वीरप्रभु की साधना
वीरप्रभु की साधना 1
जिन चरणों में मन रमने दो,
समता में रूचि अब जमने दो
प्रभु चरणों में दुःख लेश नहीं,
गति चंचलता भव क्लेश नहीं,
अब इधर उधर मत भमने दो
जिन चरणों में मन रमने दो,
सुखके बलके वे सागर है,
जीवनके वे रत्नाकर है,
अब ज्ञान झड़ी मत थमने दो
जिन चरणों में मन रमने दो l
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तीर्थंकर भगवान की स्तुति आत्मा को इहलोक परलोक में परम शांति प्रदान करती है l उनके गुणों की स्तवना से शुभभावो मे वृद्धि होती है l तीर्थंकर भगवान के गुणों को स्मरण कर नमन कर अभिवंदन करने से उन गुणों को हम अपनी ओर आकर्षित करते है l अपने अंदर उन गुणों की स्थापना करने का प्रयास करते है l परम शाश्वत सिद्ध सुख पाने का यह भक्ति मार्ग l जिनेश्वर प्रभु के गुणों का गान करना यह विश्व के परम उत्कृष्ट पद तीर्थंकर बनने की योग्यता प्राप्त करने का मार्ग है l भक्ति मे भाव की चरमसिमा प्राप्त कर तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर सकते है l (कहते है अष्टापद तीर्थं पर जिनेश्वर भक्ति करते हुए रावण को उत्कृष्ट भाव आने पर उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया था l)
उत्कृष्टता की अपेक्षा तीर्थंकर भगवान अनंत गुणों के स्वामी होते है l अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत बलवीर्य आदि अनंत गुणों के धनी तीर्थंकर भगवान के पुरे गुणों का वर्णन कर पाना असंभव कार्य l फिर भी जैसे एक नन्हा बालक अपने हाथ फैलाकर अनंत आसमान की विशालता बतलाता है वैसे ही भक्ति वश प्रभु के गुणों का वर्णन करना ह्रदय को प्रफुल्लित कर देता है l
जीव के गुणों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति उसके कठिन समय मे होती है l उपसर्गो मे होती है l प्रभु के समभाव, धीरज, अडोलता, निर्भीकता, आत्मिक व शारीरिक बल, आदि गुणों का परिचय देव दानव मनुष्य तिर्यच आदि द्वारा होते उपसर्गो में होता है l
एक तीर्थंकर की स्तुति करना अर्थात सभी हो चुके अरिहंतो का गुणानुवाद करना l
वैसे शासन नायक महावीर स्वामी के करीब साढ़े बारह वर्षो के साधना काल में अनेको उपसर्ग आये l कहते है वर्तमान चौबीसी में सबसे अधिक उपसर्ग विरप्रभु के छद्मस्थकाल में आये l फिर भी प्रभु ने अपनी उत्कृष्ट साधना से साढ़े बारह वर्षो में अनेक भवो के संचित सभी कर्मो का नाश कर दिया l
क्या थे वे कर्म?
प्रभु को उनका कैसा कैसा फल मिला,
प्रभु को कब कौन से उपसर्ग आये?
प्रभु ने कैसी भावना से कैसे उन्हें सहन किया?
उपसर्ग देनेवालों के प्रति भी उनकी कैसी भावना रही?
यह सब हम यदि जाने तो प्रभु की धीरज के आगे हमारा मस्तक श्रद्धा से और झुक जायेगा l
आचारांग आदि सूत्रों में साधना काल का विस्तृत वर्णन है l जो की सरल शब्दों में "जैन धर्म के मौलिक इतिहास" नामक ग्रन्थ में वर्णित किया गया है l
कल से हम उन्हीं उपसर्गो की परंपरा के विषय में जानेंगे l
प्रभु भक्ति, प्रभु गुणगान का यथासंभव प्रयास करेंगे l
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वीरप्रभु की साधना 2
कल्याणक :- यानी लोक के भव्य जीवो के कल्याणहेतु, स्व पर कल्याण के महान कर्ता ऐसे तीर्थंकर प्रभु के चरम भव के मुख्य अवसर l च्यवन, जन्म, संसार त्याग कर साधना के मार्ग में कदम रखने का प्रारंभ भागवती दीक्षा, समस्त जीवो को बोध देकर तारने वाले, प्रभु को जीवो को शाश्वत सुख का मार्ग दिखाने के लिए आवश्यक ऐसे केवलज्ञान की प्राप्ति और अंतिम मनुष्य भव में अंतिम ओदारिक देह त्यागकर सिद्ध सुख की तरफ ले जानेवाला निर्वाण l यह पांच अवसर जगत के जीवो के लिए उत्कृष्ट कल्याणकारी होने से इन्हें कल्याणक कहा गया है l
प्रभु त्याग की ओर
माता-पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर महावीर की गर्भकालीन प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। ज़ब प्रभु माता के गर्भ में थे, तब उन्होंने प्रतिज्ञा ली थी कि मातापिता का मुझ पर अत्यंत स्नेह है l मेरे वियोग से उन्हें दुःख नहीं पहुंचाना है, तो ज़ब तक वे जीवित रहेंगे मैं संयम ग्रहण नहीं करूंगा l
गर्भ में प्रतिज्ञा : हाँ, तीर्थंकर भगवन्त पूर्वभव से ज्ञान लेकर आते है l उन्हें गर्भ अवस्था में रहते हुए भी यह पता होता है कि मैं भविष्य में दीक्षा ग्रहण करूंगा l केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर बनूंगा l मातापिता को पुत्र वियोग का दुःख न सहना पड़े इस लिए उन्होंने यह प्रतिज्ञा ली l
ज़ब वे 28 वर्ष के हुए मातापिता स्वर्गवासी हुए l प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन आदि स्वजनों के सम्मुख प्रव्रज्या की भावना व्यक्त की।
भाई नंदिवर्धन तो उनके राज्याभिषेक की तैयारी करना चाहते थे l ऐसे में लघु भ्राता वर्धमान का दीक्षा की आज्ञा मांगना उन्हें हताश कर गया l
