जैन रामायण 3
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
17-03-2021
( 100 )
गतांक से आगे :
यहाँ पर भी संसार की विचित्रता का चित्रण सामने आया है । अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए श्रुतिरति ने कुलंकर राजा को दीक्षा लेते रोका , तो कुलंकर की पत्नी ने अपने विषयवासना की पूर्ति में विघ्नकर राजा को विष देकर मार दिया ।
वेद पढ़े पर वेदोदय को न समझे हुए रमण ने रात को बिना विचारे परस्त्री समझकर बड़े भाई की पत्नी से क्रीड़ा की । कभी-कभी उग्र पाप का फल उग्र परंतु शीघ्र मिल जाता है । रमण को पाप का फल मृत्यु के रुप में मिल गया और मेरे पाप का पता पति को लग गया है तो ऐसे पति की क्या आवश्यकता है ऐसा सोचकर विनोद की पत्नी ने विनोद को भी मार दिया । यही तो संसार की स्वार्थ लीला हैं ।
उन दोनों ने चिर समय तक संसार में भ्रमण किया । विनोद का जीव धन नामक श्रेष्ठी हुआ और रमण का जीव धन का पुत्र भूषण हुआ । धन की आज्ञा से बत्तीस कन्याओं के साथ विवाह किया । उनके साथ क्रीड़ा करते हुए उसने एक दिन रात के चौथे प्रहर में श्रीधर मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर , देवों के द्वारा आरंभ किये गये महोत्सव को देखा , उत्पन्न धर्म को बुद्धि से भूषण महल से नीचे उतरकर वंदन करने चला । मार्ग में सर्प के डसने से मरकर चिर समय तक शुभ गतियों में भ्रमण किया । फिर जम्बूद्वीप के पश्चिमविदेह के रत्नपुर में अचल चक्रवर्ती का पुत्र प्रियदर्शन हुआ । दीक्षा ग्रहणकरने की इच्छावाले प्रियदर्शन ने पिता के आग्रह से तीन हजार कन्याओं के साथ विवाह किया । किन्तु संसार से उद्विग्न ही रहा । गृहस्थ जीवन में भी चौसठ हजार वर्ष पर्यन्त तप करते हुए आयुष्य पूर्णकर ब्रह्मकल्प में देव हुआ । धन भी संसार में भ्रमण कर ब्राह्मण का पुत्र मृदुमति हुआ जो द्यूतव्यसनी , वैश्या में आशक्त और धूर्त था । अंत में दीक्षा ग्रहणकर ब्रह्मलोक में देव हुआ । वहाँ से च्यवकर पूर्वभव के मायादोष से वैताढ्यपर्वत पर यह हाथी हुआ है । प्रियदर्शन का जीव च्यवकर यह भरत हुआ है । उससे भरत के दर्शन से उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ है और हाथी विवेक से मदरहित हुआ ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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18-03-2021
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( 101 )
गतांक से आगे :
यह सुनकर भरत ने हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की और सिद्धगति प्राप्त की । हजार राजाओं ने भी विविध लब्धियाँ प्राप्तकर उचितपद प्राप्त किया । हाथी भी विविध तपकर , अनशन ग्रहण कर ब्रह्मदेवलोक में गया । भरत की माता कैकेयी ने भी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया । भरत के दीक्षा ग्रहण करने पर भूचर और विद्याधर राजाओं ने रामचंद्र से राज्याभिषेक की प्रार्थना की । रामचंद्र के आदेश से लक्ष्मण को वासुदेव का अभिषेक किया । रामचंद्र ने बिभीषण को राक्षसद्वीप , सुग्रीव को वानर द्वीप , हनुमान को श्रीपुर , विराध को पाताललंका , नील को ऋक्षपुर , प्रतिसूर्य को हनूपुर , रत्नजटी को देवोपगीतनगर , भामण्डल को वैताढ्यपर्वत पर रथनूपुर , दूसरों को अन्य नगर देकर वत्स ! तुझे जो देश पसंद हो , वह माँगो इस प्रकार शत्रुघ्न से कहाँ । उसने मथुरा माँगी । रामचंद्र ने कहा -वत्स ! वह नगरी दु:साध्य है । वहाँ चमरेन्द्र द्वारा अर्पित मधु राजा का त्रिशूल दूर से ही शत्रुओं को मारकर उसके हाथ में आता है । शत्रुघान ने कहा - मैं आपका भाई हूँ । मैं मधु का प्रतिकार करुँगा । रामचंद्र ने शत्रुघ्न को आग्रही जानकर शिक्षा दी -जब वह त्रिशूल रहित हो , तब युद्ध करना । रामचंद्र ने उसको दो अक्षय बाण और तरकस दिये । कृतान्तवदन सेनानी के साथ में जाने का आदेश दिया । लक्ष्मण ने भी उसको अग्निमुखवाले बाण और अर्णवावर्त धनुष दिया ।शत्रुघ्न प्रस्थान कर गया और मधु के समीप स्थान में रही हुई नदी के तट पर रहा । गुप्तचरों ने कहा - मधु नगरी के पूर्व दिशा में रहे कुबेर उद्यान में जयन्ती पत्नी के साथ क्रीड़ा कर रहा है । त्रिशूल शस्त्र महल में ही है । इसलिए यह युद्ध के लिए योग्य काल है । छल को जाननेवाले शत्रुघ्न ने रात के समय मथुरा में प्रवेश किया और महल में प्रवेश करते मधु को स्वयं के सैनिकों के द्वारा रोक लिया । युद्ध के प्रारंभ में मधु के पुत्र लवण का वध किया । क्रोधित होकर मधु के युद्ध करने पर , शत्रुघ्न ने लक्ष्मण के द्वारा दिये गये धनुष और बाणों का स्मरण किया । स्मरण मात्र से ही उपस्थित हुए उस धनुष पर डोरी चढ़ाकर अग्निबाणों से उस पर प्रहार किया । घात से दु:खित मधु सोचने लगा त्रिशूल हाथ में नही आया । शत्रु मारा नहीं गया , मैरा जन्म व्यर्थ हो गया । , जिनेन्द्र की पूजा नहीं की , चैत्य नहीं कराये , सुपात्रों में दान नहीं दिया , इस प्रकार सोचतें हुए द्रव्य से दीक्षा ग्रहण न कर सके ऐसे मधु ने भाव से दीक्षा ग्रहणकर , नमस्कार महामंत्र का स्मरण करता हुआ मरकर सनत्कुमार में देव हुआ । उस विमान के देवों ने मधु की देह के ऊपर पुष्पों की वर्षा की । मधु देव की जय हो इस प्रकार की घोषणा हुई । देवतारुप में उसका त्रिशूल चमरेन्द्र के पास जाकर शत्रुघ्न से छल से उत्पन्न मधु की मृत्यु के बारे में कहा । क्रोधित चमरेन्द्र स्वयं शत्रुघ्न को मारने चला । तब गरुड़ो के राजा वेणुदारी ने पूछा तुम कहाँ जा रहे हो ? चमरेन्द्र ने कहा - शत्रुघ्न को मारने जा रहा हूँ । गरुड़ के राजा ने कहा - वासुदेव लक्ष्मण ने धरणेन्द्र के द्वारा दी गयी और रावण के द्वारा छोड़ी गयी शक्ति को जीत ली थी , रावण को भी मार डाला था । मधु की वहाँ क्या हैसियत है । लक्ष्मण की आज्ञा से शत्रुघ्न मधु को मारा है । चमरेन्द्र ने कहा - लक्षमण ने जो शक्ति जीती थी वह विशल्या कन्या के प्रभाव से और उस ब्रह्मचारिणी का वह प्रभाव अब चला गया है । इससे तुझे क्या ? मैं मित्र के शत्रु को मारने जा रहा हूँ । चमरेन्द्र क्रोधपूर्वक आया । सुदंर राज्य में अच्छी प्रकार से रह रहे लोगों को देखकर पहले प्रजा के उपद्रव से इस शत्रु पर उपद्रव करता हूँ इस प्रकार सोचकर प्रजा में रोग फैलाये। शत्रुघ्न कुलदेवता से यह जानकर अयोध्या चला गया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
19-03-2021
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( 102 )
गतांक से आगे :
वहाँ देशभूषण-कुलभूषण दोनों मुनि आ गये । रामचंद्र आदि ने उनको वंदन किया । रामचंद्र ने पूछा - शत्रुघ्न मथुरा के प्रति आग्रही क्यों था ? देशभूषण ने कहा - शत्रुघ्न का जीव अनेक बार मथुरा में जन्म लेकर एकबार रुपवान और साधु का सेवक श्रीधर नामक ब्राह्मण हुआ । राजा की पट्टरानी ललिता ने वहाँ क्रीड़ा करने के लिए अपने पास बुलाया । अचानक ही राजा के आने पर यह चोर है इस प्रकार पूत्कार करने लगी ।
स्त्रियों के विषय में नागिन आदि शब्दों का प्रयोग जो किये गये हैं । वे प्रयोग ऐसी स्वार्थी वासनामय नारियों के प्रसंगों को देखकर किया हैं । स्वयं ने बुलाया और स्वयं ने ही चोर का दोषारोपण किया । राजा की आज्ञा से उसे पकड़कर वध्यस्थान ले जाया गया । कल्याणमुनि ने उसकी दीक्षा ग्रहण की प्रतिज्ञा जानकर राजा से छुड़ाया । दीक्षा ग्रहणकर देव हुआ । वहाँ से च्यवकर मथुरा में चन्द्रभद्र राजा और कंचनप्रभा का पुत्र , राजा को अत्यन्त प्रिय अचल के रुप में जन्म लिया । सौतेले आठ बड़े भाई भानु, प्रभा आदि यह राजा न हो इस कारण उसे मारने की इच्छावाले जिनकर, भाग गया । वन में कांटे से वीधने पर रोने लगा । श्रावस्ती का निवासी , पिता के द्वारा घर से निकाला गया , लकड़े के भार को धारण करते अंक नामक व्यक्ति ने कांटा निकाला । तब अचल खुश हुआ और कांटा दूर फेंककर कहने लगा - जब मथुरा में अचल राजा का नाम सुनों , तब वहाँ आना । वहाँ से कौशाम्बि गया । सिंह गुरु के द्वारा इन्द्रदत्त राजा को तीरंदाज सीखाते समय अचल ने अपने तीर चलाने की कला दिखायी । इन्द्रदत्त उसकी कला से खुश हुआ और अपनी पुत्री उसे दी और राज्यभूमि भी दी । अचल इन्द्रदत्त से पुत्री और भूमि को प्राप्तकर देशों को जीतता हुआ मथुरानगरी पर युद्ध में आठों भाईओं को बांधकर ग्रहण किया । चन्द्रभद्र पिता के द्वारा उनके मुक्ति के लिए भेजे गये मंत्रियों के सामने अपना वृतान्त कहा । वृतान्त को जानकर चन्द्रभद्र खुश हुआ और उसका नगरी में महोत्सवपूर्वक प्रवेश करवाया । राज्य दिया । पिता के द्वारा निकाले जाते भाईओं को बचाकर भय आदि दिखाकर सेवक बनाये । अन्य दिन नटमंच में बैठे अचल ने द्वारपाल से मारे जाते अंक को देखकर अपने पास बुलाया , बाद में उसे पहचानकर श्रावस्ती दी । दोनों भी मित्र राज्यकर , समुद्र आचार्य के पास दीक्षा ग्रहणकर ब्रह्मदेवलोक गये । वहाँ से च्यवकर अचल का जीव शत्रुघ्न हुआ है , पूर्वजन्म के मोह से मथुरा का आग्रही हुआ है । अंक का जीव तेरा सेनापति कृतान्तवदन बना है ।
