नमुत्थुणं (25 बोल ) क्लास का5
*1:3:21*
*अध्याय*
*लोक और अलोक*
हम 4 गति जानने से पहले
इस लोक को समझे
लोक शब्द 'लुक्' धातु से बना है। लोक्यते इति लोकः, अर्थात् आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य दिखाई देते हैं, वह लोक कहलाता है। इसके विपरीत जहां आकाश के अतिरिक्त और कोई भी द्रव्य दिखाई नहीं देता-शुद्ध आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाश है।
सर्वज्ञ भगवान् से अवलोकित यह लोक आदि—अन्त से रहित, स्वभाव से ही उत्पन्न और जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन छहों द्रव्यों से भरा हुआ है। यह अनन्तानन्त अलोकाकाश के बीचों बीच में है।
अलोक अनंतानन्त अपरम्पार अखण्ड तक अमूर्तिक आकाशातिकाय मय है। जैसे किसी विशाल स्थान के मध्य में छींका लटका हो, उसी प्रकार - मध्य में लोक है। विवाह प्रजापति ( भगवती) सूत्र में कहा है कि जैसे जमीन पर एक दीपक उलटा रख कर उसके ऊपर दूसरा दीपक सीधा रख दिया जाए और उस पर तीसरा दीपक फिर उलटा रख दिया जाए तो जैसा आकार बनता है, वैसा ही आकार लोक का है।
यह लोक नीचे सात राजू चौड़ा है।
आइये पहले परिमाण जानें ताकि आगे समझने में आसानी होगी
*राजू का अर्थ* - राजू का परिमाण-३, ८१, २७, ९७० मन वजन को भार कहते हैं। ऐसे १००० भार के लोहे के गोले को कोई देवता ऊपर से नीचे फेंके। वह गोला छह महीने छह दिन, छह प्रहर, छह घड़ी में जितने क्षेत्र को लांघ कर जावे, उतने क्षेत्र को राजू-परिमाण जगह कहते हैं।
*२. योजन का परिमाण*—
*परमाणु*
जिसके दो भाग की कल्पना भी न हो सके, उस निरंश पुद्गल को परमाणु कहते हैं।
*बादर परमाणु*
ऐसे अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के संयोग से एक बादर परमाणु होता है।
*उष्ण श्रेणिक*
अनन्त बादर परमाणुओं का एक उष्ण श्रेणिक (गरमी का) पुद्गल,
*शीतश्रेणिक (सदी का) पुद्गल*,
आठ उष्णश्रेणिक पुद्गलों का एक शीतश्रेणिक (सदी का) पुद्गल,
*ऊर्ध्वरेणु*
आठ शीतश्रेणिक पुद्गलों का एक ऊर्ध्वरेणु (तरवले में दिखाई देने वाला),
*त्रसरेणु*
आठ ऊर्ध्वरेणु का एक त्रसरेणु (त्रस जीव के चलने से उड़ने वाली धूलि का कण)
*रथरेणु*
आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु (रथ चलने पर उड़ने वाली धूलि का कण)
*बालाग्र का अनुतरोतर माप**
आठ रथरेणु का एक *देवकुरु या उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्य का ब्लाग्र**,
देवकुरु तथा उत्तरकुरु के मनुष्य के आठ बालाग्र का एक *हरिवास-रम्यकवास, क्षेत्र के मनुष्य का बालाग्र*, हरिवास-रम्यकवास के मनुष्य के आठ बालाग्र का एक *हैमवत-ऐरण्यवत क्षेत्र के मनुष्य का बालाग्र*, हेमवत-ऐरण्यवत क्षेत्र के मनुष्य के आठ बालाग्र का एक *पूर्व-पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य का बालाग्र*. पूर्व-पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य के आठ बालाग्र की एक लीख,
*आठ लीख का एक यूका,, आठ यूका का एक यवमध्य,
आठ यवमध्य का एक अंगुल
*छह अंगुल काएकपाद(मुट्ठी),
*दो पाद की वितस्ति,
* दो वितस्ति का एक हाथ,
* दो हाथ की एक कुक्षि,
* दो कुक्षि का एक धनुष,
* २००० धनुष का एक गव्युति (कोस),
*चार गव्यूति का एक योजन इस योजन अशाश्वत वस्तु का नाप होता है।
शाश्वत (नित्य) वस्तु का माप ४००० कोस एक योजन जितना होता है। आगे सब जगह यही परिमाण समझना चाहिए।
*प्रश्न के उत्तर*
*1:3:21*
1️⃣यह लोक नीचे कितना चौड़ा है।
🅰️सात रज्जु
2️⃣दो वितस्ति का क्या होता हैं
🅰️एक हाथ
3️⃣४००० कोस कितना होता है।
🅰️एक योजन
4️⃣एक लीख, कितने परमाण की होती है
🅰️आठ बालाग्र
5️⃣योजन अशाश्वत वस्तु का नाप क्या होता है।
🅰️चार गव्युति
6️⃣किस प्रकार का है मध्य में लोक है।
🅰️जैसे किसी विशाल स्थान के मध्य में छिका लटका हो,उसी प्रकार का मध्य लोक हैं
7️⃣लोक्यते इति लोकः, अर्थात् क्या
🅰️अर्थात-आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य दिखाई देते है वह लोक कहलाता है
8️⃣कितने क्षेत्र को राजू-परिमाण जगह कहते हैं।
🅰️1000भार के लोहे के गोले को कोई देवता उपर से नीचे फेंके वह गोला छःमहिने छःदिन छः प्रहर छःघङी में जितने क्षेत्र को लांघ कर जावे उस क्षेत्र को रज्जु परिमाण की जगह कहते हैं
9️⃣अलोकाकाश क्या है।
🅰️शुद्ध आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाश हैं
🔟परमाणु किसे कहते हैं।
🅰️जिसके दो भाग की कल्पना भी न हो सकें उस निरंश पुदगल को परमाणु कहते है
*इस no पर भेजे* ⤵️
*2:3:21*
*(आज हम औऱ जानेंगे योजन, पल्योपम, सागरोपम और पूर्व के बारे में )*
पल्य यानी कुएं की उपमा(जिस कालमान को समझने के लिए कुएं की उपमा दी जाए उसे पल्योपम और जिसे समझने के लिए सागर यानी समुद्र की उपमा दी जाए उसे सागरोपम कहते है)
*योजन* (दूसरे तरीक़े से)
*दो बेंत(बिंलात) = एक हाथ*
*चार हाथ = एक धनुष*
*2000 धनुष = एक कोस*
*और 4 कोस = एक योजन*
*पल्योपम*
*1योजन लम्बे×1योजन चौडा़ और एक योजन गहरा एक गड्ढा हो उसमें देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्य के 1 दिन से 7 दिन तक के जन्मे बालक के बालों के अग्र भाग को, ऐसे बारीक करें कि तीक्ष्ण शस्त्र से भी उसके दो टुकड़े न हो सके।*
*☝️ऐसे बारीक बाल को उपरोक्त गड्ढे में ठूँस-ठूँस कर ऐसे भर दिये जाए कि चक्रवर्ती की सेना उनके ऊपर से निकले तो भी दबें नहीं।*
*☝️फिर उस बालों से भरे गड्ढे में से प्रत्येक 100 वर्ष बाद एक-एक बाल को निकाला जाए। इस प्रकार निकालते-निकालते जितने समय में पूरा गड्ढा खाली हो जाए, एक भी बाल शेष न रहे-- "उतने वर्षों का एक पल्योपम" कहा जाता है।*
*सागरोपम*
करोड़ का एक करोड़ से गुणा किया जावे उतने काल को 1 क्रोड़ा क्रोड कहते है (1 करोड़ 1 करोड़ = 1 क्रोड़ा क्रोड)10 क्रोड़ा क्रोड़ यानी 10 करोड़ 1 करोड।
*( 100000000000000 )*
*दस कोड़ा--कोड़ी पल्योपम*
*का एक सागरोपम होता है।*
*पूर्व*
*84 लाख वर्ष== 1 पूर्वांग*
*84 लाख पूर्वांग== 1 पूर्व*
*अर्थात्*
*84,00,000×84,00,000*
*=7,05,60,00,00,00,000*
*वर्ष का एक पूर्व होता है।*
श्री जैन गणित को समझने के लिए श्री भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र), जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र आदि आगमो में 46 भेद दिए हुए है जिज्ञासु वहां से समझ सकते है जहां अंग्रेजी गणित बिलियन ट्रिलियन तक ही है, और वैदिक गणित 21 अंक प्रमाण यानी शंख महाशंख तक है वहीं जैन गणित की अंतिम हिसाब किताब की संख्या शीर्ष प्रहेलिका है शीर्षप्रहेलिका में १६४ अंकों की संख्या है। ७५८२६३२५३० ७३०१०२४११५७६७३५६६६७५६६६४०६९१८६६६८- ४८०८०१८३२६६ इन चौपन अंकों पर १४० विन्दियाँ लगाने से शीर्षप्रहेलिका संख्या का प्रमाण आता है ।
। यहाँ तक का काल गणित का विषय माना गया है । इसके आगे भी काल का परिमाण बतलाया गया है पर वह उपमा का विषय है गणित का नहीं।
*प्रश्न*
*2:3:21*
1️⃣शीर्षप्रहेलिका में कितने अंकों की संख्या है।
🅰️164
2️⃣कौन से क्षेत्र के मनुष्य के 1 दिन से 7 दिन तक के जन्मे बालक के बालों के अग्र भाग को डालें
🅰️देवकुरू उत्तर कुरु क्षेत्र
3️⃣वैदिक गणित 21 अंक प्रमाण यानी कँहा से कहाँ तक है
🅰️शंख महाशंख
4️⃣जैन गणित को समझने के कौन कौन से सूत्र को जाने
🅰️भगवती सूत्र, व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र आदि आगम
5️⃣पल्योपम किसे कहते है
🅰️जिस कालमान को समझने के लिए कुंए की उपमा दी जाये उसे पल्योपम कहते हैं।
6️⃣क्रोड़ा क्रोड किसे कहते है।
🅰️करोड़ का एक करोड़ से गुणा किया जाये उतने काल को 1 क्रोडा़ क्रोड़ कहते हैं।
7️⃣2000 धनुष का क्याहोता हैं
🅰️एक कोस
8️⃣ 84 लाख वर्ष= क्याहोता हैं
🅰️1 पूर्वांग
9️⃣सागरोपम कितना होता हैं
🅰️दसकोडा़ कोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम होता है
🔟 किसकी सेना उनके ऊपर से निकले तो भी दबें नहीं।*
🅰️चक्रवर्ती की
3:3:21ye hi
*समय–वर्ष का परिमाण समझें.....*
काल का वह भेद जिसके 2 भाग नही हो सके उसे
समय (समय के 2 भाग जैसे आधा समय, पाव समय ऐसे नही बन सकते अतः यह सबसे छोटा भाग है) कहते हैं
- एक सेकंड में असंख्य समय होते है।
*☝️एक बार आँख की पलक गिराने में असंख्यात समय बीत जाते हैं।*
*🙏ऐसे एक समय में आठ कर्मों से मुक्त आत्मा मनुष्य लोक से सिद्ध शिला तक पहुंच जाती हैं।*(जो मनुष्य लोक से सात रज्जू से कुछ कम ऊँचाई पर है)
*ऐसे असंख्यात समय=एक आवलिका*
*4480आवलिका=एक श्वासोच्छवास*
. (नीरोग पुरुष के)
*3773 श्वासोच्छवास=एक मुहूर्त(48मिनट)*
( एक मुहूर्त बराबर दो घड़ी )
*30 मुहूर्त=एक अहोरात्र(दिन-रात)*
*पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष होता है।*
*ऐसे दो पक्ष का एक महीना होता है।*
*दो महीनों की एक ऋतु(बसन्त आदि)*
*तीन ऋतुओं का एक अयन होता है।*
(उत्तरायन और दक्षिणायन)
*दो अयन का एक वर्ष होता है और पाँच वर्ष का एक युग।*
*☝️इसको ऊपर से निचे इस प्रकार समझें–*
*एक युग होता है– 5 वर्ष का।*
*एक वर्ष में दो अयन होते हैं।*
( उत्तरायन और दक्षिणायन )
*एक अयन में तीन ऋतु होती है।*
( एक वर्ष में छह ऋतु होती है )
*एक ऋतु दो माह की होती हैं।*
( जैसे बसन्त ऋतु आदि )
*एक माह में दो पक्ष होते हैं।*( कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष )
*एक पक्ष में पन्द्रह अहोरात्र होते हैं।*
( एक दिन और रात्रि का एक अहोरात्र )
*एक अहोरात्र में तीस मुहूर्त होती हैं।*
( एक मुहूर्त = 48 मिनट )
>> एक मुहूर्त = दो घड़ी
>> इस तरह 60 घड़ी का एक अहोरात्र।
*एक मुहूर्त*(48 मिनट) *में 3773 श्वासोच्छवास*
एक मुहूर्त में 16777216 आवलिका होती है।
( किसी नीरोग पुरुष के श्वासोच्छवास )
अन्तर्मुहूर्त किसे कहते है
उ- 1 समय से ज्यादा यानी कम से कम 2 समय और ज्यादा से ज्यादा 48 मिनट में 1 समय कम उनके बीच के सभी कालमान को अन्तर्मुहूर्त ही कहते है
जैसे 1 सेकंड, 1 मिनट, 15 मिनट, 45 मिनट सब अन्तर्मुहूर्त ही है।
*एक श्वासोच्छवास में 4480 आवलिका होती हैं।*
*एक आवलिका का असंख्यातवां भाग एक समय है।*
दिन औऱ रात का चौथा हिस्सा प्रहर कहलाता है
इसी हिसाब से दिन 11 घंटे का तो रात 13 घंटे की होगी
इसलिए इसी हिसाब किताब से रात का प्रहर 3 घण्टे 15 मिनट का होगा (नोट: प्रहर को ही पोरसी कहते है इसी तरीके से उसका समय निकाला जाता है)
इसके आगे की गणित में उच्छ्वास, निच्छवास, प्राण स्तोक लव आदि होते है 77 लव का एक मुहूर्त होता है)
छद्मस्थ समय को नही जान सकता है सम्भव नही है।
एक आवलिका का भी अनुभव करना अपने लिए संभव नही है
सामायिक का कालमान 48 मिनट या 1 मुहूर्त ही क्यो है।
उ- जैन गणित में लव के बाद सीधा मुहूर्त आता है, लव का कालमान 1 मिनट से भी कम है अतः इतनी सी देर में क्या सामायिक होगी, अगला पड़ाव सीधा मुहूर्त का आता है आत्म चिंतन के लिए यह मुहर्त एक अच्छा समय है इसलिए यह समय निर्धारित किया गया।
*प्रश्न के उत्तर*
*3:3:21*
1️⃣श्वासोच्छवास में कितनी आवलिका होती हैं।*
🅰️4480
2️⃣एक मुहूर्त कितने लव का होता है
🅰️77
3️⃣48 मिनट में 1 समय कम उनके बीच के सभी कालमान को क्या कहते है
🅰️ अन्तर्मुहूर्त
4️⃣प्रहर को ही क्या कहते है
🅰️पोरसी
5️⃣आत्म चिंतन के लिए क्या अच्छा समय है
🅰️मुहूर्त
6️⃣समय किसे कहते है
🅰️काल का वह भेद जिसके 2 भाग नहीं हो सकते उसे समय कहते हैं।
7️⃣एक अयन क्या होता है।*
🅰️तीन ऋतुओं का एक अयन होता है।
8️⃣अहोरात्र किसे कहते हैं
🅰️दिन-रात को
9️⃣एक मुहूर्त में 16777216 क्या होती है
🅰️अवलिका
🔟मुक्त आत्मा सिद्ध शिला तक कितने वक़्त में पहुंच जाती हैं।
🅰️एक समय में
*4:3:21*
*अघ्याय*
फिर लोक ऊपर - ऊपर अनुक्रम से एक-एक प्रदेश कम चौड़ा होता-होता सात राजू की ऊंचाई पर दोनों दीपकों की सन्धि के स्थान पर एक राजू चौड़ा रह गया है। इससे आगे अनुक्रम से चौड़ाई बढ़ती गई है और साढ़े तीन राजू (नीचे से १०॥ राजू) की ऊंचाई पर-दूसरे और तीसरे दीपक के सन्धिस्थान पर पांच राजू चौड़ा है। फिर आगे क्रम से घटता-घटता अन्तिम भाग में तीसरे दीपक के अन्तिम भाग पर एक राजू चौड़ा, हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण लोक नीचे से ऊपर तक सीधा १४ राजू लम्बा है और घनाकार मपती से ३४३ राज परिमाण है। अर्थात् (सम्पूर्ण लोक के विषम स्थान को सम करने चौरस सात राजू लंबा, सात राजू चौड़ा और सात राजू जाड़ा (मोटा) इस प्रकार ७ ४९ और ४९ x ७ = ३४३ राजू होते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि सात राजू लम्बे सात राजू चौड़े और सात राजू मोटे खण्ड की कल्पना की जाए तो सम्पूर्ण लोक के सब खण्ड ३४३ होते हैं।)
जैसे वृक्ष सभी ओर से त्वचा (छाल) से वेष्टित होता है, इसी प्रकार सम्पूर्ण लोक
तीन प्रकार के वलयों से वेष्टित (घिरा हुआ) है।
*पहला वलय घनोदधि* (जमे हुए पानी) का है। वह नीचे के भाग में २०००० योजन का चौड़ा, नीचे के दोनों कोनों में सात योजन चौड़ा, ऊपर के दोनों कोनों में पांच योजन चौड़ा है।
*दूसरा घनवात (जमी हुई हवा)* का वलय है। वह नीचे के मध्य भाग में २००००
योजन चौड़ा, नीचे के दोनों कोनों में पांच योजन चौड़ा, ऊपर के मध्यभाग में चार योजन चौड़ा, ऊपर दोनों दीपकों की सन्धिस्थान पर पांच योजन चौड़ा, ऊपर के दोनों कोनों में चार योजन चौड़ा और ऊपर के मध्य भाग में एक कोस चौड़ा है।
*तीसरा तनुवात (पतली हवा)* का वलय है। नीचे के मध्य में २०००० योजन चौड़ा, नीचे के दोनों कोनों में चार योजन चौड़ा, ऊपर के मध्यभाग में तीन योजन चौड़ा, ऊपर | दोनों दीपकों के संधिस्थान पर चार योजन चौड़ा, ऊपर दोनों कोनों में तीन योजन चौड़ा और ऊपर के मध्य में १५७५ धनुष चौड़ा है। वहां सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। जैसे घर के मध्यभाग में स्तंभ खड़ा होता है उसी प्रकार लोक के मध्य में एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊपर नीचे तक लम्बी त्रस नाड़ी है। त्रसनाड़ी के अन्दर त्रस और स्थावर
जीव होते हैं।
बाकी सारा लोक स्थावर जीवों से ही भरा है। त्रसनाड़ी के बाहर त्रस जीव नहीं होते।
*प्रश्न के उत्तर*
*4:3:21*
1️⃣वृक्ष सभी ओर से त्वचा (छाल) से वेष्टित होता है, इसी प्रकार सम्पूर्ण लोक किससे वेष्टित है
🅰️तीन प्रकार के वलयों से
2️⃣सम्पूर्ण लोक के सब खण्ड कितने होते है
🅰️343
3️⃣त्रस नाड़ी कितनी लम्बी है
🅰️चौदह राजू ऊपर नीचे तक लम्बी
4️⃣घनवात का अर्थ
🅰️जमी हुई हवा
5️⃣दोनों दीपकों के संधिस्थान पर चार योजन चौड़ा, क्या है
🅰️तीसरा तनुवात
6️⃣लोक के मध्य में एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊपर नीचे तक लम्बी क्या है
🅰️त्रस नाड़ी
7️⃣सम्पूर्ण लोक नीचे से ऊपर तक सीधा कितना लम्बा है
🅰️14राजू
8️⃣वलय घनोदधि का अर्थ*
🅰️जमा हुआ पानी
9️⃣दोनों दीपकों की सन्धि के स्थान पर कितना चौड़ा रह गया है
🅰️एक राजू
🔟तनुवात का अर्थ
🅰️पतली हवा
*5:3:21*
*अध्याय*
वातवलय के रंग हैं
घनोदधिवलय गोमूत्र के रंग का, घनवातवलय काले रंग की मूंग के समान एवं तनुवातवलय अनेक रंगों वाला है।
लोक के बहुमध्य भाग में एक राजू लम्बी—चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची त्रसनाली त्रस जीवों का निवास क्षेत्र है । अर्थात् ३२१६२२४१—२/३ धनुष कम १३ राजू ऊँची यह त्रसनाली है। इसे त्रसलोक भी कहते हैं। इस त्रसलोक में ही पंचेद्रिय जीवों का निवास है। अर्थात् दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेद्रिय जीवों को त्रस कहते हैं। तथा एकेद्रिय जीव बादर और सूक्ष्म भेदों से युक्त ये सब जीव इसमें रहते हैं। इसीलिये इसका त्रसलोक या त्रसनाली सार्थक नाम है।
१. त्रसनाड़ी के बाहर त्रसजीव तीन कारणों से पाया जाता है-
(१) किसी त्रसजीव ने त्रसनाड़ी के बाहर के स्थावरजीव के रूप में उत्पन्न होने की आयु बांधी हो। वह मारणान्तिक समुद्घात करक आत्मप्रदेशों को त्रसनाड़ी के बाहर फैलाता है,
(२) त्रसजीव आयु पूर्ण करके, विग्रहगति से जब त्रस नाड़ी के बाहर आता है,
(३) केवलिसमुद्घात करते समय जब केवली के आत्मप्रदेश चौथे-पांचवें समय में सम्पूर्ण लोक में फैलते हैं। (ये तीनों कारण कदाचित् और सूक्ष्म समय के हैं।
लोक के तीन विभाग किए गए हैं-(१) अधोलोक (नीचालोक) (२) मध्यलोक (बीच का लोक) और (३) ऊर्ध्वलोक। इनका वर्णन क्रम से आगे किया जाएगा।
इसके अधोलोक, मध्यलोक और ऊध्र्वलोक ऐसे तीन भेद हैं। अधोलोक का आकार वेत्रासन( बेंत के मूढ़े के समान आकार का आसन )। अधोलोक का आकार इसी प्रकार का है
, मध्यलोक का आकार खड़े किये हुये आधे मृदंग के समान
औऱ उधर्वलोक का आकार भी खड़े किये हुये मृदंग के सदृश है। अथवा 7 पुरुष एक के पीछे एक-एक खड़े होकर पैर पसारे हुए और कमर पर हाथ रखे हुए खड़े हों, उन जैसा आकर इस लोक का है ! केवल उनका मुख जितना आकार हटा दिया जाए तो ...
वैसा ही यह लोक पुरुषाकार है।
संपूर्ण लोक की उँचाई १४ राजू प्रमाण है। इसमें अधोलोक की ऊँचाई ७ राजू, मध्यलोक की ऊँचाई १ लाख योजन और ऊध्र्वलोक की ऊँचाई १ लाख योजन कम ७ राजू है।
इस प्रकार से सिद्ध हुये त्रिलोक के रूप क्षेत्र (की मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाई )का हम वैसे ही वर्णन करते हैं जैसा कि दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग से निकला[२] है।’’ इस कथन से इस तिलोयपण्ण्त्ति ग्रन्थ की प्रमाणिकता सिद्ध हो जाती है।
*प्रश्न के उत्तर*
*5:3:21*
1️⃣पंचेद्रिय जीवों का निवास कँहा है
🅰️त्रसलोक मे
2️⃣केवली के आत्मप्रदेश कितने समय में सम्पूर्ण लोक में फैलते हैं।
🅰️चौथे-पाँचवे समय मे
3️⃣अधोलोक की ऊँचाई कितनी है
🅰️7राजू
4️⃣लोक के कितने विभाग किए गए औऱ कौन कौन से
🅰️ लोक के तीन विभाग किए है।अधोलोक,मध्य लोक,और ऊर्ध्व लोक
5️⃣मारणान्तिक समुद्घात करके किसको को त्रसनाड़ी के बाहर फैलाता है,
🅰️आत्मप्रदेशों को
6️⃣पुरुषाकार क्या है।
🅰️ सात पुरुष एक के पीछे एक खड़े होकर पैर पसारे हुए और कमर पर हाथ रखे हुए खड़े हो उन जैसा आकार इस लोक का है केवल उनका मुख जितना आकार हटा दिया जाए तो वैसे ही यह लोक पुरूषाकार है
7️⃣तनुवातवलय कौन से रंग का है
🅰️अनेक रंगों वाला
8️⃣त्रिलोक के रूप क्षेत्र हम वैसे ही वर्णन करते हैं जैसा कि ---- नाम के ----अंग से निकला है।
🅰️दृष्टिवाद,बारहवें
9️⃣अधोलोक का आकार कैसा है
🅰️वैत्रासन(बेंत के मूढे के समान आकार का आसन)
🔟घनोदधिवलय का रंग कैसा है।
🅰️गोमुत्र के रंग का
*इस no पर भेजे* ⤵️
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*6:3:21*
अब अपने जानते है पहली गति
अधोलोक नरक गति
(नरक का वर्णन)
4. अब प्रश्न ये उठता है कि नरकगति का वर्णन पहले क्यों ? इसका ज़बाब है कि
नारकियों के स्वरूप का ज्ञान होने से भय उत्पन्न हो जाता हैं।
और ऐसे में भव्य जीव की धर्म अर्थात् मुनिधर्म में निश्चल रूप से बुद्धि स्थिर हो जाती है, ऐसा समझकर पहले नरकगति का वर्णन किया है।
*अधो लोक*
सात पृथिवियाँ (सात नरक)
रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयोघनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाःसप्तोऽधोऽधः ॥१॥
रत्नप्रभा,शर्कराप्रभा,
बालुकाप्रभा,पँकप्रभा,धूमप्रभा,तमप्रभा और महातमप्रभा क्रम से एक के नीचे दूसरी ,दूसरी के नीचे तीसरी ;इस प्रकार सात पृथिवियाँ मे क्रमश: धम्मा ,वंशा ,मेधा, अंजना, अरिष्टा,मधवा और माधवी सात नरक,है
नारकियों के निवास स्थान में ८४लाख बिल है !सभी पृथिवियाँ मे घनोदधि वातवलय के आधार है,
घनोदधि ,घनवातवलय के आधार पर है।
और घनवातवलय तनुवातवलय के आधार परहै।
तनुवातवलय का आधार आकाश है!
आकाश सबसे बड़ा और अनन्त है इसलिए स्वयं का आधार स्वंय है इसका अन्य कोई आधार नहीं है !
अधोलोक
-7 राजू से कुछ ज्यादा लम्बा है।
*सात नरकों की मोटाई-चौड़ाई*
*मोटाई* -- प्रथम नरक की एक लाख अस्सी हजार योजन है। क्रमशः घटती-घटती सातवीं नरक की एक लाख आठ हजार योजन है।
*चौड़ाई* -- प्रथम नरक की एक रज्जु है। क्रमशः बढ़ती-बढ़ती सातवीं नरक की सात रज्जु है।
अधोलोक में सात नारकी,दस भवनपति देव और पन्द्रह परमाधार्मिक देवों का वास होता है।
मेरूपर्वत की समतल भूमि से 900 योजन नीचे अधोलोक है। उसी अधोलोक में एक-दूसरे के नीचे क्रमशः ये सात पृथ्वियाँ है।
धम्मा, वंशा, शिला , अंजना, रिट्ठा, ,मघा, माघवई ।
इनके क्षेत्र अनुसार गोत्र यानी उस नरक में क्या ज्यादा है उस अनुसार उनके गोत्र यह है। क्रमशः
रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुका प्रभा, पंक प्रभा, धूम प्रभा, तम प्रभा, तम तम: प्रभा
भावार्थ-अधोलोक में उन पृथिवियों;रत्नप्रभा,शर्कराप्रभा,बालुकाप्रभा,पङ्कप्रभा,धूमप्रभा,तमप्रभा और महातम प्रभा में क्रमश ;३०लाख,२५लाख,१५लाख,१०लाख,३ लाख और एक लाख में ५ कम अर्थात ९५००० तथा ५ बिल है !
नरक में जीवों की उत्पत्ति का स्थान कुंभी है। वे चार प्रकार की होती है।
(1) ऊँठ के गर्दन जैसी टेढ़ी
(2) घृत के कुप्पे जैसी मुख से संकरी और नीचे से चौड़ी।
(3) डिब्बे की तरह ऊपर-नीचे बराबर।
(4) अफीम के डोडे के समान।
*6 :3:21*
*प्रश्न*
1️⃣रत्नप्रभा कौन सी नरक का गौत्र है
🅰️प्रथम नरक धम्मा
2️⃣परमाधार्मिक देव कितने है
🅰️15परमाधामी
3️⃣सातवीं नरक की चौड़ाई कितनी है।
🅰️सात रज्जु
4️⃣उस नरक में क्या ज्यादा है उस अनुसार उनके क्या है।
🅰️गौत्र
5️⃣प्रथम नरक की मोटाई कितनी है
🅰️1लाख 80हजार
6️⃣भवनपति देव कितने है
🅰️दस भवनपति
7️⃣मेरूपर्वत की समतल भूमि कितने नीचे अधोलोक है।
🅰️900योजन नीचे
8️⃣नरक में जीवों की उत्पत्ति का स्थान क्या है
🅰️कुंभी
9️⃣तनुवातवलय का आधार क्या है!
🅰️आकाश
🔟नारकियों के निवास स्थान में कितने बिल है
🅰️84 लाख
*इस no पर भेजे* ⤵️
*8:3:21*
*अध्याय*
*आइये प्रथम हम
नरक की संरचना देखे*
नारकी जीव के जन्म लेने के उपपाद स्थान कैसे होते है?
सभी प्रकार के बिलों मे उपर के भाग मे (छत मे)अनेक प्रकार के तलवारो से युक्त अर्धवृत्त और अधोमुख वाले जन्मस्थान है।
ये जन्म स्थान पहले से तिसरे पृथ्वी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, मुदगलिका, मुदगर और नाली के समान है।
चौथे और पाँचवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरीष, और द्रोणी (नाव) जैसे है।
छठी और साँतवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार झालर, द्वीपी, चक्रवाक, श्रृगाल, गधा, बकरा, ऊंट, और रींछ जैसे है।
ये सभी जन्मभुमिया अंत मे करोंत के सदृश चारो तरफ से गोल और भयंकर है।
नरको मे बिल कहाँ होते है?
रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल
भाग से लेकर छठे नरक तक की पृथ्वीयों मे, उनके उपर व निचे के एक एक हजार योजन प्रमाण मोटी पृथ्वी को छोडकर पटलों के क्रम से और सातवी पृथ्वी के ठिक मध्य भाग मे नारकियों के बिल है।
नारकीयों के बिल के कितने और कौन कौनसे प्रकार है?
