जैन रामायण2
🌞 _*Veer Gurudevaay's exclusive*_...
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_*📿 जैन रामायण 📿*_
26:1:21
के
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 53 ]
गतांक से आगे:-
सीता ने वनवास की बात सुनते ही तुरंत निर्णय लिया और ' जहाँ वृक्ष वहाँ छाया ' की कहावत को चरितार्थ कर दी । सासुजी के पास वनवास में जाने की अनुमति मांगी सासु ने यह नहीं सोचा कि मेरे पुत्र की सेवा हो जायेगी । उसने अपने बहु के कष्ट के विषय में सोचा और कहा कि तेरी यह सुकोमल काया की ओर देख , तू वनवास के क्षुधा, पिपासा , कांटे कंकरों के दु:ख कैसे सहन करोगी? सीता ने आप वीर माता हैं वैसे मैं वीर पत्नी हूँ इस प्रकार के प्रत्युत्तर द्वारा सासु को संतोषितकर सीता चली ।
लक्ष्मण की सोच प्रथम तो आक्रोश भरी रही पर अंत में सदविवेक पूर्वक निर्णय लिया । यहाँ सुमित्रा भी अपनी सज्जनता प्रकटीत करती दिखायी देती है। यह कहते हुए कि रामचंद्र को गये कितनी देर हुई तुम्हें शीघ्रता करनी हैं । शीघ्र जाइये । तो अपराजिता लक्ष्मण को रुकने के लिए कहती है । तू तो यहाँ रुक जा तुझे देखकर भी मैं खुश रहूँगी ।
इन सभी बातों में सभी दूसरें के हीत का विचार करते ही दिखते है । इसे ही पुण्य से मिला परिवार कहा गया है ।
यहाँ भरत ने राज्य ग्रहण नहीं किया । कैकेयी खुद के ऊपर आक्रोश करने लगी । दीक्षा की उत्सुकता वाले राजा ने रामचंद्र को लाने के लिए सामन्त और मंत्रियों को भेजा । पश्चिम दिशा की ओर जाते रामचंद्र के पास शीघ्र गये और वापिस लौटने के लिए प्रार्थना की तो भी नहीं लौटें । वे भी साथ चलने लगे । विन्ध्याचल के पश्चिम की ओर मालवदेश की सीमा के पर्वत के अटवी के मध्य में , गम्भीरानदी के तट पर , रामचंद्र ने सामन्त आदि से कहा - यहाँ से वापिस लौट जाओ । इसके बाद कष्टकारी मार्ग है । मेरे समान अथवा पिता के समान भरत की सेवा करें । वे रोते हुए वापिस लौट गये । अश्रु सहित उनके देखते देखते , रामचंद्र ने नदी को पार कर लिया । सामन्त आदि के अयोध्या आने पर , दशरथ ने भरत से कहा - रामचंद्र और लक्ष्मण वापिस नहीं आये । तू राज्य ग्रहण कर । मेली दीक्षा में विघ्न मत करो । भरत ने कहा - मैं राज्य नहीं लूँगा । रामचंद्र को खुश कर मैं स्वयं ले आऊंगा । कैकेयी ने भी कहा -सत्य प्रतिज्ञा वाले आपने भरत को राज्य दे दिया , परंतु यह ग्रहण नहीं कर रहा है । इसको , अन्य माताओं को और मुझे भी दु:ख हो रहा है । मुझ पापिन के द्वारा अविचारकर कार्य किया गया । भरत के साथ जाकर , रामचंद्र और लक्ष्मण को वापिस लेकर आऊँगी ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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U
27-1-2021
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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(54)
गतांक से आगे :
राजा से आज्ञा प्राप्त कर , पुत्र और अमात्यों के साथ , छह दिनों के बाद उस वन में आयी । सभी ने उसको नमस्कार किया । भरत ने भी रामचंद्र को नमस्कार कर कहा -अयोध्या के राज्य पर आसीन होकर , मुझ पर लगे कलंक को दूर करें । लक्ष्मण आपका मंत्री होगा , मैं सेवक और शत्रुघ्न छत्रधर बनेगा । कैकेयी ने भी कहा - तू भ्रातृवत्सल है , इसलिए भाई के वचनों के अनुसार कार्य करो । न यह तेरे पिता का दोष है और न ही भरत का , किन्तु मेरा ही दोष है । रामचंद्र ने कहा - सज्जन पुरुष प्रतिज्ञा नहीं छोड़ते हैं । पिता ने इसको राज्य दिया था , और मैंने इस बात को स्वीकारा था । दोनों की वाणी झूठी कैसे हो ? इस प्रकार कहकर रामचंद्र ने सीता के द्वारा लाये गये जल से सर्व सामन्त के समक्ष भरत का अयोध्या के राज्य पर अभिषेक किया ।
कैकेयी ने मांगते तो मांग लिया पर उस समय उसे यह ख्याल न आया कि मेरे कारण परिवार में इतनी विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो जायेगी । उसने भरत के राज्य न स्वीकारने की अड़िगता को देख ली । भरत वास्तव में विरागी हो गया है इसे मैं रागी नहीं बना सकूंगी । अब उसे अपने कृत्य का पश्चाताप हो रहा था । इधर भरत को दशरथ राजा ने राज्य स्वीकारने के लिए मेरी दीक्षा में अंतराय कारक न बनने हेतु बहुत समझाया पर भरत भरत ही था । उसने न माना और माँ को अत्यधिक कठोर शब्दों में उपालंभ दिया । फिर दोनों मंत्रियों को साथ लेकर समझाकर रामचंद्र को वापिस लाने हेतु गये पर रामचंद्र रामचंद्र था । वचन प्रतिज्ञा की अड़िगता ने और उस समय की रामचंद्र की आज्ञा की अवहेलना भरत भी न कर सका और राज्य स्वीकारना पड़ा ।
इसमें सभी पात्र अपने -अपने स्थान पर अपनी -अपनी उत्तमता ही प्रदर्शित करते दिखाई देते हैं ।
उनको विसर्जित कर रामचंद्र ने स्वयं दक्षिण दिशा की ओर प्रयाण किया । भरत भी अयोध्या गया । पिता और भाई की आज्ञा से राज्य को स्वीकार किया । दशरथ ने सत्यभूति के पास बहुत से परिवार के साथ दीक्षा ग्रहण की । भरत भी अर्हन्त पूजा में उद्यत बना और रामचंद्र के पहरेदार के समान राज्य की रक्षा करने लगा रहा । रामचंद्र ने मार्ग में चित्रकूट पर्वत का अतिक्रमण कर , कितने ही दिनों के बाद, अवन्ती देश के एक भाग में आया ।
क्रमश:
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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U
28-11-2020
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 55 )
पंचम सर्ग
गतांक से आगे :
रामचंद्र , थकी हुई सीता के विश्राम के लिए वटवृक्ष के नीचे बैठा । उस देश को सभी ओर से उज्जड़ देखकर , लक्ष्मण से कहा - यह देश किसी के भय से अभी ही उज्जड़ हुआ है । क्योंकि उद्यान पानी वाली नहरों से युक्त हैं , इक्षुवाटिकाएँ इक्षुओं से युक्त हैं और फल रस से युक्त हैं । जाते हुए किसी आदमी से पूछा - यह देश किसलिए उज्जड़ हैं ? और तू कहाँ जा रहा हैं ? ऐसे पूछने पर उस आदमी ने कहा - इस अवन्ती देश के अवन्तीपुरी में सिंहोदर राजा राज्य करता हैं । उसने इस देश के दशांगपुर के राजा वज्रकर्ण नामक सामन्त राजा को रोक रखा हैं । वज्रकर्ण राजा एकबार शिकार करने के लिए वन में गया था और वहाँ पर कायोत्सर्ग में खड़े प्रीतिवर्धनर्षि को देखकर , आप इस वन में क्यों खड़े हैं ? ऐसा पूछा मुनि ने कहा - ' आत्महित के लिए ' । वज्रकर्ण ने कहा - खान-पान आदि से रहित इस वन में आत्महित कहाँ से हो सकता हैं ? मुनि ने उसे योग्य जानकर , आत्महित करने वाले धर्म के बारे में कहा । उस धर्म को श्रवणकर वह भी श्रावक बना । अर्हन्त देव और साधुओं के बिना अन्य किसी को भी मैं नमस्कार नहीं करुँगा , इस प्रकार अभिग्रह धारण किया । दशांगपुर जाकर सोचने लगा । मेरे द्वारा किये गये अभिग्रह से , सिंहोदर राजा अनमस्करणीय हैं , उससे मेरा शत्रु बन जायेगा । उसने अपनी अंगुठी में मणिमय श्री मुनिसुव्रतस्वामी की प्रतिमा स्थापितकर , अंगुठी में रहे , उस बिम्ब को नमस्कार करते हुए सिंहोदर को नमस्कार करता रहा ।
किसी अधम पुरुष ने सिंहोदर को यह बात कह दी। सिंहोदर क्रोधित हुआ । किसी ने जाकर , उसके क्रोध के बारे में वज्रकर्ण से निवेदन किया । तूने कैसे जाना कि वह क्रोधित हुआ है ? इस प्रकार पूछने पर , उस पुरुष ने कहा-मैं कुन्दनपुर में समुद्रसंगम नामक वणिक पुत्र विद्युदंग हूँ । बर्तन आदि सामग्री लेकर क्रय-विक्रय के लिए उज्जयिनी नगरी गया था । कामलता नामक वेश्या को देखकर एक रात्रि भोग के आशय से गया । उसके दृढ़ राग से बांधे हुए मैंने जीवन पर्यन्त अर्जित किये हुए धन को छह महीनों में ही व्यय कर दिया । अन्य दिन उसने मुझसे कहा - सिंहोदर की रानी श्रीधरा के जो दो कुण्डल हैं , वैसे ही मुझे लाकर दो । मैं धन के अभाव से , अपहरण करने के लिए रात्रि के समय खात्र के द्वारा राजा के महल में गया । तब श्रीधरा ने सिंहोदर से पूछा - आज आप क्यों व्याकुल दिखाई दे रहे हैं ? उसने कहा - जब तक वज्रकर्ण मुझे नमस्कार न करे या मेरे द्वारा मारा न जाये , तब तक निद्रा कहाँ से आयेगी ? प्रातः मित्र और पुत्र सहित उससे युद्धकर नमस्कार करवाऊंगा या उसके पूरे परिवार को मार दूँगा । इस प्रकार सुनकर चोरी छोड़ साधर्मिकवात्सल्य से आपको कहने के लिए मैं शीघ्र आया हूँ । वज्रकर्ण ने यह सुनकर नगरी को धान्य , घास से भर दी । सिंहोदर ने उस नगरी को घेरकर , दूत के द्वारा उसको कहा - इतने काल प्रणाम करने में माया से तूने मुझे ठगा है । अब अंगूठी के बिना आकर मुझको नमस्कार कर , अन्यथा कुटुम्ब सहित यम के घर जाओगे । वज्रकर्ण ने जबाब दिया-मेरा यह अभिग्रह है कि , मैं अन्य को नमस्कार नही करुँगा । यहाँ पोरुष का अभिमान नहीं हैं , किन्तु धर्म का अभिमान हैं । नमस्कार के बिना तुम सब कुछ ले लो , मुझे धर्मद्वार दो । धर्म ही मैरा धन हो । सिंहोदर उसकी बात अस्वीकार कर , नगरी को रोककर देश को लूंट रहा हैं । इससे यह देश मानव रहित हैं । मैं भी कुटुम्ब सहित भाग गया । यहाँ धनवानों के महल जला दिये गये हैं और जीर्ण हो चुकी मेरी कुटिया को भी जला दी हैं । मेरी क्रूर गृहिणी ने धनवानों के घर से , गृह उपयोगी उपकरणों को लाने के लिए भेजा है । उस खराब वचन से भी मुझे यह शुभ फल मिला कि देव के समान आप मुझे दिखायी दिये । रामचंद्र ने उसको रत्नस्वर्णमय सूत्र देकर उसकी दरिद्रता मिटा दी ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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29-1-2021
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 56 )
गतांक से आगे :
उसको विसर्जितकर, रामचंद्र सभी के साथ दशांगपुर गया और नगरी के बाहरी चैत्य में भगवंत को नमस्कार कर रहा । रामचंद्र के आदेश से लक्ष्मण नगर में प्रवेश कर , वज्रकर्ण के समीप में गया । उसने भी सुंदर आकार वाले लक्ष्मण को उत्तम जानकर , भोजन के लिए निमन्त्रित किया । तब लक्ष्मण ने कहा - पत्नी सहित मेरे स्वामी बाहर ठहरे हुए हैं । पहले मैं उनको भोजन कराऊँगा । लक्ष्मण सहित वज्रकर्ण भव्य भोजन लेकर रामचंद्र के समीप आया । भोजन के बाद रामचंद्र के द्वारा भेजे गये लक्ष्मण ने सिंहोदर के पास जाकर कहा - भरत राजा वज्रकर्ण के साथ तेरे विरोध का निषेध कर रहा हैं । सिंहोदर ने भी कहा - भरत भी भक्तों पर कृपा करता हैं । अभक्तों पर नहीं । यह मेरा सामन्त राजा है और मुझे नमस्कार नहीं करता , इसलिए मैं कैसे इस पर खुश होऊँ ? लक्ष्मण ने कहा - यह अविनयी नहीं हैं , किन्तु दूसरों को प्रणाम नहीं करने की प्रतिज्ञावाला हैं , उससें धर्मी हैं । भरत की आज्ञा अलंघनीय हैं । सिंहोदर ने कहा - वज्रकर्ण के पक्ष में यह भरत कौन हैं ? लक्ष्मण क्रोधित हुआ और कहने लगा - मैं यह भरत को बताऊँगा । तू युद्ध के लिए तैयार हो जा । सैन्य सहित युद्ध करते सिंहोदर को बांधकर , रामचंद्र के पास ले गया । सिंहोदर रामचंद्र को देखकर , नमस्कार कर कहा - आप यहाँ पधारे हैं , ऐसा मैने नहीं जाना । क्षमा करें और कर्तव्य का आदेश करें । रामचंद्र ने कहा -वज्रकर्ण के साथ संधि करों । उसने भी वह मान लिया । रामचंद्र की आज्ञा से विनयी ऐसा वज्रकर्ण भी आया । अंजली जोड़कर कहने लगा - भाग्य से आप दोनों भरतार्धपती हो । अन्य सभी आपके दास हैं । मेरे स्वामी को छोड़ दें । मेरे प्रणाम की इच्छा करने से आपने शिक्षा दी बस अब आप क्षमा कर दें । रामचंद्र के भ्रकुटि की संज्ञा से सिंहोदर ने वह स्वीकारकर , बन्धु के समान प्रीति से वज्रकर्ण की अर्धराज्य दिया ।
नमस्कार करवाने के परिणाम के समय आत्मा धर्म से विमुख हो जाता है । वह यह समझ लेता है कि यह मुझे नमस्कार करेगा जिससे मुझे सभी प्रकार से सुख प्राप्ति हो जायेगी ।
वंदन करवाने का मोह वर्तमान में मुनियों में भी प्रविष्ट हो गया है । स्वयं में वंदन करवाने की योग्यता न होते हुए भी आग्रहपूर्वक वंदन करवाने की क्रिया भी चल रही है । वास्तव में वंदन कर्मक्षय हेतु उत्तम साधन है । अल्प परिश्रम में विशेष लाभदायक है । वही क्रिया अशुभ कर्मोपार्जन करवा देती हैं । अयोग्य का ध्यान आ जाने पर भी अयोग्य को वंदनीय मानकर वंदन करना ।
वज्रकर्ण तो संदेश दे रहा है मरणान्त उपसर्ग आ जाये तो भी जहाँ नमस्कार नहीं किया जा सकता वहाँ करना ही नहीं । भले मृत्यु द्वार पर दस्तक दे दे ।
इसमें तो वज्रकर्ण को व्यवहार से ही नमस्कार करना था तो भी उसने मरण रुपी संकट की विपत्ति मोल ले ली पर नमस्कार नहीं किया ।
सिंहोदर अपनी अहंता के कारण लक्ष्मण द्वारा बंधन में गिरकर वज्रकर्ण से क्षमा याचना करने वाला हुआ ।
अहंकार के पर्वत पर चढ़े हुए मानव को कभी कभी तलेटी पर गिरना पड़ता है । वैसी ही सिंहोदर के जीवन में हुआ ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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30-1-2021
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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(57 )
गतांक से आगे :
वज्रकर्ण ने विद्युदंग के लिए श्रीधरा के कुण्डलों को सिंहोदर से प्रार्थना कर ले लिए और उसे दिये । वज्रकर्ण ने लक्ष्मण को अपनी आठ कन्याएँ दी । सामन्त सहित सिंहोदर ने तीन सौ कन्याएँ दी । लक्ष्मण ने कहा -कन्याएँ आपके पास में ही रहें । अभी पिता ने भरत को राज्य पर बिठाया है । उचित समय में , जब मैं राज्य को अंगीकार करुँगा , तब इनसे विवाह करुँगा । अब मलयापर्वत पर जाकर रहेंगे । इस प्रकार कहकर , दोनों राजाओं को विदा करने के बाद , रामचंद्र वहाँ रात बिताकर आगे जाते हुए किसी निर्जल देश में आया । रामचंद्र की आज्ञा से लक्ष्मण सीता की तृषा की शान्ति के लिए जल लेने गया और एक सरोवर को देखा ।
वहाँ कूबेरपुर के राजा पुरुषवेषधारी कल्याणमाला नामक कन्या , लक्ष्मण को देखकर कामबाण से विद्ध हुई और उसको भोजन के लिए कहा । लक्ष्मण ने किसी कारण से इस कन्या ने पुरुषवेष को धारण किया है -इस प्रकार सोचकर सीता सहित रामचंद्र को वहाँ ले आया । कूबेरपुर के स्वामी ने नमस्कार कर तंबू में निवास स्थान दिया । कूबेरपुर के स्वामी ने अपना स्त्रीवेष प्रकट , एक मंत्री के साथ , स्नान और भोजन किये हुए रामचंद्र के समीप गया । तुमने पुरुषवेष क्यों धारण किया है ? इस प्रकार रामचंद्र के पूछने पर स्त्री ने कहा - कूबेरपुर में वारिखिल्य नामक राजा था और उसकी पृथ्वी रानी थी । रानी गर्भिणी हुई । म्लेच्छ राजा को बांधकर ले गये और बाद में मेरा जन्म होने पर , मंत्रियों द्वारा पुत्र हुआ है ऐसी घोषणा की गयी । यौवनावस्था आने पर भी पुरुषवेष में ही राज्य कर रही हूँ । म्लेच्छों को बहुत द्रव्य दिया , तो भी पिता को नहीं छोड़ रहे है । उससे मुझ पर कृपाकर मेरे पिता को उनसे छुड़ाये । रामचंद्र ने कहा - जब तक हम तुम्हारें पिता को न छुड़ायें तब तक पुरुषवेष में ही राज्य का संचालन करों । सुबुद्धि मंत्री ने कहा - लक्ष्मण इसका वर हो । रामचंद्र ने कहा -अभी तो हम देशान्तर जा रहे हैं । वापिस लौटने के बाद लक्ष्मण विवाह करेगा । रामचंद्र वहाँ तीन दिन की स्थिरता कर आगे चला । कन्या अपने नगर में गयी ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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31-2-2021
🌞 _*Veer Gurudevaay's exclusive*_..
