नमुत्थुणं 2


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (87)


*धम्म-सारहीणं-3*-चारित्रधर्म के सारथी ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।

अरिहंत परमात्मा चारित्रधर्म का प्रवर्तन, पालन और दमन किस तरह करते हैं ये पिछले लेखों में हमने समझा।


इस तरह के प्रवर्तन, पालन और दमन योग से ही परमात्मा धर्म के सारथी कहलाते हैं। वैसे दूसरी आत्माएं भी चारित्रधर्म का प्रवर्तन, पालन और दमन तो करते ही हैं, फिर भी धर्म के सारथी तो तीर्थंकर ही कहलाते है। क्योंकि वो स्वयं तो चारित्रधर्म में प्रवृत है ही, साथ ही अन्य को निमित्तभाव से प्रवृत्त करते हैं और अनेक आत्माएं भगवान के वचन के आधार से ही चारित्र धर्म मे प्रवृत्त है।


धर्मरथ के श्रेष्ठ सारथि परमात्मा को प्रणाम करते हुए प्रार्थना करते हैं कि,

हे नाथ!!!!आप हमारे भी धर्मरथ के सारथि बन कर हमको मोक्ष तक पहूंचा दो।


लौकिक व्यवहार में जिस तरह कहा जाता है कि श्रीकृष्ण जिस के सारथि बने, उसके विजय में कोई शंका नहीं होती, उसी तरह हे नाथ!!!!आप जो मेरे धर्मसारथी बन जाओगे तो फिर तो भव पार होने में मुझे कोई शंका ही नहीं है।




                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (88)


*घम्म-वर-चाउरन्त-चक्कवट्टीणं-1*- धर्म के श्रेष्ठ चातुरंत चक्रवर्ती ऐसे परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।


चारित्र धर्म ही श्रेष्ठ चक्र है। चक्रवर्ती का चक्ररत्न जिस तरह शत्रु का नाश कर के चक्रवर्ती को 6 खंड के स्वामी होने में सहायक बनता है, उस तरह चारित्रधर्मरुपी चक्र भी अंतरंग शत्रु का नाश कर के चार गति के परिभ्रमण की पराधीनता को दूर कर के आत्मा को अनंत ज्ञानआदि गुणसंपत्ति का स्वामी बनाता है। इस कारण  इसे चार गति का अंत करने वाला चातुरंत चक्र कहा गया है। 


वैसे चार गति तो शाश्वती है, नित्य रहने वाली है, फिर भी जिन आत्माओं के अंतर में चारित्रधर्म परिणाम पाता है, वो आत्माऐं इन चार गति के चक्कर में से बाहर निकल जाती है और उस तरह वे आत्मा चार गति का अंत करने वाली बनती है।


चक्रवर्ती का चक्र तो, केवल इस लोक में, और वो भी पुण्य हो, तब तक ही साथ रहता है और उसके उपरांत परलोक में अविवेकी आत्माओं को तो नरकआदि गति के दुखों को भी प्राप्त करवाते हैं। 

चक्री का चक्र द्रव्यभाव प्राण का घातक है। जब कि धर्मचक्र उभयप्राण का रक्षण करने वाले हैं। 

धर्मरूपी चक्ररत्न आलोक में भी सुख देता है और परलोक में भी सद्गति की परंपरा का सर्जन कर के अंत मे मोक्ष के अनंत सुख को प्राप्त करने वाला होता है, इसलिए ही ये श्रेष्ठ चक्र है।


साथ ही चारित्रधर्म को ही श्रेष्ठ कहा गया है। उसका कारण यह है कि ये त्रिकोटि परिशुद्ध है, अर्थात चारित्र का आद्य भाग, मध्यम भाग और अंतिम भाग तीनों भाग अविसंवादी है, उत्तरोत्तर प्रगति कारक है।


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जय जिनेन्द्र।            14-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (89)


*घम्म-वर-चाउरन्त-चक्कवट्टीणं-2*- धर्म के श्रेष्ठ चातुरंत चक्रवर्ती ऐसे परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।


चारित्रधर्म ही श्रेष्ठ है उस पर विवेचन चल रहा है।

इसके तीन भाग, श्रेणी के विषय को हम समझने का प्रयत्न कर रहे हैं।

धर्म का आद्य भाग यानी कि अपुनर्बन्धक अवस्था। यह दशा में स्वीकार की हुई द्रव्यविरति भी कल्याण का कारण बनती है। 

धर्म का मध्यम भाग यानी कि सम्यकदृष्टि प्राप्त स्थिति। ये स्थिति काल में स्वीकार किये हुए व्रत-नियम के माध्यम से आत्म शुद्धि का कारण बनती है,

और चारित्रधर्म का अंतिम भाग यानी कि सर्व संवरभाव का चारित्र। ये तो निश्चय ही मोक्ष का कारण बनता है।

 

इस तरह यह धर्मरूप चक्र ही जगत में श्रेष्ठ है। और यह श्रेष्ठ चक्र को धारण करने वाले परमात्मा ही श्रेष्ठ चातुरंत चक्रवर्ती है।


इन चार गति का अंत दान, शील, तप और भावरूप चार प्रकार के धर्म से होते हैं। तात्विक कोटि के दान धर्म के कारण ही धनआदि की महामूर्छारूप अतिरौद्रमहामिथ्यात्व का नाश होता है। शील के पालन से संयम गुण प्रगट होते ही अविरति का पाप अटकता है। 

तप धर्म के पालन से मन और इंद्रियों का संयम होने से कर्म का नाश होता है। 

और भावधर्म के पालन से परभव-पौद्गलिकभाव दूर होते हैं और आत्माभाव में स्थिरता आ जाती है। 


इस तरह से चार प्रकार के धर्मों द्वारा अंतरंग शत्रु का विनाश होता है। 

ऐसे श्रेष्ठ दान, शील, तप और भाव के स्वामी परमात्मा श्रेष्ठ धर्म के परम उत्कृष्ट चक्रवर्ती है।

 

यह पद बोलते हुए श्रेष्ठ धर्मरूपी चक्र द्वारा चार गति का नाश करने वाले परमात्मा को हृदयस्थ कर के, प्रणाम करते हुए प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!! आपको किये हुए इस नमस्कार से हम भी यह श्रेष्ठ चारित्रधर्म रूपी चक्र के स्वामी बन कर चार गति का अंत करने वाले बन सके।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


               -To be cont'd...