नारकीयों के बिल के निम्नलिखित ३ प्रकार है :
इन्द्रक : इन्द्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन प्रमाण है।
जो अपने पटल के सब बिलो के बीच मे हो, उसे इन्द्रक कहते है। इन्हे प्रस्तर या पटल भी कहते है।
प्रथम नरक मे १३ इन्द्रक पटल है।
ये एक पर एक ऐसे खन पर खन बने हुए है।
ये तलघर के समान भुमी मे है एवं चूहे आदि के बिल के समान है।
ये पटल औंधे मुँख और बिना खिडकी आदि के बने हुए है।
इसप्रकार इनका बिल नाम सार्थ है।
इन १३ इन्द्रक बिलों के नाम क्रम से सीमन्तक, निरय, रौरव, भ्रांत, उद्भ्रांत, संभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत, त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त, और विक्रान्त है।
श्रेणीबद्ध : बिलों का विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण है।
जो बिल ४ दिशाओं और ४ विदिशाओं मे पंक्ति से स्थित रहते हे, उन्हे श्रेणीबद्ध कहते है।
प्रथम नरक के सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल की चारो दिशाओँमे ४९ - ४९ और चारो विदिशाओ मे ४८ - ४८ श्रेणीबद्ध बिल है।
चार दिशा सम्बन्धी ४ × ४९ = कुल १९६ और चार विदिशा सम्बन्धी ४ × ४८ = कुल १९२ हुए।
इसप्रकार सीमन्तक नामक एक इन्द्रक बिल सम्बन्धी कुल ३८८ श्रेणीबद्ध बिल हुए।
इससे आगे, दुसरे निरय आदि इन्द्रक बिलो के आश्रित रहने वाले श्रेणीबद्ध बिलो मे से एक एक बिल कम हो जाता है और प्रथम नरक के कुल ४४२० श्रेणीबद्ध बिल होते है।
*8:3:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣ जो अपने पटल के सब बिलो के बीच मे हो, उसे क्या कहते है।
🅰️इन्द्रक
2️⃣सीमन्तक नामक एक इन्द्रक बिल सम्बन्धी के कितने श्रेणीबद्ध बिल होते है?
🅰️388बिल
3️⃣ नारकीयों के बिल के कितने प्रकार हैं ?
🅰️ तीन प्रकार के
4️⃣ प्रथम नरक के कुल कितने श्रेणीबद्ध बिल होते है?
🅰️4420
5️⃣ श्रेणीबद्ध किसे कहते है?
🅰️जो बिल 4दिशाओं और 4विदिशाओ में पंक्ति से स्थित रहते है उन्हें श्रेणीबध्द कहते हैं
6️⃣ कौनसी पृथ्वी में जन्मभुमियो का आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा जैसा होता है ?
🅰️चौथी और पाँचवी पृथ्वी
7️⃣अंत मे करोंत के सदृश चारो तरफ से गोल और भयंकर क्या है?
🅰️ सभी जन्म भूमियाॅ
8️⃣अनेक प्रकार के तलवारो से युक्त ----- और ------- वाले जन्मस्थान है।
🅰️अर्धवृत अधोमुख
9️⃣ उद्भ्रांत, संभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत किसके नाम है
🅰️इन्द्रक बिलों के नाम
🔟 किसके ठीक मध्य भाग मे नारकियों के बिल है?
🅰️सातवीं पृथ्वी के
*9:3:21*
*अध्याय*
*प्रकीर्णक* :कुछ प्रकीर्णक बिलों का विस्तार संख्यात योजन तो कुछ का असंख्यात योजन प्रमाण है।
कुल ८४ लाख बिलों मे से १/५ बिल का विस्तार संख्यात योजन तो ४/५ बिलों का असंख्यात योजन प्रमाण है।
श्रेणीबद्ध बिलों के बीच मे इधर उधर रहने वाले बिलों को प्रकीर्णक कहते है।
हर एक नरक के संपूर्ण बिलो की संख्या से उनके इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलो की संख्या घटाने से उस उस नरक की प्रकीर्णक बिलों की संख्या मिलती है। जैसे प्रथम नरक के कुल ३० लाख बिलो मे से १३ इन्द्रक और ४४२० श्रेणीबद्ध बिलो कि संख्या घटाने से प्रकीर्णक बिलो कि संख्या (२९,९५,५६७) मिलती है।
*अंतर*
जैसे मकान में मंजिल होती हैं वैसे ही नरक की मंजिले होती है
वापिस उसमें अलग अलग प्रस्तर होते है ( भूमि का पड़ ) । जिसमें नरकवास बने है। प्रस्तरो के बीच मे भी खाली जगह अंतर होती है।जहाँ नारक जीव नहीं रहते हैं वह अंतर ( आंतरा ) है।
*पाथड़ा का मतलब*
और जैसे मंजिलो के बीच पृथ्वी का पिण्ड होता है वैसे ही अन्तर के बीच के पिण्ड को पाथडा कहते हैं। यह सब पाथड़े तीन-तीन हजार योजन के जाड़े (मोटे) और असंख्यात योजन लम्बे-चौड़े होते हैं। इसमे एक हजार ऊपर और एक हजार नीचे छोड़ कर बीच मे 1 हजार
योजन के पोले होते है इन्हीं में नरकावास है और वहीं नरक के जीव रहते हैं।
*पोलार*
एक मोटी पृथ्वी ( भूमि का बड़ा मोटा पिंड ) में ऊपर नीचे के भूमि भाग को छोड़कर बीच मे पोली जगह (पोलार ) होती है।
*
प्रतर ( पाथड़ा ) अंतिम छह पृथ्वियों के अंतर खाली हैं। प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के भी दो अंतर खाली हैं।
रत्नप्रभा के शेष अंतरों में भवनपति देव रहते हैं। प्रथम नरक के 13 प्रतर ( पाथड़ा ) और 12 अंतर ( आंतरा ) होते हैं।
प्रत्येक पाथड़ा
३००० योजन का है और प्रत्येक अन्तर ११५८२१/३ योजन का है। एक ऊपर का और एक नीचे का अन्तर खाली है। शेष बीच के दस अन्तरों में असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपति देव रहते हैं। प्रत्येक पाथड़े के मध्य में १००० योजन की पोलार है, जिसमें ३०००००० नारकवास हैं। इनमें असंख्यात कुंभियां हैं और असंख्यात नारकी जीव हैं।
*नरक की आयु*
प्रत्येक नरक के पहले पटल की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे पटल की जघन्य आयु होती है। उदा॰ प्रथम नरक मे १३ पटल है। इसमे प्रथम पटल मे उत्कृष्ठ आयु, ९०,००० वर्ष है। यही आयु दुसरे पटल की जघन्य आयु हो जाती है। इसीप्रकार प्रथम नरक की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे नरक की जघन्य आयु होती है।
*नारकीयोंकी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ठ आयु*
नारकीयोंकी जघन्य आयु १०,००० वर्ष और उत्कृष्ठ ३३ सागर की होती है। १०,००० वर्ष से एक समय अधिक और ३३ सागर से एक समय कम के मध्य की सभी आयु मध्यम कहलाती है।
नारकीयोंकी अपमृत्यु नहीं होती है।
दुःखो से घबडाकर नारकी जीव मरना चाहते है, किन्तु आयु पूरी हुए बिना मर नही सकते है।
दुःख भोगते हुए नारकियों के शरीर के तिल के समान खन्ड खन्ड होकर भी पारे के समान पुनः मिल जाते है।
*9:3:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣अन्तर किसेकहते हैं।
🅰️प्रस्तरों के बीच की खाली जगह जहाँ नारक जीव नहीं रहते उसे अंतर कहते हैं।
2️⃣किस-किस के मध्य की सभी आयु मध्यम कहलाती है।
🅰️10.000वर्ष से एक समय अधिक और 33 सागर से एक समय कम
3️⃣भवनपति देव कहाँ रहते हैं।
🅰️बीच के दस अन्तरों में
4️⃣पाथडा किसे कहते हैं
🅰️अंतर के बीच के पिण्ड को पाथड़ा कहते हैं।
5️⃣नारकीयोंकी जघन्य आयु कितने वर्ष हैं
🅰️10.000 वर्ष
6️⃣नारकियों के शरीर किस के समान खन्ड खन्ड हो जाता है
🅰️तिल के समान
7️⃣प्रत्येक नरक के पहले पटल की ----- आयु, दुसरे पटल की ----- आयु होती है।
🅰️उत्कृष्ट -जघन्य
8️⃣प्रत्येक पाथड़ा कितने योजन का है
🅰️3000
9️⃣श्रेणीबद्ध बिलों के बीच मे इधर उधर रहने वाले बिलों को कहते है।
🅰️प्रकीर्णक
🔟भूमि भाग को छोड़कर बीच मे पोली जगह क्या होती है।
🅰️पोलार
10:3:21
अध्याय
नरक की सभी भूमियों के साथ प्रभा शब्द लगाया गया है
क्योंकि— प्रभा शब्द से समस्त भूमियों की विशेषता का बोध होता है इसलिये इसे सब भूमियों के साथ लगाया गया है । उदाहरण— रत्नों के समान प्रभावाली भूमि रत्न प्रभा है
*प्रथम धम्मा नरक(रत्न प्रभा नरक)*
एक राजु ऊंचा और दस राजु घनाकार विस्तार में पहला घम्मा (रत्नप्रभा) नामक नरक है। इसमें कोयले के समान काले रत्न है एक-एक रत्न एक-एक हजार योजन का है। इस लिए इसका(गोत्र नाम )रत्न प्रभा है
रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं-
खरभाग (१६००० योजन)
पंकभाग (८४००० योजन)
अब्बुहल भाग (80000 योजन)
अब्बहुलभाग (८०००० योजन)
इस प्रकार सब मिलकर १८०,००० योजन का पृथ्वीपिण्ड है। उसमें से ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर बीच में १७८,००० योजन की पोलार है। इसमें तेरह पाथडे और बारह अन्तर हैं।
उत्कृष्ट आयु के बंध के साथ ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल लम्बे नारकी रहते है !इस पृथ्वी में जीव लगातार ८ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है ,असंज्ञी जीव १ कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
खरभाग और पंकभाग में भवनवासी तथा व्यंतरवासी देवों के निवास हैं।
अब्बहुलभाग में प्रथम नरक के बिल हैं, जिनमें नारकियों के आवास हैं।
खरभाग के १६ भेद है।
चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहिता, कामसारकल्पा, गोमेदा, प्रवाला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमुलिका, अंका, स्फटिका, चंदना, सर्वाथका, वकुला और शैला
खरभाग की कुल मोटाई १६,००० योजन है। उपर्युक्त
हर एक पृथ्वी १००० योजन मोटी है।
*11:3:21*
*ये अध्याय देखे*
खरभाग की प्रथम पृथ्वी का नाम "चित्रा" कैसे सार्थक है?
खरभाग की प्रथम पृथ्वी चित्रा मे अनेक वर्णो से युक्त महितल, शीलातल, उपपाद, बालु, शक्कर, शीसा, चाँदी, सुवर्ण, आदि की उत्पत्तिस्थान वज्र, लोहा, तांबा, रांगा, मणिशीला, सिंगरफ, हरिताल, अंजन, प्रवाल, गोमेद, रुचक, कदंब, स्फटिक मणि, जलकांत मणि, सुर्यकांत मणि, चंद्रकांत मणि, वैडूर्य, गेरू, चन्द्राश्म आदि विविध वर्ण वाली अनेक धातुए है। इसीलिये इस पृथ्वी का "चित्रा" नाम सार्थक है
रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग मे जहाँ प्रथम नरक है - उसकी मोटाई ८०,००० योजन है।
इसके उपरी १ हजार और निचे की १ हजार योजन मे कोइ पटल नही होने से उसे घटा दे तो ७८,००० योजन शेष रहते है।
फिर एक एक पटल की मोटाई १ कोस होने से १३ पटलों की कुल मोटाई १३ कोस (३-१/४ योजन)भी उपरोक्त ७८००० योजन से घटा दे।
अब एक कम १३ पटलों से उपरोक्त शेष को भाग देने से पटलों के मध्य का अंतर मिल जायेगा।
(८०००० - २०००) - (१/४ × १३) ÷ (१३ - १) = ६४९९-३५/४८ योजन
*2शर्करा प्रभा*
तीसरे नरक की सीमा के ऊपर एक रज्जु ऊंचा और सोलह रज्जु के घनाकार विस्तार में वंशा (शर्करप्रभा) नामक दूसरा नरक है। इसमें १३२००० योजन का पृथ्वीपिण्ड है। उसमें से नीचे और ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़कर बीच में १,३०,००० योजन की पोलार है। इस पोलार में ग्यारह पाथड़े और दस अन्तर हैं । प्रत्येक पाथडा ३००० योजन का है और प्रत्येक अन्तर ९७०० योजन का है। अन्तर खाली हैं और प्रत्येक पाथडे के मध्य में १००० योजन की पोलार में २५००००० नारकावास हैं। इनमें असंख्यात नारकी जीव हैं।
इसकीनरक है, मोटाई ३२००० योजन है,इसके २५ लाख बिलों,जीव लगातार ७ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है ,सरी सृप जीव २ कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
मोटाई ३२००० योजन
*3 -बालुकाप्रभा*
इस चौथे नरक की सीमा पर, एक राजु ऊंचा और २२ रज्जु घनाकार विस्तार वाला तीसरा
सिला
(वालुका प्रभा) नामक नरक है। इसमें १२८००० योजन का पृथ्वीपिण्ड हैं। ऊपरसे ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर बीच में १,२६००० योजन की पोलार है। इसमें नौ पाथड़े और आठ अन्तर हैं। प्रत्येक पाथडा ३००० योजन का है और प्रत्येक अन्तर १२३७५ योजन का है। अंतर सब खाली हैं और प्रत्येक पाथडे के मध्य १००० योजन की पोलार में १५००,००० नारकावास हैं। इनमें असंख्यात कुंभियां और असंख्यात नारकी जीव हैं। इन नारकी जीवों का देहमान ३१। धनुष का और आयुष्य जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात सागरोपम का है।
पृथिवि में मेधा नरक है,जिस की मोटाई २८००० योजन है,इसके १५ लाख बिलों, इसमेंजीव लगातार ६ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है,पक्षी ३ कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
श्री कृष्ण जी अभी 3सी नरक में है
जोअमम नाथ जी तीर्थंकर आगामी 24 में बनेंगे
*प्रश्न के उत्तर*
*11:3:21*
1️⃣शर्करा प्रभा का दूसरा नाम*
🅰️ *वंशा*
2️⃣ कौन सी नरक मे आयुष्य जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात सागरोपम का है।
🅰️ *बालुका प्रभा*
3️⃣शर्करा प्रभा से आयुष्य पुर्ण कर कँहा कहाँ उत्पन्न होसकते है कोई दो गति का नाम बताये
🅰️ *तीर्थंकर, सरी सृप जीव*
4️⃣तीसरे नरक की सीमा के कितने ऊपर वंशा (शर्करप्रभा) नामक नरक है।
🅰️ *एक रज्जू ऊँचा और सोलह रज्जू घनाकार विस्तार*
5️⃣बालुकाप्रभा मे कितने पाथड़े हैं
🅰️ *9 पाथडे*
6️⃣प्रथम पृथ्वी चित्रा मे अनेक वर्णो से युक्त अनेक धातुए है।
किन्हीं तीन के नाम लिखे
🅰️ *बालू शक्कर शीशा*
7️⃣श्री कृष्ण कौन सी नरक में है
🅰️ *तीसरी नरक में*
8️⃣अमम नाथ जी तीर्थंकर कौन बनेंगे
🅰️ *श्री कृष्ण जी*
9️⃣बालुकाप्रभा में कितने बिल है
🅰️ *15लाख*
🔟शर्करा प्रभा मे कितने नारकावास हैं।
🅰️ *2500000*
*इस no पर भेजे* ⤵️
*12:3:21*
*अध्याय*
*4 पङ्कप्रभा पृथिवि* में
उक्त पांचवें नरक की सीमा के ऊपर, एक रज्जू ऊंचा और २८ रज्जु घनाकार विस्तार में चौथा अंजना (पंकप्रभा) नामक नरक है।चौथी नरक को पंकप्रभा कहते है क्योंकि उसमे खून,मांस और पीप का कीचड है ।
इसमें १२०००० योजन का पृथ्वीपिण्ड है। उसमें से ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर बीच में ११८००० योजन की पोलार हैं। इसमें सात पाथड़े और छह अन्तर हैं। प्रत्येक पाथड़ा ३००० योजन का है और प्रत्येक अन्तर १३१६६ योजन का है। सब अंतर खाली हैं। प्रत्येक पाथड़े के मध्य १००० योजन की पोलार में १०,००,००० नारकावास हैं। इनमें असंख्यात कुम्भियां हैं, और १० लाख बिलों ७ पटल में
असंख्यात नारकी जीव रहते हैं। इन जीवों का ६२।। धनुष का देहमान होता है और आयु जघन्य सात सागरोप एवं उत्कृष्ट दस सागरोपम की होती है।
जीव लगातार ५ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर है ,भुजङ्गादि जीव १ योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
*5-धूमप्रभा पृथिवि*
6 नरक की सीमा के ऊपर, एक रज्जु ऊंचा और ३४ रज्जू घनाकार विस्तार में पांचवां
रिष्टा (रिट्ठा-धूमप्रभा) नामक नरक है। इसमें ११८००० योजन का पृथ्वीपिण्ड है।
पाँचवी नरक को धुमपर्भा कहने का अभिप्राय ये है कि
वहाँ राई,मिर्च के धुंए से भी अधिक सारा धुआं है ।
उसमें से १००० योजन ऊपर और १००० योजन नीचे छोड़कर, बीच में ११६००० योजन की पोलार है। इसमें पांच पाथड़े और चार अन्तर हैं। प्रत्येक पाथड़ा ३००० योजन का और प्रत्येक अन्तर ५२५० योजन का है। अन्तर खाली हैं और प्रत्येक पाथडे के मध्य में १००० योजन की पोलार में ३००००० नारकावास हैं, जिनमें असँख्यात कुंभियां और
इसके ३ लाख बिलों ५ पटल मेंअसंख्यात नारकी जीव उन जीवों का देहमान १२५ धनुष का और आयुष्य जघन्य दस सागरोपम तथा उत्कृष्ट रह सागरोपम का है।जीव लगातार ४ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मुनि/सकलसंयमी हो सकते है,सिंह जीव २ योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
*6-तमप्रभा पृथिवि* जहाँ घोर अँधेरा हो,उसे तम:प्रभा कहते है ।
सातवें नरक की हद के ऊपर एक रज्जु ऊँचाई और चालीस रज्जु घनाकार विस्तार में
मघा :प्रभा) नरक है; जिसमें १११००० योजना का पृथ्वी पिण्ड है उसमें से १००० योजन ऊपर और १००० योजन नीचे छम बीच में ११४००० योजन की पोलार है इस पोलार में तीन पांडे और दो अन्तर हैं। प्रत्येक पाथडा ३००० योजन का है और प्रत्येक अन्तर ५२५०० योजन का है । अंतर तो खाली हैं और प्रत्येक पाथड़े के मध्य १००० योजन को पोलार में ९९९९५ नारकावास हैं । इनमें असंख्यात कुंभिया है और असंख्यात नारकी जीव रहते हैं ।इसके ५ कम १ लाख बिलों ३ पटल में इन जीवों का देहमान २५० धनुष का और आयुष्य जघन्य १७ सागरोपम का एवं उत्कृष्ट २२ सागरोपम का है ।
जीव लगातार ३ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर देशविरति हो सकते है,स्त्री जीव ३ योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
छठी नरक में पुरूष सिंहऔऱ पुरुषोंतम वासुदेव गए
*7-महातमप्रभा पृथिवी* में
लोक के नीचे और अलोक के ऊपर, वलय के अन्दर एक रज्जू ऊंची और ४६ रज्जु (राजू) के घनाकार विस्तार में माघवती (तमस्तम:प्रभा) नामक नरक है।
- महातम:प्रभा का अर्थ है
जहाँ घोरातिघोर अँधेरा हरदम रहे।
इसमें १०८००० योजन मोटा पृथ्वीमय पिण्ड है। उसमें से ५२।। हजार योजन नीचे और ५२।॥ हजार योजन ऊपर छोड़कर बीच में ३ हजार योजन की पोलार है। उसमें एक पाथड़ा (प्रस्तर-गुफा जैसी जगह) है। उस पाथड़े में काल, महाकाल, रुद्र, महारुद्र और अप्रतिष्ठ नामक पांच नारकावास-नारक जीवों के रहने के स्थान हैं, जिनमें असंख्यात कुम्भियां और असंख्यात नारकी हैं।इसके ५ बिलों, १ पटल में
उन नारकी जीवों का देहमान ५०० धनुष का और आयुष्य-जघन्य २२ सागरोपम एवं उत्कृष्ट ३३ सागरोपम का है।जीव लगातार २ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मिथ्यादृष्टिं तिर्यंच हो सकते है, मत्सय एवं पुरुष जीव १०० योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
इस सातवी नरक में दो चक्रवर्ती गये है
सुभूम चक्रवर्ती, औऱ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती जी
*प्रश्न के उत्तर*
*12:3:21*
1️⃣पङ्कप्रभा पृथिवि पर कितने योजन का पृथ्वीपिण्ड है।
🅰️120000 योजन
2️⃣९९९९५ नारकावास कौन सी नरक मेंहैं ।
🅰️मघाः प्रभा
3️⃣धुमपर्भा कहने का अभिप्राय क्या है
🅰️वहाँ राई, मिर्च के धुंए से भी अधिक धुंआ है।
4️⃣मघा :प्रभा किस नरक का नाम है
🅰️तमप्रभा
5️⃣इस सातवी नरक में दो चक्रवर्ती गये है कौन कौन से
🅰️सुभूम चक्रवर्ती और ब्रम्हदत्त चक्रवर्ती
6️⃣छठी नरक में कौन कौन से वासुदेव गए
🅰️पुरुषसिंह और पुरुषोत्तम
7️⃣महाकाल, रुद्र, महारुद्र और अप्रतिष्ठ नामक पांच नारकावास-नारक जीवों के रहने का स्थान कहाँ हैं,
🅰️महातम प्रभा में
8️⃣कौन सी नरक से आयु पूर्ण कर मिथ्यादृष्टिं तिर्यंच हो सकते है,
🅰️महातम प्रभा
9️⃣हजार योजन की पोलार है। उसमें एक पाथड़ा किस के जैसा है।
🅰️प्रस्तर गुफा जैसा
🔟खून,मांस और पीप का कीचड कौन सी नरक मेंहै ।
🅰️चौथी नरक पंकप्रभा में
13: 3:21*
*अध्याय*
प्रत्येक नरक के नीचे अलग-अलग तीन-तीन वलयार्ध -आधी चूड़ी जैसे हैं। यथा-
*पहलावलयाध घनोदधि* (जमे पानी) का है ,और २००० योजन का है। उसके नीचे *दूसरा वलयाध घनवात* का है जो घनोदधि से असंख्यातगुना अधिक है। उसके नीचे
*तीसरा वल्यार्ध तनुवात* का उससे भी असंख्यात गुना अधिक है।
उसके नीचे असंख्यातगुना आकाश है। जैसे पारे पर पत्थर और हवा पर बेलून (गुब्बारा) ठहरता है, उसी प्रकार इन तीनों वलयार्ध के ऊपर सातों नरक ठहरे हैं।
*बिल*
नारकावास की भीतों में ऊपर बिल के आकार के योनिस्थान (नारकियों के उत्पन्न होने के स्थान) बने हुए हैं।
सूयगडांग सूत्र के पांचवें अध्ययन में कहा है-
*'अहो सिरो कट्टुं उवेइ दुग्गं'*
अर्थात् नारकी जीव सिर नीचा करके गिरते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र के आस्रवद्वार में भी ऐसा ही कथन है। इससे जान पड़ता है कि नारकी जीवों की उत्पत्ति का स्थान नारकावासों के ऊपर बिलों में होना चाहिए। इस विषय का
खुलासा और विस्तृत कथन दिगम्बर आम्नाय के ग्रन्थों में है। कोई-कोई कुम्भियों में उत्पत्ति-स्थान मानते हैं।
पापी प्राणी उन स्थानों से उत्पन्न होते हैं। नरक में उत्पन्न होने वाले नारकी जीव
(१) वहां के अशुभ पुद्गलों का आहार ग्रहण करके आहारपयाप्ति को पूर्ण करते हैं।
(२) ग्रहण किए हुए पुद्गल वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत होते हैं, तब शरीरपर्याप्ति पूरी होती है
(३) शरीर से इन्द्रियों का आकार बनने पर इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होती है
(४) फिर इन्द्रियों के द्वारा वायु को ग्रहण करते और छोड़ते हैं, तब श्वासोच्छवासपर्याप्ति से पर्याप्त होते हैं
(५-६) फिर मन और भाषा पर्याप्ति से पूर्ण होते हैं। फिर बिल के नीचे रही कुम्भी में नीचे सिर और ऊपर पैर करके गिरते हैं। वे कुम्भियां चार प्रकार की कही गई हैं- (जिसका वर्णन पहले आ चुका है।)
* इन
चारों प्रकारकी कुम्भियों में से किसी एक कुम्भी में गिरने के बाद नारकी जीव का शरीर फूल जाता है। शरीर फूल जाने के कारण वह उसमें बुरी तरह फंस जाता है। कुम्भी की तीखी धारें उसके चारों ओर से चुभती हैं और नारकी जीव वेदना से तिलमिलाने लगता है। उस समय परमाधामी देव उसे चीमटे या संडासी से पकड़ कर खींचते हैं। नारकी जीव के खण्ड-खण्ड होकर उसमें से निकलते हैं। इससे नारकी जीव को घोर वेदना तो होती है, मगर वह मरता नहीं है। कृतकर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। नारकी जीव के शरीर के वे टुकड़े फिर मिल जाते हैं और फिर जैसे का तैसा शरीर बन जाता है।
*प्रश्न के उत्तर*
*13: 3:21*
1️⃣किस की तीखी धारें उसके चारों ओर से चुभती हैं
🅰️कुम्भी की
2️⃣अहो सिरो कट्टुं उवेइ दुग्गं' अर्थात् क्या *
🅰️नारकी जीव सिर नीचा करके गिरते हैं
3️⃣प्रश्नव्याकरण सूत्र के ---- में भी ऐसा ही कथन है
🅰️आश्रव ध्दार में
4️⃣प्रत्येक नरक के नीचे अलग-अलग तीन-तीन वलयार्ध किस जैसे है
🅰️आधी चुङी जैसे
5️⃣आहारपयाप्ति को पूर्ण कैसे करते हैं।
🅰️नरक के अशुभ पुदगलो को ग्रहण करके
6️⃣कौन उसे चीमटे या संडासी से पकड़ कर खींचते हैं।
🅰️परमाधामी देव
7️⃣ किस को भोगे बिना छुटकारा नहीं
🅰️कृतकर्मो को
8️⃣घनोदधि* (जमे पानी) का है कितने योजन का है।
🅰️2000योजन का
9️⃣विस्तृत कथन दिगम्बर कौन से ग्रन्थों में है।
🅰️आम्नाय ग्रंथों में
🔟 हवा पर बेलून (गुब्बारा) ठहरता है, उसी प्रकार इन तीनों वलयार्ध के ऊपर क्या ठहरे हैं।
🅰️सातों नरक
*15:3:21*
*अध्याय*
*नारकी जीवों की वेदनाएं*
नारकी जीवों को तीन प्रकार की वेदनाएं प्रधान रूप से होती हैं-
(१) *परमाधामी देवों* के द्वारा दी जाने वाली वेदनाएं,
(२) *क्षेत्रकृत* अर्थात् नरक की भूमि के कारण होने वाली वेदनाएं और
(३) *नारकी जीवों* द्वारा आपस में एक-दूसरे को पहुंचाई जाने वाली वेदनाएं।
परमाधामी देव तीसरे नरक तक ही जाते हैं, आगे नहीं। अतएव आगे के चार नरकों में
दो हो प्रकार की वेदनाएं होती हैं, किन्तु वेदनाओं की तीव्रता आगे-आगे बढ़ती ही जाती है।
पहले नरक से अधिक दूसरे में, दूसरे से अधिक तीसरे में, तीसरे से अधिक चौथे में, इस
प्रकार सातवें नरक में सबसे अधिक वेदनाएं होती हैं। इन सब वेदनाओं का वर्णन आगे कियाजाता है
*परमाधामी-देवकृत वेदनाएं*
परमाधामी देव असुरकुमार देवों की एक जाति है। वह पन्द्रह प्रकार के होते हैं। दूसरों को दु:ख देना और दु:खी देखकर प्रसन्न होना तथा आपस में लड़ना-भिड़ना और लड़ाई देख कर प्रसन्न होना इनका स्वभावहै। ये परमाधामी देव नारकी जीवों को इस
परमाधामी देव नारकी जीवों को इस प्रकार कष्ट पहुंचाते हैं :
*(१) अम्ब*-नारकी जीवों को आकाश में ले जाकर एकदम नीचे पटक देते हैं।500 योजन तक उछालते है
*(२) अम्बरीष देव*–नारकी जीवों को छुरी वगैरह से छोटे-छोटे टुकड़े करके भाड़ में पकने
के योग्य बनाते हैं।
*(३) श्याम देव*-रस्सी या लात-घूंसे मुठियो वगैरह से नारकी जीवों को मारते हैं तथा भयंकर कष्टकारी स्थानों में ले जाकर पटक देते हैं। जैसे सिपाही चोर को मारता है उसी प्रकार ये परमाधामी नारकियों को बुरी तरह पीटते हैं।
*(४) शबल* -जैसे सिंह, बिल्ली या कुत्ता अपने लक्ष्य को पकड़कर उसे चीर-फाड़् कर मांस निकालता है, उसी प्रकार ये परमाधामी देव नारकी के शरीर को चीर-फाड़ कर आंते तक फाड़कर मांस जैसे पुद्गल को बाहर निकालते हैं।
*(५) रुद्र*-जैसे देवी के भोंपे (पंडे) बकरा आदि को त्रिशूल से छेदते हैं और शूला से बींधते हैं, उसी प्रकार ये परमाधामी नारकी जीवों को छेदते-भेदते है
भाला और बर्छी से आंख को बिंधते है
*6महारौद्र*-जैसे कसाई मांस के खण्ड-खण्ड करता है. उसी प्रकार ये परमाधामीनारकी जीवों के शरीर के खण्ड खंड करते हैं ।
*7 काल* - जैसे हलवाई गरम तेल यानी कढ़ाई में पूडी या भुजिया तलता है, उसी प्रकार में परमाणामी नारकी का मांस कार काट कर और उबलते तेल में तलकर उसी को खिलाते
*(८) महाकाल*-जैरे पक्षी मुर्दा जानवर का मांस नोच -नोच कर खाते हैं, उसी प्रकार
ये परमाधामी नारकी का मांस चीमटे से नोंच -नोंच कर उसे ही खिलाते हैं।
*(९ ) असिपत्र*- जैसे योद्धा संग्राम में तलवार से शत्रु का संहार करता है उसी प्रकार ये परमाधामी तलवार से नारकियों के शरीर के तिल के बराबर-बराबर छोटे-छोटे खण्ड
करते हैं ।
*(१०) धनुष*-जैसे शिकारी कान तक धनुष को खींच कर, वाण से पशु के शरीर को भेदता है, उसी प्रकार ये परमाधामी बाणों से नारकी जीवों के शरीर को चीर-फाड़ कर, उनके कान आदि अवयवों का छेदन करते हैं।
कल आगे
*15:3:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣जैसे हलवाई गरम तेल यानी कढ़ाई में पूडी या भुजिया तलता है, ऐसा कौन सा देव करता है
🅰️काल
2️⃣रस्सी या लात-घूंसे मुठियो वगैरह से नारकी जीवों को कौन से देव मारते हैं
🅰️श्याम देव
3️⃣महारौद्र देव किसके जैसे मांस का खंड खंड करते है
🅰️कसाई
4️⃣ कौन सी नरक में सबसे अधिक वेदनाएं होती हैं
🅰️सातवें नरक में
5️⃣बाणों से नारकी जीवों के शरीर को चीर-फाड़ कौन करतेहै,
🅰️धनुष देव
6️⃣ दूसरों को दु:ख देना और दु:खी देखकर प्रसन्न कौन होता
हैं
🅰️परमाधामी देव
7️⃣आगे के चार नरकों में कितने प्रकार की वेदनाएं होती हैं,
🅰️ दो ही
8️⃣नारकी जीवों को कितने प्रकार की वेदनाएं प्रधान रूप से कौन - कौन सी होती हैं-
🅰️परमाधामी देवों,क्षेत्रकृत,नारकी जीवों* द्वारा
9️⃣आकाश में ले जाकर एकदम नीचे कौन से देव पटक देते हैं
🅰️अम्ब
🔟परमाधामी देव कौन सी नरक तक ही जाते हैं,
🅰️तीसरे नरक
*16:3:21*
*अध्याय*
*(११) कुम्भ*-जैसे गृहस्थ नींबू को चीर-फाड कर उसमें नमक-मिर्च आदि मसाला भर कर घड़े में अचार डालता है, उसी प्रकार ये परमाधामी नारकी के शरीर को चीर-फाड कर, उसमें मसाला भर कर कुम्भी में पकाते हैं ।
*(१२) बालक*-जैसे भड़भूंजा उष्ण रेती की कढ़ाई में चना आदि धान्य को भूजत हैं, उसी प्रकार ये परमाधामी नारकी जीवों को गर्म बालू में भूंजते हैं। *(१३) वैतरणी*-जैसे धोबी वस्त्र को धोता है, निचोड़ता है, पछाड़ता है, उसी प्रकार ये परमाधामी असुर वैतरणी नदी की शिला पर नारकियों को पछाड़-पछाड़ कर धोते हैं तथा
गरम मांस, रुधिर, राध आदि पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकियों को फैंक कर उन्हें
तैरने के लिए मजबूर करते हैं। *(१४) खरस्वर*- जैसे शौकीन लोग बगीचे की हवा खाते हैं, उसी प्रकार ये परमाधामी विक्रिया(मायावी) से बनाए हुए शाल्मली वृक्षों के समान वन में नारकियों को बिठला कर हवा चलाते हैं, जिससे तलवार की धार के समान तीखे पत्ते उन वृक्षों से गिरते हैं और नारकियों के अंग कट-कट कर गिरते हैं। ये शाल्मली वृक्षों पर चढ़ा कर करुण चिल्लाहट करते हुए नारकियों को खींचते हैं।
*(१५) महाघोप*- जैसे निर्दय ग्वाला बकरियों को बाड़े में ठूंस-ठूंस कर भरता है, उसी प्रकार ये परमाधामी घोर अन्धकार से व्याप्त संकडे कोठे में नारकियों को ठूंस-ठूंस कर खचाखच भरते हैं और वहीं रोक कर रखते हैं। मांसाहारी जीव नरक में उत्पन्न होते हैं। यमदेव (पूर्वोक्त परमाधामी) उनके शरीर का मांस चिमटे से नोंच कर तेल में तलकर या गरम रेत में भून कर उन्हीं को खिलाते हैं। कहते हैं-ले, तुझे मांस भक्षण करने का बड़ा शौक था! अब उसका फल चख! जैसे तुझे दूसरे प्राणियों का मांस पसन्द था, वैसे ही अब इसे अपने मांस कोपसन्द कर!