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
_*📿 जैन रामायण 📿*_
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📦 क्रमांक :- [ 58 ]
गतांक से आगे:
रामचंद्र नर्मदा नदी को उतरकर दक्षिण दिशा में कण्टकिवृक्ष पर खड़े कौए के खराब रस का स्वाद लेते समय और क्षीरवृक्ष पर खड़े कौए के मधुर रस का स्वाद लेते समय विन्ध्या अटवी में प्रवेश किया । अपशकुन एवं शकुन को देखकर रामचंद्र ने सोचा आगे विपत्ति आयेगी और फिर संपत्ति (सुखशान्ति ) भी मिलेगी । वहाँ म्लेच्छ के सैन्य को देखा । म्लेच्छ राजा ने कहा - रे रे इन दोनों मुसाफिरों को भगाकर अथवा विनाशकर इस कन्या को लूंट लो । लक्ष्मण ने धनुष की डोरी के नाद से उनको भयभीत किया । म्लेच्छ राजा ने रामचंद्र को नमस्कार किया और कहने लगा - मैं ब्राह्मण का पुत्र रुद्रदेव हूँ । आजनम चोरी का धन्धा करने वाला और परदारा सेवी था । अन्य दिन चोरी के अपराध में , शूली पर चढ़ानें के लिए ले जाया गया , श्रावक वणिक ने दण्ड भरकर छुड़ाया और फिर से चोरी मत करना इस प्रकार कहकर विदा किया । मैं भी पल्ली में आया और काक नाम से प्रसिद्ध हुआ । पल्लीपतित्व को प्राप्त किया । मैं आपका दास हूँ । रामचंद्र की आज्ञा से लक्ष्मण ने उसे छोड़ दिया । फिर रामचंद्र के आदेश से काक ने वारिखिल्य को मुक्त किया । वारिखिल्य ने रामचंद्र को नमस्कार किया और काक उसको अपनी नगरी में छोड़ आया । राजा ने पुरुषवेषवाली अपनी पुत्री कल्याणमाला को देखा ।
रामचंद्र विन्ध्या अटवी को पारकर , तापी नदी को पार किया । अरुणग्राम में सीता को प्यास लगने पर , क्रोधी कपिल अग्निहोत्री के घर गया । सुशर्मा ब्राह्मणी ने उनको अलग आसन देकर जल पिलाया । इतने में कपिल आया और क्रोधित होकर कहने लगा -रे इन मलिनों को प्रवेश क्यों दिया ? अग्निहोत्र को अपवित्र कर दिया । कभी-कभी व्यक्ति घर आयी लक्ष्मी को न पहचानने के कारण घर से निकाल देता है । ख्याल में आने पर पीछे पछताता हैं । ऐसा ही हुआ कपिल के जीवन में । इधर कपिल के वचनों से क्रोधित होकर कपिल को लक्ष्मण ने उठाकर , आकाश में घुमाया । रामचंद्र ने उसे छुड़ाया ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
_*📿 जैन रामायण 📿
2:2:21
( 59 )
गतांक से आगे :
रामचंद्र आगे जाते हुए बड़ी अटवी में आया । वर्षाऋतु वहाँ पूर्ण करने की इच्छा से वटवृक्ष के नीचे ठहरे । वटवृक्ष का अधिष्ठायक इभकर्ण नामक यक्ष भयभीत हुआ और अपने स्वामी गोकर्ण यक्ष के पास गया । किसी पुरुष ने मुझे वटवृक्ष से निकाल दिया है , मेरी रक्षा करे । गोकर्ण ने अवधिज्ञान से जानकर कहा -यह दोनों आठवें बलदेव-वासुदेव हैं और पूजनीय हैं । इस प्रकार कह कर रात्रि के समय वहाँ जाकर नव-बारह योजन लंबी -चौड़ी धान्यादि से पूर्ण , ऊँचे कोट और महलोंवाली , बर्तन आदि सामग्री से पूर्ण दुकानों की श्रेणीवाली ऐसी रामपुरी का निर्माण किया । प्रातः मंगल शब्द से जागे हुए रामचंद्र ने उस वीणाधारी यक्ष को और उस नगरी को देखा । यक्ष ने रामचंद्र से आग्रह किया । वे तीनों यक्ष से सेवित सुखपूर्वक वहाँ रहे । कपिल ब्राह्मण लकड़ी आदि के लिए वहाँ आया । नगरी देखकर यह माया है , इन्द्रजाल है अथवा गान्धर्वपुर है इस प्रकार सोचने लगा । वहाँ एक मानुषी रुपवाली यक्षिणी को देखकर पुरी के बारे में पूछा । उसने कहा - यह रामपुरी है और गोकर्णयक्ष ने बनायी है । यहाँ कृतार्थी रामचंद्र निवास करता है और याचक की वांछा को पूर्ण करता है । यह सुनकर मैं रामचंद्र से कैसे मिलूँगा ? ऐसा पूछने पर उसने कहा - यक्षों द्वारा रक्षित यहाँ चारों द्वारों में प्रवेश दुर्लभ है । पूर्व द्वार में जो चैत्य है , उसमें जिनबिंब है वहाँ सेवा भक्ति वंदनकर और श्रावक बनकर यदि जाओगे , तो प्रवेश प्राप्त कर सकते हो । यह सुनकर धन की इच्छावाला कपिल साधु के पास जाकर उनकी पर्युपासना कर श्री जिनधर्म के विषय में क्रियाकाण्ड के विषय में ज्ञान प्राप्त कर लघुकर्म के कारण श्रावक हुआ । भार्या भी श्राविका हुई । उसके बाद रामपुरी जाकर , चैत्य में जिन पड़िमा को वंदनादिकर , राजमहल में प्रवेश कर , रामादि को पहचानकर , उन पर किये क्रोध की स्मृति से भयभीत हुआ । रामचंद्र ने -डरो मत इस प्रकार कहा और आसन दिया । तुम कहाँ से आये हो ? ऐसा पूछने Lपर कपिल ने कहा - अरुणग्राम वासी आपको क्रोधित करने वाला मैं कपिल हूँ । सुशर्मा ब्राह्मणी नेभी पूर्व के वृतान्त को कहकर , सीता के समीप बैठी । रामचंद्र ने उसको धन दिया । कपिल अपने गाँव गया और प्रतिबोध पाकर नन्दावतंसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की ।
पुण्यवंतों की भक्ति करने के लिए देवता भी तत्पर रहते हैं । रामचंद्र -लक्ष्मण के लिए जंगल में मंगल हो गया ।
महापुरुषों की जन्मजात प्रवृति होती है अपकारी पर भी उपकार करना । ब्राह्मण ने तिरस्कार किया था परंतु वही ब्राह्मण जब सामने आया तो उसे पूछा तुम कौन हो ? जानते हुए नहीं पूछा परंतु अपकार एवं अपकारकर्ता को उसी समय भूल जाना इस आदत के कारण वास्तव में रामचंद्र उसे भूल ही गये थे ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
U
03-2-2021
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 60 )
गतांक से आगे :
ब्राह्मण ने अपनी पहचान दी तब रामचंद्र जी ने उसे बहुत सारा धनादि देकर विदा किया ।
इसने जिनधर्म का ज्ञान प्राप्त किया , श्रावक के आचार-विचारों को पालन किया इन सबके पीछे मूल आशय धन प्राप्ति का था । धनादि की प्राप्ति के लिए अर्थात भौतिक सुखार्थ धर्म करने वाला एकांत पाप ही बांधता हैं ऐसा नहीं है ।
ब्राह्मण धनार्थे श्रावक बना और अंत में प्रभु के शासन का अणगार बनकर शासन का शणगार बना ।
वर्षाऋतु की समाप्ति के बाद , जाने की इच्छावाले रामचंद्र को , यक्ष ने नमस्कारकर , भक्ति में रही त्रुटियों की क्षमा माँगकर , रामचंद्र को स्वयंप्रभहार , लक्ष्मण को दो कान के रत्न आभूषण , सीता को चूडामणि और दिव्य वीणा दी । नगरी का संहरण कर लिया । रामचंद्र आदि प्रतिदिन अरण्यों का अतिक्रमण कर सायंकाल के समय विजयपुर आये । वटवृक्ष के नीचे रहे । वहाँ महीधर राजा और इन्द्राणी की पुत्री वनमाला , बाल्यकाल से ही लक्ष्मण पर अनुरागीणि थी । महीधर राजा के द्वारा दशरथ की दीक्षा और रामचंद्र -लक्ष्मण के वनवास के बारे में सुनकर इन्द्रनगर के वृषभ राजा के पुत्र सुरेन्द्ररुप को दी गयी थी । उसे यह मंजूर नहीं था । अतः मरण की निश्चय वाली रात्रि में अकेली उस उद्यान में आयी । रामचंद्र-सीता के सो जाने पर , पहरा देते लक्ष्मण के आश्चर्यसहित देखते-देखते , वटवृक्ष पर चढ़कर कहने लगी - हे वनदेवता , दिग्देवियाँ और आकाशस्थ देवीयाँ सुने -इस भव में लक्ष्मण , मेंरा पति नहीं हुआ हैं , भवान्तर में हो ऐसा कहकर कण्ठ में फंदा डालकर खुद को लटकाया । अज्ञानता के कारण कितनी ही आत्माएँ ऐसा सोचती हैं कि हम इस भव में वनदेवताओं को कहकर जायेंगे तो अगले भव में वनदेवता हमें हमारे प्रेमी का मिलन करवा देंगे और ऐसी विचारणा से मिले हुए मानवभव को व्यर्थ में हार जाते हैं । वनमाला के ऐसे वचन सुनकर लक्ष्मण बोला- वह मैं ही हूँ इस प्रकार कहते हुए उस फंदे को छेदकर कन्या को लेकर नीचे उतरा । रात के शेष समय में जागे रामचंद्र और सीता से लक्ष्मण ने रात का सारा वर्णन सुनाया । कन्या ने भी सीता और रामचंद्र के पैंरो में नमस्कार किया । कन्या की माता इन्द्राणी ने उसको महल में न देखकर पूत्कार किया । महीधर राजा खोज करने के लिअः भ्रमण करते हुए , उसको वहाँ देखा । उसकी सेना के द्वारा मारो-मारो इस प्रकार कहने पर , लक्ष्मण ने धनुष पर डोरी चढ़ाकर टंकार शब्द किया । उस ध्वनि से शत्रुओं के क्षोभित , भयभीत और गिरने पर , महीधर ने लक्ष्मण को पहचानकर , रामचंद्र को नमस्कार किया और कहा- आपके भाई पर यह स्वयं रागवाली बनी हैं , पहले भी मैनें अनुमति दे दी थी । फिर पूरा वरूणन सुनकर अपराध की क्षमा याचनाकर स्वयं रामचंद्र लक्ष्मण को घर ले गया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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04-2-2021
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 61 )
गतांक से आगे :
उनके वहाँ रहने पर , अतिवीर्य राजा के दूत ने सभा में बैठे महीधर राजा से कहा - नन्द्यावर्तपुर के राजा अतिवीर्य का भरत के साथ विग्रह होने के कारण से अतिवीर्य राजा तुमको सहाय के लिए बुला रहा है । लक्ष्मण ने पूछा - विरोध का कारण क्या है ? दूत ने कहा - हमारे स्वामी भरत से भक्ति की इच्छा करते हैं किनुतु भरत नहीं चाहता हैं । रामचंद्र ने पूछा -भरत अतिवीर्य से युद्ध करने के लिए समर्थ है ? जो उसकी आज्ञा नही मान रहा है । दूत ने कहा - दोनों भी असामान्य हैं । महीधर ने ' मैं शीघ्र आ रहा हूँ इस प्रकार कहकर दूत को विदा कर ' रामचंद्र से कहा - अहो ! इसकी अज्ञानता , जो हमको बुलाकर भरत के साथ युद्ध करने की इच्छा कर रहा है । मैं तो सर्व सेना के साथ जाकर इसको ही मार डालूँगा । रामचंद्र ने कहा - तुम ठहरो । तेरे पुत्रों के साथ जाकर मैं ही यथोचित करुँगा । रामचंद्र उसके पुत्र , सैन्य से युक्त सीता और लक्ष्मण सहित नन्द्यावर्तपुर गया । उस नगर के क्षेत्रदेवता ने रामचंद्र की भक्ति करने के लिए पूछा तब रामचंद्र ने कुछ न कहा । अतिवीर्य , स्त्री से जीतने लायक हैं । उसके अपयश के लिए सेना सहित आपका स्त्री रुप करुँगा । फिर वैसा ही हुआ । रामचंद्र-लक्ष्मण भी स्त्री रुप वाले हुए । रामचंद्र ने द्वारपाल के द्वारा उस राजा को ज्ञापन किया कि -महीधर ने सेना भेजी है । अतिवीर्य ने क्रोध से कहा - वह नहीं आया , इसकी सेना से क्या प्रयोजन ? मैं अकेले ही भरत को जीतूँगा । तब किसी ने कहा -न केवल स्वयं आया हैं , उल्टे उपहास के लिए स्त्री सेना को भेजा हैं । इतने में रामचंद्र-लक्ष्मण राजद्वार पर आ गये उस समय राजा ने क्रोध से कहा - इन स्त्रियों को गर्दन से गाढ़ पकड़कर नगर से बाहर निकाल दो । उसके सामन्त उठकर उस स्त्री सैन्य को उपद्रव करने लगे । रामचंद्र ने भुजा से गजस्तम्भ को आयुधकर उनको गिरा डाला । लक्ष्मण ने अतिवीर्य को युद्ध के लिए उठे खड्ग का छेदनकर , बालों से खिंचकर बांधा । भयभीत नगरवासियों के द्वारा देखे जाते हुए लक्ष्मण उसको ग्रहणकर चला । सीता ने उसको छुड़ाया । लक्ष्मण ने अतिवीर्य से भरत की सेवा मनायी । देवता के द्वारा स्त्री वेष का संहरण करने पर , अतिवीर्य ने रामचंद्र-लक्ष्मण को पहचानकर पूजा की ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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05-2-2021
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 62 )
गतांक से आगे :
" जितनी चद्दर लंबी हो उतने ही पैर पसारो " इस कहावत को जो व्यक्ति भूल जाता है और अपने से अधिक शक्तिवाले से झुझने जाता है उसे मुंह की खानी ही पड़ती है । अतिवीर्य ने स्वयं की शक्ति और भरत की शक्ति की तुलना की होती तो स्त्री सैन्य से हारा गया ऐसी अवहेलना का पात्र न बनता । ऐसा कलंक न लगता ।" कम्मेशूरा ते धम्मेशूरा " कहावत भी अतिवीर्य ने सिद्ध कर दी । संसार में कितने ही भवों में टके सेर भाजी के रुप में मेरा मूल्यांकन हुआ हैं और अगर संसार से मुक्त न बनूं तो न मालूम और आगे के भवों में मुझे कितनी बार अपमानित होना पड़ेगा इससे अच्छा है कि मैं इस भव में ऐसी स्थिति प्राप्त कर लूं जिससे कभी अपमानित होना न पड़े । इस प्रकार विचारकर मानी अतिवीर्य ने विजयरथ को राज्य पर स्थापितकर , रामचंद्र के द्वारा सन्मान सहित निषेध करने पर भी , दीक्षा ग्रहण की । विजयरथ ने अपनी बहन रतिमाला , लक्ष्मण को दी । सैन्य सहित रामचंद्र विजयपुर गया । विजयरथ भरत की स्तुति करने के लिए अयोध्या आया । भरत ने उसका सत्कार किया । उसने अपनी छोटी बहन विजयसुन्दरी भरत को दी । अतिवीर्यर्षि वहाँ आये । भरत ने विधिपूर्वक वंदनाकर , क्षमायाचना की । भरत से विदा पाकर विजयरथ अपने नगर गया ।
रामचंद्र के द्वारा जाने के लिए तैयार होने पर , लक्ष्मण ने वनमाला से पूछा । उसने कहा - व्यर्थ में मेरे प्राण की रक्षा क्यों की ? विरह के दु:खों को कैसे सहूँगी ? मुझे भी साथ ले चलो । लक्ष्मण ने कहा - साथ में आओंगी , तो भाई की सेवा में विघ्न करोंगी । बड़े भाई को इष्ट स्थान पर पहुँचाकर आऊँगा । तुम घोर शपथ कराओ । वनमाला ने कहा - आप वापिस न आये तो , तब लक्ष्मण ने कहा-मैं वापिस न आऊँ तो मुझे ब्रह्म हत्या का पाप लगे ऐसी शपथ दो , ते कहे तो गौ हत्या के पाप की शपथ लूं और भी तू जो कहे वह शपथ लेने को तैयार हूँ । तब वनमाला ने कहा इन सबसे भी भयंकर पाप है रात्रिभोजन का ! आप यह शपथ लो कि " मैं वापिस न आऊँ तो रात्रिभोजन का पाप मुझे लगे । " और लक्ष्मण ने वह शपथ ली ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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06-2-2022
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(63)
गतांक से आगे:
वर्तमान के उन लोगों को इस बात से सोचना चाहिए जो लोग रात्रिभोजन को एक अनिवार्य कारण मान रहे है , कुछ लोग रात्रिभोजन को पाप ही नहीं मान रहे हैं और कुछ लोग स्वयं तो रात में नहीं खाते हैं पर घर आये अतिथि को रात में न खिलाने से आबरु चली जायेगी ऐसे भय के कारण रयणीभोजन करवाते हैं । उन सभी को वनमाला का संदेश है कि यह पाप सबसे अधिक है । अठारह पाप स्थानक में इसका नाम नहीं है इसका कारण है इसमें अठारह ही पाप सम्मिलित हो जाते हैं ।
जैनागमों में तो निषिध है ही साथ-साथ में अजैनों के कई ग्रंथों में रयणी भोजन को नरक का द्वार बताकर रात्रिभोजन की भयंकरता बतायी है ।
मार्कण्डे ऋषि ने सूर्य देवता अस्त हो जाने पर भोजन करना व्यवहार विरुद्ध है ऐसा कहा है ।
वर्तमान में कुछ लोग लाईट के प्रकाश में भोजन करने से रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता । ऐसी मान्यता वाले यह नहीं सोचते कि इस लाईट के कारण इतने सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है जो चर्मचक्षु से दुर्बिन से भी दिखाई नहीं देते और वे भोजन के साथ पेट में जाकर कई बिमारियाँ उत्पन्न करते हैं ।
जिन्हें जिनेश्वर भगवंत पर विश्वास है उनको तो इस वनमाला के इस प्रसंग को देखकर रयणीभोजन का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ।
फिर वहाँ से प्रयाण कर निकले हुए रामचंद्र क्रम से वनों का अतिक्रमण कर क्षेमांजलीपुरी आये । बाहर के उद्यान में , लक्ष्मण के द्वारा लाये गये वन्य फलों को खाये । उस नगरी में , जो इस राजा के शक्तिप्रहार को सहन करेंगा , वह इसकी कन्या से विवाह कर सकता है ऐसी घोषणा सुनकर लक्ष्मण ने उस राजा के द्वारा छोड़े गये शक्ति पंचक को दो हाथों के द्वारा , दो बगल के द्वारा और एक को दांतों के द्वारा ग्रहण किया । शत्रुदमन राजा ने शर्त में जीती गयी पद्मा कन्या दी । उस राजा ने रामचंद्र की पूजा की और रामचंद्र आगे चला । लक्ष्मण ने राजा से कहा- वापिस लौटकर तेरी कन्या से विवाह करुँगा ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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07-2-2021
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(64)
गतांक से आगे :
रामचंद्र वंशशैल पर्वत के तट पर बसे वंशस्थल नगर में , सांयकाल के समय गया । वहाँ राजा सहित लोगों को भय से आकुलित देखकर किसी पुरुष से पूछा । उसने कहा -आज तीसरा दिन है । रात्रि में इस पर्वत पर भयंकर ध्वनि निकलती है । उसके भय से लोग रात्रि अन्य जगह बीताकर सुबह वापिस आते है । कौतुकवाला रामचंद्र , लक्ष्मण सहित पर्वत पर चढ़ा । कायोत्सर्ग में खड़े दो मुनियों को देखकर वन्दन किया । रामचंद्र ने गोकर्ण के द्वारा अर्पित की गयी वीणा बजायी । लक्ष्मण गाने लगा और सीता नाचने लगी । रात्रि हुई । अनलप्रभ देव अनेक वेताल के रुप बनाकर , अट्टहासों के द्वारा आकाश को विस्फोटित करता हुआ साधुओं को उपद्रव करने लगा । रामचंद्र और लक्ष्मण मुनि के समीप में सीता को छोड़कर उसको मारने के लिए खड़े हुए । देव भाग गया । मुनियों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवों ने महोत्सव किया ।
रामचंद्र ने उपसर्ग का कारण पूछा । कुलभूषण मुनि ने कहा- पद्मिनीपुरी में विजयपर्वत राजा का अमृतस्वर दूत था । उसकी पत्नी उपयोगा और उदित , मुदित नामक दो पुत्र थे । एक बार मार्ग में साथ चलते समय दूत के मित्र उपयोगा में आसक्त वसुभूति ब्राह्मण ने उसको मार डाला । वसुभूति ने नगरी में जाकर उपयोगा से यह बात कही । उसने कहा - दोनों पुत्रों को भी मार दो । वसुभूति की पत्नी ने यह बात किसी प्रकार जान ली और उदित और मुदित को सचेत कर दिया । उदित ने वसुभूति को मार डाला और वह वसुभूति मरकर नलपल्ली में म्लेच्छ के रुप में उत्पन्न हुआ । अन्य दिन उदित-मुदित दोनों दीक्षा ग्रहणकर विहार करते हुए सम्मेतशिखर पर चैत्यों को वंदना करने के लिए चले । वहाँ पल्ली में वसुभूति के जीव म्लेच्छ ने उन दोनों को देखा । पूर्वभव के वैर से उन दोनों को मारने के लिए दौड़ा ।
विषयाधिन व्यक्ति किसी का संबंधी नही रह सकता , वह तो एक ही लक्ष्य वाला होता है कि मेंरे विषय की पूर्ति में जो-जो अंतरायभूत होते हैं या होने वाले हैं उन सबको कंटक समझकर दूर कर दूं । इसी भावना से अमृतस्वर को मारा तो उसकी पत्नी अपनी कुक्षि से जन्में पुत्रों को भी मरवाने को तैयार हो गयी । वसुभूति की पत्नी ने अपनी विषय की पूर्ति में उपयोगा बाधक बन रही है अतः उस पर ईर्ष्या लाकर उदित-मुदित को सारी बातें बता दी और उदित ने वसुभूति को मार दिया । वसुभूति की पत्नी पति से हाथ धो बैठी । उपयोगा अपने पति और यार दोनों से वंचित हो गयी । वासना का अंत ऐसा ही होता है और वैर की परिणति भी आगे बढ़ी । कितने ही भवों तक वैरभाव को पुष्ट किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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(65)
गतांक से आगे:
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08-12-2020
