नमुत्थुणं सूत्र मेरी क्लास का3
*अध्याय*
*5:12:20*
*गंताक से आगे*
आज हम बात करते हैं 4 शिक्षा व्रत की, शिक्षा व्रत क्या है आइए जानते हैं- जब कोई हितैषी किसी को रतन औरअति उत्तम और बहुमूल्य पदार्थ देता है तो साथ में यह शिक्षा भी देता है, कि इसे सावधानी से संभालना गंवा मत देना, आदि इसी प्रकार पूर्व के पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रतों की भली-भांति रक्षा करने के लिए 4 शिक्षाव्रत की शिक्षा दी गई है, चार शिक्षाव्रत से हमें भूतकाल में लगे दोषों का ज्ञान हो जाता है और भविष्य में सावधान रहने की शिक्षा मिलती है। इसी कारण इसे शिक्षाव्रत कहते हैं।
*नौवां व्रत पहला शिक्षा व्रत सामायिक*
*सामायिक*- सामायिक शब्द का अर्थ बताइये?
उत्तर: सामायिक शब्द सम और आय दो शब्दो के मेल से बना है। ’सम’ अर्थात राग-द्वेष से विमुक्त होना। ’आय’ अर्थात ज्ञानादिक का लाभ होता है जो कि प्रशम( रोग, क्रोध आदि दबाना। ) सुखरूप है, उसे समाय कहते हैं।
प्राणी मात्र के प्रति समता का भाव रखना, पांचों इंद्रियों को वश में रखना, ह्रदय में शुभ भाव रखना, औरआर्त्त ध्यान और रौद्र ध्यान का त्याग करके धर्म ध्यान में लीन होनाही सामायिक व्रत है।
सामायिक जैन धर्म में उपासना का एक तरीका है । दो घड़ी अर्थात 48 मिनट तक समतापूर्वक शांत होकर किया जाने वाला धर्म-ध्यान ही सामायिक है।जैन आगमो में ऐसा वर्णन है कि चाहे गृहस्थ हो या साधु सामायिक सभी के लिए अनिवार्य है। अपने जीवनकाल में से प्रत्येक दिन केवल दो घड़ी का धर्म ध्यान करना ही सामायिक कहलाता है। बिना घडी के सामायिक जातिस्मरण ज्ञानी कर सकते है
सामायिक का अर्थ है आत्मा में रमण करना समता पूर्वक पाप का त्याग करना ही सामायिक है।
एक सामायिक का मूल्य संपादित करें तो पायेंगे
जैन ग्रन्थो में सामायिक का बहुत महत्व बताया गया है । जैन मान्यतानुसार सामायिक से जुड़ा एक प्रसंग है कि एक बार राजा श्रेणिक ने, भगवान महावीर से एक सामायिक का मूल्य पूछा, तो भगवान महावीर ने उत्तर दिया- ‘हे राजन् ! तुम्हारे पास जो चाँदी, सोना व जवाहर राशि हैं, उनकी थैलियों को ढेर यदि सूर्य और चाँद को छू जाएँ, फिर भी एक सामायिक का मूल्य तो क्या, उसकी दलाली भी पर्याप्त नहीं होगी।' इस प्रकार से जैन धर्म में धर्म के मुल्य कि स्थापना कि है कि धर्म कोई बिकाऊ वस्तु नही है , जिसे खरीदा जा सके यह तो आत्म अनुभूती का विषय है।
एक सामायिक का फल- बानवे करोड़ उनसाठ लाख, पच्चीस हजार, नौ सौ पच्चीस पल्योपम से अधिक नारकी का आयुष्य क्षयकर देवता का अधिक शुभ आयुष्य उपार्जन होता है। ‘एक शुद्ध सामायिक की दलाली सात स्वर्ण मेरु से बढ़कर है।’
*दोहा- लाख खंडी सोनातणी, लाख वर्ष दे दान*।
*सामायिक तुल्य नहीं, कहा ग्रन्थ दरम्यान*।1।
*दिवसे-दिवसे लक्खं, देई सुवण्णस्स खंडियं एगो*।
*एगो पुण समाइयं, करइ, न पहुप्पए तस्स*।2।
एक आत्मा प्रतिदिन लाख मुद्राओं का दान करती है और दूसरी मात्र दो घड़ी की शुद्ध सामायिक करती है, तो वह स्वर्ण मुद्राओं का दान करने वाली आत्मा, सामायिक करने वाले की समानता प्राप्त नहीं कर सकती। आर्त और रौद्र ध्यान को त्याग कर संपूर्ण सावद्य (पापमय) क्रियाओं से निवृत्त होना और एक मुहूर्त पर्यन्त मनोवृत्ति को समभाव में रखना- इसका नाम ‘सामायिक व्रत’ है।
सामायिक मन को स्थिर रखने की अपूर्व क्रिया है,।एक सामायिक तीन हज़ार सात सौ तिहतर
श्वासोंच्छवास की होती है।सामायिक
आत्मिक अपूर्व शांति प्राप्त करने का संकल्प है, परम पद पाने का सरल और सुखद मार्ग है। अखंडानंद प्राप्त करने का गुप्त मंत्र है, सामायिक दु:ख समुद्र को तिरने का श्रेष्ठ जहाज है।
सामायिक चारप्रकार की होती हैं
1श्रुत , 3समकित,3देश विरत, 4सर्व विरति
देव 2प्रकार की सामायिक कर सकते हैं
श्रुतऔर समकित
नरक के जीव एक प्रकार की सामायिक करते है वह है समकित
तिर्यच तीन प्रकार की सामायिक करसकते हैं❓
,श्रुत समकित देश विरति।
मनुष्य चारोंप्रकार की सामायिक कर सकते हैं
सामायिक लेने से पहले अरिहंत भगवान को प्रणाम करते हैं । उसके पश्चात अपने गुरुदेव की आज्ञा लेकर करेमी भंते का पाठ पढ़ा जाता है। सामायिक ग्रहण करने के सूत्र होते हैं,पर अलग 2 पंथ में अलग-अलग होते है, उसी मुताबिक प्रत्येक सूत्रों को बोलकर सामायिक ग्रहण की जाती है, उसके पश्चात 48 मिनट तक मन वचन, और काया से 32 दोषो को टाला जाता है। सामायिक में वोसिरामि शब्दसे पाप छुटता है
जिसमें 10 मन के, 10 वचन के, और 12 काय के दोष माने जाते हैं।
सामायिक के 5 अतिचार और
32 दोष होते है
जिनका वर्णन कल
*7:12:20*
*अध्याय*
मन के 10 दोष
*अविवेक-जसो-कित्ती*, *लाभत्थी-गव्व-भय-नियाणत्थी*। *संसय-रोस-अविणउ, अबहुमाण ए दोसा* *भणियव्वा।।1।।*
*1मनदुप्पड़िहाणे*- मन में अशुभ विचार करना।
घर व्यापार, कुटुंब, देश, राष्ट्र तथा विषय, विकार, वासना, में मन जोड़ना
जंगली घोड़े के समान सन्मार्ग को छोड़कर मन बार बार कुमार्ग में जाता है तब ज्ञान रूपी चाबुक से मन रूपी घोड़े को सन्मार्ग पर लाना। यह साधक का परम कर्तव्य है।
सामायिक में मन के 10 प्रकार के दोष लगते हैं
मन के 10 दोष
*1. अविवेक दोष*- सावद्य निरवध्य के विवेक के बिना वह सामायिक क्रिया के फल से अनभिज्ञ लोग दूसरों की देखा देखी मुंह बांधकर सामायिक
करने बैठ जाते हैं परंतु मन में ऐसी को कल्पना करते हैं कि इस प्रकार बैठने से क्या लाभ हो सकता है आदि सामायिक करे,कुविकल्प करे तो अविवेक दोष।
*2.यशोवांछा दोष*- वाहवाही लूटने के लिए धर्मात्मा
तथा प्रसिद्ध पाने के लिये यशकीर्ति और प्रतिष्ठा पाने के लिए सामायिक करे, तो यशोवांछा दोष।
*3.धनेच्छा/लाभार्थदोष*-अरब पति करोड़ पति बनने की इच्छा व धनादि के लाभ की इच्छा से करे, तो लाभवांछा दोष।
*4गर्व दोष* -सामायिक करके
घमंड (अहंकार)करना कि मैं शुद्ध सामायिक करता या करती हूं, दूसरे किसी को तो पारणा भी नहीं आता ,मैं धर्मात्मा हूँ , मैं त्रिकाल सामायिक करता या करती हूं,
ऐसे गर्व सहित सोचना, तो गर्व दोष।सामायिक में मान बाहुबलीजी ने किया था।
*5.भय दोष*- मेरे पूर्वज मेरे घर के बड़े सदैव समायिक करते थे मैं नहीं करूंगा तो लोग क्या कहेंगे ऐसा सोच कर करना या
राजाधिक के अपराध के भय से करे, तो भय दोष।
*6. निदान दोष* सामायिक के प्रभाव से भौतिक सुख की कामना करना
सामायिक में नियाणा (निदान) करे, तो निदान दोष।जैसे मुनि संभूति जी ने किया
*7.संशय दोष*- काम धंधा छोड़कर सामायिक तो कर रहा हूं मगर इसका फल मिलेगा या नहींऐसे
फल में संदेह रखकर सामायिक करे, तो संशय दोष।
*8.रोष /कषाय दोष* -
सामायिक में क्रोध, मान, माया, लोभ करे लडाई झगड़ा करे , तो रोष दोष ।लोभ वश
जैसे रत्नसुरि मुनि ने किया
माया के वश महाबली मुनिजी ने किया
*9.अविनय दोष*-
विनयपूर्वक सामायिक न करे तथा सामायिक में देव, गुरु, धर्म की अविनय-आशातना करे, तो अविनय दोष।
*10.अपमान दोष*-
बहुमान तथा भक्तिभावनापूर्वक सामायिक न करके, बेगारी की तरह सामायिक करे, तो अबहुमान दोष,या अपमान दोष
जैसे -भार से लदा हमाल यह सोचता है कि कब गोदाम पहुंचूँ कब बोरी फेंकू और हल्का हो जाऊं ठीक वैसे ही सामायिक में बार-बार घड़ी देखना या रेती की घड़ी को बार-बार हिलाकर मिनट देखना सामायिक
पालते ही स्कूल से छुट्टी विद्यार्थी के समान भागना।
*2 दोष*
*वयदुप्पणिहाणे*- अर्थात वचन का अशुभ व्यापार। करना। खराब वचन बोलना अधिक बोलने से सहज ही सावद्य वचन निकल जाता है अतः बिना प्रयोजन बोलना ही उचित नहीं है, अगर प्रयोजन हो तो बोलना अनिवार्य हो जाए तो वचन संबंधी 10 दोषों से बचकर बोलना चाहिए 10 दोष इस प्रकार है
*वचन के दस दोष*
*कुवयणसहसाकारे, सछंद संखेव कलहं च।*
*विगहा वि हासोऽसुद्धं, निरवेक्खो, मुदमुणा, दोसा दस ।।2।।*
आगे कल
*प्रश्नके उत्तर*
*7:12:20*
1️⃣वयदुप्पणिहाणे*- अर्थात क्या
🅰️ वचन का अशुभ व्यापार ।
2️⃣मुनि संभूति जी ने सामायिक किया वो कौन इस दोष था
🅰️ निदान दोष ।
3️⃣स्कूल से छुट्टी विद्यार्थी के समान भागना कौन सा दोष है
🅰️ अपमान दोष ।
4️⃣रोष /कषाय दोष अंतर्गत कौन 2 से मुनियों ने
सामायिक किया मुनियों नाम बताइये।
🅰️ रत्नसुरि मुनी, महाबली मुनिजी ।
5️⃣अधिक बोलने से सहज ही कौन से वचन निकल जाता है
🅰️ सावध वचन
6️⃣राजाधिक के अपराध के भय से करे,तो कौन सा दोषलगता है
🅰️ भय दोष
7️⃣मनदुप्पड़िहाणे का अर्थ
🅰️ मन मे अशुभ विचार करना
8️⃣सामायिक में मान किसने किया था।
🅰️ बाहुबली जी ने किया ।
9️⃣प्रसिद्ध पाने के लिये सामायिक करने से श्रावक
को कौन सा दोष लगता है
🅰️ यशोवांछा दोष ।
1️⃣0️⃣दूसरों की देखा देखी मुंह बांधकर सामायिक
करने बैठ जाते ये कौन सा दोष है
🅰️ अविवेक दोष ।
*अध्याय*
*8:12:20*
*1अलीकवचन*- झुठ बोलना कुवचन-कुत्सित वचन बोलें, तो कुवचन/ अलीकवचन दोष।लगता हैं।
*2.सहसाकार दोष*- द्रव्य क्षेत्र काल भाव की योग्यता का विचार किए बिना ही जो मन में आए तो बोल देना अर्थात
बिना विचारे बोलें, तो सहसाकार दोष।
*3.असाधारण दोष*- शुद्ध श्रद्धा का विनाशक वचन बोलना अन्यथा बलंबिया के आडंबर का बखान करना तथा मिथ्या उपदेश देकर दूसरों की श्रद्धा में गड़बड़ी उत्पन्न करना
सामायिक में राग उत्पन्न करने वाले संसार संबंधी गाने गाएँ, तो असाधारण दोष।
*4.निरपेक्षा दोष*- शास्त्र के दृष्टिकोण का विचार ना करके बोलना परत पर असंगत विरोध जनक और दूसरों को दुख जाने वाले वाक्य कहनासामायिक में अपेक्षा=उपयोग बिना बोलें, तो निरपेक्षा दोष।
*5संक्षेप दोष*-सामायिक के पाठ और वाक्य को संक्षिप्त करके बोलें, तो संक्षेप दोष हैं।
*6क्लेशदोष*
. सामायिक में क्लेशकारी वचन बोलें, तो कलह दोष।
*7विकथा दोष*-
स्त्रीकथा, देशकथा, राजकथा, भोजनकथा; इन चारों कथाओं में से कोई कथा करे, तो विकथा दोष ।
*8.हास्य दोष*-
सामायिक में हँसी, मसखरी, ठट्ठा, ठौल करे, तो हास्य दोष।
*9अशुद्धवचन दोष*-
सामायिक में पाठों का उच्चारण भली प्रकार से नहीं करें, तो अशुद्ध वचनदोष।
.
*10.मुम्मुण दोष*
स्पष्ट उच्चारण न करें, गुण-गुण बोलें (गुनगुनावे) तो मुम्मुण दोष ।
*काया के बारह दोष*
कुआसणं चलासणं, चलदिट्ठी- सावज्जकिरियालंबणाकुंचणपसारणं ।
आलस्स मोडण मल विमासणं, निद्दा वेयावच्चति बारस कायदोसा।।3। ।
*कायदुष्प्रणिधान*- अर्थात शरीर को अशुभ व्यापार में प्रवृत्त करना। जहां शरीर की अधिक चपलता होती है, वहां प्रायः कुछ ना कुछ दोष लगे बिना नहीं रहता। अतएव सामायिक में बिना कारण हलन चलन करना योग्य नहीं है काय के 12 दोषों से बचना चाहिए *यथा*
*1. कुआसन/अयोग्यासन दोष*-
सामायिक में अयोग्य आसन से बैठे; जैसे कि- ठासणी मारके बैठे, पाँव पर पाँव रखकर बैठे, पग पसारकर बैठे, इत्यादि अभिमान के आसन पर बैठे, तो कुआसन /अयोग्यासन
दोष।
*2.चलासन दोष* अर्थात
सामायिक में स्थिर आसन न रखे, आसन बदले, चपलाई करे
जगमगाते हुए शिला पाट आदि पर बैठने से उनके नीचे स्थित जंतु कुचल जाते हैं तथा जिस स्थान पर बैठने से बार-बार उठना पड़े ऐसे आसन और स्थान पर बैठना उचित नहीं है स्वभाव की चपलता से बार-बार आसन बदलना उठना बैठना भी जीव घात का कारण हो जाता है
, तो चलासन दोष।
*3.चलदृष्टि दोष*-
सामायिक में इधर-उधर दृष्टि फेरे , दृष्टि की चपलता से बार-बार इधर-उधर अवलोकन करना स्त्री पुरुष के अंगोंपांगो का निरीक्षण करना।चल दृष्टि करने से मन में विकार उत्पन्न होता है। लोगों में निंदा होती है, और अशुभ कर्मों का बंध होता है
तो चलदृष्टि दोष हैं।
*4.सावद्य क्रिया दोष*
सामायिक में शरीर से कुछ सावद्य क्रिया करे, घर की रखवाली करे, शरीर से इशारा करे, हिसाब नाम लेखा लिखना कपड़ा सीना कसीदा निकालना अचित पानी से लीपना या बच्चों कोस्नानकराना इत्यादि कार्यों में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती ऐसा समझकर सामायिक में यह सब कार्य करनातो सावद्य क्रिया दोष।
*5.आलंबन दोष*-
सामायिक में भींतादिक का टेका (आधार) ले, तो इससे उनके आश्रित जीवो का घात हो जाता है और निंद्रा आदि प्रमाद की उत्पत्ति होती है कदाचित वृद्धि व रोग या तपस्या आदि के कारण अवलंबन लिए बिना ना बैठा जाए तो जिस का अवलंबन ले उस दीवार आदि को देखे पूंझे बिना अवलंबन ना लें
आलंबन दोष।
*6.आकुंचन-प्रसारण दोष*
सामायिक में बिना प्रयोजन के हाथ-पग को संकोचे-पसारे, तो आकुंचन-प्रसारण दोष।
*7.आलस्य दोष*-
सामायिक में अंगमोड़े,जंभाईया
ले ,शरीर को इधर -उधर पटकना आदि। तो आलस्य दोष।
8. मोड़न दोष-
सामायिक में हाथ-पैर का कड़का काढ़े, तो मोड़न दोष।
*9.मल दोष*
सामायिक में मैल उतारे, पुंजे बिना शरीर खुजलाना
तो मल दोष।
*10.विमासन दोष*-
गाल (कपोल) पर हाथ लगाकर शोकासन से बैठे, हथेली पर सिर रखकर जमीन की तरफ दृष्टि रखकर गृह कार्य का लेनदेन तथा ऐसे ही अन्य कार्यों का विचार करना
तो विमासन दोष।
*11निद्रा दोष*-
सामायिक में निद्रा ले, तो निद्रा दोष।
*12 वैयावृत्त/वेयावच्चदोष*
सामायिक में बिना कारण दूसरे के पास से वेयावच्च(सेवा) कराए, हाथ पैर में मालिस करवाये
तो वैयावृत्त दोष।
यह काय के 12 दोष सामायिक में नहीं लगने चाहिए मन के 10, वचन, के दस, और काय के 12 सब मिलाकर सामायिक संबंधी 32दोषों से बचने पर शुद्ध सामायिक होती है।
*प्रश्नके उत्तर*
*8:12:20*
1️⃣कपड़ा सीना कसीदा निकालना अचित पानी से लीपना कौन सा दोष हैं।
🅰️ सावध क्रिया दोष ।
2️⃣भींतादिक का टेका (आधार) ले, तो इससे किन का घात होता हैं
🅰️ आलंबन दोष ।
3️⃣किस से बचने पर शुद्ध सामायिक होती है।
🅰️ 32 दोषों से ।
4️⃣लेनदेन तथा ऐसे ही अन्य कार्यों का विचार करनाकौनसा दोष है ।
🅰️ विमासन दोष ।
5️⃣जहां शरीर की अधिक चपलता होती है, वहां कौन सा दोष लगता है
🅰️ कायदुष्प्रणिधान ।
6️⃣पुंजे बिना शरीर खुजलाना कौन सा दोष है
🅰️ मल दोष ।
7️⃣विचार किए बिना ही जो मन में आए तो बोल देना कौन
सा दोष है।
🅰️ सहसाकार दोष ।
8️⃣जिस का अवलंबन ले उस दीवार आदि को देखे औरक्या करें
🅰️ पुंझे बिना अवलंबन न ले।
9️⃣क्या करने से मन में विकार उत्पन्न होता है।
🅰️ चलदृष्टी से ।
1️⃣0️⃣ऐसे कौन सेआसन और स्थान पर बैठना उचित नहीं है
🅰️ चलासन दोष ।
*9:12:20*
*अध्याय*
देशवकाशिक व्रत- देशवकाशिक का अर्थ
प्रतिदिन दिशाओं की मर्यादा करना।
मर्यादा करके के बाद हीबाहर जाना और पाँच आश्रवों के सेवन का त्यागकरना।
कितने करना
सुश्रवाक अपनी आत्मा को पाप से बचाने के लिए, सदैव प्रातकाल में एक घड़ी एक दो पहर, अथवा एक दिन रात के लिए या एक पक्ष मासके लिए इस तरह जितने समय तक उसकी सुविधा और इच्छा हो उतने काल तक के लिए त्यागकरें ।उसके उपरांत भी जीवन पर्यंत भी प्रयत्न करता की क आश्रवों में कमीआये और कमी करने का नियम ले लेते हैं। जैसे कोई घर से बाहर जाकर कोई ग्राम से बाहर जाकर कोई एक माइल आगे जाकर दो करण तीन योग से हिंसा झूठ चोरी मिथुन और परिग्रह 5आश्रवो के सेवन का प्रत्याख्यान कर देता है.
