष्कासित कर दिया तो वह जंगल मे जाकर रहा। अपने जैसे लोगो से मिलकर चोरियां करने लगे। धीरे धीरे यह चोर साथियों की संख्या 500 हो गई। समय बीतते प्रभव अत्यंत शक्तिशाली बन गया। उसके पास जगत के किसी भी तालों को खोलने की कला विद्या तालोदघाटिनी तथा सभी को गहरी नींद में सुलाने की विद्या अवस्वापिनी भी प्रभव को सिद्ध हो गई थी। अब उसका साहस भी बढ़ने लगा था। धनाढ्य जंबुकुमार के विवाह की बात जानकर बड़ी लूट के आशय से वह जंबुकुमार के घर आया था ।


 दोनो विद्याओं का प्रयोग कर उसने सबको सुला दिया था वह जंबुकुमार के कक्ष तक आ पहुंचा था। कक्ष में प्रवेश कर ही रहा था पर उसे जंबुकुमार व पत्नियों के बीच हो रहे संवाद को सुना। 


उसे आश्चर्य था, मेरी अवस्वापिणी विद्या का जंबुकुमार आदि पर प्रभाव नही हुआ। यही नही उसके 500 शिष्य भी उसके कक्ष तक आकर स्तंभित हो गये। उसने कक्ष के बाहर से ही जंबुकुमार व पत्नियों के बीच का संवाद सुना, तब उसका आश्चर्य हजार गुना बढ़ गया। यह क्या? भोग के चरमसुख की यानी प्रथम विवाह रात्री पर वैराग्य की बाते? ज्यो ज्यो सुनता गया उसका चिंतन मुड़ता गया। 


उसने कक्ष में प्रवेश कर जंबुकुमार से उनके पास रही स्तंभिनी विद्या सीखने की मांग की। बदले में अपनी दोनो विद्याएं जंबुकुमार को सिखलाने की तैयारी बतलाई। तब जंबुकुमार ने कहा  मैं वैरागी हुँ। मेरे पास न ऐसी कोई विद्या है न मुझे अब इन विद्याओं की आवश्यकता है।  मैं कल ही संयम अंगीकार करूँगा। यह सुनकर प्रभव ने उनसे ज्यादा संवाद किया। तब जंबुकुमार ने  प्रभव को संसार की नश्वरता व सिद्ध सुख की आवश्यकता समझाई। मनुष्यभव की सार्थकता किस में है यह समझाई।


अहो अहो आश्चर्यम।

एक खतरनाक लुटेरा, जो 500 चोरों का सरदार था, जिसका जीवन ही पापों में बीता था वह भी वैराग्यवासित हो उठा। उसने भी जंबुकुमार से संयम ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। एक ही शब्द निकलता है अदभुत।


भोर हुई।


माता धारिणी यह समाचार सुनने को आतुर थी कि आठ पत्नियों ने जंबुकुमार की दीक्षा रोक दी। प्रभात के प्रारंभिक कार्य निपटाकर जंबुकुमार मातापिता से मिलने आये। आठो पत्नियों के मातापिता को भी आमंत्रित किया गया। 


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बड़ी साधुवंदना - 80


श्री सुधर्मास्वामी ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।

तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।

प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।

सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।


विवाह के दूसरे दिन जंबुकुमार ने धारिणी व रुषभदत्त के साथ 8 श्वसूर व सास को  एकत्र किया।

सभी के सामने जंबुकुमार ने अपने संयम ग्रहण का दृढ़ निर्णय दोहराया उसके साथ ही आठ पत्नियों ने भी अपने संयम स्वीकार करने का निर्णय बताया। सब स्तब्ध रह गए। कहां तो आशा यह थी कि जंबुकुमार अपना निर्णय बदल लेंगे, पर यहां तो आठो पत्नियां भी उनके साथ वीर मार्ग पर चलने को  तत्पर हो गई। रात को आया लुटेरा प्रभव भी उनके साथ दीक्षा लेगा!!!!

जंबुकुमार ने उन सभी  के आश्चर्य को सुंदर  शब्दों में शांत किया। उन्हें संयम के आगे संसार की भौतिक सुख सुविधा के दुख बताये। अब उनकी वाणी सुनकर  जंबुकुमार व आठ पत्नियों के माता पिता भी दीक्षा लेने को तैयार हो गए। 500 चोर भी उपस्थित थे। नेता का अनुसरण कर अणगार धर्म स्वीकार करने का उन्होंने भी निश्चय कर लिया। एक वैरागी ने कितनो का जीवन पलट दिया।


बड़े ठाटबाट से जंबुकुमार व 527  मनुष्यों की दीक्षा संपन्न हुई। सुधर्मास्वामी ने प्रभव आदि मुनियों को, जंबूस्वामी को  शिष्यरूप प्रदान किये। जंबूस्वामी की संयम व तप की उत्कृष्ट आराधना के साथ ही उनकी ज्ञान आराधना भी उच्च थी। उनकी जिज्ञासा, उनका विनय, ज्ञान पचाने की उनकी  विशेषताएँ देखकर सुधर्मास्वामी ने उन्हें  आगम की वांचना दी। आज जो आगम उपलब्ध है वह सब सुधर्मास्वामी की जंबूस्वामी को दी हुई वांचना का ही स्वरूप है। धन्य थे गुरु शिष्य दोनो। धन्य है उनका हम पर उपकार। यह जिनवाणी हम तक पहुंचाई।


वीर निर्वाण के 12 वर्ष बाद केवली गौतमस्वामी का कुल 92 वर्ष की उम्र में  निर्वाण हुआ। और उस समय 92 वर्ष की उम्र में सुधर्मास्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। 8 वर्ष तक और जंबूस्वामी केवली सुधर्मास्वामी के निश्रा में विचरते रहे। 100 वर्ष की उम्र में जंबूस्वामी को जिनशासन का उत्तराधिकारी बनाकर सुधर्मास्वामी निर्वाण को प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।


एक योग्य आचार्य बनकर जिनशासन की महत्ती सेवा की। केवलज्ञान प्राप्त किया। अंत मे प्रभवस्वामी को जिनशासन की धुरा सौंपकर वे निर्वाण को प्राप्त हुए। लोकाग्र पर जाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने। चौथे आरे में जन्मे पांचवे आरे में मोक्ष जाने वाले वह अंतिम जीव थे। उनके बाद इस भरत क्षेत्र से मोक्ष का द्वार बन्द हो गया जो अब आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के शासन में ही खुलेगा। यहां द्वार का आशय सांकेतिक है। सिद्ध शिला का द्वार नही होता। पर इस काल में अब इस भरतक्षेत्र से कोई मोक्ष नही जा सकता ।इसलिए ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने द्वार  बन्द किये ऐसे बोला जाता है ।

सिर्फ मोक्ष ही नही , जंबूस्वामी के निर्वाण के बाद मोक्ष के साथ कुल 10 वस्तुओं का विच्छेद हुआ। यानी अब भरत क्षेत्र में ये 10  वस्तुयें हमें प्राप्त नही हो सकती।

वे दस  वस्तुएँ हैं ।


1  -केवलज्ञान, 

2 - मनःपर्यव ज्ञान, 

3 - परमावधि ज्ञान,

4 - परिहार विशुद्ध चारित्र

5 - सूक्ष्म संपराय चारित्र 

6 - यथाख्यात चारित्र

7 - पुलाक लब्धि

8 - आहारक शरीर

9 - क्षायिक समकित

10 - जिनकल्पी मुनिपना


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बड़ी साधुवंदना - 81


वली ढ़ंढण मुनिवर, कृष्ण राय ना नंद।

शुद्ध अभिग्रह पाली, टाल दियो भव फंद। 94।


अहो एक गाथा के इस कथानक में कितने संदेश ।


दृढ़ वैराग्य, निमित्त पाते ही चिंतन को उर्ध्वगामी बनाना, अंतराय कर्म की उग्रता तथा यह समझ आते ही उसे तोड़ने की उग्र आराधना करने का दृढ़ निर्णय। 

द्वारिका नगरी के राजा श्रीकृष्ण वासुदेव की ढंढणा रानी का पुत्र ढ़ंढण कुमार । बालवय से ही तेजस्वी। कलाचार्य के पास अभ्यास किया। युवा अवस्था मे आते आते पुरुषों की 72 कलाओं में प्रवीण बने। 

एकबार नेमप्रभु विचरण करते हुए द्वारिका नगरी पधारे। उनकी देशना सुनकर कुमार के मन मे दबा वैराग्य का बीज अंकुरित हुआ। प्रभुसे दीक्षा की आज्ञा मांगी। राजमहल आकर पिता कृष्ण वासुदेव से संयम ग्रहण की अनुमति मांगी।

दीक्षा की आज्ञा मिलना सहज नही है। यहां उद्देश्य सिर्फ परीक्षा का था।  श्री कृष्ण ने उनके वैराग्य की कठिन परीक्षा ली। अनेक प्रलोभन दिए। तीन खण्ड के अधिपति बनाने का वचन दिया। पर अब ढंढण मुनि वैराग्य के पक्के रंग में रंग चुके थे।

आख़िर कृष्ण वासुदेव ने भव्य दीक्षा महोत्सव कर ढँढ़ण मुनि को संयम पथ पर जाने की अनुमति दी।


दीक्षा के समय उन्हें अट्ठम तप था। पारणे के दिन प्रातः आवश्यकी क्रिया  बाद वे प्रभु आज्ञा लेकर गोचरी निकले। पर कहीं भी सूझती निर्दोष गोचरी का लाभ नही मिला। कहीं आंगन में पानी गिरा तो कहीं सचेत सब्जियों से लगा आहार। ऐसी कई अंतराय आई। आखिर उन्होंने प्रभुके पास आकर पुनः आहार के त्याग कर दिए। यानी चौथा उपवास ग्रहण कर लिया।

दूसरे दिन फिर जब गोचरी निकले तब भी यही हुआ। पुनः उपवास। ऐसे करते जब बहुत दिन हो गये पर उन्हें निर्दोष आहार नही मिला।

तब प्रभु ने उन्होंने बहुत भवो पहले बांधे अत्यंत तीव्र अंतराय कर्म अभी उदय में आया हुआ है यह कथा बताई।

हजारों भव पहले जब उनके अधीनस्थ 500 किसान खेत मे काम कर रहे थे। कठिन परिषह करने के बाद दोपहर में  बैलों को आहार के लिए छोड़कर जब वे किसान खाना खाने बैठे तब जुल्मी मालिक ने आकर बिना खाये ही फिर काम पर लगने की आज्ञा दी। बैलों व किसानों को पुनः आहार से वंचित होना पड़ा। इस कृत्य का अफसोस  की जगह आनन्द किया। और गाढ़ा अंतराय कर्म बन्ध किया। 

जो इस भव उदय में आया। 

प्रभु के मुख से अपने कर्म सुनकर मुनिवर ने उस कर्म को तोड़ने के लिए दृढ़ अभिग्रह लिया। अब जब तक अपनी लब्धि से आहार नही मिलेगा तब तक  मैं अविरत तप करूँगा। 


अब मुनिवर नगर जाते, खाली हाथ स्वस्थता से लौटकर पुनः तप में स्थिर हो जाते। ऐसे करते हुए 6 माह बीत चुके थे। मुनि का देह उग्र तप से अत्यंत कृश हो गया था ।अब उस कर्म का काल भी समाप्त होने आया था। 

एकबार प्रभुने कृष्ण वासुदेव 

से वहां उपस्थित सभी मुनियों में ढ़ंढण मुनि के उग्र तप की प्रशंसा की। फिर कृष्ण वासुदेव जब नगर में लौट रहे थे तब गोचरी हेतु गवेषणा कर रहे ढँढ़ण मुनि देखे। तब हाथी से नीचे उतरकर उन उग्र तपस्वी को वन्दन किया। 

राजमार्ग पर कृष्ण को एक मुनि वन्दन करते हुए देख वहां उपस्थित एक हलवाई ने सोचा कि कृष्ण जिन्हें वन्दन कर रहे है वह मुनि अवश्य महात्मा होंगे। लाओ  मैं उन्हें आहार बहोराउ। मुनि को दुकान पर लाकर निर्दोष लड्डू बहोराये।

ढंढण मुनि ने आहार लेकर अपनी विनय बताते हुए प्रभु को बताया।

उनके अभिग्रह से ज्ञात प्रभुने कहा - यह आहार आपकी लब्धि का नही, परन्तु कृष्ण वासुदेव ने तुम्हे वन्दन किया वह देखकर तुम्हे कोई महामुनि जानकर हलवाई ने आहार बहोराया है।


अपनी लब्धि का आहार नही यह जानकर प्रभु से आज्ञा ले कर लड्डू परठने निर्दोष स्थान पर आए। लड्डू का चूरा करते करते उनका चिंतन उर्ध्वगामी बना। धर्म शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।


कई वर्षो तक प्रभुके साथ केवली पने में विचरण किया। अंत  में सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।


धन्य धन्य जिनशासन।


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बड़ी साधुवंदना - 82


वली खन्धक ऋषि नी , देह उतारी खाल।

परिषह सही ने , भवफेरा दिया टाल। 95।


27 वी गाथा में हमने एक स्कंदक जी का वृत्तांत देखा था।

ऐसे 2 अन्य स्कंदक मुनि हो गये उनका वर्णन आगे 2 गाथा में आता है।


स्कंदक ऋषि - 2


अहो , 

अत्यंत दारुण उपसर्ग में भी कितना समभाव!!!


अहो, अहो जिनशासनम!!!!


श्रावस्ती नगरी के राजा कनक केतु की रानी मलयसुंदरी।

उनके एक पुत्र नाम स्कंदक कुमार व पुत्री सुनन्दा। युवावस्था में आते पुत्र स्कंदक 72 कलाओं में  प्रवीण बने और  साथ ही अपने चारित्र से आसपास के सभी जनों में लोकप्रिय बने। स्वभाव शुरू से विरक्त था। संसार  भोगने की जगह प्रवज्या का सुख की चाह मन में थी। 

श्रावस्ती में एक बार आचार्य विजयसेन पधारे। उनकी वाणी सुन स्कंदक कुमार का वैराग्य दृढ़ हुआ। मातापिताको अनुमत कर संयम अंगीकार किया । 

राजकुमारी सुनन्दा का ब्याह कांचीपुर नरेश पुरुषसिंह के साथ हो गया। 

स्कंदक मुनि उत्कृष्ट संयम आराधना के साथ ज्ञान की वृद्धि भी कर रहे थे। बरसो बीते। तप से देह कृश हो गया था पर ज्ञान , अदभुत ज्ञानाराधना से गितार्थ बन चुके थे। अब गुरु ने उन्हें अकेले विचरण करने की अनुमति दी। 

मुनि एकबार विहार करते हुए कांचीपुर पधारे। रोज की क्रिया अनुसार पहले प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान व तीसरे प्रहर में गोचरी हेतु नगर में आये। भीषण गर्मी, नँगे पांव, मुंडित  सिर, तप से दमित कृश देह । मुनि चर्या इतनी आसान नही। 

गोचरी हेतु विचरण कर रहे मुनि राजमहल के सामने से गुजरे। तब राजा व रानी सुनन्दा महल के गवाक्ष में बैठे थे।रानी सुनन्दा की दृष्टि मुनि पर गई। मुनि के कृश देह से पहचाना तो नही। पर उन्हें देखकर भाईमुनि की याद आ गई। अहो , ऐसे ही तपती धूप में मेरे भाई मुनि भी नँगे पाँव , मुंडित  सिर के साथ घूम रहे होंगे। अपलक मुनि को देखते हुए रानी की आंखों से अश्रु बह निकले। राजा ने आश्चर्य चकित होकर रानी की दृष्टि के पीछे देखा तो शंकित हो गया। यह रानी मुनि को देखकर अश्रु बहा रही है। निश्चित ही दाल में कुछ काला है।

शंकित मन विवश बन जाता है अपनी शंका के आगे । विवेक खो बैठता है। रानी के चारित्रपर शंकित हुए राजा ने चन्डालोको बुलाकर आज्ञा दी। इस कपटी साधु को वन में ले जाकर इसकी त्वचा देह से उधेड़ दो। 

अहो, कितना विवेक शून्य, धृणित कार्य।

चंडाल भारी मन से मुनि को लेकर वन पहुंचे।

मुनि को राजाज्ञा सुनाई। उपसर्ग आया देखकर मुनि ने अपना चिंतन वेदना की जगह, आर्त रौद्र ध्यान की जगह स्व की तरफ मोड़ लिया। यह उपसर्ग में समभाव की मुख्य वजह। मुनि ने राजा या चन्डालो की गलती नही देखी। मात्र अपने किन्ही पूर्वगत कर्मो का उदय मानकर स्वस्थ हो गये। चंडाल अपना काम करने लगे। खाल उतरती गई। मुनि ने अपना चिंतन उर्ध्वगामी बनाया। सभी कर्मो को क्षय करने का अवसर समझा यह। ओर शुभ भाव में आगे बढ़े। यहां तक की चन्डालो के अनुकूल अपनी स्थिति करने लगे। एक पल वह आया जब मुनि परम शुक्ल ध्यान में प्रविष्ट कर गये ओर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। आयुकर्म खपाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।


चंडाल ने नगर आकर राजा को कार्य पूर्ण करने की सूचना दी। इधर मुनि के रक्त रंजीत देह के पास चील पक्षी आदि उनके मांस भक्षण के लिए आ गये। उनमे से एक  ने रक्त से सना रजोहरण लेकर उड़ गया। ओर संयोग वश राजमहल के ऊपर से उड़ते समय रानी के महल में ही गिरा दिया। रानी अचंभित हुई। उसने सब जानकारी निकलवाई तब वह स्तब्ध रह गई। राजा के  घृणित व निर्दयी काम को देखकर  नि:शब्द हो गई। जब उसे पता चला की वे वास्तव में उनके भाईमुनि ही थे। तब मन संसार के इन प्रपंचों से विरक्त हो गया। राजा को जब सत्य बताया गया तब उसे भी अत्यंत अफसोस हुआ। पर घटना घट चुकी थी। अफसोस के सिवा कुछ कर नही सकते थे।


तब वहां एक विशिष्ट ज्ञानी आचार्य पधारे।  उनसे पूछने पर उन्होंने स्कंदक मुनि का पूर्वभव बताया। हजारों वर्ष पूर्व एक भव में स्कंदक मुनि के जीव ने एक  काचरे की  छाल अखंड उतारकर अपने इस कृत्य पर बहुत अभिमान किया था। बस उसीका यह परिणाम था। यहाँ पर इस परिणाम में शुभ भाव रखकर  वे जन्म मृत्यु के चक्र से छूट गये।


