नेम-राजुल
एक अनुठी प्रेम कहानी 8-8 भवो की अटूट जोड़ी नव में भव में मोहनीय कर्म से टूटकर सिद्ध गति को प्राप्त हुई l
नेम-राजुल
🐚 नेमिनाथजी की प्राचीन मूर्ति कहा पर है ?
A गिरनार
🐚 ' वरदत्त ' जी किसके प्रधान शिष्य थे ?
A नेमी नाथ जी
तीर्थकर वासुपूज्य के शासन के समय की बात है
हस्तिनापुर के राजा श्रीसेन की रानी श्रीमति ने राजकुमार शंख को जन्म दिया
शंख राजकुमार जब युवा हुए, तब हस्तिनापुर राज्य के सीमा के इलाके मे ,घुसकर पल्लीराजा समरकेतु , लोगो के किमती धन को लुटने लगा
शंख राजकुमार ने समरकेतु को हराने के लिए हस्तिनापुर से प्रस्थान कर पल्लि के किले को घेरा, और लुटा हुआ धन प्रजा मे बांटकर समरकेतु को बंदी बनाकर वापस हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया
रास्ते मे जितारि की कन्या "यशोमति राजकुमारी" का हरण करने वाले विधाधर मणिशेखर को भी हराकर यशोमति की रक्षा की
राजकुमारी यशोमति शंख राजकुमार पर मुग्ध हो गयी और दोनो को परस्पर प्रेम हो गया
अपने राज्य हस्तिनापुर लौटे तो राजा श्रीसेन ने पुत्र राजकुमार शंख का विवाह यशोमती से कराकर ,पुत्र शंख राजकुमार का राज्य- अभिषेक कर, राज्य का भांर शंख को सौंपकर दीक्षा ली
जब पिता श्रीसेन मुनि को केवल ज्ञान हुआ
तब शंख राजा ने श्रीसेन केवली (पिता) को पुछा कि मुझे पत्नी यशोमति से इतना प्रेम क्यु है ??कि मै चाहकर भी दीक्षा नही ले सकता
तब श्रीसेन केवली ने कहा कि समकित पाने वाले पहले भव मे भी तुम धनकुमार पति और वह तुम्हारी पत्नी धनवति थी
दुसरे भव मे सौधर्म देवलोक मे तुम दोनो मित्र थे
तीसरे भव मे तुम चित्रगति और वह तुम्हारी पत्नी रत्नावति थी
चौथे भव मे महेन्द्र देवलोक मे तुम दोनो मित्र थे
पांचवे भव मे तुम अपराजीत और वह तुम्हारी पत्नी रत्नमाला थी
छठे भव मे आरण देवलोक मे तुम दोनो मित्र थे
यह तुम दोनो का सातंवा भव है
पूर्व जन्मो के परस्पर प्रगाढ प्रेम ही तुम्हें दीक्षा लेने से रोक रहा है
पिता श्रीसेन केवली मुनि के मुख से यह वचन सुनकर शंख राजा को वैराग्य प्रकट हुआ
दीक्षा लेकर कठोर साधना कर,उत्तम भावना भाव कर तीर्थंकर नामकर्म बांधा
आठवे भव मे अनुत्तर देवलोक मे दोनो मित्र हुए
9वा भव -शंख राजकुमार ने यादव कुल मे समुंद्रविजय राजा की शिवादेवी रानी के गर्भ मे तीर्थंकर नेमकुमार(अरिष्टनेमि) के रूप मे जन्म लिया
यशोमती ने जुनागढ की राजकुमारी राजुल के रूप मे जन्म लिया
दोनो का विवाह निश्चित हुआ
16000राजाओ के साथ जब नेमकुमार की बारात जा रही थी तब मार्ग मे पशुओं का क्रंदन सुनाई दिया पूछने पर पता चला कि बारात में आए हुए राजाओं के भोजन की व्यवस्था के लिए इनको बाड़े में बांध रखा है
पशुओं की करूण क्रंदन सुनकर नेमकुमार को वैराग्य जाग गया
बारात रास्ते से ही लौट गयी
राजुल को जब नेमकुमार के निर्णय का पता चला वह बेहोश हो गयी
होश आने पर नेमकुमार को ही अपना पति मन से मान चुकी हूँ
इसलिये एक वर्ष तक नेमिकुमार के पुनः लौटने की अपलक प्रतीक्षा करती रही
जब राजुल को समाचार मिला की दीक्षा के 54 दिन बाद ही नेमकुमार को केवल ज्ञान हो गया है