जो लोग मदिरा-पान करके अथवा बिना छना पानी पीकर नरक में उत्पन्न होते हैं, उनको तांबे, सीसे, लोहे आदि का उबलता हुआ रस, संडासी से जबरदस्ती मुंह फाड़ कर पिलाते हैं और कहते हैं लीजिए न इसका भी तो शौक कीजिए! यह भी बड़ी लज्जतदार चीज़ है।
जो वेश्यागमन और पर-स्त्रीसेवन करके नरक में जाते हैं उन्हें आग में तपा-तपा का लाल बनाई हुई फौलाद की पुतली का बलात्कार से गाढ़ आलिंगन कराते हैं और कहते हैं अरे दुष्ट व्यभिचारी! अपने कुकर्म का फल भोग ! तुझे पर-स्त्री प्यारी लगती थी तो अब क्यों रोता है? इस पुतली को छाती से लगा!
कुमार्ग पर चलने वालों को और खोटा उपदेश देकर दूसरों को कुमार्ग पर चलाने वालों को धधकते हुए लाल-लाल अंगारों पर चलाया जाता है।
*प्रश्न*
*16 :3:21*
1️⃣तुझे दूसरे प्राणियों का मांस पसन्द था, वैसे ही अब किसे
पसन्द कर।
🅰️अपने मांस कोपसन्द कर!
2️⃣कौन से देव शरीर को चीर-फाड कर, उसमें मसाला भर कर कुम्भी में पकाते हैं ।
🅰️ कुंभ
3️⃣यमदेव मतलब क्या
🅰️ पूर्वोक्त परमाधामी
4️⃣परमाधामी नारकी जीवों को किसमेंभूंजते हैं।
🅰️ गर्म बालू
5️⃣किसके तलवार की धार के समान तीखे पत्ते उन वृक्षों से गिरते हैं ।
🅰️शाल्मली वृक्षों
6️⃣धधकते हुए लाल-लाल अंगारों पर किसे चलाया जाता है।
🅰️कुमार्ग पर चलने वालों को और खोटा उपदेश देकर दूसरों को कुमार्ग पर चलाने वालों को
7️⃣किसकी शिला पर नारकियों को पछाड़-पछाड़ कर धोते हैं
🅰️वैतरणी नदी
8️⃣ कौनसे देवअन्धकार से व्याप्त संकडे कोठे में नारकियों को ठूंस-ठूंस कर खचाखच भरते हैं
🅰️महाघोप देव
9️⃣जो लोग मदिरा-पान करके अथवा बिना छना पानी पीकर नरक में उत्पन्न होते हैं, उन्हें देव क्या पिलाते हैं
🅰️उनको तांबे, सीसे, लोहे आदि का उबलता हुआ रस,
🔟आग में तपा-तपा का लाल क्याबनाई हुई बलात्कार से गाढ़ आलिंगन कराते हैं
🅰️फौलाद की पुतली
*
*17:3:21*
*अध्याय*
जो लोग जानवरों और मनुष्यों पर उनकी शक्ति से अधिक भार लादते हैं, उनसे कंकर-पत्थर और कांटों से युक्त रास्ते में लाखों टन वजन वाली गाड़ी खिंचवाई जाती है। ऊपर से तीखी धार वाले चाबुकों के प्रहार किए जाते हैं। परमाधामी कहते हैं-निर्दय कहीं के! तुझे मूक पशुओं पर दया नहीं आई, उसका फल भुगत! जो दूसरों पर दया नहीं दिखलाता उस पर कौन दया करेगा!
कूप, तालाब, नदी आदि के पानी में मस्ती करने वालों को, बिना छाना पानी काम में
लाने वालों को और वृथा पानी बहाने वालों को वैतरणी नदी के उष्ण, खारे पानी में डालते है कर उनके शरीर को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं।
सांप, बिच्छू, पशु-पक्षी आदि प्राणियों की हिंसा करने के शौकीन लोगों को यमदेव दंड देते है वे सांप, बिच्छू, सिंह आदि का रूप बनाकर चीरते-फाड़ते हैं और तीक्ष्ण जहरीले दंश से उन्हें त्रास पहुंचाते हैं।
वृथा वृक्षों का छेदन-भेदन करने वालों के शरीर का छेदन-भेदन करते हैं । माता-पिता आदि वृद्ध और उपकारी जनों को जो संताप देते हैं उनका हृदय भाले से भेदा जाता है, दगाबाज़ी करने वालों को ऊंचे पहाड़ से पटका जाता है। श्रोत्रेन्द्रिय को प्रिय राग-रागिनी के अत्यंत शौकीन के कान में उबलता हुआ शीशा भर दिया जाता हैं
चक्षुरिन्द्रिय से दुर्भावना के साथ पर-स्त्री का अवलोकन करने वालों की और ख्याल-तमाशे देखने वालों की आंखें शूलसे फोड़ी जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय के विषय में अत्यन्त आसक्त पुरुष को राई-मिर्च आदि का अत्यन्त तीखा धुआं सुंघाया जाता है। जिहवा से चुगली, निन्दा आदि करने वाले के मुंह में कटार भरी जाती है। किसी -किसी पापी को घानी में पीलते हैं, अंगारों में पकाते हैं औऱ महावायु में उड़ाते हैं। इस प्रकार पूर्व जन्म में किए हुए कुकृत्यों के अनुसार अनेक प्रकार के घोर-अतिघोर दु:खों से दु:खित करते हैं।
इन अतीव भयानक दु:खों से व्यथित होकर-घबड़ा कर नारकी जीव बड़ी लाचारी और दीनता दिखलाते हैं। दोनों हाथों की दशों उंगलियां मुंह में डाल कर पैरों में नाक रगड़ते हुए प्रार्थना करते हैं-बचाओ, हमें बचाओ! मत मारो। अब हम कभी ऐसा पाप नहीं करेंगे।
*17:3:21*
*प्रश्न*
1️⃣नारकी पैरों में नाक रगड़ते हुए क्या प्रार्थना करते हैं-
🅰️ बचाओ, हमें बचाओ !मत मारो। अब हम कभी ऐसा पाप नहीं करेंगे।
2️⃣घ्राणेन्द्रिय के विषय में अत्यन्त आसक्त पुरुष किसका धुआं सुंघाया जाता है।
🅰️ राई - मिर्च आदि का अत्यंत तीखा धुंआ
3️⃣किनसे कंकर-पत्थर और कांटों से युक्त रास्ते में लाखों टन वजन वाली गाड़ी खिंचवाई जाती है
🅰️ जो लोग जानवरों और मनुष्य पर उनकी शक्ति से अधिक भार लादते हैं
4️⃣ किनका हृदय भाले से भेदा जाता है,
🅰️ माता पिता आदि वृद्ध और उपकारी जनों को जो संताप देते हैं उनका ह्रदय भाले से भेदा जाता है।
5️⃣दगाबाज़ी करने वालों को कहाँ से पटका जाता है
🅰️ ऊंचे पहाड़ से
6️⃣वैतरणी नदी के उष्ण, खारे पानी में किसे डालते है
🅰️ बिना छाना पानी काम में लाने वालो को और वृथा पानी बहाने वालों को
7️⃣कौन से जन्म के किए हुए कुकृत्यों के अनुसार अनेक प्रकार के घोर-अतिघोर दु:खों से दु:खित करते हैं।
🅰️ पूर्व जन्म में
8️⃣निर्दय कहीं के! तुझे मूक पशुओं पर दया नहीं आई, उसका फल भुगत! ये कौन कहता हैं
🅰️ परमाधामी कहते है
9️⃣पशु-पक्षी आदि प्राणियों की हिंसा करने के शौकीन लोगों को कौन से देव दंड देते है
🅰️ यमदेव
🔟किसके अत्यंत शौकीन के कान में उबलता हुआ शीशा भर दिया जाता हैं
🅰️ श्रोत्रेंद्रीय को प्रिय राग - रागिनी के
*इस no पर भेजे* ⤵️
*18:3:21*
*अध्याय*
* पूर्व अंश*
नारकी गिड़गिड़ाते है -बचाओ, हमें बचाओ! मत मारो। अब हम कभी ऐसा पाप नहीं करेंगे।
*अब आगे*
न सताओ ! नारकों के इस प्रकार के करुणापूर्ण शब्द सुनकर परमाधामी देवो को तनिक भी तरस नहीं आता। वे लेशमात्र भी दया नहीं दिखलाते। उनके करुण-क्रन्दन पर जरा भी विचार न करके, उल्टे ठहाका मारकर उनकी हंसी उड़ाते हैं और अधिकाधिक व्यथा पहुंचाते हैं। यहां स्वभावत: दो प्रश्न उठते हैं। पहला यह कि परमाधामी असुर नारकी जीवों को
क्यों दुःख देते हैं? और दूसरा प्रश्न यह कि परमाधामी असुरों को पाप लगता है या नहीं? पहले प्रश्न का उत्तर यह है कि जो लोग निर्दय होते हैं, शिकार खेलने तथा हाथी, बैल, मेष, कुत्ता आदि जानवरों को लड़ाने में आनन्द मानते हैं अथवा जो बालतपस्वी अग्निकाय, जलकाय एवं वनस्पतिकाय के असंख्यात जीवों की घात करके अज्ञान-तप करते हैं, वे मर कर परमाधामी देव होते हैं। वे स्वभावत: नारकी जीव को लड़ाने-भिड़ाने और कष्ट पहुंचाने में आनन्द मानते हैं। ऐसा उनका पूर्व जन्म का कुसंस्कार है। इसी कुसंस्कार से प्रेरित होकर दुःख देते हैं।
दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि पाप करने वाले को फल अवश्य भोगना पड़ता है। *कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि।'*
अर्थात
किए हुए कर्म का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता।
आगम के इस कथन के अनुसार चाहे देव हो या मनुष्य, पशु हो या पक्षी, कोई भी
अपने भले-बुरे कर्म के फल से बच नहीं सकता। अत: परमाधामी देवों को भी अपने कृत्यों का फल मिलता है। परमाधामी देव मरने के बाद बकरा, मुर्गा आदि की नीच योनियों में उत्पन्न होते हैं और अपूर्ण आयु में ही मारे जाते हैं। आगे भी उन्हें विविध प्रकार की व्यथाएं भोगनी पड़ती हैं।
औऱ परमाधामी तीसरे भव में ये स्वयं भी नरक में उत्पन्न होते है
*नारकियों को परस्पर दुःख उत्पन्न करानेवाले असुरकुमार देव कौन होते है?*
परमाधामी देव
पुर्व मे देवायु का बन्ध करने वाले मनुष्य या तिर्यंच अनन्तानुबन्धी मे से किसी एक का उदय आने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाति के देव होते है।
*परस्पर-जनित वेदनाएं*
*परस्परोदीरित दुखा:*-
संधि विच्छेद -परस्पर+ उदीरित +दुखा:
शब्दार्थ-परस्पर-आपस में, उदीरित-उत्पन्न कर देते है , दुखा:-दुःख
अर्थ-नारकी आपस में एक दुसरे को दुःख देते है !
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सिर्फ तीसरे नरक तक ही परमाधामी देव जाते हैं।
अतएव उनके द्वारा पहुंचाई जाने वाली विविध वेदनाएं भी तीसरे नरक तक ही होती हैं।
उससे आगे चौथे और पांचवें नरक के नारकी आपस में एक दूसरे को कष्ट देते हैं। जैसे-
नये कुत्ते के आने पर दूसरे कुत्ते उस पर टूट पड़ते हैं और दांतों से, पंजों से उसे त्रास पहुंचाते
हैं, उसी प्रकार नरक में नारकी जीव एक दूसरे पर निरन्तर आकमण करते रहते हैं । औऱ घोर परिताप उत्पन्न करते है
नारक जीव एक दुसरे को भयंकर वेदना पहुंचाते है। वे एक-दुसरे के जन्मजात शत्रु होते है। जैसे कौवे और उल्लू में या सांप तथा नेवले में जन्मजात वैर होता है, वैसे ही नारकी जीवों में एक-दुसरे के प्रति जन्मजात वैर होता है। इस कारण वे आपस में लड़ते है, झगड़ते है, मारपीट करते है और नानाविध परित्रास पहुंचाते रहते है। ये वेदनाएं प्रारम्भ की पांच नारकीयों में होती है।
छठे और सातवें नरक के नारकी गोबर के कीड़े के सामान वज्रमय मुख वाले कुंथुर्वे का रूप बनाकर आपस में एक-दुसरे के शरीर के आर-पार निकल जाते है। सारे शरीर को चालनी के समान छेद करके महान भयंकर वेदना पहुंचाते है। वे जीव प्रतिक्षण इसी प्रकार की घोर -अतिघोर वेदनाएँ एक-दुसरे को पहुंचाते रहते है। इसलिए नारकी जीवों को परस्परजन्य वेदना का भयंकर कष्ट भोगना पड़ता है।
*18:3:21*
*उत्तर*
1️⃣नारकी जीवों में एक-दुसरे के प्रति ------होता है। इस कारण वे आपस में लड़ते है, झगड़ते है
🅰️ *जन्मजात वैर*
2️⃣किसी एक का उदय आने से रत्नत्रय को नष्ट करके कौन सी जाति के देव होते है।
🅰️ *असुरकुमार*
3️⃣शरीर को चालनी के समान छेद करके महान भयंकर वेदना पहुंचाते है। ये कौन -कौन सी नरक में होता हैं
🅰️ *छठे और सातवे*
4️⃣परमाधामी देव मरने के बाद कहाँ उत्पन्न होते हैं
🅰️ *बकरा,मुर्गा आदि की नीच योनियों में उत्पन्न होते हैं*
5️⃣कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि।'*
अर्थात क्या
🅰️ *किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता*
6️⃣कैसे क्या बनकर आपस में एक-दुसरे के शरीर के आर-पार निकल जाते है।
🅰️ *गोबर के किडे़ के समान वज्रमय मुख वाले कुंथुवे का रुप बनाकर आपस में एक -दुसरे के शरीर के आर-पार निकल जाते हैं*
7️⃣नारकी जीवों को कौन सी वेदना का भयंकर कष्ट भोगना पड़ता है।
🅰️ *परस्परजन्य वेदना*
8️⃣नरक के नारकी आपस में एक दूसरे को कष्ट देते हैं। जैसेउदाहरण से समझाये
🅰️ *नये कुत्ते के आनेपरा दूसरे कुत्ते उसपर टूट पड़ते हैं*
9️⃣परस्परोदीरित दुखा:* का अर्थ
🅰️ *नारकी आपस में एक-दुसरे को दुःख देते हैं*
🔟परमाधामी कौन से भव में ये स्वयं भी नरक में उत्पन्न होते है
🅰️ *तीसरे भव में*
*19 :3:21*
*अध्याय*
*क्षेत्र-वेदनाएं*
नरक की भूमि के स्वभाव से होने वाली वेदनाएं क्षेत्रवेदनाएं कहलाती हैं।नारकी भुमी दुःखद स्पर्शवाली, सुई के समान तीखी दुब से व्याप्त है। उससे इतना दुःख होता हे कि जैसे एक साथ हजारों बिच्छुओ ने डंक मारा हो।
वे दस प्रकार की होतो हैं। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:
*(1) अनन्त क्षुधा*-जगत् में जितने भी खाद्य पदार्थ हैं, वे सब एक नारकी को दे
दिए जाएं तो भी उसकी भूख न मिटे, इस प्रकार की क्षुधा से नारकी सदैव आतुर रहते हैं।पर उनको खाने को नहीं मिलता
*नारकियों का आहार*⤵️
कुत्ते, गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सडे हुए माँस और विष्ठा की दुर्गन्ध की अपेक्षा, अनन्तगुनी दुर्गन्धित मिट्टी नारकियों का आहार होती है।
प्रथम नरक के प्रथम पटल (इन्द्रक बिल) की ऐसी दुर्गन्धित मिट्टी को यदि हमारे यहाँ मध्यलोक मे डाला जाये तो उसकी दुर्गध से १ कोस पर्यन्त के जीव मर जायेंगे।
इससे आगे दुसरे, तीसरे आदि पटलों मे यह मारण शक्ती आधे आधे कोस प्रमाण बढते हुए साँतवे नरक के अन्तिम बिल तक २५ कोस प्रमाण हो जाती है।
*(२) अनन्त तृषा*- नारकी को संसार के सहस्त्र समुद्रों का जल एक नारकी को दे दिया जाए तो भी उसकी प्यास न बुझे, इस प्रकार की प्यास से नारकी सदैव पीड़ित रहते हैं। और उन्हें एक बूंद पानी के लिए तरसना पड़ता है, औऱ पीने को मिलता है तो गला हुआ शीशा इत्यादि जिसका वर्णन पूर्व में हुआ है।
*३अनन्त शीत* -पाँचवी पृथ्वी के बाकी १/४ बिल तथा छठी और साँतवी पृथ्वी के सभी बिल अत्यन्त शीतल है।
इनकी शीतलता इतनी तीव्र होती है
एक लाख मन का लोहे का गोला शीतयोनि वाले नरक में छोडा जाए तो तत्काल शीत के प्रभाव से छार-छार होकर बिखर जाए। नरक में इतनी भयानक सर्दी है। कल्पना कीजिए अगर कोई वहां के नारकी को उठाकर हिमालय के बर्फ में सुला दे तो वह उसे बड़ा ही आराम का स्थान समझेगा। ऐसी घोर सर्दी वहां सदैव पडती रहती
*(४) अनन्त ताप*- पहली, दुसरी, तीसरी और चौथी नरको के सभी बिल और पाँचवी पृथ्वी के ३/४ बिल अत्यंन्त उष्ण है।
नरक के उष्णयोनिक स्थान में एक लाख मन का लोहे का गोला छोड़ दिया जाए तो तत्काल गल कर पानी-पानी हो जाए। अगर उस जगह के नारकी को उठा कर कोई जलती भट्टी में डाल दे तो नारकी जीव बड़ा ही आराम समझे और उसे नींद आ जाए। ऐसी भयानक गर्मी वहां सदैव पड़ती रहती है।
*(५) अनन्त महाज्वर*–नारकी के शरीर में सदैव महाज्वर बना रहता है। इस महाज्वर के कारण उसके शरीर में दुस्सह जलन होती रहती है।
*(६) अनन्त खुजली*-नारकी सदैव अपना शरीर खुजलाते रहते हैं।
*(७) अनन्त रोग*-जलोदर, भगन्दर, खांसी, श्वास, कुष्ठ, शूल आदि १६ महारोग और ६,१२,५०००० प्रकार के छोटे रोगों से नारकी सदा पीड़ित रहता है।
*(८) अनन्त अनाश्रय*-नारकी इतनी भयानक वेदनाएं भोगते हुए भी शरणहीन हैं, निराधार हैं! कोई उन्हें आश्रय देने वाला नहीं, दिलासा देने वाला नहीं, सान्त्वना क शब्द कहने वाला नहीं मिलता।
*(९) अनन्त शोक*-नारकी जीव सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते हैं।
*(१०) अनन्त भय*-नरक की भूमि ऐसी अंधकारमयी है कि करोड़ों सूर्य मिलकर भी वहां प्रकाश नहीं कर सकते। नारकियों का शरीर भी महा-भयानक काला होता है चारोंओर मार-मार का कोलाहल मचा रहता है इत्यादि कारणों से नारकी जीव प्रतिक्षण भय से व्याकुल रहते हैं। ये दस प्रकार की वेदनाएं? सभी नारकियों को सदैव भोगनी पड़ती हैं। इनके कारण वे
प्रतिक्षण दु:खी रहते हैं। पलभर भी आराम नहीं पाते।
*प्रश्न के उत्तर*
*19:3:21*
1️⃣नारकी को संसार का कितना जल एक नारकी को दे दिया जाए तो भी उसकी प्यास न बुझे
🅰️सहस्त्र समुद्रों का जल
2️⃣किसे हिमालय के बर्फ में सुला दे तो वह उसे बड़ा ही आराम का स्थान समझेगा।
🅰️छठी,सातवीं पृथ्वी के नारकी को
3️⃣नारकियों का आहार मे क्या पदार्थ मिलता है ।
🅰️अनन्तागुनी दुर्गन्ध मिट्टी
4️⃣क्षेत्रवेदनाएं किसे कहते हैं।
🅰️नरक की भूमि के स्वभाव से होने वाली वेदनाए
5️⃣महाज्वर के कारण उसके शरीर में क्या होती रहती है।
🅰️दुस्सह जलन
6️⃣नरक की भूमि ऐसी अंधकारमयी है कि कौनप्रकाश नहीं कर सकते।
🅰️करोङो सूर्य मिलकर भी
7️⃣कितने प्रकार के छोटे रोगों से नारकी सदा पीड़ित रहता है।
🅰️6,12,50000
8️⃣अनन्त खुजली में नारकी क्या करते हैं
🅰️खुजलाते रहते हैं
9️⃣प्रथम नरक के प्रथम पटल (इन्द्रक बिल) की ऐसी दुर्गन्धित मिट्टी को यदि हमारे यहाँ मध्यलोक मे डाला जाये तो क्या हो
🅰️एक कोस पर्यंत के जीव मर जायेंगे
🔟कौन सी नरक की मिट्टी की दुर्गंध२५ कोस प्रमाण हो जाती है।
🅰️सातवीं नारकी के अंतिम बिल की
*इस no पर भेजे* ⤵️
*20:3:21*
*अध्याय*
प्रश्न-ऐसे महादुःख वाले नरक में किस पाप -कर्म के उदय से जीव जाता है? उत्तर-सूयगडांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पांचवें अध्ययन में कहा है:
तिव्वं तसे पाणिणो धावरे य, जे हिंसती आयमुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि ॥ पागब्भि पाणे बहुणं तिपाती, अनिव्वते घातमुवेति बाले । णिहो णिस गच्छति अन्तकाले, अहोसिरं कट्टु उवेड़ दुग्गं ॥
अर्थ-जो प्राणी अपने सुख के लिए त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचन्द्रिय) और स्थावर (पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय) के जीवों की तीव्र-निर्दय-क्षुद्र परिणाम से हिंसा करता है, उन्हें मर्दन कर परिताप उपजाता है, पख्धव्य का हरण करता-चोरी करता है, राहगीर को लूटता है, सेवन करने योग्य व्रतों का सेवन नहीं करता अर्थात् हिंसा आदि से निवृत्त होकर नवकारसी आदि इच्छानिरोध रूप प्रत्याख्यान का ज्ञान प्राप्त नहीं करता, हिंसा आदि पाप के कार्यों को पुण्य का कार्य बतलाने की धृष्टता करता है, क्रोध आदि (अनन्तानुबंधी) कषायों से निवृत्त नहीं होता, वह अज्ञानी मृत्यु के पश्चात् नीचा सिर करके अंधकारमय महाविषम नरक में जाता है और दुख पाता है।
*नरक की औऱ विशेष विशेषता*
सम्यग्दृष्टि जीव नरक में नहीं जाता। सम्यक्त्व होने से पहले किसी ने नरक की आयु का बंध कर लिया हो तो वह पहले नरक में उत्पन्न होता है। किन्तु नरक की वेदना भोगते-भोगते किसी जीव को वहीं सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है। ऐसे सम्यग्दृष्टि नारकी सभी सातों नरकों में हो सकते हैं। जो नारकी सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे नरक के दुःखों को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल जानकर समभाव से उन्हें सहन करते रहते हैं। वे दूसरों को दु:ख नहीं देते। किन्तु मिथ्यादृष्टि नारकी एक-दूसरे को लातों और मुक्कों से मारते हैं तथा विक्रिया से विविध प्रकार के शस्त्र बनाकर परस्पर में प्रहार करते हैं। इस प्रकार का आघात-प्रत्याघात निरन्तर चलता रहता है।
*नरको मे सम्यक्त्व मिलने के क्या कारण है* ?
धम्मा आदि तीन पृथ्वीयों मे मिथ्यात्वभाव से युक्त नारकियोँ मे से कोई जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, कोई देवों का संबोधन पाकर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
पंकप्रभा आदि शेष चार पृथ्वीयों मे देवकृत संबोधन नही होता, इसलिये जातिस्मरण और वेदना अनुभव मात्र से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
इस तरह सभी नरकों मे सम्यप्त्व के लिये, कारणभूत सामग्री मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
*प्रश्न के उत्तर*
*20:3:21*
1️⃣अज्ञानी मृत्यु के पश्चात् नीचा सिर करके अंधकारमय ---- नरक में जाता है और दुख पाता है।
🅰️महाविषम
2️⃣स्थावर कौन कौन से है ,कोई दो नाम बताये
🅰️जलकाय, अग्निकाय
3️⃣नवकारसी आदि इच्छानिरोध रूप ----- का ज्ञान प्राप्त नहीं करता,
🅰️प्रत्याख्यान
4️⃣पंकप्रभा आदि शेष चार पृथ्वीयों मे किसका संबोधन नही होता,
🅰️देवकृत
5️⃣तिव्वं तसे पाणिणो धावरे य, जे हिंसती आयमुहं पडुच्च ।
🅰️जो प्राणी अपने सुख के लिए त्रस और स्थावर जीवों की तीव्र निर्दय क्षुद्र परिणाम से हिंसा करता है।
6️⃣ये पूरा सूत्र किससे लिया गया हैं
🅰️सूयगडांग सूत्र
7️⃣धम्मा आदि तीन पृथ्वीयों मेमिथ्यात्वभाव से युक्त नारकियोँ में सम्यकत्व कैसे आ जाता है कोई एक कारण बताएं
🅰️देवों का संबोधन पाकर
8️⃣कौन सा जीव नरक में नहीं जाता।
🅰️सम्यगदृष्टि जीव
9️⃣नरक में किस पाप -कर्म के उदय से जीव जाता है कोई
दो कारण बताइये
🅰️त्रस और स्थावर जीवों की हत्या करता है, चोरी करता है।
🔟सम्यग्दृष्टि नारकी कौन कौन सी नरकों में हो सकते हैं।
🅰️सातों नरक में हो सकते हैं।
*22:3:21*
*अध्याय*
*नारकीयो के कुछ और कथनीय बिंदु*
नरक के कुल भेद
चौदह है
सात नरक के ७पर्याप्ता७ अपर्याप्ता=१४भेद
नारकी जीवों में 9 उपयोग होते है
नारकी जीवों की गति-आगति
मनुष्य,तिर्यंच की है।
मतलब नरक में केवल मनुष्य और तिर्यंच ही जा सकते हैं औऱ वँहा से भीइन्हीं दो गति में ही आसकते है।
पंचेन्द्रिय में भी पर्याप्ता ही पूरा समझे
तिर्यंच पंचेन्द्रिय के20 भेद है
पर्याप्ता जीव ही नरक में जा सकते है।तो 10 अपर्याप्ता को
छोड़ दे तो
सन्नी के 5 पर्याप्ता असन्नि के 5 5+5=10 प्रकार के जीव
मनुष्य के202 भेद है 101 पर्याप्ता 101अपर्याप्ता
101अपर्याप्ता तो जाते ही नही है।
पर्याप्ता में 101 इसप्रकार है ⤵️
15 कर्म भूमि के जीव
30अकर्म भूमि के जीव
56अंतर द्वीप
------
=101 इसमें से
30अकर्म भूमि के जीव
56अंतर द्वीप ये 86 युगलिक है ये मरकर देवगति में ही जाते हैयहां के तिर्यंच भी देव लोक में जाते है।औऱ समुर्च्छिम मनुष्य नियमा नरकमें नहीं जाते?