उन्होंने वर्धमान को समझाया परन्तु वर्धमान तो विरक्त थे l दीक्षा के लिए दृढ थे l उन्होंने भाई को विविध वचनों से समझाया l भाई के वियोग की कल्पना से
नन्दिवर्धन बहुत दुःखी हुए और बोले -" भाई! अभी माता-पिता के वियोगजन्य दुःख को तो हम भूल ही नहीं पाये कि इसी बीच तुम भी प्रव्रज्या की बात कहते हो। यह तो घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। अतः दो वर्ष के लिए ठहरो, फिर प्रव्रज्या लेना। तब तक हम इस शौक से थोड़े मुक्त हो जायें।"
भगवान ने अवधिज्ञान से देखा कि उन सब का इतना प्रबल स्नेह है, कि इस समय उनके प्रवजित होने पर वे सब भ्रान्तचित हो जायेंगे और कई तो प्राण भी छोड़ देंगे। फिर कर्मोदय भी गृहस्थकाल बता रहा था l फिर महावीर ने उन सब की बात मान ली और बोले-"इस अवधि में मैं आहारादि अपनी इच्छानुसार करूंगा।" स्वजनों ने भी सहर्ष यह बात स्वीकार की।
दो वर्ष से कुछ अधिक काल तक महावीर विरक्त भाव से घर में रहे, पर उन्होंने सचित्त जल और रात्रि भोजन का उपयोग नहीं किया। ब्रह्मचर्य का भी पालन किया। एक ग्रन्थ कार के उल्लेखानुसार महावीर ने इस अवधि में प्राणातिपात की तरह असत्य, कुशील और अदत्त आदि के भी परित्याग कर रखे थे। (तीर्थंकर भगवान अंतिम भव में श्रावक के व्रत प्रत्याख्यान ग्रहण नहीं करते परन्तु स्वतः ही कुछ सावध्य क्रिया त्याग रहे ऐसे जीवन जी रहे थे l ) वे पाद प्रक्षालन आदि क्रियाएँ भी अचित्त जल से ही करते थे। भूमिशयन करते एवं क्रोधादि से रहित हो एकत्व भाव में लीन रहते। इस प्रकार एक वर्ष तक वैराग्य की साधना कर प्रभु ने वर्षीदान प्रारम्भ किया। प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राओं का दान करते हुए उन्होंने वर्ष भर में तीन अरब अठ्यासी करोड़ एवं अस्सी लाख स्वर्णमुद्राओं का दान किया।
तीस वर्ष की आयु होने पर ज्ञात पुत्र महावीर की भावना सफल होने का समय आया । उस समय लोकान्तिक देव अपनी नियत मर्यादा के अनुसार आये और महावीर को निम्न प्रकार से निवेदन करने लगे-" भगवन्! मुनि दीक्षा ग्रहण कर समस्त जीवों के हितार्थ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिये।"
भगवान महावीर ने भी अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन और चाचा सुपार्श्व आदि की अनुमति प्राप्त कर दीक्षा की तैयारी की।
आगे के भाव कल
आज का सवाल :- कल्याणक कितने होते है?
सन्दर्भ :- जैन धर्म का मौलिक इतिहास -1 व तीर्थंकर चरित्र -3
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो त्रिवीधे मिच्छमी दुक्कडम
पिक प्रतीकात्मक है l
वीरप्रभु की साधना 3
दीक्षा की तैयारी
परमात्मा की दीक्षा का अदभुत अवसर, जगत के कल्याण हेतु प्रभु का प्रथम स्वयं साधना के मार्ग पर चलना, उत्कृष्ट आराधना करना, मोक्षमार्ग पर आनेवाले उपसर्गो को समभाव से सहना, पांचो इन्द्रियों तथा मन का निग्रह कर पूर्व संचित कर्मो को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर धर्म की स्थापना करना, 4 तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर पद प्राप्त करना, भव्य जीवो को मोक्षमार्ग का ज्ञान देना, आदि स्व पर कल्याण के हेतु है l इन सभी के लिए प्रभु साधना के मार्ग पर प्रथम खुद चलते है l उस मार्ग पर प्रथम कदम यानी दीक्षा l
संयम ग्रहण यानी आजीवन पाप कर्म, सावध्य क्रिया का त्याग, सभी भोग विलास एवं परिग्रह त्यागकर 4/5 महाव्रतो की उत्कृष्ट आराधना करना, छहो काय के जीवो को अभयदान देना l
किसी भी सामान्य जीव की दीक्षा से छहो काय के समस्त जीव को प्रसन्नता होती है l क्युकी दीक्षा ग्रहण करने वाले की ओर से उनको अभयदान मिलता है l तो प्रभु की दीक्षा तो कितनी मंगलकारी होंगी l क्यों की वे अभयदान उपरांत समस्त लोक के जीवो को केवलज्ञान से प्रकाशित जिनवाणी का दान देते है l शाश्वत सुख मोक्ष की समझ तथा उस राह पर चलने का मार्गदर्शन करते है l
प्रभु की दीक्षा देवो को भी आनंददायिनी लगती है l इन्द्र भी स्वर्ग से आकर प्रभु की दीक्षा का महोत्सव मनाते है l
विरप्रभु की दीक्षा के समाचार चहु ओर फ़ैल गये l
आचारांग सूत्र के अनुसार श्रमण भगवान महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जान कर चार प्रकार के देव और देवियों के समूह अपने-अपने विमानों से सम्पूर्ण ऋद्धि और कान्ति के साथ आये और उत्तर क्षत्रियकुण्ड सन्निवेश में उतरे। वहाँ उन्होंने वैक्रिय शक्ति से परम सुंदर एवं मनोरम्य व दर्शनीय देवच्छन्दक की रचना की। देवच्छन्दक यानी एक भव्य मंडप जिसके मध्य मे सिंहासन रूप पिठिका बनाई हुई हो l
सबने मिल कर महावीर को सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठाया। उन्होंने शतपाक एवं सहस्रपाक तेल से महावीर का अभ्यंगन किया और स्वच्छ जल से स्नान कराया। गन्धकाषाय (लाल रंग का सुगन्धित वस्त्र ) वस्त्र से शरीर पोंछा और गौशीर्ष चन्दन का लेपन किया। भार में हल्के और मूल्यवान वस्त्र एवं आभूषण पहनाये। कल्पवृक्ष की तरह अलंकृत कर देवों ने भगवान वर्धमान को "चन्द्रप्रभा" नामक शिविका में आरूढ़ किया l मनुष्यों, इन्द्रों और देवों ने मिलकर शिविका को उठाया।