पूर्वभव की आत्माओं से स्नेह संबंध तो होता ही है , पर साथ-साथ में देश-नगर से भी पूर्व भव का स्नेह संबंध रह जाता है । शत्रुघ्न के साथ मथुरा का ऐसा ही संबंध था ।
राज्य के लिए छल कपट का सहारा शत्रुघ्न ने भी लिया । राज्य लोभ रुपी पाप ही ऐसे कार्य करवाता है । महापुरुषों ने इसी कारण राजेश्वरी ते नरकेश्वरी का सिद्धान्त दिया है ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
20-03-2021
( 104 )
गताकं से आगे :
अंत:पुर में हजारों रानियों से भी संतुष्टी नहीं होती । इस उदाहरण से सिद्ध होता है । लक्ष्मण ने युद्ध करके भी मनोरमा से शादी की । विषयराग की बलिहारी हैं ।
रामचंद्र -लक्ष्मण ने सभी वैताढ्य की दक्षिणश्रेणी को जीतकर अयोध्या चले गये । लक्ष्मण के अन्त:पुर में सोलह हजार पत्नीयाँ और आठ पट्टरानीयाँ थी । विशल्या , रुपवती , वनमाला , कल्याणमाला , रतिमाला , जितपद्मा , अभयवती , मनोरमा । ढ़ाई सौ पुत्र थे । उनमें से अग्र पट्टरानियों से जन्में क्रम से ये पुत्र थे श्रीधर , पृथिवीतिलक , अर्जुन , मंगल , विमल , श्रीकेशी , सत्यकीर्ति और सुपार्श्रवकीर्ति । तथा रामचंद्र की चार महादेवियाँ थी - सीता , प्रभावती , रतिनिभा और श्रीदामा ।
अन्य दिन ऋतु से नहाई सीता ने रात के अंतिम समय में स्वप्न में विमान से च्यवे दो अष्टापद प्राणियों को मुख में प्रवेश करते देखा । रामचंद्र ने कहा - विमान से च्यवे है इससे तुझे दो वीर पुत्र होंगे । जो तुमने दो अष्टापद प्राणियों को देखा है वह मेरे आनन्द के लिए नहीं है । सीता ने कहा - धर्म के महात्मय से आपको सब शुभ होगा , सीता ने गर्भ को धारण किया ।गर्भ को प्राप्त वह रामचंद्र की अत्यंत प्रिय बनी । सीता पर ईर्ष्या धारण करती सौतनों ने माया से रावण कैसा रुपवान था ? उसका चित्र कर बताओ इस प्रकार कहा । सीता ने कहा - मैंने उसका सर्वांग नहीं देखा । उसके पैरों को ही देखा था । उसका चित्र मैं कैसे कर सकती हूँ ? उन्होंने कहा-आप उसके पैरो को चित्रित करें । उसको देखने के लिए हमें कुतूहल हैं । प्रकृति से सरल उसने भी रावण के पैरों को चित्रित किया । उन्होंने वहाँ आये रामचंद्र से कहा - अब भी यह रावण का स्मरण करती है । इसके द्वारा चित्रित उसके पैरों को देखें । गंभीर रामचंद्र चित्र को देखकर भी सीता से पूर्ववत ही व्यवहार करने लगा । सौतनों सीता के ऊपर दोष स्थान को स्थापनकर अपनी दासियों से लोक में प्रकाशित कराया ।
वसन्त ऋतु आने पर रामचंद्र ने सीता से कहा - हम महेन्द्रोदय उद्यान में क्रीड़ा करने जा रहे हैं । सीता ने कहा -- मुझे अरिहन्त की पूजा करने का दोहद हुआ है । उद्यान में उत्पन्न विविध पुष्पों से आप उसको पूरा करें । रामचंद्र ने देवपूजा कराकर सीता और परिवार सहित महेन्द्रोदय उद्यान गया । इसी बीच सीता की दाहिनी आँख फड़कने लगी । रामचंद्र के यह अच्छा नहीं है इस प्रकार कहने पर सीता ने कहा - क्या विधि अब भी मेरे राक्षसद्वीप के वास से संतुष्ट नहीं है ? आपके विरह दु:ख से अधिक क्या दु:ख देगा ? रामचंद्र ने सीता से कहा - खेद मत करों । कर्माधिन शुभ और अशुभ अवश्य भोगने पड़ते हैं । घर जाओ । जिनपूजा , सुपात्रदान आदि धर्म करों । सीता ने भी वैसे ही किया । नगरी के वृतान्त का ज्ञापन करनेवाले और राजधानी के महत्वशाली पुरुष विजय, शूरदेव , मधुमान् , पिंगल , शूलधर , काश्यप , काल , क्षेम ये रामचंद्र को नमस्कार कर कांपते हुए सामने खड़े हुए किन्तु विज्ञप्ति नहीं की क्योंकि राजतेज दु:सह होता हैं । रामचंद्र ने उनसे कहा , तुमको अभय हैं । विजय ने विज्ञप्ति की -अवश्य ज्ञापन करने योग्य विषय हैं । यदि विज्ञप्ति न की जायें तो प्रभु ठगे जायेंगे । विज्ञप्ति सुनने में दु:खदायी हैं । देवी पर अपवाद है-युक्तियुक्त पर श्रृद्धा करनी चाहिए । रावण के द्वारा अपहरण की गयी सीता अकेले ही उसके घर पर चिर समय तक रही । रागी अथवा विरागी सीता , बुद्धि से अथवा जबरदस्ती से , स्त्रीलोलुपी रावण के द्वारा निश्चय ही भोग से दूषित की गयी हो । लोक इस प्रकार निन्दा कर रहे हैं । युक्तियुक्त उस अपवाद को आप सहन न करें । कीर्ति को मलिन न करें । रामचंद्र दु:ख से मौन होकर धैर्य धारणकर महत्तरों से कहा - योग्य विज्ञप्ति की हैं । स्त्री मात्र के लिए अपयश नहीं सहूँगा । रात के समय गुप्त रीति से नगर में घूमकर रामचंद्र ने लोगों के मुख से भी वैसे ही सुना । महल में गया , फिर से सीता की निन्दा की श्रुति के लिए गुप्तचरों को आदेश दिया और सोचने लगा -जिसके लिए राक्षस कुल का क्षय किया उसका परिणाम यह क्या आया ?
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रजी
21-03-2022
( 103 )
गतांक से आगे :
यहाँ प्रभापुर नगर के राजा श्रीनन्दन की धारणी पत्नी से सात पुत्र हुए - सुरनन्द , श्रीनन्द , श्री तिलक , सर्वसुन्दर , जयन्त , चमर और जयमित्र । श्रीनन्दन ने अपने आठवें एक महीने के पुत्र को राज्य पर स्थापितकर , उन सात पुत्रों के साथ प्रीतिकर आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । श्रीनन्दन सिद्ध हुआ । सुरनन्द आदि सात मुनि तप की शक्ति से जंघाचारण लब्धिवाले हुए । वे सात मुनि मथुरा गये । वर्षाकाल के समय में पहाड़ की गुफा में आश्रय कर रहने लगे । छट्ठ-अट्ठम आदि तप करने लगे और उड़कर दूर देशों में पारणा करते थे । फिर से वहाँ आकर ठहरते । उनके प्रभाव से चमरेन्द्र के द्वारा फैलायी गयी व्याधि वहाँ से नष्ट हो गयी । अन्य दिन वे पारणे के लिए अयोध्या नगरी में अर्हददत्त श्रेष्ठी के घर गये । श्रेष्ठी अनादर सहित नमस्कारकर सोचने लगा - ये वर्षा में भी फिरनेवाले कौन हैं ? पूछता हूँ अथवा पाखण्डियों के साथ बोलने से रहा । श्रेष्ठी के ऐसे सोचते समय उसकी वधू के द्वारा वे प्रतिलाभित किये गये । वे द्युति आचार्य की वसति में गये । द्युति आचार्य ने गौरव सहित नमस्कार किया । अकाल में चलने के कारण आचार्य के साधुओं ने नमस्कार नहीं किया । उन्होंने पारणा किया , मथुरा से आये हैं और वहाँ जा रहे हैं इस प्रकार कहा और उड़कर चले गये । द्युति आचार्य के द्वारा उनकी स्तवना करने पर , अनादर करने वाले उनके साधुओं ने पश्चाताप किया और अर्हददत्त ने भी । साधुओं को पूर्ण रुप से खोज किए बिना वंदन न करने से आशातना का पाप लग जाता है । सो अपराधी छूट जाय तो वांधा नहीं , एक निरपराधी दंडित नहीं होना चाहिए इस न्याय को समझना चाहिए । अन्य दिन अर्हददत्त कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन मथुरा गया । चैत्यों को पूजाकर , सातमुनिओं को वंदना की और क्षमा माँगी । शत्रुघ्न भी इस वृतान्त को जानकर मथुरा गया । उनको वंदनकर कहने लगा - मेरे घर पर भिक्षा ग्रहण करें । उनके द्वारा राजपिण्ड नहीं कल्पता इस प्रकार कहने पर फिर से कहा - आपके प्रभाव से मेरे देश में देवता के द्वारा फैलाया गया रोग शान्त हुआ है । इसलिए लोकहित के लिए अब भी थोड़े दिन यहाँ रुके , दूसरों पर आप अनुग्रह करने वाले होते हो । उन्होंने भी कहा- वर्षाऋतु चली गयी है , तीर्थयात्रा से हम विहार करेंगे । मुनि एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते । यहाँ गृहस्थी के घर-घर में तुम अरिहन्त के बिम्ब कराओ । उससे कभी भी व्याधि नहीं होगी । वे अन्य स्थान पर चले गये और शत्रुघ्न ने वैसे ही किया । लोक निरोग हुए । उसने मथुरा के चारों दिशाओं में सात मुनिओं की रत्नमयी प्रतिमाएँ करवाकर बिराजमान की ।
यहाँ वैताढ्यपर्वत की दक्षिणश्रेणी के रत्नपुर में रत्नरथ राजा राज्य करता था । उसकी पत्नी चन्द्रमुखी के कुक्षि से उत्पन्न मनोरमा नामक कन्या थी । यह कन्या किसको दी जाए ? इस प्रकार राजा मंत्रणा करने लगा । कन्या लक्ष्मण के योग्य है इस प्रकार नारद के वचन को सुनकर रत्नरथ के पुत्रों ने गोत्र के वैर से भ्रू संज्ञा से इस धूर्त को मारो इस प्रकार नौकरों को आदेश दिया । नारद ने मारने की इच्छा से खड़े होते उनको जानकर उड़ गया और लक्ष्मण के पास गया । मनोरमा का चित्र पट पर चित्रितकर दिखाते हुए अपना वृतान्त कहा । रागी बने लक्ष्मण ने रामचंद्र सहित राक्षस , विद्याधरों के साथ वहाँ आकर उसको जीत लिया । उसने रामचंद्र को श्रीदामा और लक्ष्मण को मनोरमा दी ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
22-03-2021
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( 105 )
गतांक से आगे :