नारकी का निकला
जीव दो ही गति में जन्म लेता है
मनुष्य औऱ तिर्यंच
सन्नी पंचेन्द्रिय को ही प्राप्त करता है । पर वो जन्म लेता है तो पहले अपर्याप्ता होता है फिर वो पर्याप्ता हो जाता है
15 कर्म भूमि में ही जन्म लेता है, युगलिक (ना मनुष्य न तिर्यंच) नही होता
गति और दण्डक की अपेक्षा से 1 से 6 नारकी तक एक ही है
2 दण्डक में आवे 2 दण्डक में जावे
15 कर्म भूमि ,जलचर,उरपरिसर्प,स्थलचर,खेचर,भुजपर ये सभी पहली नारकी तक जाते है
भुजपर के जीव 1 नारकी तक जाते हैं दूसरी नरक में नहीं
इस तरह पीछे से एक 2 क्रम कम होता जाएगा जैसे
खेचर तीसरी नारकी तकही जाते है
स्थलचर 4 नारकी तक जाते है
उरपरिसर्पपाँचवी नरक तक जा सकता है।
6 -7नारकी तक में 15 कर्म भूमि और जलचर जाएंगे
ये दोनों सभी नारकी में जाते है
7 वी नरक का जीव मरकर सन्नी तिर्यंच में ही जन्म लेता है
*नारकियों के नपुंसक वेद ही क्यों होता है?*
*उत्तर*-नरक गति पाप के उदय से प्राप्त होती है । वहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होते है । स्त्रीवेद वाला पुरुष के साथ तथा पुरुषवेद वाला स्त्री के साथ रमण करके सुख प्राप्त कर लेता है । नपुंसकवेद वाले की वासनाएँ स्त्री-पुरुष वेद वालों की अपेक्षा कई गुणी होती है, लेकिन वह न पुरुष के साथ रम सकता है और न स्त्री के साथ इसलिए वह वासनाओं से संतप्त रहता है । नरकों में यदि स्त्री-पुरुष वेद होगा तो उन्हें सुख मिल जायेगा । परन्तु वहाँ पंचेन्द्रियजनित विषयों से उत्पन्न. कोई सुख नहीं होता है, शायद इसीलिए उनके नपुंसक वेद ही होता है ।
निरन्तर दुःखी होने के कारण उनके दो (स्त्री-पुरुष) वेद नहीं होते हैं ।
*लेश्या किसे कहते है* ?
कषायों के उदय से अनुरंजित, मन वचन और काय की प्रवृत्ती को लेश्या कहते है।
उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल ऐसे ६ भेद होते है।
प्रारंभ की तीन लेश्यायें अशुभ है और संसार की कारण है एवं शेष तीन लेश्यायें शुभ है और मोक्ष की कारण है।
नरक मे कौनसी लेश्यायें होती है ?
नारकियों के नित्य संक्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए उनके अशुभ लेश्याएँ ही होती
नरक में जो अशुभ लेश्या होती है, उसी के अंतर्गत अच्छा अभिप्राय होने पर मंदता आ जाती है ।
कृष्ण लेश्या में मरकर जलचर जीव यदि6-7 नरक में उत्पन्न होगा यदि 5 वी नारकी में तो
नील कृष्ण लेश्या
नारकियों के शरीर नियम से हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं, इसलिए उनके द्रव्य से अशुभ लेश्या ही होती है । सभी नारकियों के पर्याप्तावस्था में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है प्रथम और द्वितीय नरक मे : कापोत लेश्या
तृतीय नरक मे : ऊपर कापोत और नीचे नील लेश्या
चतुर्थ नरक मे : नील लेश्या
पंचम नरक मे :ऊपरी भाग मे नील और निचले भाग मे कृष्ण लेश्या
षष्ठम नरक मे :कृष्ण लेश्या
सप्तम नरक मे :परमकृष्ण लेश्या
*22:3:21*
*उत्तर*
1️⃣7 वी नरक का जीव मरकर कहाँ पर ही जन्म लेता है।
🅰️ *सन्नी तिर्यंच में*
2️⃣लेश्या किसे कहते है* ?
🅰️ *कषायों के उदय से अनुरंजित,मन,वचन,और काय की प्रवृत्ती*
3️⃣नपुंसकवेद वाले की वासनाएँ किन की अपेक्षा कई गुणी होती है,
🅰️ *स्त्री -पुरुष वेद वालों*
4️⃣किसके के अंतर्गत अच्छा अभिप्राय होने पर मंदता आ जाती है ।
🅰️ *अशुभ लेश्या*
5️⃣किसलिए नारककेअशुभ लेश्याएँ ही होती
🅰️ *नारकियों के नित्य संक्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए*
6️⃣नारकियों के कौन सा वेद होता है?*
🅰️ *नपुंसक*
7️⃣6 -7नारकी तक में कौन कौन जाते हैं
🅰️ *15 कर्म भूमि और जलचर*
8️⃣नारकी का निकला जीव कितनी गति में जन्म लेता है
और कौन कौन सी
🅰️ *नारकी का जीव दो गति में जन्म लेता हैं l1)मनुष्य 2) तिर्यंच*
9️⃣मनुष्य कीपर्याप्ता में 101 किस प्रकार है।कौन सी औऱ कितनी भूमि औऱ द्वीप आते है
🅰️ *15 कर्म भूमि के जीव*
*30 अकर्म मूमि के जीव*
*56अंतर द्वीप*
🔟नारकियों के शरीर नियम से कौन से संस्थान वाले ही होते ।
🅰️ *हुण्डक*
*23:3:21*
*अध्याय*
*नरक में अवधि ज्ञान*
*भेदद्वार*-अवधिज्ञान दो प्रकार का है-
*[१] भवप्रत्यय और*
*[२] क्षयोपशमप्रत्यय*।
देवों और नारकों को देवभव तथा नरकभव के निमित्त से जन्मते ही (नरक मे उत्पन्न होते ही छहों पर्याप्तियाँ पुर्ण हो जाती है) होने वाला अवधिज्ञान
*भवप्रत्यय* कहलाता है।
(२) विषयद्वार-अवधिज्ञान से *सातवें नरक* के नारक का जघन्य अर्ध गव्यूति और उत्कृष्ट डेढ़ गव्यूति जानते हैं।
*छठे नरक* के नारक जघन्य एक गव्यूति और उत्कृष्ट डेढ़ गव्यूति
*पांचवे नरक* में जघन्य ड़ेढगव्यूति उत्कृष्ट दो गव्यूति अवधि ज्ञान होता है
*चौथे नरक* में जघन्य दो गव्यूति उत्कृष्ट अढ़ाईगव्यूति
*तीसरे नरक* में जघन्यअढ़ाई गव्यूति उत्कृष्ट तीन गव्यूति
*दूसरेनरक* में जघन्य तीन गव्यूति उत्कृष्ट साढ़ेतीन गव्यूति
*प्रथम नरक* में जघन्य। साढ़ेतीन गव्यूति उत्कृष्ट चार गव्यूति तक।
*असुरकुमार जाति के देव* अवधि ज्ञान से जघन्य 25 योजन और उत्कृष्ट असंख्यात् द्वीप देखते हैं।
और शेष *9 निकायों के देव* जघन्य 25 योजन और उत्कृष्ट संख्यात् द्वीप समुद्र देखते हैं। *वाण व्यंतर देव* जघन्य 25 योजन और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप समुद्र देखते हैैं।
* नीची दिशा में *पहले-दूसरे देवलोक के देव*
पहले नरक तक देखते हैं।* *तीसरे-चौथे देवलोक* के देव दूसरे नरक तक देखते हैं। *पांचवें-छठे देवलोक* के जीव तीसरे नरक तक देखते हैं। *सातवें-आठवें देवलोक* के जीव चौथे नरक तक देखते हैं। *नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक* के जीव पांचवें नरक तक देखते हैं। *नवग्रेवेयक' के देव* छठे नरक तक देखते हैं और *चार अनुत्तर विमानों* के देव सातवें नरक तक देखते हैं। *सर्वार्थसिद्ध विमानवासी* कुछ कम सम्पूर्ण लोक को जानते देखते है
*अवधि ज्ञान* से नारकी तिपाई के आकार में देखते है
*वाण व्यन्तर* देव पटह(ढफ) के आकार में देखते हैं।
*नारकी में कौन 2 से अवधि ज्ञान*
नारको को *आभ्यन्तर अवधि ज्ञान* होता हैं
नारको को *अनुगामीअवधि*( एक जगह से दूसरी जगह जाने पर भी साथ रहने वाला) ज्ञान होता है।
*देश सर्व द्वार* अपूर्ण अवधि ज्ञान होता है
नारको को अवस्थित अवधि ज्ञान होता है जो उत्पत्ति के समय जितना था उतना हीज्ञान रहे घटे बढ़े नही।
नारको को *अप्रतिपाती* (जो उत्पन्न होने के बाद समाप्त नहीं हो) ज्ञान होता है
मिथ्यादृष्टि नारकियों का अवधिज्ञान विभंगावधि - कुअवधि कहलाता है। एवं सम्यगदृष्टि नारकियोंका ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।
*नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है* ?
कल जानेंगे
*प्रश्न के उत्तर*
*23:3:21*
1️⃣ कौन से देव पटह(ढफ) के आकार में देखते हैं।
🅰️वाण व्यंतर
2️⃣नवग्रेवेयक' के देव* कौन सी नरक तक देखते हैं
🅰️छठवें नरक तक
3️⃣पहले नरक तक कौन देखसकते हैं।*
🅰️पहले दूसरे देवलोक के देव
4️⃣अनुगामीअवधि ज्ञान किसे कहते है
🅰️एक जगह से दूसरी जगह जाने पर भी साथ रहने वाले ज्ञान को
5️⃣अप्रतिपाती अवधि ज्ञान किसे कहते है।
🅰️जो उत्पन्न होने के बाद समाप्त नहीं हो
6️⃣ *अवधि ज्ञान* से नारकी किसके आकार में देखते है
🅰️तिपाई के
7️⃣अवधिज्ञान दो प्रकार का है- कौन कौन सा
🅰️भवप्रत्यय और क्षयोपशम प्रत्यय
8️⃣सर्वार्थसिद्ध विमानवासी* कँहा तक देखते है
🅰️कुछ कम सम्पूर्ण देवलोक को
9️⃣कौन सी नरक मे जघन्य तीन गव्यूति अवधि ज्ञान होता है।
🅰️दूसरे नरक में
🔟पांचवीं नरक में उत्कृष्ट कितना अवधि ज्ञान होता है
🅰️दो गव्यूति
24:03:21
*नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है* ?
अवधिज्ञान प्रकट होते ही नारकी जीव पूर्व भव के पापोंको, बैर विरोध को, एवं शत्रुओं को जान लेते है।
जो सम्यगदृष्टि है, वे अपने पापों को जानकर पश्चाताप करते रहते है और मिथ्यादृष्टि पुर्व उपकारों को भी अपकार मानते हुए झगडा-मार काट करते है।
कोई भद्र मिथ्यादृष्टि जीव पाप के फल को भोगते हुए, अत्यन्त दुःख से घबडाकर *'वेदना अनुभव'* नामक निमित्त से सम्यगदर्शन को प्राप्त करते है।
विकलत्रय और स्थावर जीव मरण के बाद अगले भव में नरकों में नहीं जाते।
प्रथम तीन नरकों से निकले जीव तीर्थंकर हो सकते हैं ।
पाँचवें नरक तक के जीव संयमी मुनि हो सकते हैं ।
छठे नरक तक के जीव देशव्रती हो सकते हैं ।
साँतवें नरक से निकले जीव कदाचित् ही सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं । मगर ये नियम से पंचेंद्रिय, पर्याप्तक, संज्ञी तिर्यंच ही होते हैं । मनुष्य नही हो सकते हैं
*गुण स्थान*
नारकी जीव मे 4गुणस्थान होते है पर
पहले 4 - मिथ्यात्व,सास्वादन, मिश्र और अविरत सम्यग्ददृष्टि
-नारकियों में पंचमादि गुणस्थान नहीं होते कारण
-अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से ।सहित हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दस गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं । ( प्रथमादि चार गुणस्थानों के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि संयमासंयम और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है ।
नैरयिक व्रत नही ले सकते ,चौथे से आगे नहीं जा सकते हैं।
नारकी जीव मे कषाय चार - क्रोध ,,मान,माया,लोभ ।
नरकसे आये जीव में क्रोधकषाय ज्यादा होती है।
*कुछ और जानकारी*
पूष्पचूला जी।
स्वप्न में नरक के भयंकर दृश्य देखकर कौन संयम के लिए प्रतिबध्द हुई ।
नरक में दक्षिणदिशा में नैरयिक ज्यादा है
सबसे बडा नरकावास
प्रथम नरक में सीमन्तक
सबसे छोटा नरकावास
सातवीं नरक में स्थित अप्रतिष्ठान है
तीर्थंकर के समवसरण में जाकर
नैरयिक देशना नहीं सुन सकते हैं।
*प्रश्न*
*24:3:21*
1️⃣ जो सम्यगदृष्टि है, वे
अपने पापों को जानकर क्या करते रहते है
🅰️ *पश्चाताप करते है*
2️⃣सबसे छोटा नरकावास कौन सा है
🅰️ *सातवीं नरक मे स्थित अप्रतिष्ठान*
3️⃣नारकियों में पंचमादि गुणस्थान नहीं होते क्या कारण है
🅰️ *अप्रत्याख्यानावर कषाय के उदय से*
4️⃣कौन सी नरकों से निकले जीव तीर्थंकर हो सकते हैं ।
🅰️ *प्रथम तीन नरकों से*
5️⃣नारकी जीव पूर्व भव के पापोंको, बैर विरोध को कैसे जान लेते हैं
🅰️ *अवधि ज्ञान प्रकट होने से*
6️⃣नैरयिक कौन सी देशना नहीं सुन सकते हैं।
🅰️ *तीर्थंकर के समवशरण मे जाकर*
7️⃣भद्र मिथ्यादृष्टि किस नामक निमित्त से सम्यगदर्शन को प्राप्त करते है
🅰️ *पाप का फल भोगते हुए*
8️⃣स्वप्न में नरक के भयंकर दृश्य देखकर कौन संयम के लिए प्रतिबध्द हुई ।
🅰️ *पुष्पचुला जी*
9️⃣अत्यन्त दुःख से घबडाकर किसके निमित्त से सम्यगदर्शन को प्राप्त करते है।
🅰️ *वेदना के अनुभव से*
🔟सबसे बड़ा नरका वास कौन सा है
🅰️ *प्रथम नरक में सीमान्तक*
*इस no पर भेजे* ⤵️
अध्याय
*25 : 3 :21*
*भवन पति देव*
अब हम नरक वासी देवो के बारे में जानते है।
पूर्वोक्त प्रथम नरक के १२ अन्तर असंख्यात योजन के लम्बे-चौड़े और ११५८३ योजन के ऊंचे हैं।
नरक के दो विभाग हैं *1उत्तर विभाग*
*और2 दक्षिण विभाग*
बारह अन्तरों में से एक सब से ऊपर का और दूसरा सब से नीचे का खाली पड़ा है। बीच के दस अन्तरों में अलग-अलग जाति के *दस भवनपति* देव रहते हैं।
भवनवासी देवों के मुकुटों मे उनके प चिन्ह होते है :
*1असुरकुमार -चिंह -चूडामणि*
*2नागकुमार -चिंह सर्प/नागमणि*
*3सुवर्णकुमार -चिंह गरुड*
*4विद्युत्कुमार -चिंह वज्र*
*5अग्निकुमार -चिंहकलश*
*6द्विपकुमार चिंह- सिंह*
*7उदधिकुमार -चिंह अश्व*
*8दिक्कुमार /दिशा कुमार चिंह- हस्ती*
*9वायुकुमार -चिंह मगर*
*10स्तनितकुमार -चिंह सरावला*
दस में से पहले अन्तर में *असुरकुमार*-जाति के भवनपतिदेव रहते हैं। दक्षिण विभाग में उनके ४४ लाख भवन हैं। चमरेन्द्र उनके स्वामी हैं। चमरेन्द्र के ६४००० सामानिक देव, २,५६००० आत्म रक्षक देव ,और छह अग्रमहिषियां (बड़ी इन्द्रानियां) हैं। प्रत्येक इन्द्रानी का भी छह-छह हजार का परिवार है। चमरेन्द्र की. सात अनीक (सेनाएं) हैं। तीन प्रकार की परिषद् हैं। आभ्यन्तर परिषद् के २४००० देव, मध्यपरिषद् के २८००० देव, और बाह्य परिषद् के ३२००० देव हैं। इसी प्रकार आभ्यन्तर परिषद् की ३५० देवियां, मध्य परिषद् की ३०० देवियां और वाह्य परिषद की २५० देवियां हैं। देवों की आयु जघन्य १०००० वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य १०००० वर्ष की और उत्कृष्ट ३॥ पल्योपम की है।
दक्षिण विभाग की तरह उत्तर के विभाग में ४० लाख भवन हैं। इनके स्वामी बलेन्द्र हैं। बलेन्द्र के ६०,००० सामानिक देव, २,४०,000 आत्मरक्षक देव, छह अग्रमहिषियां (जिनका छह-छह हजार का परिवार है), सात अनीक और तीन परिषद हैं। आध्यन्तर परिषद् के २०.००० देव, मध्यपरिषद् के २४००० देव, वाहा परिषद् के २८,००० देव हैं। आध्यन्तर । परिषद् में ४५० देवियां, मध्यपरिषद् में ४०० देवियां और वाह्यपरिपद् में ३५० देवियां भी है। इन देवों की आयु जघन्य १०,००० वर्ष से कुछ अधिक और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक और इनकी देवियों की आयु जघन्य १०,००० वर्ष से कुछ अधिक तथा उत्कृष्ट ४|| पल्योपम की है।
*दूसरे अन्तर में नागकुमार* जाति के भवनपति रहते हैं। दक्षिण विभाग में उनके ।। लाख भवन हैं और धरणेन्द्र उनके स्वामी हैं। उत्तर विभाग में ४० लाख भवन हैं और भूतेन्द्र जी उनके स्वामी हैं।
*26:3:21*
*अध्याय*
*तीसरे अन्तर में सुवर्णकुमार* जाति के भवनपति रहते हैं।सुवर्णकुमार के दक्षिण-विभाग में इनके ३८ लाख भवन हैं और उनके स्वामी वेणुइुन्द्र हैं। उत्तर- विभाग में ३४ लाख भवन हैं और उनके स्वामी वेणु दालेन्द्र हैं।
*चौथे अन्तर में विद्युत्कुमार* जाति के भवनपति देव रहते हैं।
विद्युत्कुमार के
दक्षिण-विभाग के इन्द्र हरिकांत हैं और उत्तर विभाग के इन्द्र हरिशेखरेन्द्र हैं।
*पांचवें अन्तर में अग्निकुमार* जाति के भवनपतिदेव रहते हैं। दक्षिण विभाग के इन्द्र अग्निशिखेन्द्र हैं और उत्तर विभाग के अग्निमाणवेन्द्र हैं।
*छठे अन्तर में द्वीपकुमार* जाति के भवनपतिदेव रहते हैं। दक्षिण विभाग के इन्द्र पूरणेन्द्र
हैं और उत्तर के विष्ठेन्द्र हैं।
*सातवें अन्तर में उदधिकुमार* जाति के भवनपति देव रहते हैं। दक्षिण के इन्द्र जलकान्तेन्द्र और उत्तर के जलप्रभेन्द्र हैं।
*आठवें अन्तर में दिशाकुमार* जाति के भवनपति रहते हैं। दक्षिण के इन्द्र अमितेन्द्र और उत्तर के अमितवाहनेन्द्र हैं।
*नौंवे अन्तर में वायुकुमार जाति के भवनपति रहते हैं।* दक्षिण के इन्द्र बलवकेन्द्र और
उत्तर के प्रभंजनेन्द्र हैं।
*दसवें अन्तर में स्तनित कुमार* देव रहते हैं। इनमें दक्षिण के इन्द्र घोषेन्द्र हैं और उत्तर के महाघोषेन्द्र हैं।
इनमें चौथे विद्युत्कुमार से स्तनितकुमार तक प्रत्येक के दक्षिण विभाग में चालीस चालीस लाख और उत्तर विभाग में छत्तीस-छत्तीस लाख भवन हैं। दूसरे नागकुमार से लेकर दसवें स्तनितकुमार तक को नवनिकाय (नौ जाति) के देव कहते हैं।
दक्षिण विभागों में नौ ही निकायों के प्रत्येक इन्द्र के छह-छह हजार सामानिक देव हैं, चौबीस-चौबीस हजार आत्मरक्षक देव हैं पांच-पांच अग्रमहिषियां (इन्द्रानियां) हैं। प्रत्येक इन्द्राणी का पांच-पांच हजार का परिवार है नौ ही इन्द्रों की सात-सात अनीक हैं, तीन-तीन परिषद् हैं । आभ्यन्तर परिषद के ६०,००० देव हैं, मध्यपरिषद् के ७०,००० देव हैं और बाह्यपरिषद् के ८०.००० देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् में ७५ देवियां हैं, मध्य परिषद् में १५० देवियां हैं और बाहा परिषद् में १२५ देवियां हैं। इन नौ ही जातियों के देवों की आयु जघन्य १०,००० वर्ष की और उत्कृष्ट १।। पल्योपम की है। देवियों की आयु जघन्य १०,००० वर्ष की और उत्कृष्ट आयु पौन पल्योपम ही है।
*26:3:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣नौ ही इन्द्रों की कितनी परिषद हैं
🅰️तीन -तीन।
2️⃣विद्युत्कुमार के दक्षिण-विभाग के इन्द्र कौन हैं
🅰️हरिकांत।
3️⃣दसवें अन्तर में कौन रहते हैं
🅰️स्तनीत कुमार देव।
4️⃣दूसरे नागकुमार से लेकर दसवें स्तनितकुमार तक को
क्या कहते हैं
🅰️ नव निकाय।
5️⃣सुवर्णकुमार के दक्षिण-विभाग में इनके भवन हैं
🅰️वेणुडुन्दर।
6️⃣इन्द्र अग्निशिखेन्द्र किस जाति के देव हैं
🅰️अग्निकुमार।
7️⃣बाह्य परिषद् में कितनी देवियां हैं।
🅰️125 देवियाँ।
8️⃣प्रत्येक इन्द्राणी का कितने हजार का परिवार है
🅰️5हज़ार-5 हज़ार।
9️⃣मध्यपरिषद् में कितने देव हैं
🅰️70000 देव।
🔟 नौ ही जातियों के देवों की आयु जघन्य कितनेवर्ष की है
🅰️10000 वर्ष।
*इस no पर भेजे* ⤵️
*31:3:21*
*अध्याय*
( *वैसे तो ये देवता के प्रकार में आते हैलेकिन ये अधोलोक में रहते हैं , इसलिए इनका वर्णन चूँकि अभी अधोलोक का ही वर्णन चल रहा है इसलिए किया है।* )
रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग और पंकबहुल भाग में उत्कृष्ट रत्नों से शोभायमान भवनवासी देवों के भवन हैं।
उत्तर विभाग के नौ ही इन्द्रों के सामानिक देवों, आत्मरक्षक देवों, अग्रमहिषियों,चमरेंद्र की अग्रमहिषियों में से प्रत्येक अपने साथ अर्थात् मूल शरीर सहित, अग्रमहिषिया
अनुपम रूप लावण्य से युक्त होती है आठ हजार प्रमाण विक्रिया निर्मित रूपों को धारण कर सकती हैं। (द्वितीय इंद्र की देवियाँ तथा नागेंद्रों व गरुड़ेंद्रों (सुपर्ण) की अग्र देवियों की विक्रिया का प्रमाण भी आठ हजार है। अग्रमहिषियों के परिवार, अनीक और परिषदों की संख्या दक्षिण विभाग के समान ही है। परिषद् के देवों की संख्या में अन्तर है। वह इस प्रकार है-आभ्यन्तर परिषद् के ५०,००० देव, मध्यपरिषद् के ६०,००० देव और बाह्य परिषद् के ७०,००० देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् की देवियां २२५, मध्य परिषद् की २००, और बाह्य परिषद् की १७५ देवियां हैं। सभी की आयु जघन्य १०.००० वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ कम दो पल्योपम की है।
पूर्वोक्त दसों अन्तरों में रहने वाले दक्षिण दिशा के देवों के भवन मिलकर ४०६००,००० हैं और उत्तरविभाग के सब भवन ३,६६,००००० होते हैं। इनमें छोटे-से-छोटा भवन जम्बूद्वीप के बराबर अर्थात् एक लाख योजन का है, मध्यम भवन अढ़ाई द्वीप के बराबर अर्थात् पैंतालीस लाख योजन के हैं और सबसे बड़ा भवन असंख्यात द्वीप-समुद्रों के बराबर अर्थात् असंख्यात योजन का है।
*इनके भवन*
भवन भीतर से चौकोर, बाहर गोलाकार, रत्नमय, महाप्रकाशयुक्त और समस्त सुख-सामग्रियों से भरपूर हैं। संख्यात योजन के भवन में संख्यात देव-देवियों का और असंख्यात योजन के भवन में असंख्यात देव-देवियों का निवास है।
*इन्हें कुमार क्योँ कहते है*
यद्यपि इन सब देवों का वय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनका वेष, भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है,
सदा कौमार्यावस्था ( कुमार अवस्था ) की भांति चंचल, अलमस्त और अलंकृत होने के कारणउन्हें कुमार कहा जाता है।
भवनपति देवों की विभिन्न जातियों के शरीर का वर्ण अलग-अलग प्रकार का होता है। वस्त्र भी उन्हें विभिन्न वर्ण का पसन्द आता है। उनकी पहचान उनके मुकुट में बने हुए चिन्हों से होती है।
सभी देवों में एक समानता कि सभी के
चैत्य बिम्ब की संख्या एक समान
चैत्य में180 बिम्ब होते है
भवन पति देव के दस दण्डक होते है।
भवन पति के भवन में चेड़ा राजा ने संथारा लिया
आयुष्य --* भवनपति देवों का जघन्य आयुष्य दस हजार वर्ष उत्कृष्ट किंचित अधिक एक सागरोपम है।
स्थितिरसुरनाग सुपर्णद्वीप शेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमाद्र्ध हीनमिता:’’ उत्कृष्ट आयु के मान से असुरकुमार देव की ढाई पल्य, द्वीपकुमार देव की दो पल्य तथा शेष छह, विद्युतकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार और दिक्कुमारों की उत्कृष्ट स्थिति डेढ़ पल्य है।
*आयुष्य बंध के कारण --* असुरदेव आयुष्य बंध के चार कारण है। अज्ञानता तप में प्रतिबद्धता, प्रबल क्रोध करना, तप का अहं करना और वैर में प्रतिबद्धता।
*31:3:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣इनके आयुष्य बंध के कोई दो कारण - बताये
🅰️प्रबल क्रोध करना।तप का अहं करना।
2️⃣आभ्यन्तर परिषद् की कितनी देवियां हैं
🅰️225
3️⃣इन्हें कुमार क्यों कहते है दो कारण बताएं
🅰️वाहन ओर क्रीड़ा कुमारों के समान होती है,सदा कोमर्यावस्ता।
4️⃣किस से शोभायमान भवनवासी देवों के भवन हैं।
🅰️उत्कृस्ट रत्नों।
5️⃣सभी देवों में एक समानता है क्या
🅰️सभी के चेत्य बिम्बो की संख्या ईक समान है।
6️⃣अग्रमहिषिया का रूप कैसा होता है
🅰️अनुपम रुप लावण्य से युक्त होती हैं।
7️⃣(सुपर्ण) की अग्र देवियों की विक्रिया का प्रमाण कितना है
🅰️8 हजार।
8️⃣किन देवों के भवन मिलकर ४०६००,०००
🅰️दक्षिण दिशा के देव।
9️⃣इनके भवन कैसे होते है , उससे सम्बंधित दो बात बताये
🅰️रत्नमय,महाप्रकाशयुक्त।
🔟भवन पति के भवन में किस राजा ने संथारा लिया
🅰️चेड़ा राजा।
*1:4:21*
*वाण व्यन्तर देव*
= जिनका नाना प्रकार के देशों में निवास है, वे व्यंतरदेव कहलाते हैं । यह सामान्य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठों ही भेदों में लागू है ।
भूत, पिशाच जाति के देवों को जैनागम में व्यंतर देव कहा गया है । ये लोग वैक्रियिक शरीर के धारी होते हैं । अधिकतर मध्य लोक के सूने स्थानों में रहते हैं । मनुष्य व तिर्यंचों के शरीर में प्रवेश करके उन्हें लाभ हानि पहुँचा सकते हैं । इनका काफी कुछ वैभव व परिवार होता है ।
रत्नप्रभा भूमि के ऊपर एक हजार योजन का पृथ्वीपिण्ड है। उसमें से एक सौ योजन ऊपर और एक सौ योजन नीचे छोड़ कर बीच में ८०० योजन की पोलार है। इस पोलार में असंख्यात नगर (ग्राम) हैं। इन नगरों में आठ प्रकार के व्यन्तर देव रहते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-
*प्रथम कोटि के देवोंं के आठ प्रकार है* -- *1पिशाच,*- के इन्द्र
दक्षिण दिशा के इन्द्र कालेन्द्र
उत्तर दिशा के महाकालेन्द्र
शरीर वर्ण -कृष्ण
मुकुट चिन्ह-कंदम्बवृक्ष
*2भूत*, -दक्षिण दिशा के इन्द्र सुरूपेन्द्र
उत्तर दिशा के प्रतिरूपेन्द्र
शरीर वर्ण -कृष्ण
मुकुट चिन्ह शालि वृक्ष
*3यक्ष*-,दक्षिण दिशा के इन्द्र पूर्णभद्रेन्द्र
उत्तर दिशा के मणिभद्रेन्द्र
शरीर वर्ण कृष्ण
मुकुट चिन्ह-बड़ वृक्ष
*4 राक्षस*-, दक्षिण दिशा के इन्द्र भीमेन्द्र
उत्तर दिशा के इन्द्र महाभीमेन्द्र
शरीर वर्ण श्वेत
मुकुट चिन्ह पाड़ली वृक्ष
*5,किन्नर*-, दक्षिण दिशा के इन्द्र किन्नरेन्द्र उत्तर दिशा के इन्द्र किंपुरुषेन्द्र
शरीर वर्ण हरा
मुकुट चिन्ह अशोक
*6,किंपुरूष*-, दक्षिण दिशा के इन्द्र सुपुरुषेन्द्रउत्तर दिशा के इन्द्र महासुपुरुषेन्द्र
शरीर वर्ण श्वेत
मुकुट चिन्ह चम्पकवृक्ष
*7महोरग* दक्षिण दिशा के इन्द्र अतिकायेंद्र उत्तर दिशा के इन्द्र महाकायेंद्र
शरीर वर्ण कृष्ण
मुकुट चिन्ह नाग वृक्ष
*और 8 गन्धर्व* दक्षिण दिशा के इन्द्र गीतरतींद्र उत्तर दिशा के इन्द्र गीतरसेंद्र
शरीर वर्ण- कृष्ण
मुकुट चिन्ह
टिम्बरू वृक्ष
ऊपर के भाग में सौ योजन जो छोड़ दिए थे, उसमें भी दस योजन ऊपर और दस योजन नीचे छोड़ कर, बीच में अस्सी योजन की पोलार है। इस पोलार में भी असंख्यात नगर हैं
औऱ इन नगरों में आठ प्रकार के वाण व्यन्तर देव रहते
है।
जिनका वर्णन कल
*प्रश्न के उत्तर*
*1:4:21*
1️⃣किन्नर के शरीर का वर्ण क्या है
🅰️ *हरा*
2️⃣उत्तर दिशा के इन्द्र प्रतिरूपेन्द्र किसके इन्द्र हैं
🅰️ *भूत*
3️⃣ ८०० योजन की पोलार है। इस पोलार में असंख्यात क्या हैं।
🅰️ *असंख्यात ग्राम*
4️⃣भूत, पिशाच जाति के देवों को जैनागम में क्या कहा गया है
🅰️ *व्यंतर देव*
5️⃣मुकुट चिन्ह-बड़ वृक्ष किस व्यन्तर का है
🅰️ *यक्ष*
6️⃣पिशाच, के
दक्षिण दिशा के इन्द्र का नाम
🅰️ *कालेन्द्र*
7️⃣व्यंतर देव कौन से शरीर के धारी होते हैं ।
🅰️ *वैक्रियिक शरीर धारी*
8️⃣गन्धर्व का मुकुट चिन्ह क्या हैै
🅰️ *टिम्बुर वृक्ष*
9️⃣महोरग के उतर दिशा के इन्द्र का नाम
🅰️ *महाकायेंन्द्र*
🔟व्यन्तर अधिकतर मध्य लोक के कौन से स्थानों में रहते हैं ।
🅰️ *मध्यलोक के सूने स्थानों में*
*इस no पर भेजे* ⤵️
*2;4:21*
*अध्याय*
*द्वितीय कोटि के देव भी आठ प्रकार के है*
*1आनपन्नी* दक्षिणदिशा के इंद्र सन्निहितेंद्र
उत्तर दिशा के इन्द्र सन्मानेन्द्र
शरीर वर्ण -कृष्ण
मुकुट चिन्ह-कंदम्बवृक्ष
*(२) पानपन्नी* -दक्षिणदिशा के इंद्र धातेन्द्र
उत्तर दिशा के विधातेन्द्र
शरीर वर्ण -कृष्ण
मुकुट चिन्ह शालि वृक्ष
*(३) ईसीवाई*-दक्षिणदिशा के इन्द्र ईसीन्द्र
उत्तर दिशा के इन्द्र इसीपतेन्द्र
शरीर वर्ण कृष्ण
मुकुट चिन्ह-बड़ वृक्ष
*(४) भूइ वाई,*- दक्षिणदिशा के इन्द्र इलवरेन्द्र
उत्तर दिशा के इन्द्र महेश्वरेन्द
शरीर वर्ण श्वेत
मुकुट चिन्ह पाड़ली वृक्ष
*(५) कन्दिय*-दक्षिणदिशा के इन्द्र सुवच्छेन्द्र,
उत्तर दिशा के इन्द्र विशालेंद्र
शरीर वर्ण हरा
मुकुट चिन्ह अशोक
*(६) महाकन्दीय*, दक्षिणदिशा के इन्द्र हास्येन्द्र,
उत्तर दिशा के इन्द्र हास्यरतेन्द्रीय
शरीर वर्ण श्वेत
मुकुट चिन्ह चम्पकवृक्ष
*(७) कोहंड*- दक्षिणदिशा के इन्द्र श्वेतेन्द्रीय,
उत्तर दिशा के इन्द्र महा श्वेतेन्द्रीय
शरीर वर्ण कृष्ण
मुकुट चिन्ह नाग वृक्ष
*और (८) पयंग देव*- दक्षिण इंद्र पहेगेंद्र
उत्तर दिशा के इन्द्र पहंगपतेन्द्र
शरीर वर्ण- कृष्ण
मुकुट चिन्ह
टिम्बरू वृक्ष
उक्त आठ सौ योजन वाली और अस्सी योजन वाली पोलार में व्यन्तरों और वाण-व्यन्तरों के जो नगर हैं, उनमें छोटे से छोटा भरत क्षेत्र के बराबर (५२६ योजन से कुछ अधिक), मध्यम नगर महाविदेह क्षेत्र के बराबर (३३६८४ योजन से कुछ अधिक) और बड़े से बड़ा जम्बूद्वीप के बराबर (एक लाख योजन) का हैउक्त दोनों पोलारों के दो-दो विभाग हैं-दक्षिण भाग और उत्तर भाग। इन विभागों में रहने वाले सोलह प्रकार के व्यन्तर तथा वाण व्यन्तर देवों की एक-एक जाति में दो-दो इन्द्र हैं। अंत: कुल बत्तीस इन्द्र हैं, प्रत्येक इन्द्र के चार-चार हजार सामानिक देव हैं,
सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं, चार-चार अग्रमहिषियां हैं। प्रत्येक अग्रमहिषी के हजार-हजार का परिवार है। सात अनीक हैं। तीन परिषद हैं। आभ्यन्तर परिषदके आठ हजार(8000)
देव, मध्य परिषद् के १०००० देव और बाह्य परिषद् के १२००० देव हैं। इन सोलहों प्रकार के देवों की आयु १०००० वर्ष की और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। देवियों की जघन्य आयु १०००० वर्ष की और उत्कृष्ट आधे पल्योपम की है।
व्यन्तर और वाण-व्यन्तर देव चंचल स्वभाव के धारक होते हैं। मनोहर नगरों में देवियों के साथ नृत्य-गान करते हुए, इच्छानुसार भोग भोगते हुए और पूर्वोपार्जित पुण्य के फलों का अनुभव करते हुए विचरते हैं। विविध अन्तरों में रहने के कारण इन्हें 'व्यन्तर' कहते हैं। वन में भ्रमण करने के अधिक शौकीन होने के कारण इन्हें वाण-व्यन्तर कहते हैं।
वे देव, जो तीर्थंकर परमात्मा के च्यवन, जन्म आदि पंचकल्याणक पर उनके खजाने को धन-धान्य, सोना-चांदी आदि से परिपूर्ण करते हैं, वे तिर्यग्नुंभक देव कहलाते हैं। वे भी व्यंतर. वाणव्यंतर देवों के स्थान पर निवास करते हैं।
*2:4:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣व्यन्तर और वाण-व्यन्तर देव कैसे स्वभाव के धारक होते
🅰️चंचल स्वभाव के
2️⃣विविध अन्तरों में रहने के कारण इन्हें 'क्या' कहते हैं
🅰️व्यन्तर
3️⃣देवियों की और उत्कृष्ट आयु कितनी है।
🅰️आधा पल्योपम
4️⃣अंत: कुल कितने इन्द्र हैं
🅰️32
5️⃣तीर्थंकर परमात्मा के च्यवन, जन्म आदि पंचकल्याणक पर उनके खजाने को धन-धान्य, सोना-चांदी आदि से परिपूर्ण करते हैं, वे कौन से देव कहलाते हैं।
🅰️तिर्यग्नुंभक
6️⃣ मुकुट चिन्ह पाड़ली वृक्ष किसका है
🅰️भूई वाई
7️⃣प्रत्येक इन्द्र केकितने सामानिक देव हैं,
🅰️4000
8️⃣वाण-व्यन्तरों के जो नगर हैं, उनमें छोटे से छोटा किसक्षेत्र के बराबर है
🅰️भरत क्षेत्र के
9️⃣मुकुट पर चिन्ह अशोक किसका हैं।
🅰️कन्दिय
🔟मध्यम नगर किस क्षेत्र के बराबर
🅰️महाविदेह क्षेत्र के
*3:4:21*
*अध्याय*
*वाणव्यंतर देव*
*अब आगे*
वाणव्यंतर देवों का निवास स्थान तिरछे लोक में है। मेरु पर्वत की समतल भूमि के नीचे एक हजार नीचे मोटा पिण्ड है, उसके ऊपर का 100 योजन और नीचे का 100 योजन छोड़कर, आठ सौ योजन के अंतर में तिरछे लोक में प्रथम कोटि के वाण व्यन्तर देव रहते हैं। दूसरी कोटि के देव इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रारंभ के सौ योजन में प्रथम व अंतिम दस-दस योजन छोड़कर अस्सी योजन में रहते हैं। वहां उनके भवन बने हुए हैं।
गुफाओं,वृक्षों, जलाशयों शून्य गृहों में रहना पसंद करते हैं।
वाणव्यन्तर देव अत्यधिक कुतूहल प्रिय होते हैं। इससे उनके पुण्य अधिक क्षीण होते हैं। भगवती में उल्लेखित है कि सर्वार्थ सिद्ध के देव लाख वर्षों में जितने पुण्य भोगते हैं उतने पुण्य वाणव्यंतर देव मात्र 100 वर्षों में भोग लेते हैं।
*वाणव्यंतर देव बनने के कारण*
(1) फांसी पर लटक कर आत्महत्या करना।
(2) विष-भक्षण
(3) अग्नि में जलकर मरना।
(4) जल में डूब कर मरना।
(5) भूख और प्यास से क्लांत होकर मरना।
*वाणव्यंतर देवों का आयुष्य --* जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक पल्योपम।
वाणव्यंतर देवों के अन्तर्गत
एक और देवो की जाति आती हैं वह है जृम्भक देवों की एक जाति आती है। ये देव वैश्रमण देव की प्रेरणा से तीर्थंकरों के जन्म-महोत्सव आदि अवसरों पर स्वर्ण, रत्न आदि उपह्रत करते हैं वीर जी के जन्म के समय जो राज्य में अन्न धन की बढ़ोतरी भी इन्हीं जृंभक देव ने की
*ये जृंभक आदि दस प्रकार के होते हैं*।
10 जृम्भक - 1) अन्न जृम्भक, 2) पान जृम्भक, 3 ) वस्त्र जृम्भक, 4) लयण जृम्भक, 5) शयन जृम्भक, 6) पुष्प
जृम्भक, 7) फल जृम्भक, 8) पुष्पफल जृम्भक, 9) विद्व्या जृम्भक, 10) अव्यक्त जृम्भक।इनकी स्थिति वाणव्यंतर के साथ होने से इन्हें वाणव्यंतर भी
कहते हैं।
*3:4:21*
*उत्तर*
1️⃣जृंभक आदि कितने प्रकार के होते हैं कोई दो नाम लिखे*।
🅰️ *दस -अन्न जृम्भक, पान जृम्भक*
2️⃣वाणव्यंतर देवों का आयुष्य जघन्य औऱ उत्कृष्ट कितनी है
🅰️ **जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक पल्योपम*
3️⃣किस के जन्म पर राज्य में अन्न धन की बढ़ोतरी भी इन्हीं जृंभक देव ने की
🅰️ *वीर जी*
4️⃣वाणव्यन्तर देव को कँहा रहना पसन्द है
🅰️ *गुफाओं,वृक्षों,जलाशयों,शून्य गृहों में*
5️⃣वाणव्यंतर देवों का निवास स्थान कौन से लोक में है।
🅰️ *तिरछे*
6️⃣किससे उनके पुण्य अधिक क्षीण होते हैं।
🅰️ *अत्याधिक कुतूहल प्रिय*
7️⃣ये देव किसकी प्रेरणा से तीर्थंकरों के जन्म-महोत्सव आदि अवसरों पर स्वर्ण, रत्न उपह्रत करते हैं
🅰️ *वैश्रमण*
8️⃣रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रारंभ के सौ योजन में प्रथम व अंतिम दस-दस योजन छोड़कर किस तरह के देव रहते हैं
🅰️ *दूसरे कोटि देव*
9️⃣वाणव्यंतर देव बनने के कोई दो कारण बताइये*
🅰️ *विष*भक्षण ,अग्नि में जलकर मरना*
🔟पुण्य वाणव्यंतर देव मात्र 100 वर्षों में भोग लेते हैं। उतने कौन से देव लाख वर्षों में जितने पुण्य भोगते हैं
🅰️ *सर्वार्थ सिद्ध*
*5:4:21*
*अध्याय*
*जृम्भक देव*
गौतम स्वामी ने पूछा
भगवन् ! जृम्भक देव कहाँ निवास करते हैं ? [27 उ.] गौतम ! जृम्भक देव सभी दीर्घ (लम्बे-लम्बे) वैताढ्य पर्वतों में, चित्र-विचित्र यमक पर्वतों में तथा कांचन पर्वतों में निवास करते हैं
*निवासस्थान*-पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच महाविदेह, इन १५ क्षेत्रों में १७० दीर्घ वैताढ़यपर्वत हैं। प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक पर्वत है तथा महाविदेह क्षेत्र के प्रत्येक विजय में एक-एक पर्वत है।
देवकुरु में शीतोदा नदी के दोनों तटों पर चित्रकूटपर्वत हैं। उत्तरकुरु में शीतानदी के दोनों तटों पर यमक यमक पर्वत हैं। उत्तरकुरु में शीतानदी से सम्बन्धित नीलवान् आदि ५ द्रह हैं। उनके पूर्व-पश्चिम दोनों तटों पर दस-दस कांचनपर्वत हैं। इस प्रकार उत्तरकुरु में १०० कांचनपर्वत हैं। देवकुरु में शीतोदा नदी से सम्बन्धित निषध आदि ५ द्रहों के दोनों तटों पर दस-दस कांचनपर्वत हैं। इस तरह ये भी १०० कांचनपर्वत हुए। दोनों मिलकर २०० कांचनपर्वत हैं। इन पर्वतों पर जुम्भक देव रहते हैं।
भगवन् ! जृम्भक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [28 उ.] गौतम ! जृम्भक देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-जृम्भक देव : जो अपनी इच्छानुसार स्वच्छन्द प्रवृत्ति करतें हैं और सतत क्रीड़ा आदि में रत रहते हैं, ऐसे तिर्यग्लोकवासी व्यन्तर जृम्भक देव हैं। ये अतीव कामक्रीडारत रहते हैं। ये वैरस्वामी की तरह वैक्रियलब्धि आदि प्राप्त करके शाप और अनुग्रह करने में समर्थ होते हैं। इस कारण जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं उसे धनादि से निहाल कर देते हैं और जिन पर कुपित होते हैं, उन्हें अनेक प्रकार से हानि भी पहुंचाते हैं। इनके 10 भेद हैं / *(1) अन्न-जृम्भक*-भोजन को सरस-नीरस कर देने या उसकी मात्रा बढ़ा-घटा देने की शक्ति वाले देव,
*(2) पान-जृम्भक*-पानी को घटाने-बढ़ाने; सरस-नीरस कर देने वाले देव।
*(3) वस्त्रजृम्भक*-वस्त्र को घटाने-बढ़ाने आदि की शक्ति वाले देव।
*(४)लयन-जृम्भक*-घर-मकान आदि की सुरक्षा करने वाले देव।
*(5) शयन-जृम्भक*-शय्या आदि के रक्षक देव।
*(6-7-8) पुष्प-जृम्भक, फल-जृम्भक* एवं पुष्प-फल-जृम्भक-फूलों, फलों एवं पुष्प-फलों की रक्षा करने वाले देव।
कहीं-कहीं ८वें पुष्प-फल जृम्भक के बदले *‘मंत्र-जृम्भक'* नाम मिलता है।
*(9) विद्या-जृम्भक*-देवों के मंत्रोंविद्याओं की रक्षा करने वाले देव और
*(10)अव्यक्त-जृम्भक*-
सामान्यतया, सभी पदार्थों की रक्षा आदि करने वाले देव। कहीं-कहीं इसके स्थान में अधिपति-जृम्भक' पाठ भी मिलता है,
1. गौतमस्वामीजी ने अष्टापद तीर्थ पर तिर्यंच जृम्भक देव को पुण्डरीक-कण्डरीक अध्ययन सुनाया. वो जृम्भक देव उसी अध्ययन का रोज 500 बार स्वाध्याय करने लगा. दूसरा जन्म उसका व्रजस्वामी के रूप में हुआ और पालने में ही 11" अंग" कंठस्थ किये (साध्वीजी के उपाश्रय में, क्योंकि जन्म से ही इतने रोते थे की उनकी माँ जब सुनंदा ने उनके धनगिरी
पिता को गोचरी में वोहरा दिया ये कहकर तो कि खुद साधू बन गए और आफत मेरे सर पर छोड़ गए).
वज्र स्वामी को तिर्यग् जृम्भक देव ने
वैक्रिय लब्धि और आकाश गामिनी विद्या दी
*5:4:21*
*प्रश्नके उत्तर*
1️⃣उत्तरकुरु में शीतानदी के दोनों तटों पर कौन सा पर्वत हैं।
🅰️यमक यमक पर्वत।
2️⃣वज्र स्वामी को तिर्यग् जृम्भक देव ने कौन सी विद्या दी ?
🅰️वैक्रिय लब्धि और आकाश गामिनी।
3️⃣वस्त्रजृम्भक क्या कर सकते है
🅰️वस्त्र को घटाने बढाने का।
4️⃣कहीं-कहीं ८वें पुष्प-फल जृम्भक के बदले कौन सा नाम
मिलता हैं
🅰️मंत्र जृम्भृक।
5️⃣कौन उसी अध्ययन का रोज 500 बार स्वाध्याय करने लगा.
🅰️तृयंच जृम्भृक देव।
6️⃣भगवन् ! जृम्भक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
🅰️1पल्योपंम।
7️⃣शय्या आदि के रक्षक देव कौन हैं
🅰️शयन जृम्भृक देव।
8️⃣खुद साधू बन गए और आफत मेरे सर पर छोड़ गए किसने कहा
🅰️सुनंदा।
9️⃣किसकी तरह वैक्रियलब्धि आदि प्राप्त करके शाप और अनुग्रह करने मेंसमर्थ होते है
🅰️वैरस्वामी की तरह।
🔟पुण्डरीक-कण्डरीक अध्ययन किसने किसको सुनाया.
🅰️गौतमस्वामी ने तृयंच जृम्भृक देव को।
*6:4:21*
*अध्याय*
*तिर्यंच*
( *आज दूसरी गति तिर्यंच* *आरंभ*
*कर रहीं हूँ इसमें एकेन्द्रिय*
*से लेकर पंचेन्द्रिय औऱ जितनी काय तिर्यंच से सम्बंधित है* *सब समाहित है*।)
जिन जीवों के शरीर की बनावट टेढ़ी-मेढ़ी हो, उन्हें तिर्यंच कहते है।
*️⃣उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनि वाले हैं। औऱ
*️⃣जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जाती हैं
*️⃣तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोने के लायक। कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं।
*️⃣पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक कि वृक्ष, जल, पृथिवी, व निगोद जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं।
*️⃣एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय पर्यंत अनेक प्रकार के कुछ जलवासी कुछ थलवासी और कुछ आकाशचारी होते हैं। इनमें से असंज्ञी पर्यंत सब सम्मूर्छिम व मिथ्यादृष्टि होते हैं। परंतु संज्ञी तिर्यंच सम्यक्त्व व देशव्रत भी धारण कर सकते हैं।
*️⃣अधिकतर तिर्यक्लोक ( मध्य लोक) में जो जीवन यापन करते हैं, उन्हें तिर्यंच कहते हैं। वैसे तिर्यंच गति के जीव पूरे लोक में व्याप्त हैं, किन्तु त्रस तिर्यंच अधिकतर तिर्यक्लोक में ही मिलते हैं।
*तिर्यंचों का निवास*
तिर्यंचों का निवास मध्य लोक के सभी असंख्यात द्वीप समुद्रों में है। इतना विशेष है कि अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते और उन द्वीपों में विकलत्रय नहीं पाये जाते। अंतिम स्वयंभूरमण सागर में अवश्य संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच पाये जाते हैं। अत: यह सारा मध्यलोक तिर्यक लोक कहलाता है।
: *ऊर्ध्व व अधःलोक*- में त्रस जीव हैं। महाविदेह की दो विजय एक हजार योजन नीचे गई हुई हैं। वहां सभी तरह त्रस जीव हैं। ऊर्ध्व लोक में लवण समुद्र की बेल का पानी सोलह हजार योजन ऊपर तक जाता है। उसमें जलचर जीव होते है। नन्दनवन, पंडुक वन में पक्षी आदि त्रस जीव होते हैं।
जिन जीवों में तिर्यंच गति नाम कर्म का उदय होता है, वे तिर्यंच है। तिर्यंच आयु कर्म के उदय से ये तिर्यंच गति का आयुष्य भोगते हैं।
तिर्यंच गति में चारों ही गतियों के जीव आकर उत्पन्न हो सकते हैं और तिर्यंच गति के जीव मरकर चारों गतियों में जा सकते हैं। जीव संख्या की दृष्टि से चारों ही गति में सबसे बड़ी गति तिर्यंच गति है। तिर्यंच गति के सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त है।
*तिर्यंच गति के भेद --* नौ भेद है --
पांच स्थावर-, तीन विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय।
*पांच स्थावर*, वे जीव, जो सुख-दुःख एवं अनुकुल-प्रतिकुल संयोगोमें इच्छानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते हैं, वे स्थावर जीव कहलाते है ।
स्थावर जीवो के पांच भेद होते है ।
1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. तेउकाय, 4. वायुकाय, 5. वनस्पतिकाय ।
स्थावर जीवोका अपर नाम
एकेन्द्रिय हैं।
*तीन विकलेन्द्रिय*द्विन्द्रीय, से लेकर चतुरिन्द्र तक के जीव।
*6:4:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣महाविदेह की दो विजय कितनी नीचे गई हुई हैं।
🅰️एक हजार योजन
2️⃣संज्ञी तिर्यंच क्या धारण कर सकते हैं।
🅰️ सम्यक्त्व,देशव्रत
3️⃣तीन विकलेन्द्रिय कौन कौन से है
🅰️द्धिन्द्रिय,तेइन्द्रिय,चौरिन्द्रिय
4️⃣तिर्यंच गति में कितनी गति के जीव आकर उत्पन्न हो सकते हैं
🅰️चारों गति के
5️⃣अनुकुल-प्रतिकुल संयोगोमें इच्छानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते हैं, उन्हें क्या कहते है
🅰️स्थावर जीव
6️⃣त्रस तिर्यंच अधिकतर कहां में मिलते हैं।
🅰️तिर्यक लोक में
7️⃣किसके सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनि वाले हैं।
🅰️उपपाद जन्म वाले और मनुष्यों के सिवा
8️⃣नन्दनवन, पंडुक वन में कौन से त्रस जीव होते हैं।
🅰️पक्षी आदि
9️⃣अंतिम स्वयंभूरमण सागर में कौन से तिर्यंच पाये जाते हैं
🅰️संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच
🔟कर्मोदय से जिनमें क्या प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं।
🅰️ तिरोभाव
*इस no पर भेजे* ⤵️
*7:4:21*
*अध्याय*
विस्तृत वर्णन करे भेद के भेद करे तो
*तिर्यंच के ४८ भेद*
*इससे पहले कुछ विशेष जानकारी*
*किसे क्या कहते है*
*सूक्ष्म जीव*
जिन जीवो का एक शरीर अथवा अनेक शरीर इकट्ठे होने पर भी चर्मचक्षु अथवा यंत्र के द्वारा दिखाई नहीं देते है, वे सूक्ष्म जीव कहलाते हैं । ये जीव संपूर्ण चौदह राजलोक में व्याप्त है । ये मनुष्य, तिर्यंच के हलन-चलन से, शस्त्र, अग्नि, जलादि से मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं ।
*बादर जीव*
जिस एक जीव का एक शरीर हो अथवा अनेक जीवों के शरीर एकत्र हो, उन्हें चर्मचक्षुओं से अथवा किसी यंत्र के द्वारा देखा जा सके, वे बादर जीव कहलाते है। ये जीव शस्त्र से कट जाते हैं, इनका छेदन-भेदन होता है, अग्नि जला सकती है एवं पानी बहा सकता हैं । इनकी गति में रुकावट होती है और दूसरो की गति में रुकावट का कारण भी बनते हैं ।
*सांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोद*
एक जीव जब समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करता है तब एक जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आता हैं । वह जीव मृत्यु पाकर पुनः सूक्ष्म निगोद में उत्पन्न हो जाये तो वह सांव्यवहारिक जीव कहलाता है
*असांव्यहारिकसूक्ष्म निगोद*
वे जीव, जो अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में नहीं आये है, अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में ही हैं उन्हें असांव्यहारिक जीव कहते हैं ।
*पर्याप्ता जीव*
जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर चुका है, वह पर्याप्ता जीव कहलाता है । जैसे एकेन्द्रिय जीव चार पर्याप्तियाँ पूर्ण करने के पश्चात् पर्याप्ता कहलाता है ।
*पर्याप्ता जीवोंकेदो भेदः- 1. *करण पर्याप्ता* -जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली है, वह करण पर्याप्ता कहलाता
2. *लब्धि पर्याप्ता*-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली है या भविष्य में स्वयोग्य पर्याप्तियाँ अवश्यमेव पूर्ण करेगा, वह लब्धि पर्याप्ता कहलाता है ।
स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करने से पूर्व जीव अपर्याप्ता कहलाता है । जैसे एकेन्द्रिय जीव चार पर्याप्तियाँ पूर्ण करने से पूर्व अपर्याप्ता कहलाता हैं ।
*अपर्याप्ता के दो भेद*
*1करण अपर्याप्ता*-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं की है, वह करण अपर्याप्ता कहलाता
*2लब्धि अपर्याप्ता*-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं की है औरपर्याप्ता पूर्ण करने से पहले ही मर जायेगा, उसे लब्धि अपर्याप्ता कहते है ।
मन वाले जीव को *संज्ञी* कहते है । मन रहित जीव को *असंज्ञी* कहते है ।
*7:4:21*
*उत्तर*
1️⃣स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करने से पूर्व जीव क्या कहलाता है ।
🅰️अपर्याप्ता
2️⃣संज्ञी* किसे कहते है
🅰️मन वाले जीव
3️⃣एकेन्द्रिय जीव के कितनी पर्याप्ता होती है ।
🅰️चार पर्याप्ता
4️⃣अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में ही हैं उन्हें कौन से जीव कहते हैं ।
🅰️आसंव्यवहारिक जीव
5️⃣ चर्मचक्षु अथवा यंत्र के द्वारा दिखाई नहीं देते है, वे क्याजीव कहलाते हैं।
🅰️सूक्ष्म जीव
6️⃣पर्याप्ता जीवों के कितने भेद हैं और कौंन कौन से
🅰️दो भेद करण पर्याप्ता ,लब्धि पर्याप्ता
7️⃣पर्याप्ता पूर्ण करने से पहले ही मर जायेगा, उसे क्या कहते है
🅰️लब्धि अपर्याप्ता
8️⃣असंज्ञी* किसे कहते है।
🅰️मन रहित जीव
9️⃣मृत्यु पाकर पुनः सूक्ष्म निगोद में उत्पन्न हो जाये तो वह जीव कहलाता है
🅰️संव्यवहारिक जीव
🔟चर्मचक्षुओं से अथवा किसी यंत्र के द्वारा देखा जा सके, वे कहलाते है।
🅰️बादर जीव
*8:4:21*
*अध्याय*
**48 भेद जाने*
*(१) इंदी थावरकाय (पृथ्वीकाय)*- जैन दर्शन के अनुसार पृथ्वी को एक जीव माना गया है और प्राय: जीव की चर्चा का प्रारम्भ भी पृथ्वीजीव से ही किया जाता है
पृथ्वी पर इन्द्र महाराज की मालिकी होने के कारण
इंदी थावरकाय नाम पड़ा
पृथ्वी एकेन्द्रिय जीव है और पृथ्वीकाय के नाम से जाना जाता है। जैन ग्रंथों में इसके लिए पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक, पृथ्वीजीव जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। यद्यपि ये सभी शब्द पृथ्वीजीव से ही संबंधित हैं
पृथ्वी आदि पांच एकेन्द्रिय (स्थावर काय) में जीवन है। यह जैन दर्शन की स्पष्ट अवधारणा है। औऱ इस क्षेत्र में विज्ञान शोध कर रहा है
जैन मतानुसार पृथ्वीकाय में निरंतर वृद्धि का क्रम चालू रहता है। यह अब विज्ञान से भी सिद्ध होता है। कई वैज्ञानिकों के प्रयोगों एवं मंतव्यों से यह बात प्रमाणित होती है। वैज्ञानिक एच.टी. वर्सटपिन के अनुसार न्युमिति के पर्वतों ने अभी अपनी शैशवावस्था ही पार की है। इंडोनेशिया के द्वीप समूह की भूमि ऊंची उठ रही है। शिशु के शरीर की भांति पर्वत भी धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं । जैन दर्शन जहां इसके एक कण में असंख्य जीव मानता है वहां विज्ञान ने एक ग्राम मिट्टी के ढेले में कई लाख दर्जन सूक्ष्म जीवाणु माने हैं।
पृथ्वीकाय का वर्ण पीला है
औऱ पीला इसलिये है क्योंकि
मिट्टी का स्पर्श पाकर किसी भी बीज का अंकुर पीला होकर भुमि से बाहर निकलता हैं।
पृथ्वीकाय के चार भेद
*(१) *सूक्ष्म,पृथ्वीकाय
इनकी भी उत्पत्ति सूक्ष्म नामकर्म के उदय से ही होती है।
जो समस्त लोक काजल की कुप्पी के समान ठसाठस भरे हुए हैं, किन्तु अपनी दृष्टि के गोचर नहीं होते।
*2बादर पृथ्वीकाय,* जो लोक के देश-विभाग में रहते हैं, जिनमें से हम किसी किसी को देख सकते हैं और किसी-किसी को नहीं देख सकते।
*इन दोनों के पर्याप्त एवं अपर्याप्त से पृथ्वीकाय जीवों के चार भेद होते हैं।
पर्याप्ता बादर पृथ्वीकाय आयु जघन्यअन्तर्मुहूर्त
उत्कृष्ट 22,000वर्ष
इनमें से बादर पृथ्वीकाय के विशेष भेद इस प्रकार है:-
*7 कोमल मिट्टी के भेद*
*(१) काली मिट्टी* की आयु 1,000 वर्ष
*(२) नीली मिट्टी*
*(३) लाल मिट्टी* की आयु 900 वर्ष
*(४) पीली मिट्टी* की आयु 600 वर्ष
*(५) सफेद मिट्टी*कीआयु 700 वर्ष
*(६) पाण्डु* और
*(७) गोपीचन्दन*
; इस तरह कोमल मिट्टी के सात प्रकार हैं।कोमल मिट्टी की आयु
1,000 वर्ष
*विशेष जानकारी*
खानमें से निकलने वाली पीले रंग की विषैली मिट्टी जो औषधीऔर पुस्तक के निकम्मे अक्षर मिटाने में कामआती है उनका नाम(पृथ्वीकाय का भेद)
हरताल कहते है,
एक प्रकार की मिट्टी जिसे लोहे के रसमें डालने से लोहा सोना बन जाता है उसे
तेजंतूरी कहते हैं
*8:4:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣शिशु के शरीर की भांति क्या बढ़ रहें है।
🅰️पर्वत
2️⃣विज्ञान ने एक ग्राम मिट्टी के ढेले में कितनेसूक्ष्म जीवाणु माने हैं।
🅰️कई लाख दर्जन
3️⃣तेजंतूरी किसे कहते हैं
🅰️एक प्रकार की मिट्टी जिसे लोहे के रस में डालने से लोहा सोना बन जाता है।
4️⃣पर्याप्ता बादर पृथ्वीकाय आयु जघन्य औऱ उत्कृष्ट कितने वर्ष है
🅰️जघन्य अन्तर्मुहूर्त
उत्कृष्ट 22.000 वर्ष
5️⃣सफेद मिट्टी*कीआयु कितनी है
🅰️700 वर्ष
6️⃣पृथ्वीकाय का वर्ण पीला क्यों है
🅰️क्योंकि मिट्टी का स्पर्श पाकर किसी भी बीज का अंकुर पीला होकर बाहर निकलता है।
7️⃣पृथ्वी काय का इंदी थावरकाय नाम क्यों पड़ा
🅰️पृथ्वी पर इन्द्र की मालिकी होने के कारण
8️⃣वैज्ञानिक एच.टी. वर्सटपिन के अनुसार किस पर्वतों ने अभी अपनी शैशवावस्था ही पार की है।
🅰️न्युमिति
9️⃣जो समस्त लोक काजल की कुप्पी के समान ठसाठस भरे हुए हैं वो कौन से पृथ्वी काय है
🅰️सूक्ष्म पृथ्वी काय
🔟जैन ग्रंथों में इसके लिए पृथ्वी, के लिए किन किन शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।
🅰️पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक, पृथ्वीजीव जैसे
*9:4:21*
*अध्याय*
*पृथ्वी काय*
*औऱ२२ भेद कठिन पृथ्वी के हैं*
(१) खान की मिट्टी
(२) मुरड़
(३) रेत बालू
(४) पाषाण 19,000 वर्ष की आयु
(५) शिला
(६) नमक -नमक, खार (पापडखार, सोडा इ.) सचित्त क्षार हैं| कुंभार की या मिठाईवाले की भठ्ठी में पकाया हुआ नमक अचित्त बनता है और दीर्घकाल तक अचित्त रहता है| घर में कढ़ाई या तवेपर व्यवस्थित रीति से पूरा लाल होने तक सेंका हुआ नमक अचित्त बनता है, वह ७ दिनों तक अचित्त रहता है| १ कटोरी नमक २ कटोरी पानी डालकर पुनः नमक बनने तक उबालने से ६ मास तक अचित रहता है|
चूल्हे पर चड़ते हुए दाल-सब्जी में डाला हुआ नमक अचित हो जाता है, लेकिन अचार में, मसाले में, मुखवास में, या औषधादि में अगर चूल्हे पर संस्कार होनेवाला न हो तो अचित्त नमक का ही उपयोग
करें
3. श्रावक किसी भी खाद्य पदार्थ में भोजन करते समय उपर से (कच्चा) नमक न डालें| एकासना, बियासना, आयंबिल में सचित त्याग रहता है| अतः कच्चा नमक का उपयोग नही करे
नमक की
12,000 वर्ष की आयु होती है
(7) समुद्री क्षार 11,000 वर्ष की आयु
(८) लोहे की मिट्टी 14,000 वर्ष आयु
(९) तांबे की मिट्टी13,000 वर्ष आयु
(१०) तरुआ की मिट्टी
(११) शीशे की मिट्टी
(१२) चाँदी की मिट्टी 15,000 वर्ष आयु
(१३) सोने की मिट्टी16,000 वर्ष की आयु
(१४) वज्र हीरा 22,000 वर्ष की आयु
( १५) हलाल
(१६) हिंगलु
(१७) मैनसिल-एक प्रकार की धातु जो मिट्टी की तरह पीली होती है और जो नेपाल के पहाड़ों में बहुतायत से होती है ।
(१८) रत्न
(१९) सुरमा
२०) प्रवालमूंगा_प्रवाल रत्न को अंग्रेजी में कोरल और हिंदी में मूंगा भी कहते हैं। मूंगा को प्राचीन काल में जिसे लतामणि कहते थे। यह समुद्र में पाई जाने वाली वनस्पति है।
(२१)अभ्रक(भोडल)
और (२२) पारा।
ये २२ भेद कठिन पृथ्वी के हैं। ( *जिन हिताहित सोचने की विशेष संज्ञा नहीं होती वे असंज्ञी*
*और जिनमें वह संज्ञा होती* *है वे संज्ञी हैं*
*सब देव, सब नारी, गर्भज मनुष्य एवं तिर्यंच संज्ञी होते हैं। इनके सिवाय अन्य सब जीव असंज्ञी होते हैं।)*
इनमें से रत्न अठारह प्रकार के कहा हैं-क़ीमती पत्थर को रत्न कहा जाता है अपनी सुंदरता की वजह से यह क़ीमती होते हैं।
(१) गोमेद
(२) रुचक
( ३) अंक
( ४) स्फटिक
(५) लोहिताक्ष
(६) मरकत -इसे अनेक नामों से जाना जाता है जैसे संस्कृत में मरकत मणि, फारसी में जमरन, हिन्दी में पन्ना और अँग्रेजी में एमराल्ड। यह गहरे से हल्के हरे रंग का होता है। यह अधिकतर दक्षिण महानदी, हिमालय, गिरनार और सोम नदी के पास पाया जाता है।
(७) मसलग
(८) भुजमोचक
(९) इन्द्रनील
(१०)। चन्द्र नील
(११) गेरुक
(१२) हंसगर्भ
(१३) श्लोक
( १४) चन्द्रप्रभ
(१५) वेड़य
(१६) जलकान्त
(१७) सूर्यकान्त
(१८) संबंधित रत्न। इस प्रकार पृथ्वीकाय के अनेक भेद जानने चाहिए।
मिट्टी, पत्थर, खनिज, धातुयें, रत्न आदि पृथ्वीकाय के शरीर हैं| गमना -गमन से, वाहन-व्यवहार से, अन्य शस्त्र संस्कार इत्यादि से पृथ्वीकाय अचित्त बनते हैं| जीवन व्यवहार में निरर्थक सचित्त पृथ्वीकाय की विराधना (हिंसा) न हो जाये उसकी सावधानी रखनी चाहिए
*10:4:21*
*अध्याय*
पृथ्वीकाय का स्वभाव कठोर है
पृथ्वीकाय का संस्थान चन्द्रमा या मसूर की दाल के आकार का है
पृथ्वीकाय की कुलकोड़ी 12 लाख की है
एक ही उत्पत्ति स्थान में अनेक प्रकार के जीवों के उत्पन्न होने को कुलकोड़ी कहते हैं।
जहाँ जीव उत्पन्न होता हैं , उसे जीवयोनी कहते हैं।
पृथ्वीकाय की जीवयोनी
7लाख है
पृथ्वीकाय के जीवों की अवगाहनाअंगुल के असंख्यातवें भाग होती हैं
पृथ्वीकाय के जीव
दक्षिण दिशा में (पोलार अधिक होने से )दिशा मे सबसे कम है
पृथ्वीकाय के जीव सबसे
पश्चिम दिशा में (गौतम द्वीप होने से )(बादर पृथ्वीकायिक जीवों की अपेक्षा से )अधिक हैं
पृथ्वीकाय के
पृथ्वीकायिक जीवों में 12 वा दण्डक पाया जाता हैं?