दसवें व्रत का सदैव आसानी से आचरण करने के लिए 17 नियमों की योजना की गई है वे इस प्रकार हैं
1सचित- सजीव वस्तु की मर्यादा कर लेना जैसे नमक आदि कच्ची मिट्टी नल कुआ बावड़ी तालाब परिंडा आदि का पानी चूल्हा, सिगड़ी, चिलम बीड़ी, दीपक, पंखा झूला आदि से होने वाले वायु काय के आरंभ फल-फूल भाजी फली आदि सचित वनस्पति तथा कच्चा धान मेवा आढ़ी सचित वस्तु सेवन की मर्यादा कर लेना।
2द्रव्य -खाने के लिए पीने के और सुघँने के पदार्थों की मर्यादा करना
3विगय- दूध दही घी तेल मिठाई तथा तली वस्तुओं में से कम से कम एक विगय अवश्य त्यागना चाहिए
4पन्नी-जूता मोजा खड़ाउ पैर में पहनने की वस्तुओं की मर्यादा ।
5तांबूल- सुपारी लौंग इलायची चूर्ण खटाई आदि की मर्यादा।
6कुसुम- तम्बाकू(सुंघनी) अतर घृत पुष्प आदि सूंघने की मर्यादा
7 वस्त्र- पहनने ओढ़ने की वस्तुओं की मर्यादा
8शयन- पलंग खाट का सतरंजी बिछाने की वस्तुओं की मर्यादा
9 वाहन- घोड़ा बैलगाड़ी तांगा रेल मोटर साइकिल जहाज नावआदि सवारियों की मर्यादा 10विलेपन- तेल पीढी केसर चंदन कांच कंघा का हाथ धोने के काम आने वाली मिट्टी राख आदि
11 अब्रह्म-स्त्री पुरूष के साथ संभोग करने की मर्यादा
12दिशा- दिशाओं में गमना गमन करने की मर्यादा
13 स्नान- धोवन छोटे बड़े स्नानतथा वस्त्र आदि धोने की मर्यादा
14 भक्त्त- खाने पीने की वस्तुओं के समुच्चय वजन की मर्यादा
15,असि-पंचेन्द्रिय की घात जिससे हो ऐसे तलवार आदि शस्त्रों की तथा सुई कैंची लकड़ी की मर्यादा ।
16मषि-दावत कलम कागज बही तथा जेवराती कपड़ा, किराना ब्याज आदि संबंधी व्यापार की मर्यादा।
17कृषि -खेती बगीचा बावड़ी बाड़ी आदि की मर्यादा।
देशवकाशिक व्रत-
के पाँच अतिचार हैं-
१. आनयन -मर्यादा से बाहर की वस्तु दूसरे सेमंगाना आनयन है।
२. प्रेष्यप्रयोग -मर्यादा से बाहर नौकर आदि किसी को भीभेजना प्रेष्यप्रयोग है।
३. शब्दानुपात -सीमा से बाहर वाले मनुष्यों को खाँसी आदि शब्द द्वारा अपना अभिप्राय समझा देना, अथवा बुला लेना शब्दानुपात है।
४. रूपानुपात -मर्यादा से बाहर रहने वाले मनुष्यों को अपना रूप दिखाकर अर्थात् नेत्र आदि का इशारा करके अपना अभिप्राय समझा देनाअथवा बुला लेना रूपानुपात है
५. पुद्गलक्षेप- मर्यादा से बाहर वंकर, पत्थर आदि फैककर अपना अभिप्राय समझा देना अथवा बुला लेना या बुलाने का संकेत करना पुद्गलक्षेप है।
*प्रश्न*
*9:12:20*
1️⃣वस्तुओं के समुच्चय वजन की मर्यादा किस में रखी जाती
हैं
🅰️भक्त नियम में
2️⃣आनयन मतलब क्या है
🅰️मर्यादा से बाहर की वस्तु दूसरे से मंगा लेना
3️⃣नेत्र आदि का इशारा करके अपना अभिप्राय समझा देना
कौन सा अतिचार हैं
🅰️रूपानुपात
4️⃣पन्नी में किसकी मर्यादा आती है
🅰️जुता,मोजा,खङाउ आदि पैर में पहनने की वस्तुए
5️⃣दसवें व्रत का सदैव आसानी से आचरण करने के लिए कितने नियमों की योजना हैं।
🅰️17नियमो की
6️⃣वंकर, पत्थर आदि फैककर अपना अभिप्राय समझा देनाकौन सा अतिचार हैं
🅰️पुदग्लक्षेप
7️⃣सचित क्या है कोई 3 वस्तु का नाम लिखें
🅰️कच्ची मिट्टी,सिगङी,चलम बीङी
8️⃣दिशा में किसकी मर्यादा रखी जाती है
🅰️दिशाओं में गमना गमन करने की
9️⃣देशवकाशिक व्रत- का अर्थ
🅰️प्रतिदिन दिशाओं की मर्यादा करना और पांच आश्रवो का त्याग करना
1️⃣0️⃣किराना ब्याज आदि संबंधी व्यापार की मर्यादाकिस नियम के अंतर्गत आती हैं।
🅰️मषि के अंतर्गत
*अध्याय*
*10:12:20*
कल से आगे
देशवकाशिक के पांच अतिचार केवल देश की मर्यादा संबंधी है किंतु इस व्रत में उपभोग की मर्यादा भी की जाती है और 17 नियम तथा 10 प्रतियाख्यान भी इसी व्रत में सम्मिलित है। इसीलिए इन प्रत्याख्यान केभी पांच अतिचार इस प्रकार समझने चाहिए
1️⃣जितने द्रव्य रखे हैं ,उनसे ज्यादा प्राप्त होने पर विशिष्ट स्वाद के लिए दो-तीन को एक साथ मिलाकर भोगना जैसे दूध और शक्कर को मिलाकर एक हीद्रव्य गिनना मर्यादा का उल्लंघन है
2मर्यादा के बाहर की वस्तु के विषय में यह कहना कि अभीइसे से रहने दो प्रतियाख्यान पूर्ण होने के बाद इसे खा लूंगा पहन लूंगा या अमुक काम करूंगा
3 प्रतियाख्यान की हुई वस्तु को स्वीकार करने के लिए उसकी प्रशंसा करना,
4 प्रतियाख्यान की हुई वस्तु को ग्रहण करने के लिए उसकी आकृति चित्र बनाकर बतलाना या लिखकर अपने लिए रहने देने की सूचना करना।
5 आसक्ति के साथ मर्यादित वस्तु का सेवन करना इन पांचों अतिचारों से आत्मा को बचना चाहिए
इस व्रत के आगार- कदाचित राजा की आज्ञा होने से मर्यादाक्षेत्र के बाहर जाना बड़े। देवता या विद्याधर हरण करके मर्यादित क्षेत्र से बाहर ले जाए। उन्माद बेभानआदि रोगों से विवश हो कर मर्यादा से बाहर चला जाए साधु के दर्शनार्थ जाना पड़े तथा मरते जीव को बचाने के लिए जाना पड़े या अन्य किसी बड़े उपकार के लिए जाना पड़े तो व्रत भंग नहीं होगा जहां तक बन सके मर्यादा किए हुए क्षेत्र के बाहर उक्त आगारोंके अनुसार जाना पड़े तो जाएं परवहां हिंसाआदि पांच आश्रवो का सेवन ना करें.।
1️⃣1️⃣ *वा व्रत पौषध*- सम्यक ज्ञान आदि रत्नत्रय का पोषक तथा निजी गुणों में रमण करा कर स्वात्मा का पोषक होने से और 6 कायों की रक्षा का कारण होने से परमात्मा का भी पोषक होने से यह व्रत पोषध कहलाता है
कल्पसूत्र में लिखा है – संसार सागर से पार उतारने वाला पौषध है । पौषध कई सारे पाप नष्ट होते है, साथ-साथ कई सारे गुणों का विकास भी होता है । साधु जीवन की तालिम(शिक्षा)पौषधसे
मिलती है । पौषधव्रत के 80 विकल्प है । समता का सुख अप्रतिम गिना जाता है, वह समता सुख का आस्वाद पौषध से प्राप्त होता है ।वीरप्रभु का जब निर्वाण हुआ, तब श्रेणिक राजा के 18 गणराजाओं ने पौषधोपवास किया था । यानी उपवास रूप पौषध किया था । पौषध के 18 दोष और सामायिक का 32 दोष टालकर पौषध करना चाहिए । 8 प्रहर का एक पौषध से 27,77,77,77,777 पल्योपम से ज्यादा वर्ष की वैमानिक देवलोक की आयु बांधी जाती है । सामायिक-पौषध समता की साधना है ।
बिना समता-समभाव आज तक किसीने मुक्ति नहीं पाई है । राग-द्वेष से परे रहना यह समता है । इस पौषध के विषय में चन्द्रवतंसक-सागरचन्द्र-कामदेव-सुदर्शन सेठ-सुलसा श्राविका-सुव्रतशेठ आदि अनेक दृष्टांत शास्त्र में मौजूद है । जिन्होंने अनेक कष्ट-पीड़ा आने पर भी अपनी प्रतिज्ञा अखंड पाली । देवों की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए ।जैसेसुदर्शन जी का पौषध में ही अपहरण हुआ पर
वे डिगे नहीं
शंख श्रावक नेसमुहिक भोजन का आयोजन करके पौषध व्रतकिया
पौषध शाला से प्रथम देवलोक में आनंद श्रावक गये
पौषध में मुख्यतया चार क्रिया आती है । 1.सावद्य – पाप व्यापार का त्याग 2.ब्रह्मचर्य का पालन 3.स्नान-विभूषा का त्याग 4.उपवास आदि तप । योगशास्त्र में लिखा है – उस गृहस्थ को धन्य है – जो दुष्कर पौषध व्रत का चुलनी पिता जैसा पालन करता है ।
पौषध के 18 दोष होते हैजो निम्नलिखित है⤵️
1पौषध में हजामत तथा मंजन नहीं करना है।
2 मैथुन सेवन नहीं करना।
3आहार नहीं करना है।
4 वस्त्र नहीं धोना है
5जेवर नहीं पहनना है
6वस्त्र आदि नहीं रंगना है
अतएव पोषध के पहले दिन यह काम कर लूं इस विचार से ही ये छः कार्य करें तो दोष लगता है।
8 शरीर का श्रंगार करना जैसे सिर के बाल संवारना दाढ़ी मुंछ सवारना धोती की पटली जमाना आदि।
9 खुद के या दूसरे के शरीर का मैल उतारना।
10 दिन में निंद्रा लेना या रात्रि में दो पहर से अधिक निंद्रा लेना।
11 पूंजनी से पूंजे बिना खाज खुजली करना
12विकथाएं कहना
13 चुगली निंदा हंसी-मजाक आदि करना।
14 व्यापार संबंधी हिसाब संबंधी बातें करना या गप्पे मार ना
15अपने शरीर को या स्त्री आदि के शरीर को रागमयी दृष्टि से देखना।
16 गौत्र जातिक नाते आदि मिलाना जैसे आप हमारे अमुक रिश्तेदार है आदि कहना
17 खुले मुंह बोलने वाले तथासचितवस्तु जिसके पास हो उससे वार्तालाप करना
18 रुदन करना शोक संताप करना ।
पौषध व्रत का आचरण करने वाले श्रावक को इन 18दोषों से बचना चाहिए, तभी निर्दोष व्रत की आराधना होती है
*प्रश्न के उत्तर*
*10:12:20*
1️⃣साधु जीवन की तालिम(शिक्षा)किससे
मिलती है ।
🅰️पौषध से
2️⃣पौषध शाला से प्रथम देवलोक में कौन गये।
🅰️आनन्द श्रावक जी
3️⃣पौषधव्रत के कितने विकल्प है ।
🅰️80
4️⃣कल्पसूत्र में क्या लिखा है
🅰️संसार सागर से पार उतारने वाला पौषध हैं
5️⃣दूध और शक्कर को मिलाकर एक हीद्रव्य गिनना किसका उल्लंघन है।
🅰️मर्यादा का
6️⃣आगारोंके अनुसार जाना पड़े तो जाएं परवहां ---आदि पांच-------का सेवन ना करें.।
🅰️हिंसा, आश्रव
7️⃣पौषध में ही किसकाअपहरण हुआ
🅰️सुदर्शन जी का
8️⃣प्रत्याख्यान के कितने अतिचार इस प्रकार समझने चाहिए 3 प्रतियाख्यान कौन सा है
🅰️5अतिचार है प्रत्याख्यान की हुयी वस्तु को स्वीकार करने के लिए
9️⃣इस व्रत के कोई दो आगार-बताइये
🅰️राजा की आज्ञा से मर्यादित क्षेत्र से बाहर जाना पड़े,देवता या विद्या धर मर्यादित क्षेत्र से बाहर ले जाए
1️⃣0️⃣ छः कायों की रक्षा का कारण होने से परमात्मा का भी पोषक होने से यह व्रत क्या कहलाता हैं।
🅰️पौषध व्रत
*अध्याय*
*11:12:20*
*पौषध के 5अतिचार*
*अप्पड़िलेहियदुपप्पडिलेहियसेज्जा संथाऱए*-अर्थात जिस स्थान पर पौषध व्रत किया हो उस स्थान को, ओढ़ने बिछाने के वस्त्रों को तथा पाट पराल सभी को सूक्ष्म दृष्टि से पूरी तरह देखे बिना काम में लेवे तथा हलन चलन करते रहना, शयनासन करते गमना गमन करते समयभूमि या बिछोना को ना देखे या भलीभांति ना देखे तो अतिचार लगता हैं।क्योंकि ना देखें या भली-भांति ना देखेंतो त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा होने की संभावना होती है।
*2अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसेज्जा संथारए*-* शय्या और संस्तारक को बिना पूछे उपयोग में लावे।
*3अप्पड़िलेहियदुप्पड़िलेहियउच्चार पासवण भूमि*-
मल मूत्र त्याग करने की भूमि को देखे नहीं और देखें भी तो अच्छी तरह विधिपूर्वक ना देखें।
*4अप्पमज्जियदुप्पमज्जियउच्चार पासवण भूमि*- मल मूत्र त्यागने की भूमि का प्रमार्जन ना करना अथवा विधि पूर्वक सम्यक प्रकार से प्रमार्जन ना करना।
*5पोसहोववासस्स सम्मं अणणुपालणयाए*- पौषध व्रत का सम्यक प्रकार से पालन ना करना। अर्थात ऊपर बतलाई विधि के अनुसार पौषध व्रत ग्रहण ना करें अथवा ग्रहण करके भी सम्यक प्रकार से उसका पालन ना करें। पूर्वोक्त अट्ठारह दोषों में से कोई दोष लगाए ,अरे आज मेरा अमुक काम जरूरी था। मैंने व्यर्थ ही यह पोसा ले लिया, इत्यादि करके पश्चाताप करें पौषध में पारणे के समय खाने पीने की वस्तुओं का विचार करें।पौषध के बाद आरंभ के कार्यों क को करने का विचार करें ।और असंबंध वचन बोले अयतना से गमना का गमन करे। साधु साध्वी श्रावक श्राविका आदि का अपमान करें पौषधका समय पूर्ण होने से पहले ही व्रत को पारने केसमय गड़बड़ करें इत्यादि किसी भी प्रकार का दोष लगाने से अतिचार लगता है।
इन5 अतिचारों और 18 दोष से रहित प्रीति और हर्ष के साथ पौषध व्रत का समाचारण करने से 27,77,7777,777
पल्योपम तथाऔर एक पल्योपम
के 9 भागों में से एक भाग अधिक काल की देवायुका बंध होता है पौषध व्रत का यह फल व्यवहारीक या आनुषगिंक फल है ।इसका असली फल और भी महान है, एक ही बार पौषध व्रत का सम्यक प्रकार से आराधन करने वाला अनंत भ्रमण से मुक्त होजाते हैं और थोड़े ही भवो में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
चक्रवर्ती महाराज अपने लौकिक स्वार्थ को सिद्ध करने के लिये द्रव्य तप और द्रव्य पौषध करते है ,फिर भी वे 13
तेलों के पौषध से षट खण्ड भरत क्षेत्र के अधिपति बनजाते
9 निधि, 14 रत्नों के स्वामी बन जाते हैं
,वासुदेव आदि 1 तेले के पौषध से बड़े बड़े देवों को अपने आधीन बना लेते हैं।
ऐसी स्थिति में जो भाव पौषध करेगा जिन भगवान की आज्ञा के अनुसार उसका आराधन करेगा। उसे जो महान फल प्राप्त होगा उसका तो कहना ही क्या है। वास्तव में पौषध व्रतआत्मिक गुणों को अनंत लाभ देने वाला है। ऐसा जानकर सच्चे श्रावक को कम से कम 6 पौषध 1 महीने में अवश्य करने चाहिए। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की अष्टमियो में दो चतुर्दशी और अमावस्या का बेला कर के दोनों दिनों में 2 पौषध व्रत तथा चतुर्दशी और पूर्णिमा का बेला करके दोनों दिनों के दो पौषध व्रत और 6 पौषध प्रत्येक मास में अवश्य करनी चाहिए।
और फिर अपनी शक्ति अनुसार
ज्यादा से ज्यादा करने चाहिए
शुद्ध पौषध करके आंनद श्रावक और कामदेव आदि श्रावक एकभवतारी हुए
*प्रश्न के उत्तर*
*11:12:20*
1️⃣शुद्ध पौषध करके कौन 2 से श्रावक एकभवतारी हुए
🅰️ आनंद श्रावक, कामदेव
2️⃣सच्चे श्रावक को कम से कम कितने पौषध 1 महीने में अवश्य करने चाहिए।
🅰️ 6 पौषध
3️⃣किसी भी प्रकार का दोष लगाने से क्या लगता है।
🅰️ अतिचार का
4️⃣ 13 तेलों के पौषध से कितने खण्ड भरत क्षेत्र के अधिपति बनजाते हैं
🅰️ षट खण्ड भरत क्षेत्र के
5️⃣एक ही बार पौषध व्रत का सम्यक प्रकार से आराधन करने वाला किससे मुक्त हो जाते हैं।
🅰️ अनंत भ्रमण से मुक्त हो जाता है।
6️⃣पोसहोववासस्स सम्मं अणणुपालणयाए का अर्थ
क्या है।
🅰️ पौषध व्रत का सम्यक प्रकार से पालन ना करना।
7️⃣वासुदेव आदि 1 तेले के पौषध से किसको अपने आधीन बना लेते हैं।
🅰️ बड़े से बड़े देवो को
8️⃣पौषध व्रत का समाचारण करने से कीकितनी देवायुका बंधहोता हैं
🅰️ 27,77,7777,777 पल्योपम तथा और एक पल्योपम के 9 भागो मे से एक भाग अधिक काल की देवायु का बंध होता हैं।
9️⃣ अप्पमज्जिय
दुप्पमज्जियसेज्जा संथारए* का अर्थ क्या है।
🅰️ शय्या और संस्तारक को बिना पूछे उपयोग मे लावे।
1️⃣0️⃣9 निधि, 14 रत्नों के कौन स्वामी बन जाते हैं ।
🅰️ चक्रवर्ती सम्राट
उत्तर
*अध्याय*
*12:12:20*
*12 व्रत अतिथि संविभाग*
अतिथि संविभाग जैन शास्त्र के अनुसार 4 शिक्षा व्रतों में से एक व्रत है। इसमें बिना अतिथि को भोजन दिए भोजन करना निषिद्ध है। संयम की विराधना न करते हुए जो गमन करता है, उसे अतिथि कहते हैं या जिसके आने की कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते हैं। ऐसे साधुओं को आहार, औषधि, उपकरण एवं वसतिका देना यह अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है।
इसके 5 अतिचार बताए गए हैं-
*1,सचित्त निक्षेप*-सचित कमल के पते आदि पर रखा आहार देना। -हरे पत्तो (सचित पत्तो जैसे केले या कमल के पत्तों पर) आहारादि सामग्री को रखना भी अतिचार है। वर्तमान मे पत्तो का प्रयोग बर्तनों के रूप् मे नही होता। संभव है; आज से बहुत वर्ष पहले होता हो। वर्तमान पेक्षा कच्चे/सचित पानी से धोए हुए बर्तनो में शुद्ध प्रासुक, मर्यादित पानी या भोजन का उसमें रख देना ‘सचित्त निक्षेप’ नामक अतिचार है।
*2सचित्त पीधाण*-का अर्थ सचित से ढका आहार।
पते आदि से ढका आहार देना।
; हरित पत्तो से भोजन सामग्री ढक देना सचित्तापिधान नामका दोष है। वर्तमाना प्रेक्षा मेंकच्चे पानी/अप्रासुक पानी से बर्तनो को धोकर उसे भोजन पर ढक देना ‘‘सचित्तापिधान’ नामक अतिचार है।
*3कालातिचार*-आहार के काल का उल्लंघन कर देना
सूर्योदय की तीन घड़ी (72 मिनट) बाद से, सूर्यास्त के तीन घड़ी पूर्व तक ही साधुओ का आहारचर्या काल है। इस काल का उल्लंघन करके आहार देना अथवा देरी से धीरे-धीरे आहार देना जैसे-एक ग्रास दे दिया पुनः कुछ समय नही दिया अधिक विलम्ब होने पर अंतराय कर सकते है। अतः विलम्बता से या अति शीघ्रता से आहार न दें अथवा बिगडी हुई वस्तु भी ना दे
*4परव्यपदेश मत्सर*- स्वयं न देकर दूसरों से दिलवाना जैसे भगवान महावीर स्वामी को आया देख कर पूरण सेठ स्वयं दान ना देकर दासी को कहा जो जो भी घर मेंबासीखुसी है इस भिखारी को दे दे ।उसी समय