राजा नंदिवर्धन गजारूढ़ हो चतुरंगिणी सेना के साथ भगवान् महावीर के पीछे-पीछे चल रहे थे। प्रभु की पालकी के आगे घोड़े, दोनों ओर हाथी और पीछे रथ चल रहे थे।
प्रभु की महाभिनिष्क्रिमण यात्रा की भव्यता कितनी भव्य होंगी l जिसमे स्वयं देव देवी गण, मनुष्य तिर्यच आदि हर्ष के साथ संमिलित हुए होंगे l
जिनकी पालकी उठाने स्वयं इन्द्र आये हो l जिनकी जयकार देवगण बोल रहे हो l त्याग मार्ग की अदभुत प्रशस्तता l संसार का श्रेष्ठ वैभव, राजसी सुख, वात्सल्य मयी परिवार छोड़कर वर्धमान संयम के कठोर जीवन को अपनाने जा रहे थे, वैभवी जीवन भौतिक सुख, सर्वस्व त्यागकर स्वयं साधना को अपना रहे थे l त्यागमार्ग की कैसी महिमा l यह दीक्षा हमें यही सन्देश देती है की वास्तविक सुख भोग मे नहीं त्याग मे है l
इस प्रकार विशाल जनसमूह से घिरे प्रभु क्षत्रियकुण्ड ग्राम के मध्यभाग में होते हुए ज्ञातृ खण्ड उद्यान में आये और अशोक वृक्ष के नीचे प्रभु शिविका से उतरे l आभूषणों एवं वस्त्रों को हटा कर प्रभु ने अपने हाथ से पंच मुष्टिलोच किया। कल्पना कीजियेगा कि अब तलक जो सुकूमाल राजकुमार थे, जिनको अभी तक कोई कष्ट नहीं था उन्होंने स्वयं अपने हाथो से पांच बार मुट्ठी भरकर स्वयं के केश पकड़े होंगे और उन्हें खिंचकर सर से अलग कर दिया होगा, तब कितना शारीरिक दर्द हुआ होगा l अहो! त्यागमार्ग की यह कठिन शुरुआत l सिर्फ खिंचकर दर्द सहन करना लोच नहीं अपितु शरीर के शोभारूप बालो को हमेशा के लिए त्याग l इस ओदारिक शरीर को नश्वर समझकर सौन्दर्य की परवाह करने का त्याग l साधु जीवन की महिमा का यह कितना भी गुणगान करे हम फिर भी कम होगा l
वैश्रमण देव ने हंस के समान श्वेत वस्त्र में महावीर के वस्त्रालंकार ग्रहण किये। शक्रेन्द्र ने विनयपूर्वक वज्रमय थाल में प्रभु के लुंचित केश ग्रहण किये तथा तत्काल क्षीर सागर में उनका विसर्जन किया।
प्रफुल्लित हृदय व अश्रुपूरित नयन से सभी के वदन अहोभाव से छलक रहे थे l सबके प्रिय राजकुमार सब त्याग कर आज मुनि बन जायेंगे l
आगे के भाव कल
कल का जवाब :- कल्याणक पांच होते है l
आज का सवाल :- प्रभु की दीक्षा शिविका का क्या नाम था ?
सन्दर्भ :- जैन धर्म का मौलिक इतिहास -1 व तीर्थंकर चरित्र -3
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो त्रिवीधे मिच्छमी दुक्कडम
पिक प्रतीकात्मक है l
वीरप्रभु की साधना 4
प्रभु की दीक्षा एवं विहार
ज्ञातृखंड उद्यान में आज अनुपम अवसर था l
प्रभु ने सर्व आभूषण, देह पर से सर्व राजसी वस्त्र तक को हटा दिया l इन्द्र ने तभी प्रभु के शरीर पर देवदूष्य वस्त्र रखा l
उस समय हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, मृगशिर कृष्णा दशमी तिथि का समय, सुव्रत दिवस, विजय नामक मुहूर्त और चतुर्थ प्रहर में उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र था। ऐसे शुभ समय में निर्जल बेले की तपस्या से प्रभु ने दीक्षा ग्रहण की। शक्रेन्द्र के आदेश से दीक्षा प्रसंग पर बजने वाले वाद्य अब बन्द हो गये और सर्वत्र शान्ति छा गई।
प्रभु ने देव- मनुष्यों की विशाल परिषद् के समक्ष "सर्व सिद्धेभ्यो नमः " कहकर सिद्धों को नमस्कार किया l
उन्होंने यह प्रतिज्ञा की- "सव्वं मे अकरणिज्जं पावं कम्मं " अब से मेरे लिए सब पाप कर्म अकरणीय हैं, अर्थात् मैं आज से किसी भी प्रकार के पाप कार्य में प्रवृत्ति नहीं करूँगा।
यह कहते हुए प्रभु ने सामायिक चारित्र स्वीकार किया। उन्होंने प्रतिज्ञा की "करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि " l यानी आज से सम्पूर्ण सावद्यकर्म का तीन करण और तीन योग से त्याग करता हूँ।
जिस समय प्रभु ने यह प्रतिज्ञा ग्रहण की, उस समय देव-मनुष्यों की सम्पूर्ण परिषद् चित्रलिखित सी रह गई। सभी देव और मनुष्य शान्त एवं निर्निमेष नेत्रों से उस नयनाभिराम एवं अन्तस्तलस्पर्शी दृश्य को देख रहे थे। जो राग पर त्याग की विजय के रूप में उन सबके सामने प्रत्यक्ष था।
दीक्षा लेते ही तीर्थंकर भगवान को चौथा मनः पर्यव नामक ज्ञान उत्पन्न होता है l मनः पर्यव ज्ञान यानी ढाई द्वीप व दो समुद्र अंतर्गत रहे समस्त सन्नी पंचेंद्रीय पर्याप्त जीवो के मन के भाव जानना l वीर प्रभु भी ये जानने लगे l
प्रवज्या ग्रहण पश्चात प्रभु ने अभिग्रह धारण किया:-
'आज से साढ़े बारह वर्ष पर्यन्त जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो, तब तक मैं देह की ममता छोड़ कर रहूंगा, अर्थात् इस बीच में देव, मनुष्य या तिर्यञ्च जीवों की ओर से जो भी उपसर्ग, कष्ट उत्पन्न होंगे, उनको समभाव पूर्वक सम्यक् रूपेण सहन करूँगा।"
कितना अडिग मन था प्रभु का l आनेवाले सभी उपसर्गो के लिए स्वतः तैयार l वे जानते होंगे की कितने कठोर उपसर्ग आनेवाले है l फिर भी मन को न डिगाने की प्रतिज्ञा!!!