पृथ्वीकाय के जीव तीन आरो का स्पर्श करते हैं। जैसे
जिनकी 22,000 वर्ष की स्थिति हैं। जो जीव यदि चौथे आरे के अंत में जन्मा हो तो पूरा 5वाँ आरा 21,000 वर्ष की स्थिति का पूर्ण करे तो जीव तीन आरों का स्पर्श कर सकता हैं ।
सभी एकेन्द्रिय काय में ये विशेषता होती है
✳️इन जीवों में चार कषाय पाये जाते हैं।
✳️ इनजीवों में नपुंसक वेद पाया जाता हैं
✳️ यह जीव एक अन्तमुर्हत में जघन्य 1 बार उत्कृष्ट 12,824 बार जीवन मरण कर सकते हैं
✳️इन जीवो में 4 लेश्याएँ पायी जाती हैं।
कृष्ण ,नील ,कापोत, तेजो
✳️जीव उसी भव में मोक्ष नहीं जा सकता हैं।
पर इन जीवों में पर एक भवावतारी आत्माएं हो सकती हैं
✳️इन जीवों में,3, औदारिक ,तैजस ,कार्मण । शरीर पाये जाते हैं?
✳️इन जीवों में 3 ( वेदनीय , कषाय , मारणान्तिक ) समुदघात पाये जाते हैं?
पृथ्वीकाय के जीवों में
✳️4 ( आहार , शरीर , इन्द्रिय , श्वासोश्वास ) पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं
✳️ इन जीवो मे मिथ्यादृष्टि पायी जाती हैं?
पृथ्वीकाय के जीवो में अचक्षु दर्शन होता है। जो स्पर्श इन्द्रिय
से होता है
✳️इन जीव में 3- औदारिक , औदारिक मिश्र , कार्मण काय योग । पाये जाते हैं?
✳️इन जीव में3- मतिअज्ञान ,श्रुत अज्ञान , अचक्षु दर्शन उपयोग पाये जाते हैं।
✳️ इनजीवों में 8 कर्म होते हैं औऱ
2 ध्यान - आर्त्तध्यान व रौद्रध्यान । होता हैं
✳️इन में 25 में से 24 ईर्यापथिकी को छोड़कर क्रियाएं पायी जा सकती हैं?
इन के जीव एक समय में जघन्य 1-2-3, उत्कृष्ट संख्याता , असंख्याता उत्पन्न हो सकते हैं।
✳️इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हैं
✳️ इन मे जीवों के चार प्राण । (स्पर्शनेन्द्रिय बल , काय बल प्राण , श्ववासोश्वास बल प्राण , आयुष्य बल प्राण ) पाये जाते हैं
*10:4:21*
*उत्तर*
1️⃣जीवों में 3 समुदघात पाये जाते हैं कोई एक का नाम बताएं?
🅰️ *वेदनीय*
2️⃣कुलकोड़ी किसे कहते हैं
🅰️ *एक ही उत्पत्ती स्थान में अनेक प्रकार के जीवों के उत्न्न होने को*
3️⃣इनमें 2 ध्यान - कौन कौन से पाए जाते हैं
🅰️ *आर्तध्यान व रौद्रध्यान*
4️⃣उत्कृष्ट कितने बार जीवन मरण कर सकते हैं
🅰️ *12,824*
5️⃣इन जीवों में कितने शरीर पाये जाते हैं औऱ कौन कौन से?
🅰️ * 3 - औदारिक,तेजस,कार्मण*
6️⃣पृथ्वीकाय के जीवो में अचक्षु दर्शन होता है जो कौन सी इन्द्रिय से होता है
🅰️ *स्पर्श इन्द्रिय*
7️⃣पृथ्वीकाय का संस्थान किसके आकार का है
🅰️ *चन्द्रमा या मसूर की दाल के आकार का*
8️⃣इन में 25 में से 24 किसको छोड़कर क्रियाएं पायी जा सकती हैं?
🅰️ *ईर्यापथिकी*
9️⃣इनजीवों में कौन सा वेद पाया जाता हैं
🅰️ *नंपुसक*
🔟इनका कौन सा गुणस्थान हैं
🅰️ *मिथ्यादृष्टी*
*12:4:21*
*अध्याय*
ये एकेन्द्रिय काय अपनी जाति में असंख्यात बार उत्पन्न हो सकते हैं?
जैसे पृथ्वीकाय के जीव मरकर पृथ्वीकाय में असंख्यात बार उत्पन्न हो सकते हैं?
✳️यह जीव कितने समय से आहार लेते है⤵️
आभोग(पूर्ण रूप) निवर्तित (उत्पत्ति) असंख्यात समय के अन्तमुर्हत से , आनाभोग निर्वर्तित प्रतिसमय में
✳️3-4-5-6 दिशा से 288 प्रकार का आहार लेते हैं ।
✳️ इनमें आहार के 288 प्रकार के आहार*
*द्रव्य से - अनन्तानन्त प्रदेशी स्कधों का ।
*क्षेत्र से - असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाढ़ का ।
काल से - एक समय ,दो समय ,तीन समय यावत् दस समय , संख्यात समय , असंख्यात समय की स्थिति का भाव से -वर्ण ,गंध,रस, स्पर्श वाले पुदगलों का आहार ग्रहण करते हैं ।
वर्ण की अपेक्षा -पांचो वर्ण वाले ,
गंध की अपेक्षा -दो गंध वाले , रस की अपेक्षा पांचों रस वाले ,
स्पर्श की अपेक्षा -आठों स्पर्श वाले पुदगलों का आहार ग्रहण करते हैं।
⚛ वर्ण से काले वर्ण के होते हैं तो एक गुण काले वर्ण के दो गुण काले वर्ण के , तीन गुण काले वर्ण के ,
यावत् 10 गुण काले वर्ण के ,संख्यात गुण काले वर्ण के , असंख्यात गुण काले वर्ण के और अंनतगुण काले वर्ण के पुदगलो का आहार करते हैं ।
⚛ काले वर्ण की तरह शेष चार वर्ण ,2 गंध ,5 रस ,8 स्पर्श के कहना ।इस तरह वर्ण ,गंध रस और स्पर्श के (5+2+5+8=20 ) 20×13 =260 बोल हुए।
⚛ स्पृष्ट ,अवगाढ़ , अनन्तरावगाढ़ ,सुक्ष्म ,बादर , ऊँचे ,नीचे , तिरछे आदि मध्य , अंत , स्वविषयक (स्वोचित आहार योग्य ) आनुपुर्वी(आगे पीछे के क्रम से होने की क्रिया)
और नियम पूर्वक छह दिशा के ग्रहण करते हैं।
⚛ द्रव्य का -1 ,क्षेत्र का -1, काल के - 12 ,भाव के -260 और स्पृष्ट आदि 14 बोल । ये सब बोल मिलाकर (1+1+12+260+14 ) 288 प्रकार का आहार होता हैं
131(101 सम्मूच्छिम , अपर्याप्त मनुष्य ,30 पन्द्रह कर्मभुमि के पर्याप्त अपर्याप्त मनुष्य )।मनुष्यों के भेदवाले मनुष्य मरकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो सकते हैं।
हैं?
✳️64 जाति के देवता ,25 भवनपति ,26 वाण्व्यन्तर , 10 ज्योतिषी , पहला -दूसरा देवलोक ,पहला किल्विषी ।तिर्यंच जाति में पैदा हो सकते हैं
✳️इन जीवो में समकित नहीं पायी जाती
2️⃣ बंभी थावरकाय (अप्काय)
अपकाय का नाम बंभीथावर
पानी मे प्रतिबिंब पड़ने के कारण अथवा ब्रह्म देवता इसका मालिक होने के कारण
अपकाय का नाम बंभीथावर
पड़ा
*12:4:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣कौन से मनुष्यों के भेदवाले मनुष्य मरकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो सकते हैं।
🅰️101समूर्छिम ,अपर्याप्त मनुष्य, 30पन्द्रह कर्मभूमि के पर्याप्त अपर्याप्त मनुष्य
2️⃣ कितने जाति के देवता तिर्यंच जाति में पैदा हो सकते हैं।
🅰️64
3️⃣बंभी थावरकाय किसे कहते है
🅰️अपकाय
4️⃣बंभी थावरकाय नाम कैसे पड़ा
🅰️पानी में प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण अथवा ब्रम्ह देवता इसका मालिक होने के कारण बंभीथावर नाम पड़ा।
5️⃣आनुपुर्वी का अर्थ क्या है
🅰️आगे - पीछे के क्रम से होने की क्रिया
6️⃣इन जीवो में क्या नहीं पायी जाता है
🅰️समकित
7️⃣नियम पूर्वक कितनी दिशा के ग्रहण करते हैं।
🅰️6
8️⃣ कौन कौन सी दिशा से कितने प्रकार का आहार लेते हैं
🅰️3-4-5-6 दिशा से 288प्रकार का आहार लेते हैं।
9️⃣ गंध की अपेक्षा से आहार कैसे लेते हैं।
🅰️दो गंध वाले
🔟द्रव्य से किसका आहार लेते है।
🅰️अनंतानंत प्रदेशी स्कंधों का
*13:4:21*
अध्याय
बंभी थावरकाय (अपकाय)
अपकाय का नाम बंभीथावर
पानी मे प्रतिबिंब पड़ने के कारण अथवा ब्रह्म देवता इसका मालिक होने के कारण
अपकाय का नाम बंभीथावर
पड़ा
अपकाय का वर्ण लाल हैं इसलिए माना है क्योंकि जैसे - पानी छानते -छानते गलना लाल हो जाता हैं ।
अपकाय का स्वभाव ढीला हैं।
अपकाय का संस्थान
पानी के बुलबुले के आकार का
है ।
आकाश में बादल इकट्ठे होते हैं वर्षा होती है । हमको पानी मिलता है। पानी सागर में, नदी में, कूए में, टंकी में होता है । हमको ये पानी नल से मिलता है । पानी को अपकाय कहते हैं । पानी पीने के उपयोग में लेते हैं, पानी स्नान के उपयोग में लेते हैं, पानी कपड़े, बर्तन और जमीन धोने के उपयोग में लेते हैं, पानी रसोई करने के उपयोग में भी लेते हैं, कुल मिला के पानी का हर जगह बहुत ही उपयोग होता है ।
यह पानी स्थावर एकेन्द्रिय जीव है । पानी को हाथ-पैर नहीं होते । पानी को पाँच इन्द्रियाँ नहीं होती । पानी को एक ही इन्द्रिय होती है । स्पर्शनेन्द्रिय । पानी की अनुभव करने की शक्ति केवल स्पर्श तक ही मर्यादित है ।
पानी स्थावर जीव है वह स्वयं चल नहीं सकता वह बहता जरुर है परन्तु तकलीफ से बचने के लिए चलने की गति को बढ़ा नहीं सकता । बर्तन या कूए में रहा हुआ पानी तो बहता भी नहीं है । अगर पानी में कोई पेट्रोल से आग लगा दे तो पानी भाग नहीं सकता । पानी को बर्तन में रखकर गरम किया जाए तो पानी भाग नहीं सकता । पानी को भी वेदना का अनुभव होता है । परन्तु वेदना से बचने के लिए वह हलन -चलन नहीं कर सकता । + पानी ७,००० वर्ष तक जिने की क्षमता रखता है । सभी पानी का आयुष्य इतना लम्बा नहीं होता । पानी का सबसे ज्यादा आयुष्य ७,०००
वर्ष का होता है
+ पानी स्पर्श द्वारा अनुभव करने की क्षमता रखता है । ऐसे सजीवन पानी को हम पीड़ा न दे तो ही हम सच्चे जैन है । पानी की जीने की शक्ति और अनुभव पाने की शक्ति को हमारे हाथों
से नुकशानी न हो उसका ख्याल रखना चाहिए ।
हमको कोई परेशान करे तो हमें अच्छा नहीं लगता उसी तरह पानी को भी कोई परेशान करे तो उसे अच्छा नहीं लगता । पानी लाचार है । वो बिचारा बोल नहीं सकता । हमें समझना चाहिये और पानी को तकलीफ न हो वैसे रहना चाहिये ।
अपकाय का वर्ण लाल हैं इसलिए माना है क्योंकि जैसे - पानी छानते -छानते गलना लाल हो जाता हैं ।
अपकाय का स्वभाव ढीला हैं।
अपकाय का संस्थान
पानी के बुलबुले के आकार का
है ।
अपकाय के जीवों में सेवार्त्त (सेवार्त्तक ) संहनन होता हैं
अपकाय के जीवों में जीव के 563 भेंदों मे से चार भेद अपकाय के सुक्ष्म , बादर , पर्याप्ता ,अपर्याप्ता है।
48,प्रकार के तिर्यच मरकर अपकाय मे उत्पन्न हो सकते हैं?
अपकायिक जीव में - 13 वां दण्डकहैं
बंभी थावरकाय (अप्काय) के चार भेद हैं-
(१) समस्त लोक में:
व्याप्त सूक्ष्म अपकाय
(२) लोक के देश-विभाग में दृष्टिगोचर होने वाला बादर अप्काय; इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार भेद होते हैं। बादर अप्काय के विशेष भेद ये हैं-
(१) वर्षा का पानी
(२) सदा रात्रि को बरसने वाला ढार का पानी
(३) बारीक-बारीक बूंद बरसने वाला (मेघरवे का) पानी
(४) धूमर (शबनम) का पानी (५) ओले
(६) ओस
(७) गर्म पानी (पृथ्वी से कई जगह गन्धक की खान आदि के प्रभाव से कुदरती गर्म पानी निकलता है, वह भी सचित्त होता है),
(८) लवणसमुद्र का तथा कुंआ आदि का खारा पानी
( ९) खट्टा पानी
(१०) दूध जैसा (क्षीर समुद्र का) पानी
(११) वारुणी का मदिरा के समान पानी
(१२) घी जैसा (घृतवर समुद्र का) पानी
(१३) मीठा पानी (कालोदधि समुद्र का) ,
( १४) इक्षु सरीखा पानी (असंख्यात समुद्रों का पानी ऐसा होता है,) इत्यादि अनेक प्रकार का पानी है।
विशेष
केप्टन स्कोर्सबी वैज्ञानिक ने पानी की एक बूंद में 36450 त्रस जीव यंत्र के द्वारा प्रामाणित किये
अप्काय सूक्ष्म-बादर अंगुलका असंख्यातवां भाग अंगुलका असंख्यातवां भाग
अपकाय का उत्कृष्ट आयु7000 वर्ष है
जीवों का नाम
हरि वनस्पति के ऊपर पृथ्वी से फूटकर निकला हुआ पानी का नाम(अपकाय का भेद) को कहते हरितणू है
*प्रश्न के उत्तर*
*13:4:21*
1️⃣पानी का प्रयोग कहाँ कहाँ होता है, कोई दो उपयोग बताये
🅰️ नहाने में रसोई बनाने में
2️⃣दूध जैसा पानी किसका हैं
🅰️ क्षीर समुद्र का
3️⃣अपकाय का वर्ण लाल हैं किसलिए माना है
🅰️ पानी छानते छानते गलना लाल हो जाना
4️⃣अपकाय के जीवों में कौन सा संहनन होता हैं
🅰️ सेवार्त संहनन
5️⃣अपकायिक जीव में कौन सा दण्डक - सा है
🅰️ १३ वां
6️⃣हरि वनस्पति के ऊपर पृथ्वी से फूटकर निकला हुआ पानी को क्या कहते है
🅰️ हरितणू
7️⃣अपकाय का उत्कृष्ट आयु कितनी है
🅰️ ७००० वर्ष
8️⃣सदा रात्रि को बरसने वाला कौन सा पानी हैं
🅰️ ढ़ार का पानी
9️⃣अपकाय का संस्थान कैसा है
🅰️ पानी के बुलबुले के आकार का
🔟36450 त्रस जीव यंत्र के द्वारा किसने प्रामाणित किये
केप्टन स्कोर्सबी वैज्ञानिक
*इस no पर भेजे* ⤵️
*14:4:21*
*अघ्याय*
*३) सप्पि थावरकाय* (तेजस्काय)-अग्निकायिक जीव अर्थात् अग्नि ही जिनका शरीर हो जैसे-दीपक की लौ, अग्नि, बिजली आदि।
तेऊकाय का नाम सप्पी थावर काय है। ठसा हुआ घी का घड़ा अग्नि के सामने रखने से पिघल जाता हैं इसलिए अथवा शिल्पी नामक देवता इसका मालिक होने से इसका नामसप्पी थावर काय नाम पड़ा ।
आचारांग वृत्ति में अग्नि को सचेतन कहा गया है,
क्योंकि उसमे उचित आहार-ईधन से वृद्धि और
ईधन के अभाव में हानि देखी जाती है |
आधुनिक वैज्ञानिको का भी यही मानना है कि
प्राणवायु (आक्सीजन) के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती |
नामकर्म की आतापक तथा उद्योतक प्रकृतियों के उदय से
शेष जीवकायों की अपेक्षा तेजस्काय में विशेषता दृष्टिगोचर होती है |
|अग्नि की एक छोटी-सी चिंगारी में पृथक-पृथक असंख्य जीव होते हैं |
सूई के भारे अथवा भालें की नोक के समान का संस्थान हैं
इनकी3 लाख तेउकाय की कुलकोड़ी हैं
बादर तेउकाय के जीवों का स्वस्थान मनुष्य लोक में हैं।
बादर तेउकाय के जीव दिशा में सबसे अधिक
पश्चिम दिशा में (सलिलावती विजय की अपेक्षा ) है
बादर तेउकाय के जीव दिशा में सबसे कम
दक्षिण व उत्तर दिशा में (भरत ऐरवत क्षेत्र सबसे छोटा है उनसे मनुष्यों के वास कम होने से )। है
तेउकाय के जीव एक अन्तमुर्हत में
जघन्य 1 बार उत्कृष्ट 12,824 बार जन्म लेते हैं
तेउकाय के जीव असन्नी होतेहै
अंगुल के असंख्यातवे भाग अवगाहनाहोती हैं
तेउकाय के जीव में कौन सा संहनन सेवार्तहोता हैं?
तेउकाय के जीव एक समय में कितने उत्पन्न हो सकते हैं?
जघन्य 1-2-3 उत्कृष्ट संख्याता असंख्याता उत्पन्न होते हैं।
2 गतियों से आकर जीव तेउकाय में उत्पन्न हो सकते हैं
तिर्यच व मनुष्य से गतियों में आकर जीव तेउकाय में उत्पन्न हो सकते हैं
तेउकाय के जीव मरकर तिर्यच मे ही उत्पन्न होते हैं।
तेउकाय के जीवों में 14 वां दण्डक पाया जाता हैं?
आचारांग में दीर्घ लोक वनस्पति का शस्त्र तेउकाय को
बताया हैं?
क्योकि वह छहकाय के जीवो को भस्म कर डालता हैं
तथा सब ओर से जीवों का आघात करती है |
इसलिए तेउकाय को दीर्घ लोक शस्त्र कहा गया हैं।
*प्रश्न के उत्तर*
*14:4:21*
1️⃣अग्नि को सचेतन किसमें कहा गया है,
🅰️आचारांग वृति में
2पश्चिम दिशा में किसकी अपेक्षा
🅰️सलिलावती विजय की अपेक्षा से
3 तेउकाय का कौन सासंस्थान हैं
🅰️सुई के भारे अथवा भाले की नोक के समान
4️⃣आचारांग में दीर्घ लोक वनस्पति का शस्त्र कौन सा बताया हैं?
🅰️तेउकाय को
5️⃣तेउकाय के जीवों में कौन सा दण्डक पाया जाता हैं?
🅰️14दण्डक
6️⃣पृथक-पृथक किसमे असंख्य जीव होते हैं |
🅰️अग्नि की एक छोटी सी चिंगारी में
7️⃣ किस के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती |
🅰️प्राणवायु (आक्सीजन)के बीना
8️⃣आचारांग में दीर्घ लोक वनस्पति का शस्त्र कौन सा बताया हैं?
🅰️तेउकाय
9️⃣तेउकाय के जीव एक अन्तमुर्हत में
उत्कृष्ट कितनी बार जन्म लेते हैं।
🅰️12824बार
🔟कौन कौन सी गतियों में आकर जीव तेउकाय में उत्पन्न हो सकते हैं?
🅰️2गतियों से ,तिर्यंच व मनुष्य गति से
*15:4:21*
*अग्नि काय*बादर तेउकाय के जीवों का स्वस्थान मनुष्य लोक में हैं।
इसका पहला भेद सूक्ष्म तेजस्काय है। सुक्ष्म तेउकाय के जीव
सम्पूर्ण लोक में रहते हैं?
इस काय के जीव सारे लोकाकाश में ठसाठस भरे हैं। सूक्ष्म तेजस्काय के दो भेद हैं-अपर्याप्त और पर्याप्त। दूसरा भेद बादर तेजस्काय है। बादर तेजस्काय लोक के देशविभाग (अमुक भाग) में रहता है। तेउकाय के जीवों में कायस्थिति असंख्यात काल ।
हैं?
इसके भी अपर्याप्त और पर्याप्त—यह दो भाग हैं। बादर तेजस्काय के १४ प्रकार प्रधान हैं-
(१) भोभर की अग्नि
(२) कुंभार के अलाव (अवा) की अग्नि
(३) टूटती ज्वाला
(४) अखण्ड ज्वाला
(५) चकमक की अग्नि
(६) बिजली की अग्नि
(७) खिरने वाले तारे की अग्नि
(८) आरणि की लकड़ी से पैदा होने वाली अग्नि
(९) बांस की अग्नि
(१०) काठ की अग्नि
(११) सूर्यकान्त कांच की अग्नि
(१२) दावानल की अग्नि
बांस आदि के आपस में टकराने घिसने से उत्पन्न होने वाली आग दावानल कहलाती है ।
( १३ ) उल्कापात (आकाश से गिरने वाली) अग्नि
(१४) वडवानल- समुद्र पानी का शोषण करने वाली अग्नि। इस प्रकार अग्निकाय के मुख्य चार भाग हैं।
तेउकाय के जीव मरकर तेउकाय मेंअसंख्यात बार उत्पन्न हो सकते हैं।
तेउकाय सूक्ष्म-बादर अंगुलका असंख्यातवां भाग अंगुलका असंख्यातवां भाग
तेउकाय का वर्ण सफेद है वह इसलिए है कि
अग्नि का परिणाम सफेद होने से काले वर्ण की लड़की भी जलने पर तेउकाय का स्पर्श पाकर राख सफेद हो जाती हैं।
तेउकाय का का स्वभाव ऊष्ण हैं?
*प्रश्न के उत्तर*
*15:4:21*
1️⃣तेउकाय के जीवों में कायस्थिति कितनी हैं?
🅰️असंख्यात काल
2️⃣तेउकाय का स्वभाव कैसा हैं?
🅰️ऊष्ण
3️⃣वडवानल- किसे कहते हैं ?
🅰️समुद्र पानी का शोषण करने वाली अग्नि
4️⃣बादर तेउकाय के जीवों का स्वस्थान कहां हैं?
🅰️मनुष्य लोक में
5️⃣सुक्ष्म तेउकाय के जीव कहां कहां रहते हैं?
🅰️सम्पूर्ण लोक में
6️⃣बादर तेजस्काय के कितने प्रकार प्रधान हैं। कोई दो के नाम लिखे?
🅰️14
टूटती ज्वाला, चकमक की अग्नि
7️⃣दावानल की अग्नि किसे कहते है?
🅰️बांस आदि के आपस में टकराने, घिसने से उत्पन्न होने वाली अग्नि
8️⃣काले वर्ण की लड़की भी जलने पर किसका स्पर्श पाकर राख सफेद हो जाती हैं?
🅰️तेऊकाय का
9️⃣तेउकाय के जीव मरकर तेउकाय में कितनी बार उत्पन्न हो सकते हैं?
🅰️असंख्यात बार
🔟तेउकाय का वर्ण क्या है?