म्लेच्छों के सरदार ने उसे मना किया क्योंकि वह म्लेच्छ राजा पूर्वभव में पक्षी था और उदित-मुदित के जीव खेडूत थे । उन्होंने शिकारी से पक्षी को छुड़ाया था । बाद में , उदित-मुदित मुनि ने सम्मेतशिखर पर चैत्यों को वंदनाकर , विहार किया । अनशनकर महाशुक्र देवलोक में सुन्दर और सुकेश नामक देव हुए । वसुभूति का जीव जो म्लेच्छ था संसार में भ्रमण कर , मनुष्य भव में तापस बना । आयुष्य पूर्णकर ज्योतिष्क देवों में धूमकेतु नामक मिथ्यादृष्टि देव हुआ । उदित-मुदित के जीव महाशुक्र से च्यवकर अरिष्टपुर में प्रियंवद राजा की पद्मावती रानी से रत्नरथ-चित्ररथ नामक दो पुत्र के रुप में उत्पन्न हुए तथा कनकाभा पत्नी से धूमकेतु का जीव अनुद्वर नामक पुत्र हुआ । वह रत्नरथ और चित्ररथ पर मत्सर धारण करता था । किन्तु वे दोनों उसके ऊपर सद्भाव रखते थे । राजा रत्नरथ को राज्य पर स्थापित कर और दोनों को युवराज पद पर स्थापितकर छह दिन का अनशन कर देव हुआ । अन्य दिन किसी राजा से अनुद्वर ने कन्या माँगी । फिर भी उस राजा ने रत्नरथ को श्रीप्रभा नामक अपनी कन्या दी । क्रोधित हुए अनुद्वर ने घर छोड़कर जंगल में जाकर , रत्नरथ की की पृथ्वी को लूंटने लगा । रत्नरथ ने युद्ध में उसको बांधकर बहुत-सी विडंबनाएँ दी । बाद में छोड़ दिया । वह तापस हुआ । स्त्री के संग से तप को निष्फल कर , संसार में भ्रमणकर , पु:न मनुष्य के भव में तापस हुआ । आयुष्य पूर्णकर यह अनलप्रभ देव हुआ हैं । रत्नरथ-चित्ररथ ने दीक्षा ग्रहण की ।आयुष्य पूर्णकर अच्युत कल्प में अतिबल , महाबल नामक देव हुए । वहाँ से च्यवकर सिद्धार्थपुर में क्षेमंकर राजा की विमलादेवी की कुक्षि से कुलभूषण और देशभूषण नामक पुत्र के रुप में जन्म लिया । घोष नामक उपाध्याय के समीप में बारह वर्ष पर्यन्त पढ़े । तेरहवें वर्ष में उपाध्याय के साथ राजा के पास जाते हुए , राजमहल के झरोखें में बैठी कन्या को देखकर रागी बनें । राजा के पास जाकर कलाएँ बतायी । राजा ने उपाध्याय का सन्मान किया और उपाध्याय वापिस अपने घर चले गये और हम दोनों माता को नमस्कार करने के लिए गये । माता के समीप में उस कन्या को देखा । माता ने कहा - यह तुम्हारी बहन कनकप्रभा है । तुम दोनों के उपाध्याय के घर जाने के बाद इसका जन्म हुआ है । यह सुनकर हम दोनों को वैराग्य उत्पन्न हुआ । दीक्षा ग्रहण कर इस पर्वत पर आये ।कायोत्सर्ग स्वीकार किया । पिता हमारे वियोग से अनशन कर , महालोचन नामक गरुड़ों का राजा ,देव हुआ हैं । आसन के कम्पन से हम दोनों के उपसर्ग को जानकर , अभी यहाँ आये हैं । अनलप्रभ देव एकबार कुतूहल से अनन्तवीर्य केवली के समीप गया था और वहाँ किसी ने केवलज्ञानी से पूछा - इस श्री मुनिसुव्रतस्वामी के तीर्थ में आपके बाद कौन केवली होगा ? उन्होंने कहा - मेरे निर्वाण के बाद कुलभूषण-देशभूषण नामक दो भाई केवली बनेंगे । अनलप्रभ यह सुनकर , विभंगज्ञान से हम दोनों को यहाँ ध्यानास्थित जानकर , मिथ्यात्व के कारण , केवली वचनों को झूठ साबित करने के लिए पूर्वभव के वैर से उपद्रव करने लगा । चार दिन बीत गये । आज तुम्हारें भय से भाग गया और हम दोनों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ हैं । तब महालोचन देव ने कहा - रामचंद्र तूने सुंदर काम किया है। तुम्हारा मैं क्या प्रत्युपकार कर सकता हूँ ? रामचंद्र के नही चाहने पर भी , किसी समय उपकार करुँगा - इस प्रकार कहकर अदृश्य हुआ ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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09-2-2021
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(66)
गतांक से आगे :
अथ वंशस्थल के राजा सुरप्रभ ने वहाँ आकर रामचंद्र को नमस्कार किया और रामचंद्र की आज्ञा से उस पर्वत पर अर्हन्त चैत्य करायें । उस समय से वह पर्वत , रामगिरि नाम से पहेचाने जाने लगा । रामचंद्र ने वहाँ से प्रयाण कर दण्डक नामक अरण्य में प्रवेश किया और पर्वत की गुफा में रहा । वहाँ तीन गुप्ति से गुप्तिमान् और दो मास के उपवास वालें दो चारणर्षि आकाश से उतरकर आये । रामचंद्र आदि ने नमस्कार कर अन्न-पान के द्वारा लाभ लिया । देवों ने रत्न और सुगन्धिजल की वृष्टि की । उस समय कम्बूद्वीप के विद्याधरों का राजा रत्नजटी और दो देवों ने आकर रामचंद्र को अश्वसहित रथ दिया । वहाँ गन्ध नामक पक्षी रहता था जो रोगी था । सुगन्धिजल की वृष्टि के गन्ध से वह वृक्ष से नीचे उतरकर आया । मुनि के दर्शन से जातिस्मरण ज्ञान हुआ और मूर्छित हुआ । जल के सिंचन से होश में आकर , साधुओं के पैर में गिरा । साधु के स्पर्श औषधि की लब्धि से नीरोगी हुआ । दोनों पंख स्वर्णमय हुए । चोंच प्रवाल की कान्ति के समान , पद्मराग मणि ( माणेक ) की कान्ति के समान दोनों पैर हुए , रत्नों की कान्ति के समान शरीर , रत्न अंकुरों की श्रेणी के समान सिर पर जटायु हुए । तब से उस पक्षी का नाम जटायु हुआ । रामचंद्र ने मुनियों से पूछा -गीध पक्षी मांस भक्षण से खराब बुद्धिवाला होता है , यह किसलिए शान्त है ? और क्षणमात्र में ही स्वरुपवान कैसे बना ? सुगुप्ति ऋषि ने कहा -
यहाँ कुम्भकारकट नामक नगर था । वहाँ दण्डक राजा राज्य करता था । तब श्रावस्ती में जितशत्रु राजा था । उसकी धारिणी पत्नी , स्कन्दक पुत्र और पुरन्दरयशा पुत्री थी । पुरन्दरयशा का विवाह दण्डक के साथ किया । अन्य दिन दण्डक का दूत , पालक नामक ब्राह्मण वहाँ आया । स्कन्दककुमार ने धर्मगोष्ठी में उसको निरुत्तर कर दिया । सभा के लोग उस पर हंसे । वह स्कन्दक पर क्रोध धारण करता हुआ अपने नगर वापिस आया । स्कन्दक ने किसी समय पांच सौ राजपुत्रों के साथ श्री मुनिसुव्रतस्वामी के समीप में दीक्षा ग्रहण की । प्रभु के द्वारा मारणान्तिक उपसर्ग का निवेदन करने पर भी मेरे बिना शेष सबको आराधक सुनकर पुरन्दरयशा प्रमुख को प्रतिबोधित करने के लिए स्कंदक आचार्य कुम्भकारकट गये । पालक ने वैर के कारण साधुओं के आने के पूर्व साधु उपयोगी उद्यान भूमि में शस्त्रों को गाढ़ दिये । पांच सौ मुनियों के साथ स्कंदकाचार्य एकत्र नामक उद्यान में पधारें । राजा परिवार सहित नगर के लोगों के साथ वहाँ आकर स्कन्दकाचार्य को विधिपूर्वक वंदनाकर देशना सुनी । आनन्दित हुआ दण्डक राजा अपने महल में गया । पालक ने कहा - बगले के समान आचारवाला यह पाखंडी है । मुनिवेष धारण किये हुए सहस्त्रयोधी पुरुषों के साथ राज्य ग्रहण करने के लिए आया है । शस्त्रों का दर्शन ही प्रमाण है । राजा वैसे देखकर दु:खित हुआ और अविचारकर बनकर पालक से कहा -इस दुर्मति का जो उचित लगे वैसा तू कर देना , मुझे पूछना मत । पालक ने यंत्र स्थापितकर स्कन्दक के आगे एक-एक साधु को पीलने लगा सभी को अंतिम निर्यामणा करवायी । अब अंतिम रहे बालमुनि को पीलते समय मुझे ही पहले पीलो इस प्रकार स्कन्दक के कहने पर भी उसी बालमुनि को पहले पीला । सभी साधु आराधना कर मोक्ष में गये । स्कन्दक आचार्य ने नगर के लोग सहित राज्यपालक आदि को भस्म करने के विचार से , कुल राष्ट्र सहित दण्डक और पालक के वध का नियाणाकर वह्निकुमार -देवलोक में देव बना । पुरन्दरयशा ने खुद के द्वारा दिये गये रत्नकम्बल के तन्तुओं से बने , रक्त से मिश्रित और पक्षी के द्वारा सामने फेंके रजोहरण को देखकर , भाई की विपत्ति को जानकर , दण्डक पर पापी-पापी इस प्रकार आक्रोश करती हुई , शोक में डूबी । शासनदेवी ने उसे उठाकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी के समीप में ले गयी और उसने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की । स्कन्दक ने पालक और नगर के लोक सहित दण्डक को जला दिया ।
क्रमशः
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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10-2-2021
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(67)
गतांक से आगे:
वाद में हार-जीत स्वयं की समझना यह वाद करने वाले की अयोग्यता जाहिर होती है । हार का अर्थ है मेरी बात असत्य थी । जीत का अर्थ है मेरा कहना सत्य है । यह हार-जीत सत्य असत्य की रही । इसमें स्वयं को अपमानित मानना बहुत बड़ी भूल है । अपमानित मानकर उसकी गांठ बांधना यह तो नीचता प्रदर्शित करना हैं । पालक ऐसा ही अयोग्य व्यक्ति था । उसने गांठ बांध दी थी ।
स्कंदकाचार्य ने प्रभु के मौन रहने का अर्थ अनुज्ञा मान ली और कुंभकारकट पधार गये । पालक ने उस समय की हार का बदला लेने के लिए षड्यंत्र रचा। राजा ने बिना सोचे विचारे शस्त्रों को साधुओं के मान लिये और स्व-पर अनर्थकारक आदेश दे दिया ।
साधु अर्थात साधना करनेवाला । साधु और साधक अपने कार्य की सिद्धि शीघ्र चाहते है । ये साधु भी ऐसे ही थे । विलंब से सिद्ध पद प्राप्त होने वाला था उसे यह उपकारी पालक आज ही प्राप्त करवा रहा है । आज का दिन हमारे लिए स्वर्णिम दिन है ऐसा मानकर ऐसी विचारधारा अपनाकर यंत्र में देहातित बनकर गिरे । देह का ध्यिन न होने से आत्मा केवलज्ञान पाकर मोक्ष में जाती रही । 499 गये एक छोटा मुनि रहा था ।
कहा हुआ ही है कि -' देवस्य वयणमन्नहा काउं को सक्केइ । ' भगवंत के वचन को अन्यथा करने में कौन समर्थ हैं ? भावी ने स्कंदाचार्य को भूला दिया और उन्होंने पालक को बाल मुनि से पहले मुझे यंत्र में डाल , ऐसा कहने पर भी उसने न माना तब धर्मध्यान हट गया और दुर्ध्यान आ गया और जिनेश्वर के वचनों को सत्य सिद्ध करने में लग गये । बाल मुनि तो मोक्ष में गये । पर स्कंदाचार्य ने ' नियाणा ' कर लिया ।
अपनी आराधना को इस प्रकार निष्फल कर दी ।
वहाँ से लेकर यह दण्डयकारण्य हुआ । दण्डक भी संसार में भ्रमणकर , गन्ध नामक यह रोगी पक्षी हुआ है । इसको हमारे दर्शन से जातिस्मरणज्ञान और नीरोगता प्राप्त हुई है । पक्षी यह सुनकर आनंदित हुआ । मुनि को नमस्कारकर , धर्म सुना और स्वीकारा । जीवहिंसा , मांसाहार और रात्रिभोजन का पच्चक्खाण लिया। मुनि ने रामचंद्र से कहा - यह तुम्हारा साधर्मिक है तब रामचंद्र ने -महात्मन् ! यह हमारा श्रेष्ठ बन्धु है ऐसा कहा । दोनों मुनि आकाशमार्ग से दूसरी जगह चले गये। जटायु से युक्त रामादि दिव्यरथ में चढ़कर , क्रीड़ा से अन्यत्र विहार किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
11-12-2020
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(68 )
गतांक से आगे :-
यहाँ पाताललंका में खर और चन्द्रनखा के शम्बूक और सुन्द नामक दो पुत्र थे । अन्य दिन शम्बूक माता-पिता के द्वारा रोकने पर भी , सूर्यहास खड्ग साधने के लिए दण्डयकारण गया । क्रोंचरवा के तट पर वांस के कुंज के अंदर रहकर , जो मुझे वारेगा उसको मार दूँगा-इस प्रकार कहकर साधना -मंत्र जाप करने लगा । एक वक्त भोजन करने वाला , विशुद्ध आत्मा , ब्रह्मचारी , जितेन्द्रिय , वट वृक्ष की शाखा पर दोनों पैरों को बांधकर , नीचे मुखवाला , सूर्यहास खड्ग को साधनेवाली विद्या का जाप प्रारंभ किया जो बारह वर्ष और सात दिन में सिद्ध होता है । इस प्रकार वांस समूह के स्थान पर रहे उसके बारह वर्ष और चार दिन बीत गये । सूर्यहास म्यान के बिना रहा हुआ , सूर्य समान तेज वाला वज्र के समान शब्द करता सुगन्धवाला , सिद्ध होने की इच्छावाला आकाश से नीचे आया । लक्ष्मण क्रीड़ा से यहाँ-वहाँ घूमते हुए उस खड्ग को देखकर हाथ में लेकर तीणत्व की परीक्षा के लिए वांस के समूह को काटा । उस समय शंबूक साधना कर रहा था उसके कटे हुए सिर को सामने गिरा देखकर ,आगे जाते हुए वांस के कुंज में प्रवेश किया । वटशाखा पर लटकते धड़ को देखते हुए - मैंने किसी युद्ध नहीं करते और शस्त्र रहित पुरुष को मारा है इस तरह खुद की निन्दा की । रामचंद्र के पास में आकर उस वृतान्त के बारे में बताकर खड्ग दिखाया । रामचंद्र ने कहा -यह सूर्यहास खड्ग है । तूने इसके साधक को मार डाला है । इसका कोई उत्तरसाधक भी हो सकता है ।
इसी बीच चन्द्रनखा मेरे पुत्र को आज सूर्यहास सिद्ध होगा इस प्रकार सोचकर खुश होकर पूजा की सामग्री और अन्न-पान से युक्त वहाँ आयी । पुत्र के कटे सिर को देखकर रोती हुई क्रोधित होकर लक्ष्मण के पद्चिन्ह के अनुसार जाती हुई सीता सहित रामचंद्र को वृक्ष के नीचे बैठे देखा । रामचंद्र के रुप को देखकर वासनाग्रस्त हो गयी । पुत्र शोक को भूलकर क्रीड़ा की इच्छावाली उसने कन्या का रुप बनाकर उनके समीप गयी । रामचंद्र ने कहा - इस भयंकर अरण्य में कैसे आयी ? उसने कहा - मैं अवन्ती राजा की कन्या हूँ । कोई विद्याधर मैरा अपहरणकर मुझे इस अरण्य में ले आया और वह विद्याधर किसी विद्याधर के द्वारा स्त्रीरत्न का हरण कर तू कहाँ जा रहा है? इस प्रकार कहने वाले के साथ लडाई करने लगा । वे दोनों मर गये । मैं किंकर्तव्यमूढ़ बनी और इधर-उधर भ्रमण करती हुई आपके पास आई हूँ । मुझ कुलीन कन्या के साथ आप विवाह करें । । रामचंद्र ने सोचा यह कोई मायावी हैं । कपट पूर्ण नाटक कर हमको ठगने आई है , इस प्रकार सोचकर दूसरे वृक्ष के नीचे बैठे लक्ष्मण की ओर देखकर कहा मैं पत्नी सहित हूँ । पत्नी रहित लक्ष्मण की की सेवाकर इस प्रकार रामचंद्र ने स्मितपूर्वक कहा । वहां जाकर लक्ष्मण से प्रार्थना करने पर , तुम रामचंद्र के पास गयी थी , इसलिए मेरे लिए पूज्य के समान हो गयी हो इस प्रकार कहा । वह याचना के खण्डन से और पुत्र के वध से क्रोधित हुई ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
U
12-2-2021
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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(69)
गतांक से आगे :-
खर आदि को उसके द्वारा किये गये पुत्रवध के बारे में कहा । वे चौदह हजार विद्याधरों से युक्त रामचंद्र पर उपद्रव करने के लिये आए । मेरे होते हुए आर्य कैसे लड़ सकते है ? इस प्रकार कहकर लक्ष्मण युद्ध के लिए निकला । यदि संकट आये तब मुझे बुलाने के लिये सिंहनाद करना । इस प्रकार रामचंद्र ने शिक्षा दी । युद्ध के चलते समय चन्द्रनखा ने अपने पति की सेना की पीठ वृद्धि करने के लिए अपने भाई रावण के पास जाकर कहा - दण्डयकारक में मनुष्य ऐसे रामचंद्र -लक्ष्मण ने तेरे भांजे को यमातिथि बना दिया है । तेरे बहनोई यह सुनकर लक्ष्मण से युद्ध कर रहे है । रामचंद्र तो सीता के साथ विलास कर रहा है और सीता रुपलक्ष्मी से स्त्रियों की सीमा हैं । वह स्त्रीरत्न तेरे ही योग्य हैं । इस प्रकार एक बहन ने भाई को परनारी प्रति प्रेरित किया । रुपवान नारी की बात सुनकर रावण पुष्पक विमान में चढ़कर आदेश दिया - जहाँ सीता है वहाँ चलो । वहाँ आकर रावण सीता के रुप लावण्य को देखकर कामातुर होकर भी रामचंद्र से डरता हुआ सीता को हरण करने में असमर्थ रहा । तब अवलोकिनी विद्या का स्मरण किया । दासी के समान हाथ जोड़कर खड़ी उसको -मुझे सीता के हरण में सहाय कर इस प्रकार कहा । उसने कहाँ -सर्पराज के मस्तक पर रहे रत्न को लेना शक्य है किन्तु रामचंद्र के समीप में रही सीता का अपहरण करना मुश्किल है । किन्तु एक उपाय हैं , जिससे यह रामचंद्र लक्ष्मण के पास चला जायें और वह सिंहनाद का संकेत है । रावण के आदेश से उस विद्या ने लक्ष्मण के समान सिंहनाद किया । रामचंद्र ने सुनकर विचार किया - मेरा भाई किसी से भी संकट प्राप्त नहीं कर सकता किन्तु सिंहनाद का संकेत सुनाई दे रहा है । सीता ने लक्ष्मण के वात्सल्य से कहा - आर्यपुत्र ! विलम्ब क्यों कर रहे हो ? शीघ्र जाईए और रक्षा करें । रामचंद्र -सीता के वचनों से और सिंहनाद से प्रेरित होते हुए , उस समय होते अपशकुनों की भी अवगणनाकर शीघ्र गया । अब रावण रोती सीता को पुष्पक विमान में बिठाने लगा । जटायु उसके पीछे जाता हुआ -स्वामिनी ! यह मैं हूँ । डरो मत ! रे राक्षस रुक-रुक इस प्रकार कहते हुए चोंच और करोड नखों से रावण की छाती को विदारने लगा । रावण ने खड्ग से उसके दोनों पंखों को छेदकर भूमि पर गिरा दिया । स्वयं नि:शंक होते हुए आकाशमार्ग से प्रयाण किया । हा रामचंद्र ! हा लक्ष्मण ! हा पिताजी ! हा भामण्डल ! इस प्रकार सीता रोने लगी । अर्कजटि का पुत्र रत्नजटी विद्याधर उसका रोना सुनकर रावण के द्वारा सीता का अपहरण किया जा रहा है इस प्रकार विचारकर प्रभु भामण्डल का आज मैं उपकार करुंगा ऐसा सोचकर खड्ग सहित रावण को बीच में रोका । रावण ने हंसकर विद्या हरण कर ली । उससे वह भूमि पर गिरा और कम्बुद्वीप में कम्बुपर्वत पर रहने लगा । रावण भी आकाश मार्ग से समुद्र के ऊपर जाते हुए सीता को सान्तवना देने लगा - हर्ष के स्थान पर शोक क्यों कर रही हो ? मनुष्य और विद्याधरों के राजा ऐसे मेरी पट्टरानी का पद प्राप्त किया है । भाग्य से पूर्व में मदभाग्य रामचंद्र ने तुझको अपने साथ जोड़ते हुए उचित नहीं किया किन्तु मैंने उचित किया हैं । मैंरी पत्नी बनने पर , विद्याधरी-विद्याधर भी तेरे दास हैं । सीता नीचे मुख कर राम इस प्रकार दो अक्षरों का स्मरण करने लगी । रावण के द्वारा पैरों में गिरने पर , पर पुरुष स्पर्श से भयभीत पैरों को हटा दिये और आक्रोश करने लगी -रे निर्लज्ज ! परस्त्रीकामना के फल के रुप में शीघ्र ही मृत्यु प्राप्त करोगे । सन्मुख आये सारण आदि मंत्रियों से और अन्य राक्षस सामन्तों से घेरा हुआ रावण लंका आया । जब तक रामचंद्र -लक्ष्मण के कुशल समाचार प्राप्त न करुं तब तक भोजन नहीं करुँगी , इस प्रकार सीता ने अभिग्रह लिया । रावण लंका के पूर्वदिशा में रहे देवरमण नामक उद्यान में लाल अशोकवृक्ष के नीचे त्रिजटा और आरक्षकों से घेरी सीता को छोड़कर आनंदित होते हुए अपने महल में गया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
13-2-2021
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( 70)
गतांक से आगे :
माता-पिता की आज्ञा की प्राप्ति का विधान जैन शासन में आत्मिक एवं भौतिक दोनों कार्यों में विधिवत् दर्शाया हुआ है । जिनशासन ने ' आणाए धम्मो ' सूत्र ही दे दिया है । जिनाज्ञा से प्रतिबद्ध जिन-जिन की जिस-जिस समय पर उपयोगी हो , उस-उस समय पर उस आज्ञा की प्रतिपालना करने से ही उस कार्य में पूर्ण सफलता मिलती हैं ।
शंबूक को सूर्यहास खड्ग साधना था । खर एवं चन्द्रनखा को इतने कष्ट सहनकर उसकी साधनाकर उसे प्राप्त करना आवश्यक दिखायी न दिया इसलिए मना किया । शंबूक ने निषेध करने के महत्व को न समझा और बालहठ जैसी प्रवृति में आकर साधना करने चला गया ।
पदार्थ की प्राप्ति पूर्व के पुण्य पर आधारित है । कोई आठ घंटे मेहनतकर सौ रुपये प्राप्त करता है , कोई दो सौ कमाता है तो कोई एक घंटे में बिना काया से पुरुषार्थ किये केवल वचन पुरुषार्थ से ही लाख रुपये कमा लेता है । यह सब पुण्योदय के आधिन है ।
परिश्रम शांबूक ने किया और पुण्योदय लक्ष्मण का था । घूमते-घूमते वहाँ आये और सूर्यहास ले लिया । आनेवाली विपत्ति बिना निमित्त दिये नहीं आती । शंबूक का वध विपत्ति में निमित्त बन गया ।
निरपराधि का वध हो जाने से लक्ष्मण ने पश्चाताप बहुत किया पर धनुष में से बाण छूट जाने पर वापिस नहीं आता वैसे ही अब शंबूक जिंदा नहीं हो सकता ।
ज्ञानियों की नजर में संसार अनेक विचित्रताओं से भरा हुआ हैं । उनमें से एक विचित्रता को चंद्रनखा ने सिद्ध कर दिखायी । पुत्र की मृत्यु को घंटे भी नहीं बीते और रुपवान पुरुष को देखकर वासनाग्रस्त बन गयी । विषयवासना कितनी भयंकर है यह भी यहां सिद्ध होता है । जिस समय रोटी भी गले के नीचे नहीं उतरती ऐसे प्रसंग में वासना की उत्पत्ति का होना और उसकी पूर्ति भी लोक विरुद्ध और धर्म विरुद्ध कृत्य से करने को तैयार होना । यही संसार की भयंकरता है ।
वासना की पूर्ति न हुई तब क्रोधाग्नि प्रज्वलित बनी और सगे भाई को परस्त्री के प्रति प्रेरित करने का भयंकर पापाचार कर बैठी ।
क्रमशः
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
U
14-2-2021
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 71 )
गतांक से आगे :
परस्त्री के कारण , सीता के कारण मेरी मृत्यु का विधान केवलज्ञानी ने कहा है । इसे नजरअंदाज कर रावण ने वासनाग्रस्त बनकर मृत्यु को घर पर निमंत्रित कर दिया । हजारों रुपवान नारियों से वासना तृप्त न हुई और सीता से वासना की तृप्ति करने की चाहना से उसका अपहरण किया यह भी एक विडंबना ही है ।
रामचंद्र के पास से सीता का अपहरण अर्थात वासुकी नाग की फणा पर से मणि ग्रहण करना । तब वहां पर भी रावण ने माया का सहारा लिया । एक पाप को करने के लिए अनेक पाप करने पड़ते हैं । इसे रावण ने सिद्ध किया । बनावटी सिंहनाद करवाया , जटायु के पंख छेदे , रत्नजटी की विद्याओं का हरण किया ये सब पाप पर स्त्री के अपहरण के पाप के कारण हुए ।
जटायु ने , रत्नजटी ने अपना धर्म बजाया । सत्य की रक्षा के लिए शक्ति उपरांत भी कार्य करने में धर्म है , अधर्म नहीं । ऐसे समय में कर्तव्य धर्म न बजानेवाला कृतघ्न की कोटि में आ जाता हैं । इन दोनों को ध्यान था कि हमारा कुछ भी चलेगा नहीं परंतु हमें हमारा कर्तव्य अदा करना ही है और दोनों ने कर्तव्य अदा किया ।