विरक्त हुए राजा, रानी ने संयम लिया। यह सब कथा राजा कनककेतु को मिली तब राजा रानी भी विरक्त हो गये। उन्होंने भी संयम ग्रहण किया। औरआत्म कल्याण किया।


धन्य वे महात्मा,

जो सही समय पर अपना चिंतन योग्य दिशा में ले जाते है व अनर्थ से बच जाते है।


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#बड़ीसाधुवंदना - 83


वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।

घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।


वैर का दुर्विपाक हमे कितने निर्दयी, कितने धृणित काम करने की और ले जाता है। तो इस गाथा से दूसरी बात यह भी देखने मिलेगी की कठोरतम उपसर्ग में भी समभाव रखकर हम मुक्ति मंजिल पा सकते है।


भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के शासन की यह घटना है। श्रावस्ती नगरी के राजा जितशत्रु रानी धारिणी के एक पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्री का नाम पुरंदर यशा था। जिसे कुंभकारट नगर के राजा दंडक के साथ ब्याही गई थी। राजकुमार स्कन्धक जैन धर्मानुरागी व विरक्त स्वभाव के थे। 


एकबार दंडक राजा का मंत्री पालक किसी राजकीय वजह से श्रावस्ती नगरी के राज दरबार मे आया। पालक था तो ब्राह्मण कुल का,  पर अत्यंत निर्दयी, जैन धर्म का विद्वैषी , मिथ्यामती था। राजदरबार में उस समय धर्म चर्चा चल रही थी। जैन तत्त्व के, जिनशासन की गुणगाथा गाई जा रही थी। तब पालक ने विक्षेप कर जिन विरोधी बाते करने लगा। राजकुमार स्कन्धक ने उसे तर्क संगत बातो से चुप करा दिया। स्कन्धक के मन मे कोई द्वेष नही था, पर पालक ने इसे अपना भीषण अपमान समझा। अवसर देखकर इस अपमान का अवश्य बदला लूंगा यह निर्णय कर लिया।


 

कुछ समय बीता । राजकुमार ने भगवान मुनिसुव्रतजी के पास संयम स्वीकार कर उत्कृष्ट आराधन करने लगे। उनके साथ उनके 500 मित्रो ने भी संयम लिया। सभी संयम में दृढ़ बने। उन 500 मुनियों की भी आराधना तीनो योग से चल रही थी। भगवान की निश्रा में रहकर विपुल कर्मो की निर्जरा करने लगे।


कुछ समय बीता, एकबार स्कन्धक मुनि ने भगवान से कुंभकारट नगर जाकर बहन बहनोई को प्रतिबोध देने की भावना व्यक्त की।


केवली सर्वज्ञ प्रभु ने भविष्य देखते हुए कहा : - वहां नारकीय वेदना का अनुभव होगा। तब मुनि ने पूछा - भगवान, हम आराधक बनेंगे या विराधक?

तब प्रभु ने फरमाया : - वे 500 मुनि आराधक और तुम विराधक बनोगे।


उन 500 मुनियों के लिए हर्ष व्यक्त कर स्कन्धक मुनि 500 शिष्यों के साथ कुंभकारट नगर आये । एक उद्यान में रहकर आराधना करने लगे। मुनि के आगमन का समाचार प्राप्त कर बहन पुरन्दर यशा तथा बहनोई दंडक राजा अति प्रसन्न हुए। और मुनि के दर्शन करने आये। 


प्रभु ने जो भविष्य बताया वह क्या होगा ?


आगे....

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#बड़ीसाधुवंदना - 84


वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।

घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।


पर विद्वेषी मंत्री पालक यह सुनकर वैर की आग से जल उठा। उसने पुराने वैर का बदला लेने के लिए एक षड्यंत्र रचा। बहुत सारे अस्त्र शस्त्र ले जाकर उस उद्यान में जमीन में गढ़वा दिए। और दंडक राजा के मन मे स्कन्धक मुनि के विरुद्ध विष भर दिया।


यह मुनि 500 शिष्यों के साथ आपका सिँहासन हड़पने आये है। राजा को उद्यान में अपने ही गाढ़े हुए शस्त्रादि निकालकर बताये। कच्चे कान का राजा उसकी बातों में आ गया। और पालक जो सजा उन मुनि के लिए निश्चित करे वह उन्हें देने की छूट दे दी।

अब पालक को मौका मिल गया।

उद्यान में जाकर स्कन्धक ऋषि व 500 शिष्यों को राजाज्ञा सुनाई, अपने अपमान की बात याद दिलाई।

तब मुनि ने कहा -  हे पालक, उस दिन भी तुम पर कोई द्वेषभाव नही था, अभी भी नही। तुम जो चाहे हमारे साथ करो। हम अपने कर्मो का चूरा ही करेंगे।


पालक ने उद्यान में ही बड़ी घाणी ( तेल निकालने का यंत्र ) लगवाई। 

स्कन्धक मुनि ने अपने 500 शिष्यों को आनेवाले उपसर्ग की सूचना दे दी। और इस उपसर्ग को मुक्ति मंजिल पाने का अवसर बनाने की प्रेरणा दी। 500 वीर मुनि ने गुरु आज्ञा स्वीकार की , समझा व उपसर्ग के लिए तैयार बने। 

स्कन्धक मुनि ने कहा : - तुम्हारा वैर मुझ से है। पहले मुझे घाणी में डालना । तब नीच पालक ने कहा : -  मैं तुम्हे मृत्यु से पहले वेदना दूंगा। तुम्हारे सामने तुम्हारे शिष्यों को  पीला  जाएगा। ताकि तुम  दु:ख महसूस करो।

 

अहो दृढ़ता ।!!!

यह लिखते समय हाथ कांप रहे, आंखों से अश्रु बह रहे !,


कितना मजबूत होगा उनका मन

कितनी दृढ़  होगी जिनशासन पर , जिनवाणी पर उनकी श्रद्धा!


पालक ने यंत्र चालू करवाया।

एक एक मुनि को यंत्र में फेंकता गया। स्कन्धक मुनि सब मुनिविरो को मंगलपाठ सुना रहे है। कोई किसी पर राग न करे ना किसी पर द्वेष करे। 


वातावरण करुण होते हुए भी जैसे वीरता का संग्राम बन गया। जहां एक घातकी पालक मंत्री, प्रतिकार तक नही कर रहे नि:शस्त्र  मुनियों पर नारकीय वेदना दे रहा है। पर मुनि सब दृढ़ थे। ज्यो ज्यो मुनि को घाणी में डालते गये, वह मुनि शुक्लध्यान में प्रविष्ट होकर आठो कर्मो को खपाकर मोक्ष प्राप्त करने लगे। स्कन्धक मुनि भी अपने मित्र, शिष्य मुनि को घाणी में पिलाते देख हो रही वेदना को भीतर दबाकर समभाव रख रहे है। यह देखकर  पालक को संतुष्टि नही हुई। वह स्कन्धक मुनि को लाचार, रोते, गिड़गिड़ाते हुए देखना चाह रहा था। उसके वैर को तभी आनन्द मिलता। पर यहां तो वातावरण विपरीत हो गया था। लाचारी, भय का नामोनिशान नही था। वह अपनी दृष्टता बढ़ाता गया। पर मुनि गण अपनी क्षमता बढ़ाता गया।

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#बड़ीसाधुवंदना - 85


वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।

घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।


एक एक कर 499 शिष्य ने घाणी में अपने कर्मो को पीस कर मोक्ष प्राप्त कर लिया। अंत मे एक बाल मुनि व स्कन्धक मुनि शेष रहे। स्कन्धक मुनि ने कहा : - तुमने अपनी इच्छा पूरी की अब इस बाल मुनि को पिलाते, वेदनाग्रस्त होते  मैं देख नही पाऊंगा। तुम मुझे पहले घाणी में डलवा  दो। घातकी पालक कहां मानने वाला था। 

उसने बाल मुनि को उठवाया और घाणी में फेंक दिया।

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न भूतों न भविष्यति

ऐसा बीभत्स करुण  दृश्य कभी किसी ने देखा न होगा। बाल मुनि अपने भाव मे दृढ़ बने। वेदना में भी समभाव रखकर वे शुक्लध्यान में आरूढ़ हुए। सर्व कर्म खपाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।

पर हाय रे हमारी कषायाग्नि । अंतिम बाल मुनि के समय स्कन्धकमुनि की वेदना ने कषाय का स्वरूप ले लिए। पालक की नीचता की पराकाष्ठा ने प्रभाव दिखा दिया। मुनि क्रोधित हुए। उन्हें घाणी में डाला गया । मुनि ने वेदना से नही घबराये पर पालक की नृशंसता से नही बचे। उन्होंने अंतिम समय आलोचना की जगह निदान कर लिया। अपने सर्व तप के फल स्वरूप पालक व पूर्ण नगर को जलाने का निदान कर लिया।


विराधक भाव मे काल कर मोक्ष या उच्च देवलोक की जगह अग्निकुमार जाती के देव बने।

तुरन्त अवधिज्ञान में अपना पिछला भव देखकर कुंभकारट नगर आये।

पुरंदर यशा को जब इस घटना का पता चला तब वह दुखी हुई पर इस दुख ने उसे विरक्ति जगाई ओर देवी सहायता से भगवान के पास पहुंचकर संयम स्वीकार कर लिया। दंडक राजा को भी अपनी भूल का पश्चाताप हुआ। पर अब सब व्यर्थ था।

देव बने स्कन्धक ने नगर पर तीव्र अग्नि वृष्टि की। सारा नगर , प्रजा सहित कुछ ही समय मे भस्मीभूत बन गया।

एक छोटे से प्रसंग में अपना अपमान समझ कर पालक ने कितना बड़ा नरसंहार करवा दिया।

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इस घटनाक्रम को शब्दों में उतारते समय जो अनुभूति हुई उसका वर्णन असंभव है। जिनशासन के इन शूरवीरों के प्रति हृदय सदा नतमस्तक रहेगा।

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बड़ी साधुवंदना - 86


संभुत्ति विजय - शिष्य , भद्रबाहू मुनिराय ।

चौदह पूर्व धारी, चन्द्र गुप्त आण्यो ठाय ।97।


आचार्य भद्रबाहूजी,

आचार्य यानी 8 संपदा से युक्त, तीर्थंकर भगवान के निर्वाण बाद जिनशासन के नायक, समस्त संघ को जिनेश्वर प्रारूपित मार्ग पर लाने, बढ़ाने व दृढ़ करने वाले महान उपकारी । जिन्हें हम नवकार महामंत्र में तीसरे पद में वन्दन करते है।

वर्तमान जिनशासन के प्रथम युगप्रधान आचार्य सुधर्मास्वामी के बाद जंबूस्वामी, प्रभवजी, आर्य शय्यंभव, पांचवे पट्टधर आचार्य आर्य यशोभद्र हुए। यहां तक सभी आचार्य ने अपने कालधर्म से पहले एक उत्तराधिकारी घोषित किया ।


 वीर निर्वाण के 148 वे वर्ष में अपने अंतिम समय को जानकर आर्य यशोभद्र ने अपने 2 मुख्य शिष्यों को उत्तराधिकारी बनाया। आर्य संभुत विजयजी तथा आर्य भद्रबाहूजी।


नही, यह जैन संघ का विभाजन कतई नही था। जैन संघ के विभाजन के लिए इन महामुनि को  कारणभूत मानना उनके प्रति अन्याय होगा।

विभाजन की शुरुआत  इस समय के कई वर्षों बाद काल के प्रभाव से हुई। 


आर्य भद्रबाहूजी का विनय और शासन के प्रति पूर्ण श्रद्धा व अहोभाव ही था, जो उत्तराधिकारी बनने के बाद भी अपने बड़े गुरूभ्राता संभुतिविजय जी की निश्रा में ही रहकर 8 वर्ष तक संघ की उत्कृष्ट सेवा करते रहे। आर्य संभुत्ति के बाद वीर निर्वाण संवत 156 में जैन संघ की बागडोर उन्होंने संभाल ली। आजकल छोटे से पद की सत्ता के लोलुप हम मनुष्यो के लिए यह प्रेरणाजनक।


 वीरशासन के भव्य इतिहास में आर्य भद्रबाहूजी का नाम उल्लेख बड़े अदब, बड़े मान से लिया जाता है। जिनशासन के लिए इनका समर्पण अतुल्य रहा। 

प्रतिष्ठानपुर के ब्राह्मण परिवार में जन्मे भद्रबाहूजी ने 45 वर्ष की उम्र में वीर निर्वाण संवत 139 में  आर्य यशोभद्र जी से संयम स्वीकार किया। 

इन्होंने ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना की। आचारांग आदि 10 आगम की निर्यूक्तियाँ, 4 छेद सूत्र की रचना, उपसर्गहर स्तोत्र ( उवसग्गहरं ), भद्रबाहु संहिता, वसुदेव चरित्र आदी उत्कृष्ट आगम व ग्रन्थ  की रचना की। 

उवसग्गहरम की रचना की पोस्ट आगे हम पढ़ चुके है।


इन्ही आचार्य ने स्थूलभद्रजी को दो वस्तु कम दस पूर्वो का संपूर्ण तथा अंतिम 4 पूर्व की मूल की वांचना का ज्ञानदान  दिया था। इस तरह पूर्व का ज्ञान विनष्ट होने से बचाया।

12 वर्ष तक महाप्राण - ध्यान के रूप में उत्कट योग की साधना भी की। वीर निर्वाण संवत 156 से 170 तक देश के विभिन्न भागों में विचरण कर जिनशासन का उत्कर्ष किया। 

वराह मिहिर इनके ही भाई थे।

आचार्य भद्रबाहूजी का जीवन विशाल कथानकों से भरा है। इन पांचवे श्रुत केवली ( 12 अंग 14 पूर्व के संपूर्ण ज्ञाता को केवली जैसा यानी श्रुत केवली कहा जाता है। ) की संघ के लिए ज्ञान प्रदान की उच्च महिमा कई ज्ञानियों ने गाई है।


आर्य भद्रबाहूजी नाम के आचार्य एक से ज्यादा होने तथा उस समय का पूर्ण वर्णन नही मिल पाने से ऊनसे जुड़े कथानकों में मतभेद मिलता है।

पर एक बात सर्वमान्य है कि आर्य भद्रबाहूजी जैन संघ के एक महान आचार्य हुए।

आर्य भद्रबाहूजी एकबार विहार करते हुए उज्जयनी नगर पधारे। तब वहां के शासक सम्राट चन्द्रगुप्त मुनि के दर्शन करने आये। 

अवसर देखकर उन्हें हाल ही में देखे 16 स्वप्नों का अर्थ पूछा। 

भद्रबाहूजी से उन स्वप्नों के स्पष्ट उत्तर पाकर चन्द्रगुप्त राजा विरक्त हुए। व उन्होंने संयम अंगीकार किया।

उन 16 स्वप्न में क्या है .....?

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#बड़ीसाधुवंदना - 87


संभुत्ति विजय - शिष्य , भद्रबाहू मुनिराय ।

चौदह पूर्व धारी, चन्द्र गुप्त आण्यो ठाय ।97।


चन्द्र गुप्त राजा को आये 16 स्वप्न में क्या है तथा आर्य भद्रबाहूजी ने उसका क्या अर्थ बताया यह आज हम देखते है। एक एक स्वप्न से अब इस क्षेत्र का भविष्य क्या होगा यह बतलाया गया है।

आनेवाले काल का भविष्य इन स्वप्नों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनके ज्ञान की सच्चाई आज के परिप्रेक्ष्य में हम महसूस कर सकते है।


1 - अस्त होता सूर्य : श्रुत ज्ञान बहुत कम हो जाएगा।


2 - कल्पवृक्ष की भग्न शाखा : अब कोई राजा दीक्षा नही  लेगा ।


3 - छलनी जैसा छिद्र युक्त चन्द्र : जैन धर्म मे अनेक मतों का उदभव होगा।


4 - बारह फन वाला सर्प : बारह वर्ष का भीषण दुष्काल ।


5 - उल्टे लौटते देवविमान : इस काल मे  वैमानिक देव, विद्याधर, चारण मुनि भरत क्षेत्र में नही आएंगे। 


6 - अशुचि युक्त स्थान में उगा कमल : उत्तम कुलोत्पन्न की जगह हीन कुल जाति के लोग जैन धर्म के अनुयायी होंगे।


7 - भूतों का नृत्य : अब मनुष्यो में अधोजाति के देवो के प्रति श्रद्धा ज्यादा हॉगी।


8 - खद्योत का उद्योत :  जैनागमो के उपदेश देनेवालों में भी मिथ्यात्व रहेगा, जैन धर्म कहीँ कहीँ ही होगा।


9 - बीच मे सूखा, किनारों पर छिछरा जल वाला सरोवर : जिन पवित्र स्थानों में तीर्थंकरों के पंच कल्याणक हुए वह स्थान में जैन धर्म विनष्ट होगा और दूर के क्षेत्रों में जैन धर्म थोड़ा थोड़ा होगा।


10 - कुत्ते का स्वर्ण थाली में खीर खाना : लक्ष्मी का उपयोग प्रायः नीच पुरुषों करेंगे। कुलीन लोगो को लक्ष्मी दुर्लभ बनेगी।


11 - हाथी पर बैठा बंदर : अनार्य लोग राजा बनेंगे व क्षत्रिय राजरहित होंगे।


12 - समुद्र का सीमा उल्लंघन : राजा न्याय का उल्लंघन करने वाले, प्रजा की लक्ष्मी को लूटने वाले होंगे।


13 - बछड़ों द्वारा वहन किया जा रहा अतिभारयुक्त रथ : ज्यादातर लोग युवावस्था में संयम ग्रहण करेंगे और वृद्धावस्था में दीक्षा कम हॉगी।


14 - ऊंट पर बैठा राजकुमार : राजा निर्मल सत्य धर्म त्याग कर हिंसात्मक मार्ग अपनायेंगे।


15 - धुली से आच्छादित रत्न राशि : भविष्य में निर्ग्रन्थ मुनि भी एक दूसरे की निंदा करेंगे।


16 - 2 काले हाथियों का लड़ना : बादल व मनुष्यो का सूचक यानी बादल मनुष्यो की इच्छा अनुसार नही बरसेंगे।


इनमें से बहुत सी वाणी आज सत्य होते दिखाई दे रही है। जो भद्रबाहूजी का उच्च नैमित्तिक ज्ञान बता रहा है।

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बड़ी साधुवंदना - 88


वली आर्द्रकुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।


इस गाथा में 5 मुनियों के नाम वर्णित है। हम क्रमशः इनकी कथा देखेंगे।


आर्द्र कुमार - 1


पिछली पोस्ट में भरत क्षेत्र से 10 विलुप्त चीजों का हमने पढा।

कुछ ने जिज्ञासा व्यक्त की : - यदि इस भव यहां से मोक्ष  मिल ही नही सकता तो अभी धर्म और धर्म क्रिया क्यों करना ?