अभिग्रह ग्रहण के पश्चात् उन्होंने ज्ञात खण्ड उद्यान से विहार किया। उस समय वहाँ उपस्थित सारा जनसमूह उनको जाते हुए को तब तक देखता रहा, जब तक वे उनकी आँखों से ओझल नहीं हो गये। सबके मन अहोभाव, उनके प्रति स्नेह, त्याग को देखकर भावावेग से भर गये थे l
भगवान संध्या के समय मुहूर्त भर दिन शेष रहते कुर्मार ग्राम पहुँचे तथा वहाँ ध्यानावस्थित हो गये।
अब यहां क्या होगा, दीक्षा लेते ही प्रभु को उपसर्ग आना प्रारंभ कैसे हो जायेगा यह सब भाव कल
कल का जवाब :-प्रभु की दीक्षा शिविका का नाम चंद्रप्रभा था l
आज का सवाल :- प्रभु ने दीक्षा पूर्व किसे नमस्कार किया ?
सन्दर्भ :- जैन धर्म का मौलिक इतिहास -1 व तीर्थंकर चरित्र -3
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो त्रिवीधे मिच्छमी दुक्कडम
पिक प्रतीकात्मक है l
वीरप्रभु की साधना 5
प्रथम उपसर्ग और प्रथम पारणा
दीक्षा का प्रथम दिन
किसने सोचा होगा एक राजकुमार को एक ग्वाला प्रताड़ित करेगा?
एक मुनि, निर्ग्रन्थ जिसने राज्य वैभव तक त्याग दिया उस पर सिर्फ एक बैल की चोरी का संदेह कर एक ग्वाला उन्हें रस्सी से मारने जायेगा?
प्रभु क्षत्रिय कुंड से विहार कर कुमारग्राम के बाहर आकर
एक स्थान में अचल ध्यानस्थ खड़े थे, उस समय एक ग्वाला अपने बैलों सहित वहाँ आया। उसने महावीर स्वामी के पास बैलों को चरने के लिए छोड़ दिया और गाय दूहने के लिए स्वयं पास के गाँव में चला गया। पशु स्वभाव के अनुसार बैल चरते चरते वहाँ से बहुत दूर कहीं निकल गये। कुछ समय बाद जब ग्वाला लौट कर वहाँ आया, तो बैलों को वहाँ न देख कर उसने पास खड़े महावीर स्वामी से पूछा- "कहो, हमारे बैल कहाँ गये ?" ध्यानस्थ महावीर की ओर से कोई उत्तर नहीं मिलने पर वह स्वयं उन्हें ढूँढ़ने के लिए जंगल की ओर चला गया। संयोगवश सारी रात खोजने पर भी उसे बैल नहीं मिले।
कालान्तर में बैल यथेच्छ चर कर पुनः महावीर स्वामी के पास आकर बैठ गये। बैल नहीं मिलने पर उद्विग्न ग्वाला प्रातः काल वापिस महावीर स्वामी के पास आया और अपने बैलों को वहाँ बैठे देखकर आग बबूला हो उठा। उसने सोचा कि निश्चय ही इसने रात भर बैलों को कहीं छिपा रखा था। इस तरह महावीर स्वामी को चोर समझ कर वह उन्हें बैल बान्धने की रस्सी से मारने दौड़ा।
इन्द्र, जो भगवान की प्राथमिक चर्या को जानना चाहता था, उसने जब यह देखा कि ग्वाला भगवान पर प्रहार करने के लिए झपट रहा है, तो वह भगवान की रक्षार्थ निमेषार्ध में (तुरंत ) ही वहाँ आ पहुँचा। ग्वाले के उठे हुए हाथ दैवी प्रभाव से उठे के उठे ही रह गये। इन्द्र ने ग्वाले के सामने प्रकट होकर कहा-" ओ मूर्ख । तु क्या कर रहा है ? क्या तू नहीं जानता कि ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र वर्द्धमान महावीर हैं ? आत्मकल्याण के साथ जगत् का कल्याण करने हेतु दीक्षा धारण कर साधना में लीन हैं।"
इन्द्र के कोप से डरा हुआ ग्वाला वहाँ से चला गया l
इस घटना के बाद इन्द्र ने भगवान महावीर स्वामी से अपनी सेवा लेने की प्रार्थना करने लगा। परन्तु प्रभु ने कहा- " अर्हन्त कभी भी केवलज्ञान और सिद्धि प्राप्त करने में किसी की सहायता नहीं लेते। जिनेन्द्र अपने बल से ही केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।" फिर भी इन्द्र ने अपने संतोषार्थ मारणान्तिक उपसर्ग को टालने के लिए सिद्धार्थ नामक व्यन्तर देव को प्रभु की सेवा में नियुक्त किया और स्वयं भगवान को वन्दन कर चला गया।
दूसरे दिन भगवान वहाँ से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश में आये और वहाँ बहुल नाम के ब्राह्मण के घर घी और शक्कर से मिश्रित परमान्न (खीर) से उन्होंने छट्ट तप का पारणा किया।
'अहो दानम्, अहो दानम्' के दिव्यघोष के साथ देवगण ने नभोमण्डल से पंच दिव्यों की वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की।
कई आचार्यों की मान्यता है, व कुछ चुर्णी और टीका में वर्णन है कि साधना मार्ग में प्रविष्ट होकर जब भगवान महावीर स्वामी ने विहार किया तो मार्ग में एक वृद्ध ब्राह्मण मिला, जो वर्षीदान के समय नहीं पहुँच सका था। कुछ न कुछ मिलेगा, इस आशा से वह भगवान के पास पहुँचा। भगवान ने उसकी करुणाजनक स्थिति देखकर कंधे पर रखे हुए देवदूष्य वस्त्र में से आधा फाड़ कर उसको दे दिया। कल्पसूत्र मूल या अन्य किसी शास्त्र में वस्त्र फाड़कर देने का उल्लेख नहीं है। आचारांग और कल्पसूत्र में 13 मास के बाद देवदूष्य का गिरना लिखा है, पर ब्राह्मण को आधा देने का उल्लेख नहीं है।
आगे के भाव कल
कल का जवाब :-प्रभु ने दीक्षा पूर्व सर्व सिद्ध भगवन्तो को नमस्कार किया l
आज का सवाल :- प्रभु का प्रथम पारणा किस द्रव्य से हुआ ?