रामचंद्र को भी सिंहनाद ने भूलाया इसमें भावी का संकेत था । इसीलिए लक्ष्मण की शक्ति में शंकाशील हुए । बलदेव और वासुदेव के समय में उनसे बलवान कोई नहीं हो सकता यह अटल नियम हैं । तभी तो बलदेव वासुदेव के समय में चक्रवर्ती नहीं हो सकता यह सिद्धान्त हैं । रामचंद्र भावी विपत्ति के कारण लक्ष्मण को मेरी सहायता चाहिए ये भाव और सीता को देवर के प्रति की प्रीति के भावों ने रामचंद्र को जाने के लिए प्रेरित किया ।
तीन खंड का भोक्ता भी वासना का कैसा गुलाम होता है इसके उदाहरण को पूर्ण किया रावण ने सीता के पैंरो में गिरकर वासनापूर्ति की भिख मांगकर ।
पतिव्रता सीता को उसी समय अभिग्रह ले लेने का कारण था । मेरे विरह में अगर कोई अनर्थकर घटना घटित हो जाय तो मुझे खाने-पीने का कोई काम नहीं हैं । इसलिए उनके सकुशलता के समाचार न मिले वहां तक खान-पान का त्याग कर दिया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
जैन रामायण
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
U
15-2-2021
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 72 )
षष्ठ : सर्ग
गतांक से आगे :
यहाँ लक्ष्मण धनुष सहित रामचंद्र को आया देखकर -अकेली आर्या को छोड़कर आप किसलिए आये है ? इस प्रकार कहा । तेरे सिंहनाद से आया हूँ । ऐसे रामचंद्र के कहने पर मैंने सिंहनाद नहीं किया हैं । आप ठगे गये हैं । शीघ्र जाईए और आर्या की रक्षा करें । शत्रुओं को मारकर यह मैं आ रहा हूँ । इस प्रकार लक्ष्मण ने कहा । रामचंद्र स्वस्थान आ गया । सीता को न देखकर मूर्छित होकर गिर पड़े । चेतना प्राप्तकर मरण सन्मुख रहे उस जटायु को देखकर सोचने लगे -निश्चय ही किसी ने सीता का हरण किया है और इसको मारा है । रामचंद्र ने उसको नमस्कार महामंत्र सुनाया और वह मरकर माहेन्द्र कल्प में देव हुआ । विपत्ति में भी दूसरों का ख्याल रखकर दूसरे के उत्थान की भावना से प्रेरित होने से ही नमस्कार महामंत्र सुनाने के भाव उत्पन्न हुए । रामचंद्र भी सीता को ढूँढने के लिए यहाँ-वहाँ अटवी में भ्रमण करने लगे ।
लक्ष्मण के युद्ध करने पर , खर के छोटे भाई त्रिशिरस् ने बड़े भाई को रोककर स्वयं युद्ध करने लगा और लक्ष्मण के द्वारा मारा गया । तब पाताललंका के राजा चन्द्रोदर का पुत्र विराध विशाल सैन्य के साथ वहाँ आया । लक्ष्मण को नमस्कार कर , मैं आपका दास हूँ । ये रावण के संबंधी हैं । इन्होंने मेरे पिता को मारकर पाताललंका ग्रहण की हैं । लक्ष्मण ने कहा - मेरे द्वारा मारे जाते हुए शत्रुओं को तू देख । पाताललंका पर तू स्थापित किया जाता है । आज के बाद मैरे बड़े भाई तेरे स्वामी हैं । खर लक्ष्मण के पास शत्रु विराध को देखकर अधिक क्रोधित हुआ । धनुष पर डोरी चढ़ायी और सामने आकर कहने लगा -रे विश्वासघातक ! मेरा पुत्र शंबूक कहाँ है ? अब बिचारा विराध तुझे क्या बचा सकता है ? लक्ष्मण स्मितकर कहने लगा - तेरा भाई त्रिशिरस् भतीजे से मिलने के लिए उत्कण्ठ था । उसको मैंने भतीजे के पीछे भेज दिया है । यदि तेरी भी पुत्र और भाई से मिलने की उत्कण्ठा है , तो तुझे भी वहाँ भेज देता हूँ । तेरा पुत्र मेरे द्वारा प्रमाद से मारा गया था । वहाँ पराक्रम की बात नहीं थी । तू मेरे कुतूहल को पूर्ण कर । तत्पश्चात् उन दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ । अहो ! खर की वासुदेव के साथ भी युद्ध करने के लिए शक्ति इस प्रकार आकाशवाणी हुई । लक्ष्मण ने आक्रोश में आकर तत्काल ही बाण से खर के मस्तक को छेद दिया । उसके बाद युद्ध के लिए आये दूषण को भी मार दिया । फंड़कती हुई बांयी आँखवाला लक्ष्मण विराध के साथ वापिस लौटा । सीता रहित रामचंद्र को देखकर दु:खित हुआ ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
16-2-2021
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(73 )
गतांक से आगे :
रामचंद्र सामने खड़े लक्ष्मण को नहीं देखते हुए विरह से पीड़ित आकाश से कह रहे थे -हे वनदेवियाँ ! वन में घूमा किन्तु सीता को नहीं देखा ।क्या तुमनें नहीं देखी ? भयंकर अरण्य में अकेली सीता को छोड़कर लक्ष्मण के पास गया था । वहाँ हजारों राक्षसों से आकुल रण में अकेले लक्ष्मण को छोड़कर फिर यहां आया । हा सीता ! मैंIने अरण्य में तुमें क्यों छोड़ा ? हा वत्स ! मैंने रण के संकट में तुझे कैसे छोड़ दिया ? इस प्रकार कहते हुए मूर्छित हुए । लक्ष्मण ने कहा - आर्य ! आर्य! यह क्या हैं ? यह तेरा भाई शत्रुओं को जीतकर उपस्थित हुआ है । रामचंद्र उस वचन के द्वारा अमृत से सिंचित के समान होश में आये और भाई को देखकर भेंट पड़े । लक्ष्मण ने कहा - किसी मायावी ने सीता के अपहरण के लिए सिंहनाद किया था । उसके प्राणों के साथ सीता को हरण करुँगा । अभी उसके समाचार के लिए हम प्रयत्न करें । इस समय तो इस विराध को पाताललंका के राज्य पर स्थापित किया जायें । यह मैंने ही स्वीकार इक्ष्वाकु वंशज रामचंद्र-लक्ष्मण , वहाँ रहे हुए , बार-बार नि:श्वास छोड़ते हुए , क्रोध से होठ को दांतो से दबाते हुए स्थित हुए । सुभट सीता के वृतान्त को प्राप्त न कर वापिस आये , नीचे मुख कर खड़े रहे । रामचंद्र ने कहा - तुमने यथाशक्ति प्रयत्न किया , तो भी सीता के समाचार नहीं मिले । वहाँ तुम्हारा क्या दोष है ? भाग्य ही बलवान है । विराध ने विज्ञप्ति की-प्रभु ! आप उदासी मत बनें । उदासीरहितता ही सिद्धि का मूल हैं । मैं आपका नौकर हूँ । आप चलें और मुझे पाताललंका में स्थापित करें । वहाँ सीता की प्रवृति सुलभ होगी । लक्ष्मण सहित रामचंद्र , सैन्य से युक्त विराध के साथ वहाँ आये । वहाँ खर का पुत्र सुन्द विराध के साथ युद्ध करता हुआ , रामचंद्र और लक्ष्मण के रण में खड़े होने पर , चन्द्रनखा की वाणी से भागकर लंका में रावण की शरण में गया । रामचंद्र-लक्ष्मण ने विराध को पिता के पद पर स्थापित किया । स्वयं रामचंद्र-लक्ष्मण खर राजा के महल में रहे । विराध सुन्द के महल में रहा ।
यहाँ तारा के अभिलाषी साहसगति को हिमवंत पर्वत पर प्रतारणी विद्या सिद्ध हुई । उस विद्या के द्वारा उसने सुग्रीव का रुप किया और किष्किन्धपुर आया । क्रीड़ा के लिए सुग्रीव के नगर के बाहर जाने पर , तारादेवी से भूषित अन्त:पुर में जाने के लिए नकली सुग्रीव ने नगर में प्रवेश किया । इधर थोड़े समय के बाद सत्य सुग्रीव वापिस आया । सुग्रीव राजा पहले चले गये है आप कौन हो ? इस प्रकार कहते हुए द्वारपालों ने उसको ( सत्य सुग्रीव को ) रोक दिया । वालि का पुत्र चन्द्ररश्मि इन दो सुग्रीवों को देखकर अन्त:पुर को बचाने के लिए उस द्वार की ओर गया । अन्त:पुर में प्रवेश करते जार सुग्रीव को रोक दिया । सैनिकों की चौदह अक्षोहिणी सेनाएँ मिली । सैनिक दोनों के भेद को नहीं जानते हुए सत्य सुग्रीव और जार सुग्रीव की ओर आधे-आधे भाग में विभाजित हो गये । दोनों सेनाओं के बीच महायुद्ध हुआ । सुग्रीव ने जार सुग्रीव को रे परगृह में प्रवेश करने वाले श्वान आ आ इस प्रकार युद्ध के लिए आव्हान किया । दोनों युद्ध करने लगे । परस्पर छेदे हुए अस्त्र वाले मल्लयुद्ध से युद्ध करने लगे । दोनों भी विशेष प्रयत्नशील , परस्पर जीतने में असमर्थ हुए और हटकर दूर खड़े हुए । सुग्रीव ने सहाय करने के लिए हनुमान को बुलाकर फिर से नकली सुग्रीव के साथ युद्ध करने लगा । जार सुग्रीव के भेद को नहीं जानते हनुमान के देखने पर भी सुग्रीव को मारने लगा । सुग्रीव खेदित हुआ । किष्किन्धपुर के बाहर जाकर आवास ग्रहण किया । जार सुग्रीव वालि के पुत्र चंद्ररश्मि के रोकने के कारण अन्त:पुर में प्रवेश प्राप्त नहीं करने से , अस्वस्थ चित्तवाला वहीं रहा ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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17-2-2021
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( 74 )
गतांक से आगे :
सुग्रीव ने सोचा - यह कोई वैरी , स्त्री लम्पट और मायावी है । इसकी माया से अपने भी पराये हो गये हैं । इसको मैं कैसे मारुं ? वाली के भाई के नाम को लज्जित करने वाले मुझको धिक्कार हो । वाली धन्य है जो अखण्ड पुरुषव्रतवाला था और जिसने राज्य को छोड़कर मोक्ष प्राप्त किया । चन्द्ररश्मिकुमार बलवान है । किन्तु किसकी रक्षा करुँ ? अथवा किसे मारुँ ? यह भेद नहीं जानता हैं । इसने यह तो अच्छा किया कि उस पापी का अन्त:पुर प्रवेश रोक दिया । इस शत्रु के वध में किस बलवान पुरुष का मैं आश्रय लूँ ? क्या रावण का आश्रय लूँ ? किन्तु वह तो स्वभाव से ही स्त्रीलोलुपी है । उसे और मुझको दोनों को मारकर स्वयं तारा को ले जायेगा । ऐसे दु:ख में खर सहाय करने में समर्थ था । किन्तु लक्ष्मण ने उसे मार दिया । उन रामचंद्र -लक्ष्मण से ही मैत्री करुँ ! जिन्होंने तत्काल नमस्कार किये विराध को राज्य दिया हैं । वे दोनों विराध के अनुरोध से पाताललंका में रह रहे है । इस प्रकार सोचकर दूत को रहस्य में ( गुप्त ) शिक्षा देकर भेजा । दूत पाताललंका में जाकर विराध को नमस्कार कर सर्व वृतान्त कहकर - हमारे स्वामी आपके सहाय से रामचंद्र-लक्ष्मण का आश्रय लेंगे इस प्रकार कहा । विराध ने कहा सुग्रीव यहाँ आ जाये , इस प्रकार उसके द्वारा कहने पर , दूत ने जाकर सुग्रीव से कहा । सुग्रीव अश्वों के गले के अलंकारों के शब्दों से दिशाओं को मुखर बनाते हुए पाताललंका आया और विराध के समीप गया । विराध खड़ा हुआ । उचित स्वागतकर फिर दोनों रामचंद्र के समीप में गये । सुग्रीव ने रामचंद्र को नमस्कार किया और अपने दु:ख के बारे में कहा । इस दु:ख में आप ही मेरे सहायक हैं । रामचंद्र स्वयं दु:खी होते हुए भी उसके दु:ख के छेदन को स्वीकार किया । विराध ने सुग्रीव को सीता अपहरण के बारे में ज्ञापन किया । सुग्रीव ने अंजलि जोड़कर विज्ञप्ति की कि -हे देव! आपको किसी कारण की अपेक्षा नहीं है तो भी मैं कहता हूँ मैं आपके भाई के समान हूँ । आपकी कृपा से मैं शत्रु रहित होते हुए सैन्य सहित सीता के समाचार लाऊँगा । रामचंद्र विराध को विदा कर सुग्रीव सहित किष्किन्धा की ओर प्रयाण किया । रामचंद्र के किष्किन्धा द्वार आने पर , सुग्रीव ने मायावी सुग्रीव को युद्ध के लिए आव्हान किया । दोनों पृथ्वी को कंपाते हुए युद्ध करने लगे । रामचंद्र भी उन दोनों को समान देखकर संदेह करते हुए क्षणमात्र उदासीन के समान रहकर वज्रावर्त नामक धनुष के टंकार से साहसगति के रुपान्तर कारी विद्या को भगा दिया । रे पापी ! माया से सभी को मोहितकर परस्त्रियों के साथ क्रीड़ा करने की इच्छा करता है ? इस प्रकार कहकर धनुष का आरोपणकर एक बाण से उसके प्राणों का हरण कर लिया ।
रामायण में परनारी की इच्छा वाले साहसगति और रावण ये दो पात्र दिखायी देते है । उसमें साहसगति का संबंध तो तारा का विवाह मेरे साथ होने वाला था और सुग्रीव से इसकी शादी हो गयी इस कारण तारा को प्राप्त करने के लिए विद्या साधने लगा । विद्या साधकर आया और सुग्रीव का रुप ले लिया । तारा का मिलन तो न हुआ परंतु " मारा " का मिलन हो गया ( मारा यानि मारनेवाला )। बेचारा विद्या साधन में मानवभव का अमूल्य समय व्यर्थ में हारकर अंत में उसी विद्या के कारण बे मौत मारा गया । परस्त्री अभिलाषा का फल साहसगति ने प्राप्त कर लिया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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18-2-2021
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( 75 )
गतांक से आगे :
सुग्रीव को राज्य पर स्थापित किया । अपनी तेरह कन्याओं को देते हुए सुग्रीव को सीता अन्वेषण के लिए ही प्रयत्न करो इस प्रकार कहा और नगर के बाह्य उद्यान में रहा । सुग्रीव ने रामचंद्र के आदेश से अपनी नगरी में प्रवेश किया ।
यहाँ लंका में खरादि वध की श्रुति से मन्दोदरी आदि रोने लगी । सुन्द सहित चन्द्रणखा रोती हुई , हाथों के द्वारा छाती पीटती हुई , रावण के महल में प्रवेशकर , रावण के गले लगकर - हा मारी गयी । पुत्र , पति और दोनों देवरों को मार डाला । चौदह हजार विद्याधर सैनिक मारे गये । पाताललंका नगरी तेरे जीवित होते हुए भी , शत्रुओं के द्वारा छीन ली गयी है इस प्रकार कहने लगी । रावण ने तेरे पति पुत्र को मारनेवाले को शीघ्र ही मार दूँगा इस प्रकार उसको आश्वासन दिया और स्वयं उस शोक से और सीता के विरह के रोग से शय्या पर लेट गया । मन्दोदरी ने उसका कारण पूछने पर रावण ने कहा -सीता के विरह ज्वर से न चेष्टा करने में , न बोलने में और न देखने में समर्थ हूँ । यदि मेरे जीवन से तुझे प्रयोजन है , तो मान छोड़कर उससे प्रार्थना कर । गुरु साक्षी से मैने
' मुझे नहीं चाहती परनारी को नहीं भोगूँगा ' यह नियम लिया हुआ है । अतः तू वहां जाकर सीता को मुझ पर प्रीतिवाली बना । मैं सीता के विरह से अत्यंत पीड़ित हूँ ।
वह भी पति की पीड़ा से पीड़ित सीता के पास जाकर कहने लगी - मैं रावण की पट्टराणी मन्दोदरी हूँ । तेरा दासीत्व स्वीकारुँगी । तुम रावण को भजो । तू धन्य है कारण कि विश्व सेव्य पदकमलवाले मेरे पति तेरी सेवा करने की इच्छावाले हैं ।यदि तू इनको प्राप्त करोगी, तब सेवकमात्र रामचंद्र से क्या प्रयोजन ? सीता क्रोधित होकर कहने लगी- कहाँ गरुड़ और कहाँ कौआ ? कहाँ रामचंद्र और कहाँ तेरा पति ? तुम दोनों पापियों का दम्पतित्व योग्य हैं । क्योंकि एक अन्य स्त्रियों से क्रीड़ा करने की इच्छावाला है और दूसरी उसकी दूती है । तू देखनें लायक भी नहीं हो । चली जाओ , नजर के सामने से हट जाओ । रावण भी तब वहाँ आ गया और कहने लगा - तू किसलिए कूपित हो रही हो ? मन्दोदरी तेरी दासी है , मैं दास हूँ । कृपा कर , आँख से मुझे एक बार देखकर मेरी इच्छा को तुम क्यों पूर्ण नहीं करती ? सीता परांगमुख हुई और कहने लगी- रे रामचंद्र की पत्नी को हरण करते हुए यम की दृष्टि ने देख लिया हैं । शत्रुओं के लिए काल के समान लक्ष्मण सहित रामचंद्र के यहाँ आने पर तू कितने काल जीयेगा ? इत्यादि प्रकार से सीता ने आक्रोश किया । सीता के वचन को अनसुना करके पुनः काम से विड़म्बित वैसे ही प्रलाप करने लगा ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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19-2-2021
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( 76 )
गतांक से आगे :
इसी बीच सूर्य के पश्चिम लवणसमुद्र में डूब जाने पर , रात्रि के समय रावण ने सीता पर घोर उपसर्ग किये । घूत्कार करते उल्लू , फुत्कार करते श्रृगाल , विविध प्रकार के क्रन्दन करते भेड़िये , परस्पर युद्ध करती बिल्लियाँ , पूंछ को उछालते शेर , फुत्कार करते सर्प , हाथ में खिंची हुई तलवार वाले पिशाचादि उछलते हुए सीता के समीप गये । सीता नमस्कार महामंत्र का ध्यान धरती हुई भयरहित ही स्थित हुई । किन्तु रावण का आश्रय नहीं लिया ।
मन्दोदरी को जहाँ धर्मपत्नित्व के नाते रावण को परनारी के प्रति जो भाव उत्पन्न हुए थे । उस पर कठोर शब्दों से कुठाराघात करना था । उसका तिरस्कार भी करना था । उसे समझाना था । परनारी के कारण मृत्यु की याद दिलानी थी । ऐसा कुछ न करके विपरित सीता को समझाने के लिए जाकर अपने आप पर उसने कलंक का काला तिलक लगाया ।
सीता ने मन्दोदरी को कड़क शब्दों में अवहेलना की यह योग्य ही किया है ।
रावण की मृत्यु ही रावण को सद्बुद्धि उत्पन्न नहीं होने दे रही हैं ।
अवसर्पिणी काल के नौ प्रतिवासुदेवों में एक यह रावण ही अपने आपको कलंकित करके गया हैं ।
सीता को रावण ने भयभीत कर सतीत्व से गिराना चाहा । पर वह भूल गया कि महाभयंकर वायु भी पर्वत को हिला नहीं सकता । वैसे ही पर्वत सम अपने सतीत्व धर्म में अड़िग सीता अपने सतीत्व में लेश भी छूटछाट नहीं देगी ।
थककर रावण रात को घर में जाकर सो गया ।
बिभीषण प्रातः उस रात की घटना के बारे में अन्य सभ्यलोगों के मुख से सुनकर सीता के समीप गया । सीता से कहा- भद्रे ! तू कौन है ? कहाँ की हो ? यहाँ कैसे आयी ? डरो मत । परस्त्री के लिए भाई के समान मुझे सब कहो । सीता भी उसको मध्यस्थ जानकर , नीचे मुखकर कहने लगी- मैं जनक की पुत्री , भामण्डल की बहन , रामचंद्र की पत्नी और दशरथ की पुत्रवधु हूँ । दण्डकारण्य में देवर ने अज्ञान से वांस समूह के मध्य में रहे साधक के सिर को , वहाँ देखी गयी तलवार से छेद दिया । पश्चाताप सहित भाई से निवेदन किया । उसी खड़ग साधक की कोई उत्तरसाधिका ने रतिक्रिड़ा के लिए मेरे पति से याचना की । मेरे पति और देवर से अनादर को प्राप्त वह चली गयी । राक्षस की सेना आने पर सिंहनाद का कष्ट के सूचन हेतु संकेतकर , लक्ष्मण युद्ध में गया और इस राक्षस ने माया से किये गये सिंहनाद के द्वारा मेरे पति को दूर ले जाकर खुद के वध के लिए मेरा अपहरण किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
20-2-2021
( 77 )
गतांक से आगे :
बिभीषण वह सुनकर रावण के महल में आकर रावण को नमस्कारकर कहने लगा -प्रभु ! तूने यह कुलकलंकित काम किया है । जब तक रामचंद्र मारने नहीं आ जाता , तब तक इसको रामचंद्र के समीप ले जाकर छोड़ दो । बिभीषण के ऐसे वचन सुनते ही रावण क्रोध से लाल आँखोंवाला होते हुए कहने लगा -भीरु ! यह क्या कह रहे हो ? मेंरे पौरुष को भूल गये ? सीता अवश्य मेरी पत्नी होगी । यदि रामचंद्र-लक्ष्मण यहाँ आ जायेगें तो उन्हें मार दूँगा । बिभीषण ने कहा - ज्ञानी का वचन सत्य है कि रामचंद्र की पत्नी सीता के लिए हमारा कुलक्षय होगा । मुझ भक्त के वचनों को भी तुम नहीं मान रहे हो यही हमारे कुलक्षय की निशानी है । अन्यथा दशरथ जो मेरे द्वारा मारा गया था , तो भी जीवित कैसे रहा ? यद्यपि होने वाला ही होता है , तो भी प्रार्थना करता हूँ -कुलघातिनी सीता को छोड़ दों । रावण उसके वचन नहीं सुनने के समान अपने स्थान से उठकर पुष्पक विमान में सीता को बिठाकर क्रीड़ा पर्वत , उद्यान , पानी की धारा बरसते गृह में , रतिगृह आदि में जहाँ तेरी रति हो वहाँ मेरे साथ रमण कर इस प्रकार कहते हुए दिखाये । पुनः भी अक्षोभित उसको अशोक वाटिका में छोड़ दिया ।
बिभीषण ने रावण को उन्मत के समान देखकर कुल के अमात्यों को मंत्रणा के लिए बुलाया और कहने लगा - हे कुल अमात्यों ! काम आदि दुर्जय शत्रु हैं । अकेला काम ही दुर्जय हैं । पुनः परनारी से क्रीड़ा करने की इच्छा को साकार करनेवाले की क्या बात करें ? उससे आज लंका का राजा संकट रुपी समुद्र में गिर गया है । मंत्रियों ने कहा- हम तो नाम से ही मंत्री है , दूरदर्शी मंत्री तो आप ही हो । प्रभु के काम से पीड़ित होने पर सलाह क्या कर सकती हैं ? रामचंद्र की ओर सुग्रीव हनुमान प्रमुख मिल गये हैं । ज्ञानी के द्वारा सीता के कारण इक्ष्वाकु वंशज रामचंद्र -लक्ष्मण से हमारे कुल का क्षय कहा हैं । ' 'विनाशकाले विपरित बुद्धि: ' कहावतानुसार हमारे स्वामी का विनाश काल आ गया है इसलिए परनारी हरण की बुद्धि उत्पन्न हुई हैं और आप जैसे भाई की सच्ची सलाह भी अप्रिय लग रही हैं । उसके बाद बिभीषण ने किले पर यंत्र आदि स्थापनकर नगरी की सुरक्षा के सभी ठोस उपाय किये ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
021-02-2021
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( 78 )
गतांक से आगे :
