साधु जी की 32 उपमाएं
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣ *कांस्य पात्र* ➡️ *जैसे कांसे की कटोरी पानी के द्वारा भेदी नहीं जा सकती। उसी प्रकार मुनि मोह माया से नहीं भेदा जा सकता।*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣ *शँख* ➡️ *जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार मुनि पर राग स्नेह का रंग नहीं चढ़ता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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3️⃣ *जीव गति* ➡️ *परभव में जाने वाले जीव की गति(विग्रह गति) को जैसे कोई रोक नहीं सकता उसी प्रकार मुनि अप्रतिबंध विहारी होकर विचरतेहैं*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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4️⃣ *सुवर्ण* ➡️ *जैसे स्वर्ण पर काट (जंग )ने चढ़ता उसी प्रकार साधु को पाप रूपी काट लगता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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5️⃣ *दर्पण* ➡️ *जैसे दर्पण में रूप दिखाई देता है उसी प्रकार साधु जीज्ञान से अपनी आत्मा का स्वरूप देखते है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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6️⃣ *कूर्म* ➡️ *किसी वन मैं एक सरोवर था उसमें बहुत* *कछुए रहते थे, वह* *आहार की खोज में पानी से बाहर निकला करते थे*, *उस मौके पर वन में रहने वाले अनेक श्रृंगाल उन्हें खाने के लिए आ जाते थे। जो कछुए समझदार होते आते हुए* *श्रृंगाल को देखते ही रात भर अपने पांचो अंगों को (चारों पैरों और मस्तक )को ढाल के नीचे छिपाकर स्थिर पड़े रहते थे*
*जब सूर्य उदय होता और श्रृंगाल चले जाते तब यह कछुए अपने ठिकाने जाते और सुख पूर्वक रहते थे ।पर कुछ कछुए ऐसे भी थे जो लगातार स्थिर नहीं रह सकते थे*, *श्रृंगालअभी गए हैं या नहीं गए यह देखने के लिए अपना मस्तक बाहर की ओर निकालते थे*। *कि उसी समय छिपकर बैठे हुए श्रृंगाल उन पर झपटते थे और उन्हें मारकर खा जाते थे। साधुउन स्थिरता वाले कुर्मी की तरह पांचों इंद्रियों को ज्ञान एवं संयम की ढाल के नीचे जीवन पर्यंत दबा कर रखते हैं। स्त्री आहार आदि भोगोपभोग रूपी*
*श्रृंगाल के शिकार नहीं होते अंत में शांतिपूर्वक आयु पूर्ण करके मोक्ष रूपी सरोवर में अवगाहन करके सुख के पात्र बनते हैं*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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7️⃣ *पद्म* ➡️ *जैसे कमल जल में उत्पन्न होता है जल में वृद्धि को प्राप्त होता है ,वह फिर भी जल से अलिप्त रहता है उसी प्रकार साधु संसार में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता सांसारिक काम भोगों से सर्वथा विरक्त रहता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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8️⃣ *गगन* ➡️ *जैसे आकाश को सहारा देने के लिए कोई स्तंभ नहीं है ,वह निराधार होने पर भी टिका हुआ है ।उसी प्रकार साधु बिना किसी का आश्रय लिए ही आनंद पूर्वक संयम जीवन व्यतीत करता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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9️⃣ *वायु* ➡️ *जैसे वायु एक जगह नहीं ठहरती उसी प्रकार साधु भी एक जगह स्थाई रूप से नहीं ठहरता वरन देश देशांतर में विचरता रहता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣0️⃣ *चन्द्र* ➡️ *मुनी निर्मल और उज्जवल अंतः करण वाला और शीतल स्वभाव वाला होता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣1️⃣ *आदित्य* ➡️ * *जैसे सूर्य अंधकार का विनाश करता है उसी प्रकार श्रमण मिथ्यात्व रूपी भाव अंधकार को नष्ट करता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣2️⃣ *समुद्र* ➡️ * * *समुद्र में अन्य नदियों का पानी आता है फिर भी समुद्र का बीच लगता नहीं है इसी प्रकार साधु सब के शुभ और अशुभ वचनों को सहन करता है कोष नहीं करता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣3️⃣ *भारण्ड पक्षी* ➡️ *भारंड़ पक्षी के 2 मुख और 3 पैर होते हैं वह सदा आकाश में रहता है सिर्फ आहार