                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (90)


*अप्पड़िहय-वर-नाण-दंसण-धराणं-1*-नाश जिसका न हो ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।


समग्र घाती कर्मों का नाश कर के परमात्मा ने केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया है। 

ज्ञान जीव का स्वभाव है। इसलिए सर्व जीवों में कम या अधिक अंश में ज्ञान तो होता ही है। लेकिन वो ज्ञान, कर्म से आवृत होता है, इस कारण जगतवर्ती सर्व पदार्थों को देखने में असमर्थ होते हैं। कर्म के आवरण के कारण जीव का वो ज्ञान स्खलित होता है। 


अरिहंत परमात्मा ने साधना कर के ज्ञान और दर्शनगुण को ढंकने वाले घातीकर्मों का सर्वथा नाश करके, कभी नाश न हो ऐसा अप्रतिहत ज्ञान प्राप्त किया होता है। इस कारण वो कोई भी प्रकार की स्खलना के बिना एक ही समय में सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देख सकते हैं। और पहचान सकते हैं।


परमात्मा को प्राप्त यह ज्ञान, जिस तरह अप्रतिहत होता है, उसी तरह श्रेष्ठ भी है। क्योंकि ज्ञानावर्णनीयकर्म और दर्शनावर्णीयकर्म का सर्वथा नाश होने से उसमें केवलज्ञान और केवल दर्शन गुण प्रगट हो गया है। जिसके द्वारा वो जगतवर्ती सर्व पदार्थों को यथार्थ स्वरूप से देख सकते हैं, पहचान सकते हैं। और यह गुण के कारण ही उनमे अनंती लब्धि और अनंती सिद्धि प्रगट हुई होती है। ऐसे अप्रतिहत और श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन गुणों को धारण करने वाले परमात्मा को यह पद द्वारा हमको नमस्कार करना है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


               -To be cont'd...




जय जिनेन्द्र।            16-11-2020


*नूतन वर्षाभिनंदन*


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (91)


*अप्पड़िहय-वर-नाण-दंसण-धराणं-2*-नाश जिसका न हो ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।


यहां परमात्मा को ज्ञान और दर्शन दोनों गुणों से युक्त कहा गया है। उसका कारण यह है कि ज्ञान, पदार्थ के विशेष बोध स्वरूप है और दर्शन, वो पदार्थ के सामान्य बोध स्वरूप है। 

यूं तो पदार्थ के विशेष बोध में सामान्य बोध का समावेश हो ही जाता है, उस तरह भगवान को मात्र, वर-नाण-धराणं कहा होता तो चल सकता, परंतु दरअसल जगतवर्ती तमाम पदार्थ, सामान्य और विशेष दोनों धर्म से युक्त है। इस कारण ज्ञेय में (वस्तुमें) दोनों धर्म होने से, विशेष धर्म को जानने के लिए ज्ञान और सामान्य धर्म को जानने के लिए दर्शन गुण से युक्त परमात्मा है, ऐसा कहा गया है। 


यह पद बोलते हुए, विशिष्ट प्रकार की साधना कर के केवलज्ञान और केवलदर्शन गुणों को प्राप्त करने वाले परमात्मा को स्मृतिपट पर ला कर नमस्कार करते-करते प्रभु के पास प्रार्थना करनी है कि, 

हे नाथ!!!! आपने जिस तरह साधना द्वारा कर्मों के पड़ल को हटा कर केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रकाश प्राप्त किया है, उसी तरह आपको किया हुआ यह नमस्कार हमें भी केवलज्ञान आदि गुणों की प्राप्ति का अमोध कारण बनो।

 

केवलज्ञान व  केवलदर्शन, छद्मस्थ अवस्था के नाश के बिना संभव नहीं है, इस विषय पर हम आगे विवेचन समझेंगे।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


               -To be cont'd...



                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (92)


*वियट्ट-छउमाणं-* व्यावृत छ्द्म वाले (जिनके घाती कर्म निवृत्त हुए हैं ऐसे) परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।


जो छादन करे- ढंक सके वो छद्म कहलाते हैं। व्युत्पत्ति प्रमाण ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आत्मगुणों को ढंकनेवाले घातीकर्म, वो ही छद्म है।

जीनके घाती कर्मों का सर्वथा नाश हुआ है, वो भगवंत ही व्यवृत्त छद्म वाले हैं।


ज्ञानावर्णनीयकर्म आत्मा के ज्ञान को ढंकते हैं।

दर्शनावर्णनीय कर्म आत्मा के दर्शनगुण को ढंकते हैं। 

मोहनियकर्म आत्मा के सम्यगदर्शन और अनंत चारित्रगुणों को ढंकते हैं।

और अंतरायकर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य गुण को ढंकते हैं।

 

दूसरी तरह से सोचा जाए तो छ्द्म यानी दोष या रागादि कषाय, ये जिनके सर्वथा नाश हुए हैं, वो भगवंत ही व्यावृत्त छद्म वाले हैं।

यह पद बोलते हुए, जिनके समस्त दोष नाश हो चूके हो और उस कारण जिनके वचन निःशंक स्वीकार करने योग्य है और जो समस्त जगत के लिए पूजनीय है, ऐसे परमात्मा को हृदयस्थ कर के, प्रणाम कर के प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!!बहूमानपूर्वक आप को किया हुआ नमस्कार हमारे राग, द्वेष अज्ञान आदि दोषों  के निवारणU के कारण बने। 


यह पद बोलने हुए परमात्मा को नमस्कार कर के उनके वचन का अनुसरण कर के, हुम भी ऐसे भाव को प्राप्त कर सके ऐसा भाव व्यक्त करना है। 


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


    

जय जिनेन्द्र।            18-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (93)


*जिणाणं जावयाणं-* अंतरंग शत्रुओं को जीतने वाले और जिताने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।

स्वयं में रहे शत्रुओं पर ये विजय तो पाते ही है और उसके उपरांत अन्य आत्माओं को भी विजयी करने में अपना सम्पूर्ण योगदान देते हैं।


इस संसार में प्राप्त हुए जन्म, मरण, आधी, व्याधि आदि सर्व दुख का मूल कारण राग-द्वेष आदि अंतरंग शत्रु ही है। 

यहां जन्म को भी दुःख रूप कहा, उसका कारण ये है कि जन्म है तो मृत्यु निश्चित है। और जन्ममरण का ये चक्र ही संसार चक्र है जो दुख रूप है। 