यहाँ लक्ष्मण, रामचंद्र को आश्वासन देता हुआ कैसे भी करके कुछ काल बिताया । रामचंद्र ने शिक्षा देकर लक्ष्मण को सुग्रीव के महल में भेजा । सुग्रीव सीता की खोज का आश्वासन देकर उस बात को सर्वथा भूल गया था इसलिए लक्ष्मण को भेजा था । लक्ष्मण तरकश, धनुष , तलवार को धारण करता हुआ , भृकुटि चढ़ाया हुआ , लाल नेत्रवाला , पद न्यासों के द्वारा पृथ्वी को दलता हुआ , पर्वत को कंपाता हुआ , भयभीत द्वारपालों के द्वारा दिए हुए मार्गवाला , सुग्रीव के महल में पहुँचा । सुग्रीव ने लक्ष्मण को आया हुआ सुनकर अन्त:पुर से निकलकर काँपते हुए शरीरवाला उसके सामने आकर खड़ा हुआ । लक्ष्मण ने क्रोध से कहा- कृतकृत्य बनकर सुखपूर्वक रह रहे हो । क्या तू नहीं जानता वृक्ष के नीचे बैठे स्वामी एक दिन एक वर्ष के समान बीता रहे हैं ? स्वीकारे कार्य को भूल गये ? सीता समाचार के लिए प्रयत्न कर । साहसगति के मार्ग में मत जाओं । सुग्रीव पैरों में गिरकर कहने लगा - कृपा करें । एक बार के प्रमाद को सहन करें । लक्ष्मण की दो प्रकार से ताड़ना , तर्जना सहकर रामचंद्र के पास आकर रामचंद्र को नमस्कार किया और अपनी सेना को सीता अन्वेषण के लिए भेजा । वे सैनिक द्वीप , पर्वत , नदी और भूमि के रन्ध्रों में शीघ्र-शीघ्र गये । भामण्डल भी सीता हरण को जानकर दु:खित हुआ और वहाँ आया । विराध भी सैन्य सहित रामचंद्र की सेवा में उपस्थित हुआ । सुग्रीव सहित सभी राजा स्वयं सीता को खोजने गये । एक बार सुग्रीव स्वयं कम्बुद्वीप गया । रत्नजटी ने दूर से उसको देखकर सोचने लगा - निश्चय ही रावण ने मेरी विद्या का हरणकर , मेरे वध के लिए इसको भेजा है । सुग्रीव ने उससे कहा - हे ! रत्नजटी मेरे आने पर अभ्युत्थान क्यों नही किया ? विमान के उपयोग में आलसी क्यों हो ? तब उसने सर्व वृतान्त कहां । सुग्रीव उसको रामचंद्र के समीप ले गया । रत्नजटी ने सीताहरण की बात करते हुए कहा कि -देव ! रोती देवी को रावण ने हरण किया हैं और क्रोध से मेरी विद्या को भी हर ली हैं । रामचंद्र सीता का समाचार सुनकर खुश हुआ और उस सुरसंगीतपुर के राजा रत्नजटी को आलिंगन किया । रामचंद्र बार-बार सीता का वृतान्त पूछने लगा । वह भी बार-बार रामचंद्र की प्रीति के लिए कहता । फिर रामचंद्र ने सुग्रीव आदि से पूछा - वह लंका कितनी दूर हैं ? उन्होंने कहा उस नगरी के दूर अथवा समीप से क्या प्रयोजन ? क्योंकि हम सभी रावण के लिए तृण के समान हैं । रामचंद्र ने कहा- उसके जीत अथवा हार की चिन्ता से पर्याप्त हुआ । केवल तुम उसको दिखाओ । उसके कंठ के रक्त को पीने में समर्थ लक्ष्मण के द्वारा छोड़े गये बाण से उसका सामर्थ्य जाना जायेगा । लक्ष्मण कहने लगा -कुत्ते के समान छल करनेवाला वह रावण कौन हैं ? क्षत्रिय आचार से उसके सिर को छेद दूँगा । तुम युद्ध रणनाटक को देखनें में सभ्य होना । वृद्ध जाम्बवान् ने कहा -सब आपमें घटता हैं । ज्ञानी ऐसे अनन्तवीर्य साधु ने कहा था - कोटिशिला को उठाने वाला रावण को मारनेवाला होगा । हमारे विश्वास के लिए उस शिला को उठायें । लक्ष्मण कोविमान के द्वारा वे वहाँ ले गये । उसने शिला को भुजा से उठाया । देवों ने पुष्पवर्षा की । पुनः विश्वास को प्राप्त वे लक्ष्मण को किष्किन्धा में रामचंद्र के पास ले गये ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
22-2-2021
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( 79 )
गतांक से आगे :
वानरवंशज के वृद्धों ने कहा - तुम्हारे द्वारा रावण का अंत होगा । किनुतु यह नीति हैं । पहले दूत भेजा जाये । वह नगरी कठिन-प्रवेश -निष्कासनवाली की गयी हैं । कोई समर्थ दूत भेजा जाये । वह जाकर नीतिमन्त बिभीषण से कहेगा । वह भी सीता की मुक्ति के लिए रावण को समझायेगा । रावण से अनादर पाया दूत आपके पास आयेगा । रामचंद्र के द्वारा दूत भेजने की अनुमति देने पर सुग्रीव ने श्रीभूति विद्याधर को भेजकर हनुमान को बुलाया । हनुमान ने आकर रामचंद्र को नमस्कार किया । सुग्रीव ने रामचंद्र से कहा - यह हनुमान संकट में हमारा श्रेष्ठ बंधु हैं । इसके समान द्वितीय कोई नहीं हैं । उसने प्रभु ! सीता वृतान्त के लिए इसको आदेश करें इस प्रकार हनुमान की प्रशंसा की । हनुमान ने कहा - मेरे समान अनेक वानरवंशज हैं । सुग्रीव राजा तो मुझ पर अत्यन्त स्नेह से कह रहे है । गव, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन, नील, द्विविद , मैन्द , जाम्बवान् , अंगद , नल दूसरें भी यहाँ श्रेष्ठ पुरुष हैं । आपके कार्य सिद्धि के लिए मैं भी संख्यापूरक हूँ । आपकी आज्ञा-आदेश हो तो राक्षसद्वीप सहित लंका को उठाकर यहाँ ले आऊँ ? बन्धु सहित रावण को बांधकर ले आऊँ ? वहीं कुटुम्ब सहित रावण को मारकर शीघ्र ही उपद्रव रहित देवी सीता को ही ले आऊँ ? रामचंद्र ने कहा - तुम यह सब करने में समर्थ हो परंतु तुम लंका जाओ और सीता की गवेषणा करो । यह मैरी अंगूठी देवी को चिन्ह के रुप में देना , उसके चूडामणि को यहाँ ले आना और मेरे संदेश को कहना कि - रामचंद्र तेरे वियोग से दु:खी तेरा ही ध्यान धरता है । मेरे विरह से जीवन मत छोड़ देना । लक्ष्मण के द्वारा मारे गये रावण को देखना ।
हनुमान भी -प्रभु ! जब तक मैं आपकी आज्ञा पूर्णकर न आ जाऊँ तब तक आप यहीं ठहरे । इस प्रकार कहकर विमान से लंका प्रति प्रयाण किया । महेन्द्रगिरि शिखर पर अपने नाना महेन्द्र के महेन्द्रपुर नगर को देखा । व्यक्ति अपने स्वजनों का अपमान सहन नहीं कर सकता , उसमें भी जब माता या पिता की कोई अवहेलना कर दे तो वह असह्य होती है । हनुमान को अपने ननिहाल के नगर पर से जाते माता याद आयी । माता की याद के साथ माता की इस नगर में हुई अवहेलना भी याद आयी ।
उस स्मृति ने मामा और नाना के प्रति अभाव और क्रोध को उत्पन्न किया । उस समय माता के साथ-साथ मेरा भी अपमान किया था । मैं माता की कुक्षि में था । पुत्री और दोहिते के अपमान का फल भुगतना चाहिए । इस प्रकार विचारकर रणभैरी बजायी । महेन्द्र भी सैन्य सहित बाहर निकला । परस्पर युद्ध हुआ । हनुमान ने शत्रु सैनाओं को क्षणमात्र में ही तोड़ दिया । महेन्द्र का पुत्र प्रसन्नकीर्ति भानजे के सम्बन्ध को नहीं जानते हुए हनुमान से युद्ध करने लगा । हनुमान ने सोचा धिक्कार हैं मुझे जो प्रभु के कार्य में विलम्ब किया और युद्ध करने लगा । जो क्षणमात्र में ही जीते जाये , वे अन्य हैं । यह तो मेरी माता का कुल हैं तो भी आरंभ किये गये कार्य के निर्वाह के लिये अवश्य जीतने लायक हैं । इस प्रकार सोचकर प्रहारों के द्वारा अस्त्र , रथ और सारथि को भग्नकर प्रसन्नकीर्ति को ग्रहण कर लिया । वैसे ही महेन्द्र राजा को भी ग्रहण किया । पश्चात् नमस्कारकर -मैं आपका दोहता , अंजना का पुत्र हूँ । रामचंद्र की आज्ञा से सीता की शुद्धि के लिए लंका जाते हुए माता के बहिष्करण का स्मरणकर क्रोध से इस प्रकार किया है । मेरे अपराध को क्षमा करें स्वामी कार्य के लिये जा रहा हूँ । आप सब मेंरे स्वामी के पास जायें इस प्रकार कहा । महेन्द्र भी आलिंगन कर उससे कहा - कान से तेरे पराक्रम की बातें सुनी थी । आज आँख से तेरा पराक्रम देख भी लिया । स्वामी का कार्यकर शीघ्र आना । हमभी रामचंद्र के पास जा रहे हैं ऐसा कहकर सैन्य सहित स्वयं रामचंद्र के पास गया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
23-2-2021
U
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( 80 )
गतांक से आगे :
हनुमान आकाश मार्ग से जाता हुआ , दधिमुखा नामक द्वीप में कायोत्सर्ग में खड़े दो मुनि और उनके समीप ध्यान में खड़ी कन्याओं को देखा और वहाँ पर किसी के द्वारा दावानल लगाया गया था उस दावानल के संकट में से साधु और कन्याओं को बचाया । हनुमान ने विद्या के द्वारा सागर के पानी से उस दावानल को बुझा दिया ।
अपने स्वार्थ की पूर्ति में बाधक व्यक्तियों को कष्ट में डालने की प्रवृति करने वाले सामनेवाले का पुण्य जागृत होता है तो कुछ नहीं कर सकते परंतु स्वयं अशुभ कर्म बांध ही लेते है ।
अंगारक विद्याधर कन्याओं को कष्ट देना चाहता है , परंतु उसने सोचा नहीं कि यहाँ मुनि भगवंत खड़े हैं । उसने मुनि आशातना का भी पाप सिर पर ले लिया । न वह कन्याओं का अहित कर सका । न कन्याओं को प्राप्त कर सका । अंत में हारकर भागना पड़ा । तभी सिद्धविद्या वाली उन कन्याओं ने मुनियों को प्रदक्षिणा कर हनुमान से कहने लगी -परमार्हत् ! साधु, साधु आपने साधुओं को उपसर्ग से बचाया । आपकी सहाय से समय के पूर्व ही हमको विद्याएँ सिद्ध हुई हैं । हनुमान ने पूछा तुम कौन हो ? उन्होंने कहा -इस दधिमुखपुर का गन्धर्वराज राजा है।उसकी पत्नी कुसुममाला की कुक्षि से हमने जन्म लिया है । बहुत से विद्याधरों ने हमारी माँग की । अंगारक नामक विद्याधर हमारे लिए उन्मत्त हुआ । पिता ने किसी को नहीं दी । पिता ने किसी ज्योतिषी से पूछा । तब उन्होंने साहसगति को मारनेवाला तेरी कन्याओं का वर होगा इस प्रकार कहा । पिता उसे जान न सके । हमने हमारे पति को जानने के लिए विद्यासाधन प्रारंभ किया अंगारक ने विघ्न करने के लिए दावानल प्रकट किया , जो आपके द्वारा बुझाया गया । जो छह माह में सिद्ध होनो वाली थी , वह मनोगामिनी विद्या , आपके सहाय से अतिशीघ्र ही सिद्ध हो गयी है । हनुमान ने साहसगति का वध रामचंद्र ने किया है और खुद के लंका गमन के बारे में सब बातें कहकर उड़ गया । कन्याओं से वृतान्त को जानकर पिता उनके साथ सैन्य सहित रामचंद्र के पास गया ।
लंका के समीप गये हनुमान को भयंकर आशालिका विद्या ने कहा - अरे ! वानर ! कहाँ जा रहे हो ? मेरा भोजन है तू । उसके द्वारा विस्तारित किये गये मुख में हनुमान ने प्रवेश किया और उसका पेट विदारणकर बाहर निकला । गदा हाथ में लिये हनुमान ने उसके द्वारा किये गये कोट को विद्या के सामर्थ्य से तोड़ दिया , क्रोधित और युद्ध करते वज्रमुख नामक उस कोट के रक्षक राक्षस को भी मार डाला । क्रोधित , विद्या से बलशाली और युद्ध करती उसकी कन्या लंकासुन्दरी को शस्त्ररहित किया । वह भी आश्चर्यसहित उसको देखती हुई , काम बाण से विद्ध होकर कहने लगी - मैंने पितृवध को क्रोध से , अविचारकर आपसे युद्ध किया । एक ज्योतिषी ने तेरे पिता को मारनेवाला तेरा पति होगा । इस प्रकार कहा था । अब आप मेरे साथ विवाह करें । आपके जैसे पति की प्राप्ति से मैं सरूव नारिओं में गर्वित बनूंगी । हनुमान ने उससे गान्धर्व विवाह से विवाह किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
24:2:21
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( 81 )
गतांक से आगे :
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
पिता की मृत्यु को घंटे भी नहीं बीते और पुत्री आनंद से पिता के मारनेवाले के साथ ही विवाह करती है । ऐसे इस संसार में अभी तक लोग संसार को मीठा मानकर आनंद से रह रहै है यही संसार का अद्भुत आश्चर्य हैं ।
सूर्य अस्तवर्ण वाला हुआ । अंधकार छाया और चंद्र का उदय हुआ । हनुमान ने वहाँ लंकासुन्दरी के साथ रात बीताकर सूर्योदय के समय उससे पूछकर लंका में प्रवेश किया । सर्वप्रथम बिभीषण के महल में गया । उसनें सत्कारकर आगमन का कारण पूछने पर हनुमान कहने लगा - शुभ परिणाम का विचार करते हुए रावण से सीता को छुड़ाओं । बलवान भी तेरे भाई को रामचंद्र के पत्नी का अपहरण दु:खदायी हुआ है । बिभीषण ने कहा - मैंने अग्रज से पहले भी सीता को छुड़ाने के लिए कहा था । फिर से भी आग्रह सहित प्रार्थना करुँगा ।
हनुमान वहाँ से उड़कर सीता के द्वारा आश्रित देवरमण उद्यान में गया । अशोकवृक्ष के नीचे गाल पर हिलते केशवाली , अश्रु से युक्त , म्लान मुखवाली , कृश और राम-राम इस प्रकार ध्यान करती देह से निरपेक्ष सीता को देखा और सोचने लगा यह महासति है । इसके दर्शन मात्र से पवित्रता प्राप्त होती है । योग्य है कि इसके विरह में रामचंद्र खेदित हो रहा है । यह रुपवान और शीलवान पत्नी है । यह रावण रामचंद्र के प्रताप से और पाप से दोनों प्रकार से भी गार जायेगा । विद्या से अदृश्य हनुमान ने सीता की गोद में अंगूठी गिरायी । वह अंगूठी को देखकर खुश हुई । सीता ने इधर-उधर , ऊपर-नीचे देखा , पर कहीं कोई दिखायी न दिया । तो भी उस अंगूठी से वह अत्यन्त आनंदित बनी । जैसे रामचंद्र के दर्शन हो गये हो । त्रिजटा ने उसी समय जाकर रावण से कहा -सीता इतने काल दु:खी थी । अभी तो वह आनंदित है । रावण ने मन्दोदरी से कहा - मैं मानता हूँ कि यह रामचंद्र को भूल गयी है और मुझ पर रागी है । इसलिए उसके पास जाकर समझाओ । वह भी जाकर सीता से कहने लगी -रावण अद्वैत ऐश्वर्य का स्वामी है , तू भी रुप से असमान रुपवाली हो । तुम दोनों का उचित योग होगा । मैं और रावण की अन्य पत्नियाँ तेरी दासी हैं । सीता उसका तिरस्कार कर कहने लगी - अरे पापिनी ! तेरा मुख भी देखना मैं नही चाहती । अब तुम मुझे रामचंद्र के पास जानो । रामचंद्र सहित लक्ष्मण तेरे पति को मारने के लिए आ गया है , यह तुम जान लो । उठो , उठो । आज के बाद मैं तेरे साथ बात नहीं करुँगी । सीता क्रोध सहित मंदोदरी के पास से दूर चली गयी । तब मंदोदरी अपने महल में गयी ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
25-2-2021
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(82 )
गतांक से आगे :
मंदोदरी के वहां से जाने के बाद हनुमान प्रकट होकर नमस्कारकर अंजलि जोड़कर कहने लगा - लक्ष्मण सहित रामचंद्र की जय हो । आपके समाचार के लिए रामचंद्र के द्वारा आदेश दिया गया मैं यहाँ आया हूँ । मेरे वहाँ जाने के बाद , रामचंद्र शत्रुओं का नाश करने के लिए यहाँ आयेंगे । आंसू सहित सीता कहने लगी - तू कौन हैं ? समुद्र को कैसे पार किया ? अनुज सहित मैरे प्राणेश जीवित हैं ? कहाँ देखा ? कैसे काल बीता रहे हैं ? हनुमान ने कहा - मैं पवन--अंजना का पुत्र हूँ । विद्या के द्वारा विमान से समुद्र को पार किया । रामचंद्र -लक्ष्मण इस समय सुग्रीव के शत्रु के वध से समस्त वानरों के राजा सुग्रीव को दास कर , किष्किन्धा में , आपके वियोग रुपी अग्नि से दिन-रात जलते हैं । गाय से बिछड़े बछड़े के समान लक्ष्मण भी सुख प्राप्त नहीं कर रहा हैं । क्षण में शोक वाले , क्षण में क्रोध वाले दोनों सुग्रीव के द्वारा आश्वासित किये जा रहे हैं । दास बने भामण्डल , विराध , महेन्द्र आदि उनकी सेवा कर रहे हैं । सुग्रीव द्वारा रामचंद्र को दिखाये गये मुझे अपनी अंगूठी समर्पितकर आपके वृतान्त के लिए भेजा हैं । आपके चूडामणि ( एक आभूषण ) को चिन्ह के रुप में ले आने का मुझे कहा है । उसके दर्शन से प्रभु मेरे यहाँ आने का विश्वास करेंगे और चूडामणि के दर्शन से आपके दर्शन जैसा आनंद पायेंगे । उसने हनुमान के आग्रह से और रामचंद्र के समाचार के आनंद से इक्कीस दिन के बाद में भोजन किया और कहा - इस चूडामणि को चिन्ह के रुप में ले जाओ । यहाँ रहते हुए तुझ पर उपद्रव होगा । तुझे आया जानकर यह राक्षस तुझे मारने आ जायेगा । वह भी थोड़ा हंसकर कहने लगा -माता ! आप वात्सल्य से कायर बनी हो । मैं जगत को जीतने वाले रामचंद्र-लक्ष्मण का दास हूँ । मेरे आगे यह बिचारा रावण कौन हैं ? सैन्य सहित रावण को पराजितकर आपको कन्धे पर बिठाकर स्वामी के पास ले जाने की शक्तिवाला हूँ । आप आज्ञा दे ! सीता भी स्मित सहित कहने लगी - रामचंद्र -लक्ष्मण के सेवक से सब संभव हैं । किन्तु मुझे परपुरुष का स्परूश अयोग्य है । इसलिए शीघ्र जाओं । तेरे जाने पर आर्यपुत्र उद्योग करने वाले ही है । हनुमान ने कहा - यह मैं जा रहा हूँ । किन्तु राक्षसों को थोड़ी पराक्रम की चपलता दिखाऊँगा । जीत से चमक रहा यह दूसरे के बल को नहीं मानता है । रामचंद्र के दास के पौरुष को भी जान ले । सीता ने हाँ कहकर अपने चूडामणि को दे दिया ।
उसने भी नमस्कारकर प्रयाण किया और देवरमण उद्यान को तोड़ने लगा । उस उद्यान के चारों द्वारों के द्वारपाल मुद्गर हाथ में लेकर हनुमान की ओर दौड़े । उनके प्रहार हनुमान पर स्खलित हुए । कुपित हनुमान उन उद्यान के वृक्षों से ही प्रहार करने लगा । राक्षसों ने जाकर यह वृतान्त रावण से कहा । रावण ने उसके वध के लिए सैन्य सहित अक्षकुमार को आदेश दिया । युद्ध के पहले भाग्य से तुम आ गये हो । इस प्रकार कहते हुए हनुमान से अक्षयकुमार ने कहा - वानर! व्यर्थ ही गर्जना कर रहे हो ! मेरे साथ युद्ध में तुम्हारा पराक्रम दिखायी देगा । चलो शीघ्र तैयार हो जाओ । इस प्रकार कहकर अक्षयकुमार ने बाणों की वर्षा की प्रत्युत्तर में हनुमान ने बाणों के द्वारा चिर समय युद्ध करके उसको मार डाला । भाई के वध से क्रोधित इन्द्रजित आकर हनुमान ! रुक ! रुक इस प्रकार कहके युद्ध करने लगा , हनुमान के प्रहारों से भागते अपने भटों को देखकर , निष्फल अस्त्र वालें हनुमान पर उसने नागपाश अस्त्र छोड़ा । पैर से लेकर मस्तक तक नागपाशों से बंधा हनुमान कुतूहल से क्षण के लिए बन्धन को सहन करने लगा , संतुष्ट इन्द्रजित के द्वारा रावण के पास ले जाया गया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
26:2:21
(83)
गतांक से आगे :
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
हनुमान ने रावण से कहा- मैं रामचंद्रजी के पास से आ रहा हूँ । रामचंद्रजी ने कहलवाया हैं कि सीता को सम्मानपूर्वक भेज दो । जिससे युद्ध करना न पड़े और लाखों मानवों की मृत्यु में तुम ( रावण ) निमित्त न बनों । रावण ने कहा - दुर्मति ! तूने वनवासी , फलाहारी और मलिन वस्त्र वाले उन दोनों का आश्रय क्यों लिया ? संतोषित होकर वे तुझको क्या देंगे ? वे दोनों तो धूर्त है , जिनके द्वारा तुम यह कार्य कराये गये हो । धूर्त लोग दूसरों के हाथ से अंगारों को निकालते है । पूर्व में मैरा सेवक था , आज दूसरे का दूत हो , उससे तू अवध्य है । शिक्षा मात्र से तू विडम्बित किया जाता हैं । सीता देने के लिये नही लायी गयी है । सीता को लेने वे यहाँ आये तो वे अपनी मृत्यु को निमंत्रण देने आये ऐसा मैं मानुंगा । हनुमान ने कहा - प्रथम तो कब मैं तेरा सेवक था ? और कब तू मैरा स्वामी था ? इस प्रकार कहकर तू लज्जित क्यों नहीं होता ? एक समय मेरे पिता ने तेरी मैत्री से तेरे सामन्त खर वरुण को बन्धन से छुड़ाया था । तूने सहाय के लिए बुलाया था तब मैं भी आया था । संकट में वरुण के पुत्रों से तुझे बचाया था ।आज तू पापी सहाय के लिए अयोग्य हो । तेरे पक्ष में मैं ऐसे एक भी व्यक्ति को नही देख रहा हूँ जो लक्ष्मण से तुझे बचायें । उसका अग्रज
( रामचंद्र ) तो दूर रहो । रावण भाल पर भ्रूकुटि चढ़ाकर ओष्ट को काटते हुए कहने लगा - तुम मरना चाहते हो जो मेरे शत्रु का आश्रय लेकर इस प्रकार बोल रहे हो ! पूर्व में तुम मैरे सेवक बने थे । पुनः अब दूतत्व के कारण नहीं मार रहा हूँ । परंतु गधे पर बिठाकर और पांच शिखाएँ कर अब लंका में प्रतिमार्ग भ्रमण कराऊंगा , यह सुनकर हनुमान क्रोधित हुआ , नागपाश को तोड़कर उड़ा और पैर के घात से रावण के किरीट को चूर्ण कर दिया । इसे मारो , पकड़ो इस प्रकार रावण के कहने पर भी हनुमान तो अपने पाद प्रहारों के द्वारा नाथ रहित के समान महलों , भवनों , द्वारों को तोड़-फोड़ करते हुए लंका के बाहर आकर लंकासुन्दरी को साथ लेकर रामचंद्र के पास आकर नमस्कार किया और सीता का चूडामणि अर्पण किया । रामचंद्र ने उस सीता के चूड़ामणि को साक्षात सीता के समान हृदय पर आरोपित किया । रामचंद्र ने पुत्र के समान हनुमान को आलिंगनकर पूछा । तब उसने सीता शुद्धि और रावण की अवमानना के बारे में सारी बातें कहीं ।
सीता आनंदित बनी थी रामचंद्र की अंगूठी को देखकर और त्रिजटा ने मान लिया कि अब थक-हारकर रामचंद्र को भूल गयी है । अब इसे रावण की याद आयी है यहीं इसके चेहरे की खुशी का कारण हैं ।
त्रिजटा की कल्पना कल्पना ही रही जब मंदोदरी को सीता ने झाटककर अपमानित किया ।
हनुमान रावण को दो शब्द सुनाना चाहता था । इसी कारण नागपाश में बंधा रहा । हनुमान ने राजसभा में रावण को तिरस्कार की भाषा में कह दिया कि तूने जो अनर्थकारी पाप किया है उससे तेरी मृत्यु निकट है ।
रावण को और लंका के प्रजाजनों को यह बताना था कि रामचंद्र का एक दूत भी कितना शक्तिशाली है । रामचंद्र के ऐसे अनेक सहयोगी कितने शक्तिशाली होंगे ?