जीर्ण सेठ उत्कृष्ट भावों से मन मे भगवान कोदान दे रहे थे इतनेमें ही में
अहो दानम,अहो दानम की ध्वनि आई । तो पूरण सेठ ने कहा मैंने खीर का दान दिया है
पर यह बात ज्यादा दिन नहीं छुपी रही। एक दिन विमल मुनि उधर से गुजरे उन्होंने बतायाअहोदानम की ध्वनि जीर्ण सेठ के भाव दान के कारण हुई थी और उन्होंने सारी घटना जस की तस बता दी। जीर्ण सेठ मात्र भाव दान के कारण 12वीं देवलोक में गए
अथवा दूसरे की वस्तु का दान देना।
-दूसरे दाता की वस्तु स्वय देना अथवा अपनी वस्तु दूसरो से दिलवाना।या दान देने की इच्छा न हो तो अपनी चीज दूसरे की बताना
परव्यपदेश नामका अतिचार है। परव्यपदेश अतिचार से दूषित दान देने वाला दाता कालान्तर मे उसका फल प्राप्त तो करता है किन्तु भोक्ता नहीं होना। अतः दानआदि स्वयं ही अपने न्यायोपार्जित द्रव्य से करना चाहिए।
*5 मात्सर्य भाव*-दूसरे दाताओं से ईष्य रखना।
दानादि उत्तम कार्य हुए भी पात्रादि के गुणो मे अनुराग या आदर का अभाव होना अथवा दूसरे दाता के गुणों की वृद्धि, यश, आदि को देखकर सहन नही कर पाना, अभिमान युक्त दान देना मात्सर्य नामक अतिचार है। मात्सर्य भाव होने से मन की शुद्धि नही रह पाती, कालान्तर मे वचन, काय, व अहार जल की आगमोक्त पूर्ण शुद्धि नही रह पाती, अतः दाता को मात्सर्य भाव से रहित होना चाहिए।
विशेष प्रिय मधुर वचनों के साथ दान गर्व रहित ज्ञान क्षमा से युक्त शूरवीरता और त्याग सहित धन, ये चार बातें मिलना दुर्लभ है। हमें हमेशा सुपात्र दान का लाभ प्राप्त करना चाहिए जो ऐसा करते हुए इस लोक में भी यश और सुख संपत्ति के पुख्ता बनते हैं तथा देवो आदि के पूजनीय भी होते हैं कदाचित उत्कृष्ट रसायन पक जाए तो तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन कर के तीसरे भव में तीर्थंकर भगवान होकर संपूर्ण जगत में पूजनीय हो जाएंगे और मोक्ष प्राप्त कर लेंगे।
इस तरह सुख में देव भव या मनुष्य भव करकेजैसे नयसार(वीर जी) धन्ना सार्थ वाह राजा (आदि नाथ)शँख,(नेमी नाथ) जी ने तीर्थंकर गोत्र बांधा।और कइयों ने
सुबाहु कुमारजी आदि की तरह थोड़े ही भवो में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
आइये अब हम जानते है
*श्रावक के 21गुण*
ऐसे श्रावक के 21 गुण बताये गये है। जो श्रावक 21 गुणों से सम्पन्न होता है सही मायनों में उसे ही श्रावक कहते है।
हर चीज की पहचान उसके गुणों से ही होती है, श्रावक की पहचान रूप से नहीं गुण से है। एक श्रावक 21 गुणों से युक्त होता है। नाम तो बड़ा, लेकिन दर्शन छोटा हो तो कोई मतलब नहीं। महत्व नाम का नहीं, गुणों का होता है। कौवा और कोयल दोनों ही दिखने में एक समान लगते होंगे लेकिन दोनों की गुणों में अंतर होने से कौवा हर जगह से उड़ा दिया जाता है जबकि कोयल की आवाज सुनने के लिए हर कोई तरसता है।
श्रावक की पहचान न नाम से, न गांव से,न वेष से, न देश से, न पद से, न कद से, न धन से, न तन से, न जाति से, न ख्याति से होती है। क्योंकि धन, पद, यश, कुल तो हर किसी को मिल सकता है, लेकिन श्रावकपना प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है। मात्र बाह्य रूप ही नहीं, आंतरिक रूप भी श्रेष्ठ होना चाहिए ।
श्रावक के 21 गुणों का वर्णन
किस भगवतीसूत्र में आया हैं।
कल 21 गुणों का वर्णन
*प्रश्न के उत्तर*
*12:12:20*
1️⃣श्रावक के 21 गुणों का वर्णन किस सूत्र में आया हैं।
🅰️भगवती सूत्र में।
2️⃣कोई दो नाम बताइये जिन्होंने सुपात्र दान दे कर तीर्थंकरगौत्र बांधा
🅰️नयसार,धन्नासार्थ वाह राजा।
3️⃣शँखराजा किसका पूर्व भव का नाम था।
🅰️ नेमीनाथ जी का।
4️⃣क़ोई सी चार बातों से दो बातें लिखें जो मिलना दुर्लभ है
🅰️ विषेश प्रिय मधुर वचनों के साथ दान,गर्वरहित ज्ञान,क्षमा से युक्त शूरवीरता और त्याग सहित धन।
5️⃣दोनों ही दिखने में एक समान लगते होंगे लेकिन किन दोनों के गुणों में अंतर होता है
🅰️कौआ और कोयल।
6️⃣भाव दान के कारण 12वीं देवलोक मेंकौन गए
🅰️जीर्णसेठ।
7️⃣वर्तमान मे पत्तो का प्रयोग किसके रूप् मे नही होता।
🅰️ बर्तनों के।
8️⃣मात्र बाह्य रूप ही नहीं, कौनसा रूप भी श्रेष्ठ होना।
चाहिए ।
🅰️आंतरिक।
9️⃣सचित्त पीधाण*-का अर्थक्या है
🅰️सचित से ढका आहार।
1️⃣0️⃣जिसके आने की कोई तिथि नहीं उसे क्याकहते हैं।
🅰️अतिथि।
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर देना है, कल प्रातः 11 बजे तक*।
*अध्याय*
*14: 12:20*
*श्रावक के 21 गुण*
*निम्नांकित है*⤵️
1अक्षुद्र- दुख प्रद स्वभाव वाले- ओछी प्रकृति को क्षुद्र कहते हैं। श्रावक अपना अपराध करने वाले को भी दुखप्रद नहीं होता है, तो औरों का तो कहना ही क्या, अर्थात किसी को भी दुखप्रद ना होने से श्रावक अक्षुद्र होता है।
2 रूपवान- "यथा कृतिस्तथा तथा प्रकृति" अर्थात जैसी शरीर की आकृति होती है वैसी उस मनुष्य की प्रकृति होती है। इस कथन के अनुसार श्रावकपूर्वोपार्जित पुण्य के प्रभाव से हस्त पाद आदि पूर्ण अंगों वाला होता है और कान आंख आदि इंद्रियां भी उसकी परिपूर्ण होती है। वह सुंदर प्रकृति वाला तेजस्वी और सशक्त शरीर वाला होता है।
3प्रकृति -सौम्य- जैसे ऊपर से सुंदर रूप वाला होता है, उसी प्रकार शांत दांत क्षमावान शीतल स्वभावी मिलनसार विश्वसनीय आदि गुणों से भीतर से भी सुंदर होता है।
4 लोकप्रिय- लोक परलोक और उभय लोक से विरुद्ध कार्यों का त्यागी होने से सबको प्रिय होता है ,गुणी जनों की निंदा दुर्गुणियो की तथा मूर्खों की हंसी दिल्लगी पूज्य पुरुषों के प्रति मत्सरता- (ईर्ष्या ),बहुतोके विरोधी से मित्रता देश के सदाचार का उल्लंघन सामर्थ्य होने पर भी दूसरों की सहायता ना करना इत्यादि कार्य लोक विरुद्ध गिने जाते हैं ।तथा ठेकेदारी जंगल कटवाना सांप बिच्छू आदि को मारना इत्यादि कार्यइहलोक से विरुद्ध नहीं गिने जाते हैं तथापि परलोकविरूद्ध है और ये परलोक में दुखप्रद होते हैं। और सात कुव्यसनों का सेवन
(विशेष: हार जीत के जितने खेल तथा काम है यह सब जुआ में गिने जाते हैं जैसे ताश का खेल और सट्टा आदि व्यापार।)
दोनों लोको से विरुध्द और दुख प्रद कर्म है। इन तीनों प्रकार के1लोक विरुद्ध 2परलोकविरूद्ध
3दोनों लोको से विरुध्द
निंदनीय कार्यों का परित्याग करके श्रावक जगत का प्रेम पात्र बनता है।
5 अक्रूर- क्रूर अर्थातनिर्दय एवं कठोर दृष्टि। और कठोर स्वभाव का त्याग करके सरल स्वभावी हो गुण ग्राही हो ।पराये छिद्र देखने वाले का चित् सदैव मल्लीन रहता है इसीलिए अन्य के छिद्र कभी ना देखें अपने अवगुण देखा करें जिससे नम्र बना रह
6 भीरू- लोकापवाद से तथा पाप कर्म से और नर्क गति दुर्गतियों के दुख से सदैव डरता रहे
पाप कर्म का तथा लोक विरुद्ध कार्य का कभी आचरण ना करें।
7 अशठ - जैसे मूर्ख भली बुरी वस्तु में गड़बड़ कर देता है ।वैसे श्रावक पुण्य पाप के कार्यों में गड़बड़ ना करें। धर्म और अधर्म के फल को तथा पुण्य और पाप के फल को पृथक पृथक समझकर अधर्म को घटावे धर्म और पुण्य की वृद्धि करें।
8 दक्ष- अर्थात खूब विचक्षण को दृष्टि डालते ही मनुष्य को एवं कार्य को समझ जाए अवसर उचित कार्य करने वाला हो और ऐसा होशियार रहे कि पाखंडियों के छल में ना फंसे।
9 लज्जालु- अनंतज्ञानी की और गुरुजनों की लज्जा रखता हुआ गुप्त रूप से या प्रकट रूप से कभी कुकर्म का आचरण ना करें व्रतों को भंग ना करें लज्जा सर्व गुणों का आभूषण है जो लज्जा त्याग करने लग जाता है उसके पतन की सीमा नहीं रहती।
10 ,दयालु- दया ही धर्म का मूल है ऐसा जानकर समस्त जीवो पर दया रखें दुखी जीवो को देखकर अनुकंपा लावे यथाशक्ति सहायता करके उनका दुख दूर करें मरते हुए को बचाने का प्रयत्न करें अर्थात यह मेरा है और यह पराया है ऐसा विचार तुच्छ बुद्धि वालों का होता है श्रेष्ठ जन तो सारे संसार को ही अपना कुटुंब समझते हैं
*प्रश्न के उत्तर*
*14:12:20*
1️⃣सर्व गुणों का आभूषण क्या है
🅰️लज्जा
2️⃣हार जीत के जितने खेल तथा काम है यह सब किसमें में गिने जाते हैं।
🅰️जुआ में
3️⃣क्षुद्र किसे कहते हैं।
🅰️ओछी प्रकृति को शुद्र कहते हैं
4️⃣ कौन से कार्य लोकविरुद्ध गिने जाते हैं
🅰️बहुतों के विरोधी से मित्रता,देश के सदाचार का उल्लंघन ,सामर्थ्य होंने पर भी दूसरो की सहायता न करना
5️⃣किसी को भी दुखप्रद ना होने से श्रावक क्याहोता है।
🅰️अशुद्र
6️⃣क्रूर का अर्थ क्या है
🅰️निर्दय एवं कठोर दृष्टि
7️⃣धर्म का मूल क्या है
🅰️दया
8️⃣यह मेरा है और यह पराया है ऐसा विचार कौन सी बुद्धि वालों का होता है ।
🅰️तुच्छ बुद्धि वालों का
9️⃣यथा कृतिस्तथा तथा प्रकृति" अर्थातक्या।
🅰️अर्थात जैसी शरीर की आकृति होती है वैसी ही मनुष्य की प्रकृति होती है
1️⃣0️⃣सामर्थ्य होने पर भी दूसरों की सहायता ना करना इत्यादि कार्य किसके विरुद्ध गिने जाते हैं ।
🅰️लोक विरुद्ध
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर देना है, कल प्रातः 11 बजे तक*।
*अघ्याय*
*श्रावक के गुण*
*15:12:20*
11 मध्यस्थ- अच्छी बुरी बातों को सुनकर तथा अच्छी बुरी वस्तुओं को देखकर राग द्वेषमय परिणाम ना धारण करें। किसी भी पदार्थ में गृद्धि(लोभ , लालच) धारण ना करें ।जैसे- जिस प्रकार धाय बच्चे का लालन पालन करते हुए भी अन्तस में ये हीसमझती है कि यह मेरा बच्चा नहीं है जब तक मैं इसे दूध पिलाती हूं तब तक यह मुझे माता मानता है दूध छूटा की फिर मेरा नाम भी नहीं लेगा ।इसी प्रकार सम्यक दृष्टि जीव कुटुंब का पालन पोषण करते हुए भी अंतरंग में सब को पराया ही समझता है, उसमें ममता या आसक्ति धारण नहीं करता
क्योंकि राग द्वेष और वृद्धि ही चिकने कर्म बंधन के मुख्य कारण हैं, अतःसब पदार्थों में और अच्छे बुरे बनावों में मध्यस्थ रहे, रुक्ष शुष्कवृति धारण करके रहे। जिससे चिकने कर्मों का बंधन ना हो और पूर्व उपार्जित कर्म शिथिल हो जाएं तथा उनसे शीघ्र ही छुटकारा मिल जाए।
12सुदृष्टि- इंद्रियों से विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों का अवलोकन करके अंतःकरण को मलिन ना बनावे। किंतु ऐसे पदार्थों की ओर से अपनी दृष्टि हटाले । सौम्य दृष्टि ढलते नेत्रों से रहे अपनी दृष्टि को सदा पवित्र रखें।
13गुणानुरागी- ज्ञानी ध्यानी तपी जपी संयमीशुद्ध क्रिया के पालक ब्रह्मचारी क्षमावान धैर्यवान धर्म प्रभावक दानवीर इत्यादि पुरुषों के सद्गुणों पर अनुराग रखें। इनका बहुमान करें माहात्म्य बढ़ावे । यथा शक्ति सहायता करें। हम गुण वानो के गुणों को प्रदीप्त करें। समझे कि हमारे अहोभाग्य है कि हमारे कुल में ग्राम में या समाज में ऐसे ऐसे गुणवान सज्जन विद्यमान हैं इनके संबंध में अपने कुल की तथा धर्म की उन्नति होगी इत्यादि विचार करके उनके गुणों का प्रेमी और प्रशंसक बने।
14 सुपक्षयुक्त- न्याय और न्यायी का पक्ष ग्रहण करें। और अन्याय तथा अन्यायी का पक्ष छोड़ देवें। यहां प्रश्न किया जा सकता है कि पहले राग द्वेष करने की मनाही की है, अब न्याय का पक्ष लेने और अन्याय का पद छोड़ने को कहा है तो ऐसा करना राग द्वेष हुआ कि नहीं, इसका समाधान यह है कि अमृत को अमृत और विष को विष समझने में या कहने में राग द्वेष नहीं समझना चाहिए। सम्यक दृष्टि जिस वस्तु का जैसा यथार्थ स्वरूप समझते है वैसा ही कहते हैं, जब अच्छे बुरे का यथार्थ स्वरूप समझेगा तभी बुरे को छोड़कर अच्छे को स्वीकार कर सकेगा ।तभी आत्मा का सुधार कर सकेगा इसीलिए श्रावक को न्याय पक्षी अवश्य होना चाहिए इसके अतिरिक्त श्रावक के माता-पिता स्त्री पुत्र मित्र आदि स्वजन शुद्धाचारी धर्मात्मा होने से भी श्रावक सुपक्षयुक्त कहलाता है
15 सुदीर्घ दृष्टि- श्रावक अच्छी और दूरगामी दृष्टि वाला हो। श्रावक किसी भी कार्य के अंतिम फल पर दीर्घ दृष्टि से विचार करते हैं। जो कार्य भविष्य में आत्म गुणों का लाभ कराने वाला हो, सुखदाता हो प्रामाणिक पुरुषों द्वारा सराहनीय हो वही कार्य करता है, निंदनीय और दुखप्रद कार्य नहीं करता, बिना विचारे किए भी कोई कार्य नहीं करता। क्योंकि ऐसा करने वाले को भविष्य में पश्चाताप करना पड़ता है।
आगे कल
*उत्तर*
*15:12:20*
1️⃣गृद्धि का अर्थ क्या है।
🅰️ *लोभ ,लालच*
2️⃣अमृत को अमृत और विष को विष समझने में या कहने में क्या नहीं समझना चाहिए।
🅰️ *राग द्वेष*
3️⃣चिकने कर्म बंधन के मुख्य कारण क्याहैं,
🅰️ *राग द्वेष और वृध्दि*
4️⃣सुदीर्घ दृष्टि का अर्थ क्या है
🅰️ *श्रावक की अच्छी और दूरगामी दृष्टी*
5️⃣किन किन पुरुषों के सद्गुणों पर अनुराग रखें। किन्ही दो के नाम लिखे।
🅰️ *ज्ञानी,ध्यानी ,तपी,जपी,संयमीशुध्द*
6️⃣हम किन पदार्थों का अवलोकन करके अंतःकरण को मलिन ना बनावे।
🅰️ *इंद्रियोंसे विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों का*
7️⃣कौन सेजीव कुटुंब का पालन पोषण करते हुए भी अंतरंग में सब को पराया ही समझते है
🅰️ *सम्यक दृष्टी जीव*
8️⃣धाय बच्चे का लालन पालन करते हुए भी अन्तस में वो क्या समझती है
🅰️ *यह बच्चा मेरा नही हैं l*
9️⃣सुपक्षयुक्त का अर्थ क्या है
🅰️ *न्याय और न्यायी का पक्ष ग्रहन करेंl और अन्याय तथा अन्यायी का पक्ष छोड़ देवे l*
1️⃣0️⃣हम किन के गुणों को प्रदीप्त करें।
🅰️ *गुण वानो के*
*16:12:20*
*अध्याय*
*16,विशेषज्ञ*- गाय का और आक के दूध का रंग एक सा होता है सोना और पीतल भी रंग में समान होते हैं ।मगर उनके गुणों में आकाश पाताल जितना अंतर होता है, समकक्ष अंतर की परीक्षा विशेषज्ञ विज्ञानी पुरुष ही कर सकते हैं वे ऊपरी दिखावे के भरम में नहीं पड़ते किंतु भीतर के गुणों की जांच करके निर्णय करते हैं इसी प्रकार श्रावक भी नौ तत्वों आदि के विषय में विशेषज्ञ बनकर उनमें जानने योग्य को जानते हैं ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करते हैं और त्यागने योग्य का त्याग करते हैं।
*17,वृद्धानुराग*- श्रावक वयोवृद्ध और गुण वृद्ध की आज्ञा में रहने वाला हो अर्थात उनके अच्छे चाल चलन को स्वीकार करें यथाशक्ति उनके अनुसार प्रवृत्ति करें यथासंभव उनकी सेवा चाकरी करने वाला हो साथ ही वृद्ध जनों के ज्ञान आदि गुणों का अनुकरण करने वाला भी हो।
*18विनीत*-"विणाओजिण सास ण मूलं" अर्थात जिनेंद्र भगवान के शासन का मूल विनय ही है ।ऐसा जानकर माता-पिता जेष्ठ भ्राता और शिक्षक आदि गुरुजनों का यथोचित विनय करें और सबके प्रति नम्र होकर रहें।
*19कृतज्ञ*- नीतिकारों का कथन है कि कृतज्ञ-
जो दूसरों के लिए उपकारो को नहीं मानता है, ऐसा कृतज्ञ पृथ्वी के लिए भारभूत है, इस कथन को ध्यान में रखकर जो अपने ऊपर किंचित भी उपकार करें ,उसे महान उपकारक मानकर उसके उपकारक मान कर उसके उपकार से उऋण होने का यथाशक्ति प्रयत्न करें।
गर्भधारण से लेकर स्वयं समर्थ होने तक अनेक प्रकार के कष्ट सहन कर कर अनेक उपचारों द्वारा रक्षण पालन पोषण करने वाले माता-पिता को कोई पुत्र जरूरत पड़ने परस्वयं स्नान करवाए वस्त्र आभूषण से अलंकृत, करें इच्छित भोजन कराएं और उनकी आज्ञा अनुसार चलकर उन्हें संतुष्ट रखें यहां तक कि उन्हें ,जरूरत पड़ने पर
पीठ पर उठाकर सर्वत्र लिए फिरे। जैसे श्रवण कुमार ने अपने माता पिता जी को अपने कंधे पर वहन कर तीर्थाटन करवाया था।
तो भी उसके उपकार का बदला नहीं चुका सकता हां जिनेंद्र प्रणीत धर्म उनको अंगीकार कराकर अंत में यदि समाधि मरण करावे तो उऋण हो सकता है।
जैसे गोशालकजी ने किया वैसे अकृतघ्न न बने वीर जी ने उनके प्राणों की रक्षा की उन्हें तेजोलेशिया प्राप्त करने का उपाय बताया ।और वे वीरजी के ही ही प्रतिद्वंदी बन गए, और उन्हें मारने के लिए तेजोलेशिया भी छोड़ी।