इसका जवाब हमें इसी साधुवन्दना की इन गाथा में  मिल जाता है।

धर्म एक सीढ़ी है, जिससे हमें मुक्ति मंजिल को प्राप्त करना है।

ऐसा  नहीं की सब जीव एक ही भव में यह सीढ़ी पूरी चढ़ जाए। 

कई भवों की यह साधना होती है। उस भव में सम्यक ज्ञान के साथ  की गई धर्म क्रिया हमें उस सीढ़ी पर ऊपर ही ले जाएगी। जिससे अगले भवो में हमें शीघ्र मुक्ति सुलभ होगी। और एक लाभ तो अभी भी है ही : - धर्म युक्त व्यक्ति दुर्गति में नही जाएगा। जहाँ आर्त रौद्र ध्यान से हम कर्म बंधन बढ़ाये।


धर्म हमें इस लोक के साथ ही अगले भवो की भी सुरक्षितता प्रदान करता है।


धर्म के संस्कार यदि एक बार दृढ़ बना लिए है तो अगले भव में भी या अनार्य क्षेत्र में जन्म लेकर भी हम मुक्ति मंजिल प्राप्त कर सकते  हैं । इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है अनार्य क्षेत्र में जन्मे आर्द्र कुमार।


पूर्व भव में आर्द्र कुमार के जीव ने संयम स्वीकार किया, पर कुछ समय बाद योग ऐसा बना की साथ ही साध्वी बनी पूर्व पत्नी को देखकर पुरानी वासना जाग्रत हुई। 

धर्म  में दृढ़ साध्वीजी ने अपने तथा पूर्व पति के संयम को बचाने के लिए संथारा लेकर समाधिमरण को चुन लिया। इससे मुनि को आघात लगा और वे भी काल कर गए।


काल कर मुनि एक अनार्य देश आर्द्रक देश जो कि समुद्र में एक द्वीप था उसके राजा आर्द्रक के यहां राजकुमार बने। अनार्य देश : - जहां के लोगो को धर्म की समझ नही होती। मोक्ष आदि तत्त्वों की श्रद्धा तो दूर, समझ तक नही होती। राजकुमार आर्द्र बड़े हुए।

मगधराज श्रेणिक के मित्र आर्द्रक राजा के यहां श्रेणिक के कुछ दूत आये । राजदरबार में मगध देश की बाते हुई। राजकुमार अभयकुमार की अदभुत बुद्धि की बात हुई । वहां राजकुमार आर्द्र भी थे। जब दूत वापिस जाने लगे तब राजा ने श्रेणिक राजा के लिए कुछ भेंट दी। राजकुमार आर्द्र ने भी अभयकुमार के लिए  मित्र बनाने के उद्देश्य से कुछ वस्तुए भेंटस्वरूप पहुंचाई। 


यह भेंट जब मगध में राजा व अभयकुमार के पास पहुंची तब अभयकुमार को अनायास लगा कि अवश्य यह कोई भव्य जीव है। अभयकुमार जिनधर्मानुरागी जीव थे ही। उन्होंने अनार्य देश मे जन्मे राजकुमार के उत्थान समझकर, उन्हें प्रेरणा देने के लिए धार्मिक उपकरणों की भेंट भेजी। 

आर्द्र कुमार धार्मिक उपकरणों को देख, उसमे रहे रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि देखकर स्तंभित और फिर मूर्छित हो जाते है। पुनः शुद्धि पर उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त होता है। पूर्व भव में पाले संयम, पत्नी साध्वी जी को देखकर पतन आदि सब वृत्तांत याद आ जाता है। 

अब वे क्या करेंगे?

आगे ...



देरावासी मान्यता में अभयकुमार आर्द्र कुमार को प्रभु की प्रतिमा भेजते है , यह सुना पढा है। 


तत्त्व केवली गम्यं । 

जो भी हो पर हमें यही समझना है कि अभयकुमार द्वारा आर्द्र कुमार को मिली भेंट से आर्द्र कुमार को पुनः कल्याण मार्ग का ज्ञान मिला। कोई भी इस मतभेद को मनभेद का मुद्दा न बनाये यह विनती।

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बड़ी साधुवंदना - 89


वली आर्द्रकुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।


आर्द्र कुमार - 2


अभयकुमार की भेंट देखकर जातिस्मरण ज्ञान से आर्द्र कुमार को सब याद आ जाता है। पूर्वभव में खोए संयम रत्न को पाने को अब उत्सुक बन जाते है। पिता से आज्ञा मांगने पर जैन धर्म के विषयक उनकी अज्ञानता  तथा मोह वश पिता उन्हें दीक्षा तो क्या, मगध जाने की भी अनुमति नही देते। कुमार की दृढ़ता देख उन्हें राजमहल में नजरबंद कर देते है। 500 सैनिकों को उनके चौकीदार नियुक्त करते है। पर अब आर्द्र कुमार को चैन नही। एक दिन योजना बनाकर देखकर वे समुद्र मार्ग से निकल आते है। आर्य देश में आकर पूर्व भव के ज्ञान से स्वयं संयम अंगीकार करते है। तब एक देव वाणी उन्हें रोकती है। अभी आपके भोगावली कर्म बाकी है, अभी आप दीक्षा न ले। परन्तु भविष्य को आगे देखेंगे यह सोचकर वे दीक्षित हो जाते है।

विहार करते हुए एकबार वसंतपुर नामक नगर के बाहर एक जीर्ण मन्दिर में आकर संध्या समय ध्यानस्थ हो जाते है। 

वँहा कुछ श्रेष्ठि कन्याए क्रीड़ा कर रही थी। युवा उम्र की ठिठोल व खेल कूद चल रहा था। अचानक एक खेल में दौड़ती हुई एक श्रेष्ठि कन्या अंधेरे में मुनि को खंभा समझकर उन्हें पकड़ लेती है। और खेल अनुसार कहती है यह मेरे पति है। खंभे की जगह जब मुनि का ख्याल आया तब वह संकुचाई। पर यही भवितव्यता थी। प्रातः मुनि तो वहां से चले गए। पर उस कन्या ने मुँह से निकली बात को पकड़ लिया। अब वे ही मेरे पति।

पिता ने बहुत समझाया। कि एक तो वे चले गए, उन मुनि को ढूंढे कहां और दूसरा ढूंढ भी लिया तो क्या मुनि विवाह करेंगे????

पर कन्या दृढ़ थी।

पिता व कन्या ने मुनि की खोज प्रारंभ की। दानशाला आदि धार्मिक क्रियाए शुरू की। 

काफी लंबे समय बाद एक दिन योग वश मुनि मिल गए। 

कन्या व पिता ने विवाह के लिए अत्यंत आग्रह किया। कन्या ने आत्महत्या की बात दोहराई। 

इधर भोगावली कर्म भी उदय में आया। मुनि पुनः गृहस्थ बने। विवाह हुआ।

एक पुत्र के पिता भी बन गए। पुत्र थोड़ा बड़ा हुआ तब आर्द्र कुमार ने अब पुनः संयम ग्रहण की आज्ञा मांगी। पर हाय रे मोह!!!

अब मीठा बोलकर ततुलाते नादान बालक ने   पिता को रोकने के लिए घर मे से कच्चे सूत के धागे लिए। और मुनि के पांवों पर लपेट दिया। 

और अपनी बालभाषा में रुदन कर रही माता को आश्वश्त किया। कि मैने पिता को बांध दिया है अब वे नही जाएंगे। मोह में आर्द्र कुमार रुक गए। पांव में बंधे धागे देखे तो 12 थे। वे कुछ सोचकर 12 वर्ष के लिए फिर रुक गए।

आख़िर 12 वर्ष बाद पुनः स्वतः संयम अंगीकार कर लिया और घर गांव से विहार कर दिया।  यहां उनकी एक ही इच्छा थी वीर प्रभु के दर्शन।

मार्ग में उन्हें 500 चोर मिले। पहचान बढ़ी तब समझ मे आया कि पिता ने उनके लिए जो 500 चौकीदार रखे थे, आर्द्र कुमार के वहां से निकल जाने के बाद राजा के डर से वे भी आर्य देश मे आ गए, व चोर बन गए थे। आर्द्रकुमार मुनि से प्रतिबोध पाकर वे भी संयम ग्रहण करते है।

मुनि पुनः अपनी वीरप्रभु तरफ की विहार यात्रा शुरू करते है। मार्ग में कई अन्यमती के साधुओं के समूह मिलते है। गोशालक, बौद्ध, हस्ती तापस , एक दंडी आदि परंपरा के । सभी समूहों से शास्त्रार्थ होता है। उन्हें जैन धर्म की सही समझ देते है।

अंत मे वीरप्रभु की शरण प्राप्त करते है। और उत्कृष्ट संयम आराधना कर मुक्ति लक्ष्य को प्राप्त कर लेते है।

अस्तु

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बड़ी साधुवंदना - 90


वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।


स्थूलभद्रजी - 1


मंगलम भगवान विरो, मंगलम गौतम प्रभु ।

मंगलम स्थूलीभद्राद्याम, जैन धर्मोस्तु मंगलम।


इस गाथा में हर मंगल प्रसंग में वीर प्रभु, गौतम स्वामी के साथ हम जिन्हें याद करते है ऐसे : स्थूलभद्रजी ।

जिनशासन का एक और अदभुत उच्च कोटि के संयमधारी महापात्र


कहते  हैं , काजल की कोठरी में रहकर कौन बिना दाग लगाए निकल सकता है। पर कामविजेता स्थूलिभद्र जी ने यह कर दिखाया था। कामविजेता का यह बिरुद उन्हें कैसे दिया गया, जिनशासन के ज्ञान भंडार को उन्होंने कैसे आगे बढ़ाया, यह हम आगे देखते है।

पर एक बात निश्चित है , जैन इतिहास में स्थूलभद्रजी का नाम एक महान मुनि के रूप में अमर हो गया।

इनके जीवनचरित्र में इतने चढ़ाव उतार है,  कि उसे लेखन करे तो एक बड़ा पुस्तक बन सकता है। हम अति संक्षिप्त में उनकी जीवनी देखते है।


श्रेणिक के पिता प्रसन्न चन्द्र ने मगध की नई राजधानी के रूप में  राजगृही को बसाया, कोणिक ने चंपानगरी और कोणिक पुत्र उदायी ने मगध की राजधानी के लिए पाटलिपुत्र नगर बसाया। 

उदायी की मृत्यु के बाद मगध का शासन नंद वंश के पास आया। उसी नन्द वंश के एक राजा के यहां ब्राह्मण कुल के , पर दृढ़ जिनधर्मानुरागी ऐसे शकडाल जी महामंत्री का पद शोभीत कर रहे थे।


शकडाल मंत्री बाहोश  व कुशल राज नीतिज्ञ थे। राज्य में उनका वचन राजा के समकक्ष माना जाता था। राजदरबार उन दिनों सत्ता के लिए षड्यंत्रों से उलझा हुआ था, पर महामंत्री शकडाल के कार्यो से सब कुशल चल रहा था।


शकडाल मंत्री के परिवार में 2 पुत्र स्थूलभद्र व श्रीयकजी तथा 7 पुत्रियां थी। यक्षा, यक्ष दिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सैना, वेणा, रेणा। स्थूलिभद्र बचपन से वैरागी भाव के थे परन्तु युवा होते नगर की रूपसुन्दरी नर्तकी कोशा के संपर्क में आने के बाद जीवन की दिशा भूलकर कोशा के यही रहने लगे थे। छोटा पुत्र श्रीयक आज्ञाकारी था , वे अब युवा बन पिता के साथ राजदरबार में जाने लगे थे। 

अपार बुद्धिमत्ता, अदभुत स्मरण शक्ति शकडाल जी की 7 पुत्रियों की विलक्षणता थी । यक्षा जी कोई भी सूत्र स्तोत्र एक बार सुनने पर ही कंठस्थ कर लेते थे यक्षदिन्ना 2 बार, ऐसे क्रमश: सभी बहनें 3, 4, 5, 6 व 7 बार सुनने पर कोई भी स्तोत्र याद कर लेते थे।


राजदरबार में राजकीय खटपटों के माहौल में वररुचि नाम का एक लोभी ब्राह्मण राजनिष्ठ शकडाल का वैरी बना हुआ था। 

वह रोज एक नया स्तोत्र बनाकर राजा की उदारता का लाभ उठाकर 108 स्वर्णमुद्रा प्राप्त करता था। राजकोष की चिंता में शकडाल ने कुछ दिन तो उसे माफ किया, पर जब लोभ बढ़ने लगा, तब अपनी 7 पुत्रियों को राजदरबार में ले गए। और राजा से कहा कि वररुचि पुराने सुने सुनाये स्तोत्र आपको सुना रहे है। ये स्तोत्र तो बच्चे भी जानते है। तब राजा ने वररुचि की परीक्षा ली। वररुचिने राजदरबार  में अपना नया स्तोत्र सुनाया। एक बार सुनकर याद कर लेने वाली यक्षा ने वह स्तोत्र सुनाया। फिर क्रमशः सभी लड़कियों ने सुनाया तब राजा को शकडाल पर विश्चास हो गया और वररुचि को इनाम देना बंद कर दिया। वररुचि अब शकडाल का पक्का वैरी बन गया।

इस तरह वररुचि  के अन्य षड्यंत्रों को शकडाल ने विफल किया।

पर एक बार वररुचि ने अपनी धूर्तता से शकडाल  को आपत्ति में डाल ही दिया !


क्या हुआ था ....? 


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#बड़ीसाधुवंदना - 91


वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

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स्थूलभद्रजी - 2


एक प्रसंग में वररुचि ने नंद राजा को भ्रमित कर दिया। शकडाल के यहां एक शुभ प्रसंग पर उन्होंने अपने सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया। उन्हें भेंट देने के लिए शस्त्र  आदि बनवाये। यह मौका वररुचि कैसे छोड़ता। बहुत शातिरता से उसने राजा का मन शकडाल की  ओर से दूषित कर दिया। 

तब राजा के क्रोध से अपने परिवार की सुरक्षा  करने का लक्ष्य रखकर  श्रीयक को शकडाल ने आदेश दिया कि भरी सभा में तुम मुझे तलवार से मार देना। भारी मन से श्रीयक ने  पिता की आज्ञा का पालन किया।

राजा को विश्वास हुआ। शकडाल कि मृत्यु के बाद मंत्री पद संभालने के लिए गणिका कोशा के यहां रह रहे स्थूलभद्रजी को बुलाया गया। पर पिता की इस अकाल मृत्यु ने स्थूलभद्रजी को अत्यंत स्तब्ध कर दिया था । उनकी सोच बदल गई। यह भोग सुख, यह राजनीति यह वैभव सब परवशता को उत्पन्न करने वाले साबित हुए। उनका चिंतन पूरा बदलकर आत्मलक्ष्य की ओर मूड गया। अब संसार से उदासीन व संयम लेनेको उत्सुक हो गये।


सोचिए जरा : - जब हमें छोटा सा कोई लौकिक लाभ हो रहा हो तब हम क्या धर्म का सोचते है? स्थूलभद्रजी ने इतने बड़े पद की प्राप्ति पर भी संयम ग्रहण का निर्णय लेते है।!!

अदभुत चिंतन।

उन्होंने सब  वैभव सुख, अपनी स्नेही कोशा नर्तकी को छोड़कर आचार्य संभुतिविजय के पास श्रमण दीक्षा अंगीकार कर ली।

संयम चर्या के संपूर्ण व निर्दोष पालन के साथ ही गुरु सेवा, अन्य स्थविरो की वैयावृत्य के साथ ही मुनि स्थूलिभद्र जी आगम अध्ययन करने लगे।


 इस प्रसंग में कोशा के लिए भी मन  में कोई अविचार न करना। गणिका होना यह उसके माता द्वारा दिया गया व्यवसाय था, परन्तु उसने स्थूलिभद्र में ही अपना स्नेह सीमित कर लिया था। उसका हृदय भोगविलासिता में पली बढ़ी होते हुए भी अंतर में वफादारी का दृढ़ गुण उपस्थित था। स्थूलिभद्र जी की दीक्षा उनके लिए आघात जनक थी। उस बुरे समय मे उदार स्वभावी श्रीयक ने आश्वासन देते हुए उन्हें संभाल लिया था। 

स्थूलिभद्र जी की दीक्षा के बाद श्रीयक का मन भी विरक्ति में ही डूबा था ,परन्तु राजा का आग्रह आदि देख वे दीक्षा नही ले पाए। राज्यकार्य में प्रवीणता से राजा नंद के विश्वासु व सन्माननीय बन गए। अपनी कपटलीला पूरी हुई देख वररुचि मदमस्त हो गया। गलत राहों पर चलकर मद्यपान, वेश्यासंसर्ग आदि में डूब गया। अपकीर्ति का हकदार बनकर कुछ समय में ही बुरी तरह काल को प्राप्त हुआ।

कुछ वर्षों में ही पहले 7 बहनों ने फिर श्रीयक ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली। 

यक्षा जी आदि की उत्कृष्ट संयम निष्ठा, क्रिया भी इतिहास में सुवर्णाक्षरो में उल्लेखित है।

स्थूलिभद्र जी की कथा आगे बढाने से पहले उन महासतीजी के लिए प्रसिद्ध एक किवदन्ति समझते है।

श्रीयक जी ने संयम अंगीकार किया। सभी क्रिया वे उत्कटता से पालते थे, परन्तु किसी अंतराय कर्म के उदय से वह कुछ भी तप नही कर पाते थे। 


एक संवत्सरी के दिन यक्षा जी महासतीजी ने उन्हें एकासन के लिए प्रेरणा दी। श्रीयक मुनि ने साहस कर एकासन किया। दोपहर तक उन्हें अनुकूल लगा तब महासतीजी ने उपवास की प्रेरणा दी।  परन्तु रात पूरी होते होते वे कालधर्म को प्राप्त हो गए। सुबह जब पता चला , 

यह आघात यक्षा जी के लिए दुष्कर हो गया। मेरी वजह से भाई मुनि की मृत्यु हुई इस संताप से वे पीड़ित हो गये।