के लिए पृथ्वी पर आता है, पृथ्वी पर आकर वह अपने पंखों को फैला कर बैठता है। वह एक मुख से इधर उधर देखता रहता है कि किसी तरफ कोई खतरा तो नहीं है और दूसरे मुख से आहार करता है। जरा सी आहट होते ही वह आकाश में उड़ जाता है, उसी प्रकार साधु सदा संयम में सावधान रहता है, सिर्फ आहार आदि विशेष प्रयोजन से गृहस्थ के घर जाता है, उस समय द्रव्य दृष्टि (चर्म चक्षु) आहार की ओर और रखता है, और अंतर्दृष्टि से यह देखता है कि मुझे कोई किसी प्रकार का दोष तो नहीं लग रहे हैं दोष लगने की संभावना हो या दोष की आशंका हो तो वह तत्काल वहां से चल देता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
27:12:20
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣4️⃣ *मंदर पर्वत* ➡️
*जैसे सुमेरू पवन से कंप्लीट नहीं होता उसी प्रकार साधु परिषद और उपसर्ग आने पर संयम से चलाएं मान नहीं होता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*28:12:20*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣5️⃣ *तोय* ➡️
*जैसे शरद ऋतु का पानी बिल्कुल स्वच्छ रहता है उसी प्रकार साधु का हृदय सदैव निर्मल रहता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*29:12:20*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣6️⃣ *गैंडा* ➡️
*जैसे गैंडा नामक पशु एक दांत वाला होता है। और एक ही दांत से वह सब को पराजित कर सकता है उसी प्रकार मुनि एक निश्चय पर स्थिर रहकर समस्त कर्म शत्रु को पराजित करता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*30:12:20*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣7️⃣ *गंध हस्ती* ➡️
*गंध हस्ती को संग्राम में ज्योँ -ज्यों भालेके घाव लगते हैं त्यों- त्यों वह और अधिक पराक्रम करके शत्रु सेना का संहार करता है। उस इसी प्रकार साधु पर ज्योँ -ज्यों उपसर्ग परिषह आते हैं त्यों-त्यों वह और अधिक बल वीर्य प्रकट करके शूरवीर ता धारण करके कर्म शत्रु को पराजित करता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*31:12:20*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣8️⃣ *वृषभ* ➡️
*जैसे मारवाड़ का धोरी बैल उठाए हुए बोझ को प्राण भले ही चले जाए, किंतु बीच में नहीं छोड़ता यथा स्थान पहुंचाता है उसी प्रकार साधु पांच महाव्रत रूपी महान भार को प्रणान्नत कष्ट सहन करके भी बीच में नहीं त्याग का वरन सम्यक प्रकार से उनका निर्वाह करता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*1:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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1️⃣9️⃣ *सिंह* ➡️
*केसरी सिंह किसी भी पशु के डराए डरता नहीं, उसी प्रकार साधु किसी भी पाखंडी से डरकर धर्म से विचलित नहीं होता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*1:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣0️⃣ *पृथ्वी* ➡️
*जैसी पृथ्वी सर्दी गर्मी गंगाजल मूत्र मलिन निर्मल सब वस्तुओं को समभाव से सहन करती है ,और धरती माता समझ कर पूजा करने वाले पर, एवं जूठन गंदगी आदि डालने पर तथा खोदने वाले पर समभाव रखती है, उसी प्रकार साधु शत्रु मित्र पर समभाव रखता है, निंदक और वन्दक को समान भाव से उपदेश देता है और उन्हें सागर संसार से तारता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा
*3:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣1️⃣ *वन्हि* ➡️
*घी डालने से अग्नि जैसे देदीप्यमान होती है उसी प्रकार साधु ज्ञान आदि गुणों से देदीप्यमान होता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*4:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣2️⃣ *गोशीर्ष चंदन* ➡️
*चंदन ज्यों -ज्यों घिसा जाताहैं ,या जलाया जाता है, त्यों-त्यों सुगंध का प्रसार करता है उसी प्रकार साधु परीषह देने वाले को कर्मक्षय में उपकारी जानकर समभाव से उपदेश देकर तारता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*5:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣3️⃣ *द्रह* ➡️
* द्रह चार प्रकार के होते हैं