और यदि यहां जन्म पा कर यथायोग्य धर्माचरण नहीं किया तो फिर ये संसारचक्र में फंसे ही रहना है।


श्री तीर्थंकर देव ने इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है और उस तरह इस संसार के परिभ्रमण का अंत कर दिया है।

तदुपरांत सदउपदेश आदि द्वारा योग्य आत्माओं को कषायों पर विजय प्राप्त करने हेतू  मार्गदर्शन देने के रूप से सहाय भी की है। इस कारण वह अंतरंग शत्रुओं को जितने वाले और जिताने वाले दोनो कहलाते है।


जैनशासन में ईश्वरतत्व की यह महत्ता है कि उपासना करने वाले आत्मा को यह स्वतूल्य बनाता है। परमात्मा ने स्वयं तो रागादि पर विजय की सर्वश्रेष्ठ साधना की ही है, साथ ही योग्य ऐसे अनेक आत्माओं को भी इन रागादि के सकंजे में से मुक्त करा कर अपने जैसे ही बनाया है और हमेशा बनाना चाहा है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


       


                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (94)


*तिण्णाणं तारयाणं-* संसार सागर से तिरे हुए और दूसरों को तिराने वाले ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।


अरिहंत परमात्मा स्वयं तो संसार सागर से तिरे हुए ही है, परंतु धर्मदेशना द्वारा और गुणसम्पन्नता द्वारा अनेक को संसारसागर से तिराने वाले भी है। 

केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद परमात्मा का मोक्ष तो निश्चित ही होता है। फिर भी परम कृपालु परमात्मा केवल परोपकार की दृष्टि से, पूर्णतया निस्वार्थ भाव से अन्य जीवों को भी मोक्ष निरंतर प्राप्त होता रहे उसके लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। 


यहां समझने योग्य ये बात है कि केवलज्ञान प्राप्त होते ही, निश्चित मोक्षगामी आत्मा को क्या स्वार्थ हो सकता है ?, जिनका भविष्य, सिद्धगति निश्चित है उनको इस संसार मे फिर क्या पाने योग्य हो सकता है कि वो जीवों को तारने के कार्य मे कोई स्वार्थ या अपेक्षा रखे ?।


इन महात्मा का उद्देश्य केवल लोककल्याण है, पूरी तरह करुणा दृष्टि से ये अन्य को उपदेश आदि द्वारा, संसार सागर से तीराने का सत्कार्य करते हैं।


इन्ही कारणों से हमे प्रभु परमात्मा पर, उनके उपदेश आदि पर सम्पूर्ण विश्वास है और रहना भी आवश्यक है।

मोक्ष सुख की इच्छा रखने वाले जीवों के लिये ये निर्विकल्प सत्य है।


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जय जिनेन्द्र।            20-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (95)


*बुद्धाणं बोहयाणं-* स्वयं बोध पाए हुए और अन्य को बोध कराने वाले ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।


अज्ञान रूपी निद्रा में सोये हुए, इस संसार के परिभ्रमण में पूरी तरह भ्रमित, उत्थान व उद्धार के मार्ग से चलित हुए, इस जगत में, हम पामर मानवों में केवल श्री तीर्थंकरदेव ही ऐसे है जो अन्य किसी के उपदेश के बिना ही स्वसंवेदित ज्ञान से जीवादि तत्त्वों को जानते हैं। 


आरिहंत परमात्मा की ये विशेषता है के इन्हें सच्चे ज्ञान का बोध स्वयंभू प्राप्त है।

और उस प्राप्त बोध के द्वारा दर्शित मार्ग पर चल कर ये स्व-कल्याण कर पाते हैं।


परंतु, यहां इतने में उनका कार्य नहीं रुकता। वे परम कृपालु दयावान होने के कारण दूसरों को भी धर्मबोध करवाते हैं। इसलिए बुद्ध ओर बोधक भी कहलाते हैं।


इनके बोध स्वरूप परम सत्य की पहचान जब अन्य आत्माओं को प्राप्त होती है तब योग्य आत्माओं का भी कल्याण सरल हो जाता है।

प्रभु की पूर्ण निस्वार्थता के कारण इनके बोध का स्वीकार निर्विवाद सत्य की तरह योग्य आत्माओं द्वारा ग्रहण किया जाता है।

और अंत मे वही बोध ऊनके भी तीरने का कारण बनता है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            21-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (96)


*मुत्ताणं मोअगाणं-1*- कर्म से मुक्त हुए और अन्य को कर्मों से मुक्त कराने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ। 


विचित्र प्रकार के विपाको को देने वाले विविध कर्मों के बंधनों से परमात्मा प्रयत्न करके स्वयं मुक्त हुए हैं। और अन्य को कर्मों से मुक्त होने का मार्ग दिखाने द्वारा कर्म से मुक्त करवाते हैं। 


जिणाणं जावयाणं से ले कर मुत्ताणं मोअगाणं, यह 4 पदों द्वारा परमात्मा की लोकोत्तम चार अवस्था बताई गई है। 

ये इस प्रकार से है - 

मोहरूप महाशत्रुओं को जितने वाले परमात्मा शुक्ल ध्यान पर आरूढ़ होते हैं। मोह की एक-एक प्रकृति को परास्त कर के प्रभु नववे गुणस्थानक में आते हैं। 

स्थिर और निश्चय ध्यान द्वारा बाकी रहे हुए सूक्ष्म लोभ का नाश कर के विभु रागादि शत्रुओं के परम विजेता बनते हैं। 

शत्रु की ऐसी शक्ति नहीं है कि अब वह  कहां से भी इनकी आत्मा में प्रवेश कर सके। ऐसे दसवें गुणस्थानक के अंत में परमात्मा मोह के परम विजेता बनने स्वरूप *जीत* अवस्था को प्राप्त करते हैं।


मोह का नाश होने से, स्थिर और निश्चल बने हुए परमात्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावर्णनीय और अंतराय कर्म के पीछे पड़ जाते हैं। बारहवे गुणस्थानक के अंत मे वो भी जड़मूल से खत्म कर के वो दोषसागर से पूर्णतया तीर जाते हैं। 

इस तरह से तेरवे गुणस्थानक पर परमात्मा *तीर्ण* अवस्था को पाते हैं।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            22-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (97)