उन्होंने अन्न जल का त्याग कर दिया। पूरे संघ ने उन्हें निर्दोष मानकर, बहुत समझाया पर यक्षा जी संतुष्ट नही हुई। आख़िरकार संघ ने शासनदेवी की आराधना की। देव  प्रकट हुआ और उनकी सहायता से  यक्षा साध्वी जी महाविदेह में स्थित सीमंधर स्वामी के पास पहुंची। उन्होंने यक्षा जी को निर्दोष बताया। तब उन्हें तसल्ली हुई। प्रभुने 4 अध्ययन उन्हें दिए। यक्षा जी  महाविदेह क्षेत्र से वापिस आये। वे 4 अध्ययन आज चूलिका के रूप में स्थापित है।


स्थूलभद्रजी व यक्षा जी का एक और प्रसंग आगे आएगा

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 #बड़ीसाधुवंदना - 92


वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

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स्थूलिभद्र जी - 3


संयम अंगीकार करने के बाद पूर्ण भाव से स्थूलिभद्र जी आराधना करने लगे अविरत श्रम के बाद उन्होंने 11 अंग में निष्णातता प्राप्त कर ली।


साधु जी के 10 कल्प में एक कल्प है चातुर्मास।  एक साल में 8 महीने विहाररत साधु जी जीव दया के लिए 4 माह वर्षाकाल में एक स्थान में रुककर विशेष आराधना करते है। 

एकदा संभुतिविजय जी के 3 शिष्यों ने  इन 4 माह के उपवास के व उत्कट अभिग्रह के साथ चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी। प्रथम मुनि ने सिंह की गुफा के आगे, दूसरे मुनि ने दृष्टिविष सर्प के बिल के पास, तीसरे मुनि ने कुएं के पास स्थित रहकर उपवास के साथ चातुर्मास बिताने का अभिग्रह लिया। गुरु ने आज्ञा दी। तब स्थूलिभद्र जी ने भी गुरु को शीश झुकाते हुए वन्दन किया। स्वयं के लिए कोशा नर्तकी के घर में , कामोद्दीपक वातावरण, उत्तेजित करने वाली चित्रशाला में रहकर सभी रसों के युक्त भोजन करते हुए चातुर्मास बिताते हुए विकारों से दूर रहने की साधना करने की अनुमति मांगी। स्थूलिभद्र जी का साधना का एक उत्कृष्ट अभिग्रह था। काजल की कोठरी से कालांश लिए बिना बाहर निकलना असंभव था। गुरु ने उन्हें योग्य समझ कर आज्ञा दी।

गुर्वाज्ञा प्राप्त कर चारो अपने स्थान के लिए अग्रसर हुए।

मुनि स्थूलिभद्र जी पुरानी प्रेमिका नर्तकी कोशा के घर आकर विषयिक कामभोगो के चित्रों से भरी हुई चित्रशाला में आकर चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी।

नर्तकी कोशा तो उनमे अनुरक्त थी ही, अब प्यासे को कुआँ ही मिल गया। उसने सहर्ष आज्ञा दी। 

कोशा के मन मे रहे मोह ने अब कोशा को प्रियतम को पाने के लिए उत्सुक किया। 4 मास में कोशा ने स्थूलिभद्र जी को पुनः कामभोगो की ओर मोड़ने के भरपूर प्रयत्न किए। कभी पाश तो कभी विकारी नृत्य, कभी दुख जताकर कभी पुरानी कामलीलाओ का स्मरण दिलवाकर, भोजन में विकारी भोजन  देकर तो कभी अन्य प्रयास किये। पर स्थूलिभद्र जी अपनी साधना में अडिग रहे। अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर उत्कट धर्माराधना करते रहे। सभी उपसर्गो को जीतकर आखिरकार चातुर्मास पूर्ण किया। 

कोशाने विनयपूर्वक पश्चाताप व्यक्त किया। अपनी सभी करतूतों के लिए क्षमा मांगी। स्थूलभद्रजी से उपदेश पाकर वह श्राविका बनी।


चातुर्मास पूर्ण होने पर चारो अभिग्रह धारी मुनि गुरु के पास लौटे ।  आचार्य संभुतिजी ने ऊपर के वर्णित तीनों मुनियों की साधना को दुष्कर बताकर उनका अभिवादन कर स्वागत किया । पर जब अंत मे स्थूलिभद्र को अति दुष्कर साधना के सफल आराधक बताया तब तीनो मुनियों के मन मे थोड़ा ईर्ष्याभाव आया। एक गणिका के घर, आराम से रहे, रोज सब रसों का भोजन करने वाले की साधना हम से दुष्कर कैसे।

इस ईर्ष्याभाव के चलते सिंह गुफा वासी मुनिने अगले चातुर्मास आने पर गुरुदेव से कोशा के यहां चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी। 

गुरु समझ गए कि योग्यता न होने पर भी मात्र ईर्ष्याभाव से यह मुनि स्थूलभद्रजी की स्पर्धा करना चाहते है। गुरु ने उन्हें समझाया कि यह साधना सिंह की गुफा के आगे 4 माह के उपवासी रहने से भी अति दुष्कर है। 

बहुत समझाने पर भी वे मुनि अपनी इच्छा पर अड़े रहे। गुरु ने साफ मना किया तब  उनकी अनुमति बिना हीं वे कोशा  के यहां पहुंचे। 

स्थूलिभद्र जी की साधना देख कोशा ने सहर्ष उन्हें अनुमति दी।

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#बड़ीसाधुवंदना - 93


वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

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स्थूलिभद्र जी -  4


कोशा ने पूर्व में सिंह की गुफा के पास सफलतम चातुर्मास कर चुके मुनि को चित्रशाला में रुकने की अनुमति दी। 

मुनि की परीक्षा हेतु कोशा ने सुंदर विकार वर्धक भोजन करवाया। उस विषयी चित्रशाला में सजधज कर आकर्षक वेशभूषा में कोशा आई।

बस इतना ही पर्याप्त था , मुनि के पतन के लिए। कोशा को देखकर ही मुनि विषयाक्त हो गये और भोग की कामना की।

तब स्तब्ध कोशा ने उन्हें सही मार्ग पर लाने के लिए एक उपाय किया। उसने मुनि से कहा कि वह स्वयं वारांगना है, धन के बिना कुछ नही देती। यदि उसे कोशा से भोग चाहिए तो धन लाना होगा। और उसका उपाय भी  बताया, कि नेपाल के क्षितपाल राजा नये साधुओको रत्नकंबल देते है, तुम मुझे वह लाकर दे दो।


मुनि विषय मे भान भूले। वासना में अंध बनकर संयम की चर्या भूल गये। चातुर्मास में निषेधित विहार कर अत्यंत कठिनाई से नेपाल पहुंचे। रत्नकंबल लेकर पुनः पाटलिपुत्र पहुचे। यह उनकी यात्रा अत्यंत कठिन, रानी पशुओं, लुटेरों, दुर्गम वनों की तकलीफों से युक्त थी।

एकबार तो रास्ते में लुटेरे कंबल लूट लेते हैं । दूसरी बार जाते हैं अब राजा बोलता है कि पहले दी थी ना लेकिन अनुनय करके दूसरी बार प्राप्त करते हैं,  और लाठी में छिपाकर बचते बचाते ले आते हैं । ऐसे सभी संकटो से बचते बचाते वे पाटलिपुत्र आये।


  

ललचाई आंखों से लाख रुपये का रत्नमूल्य कोशा को दे दिया। कोशा ने तत्क्षण उस रत्नकंबल से पांव पोंछकर फेक दिए। अपनी इतनी कठिनाइयों के बाद प्राप्त रत्नकंबल को फेंकते देख मुनि विस्मित हो गये। उन्होंने कोशा को डांटा।

तब कोशा ने उन्हें उपदेश दिया। रत्नकंबल से भी अतिशय मूल्यवान संयम रूपी रत्न को आप ने कचरे में फेंक दिया है। और पतन की खाई में धँसते जा रहे हो। 

कोशा के उपदेश से मुनि को आघात लगा और वे अपने पतन को पहचान गये  । कोशा से माफी मांगकर उसका धन्यवाद कर गुरु के पास आये। स्थूलभद्रजी  की साधना को  सच मे अति दुष्कर बताकर , अपने पतन की गाथा सुनाकर  उनसे माफी मांगी व प्रायश्चित ग्रहण कर शुद्ध बने।

ऐसे ही कोशा ने अपने मे अनुरक्त एक और रथीक का भी उद्धार किया।


आगे ....

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#बड़ीसाधुवंदना - 94


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स्थूलिभद्र जी -  5


पाटलिपुत्र की प्रथम आगमवांचना (वीर निर्वाण संवत 160)

आर्य संभुतिविजय जी के अंतिम समय मे ही मध्य देश मे अति भीषण दुष्काल पड़ा। उसकी भयानकता शब्दो मे अवर्णनीय है। इस दुष्कर काल मे जैन धर्म को अत्यंत हानि हुई। कई सन्तो ने संयम विराधना न हो इस लिए समाधि मरण का मार्ग चुन कर संलेखना सहित देहत्याग किया। कुछ मुनिराज ने  अपने संयम रक्षा हेतु दूरवर्ती क्षेत्रो में विहार कर दिया। 

पुनः जब सुभिक्ष यानी सुकाल हुआ तब विभिन्न क्षेत्रो में गये मुनिगण वापिस पाटलिपुत्र लौटे। कुछ समय मे सबको एहसास हुआ  कि मरणान्तिक संकटो के वजह से , परावर्तन न हो पाने की वजह से दुर्लभ आगमज्ञान विस्मृत हो गया। अतः संघ ने जिन्हें जितनी वांचना हृदयस्थ थी उन सबको संकलित कर पुनः द्वादशांगी को सुनियोजित करने का निर्णय  किया ।


स्थूलभद्रजी की निश्रा में पाटलिपुत्र में प्रथम आगमवांचना हुई। और सभी मुनियों के प्रयास से ग्यारह अंगों की वांचना संपन्न की। एकदशांगी की गंगा पुनः बहने लगी सब आनंदित हो गये।

पर एक विकट समस्या सामने भी आई।

इन मुनिगणो मे किसी को भी दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का ज्ञाता कोई भी श्रमण नही था। एक मात्र ज्ञाता भद्रबाहूजी उस समय नेपाल में महाप्राण नामक ध्यान की योग साधना कर रहे थे। उनके पास अनुकूलता नही थी कि दुष्कर अंग दृष्टिवाद की लंबे समय तक गहन वांचना दे सके। उसका गूढ़ अध्ययन काफी श्रम व समय मांग लेता था। 

पर संघ के दबाव में आकर वह वांचना देने के लिए तत्पर हुए। स्थूलिभद्र जी के साथ 500 मुनि नेपाल पधारे व अभ्यास चालू किया। पर अनथक गूढ़ कठिन अंग की वांचना लेने में वे सभी असमर्थ हुए। एकमात्र स्थूलिभद्र जी ने अध्ययन चालू रक्खा। अन्य सभी 500 मुनि हतोत्साह होकर लौट आये। गूढ़ ज्ञान के धनी स्थूलिभद्र जी दृष्टिवाद के तीसरे भाग में रहे 10 पूर्व ( 2 वत्थु कम ) तक पहुंच गए। अभी तो बहुत हिस्सा बाकी था। अब वे भी थोड़ा थकने लगे थे। 

इस दौरान महाप्राण ध्यान की साधना पूर्ण होने पर भद्रबाहूजी के साथ मुनि स्थूलभद्रजी विहार करते हुए पाटलिपुत्र आये। 


भाई मुनि का आगमन सुनकर यक्षा जी आदि साध्वी दर्शन करने मुनि जहाँ रुके थे उस उद्यान में आये। भद्रबाहूजी के दर्शन वन्दन बाद भाईमुनि के दर्शन की आज्ञा मांगी। भद्राबाहूजी ने कहा कि वे इस उद्यान के अमुक भाग में है वहा जाकर दर्शन कर लीजिए।

साध्विजीया वहां पहुंची।

यक्षा जी के आगमन की सूचना स्थूलिभद्र जी को मिल चुकी थी। मैंने कितना ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह बहनों को भी दिखाऊ। यह भाव उनके मन मे जाग्रत हो गया।  

प्राप्त ज्ञान की विद्या से उन्होंने रूप परावर्तन कर सिंह  का रूप धारण कर बहनों को डरा दिया।    


जब यह बात गुरु भद्रबाहू जी ने अपने ज्ञान से जानी तब उन्हें बड़ा दुख हुआ। अभी तक विद्या प्राप्ति का काम पूरा नही हुआ और मद ? आगम का ज्ञान कषाय घटाने को  है, बढ़ाने को नही। स्थूलिभद्र जी अत्यंत गुणवान, ज्ञानी होते हुए भी आगामी काल व आने वाले साधु जी को पूर्वज्ञान के लिए अपात्र जानकर उन्होंने ज्ञान वांचना देना बंद किया। फिर संघ के आग्रह पर सिर्फ मूल आगमका ज्ञान दिया अर्थ नही।

स्थूलिभद्र जी अपनी भूल को समझे और क्षमायाचना की। पर अब वह व्यर्थ था।  आगमज्ञान वहीँ रुक गया।� स्थूलभद्रजी को बहुत दुख हुआ।

भद्रबाहूजी के कालधर्म बाद स्थूलभद्रजी जी आचार्य बने। बहुत से लोगो को जिनधर्म में दृढ़ किया। 45 वर्ष तक आचार्य पद में विचरते हुए जिनशासन की महत्ती सेवा की।


धन्य है इन जिनशासन के नायकों को।


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नंदिषेण मुनि  - 1 


राजगृही के राजा श्रेणिक के राजकुमार नंदिषेण बलशाली व्यक्तित्व । इन्होंने एक मदमस्त हाथी सेंचनक (इस हाथी की भी लंबी एक कथा है)  को वश में किया था।

वीर प्रभुकी देशना सुनने के बाद उन्होंने श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर दीक्षित हुए थे। दीक्षा से पहले एक देववाणी हुई , की अभी आपके भोगावली कर्म बाकी है , अभी संयम न ले। परन्तु अब उनका मन संसार से उठ ही चुका था।

संयम लेकर उग्रतप आराधन करने लगे। 

तप के प्रभाव से कई लब्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई। पर वे उसका प्रयोग नही करते थे।

एकबार वे गोचरी हेतु किसी गणिका के घर गए, और धर्मलाभ कहा । तब वहां गणीका ने परिहास किया - मुनिवर, यहां धर्म नही धनलाभ चाहिए। बिना पैसे यहां कुछ नही मिलता। मुनि के भोगावली कर्म उदय में आ रहा था। परिहास से खिन्न मुनि ने अपनी लब्धि से वहां धन की वर्षा कर दी।


बहुत धन देखकर गणिका पिघल गई। उसने मुनिराज को वहीं रोकने के प्रयास किया। कर्मोदय की भवितव्यता , मुनि रुककर संसारी बन गए। गणिका के साथ भोग को तैयार हो गये। पर भीतर संयम जाग्रत था। उन्होंने प्रण लिया: - जब तक  मैं रोज 10 व्यक्तियों को धर्म की प्राप्ति नही करवाऊंगा तब तक भोजन नही करूँगा।

यह सिलसिला करीब 12 वर्ष तक अविरत चला। हजारों व्यक्तियों ने उनसे बोध पाकर संयम ग्रहण किया ।


एक दिन 9 आदमी तैयार हो गए पर दसवां कोई तैयार नही था। तब गणिका ने फिर परिहास किया : - दसवें तुम। 

अहो!!!!

दसवां में?

बस आतमराम जाग गया। पुनः संयम की राह पकड़कर प्रायश्चित लिया। शुद्ध होकर आराधना में जुड़ गए। काल कर देवलोक  पहुँचे ।

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Fb ग्रुप जैनिज़्म

All india jain aagam group


सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।#बड़ीसाधुवंदना - 96


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नन्दीषेण  - 2


कल हमने श्रेणिक पुत्र नन्दीषेण मुनि की कथा पढ़ी । जिनशासन के इतिहास में एक अन्य नन्दीषेण मुनि हो गये, गुरु की वैयावृत्य में जिनका नाम अमर हो गया। आज हम उनका थोड़ा वृत्तान्त देखते है।


भरतक्षेत्र की सौरिपुर नगरी के राजा अन्धकवृष्णि (नेमिनाथ प्रभु जी व कृष्ण जी के दादा जी) व रानी सुभद्रा । इनके दस वीर पुत्र दशार्ह के नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रथम पुत्र समुद्रविजय जी (नेमिनाथ प्रभु जी के पिता) तथा अंतिम पुत्र का नाम था वसुदेव (कृष्ण वासुदेव के पिता।) 


वसुदेव का रूप अत्यंत आकर्षक व दैदीप्यमान था । एकबार सुप्रतिष्ठ नामक केवली वहां पधारे, राजा ने उनसे वसुदेव का इतने रमणीय होने का कारण पूछा। तब केवली भगवान ने उसका पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया।


एक समय मगध देश के नंदीग्राम में एक नन्दीषेण नामक गरीब अनाथ बालक रहता था। मामा के यहां पल बढ़ रहा था पर वह भी एक बोझ के समान। दिखने में अत्यंत विरूप, किन्ही रोग से बढे हुए उदर वाला, चेहरा भी अत्यंत कुरूप वह नन्दीषेण मामा के यहां अत्यंत मेहनत करता रहा। मामा ने उसे लालच दिया था कि यदि वह उसके काम से खुश रहा तो अपनी 7 पुत्रियों में से एक का ब्याह उससे करवा दूंगा। बस इसी लालच में 

नन्दीषेण मामा के यहा सभी काम करता रहा। 


जब पुत्रियां विवाह योग्य हुई तब एक-एक करके सातो पुत्रियों ने उस कुरूप नन्दीषेण से विवाह करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया।


बचपन से पाले भ्रम टूटने से नन्दीषेण बड़ा दुखी हुआ। वह एक निर्जन वन में जाकर आत्मघात (आत्महत्या) करने की तैयारी करने लगा। तब वहाँ एक निर्ग्रन्थ मुनि को देख सोचा : - मृत्यु से पहले इन्हें वन्दन कर लूं। 

मुनि ने उसकी दशा देखकर उसे असरकारक शब्दो मे प्रतिबोधित किया। ( यह बोध संक्षिप्त में हम सबको समझकर आनेवाली विपत्तियों में समभाव रखना चाहिए। )

 हे आत्मन !

