नारी। कविता



 नारी




मैं ना किसी से हारी  हूँ 

ये आज समझने पाई हूँ ,
दुर्बलता मैं नारी हूँ
प्रकृति के सुकुमार अवयव लेकर 
मैं सबसे  हारी हूँ 

जयशंकर प्रसाद
 ( ये पंक्तिया  पढ़कर मुझे ये लगा नहीं स्त्रियों का मतलब दुर्बलता तो हरगिज नहीं हो सकता है . तो मैंने इन पंक्तियों के प्रत्यूतरमें ये कविता लिखी )
कौन कहता है ,मैं दुर्बलता मैं नारी हूँ 
मैं न किसी से हारी थी ,ना किसी से हारी  हूँ 
मेरा ध्येय केवल सीता नहीं, मेरा आधार केवल अहिल्या नहीं
मेरा रूप केवल मेनका नहीं मेरी नियति केवल सती नहीं 
मैं  तो हूँ  इन्द्रा भी  नूर जहाँ भी 
मैं  जेबूनिसा भी मैं  हूँ पुतली बाई भी 
मेरे जिस्म पे दिए गर जख्म तो मैं  बन जाऊंगी जख्मी शेर 
मत ललकारो मुझे नहीं तो मैं  बन आऊँगी समक्ष तेरे लक्ष्मी  रजिया पुतली नूर
हिम्मत मत करना मेरे सतीत्व  के स्पर्श का, मैं पद्मिनी का इतिहास  दोहरा दूँगी
लांछन  मत लगाना मै  विश्व में आग लगा दूँगी 
हाँ मांगोगे गर प्रेरणा तो मै   हाड़ी रानी बन जाऊंगी 
दोगे यदि राज तो इंदिरा स्द्रस्य अंतर्राष्ट्रीय ख्याति  दिलऊंगी 
मुझे हताहत मत करना  मै  रेणुका के आंसू बन जाऊंगी 
और परशुराम से  दुर्जनो  का संहार करूंगी 
चीर हरण मत करना कभी  मै  द्रोपदी  के खुले केश बन जाउंगी ,
किसी भीम को कर दूँगी मजबूर, दुर्योधन  के रक्त  से बाल संवारूंगी 
मैं  सदेव संहारिणी नहीं हूँ ,मैं उर्वशी हूँ ,चित्रांगदा  ,रोहिणी और रति भी 
जिस शक्ल में चाहोगे बन जाऊँगी ,प्रेम की बंसी बजाई  तो राधा बन जाउंगी 
पर जीतने की कोशिश मत करना, अपने बल से पौरुष से मुझे, जीत नहीं पाओगे 
हाँ  वैसे तो मै  हार सकती हूँ स्वयं की सभी सम्भावनाये
तैयार हूँ अस्तित्व तुझमे  निरुपित करने को, बस सुन तेरे दो प्यार के मीठे बोल
स्वागत करूंगी तुम्हारा मैं हृदय खोल
  
 रचियेता
अंजू गोलछा 

👩‍🎨 *नारी दिवस पर* 👩‍🎨
(अंजू गोलछा द्वारा पिरोए कुछ
शब्द)

जल की  निर्मल धारा सी प्रहावित  होने वाली 
धरती की मिट्टी की तरह स्निग्ध
मनो हारी
फूलों सी कोमल गात वाली
कवि की कल्पना सी  सुंदर 
चित्रित छवि वाली
अपना अपनों के लिए सब कुछ
हारने वाली ,
बच्चों के मोह में आबद्ध अपना वजूद मिटाने वाली
आज भी नारी कुछ कुछ ऐसी ही है, 
पर प्रताडित बंद छंदों से अब मुक्ति खोज रहीहैं, 
सनातनी परिभाषाओ  से मुक्त जीवन खोज रही हैं।
नहीं चाहिये  पुरुषों के अहसानों की टोकरी
वह निर्मात्री है, सर्जक है, सृष्टि की। यह अहसास दिलाना चाहती है।
अशक्त  नारी के शब्द जाल में
बहुत खो चुकी अपनी अस्मिता 
अब सशक्त बन सफलता के भाल पर केतन बन लहराना चाहती है,
सतियो औऱ महान स्त्रियों की
परिभाषा से युक्त कर जो दुःख की गढरी लाद दी उन पर 
उसे  उतार वह आज की नारी
की परिभाषा में बंधना चाहती है
छलावे का सुरमई आकाश नहीं 
वह स्फटिक आकाश देखना चाहती
हैं, 
नहीं मांग रही किसी से पर
अपने दम पर उड़ना चाहती हैं

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