सन्दर्भ :- जैन धर्म का मौलिक इतिहास -1 व तीर्थंकर चरित्र -3
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो त्रिवीधे मिच्छमी दुक्कडम
पिक प्रतीकात्मक है l
वीरप्रभु की साधना 6
भगवान महावीर स्वामी की उग्र साधना
वीरप्रभु की साधनाकाल , वर्ष के अनुक्रम से वर्णन देखने से पहले हम भगवान की साधनाकाल की कुछ विशेषताएं देखते है l
साधना काल यानी छद्मस्थ काल यानी केवलज्ञान से पूर्व का समय l
कितना दुष्कर काल, कितने उपसर्ग, उसपर भी भगवान का कितना तप, अदभुत समभाव आदि का वर्णन हम देखे सुने तो अहोभाव से नतमस्तक हो जाये l
आचारांग सूत्र और कल्पसूत्र में महावीर स्वामी की साधना का बहुत विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा गया है कि दीक्षित होकर महावीर स्वामी ने अपने पास देवदूष्य वस्त्र के अतिरिक्त कुछ नहीं रखा।
उन्होंने सोचा भी नहीं कि यह वस्त्र शीतकाल में सर्दी से बचने के लिए ओढूंगा, या किसी समय किसी भी प्रकार से काम में लूंगा । वे तो परीषह को धैर्य एवं शान्तिपूर्वक सहन करने के लिए तत्पर रहते थे । इन्द्रप्रदत्त वस्त्र को उन्होंने पूर्व के तीर्थंकर द्वारा आचरित होने की वजह से ग्रहण किया था। इसका प्रमुख कारण तीर्थ साधु-साध्वियों में वस्त्र का सर्वथा निषेध न हो जाय और भव्य जीव प्रवज्या से वँचित न रह जाय. इसलिए मौनपूर्वक स्वीकार किया था। वह इन्द्रप्रदत्त वस्त्र भगवान् के स्कन्ध पर तेरह मास से अधिक रहा. इसके बाद उसका स्वतः त्याग हो गया। फिर प्रभु सर्वथा निर्वस्त्र विचरने लगे ।
दीक्षोत्सव के समय भगवान् के शरीर पर चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया था । सुगन्ध से आकर्षित हो कर, भ्रमर आ कर चार मास तक प्रभु को डसते रहे । युवकगण आ कर उनकी भगवान् से उन सुगन्धी द्रव्यों का परिचय एवं प्राप्त करने की विधि पूछने लगे और भगवान् के उत्कृष्ट रूप-यौवन पर मोहित हो कर युवतियाँ भोगयाचना कर अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग करने लगी । इस प्रकार प्रव्रज्या धारण करने के दिन से ही उपसर्गों होने शुरू हो गए ।
भगवान् ईया समिति युक्त पुरुष-प्रमाण मार्ग देखते हुए चलते । यानी मार्ग में पड़े जीव जंतु की यतना रखते थे l मार्ग में बालक आदि उन्हें देख कर डरते और लकड़ी- पथ्थर आदि से मारने लगते तथा रोते हुए भाग जाते ।
भगवान् तृण का तीक्ष्ण स्पर्श, शीत-उष्ण, डाँस-मच्छर के डंक आदि अनेक प्रकार के परिषह सहते हुए समभावपूर्वक विचरने लगे । कभी गृहस्थों के संसर्ग वाले स्थान में रहना होता, तब कामातुर स्त्रियां भोग की प्रार्थना करती, परन्तु भगवान् कामभोग को बन्धन का कारण जान कर ब्रह्मचर्य में दृढ रह कर ध्यानस्थ हो जाते ।
भगवान गृहस्थ से सम्पर्क नहीं रखते थे और ना वार्तालाप करते, अपितु ध्यानमग्न रहते । यदि गृहस्थ लोग वार्तालाप करना चाहते तो भगवान मौन रह कर चलते रहते l यदि कोई प्रशंसा करता तो प्रसन्न नहीं होते और कोई निन्दा करता, कठोर वचन बोलता या ताड़ना करता तो वे उस पर कोप नहीं करते । असहय परीषह उत्पन्न होने पर भी वे धीर-गंभीर रह कर शांतिपूर्वक करते* रहते। लोगों द्वारा मनाये जाने वाले उत्सवों, गीत-नृत्यों और राग-रंग के प्रति भगवान् रुचि नहीं रखते और न मल्ल युद्ध या विग्रह सम्बन्धी बातें सुनने देखने की इच्छा करते । यदि स्त्रियां मिल कर परस्पर कामकथा करती तो भगवान् वैसी मोहक कथाएँ सुनने में मन नहीं लगाते,
भगवान् आधाकर्मादि दोषों से दूषित आहारादि को कर्मबन्ध का कारण जान कर ग्रहण नहीं करतें , अपितु सभी दोषों से रहित शुद्ध आहार ही ग्रहण करते । भगवान् न तो पराये वस्त्र का सेवन करते और न पराये पात्र का ही सेवन करते । भगवान् ने पात्र तो ग्रहण किया ही नहीं और इन्द्र-प्रदत्त वस्त्र को भी ओढ़ने के काम में नहीं लिया। उस वस्त्र के गिर जाने के बाद वस्त्र भी ग्रहण नहीं किया। मान-अपमान की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान् गृहस्थों के रसोईघर में आहार की याचना करने के लिए जाते और सरस आहार की इच्छा नहीं रखते हुए जैसा शुद्ध आहार मिलता, ग्रहण कर लेते । यदि शरीर पर कहीं खाज चलती,तो वह खुजलाते भी नहीं थे।
भगवान् मार्ग में चलते हुए न तो इधर-उधर (अगल-बगल) और पीछे देखते और न किसी के बोलने पर बोलते । वे सीधे ईर्यापथ शोधते हुए चलते रहते। यदि शीत का प्रकोप बढ़ जाता तो भी भगवान् निर्वस्त्र रह कर सहन करते, यहाँ तक कि अपनी भुजाओं को संकोच कर बाहों में अपने शरीर को जकड़ कर सर्दी से कुछ बचाव करने की चेष्टा भी नहीं करते ।
भगवान् विहार करते हुए जिन स्थानों पर निवास करते, ये स्थान ये थे :- निर्जन झोपड़ियों में, पानी पिलाने की प्याऊ में, सूने घर में, हाट (दुकान) के बरामदे में, लोहार, कुंभकार आदि की शालाओं में, बुनकरशाला में, घास की गंजियों में, बगीचे के घर में, ग्राम-नगर में, श्मशान में और वृक्ष के नीचे प्रमाद-रहित ध्यान में मग्न हो जाते ।
निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या धारण करने के बाद भगवान् ने
(छदमस्थता की अन्तिम रात्रि के पूर्व)
कभी निद्रा नहीं ली । वे सदैव जाग्रत ही रहते ।
भगवान् जन-शून्यादि स्थानों में रहते, तो अनेक प्रकार के मनुष्यों, सर्प-बिच्छु आदि पशुओं और गिद्धादि पक्षियों से विविध प्रकार के उपसर्ग होते शून्य घर में प्रभु ध्यानस्थ रहते, वहाँ चर पुरुष अपनी कामलीला में विघ्न जानकर प्रभु को दुःख देते l
आगे के भाव कल
कल का जवाब : प्रभु का प्रथम पारणा खीर (परमान्न ) से हुआ
आज का सवाल :- इन्द्र का दिया दिव्य वस्त्र प्रभु के शरीर पर कितने समय तक रहा ?