*हमेंइसमेंभामाशाह* का उदाहरण देखना चाहिए -एक बार जब भामाशाह को व्यापार में रुपयों की जरूरत थी तो उन्हें व्यापार में मदद के लिए महाराणा प्रताप ने व्यापार के लिए उन्हें पर्याप्त धन दिया इससे और उनका व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ता गया। पर समय काल एक सा नहीं रहता।
और एक बार जब महाराणा प्रताप मुसीबत में थे जंगल में थे तब भामाशाह ने अपनी सारी संपत्ति महाराणा प्रताप को समर्पित कर दी, और साबित कर दिया वह एक महान कृतज्ञ
जैनी है।
*20 परहितकर्ता*- कहा है *"परोपकारः पुण्याय"* अर्थात पर का उपकार करना
पुण्य है। ऐसा जानकर यथाशक्ति यथोचित रूप से श्रावक सदैव परोपकार करता रहता है कदाचित परोपकार के कार्य में अपने को किसी प्रकार का कष्ट या दुख हो या हानि होती है तो भी वह परोपकार से मुंह नहीं मोड़ता।
*21लब्ध लक्ष्य* जैसे लोभी को धन की तृष्णा होती है और कामी को स्त्री की लालसा होती है ।उसी प्रकार श्रावक को गुणों की लालसा होती है। निरंतर थोड़े-थोड़े गुणों का अभ्यास करते करते मनुष्य अच्छा गुणवान बन जाता है ऐसा जानकर श्रावक नित्य नए-नए गुणों का अभ्यास करते रहने से लब्ध लक्ष्य हो जाता है। जिन जिन गुणी जनों की संगति होती है, उनके गुणों को ग्रहण करते करते अनेक गुणों का पात्र बन जाता है। इसके अतिरिक्त श्रावक अनेक शास्त्रों और ग्रंथों का पठन-पाठन करने वाला होता है
उत्तराध्ययन सूत्र के 21 वें अध्याय में लिखा है *"निग्गंथे पावयणे सावए से वि कोविए"* अर्थात चंपा नगरी के पालक श्रावक निग्रंथ प्रवचन(शास्त्र) में कुशल है ।23 में अध्ययन में कहा है *"शीलवंत बहूस्सुया"* अर्थात राजीमती शीलवती थी।
और बहुत श्रुतो को जानने वाली थी ऐसे बहुत से उदाहरण और प्रमाण मौजूद है जिस से विदित होता है कि प्राचीन काल के श्रावक और श्राविकाओ कों को अनेक शास्त्रों का ज्ञान होता था। ऐसा जानकर सामायिक से लेकर सब अंगों का तथा सम्यकत्व से लेकर सर्व विरति तक की क्रिया का अभ्यास करते करते सर्व गुणों का धारक बन जाना चाहिए
जो उक्त 21 गुणों के धारक होते हैं ,वे श्रावक कहे जाते हैं। ऐसा जानकर श्रावक कहलाने वालों का कर्तव्य है कि उक्त21 गुणों में से यथासंभव अधिक से अधिक गुणों को धारण करें और सच्चे श्रावक बन कर अपनी और धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाएं।
आगे कल
*उत्तर*
*16:12:20*
1️⃣श्रावक को किस की लालसा होती है।
🅰️ *गुणों की*
2️⃣"शीलवंत बहूस्सुया"* अर्थातक्या।
🅰️ *राजीमती शीलवती थी*
3️⃣नित्य नए-नए गुणों का अभ्यास करते रहने से क्या हो जाता है।
🅰️ *लब्ध लक्ष्य*
4️⃣पालक श्रावक किस में कुशल है ।
🅰️ *निग्रंथ प्रवचन(शास्त्र ) में*
5️⃣गोशालकजी ने किया, वैसे क्या न बने ।
🅰️ *अकृतध्न*
6️⃣समकक्ष अंतर की परीक्षा कौन से पुरुष ही कर सकते
🅰️ *विशेषज्ञ विज्ञानी पुरुष*
7️⃣विणाओजिण सास ण मूलं" का अर्थ क्या हैl
🅰️ *जिनेंद्र भगवान के शासन का मूल विनय ही हैl*
8️⃣श्रावक किसका पठन-पाठन करने वाला होता है
🅰️ *अनेक शास्त्रों और ग्रंथों का*
9️⃣परोपकारः पुण्याय" अर्थात
🅰️ *पर का उपकार करना*
1️⃣0️⃣भामाशाह ने अपनी सारी संपत्ति किसको समर्पित कर दी,
🅰️ *महाराणा प्रताप को*
*अध्याय*
*17:12;20*
*सागारी धर्म का पालन करने वाले को श्रावक कहते हैं* ।
*जिस धर्म की आराधना घर पर रहकर की जाती है उस धर्म को सागारी धर्म कहते हैं।*
*श्र से श्रावक श्रद्धावंत*
*व से श्रावक विवेक वान होते हैं*
*क से श्रावक क्रियाशील होते हैं*
*श्रावक वही है जो श्रद्धा के साथ विवेकपूर्ण क्रिया को करते हैं*।
*अ -शर +आवक =आना =श्रावक*
आज हम श्रावक के 21 लक्षण के बारे मे जानते है।
*श्रावक के 21 लक्षण*
*1 अल्प इच्छा*- श्रावक धन की तथा विषय भोगों की तृष्णा को कम करके अल्प तृष्णा वाले होते हैं। प्राप्त धन में तथा प्राप्त विषय भोग की सामग्री में भी अत्यंत लुब्ध आसक्तनहीं होते हैं।
*2 अल्पारंभ*- जिस कार्य को करने में पृथ्वी काय आदि छः कायों का विशेष आरंभ होता है ऐसे कार्यों की वृद्धि नहीं करते किंतु प्रतिदिन कमी करते जाते हैं। और अर्थदंड से तो सदैव अलग ही रहते हैं इस कारण वे अल्पारंभ वाले होते हैं
*3 अल्प परिग्रह*- श्रावक के पास जितनी संपत्ति होती है उसके उपरांत वह मर्यादा कर लेता है। और पहले के परिग्रह का सत् कार्यों में व्यय करके उसे भी कम करता जाता है। कुव्यापार ओर से द्रव्य उपार्जन करने की इच्छा भी नहीं करता है अतः वह अल्प अपरिग्रह ही होता है। जैसे आनन्द श्रावक ने परिग्रहकी मर्यादा की थी
*4 सुशीलता*- श्रावक पर स्त्री गमन का त्यागी होता ही है स्व स्त्री में भी मर्यादा शील होता है, इसीलिए शीलवान कहलाता है तथा आचार विचार की शुद्धता होने से सुशील होता है
*5सुव्रत*- ग्रहण किए हुए व्रतों का प्रतियाख्यान का नियम का निरतिचार-और जो चढ़ते परिणामों से पालन करता है अतः श्रावक सुव्रत कहलाता है।निरतिचार का अर्थ है- जीवन अस्तव्यस्त न हो, शान्त और सबल हो।
'निरतिचार' शब्द बड़ा महत्व पूर्ण शब्द है। व्रत के पालने में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी छाप पड़ती है, कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के संपर्क में आ जाते हैं वे भी तिर जाते हैं।
उदाहरण:-रावण के विषय में यह विख्यात है कि वह दुराचारी था किन्तु वह अपने जीवन में एक प्रतिज्ञा में आबद्ध भी था। उसका व्रत था कि वह किसी नारी पर बलात्कार नहीं करेगा, उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे नहीं भोगेगा और यही कारण था कि वह सीता का हरण तो कर लाया, किन्तु उनका शील भंग नहीं कर पाया। इसका कारण केवल उसका व्रत था, उसकी प्रतिज्ञा थी।
दूसरी निरतिचार की एक कथा
निरतिचार व्रत पालन की महिमा अद्भुत है। एक भिक्षुक था। झोली लेकर एक द्वार पर पहुँचा रोटी माँगने। रूखा जवाब मिलने पर भी नाराज नहीं हुआ बल्कि आगे चला गया। एक थानेदार को उस पर तरस आ गया और उसने उस भिक्षुक को रोटी देने के लिए बुलाया। पर भिक्षुक थोड़ा आगे जा चुका था। इसलिए उसने एक नौकर को रोटी देने भेज दिया। ‘मैं रिश्वत का अन्न नहीं खाता भइया!” ऐसा कहकर वह भिक्षुक आगे बढ़ गया। नौकर ने वापिस आकर थानेदार को भिक्षुक द्वारा कही गयी बात सुना दी और वे शब्द उस थानेदार के मन में गहरे उतर गये। उसने सदा-सदा के लिए रिश्वत लेना छोड़ दिया। भिक्षुक की प्रतिज्ञा ने, उसके निर्दोष व्रत ने थानेदार की जिंदगी सुधार दी। जो लोग गलत तरीके से रुपये कमाते हैं वे दान देने में अधिक उदारता दिखाते हैं। वे सोचते हैं कि इसी तरह थोड़ा धर्म इकट्ठा कर लिया जाय, किन्तु धर्म ऐसे नहीं मिलता। धर्म तो अपने श्रम से निर्दोष रोटी कमा कर दान देने में ही है।
सारांश यही है कि सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिए, वे व्रत नियम बड़े मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण करके उनका निर्दोष पालन करते रहें, तो कोई कारण नहीं कि सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न न हों।
*6 धर्मनिष्ठता* -श्रावक धर्म कार्यों में निष्ठ होता है नित्य नियम आदि का विधिपूर्वक पालन करता है और अपने प्रत्येक जीवन व्यवहार में धर्म का विचार रखता है अतः वह धर्मनिष्ठ होता है।
*7 धर्मवृती*- श्रावक अपने तन मन और वचन से अधर्म में प्रवृत्ति नहीं करता लोकनिंदित कार्य नहीं करता उसके तीनों योग धर्म मार्ग में प्रवृत्त हो ऐसी आकांक्षा रखता है।
*8 कल्प उग्रविहारी*- श्रावक धर्म के जो जो कल्प अर्थात आचार है ,उनमें उग्र अर्थात अप्रतिहत(जिसे कोई रोक न सके, निर्बाध।)
अप्रभावित।
विहार करने वाला अर्थात परिषह एवं उपसर्ग आने पर भी अपने आचार के विरुद्ध कार्य नहीं करने वाला होता है।
*
*प्रश्नके उत्तर*
*17:12:20*
1️⃣ ‘मैं रिश्वत का अन्न नहीं खाता भइया!किसने कहा
🅰️भिक्षुक
2️⃣परिग्रहकी मर्यादा किसने की थी
🅰️आनंद श्रावक जी
3️⃣अप्रतिहतका अर्थ क्या है
🅰️जिसे कोई न रोक सके निर्बाध
4️⃣श्रावक किसेकहते हैं* ।
🅰️सागारी धर्म पालने वाले को
5️⃣जिनमें छः कायों का विशेष आरंभ होता है ऐसे कार्यों की वृद्धि नहीं करते उसे कौन सा गुण कहते हैं।
🅰️अल्पारम्भ
6️⃣पहले के परिग्रह का किसकार्यों में व्यय करके उसे भी कम करता जाता है।
🅰️सत कार्यों में
7️⃣सागारी धर्म किसेकहते हैं।*
🅰️जिस धर्म की आराधना घर पर की जातीं हैं
8️⃣निरतिचार का अर्थ क्या है-
🅰️जीवन अस्त व्यस्त न हो शान्त और सबल हो
9️⃣अल्प इच्छा का अर्थ क्या है
🅰️अल्प तृष्णा
1️⃣0️⃣रावण का क्या व्रत था।।
🅰️किसी नारी पर बलात्कार या उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं भोगेगा
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर देना है, कल प्रातः 11 बजे तक*।
*18:12:20*
*अघ्याय*
*9महासंवेग विहारी*- श्रावक का लक्ष्य श्रद्धा निवृत्ति मार्ग की ओर ही रहता हैं। वह संसार में रहता हुए भी संसार में रचा पचा नहीं रहता अतः महासंवेग विहारी कहलाता है।
*10उदासीन*- घर -गृहस्थी का निर्वाह करने के लिए श्रावक को जो हिंसामय कृत्य करने पड़ते हैं उन्हें करता हुआ भी वह उन्हें भला नहीं समझता उन्हें करके प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता, बल्कि उदासीन वृत्ति रखने वाला होने के कारण उदासीन कहलाता है।
*11वैराग्यवान*- धन-संपत्ति और कुटुंब परिवार आदि के प्रति गहरी आसक्ति नहीं रखता तथा आरंभ और परिग्रह से निवृत होने का इच्छुक होता है।
*12 एकांत आर्य*- श्रावक बाह्याभ्यांतर एक सरीखी शुद्ध और सरल बुद्धि वाला होता है सर्वथा निष्कपट होने सेएकांत आर्य कहलाता है।
*13सम्यग्मार्गी*- सम्यक ज्ञान दर्शन चरित्र रूप मार्ग में चलने के कारण श्रावक सम्यक मार्गी होता है।
*14 सुसाधु*- श्रावक ने परिणामों से तो अव्रत की क्रिया का सर्वथा निरुंधन कर दिया होता है सिर्फ सांसारिक कार्यों के लिए जो द्रव्य हिंसा करता है वह भी अनिच्छा से निरूपाय होकर और उदासीन भाव से करनी पड़ती है उसे करता हुआ भी वह धर्म की वृद्धि करता रहता है अतः आत्म साधना करने वाला होने से अर्थात मोक्ष मार्ग का साधक होने से श्रावक सुसाधू कहलाता है।
*15 सुपात्र(सत्पात्र)*-सत् या समीचीनता से युक्त् (सम्यक्) दर्शनज्ञानचारित्र से युक्त, संसार शरीर भोगों से विरक्त, पापों से भयभीत, धर्म, धर्मात्मा, धर्म के फलों में हर्ष भाव को धारण करनेवाले स्वपर कल्याण में निरत, सच्चे देव शास्त्र गुरू के आज्ञानुवर्ती महानुभाव ही सत्पात्र या सुपात्र कहलाते हैं। कभी-कभी सत्पात्र को पात्र भी कह दिया जाता है। सत्पात्र ही समीचीन गुणों से युक्त ऐसे भाजन या नौका हैं जो स्वयं तिरते हैं एवं आश्रयवान/शरणार्थी को भी भवदधि पार कराते हैं।
*16 उत्तम*- यहाँ "उत्तम" शब्द का अर्थ "सम्यग्दर्शन सहित" होने के लिए कहा है ! माने, जो आत्मा सम्यक्दर्शन से युक्त है मिथ्यात्वि की अपेक्षा अनंत गुणी विशुद्ध पर्याय धारक होने के कारण उत्तम है उसी के यह लक्षण उत्तम कहे हैं !
- इन धर्मों की पूर्ण पालना तो महामुनिराज ही कर पाते हैं, किन्तु हम गृहस्थों को भी जितना बन सके इनको ग्रहण करना चाहिए !
*17 क्रियावादी*- पुण्य पाप के फल को मानने वाला तथा बंध मोक्ष को मानने वाला होने के कारण श्रावक क्रिया वादी होता है।
*18 आस्तिक*-आस्तिक शब्द, अस्ति से बना हुआ है जिसका अर्थ है - '(विद्यमान) है'।
ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास का नाम आस्तिकता है।तथा श्री जिनेंद्र भगवान के वचनों पर श्रावक को परिपूर्ण प्रतीति होती है अतएव वह आस्तिक होता है। वह आत्मा के अनादि अनंत अस्तित्व को तथा परलोक को मानता है इस कारण व आस्तिक कहलाता है
*19 आराधक*- श्रावक जिन आज्ञा के अनुसार धर्म क्रिया के कारण आराधक कहलाता है।
*20 जिनमार्ग के प्रभावक*-
श्रावक मन में सब जीवो पर मैत्री भाव रखता है। गुणाधिक का प्रमोद भाव रखता है। दुखी जीवो पर करुणा भाव रखता है। और दुष्टों पर मध्यस्थ भाव रखता है, वचन से तथ्य और पथ्य वाणी का प्रयोग करता है, और सम्यक दृष्टि से लेकर सिद्ध भगवान पर्यंत गुणवानों का गुण कीर्तन करता है धन सेधर्मोन्नति के कामों में उदारता दिखाता है, विवेक पूर्वक द्रव्य का निरंतर सदव्यय करता है अतः वह जिन शासन का प्रभावक होता है।
*21 अर्हन्त का शिष्य*- साधुअर्हन्त भगवान के ज्येष्ठ शिष्यहैं ,और श्रावक लघु शिष्य होते हैं अतः श्रावक अरिहंत भगवान का शिष्य कहलाता है
*उत्तर*
*18:12:20*
1️⃣अर्हत के लघु शिष्य कौन होते हैं
🅰️ *श्रावक*
2️⃣श्रावक ने किससे अव्रत की क्रिया का सर्वथा निरुंधन कर दिया
🅰️ *परिणामों से*
3️⃣धन से किन कामों में उदारता दिखाता है,
🅰️ *धर्मोन्नती के*
4️⃣यहाँ "उत्तम" शब्द का अर्थक्या है।
🅰️ *सम्यगदर्शन सहित*
5️⃣आरंभ और परिग्रह से निवृत होने का इच्छुक होना कौन सा लक्षण है।
🅰️ *वैराग्यवान*
6️⃣संसार में रचा पचा नहीं रहता अतः वह क्या कहलाता है।
🅰️ *महासांवेग विहारी*
7️⃣सर्वथा निष्कपट होने से क्या कहलाता हैं।
🅰️ *एकांत आर्य*
8️⃣सच्चे देव शास्त्र गुरू के
आज्ञानुवर्ती महानुभाव ही क्या कहलाते हैं
🅰️ *सत्पात्र/सुपात्र*
9️⃣आस्तिक शब्द, किससे बना हुआ है
🅰️ *अस्ति*
1️⃣0️⃣धर्मों की पूर्ण पालना कौन कर पाते हैं,
🅰️ *महामुनिराज*
*अघ्याय*
*19:12:20*
उक्त 21 प्रकार के गुणों के धारक तथा 21 लक्षणों से युक्त जो होते हैं। वह ऊंची श्रेणी के श्रावक कहे जाते हैं। पहले कहा जा चुका है ,कि श्रावक के व्रत नाना प्रकार के होते हैं और इस कारण श्रावकों कि अनेक श्रेणियां होती है ।उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य भेद करने से, वह 12 व्रत धारी श्रावक उत्कृष्टहोते है पंचअणुव्रत आदि के धारक मध्यम में और सिर्फ सम्यकत्व के धारक जघन्य है।
यहांसे अब
अब अपन पुनः शक्र स्तव से जुड़ते हैं ।वँहा *घम्मदयाणं*
का विवरण चल रहा था जिसमें
श्रावक के व्रतों का प्रकरण चल रहा था तो अपन सबसे पहले श्रावक व्रत क्या होता हैं उसकी
जानकारी हासिल की
अपना अन्तिम पेरेग्राफ ये था⤵️
जो संयम स्वीकार करने में समर्थ न हो, उसे कम से कम श्रावक जीवन के अलंकार स्वरूप समयकत्व सहित १२ व्रतों को स्वीकार जरूर करना चाहिए। इनका 12 व्रत पालन करने से आत्मा इसी भव या आगामी भव में चरित्र पालन के लिए समर्थ बनाती है।
प्राणी मात्र का लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह सर्व-विरत बने और मोक्ष की राह में अग्रसर हो।
*अब आगे*⤵️
धम्मदयाणं, यह पद बोलते हुए, चारित्रधर्म के दाता परमात्मा को स्मरण में ला कर उनके प्रति अत्यंत प्रसन्नता के भावों को प्रकट कर के नमस्कार करते हुए ये प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!! आपने तो उच्चतम चारित्रधर्म का प्रदान जगत को किया है, अब आपको किया हुआ यह नमस्कार मेरे में चारित्रधर्म की योग्यता को प्रकटाकर मेरा भी उद्धार करे।
भगवान चरित्रधर्म को देने वाले है ये इस पद में दिखा। अब चारित्रधर्म को प्रभु किस तरह देते हैं ये आगे के पद द्वारा हम को समझना है।
*धम्मदेसयाणं-*-धर्म के देशक परमात्मा ।
धर्म का श्रेष्ठ कोटि के उपदेश करने वाले 1 योजन अर्थात चार कोस के मंडल में स्थित 12 प्रकार की परिषद को सुनने वाला स्यादवाद मय सत्य शुद्ध निरुपम और यथा तथ्य धर्म के स्वरूप का उपदेश करने वाले अरिहंत ही है।भगवान् की दिव्य ध्वनि खिरते समय होंठ, तलु, रसना(जीभ), दांत आदि में क्रिया नहीं होती है. अर्द्ध-मागधी भाषा में देशना देते है।अर्द्ध-मागधी भाषा
माने, भगवान् की भाषा को मगध देव सर्व जीवों की भाषा मय कर देते हैं.