वह समोवसरण मे तीर्थंकर नेमिनाथ की देशना सुनने गयी
जब नेमिनाथ भगवान को समोवसरण मे देशना देते हुए देखा और सुना तो आश्चर्य चकित हो गयी
उसके मन मे वैराग्य प्रकट हुआ
उसने नेमिनाथ के पास दीक्षा ली और केवल ज्ञान पाकर मोक्ष पद को पाया
यह थी सच्चे प्रेम की सच्ची और अनुठी कहानी🙏🙏
नेमिकुमार का बल
एक बार अरिष्टनेमि, अन्य कुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए श्री कृष्ण वासुदेव की आयुधशाला में आये । वहां उन्होंने सूर्य के समान प्रकाशमान सुदर्शन चक्र देखा । यह
वही सुदर्शन-चक्र था जो जरासंध के पास था और जरासंध का वध कर के श्रीकृष्ण के पास
आया था। उन्होंने सारंग धनुष, कौमुदी गदा, पञ्चजन्य शंख, खड्ग आदि उत्तम शस्त्रादि देखे । नेमिकुमार ने पञ्चजन्य शंख लेने की चेष्टा की । यह देख कर शस्त्रागार के अधिपति चारुकृष्ण ने प्रणाम कर के निवेदन किया;
"कुमार ! आप राजकुमार हैं और बलवान हैं, किन्तु यह शंख उठाने में आप समर्थ नहीं हैं, फिर बजाने की तो बात ही कहाँ रही ? इसे उठाने और फूंकने की शक्ति
एकमात्र त्रिखंडाधिपति महाराजधिराज श्रीकृष्ण में ही है।"
अधिकारी की बात पर श्री नेमिकुमार को हँसी आ गई । उन्होंने शंख उठाया और फूंका। उस शंख से निकली गंभीर ध्वनि ने द्वारिका नगरी ही नहीं, भवन, प्रकोष्ट,
बन-पर्वत और आकाश-मण्डल को कम्पायमान कर दिया । समुद्र क्षुब्ध हो उठा । गज-शाला के हाथी अपना बन्धन तुड़ा कर भाग गए, घोड़े उछल-कूद कर खूटे उखाड़ कर
भागे । श्रीकृष्ण, बलदेव और दशार्हगण आदि क्षुभित हो कर आश्चर्य में पड़ गए । नागरिक-जन और सैनिक मूच्छित हो गए । श्रीकृष्ण सोचने लगे; -"शंख किसने फूंका ?
क्या कोई चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है, या इन्द्र का प्रकोप हुआ है ? जब मैं शंख फूंकता हूँ तो राजागण और लोग क्षुब्ध होते हैं, परन्तु इस शंख-वादन से तो मैं भी क्षुब्ध हो
गया हूँ।"
वे इस प्रकार सोच रहे थे कि इतने में शस्त्रागार-रक्षक ने उपस्थित हो कर प्रणाम किया और निवेदन किया कि-
"आपके बन्धु अरिष्टनेमि कुमार ने आयुधशाला में आ कर शंख फूंक दिया ।"
श्रीकृष्ण यह सुन कर स्तब्ध रह गए। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि अरिष्टनेमि इतना बलवान है ? इतने में स्वयं अरिष्टनेमि ही वहाँ आ गए । श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रेम से
आलिंगन-बद्ध कर अपने पास बिठाया और पूछा--" भाई ! अभी शंखनाद तुमने किया
था ?" कुमार ने स्वीकार किया, तो प्रसन्न हो कर बोले;-
'भाई ! यह प्रसन्नता की बात है कि मेरा छोटा-भाई भी इतना बलवान है कि जिसके आगे इन्द्र भी किसी गिनती में नहीं । मैं तुम्हारी शक्ति से अनभिज्ञ था। अब मैं
स्वयं तुम्हारी शक्ति देखना चाहता हूँ । चलो अपन आयुधशाला में चलें । वहाँ मैं तुम्हारे बल का परीक्षण करूंगा।"
दोनों भ्राता आयुधशाला में आये, साथ में बलदेवजी और अन्य कई कुमार आदि भी थे । श्रीकृष्ण ने पूछा;
"कहो बन्धु ! शस्त्र से युद्ध कर के परीक्षा दोगे, या मल्ल-युद्ध से ?"