अभी जो जो वेदना तुम भुगत रहे हो, सभी तुम्हारे पूर्वगत किये गए अत्यंत विपुल मात्रा में किये गये पापकर्मो का ही परिणाम है। यदि तुम इसे समभाव से सहन कर लेते हो तो यह अभी झड़ जाएंगे। पर इन कर्मो के उदय में आर्त रौद्र ध्यान से, आत्मघात जैसे कृत्य से तुम आनेवाले भवो के लिए भी दुष्कर्म बांध रहे हो। अगले भव में तुम्हे फिर दुख प्राप्त होगा। यह विषचक्र चलता ही रहेगा।  इस मनुष्य भव का अनमोल अवसर पाकर उसका सदुपयोग साधना करके करोगे,  तो आनेवाले भव भी सुधर जाएंगे व  भवसागर से मुक्ति भी संभव है।

मुनि के वचन से प्रतिबोधित हुए नन्दीषेण ने संयम अंगीकार किया। 


उत्कृष्ट तप करते हुए उन्होंने सभी निर्ग्रंथो की वैयावृत्य का अभिग्रह भी लिया।

संघ में जो भी बाल,वृद्ध, रोगी मुनि हो, वे अग्लान भाव से उनकी सेवा करने लगे। तप व ज्ञानार्जन भी चालू ही था परंतु मुख्य लक्ष्य वैयावृत्य था। 


आगे....

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#बड़ीसाधुवंदना - 97


वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।


नन्दीषेण  - 3


इस वैयावृत्य तप से नन्दीसेन मुनि की कीर्ति चारो और फैल गई ।इस से उन्हें कुछ लब्धियाँ भी प्राप्त हुई । एकबार देवलोक की सभा मे इनकी अविरत  वैयावृत्य की प्रसंशा हुई। तब एक देव ने उनकी परीक्षा लेने का मन बनाया।


नन्दीषेण मुनि एक स्थान पर पारणा करने बैठे। तब एक मुनि का रूप बनाकर उनके पास वह देव आया : - अरे ओ वैयावृत्य तप धारी, बड़े ढोंगी हो, वहां वन में एक असाध्य रोग से पीड़ित एक साधु तुम्हे पुकार रहा है और तुम यहाँ खाने बैठे हो!!!!

हाथ मे लिया प्रथम ग्रास वापिस पात्रे में रखकर मुनि उस रोगी मुनि को ढूंढने निकले।  वह देव  एक वृद्ध बीमार साधु का रूप लेकर वन में बैठ गये थे।

नन्दीषेण मुनि अत्यंत कठिनाई से मिले प्रासुक जल लेकर वहां पहुंचे । मुनि को देखते ही वे वृद्ध मुनि नन्दीषेण मुनि को अनर्गल शब्दो मे डांटने लगे। शांतभाव से मुनि ने उन्हें जल पिलाया। और उनकी चिकित्सा करने के लिए उन्हें साथ चलने को कहा। तब उग्रता से मुनि बोले :- मैं जीर्ण व बीमार शरीर लेकर कैसे चलूं, तब नन्दीषेण मुनि ने उनको उठा कर कंधे पर बैठाकर चल दिये। 

ऊबड़खाबड़ राह में आये विघ्नों से नन्दीषेण मुनि तो शांतभाव से चल रहे थे पर वृद्ध मुनि तो उन्हें कोपायमान करने के प्रयास में ही लगे थे। क्रोध में आकर वे अभी भी उनकी सेवा कर रहे मुनि को निंदित कर रहे थे। नंदीषेण मुनि को समभाव में देख वृद्ध मुनि ने अपनी बाजी पलटी व कंधे पर ही विष्ठा कर दी। नन्दीषेण मुनि का सारा देह दुर्गंधमय विष्ठा से युक्त होगया। पर नन्दीषेण मुनि तो क्रोधित होने की जगह यह सोच रहे थे, की मैं कैसे इन मुनि का दुख दूर करू। 

उनका यह समभाव देखकर, उनकी वैयावृत्य की उत्कृष्ट भावना देखकर आखिर देव ने हार मान ली। अपनी लीला समेट ली। अपना परिचय देकर उनकी स्तुति की। व देवलोक लौट गये।

ऐसे सेवाभावी मुनि नन्दीषेण बारह हजार वर्ष तक उत्कृष्ट संयम पालन करते रहे। अंत मे संलेखना ग्रहण की। पर हाय रे यह कषाय!�

संलेखना में अपने पुराने दिन, मामा की 7 पुत्रियों के धुत्कार, कुरूपता से सर्वत्र मिला तिरस्कार का स्मरण हो आया। और मुनि ने निदान कर लिया। मेरे तप संयम का फल में मुझे अगले मनुष्यभव में अत्यंत सुंदर रूप मिले,  मैं स्त्रीवल्लभ बनूं ।

जो मार्ग, जो साधना भवसागर से पार उतरने के लिए की थी, या कर सकते थे उसे नश्वर भोग के बदले दे दी। जैसे एक अमूल्य हीरा देकर सस्ता कांच के टुकड़ा खरीद लिया। 

महात्माओं का कथन है कि हम जो भी साधना करे व सिद्धगति के लक्ष्य को लेकर हो, संसारिक सुखों  के बदले हमारी अमूल्य साधना का सौदा हम कभी न करे। 

संलेखना में नन्दीषेण मुनि काल कर महाशुक्र देव बने। वहां से काल कर अन्धकवृष्णि राजा के दसवें पुत्र वसुदेव बने। निदान स्वरूप वे अत्यंत मोहक व  स्त्रीवल्लभ बने।


केवली मुनि से यह सब सुनकर अंधकवृष्णि राजा ने बड़े पुत्र समुद्रविजय जी को राज्य सौंपकर संयम अंगीकार किया।


वसुदेव बड़े होते गए तब उनका रूप और निखरता गया। नगर में जब वे फिरते तब स्त्रियां उनसे आकर्षित होकर अपनी नैतिक मर्यादा छोड़कर उनके पीछे खिंची चली आती जैसे किसी ने मन्त्र से वशीभूत कर दिया हो।

राजा ने अपनी प्रजा में नैतिकता बनी रहे, मर्यादा बनी रहे इस हेतु से उन्हें महल में ही नजरबंद कर दिया था।  यानी राजमहल से उनका बाहर निकलना बंद। 

आख़िर एकबार वे वहाँ से भाग निकले। इत्यादि उनकी कथा बहुत विस्तृत है। उनकी देवकी, विजय, गन्धर्वसेना, रोहिणी आदि 72000 रानियां थी। उनके मित्र कंस ने छल कर वचन ले लिया था कि वसुदेव देवकी द्वारा हुए 7 पुत्रो को उसे सौंप देंगे। जिनमे से सातवे पुत्र कृष्ण वासुदेव ने कंस का वध किया।

कंस की पत्नी जीवयशा ने पिता जरासंध को बदला लेने  के लिए उत्तेजित किया। वर्षो तक यादवों से  जरासंध का वैर चलता रहा। अंत मे पुनः जीवयशा की जबरदस्त आग्रह से उत्तेजित  जरासंध व यादवों के बीच महाभीषण महाभारत का विश्व प्रसिद्ध संग्राम हुआ। जिसमें कौरवों ने  जरासंध का , तथा पांडवों ने कृष्ण का साथ दिया।

यह विस्तृत कथा हम महाभारत के नाम से जानते है। 

इसी कुल में वसुदेव के बड़े भाई समुद्रविजय राजा व महारानी शिवादेवी के पुत्र नेमकुमार हुए,  जो 22 वे जिनेश्वर बने।

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#बड़ीसाधुवंदना - 98


वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।

अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।


अरणक मुनि : - नगर के धनाढ्य श्रेष्ठी दत्त व माता भद्रा के नन्हे पुत्र अरणक जी की कथा। एकबार दत्त के पड़ौसी के यहां हृदय द्रावक घटना बनी। उनका नन्हा पुत्र अचानक काल कवलित हो गया। यह देख दत्त सेठ का मन विरक्त हो गया। आज इस पड़ौसी के साथ अनहोनी हुई, कब किस समय मृत्यु मुझे जकड़ लेगी निश्चित नही। अब समय रहते मुझे सचेत हो जाना  चाहिये, ताकि इस मानव भव का सदुपयोग कर जन्म मृत्यु के चक्कर से शीघ्र छूट सकुं । 

उन्होंने भद्रा से दीक्षा की अनुमति मांगी। भद्रा सही अर्थ में सहधर्मचारिणी थी। पति की विरक्ति भरी वाणी सुनकर आर्त ध्यान नही किया। उसने सहर्ष अनुमति दी और कहा : - आप सच मे महान है, आप के साथ-साथ मैं भी संसार के कीचड़ से निकलना चाहती हूँ, पर मुझे अब चिंता है तो इस बालक की। 


माता के गर्भ के प्रभाव से पूर्व के कोई संस्कार होंगे जो नन्हा करीब 8 वर्ष उपरांत का बालक बोल उठा, हे अंबतात ! यदि संसार एक दलदल है तो मुझे आप दोनों इस दलदल में क्यों रखना चाहते हो?  मैं आपके संयमग्रहण में अंतराय क्यों  बनूं । मैं भी आपके साथ दीक्षा लूंगा।

दत्त व भद्रा माता अत्यंत हर्षित हो गये। 

कुछ समय मे नगर में एक आचार्य पधारे। तीनो ने संयम अंगीकार किया। संयम व शिक्षा की आराधना शुरू हुई। पिता पुत्र मुनि साथ ही थे। माता साध्विजियो के संघ में थे।


पिता का पुत्र मुनि का मोह अभी खत्म नही हुआ था। गोचरी आदि सभी काम पिता ही करते थे। समय बीत रहा था। संयम आराधन चल रहा था। अचानक एक दिन दत्त मुनि कालधर्म को प्राप्त हुए। अन्य मुनियों ने अरणक मुनि को आश्वस्त किया। 


कुछ समय बाद एकबार अरणक मुनि को प्रथम बार गोचरी जाने का अवसर आया। दिन का तीसरा प्रहर, आसमान से बरसती आग, मुंडित शरीर, नग्न पांव , गर्म तपी हुई राह। ऐसे में गोचरी हेतु निकले मुनि कुछ ही समय मे घबरा गए। सोचा कहीं छाव हो तो खड़ा रहकर विश्राम कर लु। ऐसे में एक बड़े भवन के वृक्ष नीचे खड़े रहे। तब उस गृह की मालकिन नगर वधु (गणिका ) ने उन्हें देखा। नवयुवान राजकुमार सा देह, ब्रह्मचर्य की आभा से चमकता ललाट, सुगठित देह , नगरवधू आकर्षित होकर भान भूली। मुनि को आराम व गोचरी का निमंत्रण दिया। मुनि  को गणिका की मन:स्थिति पता नहीं चली लेकिन सहजता से गोचरी व विश्राम मिल रहा था । शायद उनका भोगावली कर्म का उदय था। 


नगरवधू ने भी संयम की कठिनता बताकर,  सुखकर  भोगमय जीवन की लालच दिखाई। मुनि उस नाजुक पल में विवेक शून्य बन गये। नगरवधू का आमंत्रण स्वीकार कर वहीँ रह गए।  भोग-विलास में डूब गए। कुछ समय बाद जब वे गुरु के पास नही पहुंचे तब उन्हें अन्य मुनि नगर में ढूंढने निकले। पर मुनि अब कहाँ मिलते। वह तो संसार मे खो चुके थे।


माता भद्रा साध्वीजी को यह सूचना मिली। अहो, मेरा पुत्र संयम से पतित तो नही हो गया होगा? या कोई अनहोनी तो नही  हुई हॉगी? वे नगर में अरनक मुनि को ढूंढने निकली। विक्षिप्त जैसी अवस्था मे नगर में हर गली गली में जाकर जोर जोर से चिल्लाकर पुत्र मुनि को आवाज़ देने लगी।

भद्रा साध्वीजी गणिका के आवास से गुजरी। माता की आवाज़ सुनकर अरनक जाग उठे। नीचे आकर माता को देखा। मेरे जैसे पुत्र के लिए विक्षिप्त जैसी बनी हुई माता, उसका तमाशा देख रहे नगरजनो का समूह। और स्तब्ध हो गए। अहो मेरे पतन ने मेरे साथ मेरी माता साध्वी का भी बुरा हाल कर दिया। वे मोह नींद से जाग उठे। माता के चरणों के समीप  जा गिरे । माता से माफी मांगी।


वहां से दोनो गुरु के पास आये। अरणक मुनि ने प्रायश्चित लेकर शुद्धि की। भद्रा माता पुत्र गुरु को सौंपकर साध्वी संघ में चले गये। अगर अरणक जी माता के चरणों में जा गिरते तो साध्वी जी को भी प्रायश्चित लेना था ।


बहुत वर्षो तक निरतिचार संयम पालन करते हुए अंत मे अरणक मुनि देवलोक के अधिकारी बने। बाद के अगले भवों में महाविदेह से सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।


इस गाथा के 4 कथानक में एक समानता।


स्थूलभद्रजी दीक्षा से पहले व अन्य 3 दीक्षा के बाद में पतित हुए परन्तु मन मे संयम को मृत नही होने दिया। जरा सा निमित्त पाकर भी सावधान हो गये व पुनः संयम पर आरूढ़ हो गये।

धन्य उन मुनिविरो को।


#अतिमुक्तअणगार


एक बाल अतिमुक्त मुनि का कथानक हमने पढा , अन्य एक अतिमुक्त मुनि कंस के भाई थे। जब कंस ने मथुरा की सत्ता पाने के लिए उग्रसेनजी को बंदी बनाया तब इन्होंने विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की थी। गजसुकुमाल के वर्णन में हमने पढा की इन्होंने जीवयशा के अभद्र व्यवहार पर कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी की थी।


पर बाद में इस गलती को समझकर उन्होंने पश्चाताप कर आलोचना ली। ये नेमप्रभु की दीक्षा से बहुत पहले की बात है। इनका ज्यादा वर्णन कहीँ पढ़ने में नही आया। 


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।

#बड़ीसाधुवंदना - 99


चोबीसे जिन ना मुनिवर , संख्या अठ्ठावीस  लाख ।

ऊपर सहस अड़तालीस, सूत्र परंपरा भाख ।99।

कोई उत्तम वांचो, मोढे जयणा राख ।

उघाड़े मुख बोल्यां, पाप लागे इम भाख ।100 ।


धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।

गज - होदे पायो, निर्मल केवलज्ञान।101 ।


इस अवसर्पिणी काल के तीसरे व चौथे आरे में भरत क्षेत्र में 24 तीर्थंकर हुए। उन सभी तीर्थंकर भगवंतों की निश्रा में रहनेवाले सन्तो की कुल संख्या इस गाथा में बतलाई गई है।

28, 48,000 

जैसे हमारे शासन नायक के 14000 मुनिराज थे।

इन साधु संतों की यशोगाथा हम इस बड़ी साधुवन्दना में पढ़ रहे है। यहां जीवदया हेतु एक आगमोक्त सूचना दी गई है। हम जब भी कुछ क्रिया करे, वह अन्य जीवों को तकलीफ न हो उस तरह करे। जैसे बोलते समय वायुकाय के जीवों की रक्षा हेतु बोलते समय मुखवस्त्रिका का उपयोग करे। सामान्यतः रोज हर समय न करो तो जब कभी भी आगमवांचना, स्वाध्याय, सामायिक या इस स्तोत्र को हम पढ़े, वायुकाय के जीवों की दया पालने के लिए  मुखवस्त्रिका का उपयोग अवश्य करे। हमारे जीवन में सबसे ज्यादा हम वायुकायिक जीवो को ज्यादा तकलीफ पहुचाते है। जयमलजी महाराज साहेब करुंणा दृष्टि - की हम भी पाप से बचे व वे जीव हत्या के पाप से बचे रहे। सामायिक व कम से कम कोई भी धार्मिक स्तोत्र आदि के पठन के समय हम मुँह पर मुँहपत्ति अवश्य रक्खे।


मरूदेवा माँ व प्रथम महासतीजी ब्राह्मी व सुंदरी

इस काल के हमारे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की माता, अंतिम कुलकर नाभिराजा की पत्नी, भरत चक्रवर्ती की दादी।

रुषभदेव ने दीक्षा ले ली तब से माता उनके  वियोग से दुखी थे। पर जब पुरीमताल नगर में शकट मुख उद्यान में ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब भरत ने यह समाचार माता मरूदेवा को दिया । पुत्र के समाचार पाकर माता अत्यंत हर्षित हुई। पुत्र मुनि के दर्शन करने के लिए उत्सुक होकर वे राजमहल से निकले। वहां देवो द्वारा प्रथम देशना के लिए समोवसरण की रचना की थी। 

समोवसरण क्या : - 

तीर्थंकर प्रभु के केवल्यप्राप्ति के बाद प्रभु नियमा देशना देते है। उनकी प्रथम देशना में नियम से देवो द्वारा एक विशिष्ट, अति रमणीय, सुवर्ण - रजत तथा रत्नों से युक्त , ऊंचे सभास्थान की रचना करते है। जहाँ मध्य में प्रभुकी ऊंचाई से बारह गुना ऊंचे अशोक वृक्ष को केंद्र में रखकर तीन गोलाकार प्रकोष्ठ होते है। मध्यवर्ती प्रथम प्रकोष्ठ में देवता व मनुष्य की कुल 12 परिषदा के बैठने की व्यवस्था होती है। मध्य में रत्नमय पीठ पर देव छंदक में विराजमान , देशना दे रहे प्रभु का मुख सभी को अपनी और दिखाई दे ऐसी दैवी विशिष्ट रचना  होती है। 

दूसरे प्रकोष्ठ में तिर्यंच की तथा तीसरे प्रकोष्ठ में देवो के विमान, राजाओंके रथ आदि की व्यवस्था होती है। समोवसरण यह विशिष्ट स्थान है जहां जीव अपने जातिगत वैर को भूलकर प्रभु की अदभुत वाणी का श्रवण कर धन्य बनते है। तीनो प्रकोष्ठ की कुल ऊंचाई करीब अढाई कोस होती है। चार दिशाओं के द्वार पर 20,000 -  20,000 सोपान ( सीढियां ) होते है। इतनी सीढियां चढ़ने के बाद भी किसी को थकान नही लगती। कुछ हीं समय में बिना परिश्रम के (आज के समय में माॅल आदि जगह पर लगे Escalator की तरह) यह सब तीर्थंकर प्रभु का अतिशय की वजह से होता है।


अन्य समय भी जब देशना सुनने वालों का बहुत्व हो या अन्य किसी विशिष्ट प्रसंग पर देव समोवसरण की रचना करते है।


 

माता मरूदेवा हाथी पर बैठकर ऋषभदेव प्रभुके दर्शन के लिए समोवसरण में आते है। क्या होता है यह आगे....