🅰️सफेद
*16:4:21*
*अघ्याय*
*अग्निकाय विशेष टिप्पणी*
*तेउकाय की आयु
14 जघन्य अन्तर्मुहूर्त , उत्कृष्ट तीन दिन रात*।
अग्निकायिक - जिस अग्नि रूपी शरीर को अग्नि जीव ने धारण कर लिया है वह अग्निकायिक
3अग्निजीव - जो जीव अग्नि रूप शरीर को धारण करने के लिए जा रहा है, विग्रहगति में स्थित है, ऐसा जीव अग्नि जीव है
नन्दीश्वर के मंदिरों में रखे हुए धूप घटों की अग्नि, अग्निकुमार देवों के मुकुटों से उत्पन्न अग्नि आदि सभी अग्निकायिक जीव हैं ।
(४) सुमति थावरकाय* (वायुकाय)
वायु ही जिनका काय (शरीर) हो वे जीव वायुकाय कहलाते है । जैसे सब प्रकार की सजीव हवा ।
वायुकाय का नाम सुमतिथावर काय हैं थका हुआ पथिक छाया में विश्राम लेता हैं या सन्मति नामक देवता इसके मालिक होने से इसका नाम सुमतिथावर पड़ा
*वायु काय की विशेषता*
1,वायुकाय का स्वभाव बाजणा /वाजना है
2वायुकाय की कुलकोड़ी 7 लाख हैं
3वायुकाय की जीवयोनी 7 लाख हैं
4वायुकाय का वर्ण नीला हैं। पर
पृथ्वीकाय के संयोग से निकलता हुआ पीला अंकुर क्रमशः वायुकाय का संस्पर्श पाकर हरा हो जाता हैं।
5वायु का स्वभाव चलना है
6और वायु का संठाण पताका के आकार के समान है।
*बादर वायुकाय के जीवों के भेद*
*1उद्भ्रामक*-इसका दूसरा नाम संवर्तक वायु है
ऊँचाई की तरफ बहने वाली वायु उद्भ्रामक कहलाती है
*2उत्कलिका-* नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली वायु उत्कलिका कहलाती है ।
*3 मंडलाकार*- वह वायु, जो गोल-गोल घूमती हुई बहती है, मंडलाकार(गोलाकार)वायु कहलाती है ।
*4गूंजवायु-* वह वायु, जो गूंजती हुई बहती है, गूंजवायु कहलाती हैं ।
*घनवात* का अर्थ गाढी वायु है
और तनवात का अर्थ पतली वायु है । चौदह राजलोक में देवविमानो एवं नरक पृथिवियों के नीचे जो घनोदधि स्थित है, उसके नीचे घनवात एवं तनवात स्थित है ।
शुद्धवाय आदि अनेक भेद हैं।
लोक के बहुत से असंख्यातवें भाग में बादर वायुकाय का उतपात ,समु्घात स्वस्थान है।
*प्रश्न के उत्तर*
*16:4:21*
1️⃣वायु का संठाण किस के आकार के समान है।
🅰️पताका के
2️⃣कौन से जीव वायुकाय कहलाते है
🅰️वायु ही जिनका शरीर हो वे जीव वायुकाय कहलाते हैं।
3️⃣तेउकाय की आयु कितनी है
🅰️14जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन दिन रात
4️⃣वायुकाय का क्या स्वस्थान है
🅰️बादर वायुकाय का उतपात,समुघात स्वस्थान है।
5️⃣नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली वायु क्या कहलाती है ।
🅰️उत्कलिका
6️⃣किसका पीला अंकुर क्रमशः वायुकाय का संस्पर्श पाकर हरा हो जाता हैं।
🅰️वायुकाय का
7️⃣किसका दूसरा नाम संवर्तक वायु है
🅰️उद्भ्रामक
8️⃣तनवात का अर्थ क्या है ।
🅰️गाढ़ी वायु
9️⃣कौन से देवता इसके मालिक होने से इसका नाम सुमतिथावर पड़ा
🅰️सन्मति
🔟नन्दीश्वर के मंदिरों में रखे हुए धूप घटों की अग्नि, क्या है
🅰️अग्निकायिक जीव
*17:4:21*
*अध्याय*
*वायु काय के मुख्य भेद*
वायु काय के मुख्य चार भेद हैं-सूक्ष्म और बादर के पर्याप्त और अपर्याप्त। अर्थात् सूक्ष्म वायुकाय पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकाय अपर्याप्त, बादर वायुकाय अपर्याप्त, बादर वायुकाय पर्याप्त। सूक्ष्म वायु समस्त लोक में ठसाठस भरा है। बादर वायुकाय लोक के देशविभाग में होता है। सब मिलाकर बादर वायुकाय सोलह प्रकार का है -
(कुछ का तो कल वर्णन दिया था)
सब मिलाकर⤵️
( १) पूर्व का वायु
(२) पश्चिम का वायु
(३) उत्तर का वायु
(४) दक्षिण का वायु
(५) ऊँची दिशा का वायु
(६) नीचा दिशा का वायु
(७) तिरछी दिशा का वायु
(८) विदिशा का वायु
(९) भ्रमर वायु (चक्कर खाने वाला वायु)
(१०) चारों कोनों फिरने वाला मण्डलवायु
(११) गुंडल वायु-ऊँचा चढ़ने वाला
(१२) गुंजन करने वाला वायु
(१३) झाड़ आदि को उखाड़ देने वाला झंझावायु,
(१४) शुद्ध वायु (धीमा-धीमा चलने वाला),
(१५) घन वायु घनवात का अर्थ गाढी वायु है
(१६) तनुवायऔर तनवात का अर्थ पतली वायु है ।
ये दो प्रकार की वायु नरक और स्वर्ग के नीचे हैं। इत्यादि अनेक प्रकार का वायु है।
बादर वायुकुमार के जीव पूर्व दिशा में (पृथ्वी कठोर होने से )।इसदिशा में सबसे कम हैं?
बादर वायुकाय के जीव दक्षिण दिशा में (4 करोड़ 6 लाख भवन होने से इस दिशा में सबसे अधिक हैं?
वायुकाय के जीवों में हुण्डक संस्थान होता हैं
वायुकाय के जीवों में 15 वा दण्डक पाया जाता हैं
वाउकाय सूक्ष्म-बादर अंगुलका असंख्यातवां भाग अंगुलका असंख्यातवां भाग
खुले मुँह (अयतना से ) बोलने पर एक फूंक मारने से
वायुकाय के असंख्याता जीव मरते है
एक फूंक प्रमाण सचित्त वायु में वायुकाय के असंख्याता जीव होते हैं। एक पर्याप्त की नेश्राय में असंख्याता अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। लोकाकाश के छिद्रों में, यानी जहाँ भी लोकाकाश खाली है, वहाँ वायुकाय के जीव रहते हैं
वायुकाय की आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त , उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष है।
*प्रश्न के उत्तर*
*17:4:21*
1️⃣जहाँ भी क्या खाली है, वहाँ वायुकाय के जीव रहते हैं
🅰️लोकाकाश
2️⃣वायुकाय के जीवों में कौन सा दण्डक पाया जाता हैं
🅰️15वा दण्डक
3️⃣वायुकाय की आयु कितनी है।
🅰️जघन्य अंतर्मुहत उत्कृष्ट 3000वर्ष
4️⃣किस दिशा में सबसे कम वायु हैं?
🅰️पूर्व दिशा में
5️⃣बादर वायुकाय लोक के कहाँ में होता है।
🅰️देश विभाग में
6️⃣ये दो प्रकार की वायु किसके नीचे हैं।
🅰️नरक और स्वर्ग के नीचे
7️⃣दक्षिण दिशा में कितवे भवन हैं
🅰️4करोड़ 6लाख
8️⃣गुंडल वायु- क्या होती हैं
🅰️उँचा चढने वाला वायु
9️⃣बादर वायुकाय कितने प्रकार का है -कोई दो नाम लिखे
🅰️ 16प्रकार की उत्तर का वायु
दक्षिण का वायु
🔟झंझावायु किसे कहते हैं
🅰️झाङ आदि उखाड़ देने वाला वायु
*19:4:21*
*अध्याय*
*(5) वनस्पति काय(पयवच्च थावरकाय)* वनस्पति ही जिन जीवों का शरीर है, वे वनस्पतिकायिक हैं। जैसे - पेड़ आदि।वनस्पति काय
का नाम पयावच्च थावर काय भी है।इसका नाम प्रजापति देवता मालिक होने के कारण पड़ा।
*वनस्पति काय की कुछ जानकारी*
♻️जैन दर्शन में वनस्पति को भी एकेंद्रिय जीव का शरीर माना गया है ।
♻️स्थावर में सबसे ज्यादा जीव वनस्पति काया में हैं।
♻️आचारांग में दीर्घकाल वनस्पति काय को कहा गयाहैं।
♻️वनस्पति काय के जीव का रंग काला होता है
♻️कारण वनस्पति को धोने से पानी काला हो जाता हैं,तथा वनस्पति को सुधारने पर भी थोड़े समय बाद उसके ऊपर कालापन आ जाता हैं।
♻️वनस्पति का स्वभाव औऱ संस्थान नाना प्रकार का है।
♻️वनस्पति काय की कुलकोड़ी 28 लाख है
♻️वनस्पति काय की जीवयोनी 24 लाख हैं।
♻️वनस्पति काय के जीव
पश्चिम दिशा में (गौतम द्वीप होने से )दिशा में सबसे कम हैं?
♻️ वनस्पति काय के जीव
उत्तर दिशा में (मानसरोवर झील होने से )।सबसे अधिक हैं?
♻️वनस्पतिकाय के जीव मरकर मनुष्य व तिर्यच गति मे उत्पन्न होते हैं?
♻️वनस्पतिकाय का 16 वा दण्डक है
♻️वनस्पति में पृथक्-पृथक् अनेक जीव होते हैं। जब तक उनको विरोधी शस्त्र न लगे तब तक वह वनस्पति सचित्त होती है। विरोधी शस्त्र के योग से अचित्त हो जाती है।
♻️वनस्पतिकाय के जीवों में जीव के 563 भेदों
वनस्पतिकाय के 6 भेद है
(१) सर्वलोक में व्याप्त वनस्पतिकाय
(२) लोक के देश विभाग में रहने वाला बादर वनस्पतिकाय।
बादर वनस्पतिकाय के दो भेद हैं-प्रत्येक वनस्पति काय
साधारण वनस्पति काय
इस प्रकार सूक्ष्म, प्रत्येक औऱ साधारण के पर्याप्त औऱ अपर्याप्त के भेद से
6 भेद हो जाते है
*आइये इनका विवरण देखते हैं*
*1प्रत्येक वनस्पति काय*-
जिनका पृथक् पृथक् शरीर होता है, उन्हें प्रत्येक शरीर जीव कहते हैं−
(जिस वनस्पति के एक शरीर में एक ही जीव हो) जैसे
प्रत्येक वनस्पतिकाय के फल, फुल, छाल, काष्ट, मुल, पत्ता, और बीज ये सात रुप होते है ।
जैसेसंतरा, आमआदि
प्रत्येक वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना १००० योजन से कुछ अधिक
है।एक हजार योजन की अवगाहना कमलनाल की अपेक्षा से
प्रत्येक वनस्पति कायिक जीवों की स्थिति
जघन्य अन्तमुर्हत व उत्कृष्ट 10 हजार वर्ष की ।
प्रत्येक वनस्पति के जीव एक अन्तमुर्हत में जघन्य 1 बार उत्कृष्ट 16 हजार बार
बार जन्म मरण करते हैं
प्रत्येक वनस्पतिकायिक के दो भेद हैं -
*सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति* - जिस एक शरीर में जीव के मुख्य रहने पर भी उसके आश्रय से अनेक निगोदिया जीव रहें, वह सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति है।
*अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति* - जिसके आश्रय से कोई भी निगोदिया जीव न हों, वह अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति है।
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि
. *सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति में क्या अंतर है ?*
उत्तर-जिनके आश्रय से बादर निगोदिया जीव रहते हैं, वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति हैं और जहाँ एक शरीर में सूक्ष्म अनन्तानन्त जीव रहते हैं, उन्हें साधारण वनस्पति कहते हैं।
*कुछ प्रश्न कुछ समाधान*
*प्रश्न1*−प्रत्येक शरीर का इस प्रकार लक्षण करने पर पृथिवीकाय आदि पाँचों शरीरों को भी प्रत्येक शरीर संज्ञा प्राप्त हो जायेगी?
*उत्तर*−यह आशंका कोई आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि पृथिवीकाय आदि के प्रत्येक शरीर मानना इष्ट ही है । *प्रश्न2*−तो फिर पृथिवीकाय आदि के साथ भी प्रत्येक शरीर विशेषण लगा देना चाहिए? *उत्तर*−नहीं, क्योंकि जिस प्रकार वनस्पतियों में प्रत्येक वनस्पति से निराकरण करने योग्य साधारण वनस्पति पायी जाती है, उसी प्रकार पृथिवी आदि में प्रत्येक शरीर से भिन्न निराकरण करने योग्य कोई भेद नहीं पाया जाता है, इसलिए पृथिवी आदि में अलग विशेषण देने की आवश्यकता नहीं है ।
*प्रश्न के उत्तर*
*19:4:21*
1️⃣जिसके आश्रय से कोई भी निगोदिया जीव न हों, वह कौन सी वनस्पति है।
🅰️अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति
2️⃣एक हजार योजन की अवगाहना किस की अपेक्षा से
🅰️कमलनाल
3️⃣प्रकार वनस्पतियों में प्रत्येक वनस्पति से निराकरण करने योग्य क्या पायी जाती हैं
🅰️साधारण वनस्पति
4️⃣प्रत्येक वनस्पति के जीव एक अन्तमुर्हत में कितनी
बार जन्म मरण करते हैं
🅰️जघन्य 1बार उत्कृष्ट 16हजार बार
5️⃣प्रत्येक वनस्पति काय किसे कहते हैं*
🅰️जिनका पृथक पृथक शरीर होता है उन्हें प्रत्येक वनस्पति काय कहते है
6️⃣वनस्पति का क्या -क्या नाना प्रकार का है।
🅰️स्वभाव और संस्थान
7️⃣वनस्पति काय की जीवयोनी कितनी हैं।
🅰️24लाख
8️⃣पयवच्च थावरकाय क्यों कहा गया है
🅰️प्रजापति देवता मालिक होने से
9️⃣उत्तर दिशा में कौन सी झील है
🅰️मानसरोवर झील
🔟प्रत्येक वनस्पतिकाय के कितने रूप होते है
कोई 2 लिखे
🅰️सात रूप,फल,फुल,काष्ठ
*20:4:21*
*अघ्याय*
*2साधारण वनस्पति काय* (जिसके एक शरीर में अनन्त जीव हों।)
साधारण वनस्पतिकाय का वर्णन इस प्रकार है:- सभी प्रकार के कन्द-मूल साधारण वनस्पति हैंजिनका मूल अर्थात् जड़ ही बीज हो (जो जड़के बोने से उत्पन्न होती हैं) वे मूलबीज कही जाती हैं जैसे
मूली, अदरख, आलू, पिण्डालु, कांदे, लहसुन, गाजर, शकरकन्द, सूरन कन्द, वज्रकंद, मूसली, खरसाणी, अमरवेल, थहर, हल्दी, आदि
साधारण वनस्पति के 2 भेद हैं
नित्य निगोद - जिन्होंने अनादिकाल से आज तक निगोद के अलावा कोई पर्याय प्राप्त नहीं की है,वे नित्य निगोद हैं।
इतरनिगोद - जो नित्य निगोद से निकल कर, अन्य पर्याय प्राप्त कर पुन: निगोद में आ गए हैं, वे इतर (अनित्य) निगोद हैं।
साधारण वनस्पति काय की अवगाहना
जघन्यअंगुल का असंख्यातवॉं भाग।
उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवे भाग की ।
प्रत्येक वनस्पति काय के जीवों की स्वकाय की स्थिति
उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी होती हैं जब की साधारण वनस्पतिकाय के जीवों की स्वकायस्थिति अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी होती है ।
साधारण वनस्पति के जीव एक अन्तमुर्हत में जघन्य 1 बार उत्कृष्ट 32 हजार बार ।
बार जन्म मरण करते हैं
साधारण वनस्पति के अनंत जीव श्वासोश्वास,आहार
एक साथ ही लेते हैंऔऱ अंनत जीव एक साथ ही जन्म लेते हैं
अनन्तनायिक साधारण वनस्पति के तीन लक्षण ⤵️
जिसके भंग करने पर भंग स्थान चक्राकार हो ।
2. जिसकी गांठ चुर्ण (रज) से युक्त हो ।
3. जिसका भंग पृथ्वी के टुकड़े के समान हो ।
सूक्ष्म वनस्पति कायिक जीवों की अवगाहनाजघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग की व उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती हैं
प्रत्येक वनस्पति के बारह भेद हैं
(१) गुच्छ
२ वृक्ष
(३) गुल्म
(४) लता
(५) वल्ली
(६) तृण
(७) वल्लया
(८) पव्वया
९) कुहण
(१०) जलवृक्ष
(११) औषधि और
( १२) हरित काय।
इनमें से वृक्ष के दो भेद -
*1एगाट्ठिया वृक्ष* - एक बीज वाले हरड़, बहेड़ा, आंवला, अरीठा, भिलावा, आसापालव, आम, जामुन, महुवा, खिरनी आदि के वृक्ष एक बीज वाले (गुठली वाले) होते हैंएगट्ठिया वृक्ष के मुल ,कंद स्कंध , शाखा ,छाल प्रवाल में असंख्यात जीव ।
पाये जाते हैं
*2बहुबीजक वृक्ष*-जिन वृक्षों के फलों में अनेक बीज हो जैसे
असंख्यात जीव ।
। जामफल, सीताफल, अनार, बिल्वफल, कपित्थ (कविठ-कैथ) कैर, नींबू, तेंदू (टीमरू) आदि बहुवीज वाले हैं। बहुबीजक वृक्षों के मुल ,कंद , स्कंध , शाखा ,छाल , प्रवाल में असंख्यात जीव पाये जाते हैं
बहुबीजक वृक्षों के पत्तों मे एक जीव होते हैं
बहुबीजक वृक्षों के पत्तों के आश्रित अनेक जीव रहते हैं
3082 बहुबीजक वृक्ष के फूल और फल में कितने जीव होते हैं?
अनेक जीव ।
गुच्छ
रिंगनी, जवासा, तुलसी, पुंवाड़ा आदि पौधे गुच्छ कहलाते है।
*गुल्म*
सोजाई, जुही, केतकी, केवड़ा, गुलाब आदि अनेक प्रकार के फूलों के झाड़ गुल्म कहलाते हैं।
झाड़ लता
नागलता, अशोकलता, पद्मलता आदि अनेक प्रकार के जमीन पर फैलकर ऊंचे जाने वाले झाड़ लता कहलाते हैं।
बेलें वल्ली
तोरई, ककड़ी, करेला, किंकोड़ा, तूंबा, खरबूजा आदि अनेक प्रकार बेलें वल्ली कहलाती हैं।
*
*20:4:21*
1️⃣प्रत्येक वनस्पति के कितनेभेद हैं कोई दो बताए
🅰️ *बारह । । वल्ली लता*
2️⃣एगाट्ठिया वृक्ष किसे कहते हैं
🅰️ *एक बीजा वाले वृक्ष*
3️⃣साधारण वनस्पति काय की अवगाहना कितनी है
🅰️ *जघन्य अंगुल का असंख्यातवाॕ भाग lउत्कृषृ अंगुल के असंख्यातवे भाग*
4️⃣साधारण वनस्पति के जीव एक अन्तमुर्हत में कितनी बार जन्म- मरण कर सकते है
🅰️ *जघन्य 1बार उत्कृष्ट 32हजार बार*
5️⃣अनन्तनायिक साधारण वनस्पति के कितने लक्षण हैं
कोई एक बताइये
🅰️ *3*
6️⃣बहुबीजक वृक्षों के पत्तों मे कितने जीव होते हैं
🅰️ *आश्रित अनेक जीव*
7️⃣किनका मूल अर्थात् जड़ ही बीज होता है
🅰️ *सभी प्रकार के कन्द मूल साधारण वनस्पति*
8️⃣प्रत्येक वनस्पति काय के जीवों की स्वकाय की स्थिति
कितनी है
🅰️ *अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी*
9️⃣जामफल, सीताफल, अनार, कौन से वृक्ष है
🅰️ *बहुबीजक वृक्ष*
🔟अनादिकाल से आज तक निगोद के अलावा कोई पर्याय प्राप्त नहीं की है वे क्या है
🅰 *नित्य निगोद*
*21:4:21*
*अध्याय*
प्रत्येक वनस्पति काय के प्रकार
अब आगे
*तृण*
घास, दूब, डाभ आदि घास को तृण कहते हैं।
*वल्लया*-वलयाकार अर्थात ढोल के आकार वाले वृक्ष जैसे
सुपारी, खजूर, दालचीनी, तमाल, नारियल, इलायची, लौंग, ताड़, केले आदि अनेक प्रकार के वृक्ष, जो ऊपर जाकर गोलाकार बनते हैं, वल्लया कहलाते हैं।
*पव्वया*-जिनके मध्य में गांठे हों, पव्वया कहलाते है। जैसे
ईख, एरंड, बेंत, बांस आदि
*कुहाण*-जमीन फोड़कर निकलने वाले 'कुहाण' कहलाते हैं।कुहाण के भेद
आय, काय, भूंफोड़ आदि ।
जैसे वेल्ली के वेले, कुत्ते के टोप आदि,
*जलवृक्ष*- पानी में उत्पन्न होने वाली वनस्पति को जलवृक्ष कहते हैं।
यह जलरूह वनस्पति भी कहलाती हैं। जैसे
कमल,सिंघाड़ा, सेवार आदि
*१४ प्रकार के लहा धान्य कहलाते* उनकी दाल न होने से ये १४ प्रकार के लहा धान्य कहलाते हैं⤵️
[१] धम [गेहूं] [२] जौ [३] जवार [४] बाजरी [५] शालि [६] वरटी [७] राल [८] कांगनी [९] कोद्रव [१०] वरी [११] मणची [१२] मकई [१३] कुरी [१४] अलसी।
*दस प्रकार के धान्य कठोल*
; ये दस प्रकार के धान्य कठोल कहलाते हैं, क्योंकि इनकी दाल होती है।
और [१] तुअर (२) मौंठ (३) उड़द (४) मूंग (५) चंवला (६) वटरा (७) तेवड़ा (८) कुलथी (९) मसूर और (१०) चना
इस प्रकार
चौबीस प्रकार का धान्य जैसे - गेहुँ , जौ ,मुँग , उड़द आदि । १४ प्रकार के लहा धान्य कहलाते+दस प्रकार के धान्य कठोल =24
ये सब २४ प्रकार धान्य औषधि कहलाते हैं।
वनस्पति हरितकाय -वनस्पतिकायिक जीवों की १४ लाख योनियाँ हैं।
तथा मूली की भाजी, मैथी की भाजी, बथुवे की भाजी, चन्दलाई की भाजी आदि अनेक प्रकार की भाजी रूप वनस्पति हरितकाय कहलाती है।
*उत्तर*
*21:4:21*
1️⃣वनस्पतिकायिक जीवों की कितनी लाख योनियाँ हैं।
🅰️ *१४लाख*
2️⃣जलवृक्ष को औऱ क्या कहते हैं
🅰️ *जलरूह वनस्पति*
3️⃣धान्य औषधि कितने प्रकार की है
🅰️ *24*
4️⃣वनस्पति हरितकाय के अंतर्गत आई कोई दो सब्जीके नाम लिखे
🅰️ *मैथी की भाजी,चन्दलाई*
5️⃣पव्वया किसे कहते है
🅰️ *जिनके मध्य मेंगांठे हों*
6️⃣धान्य कठोल किसे कहते है
🅰️ *इनकी दाल होती हैं*
7️⃣कुहाण के कितने औऱ कौन कौन से भेदहै नामलिखें
🅰️ *तीन जैसे वैल्ली के वेले,कुत्ते के टोप*
8️⃣*तृण। किसे कहते हैं*
🅰️ *घास,दूब,डाभ आदि घास को*
9️⃣धान्य कितने प्रकार के है , दो का नाम लिखे
🅰️ *14--जवार,बाजरी*
🔟सुपारी, खजूर, दालचीनी, तमाल इन वृक्ष को क्या कहतेहैं।
🅰 *वल्लया*
*22:4:21*
*अध्याय*
वनस्पतिकायिक जीवों के उत्पन्न होने के मुख्यतः आठ प्रकार माने गए हैं :-
*(1) अग्र-बीज* -- वह वनस्पति, जिसका सिरा ही बीज हो (अर्थात् टहनी की कलम लगाने से वे उत्पन्न हों)
जैसे -- कोरंट ( कट्ठसरिया) का वृक्ष आदि।
*2) मूल-बीज* -- वह वनस्पति, जिसका मूल ही बीज हो। (जो जड़के बोने से उत्पन्न होती हैं)
जैसे -- कंद अदरख, हल्दी आदि ।
।
*(3) पर्व-बीज* -- वह वनस्पति, जिसकी गांठें ही बीज हो। जैसे -- ईख आदि।
*(4) स्कंध बीज* -- ऐसी वनस्पति या वृक्ष जिसके स्कंध(कंधे) से ही शाखाएँ निकलकर जमीन तक पहुँचती और वृक्ष का रूप धारण करती हों। –
इसलिए कहते है
वह वनस्पति, जिसके स्कन्ध ही बीज हो। जैसे -- थूअर बड़, पाकर आदि।
*5) बीज-रूह* -- वह वनस्पति, जो बीज से उत्पन्न हो। जैसे -- गेहूं, जौ आदि।
*6) सम्मूर्च्छिम* -- जो नियत बीज आदि की अपेक्षा से रहित, केवल मिट्टी और जल के संबंध से उत्पन्न होती हैं, या साधारणत:
वह वनस्पति, जो स्वयंमेव पैदा होती है। जैसे−फूई, काई आदि ।... ये मूलादि सम्मूर्छिम वनस्पति सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक दोनों प्रकार की होती हैं और सबकी सब सन्मूर्छिम ही होती हैं, गर्भज नहीं ।
*(7) तृण* --ऐसी वनस्पतियाँ जिनके तने या कांड (खंड, भाग।) कमज़ोर होते हैं;
तृणादि, घास।
*8) लता* -- जो वनस्पतियाँ लता (Vine) कहलातीं हैं जो स्वयं उर्ध्वाधर दिशा में खड़ी नहीं रह सकतीं। इनके तने पतले और कमजोर होते हैं और इतने लम्बे होते हैं कि ये स्वयं खड़ी नहीं होती बल्कि किसी अन्य वृक्ष, दीवार, जमीन आदि पर पसरते हुए वृद्धि करतीं हैं। , लताओं के कुछ उदाहरण हैं। लता दो तरह के होते हैं-
(1) विसर्पी लता(creepers)
(2) आरोही लता(climbers)
*विसर्पी* लता वो होते हैं जो सीधे खड़े नहीं होते जमीन में फैल जाते हैं। जैसेलौकी, कद्दूतरबूज, खरबूज आदि
*आरोही* लता वो होते हैं जो आस-पास के ढाँचे की सहायता से ऊपर चढ़ जाते हैं।
उदाहरण:-
अंगूर चंपा, चमेली, ककड़ी, की बेलें।
*संतरा, केला आदि जब तब वृक्ष में लगे हैं तब तक जीव है उससे अलग होने के बाद नहीं*।
इनकी अवगाहना - जघन्य
अंगुलका असंख्यातवां भाग
उत्कृष्ट एक हजार योजन से कुछ अधिक
*वनस्पति काय की शक्तियां*
किसी की भी शक्ति उसके प्राण बल पर निर्भर करती है,
*22:4:21*
*अध्याय*
वनस्पतिकायिक जीवों के उत्पन्न होने के मुख्यतः आठ प्रकार माने गए हैं :-
*(1) अग्र-बीज* -- वह वनस्पति, जिसका सिरा ही बीज हो (अर्थात् टहनी की कलम लगाने से वे उत्पन्न हों)
जैसे -- कोरंट ( कट्ठसरिया) का वृक्ष आदि।
*2) मूल-बीज* -- वह वनस्पति, जिसका मूल ही बीज हो। (जो जड़के बोने से उत्पन्न होती हैं)
जैसे -- कंद अदरख, हल्दी आदि ।
।
*(3) पर्व-बीज* -- वह वनस्पति, जिसकी गांठें ही बीज हो। जैसे -- ईख आदि।
*(4) स्कंध बीज* -- ऐसी वनस्पति या वृक्ष जिसके स्कंध(कंधे) से ही शाखाएँ निकलकर जमीन तक पहुँचती और वृक्ष का रूप धारण करती हों। –
इसलिए कहते है
वह वनस्पति, जिसके स्कन्ध ही बीज हो। जैसे -- थूअर बड़, पाकर आदि।
*5) बीज-रूह* -- वह वनस्पति, जो बीज से उत्पन्न हो। जैसे -- गेहूं, जौ आदि।
*6) सम्मूर्च्छिम* -- जो नियत बीज आदि की अपेक्षा से रहित, केवल मिट्टी और जल के संबंध से उत्पन्न होती हैं, या साधारणत:
वह वनस्पति, जो स्वयंमेव पैदा होती है। जैसे−फूई, काई आदि ।... ये मूलादि सम्मूर्छिम वनस्पति सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक दोनों प्रकार की होती हैं और सबकी सब सन्मूर्छिम ही होती हैं, गर्भज नहीं ।
*(7) तृण* --ऐसी वनस्पतियाँ जिनके तने या कांड (खंड, भाग।) कमज़ोर होते हैं;
तृणादि, घास।
*8) लता* -- जो वनस्पतियाँ लता (Vine) कहलातीं हैं जो स्वयं उर्ध्वाधर दिशा में खड़ी नहीं रह सकतीं। इनके तने पतले और कमजोर होते हैं और इतने लम्बे होते हैं कि ये स्वयं खड़ी नहीं होती बल्कि किसी अन्य वृक्ष, दीवार, जमीन आदि पर पसरते हुए वृद्धि करतीं हैं। , लताओं के कुछ उदाहरण हैं। लता दो तरह के होते हैं-
(1) विसर्पी लता(creepers)
(2) आरोही लता(climbers)
*विसर्पी* लता वो होते हैं जो सीधे खड़े नहीं होते जमीन में फैल जाते हैं। जैसेलौकी, कद्दूतरबूज, खरबूज आदि
*आरोही* लता वो होते हैं जो आस-पास के ढाँचे की सहायता से ऊपर चढ़ जाते हैं।
उदाहरण:-
अंगूर चंपा, चमेली, ककड़ी, की बेलें।
*संतरा, केला आदि जब तब वृक्ष में लगे हैं तब तक जीव है उससे अलग होने के बाद नहीं*।
इनकी अवगाहना - जघन्य
अंगुलका असंख्यातवां भाग
उत्कृष्ट एक हजार योजन से कुछ अधिक
*वनस्पति काय की शक्तियां*
किसी की भी शक्ति उसके प्राण बल पर निर्भर करती है,
*प्रश्न के उत्तर*
*22:4:21*
1️⃣अंगूर चंपा, चमेली, ककड़ी, की बेलें किसका उदाहरण हैं
🅰️आरोही लता
2️⃣गेहूं, जौ आदि कैसे उत्पन्न होते है
🅰️बीज से उत्पन्न होते हैं
3️⃣पर्व-बीज किसे कहते हैं*
🅰️जिसकी गाठे हीं बीज हो
4️⃣कौन जब तब वृक्ष में लगे हैं तब तक जीव है उससे अलग होने के बाद नहीं*।
🅰️संतरा,केला आदि
5️⃣तृण किसे कहते हैं
🅰️जिसके तने या कांड (खंडभाग) कमजोर होते हैं
6️⃣लता के कितने प्रकार है नाम बताइये
🅰️दो प्रकार की,विसर्पी लता,आरोही लता
7️⃣टहनी की कलम लगाने से वे उत्पन्न हों उसे क्या कहते है
🅰️अग्रबीज
8️⃣सम्मूर्छिम वनस्पति सप्रतिष्ठित प्रत्येक और ---–- प्रत्येक दोनों प्रकार की होती हैं
🅰️अप्रतिष्ठान
9️⃣कंद अदरख, हल्दी आदि उत्पन्न होने के किस के प्रकार हैं
🅰️मूल बीज (जो जङ के बोने से उत्पन्न होती हैं)
🔟केवल मिट्टी और जल के संबंध से उत्पन्न होती हैं,उसे क्या कहते है।
🅰️समुर्च्छिम
*23:4:21*
*अध्याय*
आज जो बड़े से बडे-वैज्ञानिक एक छोटी से छोटी बात जो जैन
आगमों में अनादि काल से वर्णित है के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा कर यूँ कहें कि अपना सम्पूर्ण जीवन लगाकर साबित करते है , उदाहरण जैन आगम ने वनस्पति काय के बारे में का का कहा वह आज
वनस्पति भी सजीव है. विज्ञान जगत् में यह बात सर्वप्रथम सर जगदीशचन्द्र वसु ने सिद्ध की. उन्होंने यंत्रों के माध्यम
से प्रत्यक्ष दिखाया कि पेड़-पौधे आदि वनस्पतियां मनुष्य की भाँति ही अनुकूल परिस्थिति में सुखी और प्रतिकूल परिस्थति में दुःखी होती हैं तथा हर्ष, शोक, रुदन आदि करती हैं
जैनागमों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चारों
संज्ञाओं को भी वनस्पति में स्वीकार किया गया है.