अरिहंत की वाणी 35 गुणों से अतिशयों से भरी हुई है ।
वे इस प्रकार है⤵️
*1 संस्कार वत्व*- संस्कृति आदि लक्षणों से युक्त होना अर्थात वाणी की भाषा की दृष्टि से संस्कार युक्त निर्दोष होना
*2उदात्तत्व*- उदात्त स्वर अर्थात स्वर का ऊंचा बुलंद होना उच्च स्वभाव से एक योजन तक पहुंचे इससे परिपूर्ण हो ना
*3 उपचारोपेतत्त्व*- रे,"तु" इत्यादि तुच्छ ग्राम्य दोष एवं ग्रामीणता के अन्य हल्के शब्दादि से रहित होना।
*4गंभीर शब्दता* का मेघ गर्जना, के समान गंभीर आवाज व शब्दत्व का होना।
*5अनुनादित्व*- अनुनाद अर्थात प्रतिध्वनि युक्त होना एवं शब्दों का यथार्थ यथोचित स्पष्ट उच्चारण होना।
*6दक्षिणत्व* - भाषा का वक्रता रहित सरल स्पष्ट होना, और दाक्षिण्य(निपुणता, पटुता।)भाषा का उपयोग करना ।अप्रसन्न चित को फेरकर प्रसन्न करने का भाव ।
किसी के हित की ओर प्रवृत्त करने का भाव
*7उपनीतरागत्व*- वाणी का मालकोश (प्रधान राग),मालव केशिकादि, रागों से युक्त होना
तथा देवो द्वारा वीणा ,बांसुरी आदि विविध वाद्यों में साथ बजाना।
जो श्रोताओं को तल्लीन बना देताहैं।
*8महार्थत्व*- अभिधेय का अर्थ जो वर्णन करने योग्य हो या जिसका वर्णन किया जा सके।तथा महानता गंभीरता एवं परिपुष्टता का होना थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ कहना।
महार्थत्व का अर्थ ही अधिक परिणाम पाना संभव है।
*9अव्याहत पौर्वापर्यत्व* प्रभु के वचनों में पूर्वापर विरोध ना होना
पूर्वापर विरोध का अर्थ है
एक दुसरेके साथ अत्यंत भिन्नता वैर विरोध । दो बातों का एक साथ न हो सकना पर
। जैसेएक तरफ ये कहना "अहिंसा परमो धर्म"और दूसरी तरफ ये कहना की
" यज्ञार्थं पशवः सृष्टा:"
अर्थात पशुयज्ञ के लिये है।
ऐसे वचन ना कहना। पर अरिहंत ऐसी दोगली बात कभी नहीं करते।
*10शिष्टत्व*-सिलसिले वार प्रवचन करना अभिमत सिद्धांतों का कथन करना व वक्ता की शिष्टता सूचित हो ऐसा अर्थ कहना
*11असन्दिग्धत्व*-अभिमत वस्तु (स्वीकृत)का इस प्रकार स्पष्टता पूर्वक कथन करना कि श्रोता के दिल में किंचित मात्र भी संशय ना हो।
*12अपह्रतान्योत्तरत्व*-
अर्थात वचनों का दूषित रहित होना ।और इसीलिए शंका समाधान का मौका ना आने देना है
-
*19/12/2020*
1️⃣ वचनों में पूर्वापर विरोध का क्या मतलब है?
🅰️ एक दुसरेके साथ अत्यंत भिन्नता वैर विरोध ।
2️⃣ " यज्ञार्थं पशवः सृष्टा:" का अर्थ?
🅰️ अर्थात पशुयज्ञ के लिये है।
3️⃣ कितने प्रकार की परिषद है?
🅰️ 12 प्रकार की
4️⃣ अपह्रतान्योत्तरत्व का अर्थ?
🅰️ वचनों का दूषित रहित होना।
5️⃣ भगवान की देशना कौन से राग में होती है?
🅰️ मालकोश (प्रधान राग),मालव केशिकादि
6️⃣ देवो द्वारा साथ में क्या बजाया जाता हैं?
🅰️ वीणा ,बांसुरी आदि विविध वाद्य
7️⃣ धम्मदेसयाणं का अर्थ क्या है?
🅰️ धर्म के देशक परमात्मा ।
8️⃣ कौन से श्रावक उत्कृष्टहोते है?
🅰️ जो 21 प्रकार के गुणों के धारक तथा 21 लक्षणों से युक्त होते हैं।
9️⃣ शिष्टत्व काअर्थ क्या है?
🅰️ प्रवचन करना अभिमत सिद्धांतों का कथन करना व वक्ता की शिष्टता सूचित हो ऐसा अर्थ कहना
1️⃣0️⃣ 1 योजन अर्थात कितना कोस
🅰️ चार कोस
*21:12:20*
*अध्याय*
आपने देखा होगा की
अधिकांश सभी के पीछे तत्व लगा है तत्व का अर्थ है पदार्थ का भौतिक स्वरूप तत्व कहलाता है, सरल शब्द में कहें तो सार, सत्व को तत्व कहते हैं।
जैसे जल का जलत्व अग्नि का अग्नित्व।
जीव का जीवत्व, आदि जैन दर्शन में तत्वों का बहुत महत्व है बिना तत्व की जानकारी हुए कोई भी जीव सही गलत मार्ग का निर्णय नहीं कर सकता धर्म का पूर्णरूपेण पालन नहीं कर सकता मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जैन सिद्धांत के अनुसार संसार में जितने भी तत्व पदार्थ है ,सत्य अथवा मौलिक सिद्धांतों पर आधारित है, जिन्हें तत्त्व कहा जाता
अब आगे
*13 हृदयग्राहित्व*-हृदयग्राही का अर्थ है
मन को मोहित करनेवाला । रुचिकर । भानेवाला ।
श्रोताओं को एकाग्र आकृष्ट और आनंदित करें, ऐसे कठिन विषय को भी सहज रूप से समझना।
*14देशकालात्यतीतत्व* बड़ी विचक्षणता(किसी काम आदि में प्रवीण होने की अवस्था, गुण या भाव)से देश काल के अनुरूप,अनुसार और अवसरोचित वचन बोलना।
*15तत्वानुरूपत्व*-विवक्षितवस्तु (जिसकी आवश्यकता या इच्छा हो । इच्छित । अपेक्षित
अभिप्राय)का स्वरूप हो उसी के अनुरूप उसका सार्थक संबंध व्याख्यान करना।
*16 अप्रकीण प्रसृतत्व*
जीव आदि 9 पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले सार- सार वचन बोलते हैं निस्सार वचन नहीं बोलते।
प्रकृत वस्तु का उचित विस्तार करना असंबंद्ध अर्थ ना कहना तथा असंबंध्द अर्थ का अतिविस्तार ना करना।
*17अन्योन्यप्रगृही तत्व* अन्योन्य का अर्थ आपस में
प्रगृही का अर्थ है अच्छी तरह पकड़ा हुआ अर्थात
पद और वाक्यों का आपस में अच्छी पकड़ होना वाक्यानुसारी सापेक्ष होना एवं निस्सार(सारहीन) पद न कहना
और अगर कहना पड़े तो संक्षेप
में बता कर आगे बढ़ जाते हैं।
*18अभिजातत्व*- प्रतिपाद्य
(भली-भांति ज्ञात करना, जो दिए जाने योग्य हो)विषय
भूमिकानुसार विषय और वक्ता का होना जो वक्ता की कुलीनता शालीनता दर्शाए धर्म कथा ऐसे खुलासे के साथ कहते हैं कि छोटा सा बच्चा भी समझ जाए।
*19अतिस्निग्ध*- भगवान की वाणी दूध और मिश्री से भी अधिक मधुर होती है इस कारण श्रोता धर्मोंपदेश छोड़कर जाना नहीं चाहते
मधुर स्वर अमृत से भी अधिक स्नेह एवं माधुर्य से परिपूर्ण वाणी श्रोता के लिए परम सुख कारी होती हैं
*20 अमरमर्मवेधित्व* मर्म विधि ना हो अर्थात किसी के मर्म गुप्त रहस्य को प्रकाशित करने वाली ना हो किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाले मर्म वेधी वचन नहीं बोलते।
*21अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व*- धर्मार्थरूप पुरुषार्थ की पुष्टि करने वाली हो वह मोक्षरूप अर्थ एवं सूत्र चारित्र रुप धर्म से संबंध होना
*22उदारत्व*-अभिधेय (विषय-वस्तु) अर्थ की गंभीरता होना व तुच्छता रहित उदारता से युक्त होना
अर्थ को छिन्न-भिन्न करके तुच्छ नहीं बनाते।
*23परनिन्दात्मोत्कर्ष विप्रयुक्त त्व*-
अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा नहीं करते पाप की निंदा करते हैं परंतु पापी की निंदा नहीं करते।
*21:12:20*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣अर्थ को छिन्न-भिन्न करके तुच्छ नहीं बनाते येकौन सेअतिशय में आता हैं।
🅰️उदारत्व।
2️⃣किसके अर्थ का अतिविस्तार ना करना।
🅰️असंबंध्द अर्थ का।
3️⃣कौन सी वाणी श्रोता के लिए परम सुख कारी होती हैं
🅰️ मधुर स्वर अमृत से भी अधिक स्नेह है एवं माधुर्य से परिपूर्ण वाणी श्रोता के लिए परम सुख कारी होती है।
4️⃣सरल शब्द में कहें तो तत्व किसे कहते हैं।
🅰️ सरल शब्द में कहें तो सार,सत्व को तत्व कहते हैं।
5️⃣हृदयग्राही का अर्थ क्या है.।
🅰️ मन को मोहित करने वाला। रूचिकर। भानेवाला।
6️⃣अभिधेय का अर्थ क्या है
🅰️ विषय वस्तु
7️⃣वाक्यानुसारी सापेक्ष होना एवं कौन सा पद न कहना
🅰️निस्सार (सारहीन) पद।
8️⃣पाप की निंदा करते हैं परंतु किस की निंदा नहीं करते।
🅰️ पापी की।
9️⃣किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाले कौन से वचन नहीं बोलते।
🅰️ मर्म वेधी वचन।
1️⃣0️⃣किसकी वाणी दूध और मिश्री से भी अधिक मधुर होती है
🅰️ भगवान की वाणी।
*
*22:12:20*
*अघ्याय*
*24उपगतश्लाघत्व*- श्रोताओं द्वारा श्लाघनीय व प्रशंसनीय होना ।क्योंकि वचन उपयुक्त गुणों से युक्त होते हैं प्रभु की वाणी सुनकर श्रोता ऐसे प्रभावित होते हैं और वह बोल उठते हैं कि -अहा धन्य है! प्रभु के उपदेश देने की शक्ति धन्य है! प्रभु की भाषण शैली।
*25अनपनीतत्व*- कारक काल वचन लिंग आदि व्याकरण के भी विप्रर्यास (प्रतिकूलता, विपरीतता।)
रूप दोषों का ना होना
व्याकरण के नियमानुसार शुद्ध शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस कथन से व्याकरण ज्ञान की कितनी आवश्यकता है -यह समझा जा सकता है और अशुद्ध वाणी द्वारा किया हुआ हितकारी कथन भी श्रोता के ह्रदय पर पर्याप्त प्रभाव नहीं डाल सकताअतएव वक्ताओं को व्याकरण पढ़कर भाषा की शुद्धता का ख्याल अवश्य रखना चाहिए।
*26 उत्पादिता विच्छिन्न कुतूहल*- श्रोताओं के ह्रदय में वक्ता विषयक निरंतर कुतूहल(आश्चर्य) बने रहना
*27अद्भुतत्व* -अद्भुत अर्थ रचना वाली होना एवं वचनों का अश्रुत पूर्व(पहले नहीं सुना हुआ) होने के कारण श्रोताओं में हर्ष रूप विस्मय में बने रहना।
*28अनतिविलम्बितत्व*- विलंब रहित होना अर्थात धीरे नहीं तेज नहीं किंतु धाराप्रवाह से उपदेश देना अधिक जोर से भी नहीं अधिक धीरे भी नहीं और शीघ्रता पूर्वक भी नहीं किंतु प्रभु मध्यम रीति से वचन बोलते हैं भगवान धर्म कथा करते-करते बीच में विश्राम नहीं लेते बिना विलंब किए धाराप्रवाह भाषण करते हैं।
*29विभम्र-विक्षेप-किलिकिंचितादि*-
विभम्र-(भ्रांति),विक्षेप-(दिल पर नहीं लगना किलिकिंचित-(रोष, भय,लोभ होना) प्रभु की वाणी में ऐसा कोई प्रभाव नहीं होता अर्थ पद वर्ण वाक्य सब स्पष्ट कहते हैं आपस में भेल सेल करके नहीं कहते ।प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि होने पर ही दूसरे अर्थ का आरंभ करते हैं अर्थात एक कथन को दृढ़ करके ही दूसरा कथन करते हैं।
*30 विचित्रत्व* -वर्णनीय वस्तु की विविधता होने के कारण तथा विचित्र अर्थ वाली होने से वाणी में विचित्रता का होना
*31 आहितविशेषत्व*- दूसरे पुरुषों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने से श्रोताओं को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त होना।
*32 साकारत्व* वस्तु स्वरूप को साकार रूप में प्रस्तुत करने वाली हो तथा वर्ण पद वाक्य अलग-अलग हो। भगवान हर्ष युक्त प्रभावपूर्ण शैली से उपदेश करते हैं जिससे सुनने वाले के सामने हुबहू चित्र उपस्थित हो जाता है और श्रोता एक अनूठे रस में निमग्न हो जाते हैं।
*33सत्वपरिगृहीतत्व* भाषा का सत्व प्रधान ओजस्वी व प्रभावशाली होना। जिससे स्वयमेव वह साहस युक्त हो जाती है, भगवान सात्विक वचन कहते हैं जो ओजस्वी और प्रभावशाली होते हैं।
*34 अपरिखेदितत्व*- स्व -पर के लिए खेद रहित होना एवं उपदेश देते हुए थकावट का अनुभव ना करना।
*35 अव्यूच्छेदित्व*- विवक्षित अर्थ (कहे जाने योग्य,अपेक्षित)
की सम्यक सिद्धि होने तक बिना व्यवधान के उसका अविच्छिन्न अर्थ बोधक व्याख्यान करना।
इस प्रकार तीर्थंकर वाणी 35 सत्य वचनातिशय से युक्त होते हैं ।पहले सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से हैं और शेष अतिशय अर्थ की अपेक्षा से हैं।
*प्रश्नके उत्तर*
*22:12:20*
1️⃣वस्तु स्वरूप को साकार रूप में प्रस्तुत करने वाला ये कौन सा अतिशय है
🅰️साकारत्व
2️⃣किसके कारण श्रोताओं में हर्ष रूप विस्मय बने रहता हैं।
🅰️अद्भूत अर्थ अश्रुत (पहले नहीं सुना हुआ)होने के कारण
3️⃣प्रभु कौन रीति से वचन बोलते हैं।
🅰️मध्यम रिति से
4️⃣किसको पढ़कर भाषा की शुद्धता का ख्याल अवश्य रखना चाहिए।
🅰️व्याकरण
5️⃣श्रोता ऐसे प्रभावित होते हैं और वह क्या बोल उठते हैं
🅰️अहा धन्य है प्रभु के उपदेश देने की शक्ति धन्य है प्रभु की भाषण शैली
6️⃣विप्रर्यास का अर्थ
🅰️प्रतिकूलता,विपरितता
7️⃣भगवान धर्म कथा करते-करते बीच में क्या नहीं लेते
🅰️विश्राम
8️⃣वचनों में विशेषता होने से श्रोताओं को क्या प्राप्त होती हैं।
🅰️विशिष्ट बुद्धि
9️⃣कौन सीवाणी द्वारा किया हुआ हितकारी कथन भी श्रोता के ह्रदय पर पर्याप्त प्रभाव नहीं डाल सकता
🅰️अशुद्ध वाणी द्वारा
1️⃣0️⃣उत्पादिता विच्छिन्न कुतूहल* का अर्थ क्या हैै
🅰️श्रोताओं के हृदय मे वक्ता विषयक निरंतर आश्चर्य बने रहना
*इस no पर भेजे* ⤵️
*23:12:20*
*अध्याय*
धम्मदेसयाणं
अनंतकाल से जीव संसार मे रिक्त, फंसा हुआ रह रहा है। ये संसार का त्याग करने का मन तब ही हो सकता है कि जब उसे संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो। इस कारण ही परमात्मा सब से पहले धर्म देशना में,कहते हैं- यह संसार आत्मा के लिए कितना अहितकर है।, उससे जीव किस तरह दुखी होता है आदि बातों को समझा कर उसे संसार से विरक्त करने का प्रयत्न करते हैं।
भव से विरक्त हुए आत्मा को परमात्मा कहते हैं कि
हे भव्यतमन्, तुझको प्राप्त यह मनुष्य भव कितना दुर्लभ है उसका तू विचार कर, ऐसे दुर्लभ मनुष्यभव को प्राप्त कर के परलोक प्रधान धर्म की साधना करने में ही श्रेय है। धर्म की साधना करे बिना यह दुखद संसार का अंत हो ही नहीं सकता। ऐसी धर्म साधना करने के लिए तू सत्शास्त्रों का अभ्यास कर। शास्त्रज्ञो के पास जा कर शास्त्रों के मर्म को तू समझ।शास्त्र के मर्म को समझने के लिए तू तेरे चित्त को अनित्यतादि भावों से भावित कर।
इस अनित्य भाव को समझने के लिए तू "पुष्पमाला और घट" दृष्टांत का विचार कर।
हज़ार रुपए की पुष्पमाला शाम को मुरझा जाती है तो तुझको खेद नहीं होता। और पचास रुपए का घड़ा फूट जाता है तो तू दुखी होता है। क्योंकि पुष्पमाला तो शाम को मुरझा जाती है,वो बात को तूने स्वीकार किया ही है परन्तु घड़े का नाश तत्काल हो सकता है, ये बात तूने नहीं स्वीकारी है। इसलिए तू दुखी होता है
इस बात का बार बारअभ्यास कर। जिससे नश्वर संसार तुझको विचलित नहीं करेगा। और तू कदापि दुखी नहीं होगा।
हे आत्मन्, जब तक तेरी गलत अपेक्षाएं कम न हो तब तक तू भगवान की आज्ञा कि अपेक्षा रख।
क्यूंकि "धम्मो जीणाणमाणा", जिन की आज्ञा, धर्म है।
शास्त्रवचनरूप मंत्रों का जाप और विविध प्रकार के तपरूप औषध का तू सेवन कर। तप से तेरे क्लिष्ट कर्मों का विनाश हो जाएगा। तेरी आत्मा निर्मल बन जाएगी और तू शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकेगा।
प्रभू के उपदेश से कितने लोगों काभला हुआ है। एक उदाहरण रोहिणीया चोर जो वीर जी का वचन सुनना भी नहीं चाहता था पर उसके पांव में कांटा चुभा और ठहर गया, और उसके कान में वीर उपदेश पड़ गए, उस वक्त वीर जी देवों के लक्षण बता रहे थे, और जब अभय कुमार ने उनके लिए कृत्रिम देवलोक तैयार किया क्योंकि उन्होंने वीर जी से सुन लिया देवों के क्या लक्षण होते हैं और उन्होंने पहचान लिया कि यह कृत्रिम देवलोक हैं। उस वक्त सोचा कि अनायास चार शब्द सुनकर मेरी जिंदगी बच गई तो उनकी शरण में तो मेरा और कितना भला होगा, मुझे अब उनकी शरण में जाना है और उसी वक्त वहां से छूट वे सीधी प्रभु की शरण में गए और अपने जीवन का कल्याण किया ये उपकारी भगवान की देशना का कमाल है ऐसे ऐसे कितने ही उदाहरण भरे पड़े हैं।
*घम्मनायगाणं-*-चतुर्विध संग रूप के रक्षक और प्रवर्तक अर्थात नायक अरिहंत भगवान ही है नायक अर्थात स्वामी धर्म के नायक क्षायिक ज्ञानदर्शन चरित्रात्मक धर्म का वे यथावत पालन करते हैं
चारित्रधर्म के नायक परमात्मा को मेरा नमस्कार हो ।
श्रेष्ठ कोटि के चारित्रधर्म के नायक परमात्मा ही है। इस कारण वो देशना के द्वारा अन्य को चारित्रधर्म देने वाले कहलाते हैं।
इस जगत में धर्म करने वाली आत्माएं तो बहुत है, परन्तु चारित्रधर्म के स्वामी या नायक जिन्हें कह सके, ऐसे तो मात्र अरिहंत भगवंत ही है। क्योंकि नायक कहलाने योग्य जो गुण होने चाहिए वह अरिहंतों में ही होते हैं। इसलिए चारित्रधर्म के नायक परमात्मा ही चारित्रधर्म को देने वाले हैं। ऐसा सच्चे अर्थ में कह सकते हैं।