*मुत्ताणं मोअगाणं-2*- कर्म से मुक्त हुए और अन्य को कर्मों से मुक्त कराने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ। 


गतांक में हमने जैसे देखा, उस तरह दोषों का सर्वथा नाश होने से प्रभु को जाज्वल्यमान केवलज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है। उसके कारण चराचर जगत का उनको बोध होता है। उस रुप से बुद्ध अवस्था प्रभु को प्राप्त होती है। 

और साथ मे प्रकृष्ठ पूण्य के अनुभव स्वरूप तीर्थंकर नाम कर्म का उदय होता है।


घातीकर्म स्वरूप पाप कर्म का नाश, प्रबल पुण्य का उदय और स्वगुणों का संपूर्ण प्रगटीकरण हो जाए उसके बाद अल्प आयुष्य बाकी हो तब परमात्मा के बाकी रहे हुए अघाती कर्मों का नाश करने के लिए वे शैलेशीकरण करते हैं। 


चौदहवे गुणस्थानक में शुक्लध्यान के अंतिम दो पाये पर आरूढ़ हो कर परमात्मा अयोगीपन को पाते हैं और योग का निरोध होने से सर्वकर्म से *मुक्त* होते हैं।


इस तरह से उत्तर गुण का विकास कर के परमात्मा मोक्ष तक पहुंच जाते हैं। 

जब वह संसार में होते हैं तब देशना आदि द्वारा जगत को रागादि से जिताने वाले आदि गुणों को वर चुके होते हैं, और मोक्ष में जाने के बाद भी उनके वचन का या प्रतिमाजी आदि का निमित्त ले कर योग्य आत्माएं सब मोह आदि को जीत कर  संसार सागर से तिर कर, केवलज्ञान को पा कर सर्वकर्म से मुक्त होते हैं। 


इसलिए परमात्मा के लिए ही "जिणाणं जावयाणं"आदि विशेषण योग्य है। 

गतांक में प्रकाशित ये चार पद बोलते हुए, रागादि को जीते हुए और जीताने वाले, तीरे हुए और तिराने वाले, बोध पा चूके और बोध प्राप्त कराने वाले,  मुक्त हो चूके और मुक्त कराने वाले परमात्मा को याद कर के नमस्कार करते हुवे प्रार्थना करनी है कि, 

है नाथ!!!! आप मुझको भी रागादि दोष से मुक्त कर के आप के समान बना दो।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            23-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (98)


*सव्वन्नुणं सव्व दरिसीणं-* सर्व को जानने वाले और सर्व को देखने वाले ऐसे परमात्मा  को मेरा नमस्कार थाओ।


सर्व को जानना (साकार उपयोग) वो सर्वज्ञ

और 

सर्व का दर्शन (निराकार उपयोग) करना वो सर्व दर्शी।

भगवान जगतवर्ती सर्व पदार्थ को जानते है और देखते हैं।  

वैसे "अप्पडीहयवरनाणदंसणधराणं"- ये पद द्वारा परमात्मा अप्रतिहत ज्ञान- दर्शन को धारण करने वाले हैं, ऐसा कहा है, उससे भगवान में श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन गुण है, वो तो कहा ही गया था। 

फिर भी विशेषतः सर्व पदार्थ विषयक परमात्मा का ज्ञानदर्शन, मोक्ष में जाने के बाद भी सदाकाल के लिए साथ मे ही रहने वाले हैं। मोक्ष में जाने के बाद भी प्राप्त हुए ये प्रधान गुण का परिक्षय (लेश मात्र भी नाश) होता नहीं है। वो समजाने के लिए उसका पुनः उल्लेख किया गया है। अर्थात तीर्थंकर अवस्था मे और सिद्धावस्था दोनो में ये गुण होते हैं, ऐसे बताया है।


हमारी सामान्य मान्यता प्रायः ये होती है के सिद्धिगति को प्राप्त करने पर ये ज्ञानवस्था नहीं होती होगी, परंतु ये सत्य नहीं।

ये ज्ञानदर्शन के महान गुण शाश्वत है, मोक्ष में प्रवेश के बाद भी साथ ही रहने वाले हैं।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            24-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (99)


*सिव-मयल- मरुअ- मणंत-मक्खय- मव्वाबाह- मपुणरावित्ति- सिद्धिगइ-नामधेयं-ठाणं- संपत्ताणं -1*- शिव-अचल-अरूज़-अनंत-अक्षय-

अव्याबाध और जहां से पुनरागमन न करना पड़े ऐसी सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त किया हो, ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।


अब यह अरिहंत भगवंतों का जो सदाकाल के लिए स्थान है, वो कैसा है ये बतलाते हैं। 

अरिहंत परमात्मा सर्व कर्मों का क्षय कर के जो स्थान में जाते हैं वह स्थान को सिद्धि गति कहा जाता है। 

व्यवहारनय की दृष्टि से अरिहंत भगवान तो सिद्ध होने के बाद सिद्धशिला पर रहते हैं। और निश्चयनय (समभीरूढनय) की दृष्टि से सिद्ध आत्माऐं अपने आत्मा में ही रहते हैं। यानी कि वह स्वगुण में आनंद प्राप्त करते हैं। इस तरह सिव-मयलादि  विशेषण अरिहंत परमात्मा में घटते हैं, अर्थात उनको शोभीत करते हैं।


सिव-मयलादि विशेषण यूं तो सिद्ध भगवंत के हैं, अपितु व्यवहारनय से, स्थान और स्थानी का  अभेद करके यहां वह विशेषण सिद्धिगति के बतलाए हुए हैं। 

उदाहरण के तौर पे, जो यदि नगर के लोग उदारता, गंभीरता आदि गुणों से युक्त हो तो वह नगरी ही गुणीयल नगरी कहलाती है। उसी तरह शिव, अचल आदि गुणयुक्त सिद्ध की आत्माएं जो स्थान में रहती है, वह स्थान को भी व्यवहार से शिवादी गुणयुक्त कहा जाता है।


अनंत काल से संसारी जीव जो चार गति रूप संसार में रहते हैं, वो स्थान सिद्धिगति से पूर्ण विरोधाभास वाला अशिव उपद्रवों से भरा हुआ है। इन दोनों स्थान की यदि तूलना की जाये तो सिद्धिगति का आदर अत्यंत वृद्धिमान होता है और उपद्रव आदि से युक्त जीव को निरुपद्रवादिवाले स्थान प्राप्त करने की अभिलाषा और प्रवृत्त होती है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            25-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (100)


