डायरी का पन्ना
डायरी का पन्ना
यूँ मैंने कई लम्हे बिता दिए जिस चाहत में आज मिल गई तो अधूरी सी क्योँ लगती है ?.
सच है ये जीवन ख्वाबों का अँधा ढेर है .किसी के सिर्फ आँखों में पलते किसी के फलते है
पर अक्सर इतनी देर हो जाती है पलने और फलने में की मिल कर भी कुछ कमी रहती है
मैं निराशावादी नहीं हूँ ,जीत चुकी हूँ अपने भीतर की जंग कई दफे, पर क्या करूँ ?
जीतने की जद्दोजहद में कई बार जो रुसवाई हुई खुद से खुद की
वो भूले नहीं भूलती है
आदमी परायों से लड़े तो एक अलग बात , अपनों से लड़ने पर एक कसक रहती है
हंसने का मौखुटा तो दिन भर लगा ही रखा है
.पर डायरी के पन्नो पर नकली हंसी जमती नहीं
यु ज़माने भर की तल्खियों का सामना किया ,पर तीर्थ की उम्र में ये दुनियादारी निभती नहीं
चलो एक बार और निभालेते है रस्मोजिंदगी ,यूँ फूलो की सेज हर किसी के नसीब में होती नहीं
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