1️⃣केसरी वगैरह वर्षधर पर्वत के द्रह मेंसे पानी बाहर निकलता है किंतु बाहर का पानी उसमें प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार कोई -कोई साधु दूसरों को कुछ सिखाते हैं किंतु स्वयं कुछ नहीं सीखते
2️⃣ समुंद्र के समान पानी भीतर आता है किंतु भीतर का पानी बाहर नहीं निकलता ,उसी प्रकार साधु दूसरोंसे ज्ञान सीखता है ।किंतु स्वंय किसी को नहीं सिखाता।
3️⃣ गंगा प्रपात कुंड में जैसे पानी आता भी है और बाहर भी निकलता है ,इसी प्रकार कतिपय साधु ज्ञान आदि दूसरे से सीखते भी हैं और दूसरों को सिखाते भी हैं ।
4️⃣ अढ़ाईद्वीप के बाहर के समुंदरोंमें पानी ना बाहर से आता है और ना भीतर से बाहर निकलता है, इसी प्रकार कतिपय साधु न ज्ञान आदि गुण दूसरों से सीखते हैं, न दूसरों को सिखातेही हैं ।
इसके अतिरिक्त जैसे द्रह का पानी अखुट होता है ,उसी प्रकार साधु के ज्ञान आदि गुणों का भंडार अक्षय होता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*6:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣4️⃣ *कील* ➡️
*जैसे कील पर हथोड़ा मारने पर वह एक ही दिशा में प्रवेश करती है उसी प्रकार साधु सदैव मोक्ष की ही दिशा में प्रवृत्ति करता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣5️⃣ *शुन्यगृह* ➡️
*जैसे गृहस्थ खंडहर सरीखे सूने घरों की सार संभाल नहीं करता उसी प्रकार साधु शरीर रूपी घर की सार संभाल नहीं करता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣6️⃣ *द्वीप* ➡️
*जैसे समुंदर में गोते खाने वाले प्राणियों के लिए द्वीप आधारभूत है, उसी प्रकार संसार सागर में बहने वाले त्रस, स्थावर जीवो के श्रमण आश्रय रूप है, अनाथों के नाथ है।*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣7️⃣ *शस्त्र धार* ➡️
*जैसे करवत आदि शस्त्रों की धार एक ही और काष्ठ चिरते-चिरते आगे बढ़ती है उसी प्रकार साधु कर्म शत्रुओं का निकंदन करता हुआ एक मात्र आत्म कल्याण के मार्ग में चलता रहता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣8️⃣ *सर्प* ➡️
*जिस सर्प कंटकादि से डर कर चलता है ,उसी प्रकार साधु कर्म बंधन के हेतु से डरकर चलता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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2️⃣9️⃣ *शकुनि* ➡️
*जैसे पक्षी किसी प्रकार का आहार दूसरे दिन के लिए संग्रह करके नहीं रखता उसी प्रकार साधु भी रात वासी आहार नहीं रखता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐ *30 मृग* ➡️
*जैसे हिरन नित्य नए स्थानों में विचरता है, और शंका की जगह नहीं ठहरता उसी प्रकार साधु उग्र विहारी होता है और शंका या दोष की जगह तनिक भी नहीं ठहरता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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*31*काष्ठ* ➡️
* जैसे काष्ठकाटने वाले और पूजने वाले पर भी विषम भावनहीं करता, उसी प्रकार साधु शत्रु और मित्र को समान समझता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*14:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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*32*स्फटिक रत्न* ➡️
*जैसे स्फटिकमणि भीतर और बाहर में एक सी निर्मल होती है, उसी प्रकार साधु भीतर बाहर एक सी वृत्ति वाला होता है और लेश मात्र भी कपट क्रिया नहीं करता*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
*15:1:21*
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*साधु जी की 32 उपमाएं*
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*मुनि की इन पूर्वोक्त अनेक उपमाओं के अतिरिक्त और भी अनेक उपाय दी जाती है जैसे पारस मणि ,चिंतामणि, काम कुंभ, कल्पवृक्ष ,चित्र वेली आदि, इन सभी उपमाओं का सादृश्य यह है कि जैसे पारस मणि चिंतामणि आदि से मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, उसी प्रकार मुनि भव्य जीवो को ज्ञान आदि उत्तम गुण प्रदान करके, उनके सभी मनोरथ को सिद्ध कर देते हैं। जैसे बिना छेद का जहाज स्वयं भी तिरता है और दूसरों को भी तिराता है*
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*जैन तत्व प्रकाश से उद्धरत*
*अंजुगोलछा*
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