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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथो


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।#बड़ीसाधुवंदना - 100


धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।

गज - होदे पायो, निर्मल केवलज्ञान।101 ।


धन्य आदिश्वर नी पुत्री ब्राह्मी सुंदरी दोय।

चारित्र लइ ने , मुक्ति गई सिद्ध होय। 102।


माता मरूदेवा हाथी पर बैठकर ऋषभदेव प्रभुके दर्शन के लिए समोवसरण में आते है। क्या होता है यह आगे....


हाथी पर बैठी माता दूर से समोवसरण में बिराजित प्रभु को देखते है। मुख पर अनेरी प्रभा थी। देखते ही माता को अत्यंत हर्ष हुआ। वे सोच रहे थे पुत्र कष्ट में है, पर यह तो एक अलग ही आनंद में है। माता को लगा था पुत्र मुझे देखकर अत्यंत हर्षित हो उठेगा। पर यह क्या, पुत्र ने तो एक सरसरी निगाह देखकर वापिस अन्यत्र देखने लगा।  मैं इसके मोह में , वियोग से दुखी हो रही हूं पर यह तो वास्तव में निर्मोही बनकर बैठा है। 

क्या मेरा उस पर प्रेम गलत है? अयोग्य है? यह चिंतन बढ़ता गया, सोचने की दिशा उर्ध्वगामी बनी। सच मे पुत्र तो निर्मोही बनकर संसार से परे हट गया। तो मैं क्यों राग में फंसकर  भवभ्रमण बढाऊँ, इस संसार मे कोई किसी का नही, कुछ शाश्वत नही , तो अपना कल्याण क्यों न करे। उर्ध्वगामी बने चिंतन से माता धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट बने। 4 घातिकर्म नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। अन्य 4 कर्म भी क्षय हुए व माता मरूदेवा इस अवसर्पिणी काल मे इस भरत क्षेत्र से प्रथम मोक्ष पहुंचे ।


ब्राह्मी जी सुंदरी जी 


प्रभु आदिश्वर की 2 पुत्री रत्ना।

ब्राह्मी जी ऋषभदेव तथा सुमंगला जी की पुत्री। जिन्हें सर्व प्रथम ब्राह्मी आदि 18 प्रकार की लिपियों का ज्ञान दिया । उसके बाद यह लिपिया सर्व जनों को उपयोगी बनी।

प्रभुके केवल्यप्राप्ति बाद प्रथम समोवसरण में ब्राह्मी ने संयम अंगीकार कर प्रभुकी प्रथम शिष्या बनी। उत्कृष्ट संयम पालन कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई ।


सुंदरी जी

ऋषभदेव तथा सुनन्दा जी की पुत्री। जिन्हें सर्व प्रथम प्रभुने गणित का ज्ञान कराया। प्रभुके केवल्यप्राप्ति बाद इन्होंने भी विरक्त होकर  भरत राजा से दीक्षा की अनुमति मांगी। पर मोहवश भरत ने उन्हें संयमाज्ञा नही दी। और भरत जी 6 खण्ड जीतने निकल गए। 

सुन्दरीजी का संयम लेने का उत्कृष्ट मन था।पर भरत ने मोह वश आज्ञा नही दी तब भी वे निराश नही हुई। मोह के कारण रूप इस देह को ही में अरमणीय कर दु। उन्होंने भरत के वापस आने तक यानी 60,000 वर्ष तक आयंबिल की उग्राराधना की। तप से देह को अत्यंत कृश कर दिया। 6 खण्ड साधने के बाद जब भरतेश्वर ने वापिस आकर सुन्दरीजी का तप देखा समझा तब उन्हें संयम की आज्ञा दी। दीक्षा लेकर सुन्दरीजी भी संयम आराधना में लग गये।

सुन्दरीजी ने संयम ग्रहण कर तप आदि की उत्कृष्ट आराधना कर अंत मे सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई।


#वीरा म्हारा गज थकी , नीचे उतरो

इन दोनों साध्वियुगल के संयमकाल की एक घटना यहां उल्लेखनीय है।


भाई भरत चक्रवर्ती से युद्ध के प्रसंग बाद बाहुबली जी ने उस समय ऋषभदेव प्रभु बिराजमान होते हुए भी स्वयं संयम ग्रहण कर लिया। उन्हें लगा कि यदि ऋषभदेव के पास गए तो पहले से दीक्षित होने से छोटे 98 भाई मुनि को मुझे वन्दन करना पड़ेगा। ( दीक्षा के बाद यह एक नियम है कि यहां संसारी जीवन की उम्र नही गिनी जाती। ज्येष्ठ वही , जिसने पहले संयम लिया। तो 98 भाई ने पहले दीक्षा ले ली थी। तो छोटे होते हुए भी संयम पर्याय में बड़े होने से वन्दन करना पड़ेगा। ) उनका यह अहंकार उन्हें प्रभुके पास जाने में रुकावट बना हुआ था। उत्कृष्ट तप व ध्यान साधना करने लगे। उन्होंने अपने शरीर को इस तरह स्थिर कर लिया ध्यान में, की उनके देह पर जीवजंतुओं ने अपना घर बना लिया, फूल वेल की शाखाएं उनके शरीर का आश्रय लेकर बढ़ने लगी।  जब काफी महीने बीत गए तब ऋषभदेव ने ब्राह्मी सुंदरी आर्या को भेजकर बाहुबलीजी को प्रतिबोध दिया। 


दोनो साध्वियुगल ने आकर बाहुबली मुनि को अहंकार रूप हाथी से नीचे उतरकर संयम में स्थिर होने का सुंदर उपदेश दिया। बाहुबली समझ गए। उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। ध्यान शुद्ध से शुक्ल , परम शुक्ल बनता गया।  और जैसे ही अहंकार का त्याग कर  प्रभुके पास जाने के लिए कदम उठाया, उसी समय केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। बहन साध्विजीयो का सहयोग पाकर वे केवली बन गए।

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#बड़ीसाधुवंदना - 101


चौबीसे जिन नी ,  बड़ी शिष्यणी चौबीस।

सती मुक्ति पहोंच्या, पूरी मन जगीश ।103


चोबीसे जिन ना, सर्व साध्वी सार ।

अड़तालीस लाख ने , आठ से सित्तर हजार ।104।

चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।

राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।


जिनेश्वर प्ररूपित   जिनशासन में सहस्त्रों महापुरुषों के संयम शौर्य, तपवीरता , धर्म के लिए दृढ़ श्रद्धा समर्पण के वर्णन के साथ ही हजारों नारियों के भी महिमा का वर्णन है। बिना लिंग भेदभाव के कोई भी जीव अपनी साधना से मोक्ष जा सकता है।


इस अवसर्पिणी काल मे भरतक्षेत्र में हुए 24 तीर्थंकरों के साध्वीसमुदाय की अग्रणी महान नारीरत्नो का उल्लेख मिलता है।

प्रभु ऋषभदेव की प्रथम साध्वी तथा 3,00,000 साध्वीयो के संघ की नायिका आर्या ब्राह्मी जी थे , तो अंतिम वीर शासन में 36000 साध्विजियो की नायिका आर्या चन्दनबाला जी । इन 24 तीर्थंकर प्रभु जी के साध्वी संघ की नायिकाओं के नाम नीचे कोष्ठक में  दे रहा हूं। इन सभी ने प्रभुकी शरण मे संयम की उत्कृष्ट आराधना कर मुक्ति गति को प्राप्त किया।

चौबीसों प्रभुकी कुल साध्वीजीयो  की संख्या 48, 70,800 । ( संख्या में कहीँ भिन्नता संभव )


वैशाली नगरी के विशाल साम्राज्य के दृढ़ जिनधर्मानुरागी राजा चेटक का  जिनशासन में नाम अग्रगण्य है। इनकी 7 पुत्रियां थी। जिनमे कुछ के वर्णन  हमने देखे है।


उन पुत्रियों में


1 - प्रभावतीजी के लग्न उदायन राजा से हुए

2 - पद्मावतीजी - दधिवाहन राजा

3 - मृगावतीजी - शतानीक राजा

4 - शिवादेवी - चण्डप्रद्योत राजा

5 - ज्येष्ठा जी - वीर प्रभुके भाई नंदिवर्धनजी

6 - सुज्येष्ठा जी संयम लिया

7 - चेलना -  मगध नरेश श्रेणिकजी


इन सातों  पुत्रियों के जीवन चरित्र में उत्कृष्ट धर्म श्रद्धा व त्याग की शूरवीरता प्रकट होती है। 


इन 7 मे से 4 की गिनती जिनशासन की महान 16 सतियो में बड़े आदर के साथ की जाती है।


7 में से चेलना जी व ज्येष्ठा जी के अलावा पांचों ने  संयमग्रहण कर धर्म की उत्कृष्ट आराधना की थी। चेलना जी की दीक्षा का उल्लेख नही मिला पर उनकी धर्म निष्ठा उच्च थी। श्रेणिक राजा को जिनधर्मानुरागी बनाने में इनका अतुल्य  योगदान था।


आगे की गाथाओमे हम इन चेटकपुत्रियो का थोड़ा ज्यादा कथानक देखेंगे।


जिनशासन को गौरववन्ता बनाने वाले इन सतीरत्नो को हमारा भाव पूर्ण नमस्कार हो


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#बड़ीसाधुवंदना - 102


चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।

राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।


हम बात कर रहे है जिनशासन के महान सतीरत्नो की।


राजेमतीजी : - 1

एक उज्वल रत्न ।

उग्रसेन राजा की पुत्री।

समुद्रविजय के पुत्र  कुमार नेम तो तीर्थंकर की विरक्त आत्मा थे। जब उनके विवाह की बात चली तब नेम कुमार ने साफ मना कर दिया। पर श्री कृष्ण के अविरत आग्रह को देख अनमने से नेमकुमार विवाह के लिए तैयार हुए। उनका संबन्ध राजेमतीजी से तय हुआ। शादी की तैयारियां होने लगी। 

नेम कुमार जैसा सुयोग्य वर प्राप्ति से राजेमतीजी प्रसन्न थे। नये विवाहित जीवन की स्वप्न मंजूषा से कई स्वप्न अब प्रकट होने लगे थे।


विवाह का दिन आ गया। नेम प्रभु की बारात राजेमतीजी को ब्याहने बड़े धूमधाम से निकली। बड़ा विस्तृत यादव परिवार सजधज के बारात में शामिल हुआ।

इधर कुछ ही पलों में  नेमकुमार जी की विवाहिता बनने के स्वप्न सँजोती हुई राजेमतीजी भी सजधज कर बैठी थी।

पर अचानक यह विघ्न कैसा ?

जैसे एक वज्राघात हुआ कोमलांगिनी राजेमतीजी के हृदय पर!

राजीमती जीको समाचार मिले, की नेमकुमार बारात मोड़कर वापिस चले गए?!

हुआ यह था, जब बारात विवाह स्थल के करीब पहुंची, तब नेमकुमार के कानों में शहनाइयों के सुर के बीच मे अचानक ढेरो पशुओं की चीत्कार की आवाज पड़ी। अहिंसक, व  करूणता से भरे नेम कुमार के हृदय को अति वेदना हुई। उन्होंने सारथी द्वारा पता लगाया तब उन्हें ज्ञात हुआ  कि विवाह में आये बारातियों की व्यवस्था हेतु बहुत सारे पशुओं को बंधक बनाया गया है। 

नेमकुमार स्तब्ध हो गये।

अहो, एक मेरे विवाह निमित्त इतने सारे पशुओं को नारकीय वेदना!!!

नही नही! में उनकी इस वेदना का निमित्त नही बन सकता। ऐसे प्रारंभ से ही पग पग पर जहाँ हिंसा हो ऐसे विवाह बंधन में मुझे नही बंधना। मैं इस संसार का त्याग कर संयम अंगीकार करूँगा। और  पशुओं को बाड़े से छुडा़कर वे बारात मोड़कर वापिस चले गए।

उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया गया पर अब नेमकुमार किसी पर राग द्वेष किये बिना संयमग्रहण के निर्णय पर बने रहे।


यह समाचार राजेमतीजी के लिए अत्यंत दुखदायी बने। 

   

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#बड़ीसाधुवंदना - 103


चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।

राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।


राजीमतीजी - 2

नेमकुमार की दीक्षा का निर्णय सुनकर राजीमती जी अत्यंत दुखी हो गये। अन्यत्र विवाह के लिए उन्होंने मातापिता को स्पष्ट मना कर दिया। 

: - आर्य नारी एक बार मन से जिसे पति मान चुकी हो, अब वो भला दूसरे व्यक्ति से विवाह में कैसे बन्ध जाए?

नेमकुमार के  वर्षिदान की परंपरा शुरू हुई। इस दौरान राजिमतीजी के सौंदर्य पर मुग्ध बने हुए रथनेमि जो कि नेमकुमार के सगे भाई थे। उन्होंने राजिमतीजी से विवाह करने के कई प्रयास किये। परन्तु राजिमतीजी अब मन से नेमकुमार को ही अपना पति मान चुकी थी। वे जो भी मार्ग चुने, उसका ही अनुसरण करने का दृढ़ मन बना चुकी थी। 


राजीमती ने रथनेमि को कई दृष्टांत देकर समझाया। आख़िर जब वे नही माने तब एकबार एक युक्ति की।

उन्होंने रथनेमि जी आये तब बहुत सारा दूध पी लिया। फिर मदनफल ( जिसको सूंघने से पेट मे रहा सारा आहार वमन से बाहर आ जाता है। ) सूंघ कर रथनेमीजी के सामने ही कटोरे में  वमन कर दिया।  रथनेमि जी को कहा की उस दूध को पी लो। रथनेमीजी अवाक थे। 

राजिमतीजी ने कहा : - जिस तरह वमन किया हुआ  यह दूध आप पी नही सकते उसी तरह आपके भाई द्वारा त्यागी  गयी मैं आपके लिए कैसे योग्य हो सकती हूं। संसार के भोग इसी वमन की तरह है। जिसे नेमकुमार ने त्याग दिया। अब  मैं भी उनका ही अनुसरण करूंगी।


रथनेमि जी संभल गये। उन्होंने भी राजिमतीजी का आग्रह छोड़कर विरक्त बन गए। 

इधर नेमकुमार ने  दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के 54 दिन बाद उन्हें केवल्यप्राप्ति हुई। नेमकुमार अब नेमप्रभु बन गए।प्रथम समोवसरण में उन्होंने साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका  4 संघ रूप तीर्थ की स्थापना की। राजिमतीजी ,रथनेमीजी आदी कई जनों ने दीक्षा ग्रहण की।

( उनकी दीक्षा के समय मे कुछ मान्यताभेद है। )।

एक बार फिर ऐसा अवसर आया कि रथनेमीजी काम कषाय में बहने लगे तब राजिमतीजी ने उन्हें पुनः समझाकर संयम में स्थिर किया। (आगे की गाथाओमे रथनेमीजी के वर्णन में हम यह पढ़ चुके है।  )


इस तरह संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए सतीरत्ना राजिमतीजी(राजुल ) अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुई।


सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथो से।

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#बड़ीसाधुवंदना - 104


चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।

राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।


स्थूलभद्रजी, जंबूस्वामी आदि के काम कषाय पर विजय प्राप्ति की गाथा हमने पढ़ी। इसी श्रृंखला में जिनशासन में एक श्रावक श्राविका का नाम अविस्मरणीय है।


विजय - विजया जी 


कौशांबी नगरी में अर्हद्दास नामक एक वैभवी श्रेष्ठि रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था अर्हद्दासी । पुत्र विजय । पूरा परिवार अत्यंत वैभव में जीते हुए भी जैन मतावलंबी व धर्मनिष्ठ था। पुत्र विजय अन्य शिक्षाओं में प्रवीण बनने के साथ  परिवार व माता के संस्कारो से धर्म मे भी अनुराग रखने वाला था। एकदा ऐसे ही किन्हीं श्रमण के दर्शन वन्दन करने गए तब उन मुनिके प्रभावी वाणी में  ब्रह्मचर्य का वर्णन सुना। संस्कारी, जैन मुनिवचनो में दृढ़ निष्ठावान विजय ने मुनि के वचनों से प्रेरित होकर ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करने का निर्णय लिया। पर थे तो गृहस्थी।  भविष्य में ब्याह होगा। पत्नी भी आएगी। संसार धर्म भी निभाना होगा यह सोचकर मुनि से आंशिक  ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। इसमें हर माह के शुक्ल पक्ष के दिनों में ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालन। मुनि से प्रत्याख्यान लेकर आनन्दित होते हुए घर आये।

कुछ दिनों में एक श्रेष्ठी पुत्री सुंदर कन्या विजया से उनका विवाह भी संपन्न हुआ। शुक्ल पक्ष के वे दिन चल रहे थे।


विवाह पश्चात मधुरमिलन की प्रथम रात्री। कई स्वप्नों से सजी हुई रात को जंबूस्वामी की तरह विजय विजया ने भी धन्यातिधन्य बना दिया। कैसे : - जब विजय ने अपनी नवविवाहिता से अपने शुक्ल पक्ष के ब्रह्मचर्य के प्रत्याख्यान की बात सुनाई तब विजया ने एक नई बात उन्हें बताई। एक साध्वीजी से उन्होंने भी हर माह के कृष्ण पक्ष को ब्रह्मचर्य पालन के प्रत्याख्यान ले लिए थे।

एक के प्रत्याख्यान शुक्लपक्ष के, तो दूसरे के प्रत्याख्यान कृष्ण पक्ष के । यानी अब प्रत्याख्यान रहते  दोनों का दैहिक मिलन असंभव।

अहो! अहो! अहो आश्चर्यम!


दोनो परस्पर के प्रत्याख्यान सुनकर खेदित नही हुए अपितु धन्यता व हर्ष की अनुभूति करने लगे। वीरांगना विजया के सहकार से अब आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की अनुकूलता हो गई, यह सोचकर विजय व ऐसी ही सोच से विजया अत्यंत हर्षित हुए। पर विजया ने भावी चिंता व्यक्त की , जब इस घर -  कुल का वारिस के लिए?? 