नायक के मुख्य *चार गुण* होते हैं,जो इस प्रकार हे।
*1वशीकरण* - कोई वस्तु के जो मालिक होते हैं, उनको वह वस्तु संपूर्ण वश में होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पे, अरिहंत परमात्मा को उच्चतम चारित्र प्राप्त है। परमात्मा का प्रभाव ऐसा होता है कि उच्चतम चारित्र उनके वश में रहता है।कोई भी वस्तु सम्पूर्ण वश में तब ही होती है जब उसको विधि पूर्वक ग्रहण करने में आए। भगवान ने संपूर्ण विधि पूर्वक संयम जीवन का स्वीकार किया है। उन्होंने संयम के पूर्व या बाद में जिस समय पर जो औचित्य है उस औचित्य का पूर्ण रूप से पालन कर के संयम जीवन का वहन किया होता है। और संयम ग्रहण करने के बाद भी उनमें कोई दोष (अतिचार) ना लग जाए उसकी पूर्ण सतर्कता रखी हुई है। संपूर्ण संयम अपने आप आत्मसात होने के बाद ही (फल मिलने के बाद ही) उसको योग्य आत्माओं को भी प्रदान किया हुआ है। और जब-जब अन्य को प्रदान करना होता है तब अन्य मुनियों की तरह उनको किसी के वचन की अपेक्षा रखनी नहीं पड़ती। इस लिए परमार्थ से परमात्मा को धर्म वश में है।
*प्रश्न के उत्तर*
*23:12:20*
1️⃣परमात्मा का प्रभाव ऐसा होता है कि क्या उनके वश में रहता।
🅰️उच्चतम चारित्र
2️⃣रोहिणीया चोर जी जो वीर जी का क्या सुनना नहीं चाहता थे
🅰️वचन
3️⃣किससे क्लिष्ट कर्मों का विनाश हो जाएगा
🅰️तप से
4️⃣इस अनित्य भाव को समझने के लिए तू किस दृष्टांत का विचार कर
🅰️पुष्पमाला और घट
5️⃣अभय कुमार ने उनके लिए क्या तैयार किया ।
🅰️कृत्रिम देवलोक
6️⃣धम्मो जीणाणमाणा", का अर्थ
🅰️जिन की आज्ञा धर्म है
7️⃣ भव से विरक्त हुए आत्मा को क्या कहते हैं
🅰️परमात्मा
8️⃣परमात्मा सब से पहले धर्म देशना में क़्या अहितकर है,बताते है।
🅰️यह संसार आत्मा के लिए अहितकर है
9️⃣शास्त्र के मर्म को समझने के लिए तू तेरे चित्त को कौन से भावों से भावित कर।
🅰️अनित्यादि भाव
1️⃣0️⃣क्या करें बिना यह दुखद संसार का अंत हो ही नहीं सकता।
🅰️धर्म की साधना
*
24:12:20
अब आगे
*अध्याय*
*धम्मनायगाणं*
*2.उत्तम धर्म की प्राप्ति* - वस्तु के मालिक को मिली हुई वस्तु भी सामान्य नही होनी चाहिए, लेकिन श्रेष्ठ कोटि की होनी चाहिए।
यहां, प्रभु परमात्मा को प्राप्त धर्म उत्तामोत्तम कोटि का होता है, उस तरह वे इस गुण के धारक नायक है।
चारित्रों के असंख्य प्रकार होते हैं। उन सर्व प्रकारों में परमात्मा ने, श्रेष्ठ ऐसा क्षायिक भाव का (यथाख्यात) चारित्र प्राप्त किया हुआ होता है।
यूं तो सामान्य केवली में भी यही यथाख्यातचारित्र होता है, परन्तु फिर भी विशिष्ट प्रकार की तथाभव्यता के कारण तीर्थंकर की आत्मा में ये चारित्र इतना विशिष्ट कक्षा का होता है कि वो इस चारित्र को पा कर विशिष्ट कोटि के परमार्थ को साध सकते हैं। इस विशष्टता के कारण तीर्थकर पशु-पक्षी जैसे हीन योनि वाले प्राणियों को भी वह धर्म प्राप्त करवा सकते हैं।
*3.फल*- भोक्ता- वस्तु का मालिक प्राप्त वस्तु का भोक्ता भी होना चाहिए। यहां, इस गुण के धारक अरिहंत परमात्मा धर्म के परिणाम स्वरूप प्राप्त सारे फल के भोक्ता हैं।तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई अष्टप्रातिहार्य आदि समृद्धि, वाणी के 35 गुणों, विशिष्ट कोटि के रुप, यश आदि समृद्धि का उपभोग तीर्थंकरों को प्राप्त होता है। इसलिए वह सच्चे अर्थ में धर्म के नायक हैं।
*4.विघ्नाभाव* - नायक को धर्म में कोई भी प्रकार का विघ्न नहीं आना चाहिए। अर्थात, प्रभु परमात्मा चारित्र रूपी धर्म का पालन बड़ी सरलतासे कर सकते हैं। इस तरह भी वे सच्चे अर्थ में उसके नायक कहलाते हैं।धर्म में विघात(आघात ,विनाश) का अभाव-अरिहंत प्रभु धर्म के नायक है उसका कारण यही है कि उनको प्राप्त हुआ धर्म, अविनाशी है। और उनको निश्चित ही फल देने वाला होता है। ऐसा उनका सर्व से श्रेष्ठ पुण्यबंध प्राप्त किया हुआ है। और उन्होंने पाप कर्म का सर्वथा विनाश किया है। इस कारण अब विघ्न करने वाले कोई तत्व रहे ही नहीं। यूं उनके धर्म में विघात का अवसर ही नहीं। इस तरह ही वह धर्म के नायक भी है।
धर्म के नायक भी उनको ही कहना चाहिए जिनको धर्म वश में हो, अर्थात धर्म जिनको आत्मसाध हुआ हो।
और वो धर्म सामान्य नहीं लेकिन विशिष्ट कोटी का प्राप्त हुआ हो।
फिर वे पूर्णताया धर्म के फल का उपभोग कर सकते हो और उनको प्राप्त हुए धर्म में कभी भी विघ्न न आते हो।
धम्मनायगाणं, यह पद बोलते हुए, सर्वश्रेष्ठ संयम के स्वामी, अरिहंत परमात्मा को नजर समक्ष ला कर हृदय के भावों से परमात्मा को प्रणाम कर के प्रार्थना करनी है कि हे नाथ!!!! आपको किया हुआ यह नमस्कार हमें भी श्रेष्ठ चारित्र का स्वामी बनाएं।
धर्म के नायक भी जो धर्मरथ के सारथी ना बन सके तो अन्य में चारित्र धर्म को कैसे प्रवर्तित करा सकते हैं,
*धम्म-सारहीणं*- रथरथिक का और अश्वों का रक्षण करता है वैसे ही अरिहंत प्रभु भी चारित्र धर्मों के अंगो का संयम प्रवचन आदि का धर्म उपदेश देकर उनकी रक्षा करते हैं उन्मार्ग पर जाते रथ को मोड़कर सारथी जैसे सन्मार्ग पर लाता है वैसे ही अरिहंत विभु भी उन्मार्ग पर जाते धर्म रथ को सन्मार्ग पर लाकर स्थिर कर देते हैं।
*प्रश्न के उत्तर*
*24:12:20*
1️⃣विघ्नाभाव का क्या आशय(अर्थ) है
🅰️ नायक को धर्म में कोई पत्रकार का विघ्न नहीं आना चाहिए।
2️⃣आपको किया हुआ यह नमस्कार हमें भी किसका स्वामी बनाएं।
🅰️श्रेष्ठ चारित्र का.
3️⃣चारित्रों के कितने प्रकार होते हैं।
🅰️ असंख्य।
4️⃣तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई ------ आदि समृद्धि, वाणी के 35 गुणों, विशिष्ट प्राप्त होता है।
🅰️अष्टप्रातिहार्य।
5️⃣विभु भी उन्मार्ग पर जाते धर्म रथ को कँहा पर लाकर स्थिर कर देते हैं।
🅰️सन्मार्ग पर।
6️⃣प्रभु परमात्मा को प्राप्त धर्म कौन सी कोटि का होता है,
🅰️ उत्तमोत्तम कोटी।
7️⃣किसके अभाव-अरिहंत प्रभु धर्म के नायक है
🅰️ धर्म में विघात (आघात,विनाश) का अभाव।
8️⃣परमात्मा किसका पालन बड़ी सरलतासे कर सकते हैं।
🅰️चारित्र रुपी धर्म का पालन।
9️⃣विशष्टता के कारण तीर्थकर किन्हें वह धर्म प्राप्त करवा सकते हैं
🅰️ विशिष्टता के कारण तीर्थंकर पशु पक्षी जैसे हीन योनी वाले प्राणियों को।
1️⃣0️⃣सामान्य केवली में कौन सा चरित्र होता है,
🅰️यथाख्यातचारित्र ।
*25: 12:20*
*अध्याय*
*धम्म-सारहीणं-*-अर्थात चारित्र
धर्म के सारथी ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
रथ का जो कोई सम्यक् प्रकार से प्रवर्तन करें, पालन और दमन (अंकुश) करे वह रथ का सारथी कहलाता है।
उसी तरह जो स्व में और पर में संयम धर्म का प्रवर्तन करे, पालन और दमन करे तो वो संयम रूपी रथ का सारथी कहलाता है।
उन्मार्ग में जाते अश्वो का दमन, अर्थात अंकुशित कर के सन्मार्ग में प्रवृत्त कराने वाला सारथी, जिस तरह रथ का सारथी कहलाता है। उसी तरह आत्मधर्म से उन्मुख जाने वाली इंद्रियों और मन को आत्मधर्म में प्रवृत्त करने से प्रभु धर्मरथ के सारथी कहलाते हैं।
वरबोधि ( तीर्थंकर के सम्यक्त्व कोवर बोधि कहते है )
की प्राप्ति से प्रारंभ हो कर, परमात्मा आत्मधर्म से विपरीत प्रवर्तन करते मन और इंद्रियों को अटका कर आत्मधर्म से अभिमुख प्रवर्तन कराती है।
जैसे- निशा बेला में लघु शंका अर्थ स्वाध्याय आते जाते श्रमण वर्ग के पैरों की धूल से मेघ मुनि का मुनित्व भर गया निंद्रा पूर्ण नहीं होने से पुनः घर जाने का मन बना लिया प्रातः श्री वीर प्रभु ने कहा है- हे मेघ! हाथी के भाव में खरगोश की रक्षार्थ ढाई दिन तक एक पैर ऊंचा कर कर खड़े रहे यहां विचलित हो गए प्रभु की साता कारी वाणी से बाल मेघमुनि पुनः संयम में स्थिर हो गए।
एक और दृष्टांत से समझिए
एक बड़ा सार्थवाह था वह सभी मार्गों का ज्ञाता था बहुत से परिवार के साथ व शिवपुर जा रहा था रास्ते में उसने अपने साथियों से कहा देखो आगे मरुस्थल है वहां जल नहीं है वृक्ष नहीं है उस मरुस्थल को पार करते समय कई प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं उन कष्टों को संभाव से सहन करते हुए मरुस्थल को पार करना उस मरुस्थल की अटवी में एक बाग है वह बहुत मनोरम दिखाई देता है किंतु उसे देखने मात्र से महान दुख होता है उसमें जो चला जाता है उसे तो प्राणों से ही हाथ धोने पड़ते हैं अतः उस और दृष्टि भी ना करते हुए सीधे रास्ते से आ रही अटवी को पार कर लेना उस अटवी को पार कर लेने के पश्चात सब सुख दाता उपवन प्राप्त होगा सार्थवाह का यह उपदेश जिन्होंने नहीं माना क्षुधा तृषा से व्याकुल होकर उस बगीचे में गए वहां कींपाक वृक्ष के अत्यंत मधुर प्रतीत होने वाले फलों का भक्षण करते ही घोर वेदना से व्याकुल हो गए मानो कोट पात् बिच्छू ने डस लिया हो अंत में आरात मचाते हुए अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए जिन लोगों ने सार्थवाह की आज्ञा मानी अटवी को पार कर आगे उपवन में पहुंचे और परम सुखी बने भावार्थ यहां सार्थवाह के स्थान पर अरिहंत भगवान को समझना चाहिए। सार्थवाहके परिवार के स्थान पर चारों संघों को समझना चाहिए। युवावस्था अटवी है, बगीचा स्त्री /पुरूष,है जिन्होंने अरिहंत की आज्ञा को भंग किया वे दुखी हुए और जिन्होंने पालन किया वह मोक्ष को प्राप्त कर सुखी हुए।
*प्रश्न के उत्तर*
*25:12:20*
1️⃣प्रभु की साता कारी वाणी से कौन पुनः संयम में स्थिर हो गए।
🅰️मेघ मुनि
2️⃣कींपाक वृक्ष के अत्यंत मधुर प्रतीत होने वाले फलों का क्या करते ही घोर वेदना से व्याकुल हो गए
🅰️भक्षण
3️⃣सार्थवाहके परिवार के स्थान पर किसको समझना चाहिए।
🅰️चारों संघो को
4️⃣किस मेंप्रवृत्त करने से प्रभु धर्मरथ के सारथी कहलाते हैं।
🅰️इन्द्रियों और मन को आत्म धर्म में प्रवृत्त करने से
5️⃣धम्म-सारहीणं का अर्थ
🅰️चारित्र धर्म के सारथी
6️⃣किस से मेघ मुनि का मुनित्व भर गया ।
🅰️श्रमण वर्ग के पैरों की धुल से
7️⃣इंद्रियों को अटका कर किससे वर्तन कराती है
🅰️आत्म धर्म से
8️⃣युवावस्था क्या है
🅰️अटवी
9️⃣वरबोधि किसे कहते हैं।
🅰️तीर्थकर के सम्य्क्त्व को
1️⃣0️⃣सम्यक् प्रकार से प्रवर्तन करें, -----और ------ वह रथ का सारथी कहलाता है।
🅰️पालन,दमन
*26:12:20*
*अघ्याय*
धम्म-सारहीणं
हे नाथ!!!!आप हमारे भी धर्मरथ के सारथि बन कर हमको मोक्ष तक पहुंचा दो।
लौकिक व्यवहार में जिस तरह कहा जाता है कि श्रीकृष्ण जिस के सारथि बने, उसके विजय में कोई शंका नहीं होती, उसी तरह हे नाथ!!!!आप जो मेरे धर्मसारथी बन जाओगे तो फिर तो भव पार होने में मुझे कोई शंका ही नहीं है।
*घम्म-वर-चाउरन्त-चक्कवट्टीणं*- चार गति नाशक उत्तम धर्म चक्र- धारक अरिहंत देवाधिदेव को नमस्कार हो। तीनो और के समुंद्र के एवं चौथी तरफ स्थित हिमवान पर्वत पर्यंत पृथ्वी के स्वामी चक्रवर्ती क्या चातुरन्त कहलाते हैं छःखंड के साधक चक्री से भी अधिक श्रेष्ठतम है श्री अरिहंत। क्योंकि वे धर्म चक्र से 4 गति का नाश करके पंचमी गति प्रदान करते हैं चक्रवर्ती का चक्र इसी भव में हितकारी है जबकि धर्म चक्र उभय लोक हितकारी है
*विरति धर्म चक्र रौद्र ध्यान, मिथ्यात्व, आदि भाव शत्रु मारक है*।
चारित्र धर्म ही श्रेष्ठ चक्र है। चक्रवर्ती का चक्ररत्न जिस तरह शत्रु का नाश कर के चक्रवर्ती को 6 खंड के स्वामी होने में सहायक बनता है, उस तरह चारित्रधर्मरुपी चक्र भी अंतरंग शत्रु का नाश कर के चार गति के परिभ्रमण की पराधीनता को दूर कर के आत्मा को अनंत ज्ञानआदि गुणसंपत्ति का स्वामी बनाता है। इस कारण इसे चार गति का अंत करने वाला चातुरंत चक्र कहा गया है।
वैसे चार गति तो शाश्वती है, नित्य रहने वाली है, फिर भी जिन आत्माओं के अंतर में चारित्रधर्म परिणाम पाता है, वो आत्माऐं इन चार गति के चक्कर में से बाहर निकल जाती है और उस तरह वे आत्मा चार गति का अंत करने वाली बनती है।
चक्रवर्ती का चक्र तो, केवल इस लोक में, और वो भी पुण्य हो, तब तक ही साथ रहता है और उसके उपरांत परलोक में अविवेकी आत्माओं को तो नरकआदि गति के दुखों को भी प्राप्त करवाते हैं।
जैसे ब्रह्मदत्त और सुभूम चक्रवर्ती को नरक जाना पड़ा
धर्मरूपी चक्ररत्न आलोक में भी सुख देता है और परलोक में भी सद्गति की परंपरा का सर्जन कर के अंत मे मोक्ष ,अनंत सुख को प्राप्त करने वाला होता है, इसलिए ही ये श्रेष्ठ चक्र है।
इसके तीन भाग, श्रेणी के विषय को हम समझने का प्रयत्न कर रहे हैं।
धर्म का आद्य (मूल ,आरंभ)भाग यानी कि अपुनर्बन्धक अवस्था। यह दशा में स्वीकार की हुई द्रव्यविरति भी कल्याण का कारण बनती है।
*अपुनर्बन्धकअवस्था* क्या है भलीभांति जाने⤵️
सम्यकत्व की पूर्वभूमिका है अपुनर्बन्धक अवस्था।
जीव इस अवस्था तक तब ही पहुंच सकता है, जब वह पुनः कदापि मोहनिया कर्म उत्कर्ष स्थिति का बंध नहीं करने की स्थिति तक पहुंच गया होता है।
जीव को परिणीति प्रवृत्ति कैसी होती है ,वह निम्नलिखित लक्षणों से पहचानी जा सकती है ⤵️
⚡तीव्र क्रूरता से हिंसाआदि पाप कार्य न करें ।
⚡तथाकथित सांसारिक सुखों के प्रतिप्रगाढ़ आसक्ति ना करें
⚡धर्म आदि समस्त कार्यों में उचित मर्यादा का उल्लंघन ना करें
⚡ योग बिंदु ग्रंथ मेंअपुनर्बन्धक
के अन्य लक्षण भी बताए गए हैं।
⭐जैसे तुच्छ संकुचित वृत्ति नहीं रखता हो
⭐ भिक्षा मांगने वाला ना हो। दीनता नहीं रखता हो धूर्तता नहीं करता हो
अपुनर्बन्धक
निरर्थक प्रवृतियां ना करता हो। कालज्ञ हो समय पहचान कर व्यवहार करने वाला हो। आदि
धर्म का मध्यम भाग यानी कि सम्यकदृष्टि प्राप्त स्थिति। ये स्थिति काल में स्वीकार किये हुए व्रत-नियम के माध्यम से आत्म शुद्धि का कारण बनती है,
और चारित्रधर्म का अंतिम भाग यानी कि सर्व संवरभाव का चारित्र। ये तो निश्चय ही मोक्ष का कारण बनता है।
इन चार गति का अंत दान, शील, तप और भावरूप चार प्रकार के धर्म से होते हैं। तात्विक कोटि के दान धर्म के कारण ही धनआदि की महामूर्छारूप अतिरौद्रमहामिथ्यात्व का नाश होता है। शील के पालन से संयम गुण प्रगट होते ही अविरति का पाप अटकता है।
तप धर्म के पालन से मन और इंद्रियों का संयम होने से कर्म का नाश होता है।
*प्रश्न के उत्तर*
*26:12:20*
1️⃣किसकी विजय में कोई शंका नहीं होती,
🅰️श्री कृष्ण जिसके सारथी बने
2️⃣कौन शाश्वती है, नित्य रहने वाली है,
🅰️चार गति
3️⃣कौन कौन से चक्रवर्ती को नरक जाना पड़ा
🅰️सुभुम चक्रवर्ती
4️⃣कौन सा चक्ररत्न आलोक में भी सुख देता है
🅰️धर्म रूपी चक्र रत्न
5️⃣किसमेंअपुनर्बन्धक के अन्य लक्षण बताये है
🅰️योग बिंदु ग्रंथ में
6️⃣अनंत सुख को प्राप्त करने वाला कौन होता है,
🅰️धर्म रूपी श्रेष्ठ चक्र रत्न
7️⃣छःखंड के साधक चक्री से भी अधिक श्रेष्ठतम कौन है
🅰️अरिहंत जी
8️⃣चारित्रधर्म का अंतिम भाग यानी क्या
🅰️सर्व संवर भाव का चारित्र
9️⃣किसके माध्यम से आत्म शुद्धि का कारण बनती है,
🅰️व्रत नियम
1️⃣0️⃣तीनो और के समुंद्र के एवं चौथी तरफ क्या स्थित हैं
🅰️हिमवान पर्वत
*इस no पर भेजे* ⤵️
*28:12:20*
*अध्याय*
और भावधर्म के पालन से परभव-पौद्गलिकभाव दूर होते हैं और आत्माभाव में स्थिरता आ जाती है।
इस तरह से चार प्रकार के धर्मों द्वारा अंतरंग शत्रु का विनाश होता है।
*अप्पड़िहय-वर-नाण-दंसण-धराणं* अर्थ :- कोई भी जिसे ना हण सकें ऐसे उत्तम केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करनेवाले, छद्मस्थ पणा जिनका चला गया है वैसे,