*सिव-मयल- मरुअ- मणंत-मक्खय- मव्वाबाह- मपुणरावित्ति- सिद्धिगइ-नामधेयं-ठाणं- संपत्ताणं -2*- शिव-अचल-अरूज़-अनंत-अक्षय-

अव्याबाध और जहां से पुनरागमन न करना पड़े ऐसी सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त किया हो, ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।

 

कल से हम सिद्धिगति और इस संसार की तूलना का विवेचन देख रहे हैं।


*शिव*- पूरा संसार उपद्रव से भरा हुआ है। जब कि सिद्धिगति में उपद्रव का नामोनिशान भी नहीं है। क्योंकि बाहय या अंतरंग कोई भी प्रकार का उपद्रव, कर्म के कारण ही प्राप्त होता है। सिद्धात्माऐं सर्वथा कर्म से रहित है, इस कारण वो निरूपद्रव स्थान को प्राप्त कर चुके हैं।


*अचल*- अचल संसार मे किसी का स्थान ऐसा नहीं है कि जो बाह्य या अंतरंग तरह से स्थिर हो। जब कि सिद्धिगति कभी भी चलायमान न हो, ऐसी अचल है।


*अरूज़*- जहां शरीर है वहां रोग होने की संभावना है। सिद्धअवस्था में सडन, पडन आदि स्वभाव वाला शरीर किसी का भी नहीं होता है, इस कारण सिद्धिगति पूर्णतया रोगमुक्त अवस्था वाली गति है।

 

*अनंत*-अनादि काल से प्रवर्तित संसार के सुखद या दुखद सर्व भाव अंत वाले है। 

जब कि सिद्धिगति को पाए हुए सर्व आत्मा के ज्ञानादि गुण अनंत है। उनको प्राप्त हुए अव्याबाध सुख अनंत है और  उनको अनंत काल तक वहां ही रहना है। इसलिए सिद्धिगति अनंत है यानी कि यह गति का कभी भी अंत नहीं होता। 


*अक्षय*-संसार के दैवी सुख भी क्षय पाने वाले नाशवंत है। सदास्थायी नहीं है, लेकिन सिद्धिगति, वो आत्मा की शुद्ध अवस्था स्वरूप है। स्वभावभूत यह अवस्था की प्राप्ति होने के बाद उसका किसी भी तरह से क्षय नहीं होता। इसलिए वह अक्षय है। यहां स्थिति का नाश नहीं है। 


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            26-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (101)


*सिव-मयल- मरुअ- मणंत-मक्खय- मव्वाबाह- मपुणरावित्ति- सिद्धिगइ-नामधेयं-ठाणं- संपत्ताणं -3*- शिव-अचल-अरूज़-अनंत-अक्षय-

अव्याबाध और जहां से पुनरागमन न करना पड़े ऐसी सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त किया हो, ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।


पिछले दो पोस्ट्स से हम सिद्धिगती और इस संसार की तूलना देख रहे हैं।


*अव्याबाध*- शरीर और कर्म के साथ आत्मा जब तक जूडी होती है तब तक कर्मों के कारण शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार की पीड़ा जीव की निरंतर होती रहती है। लेकिन सिद्धिगति में पीड़ा करने वाले शरीर, मन या कर्म कुछ भी नहीं है। मात्र अमूर्त आत्मा है। अमूर्त अवस्था होने से वहां कोई बाधा होती नहीं है।


*अपुनरावृत्ति*- संसार में विभिन्न स्थानों में पुनः पुनः जीव परिभ्रमण करते रहते हैं। जब कि मोक्ष में गए हुए जीव को पुनः संसार में आना नहीं है। पुनः जन्म लेना नहीं है। वहां अनंत अनंत काल तक,  वहां के गुण में ही रमणता करनी है। इसलिए सिद्धीगति अपुनरावृत्ति होने योग्य है। 

ऐसी सिद्धिगति नाम के स्थान को परमात्मा ने प्राप्त किया हुआ है। 


यह पद बोलते हुए, दुख से भरे इस संसार से पूर्णतया विरोधाभास वाले, महासुख के स्थानभूत मोक्ष और वहां रहे हुए महासुख में रमण करते परमात्मा को नजर समक्ष ला कर, उनको प्रणाम करते हुए प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!! आप को किया हुआ यह नमस्कार हम को शीघ्र, आप को प्राप्त ऐसे गुणों के स्थानभूत, सिद्धिगति को प्राप्त करवा दे।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            27-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (102)


*नमो जिणाणं जियभयाणं-1*-भयों को जिन्होंने जीते हो, ऐसे जीनों को मेरा नमस्कार हो।

 

जन्म मरण और संयोग वियोग से सर्जन हुए यह संसार में कोई स्थान ऐसा नहीं है कि जहां भय - डर ना हो। 

कोई जीव चाहे देवलोक में जन्मा हुआ हो, ऐशो आराम प्राप्त हो, दैवी शक्तियां भी मिली हुई हो और महासुख की प्राप्ति हुई हो, फिर भी वहां मृत्यु का तो भय होता ही है। ये एक भय ही जीव को विचलित करने में सक्षम है।


यहां पृथ्वीलोक में भी अच्छे से अच्छे व्यक्ति का संयोग हुआ हो, बहोत आनंद प्राप्त हुआ हो, परंतु उसी से यहां भी फिर वियोग का दुख तो निश्चित होता ही है। 

उसी तरह दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है की संसार में चाहे सुख और सुखिजन दिखते तो है ही परंतु संसार फिर भी सारा भय से भरा हुआ है। 


हर व्यक्ति को भिन्न भिन्न कारणों से अनेक प्रकार के भय सताते ही रहते हैं।

किसी को धन गंवाने का भय, तो किसी को कुटुम्बीजन को गंवाने के भय।

मृत्यु, वृद्धावस्था या स्वास्थ्य संबंधी भय।

यहां कोई भी व्यक्ति पूर्णतया भयमुक्त नहीं।


कोई स्थान ऐसा नहीं है कि जहां सात भयों में से एक भी भय ना हो। भगवान ने यह समग्र संसार को अलविदा कर के परम आनंददायक मोक्ष को प्राप्त किया है। इसलिए अब उनको मरण का, वियोग का या अन्य कोई भी प्रकार का भय नहीं है।