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।#बड़ीसाधुवंदना - 105


चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।

राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।


विजय सेठ - विजया सेठानी जी - 2


उदार विजया ने विजय को शुक्ल पक्ष का ब्रह्मचर्य पालन भी हो, और इस घर को वारिस भी मिल जाये इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए विजय को दूसरा विवाह करने की विनती की। पर अब विजय सहज आ मिले त्याग के इस अवसर को खोना नही चाहते थे। विजय ने विजया की उदारता की सराहना करते हुए उसके प्रस्ताव का अस्वीकार किया। उन दोनों ने ब्रह्मचर्य व्रत को आजीवन पालने का दृढ़ निर्णय बना लिया।

पर यह बात गुप्त रहेगी। जब भी यह निर्णय सब को पता चलेगा, हम दोनों संयम अंगीकार करेंगे ।


 इस निश्चय के साथ  दोनों अपना जीवन  धर्ममय  मार्ग से जीने लगे। दिन बीते, सुहानी राते, फिर मादक वर्षा, वसंत आदि ऋतुएं, बरसो बीतने लगे। पर उनके  व्रत को कोई भी समय डिगा न पाया। न किसी को पता चला। दोनो के खंड ब्रह्मचर्य व्रत को अखंड बनाकर पालन करते रहे। (एक कक्ष में अलग शय्या पर रहकर जीना-निद्रा लेना)

पर एक दिन अचानक!!!!!


 अंगदेश में एक जिनदास नामक दृढ़ धर्मी, परम क्रियावान श्रावक रहता था। उसने प्रातःकाल में एक अजीब स्वप्न देखा। वे एकसाथ 84000 तपस्वी मुनियों को पारणा करवा रहे है। वे इस स्वप्न का अर्थ समझें नही।


ऐसे में एक केवली भगवन्त वहां पधारे। उन्होंने जिनदासको स्वप्नों के अर्थ बताते हुए कहा - की एक अखंड ब्रह्मचारी जोड़े को पारणा करवाने से 84000 तपस्वी साधु को पारणा करवाने जितना लाभ मिल सकता है।

जिनदास ने ऐसा जोडा कहा मिलेगा यह प्रतिप्रश्न किया। तब केवली प्रभुने कौशांबी के विजय विजया सेठानी का नाम दिया।


जिनदास जी कौशांबी आये। अर्हद्दास के घर आकर सभी नगरजनो के समक्ष उन दोनों की स्तुति करते हुए दोनो का व्रत सभी के सामने उजागर किया। सब स्तब्ध रह गए। लोगो ने इस त्यागी दंपत्ति की खूब अनुमोदना की।


अपने निर्णय अनुसार उनके व्रत का सभी को पता लग जाने के बाद संयम ग्रहण किया। स्व पर कल्याण करते हुए कई वर्षों तक विचरते रहे। अंत मे देह त्याग 8 कर्मोंका क्षय कर दोनो सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।


Fb ग्रुप जैनिज़्म

All india jain aagam group


सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रन्थ से

इस कथानक को उपरोक्त ग्रन्थ से लिया है, किन्ही आगममे से नही। तत्त्व केवली गम्यं ।


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#बड़ीसाधुवंदना - 106


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राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।


मृगावतीजी - 1  : -


जिनशासन के वीर व धर्मनिष्ठ पात्र राजा चेटक की सात पुत्रियों के नाम हमने पढ़े, उनमे से एक नाम है मृगावतीजी। सुंदर,  धर्म निष्ठ, कर्तव्य परायण  मृगावतीजी का विवाह कौशांबी नरेश शतानीक के साथ हुआ था।

सुखमय दिन बीत रहे थे। राजमहल में मृगावती के पुत्र उदयन अभी छोटा ही था, इधर एक दु:खद घटना घटी। उस घटना के बीज कुछ इस तरह अनजाने बोये गये।

कौशांबी में एक निपुण चित्रकार रहता था। उसकी अविरत चित्र साधना से उसे एक अदभुत कला हस्तगत हो गई थी। वह किसी व्यक्ति का पांव का अंगूठा मात्र देख लेता तो वह उसका पूरा हूबहू चित्र बना सकता था। 


उस कला के प्रदर्शन के लिए एकबार उसे राजमहल में बुलाया गया। महारानी मृगावती का पांव का अंगूठा देखकर उसने उनका चित्र बनाना शुरू किया। अदभुत कलाकारी। उसने सिर्फ अंगूठा देखा था पर महारानी का हूबहू चित्र बन रहा था। पर यह क्या? चित्र बनाते समय काले रंग का एक बूंद चित्र में महारानी की जंघा पर गिर गया। गलती हुई मॉनकर चित्रकार ने उस काली बून्द को साफ कर दिया। पर अहो आश्चर्यम ! दूसरी, तीसरी बार उसके हाथों से एक काले रंग की बूंद उसी जगह गिरी। तब चित्रकार ने उसे रहने दिया। वह बून्द जंघा पर स्थित एक तिल जैसे लग रही थी।

चित्र पूरा हुआ। राजा ने देखा वह भी इस कला से प्रसन्न हुआ पर जब उसकी नजर जंघा के तिल पर गई तब उसे संदेह हुआ : - इस चित्रकार को जंघा के तिल का कैसे पता? हो न हो उस ने गलत तरीके से कभी देखा होगा या रानी के साथ कभी  गलत संबन्ध रहा होगा। 

शंका के इस विष ने राजा शतानीक की मति भ्रमित कर दी।

जिस चित्रकार को पुरस्कृत करना चाहिए था उसे दण्ड स्वरूप दाहिने हाथ का अंगूठा कटवाकर देशनिकाला दे दिया। 


वह चित्रकार अपने आप को अपमानित हुआ देखकर, राजा से बदला लेने का सोचा। उसने अपनी कला फिर आजमाई । बिना अंगूठे के ही , रानी मृगावती का सुंदर चित्र बनाकर ,  अवन्तिनरेश , स्त्री की सुंदरता जिसकी कमजोरी थी, ऐसे लंपट व कामी चण्ड प्रद्योत को दिखाया। और यही नही उसकी सुंदरता की स्तुति कर चण्डप्रद्योत को मृगावती को पाने के लिए लालायित कर दिया।


कामी नरेश चण्डप्रद्योत ने मृगावतीजी को प्राप्त करने के मोह में सार असार का विवेक छोड़कर कौशांबी पर अचानक आक्रमण कर दिया। सहसा हुए इस हमले से स्तब्ध शतानीक नरेश ने प्राण त्याग दिए।

अब राजमहल में लाचार असहाय नारी मृगावती , अपने नन्हे पुत्र के साथ । पर नही, वे एक वीर नारी थी। नगर के बाहर खुद को प्राप्त करने के लिए विशाल सेना लेकर बैठा शत्रु, सेना से भयभीत खुद की नगरी,  महल में पति का देहांत इन विपरीत परिस्थिति में कुछ ही समय मे मृगावती ने अपने आप को संभाल लिया। खुद के शील की, नगरजनो की सुरक्षा, पुत्र उदायन का राज्य सिँहासन की सुरक्षा के लिए यह वीर रानी कटिबद्ध हुई।

उसने युक्ति आजमाई । नगरी के बाहर बैठे शत्रु को कहलवाया : -  मैं अपने आपको समर्पण करने को तैयार हूं, पर अभी मेरे पति का देहांत हुआ है, 6 माह तक मुझे पति शोक से बाहर आने का समय दीजिये।

चण्डप्रद्योत भी मान कर नगरी में आक्रमण करने से रूक गया। वह 6 माह का समय   देकर अवंति लौट गया। रानी ने तब तक अपनी नगरी की सुरक्षा के सघन प्रयास कर लिए। 


6 माह बाद चण्डप्रद्योत ने अपने दूत भेजकर अपना वचन याद दिलवाया। तब सिंह समान चरित्र वाली महासती ने अपने चारित्र से डिगने का स्पष्ट इन्कार कर दिया।  मैं राजा शतानीक की विधवा हूं, प्राण त्याग दूंगी परन्तु अपने शील को पतित नही होने दूंगी। किसी भी कीमत पर मैं चण्डप्रद्योत की रानी बनना स्वीकार नही करूंगी।

यह सुनकर आवेश में आया चण्डप्रद्योत ने पुनः कौशांबी पर आक्रमण कर दिया।


इसी दौरान वीरप्रभु का कौशांबी में पदार्पण हुआ। प्रभुकी देशना सुनने सभी पधारे। मृगावती भी उदयन के साथ थी। वहीँ चण्डप्रद्योत भी था। प्रभुकी देशना सुनकर मृगावती विरक्त हो गई। उसने वहीँ चण्डप्रद्योत से दीक्षा की आज्ञा मांगी।


जिस मृगावतीजी को पाने के लिए चण्डप्रद्योत 6 माह से उतावला हो रहा था, जिसके लिए  विशाल सेना लेकर नगरी के बाहर बैठा था,  क्या उसे वह दीक्षित होने के आज्ञा वह देगा??


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चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।

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मृगावतीजी - 2  : -


प्रभुकी देशना का प्रभाव , जहां जीव अपने जातिगत वैर भी भूल जाते है , उस प्रभुके अतिशय का ही चमत्कार  था , कि चण्डप्रद्योत भी मान गया। उसने आक्रमण का विचार छोड़ उदयन को राजा बनाकर मृगावतीजी का दीक्षा समारोह किया।

मृगावतीजी चन्दनबाला जी आर्या की शिष्या बनी।

दीक्षित होकर संयम की उत्कृष्ट आराधना करने लगे।

एकबार आर्या मृगावती जी वीर प्रभुके समोवसरण में गुरुणी चन्दनबाला जी के साथ  प्रभुकी दिव्य देशना सुन रही थी। उस समोवसरण मे सूर्य व चन्द्र आदि देव भी उपस्थित थे। यह भी एक आश्चर्य ही था कि ज्योतिष देव अपने मूल देह व विमान के साथ  समोवसरण में उपस्थित थे।

 देशना के बाद  समय सूर्यास्त तक पहुंच गया। तेजस्वी देह व विमानों की वजह से समोवसरण में दिन जैसा ही उजाला था। आर्या चन्दनबाला जी अन्य संकेतो से दिन का अस्त हुआ समझकर अपनी साध्वी मर्यादा समझकर वँहा से उठकर चले गए। परन्तु वहां चल रही धर्मचर्चा में तल्लीन  आर्या मृगावतीजी को सूर्यास्त के ध्यान कुछ देर बाद आया। वे तत्काल गुरुणी के पास आ गये।

गुरुणी जी ने एक हल्का उपालंभ व साध्वी आचार को समझने का, ऐसे व्यवहार रखने का सूचन किया। 

मृगावतीजी को अपनी गलती का बेहद पश्चाताप हो रहा था। उस पश्चाताप में गुरुणी के लिए द्वेष नही, पर खुद की गलती का अफसोस था। उस गलती को भविष्य में न दोहराने का, संयम में उत्कृष्ट आराधना करने का चिंतन करने लगे। उनका चिंतन क्रमशः उर्ध्वगामी बनता गया। धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट हो गए। और उसी रात उन्हें केवल्यप्राप्ति हो गई। लोकालोक की तीनो काल की  समग्र वस्तु बिना किसी इन्द्रिय या मन की सहायता से प्रत्यक्ष दिखने लगी।

काजलसी काली रात में उन्होंने ज्ञान का प्रकाशपुंज प्राप्त कर लिया। कितना अदभुत वह चिंतन होगा!!!


गुरुणी चन्दनबाला जी वहीं निंद्रा में थे। उनके पास के संथारे ( सोने की जगह ) पर आर्या मृगावतीजी थे। अचानक उस अंधेरी रात में भी ज्ञान के प्रकाश में उन्होंने एक काले विषधर नाग को गुरुणी की शय्या के पास देखा। गुरुणी का हाथ उस विषधर के मार्ग में आनेवाला था। मृगावतीजी ने गुरुणी का हाथ हल्के से उठाकर दूसरी तरफ कर दिया। सांप चला गया। पर हाथ के स्पर्श से गुरुणी जी जाग गये। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ, तब मृगावतीजी ने वहां से गुजरे सर्प की बात बताई।

चन्दनबाला जी आश्चर्यचकित हो गये, इतने अंधेरे में आपको काला सर्प कैसे दिखाई दिया? क्या कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ। तब आर्या मृगावतीजी ने कहा : - हां, आपकी कृपा से केवल्यप्राप्ति हुई है। यह केवली का भी गुरु के प्रति विनय देखने जैसा है।

गुरुणी को बहुत हर्ष हुआ, पर अचानक उन्हें शाम में दिए उपालंभ याद आया! अहो, मैने केवली को डांटा, उनकी आशातना की। इस दु:ख में वे विलाप करने लगे। उनसे ऐसी गलती कैसे हो गई, वह उनके रुदन की वजह बन गई। यह विलाप शुभत्त्व की  ओर बढ़ा। धीरे-धीरे विलाप के स्थान पर शुक्लध्यान में प्रवेश किया। उर्ध्वचिन्तन की श्रृंखला में बढ़ते हुए उन्होंने भी उसी रात केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।


अहो, अदभुत अदभुत था गुरु शिष्या का संयम, उनकी धर्म निष्ठा व संयम में सजगता, अपने दोषों के प्रति जागरूकता। जिससे उन्होंने केवल्यप्राप्ति तक हो गई।

मृगावतीजी ने केवलिपने में विचरते हुए अपना आयु पूर्ण कर अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त बने।


धन्य धन्य जिनशासनम !!!


संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।


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#बड़ीसाधुवंदना - 108


पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।

इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।


जिनशासन को हम कितना महान देखे, जाने समझे!!

इतने सारे महान पात्र यहां हो गये जिनकी गाथा का वर्णन भी हम अपनी मर्यादा से पूरा नही कर पाते। तो उनका चारित्र उन महान हस्तियों ने  कैसे जिया व निभाया होगा।?


आचार्य जयमलजी महाराजसाहेब का हमपर यह अनहद या अतुल्य उपकार है , जो इस स्तुति में इतने नामो को उजागर किया, उनकी जीवन चरित्र पढ़कर हम हमारे धर्म मार्ग में आगे बढ़ सके। उस स्तुति के माध्यम से रोजाना हम इनके गुणो को वन्दन नमन कर सके।


ऊपर की गाथा में उन महान सतीरत्नो के उत्कट चारित्र्य गुणो को नमन है जिनका वर्णन सिर्फ जैनागमों में ही नही पर वैदिक शास्त्रों में भी अत्यंत सन्मान के साथ किया गया है।बस 

एक ही शब्द नीकलता है हृदय की गहराई से,

अहो, अहो, धन्य है जिनशासन !


पद्मावतीजी  : - 1

चेटकराजा की द्वीतीय पुत्री पद्मावतीजी । इनका विवाह चंपानगरी के राजा दधिवाहन से हुआ था। ये वही दधिवाहन राजा है , जिनकी एक रानी अभया ने सुदर्शन श्रावक पर शीलभंग का मिथ्या आरोप लगाया था और सुदर्शन श्रावक के शील के प्रभाव से उन्हें जिस शूली पर चढ़ाया जा रहा था वह सिंहासन में परिवर्तित हो गई थी।

चंपानगरी के इसी राजा दधिवाहन की एक रानी धारिणी ने शत्रु आक्रमण के समय रथीक से अपने शील की रक्षा व अपनी पुत्री वसुमतीजी को शीलभंग से बचने की शिक्षा देते हुए अपनी जिव्हा काटकर अपने प्राण त्याग दिए थे। वही बालिका राजकुमारी ने आगे चलकर वीरप्रभु की प्रथम शिष्या व 36000 साध्वियों के गण प्रमुखा आर्या चन्दनबाला जी बनी।


उन्हीं दधिवाहन की रानी पद्मावतीजी। विवाह पश्चात रानी गर्भवती बनी। गर्भावस्था में रानी को एक दोहद उत्पन्न हुआ। 

दोहद : - गर्भावस्था में स्त्री को जो अलग अलग इच्छा होती है उन्हें दोहद कहा जाता है। यह गर्भका भी प्रभाव भी हो सकता है। जैन इतिहास में इसका वर्णन बहुत सुनने पढ़ने में आता है। उन दोहद को पूरा करने की कोशिश भी पूर्णतः की जाती है। ताकि गर्भिणी स्त्री को आनन्द प्राप्त हो और स्वस्थ पुत्र को जन्म दे सके ।  जैसे श्रेणिक राजा का पूर्वभव के वैरी सेनक तापस का जीव  श्रेणिक की ही रानी चेलना के गर्भ में आया , तब चेलना को श्रेणिक राजा के कलेजे का मांस खाने का दोहद हुआ था। जैन धर्मानुरागी, पति परायणा, अहिंसक जैन धर्म मे अनुरक्त चेलना को ऐसे घातक दोहद के होने से उसी समय पता चल गया था कि गर्भ में वैरी पुत्र , पिता का घातक बनेगा। इसी लिए चेलना ने दोहद की बात किसी को बताई नही ।पर किसी तरह श्रेणिक को यह पता चल ही गया। अभयकुमार ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से श्रेणिक को नुकसान पहुंचाए बिना चेलना रानी का दोहद पूर्ण करवाया था। चेलना ने अमंगल समझकर पुत्र कोणिक के जन्म के समय ही उसका त्याग कर दिया था।  पर श्रेणिक की उदारता थी कि वह कोणिक को वापिस ले आया।


रानी पद्मावतीजी को भी कुछ विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ। राजा का वेश पहनकर, राजा के सभी चिह्न धारण कर हाथी पर बैठकर वह नगर में घूमते हुए वन में क्रीड़ा करने जाए। राजा स्वयं उनके चामर ढोले।   ऐसे अजीब दोहद को रानी राजा को बता न पाए। पर मन की दुविधा, दोहद की अपूर्ति से वह खिन्न रहने लगी। उन्हें अस्वस्थ देखकर राजा ने अति आग्रह से पूछा तो रानी को उस दोहद की बात बतानी पड़ी। 

अब राजा क्या करेगा?

ऐसा दोहद पूरा करेंगे ? 


संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से

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#बड़ीसाधुवंदना - 109


पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।

इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।

अब राजा क्या करेगा?

ऐसा दोहद पूरा करेंगे ? 