मैं जानता हूँ सीता महासती है और रावण स्त्रीलोलुपी है । मेरा कुल निष्कलंक है , हा ! यह रामचंद्र क्या करें ? सीता की निन्दा सुनकर गुप्चरों ने भी लक्ष्मण , वानर और राक्षस राजाओं के साथ बैठें रामचंद्र से वैसे ही कहा- क्रोधित लक्ष्मण ने कहा - हेतुओं से जो दोषों की कल्पनाकर सती सीता को दूषित कर रहे हैं , उनको मैं मार दूँगा । रामचंद्र ने कहा - महत्तरों ने यह विज्ञप्ति की हैं । स्वयं मैंने सुना हैं । गुप्तचरों के द्वारा संवाद किया गया हैं । लक्ष्मण ने कहा - लोक वचन से सीता का त्याग मत करों । दुष्ट वचन बोलने वाले लोग सुंदर राज्य में सुखपूर्वक रहते हुए भी राजा के दोष निकालते हैं । राजाओं के द्वारा ये लोग शिक्षा अथवा उपेक्षा करने लायक हैं । रामचंद्र ने कहा - यह सत्य हैं किन्तु यशार्थी के द्वारा सर्वलोक विरुद्ध कार्य छोड़ने लायक ही हैं । कृतान्तवदन सेनानी से कहा -सीता को अरण्य में छोड़ दो । लक्ष्मण पैर पर गिरकर यह उचित नहीं हैं इस फ्रकार कहते हुए रोने लगा । रामचंद्र ने इसके बाद कुछ भी मत बोलना इस प्रकार कहा । लक्ष्मण अपने महल में चला गया । रामचंद्र ने कृतान्तवदन को शिक्षा दी -सीता को सम्मेतशिखर यात्रा का दोहद हैं । इसलिए कपट से वन में ले जाओ । उसने भी सम्मेतशिखर यात्रा के लिए रिमचंद्र की आज्ञा है कहकर सीता को रथ में बिठाकर प्रस्थान किया । खराब निमित्त और अपशकुन होने पर भी सरलता के करण शंका रहित सीता दूर चली गयी । गंगा सागर पारकर सिंहनिनाद अरण्य में जाकर सेनानी किंचित चिन्ता करते हुए खड़ा हुआ । आंसु सहित और मुरझाए मुख वाले उसको देखकर सीता ने कारण पूछा । सेनानी ने कहा - मैं दुष्ट वचन कैसे कहूँ ? दासत्व के कारण मैंने खराब काम किया हैं । लोक के अपवाद से भयभीत , रामचंद्र ने लक्ष्मण के निषेध करने पर भी मेरे द्वारा आप वन में छोड़ायी गयी । पापी ऐसे मैने परतन्त्रता से आपको यहाँ छोड़ा हैं । आप खुद के प्रभाव से जीवित रहोगी । सीता मूर्च्छित होकर रथ से नीचे गिर गयी । सेनानी यह मर गयी है इस प्रकार की बुद्धि से खुद को पापी मानता हुआ रोने लगा । सीता भी वन की हवासे होश में आयी । फिर से मूर्च्छित हुई । फिर से चेतना प्राप्त की । बड़े प्रयत्न से स्वस्थ्य हुई और पूछा अयोध्या कितनी दूर हैं ? रामचंद्र कहां हैं ? सेनानी ने कहा -अयोध्या बहुत दूर हैं । उग्र आज्ञा करने वाले रामचंद्र की वार्ता से भी रहा । रामभक्त सीता ने फिर से कहा -रामचंद्र से मैरा संदेश कहना । परीक्षा क्यों नहीं की ? मैं अपने कर्मो को भोगूँगी किन्तु आपने विवेक और कुल के उचित नहीं किया स्वामी ! आपने मुझे नीचपुरुषों की उस वाणी से अकस्मात् ही छोड़ दिया । वैसे मिथ्यादृष्टिओं की वाणी से जिनभाषित धर्म को मत छोड़ना । इस प्रकार कहकर मूर्च्छित हुई । उठकर कहने लगी - मेरे बिना रामचंद्र कैसे जीवित रहेंगे । रामचंद्र का कल्याण हो । लक्ष्मण को आशिष कहना । तेरा मार्ग कल्याणकारी हो । रामचंद्र के पास जाओ । सेनानी उसको नमस्कारकर निश्चय ही यह सती हैं इस प्रकार सोचता हुआ बड़े प्रयत्न से वापिस लौटा ।
शौक्यों का सीतम संसार में कभी-कभी सीमा का उल्लंघन कर देता है ।रामचंद्र जैसे पति के सहवास में रहनेवाली पत्नियों में भी ऐसी विचारधारा का होना आश्चर्य कारक हैं । सीता जैसी पवित्रात्मा के पास आग्रहकर रावण के पैरों को चित्रित करवाकर उसी चित्र से उस पर कलंक लगवाना ऐसा निष्कृष्टतम पाप रामचंद्र जैसे पवित्र आत्मा के घर में होना ।सत्युग का कलंक हैं । सीता को कहां ख्याल था कि मेरे हाथों से चित्रित करवाया चित्र ही मेरे लिए विपत्ति जनक बनेगा । आखिर शोक्यों ने नगर के लोगों के द्वारा सीता को कलंकिनी बना ही दिया और रामचंद्र ने लक्ष्मण आदि के सख्त शब्दों में मना करने पर भी वन में छोड़ने का आदेश दे दिया । सीता के कर्मो ने उस समय किसी के भी हृदय में परीक्षा करवाने का , दिव्य करवाने का विचार उत्पन्न होने न दिया । सीता का वन में त्याग करने पर भी सीता सीता ही रही उसने वहाँ भी रामचंद्र के हित का ही संदेश भेजा । दुष्टों के कथन से मैरा त्याग कोई खाश नुकसान नहीं परंतु दुष्टों के उपदेश से कहीं जैन धर्म का ( समकितका )
त्याग मत करना । कर दिया तो तुमकों भवोंभव दु:ख भोगना पड़ेगा । वह विशेष अहितकर होगा । इस प्रकार सीता ने अर्धांगिनी का पद पूर्ण रुप से अदा किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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U
23-03-2021
( 106 )
नवम सर्ग
गतांक से आगे :
भयभ्रान्त सीता इधर-उधर भ्रमण करती हुई , खुद की निन्दा करती हुई , रोती , गिरती उसने अपनी ओर आते महासैन्य को देखा । मृत्यु और जीवन में समान आशावाली सीता , उस सैन्य को देखकर नमस्कार मंत्र का ध्यान करती हुई निर्भय हुई । सैनिको ने उसको देखकर दिव्यरुपवाली यह कौन हैं ? इस प्रकार भयभीत सैनिकों ने अपने राजा को जानकारी दी । राजा ने उसका रोना सुनकर यह कोई गर्भिणी महासती है इस प्रकार सोचा। उस कृपालु राजा के समीप आने पर भयभीत सीता ने अपने आभूषण रख दिये । राजा ने कहा -डरो मत । बहन ! तेरे अंग पर आभूषण रहने दो । तू कौन हैं ? किस निर्दयधूर्त ने तुझे वन में छोड़ा है ? कहो ! तेरे दु:ख से मैं दु:खित हूँ । उसके बाद उसके मंत्री सुमित ने सीता से कहा - गजवाहन राजा और बन्धुदेवी का पुत्र यह पुंडरीकपुर का राजा वज्रजंघ है । महान अर्हत , परनारी के लिए भाई के समान हाथीओं को लेने यहाँ आया हैं । कार्यकर , जाते हुए ये तेरे दु:ख से दु:खित यहाँ आये हैं । अपना दु:ख कहो । रोती हुई सीता ने भी उन दोनों को रुलाती हुई अपना वृतान्त कहा । राजा ने कहा -तू मेरी धर्म बहन हो । भामण्डल के समान मेरे घर पर रहो । रामचंद्र ने भी लोक वाद से ही तुझे छोड़ा है , न की स्वयं ने । वह भी आज पश्चाताप् करते हुए तेरी गवेषणा करायेगा । सीता भी उस समय लायी गयी शिविका में चढ़कर पुण्डरीकपुर आयी । राजा के द्वारा दिखाये गये घर में प्रतिदिन धर्म करती हुई रहने लगी ।
सीता के पूर्वकृत कर्मो ने कलंक का दु:ख उत्पन्न करवाकर विरह का दु:ख दे दिया तो साथ में शुभ कर्मोदय ने उसे पुनः राजमहल के सुखों को प्राप्त करवा दिया ।
शुभाशुभ कर्मो का उदय इस प्रकार साथ-साथ भी आ जाता है ।
निष्कारण सीता का त्याग करने पर भी श्री रामचंद्र पर सीता को कोई अभाव , दुर्भाव उत्पन्न नहीं हुआ ।
आज की पत्नियों को सीता के इस प्रकरण पर गहराई से सोचना आत्म हितकर हैं । छोटी-छोटी बातों को लेकर विखवाद करने वाली पत्नियों को सीता के इस विवरण को घूट घूटकर पीना चाहिए । जिससे ' पति परमेश्वर ' की युक्तिजीवन में चरितार्थ रहे ।
यहाँ सैनानी ने जाकर रामचंद्र से सीता के परित्याग का स्वरुप , उसकी मूर्च्छा और संदेश आदि के बारे में कहा । सुनकर रामचंद्र भी मूर्च्छित हुआ । लक्ष्मण ने चन्दन जल से सिंचन किया । रामचंद्र उठकर विलाप करने लगा -सीता कहाँ है ? मैंने लोगों के वचन से उसे छोड़ दिया । लक्ष्मण ने कहा-जब तक आपके विरह से मर न जाये, उसके पूर्व उस अरण्य में जाकर , गवेषणाकर उसे लायें ।रामचंद्र उसी सेनानी और विद्याधरों के साथ विमान से वहाँ गया । पृथ्वी, जल , पर्वत, वृक्ष आदि स्थानों पर ढूँढते हुए भी उसको नहीं देखकर निश्चय ही सिंह आदि के द्वारा खायी गयी है इस प्रकार विचार करते हुए सीता की प्राप्ति की आशा रहित रामचंद्र अपनी नगरी में चला आया । नगर के लोगों के द्वारा सीता का गुणग्रहण और निन्दित किये जाते रामचंद्र ने मृतकार्य किया । उसके हृदय में आँखों के सामने और वचन में सीता ही थी ।
' अब पछताये होत क्या चिडिया चुग गई खेत ' वाली कहावत को रामचंद्र ने चरितार्थ कर दी । जो विचार पहले करना था वह विचार पीछे करने से कोई लाभ नहीं होता ।
कभी -कभी व्यक्ति दुनिया में जीवित होते हुए भी लोग उसे मरा हुआ समझकर मृत कार्य कर लेते हैं और ऐसा ही हुआ सती सीता के लिए । अयोध्या में उसका मृत कार्य हो गया ।
विधि की विडंबना इसे कहते हैं ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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U
24-3-2021
( 107 )
गतांक से आगे :