दूसरे से घात को प्राप्त ना होने वाले केवल ज्ञान और केवल दर्शन के धारक।
अप्रतिहत् औरअस्खलित श्रेष्ठ/ वर /प्रधान ज्ञान एवं दर्शन केवल ज्ञान– केवल दर्शन के धारक श्री अरिहंत देव को नमस्कार हो। वस्तु के विशेष अवबोध को ज्ञान कहते हैं। एवं सामान्य अवबोध को दर्शन कहते हैं।नाश जिसका न हो ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
समग्र घाती कर्मों का नाश कर के परमात्मा ने केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया है।
ज्ञान जीव का स्वभाव है। इसलिए सर्व जीवों में कम या अधिक अंश में ज्ञान तो होता ही है। लेकिन वो ज्ञान, कर्म से आवृत होता है, इस कारण जगतवर्ती सर्व पदार्थों को देखने में असमर्थ होते हैं। कर्म के आवरण के कारण जीव का वो ज्ञान स्खलित होता है।
अरिहंत परमात्मा ने साधना कर के ज्ञान और दर्शनगुण को ढंकने वाले घातीकर्मों का सर्वथा नाश करके, कभी नाश न हो ऐसा अप्रतिहत ज्ञान प्राप्त किया होता है। इस कारण वो कोई भी प्रकार की स्खलना के बिना एक ही समय में सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देख सकते हैं। और पहचान सकते हैं।
परमात्मा को प्राप्त यह ज्ञान, जिस तरह अप्रतिहत(जिसे कोई रोक न सके, निर्बाध।
2.अप्रभावित।)
होता है, उसी तरह श्रेष्ठ भी है। क्योंकि ज्ञानावर्णनीयकर्म और दर्शनावर्णीयकर्म का सर्वथा नाश होने से, उसमें केवलज्ञान और केवल दर्शन गुण प्रगट हो गया है। जिसके द्वारा वो जगतवर्ती सर्व पदार्थों को यथार्थ स्वरूप से देख सकते हैं, पहचान सकते हैं। और यह गुण के कारण ही उनमे अनंती लब्धि और अनंती सिद्धि प्रगट हुई होती है। ऐसे अप्रतिहत और श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन गुणों को धारण करने वाले परमात्मा।
यूं तो पदार्थ के विशेष बोध में सामान्य बोध का समावेश हो ही जाता है, उस तरह भगवान को मात्र, वर-नाण-दंसण
धराणं(श्रेष्ठ, ज्ञान ,दर्शन धारण करने वाले)
कहा होता तो चल सकता, परंतु दरअसल जगतवर्ती तमाम पदार्थ, सामान्य और विशेष दोनों धर्म से युक्त है। इस कारण ज्ञेय में (वस्तुमें) दोनों धर्म होने से, विशेष धर्म को जानने के लिए ज्ञान और सामान्य धर्म को जानने के लिए दर्शन गुण से युक्त परमात्मा है, ऐसा कहा गया है।
यह पद बोलते हुए, विशिष्ट प्रकार की साधना कर के केवलज्ञान और केवलदर्शन गुणों को प्राप्त करने वाले परमात्मा को स्मृतिपट पर ला कर नमस्कार करते-करते प्रभु के पास प्रार्थना करनी है कि,
हे नाथ!!!! आपने जिस तरह साधना द्वारा कर्मों के पड़ल को हटा कर केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रकाश प्राप्त किया है, उसी तरह आपको किया हुआ यह नमस्कार हमें भी केवलज्ञान आदि गुणों की प्राप्ति का अमोध कारण बनो।
केवलज्ञान व केवलदर्शन, छद्मस्थ अवस्था के नाश के बिना संभव नहीं है, इस विषय पर हम आगे विवेचन समझेंगे।
*प्रश्न के उत्तर*
*28:12:20*
1️⃣अप्रतिहत का अर्थ
🅰️ जिससे कोई रोक न सके, निर्बाध।
2️⃣किसके अवबोध को ज्ञान कहते हैं
🅰️वस्तु के विशेष।
3️⃣ज्ञान, किससे आवृत होता हैं
🅰️कर्म से।
4️⃣सामान्य धर्म को जानने के लिए ------से युक्त परमात्मा है,
🅰️दर्शनगुण।
5️⃣किसके द्वारा कर्मों के पड़ल को हटा कर केवलज्ञान प्राप्त किया
🅰️साधना।
6️⃣ केवलज्ञान व केवलदर्शन,
किसके नाश के बिना संभव नहीं है।
🅰️छद्मस्थ अवस्था।
7️⃣कौन से कर्म का सर्वथा नाश होने से, उसमें केवलज्ञान और केवल दर्शन गुण प्रगट होता हैं
🅰️ ज्ञानावर्णनीय और दर्शनावर्णनीय।
8️⃣ज्ञान और दर्शनगुण को ढंकने वाले कौन सा कर्म है
🅰️ घाति कर्म।
9️⃣सामान्य अवबोध को क्या कहते हैं
🅰️दर्शन।
1️⃣0️⃣वर-नाण-दंसण धराणं का अर्थ क्या है।
🅰️ श्रेष्ठ,ज्ञान, दर्शन धारण करने वाले।
*29:12:20*
*वियट्ट-छउमाणं* वियट्टका अर्थ हैं रहित
छउमाणं-काअर्थछद्मावस्था
जिसकी छद्मावस्था चली गई ऐसेसे अरिहंत परमात्मा को नमस्कार हो
अब प्रश्न है
छद्मस्थ किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण,मोहनीय, और अन्तराय कर्म का क्षयोपशम है, क्षय नहीं हुआ है ऐसे मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं
किसी पदार्थ को देखे बिना छद्मस्थ उसे जान ही नहीं सकते। इसलिये छद्मस्थों के पहले दर्शनोपयोग होता है और बाद में ज्ञानोपयोग होता है।
तथा— मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन पाँच ज्ञानों में से प्रारम्भ के चार ज्ञानहो तो भी छद्मस्थ (अल्पज्ञान) कहलाते हैं। जैसे तीर्थकर जी जो तीन ज्ञान युक्त तो जन्मजात होते है ,और दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान के ज्ञाता हो जाते हैं उसके उपरांत भी वे केवल ज्ञानी नहीं होते तबतक छद्मस्थ
ही कहलाते है
छद्मस्थ जीव पहले देखते हैं और फिर बाद में जानते हैं,
तीर्थंकरों की
अवस्था मुनि बनने तथा केवलज्ञान के बीच की मानी जाती है ।
आदिनाथ भगवान की 1000 वर्ष थी।
सबसे कम छद्मस्थ अवस्था
मल्लीनाथ भगवान की थी। दीक्षा लेते ही वह मन:पर्यय ज्ञानी बन गई मन:पर्ययज्ञान
होते ही भगवती मल्ली जी कायोत्सर्ग युक्त ध्यान में तन्मय बनी तथा उसी दिन के तीसरे प्रहर में क्षपक श्रेणी लेकर उन्होंने सर्वज्ञता प्राप्त की।
यसे व्यावृत छ्द्म वाले (जिनके घाती कर्म निवृत्त हुए हैं ऐसे) परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
तात्पर्य यह है कि भगवान की आत्मा के प्रदेश कर्मों के आच्छादन से मुक्त हो गए हैं।
ज्ञानावर्णनीयकर्म आत्मा के ज्ञान को ढंकते हैं।
दर्शनावर्णनीय कर्म आत्मा के दर्शनगुण को ढंकते हैं।
मोहनियकर्म आत्मा के सम्यगदर्शन और अनंत चारित्रगुणों को ढंकते हैं।
और अंतरायकर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य गुण को ढंकते हैं।
दूसरी तरह से सोचा जाए तो छ्द्म यानी दोष या रागादि कषाय, ये जिनके सर्वथा नाश हुए हैं, वो भगवंत ही व्यावृत्त छद्म वाले हैं।
यह पद बोलते हुए, जिनके समस्त दोष नाश हो चूके हो और उस कारण जिनके वचन निःशंक स्वीकार करने योग्य है और जो समस्त जगत के लिए पूजनीय है, ऐसे परमात्मा को हृदयस्थ कर के, प्रणाम कर के प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!!बहूमानपूर्वक आप को किया हुआ नमस्कार हमारे राग, द्वेष अज्ञान आदि दोषों के निवारण के कारण बने।
यह पद बोलने हुए परमात्मा को नमस्कार कर के उनके वचन का अनुसरण कर के, हुम भी ऐसे भाव को प्राप्त कर सके ऐसा भाव व्यक्त करना है।
*प्रश्न के उत्तर*
*29:12:20*
1️⃣अंतरायकर्म किस को ढकते हैं
🅰️दान,लाभ,भोग ,उपभोग,वीर्य गुण को
2️⃣1000 वर्ष किस छद्मस्थकिसकी थी।
🅰️आदिनाथ भगवान
3️⃣छद्मस्थ अवस्था किसके बीच की मानी जाती है ।
🅰️मुनि बनने तथा केवलज्ञान के बीच की
4️⃣छउमाणं-काअर्थ क्या है
🅰️छद्मावस्था
5️⃣सबसे कम छद्मस्थ अवस्था किसकी थी
🅰️मल्लिनाथ जी
6️⃣मल्लीनाथ भगवान की थी।
🅰️सबसे कम छद्मावस्था
7️⃣छद्मस्थों के पहले क्या होता है
🅰️दर्शनोपयोग
8️⃣तीर्थकर दीक्षा लेते ही किसके ज्ञाता हो जाते हैं
🅰️मनपर्यवज्ञान के
9️⃣कौन आत्मा के ज्ञान को ढंकते हैं।
🅰️ज्ञानावरणीय कर्म
1️⃣0️⃣मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर कौन से गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं
🅰️बारहवें गुणस्थान तक
*30:12:20*
*अध्याय*
*जिणाणं जावयाणं*-
*जिणाणं*- संसार के समस्त प्राणियों का पराभव करने वाले कर्म शत्रुओं को जीतने वाले।
*जावयाणं*- भगवान ने अपने अनुयायियों को भी कर्म शत्रु को जीतने की युक्ति बतलाई अतः वे ज्ञापक हैं।
जिणाणं जावयाणं का पूरा अर्थ-
स्वयं संसार-सागर से तिरे अन्य को तारने वाले।
स्वयं बुद्ध और दूसरों को बोध देने वाले,प्रभु हैं,
स्वयं मुक्तहुए और दूसरों को कर्म से मुक्त करने वालों को नमस्कार।
राग द्वेष पर विजय पाकर स्वयं तो जिन बन ही गए, मगर ज्ञान पूर्वक राग द्वेष पर विजय पाने का उपाय वे अन्य को भी बताकर राग द्वेष जीतने की प्रेरणा करते हैं।आइये जानते हैं राग द्वेष क्या है
दो शब्द है राग और द्वेष । दोनो हैं तो एकदम विपरीत लेकिन आते एक साथ है और गहरे में उतरो तो पाओगे की दोनो एक दूसरे के पूरक हैं ।
पहले तो इनका अर्थ जान लेना ज़रूरी है । इष्ट पदार्थों के प्रति रति भाव को राग कहते हैं,
राग का मतलब है आसक्ति गहरी आसक्ति । ऐसा की कोई तुम्हारे पास ऐसा हो जिसके बिना लगे की जीना सम्भव ही नहीं ।
द्वेष -, द्वेष राग का एकदम विपरीत है जैसा मानो की तुम्हें किसी से घृणा हो गयी हो । तुम्हें कोई फूटी आँख न सुहाये तो मतलब उसके प्रति तुम द्वेष रखते हो ।
तो राग और द्वेष कैसे एक दूसरे के पूरक हुए ये तो एकदम विपरीत हैं ? इसे ऐसे समझो की गहरी शत्रुता के लिए पहले गहरी मित्रता आवश्यक है । कोई तुम्हारा शत्रु हुआ हो, या तुम किसी के शत्रु हो गए हो तो इसकी अधिकतम सम्भावना है की कही कभी मित्रता रही होगी। । इसी तरह द्वेष अगर कही है तो इसकी पूरी सम्भावना है की पहले कही राग रहा. होगा. । राग में जन्मती हैं अपेक्षाये। और अपेक्षा जब टूट जाती है तो उत्पन्न होता है द्वेष । और ये भी सत्य है की अपेक्षाओ की नियति ही है टूट जाना । फिर वो आज टूटे या कल ।
जहाँ राग वहाँ अपेक्षाये है और
अपेक्षा टूटती है तो द्वेष उत्पन्न हो जाता है ।
इसीलिए हमें कभी किसी से अपेक्षाए नही रखनी चाहिए
द्वेष से मुक्ति पानी है तो राग को भी छोड़ना होगा । वही प्रभु समझाते है।
और ऐसे अंतरंग शत्रुओं को जीतने वाले और जिताने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
स्वयं में रहे शत्रुओं पर ये विजय तो पाते ही है ,और उसके उपरांत अन्य आत्माओं को भी विजयी करने में अपना सम्पूर्ण योगदान देते हैं।
इस संसार में प्राप्त हुए जन्म, मरण, आधि, व्याधि आदि सर्व दुख का मूल कारण राग-द्वेष आदि अंतरंग शत्रु ही है।
यहां जन्म को भी दुःख रूप कहा, उसका कारण ये है कि जन्म है तो मृत्यु निश्चित है। और जन्ममरण का ये चक्र ही संसार चक्र है जो दुख रूप है।
और यदि यहां जन्म पा कर यथायोग्य धर्माचरण नहीं किया तो फिर ये संसारचक्र में फंसे ही रहना है।
श्री तीर्थंकर देव ने इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है और उस तरह इस संसार के परिभ्रमण का अंत कर दिया है।
तदुपरांत सदउपदेश आदि द्वारा योग्य आत्माओं को कषायों पर विजय प्राप्त करने हेतू मार्गदर्शन देने के रूप से सहाय भी की है। इस कारण परमात्मा अंतरंग शत्रुओं को जितने वाले और जिताने वाले दोनो कहलाते है।
जैनशासन में ईश्वरतत्व की यह महत्ता है कि उपासना करने वाले आत्मा को यह स्वतूल्य बनाता है। परमात्मा ने स्वयं तो रागादि पर विजय की सर्वश्रेष्ठ साधना की ही है, साथ ही योग्य ऐसे अनेक आत्माओं को भी इन रागादि के शिकंजे में से मुक्त करा कर अपने जैसे ही बनाया है और हमेशा बनाना चाहा है।
*उत्तर*
*30:12:20*
1️⃣जन्ममरण का ये चक्र ही क्या चक्र है
🅰️ *संसारचक्र*
2️⃣राग में क्याजन्मती हैं
🅰️ *अपेक्षाये*
3️⃣क्या नहीं करने से ये संसारचक्र में फंसे ही रहना है।
🅰️ *यथा योग्य धर्माचरण*
4️⃣जिणाणं का अर्थ क्या है
🅰️ *संसार के समस्त प्राणियोंका पराभव करने वाले कर्म शत्रुओं को जीतने वाले*
5️⃣दोनो हैं तो एकदम विपरीत लेकिन आते एक साथ है
🅰️ *राग और द्वेष*
6️⃣यहां जन्म को भी दुःख रूप क्यों कहा हैं,
🅰️ *जन्महैं तो मृत्यु निश्चित हैl*
7️⃣गहरी शत्रुता के लिए पहले क्या आवश्यक है
🅰️ *गहरी मित्रता*
8️⃣राग किसेकहते हैं,
🅰️ *आसक्ति गहरी आसक्ति*
9️⃣स्वयंबुद्ध कौन हैं
🅰️ *प्रभु*
1️⃣0️⃣जिणाणं जावयाणं का पूरा अर्थ-
🅰️ *स्वयं संसार-सागर से तिरे अन्य को तारने वाले l* *स्वयं बुध्द*
*और दुसरों को बोध देने वाले* *प्रभु हैं, स्वयं मुक्त हुए और दुसरों कों कर्म से मुक्त करने वाले*
*31:12:20*
*तिण्णाणं तारयाणं*-
*तिण्णाणं* भगवान दुष्कर संसार सागर से तिर चुके हैं।
*तारयाणं*- भगवान अन्य प्राणियों को भी सन्मार्ग के उपदेश द्वारा संसार से तारते हैं
*तिण्णाणं तारयाणं*- का अर्थ-स्वयं तिरते हैं औरों को तारते
श्री अरिहंत तीर्थंकर दे सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चारित्र रूपी प्रवहण/ नैया से संसार सिंधु से तिर गए हैं ,तथा दूसरों को भी अचिन्त्य प्रभाव से एवं अतिशयवंती देशना से तिराते हैं।
संसार सागर से तिरे हुए और दूसरों को तिराने वाले ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
, प्रभु धर्मदेशना द्वारा और गुणसम्पन्नता द्वारा अनेक को संसारसागर से तिराने वाले भी है।
केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद परमात्मा का मोक्ष तो निश्चित ही होता है। फिर भी परम कृपालु परमात्मा केवल परोपकार की दृष्टि से, पूर्णतया निस्वार्थ भाव से अन्य जीवों को भी मोक्ष निरंतर प्राप्त होता रहे उसके लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं।
यहां समझने योग्य ये बात है कि केवलज्ञान प्राप्त होते ही, निश्चित मोक्षगामी आत्मा को क्या स्वार्थ हो सकता है ?, जिनका भविष्य, सिद्धगति निश्चित है उनको इस संसार मे फिर क्या पाने योग्य हो सकता है कि वो जीवों को तारने के कार्य मे कोई स्वार्थ या अपेक्षा रखे ?।
इन महात्मा का उद्देश्य केवल लोककल्याण है, पूरी तरह करुणा दृष्टि से ये अन्य को उपदेश आदि द्वारा, संसार सागर से तिराने का सत्कार्य करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं
सभी मनुष्य भव में इसलिए आए हैं कि यहां हम भव से तिराने का काम कर सकें। 84 लाख योनी में हम जहां भी भटके हैं, वहां आत्मा के डूबने का काम होता रहा है। केवल मनुष्य भव ही ऐसा है, जहां से हम भव सागर को पार कर सकते हैं। आत्मा को तिराना है तो ज्ञान के उपासक बनें। जिसके पास ज्ञान होगा, विवेक होगा उसकी श्रद्धा मजबूत होगी। ये तीनों जिसके पास होंगे, उसके पापों की निर्जरा होगी। यह ही समझाने के
कारणों से हमे प्रभु परमात्मा पर, उनके उपदेश आदि पर सम्पूर्ण विश्वास है और रहना भी आवश्यक है।
मोक्ष सुख की इच्छा रखने वाले जीवों के लिये ये निर्विकल्प सत्य है।
आज हमें मार्गदर्शन देने के लिए गुरु भगवंत है जो ये
अरिहंत की वाणी कहते है
उसी बात को थोड़ी आसान भाषा मे बताया है कि
ये 6 सीढि़यां
1 जिनेन्द्र भगवान की वंदना, 2अपने गुरुओं की सेवा करना व उनपर श्रद्धा रखना,
3अपने मां-बाप व बेसहारा लोगों की सेवा,
4प्राणियों पर दया,
5दान करना,
6ध्यान लगाना है।
यदि इंसान इन 6 सीढि़यों में किसी एक भी सीढ़ी को पकड़ ले तो वह भवसागर से पार हो सकता है। उन्होंने कहा कि हमें व्यर्थ में भूतकाल व भविष्य काल की ¨चिंता नहीं करनी चाहिए हमें सिर्फ वर्तमान की ¨चिंता करनी चाहिए, हमें वर्तमान समय को सुंदर बनाना होगा। भाग्य के भरोसे मत बैठो, पुरुषार्थ कार्य करते रहो तथा विश्वास और सच्चाई का सहारा लो।
संकलन कर्ता
अंजुगोलछा
*प्रश्न के उत्तर*
*31:12:20*
1️⃣ये तीनों क्या जिसके पास होंगे, उसके पापों की निर्जरा होगी।
🅰️ ज्ञान, विवेक और श्रद्धा
2️⃣कौन सेजीवों के लिये ये निर्विकल्प सत्य है।
🅰️ मोक्ष सुख प्राप्ति की इच्छा रखने वाले जीव
3️⃣कितनी सीढियां हैंऔर कोई 1 सीढ़ी बताइये
🅰️ 6 सीढ़ी है,दान करना