*1,आहार संज्ञा* – वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि वनस्पतियाँ मिट्टी, जल, वायु तथा प्रकाश से आहार ग्रहण कर अपने तन को पुष्ट करती हैं. आहार के अभाव में वे जीवित नहीं रह सकतीं. व
वृक्षों,पौधो को जब तक आहार पानी मिलता है तब तक जीवित रहते है आहार पानी के अभाव में सूखकर मर जाते है ।
आहार के दो प्रकार
. *1शाकाहारी, 2मांसाहारी* –वनस्पतियाँ भी पशु पक्षियों के समान निरामिष आहारी और सामिष आहारी दोनों प्रकार की होती हैं.
*शाकाहारी*
आम, नीम, जामुन आदि निरामिष आहारी वनस्पतियाँ तो हमारी आँखों के सामने सदैव ही रहती हैं.
*सामिष* आहारी वनस्पतियाँ अधिकतर विदेशों में पाई जाती हैं. आस्ट्रेलिया में एक प्रकार की वनस्पति होती है जिसकी डालों में शेर के पंजों के समान बड़े-बड़े काँटे होते हैं. अगर कोई सवार घोड़े पर चढ़ा इस वृक्ष के नीचे से निकले तो वे घोड़े पर से उस व्यक्ति को इस प्रकार उठा लेती हैं, जैसे बाज किसी छोटी चिड़िया को. फिर वह शिकार उस वृक्ष का आहार बन जाता है. अमरीका के उत्तरी कैरोलीना राज्य में वीनस फ्लाइट्रेप पौधा पाया जाता है. ज्यों ही कोई कीड़ा या पतंगा इसके पत्ते पर बैठता है तो पत्ता तत्काल बंद हो जाता है. पौधा जब उसका रक्त-मांस सोख लेता है, तब पत्ता खुल जाता है और कीड़े का सुखा शरीर नीचे गिर जाता है. इसी प्रकार 'पीचर प्लांट' रेन हैटट्रम्पट, वटर-वार्ट, सनड्यू, उपस, टच-मी-नाट, आदि अनेक मांसाहारी वृक्ष हैं जो जीवित कीटों को पकड़ने व खाने की कला में प्रवीण हैं. वनस्पतिकायिक जीवों में कुछ वनस्पतियाँ पानी, खाद आदि का आहार करती हैं और कुछ वनस्पतियाँ मनुष्य, जलचर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के मांस, रुधिर का भक्षण करती है । सनड्रयू और वीनस फ्लाइट्रेप आदि वनस्पतियाँ संपातिम ( उडने वाले ) जीवो का भक्षण करती हैं ।
*2भय* के लिए तो छुईमुई आदि वनस्पतियाँ प्रसिद्ध ही है, जो अंगुली दिखाने मात्र से भयभीत हो अपने शरीर को सिकोड़ लेती हैं. ।
*3मैथुन*– अनेक वनस्पतियाँ आलिंगन, चुम्बन, कामुक हाव भाव एवं कटाक्ष से जल्दी फलीभूत होती है, पपीते आदी के वृक्ष नर और मादा साथ साथ हो तो ही पल्लवित होते हैं
वनस्पति में मैथुन-क्रिया किस प्रकार संपन्न होती है तथा इस क्रिया के संपन्न न होने की स्थिति में फूल फल में परिणत नहीं होते हैं, औऱ मैथुनआदि सब बातें श्री पी० लक्ष्मीकांत
ने सविस्तार बताई हैं
*4परिग्रह* वनस्पति विशेषज्ञों का कथन है कि एक भी फूलने वाला पौधा ऐसा नहीं है जो अपने बच्चे के लिए बीज रूप में पर्याप्त भोजनसामग्री इकट्ठी न कर लेता हो. ऐसे पौधे वसंत और गर्मी में खूब प्रयास करके सामग्री जमा कर लेते हैं. ये
वनस्पतियाँ अपने और अपनी संतान के लिए आहार का संग्रह या परिग्रह भी करती हैं.।
*प्रश्न के उत्तर*
*23:4:21*
1️⃣कौन सा वृक्ष नर और मादा साथ साथ हो तो ही पल्लवित होते हैं
🅰️ पपीते आदि के वृक्ष
2️⃣पौधे कब -कब खूब प्रयास करके सामग्री जमा कर लेते हैं
🅰️ वसंत और गर्मी में
3️⃣आम, नीम, जामुन आदि --- आहारी हैं
🅰️ निरामिष
4️⃣कौन भयभीत हो अपने शरीर को सिकोड़ लेती हैं. ।
🅰️छुईमुई आदि वनस्पतियां
5️⃣आहार के कितने प्रकार है और कौन कौन से
🅰️दो प्रकार के - शाकाहारी, मांसाहारी
6️⃣जिसकी डालों में शेर के पंजों के समान बड़े-बड़े काँटे होते हैं. वह किस देश में पाई जाती है
🅰️ आस्ट्रेलिया में
7️⃣वनस्पतियाँ अपने और अपनी संतान के लिए आहार का संग्रह या ---- भी करती हैं.
🅰️ परिग्रह
8️⃣सनड्रयू और वीनस फ्लाइट्रेप आदि वनस्पतियाँ संपातिम किसका भक्षण करती हैं
🅰️ संपातिम( उड़ने वाले) जीवो का
9️⃣वनस्पति भी सजीव है. विज्ञान जगत् में यह बात सर्वप्रथम किस ने सिद्ध की
🅰️ सर जगदीशचन्द्र वसु ने
🔟जैनागमों में कितनी संज्ञाओं वनस्पति में स्वीकार किया गया है. और कौन कौन सीहै
🅰️ चार संज्ञाओ ने , आहार, भय, मैथुन और परिग्रह
*24:4:21*
*अध्याय*
इनके अलावा छोटी बड़ी
वनस्पति काय की और संज्ञाए औऱ शक्तियाँ भी होती हैं।*
*जो इस प्रकार है*
*5.आकर्षण* – कई वनस्पतियाँ फैल कर पास में गुजरते हुए मनुष्य, तिर्यंच आदि को अपने कसे हुए शिंकजेमें फंसा देती है ।
*6स्पर्श ग्रहण शक्ति* – कुछ वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर फैलती है एवं कुछ वनस्पतियाँ संकुचित्त होती है ।
जैसे छुईमुई का पौधा जो स्पर्श
पाकर संकुचित होता है।
*7.माया* – कई लताएँ अपने फलों को पत्तों के नीचे दबाकर रखती हैं और फल रहित होनेका दिखावा करती हैं ।
*8.राग* – पायल की रुनझुन की मधुर अवाज सुनकर रागात्मक दशामें अशोक, बकुल, कटहल, आदि वृक्षो के फुल खिल उठते है ।
*9.लोभ* – सफेद आक, पलास, बिल्लि, आदिकी जडे भूमि में दबे हुए धनपर फैल कर रहती है ।
*10.लाज* - छुईमुई आदी कई वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर लाज भय से संकुचित हो जाती है ।
*11.क्रोध* – कोकनद का वृक्ष क्रोध में हुंकार की आवाज करता है ।
*12.मान* – अनेक वृक्षों में अभिमान का भाव भी पाया जाता है ।
*13.जन्म* – वनस्पतिकाय बोने पर जन्म को प्राप्त करती है वर्षाकाल में चारो तरफ वनस्पति उग आती है ।
*14.मृत्यु* – वनस्पतियाँ हिमपाल, शीत एवं उष्ण की अधिकता, आहार पानी की कमी, रोग, भय, अन्य जीवो के प्रहार, आयुष्य समाप्ति पर मृत्यु को प्राप्त करती हैं ।
*15वृद्धि*– वनस्पति वृद्धि को भी प्राप्त करती है बीज धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त होता है वटवृक्ष का स्वरुप धारण करने में कई वर्ष व्यतीत हो जाते है ।
*16.रोग* – अन्य जीवों की भाँति वनस्पति भी रोगग्रस्त होती है । पानी, हवा, धूप, आहार आदि की अल्पता-अधिकता कारण रोग होते है और पुनःस्वयं औषधोपचार प्राप्त कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेती है ।
*17.सुगंध ग्रहण शक्ति* – कुछ वनस्पतियाँ सुगंध पाकर जल्दी पल्लवित होती है । *18.रस ग्रहण शक्ति* – उख आदि वनस्पतियाँ भूमि से रस ग्रहण करती है ।
*19निद्रा एवं जागृति* – चंद्रमुखी फुल चंद्र खिलने के साथ खिलते है उसके अभाव में संकुचित हो जाते है सुर्यमुखी फुल सुर्य खिलने के साथ खिलते है सुर्यास्त के बाद सिमट जाते है ।
*20.संगीत* – मधुर सुरावलीयाँ सुनकर कई वृक्षो के फुल जल्दी पल्लवित पुष्टित और सुरभित होते है ।अगर गुजरात के सरदार पटेल विश्वविद्यालय और आर पी टी पी साइंस कालेज के प्रयोगों पर विश्वास करें तो उनके अनुसार वाद्य यंत्र की मधुर ध्वनि को सुनकर पेड़-पौधे जल्दी विकसित होते हैं।पीपुल्स टेक्नोलाजी कांग्रेस में शोधकर्ताओं एच आर गरशोम और एस जी पटेल द्वारा इस विषय पर प्रस्तुत शोध पत्र में दावा किया कि संगीत के जरिए
बैंगन और औषधीय जड़ी-बूटी नीम्बू घास के अतिरिक्त कई पेड़-पौधों के तेजी से विकसित होने का पता चला है। हरीशोफोन नामक इस वाद्य यंत्र का निर्माण स्थानीय बाजार में उपलब्ध सामग्री से किया जा सकता है ।
सच है,जो बात हमारे तीर्थंकर कह गए, वो आज शोध का विषय बन गया और सही साबित हो रहा है।
*21,शब्द ग्रहण शक्ति* – कंदल, कुंडल आदि वनस्पतियाँ मेघ गर्जनासे पल्लवित होती है ।
*22.आश्रय ग्रहण शक्ति* – बेल, लताएँ, दीवार वृक्ष आदिका सहारा लेकर वृद्धिको प्राप्त करती है । जैसे लता
*प्रश्न के उत्तर*
*24:4:21*
1️⃣कई लताएँ अपने फलों को पत्तों के नीचे दबाकर रखती हैं
ये उनका कौन सी संज्ञा है
🅰️ माया
2️⃣कौन सा वृक्ष क्रोध में हुंकार की आवाज करता है ।
🅰️ कोकनद का वृक्ष
3️⃣छुईमुई किन- किन का उदाहरण है 2 नाम बताए
🅰️ स्पर्श ग्रहण शक्ति, लाज
4️⃣सुर्यमुखी फुल किसके खिलने के साथ खिलते है औऱ किसके अस्त बाद सिमट जाते है ।
🅰️ सूर्य के
5️⃣लोभ होता है ये कैसे पता चलता है
🅰️सफेद आक, पलास, बिल्ली, आदि की जडे भूमि में दबे हुए धनपर फैल कर रहती है।
6️⃣सरदार पटेल विश्वविद्यालय और आर पी टी पी साइंस कालेज यह कौन से प्रदेश में स्थित है
🅰️ गुजरात में
7️⃣नीम्बू घास के अतिरिक्त कई पेड़-पौधों के किस से तेजी विकसित होते हैं
🅰️ (संगीत)हरिशोफोन नामक वाद्य यंत्र से
8️⃣वनस्पति कैसे रोगग्रस्त होती है ।कोई 2 कारण बताये
🅰️ अन्य जीवों की भांति वनस्पतियां भी रोग ग्रस्त होती है पानी,हवा,धूप,आहार आदि की अल्पता - अधिकता कारण रोग होते हैं
9️⃣उख आदि वनस्पतियाँ किससे रस ग्रहण करती है ।
🅰️ भूमि से
🔟मेघ गर्जनासे कौन सी वनस्पति पल्लवित होती है
🅰️ कंदल, कुंडल आदि
*26:4:21*
*अध्याय*
*निगोद*
*निगोद-* जो अनन्तो जीवो को एक निवास दे उसे निगोद कहते है । आशय यह है की एक ही साधारण शरीर में जहा अनंतो जीव निवास करते है वह निगोद है।
सुई की नौक पर समा जाने वाले साधारण वनस्पति के छोटे से टुकड़े में, निगोदिया जीवों के रहने की असंख्यात श्रेणियां होती हैंअब प्रश्न ये उठता हैं कि
१. सुई के अग्रभाग जितनी थोड़ी सी जगह में इतने जीवों का समावेश किस प्रकार हो सकता है? इसका
उत्तर यह है- मान लीजिए एक करोड़ औषधियां एकत्र करके उनका चूर्ण बनाया हो या अर्क निकालकर तेल बनाया हो और उसे सुई के अग्रभाग पर रक्खा जाय, तो जैसे सुई के अग्रभाग पर करोड़ औषधियां समा जाती हैं, उसी प्रकार अनन्तानन्त जीवों का भी समावेश हो सकता है। प्रत्यक्ष देखा जाता है कि मुद्रिका में लगाये हुए बाजरे के दाने जितने कांच में कई मनुष्यों के फोटो प्रतिबिम्बित होते हैं। जब स्थूल वस्तुओं में स्थूल वस्तुओं का इस प्रकार समावेश हो जाता है तो सूक्ष्म जीवों के समावेश होने में क्या आश्चर्य है?
अब ये साधारण वनस्पति में रहते कैसे है
तो उसमें असंख्यात श्रेणियां (बड़े शहर में होने वाली मकानों की कतार के समान) हैं प्रत्येक श्रेणी में घरों की मंजिलों के समान असंख्यात प्रतर हैं। जिस प्रकार मंजिलों में कमरे होते हैं उसी प्रकार प्रत्येक प्रतर में असंख्यात गोले हैं। और जैसे कमरों में कोठरियां होती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक गोले में असंख्यात शरीर हैं और जैसे कोठरियों में मनुष्य रहते है उसी प्रकार प्रत्येक शरीर मे अनन्तानन्त जीव रहते है
रहते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक शरीर में अनन्तानन्त जीव हैं। निगोदिया जीव मनुष्य के
• श्वासोच्छवास-काल जितने स्वल्प काल में १७।। बार जन्म लेकर मरते हैं और एक मुहूर्त में • एक (४८ मिनिट में) ६५५३६ बार
. एक दिन में 19,66,080 भव करते हैं ।
4. एक मास में 5,89,82,400 भव करते हैं ।
5. एक वर्ष में 70,77,88,700 भव करते हैं।
जन्म-मरण के कष्ट भोगते हैं। पृथ्वी के भीतर रहा हुआ कन्द कभी पकता नहीं है जैसे विशेष प्रसंग पर सगर्भा स्त्री का पेट चीरकर बच्चा निकाला. जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को विदारण करके कन्द निकाला जाता है। इसलिए जैन और वैष्णव धर्म के शास्त्रों में कंद को अभक्ष्य अर्थात् खाने के अयोग्य कहा है।
*27:4:21*
निगोद शब्द की व्युत्पत्ति कहाँ से हुई जानते है।
निगोद शब्द की व्युत्पत्ति - नि = नियंता, गो = भूमि, क्षेत्र, निवास, द = ददाति । अनन्तानन्त जीवानां ददाति इति निगोद ।
नि = अनन्तपना है निश्चित जिनंका ऐसे जीवों को, गो = एक ही क्षेत्र, द = देता है उसे निगोद कहते हैं । अर्थात् अनन्त जीवों को एक निवास दे उसको निगोद कहते हैं । निगोद ही शरीर है जिनका उनको निगोद शरीर कहते हैं । अथवा नि = निरन्तर, गो = भूमि अर्थात् अनन्त भव । द = देने का स्थान । उस योनि को निगोद कहते हैं । ( गोमटसार जीवकाण्ड गाथा १९१,४१५,४२९ )
निगोद का दूसरा पर्यायवाची नाम साधारण भी है । जिस जीव ने एक शरीर में स्थित बहुत जीवों के साथ सुख दुःख रुप कर्मफल के अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है, वह जीव साधारण शरीर है । अथवा साधारण नामकर्म के उदय से युक्त वनस्पति कायिक जीव साधारण शरीर है ऐसा कथन करना चाहिए । साधारण जीवों का साधारण ही आहार होता है और साधारण ही श्वासोच्छवास ग्रहण होता है । इस प्रकार आगम में
*साधारण जीवों का लक्षण कहा है*।
विशेषपने निगोद शरीर दो प्रकार के होते हैं - (१) बादर निगोद शरीर (२) सूक्ष्म निगोद शरीर । इनमें से बादर निगोद शरीर भी असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण है तथा सूक्ष्म निगोद शरीरों की संख्या भी असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण है । फिर भी बादर निगोद शरीरों से सूक्ष्म निगोद शरीरों की संख्या असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा है । दोनों मिलकर भी असंख्यात लोक प्रमाण है । विशेषपनें देखे तो निगोद जीवों को छोड़कर समस्त स्थावर जीवों
♻️अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति,
♻️सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति,
♻️अग्निकायिक, पृथ्वीकायिक,
♻️ जलकायिक, वायुकायिक ) से असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा संख्या स्थिति बन्ध के कारण भूत परिणामों की हैं । ।असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा
बंध- *सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बंध:’*
कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बंध है।प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग ये बंध के चार भेद हैं।
स्थिति बन्ध(अपने स्वभाव से च्युत ना होना स्थिति है।) के कारणभूत परिणामों सेहै
*अनुभाग बन्ध* के कारणभूत परिणामों की भी है .
(कर्मों का रस विशेष का नाम अनुभाग (अनुभव) है।) औऱ कहें तो
जीव के प्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें जो सुख-दु:ख देने में समर्थ शक्ति विशेष है उसको अनुभाग बंध कहते हैंं। ... इस प्रकार प्रदेश बंध का स्वरूप है
कारणभूत परिणामों से भी असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा निगोद शरीरों की संख्या आती है । जो कि महा असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण है । एक छोटे से जमीकन्द आलु वगैरहा के टुकड़े में असंख्यात लोक प्रमाण बादर निगोद शरीरों के स्कन्ध हैं । प्रत्येक स्कन्ध में असंख्यात लोक प्रमाण अण्डर है । प्रत्येक अण्डर में असंख्यात लोकप्रमाण आवास हैं और प्रत्येक आवास में असंख्यात लोकप्रमाण पुलवी हैं और प्रत्येक पुलवी में असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर हैं । अर्थात् पाँच जगह असंख्यात लोक प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण, राशि रखकर उनको आपस में गुणा करने पर जो महा असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण संख्या आती है उतने तो बादर निगोद शरीर है ।
*प्रश्न के उत्तर*
*27:4:21*
1️⃣प्रत्येक आवास में असंख्यात लोकप्रमाण क्या हैं
🅰️पुलवी
2️⃣असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा संख्या स्थिति बन्ध के कारण किस परिणामों की हैं
🅰️भूत परिणामों की
3️⃣सूक्ष्म निगोद शरीरों की संख्या भी कितनी लोक प्रमाण है
🅰️असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण
4️⃣किस उदय से युक्त वनस्पति कायिक जीव साधारण शरीर है।
🅰️साधारण नाम कर्म के उदय से
5️⃣एक छोटे से किस के टुकड़े में असंख्यात लोक प्रमाण बादर निगोद शरीरों के स्कन्ध हैं
🅰️जमीकन्द आलु वगैरह के टुकड़े मे
6️⃣ यहाँ गो का अर्थ क्या है
🅰️भूमि, क्षेत्र, निवास
7️⃣निगोद का दूसरा पर्यायवाची क्या है
🅰️साधारण
8️⃣साधारण जीवों का लक्षण किस में कहा है*।
🅰️आगम मे
9️⃣ यहां "द" शब्द का प्रयोग किस लिये हुआ है
🅰️ददाति, देना
🔟प्रत्येक स्कन्ध में असंख्यात लोक प्रमाण क्या है ।
🅰️अण्डर
*28:4:21*
*निगोद*
निगोद के जीवो के दो भेद है 1.व्यवहार राशि वाले 2. अव्यवहार राशि वाले
(पहले वर्णन आ चुका है)
जब एक जीवात्मा सकल कर्मों का क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त करता है तब एक जीवात्मा अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आता हैं ।
जब एक जीवात्मा सकल कर्मों का क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त करता है तब एक जीवात्मा अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आता हैं ।
*नित्य निगोद*
(एक बार फिर जानें)
.यह जीव राशि जहा के जीवों ने आदिकाल से अब तक त्रस पर्याय नही पाई उन्हे नित्य निगोद कहते है । परन्तु भविष्य में त्रस पा सकते है ।नित्य निगोद से जीव कपोत लेश्या की मन्दता से निकलते है ।नित्य निगोद से 608 जीव, आठ समय में निकलते है
*इतर निगोद*
जो जीव नित्य निगोद से निकल कर त्रसस्थावर आदि अन्य पर्यायों में घूमकर पापोदयवश पुनः-पुनः
अन्य पर्याय पाकर पुनः निगोद में उत्पन्न हों वह इतर निगोद है।
निगोदिया जीवों के रहने के स्थान भी दो है --- (1)--नित्य निगोदिया सातवे नरक के नीचे एक राजू क्षेत्र कलकल पृथ्वी में (2)--इतर निगोदिया सर्वलोक में ।
निगोद के जीवो की काय स्थिति तीन प्रकार की होती है
*1.अनादि अनन्त* - वे जीव, जो अनादिकाल से निगोद में ही स्थित है, और निगोद में से बहार कभी निकलेंगे भी नहीं । जातिभव्य जीवो की स्थिति अनादि अनन्तकाल की होती हैं *2.अनादि सांत* - वे जीव, जो अनादिकाल से निगोद में ही स्थित है, निगोद में से बहार निकले नही है, परंतु भवितव्यता के अनुसार कभी न कभी जरूर बहार निकलेंगे। इसमें भव्य और अभव्य दोनो प्रकार के जीव होते है ।
*3.सादि सांत* – वे जीव, जो एक बार त्रस पर्याय को प्राप्त हो चुके हैं परन्तु कर्म बंधन करके पुनः निगोद में चले गये है, एक बार त्रस पर्याय प्राप्त कर चुके है अतः उनकी सादि स्थिति है और वे कभी न कभी मोक्ष में जायेंगे अतः सान्त स्थिति है । भव्य जीव ही इस स्थिति को प्राप्त करते हैं ।
*निगोद को पहचाने*
(चातुस) वर्षा ऋतु में घर के कम्पाऊंड में, पुरानी दीवारों पर अथवा मकान की छत (अगासी) पर हरी, काली, कत्थई आदि रंगों की काई (सेवाल-लील) जम जाती है | उसी को निगोद कहते हैं | आलु वगैरह कंदमूल के जैसे ही निगोद भी अनंतकाय है। उसके एक सूक्ष्म कण में भी अनंत जीव होते हैं। उसके ऊपर चलने से, सहारा लेकर बैठने से, उस पर वाहन चलाने से अथवा इस पर कोई वस्तु रखने से या पानी डालने से निगोद के अनंत जीवों की हिंसा होती है |
आलु (बटाटा) आदि अनंतकाय हैं | जब उन्हें दांतों तले चबाना महापाप है, तो अनंतकाय ऐसी निगोद को हम पैरों के नीचे कैसे कुचल सकते हैं?
*प्रश्न के उत्तर*
*28:4:21*
1️⃣एक बार त्रस पर्याय प्राप्त कर चुके है अतः उनकी कौन सी स्थिति है
🅰️सादि सांत
2️⃣सिद्ध पद को प्राप्त करता है तब एक जीवात्मा किस राशि में से किस राशि में आता हैं ।
🅰️अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में
3️⃣कौन से जीवो की स्थिति अनादि अनन्तकाल की होती हैं
🅰️जातिभव्य जीवों की
4️⃣कत्थई आदि रंगों की काई (सेवाल-लील) जम जाती है | उसी को क्या कहते हैं
🅰️निगोद
5️⃣निगोद के जीवो की काय स्थिति कितने प्रकार की होती हैनाम बताइये
🅰️तीन प्रकार की होती है
अनादि अनंत, अनादि सांत और सादिसांत
6️⃣निगोद से जीव किसकी मन्दता से निकलते है
🅰️कपोत लेश्या की
7️⃣भवितव्यता के अनुसार कभी न कभी जरूर बहार निकलेंगे। ये निगोद का कौन सा प्रकार हैं
🅰️अनादिसांत
8️⃣नित्य निगोद से 608 जीव, कितने समय में निकलते है
🅰️आठ समय में
9️⃣निगोद के जीवो के दो भेद है कौन कौन से
🅰️व्यवहार राशि वाले और अव्यवहार राशि वाले
🔟नरक के नीचे एक राजू क्षेत्र की कौनसी पृथ्वी में
🅰️कलकल पृथ्वी
*29:4;21*
*अध्याय*
सातवीं नरक पृथ्वी के नीचे एक राजू ऊँचे क्षेत्र में जो निगोद जीवों के4 शरीरहै
1, स्कन्ध,
2अण्डर,
3आवास,
4पुलवी है।
वे सब बादर निगोद के शरीर है ।
निगोदिया जीवों के पांच अण्डर कहे जाते हैं।
विशेषपने निगोद शरीरों की संख्या जाननी हो तो चौदह धाराओं में से द्विरुप घनाघन धारा का अध्ययन करना चाहिए । यहाँ विस्तार के भय से नहीं दे रहे हैं ।
आध्यात्मिक पंडित श्री बनारसीदासजी ने - *बनारसी विलास नामक ग्रन्थ* में पृष्ठ ११६ पर दोहा न. ९७-९८ में निगोद जीवों का वर्णन करते हुए कहा है-
एक निगोद शरीर में ऐते जीव बखान ।
तीन काल के सिद्ध सब एक अंश परमान ।।९७।।
अर्थ- एक निगोद शरीर में इतने जीव हैं कि तीन काल में मोक्ष जाने वाले जीव उस एक निगोद शरीर का एक अंश अर्थात् अनन्तवाँ भाग होगा अर्थात् तीन काल में जितने सिद्ध होंगे वे सब एक निगोद शरीर का अनन्तवाँ भाग होगा ।
क्या तीनों काल में भी एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति नहीं होगी ?
तीनों कालों में भी एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति नहीं होगी । एक निगोद शरीर में अक्षय अनन्तानन्त जीव हैं । यदि एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति हो जावे तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि सभी निगोदिया जीवों की मुक्ति अवश्य हो जायेगी क्योंकि निगोद शरीरों की कुल संख्या असंख्यात लोक प्रमाण ही है । जबकि ऐसा सिद्धान्त है कि छह महीना और आठ समय में ६०८ जीव मोक्ष जाते रहेंगे । यह क्रम कभी बन्द नहीं होगा । अत: एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति कभी नहीं होगी । अब अगले दोहे में बताते हैं कि यह एक अंश अर्थात् अनन्तवाँ भाग भी कितना होगा -
*बढ़े न सिद्ध अनन्तता, घटैन राशि निगोद ।*
*जैसी की तैसी रहे, यह जिन वचन विनोद ।।*
अर्थ- छह महीना और आठ समय में ६०८ जीव अनादि काल से मोक्ष जा रहे हैं और भविष्य काल में हमेशा जाते रहेंगे फिर भी सिद्धों की संख्या बढेगी नहीं और एक निगोद शरीर के जीवों में से संख्या घटेगी नहीं । जितनी की जितनी रहेगी और सिद्ध महाराज भी जितने के जितने रहेंगे । ऐसा जिनवचन है । अर्थात् यह एक आश्चर्य है ।
*जीवन -मरणकितनी बार*
२. पृथ्वी, पानी, अग्नि, और वायु के जीव १२८२४ जन्म-मरण करते हैं, प्रत्येक वनस्पतिकाय के ३२०००। द्वीन्द्रिय के ८०, त्रीन्द्रिय के ६० चौइन्द्रिय के ४० असंज्ञी पंचेन्द्रिय के २४ और संज्ञी पंचेन्द्रिय के जीव एक जन्म-मरण करते हैं।
*प्रश्न के उत्तर*
*29:4:21*
1️⃣एक बार त्रस पर्याय प्राप्त कर चुके है अतः उनकी कौन सी स्थिति है
🅰️सादि सांत
2️⃣सिद्ध पद को प्राप्त करता है तब एक जीवात्मा किस राशि में से किस राशि में आता हैं ।
🅰️अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में
3️⃣कौन से जीवो की स्थिति अनादि अनन्तकाल की होती हैं
🅰️जातिभव्य जीवों की
4️⃣कत्थई आदि रंगों की काई (सेवाल-लील) जम जाती है | उसी को क्या कहते हैं
🅰️निगोद
5️⃣निगोद के जीवो की काय स्थिति कितने प्रकार की होती हैनाम बताइये
🅰️तीन प्रकार की होती है
अनादि अनंत, अनादि सांत और सादिसांत
6️⃣निगोद से जीव किसकी मन्दता से निकलते है
🅰️कपोत लेश्या की
7️⃣भवितव्यता के अनुसार कभी न कभी जरूर बहार निकलेंगे। ये निगोद का कौन सा प्रकार हैं
🅰️अनादिसांत
8️⃣नित्य निगोद से 608 जीव, कितने समय में निकलते है
🅰️आठ समय में
9️⃣निगोद के जीवो के दो भेद है कौन कौन से
🅰️व्यवहार राशि वाले और अव्यवहार राशि वाले
🔟नरक के नीचे एक राजू क्षेत्र की कौनसी पृथ्वी में
🅰️कलकल पृथ्वी
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