भरी सभा में रावण के मुगट को लात मार गिराकर भाग जाने वाला कितना हिम्मतवान हैं इसका पर्चा रावण आदि को दे दिया ।
रावण अपनी विद्याओं के बल से भी हनुमान को पकड़ न सका ।
चूड़ामणि देखकर रामचंद्र-लक्ष्मण को आनंदित होना स्वभाविक था । अब उन सभी ने आगे के कार्य के विषय में विचार विमर्शकर प्रयाण किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
27-2-2021
( 84 )
सप्तम सर्ग
गतांक से आगे :
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
सुग्रीव आदि से घेरा हुआ , लक्ष्मण सहित रामचंद्र ने लंकाविजय यात्रा के लिए आकाश मार्ग से प्रस्थान किया । भामण्डल, नल , नील , महेन्द्र, हनुमान , विराध , सुषेण , जाम्बवान् और अंगद भी साथ चले । अन्य भी करोड़ों विद्याधर राजाएँ साथ चलें । वह सेना विविध वाजिंत्रों से शब्द अद्वैतता की रचना करती हुई , समुद्र के ऊपर विचित्र विमान , रथ, अश्व, गज और अन्य वाहनों से आकाश में चलने लगी । बेलंधर पर्वत पर , बेलंधरपुर में युद्ध करते समुद्र और सेतु राजा को नल-नील ने बांधकर रामचंद्र के पास ले गये । रामचंद्र ने पुनः उनको उसी नगरी पर स्थापित किया । समुद्र राजा ने लक्ष्मण को अपनी तीन कन्याएँ दी । रात वहाँ रहकर सेतु-समुद्र से युक्त रामचंद्र ने प्रातः प्रयाण किया । क्षण में ही सुवेल पर्वत पर आकर सुवेल राजा को जीत लिया । रात बीताकर पुनः प्रातः प्रयाण किया । लंका के समीप हंसद्वीप में हंसरथ राजा को जीतकर वहीं वास कर स्थित हुआ ।
लंका क्षोभित हुई । रावण के हस्त , प्रहस्त , मारिच , सारण आदि हजारों सामन्त युद्ध के लिए तैयार हुए । रणवाजिंत्र करोड़ों की संख्या में बजाये गये । बिभीषण रावण के पास गया । नमस्कारकर कहने लगा - कृपा करे , शुभ परिणाम देनेवाले मेरे वचन को विचारें । उभय लोक विरुद्ध आपने जो परदार हरण किया है , उससे कुल लज्जित किया गया है । यह रामचंद्र अपनी पत्नी को लेने आ गया है । इसको इसकी पत्नी के अर्पण से ही आतिथ्य करो । अन्यथा आपके कुल को बन्धन में डालकर अपनी पत्नी को ग्रहणकर लेगा । साहसगति और खर को मारनेवाले रामचंद्र-लक्ष्मण तो दूर रहो । उनके दास हनुमान को क्या नहीं देखा ? सीता के कारण इन्द्र ऋद्धि से अधिक ऋद्धि को मत छोड़ो । रावण के जबाब देने के पूर्व ही इन्द्रजित ने कहा -आजन्म डरपोक आपने हमारे सर्व कुल को दुषित ही किया है । पिता के आप भाई नहीं हो । इन्द्र को भी जीतनेवाले पिता के बारे में ऐसी संभावना करते हुए निश्चय ही मरना चाहते हो । असत्यभाषी आपने पहले भी पिता को ठगा था । क्योंकि दशरथ वध की प्रतिज्ञा कर उस प्रतिज्ञा को पूर्ण नहीं किया था और यहाँ आये उसके पुत्र का भय पैदाकर पिता से उसे बचाना चाहते हैं । आप रामचंद्र के आधीन हो । मन्त्रणा के अधिकारी नहीं हो । बिभीषण ने कहा - न मैं शत्रु के पक्ष में हूँ किन्तु तू पुत्र के रुप में शत्रु उत्पन्न हुआ हैं । यह तेरा पिता काम और ऐश्वर्य से ही अन्धा है । किन्तु तू जन्मान्ध के समान हो । राजन् ! इस पुत्र से और खुद के चरित्र से शीघ्र गिर जाओगे । मैं व्यर्थ ही तेरे लिए दु:खी हो रहा हूँ ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
( 85 )
गतांक से आगे :
28-2-21
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
इस प्रकार की बातों से क्रोधित होकर रावण ने तलवार निकालकर बिभीषण के वध के लिए उठा । भृकुटि चढ़ाने से भयंकर ऐसे बिभीषण ने भी स्तम्भ को उठाकर युद्ध के लिए खड़ा हुआ । कुम्भकर्ण और इन्द्रजित उनको रोककर दूर ले गये । अरे कुलांगार । मेरी नगरी से निकल जा ऐसा रावण के कहने पर , बिभीषण रामचंद्र के पास गया । राक्षस विद्याधरों की तीस अक्षोहिणी सेना बिभीषण के पीछे गयी । उसको आते देखकर सुग्रीव आदि क्षोभित हो गये । बिभीषण ने पहले पुरुष को भेजने के द्वारा रामचंद्र को अपने बारे में निवेदन किया । रामचंद्र ने सुग्रीव के मुख की ओर देखा । तब उसने कहा - यद्यपि राक्षस प्रकृति से क्षुद्र और मायावी है । फिर भी यह धर्मात्मा है और सीता की मुक्ति के लिए बात करते हुए बन्धु के द्वारा तिरस्कार किया गया आपके पास आया है ।रामचंद्र की आज्ञा से द्वारपाल ने प्रवेश दिया । पैरों में मस्तक रखते बिभीषण का रामचंद्र ने आलिंगन किया । तब बिभीषण कहने लगा - अन्यायी अग्रज को छोड़कर आपके पास आया हूँ । सुग्रीव के समान मुझ भक्त को आदेश दें । रामचंद्र ने उसको लंका राज्य देने का स्वीकार किया । हंसद्वीप में आठ दिन बिताकर लंका की ओर चले । सेना के द्वारा बीस योजन भूमि भाग रोका गया । युद्ध के लिए तैयार सेना के कलकल ( कोलाहल ) से लंका को बधिर करता हुआ रामचंद्र सेना सहित स्थित हुआ ।
सुयोग्य हितकर सलाह अमान्य तब होती है जब व्यक्ति का अहित निकट होता है । बिभीषण की बात रावण के लिए लंका के लिए हितकर थी परंतु रावण इन्द्रजित आदि सभी अपनी शक्ति पर मुस्ताक थे । जिस समय दूसरे की शक्ति का विचार करना आवश्यक होता है , उस समय अपनी शक्ति को ही देखता है दूसरे की शक्ति से अपनी शक्ति की तुलना नहीं करता वह मार खाये बिना भी नहीं रहता ।
यहाँ बिभीषण की हितकर बात का तिरस्कार हुआ और क्रोधावेश में रावण ने बिभीषण को लंका से निकल जाने का आदेश दिया । बिभीषण ने जाने की तैयारी की । उस समय किसी ने भी रावण को अपनी आज्ञा वापिस लेने के लिए नहीं समझाया और न बिभीषण को लंका न छोड़ो इसलिए समझाया । जैसे बिभीषण का लंका छोड़कर जाना सभी को प्रिय हो या रावण के भय से सभी चूप रह गये थे ।
यह भी कर्मप्रेरित हुआ । नहीं तो रावण ऐसे युद्ध के संकट के समय अपने भाई को ही लंका में से जाने का आदेश क्यों दे ?
इसे कहते है होनहार को कोई नहीं टाल सकता ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
1:3:21
( 86 )
गतांक से आगे :
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
प्रहस्त आदि रावण के सेनानी युद्ध के लिए तैयार हुए । कितने ही वीर हाथी वाहनों के द्वारा , दूसरे घोड़े वाहनों से , कितने ही वाघ की सवारियों से , दूसरे गधे की सवारियों से , रथों से , कितने ही पुरुषों के द्वारा , कितने ही घेटों से , कितने ही भैंसो के द्वारा , कितने ही विमानों के द्वारा उड़कर रावण को घेर लिया । क्रोध से लाल आँखवाला रावण , विविध अस्त्रों से युक्त रथ पर चढ़ा । त्रिशूल हाथ में लिए कुम्भकर्ण रावण के पास में खड़ा हुआ । इन्द्रजित , मेघवाहन कुमार भी पास में आयें । दूसरें भी भुजबल से युक्त करोंड़ों पुत्र और शुक्र , सारण , मारिच , मय , सुन्द आदि सामन्त उपस्थित हुए । हजारों सेनानिओं से घेरा रावण ने नगरी से प्रयाण किया । वहाँ वीर पुरुष वाघ , अष्टापदप्राणी , हरिण , हाथी , मयूर , सर्प , कुक्कड़ पक्षी आदि चिन्हवाले और धनुष , प्रास , नाभी शस्त्र ( भाला ) , कुलहाड़ा , खड्ग , भृशुण्डी नामक अग्निशस्त्र , मुद्गर , शूल आदि हाथ में पकड़नेवाले शस्त्र सहित युद्ध के लिए प्रस्थान करने लगे । रावण पचास योजन पृथ्वी को सेना से आच्छादित कर रहा ।
जाओ,जाओ,रुक,रुक, डरो मत , अस्त्र को छोड़ दो , आयुध तैयार करों , इस प्रकार वहाँ युद्ध में भटों की वाणी हुई । उस महायुद्ध में चिर समय तक वानरों के द्वारा राक्षस की सेना नष्ट करने पर , हस्त और प्रहस्त युद्ध के लिए खड़े हुए । नल-नील ने उनके साथ लम्बे समय तक युद्धकर प्रहस्त को यम का अतिथि बनाया । नल-नील के ऊपर पुष्पवृष्टि हुई । उसके बाद मारिच , सारण , शुक , ज्वर , काम , अक्ष आदि राक्षस मदन, अंकुर , सन्ताप , प्रथित आदि वानरों से युद्ध करने लगे । मारिच राक्षस ने सन्ताप को , नन्द वानर ने ज्वर को , उद्धाम राक्षस ने विघ्न को , दुरित वानर ने शुक को , सिंहजधन राक्षस ने प्रथित को युद्ध कर मार डाला । सूर्य के अस्त होने पर सभी युद्ध से हटकर अपने-अपने मरे और घायल सैनिको की शोध करने लगे ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
U
2-03-2021
( 87)
गतांक से आगे :
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
सूर्योदय के बाद में रावण स्वयं विविध अस्त्रों को धारण किया हुआ , शत्रुओं को तृण के समान मानता हुआ , अपने प्रत्येक सेनानी को इन्द्र के समान देखता हुआ रणभूमि में आ गया । शूरों के द्वारा आश्चर्यसहित देखे जाते रामचंद्र के सेनानी भी युद्ध के लिए तैयार हुए । रावण के हुंकार से प्रेरित और अपने सर्व बल से युद्ध करते राक्षसों ने वानर की सेना को तोड़ दी । प्रस्थान करते क्रोधित सुग्रीव को रोककर हनुमान ने राक्षस की सेना में प्रवेश किया । धनुष और बाण के तरकस को धारण कर माली हनुमान के आगे आया । दोनों ने परस्पर प्रहार किया । अस्त्रों को छेदे । हनुमान ने चिर समय तक युद्धकर , उसको निशस्त्र कर दिया । बुढ़े राक्षस ! तुझे मारने से क्या होगा ? जाओ , जाओ इस प्रकार कहते हनुमान को वज्रोदर ने कहा - आओ, आओ । अब युद्ध करो । क्या तुम समर्थ नहीं हो ? वापिस मत जाओ । हनुमान ने वह सुनकर उसको बाणों से आच्छादित कर दिया । वह भी उसके बाणों की वृष्टि को दूर कर उसको बाणों से आच्छादित करने लगा । उन दोनों की लड़ाई रुपी क्रीड़ा को देवों के द्वारा देखने और स्तुति करने पर हनुमान ने वज्रोदर को मार डाला । उसके वध से क्रोधित रावण का पुत्र जम्बूमाली हनुमान को बुलाकर युद्ध करने लगा । रथ रहित ऐसे हनुमान ने जम्बूमाली को रथ और सारथि रहित किया । जम्बूमाली मुद्गर के प्रहार से मूर्छित होकर नीचे गिरा । महोदर आदि राक्षस के भटों ने क्रोध से हनुमान पर प्रहार किया । हनुमान ने किन्हीं के भुजाओं पर , किन्हीं के मुख पर , किन्हीं के पैरों पर , हृदय पर , कुक्षि पर बाणों से मारा । राक्षस भटों के भाग जाने से क्रोधित कुम्भकर्ण किन्हीं वानरों को पैर के प्रहार से , किन्हीं को मुष्टि , कोणी , मुद्गर , त्रिशूल के घात से , किसी को अन्योन घात से मारते हुए युद्ध करने के लिए दौड़ा । कल्पान्त समुद्र के समान उसको आते देखकर सुग्रीव दौड़ा । भामण्डल , दधिमुख , महेन्द्र , कुमुद , अंगद आदि अन्य भी पीछे दौड़े । उसके द्वारा छोड़े गये प्रस्वापन अस्त्र के वश से निन्द्रा को प्राप्त करती अपनी सेना को देखकर सुग्रीव ने प्रबोधिनी विद्या का स्मरण कर जगाया । सुग्रीव से अधिष्ठित वानर कुम्भकर्ण को बाणों से उपद्रव करने लगे । सुग्रीव ने गदा से कुम्भकर्ण के रथ के सारथि का दलन किया । मुद्गर हाथ में लिये और भूमि पर खड़े उसने सुग्रीव के रथ को चूर्ण कर डाला । सुग्रीव ने आकाश में उड़कर बड़ी शिला फैंकी । कुंभकर्ण ने मुद्गर से उसके टुकड़े कर दिये । उसके बाद सुग्रीव ने तड़-तड़ शब्द करते तडितदण्ड अस्त्र छोड़ा । शस्त्रों से असंखलित उसने कुंभकर्ण को मारा जिससे मूर्छित हो गया । भाई की मूर्च्छा से क्रोधित रावण स्वयं प्रस्थान करने लगा । इन्द्रजित ने विनय सहित रोककर वानरों की सेना में प्रवेश किया । उसने भयभीत वानरों से कहा - रे रे ठहरों । युद्ध नहीं करने वालों को मैं नहीं मारता हूँ । मैं रावण का पुत्र हूँ । हनुमान कहाँ हैं ? सुग्रीव कहाँ है ? अथवा उससे भी पर्याप्त हुआ । मानी रामचंद्र-लक्ष्मण कहाँ है ? सुग्रीव ने उसे युद्ध के लिए आव्हान किया । भामण्डल भी उसके अनुज मेघवाहन से युद्ध करने लगा । उन चारों के परस्पर टकरानें पर भूमि कंपित हुई , समुद्र क्षोभित हुआ । बाण के खींचने और छोड़ने में अन्तर नहीं जाना । बहुत परिश्रम से देवताई अस्त्रों के द्वारा चिर समय तक युद्ध होने पर भी किसी की जीत नहीं हुई । इन्द्रजित और मेघवाहन ने नागपाश अस्त्र छोड़ा । सुग्रीव और भामण्डल नागपाशों से बांधे गये । सांस लेने में भी असमर्थ हुए ।
क्रमशः
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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03-03-2021
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( 85 )
गतांक से आगे :
इस प्रकार की बातों से क्रोधित होकर रावण ने तलवार निकालकर बिभीषण के वध के लिए उठा । भृकुटि चढ़ाने से भयंकर ऐसे बिभीषण ने भी स्तम्भ को उठाकर युद्ध के लिए खड़ा हुआ । कुम्भकर्ण और इन्द्रजित उनको रोककर दूर ले गये । अरे कुलांगार । मेरी नगरी से निकल जा ऐसा रावण के कहने पर , बिभीषण रामचंद्र के पास गया । राक्षस विद्याधरों की तीस अक्षोहिणी सेना बिभीषण के पीछे गयी । उसको आते देखकर सुग्रीव आदि क्षोभित हो गये । बिभीषण ने पहले पुरुष को भेजने के द्वारा रामचंद्र को अपने बारे में निवेदन किया । रामचंद्र ने सुग्रीव के मुख की ओर देखा । तब उसने कहा - यद्यपि राक्षस प्रकृति से क्षुद्र और मायावी है । फिर भी यह धर्मात्मा है और सीता की मुक्ति के लिए बात करते हुए बन्धु के द्वारा तिरस्कार किया गया आपके पास आया है ।रामचंद्र की आज्ञा से द्वारपाल ने प्रवेश दिया । पैरों में मस्तक रखते बिभीषण का रामचंद्र ने आलिंगन किया । तब बिभीषण कहने लगा - अन्यायी अग्रज को छोड़कर आपके पास आया हूँ । सुग्रीव के समान मुझ भक्त को आदेश दें । रामचंद्र ने उसको लंका राज्य देने का स्वीकार किया । हंसद्वीप में आठ दिन बिताकर लंका की ओर चले । सेना के द्वारा बीस योजन भूमि भाग रोका गया । युद्ध के लिए तैयार सेना के कलकल ( कोलाहल ) से लंका को बधिर करता हुआ रामचंद्र सेना सहित स्थित हुआ ।
सुयोग्य हितकर सलाह अमान्य तब होती है जब व्यक्ति का अहित निकट होता है । बिभीषण की बात रावण के लिए लंका के लिए हितकर थी परंतु रावण इन्द्रजित आदि सभी अपनी शक्ति पर मुस्ताक थे । जिस समय दूसरे की शक्ति का विचार करना आवश्यक होता है , उस समय अपनी शक्ति को ही देखता है दूसरे की शक्ति से अपनी शक्ति की तुलना नहीं करता वह मार खाये बिना भी नहीं रहता ।
यहाँ बिभीषण की हितकर बात का तिरस्कार हुआ और क्रोधावेश में रावण ने बिभीषण को लंका से निकल जाने का आदेश दिया । बिभीषण ने जाने की तैयारी की । उस समय किसी ने भी रावण को अपनी आज्ञा वापिस लेने के लिए नहीं समझाया और न बिभीषण को लंका न छोड़ो इसलिए समझाया । जैसे बिभीषण का लंका छोड़कर जाना सभी को प्रिय हो या रावण के भय से सभी चूप रह गये थे ।
यह भी कर्मप्रेरित हुआ । नहीं तो रावण ऐसे युद्ध के संकट के समय अपने भाई को ही लंका में से जाने का आदेश क्यों दे ?