'यह तो आपकी इच्छा पर निर्भर है । मैं तो आपसे युद्ध करने का सोच ही नहीं सकता । परन्तु आप चाहें, तो बाहु झुकाने से भी काम चल सकता है।"
"ठीक है । मैं अपनी भुजा लम्बी करता हूँ, तुम झुकायो ।”
कुमार अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण की भुजा ग्रहण कर के निमेषमात्र में कमलनाल के समान झुका दी। इसके बाद श्रीकृष्ण ने कहा--"अब तुम अपनी बाँह लंबी करो,
झुकाता हूँ" कुमार ने अपनी बाँह लम्बी कर दी। श्रीकृष्ण अपना समस्त बल लगा कर झूल ही गए, परन्तु तनिक भी नहीं झुका सके। इस पर श्रीकृष्ण ने प्रसन्न हो कर अरिष्टनेमि को अपनी छाती से लगा कर, भुज-पाश में बांध लिया और कहने लगे;
"जिस प्रकार ज्येष्ठबन्धु, मेरे बल से विश्वस्त हो कर संसार को तृण के समान समझते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे अलौकिक बल से मैं भी पूर्ण आश्वस्त एवं सतुष्ट हूं। हमारे
यादव-कुल का अहोभाग्य है कि तुम्हारे जैसी लोकोत्तम विभूति प्राप्त हुई।"
अरिष्टनेमि के चले जाने के बाद श्रीकृष्ण ने बलदेवजी से कहा;
"यों अरिष्टनेमि प्रशांत और प्रशस्त आत्मा लगता है, परन्तु यदि यह चाहे, तो समस्त भारत का चक्रवर्ती सम्राट भी हो सकता है, फिर यह शान्त हो कर क्यों बैठा है ?"
"भाई ! जिस प्रकार वह बल में अप्रतिम है, उसी प्रकार भावों से भी अप्रतिम,गंभीर, प्रशांत और अलौकिक है । उसे न तो राज्य का लोभ है और न भोगों में रुचि
है । यह तो योगी के समान निस्पृह लगता है"-बलदेवजी ने कहा।
देवों ने कहा-“अरिष्टनेमि कुमार, सर्वत्यागी महात्मा हो कर तीर्थकर पद प्राप्त करेंगे । भगवान् नमिनाथजी ने कहा था कि-"मेरे बाद अरिष्टनेमि नाम के राजकुमार,
कुमार अवस्था में ही प्रवजित हो कर तीर्थंकर-पद प्राप्त करेंगे। वह भव्यात्मा यही है ।
इनके मन में ऐसी भावना जाग्रत नहीं होती। वे समय परिपक्व होते ही संसार त्याग कर निग्रंथ बन जावेंगे।"
श्रीकृष्ण और बलदेवजी अन्तःपुर में चले गए ।
नेम-राजुल
🐚 नेमिनाथजी की प्राचीन मूर्ति कहा पर है ?
A गिरनार
🐚 ' वरदत्त ' जी किसके प्रधान शिष्य थे ?
A नेमी नाथ जी
तीर्थकर वासुपूज्य के शासन के समय की बात है
हस्तिनापुर के राजा श्रीसेन की रानी श्रीमति ने राजकुमार शंख को जन्म दिया
शंख राजकुमार जब युवा हुए, तब हस्तिनापुर राज्य के सीमा के इलाके मे ,घुसकर पल्लीराजा समरकेतु , लोगो के किमती धन को लुटने लगा
शंख राजकुमार ने समरकेतु को हराने के लिए हस्तिनापुर से प्रस्थान कर पल्लि के किले को घेरा, और लुटा हुआ धन प्रजा मे बांटकर समरकेतु को बंदी बनाकर वापस हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया
रास्ते मे जितारि की कन्या "यशोमति राजकुमारी" का हरण करने वाले विधाधर मणिशेखर को भी हराकर यशोमति की रक्षा की
राजकुमारी यशोमति शंख राजकुमार पर मुग्ध हो गयी और दोनो को परस्पर प्रेम हो गया
अपने राज्य हस्तिनापुर लौटे तो राजा श्रीसेन ने पुत्र राजकुमार शंख का विवाह यशोमती से कराकर ,पुत्र शंख राजकुमार का राज्य- अभिषेक कर, राज्य का भांर शंख को सौंपकर दीक्षा ली
जब पिता श्रीसेन मुनि को केवल ज्ञान हुआ
तब शंख राजा ने श्रीसेन केवली (पिता) को पुछा कि मुझे पत्नी यशोमति से इतना प्रेम क्यु है ??कि मै चाहकर भी दीक्षा नही ले सकता