जय जिनेन्द्र।            28-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (103)


*नमो जिणाणं जियभयाणं-2*-भयों को जिन्होंने जीते हो, ऐसे जीनों को मेरा नमस्कार हो।


परमात्मा संसार से मुक्त होने से, और मोक्ष को प्राप्त कर लेने से मृत्यु या अन्य कोई वियोग आदि के भय से पूर्णतया मुक्त हो चूके हैं।

क्योंकि भय का मूल कारण है कर्म संयोग वाला संसार, जहां कर्म जनित दुःख और सुख की परंपरा जीव को निश्चिन्त नहीं होने देती। वो निरंतर भय से घिरा हुआ ही होता है। और भगवान उससे मुक्त हुए हैं। 


ऐसे वह भयमुक्त है और राग द्वेष को जीत चूके हैं, इसलिए वो जिन है। यह रागादि के विजेता और भयमुक्त भगवंत को हमारा नमस्कार हो।


यह पद बोलते हुए, भय से भरे हुए इस  संसार को और भय के कारण विह्ववल हुए अनंत जीवों को एक तरफ, और भय से सर्वथा मुक्त हुए परमात्मा को नजर समक्ष ला कर, विचार करना है कि निर्भय ऐसे परमात्मा मेरी समक्ष है और भयावह ऐसे यह संसार से मुक्त होने के लिए निर्भय ऐसे परमात्मा का ही मुझे शरण है, ऐसे विश्वास से इनको भाव पूर्वक किया हुआ नमस्कार साधक आत्मा को तत्काल भय में से उगार कर निर्भय, स्वस्थ और शांत बना देता है। 


इन कारणों से ही जब कोई आपत्ति, विपत्ति आती है तब खास यह पद का जाप किया  जाता है। भाव पूर्वक का यह जाप, भय को प्राप्त कराने वाले पाप कर्मों का नाश करा कर, निर्भयता के कारणभूत पुण्य कर्म के उदय में सहायक बनते हैं।

 

प्रथम पद 'नमोडत्थु णं' में 'नमो' शब्द रखा गया है। और यहां इस पद में भी प्रथम 'नमो' शब्द रखा गया है, ईसका प्रयोजन यही है कि आदि से अंत तक सर्व पदों में नमो शब्द को जोडना है, ऐसा बतलाया गया है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (104)


तैतीस विशेषणों द्वारा भावअरिहंतो को नमस्कार किया, ये अरिहंतो के प्रति विशेष भक्ति के कारण, उनकी विशेष उपस्थिति के लिए अब तीन काल के सर्व द्रव्य तीर्थंकरों को नमस्कार करते हुए कहते हैं,


*जे अ अइया सिद्धा, जे अ भविस्संसति णागए काले,*

*संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि-1* - जो अरिहंत परमात्मा, भूतकाल में सिद्ध हुए है, जो भविष्यकाल में सिद्ध होने वाले हैं और वर्तमान काल मे जो (द्रव्य अरिहंत रुप) विद्यमान है, वो सर्व अरिहंत भगवंतों को मैं त्रिविध वंदन करता हूँ।


तीनों काल के द्रव्य जिनों के वंदन की यह गाथा का अर्धघटन कुछ ऐसा भी देखा गया है, जिसका अर्थ यह था, "अतीतकाल में जो सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में अन्य गति में रहे हुए, अपितु, भविष्य में सिद्ध होने वाले हैं और वर्तमान में जन्म  ले चूके हैं, अर्थात विहरमान है और छद्मस्थ अवस्था मे विचर रहे हैं,  वह तीन काल के द्रव्य जिन को में त्रिविधयोग से वंदन करता हूं।

-धर्मसंग्रह वृत्ति 


आज तक भूतकाल में अनंती उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी हो गई है। वह सर्व उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में भरत-ऐरावत में 24-24 तीर्थंकर अनंती बार और महाविदेह में अनंत तीर्थंकर हुए हैं, और भूतकाल जिस तरह अनंता है, उसी तरह भविष्य काल भी अनंतकाल है उसका कोई अंत नहीं है। भूतकाल की तरह ही अनंत भविष्य में अनंता तीर्थंकर अभी होने वाले हैं। 



*"



जय जिनेन्द्र।            30-11-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (105)


*जे अ अइया सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए काले,*

*संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि-2* - जो अरिहंत परमात्मा, भूतकाल में सिद्ध हुए है, जो भविष्यकाल में सिद्ध होने वाले हैं और वर्तमान काल मे जो (द्रव्य अरिहंत रुप) विद्यमान है, वो सर्व अरिहंत भगवंतों को मैं त्रिविध वंदन करता हूँ।


भूत, वर्तमान और भविष्य काल में वीभिन्न क्षेत्रों में हुए और होने वाले तीर्थंकर परमात्मा के विषय मे हम समीक्षा कर रहे हैं।

अन्य क्षेत्र के साथ पांचो महाविदेह क्षेत्रों में भी हजारों तीर्थंकर की आत्माएं जन्म ले चुकी है, और द्रव्यजिन रूप में भी अनेक अवस्थाओं में वह विद्यमान है। 

उन द्रव्य जिन को भी यह पद द्वारा स्मृति में लाना है। 


यह पद बोलते हुए अनंत भूतकाल, आने वाले अनंत भविष्यकाल और वर्तमान काल तीनों को मनःपट पर उपस्थित कर के, विभिन्न समय में हुए और होने वाले, चाहे कद से, वय से भिन्न परंतु, सत्ता स्वरूप से, गुण संपत्ति से, समान ऐसे अनंत अरिहंत परमात्मा को नजर समक्ष ला कर उनके गुणों से मन को उपरंजित कर के, वाणी से यह शब्द बोल कर और काया से दो हाथ को जोड़ कर मस्तक झुका कर नमस्कार करना है। 


इस तरह से उपकारीयों को नमस्कार कर के ही जीव मोक्ष में जाने के लिए योग्यता का संपादन कर सकता है। और उसके द्वारा उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए धर्माराधना आदि में आत्मा को जोड़ कर अपने मोक्ष रूपी लक्ष्य को प्राप्त करता है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            1-12-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (106)

*संपदा*

 

ये सूत्र भगवान की स्तवना स्वरूप है।

सूत्र में अलग अलग पद की संपदा बताई गई है। 

यह सम्पदाएँ इस प्रकार है,


1 स्तोतव्य संपदा

2 सामान्य हेतु संपदा

3 असाधारण हेतु संपदा

4 सामान्य उपयोग संपदा

5 उपयोग हेतु संपदा

6 विशेष उपयोग संपदा

7 सकारण स्वरूप संपदा

8 आत्मतुल्य-परफल-कर्तृत्व

9 प्रधानगुण अपरिक्षय-प्रधानफ्लाप्ति-अभय संपदा


*1. स्तोतव्य संपदा-*

सूत्र के प्रथम दो पदों की पहली संपदा बताई गई है। बुद्धिमान जीवों को ऐसा प्रश्न होता है कि स्तुति करने योग्य कौन है?