सन्दर्भ :- जैन धर्म का मौलिक इतिहास -1 व तीर्थंकर चरित्र -3
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो त्रिवीधे मिच्छमी दुक्कडम
पिक प्रतीकात्मक है l
वीरप्रभु की साधना 7
हम प्रभु की साढ़े बारह वर्ष तक की गईं उत्कट साधना का पढ़ रहे है l
किस तरह प्रभु ने कई भवो से संचित कर्म को इन वर्षो मे क्षय किया l परिषहो को सामने से आमंत्रित कर दुष्कर कष्ट सहते थे विभु l
कभी ग्राम-रक्षक भगवान् को चोर, ठग या भेदिया मान कर मार-पीट करते ।
भगवान् को इस लोक के मनुष्य व तिर्यच से और परलोक के देव-सम्बँधी भयंकर एवं असह्य उपसर्ग होते, जिन्हें वे समभावपूर्वक सहन करते ।
भगवान ज्यादातर मौन रहते यदि बोलने की आवश्यकता होती तो बहुत कम बोलते ।
निर्जन स्थान में जाते देख कर लोग पूछते कि "तू कौन है ?" तो भगवान् इतना ही कहते कि “मैं भिक्षुक हूँ।” कभी किसी को वे उत्तर नहीं भी देते, तो लोग चिढ़ कर उन्हें पीटने लगते,
यदि कोई भगवान् को कहता कि "तू यहाँ से चला जा," तो वे तत्काल चले जाते ।
जब शिशिर ऋतु में शीतल वायु वेगपूर्वक बहता और लोग ठिठुरने लगते, पसलियों में शीत- लहरें शूल के समान लगती, तब अन्य साधु तो वायु-रहित स्थान खोज कर उसमें रहते और वस्त्रों-कम्बलों और अन्य साधनों से अपना बचाव करते, तापस लोग आग जला कर शीत से बचते, परन्तु ऐसी असह्य शीत में भी महा-संयमी भगवान् खुले स्थान में रह कर शीत का असह्य परीषह सहन करते। यदि कभी किसी वृक्षादि के नीचे रहते हुए भी शीत का परीषह असह्य हो जाता, तो उससे बचने का उपाय नहीं कर के भगवान् उस स्थान से बाहर निकल कर विशेष रूप से शीत परीषह को सहन करने लगते और मुहूर्त मात्र रह कर पुनः वहीं आ कर ध्यानस्थ हो जाते। इस प्रकार भगवान् ने बारंबार परीषह सहन करते हुए संयमविधि का परिपालन किया ।
उष्णकाल में धूप में रह कर आतापना लेते ।
भगवान् पर आर्यभूमि में रहे हुए अनार्य लोगों द्वारा जो उपसर्ग उत्पन्न हुए, उन यातनाओं को सहन करने से जो निर्जरा हो रही थी, वह भगवान् को अपर्याप्त लगी । उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि मेरे कर्म अति निविड़ हैं । इनकी निर्जरा इस प्रदेश में रहते हुए नहीं हो सकती । इसके लिए लाट- देश की वज्रभूमि और शुभ्रभूमि का क्षेत्र अनुकूल है ।
वह क्षेत्र अनार्य कहलाता था जंहा धर्म, दया, करुणा, मानवता आदि शब्दों को कोई जानता तक नहीं था l
वहाँ के लोग अत्यन्त क्रोधी, क्षुद्र, क्रूर एवं अधम-मनोवृत्ति के हैं । उनके खेल तथा मनोरंजन के साधन भी हिंसक, निर्दय और घोर पापपूर्ण होते है।
भगवान् फिर अनार्य क्षेत्र पधारे । लोग उन्हें देख कर क्रोध में भभक उठते, मारते-पीटते और शिकारी कुत्तों को छोड़ कर कटवाते । वे भयंकर कुत्ते भगवान् के पाँवों में दाँत गढ़ा देते, मांस तोड़ लेते और असह्य पीड़ा उत्पन्न करते । उस प्रदेश में ऐसे मनुष्य बहुत कम थे, जो स्वयं उपद्रव नहीं करते. और कोई करता तो रोकते तथा उन कुत्तों का निवारण करते ।
उस भूमि में विचरने वाले अन्य शाक्य आदि साधु
क्रूर कुत्तों से बचने के लिए लाठियें रखते थे, फिर भी कुत्ते उनका पीछा करते और काट भी खाते ।
ऐसी भयावनी स्थिति में भी भगवान् अपने शरीर से निरपेक्ष रह कर विचरते रहते। उनके पास लाठी आदि बचाव का कोई साधन था ही नहीं। वे हाथ से डरा कर या दुत्कार कर अथवा शीघ्र चल कर या कहीं छुप कर भी अपना बचाव नहीं करते थे । जिस प्रकार अनुकूल प्रदेश में स्वाभाविक चाल और शांतचित्त रह कर विचरते, उसी प्रकार इस प्रतिकूल प्रदेश में हो रहे असह्य कष्टों में भी उसी द्रढ़ता, शांति एवं धीर-गम्भीरतापूर्वक विचरते रहे । ऐसे प्रदेश में उन्हें भिक्षा मिलना भी अत्यन्त कठिन । लम्बी एवं घोर तपस्या के पारणे में कभी कुछ मिल जाता, तो वह रूक्ष, अरुचिकर एवं तुच्छ होता। परन्तु भगवान् महावीर तो संग्राम में अग्रभाग पर रह कर आगे बढ़ते रहने वाले बलवान् गजराज के समान थे। भयंकर उपसर्गों की उपेक्षा करते हुए अपनी साधना में आगे ही बढ़ते रहते । इसीलिए ही वे इस प्रदेश में पधारे थे।
भगवान् को मार्ग चलते कभी दिनभर कोई ग्राम नहीं मिलता और संध्या के समय किसी गाँव के निकट पहुँचते, तो वहाँ के लोक भगवान् का तिरस्कार करते हुए वहाँ से चले जाने का कहते, तो भगवान् वन में ही रह जाते ।