यहाँ सीता ने अनंगलवण और मदनांकुश नामक युगल पुत्रों को जन्म दिया । आनंदित वज्रजंघ ने उन दोनों का जन्म और नामकरण महोत्सव किया । धात्रियों के द्वारा लालन-पालन किये जाते वे दोनों बढ़ने लगे । कलाग्रहण के योग्य हुए । सिद्धार्थ नामक सिद्धपुत्र अणुव्रती , विद्याबल रुपी ऋद्धि से युक्त , कला और आगम में निपुण , तीनों सन्ध्याओं में मेरुपर्वत पर चैत्ययात्रा करने के लिए आकाश में गमन करने वाला , भिक्षा के लिए सीता के घर आया । उसने श्रद्धा से अन्न-पानादि से भोजन कराया और सुखपूर्वक विहारयात्रा के बारे में पूछा । उसके द्वारा पूछने पर सीता ने मूल से अपना वृतान्त कहा । अष्टांग निमित्त को जानने वाले उसने कहा - तू दु:खित क्यों होती हो ? तेरे पास साक्षात रामचंद्र - लक्ष्मण के समान लवण-अंकुश पुत्र हैं । ये महापराक्रमशाली हैं । तू किसी प्रकार की चिन्ता मत कर । सीता ने आग्रहकर पुत्रों को पढ़ाने के लिए उसको अपने घर में रखा । उसने दोनों को सभी कलाएँ ग्रहण करायी और वे दोनों देवताओं को भी दुर्जयी बन गये । दोनों यौवन अवस्था में आये । वज्रजंघ ने अपनी पुत्री शशिचूला और अन्य भी बत्तीस कन्याओं का लवण के साथ विवाह कराया । अंकुश के लिए पृथ्वीपुर के राजा पृथु की कनकमाला कन्या माँगी । उसने अज्ञात वंश के कारण उसको कन्या नहीं दी । वज्रजंघ सेना लेकर युद्ध के लिए गया । पृथु की ओर से युद्ध करते व्याघ्ररथ राजा को युद्ध में बांधकर ग्रहण कर लिया । पृथु ने सहाय के लिए अपने मित्र पोतन राजा को आव्हान किया । वज्रजंघ ने अपने पुत्रों को बुलाया , लवण-अंकुश को मना करने पर भी लवण-अंकुश साथ में चले । युद्ध में वज्रजंघ की सेना के भागने पर , मामा की सेना के भंग से क्रोधित लवण-अंकुश युद्ध के लिए दौड़े । सैन्य सहित पृथु के तूटने पर विकसित मुख वाले उन दोनों ने कहा - हे वंश को जानने वाले ! अज्ञातवंश वाले हमसे क्यों भाग रहे हो ? पृथु वापिस लौटकर पराक्रम से वंश जान लिया है इस प्रकार कहकर अंकुश को वह कन्या दे दी । वज्रजंघ सेना का निवेश कर वहाँ रहा । उस समय वहाँ आये नारद का वज्रजंघ ने सन्मान किया । वज्रजंघ ने नारद से कहा - पृथु अंकुश को अपनी कन्या देगा । फिर भी उसकी प्रीति के लिए लवण-अंकुश के वंश के बारे में आप कहें । नारद थोड़ा हंसकर कहने लगा -कौन इन दोनों के वंश को नहीं जानता है ? जिस वंश की उत्पत्ति के मूल ऋषभदेव हैं । जिस वंश में प्रसिद्ध भरतादि चक्रवर्ती हुए हैं । इन दोनों के पिता और चाचा रामचंद्र-लक्ष्मण को कौन नहीं जानता हैं ? इन दोनों के गर्भ में रहते हुए भी लोक निन्दा से रामचंद्र ने सीता को छोड़ दी थी । अंकुश हंसकर कहने लगा - ब्रह्मचारी ! सीता को वन में छोड़कर रामचंद्र ने अच्छा नहीं किया हैं । अपवाद कारण ही विचित्र है । लवण ने पूछा -जहाँ लक्ष्मण सहित मैरे पिता जहाँ रहते हैं वह अयोध्या नगरी कितनी दूरी पर हैं ? नारद ने कहा - वह अयोध्या यहाँ से एक सौ साहठ योजन दूर हैं । लवण ने वज्रजंघ से कहा - वहाँ जाकर हम दोनों रामचंद्र -लक्ष्मण को देखना चाहते है । उसने लवण के वचन को स्वीकारकर अंकुश का कनकमाला के साथ विवाह किया । वज्रजंघ और पृथु से युक्त लवण-अंकुश बहुत से देशों को जीतते हुए , लोकाक्ष्यपुर में कुबेरकान्त राजा को , लम्पाक में एककर्ण को , विजयस्थली पर भ्रातृशत नामक राजा को जीता । गंगा को पारकर , कैलाश की उत्तर दिशा में आये और नन्दचारु के देशों को जीत लिया । रुष , कुंतल आदि राजाओं को जीतते हुए सिन्धु के दूसरे किनारे पर पहुँचे । वहाँ आर्य और अनार्य राजाओं को जीता । इस प्रकार बहुत देशों के राजाओं को जीतकर वापिस लौटकर पुण्डरीकपुर चले गये । अहो ! वज्रजंघ धन्य है , जिसके ऐसे भानेज है , इस प्रकार कहते नगर लोगों के द्वारा वे दोनों देखें गये । अपने घर जाकर माता के पैर में नमस्कार किया । रामचंद्र -लक्ष्मण के समान बनो इस प्रकार सीता ने आशिष दिये ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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025-03-2021
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( 108 )
गतांक से आगे :
उन दोनों ने वज्रजंघ से कहा - मामाजी । आपने हम दोनों का अयोध्या गमन माना था , वह अब पूर्ण करें । लम्पाक , रुष , काल , अम्बु , कुन्तल आदि राजाओं को आज्ञा दी जाये । प्रयाण की भेरी बजायी जाय । दिशाएँ सैन्यों से आच्छादित की जायें । माँ को छोड़नेवाले रामचंद्र का पराक्रम भी देखा जायें । रोती सीता ने गदगद सहित कहा -वत्स ! तुम अनर्थ की इच्छा क्यों कर रहे हों ? तुम दोनों के पिता और चाचा शूरों को भी दुर्जय हैं , तीनों लोक के कांटो का अंत करने वाले है । यदि तुम दोनों पिता को देखने के लिए उत्कण्ठ हो तो विनीत होकर जाओ । उन्होंने कहा - तुमे छोड़नेवाले और शत्रुपद को प्राप्त पिता से कैसा विनय ? हम दोनों आपके पुत्र आ गये हैं इस प्रकार हम दोनों स्वयं उसके नगर जाकर लज्जाकारी वचन कहेंगे ? युद्ध का आव्हान तो पिता को भी आनन्दकारी हैं , दोनों कुल का यश करने वाला हैं और योग्य भी । इस प्रकार कहकर महासैन्यवाले और महासत्वशाली दोनों ने सीता के रोने पर भी अयोध्या की ओर प्रयाण किया । कुठार, कुदाल धारण करते दस हजार सैनिकों ने मार्ग पर वृक्षादि को छेदकर सम पृथ्वीतल बनायी । युद्ध की इच्छावाले लवण-अंकुश अयोध्या के समीप रुक गये । रामचंद्र -लक्ष्मण शत्रु की सेना के बारे में सुनकर आश्चर्यचकित और थोड़े हर्षवाले हुए । लक्ष्मण ने कहा - ये मरना चाहते हैं । रामचंद्र सहित , सुग्रीव आदि से घेरा लक्ष्मण युद्ध के लिए चला ।
यहाँ भामण्डल ने नारद से यह सब सुनकर पुण्डरीकपुर गया । रोती सीता ने कहा - भाई ! मुझे रामचंद्र ने छोड़ा था । मेरे त्याग को सहने में असमर्थ तेरे भांजे उनके साथ युद्ध के लिए गये हैं । भामण्डल ने कहा - रामचंद्र ने बिना विचारे तेरा त्याग किया हैं । यह दूसरा पुत्रों का वधरुपी अकार्य न कर बैठे । जब तक रामचंद्र उन दोनों पुत्रों को नहीं जानते हुए उनको मार न डाले, उठो उतने में हम दोनों शीघ्र ही वहाँ चले जाते हैं । भामण्डल ने सीता को विमान में बिठाकर सैन्य में ले आया । लवण -अंकुश ने सीता को नमस्कार कर , सीता के द्वारा कहे गये मामा भामण्डल को नमस्कार किया । उसने लवण -अंकुश को मस्तक पर चूमकर , गोद में बिठाया । रोमांचित शरीर वाले भामण्डल ने गदगद सहित कहा - मेरी बहन पहले वीरपत्नी थी । अब तुम दोनों से वीरपुत्रवाली हुई हैं । तुम दोनों वीरपुत्र और वीर हो । तो भी पिता-चाचा से युद्ध मत करों । रावण का अंत करने वाले उन दोनों से तुमने क्यों युद्ध का आरंभ किया है ? उन्होंने कहा -मामाजी ! हमारी माता के समान आप भी कायर वचन बोल रहे हैं । हम जानते हैं कि पिता और चाचा से कोई बलवान नहीं हैं । युद्ध छोड़कर हम दोनों को कैसे लज्जित कर सकते हैं । लवण-अंकुश के इस प्रकार कहते ही दोनों सैन्यों का युद्ध चालु हुआ । सुग्रीव आदि विद्याधर इन दोनों को भूचर सेना को मार न डाले इस प्रकार विचारकर भामण्डल युद्ध में गया । वे दोनों कुमार भी रोमांच सहित युद्ध के लिए खड़े हुए । नि:शंक युद्ध करते सुग्रीव आदि ने युद्ध में भामण्डल को देखकर यह दोनों कौन हैं ? इस प्रकार पूछा । उसने रामचंद्र के पुत्र जानकर वे सीता के पास गये । नमस्कारकर पृथ्वी पर सामने बैठे ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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26-2-21
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( 109 )
गतांक से आगे :
यहाँ जहाँ-जहाँ लवण-अंकुश घुमे , वहाँ रथी , घुड़सवार , हाथीस्वार , अस्त्र को धारणकर खड़े न रह सके । इस प्रकार रामचंद्र की सेना को मार अथवा भगाकर किसी से भी अस्खलित वे दोनों रामचंद्र -लक्ष्मण के पास गये । रामचंद्र -लक्ष्मण उन दोनों को देखकर परस्पर कहने लगे -यह दोनों सुन्दर कौन है ? मन स्वभाव से ही स्नेह कर रहा हैं । बल के उपयोग करने में द्रोह कर रहा हैं । तुम दोनों आलिंगन अथवा युद्ध क्या करना चाहते हो ? इस प्रकार रथ में बैठे हुए कहते रामचंद्र से रथी लवण ने और लक्ष्मण से अंकुश ने कहा - हम युद्ध की इच्छावाले हैं । जगत से अजेय ऐसे रावण को भी जीतनेवाले आपको हमने भाग्य से चिर समय बाद देखा हैं । आपके युद्ध की इच्छा रावण ने भी पूरी नहीं की थी । हम पूर्ण करेंगे और आप हमारी पूर्ण करेंगे इस प्रकार कहकर चारों ने भी अपने-अपने धनुष का टंकार किया । कृतान्त सारथी ने रामचंद्र को और वज्रजंघ राजा ने लवण के रथ को सामने किया । विराध ने लक्ष्मण के रथ को और पृथु ने अंकुश के रथ को , परस्पर शत्रु के सामने रथ किया । उन चारों सारथियों ने दक्षतापूर्वक रथों को घुमाया । उन चारों वीरों ने विविध प्रकार से प्रहार किया । संबंध को जानने वाले लवण-अंकुश अपेक्षा सहित युद्ध करने लगे । संबंध की अज्ञानता से रामचंद्र-लक्ष्मण निरपेक्ष थे । रामचंद्र विविध आयुधों से युद्धकर युद्ध के अंत की इच्छा से कृतान्तवदन से कहा - शत्रु की ओर रथ ले जाओं । उसने कहा -अश्व खेदित हैं । संपूर्ण अंग बाणों से वींधा गया हैं । चाबुक से मारने पर भी शीघ्रता नहीं कर रहे हैं । मुशलरत्न धान्य को कुश रहित दलने योग्य हुआ हैं । हलरत्न पृथ्वी को खोदने के उचित हुआ हैं । देवताओं से अधिष्ठित , वैरिओंको क्षय करने वाले , उन अस्त्रों की ही यह क्या दशा हो गयी हैं ? इस प्रकार लक्ष्मण भी अंकुश प्रति निष्फल अस्त्र वाला हुआ । अंकुश के द्वारा छाती पर बाण से मारा गया लक्ष्मण मूर्च्छित हुआ । विराध ने अयोध्या की ओर रथ चलाया । होश में आये लक्ष्मण ने कहा - विराध ! तूने यह नया क्या किया ? रामचंद्र के भाई के लिए यह अनुचित आचरण है । शत्रु की ओर रथ ले जाओ । चक्र से उसका सर छेदता हूँ । वैसा करने पर लक्ष्मण ने अंकुश पर चक्र छोड़ा । अंकुश-लवण ने अस्त्रों से चक्र को मारा किन्तु वापिस नहीं लौटा । वह चक्र आकर अंकुश को प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मण के हाथ में गया । फिर से छोड़ा गया और वैसे ही लक्ष्मण के हाथ में गया । दु:खित रामचंद्र -लक्ष्मण सोचने लगे - क्या ये बलदेव-वासुदेव हैं हम नहीं ?