इसे कहते है होनहार को कोई नहीं टाल सकता ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
U
4-3-2021
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( 86 )
गतांक से आगे :
प्रहस्त आदि रावण के सेनानी युद्ध के लिए तैयार हुए । कितने ही वीर हाथी वाहनों के द्वारा , दूसरे घोड़े वाहनों से , कितने ही वाघ की सवारियों से , दूसरे गधे की सवारियों से , रथों से , कितने ही पुरुषों के द्वारा , कितने ही घेटों से , कितने ही भैंसो के द्वारा , कितने ही विमानों के द्वारा उड़कर रावण को घेर लिया । क्रोध से लाल आँखवाला रावण , विविध अस्त्रों से युक्त रथ पर चढ़ा । त्रिशूल हाथ में लिए कुम्भकर्ण रावण के पास में खड़ा हुआ । इन्द्रजित , मेघवाहन कुमार भी पास में आयें । दूसरें भी भुजबल से युक्त करोंड़ों पुत्र और शुक्र , सारण , मारिच , मय , सुन्द आदि सामन्त उपस्थित हुए । हजारों सेनानिओं से घेरा रावण ने नगरी से प्रयाण किया । वहाँ वीर पुरुष वाघ , अष्टापदप्राणी , हरिण , हाथी , मयूर , सर्प , कुक्कड़ पक्षी आदि चिन्हवाले और धनुष , प्रास , नाभी शस्त्र ( भाला ) , कुलहाड़ा , खड्ग , भृशुण्डी नामक अग्निशस्त्र , मुद्गर , शूल आदि हाथ में पकड़नेवाले शस्त्र सहित युद्ध के लिए प्रस्थान करने लगे । रावण पचास योजन पृथ्वी को सेना से आच्छादित कर रहा ।
जाओ,जाओ,रुक,रुक, डरो मत , अस्त्र को छोड़ दो , आयुध तैयार करों , इस प्रकार वहाँ युद्ध में भटों की वाणी हुई । उस महायुद्ध में चिर समय तक वानरों के द्वारा राक्षस की सेना नष्ट करने पर , हस्त और प्रहस्त युद्ध के लिए खड़े हुए । नल-नील ने उनके साथ लम्बे समय तक युद्धकर प्रहस्त को यम का अतिथि बनाया । नल-नील के ऊपर पुष्पवृष्टि हुई । उसके बाद मारिच , सारण , शुक , ज्वर , काम , अक्ष आदि राक्षस मदन, अंकुर , सन्ताप , प्रथित आदि वानरों से युद्ध करने लगे । मारिच राक्षस ने सन्ताप को , नन्द वानर ने ज्वर को , उद्धाम राक्षस ने विघ्न को , दुरित वानर ने शुक को , सिंहजधन राक्षस ने प्रथित को युद्ध कर मार डाला । सूर्य के अस्त होने पर सभी युद्ध से हटकर अपने-अपने मरे और घायल सैनिको की शोध करने लगे ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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5-3-2021
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( 88 )
गतांक से आगे :
यहाँ होश में आये कुंभकर्ण ने क्रोध से गदा के द्वारा हनुमान को मारा । मूर्च्छित हनुमान को भुजा से उठाकर , बगल में दबाया । बिभीषण ने रामचंद्र से कहा - आपकी सेना के सारभूत सुग्रीव -भामण्डल को जब तक इन्द्रजित -मेघवाहन लंका न ले जायें उतने में मैं उनको छुड़ा लाता हूँ । हनुमान को भी भुजा के द्वारा कुम्भकर्ण ने बांध लिया है । लंका पहुँचने से पहले ही छुड़ाना चाहिए । स्वामी ! सुग्रीव आदि तीनों बिना हमारी सेना वीर पुरुषों से रहित के समान है । आज्ञा दें , मैं जा रहा हूँ । इस प्रकार उसके कहते समय ही अंगद जाकर कुम्भकर्ण को बीच में रोककर युद्ध करने लगा । क्रोधान्तता के कारण कुम्भकर्ण के द्वारा भुजपाश निकलने पर हनुमान उड़कर चला गया । बिभीषण भामण्डल- सुग्रीव को छुड़ाने के लिए इन्द्रजित-मेघवाहन से युद्ध करने के लिए दौड़ा । उन दोनों ने सोचा -पूज्य पिता के भाई से कैसे युद्ध करें ? पूज्य से डरनेवालों को लज्जा की बात नहीं होती और यह दोनों पाश में बंधे हुए शत्रु निश्चय ही मर जायेंगे । इसलिए ये दोनों यही रहे । जिससे पिता हमारे पिछे न आ जाये । इस प्रकार सोचकर वे दोनों भाग गये । युद्ध के मैदान में भी विनयधर्म की परिपालना करने की बुद्धि उत्पन्न होनी यह भी योग्य आत्मा की पहचान है और बिभीषण भामण्डल-सुग्रीव को देखते हुए खड़ा रहा ।रामचंद्र-लक्ष्मण चिंता से म्लान मुखवाले हुए । रामचंद्र ने महालोचन नामक गरुड़ देव का स्मरण किया । उसने आकर रामचंद्र को सिंहनिनाद नामक विद्या , मुशल,रथ और हल दिये । लक्ष्मण को गारुड़ी विद्या , रथ, विद्युदवदना और रिपुनाशिनी गदा दी । वारुण , आग्नेय , वायव्य आदि दिव्य अस्त्र और दो छत्र दोनों में वितरण किये । लक्ष्मण के वाहन बने गरुड़ को देखकर क्षण मात्र में ही वे पाश के नाग भाग गये । रामचंद्र की सेना में जय-जयकार शब्द हुआ । सूर्य अस्त हो गया ।
प्रातः फिर से दोनों सेनाओं में महायुद्ध हुआ । राक्षसों के द्वारा वानर की सेना को क्षोभित करने पर , सुग्रीव आदि ने राक्षस की सेना में प्रवेश किया । उनसे घेरे राक्षस हैरान होने लगे । रावण क्रोधित होकर स्वयं दौड़ा । वानर वीरों में कोई भी आगे खड़ा न हो सका । उससे युद्ध करने के लिए चले रामचंद्र को निषेधकर बिभीषण ने स्वयं रावण को रोका । रावण ने उससे कहा -रे तूने किसका आश्रय लिया है ? जिसने लड़ाई में क्रोधित मेरे मुख में कवल के समान तुझे फेंका है ।खुद की रक्षा करने वाले रामचंद्र ने तुझे भेजकर अच्छा विचार किया है । वत्स ! मेरा वात्सल्य आज भी तेरे ऊपर है । इसलिए चले जाओ , सेना सहित रामचंद्र -लक्ष्मण को मैं आज मार दूँगा । तू संख्या पूरण मत बनों । अपने स्थान पर जाओ । तेरे पीछे यह मैरा हाथ है । बिभीषण ने कहा - क्रोधित रामचंद्र को तेरी ओर चलते हुए मैंने कपट से रोक लिया है । युद्ध के बहाने से तुझे समझाने आया हूँ । आज भी सीता को छोड़ दो । कृपा करों , मेरे वचन के अनुसार करों । न हि मैं मृत्यु के भय से अथवा न ही राज्य के लोभ से रामचंद्र के पास गया हूँ किन्तु लोकनिन्दा के भय से । अब भी सीता के अर्पण से निन्दा को शांत करो । जिससे उसको छोड़कर मैं तेरी सेवा करुँ
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
( 89 )
गतांक से आगे :
क्रोधित रावण ने कहाँ - रे दुर्बुद्धि अब भी डर दिखाता है ? भाई हत्या के अभय से ही तुझे छोड़ता हूँ । अन्य कारण नहीं है । इस प्रकार कहकर धनुष को पछाड़ा । बिभीषण ने भी भाई हत्या के अभय से तुझे कहा था इत्यादि कहकर धनुष का आस्फालन किया । वे दोनों भाई युद्ध करने के लिए प्रवृत हुए । इन्द्रजित , कुम्भकर्ण आदि राक्षस स्वामी भक्ति से उनकी तरफ दौड़े । रामचंद्र ने कुम्भकर्ण को , लक्ष्मण ने इन्द्रजित को , नील ने सिंहजधन को , दुर्मर्ष ने घटोदर को , स्वयंभू ने दुर्मति को , नल ने शम्भु को , अंगद ने मय को , स्कन्द ने चन्द्रणख को , विराध ने विघ्न को , भामण्डल ने केतु को , श्रीदत्त ने जम्बूमाली को , हनुमान ने कुम्भकर्ण के पुत्र कुम्भ को किष्किन्ध के राजा सुग्रीव ने सुमाली को , कुन्द ने धूमाक्ष को , वालि के पुत्र चन्द्ररश्मि ने सारण को , दूसरे वानरों ने दूसरे राक्षसों को रोक लिया । इस प्रकार युद्ध होने पर , इन्द्रजित के द्वारा छोड़े गये तामस शस्त्र को लक्ष्मण ने तपन अस्त्र से निवारण किया और नागपाश अस्त्र छोड़ा । उस अस्त्र से आक्रमित सर्व अंगवाला इन्द्रजित नीचे गिर गया । विराध ने लक्ष्मण की आज्ञा से अपने रथ में डालकर उसको अपनी शिविर में ले गया । रामचंद्र ने कुम्भकर्ण को नागपाशों में बांधा । भामण्डल ने उसको रामचंद्र की आज्ञा से शिविर में ले गया । इस प्रकार अन्य भी मेघवाहन आदि रामचंद्र के सैनिकों के द्वारा बांधकर अपने शिविर में ले जाये गये । क्रोध और शोक से आकुल रावण वह देखकर बिभीषण के ऊपर त्रिशूल फेंका । लक्ष्मण ने उसे बीच में ही तेज किये गये बाणों से टुकड़े कर दिये । तब क्रोधित होकर रावण ने धरणेन्द्र के द्वारा दिये गये अमोघविजया नामक महाशक्ति को उठाकर आकाश में घुमाया । धग-धग इस प्रकार जलते , तड़-तड़ शब्द करते उसको देखकर देव आकाश में चले गये । सैनाओं ने आँख मिच ली । रामचंद्र ने अनुज से कहा - यह आगन्तुक बिभीषण मारा जायेगा । आश्रित का घात करने वाले हमको धिक्कार हो । लक्ष्मण वह सुनकर रावण को रोकते हुए बिभीषण के आगे खड़ा हो गया । रावण ने गरुड़ पर खड़े लक्ष्मण को सामने देखकर कहने लगा - यह शक्ति तेरे लिए नहीं उठाई है । दूसरे की मृत्यु के कारण मत मरों अथवा मर जाओं , क्योंकि तू ही मारनेलायक हो । तेरे स्थान पर यह बिचारा बिभीषण मेरे आगे खड़ा हुआ है । इस प्रकार कहकर शक्ति को लक्ष्मण के ऊपर छोड़ी । लक्ष्मण , सुग्रीव , हनुमान , नल , भामण्डल , विराध और अन्य भी अपने-अपने अस्त्रों से उस शक्ति पर प्रहार करने लगे पर वह उनके अस्त्रों के समूह की अवज्ञा करते हुए लक्ष्मण के छाती पर गिरी । उससे भेदित लक्ष्मण मूर्च्छित हुआ और उसकी सेना में हाहारव हुआ । क्रोधित रामचंद्र रावण से युद्ध करने लगा ।सिंह के रथ पर बैठे रामचंद्र ने उस शत्रु को पांच बार रथ रहित किया । रावण सोचने लगा - भाई के स्नेह से यह स्वयं मर जायेगा । इसलिए इससे युद्ध करने से क्या प्रयोजन ? सूर्य अस्ताचल पर चला गया और रावण लंका में चला गया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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7-3-2021
( 90 )
गतांक से आगे :
रामचंद्र ने आकर भूमि पर गिरे लक्ष्मण को देखा , देखकर मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़े । सुग्रीव आदि ने होश में लाया । रामचंद्र लक्ष्मण के समीप बैठकर रोते हुए कहने लगा - वत्स! क्या बाधा हैं ? कहो ! अथवा ईशारे से कहो । सुग्रीव आदि तेरा मुख देख रहे हैं । वाणी से अथवा आँख से क्यों इनको अनुग्रहित नहीं करते हो ? रावण जीवित लौट गया है इस प्रकार के शर्म से निश्चय ही नहीं बोल रहे हो ? रे रे रावण ! दुष्टात्मा ! रुक-रुक कहाँ जाओगे ? इत्यादि कहकर धनुष का टंकार कर खड़े होते हुए रामचंद्र को वानरों के राजा सुग्रीव ने विनय सहित कहा - प्रभु ! यह रात है । रावण लंका चला गया है । यह हमारा स्वामी शक्ति घात से पीड़ित है । धैर्य धारण करें । रावण निश्चय ही मारा जायेगा । लक्ष्मण के ही प्रति जागरण का उपाय सोचें । फिर से रामचंद्र ने कहा -पत्नी का अपहरण हो गया लक्ष्मण मारा गया । यह रामचंद्र अब भी जीवित है । सैकड़ो टुकड़ों में विदारण न हुआ । मित्र सुग्रीव ! हनुमान ! भामण्डल ! नल ! अंगद ! विराध आदि सभी अपने-अपने घर चले जाओ । मित्र बिभीषण ! तू कृतार्थ नहीं किया गया । वह सीता के अपहरण और भाई के वध से भी अधिक शोक का कारण बना है । परंतु प्रातः तू देखना ,। रावण के वध से तूझे कृतार्थकर मैं भी लक्ष्मण के पीछे चला जाऊँगा । लक्ष्मण बिना मुझे सीता से अथवा जीवन से क्या प्रयोजन ? बिभीषण ने कहा- अधैर्य छोड़े । शक्ति से मारा गया है तो भी रात्रि में जीवित हो सकता है । इसलिए तन्त्र , मन्त्र आदि से प्रतिकार के लिए प्रयत्न करना चाहिए । हाँ इस प्रकार रामचंद्र के कहने पर सुग्रीव आदि ने विद्या से रामचंद्र -लक्ष्मण के चारों ओर चार द्वार और सात कोट बनाये।
पूर्व दिशा के द्वारों में सुग्रीव , हनुमान , तार , कुन्द , दधिमुख ,गवाक्ष और गवय क्रम से वहाँ स्थित हुए । उत्तर दिशा के द्वारों में क्रम से ये अंगद , कूर्म ,अंग, महेन्द्र , विदड्ग , सुषेण , चन्द्ररश्मि स्थित हुए । पश्चिम दिशा के द्वारों में क्रम से ये नील , समरशील , दुर्धर , मन्मथ, जय, विजय और सम्भव स्थित हुए और दक्षिण दिशा के द्वारों में क्रम से ये भामण्डल , विराध , गज , भुवनजित , नल , मैन्द और बिभीषण स्थित हुए । इस प्रकार सुग्रीव आदि रामचंद्र-लक्ष्मण को मध्य में कर जागर-परायण स्थित हुए ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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8-3-2021
( 91 )
गतांक से आगे :
यहाँ किसी ने सीता से कहा- लक्ष्मण शक्ति से मारा गया है । प्रातः स्नेह के वश से रामचंद्र भी मर जायेगा । वह सुनकर मूर्च्छा से सीता गिर पड़ी । विद्याधरियों ने होश में लाया । सीता दु:खित होकर विलाप करने लगी । हा वत्स ! बड़े भाई को छोड़कर कहाँ गये हो ? तेरे बिना क्षणमात्र भी रामचंद्र ठहरने में समर्थ नहीं है ।मुझ मन्दभागिनी को धिक्कार हो । जिसके लिए पति और देवर को ऐसी विपत्ति आ गिरी । पृथ्वी ! कृपा करों ! मैरे प्रवेश के लिए दो टुकड़ों में विभाजीत हो जाओ इत्यादि । किसी कृपालु विद्याधरी ने सीता को वैसी देखकर अवलोकिनी विद्या से देखकर कहा - देवी ! तेरा देवर प्रातः अक्षत अंगवाला होगा और रामचंद्र के साथ आकर तुझको आनन्दित करेंगा । सीता की शुद्ध आचरणा से रावण की दासियाँ भी सीता पर स्नेह भाव वाली हो गयी थी । इसका यह उदाहरण है । उसने सीता को चिंतामुक्त कर दी । वह सुनकर सीता स्वस्थ्य हुई । रावण आज लक्ष्मण मारा गया है इस प्रकार सोचकर क्षण के लिए हर्षित हुआ और भाई , पुत्र के बंधन को स्मरण कर रोने लगा । हा कुम्भकर्ण ! हा इन्द्रजित ! हा मेघवाहन ! हा वत्स जाम्बुमाली आदि! तुम किस दशा को प्राप्त हुए हो इत्यादि ।
यहाँ रामचंद्र की सेना में कोई विद्याधर आकर दक्षिण कोट के द्वार रक्षक भामण्डल से कहने लगा । मुझे पूज्य रामचंद्र दिखायें । लक्ष्मण के जीवन की औषधि कहूँगा । भामण्डल उसे रामचंद्र के समीप ले गया । नमस्कारकर विज्ञप्ति करने लगा - संगीतपुर का राजा शशिमण्डल राजा का पुत्र और सुप्रभा कुक्षि से उत्पन्न मैं प्रतिचन्द्र हूँ । पत्नी सहित आकाश से जाते हुए मुझसे सहस्त्रविजय विद्याधर आपस के वैर से युद्ध करने लगा । शक्ति से मारकर गिराया । साकेतपुरी के महेन्द्रउदय उद्यान में भूमि पर गिरे मुझे आपके भाई भरत ने देखकर सुगंधिजल के सिंचन से शल्य रहित किया । तत्क्षण ही प्रहार रहित बना और मैंने सुगंधिजल के महात्म्य के बारे में आपके अनूज से पूछा । भरत ने कहा - गजपुर से आये विन्ध्य सार्थवाह का एक भैंसा मार्ग में अतिभार के वहन से तुटे हुए अंगवाला यहां गिरा । नगर के लोग उसके मस्तक पर पैर रखकर चलने लगे । वह मर गया और अकामनिर्जरा के योग से वायुकुमार देव हुआ । क्रोधित उसने इस देश में व्याधि फैलाई । मैरे देश में रहते हुए भी मैरे मामा द्रोणमेघ राजा के देश और घर में व्याधि नहीं हुई । मैंने मामा से पूछा । तब उन्होंने कहा -मेरी पत्नी प्रियंकरा व्याधि से बाधित थी । गर्भ के होने पर उसके प्रभाव से व्याधि से मुक्त हुई और क्रम से विशल्या नामक पुत्री को जन्म दिया । विशल्या के स्नान पानी से सिंचित रोगी मनुष्य भी मेरे देश में नीरोगी हो गये है । मैंने सत्यभूतशरण मुनि से पूछा । तब उन्होंने पूर्वजन्म के तपस्या का फल है इस प्रकार कहा । घाव का भरना , शल्य को निकालना , व्याधि का क्षय इसके स्नान के पानी से होता है और लक्ष्मण इसका पति होगा । उन ऋषि के वचन से और अनुभव से मैने यह इसका प्रभाव निश्चय किया है । इस प्रकार कहकर द्रोणमेघ ने मुझे भी उसका स्नान जल अर्पण किया । उससे मेरा देश भी नीरोगी हो गया और उससे सिंचित तू शक्तिशल्य रहित और घात रहित हुए हो इस प्रकार भरत ने कहा था । इसलिए प्रभु ! प्रातः तक उसका स्नान जल ले आये । शीघ्रता करें । उसके बाद रामचंद्र की आज्ञा से भामण्डल , हनुमान , अंगद विमान से अयोध्या गये । महल के तलीये पर सोये भरत को देखकर संगीत से जगाया । भरत के पूछने पर भामण्डल ने नमस्कारकर कार्य का निवेदन किया । यह कार्य मेरे वहाँ जाने पर सिद्ध होगा इस प्रकार कहकर भरत विमान पर चढ़ा और कौतुकमंगलपुर आया । भरत ने द्रोणमेघ से प्रार्थना की । द्रोणमेघ ने लक्ष्मण के साथ विवाह करने के लिए हजार कन्याओं के साथ विशल्या दी । भामण्डल ने भरत को अयोध्या में छोड़कर विशल्या से युक्त जलते हुए दीपविमान में बैठा । सूर्योदय की भ्रान्ति से , भयभीत सुग्रीव आदि क्षणमात्र के लिए तो देखते रह गये । विमान से उतरकर भामण्डल लक्ष्मण के समीप गया । तब सब लोग निर्भय बने ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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9-03-2021
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( 92 )
गतांक से आगे :
जिनशासन में तप धर्म को मुक्ति का अमोघ कारण दर्शाया है । तप के बारह भेद ही कर्म निर्जरा में मुख्य-प्रधान है । तीर्थंकर भी कृतकृत्य हो जाने के बाद भी निर्वाण के समय तपधर्म का स्वीकार करते हैं । तप मुक्ति का सुख प्राप्त करवाता है । जब तक मुक्ति का सुख न मिले तब तक भौतिक सुख भी उच्चकोटि के प्राप्त करवाता है । इन्द्रत्व , अहमिन्द्रत्व और चक्रीत्व ये सभी तपधर्म के ही फल रुप में प्राप्त होते है । तप धर्म से अनेक लब्धियाँ एवे शक्तियाँ भी प्रकट होती है । उस तप धर्म के प्रभाव से ही विशल्या में यह शक्ति प्रकट हुई है कि उसके स्नान जल से रोग- आधि-व्याधि दूर हो जाती है । लक्ष्मण मेरे होने वाले पति हैं इनके शरीर पर मेरे स्नान जल का छटकाव करुँगी तो पति की आशातना हो जायेगी इस प्रकार सोचकर उसने लक्ष्मण को हाथ से ही स्पर्श किया ।
विशल्या के हाथ के स्पर्श से लक्ष्मण के शरीर में से बाहर निकलती शक्ति को हनुमान ने उड़कर पकड़ ली । देवता रुपवाली उसने कहा - मेरा दोष नहीं है । मैं प्रज्ञप्ति की बहन हूँ । धरणेन्द्र ने रावण को दी थी । विशल्या के पूर्वजन्म के तप तेज को सहने में असमर्थ मैं जा रही हूँ । पापरहित मुझे दासी के भाव से छोड़ दो । छोड़ने पर वह अदृश्य हो गयी । विशल्या ने फिर से लक्ष्मण को हाथ से स्पर्श किया और गोशीर्ष चन्दन से धीरे-धीरे विलेपन किया । लक्ष्मण घावरहित हुआ और शीघ्र सोकर उठे के समान रामचंद्र के द्वारा आलिंगन किया गया । रामचंद्र ने लक्ष्मण से विशल्या का वृतान्त कहा और उसके स्नान जल से अपने और दूसरों के घायल सैनिकों पर अभिषेक किया । वे सभी स्वस्थ्य हो गये । उसी समय रिमचंद्र की आज्ञा से लक्ष्मण ने हजार कन्या से युक्त विशल्या से विवाह किया । तब विद्याधर राजाओं ने लक्ष्मण के जीवन और विवाह से उत्पन्न हर्ष से किसी अपूर्व उत्सव को मनाया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
10-03-2021
( 93 )
गतांक से आगे :
रावण ने यह जानकर मंत्रियों से विचारणा की । मेरी यह सोच थी कि शक्ति से मारा गया लक्षामण प्रातः मर जायेगा । उसके स्नेह से रामचंद्र भी मर जायगा । वानर भाग कर चले जायेंगे । कुम्भकर्ण , इन्द्रजित प्रमुख स्वयं वापिस आ जायेंगे । लक्ष्मण भाग्य की विपरीतता से जीवित है । कुम्भकर्ण आदि कैसे छुड़ायें जायें ? मंत्रियों ने कहा - सीता को छोड़े बिना उनका मोचन नहीं होगा । उल्टा अमंगल होगा । निज कुल की रक्षा करें , रक्षा करें । आप ही रामचंद्र के पास झुक जायें । अभिमानी और काल प्राप्त रावण को ऐसी सुनहरी सलाह सुनकर क्रोध आये इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं । रावण उनका तिरस्कारकर सामन्त नामक दूत को साम , दाम , दण्ड पूर्वक शिक्षा देकर रामचंद्र के पास भेजा । उसने जाकर रामचंद्र से कहा - रावण तुझसे कह रहा है कि मेरे बंधु वर्ग को छोड़ दो और सीता की अनुमति दो । अर्ध राज्य ग्रहण करों । मैं तुझे तीन हजार कन्याएँ दूँगा । जो इस प्रकार खुश न हुए , तो न ये सब है और न ही जीवन । रामचंद्र ने कहा - मुझे राज्यादि से कोई प्रयोजन नहीं है । यदि सीता को सम्मानपूर्वक भेजेगा , तब ही उसके बन्धु वर्ग को छोडूँगा , अन्यथा नहीं । सामन्त ने कहा - स्त्री मात्र के लिए खुद के प्राण को संशय में मत डालों । जो एक बार रावण से मारा गया , लक्ष्मण आज जीवित है , वह फिर से , कैसे जीयेगा , तू और वानर भी कैसे जीवित रहोगे? अकेला रावण भी विश्व को मारने में काफी है । लक्ष्मण ने क्रोध से कहा - रे दूताधम ! क्या रावण अब भी अपनी शक्ति और पर शक्ति को नही जानता है ? मारे और बांधे हुए परिवारवाला , आयु शेष मात्र किया हुआ रावण अब भी बहादुरी का नाटक कर रहा है । अहो ! निर्लज्जता ! इसलिए तू युद्ध के लिए तैयार हो जा । मेरी भुजा उसको मारने के लिए तैयार ही है । विपरीत बोलने की इच्छा वाले दूत को वानरों ने गर्दन से पकड़कर निकाल दिया ।