भगवान् पर प्रहार होते, उससे घाव हो जाते और असह्य पीड़ा होती, फिर भी भगवान् किसी भी प्रकार का उपचार नहीं करवाते, न कभी वमन विरेचन, अभ्यंगन, सम्बाधन स्नान और दत्तुन ही करते। इन्द्रियों के विषयों से तो वे सर्वथा विरत ही रहते थे ।
तपस्या के पारणे में आठ महीने तक भगवान् ने रूखा भात, बोर का चूर्ण और उड़द के बाकले ही लिये और वे भी ठंडे । भगवान् की तपस्या इतनी उग्र होती थी कि पन्द्रह-पन्द्रह दिन महीने, दो-दो महीने और छह-छह महीने तक पानी भी नहीं पीते थे । भगवान् स्वयं पाप नहीं करते थे, न दूसरों से करवाते थे और न पाप का अनुमोदन ही करते थे 1
भगवान् भिक्षा के लिए जाते तो दूसरों के लिये बनाये हुए आहार में से ही अपने अभिग्रह के अनुसार निर्दोष आहार लेते और मन वचन और काया के योगों को संयत कर के खाते थे । भिक्षार्थ जाते मार्ग में कौआ, कबूतर, तोता आदि भूखे पक्षी दाने चुगते हुए दिखाई देते, अथवा कोई श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षुक, अतिथि, चांडाल, कुत्ता, बिल्ली आदि को भिक्षा पाने की इच्छा से खड़े देखते, तो उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं हो, अन्तराय नहीं किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो और किसी सूक्ष्म जीव की भी बाधा नहीं हो, इस प्रकार भगवान् धीरे से निकल जाते या अन्यत्र चले जाते ।
सूखा हो या गीला, भीगा हुआ, ठंडा, पुराने धान्य का (निस्सार) जौ आदि का पकाया निरस आहार, जैसा भी हो भगवान् शान्तभाव से कर लेते। यदि कुछ भी नहीं मिलता तो भी शांति पूर्वक उत्कट गोदोहासनादि से स्थिर हो कर ध्यानस्थ हो कर, ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् लोक के स्वरूप का चिन्तन करते । भगवान् कषाय-रहित, आसक्ति रहित और शब्द-रूपादि विषयों में प्रीति नहीं रखते हुए सदैव शुभ ध्यान में लीन रहते थे । संयम में लीन रहते हुए भगवान् निदान नहीं करते ।
आगे के भाव कल
कल का जवाब : इन्द्र का दिया वस्त्र प्रभु के शरीर पर 13 माह उपरांत तक रहा l
आज का सवाल :- कभी ............. भगवान् को चोर, ठग या भेदिया मान कर मार-पीट करते ?
सन्दर्भ :- जैन धर्म का मौलिक इतिहास -1 व तीर्थंकर चरित्र -3
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो त्रिवीधे मिच्छमी दुक्कडम
पिक प्रतीकात्मक है l
वीरप्रभु की साधना 7
हम प्रभु की साढ़े बारह वर्ष तक की गईं उत्कट साधना का पढ़ रहे है l
किस तरह प्रभु ने कई भवो से संचित कर्म को इन वर्षो मे क्षय किया l परिषहो को सामने से आमंत्रित कर दुष्कर कष्ट सहते थे विभु l
कभी ग्राम-रक्षक भगवान् को चोर, ठग या भेदिया मान कर मार-पीट करते ।
भगवान् को इस लोक के मनुष्य व तिर्यच से और परलोक के देव-सम्बँधी भयंकर एवं असह्य उपसर्ग होते, जिन्हें वे समभावपूर्वक सहन करते ।
भगवान ज्यादातर मौन रहते यदि बोलने की आवश्यकता होती तो बहुत कम बोलते ।
निर्जन स्थान में जाते देख कर लोग पूछते कि "तू कौन है ?" तो भगवान् इतना ही कहते कि “मैं भिक्षुक हूँ।” कभी किसी को वे उत्तर नहीं भी देते, तो लोग चिढ़ कर उन्हें पीटने लगते,
यदि कोई भगवान् को कहता कि "तू यहाँ से चला जा," तो वे तत्काल चले जाते ।
जब शिशिर ऋतु में शीतल वायु वेगपूर्वक बहता और लोग ठिठुरने लगते, पसलियों में शीत- लहरें शूल के समान लगती, तब अन्य साधु तो वायु-रहित स्थान खोज कर उसमें रहते और वस्त्रों-कम्बलों और अन्य साधनों से अपना बचाव करते, तापस लोग आग जला कर शीत से बचते, परन्तु ऐसी असह्य शीत में भी महा-संयमी भगवान् खुले स्थान में रह कर शीत का असह्य परीषह सहन करते। यदि कभी किसी वृक्षादि के नीचे रहते हुए भी शीत का परीषह असह्य हो जाता, तो उससे बचने का उपाय नहीं कर के भगवान् उस स्थान से बाहर निकल कर विशेष रूप से शीत परीषह को सहन करने लगते और मुहूर्त मात्र रह कर पुनः वहीं आ कर ध्यानस्थ हो जाते। इस प्रकार भगवान् ने बारंबार परीषह सहन करते हुए संयमविधि का परिपालन किया ।
उष्णकाल में धूप में रह कर आतापना लेते ।
भगवान् पर आर्यभूमि में रहे हुए अनार्य लोगों द्वारा जो उपसर्ग उत्पन्न हुए, उन यातनाओं को सहन करने से जो निर्जरा हो रही थी, वह भगवान् को अपर्याप्त लगी । उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि मेरे कर्म अति निविड़ हैं । इनकी निर्जरा इस प्रदेश में रहते हुए नहीं हो सकती । इसके लिए लाट- देश की वज्रभूमि और शुभ्रभूमि का क्षेत्र अनुकूल है ।