इसी बीच सिद्धार्थ के साथ नारद ने आकर दु:खित रामचंद्र -लक्ष्मण से कहा - हर्ष के स्थान पर तुम दोनों दु:खित क्यों हो ? पुत्र से पराजय वंश के उदय के लिए होता है । सीता की कुक्षि से उत्पन्न यह दोनों तुम्हारें पुत्र हैं जो युद्ध के बहाने तुमको देखने आये हैं । जो चक्र समर्थ नहीं हुआ वही चिन्ह है । पहले भी भरत का चक्र बाहुबली पर व्यर्थ हुआ था ।
वज्रजंघ सीता के पुत्रों का वंश जानता था पर उसने कुछ न कहा और नारद के द्वारा कहलवाया । उसके पीछे कारण वचनों की विश्वसनीयता थी । स्वयं कहता तोइसका प्रमाण क्या ? ऐसे प्रश्न को अवकाश था और नारद ने कहा तो इसमें शंका को कोई स्थान नहीं ।
इस वर्णन को पढ़ते समय ऐसा भी लगता है कि न तो सीता ने अपने त्याग आदि की बात पुत्रों को कही हैं और न पुत्रों ने पूछी । इसे गंभीरता गुण कहा गया है ।
और जब मालूम हुआ तो पिता-चाचा से युद्धकर उनको बता दिया जाय कि जिनका त्याग किया है वे अपने कर्मो से कितने शक्तिशाली बनें हैं ।हनुमान का भी वह कुक्षि में था तब त्याग हुआ था । उसने नाना-मामा को परचा बताया था । इन दोनों ने पिता-चाचा को अपनी शक्ति का युद्ध के मैदान में परिचय दिया ।
अंत में पिता-पुत्रों का सुखद मिलन हुआ ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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27-3-2021
( 110 )
गतांक से आगे :
नारद के द्वारा सीता त्याग से आरंभ कर सभी वृतान्त कहने पर रामचंद्र आश्चर्य , लज्जा , हर्ष , खेद से आकुलित होते हुए मूर्च्छित हुआ । होश में आकर लक्ष्मण सहित पुत्रों के पास गया । विनयवान् वे दोनों अस्त्रों को छोड़कर उनके पैंरो में गिरे । रामचंद्र उन दोनों को आलिंगनकर , गोद में बिठाकर , शोक और स्नेह से आकुलित होकर रोने लगा । लक्ष्मण ने भी रामचंद्र की गोद से अपनी गोद में बिठाकर मस्तक पर चूमते हुए , अश्रुसहित आलिंगन किया । शत्रुघ्न ने भी पैर पर गिरे उन दोनों को आलिंगन किया । सब राजा खुश हुए । सीता पुत्रों का पराक्रम और पिता के साथ संगम देखकर खुश होकर विमान से पुण्डरीकपुर चली गयी । इधर भामण्डल के द्वारा बताये गये और नमस्कार करते वज्रजंघ से रामचंद्र ने कहा - तुम भामण्डल के समान हो । जिसने दोनों पुत्रों को बड़ा किया हैं । इस प्रकार कहकर लक्ष्मण सहित रामचंद्र अर्धासन पर बैठे पुत्रों के साथ पुष्पक विमान में बैठकर नगरी में प्रवेश किया । महल में जाकर रामचंद्र ने महोत्सव कराया ।
लक्ष्मण , सुग्रीव , बिभीषण , हनुमान ,अंगद आदि ने मिलकर रिमचंद्र से विज्ञप्ति की -दूसरे देश में रही देवी , पति एवं पुत्रों से वियोगिनी दु:ख से रह रही है । यदि आप आज्ञा दें , तो आज हम लेकर आ जाते हैं । पति-पुत्र रहित मर जायेगी । रामचंद्र ने थोड़ा विचारकर कहा -लोक अपवाद बलवान है । मैं जानता हूँ सीता सती हैं । लोक के समक्ष दिव्य की शुद्धि से उसके साथ पुनः गृहवास होगा । उन्होंने भी ऐसा ही हो कहकर नगरी के बाहर मंच सहित विशाल मंडप करायें । वहाँ विद्याधर और भूचर राजा , नगर के लोक और अमात्य आदि बैठे । रामचंद्र की आज्ञा से सुग्रीव ने जाकर सीता को नमस्कार किया और कहा - देवी ! आपके लिए रामचंद्र ने पुष्पक विमान भेजा हैं । इस पर बैठकर रामचंद्र के पास आओ । उसने कहा - दु:ख देनेवाले रामचंद्र से क्या प्रयोजन ? उसने कहा - क्रोध मत करें । रामचंद्र आपकी शुद्धि के लिए नगर लोक और राजाओं के साथ मंच पर बैठा हुआ है । शुद्धि की कांक्षा वाली सीता पुष्पक विमान से अयोध्या में आकर महेन्द्रोदय उद्यान में उतरी । लक्ष्मण ने उसकी पूजा की और राजाओं ने नमस्कार किया । लक्ष्मण सामने बैठकर राजाओं के साथ कहने लगा - अपनी नगरी और घर को पवित्र करें । सीता ने कहा - शुद्धि के बाद प्रवेश करुँगी । रामचंद्र ने सीता की प्रतिज्ञा सुनकर वहाँ जाकर इस प्रकार कहा - शुद्धि के लिए दिव्य करों । सीता ने कहा -आप बड़े चतुर हो । दण्ड देकर परीक्षा कर रहे है । विलक्ष होकर रामचंद्र ने कहा -मैं जानता हूँ , तेरा दोष नहीं हैं । लोक अपवाद को उतारने के लिए यह कह रहा हूँ । सीता ने कहा - मैने पांच दिव्यों को स्वीकार किया हैं ( 1 ) अग्नि में प्रवेश करुँ , ( 2 ) मंत्रित चावलों को खाऊँ , ( 3 ) तुले पर चढूँ , ( 4 ) गरम किया हुआ सीसा पीऊँ , ( 5 ) जीभ से तलवार की धार को ग्रहण करुँ । बोलो , आपको क्या अच्छा लगता है ? इसी बीच आकाश में खड़े नारद , सिद्धार्थ ने और सभी लोगों ने इस कार्य को रोकने के लिए कहा- हे रामचंद्र ! सीता सती है , सती है । विकल्प मत करों । रामचंद्र ने कहा- हे लोगों ! आपकी कोई मर्यादा नहीं हैं । तुम लोगों ने ही पहले सीता को दूषित किया था । अब शीयलवती कैसे बन गयी ? फिर से भी देष ग्रहण करते तुम्हारी कोई अर्गल नहीं हैं । इसलिए विश्वास के लिए सीता जलती हुई अग्नि में प्रवेश करें । इस प्रकार कहकर दो पुरुष और तीन सौ हाथ प्रमाण खड्डे को खुदवाकर चन्दन की लकड़ियों से भर दिया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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30-3-2021
( 111 )
गतांक से आगे :
इसी बीच वैताढ्यपर्वत की उत्तरश्रेणी में हरिविक्रम राजा का पुत्र जयभूषण जिसने आठ सौ कन्याओं के साथ विवाह किया था , अपनी पत्नी किरणमण्डला को मामा के पुत्र हेमशिख के साथ सोती हुई देखी और संसार से विरक्त होकर दीक्षा ली ।
संसार विषय वासना की आग में अनादि से जल रहा है । इसके साक्षी रुप में इतिहास के पन्नों पर अंकित ऐसे उदाहरण है । राजकुमार की प्रिय पात्र होने पर भी परपुरुष से स्नेह और वो भी स्वजन से । इस उदाहरण से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि उस सतयुग में भी ऐसे संबंधी भी पापाचरण की प्रवृति करते थे । उस समय गैहूँ में कंकर थे । आज कंकर में गैंहूँ जैसे उत्तम स्वजन हैं ।
इधर किरणमण्डला मरकर विद्युददंष्ट्रा राक्षसी हुई थी । तब जयभूषण अयोध्या केबाहर प्रतिमा में खड़े थे । उस राक्षसी के द्वारा उपसर्ग करने पर मुनि को केवलज्ञान हुआ । वहाँ पर इन्द्र आदि आये । देवों से इन्द्र ने सीता का वृतिन्त जाना । सीता के सानिध्य के लिए सेना के नायक को आदेश देकर स्वयं ने उन मुनि का केवलज्ञान महोत्सव किया । रामचंद्र ज्वाला से भयंकर उस खड्डे को देखकर सोचने लगा-अहो ! मुझ पर यह क्या अत्यन्त संकट आ गिरा ? कर्म की विषम गति है ।
इसका मेरे साथ नगरी से निकलना हुआ और रावण के द्वारा अपहरण हुआ । फिर से मेरे द्वारा वन में इसका त्याग हुआ और फिर से यह मेरे द्वाराअकार्य किया जा रहा है । सीता ने अग्नि के समीप खड़ी होकर , सर्वज्ञ का स्मरण किया । हे लोकपाल और लोग तुम सुनो ! यदि मैने रामचंद्र को छोड़कर अन्य किसी भी पुरुष की मन से भी अभिलाषा की हो , तो अग्नि जलायें ,अन्यथा पानी के समान बन जायें । इस प्रकार बयान देकर नमस्कार मंत्र का स्मरण करती हुई सीता ने झम्पापात किया । अग्नि बुझ गयी । खड्डा स्वच्छ जल से पूर्ण होकर वापी के समान हो गया ।
अनादिकाल से एक नियम चला आ रहा है कि उत्तम की परीक्षा होती है । चाहे वह अजीव हो या सजीव । परीक्षा हेतु लोग स्वर्ण को अग्नि में डालते हैं , आज तक परीक्षा के लिए पीतल को अग्नि में नहीं डाला क्योंकि वह तो हाथ में आते ही अपना पीतलत्व प्रदर्शित कर देता है । सजीव में भी उत्तम पुरुषों की ही कसौटी होती है , जिसे अग्नि परीक्षा भी कहते है । जिसे अपने आप पर संपूर्ण विश्वास होता है वही व्यक्ति अपनी परीक्षा में सहमति देता है । जिसे यह आत्मविश्वास न हो किमै सच्चा हूँ वह कभी भी परीक्षा नहीं देगा और माया से देने जायगा तो भस्म हुए बिना नहीं रहेगा ।
सीता को लाने के लिए रामचंद्र तैयार ही थे । पर पुनः उस पर कोई दोषारोपण न करे इसलिए परीक्षा आवश्यक थी । सीता भी यही चाहती थी । बिना परीक्षा दिये मेरा कलंक दूर नहीं होगा । कलंक दूर हुए बिना मेरी मृत्यु भी दु:खदायी होगी । युगों तक लोग मुझे दुराचारीणी मानते रहेंगे ।
अग्नि परीक्षा की क्षणों में लोगो को सचोट प्रत्युत्तर दिया रामचंद्र ने ' आपका क्या भरोसा ? लंका से सीता अयोध्या में आयी तभी आप सती-सती कहते थकते नहीं थे । फिर सती-असती हो गयी । आज सती कहते हो कल क्या कहोगे क्या भरोसा ? अतः सीता अग्नि परीक्षा की परीक्षा दे । '
आखिर सतीत्व आज दिन तक प्रकाश्यमान रहा । अग्नि ने शीतल जल बनकर सीता के सतीत्व को चमका दिया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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31-3-021
( 112 )
गतांक से आगे:
सीता जल के अंदर कमल के ऊपर रहे सिंहासन पर स्थित हुई । वह जल कभी गुल-गुला शब्द , कभी भम्भा शब्द , कभी खल-खला शब्द करते हुए चक्राकार में घूमकर मंचो को भी बहाने लगा । विद्याधर उड़कर आकाश में चले गये । भूचर महासती ! रक्षा करों ! रक्षा करों कहने लगे । सीता ने बाहर निकले उस जल को हाथों से स्पर्श किया और वापी प्रमाण जल हो गया । वह वापी कमल , पद्म आदि से निरन्तर क्रीड़ा करते हंसवाली , भ्रमर के गान के सुन्दर , आपस में टकराते तरंग के समूह से मणिमय सीढ़ियों के समान दिखायी देती और रत्नपाषाणों से बांधी हुई दोनों तटवाली बनी । सीता के शील की प्रशंसा करनेवाले नारद आदि आकाश में नाचने लगे । देवों ने सीता के ऊपर पुष्पवृष्टि की । लोगों में अहो ! सीता का शील इस प्रकार बड़ा शब्द हुआ ।आनंदित लवण-अंकुश तैरते हुए सीता के समीप गये । सीता ने उनको मस्तक पर चूंमकर दोनों को पास में बिठाया । लक्ष्मण , शत्रुघ्न , भामण्डल , बिभीषण , सुग्रीव आदि ने भक्ति सहित जाकर उसको नमस्कार किया । पश्चाताप और लज्जा से पूर्ण रामचंद्र ने सीता के पास जाकर , हाथ जोड़कर कहा - लोक निन्दा से तुझे छोड़ा था । अपराध की क्षमा करों । हिंसक पशुओं से युक्त अरण्य में छोड़ी गयी फिर भी जीवित रही, वह भी एक दिव्य ही था । मैंने नहीं जाना । सब अपराधों की क्षमापना कर पुष्पक विमान में बैठकर अपने घर चलो । सीता ने भी कहा - तुम लोगों का दोष नहीं है , किन्तु मेरै पूर्व कर्मो का ही दोष है । उसके छेदन के लिए मैं दीक्षा ग्रहण करुँगी । इस प्रकार कहकर मुष्टि से केशों को उखाड़कर रामचंद्र को दिये । उस समय वे मूर्च्छित हो गये । रामचंद्र के मूर्च्छित होने पर भी सीता ने जयभूषण केवली के समीप में जाकर दीक्षा ग्रहण की और सुप्रभागणिनी के परिवार में शिष्या बनी ।
