महावीर पर कविता
सुंदर कोमल गात लिये
चक्रवर्ती से भाग्य लिये
सुख साधन पग 2 पर
वैभव के रत्न बिखरे थे राह में
तुम पर फ़िर भी,
कैसे जिए इतने निश्पृह भाव में
तुम कौन पथ से आये
पथिक औऱ कैसी
क्लिष्ट संयम निग्रंथ यायावर सी
मनीषी सी राह चुनी
कैसे कर पाए लोभ संवरण
कैसे झेल पाये
दुर्दांत दुःख के जंझावत
वार देह पर
तुम जन्मजात ही बड़े आलोकिक थे
तुमको देखने मात्र से ही नभ विचरित देवों के
दुष्कर प्रश्न हल हुए
और तत्काल सन्मति नाम से ,
उन्होंने तुम्हें
विभूषित किये
है ,महावीर तुम महावीर ही थे
इतना बल कि जन्मते ही
तुम मेरू पर्वत को डोला दिया
8 वर्ष में यक्ष को भगा दिए
और महावीर नाम भूषित हुआ
मैमंत हस्ती को दर्शन मात्र से
वश में किया।जिससे बड़े बड़े यौद्धा
परास्त हुए।
पर संयम धारण कर
बल को संयमित कर
शूलपाणि जैसे अदने से
यक्ष के दिये मरणातंक
कष्ट सहते गए उसकी प्रताड़ना
अपनी निरंतरता लिए थी
तो आपकी सहनसक्ती
अबाध थी ,
जैसे देह से नाता तोड़ चुकेथे
सह रहे थे सारी यातनाएं सहज भाव से
थक के जब यक्ष चूर हुआ
सोच रहा था वो
ये मानव नही साधारणहै
ये आलौकिक देवपुरूष असाधारणहै ,
गिर पड़ा तत्क्षण पाँव में उनके
औऱ बोला कितना गुस्सा आरहा होगा
मुझ पर ,
मुझ निकृष्ट अधमी पर
कैसा लगता है देख मुझे है श्रेष्ठजन
महावीर ने कहा ठहरे हुए बोधित शान्त शब्दों में
शूलपाणि मेरे उद्धारक हो तुम
तुम्ही धर्म दलाल हो
तुमनें भव2 के कितने बंधनमेरे एक रात मे
तोड़ डाले
तुम से उपकारी पे रोष कैसा ?
और तुम्हारा दोष कैसा?
एक बात सुनो प्रेमसे प्रेम
औऱ नफरत से नफरत
तुम प्रेम के साज छेड़ो
वही तुम्हें मुक्ति दिलाएगी
27 भव के बंधन थे सहज नहीं छूट सकते
शीत में पेड़ो की छाँव में
ग्रीष्म में तेज सुर्य के ताप में
आतपना ली तुमने
एक ग्वाले ने कील डाल कर्ण के आरपार किया
हे प्रेम साधक प्रेम की अद्धभुत
परिभाषा रच दी
कर्म के पर्वत भेद तुम वीतराग बन गए
लोकालोक के सम्पूर्ण ज्ञाता
तुमने भक्त नहीं भगवान बनना सिखलाया
जो पुरुषार्थ करता हैं
वह भगवान बन सकता हैं
ऐसा उद्धरण बन महावीर ने सहजता से उत्तर दिया और कहा कि "आत्म कल्याण के पथ पर चलने वाला साधक स्वयं मुक्ति प्राप्त करता है आज तक कभी भी किसी देवराज की सहायता लेकर कोई भी अरिहंत नहीं बन सकता इसलिए सभी जीवो को अपनी मुक्ति का प्रयास स्वयं ही करना पड़ता
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