वह क्षेत्र अनार्य कहलाता था जंहा धर्म, दया, करुणा, मानवता आदि शब्दों को कोई जानता तक नहीं था l
वहाँ के लोग अत्यन्त क्रोधी, क्षुद्र, क्रूर एवं अधम-मनोवृत्ति के हैं । उनके खेल तथा मनोरंजन के साधन भी हिंसक, निर्दय और घोर पापपूर्ण होते है।
भगवान् फिर अनार्य क्षेत्र पधारे । लोग उन्हें देख कर क्रोध में भभक उठते, मारते-पीटते और शिकारी कुत्तों को छोड़ कर कटवाते । वे भयंकर कुत्ते भगवान् के पाँवों में दाँत गढ़ा देते, मांस तोड़ लेते और असह्य पीड़ा उत्पन्न करते । उस प्रदेश में ऐसे मनुष्य बहुत कम थे, जो स्वयं उपद्रव नहीं करते. और कोई करता तो रोकते तथा उन कुत्तों का निवारण करते ।
उस भूमि में विचरने वाले अन्य शाक्य आदि साधु
क्रूर कुत्तों से बचने के लिए लाठियें रखते थे, फिर भी कुत्ते उनका पीछा करते और काट भी खाते ।
ऐसी भयावनी स्थिति में भी भगवान् अपने शरीर से निरपेक्ष रह कर विचरते रहते। उनके पास लाठी आदि बचाव का कोई साधन था ही नहीं। वे हाथ से डरा कर या दुत्कार कर अथवा शीघ्र चल कर या कहीं छुप कर भी अपना बचाव नहीं करते थे । जिस प्रकार अनुकूल प्रदेश में स्वाभाविक चाल और शांतचित्त रह कर विचरते, उसी प्रकार इस प्रतिकूल प्रदेश में हो रहे असह्य कष्टों में भी उसी द्रढ़ता, शांति एवं धीर-गम्भीरतापूर्वक विचरते रहे । ऐसे प्रदेश में उन्हें भिक्षा मिलना भी अत्यन्त कठिन । लम्बी एवं घोर तपस्या के पारणे में कभी कुछ मिल जाता, तो वह रूक्ष, अरुचिकर एवं तुच्छ होता। परन्तु भगवान् महावीर तो संग्राम में अग्रभाग पर रह कर आगे बढ़ते रहने वाले बलवान् गजराज के समान थे। भयंकर उपसर्गों की उपेक्षा करते हुए अपनी साधना में आगे ही बढ़ते रहते । इसीलिए ही वे इस प्रदेश में पधारे थे।
भगवान् को मार्ग चलते कभी दिनभर कोई ग्राम नहीं मिलता और संध्या के समय किसी गाँव के निकट पहुँचते, तो वहाँ के लोक भगवान् का तिरस्कार करते हुए वहाँ से चले जाने का कहते, तो भगवान् वन में ही रह जाते ।
भगवान् पर प्रहार होते, उससे घाव हो जाते और असह्य पीड़ा होती, फिर भी भगवान् किसी भी प्रकार का उपचार नहीं करवाते, न कभी वमन विरेचन, अभ्यंगन, सम्बाधन स्नान और दत्तुन ही करते। इन्द्रियों के विषयों से तो वे सर्वथा विरत ही रहते थे ।
तपस्या के पारणे में आठ महीने तक भगवान् ने रूखा भात, बोर का चूर्ण और उड़द के बाकले ही लिये और वे भी ठंडे । भगवान् की तपस्या इतनी उग्र होती थी कि पन्द्रह-पन्द्रह दिन महीने, दो-दो महीने और छह-छह महीने तक पानी भी नहीं पीते थे । भगवान् स्वयं पाप नहीं करते थे, न दूसरों से करवाते थे और न पाप का अनुमोदन ही करते थे 1
भगवान् भिक्षा के लिए जाते तो दूसरों के लिये बनाये हुए आहार में से ही अपने अभिग्रह के अनुसार निर्दोष आहार लेते और मन वचन और काया के योगों को संयत कर के खाते थे । भिक्षार्थ जाते मार्ग में कौआ, कबूतर, तोता आदि भूखे पक्षी दाने चुगते हुए दिखाई देते, अथवा कोई श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षुक, अतिथि, चांडाल, कुत्ता, बिल्ली आदि को भिक्षा पाने की इच्छा से खड़े देखते, तो उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं हो, अन्तराय नहीं किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो और किसी सूक्ष्म जीव की भी बाधा नहीं हो, इस प्रकार भगवान् धीरे से निकल जाते या अन्यत्र चले जाते ।
सूखा हो या गीला, भीगा हुआ, ठंडा, पुराने धान्य का (निस्सार) जौ आदि का पकाया निरस आहार, जैसा भी हो भगवान् शान्तभाव से कर लेते। यदि कुछ भी नहीं मिलता तो भी शांति पूर्वक उत्कट गोदोहासनादि से स्थिर हो कर ध्यानस्थ हो कर, ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् लोक के स्वरूप का चिन्तन करते । भगवान् कषाय-रहित, आसक्ति रहित और शब्द-रूपादि विषयों में प्रीति नहीं रखते हुए सदैव शुभ ध्यान में लीन रहते थे । संयम में लीन रहते हुए भगवान् निदान नहीं करते ।
आगे के भाव कल
कल का जवाब : इन्द्र का दिया वस्त्र प्रभु के शरीर पर 13 माह उपरांत तक रहा l
आज का सवाल :- कभी ............. भगवान् को चोर, ठग या भेदिया मान कर मार-पीट करते ?
सन्दर्भ :- जैन धर्म का मौलिक इतिहास -1 व तीर्थंकर चरित्र -3
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो त्रिवीधे मिच्छमी दुक्कडम
पिक प्रतीकात्मक है l
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