सीता ने अपने जीवन में उतार चढ़ाव का अनुभव विशेष किया था । जन्म से भाई का अपहरण , फिर उसी भाई द्वारा शादी का आग्रह , शादी भी पिता की इच्छा से नहीं दूसरों की शर्तानुसार हुई । वनवास में भी संकट सहे , पति विरह और कामांध पुरुष के बंधन में रहना पड़ा । जनसमूह के द्वारा कलंकित होकर अरण्य में तिरस्कृत होना पड़ा इसमें शोक्यों की चिनगारी ने विशेष कार्य किया । इन सब अनुभवों से सीता ने संसार के वास्तविक स्वरुप को समझ लिया था । अतः अब भौतिक सुखों की ओर उसकी दृष्टि नहीं थी । आत्मिक सुख प्राप्त करने की भावना सीता के हृदयमंदिर में प्रस्फुटित हो गयी थी । अतः उसने वहाँ ही केश लूंचनकर दिया । उस समय रामचंद्र मूर्च्छित हो गये । दीक्षा लेने वाला रागियों के राग की ओर दृष्टि नहीं डालता । वह तो अपना हित देखता है और इसी न्याय से सीता ने रामचंद्र की मूर्च्छा की ओर ध्यान न देकर चारित्र ले लिया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन ,
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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1-4-2021
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( 113 )
दशम सर्ग
गतांक से आगे:
चंदन से सिंचा गया रामचंद्र होश में आकर कहने लगा -सीता देवी कहाँ है ? भूचर , विद्याधरों ! यदि जीने की इच्छा वाले हो तो केशों का लोच करनेवाली सीता को दिखाओ । वत्स ! वत्स ! लक्ष्मण ! तरकस , तरकस ! धनुष , धनुष ! मेरे दु:खित होने पर भी ये उदासीन हैं इस प्रकार कहकर धनुष को ग्रहण करते राम को नमस्कारकर , लक्ष्मण ने कहा - आर्य ! आर्य यह क्या है ? यह लोग आपके दास हैं । सीता ने दीक्षा ले ली हैं । चले , हम मुनि का केवलज्ञान महोत्सव करें । वहाँ दीक्षा ग्रहण की हुई सीता बैठी है । रामचंद्र ने बल का आलंबन लेकर कहा - साधु, साधु मेरी प्रिया ने दीक्षा ग्रहण कर ली । वहाँ परिवार सहित जाकर देशना सुनी और पूछा कि मैं भव्य हूँ अथवा अभव्य ? केवलज्ञानी भगवंत ने कहा - तुम चरमशरीरी हो । रामचंद्र ने फिर से पूछा - दीक्षा से मोक्ष होता है। सर्व त्याग से दीक्षा होती है किन्तु लक्ष्मण को मैं छोड़ नहीं सकता हूँ । मुनि ने कहा - बलदेव की संपत्ति भोगकर अन्त में तू सर्व संग छोड़कर दीक्षा ग्रहण करेगा और मोक्ष प्राप्त करेगा । बिभीषण ने पूछा -किस कर्म से रावण ने सीता का अपहरण किया ? और लक्ष्मण ने उसको मारा? सुग्रीव , भामण्डल , लवण-अंकुश और मैं रामचंद्र पर भक्तिवालें क्यों हैं ? मुनि ने कहा -
यहाँ दक्षिण भरतार्ध के क्षेमपुर में नयदत्त वणिक के धनदत्त और वसुदत्त पुत्र थे । उन दोनों का याज्ञवलक्य ब्राह्मण मित्र था तथा उस नगर में सागरदत्त वणिक था उसका पुत्र गणधर और पुत्री गुणवती थी । सागरदत्त ने गुणवती को नयदत्त के पुत्र धनदत्त को दी थी । माता ने धन के लोभ से वहाँ के निवासी श्रीकान्त श्रेष्ठी को गुप्तरीति से कन्या दी ।
कन्या विक्रय का पाप उस समय भी संसार में प्रवर्तमान था । आज कन्या विक्रय के स्थान पर कुमार विक्रय चल रहा है और कहीं-कहीं प्रथम देह विक्रय कर फिर शादी होने लगी है ।
याज्ञवलक्य ने वह जानकर अपने दोनों मित्रों से कहा । वसुदत्त ने रात में जाकर श्रीकान्त पर प्रहार किया । श्रीकान्त ने भी उसको खडग से गिरा दिया । दोनों भी मरकर विन्ध्याटवी में मृग हुए । गुणवती भी बिना विवाह किये ही मरकर वहाँ मृगी हुई । दोनों मृग उसके लिए युद्धकर मर गये ।
स्त्री जाति के लिए युद्ध का सीलसीला देव, पुरुष एवं पशुओं में जोरों से चल रहा है , परिणाम में मृत्यु मिलती है । इस प्रकार परस्पर वैर से बहुत संसार में भ्रमण किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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2-4-2021
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( 114 )
गतांक से आगे :
धनदत्त भी अपने भाई के वध से दु:खित घुमते हुए , भूखा रात में साधुओं को देखकर भोजन की याचना की । उनके द्वारा प्रतिबोधित किया गया , श्रावक बनकर सौधर्म में देव हुआ ।च्यवकर महापुर में श्रेष्ठी पद्मरुचि नामक परम श्रावक हुआ । वह अन्य दिन अश्व पर चढ़कर गोकुल जाते हुए मार्ग पर गिरे और आसन्न मरणवाले बूढ़े बैल को देखकर अश्व से नीचे उतरकर उसके कान में नमस्कार मंत्र सुनाया । वह बूढ़ा बैल मरकर वहाँ वृषभध्वज राजा हुआ । बूढ़े बैल के मरण स्थान के दर्शन से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । वहाँ चैत्य बनाया । चैत्य भित्ति के एक स्थान पर आसन्न मरण वाले बूढ़े बैल और उसके कान में नमस्कार मंत्र सुनाते मनुष्य को और मनुष्य के समीप में पलाण सहित घोड़े को चित्रित कराया । वहाँ आरक्षकों को आदेश दिया -जो इस चित्र को जानते हुए खयाल करेगा उसके बारे में मुझे ज्ञापन देना । अन्य दिन वह श्रेष्ठी उस चित्र को पहचानकर विस्मित हुआ । आरक्षकों ने राजा को ज्ञापन किया । राजा के पूछने पर -यह मेरा वृतान्त किसी ने चित्रित कराया है इस प्रकार कहा । राजा ने विनय से नमस्कार कर वह बूढ़ा बैल मैं ही था । अतः आप गुरु हो , आप देवता हो इस प्रकार कहकर श्रेष्ठी के साथ श्रावकत्व पालते हुए राज्य को भोगने लगा । वहाँ से दोनों मरकर ईशान कल्प में देव हुए । पद्मरुचि का जीव च्यवकर वैताढ्यपर्वत पर नयनानन्द राजा हुआ । दीक्षा ग्रहणकर माहेन्द्रकल्प में देव हुआ । वहाँ से च्यवकर पूर्व विदेह के क्षेमापुरी में श्रीचन्द्र नामक राजा हुआ । समाधिगुप्ति मुनि के पास दीक्षा ग्रहणकर ब्रह्मलोक का इन्द्र हुआ । वहाँ से च्यवकर वह बलदेव रामचंद्र हुआ हैं । बूढ़े बैल का जीव तो यह क्रम से सुग्रीव हुआ हैं ।
श्रीकान्त का जीव भ्रमण कर मृणालकंदपुर में शंभु राजा हुआ । वसुदत्त का जीव भ्रमणकर उसी राजा का श्रीभूति पुरोहित हुआ । गुणवती का जीव भ्रमणकर उसकी पुत्री वेगवती बनी । यौवनावस्था को प्राप्त उसने लोगों से वन्दन किये जाते और प्रतिमा में खड़े सुदर्शन मुनि को देखकर उपहासपूर्वक कहा- अहो ! यह साधु पहले महिला के साथ क्रीड़ा करते देखा गया था । इसने उस महिला को दूसरी जगह भेज दी है । लोगों ! तुम इसको क्यों वंदन करते हो ? लोग यह सुनकर विपरीत परिणामवाले हुऐ । कलंक की घोषणा पूर्वक उस तपस्वी साधु को लोग उपद्रव करने लगे । साधु ने जब तक कलंक दूर नहीं होगा तब तक पारणा नहीं करुंगा , इस प्रकार अभिग्रह धारण किया । वेगवती के मुख को देवता ने काला कलुटा बना दिया । पिता ने वृतान्त जानकर उसका तिरस्कार किया । भयभीत वेगवती ने मुनि के सामने और लोक समक्ष कहा -ये निर्दोष है । मैने झूठा दोष दिया है । तुम क्षमा करों । लोगों के घरों में भी जा-जाकर मैंने झूठा दोषारोपण किया है , साधु निर्दोष है ऐसा कहा जिससे लोग फिर से उस साधु की पूजा ,करने लगे । वह चुस्त श्राविका हुई। शंभु राजा ने उसकी याचना की । श्रीभूति ने मिथ्यादृष्टि राजा को कन्या नहीं दी । शंभू ने श्रीभूति को मारकर बलजबरी से उसको भोगा । भवान्तर में तेरे वध के लिए बनूं इस प्रकार उसने शाप दिया । तब उसके द्वारा छोडॠई गयी वेगवती हरिकान्ता साध्वी के पास दीक्षा ग्रहणकर ब्रह्मलोक गयी । वहाँ से च्यवकर शंभु का जीव रावण बना । उसकी मृत्यु के निदानवश सीता हुई है । शंभू संसार में भ्रमणकर प्रभास ब्राह्मण हुआ । विजयसेन मुनि के पास दीक्षा ग्रहणकर कनकप्रभ-विद्याधर राजा की ऋद्धि के दर्शन से नियाणाकर सनत्कुमार कल्प में देव हुआ । वहाँ से च्यवकर रावण हुआ । जो धनदत्त-वसुदत्त का मित्र याज्ञवलक्य था , वह संसार में भ्रमणकर तू बिभीषण हुआ ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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3-4-2021
( 115 )
गतांक से आगे:
राजा के द्वारा मारा गया श्रीभूति स्वर्ग में गया । च्यवकर सुप्रतिष्ठपुर में वसु विद्याधर हुआ । उसने पुण्डरिक विजय में त्रिभुवनानन्द चक्रवर्ती की पुत्री अनंगसुंदरी का अपहरण किया था । चक्रवर्ती के द्वारा भेजे गये विद्याधरों से युद्ध करते हुए वसु घबरा गया । उसके विमान से वह कन्या लता आदि से ढंके स्थान पर गिरी । वसु ने उसकी प्राप्ति के लिए नियाणा किया और दीक्षा ग्रहणकर स्वर्ग गया । वहाँ से च्यवकर यह लक्ष्मण हुआ है । वन में रही वह अनंगसुंदरी भी तप स्वीकारकर अंत में अनशन किया । अजगर के द्वारा खायी गयी वह मरकर ईशानकल्प में देवी हुई । वहाँ से च्यवकर विशल्या हुई । जो गुणवती का भाई गुणधर था वह संसार में भ्रमणकर कुंडलमंडित राजपुत्र हुआ । श्रावकत्व का पालन कर भामण्डल हुआ ।
यहाँ काकन्दी में वसुनन्द -सुनन्दन ब्राह्मण रहते थे । मास उपवासी मुनि को दान देकर उत्तरकुरु में युगलिक हुए । वहाँ से आयुष्य पूर्णकर सौधर्म में देव हुए । च्यवकर काकन्दी नगरी के रतिवर्धन राजा के पुत्र और सुदर्शना की कुक्षि से उत्पन्न प्रियंकर- शुभंकर हुए । राज्य का पालनकर दीक्षा ग्रहण की और आयुष्य पूर्णकर ग्रैवेयक में देव हुए । वहाँ से च्यवकर लवण-अंकुश हुए । पूर्वभव की माता सुदर्शना चिर समय तक संसार में भ्रमणकर इन दोनों का अध्यापक सिद्धार्थ हुआ है । इस प्रकार मुनि के वचन सुनकर बहुत से लोगों ने संवेग प्राप्त किया ।
संसार की घटमाला में वैरानुबन्धी प्रवृति भवोभव तक चालु रह सकती है उसका उदाहरण यह रामायण है । वसुदत्त गुणवती और श्रीकांत इस भव से लेकर लक्ष्मण सीता और रावण तक के भवों में उसी स्त्री के कारण मृत्यु को प्राप्त करते गये । वैर बढ़ता गया । गुणवती के जीव ने वेगवती के भव में मुनि भगवंत पर निष्कारण कलंक दिया । यह तो योग्य पिता की पुत्री थी । मुनि तपस्वी थे । उनका भक्त देव था । उसने उसी समय सजा दी और योग्य पिता ने तिरस्कार किया जिससे पाप प्रति प्रज्वलित बना और बहुत सारा पापमल उसी भव में धो डालि । अगर मुनि सामिन्य किन्तु शुद्ध होते , पिता अयोग्य होता तो मुनि पर कलंक का पाप नरक निगोद के भयंकर दु:खों को प्राप्त करवाता ही । अंनत संसार भ्रमण की सजा मिल ही जाती ।
श्रीकांत का जीव उस भव में गुणवती को भोग न सका और शंभु के भव में गुणवती के जीव वेगवती को बलात्कार से भोगी तो शापित बना और उसी वेगवती के जीव सीता के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ ।
रामायण में वासना के गुलामों की दुर्दशा का चित्रण इतने स्पष्ट रुप में दर्शाया है कि विवेक रुपी चक्षु को खोलकर रामायण का दर्शन करें तो वह वासना की वासना को खत्म करके ही रहे ।