#पद्मावतीजी

राजा ने बड़ी उदारता के साथ इस दोहद को पूर्ण करवाने का मन बनाया। तैयारियां की गई। बिल्कुल रानी की इच्छा की तरह रानी राजा के वेश व राजचिह्न धारण कर हाथी पर बैठी।  राजा साथ बैठे हुए चामर ढोल रहे थे। चारो ओर सैनिक थे।  यह सवारी नगर में घूमने लगी।  नगर में पहले ही सूचना कर दी गई थी। प्रजा इस अनोखी सवारी व राजा की उदारता देखकर हर्षित हुई। रानी अपने दोहद की पूर्ति से संतुष्ट थी। नगर से होते हुए यह सवारी भ्रमण के लिए वन में निकली।


 

कुछ दूर वन में जाते ही अचानक हाथी को जाने क्या हुआ वह मदोन्मत्त बन गया। सूंढ़ ऊँची कर जोर से चिंघाड़ की। और तीव्र गति से भागने लगा। महावत को भी गिरा दिया। सब सैनिकों को पीछे छोड़कर वह हाथी वन में भागने लगा।  अचानक आई विपत्ति को देखकर हाथी पर बैठे हुए राजारानी स्तब्ध रह गए। राजा तुरन्त संभल गये, वह अकेले होते तो कूदकर प्राण बचा लेते।पर साथ ही गर्भवती रानी भी थी। उनके प्राणों की रक्षा भी जरूरी थी।  हाथी के मार्ग में आनेवाले वटवृक्षो को देखकर राजा ने जल्दी से उपाय ढूंढ लिया। रानी को कहा : - अब जैसे ही कोई विशाल वटवृक्ष की लंबी शाखा दिखे तो हम उसे पकड़कर अपने प्राण बचा लेंगे। रानी भी समझ गई थी। उसने राजा को अनुमति दी। जैसे एक अच्छा वृक्ष दिखा । राजा ने रानी को वह वृक्ष की शाखा पकड लेने को कहा। वृक्ष नजदीक आया , राजा ने वृक्ष की शाखा पकड़ ली। और शाखा पकड़कर   नीचे उतर गए।  पर रानी शाखा नही पकड़ पाई। राजा भी अब पीछे छूट गए । हाथी अभी भी भाग रहा था। मन मे अरिहंतो का , नवकार महामंत्र का स्मरण करती रानी हाथी के ऊपर रही इस विपत्ति से बचने की प्रार्थना करने लगी।

काफी लंबे समय तक हाथी अनजान वन में भागता रहा। रात्री भी होकर पूर्ण होने आए। अब हाथी थक चुका था। एक जलाशय देखकर पानी पीने रणक गया। तब रानी नीचे उतर गई।

अब वन में भयभीत हिरनी की माफिक वह घूमने लगी। अनजान मार्ग में वह जाए भी तो कहां!!

घूमते घूमते एक ग्राम में पहुंची। वहां कुछ साध्विजियो का संघ भी था। उन्होंने रानी को आश्वासन व आश्रय दिया। कुछ समय उनके साथ रहने की अनुमति दी। , उनकी वाणी सुनकर अब वह विरक्त हुई। अभी तक गुरुणी जी को उनके गर्भावस्था या मूल परिचय नही बताया था। उसने गुरुणी से संयम ग्रहण किया। व आराधना में लग गई। कुछ समय पश्चात जब गर्भावस्था के लक्षण दिखे तब गुरुणी ने उनसे सच जानकर संघ वरिष्ठों की मदद से साध्वी पद्मावतीजी का गुप्त प्रसव करवाया। बालक को एक निसंतान चंडाल के श्मशान में छोड़ दिया। उस पुत्र को चंडाल ने अपना पुत्र बना लिया। 

साध्वीजी पुनः अपने संघ में लौट आई। और आराधना में लगी।


चंडाल ने उस पुत्र का नाम करकण्डु रक्खा। विधि की विचित्रता देखे, तो आगे कुछ ऐसे घटनाक्रम बनता है कि करकण्डु अपने बाहुबल से एक बड़ा राजा बनते है। राजा बनने के बाद एक बार युद्ध मे अपने ही पिता से युद्धभूमि में टकराने के अवसर आता है। यह समाचार साध्वी पद्मावतीजी को मिलता  है तब वे युद्धभूमि में जाकर पिता पुत्र का युद्ध रोकते है। एक दूसरे का परिचय देते है। युद्धभूमि में पिता पुत्र का मिलन देख साध्वीजी पुनः अपनी साधना में लग जाते है। उत्कृष्ट आराधना से अपना मार्ग प्रशस्त करते है।


धन्य धन्य जिनशासन

हमने प्रत्येक बुद्ध करकण्डुजी का चरित्र आगे की गाथाओमे देखा था ।

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 #बड़ीसाधुवंदना - 110


पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।

इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।


#मयणरेहा - 1


 पिछली गाथाओमे हमने 4 प्रत्येक बुद्ध की कथा पढ़ी थी उन्हीं 4 में से एक नमिराजा की महासती माता मयणरेहा यानी मदनरेखा का जीवन चारित्र भी अति प्रेरक है।

सुदर्शनपुर के नरेश थे मणिरथ। उनके लघुभ्राता युगबाहु युवराज पद पर थे। दोनो भ्राता में अत्यंत अनुराग था। पर वह अनुराग विषय की आग में झुलस गया।


क्या हुआ? 

युगबाहु की पत्नी का नाम था मदनरेखा व उसके  एक छोटा पुत्र था चन्द्र यश । मदनरेखा ने दूसरा गर्भ धारण किया। एक बार बड़े भाई मणिरथ की विषयी दृष्टि मदनरेखा पर पड़ी। और कामी मन उस पर आसक्त हो गया। मदनरेखा के साथ भोग भोगने  के लिए वह लालायित हो उठा। उस वासना के चलते सही गलत का सब विवेक वह भूल बैठा। समाज , भाई के रिश्ते, नैतिकता  की सभी मर्यादा  उसने दासी द्वारा उपहार भेज कर मदनरेखा से प्रणय निवेदन किया।

मदनरेखा दृढ़ धर्मी, पति परायण नारी थी। उसने दासी को धुत्कार कर मणिरथ का प्रणय निवेदन ठुकरा दिया। 

इस इन्कार ने मणिरथ को और पागल बना दिया। उसने येनकेन प्रकारेण मदनरेखा को प्राप्त करने का जाल बिछाया। सरहद पर युद्ध का बहाना कर के युगबाहु को नगर से बाहर भेज दिया। भाई पर पूर्ण विश्वास करने व युद्ध मे अपना शौर्य दिखाने बहादुर युगबाहु सरहद पर चला गया। 


इधर रात के सन्नाटे में मणीरथ  मदनरेखा के महल में आया। मदनरेखा को मणिरथ के षड्यंत्र की शंका तो  थी ही । वह शील के लिए सजग नारी गुप्त द्वार से महल छोड़कर युगबाहु की माता के महल चली गई। मणिरथ हाथ मलता रह गया। कुछ दिनों में ही सरहद के युद्ध में विजय प्राप्त कर युगबाहु लौट रहे है यह समाचार आया। 


मणिरथ को यह अच्छा नही लगा। काश किसी तरह युगबाहु मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो मैं मदनरेखा को प्राप्त कर सकूंगा। कुछ ऐसे ही सोचकर युगबाहु को सन्देश पहुँचाया की आप नगरी के बाहर रुके। दूसरे दिन भव्य स्वागत के साथ विजय जुलुस निकालते हुए तुम नगरप्रवेश करना।


युगबाहु नगर के बाहर छावनी में रुक गया। मदनरेखा को फिर अनिष्ट की आशंका हुई। रात में ही वह छावनी में पति के पास पहुंची। मणिरथ भी रात के अंधेरे का लाभ उठाकर छावनी में आ गया। उसे पहचानने वाले सैनिकों ने भी उसे रोका नही। 

वह नंगी तलवार लेकर युगबाहु व मदनरेखा के तंबू में पहुंचा। मदनरेखा युगबाहु को सावधान करे उससे पूर्व ही मणिरथ ने तलवार का एक प्राणघातक वार युगबाहु पर कर दिया। और वहां से भाग गया। 

युगबाहु अंतिम सांसे गिनने लगा था। तब महासती मदनरेखा ने विलाप या आर्तध्यान की जगह बहादुरी से काम लिया। पति युगबाहु आर्त रौद्र ध्यान में कहीं अपना अगला भव न बिगाड़ ले यह अब मदनरेखा का लक्ष्य था। उसने युगबाहु को अंतिम साधना करवाई। जगत के सभी जीवों के प्रति राग द्वेष खत्म करवाने का बोध दिया। भाई मणिरथ पर भी लेशमात्र द्वेष या क्रोध न करने को समझाया। सब कर्मो के अधीन होता है तो अब कोई कर्म ऐसे न बांधे की वैर की परंपरा आगे चले। मदनरेखा का श्रम रंग लाया। युगबाहु ने आलोचना ली। सभी से रागद्वेष त्याग कर खमतखामना किया व काल कर देव बने।


अब सती मदनरेखा क्या करे?

राजमहल में पुत्र चन्द्र यश था। उदर में पल रहे गर्भ की चिंता, पति का वियोग व अब मणिरथ का मार्ग भी निष्कंटक हो गया तो उससे अपने शील की रक्षा!!!



संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।

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#बड़ीसाधुवंदना - 111


पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।

इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।


#मयणरेहा - 2


मदनरेखा बहादुर धर्मनिष्ठ नारी थी। घबराकर आर्तध्यान की जगह उसने सब  संयोगों का विचार किया। व अंत मे छावनी से महल जाने की जगह रात के अंधेरे में ही नगर का त्याग कर दिया। अरिहंत का शरण लेकर वह नगर से दूर निकल गई। सुबह होते होते वह नगर से काफी दूर एक वनके जलाशय के पास पहुंच गई। वँहा उसे प्रसव वेदना हुई। बहादुर नारी ने अकेले ही जंगल मे सुंदर पुत्र को जन्म दिया। पुत्र की शुद्धि कर उसे अपनी निशानी पहनाई, वृक्ष की शाखा पर झोली में बांधकर वह स्वयं शुद्धि के लिए जलाशय में उतरी।

पर हाय रे कर्म का विपाक!

वहां से ऊपर विमान से गुजर रहे एक विद्याधर ने उसे देखा, उसके सौंदर्य पर मोहित होकर उसने मदनरेखा को उठा कर विमान में ले लिया। प्रसव वेदना से थकी मदनरेखा इस आक्रमण से बेहोश हो गई। 

जब होंश आया तब वह अपने आप को अपहृत हुआ समझ कर , पुत्र को याद कर रोने लगी। विद्याधर ने उससे प्रणय निवेदन किया। मदनरेखा ने उसे दुत्कार दिया।

उस विद्याधर के पिता केवलज्ञान प्राप्त मुनि थे। मार्ग में ही होने से वह विद्याधर पिता मुनि के दर्शन करने रुका। मदनरेखा ने भी हर्षित होकर दर्शन करने आने की इच्छा व्यक्त की। मदनरेखा को विश्वास था, केवली भगवंत मेरी वेदना को समझेंगे व पुत्र को प्रतिबोध देकर मुझे इस आपत्ति से बचा लेंगे।


और हुआ भी वैसा ही।  केवली भगवन्त ज्ञान से पुत्र के अधम कृत्य को जान चुके थे। उन्होंने पुत्र को प्रतिबोधित किया। विद्याधर को भी अपनी गलती का एहसास हुआ। मदनरेखा ने उसके नवजात पुत्र के  बारे मे पुछा , तब विद्याधर ने उसे आश्वस्त किया कि उस पुत्र को मिथिला नरेश ले गए है और अपने पुत्र की तरह उसे स्वीकार किया है।

विद्याधर ने मदनरेखा को मुक्त किया। इन सब प्रपंचलीला से गुजर कर मदनरेखा विरक्त हो चुकी थी। साध्वीसमुदाय में आकर उसने संयम ग्रहण किया।

और मोक्षमार्ग की उत्कृष्ट साधना करने लगी। 

समय बीतता गया। इधर उसके दोनो पुत्र बड़े हुए। चन्द्रयश मणिरथ के काल बाद सुदर्शनपुर का राजा बना। छोटा राजकुमार जिसका नाम नमीकुमार रखा गया था वह मिथिला का सम्राट बन गया। 

एक बार चन्द्रयश राजा का एक उत्तम श्वेत हस्ति मदमस्त होकर मिथिला की सीमा में घुस आया। नमिराजा ने उसे पकड़वाकर उत्तम हस्ति रत्न जानकर अपने पास रख  लिया ।

चन्द्रयश ने वह हाथी वापिस मांगा। नमिराजा ने इनकार कर दिया। दोनो भाई अपने संबन्ध से अनजान एक हाथी के लिए युद्ध करने को तैयार हो गये।

दोनो सेनाएं आमनेसामने आ गई।

यह समाचार साध्वी मदनरेखा को मिले। दोनो सगे भाई में युद्ध का अनर्थ!?? गुरुणी की आज्ञा लेकर महासतीजी  रण मैदान में आये। दोनो राजाओको परिचय दिया। उनदोनो का परस्पर संबन्ध बताया तब दोनो को सुखद आश्चर्य हुआ। युद्ध छोड़ दोनो भाई गले  मिल गये। 

आर्या मदनरेखा जी ने दोनो भाई का मिलन करवाकर वापिस साध्विसंघ में आ गए। अपनी आराधना से उन्होंने आठो कर्मो का चूरा कर सिद्ध गति को प्राप्त किया।


इधर चन्द्रयश ने भी विरक्त होकर अपना राज्य नमिराजा को दे दिया और स्वयं दीक्षा अंगीकार की। कुछ समय बाद नमिराजा को हुए शिरोवेदना में एक कंगन के निमित्त से वैराग्य पाकर संयम लिया । (यह कथानक हम प्रत्येक बुद्ध की गाथा में पढ़ चुके है। ये वही नमिराजा है जो प्रत्येक बुद्ध हुए । )


महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।



संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।

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#बड़ीसाधुवंदना - 112


पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।

इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।


#द्रौपदीजी : - 


एक बहुप्रसिद्ध पात्र।

जिसके पूर्व भव का वर्णन हम गाथा 51 में तथा उनके संयम ग्रहण की घटना गाथा 49 के विवेचन में पढ़ चुके है। यह सती रत्न का  जीवनचरित्र इतनी सारी महान उपलब्धियों , इतनी विपत्तियों में रही वीरता के प्रसंगों से भरा हुआ है कि उनसे एक  विशाल किताब तैयार हो सके।


हम संक्षिप्त में देखते है।

 धर्मरूचि अनगार को कड़वा तुंबा व्होराकर उनकी मृत्यु के बाद सब से तिरस्कृत होती हुई नागश्री वन में अत्यंत वेदना के बाद काल कर नरक,तिर्यंच आदि कई भव करने के बाद सुकुमालिका बनी। उस भव में दीक्षा लेने के बाद एक दिन भोग विलास वाला दृश्य देखकर उसी तरह के भोग की कामना कर बैठी और निदान कर लिया जिसका प्रायश्चित भी नहीं किया तब आगामी भव में उसे पांच पति प्राप्त हुए । सुकुमालिका साध्वी से काल कर देव बनी वँहा से आयुष्य पूरा कर कंपिलपुर नरेश द्रुपद राजा की पुत्री बनी द्रौपदी। धर्मानुरागी , सुंदर  सुशील द्रौपदी विवाह योग्य हुई। तब एक स्वयंवर में भवितव्यता अनुसार वह पांच पांडवो की पत्नी बनी।

हस्तिनापुर की रानी बनने के बाद दुर्योधन के कई षड़यंत्रो से त्रस्त पांडवों के साथ वह भी कर्म के फल को समभाव से सहती रही। दुर्योधन की नीचता की पराकाष्ठा थी, एक षड्यंत्र में उसने पांडवों को जुए के लिए आमंत्रित कर उन्हें छल से हराया। 

युधिष्ठिर आदि भाइयों को भी जुए में जीतकर दुर्योधन ने दांव पर द्रोपदी को लगवाकर उसे भी जीत लिया। अधमता की सभी सीमाएं त्यागकर द्रौपदी को सभा मे घसीटकर लाया गया। उसके वस्त्र निकालने की घृणित चेष्टा की। द्रोपदी ने तब धर्म का शरण लिया। ढ़ेरों वस्त्र निकल जाने पर भी धर्म के पुण्य प्रभाव से द्रौपदी से वस्त्र लिपटा ही रहा। इतना  घृणित कार्य इतिहास में न कभी हुआ न होगा। जिसे सुनकर ही हृदय व्यथा से भर जाता है।


इस घटना के बाद जुए में सर्वस्व हारे पांडवों को वनवास मिला। द्रोपदी ने इतना सब कुछ सहते हुए भी पिता के घर जाने की बजाय अपना पत्नीधर्म निभाते हुए वह हरदम पांडवों के साथ रही। एक राजकुमारी, एक साम्राज्ञी वन वन भटकी। वन में भी दुर्योधन की ईर्ष्या उन्हें जलाती रही। कुछ न कुछ तकलीफें दुर्योधन देता रहा।  वन में कई बार अपने सतिधर्म का प्रभाव बताती द्रौपदी संकटो से लड़ती, बचती व परिवार को बचाती रही। इस परिवार ने इतने संकटो में भी धर्म की शरण नही छोड़ी।  

वनवास के बाद शर्त अनुसार अज्ञातवास में वे विराट नगर में गुप्त रूप से रहे। वहां कीचक ने सैरंध्री बनी द्रौपदी पर कामी दृष्टि डाली। तब भीम ने उसका वध किया। 

ऐसे विपत्तियों से जूझते हुए समय निकला। 

महाभारत के संग्राम में विजय वरमाला पहनने के पश्चात एक मान्यतानुसार  दुष्ट अश्वत्थामा ने द्रौपदी के  पांच-पांच पुत्रो की सोते हुए नींद में हत्या कर दी। जब पांडव व कृष्ण वासुदेव द्वारा अश्वत्थामा पकड़ा गया तब महासती द्रौपदी ने अदभुत वीरता बताते हुए उसे माफ कर दिया।

अभी युद्ध विजय के पश्चात भी द्रौपदी की मुश्किलें खत्म नही हुई थी।

एकबार नारद को अन्यमती मानकर द्रोपदी ने उनका स्वागत नही किया तब नारद ने कपटलीला कर के घातकीखण्ड के पदम् राजा से द्रोपदी का अपहरण करवाया। श्रीकृष्ण की सहायता से पांडव द्रोपदी जी को वापिस लाये। उस घटना में  पांडवों ने श्रीकृष्ण की थोड़ी मस्करी की तब कृष्ण ने उन्हें नगरी से निकाल दिया।

फिर पांडवों ने पांडव मथुरा बसाई और वहां राज्य करने लगे।


जराकुमार के द्वारा कृष्ण की मृत्यु के समाचार सुनकर पांचों पांडव व द्रोपदी ने संयम स्वीकार किया। उत्कृष्ट आराधना कर अंत मे पांचों पांडव मोक्ष व द्रौपदी देवलोक गये।  अगले भव में महाविदेह से वे भी सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।


महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।


संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।

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