रावण ने दूत से यह सुनकर मंत्रियों से अब कौनसा कार्य उचित है ? इस प्रकार पूछा । उन्होंने भी कहा - सीता का अर्पण ही उचित है । सब कार्य की अन्वय-व्यतिरेक से परीक्षा की जाती है । व्यतिरेक का फल देखा गया । अन्वय का फल देखें । सीता के अर्पण से छोड़े गये अक्षत बन्धुओं से , पुत्रों से और सम्पदा से वृद्धि प्राप्त करोगे । रावण को बिभीषण के जाने के बाद भी हितशिक्षा देनेवालों ने हितशिक्षा देने में कमी न रखी । परंतु कामान्ध बना रावण हितशिक्षा को भी अहितशिक्षा मानकर उनके सीता अर्पण की वाणी से मर्मरहित के समान अंदर दु:खित हुआ और लम्बे समय तक सोचने लगा । बहुरुपी विद्या को साधने का हृदय में निर्णय कर शान्त कषायवाला होकर शान्तिनाथ के चैत्य में गया । श्री शान्तिनाथ की भक्ति से स्नात्र कर गोशीर्षचन्दन से विलेपन और देवताई पुष्पों से पूजा की । स्तुति की । सामने रत्नशिला पर बैठा , जपमाला धारण किया हुआ विद्या साधने के लिए जाप आरंभ किया मन्दोदरी ने यमदण्ड द्वारपाल से कहा - सभी नगर के लोग आठ दिन तक श्रीजिनधर्म में रत रहे , अन्यथा वधात्मक दण्ड दिया जायेगा , इस प्रकार लंका में घोषणा करो । उसने वैसा ही किया ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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11-3-2021
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 95 )
अष्टम सर्ग
गतांक से आगे :
बिभीषण ने दिग्भ्रान्त बनें राक्षसों से कहा ये रामचंद्र -लक्ष्मण आँठवे बलदेव एवं वासुदेव हैं इनका आश्रय लो और उन दोनों ने आश्रितों के ऊपर कृपा की । बिभीषण ने मरे हुए भाई को देखकर शोक के आवेश में छुरी से मरने की इच्छावाला होकर , हा भाई ! भाई ! इस प्रकार ऊँचे से रोने लगा । मन्दोदरी आदि से युक्त बिभीषण को रामचंद्र-लक्ष्मण ने इस प्रकार समझाया कि -ऐसे पराक्रमी पुरुष पर शोक नहीं करना चाहिए । वीरवृति से मरा है , यह कीर्ति का पात्र है। इसका उत्तर कार्य करों । इस प्रकार कुम्भकर्ण आदि को भी बंधन से मुक्त कर समझाया । सभी ने एकत्रित होकर कर्पूर , अगंरु से संमिश्रित गोशीर्षचन्दन से रावण का अंगसंस्कार किया । रामचंद्र आदि सभी ने पद्मसरोवर में जाकर स्नान किया और रावण को जलांजलि दी । रामचंद्र ने कुम्भकर्ण आदि को अपने-अपने राज्य का आश्रय लें । इस प्रकार कहा । वे भी शोक और आश्चर्य से भरे हुए गदगद् अक्षर से कहने लगे -राज्य से हमें प्रयोजन नहीं हैं । हम दीक्षा ग्रहणकर स्वराज्य प्राप्त करेंगे ।
इसी बीच कुसुमायुध उद्यान में अप्रमेयबल नामक चार ज्ञान के धारक मुनि आये । उसी रात्रि में उनको केवलज्ञान उत्पन्न होने पर देवों ने महिमा की । रामचंद्र-लक्ष्मण , कुम्भकर्ण आदि प्रातः जाकर विधिवत वंदन कर धर्म श्रवण किया । विरक्त इन्द्रजित -मेघवाहन ने अपने पूर्वभव के बारे में पूछा । मुनि ने कहा - कौशाम्बी में प्रथम और पश्चिम नामक तुम दोनों निर्धन बंधु थे । भवदत्त मुनि के पास दीक्षा ग्रहणकर विहार करने लगे । अन्य दिन तुम दोनों कौशाम्बी नगरी गये । वहाँ मधु उत्सव में इन्दुमुखी पत्नी से क्रीड़ा करते नन्दीघोष राजा को देखा । पश्चिम ने उसको देखकर इन दोनों की ऐसी क्रीड़ा करनेवाला पुत्र बनूं इस प्रकार निदान किया । आयुष्य पूर्णकर उनका पुत्र रतिवर्धन हुआ । यौवना अवस्था में आये उसने राज्य प्राप्त किया और पिता के समान विविध क्रीड़ा करने लगा । प्रथम मुनि आयुष्य पूर्णकर ब्रह्मकल्प में देव हुआ और मुनिरुप से आकर उसको प्रतिबोधित किया । रतिवरूधन ने दीक्षा ग्रहणकर ब्रह्मलोक में देवत्व प्राप्त किया । वहाँ से दोनों च्यवे और विबुद्धनगर में राजकुमार के रुप में दोनों भाई बनें । राज्य प्राप्त किया फिर दोनों राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की और अच्युत्तकल्प में देव हुए । वहाँ से च्यवकर तुम दोनों रावण के पुत्र हुए हो । रतिवर्धन की माता इन्द्रमुखी संसार में भ्रमणकर तुम दोनों की माता मन्दोदरी हुई है । कुम्भकर्ण , इन्द्रजित , मेघवाहन आदि और मन्दोदरी आदि ने यह वृतान्त सुनकर दीक्षा ग्रहण की ।
क्रमशः
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🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजय जी
12:3;21
( 94 )
गतांक से आगे :
सुग्रीव ने ये समाचार गुप्तचरों से जानकर जब तक बहुरुपिणी विद्या को साध न ले तब तक इसे साध लिया जाये इस प्रकार रामचंद्र से विज्ञप्ति की । रामचंद्र भी हँसकर कहने लगा - शान्त और ध्यान में रहे उसे मैं कैसे ग्रहण करुँ ? उसके समान मैं कपटी नही हूँ । अंगद आदि ने रामचंद्र के उस वचन को सुनकर गुप्त रीति से ही शान्तिनाथ चैत्य में जाकर विविध उपसर्ग करने लगे । वह तो ध्यान से जरा भी चलित नहीं हुआ । अंगद ने कहा - रामचंद्र से भयभीत तूने यह क्या पाखण्ड आरंभ किया है ? तूने मेरे स्वामी के परोक्ष में महासती सीता का अपहरण किया था । किन्तु मैं तेरे देखते हुए ही मन्दोदरी का अपहरण करता हूँ । इस प्रकार कहकर रोती मन्दोदरी को बालों से खींचने लगा । रावण ने उसकी ओर देखा भी नहीं । विद्या आकाश को प्रकाश करती हुई प्रकट होकर कहने लगी -मैं तुझे सिद्ध हुई हूँ । मैं क्या करुँ ? विश्व तेरे वश में करुँ ? रामचंद्र -लक्ष्मण कितने मात्र है ? रावण ने जबाब दिया - सब तेरे से सिद्ध होगा । स्मरण करने पर आ जाना । वह अदृश्य हो गयी । वानर अपनी सेना में आ गये । रावण ने मन्दोदरी से अंगद का वृतान्त सुनकर हुंकारकर स्नान और भोजन किया । बाद में देवरमण उद्यान में जाकर सीता से कहने लगा - बहुत लम्बे समय तक तुझसे प्रार्थना की गयी है । अब तो तेरे पति और देवर को मारकर , नियम भंग के भीरुत्व को छोड़कर बलजबरी से सेवूँगा । ऐसे उसके वचन को सुनकर सीता मूर्च्छित हो गयी । कैसे भी होश में आकर कहने लगी यदि रामचंद्र-लक्ष्मण की मृत्यु हो जाय तो मुझे अनशन हो । इस प्रकार अभिग्रह ग्रहण किया । रावण यह सुनकर सोचने लगा - इस पर मेरा राग , जलरहित पृथ्वी पर कलारोपण के समान है । मैने योग्य नहीं किया हैं । जो बिभीषण की अवज्ञा की , अमात्यों को नहीं माना और कुल को कलंकित किया है । यदि आज इसको मैं छोड़ दूँ , तो विवेकपूर्ण नहीं होगा । रामचंद्र के पराक्रम से भयभीत बनकर छोड़ दिया इस प्रकार उलटा अपयश होगा । उससे उन दोनों को बांधकर यहाँ लाऊँगाऔर इसको अर्पण करुँगा । यह धर्म से पाने लायक यश है इस प्रकार निश्चय कर , उस रात को बीताकर , अपशकुनों के रोकने पर भी युद्ध के लिए चला गया । फिर से दोनों सैनाओं में युद्ध हुआ । लक्ष्मण ने दूसरे राक्षसों को छोड़कर रावण को बाणों से आच्छादित कर दिया । उसके पराक्रम को देखकर शंकायुक्त रावण ने बहुरुपिणी विद्या का स्मरण किया । स्मृति मात्र से वहाँ विद्या के आने पर , रावण ने अनेकों डरावने रुप बनाये । लक्ष्मण ने भूमि पर , आकाश में , पीछे , आगे दोनों बाजू में विविध अस्त्र बरसानेवाले रावण को ही देखा । स्वयं रथ में खड़ा अकेला भी उनको तीक्ष्ण बाणों से मारने लगा । उसकी बाण वर्षा से घबराये हुए रावण ने अंतिम शस्त्र चक्र का स्मरण किया और हाथ में आने पर घूमाकर लक्ष्मण पर छोड़ा । वह प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मण के दाहिने हाथ में स्थित हुआ । रावण दु:खित होकर सोचने लगा -मुनि का वचन सत्य हुआ । बिभीषण आदि का विचार और निर्णय सत्य हुआ । बिभीषण ने उसको दु:खी देखकर फिर से कहने लगा - भाई ! यदि जीना चाहते हो ,तो सीता को छोड़ दो । ऐसे समय में भी भवितव्यता के कारण क्रोधित रावण ने कहा- रे! चक्र मेरा ही अस्त्र है ? चक्र मेरा क्या बिगाडेगा ? अभी भी चक्र सहित शत्रु को मुष्टि से मार दूँगा । लक्ष्मण ने इस प्रकार कहते रावण के ऊपर चक्र छोड़कर उसकी छाती को उसी चक्र से विदार दिया । तब ज्येष्ठ महीने की कृष्ण एकादशी में , दिन के पीछले प्रहर में मरा हुआ रावण चौथी नरक में गया ।
यहाँ पर रावण ने श्री शान्तिनाथ प्रभु की भक्ति , विद्यासाधन आदि क्रिया भौतिक सुखार्थ ही की है ।
विद्या जैसी साधना में तल्लीनता , एकाग्रता की इतनी आवश्यकता रहती है तो फिर आत्भशुद्धि की साधना में तो इससे भी कई गुनी अधिक एकाग्रता चाहिए । इसीलिए कहा गया है कि साधक वही जो चल रही साधना में तन-मन से एकमेक रहे ।
रावण ने साधना से विद्या सिद्ध की । सीता को अपनी प्रतिज्ञा भंग करने की बात भी कह दी और उस सीता के अभिग्रह से उसकी बुद्धि मार्ग पर आयी । परंतु उसी समय अहं ने उसे घेर लिया और यहाँ पर भी सीधा सोचना था वहाँ उल्टा सोच लिया और युद्ध के लिए आया । यहाँ पर भी बिभीषण की अंतिम हितशिक्षा की भी अवहेलना की और परिमाम जो आनेवाला था वही आया । लक्ष्मण के हाथों अपने ही चक्र से अपनी ही मृत्यु । इस प्रकार केवली भगवंत का वचन सत्य हुआ । जय-जयकार कहते देवों ने लक्ष्मण के ऊपर पुष्पवृष्टि की । हर्ष से वानर नाचने लगे ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजय जी
*13:3:21*
( 96 )
गतांक से आगे :
पिता की मृत्यु , भाई की मृत्यु , पति की मृत्यु और अपने राजा की मृत्यु इस प्रकार एक रावण की मृत्यु अनेकों के लिए शोकमयता का कारण बनी । परंतु जब व्यक्ति संसार के संबंधों को क्षणिक एवं भ्रामक समझ लेता है । जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है ऐसा सत्य हृदय की गहराई में उतर जाता है तो शोक मोहनीय दूर हो जाता है । शोक को बुलाया जाता है और उसे रखा जाता है तभी वह व्यक्ति को धर्म विमुख बनाता है और जो लोग शोक को याद ही नहीं करते उनका शोक कुछ बिगाड़ नहीं सकता । कुंभकर्ण , मंदोदरी इन्द्रजित आदि ने धर्मोपदेश रावण की मृत्यु के दूसरे दिन ही सुना । सुनकर संसार के स्वरुप को समझा । उनको संसार दावानल लगा और उसी समय यानि रावण की मृत्यु के दूसरे दिन प्रातः हजारों व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण कर ली ।
हार गये थे इसलिए दीक्षा नहीं ली पर कहीं यह मानवभव हार न जायें इसलिए दीक्षा ग्रहणकर उसी भव में स्वराज्य , मुक्ति का राज्य प्राप्त किया ।
रामचंद्र ने लक्ष्मण और सुग्रीव सहित द्वारपाल के समान बिभीषण के द्वारा दिखाये जाते मार्गवाला , विद्याधरस्त्रियों के द्वारा किये गये मंगलवाला , बड़ी ऋद्धि के साथ लंका में प्रवेश किया । पुष्पगिरि के मस्तक पर रहे उद्यान में हनुमान ने यथा कथित सीता को दिखाया । उसको उठाकर अपने अंक में धारण किया । सिद्धगन्धर्व आदि ने महासती सीता जयवंत हो इस प्रकार आकाश में घोषणा की । सीता ने नमस्कार करते लक्ष्मण को चिरंजीव इत्यादि कहती हुई मस्तक पर हाथ रखा । नमस्कार करते भामण्डल को भी आशीष से आनन्दित किया । सुग्रीव , बिभीषण , हनुमान , अंगद आदि भी स्वनाम कहने पूर्वक उसको नमस्कार किया । सीता सहित रामचंद्र भुवनालंकार हाथी पर बैठकर सुग्रीव आदि से प्रेरित रावण के महल में गया । वहाँ श्री शांतिनाथ चैत्य में बिभीषण द्वारा अर्पित उपहारों से श्री शांतिनाथ की पूजा की । उसके बाद बिभीषण के द्वारा प्रार्थना करने पर , परिवार सहित रामचंद्र बिभीषण के महल में जाकर देवपूजा , स्नान , भोजन आदि किया । बिभीषण ने दो वस्त्र धारणकर , अंजलि जोड़ सिंहासन पर बैठे रामचंद्र से कहा - यह रत्नादि कोश है , यह हाथी , घोड़े आदि और यह राक्षसद्वीप । इन सबको आप ग्रहण करें । मैं आपका सेवक हूँ । हम आपका राज्याभिषेक करना चाहते हैं आप राज्यारुढ़ होकर लंका को पवित्र करें । मुझ पर अनुग्रह करें । रामचंद्र ने कहा -मैंने पहले ही लंका का राज्य तुझे दिया था । भक्ति से मोहित क्या तुम भूल गये हो ?
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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14-3-2021
( 97 )
गतांक से आगे :
निर्लोभता यह मानव भव का सर्वश्रेष्ठ गुण है । जहाँ निर्लोपता है वहाँ दूसरे गुण स्वयं निर्लोभता गुण से आकर्षित बनकर आ जाते हैं । जगत में निर्लोभी सर्वोत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर लेता है । जैनशासन में पंचपरमेष्ठि पद को पाये हुए आत्माओं का मूल है सम्यग्दर्शन पूर्वक की निर्लोभता । स्वर्णमयी लंका का राज्य ग्रहण करने के लिए बिभीषण का आग्रह यह कहकर छोड़ दिया कि मैने प्रथम दिन ही तुमे लंका का राज्य दे दिया था । क्या तुम भूल गये ? ये वचन रामचंद्र के अंदर रही हुई निर्लोभिता के कारण निकले हैं ।
इस प्रकार कहकर उसी दिन लंका के राज्य पर बिभीषण का अभिषेक किया । स्वयं परिवार सहित रावण के महल में गया । वहाँ सिंहोदर आदि राजाओं की पूर्व में स्वीकृत कन्याओं के पिताओं को विद्याधरों ने रामचंद्र की आज्ञा से समाचार कहे ! और उन्होंने लंका में आकर यथाविधि विवाह कराया । सुग्रीव आदि से सेवित उन दोनों ने लंका में छह वर्ष बीताये ।
इसी बीच विन्ध्य की भूमि पर इन्द्रजित और मेघवाहन सिद्ध हुए । वह मेघरव तीर्थ हुआ । कुम्भकर्ण नर्मदा नदी पर सिद्ध हुआ । वह पृष्ठरक्षित नामक तीर्थ हुआ ।
यहाँ अयोध्या नगरी में रामचंद्र -लक्ष्मण की माताएँ उनके समाचार नहीं जानने से दु:खित होकर रह रही थी और उसी समय धातकीखण्ड में सीमंधर प्रभु को वंदनकर नारद अयोध्या में आया । उसने दु:ख का कारण पूछा । अपराजिता ने कहा - मेरे दो पुत्र वन में गये थे । सीता का अपहरण , रावण के द्वारा युद्ध में शक्ति से लक्ष्मण को मारना और विशल्या को वहाँ ले जाना । उसके बाद वत्स जीवित है अथवा नहीं यह हम नहीं जानते हैं इस प्रकार कहकर हा वत्स ! वत्स ! इस प्रकार रोती हुई अपराजिता ने सुमित्रा को भी रुला दिया । नारद ने कहा - तुम दोनों स्वस्थ्य बनों । मैं तुम्हारें पुत्रों के पास जाऊँगा और यहाँ लेकर आऊँगा । नारद ने लंका में जाकर रामचंद्र से माता का वृतान्त कहा । माताओं के दु:ख को सुनकर रामचंद्र ने बिभीषण से कहा - तेरी भक्ति से लम्बे समय तक हम यहाँ रहे । जब तक माताएँ हमारे दु:ख से मर न जायें , तब तक हम वहाँ चले जाते हैं । तुम आज्ञा दो । बिभीषण ने नमस्कार कर कहा - जब तक अपने शिल्पिओं से अयोध्या को स्वर्ण की नगरी के समान नहीं बनाता , तब तक आप और सोलह दिन यहाँ रहें । ऐसा ही हो इस प्रकार रामचंद्र के कहने पर उसने वैसा किया । तब रामचंद्र के द्वारा विदा किये गये नारद ने जाकर माताओं से पुत्र आगमन की खुशी की खबर दी । सोलह दिनों में लंका के शिल्पिओं ने अयोध्या नगरी के राजप्रासाद और नगर के अन्य महल आदि की रौनक लंका के महलों जैसी बना दी ।सोलहवें दिन होने पर अन्त:पुर सहित , पुष्पक विमान में बैठे , बिभीषण , सुग्रीव , भामण्डल आदि से घेरे रामचंद्र-लक्ष्मण क्षणमात्र में अयोध्या आ गये ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
22-01-2021
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( 98 )
गतांक से आगे :
छोटे भाई के साथ , गज पर बैठे भरत के सामने आने पर , रामचंद्र की आज्ञा से पुष्पक विमान पृथ्वी के समीप ले जाया गया । अनुज सहित भरत के गज से नीचे उतरने पर मिलने की उत्कंठा से रामचंद्र-लक्ष्मण भी पुष्पक विमान से नीचे उतरे । रामचंद्र ने पैर पर गिरे भरत -शत्रुघ्न को उठाकर आलिंगन किया । लक्ष्मण ने भी नमस्कार करते उन दोनों को आलिंगन किया । रामचंद्र ने तीनों भाईओं के साथ पुषपकविमान में बैठकर अयोध्या प्रवेश की आज्ञा दी । नगर के लोगों ने अपने राजा का सच्चे ( जातिवंत ) मोतियो से बधाकर भव्य नगर प्रवेश करवाया । लक्ष्मण सहित रामचंद्र पुष्पक विमान से उतरकर माता के महल में जाकर अपराजिता देवी और दूसरे मातृवर्ग को नमस्कार किया । उन्होंने आशीर्वाद दिये । सासुओं को नमस्कार करती सीता , विशल्या आदि को उन्होंने हमारे समान वीरपुत्रों को जन्म देने वाली बनों , इस प्रकार आशीर्वाद दिये । अपराजिता देवी लक्ष्मण को हाथ से स्पर्श करती हुई , मस्तक पर चूमती हुई इस प्रकार कहने लगी - भाग्य से तुझे देखा है । पुनः जन्म लिया है तुमने । तेरी सेवा से रामचंद्र और सीता ने उन-उन वनवास के कष्टों को पार किया है । लक्ष्मण ने कहा - पिता के समान पूज्य रामचंद्र के द्वारा , आपके समान सीता के द्वारा मैं लालन-पालन किया हुआ , वन में भी सुखपूर्वक रहा । मेरे खराब आचरण से ही सीता का अपहरण हुआ है । परन्तु परिवार सहित पूज्य रामचंद्र आपके आशीर्वादों से ही वैर रुपी समुद्र को लांघकर क्षेम से आये हैं । भरत ने अयोध्या में उत्सव कराया ।
कुछ दिन पश्चात् भरत ने रामचंद्र को नमस्कार कर कहा-आर्य ! आपकी आज्ञा से इतने काल तक राज्य धारण किया है । यदि पूज्य की आज्ञा राज्य पालन रुपी कल ( अर्गला ) न होती तो , पूज्य पिताजी के साथ ही दीक्षा ग्रहण कर लेता । अब आप दीक्षा की आज्ञा दें । राज्य वापिस ग्रहण करें । भव से उद्विग्न मैं आपके आने के बाद अब ठहरने के लिए उत्साही नहीं हूँ । अश्रु सहित रामचंद्र ने कहा - वत्स ! तू क्या बोल रहा है ? तू ही राज्य कर । तुझसे मिलने की आतुरता से हम वापिस आये हैं । अपनी विरह वेदना हमें मत दों । रुको ! मेरी आज्ञा पूर्व के समान पालन करो । इस प्रकार आग्रह प्रधान रामचंद्र को जानकर , नमस्कारकर , दीक्षा के लिए जाते भरत को लक्ष्मण ने उठकर हाथ से धारण किया । भरत को दीक्षा के लिए जाता हुआ जानकर हड़बड़ाई सीता , विशल्या आदि भी वहाँ आयी । भरत के दीक्षा के आग्रह को भूलाने की इच्छावाली उन्होंने जल क्रीड़ा की प्रार्थना की । अन्त:पुर सहित भरत ने उनके अनुरोध से क्रीड़ा सरोवर में मुहूर्त पर्यंत जल क्रीड़ा की ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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16-03-2021
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( 99 )
गताकं से आगे :
भरत ने इतने वर्ष राज्य किया परंतु निर्लेप भाव से , निर्लोभी बनकर , मन में तो दीक्षा की धून लगी रही थी । राह देख रहा था । कब बड़े भाई आये और कब इस राज्य की झंझट से मुक्त बनकर स्वराज्य का भोक्ता बनूं । यहाँ राज्य भोगते हुए भी पराधीनता है और वहाँ कुछ न होते हुए भी स्वाधीनता है । इसलिए भरत ने रामचंद्र के आने के बाद शीघ्र दीक्षा की आज्ञा मांगी । सीता आदि भरत को संसार में रोकने हेतु प्रयत्न किया पर उनका प्रयत्न विफल हुआ ।
भरत के जल से निकलकर किनारे पर खड़े होने पर , स्तम्भ को उखाड़कर मदान्ध भुवनालंकार वहाँ आया । भरत के दर्शन से मदरहित हुआ । उसके दर्शन से भरत भी खुश हुआ । सामन्त सहित वेग से रामचंद्र-लक्ष्मण उसको बांधने के लिए आये । रामचंद्र की आज्ञा से महावत उसको स्तम्भ पर ले गये ।
वहाँ देशभूषण और कुलभूषण मुनि आये । उनको वंदन करने के लिए रामचंद्र , लक्ष्मण , भरत परिवार सहित गये । रामचंद्र ने पूछा - भरत के दर्शन से भुवनालंकार हाथी निर्मद कैसे हुआ ? देशभूषण केवली ने कहा - श्री ऋषभदेव के साथ जिन चार हजार राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की थी , वे सब गोचरी की विधि का ज्ञान न होने से तापस बन गये थे । उनमें से तापस बने प्रहलादन और आसुप्रभ राजा के पुत्र चन्द्रोदय और सूर्योदय ने चिर समय तक संसार में भ्रमण किया । चन्द्रोदय गजपुर का कुलंकर राजा हुआ । सूर्योदय भी उसी नगरी में श्रुतिरति नामक ब्राह्मण हुआ । अन्य दिन तापस आश्रम की ओर जाते कुलंकर राजा से अभिनन्दन मुनि ने अवधिज्ञान से कहा - पंचाग्नितप करते तपस्वी के द्वारा जलाने के लिये लाये गये काष्ठ के अंदर सर्प है जो तेरे पूर्वभव के दादा का जीव है । वह सर्प के रुप में जन्मा है काष्ठ के अंदर रहा हुआ है । तुम उसकी रक्षा करों । वह वहाँ गया और काष्ठ के विदारण से सर्प को देखकर विस्मित हुआ । दीक्षा ग्रहण करने की इच्छावाले राजा से श्रुतिरति ब्राह्मण ने कहा - यह आपका कुल परंपरागत मार्ग नहीं है । यदि आपका आग्रह हो तो अन्तिम उमर में दीक्षा ग्रहण करें इस प्रकार कहकर निषेध किया । मैं क्या करुँ ? इस प्रकार सोचते हुए रुक गया । पुरोहित में आसक्त रानी ने विष देकर उस राजा को मार डाला । श्रुतिरति भी क्रम से मर गया । दोनों संसार में भ्रमण कर राजगृह नगर में कपिल ब्राह्मण के पुत्र विनोद और रमण के रुप में जन्म लिया । रमण देशान्तर में वेद पढ़कर , रात के समय राजगृह में आया और बाहर ही यक्ष के मंदिर में सो गया । विनोद की पत्नी शाखा उस दिन दत्त ब्राह्मण से की हुई संकेतवाली वहाँ आयी । विनोद भी उसके पीछे आया । उसने दत्त की बुद्धि से रमण को उठाकर उससे क्रीड़ा करने लगी । विनोद ने भी उसको तलवार से मार डाला । शाखा ने रमण की छुरी से विनोद को भी मार डाला ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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