तब श्रीसेन केवली ने कहा कि समकित पाने वाले पहले भव मे भी तुम धनकुमार पति और वह तुम्हारी पत्नी धनवति थी
दुसरे भव मे सौधर्म देवलोक मे तुम दोनो मित्र थे
तीसरे भव मे तुम चित्रगति और वह तुम्हारी पत्नी रत्नावति थी
चौथे भव मे महेन्द्र देवलोक मे तुम दोनो मित्र थे
पांचवे भव मे तुम अपराजीत और वह तुम्हारी पत्नी रत्नमाला थी
छठे भव मे आरण देवलोक मे तुम दोनो मित्र थे
यह तुम दोनो का सातंवा भव है
पूर्व जन्मो के परस्पर प्रगाढ प्रेम ही तुम्हें दीक्षा लेने से रोक रहा है
पिता श्रीसेन केवली मुनि के मुख से यह वचन सुनकर शंख राजा को वैराग्य प्रकट हुआ
दीक्षा लेकर कठोर साधना कर,उत्तम भावना भाव कर तीर्थंकर नामकर्म बांधा
आठवे भव मे अनुत्तर देवलोक मे दोनो मित्र हुए
9वा भव -शंख राजकुमार ने यादव कुल मे समुंद्रविजय राजा की शिवादेवी रानी के गर्भ मे तीर्थंकर नेमकुमार(अरिष्टनेमि) के रूप मे जन्म लिया
यशोमती ने जुनागढ की राजकुमारी राजुल के रूप मे जन्म लिया
दोनो का विवाह निश्चित हुआ
16000राजाओ के साथ जब नेमकुमार की बारात जा रही थी तब मार्ग मे पशुओं का क्रंदन सुनाई दिया पूछने पर पता चला कि बारात में आए हुए राजाओं के भोजन की व्यवस्था के लिए इनको बाड़े में बांध रखा है
पशुओं की करूण क्रंदन सुनकर नेमकुमार को वैराग्य जाग गया
बारात रास्ते से ही लौट गयी
राजुल को जब नेमकुमार के निर्णय का पता चला वह बेहोश हो गयी
होश आने पर नेमकुमार को ही अपना पति मन से मान चुकी हूँ
इसलिये एक वर्ष तक नेमिकुमार के पुनः लौटने की अपलक प्रतीक्षा करती रही
जब राजुल को समाचार मिला की दीक्षा के 54 दिन बाद ही नेमकुमार को केवल ज्ञान हो गया है
वह समोवसरण मे तीर्थंकर नेमिनाथ की देशना सुनने गयी
जब नेमिनाथ भगवान को समोवसरण मे देशना देते हुए देखा और सुना तो आश्चर्य चकित हो गयी
उसके मन मे वैराग्य प्रकट हुआ
उसने नेमिनाथ के पास दीक्षा ली और केवल ज्ञान पाकर मोक्ष पद को पाया
यह थी सच्चे प्रेम की सच्ची और अनुठी कहानी🙏🙏
नेमिकुमार का बल
एक बार अरिष्टनेमि, अन्य कुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए श्री कृष्ण वासुदेव की आयुधशाला में आये । वहां उन्होंने सूर्य के समान प्रकाशमान सुदर्शन चक्र देखा । यह
वही सुदर्शन-चक्र था जो जरासंध के पास था और जरासंध का वध कर के श्रीकृष्ण के पास
आया था। उन्होंने सारंग धनुष, कौमुदी गदा, पञ्चजन्य शंख, खड्ग आदि उत्तम शस्त्रादि देखे । नेमिकुमार ने पञ्चजन्य शंख लेने की चेष्टा की । यह देख कर शस्त्रागार के अधिपति चारुकृष्ण ने प्रणाम कर के निवेदन किया;
"कुमार ! आप राजकुमार हैं और बलवान हैं, किन्तु यह शंख उठाने में आप समर्थ नहीं हैं, फिर बजाने की तो बात ही कहाँ रही ? इसे उठाने और फूंकने की शक्ति
एकमात्र त्रिखंडाधिपति महाराजधिराज श्रीकृष्ण में ही है।"
अधिकारी की बात पर श्री नेमिकुमार को हँसी आ गई । उन्होंने शंख उठाया और फूंका। उस शंख से निकली गंभीर ध्वनि ने द्वारिका नगरी ही नहीं, भवन, प्रकोष्ट,
बन-पर्वत और आकाश-मण्डल को कम्पायमान कर दिया । समुद्र क्षुब्ध हो उठा । गज-शाला के हाथी अपना बन्धन तुड़ा कर भाग गए, घोड़े उछल-कूद कर खूटे उखाड़ कर
भागे । श्रीकृष्ण, बलदेव और दशार्हगण आदि क्षुभित हो कर आश्चर्य में पड़ गए । नागरिक-जन और सैनिक मूच्छित हो गए । श्रीकृष्ण सोचने लगे; -"शंख किसने फूंका ?