उसके उत्तर स्वरूप, स्तुति करने योग्य अरिहंत भगवंत है, यही स्तोतव्य संपदा में बतलाया गया है।


*2. सामान्य हेतु संपदा-* 

अरिहंत भगवंत स्तुति करने योग्य है वो देखा। यहां प्रश्न होता है कि अरिहंत भगवंत ही स्तवना करने योग्य क्यों?

उसके सामान्य और विशेष कारण, "प्रधान साधारण असाधारण हेतू संपदा" नाम की दूसरी संपदा में बताया गया है। उसको योगशास्त्रकारआदिने सामान्य हेतू संपदा कहा है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (107)

*संपदा*

 

ये सूत्र भगवान की स्तवना स्वरूप है।

सूत्र में अलग अलग पद की संपदा बताई गई है। 

यह सम्पदाएँ इस प्रकार है,


1 स्तोतव्य संपदा

2 सामान्य हेतु संपदा

3 असाधारण हेतु संपदा

4 सामान्य उपयोग संपदा

5 उपयोग हेतु संपदा

6 विशेष उपयोग संपदा

7 सकारण स्वरूप संपदा

8 आत्मतुल्य-परफल-कर्तृत्व

9 प्रधानगुण अपरिक्षय-प्रधानफ्लाप्ति-अभय संपदा


*3. असाधारण हेतू संपदा-*

'तित्थयराणं' और ' सयं संबुद्धाणं' यह दोनों पदों को परमात्मा के असाधारण धर्म स्वरूप बतलाये गये हैं, क्योंकि यह दोनों धर्म अरिहंत की आत्मा के सिवा कहीं भी नहीं मिलते। 


अरिहंत परमात्मा ने तीर्थ का प्रवर्तन कर के हम पर बहोत बड़ा उपकार किया है। इस कारण प्रभु हमारे लिए स्तवनिय है। 

उसके उपरांत परमात्मा को किसी ने बोध नहीं दिया है। वह स्वयं संबोधित है। 

दूसरी आत्माओं की तरह जो वह अन्य के उपदेश से धर्ममार्ग में जूड़े होते तो भगवान को उपदेश देने वाले अन्य उपदेशक हमारे उपकारी भी हो जाते।  लेकिन ऐसा नहीं है भगवान तो स्वयं ही श्रेष्ठ बोधि प्राप्त कर चूके होते हैं, इसलिए हमारे ऊपर उन्ही का उपकार है, और उस तरह वो वंदन के योग्य है। यूं दो पद द्वारा स्तुती के असाधारण कारण बताए गए हैं। 


बुद्धिमान को पुनः प्रश्न होगा कि ऐसे प्रभु का अनादि काल से कैसा स्वरूप होगा कि जिसके कारण वह यह भव में अरिहंत भगवंत बने, तो यह कारण, आगे के 4 पदों से बनी स्तोतव्य संपदा 'असाधारण हेतु संपदा' नाम की तीसरी संपदा में बतलायी गयी है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (108)

*संपदा*

 

ये सूत्र भगवान की स्तवना स्वरूप है।

सूत्र में अलग अलग पद की संपदा बताई गई है। 

यह सम्पदाएँ इस प्रकार है,


1 स्तोतव्य संपदा

2 सामान्य हेतु संपदा

3 असाधारण हेतु संपदा

4 सामान्य उपयोग संपदा

5 उपयोग हेतु संपदा

6 विशेष उपयोग संपदा

7 सकारण स्वरूप संपदा

8 आत्मतुल्य-परफल-कर्तृत्व

9 प्रधानगुण अपरिक्षय-प्रधानफ्लाप्ति-अभय संपदा


*4. सामान्य उपयोग संपदा-*

अरिहंत भगवन क्यों स्तुति करने योग्य है ये असाधारण हेतू संपदा में हमने कल देखा।


अनादि काल से परमात्मा का स्वरूप कैसा है यह 'पुरीसुत्तमाणं' पद से बताया गया।

संयम स्वीकारने के बाद वे कैसे पराक्रमी थे यह 'पुरिस- सिहाणं' द्वारा बताया गया, और केवल ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद वह परिवारादी के लिए गंधहस्ति तुल्य किस तरह है यह 'पुरिसवर-गंध-हत्थिणं' पद द्वारा बताया गया। 


अंत में, अर्थात, मोक्ष की प्राप्ति के पश्चात वह कैसे हैं, यह 'पुरिस-वर-पुंडरीयाणं' पद द्वारा बतलाकर निगोद अवस्था से ले कर अंतिम समय तक परमात्मा का स्वरूप कितना विशिष्ट था यह इस संपदा में बतलाया गया है। 

इतना जानने के बाद अब प्रेक्षावान को प्रश्न होगा कि ऐसे विशिष्ट भगवान से हम को क्या लाभ??? उसके समाधान के लिए ही चौथी 'सामान्य उपयोग संपदा' बताई गई है। क्योंकि प्रेक्षावान लोग फलप्रधान प्रवृत्ति को करने वाले होते हैं।


*5. उपयोग हेतु संपदा-*'लोगुत्तमाणं' आदि पांच पदों द्वारा स्तोतव्य ऐसे अरिहंत भगवंतों का सामान्य उपयोग बताया गया है। यहा सामान्य उपयोग कहने का कारण यह है कि श्रुत और चरित्र रूप धर्म मे श्रुत धर्म वो सामान्य धर्म है। भगवान लोक के नाथ बनते हैं। लोक का हित करते हैं। लोक के प्रदीपक या प्रद्योतक बनते हैं। 