वसुदत्त ने श्रीकांत को मारा , श्रीकांत ने शंभु बनकर , वसुभूति श्रीभूति बना तब श्रीभूति को शंभु ने मारा , श्रीभूति ने लक्ष्मण बनकर शंभु की आत्मा रावण को मारा । वैर की परंपरा चालु रही । आज भी दोनों नरक में एक दूसरे पर प्रहार कर ही रहे हैं । वैर की आग समभाव के जल बिना नहीं बुझती ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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4-3-2021
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( 116 )
गतांक से आगे :
रामचंद्र सेनानी कृतान्तवदन ने उसी समय दीक्षा ग्रहण कर ली । रामचंद्र जयभूषण केवली भगवंत को नमस्कार कर सीता के पास गया और सोचने लगा- मृदु अंगी यह सीता आतप आदि कैसे सहन करेंगी ? संयम भार कैसे वहन करेंगी ? अथवा जिसके सतीव्रत को तोड़ने में रावण भी समर्थ नहीं हुआ , वह सीता संयम प्रतिज्ञा को भी पूर्ण करेंगी ही । इस प्रकार सोचकर सीता को वंदन किया । इस प्रकार लक्ष्मण और अन्य राजाओं ने भी नमस्कार किया । रामचंद्र अयोध्या चला गया । कृतान्तवदन तप से तपकर ब्रह्मलोक गया । सीता का जीव साठ वर्ष तपकर , तैतीस दिनों का अनशन कर , बाईस सागरोपम आयुष्यवाला अच्युतकल्प का इन्द्र हुआ ।
यहाँ वैताढ्यपर्वत के कांचनपुर में कनकरथ , विद्याधरों के राजा ने मन्दाकिनी , चन्द्रमुखी इन दोनों कन्याओं के स्वयंवर में पुत्र सहित रामचंद्र-लक्ष्मण आदि राजाओं को आव्हान किया । रामचंद्र -लक्ष्मण ने अपने पुत्रों को भेजे । वहाँ मन्दाकिनी ने लवण को और चन्द्रमुखी ने अंकुश को वरा । लक्ष्मण के श्रीधर आदि अढ़ी सौ पुत्र क्रोध से अचानक ही युद्ध के लिए खड़े हुए । युद्ध के लिए तैयार होते उनको सुनकर लवण-अंकुश ने कहा- भाईओं के साथ कौन युदाध करेगा ? बड़े और छोटे पिता -चाचा में जिस प्रकार भेद नहीं है , वैसे ही उनके पुत्र हमारे में भी भेद न हो । लक्ष्मण के पुत्रों ने गुप्तचरों से यह जानकर लज्जालु बनें और खुद की निन्दा करने लगे ।
यहाँ पर लक्ष्मण के पुत्रों पर वासना ने घेरा डाला । परंतु लवण-अंकुश के विवेक ने श्रीधर आदि ढ़ाई सौ पुत्रों में विवेक दीप प्रज्वलित कर दिया और संसार की भयानकता समझकर स्वयं की भूल की क्षमा याचनाकर संविग्न बनें और महाबल मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की ।
विवाहित लवण-अंकुश अयोध्या चले गये ।
भामण्डल अपनी नगरी के महल पर खड़ा एकबार सोच रहा था । मैंने दोनों श्रेणियों को जीतकर सभी जगह लीला से विहार कर लिया है , अन्त समय में दीक्षा से पूर्ण मनोरथवाला होना है । उसी समय बिजली के गिरने से मर गया और देवकुरुक्षेत्र में युगलिक के रुप में जन्म लिया ।
हनुमान मेरुपर्वत के चैत्यों को वंदन करने के लिये गया था । लौटते समय सूर्यास्त के दर्शन से संविग्न हुआ । अपने नगर में जाकर , पुत्र को राज्य पर स्थापितकर धर्मरत्न आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । सात सौ पचास राजाओं ने उसके पीछे दीक्षा ग्रहण की । हनुमान की पत्नियों के साथ कई स्त्रियों ने दीक्षा ली । दीक्षित बनी राजा की पत्नियाँ आर्या लक्ष्मीवती के पास रहीं । हनुमान ने परमपद प्राप्त किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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5-4-2021
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( 117 )
गतांक से आगे :
रामचंद्र हनुमान को प्रव्रजित सुनकर सोचने लगा -भोग सुख को छोड़कर इसने कष्टकारी दीक्षा क्यों ग्रहण की ? उस समय अवधिज्ञान से भरत क्षेत्र को देखते इन्द्र ने रामचंद्र की चिन्ता को जानकर अपनी सभा में कहा -अहो! कर्मो की विषम गति ! चरम शरीरी जो रामचंद्र है , सावयं धर्म पर हंस रहा है और विषय से उत्पन्न सुख की प्रशंसा कर रहा है । इसका कारण मालूम हुआ -रामचंद्र-लक्ष्मण का परस्पर स्नेह संसार से अनिर्वेद का कारण है । उस समय कुतूहल से दो देव स्नेह की परीक्षा करने के लिए अयोध्या के महल में आ गये । माया से अचानक ही सर्व अन्त:पुर की स्त्रियों को रोती हुई लक्ष्मण को दिखायी । हा रामचंद्र ! कमलों के समान नयनवाले ! कमल के बन्धु सूर्य के समान ! यह आपका विश्व को भी भयंकर , अकारण मृत्यु क्या हुआ ? इस प्रकार रोती , छाती पीटती , केशों को खुला की हुई अन्त:पुर की स्त्रियों को देखकर , दु:खित लक्ष्मण ने कहा-क्या मेरे भाई मर गये है ? क्रूर भाग्य ने क्या किया ? इस प्रकार कहते लक्ष्मण के वचन के साथ ही जीव निकल गया । वह सिंहासन पर भी स्वर्ण स्तंभ का आधार लेकर फैलाये हुए अंगवाला स्थित हुआ । वे दोनों देव भी उसको मरा देखकर दु:खित हुए । हमने यह क्या किया ? इस प्रकार परस्पर कहने लगे । खुद की निन्दा करते हुए अपने कल्प चले गये । इधर अन्त:पुर की स्त्रियों ने लक्ष्मण को मरा देखकर केशों को खुलाकर रोने लगी । रामचंद्र उनका रोना सुनकर वहाँ आया और कहने लगा - अज्ञानता से भी अमंगल क्यों प्रारंभ किया है ? यह मैं जीवित हूँ और यह छोटा भाई जीवित है । कोई व्याधि इसको बाधा दे रही है । इस प्रकार कहकर वैद्यों को , ज्योतिषियों को बुलाकर मंत्र-तंत्रों का प्रयोग कराया । उसके विफल होने पर रामचंद्र मूर्च्छित हुआ । होश में आकर रोने लगा । सुग्रीव, बिभीषण, शत्रुघ्न भी ऊँचे स्वर में रोने लगे । प्रतिमार्ग, प्रतिघर , प्रतिदुकान में रोने से चारों ओर शोक अकेला ही छाया रहा । लवण-अंकूश ने रामचंद्र को नमस्कारकर कहा- हम दोनों चाचा की मृत्यु से भयभीत हैं । अचानक ही यह मृत्यु आ गिरती हैं । इत्यादि कहकर रामचंद्र को नमस्कारकर , अमृतघोष मुनि के पास दीक्षाग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया ।
रामायण में अनेक आश्चर्यरुपी रसों का रसास्वादन प्राप्त होता हैं । तद्भावी मोक्षगामी आत्मा भी संसार के भोग सुखों को छोड़कर दीक्षा लेनेवालों के विषय में ऐसा सोचे कि उसने भोग सुख छोड़कर दीक्षा क्यों ली ? यह भी एक महान आश्चर्य ! हनुमान जो रामचंद्र को अपना स्वामी मानता था । युद्ध में रावण को भी सहाय करने वरुण के साथ युद्ध में गया था । पर उसे स्वामी नहीं माना था । रामचंद्र के गुणों से आकर्षित होकर उन्हें स्वामी मानता था । ऐसे अपने भक्त की दीक्षा के समाचार से उपरोक्त विचार आये ।
एक बात यहाँ ओर स्पष्ट हो रही है कि उस समय मेरी दीक्षा है आप सभी को मेरी दीक्षा में पधारना होगा ऐसी प्रथा का प्रादुर्भाव शायद नहीं हुआ था । तभी तो दीक्षा के भाव हुए और उसी दिन या अष्टान्हिका महोत्सवपूर्वक चारित्र ग्रहण कर लेते थे ।
कुंभकर्ण , मंदोदरी , सीता , वैश्रमण , वाली , इन्द्र इन सब की दीक्षाओं के प्रसंग यही कहते है कि उस समय दीक्षा में विलंब लगभग कम होता था ।
रामचंद्र की इस विचारधारा ने इन्द्र को भी आश्चर्य में डाल दिया । परीक्षा करने आये देवों ने नींद में भी नहीं सोचा होगा कि हमारी परीक्षा का परिणाम ऐसा आयेगा ।
लक्ष्मण की मृत्यु ने लवण-अंकुश को हिला दिया । उनको संसार महाभयंकर लगा और लक्ष्मण का शव घर में पड़ा है और जाकर दीक्षा ले ली । लवण-अंकुश ने यही सोचा होगा कि जलती आग में से बाहर निकलने में देर नहीं लगानी चाहिए ।
क्रमशः
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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6-4-2021
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( 118 )
गतांक से आगे :
रामचंद्र भाई की विपत्ति से और पुत्रों के वियोग से बार-बार मूर्च्छित हुआ और मोह से कहने लगा -बन्धु ! मैंने क्या कभी तेरी अवमानना की हैं ? तू मौंन क्यों हैं ? तेरे ऐसे रहने पर मैं पुत्रों से भी छोड़ा गया हूँ । बिभीषण आदि ने एकत्रित होकर गदगद सहित रामचंद्र से कहा - प्रभु ! धैर्य धारण करें । लक्ष्मण के अंगसंस्कार और मरण के बाद की क्रियाएँ अब करनी चाहिए ।इस प्रकार कहने पर क्रोधित रामचंद्र ने उनसे कहा - रे दुर्जनों ! यह क्या हैं ! मेरा भाई जीवित हैं । तुम सबका मृतकार्य करना चाहिए । मेरा भाई दीर्घायुवाला हो । भाई! भाई ! वत्स ! बोलो! दुर्जनों को बोलने का मौंका मिल जायेगा । क्यों तू मुझे दु:खित कर रहे हो ? वत्स ! दुर्जन समक्ष तेरा क्रोध उचित नहीं है । इस प्रकार कह कर कंधे पर उसको रखकर दूसरी जगह चला गया । कभी स्वयं स्नान कराता , कभी विलेपनों से विलेपन करता , कभी उसके सामने दिव्य भोजनों से थाल को भरकर रखता , कभी गोद में , कभी पलंग पर रखता , कभी स्वयं बातचीत कर स्वयं जबाब देता । कभी अंगमर्दक बनकर स्वयं मर्दन करता । इत्यादि विफल चेष्टाएँ करते और अन्य कार्यो को भूले उसके छह मास बीत गये । शलाका पुरुषों के शरीर में छह मास तक विकृति नहीं होती ऐसा उनका औदारिक शरीर होता हैं । ऐसे शरीर के कारण और बलदेव का वासुदेव पर रहे स्नेह के कारण बलदेव, वासुदेव की मृत्यु का स्वीकार नहीं करता । स्नेह राग की यह पराकाष्ठा है कि शव को जीवित मानकर सब क्रिया करवाना । मारने की इच्छावाले इन्द्रजित एवं सुन्द के पुत्र रामचंद्र को उन्मत्त सुनकर वहाँ आये । अयोध्या की सेनाओं द्वारा रोका । रामचंद्र भी लक्ष्मण को अपनी गोद में रखकर वज्रावर्त धनुष का टंकार किया । तब जटायु के आसन के कांपने से माहेन्द्र कल्प से आकाशमार्ग से अन्य देवों के साथ आया । आज भी देव रामचंद्र के आधीन हैं इस प्रकार कहते हुए वे शत्रु भाग गये । उन्होंने सोचा रामचंद्र के मित्र देवता या रामचंद्र और आगे जायेंगे तो बिभीषण हमको मार देगा इस प्रकार सोचकर भयभीत और लज्जालु बने उन्होंने संवेग से अतिवेग मुनि के पास दीक्षा ली ।
पिताओं ने वैरभाव तजकर चारित्र ले लिया था फिर भी पुत्रों ने उस भाव को पुन: सींचन कर युद्ध के लिए तैयार हुए । रामचंद्र की पुण्यदशा से जागृत देवता सहाय करने के लिए आये । उनको भी सद्बुद्धि सुझी और चारित्र लेकर आत्म कल्याण किया ।