क्या कोई चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है, या इन्द्र का प्रकोप हुआ है ? जब मैं शंख फूंकता हूँ तो राजागण और लोग क्षुब्ध होते हैं, परन्तु इस शंख-वादन से तो मैं भी क्षुब्ध हो
गया हूँ।"
वे इस प्रकार सोच रहे थे कि इतने में शस्त्रागार-रक्षक ने उपस्थित हो कर प्रणाम किया और निवेदन किया कि-
"आपके बन्धु अरिष्टनेमि कुमार ने आयुधशाला में आ कर शंख फूंक दिया ।"
श्रीकृष्ण यह सुन कर स्तब्ध रह गए। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि अरिष्टनेमि इतना बलवान है ? इतने में स्वयं अरिष्टनेमि ही वहाँ आ गए । श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रेम से
आलिंगन-बद्ध कर अपने पास बिठाया और पूछा--" भाई ! अभी शंखनाद तुमने किया
था ?" कुमार ने स्वीकार किया, तो प्रसन्न हो कर बोले;-
'भाई ! यह प्रसन्नता की बात है कि मेरा छोटा-भाई भी इतना बलवान है कि जिसके आगे इन्द्र भी किसी गिनती में नहीं । मैं तुम्हारी शक्ति से अनभिज्ञ था। अब मैं
स्वयं तुम्हारी शक्ति देखना चाहता हूँ । चलो अपन आयुधशाला में चलें । वहाँ मैं तुम्हारे बल का परीक्षण करूंगा।"
दोनों भ्राता आयुधशाला में आये, साथ में बलदेवजी और अन्य कई कुमार आदि भी थे । श्रीकृष्ण ने पूछा;
"कहो बन्धु ! शस्त्र से युद्ध कर के परीक्षा दोगे, या मल्ल-युद्ध से ?"
'यह तो आपकी इच्छा पर निर्भर है । मैं तो आपसे युद्ध करने का सोच ही नहीं सकता । परन्तु आप चाहें, तो बाहु झुकाने से भी काम चल सकता है।"
"ठीक है । मैं अपनी भुजा लम्बी करता हूँ, तुम झुकायो ।”
कुमार अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण की भुजा ग्रहण कर के निमेषमात्र में कमलनाल के समान झुका दी। इसके बाद श्रीकृष्ण ने कहा--"अब तुम अपनी बाँह लंबी करो,
झुकाता हूँ" कुमार ने अपनी बाँह लम्बी कर दी। श्रीकृष्ण अपना समस्त बल लगा कर झूल ही गए, परन्तु तनिक भी नहीं झुका सके। इस पर श्रीकृष्ण ने प्रसन्न हो कर अरिष्टनेमि को अपनी छाती से लगा कर, भुज-पाश में बांध लिया और कहने लगे;
"जिस प्रकार ज्येष्ठबन्धु, मेरे बल से विश्वस्त हो कर संसार को तृण के समान समझते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे अलौकिक बल से मैं भी पूर्ण आश्वस्त एवं सतुष्ट हूं। हमारे
यादव-कुल का अहोभाग्य है कि तुम्हारे जैसी लोकोत्तम विभूति प्राप्त हुई।"
अरिष्टनेमि के चले जाने के बाद श्रीकृष्ण ने बलदेवजी से कहा;
"यों अरिष्टनेमि प्रशांत और प्रशस्त आत्मा लगता है, परन्तु यदि यह चाहे, तो समस्त भारत का चक्रवर्ती सम्राट भी हो सकता है, फिर यह शान्त हो कर क्यों बैठा है ?"
"भाई ! जिस प्रकार वह बल में अप्रतिम है, उसी प्रकार भावों से भी अप्रतिम,गंभीर, प्रशांत और अलौकिक है । उसे न तो राज्य का लोभ है और न भोगों में रुचि
है । यह तो योगी के समान निस्पृह लगता है"-बलदेवजी ने कहा।
देवों ने कहा-“अरिष्टनेमि कुमार, सर्वत्यागी महात्मा हो कर तीर्थकर पद प्राप्त करेंगे । भगवान् नमिनाथजी ने कहा था कि-"मेरे बाद अरिष्टनेमि नाम के राजकुमार,
कुमार अवस्था में ही प्रवजित हो कर तीर्थंकर-पद प्राप्त करेंगे। वह भव्यात्मा यही है ।
इनके मन में ऐसी भावना जाग्रत नहीं होती। वे समय परिपक्व होते ही संसार त्याग कर निग्रंथ बन जावेंगे।"
श्रीकृष्ण और बलदेवजी अन्तःपुर में चले गए ।
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