ये उपदेशरूप श्रुतधर्म की अपेक्षा से है। 

ये श्रुतधर्म, चारित्र धर्म की अपेक्षा से सामान्य धर्म है। इसलिए ये चार पद रूप 'सामान्य उपयोग संपदा'बताई गई है।

 

और भगवान सामान्य उपयोगी किस तरह बने? उसका मूलभूत कारण क्या है? वो बतलाने के लिए पांच पदों की 'उपयोग हेतू' संपदा बताई गई है।


*"पामर"*

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*आधार :-*

*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*

*"सूत्र संवेदना-2"*


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जय जिनेन्द्र।            4-12-2020


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                        *शक्रस्तव*

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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (109)

*संपदा*

 

ये सूत्र भगवान की स्तवना स्वरूप है।

सूत्र में अलग अलग पद की संपदा बताई गई है। 

यह सम्पदाएँ इस प्रकार है,


1 स्तोतव्य संपदा

2 सामान्य हेतु संपदा

3 असाधारण हेतु संपदा

4 सामान्य उपयोग संपदा

5 उपयोग हेतु संपदा

6 विशेष उपयोग संपदा

7 सकारण स्वरूप संपदा

8 आत्मतुल्य-परफल-कर्तृत्व

9 प्रधानगुण अपरिक्षय-प्रधानफ्लाप्ति-अभय संपदा


*6. विशेष उपयोग संपदा-* 

अभय से लेकर बोधि की प्राप्ति कराने तक सामान्य से प्रभु ने जीवों पर क्या क्या उपकार किया है वो देखा। चारित्र धर्म की प्राप्ति करवाने द्वारा भगवान विशेष उपकार क्या करते है वो बाद के पांच पदरूप छठवी विशेष उपयोग संपदा में बताते है।


*7.सकारण स्वरूप संपदा-*

चारित्र रूप धर्म प्रदान करने द्वारा विशेष उपकार करने वाले अरिहंत भगवंत कैसे स्वरूप में रहे हुए हैं, वो बताने के लिए सातवी संपदा 'सकारण स्वरूप संपदा' है। 

सकारण इसलिए कहा गया है कि जब भगवान श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन को धारण करते हैं, तब ही स्तुति करने योग्य होते हैं और वो ज्ञान-दर्शन के धारक छद्म (छाद्ममस्थिक भाव) में गए बिना प्राप्त नही होता।


*8.आत्मतुल्य- परफल- कर्तृत्व-* 

भगवान ने जो फल प्राप्त किया, वो ही फल वो अपने भक्तों को देने का कार्य करते हैं, ये बतलाने की लिए जो पदों का प्रयोग किया गया है उन पदों की 'आत्मतुल्य- परफल- कर्तृत्व' नाम की आठवी संपदा बताई गई है।


स्वयं सरीखा दुसरो को बनाना। जो फल स्वयं को मिला है, वो ही फल दूसरों को प्राप्त करवाने का परमात्मा का यह परम उपकार सदा स्मरण में रहे तो परमात्मा के प्रति अहोभाव, आदरभाव अत्यंत बढ़ जाता है।


*9. प्रधानगुण अपरिक्षय-* प्रधानफलाप्ति-अभय संपदा- 

दीर्धदृष्टि वाले विचारक पुरुष को परमात्मा का इतना स्वरूप जानने के बाद भी ऐसी जिज्ञासा होती है कि ऐसे परमात्मा अंत मे कौन से अक्षय गुण और अक्षय फल प्राप्त करते है?

वो 'प्रधानगुण अपरिक्षय- प्रधानफलाप्ति-अभय संपदा' (मोक्ष फलप्राप्ति संपदा) में बतलाया गया है। अथवा अरिहंत भगवंत जो मोक्ष अवस्था को प्राप्त कर चुके है, उनका  स्वरूप बताया है।


*"पामर"*

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       *जैनम जयति शासनम*


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जय जिनेन्द्र।            5-12-2020


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महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...

                             (110)

*पूर्णाहूति*

*Conclusion*


इस सूत्र के अर्थ भावार्थ को समझ कर, इसका चिंतन मनन कर के यदि हम ये सूत्र का पाठ करें तो निश्चित रूप से हमारे भावों में परिवर्तन होगा।

वैसे अन्य सूत्रों की तरह इस सूत्र को केवल बोला जाये, चैत्यवंदन में हो या प्रतिक्रमण, बस सिर्फ बोलने के लिये ही, फुल स्पीड में, तो भावों का अभाव तो अवश्य ही रहेगा साथ ही प्रभाव का अभाव भी रहेगा और परिणाम स्वरूप उद्धेश्य का भी और फल का भी अभाव, अर्थात, ध्येय की अपूर्णता और फल की अप्राप्ति।


ये सही है कि आज हम सभी के पास धैर्य की कमी है। हम सभी यही कहते हैं के हमारे पास समय ही नहीं तो कोई भी अनुष्ठान व विधि में धीरज से इन सूत्रों का पाठ कहाँ से होगा?


परंतु, कुछ सूत्र ऐसे हैं, जिस में अरिहंत परमात्मा की स्तुति की गई है, गुणगान गाये गए हैं, उनके प्रति भक्ति, आदर सन्मान प्रकट किया गया है। ऐसे सूत्र में भाव की परम आवश्यकता है, वरना इनका महत्व नहीं रहता और हमारे द्वारा इनका सही मूल्यांकन भी नहीं होता।


इंद्र महाराजा ने स्वयं इस महान सूत्र के उच्चारण द्वारा इस पर अहोभाव व्यक्त किया है, ऐसा ये सूत्र और साथ मे ऐसे और महाप्रभावी सूत्र हमारे मानव जीवन की अमूल्य धरोहर है। हमारे प्रचंड पुण्योदय के कारण ये हमे इतनी सुगमता से प्राप्त है।

हम इनका महत्व समझे, इन स्तोत्रों द्वारा प्रभु परमात्मा की अनुपम भक्ति करें और स्व-पर कल्याण के पथ पर अग्रसर हो जायें, ये ही अभ्यर्थना।


वीतराग की आज्ञा विरुद्ध, पूज्य साध्वीजी म. सा की रचना विरुद्ध रूपांतर में, भाषांतर में कोई भूल, कोई क्षति रह गयी हो तो हॄदय पूर्वक मिच्छामि दुक्कडम।


*"पामर"*

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*"सूत्र संवेदना-2"*


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