जटायु देव रामचंद्र के प्रतिबोध के लिए सामने रहकर सूखे वृक्ष को जल में सिंचने लगा । पत्थर पर सूखा गोबर रखकर कमलों का आरोपण करने लगा । अकाल में मरे बैल से हल के द्वारा बीजों को बोने लगा । यन्त्र में रेती डालकर तैल के लिए पीलने लगा । इस प्रकार अन्य भी असाध्य कार्य कर दिखाये । रामचंद्र ने उसको कहा - क्यों तू सूखे वृक्ष को सींच रहे हो , इत्यादि । देव ने भी कहा - जो तुम इतना जानते हो , तो मृतक को क्यों कन्धे पर वहन करे हो ? रामचंद्र ने लक्ष्मण के शरीर को आलिंगनकर कहा - तू अमंगल क्यों बोल रहा है ? नजरों के सामने से हट जा । इसी बीच कृतान्तवदन देव उसको समझाने के लिए आया । स्त्रीमृतक को कंधे पर रखकर रामचंद्र के समीप में फिरने लगा । रामचंद्र ने पूछा - क्या तुम पागल हो ? स्त्रीमृतक को वहन कर रहे हो । कृतान्त ने भी कहा -तू अमंगल क्यों बोल रहा है ? यह मेरी प्रेयसी है । तू क्यों शव को वहन कर रहा है ? इत्यादि उसके द्वारा दिखाये गये कारणों से चेतना को प्राप्त रामचंद्र सोचने लगा - क्या सत्य है कि मेरा अनुज जीवित नहीं है ? शव के लक्षण जब लक्ष्मण के शरीर में दिखायी देने लगे तब देवता का उपदेश उपयोगी बना और रामचंद्र समझ गये कि वास्तव में लक्ष्मण कभी का मर गया था ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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7-4-2021
( 119 )
गतांक से आगे :
उसके बाद वे दोनों देव , प्रतिबोधित रामचंद्ओ को अपने बारे में निवेदनकर अपने स्थान चले गये । रामचंद्र ने अनुज का मृतकार्यकर दीक्षा ग्रहण की इच्छावाला , शत्रुघ्न को राज्य ग्रहण करने का आदेश दिया । शत्रुघ्न के द्वारा भी दीक्षा ग्रहण का आग्रह करने पर लवण के पुत्र अनंगदेव को राज्य देकर अर्हद्दास श्रावक के द्वारा बताये गये मुनिसुव्रतस्वामी वंश के सुव्रत मुनि के पास शत्रुघ्न , बिभीषण , सुग्रीव , विराध और अन्य राजाओं के साथ रामचंद्र ने दीक्षा ग्रहण की । ' महाजनो येन गतः स पन्था ' कहावतानुसार रामचंद्र की दीक्षा की बात सुनकर उसके मित्र राजाओं ने भी संसार के विषमस्वरुप को देखकर कि रामचंद्र जैसे बुद्धिवान को भी स्नेह राग ने कैसे चक्कर में डाल दिया यह इस संसार का ही कारण है । ऐसा सोचकर उन सभी ने रामचंद्र के साथ दीक्षा ली । रामचंद्र के दीक्षा ग्रहणकरने पर सोलह हजार राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की । सैंतीस हजार स्त्रिओं ने दीक्षा ग्रहण की । श्रीमती साध्वी के परिवार में शिष्याएँ बनी । विविध अभिग्रहों को धारण करते रामचंद्र ने गुरु के समीप में साईठ वर्ष तक तपश्चर्या की । गुरु की आज्ञा से एकाकी विहार स्वीकारकर , भय रहित अटवी और पर्वत की गुफा में गये । उसी रात में ध्यान से युक्त रामचंद्र को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । चौदह राज प्रमाण विश्व को देखता हुआ , दो देवों के द्वारा मारा गया और नरक में गया अपने अनुज को जानकर सोचने लगा - मैं पूर्व जन्म में धनदत्त था और तब लक्ष्मण वसुदत्त नामक मेरा अनुज था । वहाँ भी अकृत्यकृत्य यह व्यर्थ ही मरा । इस भव में भी इसके सौ वर्ष कुमारपने में व्यर्थ गये मण्डलिपने में तीन सौ वर्ष , दिग्विजय में चालीस वर्ष , अग्यारह हजार पांच सौ साईठ वर्ष राज्य में । इस प्रकार अविरतिवान इसके बारह हजार वर्ष आयु संपूर्ण नरक के दलियें बांधने में गये । माया से वध करने वाले उन देवों का दोष नहीं है । कर्मो का ऐसा ही विपाक होता है । इस प्रकार सोचते रामचंद्र विशेषता से ममत्व रहित और तप-समाधि में अधिक निष्ठ हुए ।
एक दिन स्यन्दनस्थलपुर में छट्ठ उपवास के अन्त में पारणा के लिए प्रवेश किया । नयनों के लिए आनंदकारी उनको आते देखकर सम्मुख आये और अत्यन्त आनंदित नगर के लोगों ने नमस्कार किया । नगर की स्त्रियों ने अपने-अपने गृहांगण में उनके भिक्षा दान के लिए विचित्र भोजन से पूर्ण बर्तनों को आगे किये । नगर वासियों के हर्ष से लड़ाई होने पर , हाथियों ने आलान स्तंभो को उखाड़ दिये । घोड़े ऊँचे कानकर खड़े रहे। संयम धर्म में लीन रामचंद्र ने भी नागरिक द्वारा आगे किये आहार को ग्रहण नहीं किया किन्तु राजा के महल में गया । प्रतिनन्दिराजा के द्वारा संयम धर्म के उचित आहार से प्रतिलाभित किये गये रामचंद्र ने विधिवद् आहार ग्रहण किया । देवों ने सोनामोहरों की वृष्टि आदि पाँच दिव्य प्रकट किये । रामचंद्र भी अरण्य में गये फिर से नगर क्षोभित न हो इसलिए नगर में प्रवेश न करने का अभिग्रह ग्रहण किया । जब अरण्य में भिक्षा प्राप्त करुँगा, तब ही पारणा करुँगा अन्यथा नहीं । देह पर भी निरपेक्ष , प्रतिमाधारी , समाधि से युक्त वहाँ स्थित हुए । अन्य दिन वहाँ वक्रशिक्षित अश्व के द्वारा खींचा हुआ प्रतिनन्दि राजा आया । वह अश्व नन्दपुण्य नामक सरोवर के कीचड़ में फंस गया । पीछे ही सेना आयी । राजा ने उस अश्व को कीचड़ से निकालकर सैन्य का वहाँ पडावकर , स्नान किया और परिवार सहित भोजन किया । पारणा के इच्छुक रामचंद्रमुनि वहाँ आये । राजा सम्मानपूर्वक सामने जाकर शेष अन्न-पानी से प्रतिलाभित किया । आकाश से रत्नवृष्टि हुई । रामचंद्र की देशना से राजा आदि श्रावक बने । वहाँ से लेकर वनदेवियों से पूजे जाते रामचंद्र वहीं स्थित हुए और एक मास के बाद अथवा दो , तीन या चार महीनों के बाद पारणा करने लगे । कभी पर्यक आसन में , कभी नीचे भुजाओं को कर , उत्कटिक आसन में , ऊँचे बाहुकर , अंगूठे पर खड़े रहकर , एड़ी पर खड़े रहकर , इस प्रकार विविध आसन करते हुए तप करने लगे । अन्य दिन कोटिशिला गये । उसका आश्रय लेकर रात्रि में प्रतिमाधारी रामचंद्र मुनि क्षपकश्रेणि पर स्थित हुए और विशेष शुक्लध्यान पर चढ़े । तब सीता इन्द्र अवधिज्ञान से जानकर सोचने लगा - यदि ये संसारी हो , तब फिर से इनके साथ मेरा योग होगा ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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8-4-2021
( 120 )
गतांक से आगे :
मोहनीय कर्म आत्मा को किस प्रकार के विचारों में प्रेरित कर देता है उसका यह उदाहरण है । सीतेन्द्र जैसी आत्मा नियमा समकितधारी भी दूसरी आत्मा को संसार प्रति आकर्षित करने के पापकार्य में प्रवर्त हो जाती है । यह भी एक आश्चर्य । अनुकूल उपसर्गो से उपद्रव करुं , जिससे मेरे मित्र देव हो जाये । रामचंद्र के समीप आकर वसन्त से भूषित उद्यान की रचना की । कोकिला और भ्रमरों के शब्द प्रसारित हुए । सीता इन्द्र ने सीता का रुप बनाकर विविध स्त्रियों के साथ कहने लगी -प्रिय ! मैं आपकी प्रिया सीता हूँ । तब आपको छोड़कर दीक्षा ग्रहण की थी । बाद में मैं पश्चाताप करने लगी । इन रागी विद्याधरियों ने मुझे प्रार्थना की कि -तुम रामचंद्र का स्वीकार करों और उनको हमारे नाथ करों । इसलिए प्रभु मुझे और इनको स्वीकारकर क्रीड़ा करें इस प्रकार सीता इन्द्र के कहने पर वैक्रिय रुपधारी विद्याधर नारियाँ संगीत करने लगी । रामचंद्र उसकी चेष्टा से क्षुभित न होकर ध्यान में विशेष दृढ़ बनें उनको माघ शुक्ल द्वादशी के दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । सीता इन्द्र और अन्य देवों ने उनके केवलज्ञान का महोत्सव किया । स्वर्णकमल पर बैठे , चामर, छत्र से शोभित रामचंद्र केवली भगवंत ने धर्मदेशना दी । सीतेन्द्र ने देशना के अंत में क्षमा माँगकर वंदना की और लक्ष्मण , रावण की गति के बारे में पूछा । रामचंद्र ने कहा - शम्बूक , रावण और लक्ष्मण चौथी नरक में है। वहाँ से निकलकर रावण-लक्ष्मण पूर्वविदेह में विजयावतीपुरी में सुनन्द और रोहिणी के पुत्र जिनदास-सुदर्शन होंगे ।अर्हद् धर्म का पालनकर सौधर्मकल्प में देव बनेगें । वहाँ से च्यवकर विजयापुरी में श्रावक होगें । आयुष्य पूर्ण कर हरिवर्ष में युगलिक बनेंगे । उसके बाद देव बनेंगे वहाँ से च्यवकर विजयापुरी में कुमारवार्त राजा और रानी लक्ष्मी के कुमार जयकान्त -जयप्रभ बनेंगे । संयम का पालनकर लान्तक कल्प में जायेंगे। तुम अच्युतकल्प से च्यवकर इसी भरतक्षेत्र में सर्वरत्नमति नामक चक्रवर्ती बनोगे और वे दोनों तेरे पुत्र इन्द्रयुध-मेघरथ होंगे । तुम दीक्षा ग्रहणकर वैजयन्त कल्प में जाओगे । रावण का जीव इन्द्रायुध तीन सुंदर भवकर तीर्थंकर गोत्रकर्म का अर्जन करेगा । उसके बाद वह तीर्थंकर बनेगा । तू वैजयन्त से च्यवकर उसके गणधर बनोगे । उसके बाद दोनों मोक्ष जाओगे । लक्ष्मण का जीव तेरा पुत्र मेघरथ शुभ गति को प्राप्त करेगा । वहाँ से पुष्करद्वीप के पूर्वविदेह में रत्नचित्रापुरी में चक्रवर्ती होकर दीक्षा ग्रहण करेगा और तीर्थंकरपना प्राप्तकर निर्वाण प्राप्त करेगा । सीतेन्द्र ने यह सुनकर रामचंद्र को नमस्कार किया और स्नेह से लक्ष्मण के पास गया । वहाँ शम्बूक और रावण के विकुर्वे सिंहादि रुपों से लक्ष्मण के साथ युद्ध करते देखा । परमाधर्मिको ने इस प्रकार युद्ध करते तुमको दु:ख नहीं होगा, कहकर अग्निकुण्डों में डाल दिया । जलाये जाते और रोते उन तीनों को भी वहाँ से निकालकर तैल की कुम्भी में डाला । वहाँ से निकालकर भुन्ने के पात्र ऐसे कढ़ाही में डाला । इत्यादि उनके दु:ख को देखकर उसने असुरों से कहा - रे ! क्या तुम इनको नहीं जानते हो ? ये पुरुषोत्तम थे । दूर हट जाओं इस प्रकार उनकोरोककर शम्बूक और रावण से कहने लगा - तुम दोनों पूर्व में किये कर्म से इस नरक में आये हो । पूर्व वैर के परिणाम को देखकर अब भी वैर भाव क्यों नहीं छोड़ते हो ? इस प्रकार कहकर लक्ष्मण और रावण के प्रतिबोध के लिए रामचंद्र के द्वारा कहीं बातों को सुनाया । उन दोनों ने भी कहा -आप कृपालु ने सुंदर किया है । आपके शुभ उपदेश से हम दु:ख भूल गये हैं । पूर्वकर्मों के द्वारा अर्जित नरकावास दीर्घ है । उस दु:ख को कौन दूर करेगा ? सीतेन्द्र ने कहा -मैं तीनों को भी देवलोक में ले जाऊँगा । इन्द्र के द्वारा उठाये गये वे तीनों टुकड़ों में गिर गये । मिले अंगवाले उनको फिर से उठाया । वैसे ही गिर गये । उन्होंने सीतेन्द्र से कहा - उठाने पर भी जाते हमको दु:ख अधिक ही हो रहा है । आप स्वर्ग चले जाये ।
देवता किसी के दु:ख को , उसमें नरक के जीवों का तो दु:ख अंश मात्र भी दूर नहीं कर सकते । यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो रहा है ।
सीतेन्द्र ने उनको छोड़कर , रामचंद्र को नमस्कार कर , नन्दीश्वर आदि शाश्वत अर्हंत् तीर्थों की यात्रा के लिए गया । मार्ग में जाते हुए , देवकुरु प्रदेश में भामण्डल के जीव को देखकर , स्नेह के कारण प्रतिबोधितकर अपने स्थान गया । रामचंद्र ने केवलीपने में पच्चीस वर्ष तक भव्य प्राणियों को प्रतिबोधितकर पंद्रह हजार वर्ष आयुष्य का पालनकर मोक्ष प्राप्त किया ।
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।। इतिश्री जैन रामायण ।।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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