4️⃣तिण्णाणं का अर्थ*
🅰️ भगवान दुष्कर संसार सागर से तिर चुके है
5️⃣आज हमें मार्गदर्शन देने के लिए कौन है
🅰️ गुरु भगवंत
6️⃣कौन सी देशना से तिराते हैं।
🅰️ अतिशयवंति देशना
7️⃣कौन सा भव ही ऐसा है, जहां से हम भव सागर को पार कर सकते हैं
🅰️ मनुष्य भव
8️⃣केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद किसका मोक्ष तो निश्चित ही होता है।
🅰️ परमात्मा का
9️⃣*तिण्णाणं तारयाणं का पूरा अर्थ*
🅰️ स्वयं तिरते औरो को तारते
1️⃣0️⃣पुरुषार्थ कार्य करते रहो तथा --–---और -------- का सहारा लो।
🅰️विश्वास और सच्चाई
*1:1:21*
*अध्याय*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
*बुद्धाणं बोहयाणं-*
*बुद्धाणं- भगवान स्वयं सभी तत्वों का संपूर्ण बोध प्राप्त कर चुके हैं*
*बोहयाणं*- *भगवान अन्य जीवो को तत्व का ज्ञाता बनाते हैं*
स्वयं बोध पाए हुए और अन्य को बोध कराने वाले ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
किसी के उपदेश से नहीं अपितु स्वयं के वह प्रत्यक्ष ज्ञान से जीवाजीवादी नवतत्वों को जानते हैं। अतः उन्हें बुद्धकहते हैं। स्वयं जानकर औरों को भी नवतत्व का ज्ञान देते हैं अतः उन्हें बोधक कहते हैं।
बुद्ध और बोधक अरिहंत ही है श्री तीर्थंकर देव तथा भव्यत्व आदि सामग्री से मोह निंद्रा से प्रसुप्त जगत में अन्य के उपदेश भी नहीं जीवादी रूप तत्वों को अविपरित जानते हैं।
अज्ञान रूपी निद्रा में सोये हुए, इस संसार के परिभ्रमण में पूरी तरह भ्रमित, उत्थान व उद्धार के मार्ग से चलित हुए, इस जगत में, हम पामर मानवों में केवल श्री तीर्थंकरदेव ही ऐसे है जो अन्य किसी के उपदेश के बिना ही स्वसंवेदित ज्ञान से जीवादि तत्त्वों को जानते हैं।
आरिहंत परमात्मा की ये विशेषता है के इन्हें सच्चे ज्ञान का बोध स्वयंभू प्राप्त है।
और उस प्राप्त बोध के द्वारा दर्शित मार्ग पर चल कर ये स्व-कल्याण कर पाते हैं।
परंतु, यहां इतने में उनका कार्य नहीं रुकता। वे परम कृपालु दयावान होने के कारण दूसरों को भी धर्मबोध करवाते हैं। इसलिए बुद्ध ओर बोधक भी कहलाते हैं।
इनके बोध स्वरूप परम सत्य की पहचान जब अन्य आत्माओं को प्राप्त होती है तब योग्य आत्माओं का भी कल्याण सरल हो जाता है।
प्रभु की पूर्ण निस्वार्थता के कारण इनके बोध का स्वीकार निर्विवाद सत्य की तरह योग्य आत्माओं द्वारा ग्रहण किया जाता है।
और अंत मे वही बोध ऊनके भी तीरने का कारण बनता है।
*मुत्ताणं मोयगाणं*-
*मुत्ताणं- राग द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाले कर्म बंधन से भगवान मुक्त हो चुके हैं*
*मोयगाणं -भगवान संसार के प्राणियों को भी कर्म बंधन से मुक्त करते हैं*
मुत्ताणं मोयगाणंका पूरा अर्थ-
कर्म से मुक्त हुए और अन्य को कर्मों से मुक्त कराने वाले। परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
विचित्र विपाक(परिपक्व होना, पकना)
प्रदाता विचित्र कर्म बंधनों से स्वयं मुक्त हैं कृत प्रत्यय हैं और दूसरों को भी मुक्ति दिलाते हैं बाह्य, अभ्यंतर बंधनों से अरिहंत स्वयं भी मुक्त है और औरों को भी मुक्त करते हैं अतः उन्हें मोचक कहा गया है
विचित्र प्रकार के विपाको को देने वाले विविध कर्मों के बंधनों से परमात्मा प्रयत्न करके स्वयं मुक्त हुए हैं। और अन्य को कर्मों से मुक्त होने का मार्ग दिखाने द्वारा कर्म से मुक्त करवाते हैं।
जिणाणं जावयाणं से ले कर मुत्ताणं मोअगाणं, यह 4 पदों द्वारा परमात्मा की लोकोत्तम चार अवस्था बताई गई है।
ये इस प्रकार से है -
1,मोहरूप महाशत्रुओं को जितने वाले परमात्मा शुक्ल ध्यान पर आरूढ़ होते हैं। मोह की एक-एक प्रकृति को परास्त कर के प्रभु नववे गुणस्थानक में आते हैं।
2,स्थिर और निश्चय ध्यान द्वारा बाकी रहे हुए सूक्ष्म लोभ का नाश कर के विभु रागादि शत्रुओं के परम विजेता बनते हैं।
3शत्रु की ऐसी शक्ति नहीं है कि अब वह कहां से भी इनकी आत्मा में प्रवेश कर सके। ऐसे दसवें गुणस्थानक के अंत में परमात्मा मोह के परम विजेता बनने स्वरूप *जीत* अवस्था को प्राप्त करते हैं।
4मोह का नाश होने से, स्थिर और निश्चल बने हुए परमात्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावर्णनीय और अंतराय कर्म के पीछे पड़ जाते हैं। बारहवे गुणस्थानक के अंत मे वो भी जड़मूल से खत्म कर के वो दोषसागर से पूर्णतया तीर जाते हैं।
*प्रश्न के उत्तर*
*1:1:21*
1️⃣कौन से गुणस्थान सेदोषसागर से पूर्णतया तीर जाते हैं।
🅰️बारहवें
2️⃣कौन से गुणस्थानक के अंत में परमात्मा मोह के परम विजेता बनते है
🅰️दसवें
3️⃣ किस ज्ञान से जीवादि तत्त्वों को जानते हैं।
🅰️प्रत्यक्ष ज्ञान से
4️⃣बुद्धाणं का अर्थ क्या है।
🅰️भगवान स्वयं सभी तत्वो का संपूर्ण बोध प्राप्त कर चुके हैं
5️⃣प्रभु को मोचक क्यों कहा गया है
🅰️अभ्यन्तर बंधन से स्वयं भी मुक्त हैं और औरो को भी मुक्त करते हैं
6️⃣कितने तत्व का ज्ञान देते हैं
🅰️नव तत्व
7️⃣अरिहंत परमात्मा की क्या विशेषता है
🅰️सच्चे ज्ञान का बोध स्वयंभू प्राप्त है
8️⃣बुद्ध ओर बोधक भी कौन कहलाते हैं।
🅰️अरिहंत परमात्मा दयालु और कृपावान होने के कारण
9️⃣ मुत्ताणं मोयगाणंका पूरा अर्थक्या है
🅰️कर्म से मुक्त हुए और अन्य को कर्मो से मुक्त कराने वाले
1️⃣0️⃣बोहयाणं का अर्थ
🅰️ भगवानअन्य जीवों को तत्व ज्ञाता बनाते हैं
*2:1:21*
*अध्याय*
मुत्ताणं मोअगाणं- आगे
गतांक में हमने जैसे देखा, उस तरह दोषों का सर्वथा नाश होने से प्रभु को जाज्वल्यमान केवलज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है। उसके कारण चराचर जगत का उनको बोध होता है। उस रुप से बुद्ध अवस्था प्रभु को प्राप्त होती है।
और साथ मे प्रकृष्ठ पुण्य के अनुभव स्वरूप तीर्थंकर नाम कर्म का उदय होता है।
जैसे -अणगार पुत्र श्री ऋषभदेव जी की विरह व्यथा में पुत्र शोक में अविश्रान्त बहते आंसू जल से मरु देवीमरु देवा के नयन पथ पर बादल छा गए थे ।एकदा केवल ज्ञानी श्री ऋषभ प्रभु के दर्शनार्थ भरत चक्री जी दादी माँ मरू देवा को गज अंबाडी पर बिठाकर ले गए समवसरण के निकट पहुंचते ही मैया ने प्रभु के अमृतमयी
देशना सुनी एवं दुदुंभी नाद भी सुना ।दिव्य वैभव के अनुभव से आनंदअश्रु ऐसे बहे की आंख के बादल दूर हो गए छत्र वृक्ष आदि प्रातिहार्य की शोभा देखकर सोचा ,कि अरे, अरे मोह की विव्हलता को धिक्कार हो। शुक्ल ध्यान में चढ़कर मरुदेवी मां अंतकृत केवल ज्ञानी बन गई इधर केवल ज्ञान पाया और उधर आयुष्य पूर्ण हो गया। इस अवसर्पिणी में भरत क्षेत्र में सबसे प्रथम मरू देवा माता मोक्ष पधारी मुक्त बनी सिद्ध बनी।
यहां जिक्र आया अंत कृत केवली तो मन में विचार आया केवली भी अलग-अलग होते हैं क्या आइए इस प्रश्न का उत्तर खोजें
केवली ——- जो तीन काल व तीन लोक की समस्त पर्यायो व पदार्थो को युगपत ( एकसाथ ) जानते है वह केवली कहलाते हैकेवली से पहले केवल ज्ञान को जाने
केवलज्ञान के दो भेद। कहीं कहीं तीन भेद. दोनो मे ही तीनों भेद आ जाते है.
दो भेद
1 भवस्थ, 2अभवस्थ।
भवस्थ केवलज्ञान -सशरीरी को होने वाला केवलज्ञान भवस्थ केवलज्ञान
भवस्थ केवलज्ञान के दो भेद,
1, सयोगी, 2अयोगी
13 वे गुणस्थान वर्ती सयोगी केवली,
14 वे गुणस्थान वर्ती अयोगी केवली।
2अभवस्थ -सिद्ध आत्मा के केवलज्ञान को अभवस्थ केवलज्ञान कहते है।
औरअब
केवली 7 प्रकार के होते है उन्हें जाने सामान्य तय केवली दो प्रकार के होते है -तीर्थंकर केवली और सामान्य केवली बाकी सारे सामान्य केवली के अंतर्गत आते हैं
*1—तीर्थंकर केवली* —– जिनके पंचकल्याणक होते है व तीर्थंकर प्रकृति का उदय होता है व जिनका समवशरण लगता है वह तीर्थंकर केवली कहलाते
*2—–सामान्य केवली* —– कोई विशेषता न होने पर , सामान्य मनुष्य संयम धारण करके 4 घातिया कर्मो का नाश करता उन्हे सामान्य केवली कहते या यू भी कह सकते जिनके पंचकल्याणक नही होता , समवशरण नही लगता वह सामान्य केवली है
*3—-अंत:कृत केवली* —–जो जीव संयम धारण करके 48मिन्ट यानि अन्तरमूहूर्त मे केवलज्ञान प्राप्त कर लेते वे अन्त:कृत केवली
जैसे मरु देवी जी
*4—उपसर्ग केवली*—- संयम धारण करने पर उपसर्ग होने के बाद जिनको केवलज्ञान की प्राप्ति होती उन्हे उपसर्ग केवली कहते जैसे गजकुमार मुनि पर हुआ व कुलभूषण व देशभूषण मुनि
विशेष —–कभी भी उपसर्ग केवल ज्ञान होने के बाद नही होता
केवलज्ञान होने से पहले ही उपसर्ग होता है
*5—-मूक केवली* —–जिनकी वाणी केवलज्ञान होने के बाद भी नही खिरती उन्हे मूक केवली कहते है
जैसे भरत चक्रवर्ती के 923 पुत्र मूक केवली हुऐ
*6—समुदघात केवली* —-जिन केवली का आयु कर्म पूरा होने मे तो थोडा समय शेष रहता लेकिन अन्य कर्म नाम , गोत्र व वेदनीय ये कर्म बाकी रह गऐ तब उन को समाव करने के लिऐ आत्मा के प्रदेश फैलते है उन्हे समुदघात केवली कहते है
*7—अनुबद्ध केवली* —–एक केवली को मोक्ष हो जाने के पश्चात तुरत ही दूसरे को केवलज्ञान हो जाना , उनके बीच कोई अंतर नहीे रह जाना उन्हे अनुबद्ध केवली कहते है जैसे महावीर स्वामी के पश्चात गौतम स्वामी को हुआ
ये अनुबद्ध केवली कहलाऐ
*2:1:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣कौनसे पुण्य के अनुभव स्वरूप तीर्थंकर नाम कर्म का उदय होता है।
🅰️प्रकृष्ठ
2️⃣जिनके पंचकल्याणक नही होता , समवशरण नही लगता वह कौन से केवली होते हैं
🅰️सामान्य केवली
3️⃣माँ मरू देवा किसकी दादी जी थी
🅰️भरत चक्रवर्ती जी की
4️⃣उपसर्ग केवली किन्ही दो के नाम लिखे*
🅰️गजसुकुमाल जी,कुल भूषण,देशभूषण जी
5️⃣केवलज्ञान के दो भेद कौन से हैं
🅰️भवस्थ,अभवस्थ
6️⃣मूक केवली कौन हुये
🅰️भरत चक्रवर्ती के 923पुत्र
7️⃣अनुबद्ध केवली कौन हुए
🅰️गौतम स्वामी
8️⃣2अभवस्थ केवल ज्ञान किसे कहते हैं
🅰️सिध्द आत्मा के केवलज्ञान को
9️⃣14 वे गुणस्थान वर्ती कौन सा केवल ज्ञान होता है
🅰️अयोगी केवली
1️⃣0️⃣मरुदेवी मां कौन सी केवल ज्ञानी बनी
🅰️अंतकृत केवलज्ञानी
*इस no पर भेजे* ⤵️
*4:1:21*
*अध्याय*
*सव्वन्नुणं सव्व दरिसीणं*-
सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं' अर्थात् समस्त पदार्थों को जाने, वह सर्वज्ञ और सब को देखे, वह सर्वदर्शी है। ऐसे सर्वज्ञाता सर्वदृष्टा भगवान् को नमस्कार हो। आत्मा का स्वभाव स्वयं जानना और देखना है, परंतु कर्म रूपी आवरण से वह अपने स्वभाव का उपयोग नहीं कर सकता है, जब कर्म-आवरण हट जाता है, तब ज्ञान-दर्शन-रूप स्व-स्वभाव से आत्मा सर्व पदार्थों को जानता देखता है। कहा भी है कि आत्मा स्वयं स्वभावतः निर्मल चंद्र-समान है, चंद्रकिरणों के समान आत्मा का ज्ञान है। चंद्र पर जैसे बादल के आवरण आ जाते हैं, वैसे ही जीव पर कर्म रूपी बादल छा जाते हैं।
सर्व को जानना- अर्थात
साकार उपयोग -मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इनके द्वारा अपने-अपने विषय का अंतर्मुहूर्तकाल पर्यन्त जो विशेष ज्ञान होता है उसको ही साकार उपयोग कहते हैं।
वो सर्वज्ञ और सर्व का दर्शन जानना अर्थात
निराकार उपयोग -क्या है जानते है
दर्शनोंपयोग; जिसमें आकार रहित पदार्थ का सामान्य
आभास होता है | अर्थात् निश्चयरहित ज्ञान का
नाम निराकार उपयोग है |
भगवान जगतवर्ती सर्व पदार्थ को जानते है और देखते हैं।
हमारी सामान्य मान्यता प्रायः ये होती है के सिद्धिगति को प्राप्त करने पर ये ज्ञानवस्था नहीं होती होगी, परंतु ये सत्य नहीं।
ये ज्ञानदर्शन के महान गुण शाश्वत है, मोक्ष में प्रवेश के बाद भी साथ ही रहने वाले हैं।
*सिव-मयल- मरुअ- मणंत-मक्खय- मव्वाबाह- मपुणरावित्ति- सिद्धिगइ-नामधेयं-ठाणं- संपत्ताणं -*-
आइए सब के अर्थ को जानने का प्रयास करते है
निम्न विशेषण शिव गति/ मोक्ष स्थान के हैं।
शिवम- विघ्न उपद्रव से रहित(ऐसी शिवगति)कल्याण कारक
*अयलम*- अचल स्थिर जिसमें स्वाभाविक या प्रायोगिक किसी भी प्रकार की चलन क्रिया नहीं है।( ऐसा मोक्ष स्थान)
*अरूअम*- मोक्ष में तन और मन का अभाव होने से व्याधि वेदना से रहित व्याधि का मूल काया और वेदना का मूल है मन।
*अणंतम- जिसका कभी अंत ना हो।अंत रहित किसी भी काल में उनका अंत नहीं होता *अक्खयम*- अक्षय कभी क्षय नहीं होगा।
*अव्वाबाह* -अव्याबाध पीड़ा रहित कर्म जन्य पीड़ा से रहित। *अपुनरावृति* -पुनरावृति जहां गए हैं वहां से लौटेंगे नहीं संसार भ्रमण के बीज रूप कर्मों का अभाव हो जाने से वह पुनर्जन्म नहीं लेंगे।
*सिद्धिगइ-नामधेयं*- शिव अचल आदि विशेषण वाली सिद्ध गति में पहुंचने के बाद आत्मा के सारे प्रयोजन समाप्त हो चुके हैं कार्य सिद्ध हो चुका है। 14 राजलोक-- समस्त विश्व ब्रह्मांड के ऊपर के भाग को सिद्धगति / पंचम गति /मोक्ष कहते हैं मुक्त आत्माओं का वहां गमन होता है अतः उसे गति कहते हैं अर्थात सिद्ध गति
*ठाणं- संपत्ताणं* का अर्थ
स्थान को प्राप्त होना
मनुष्य लोक के नर्तन को छोड़कर अरिहंत प्रभु सिद्ध गती में जाकर मूल स्वरूप में सदैव के लिए स्थिर हो गए हैं
शिव-अचल-अरूज़-अनंत-
अक्षय-अव्याबाध और जहां से पुनरागमन न करना पड़े ऐसी
सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त किया हो, ऐसे परमात्मा
को मेरा नमस्कार हो
*प्रश्न केउत्तर*
*4:1:21*
1️⃣मोक्ष में किसका का अभाव हैं।
🅰️तन और मन।
2️⃣ठाणं- संपत्ताणं* का अर्थ क्या है
🅰️ स्थान को प्राप्त होना।
3️⃣शिवम का अर्थ
🅰️विघ्न उपद्रव से रहित।(ऐसी शिवगति)
4️⃣आत्मा स्वयं स्वभावतःकिसके सामान हैं
🅰️निर्मल चन्द्र के समान।
5️⃣शिव अचल आदि विशेषण वाली कौन सी गति हैं
🅰️सिद्धगति।
6️⃣अव्वाबाह का अर्थ क्या है
🅰️अव्याबाध पीड़ा रहित कर्म जन्य पीड़ा से रहित।
7️⃣आत्मा का स्वभाव क्या है
🅰️स्वंय को जानना और देखना है।
8️⃣अणंतम का अर्थ क्या है
🅰️ जिसका कभी अंत न हो।
9️⃣वेदना का मूल क्या है
🅰️मन।
1️⃣0️⃣अचल स्थिर स्थान कौन सा है।
🅰️मोक्ष स्थान।
*इस no पर भेजे* ⤵️
5 :1:21
सिव-मयल- मरुअ- मणंत-मक्खय- मव्वाबाह- मपुणरावित्ति- सिद्धिगइ-नामधेयं-ठाणं- संपत्ताणं
अब यह अरिहंत भगवंतों का जो सदाकाल के लिए स्थान है, वो कैसा है ये बतलाते हैं।
अरिहंत परमात्मा सर्व कर्मों का क्षय कर के जो स्थान में जाते हैं वह स्थान को सिद्धि गति कहा जाता है।
व्यवहारनय की दृष्टि से अरिहंत भगवान तो सिद्ध होने के बाद सिद्धशिला पर रहते हैं। और निश्चयनय (समभीरूढनय) की दृष्टि से सिद्ध आत्माऐं अ पने आत्मा में ही रहते हैं। यानी कि वह स्वगुण में आनंद प्राप्त करते हैं।
अभी नय का विवरण आया
तो जैनधर्म में नय का बहुत महत्व है,स्याद्वाद का आधार है
जिसे समझे बिना हम अध्यात्म का रहस्य नहीं समझ पाते, ऐसे नयों का वर्णन इस अध्याय में है।आइये नय वाद को समझे इस से पहले हम
अन्य कौन कौन से विशेष वाद को समझे
*एकांत वाद*- वस्तु के किसी एक ही गुण को उसका संपूर्ण स्वरूप मानने वाला सिद्धांत है। जैसे बौद्ध दर्शन क्षणिकता ही एक मात्र सत्य है ये क्षणिक एकांत बाद है, इसलिए बौद्ध दर्शन क्षणिक एकांतवाद कहलाता हैं।
*अद्वैत वेदांत* - वे ब्रह्म ही को एकमात्र सत्य है कहते है ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है जग मिथ्या है
ये ब्रह्म एकांतवाद है। वह जग को एक छलावा मानता है जैसे रस्सी को हम सांप समझ लेते हैं, तो सांप छलावा है रस्सी सत्य है वैसे ही व्यक्ति जग छलावा है रस्सी की भांति, और हम इसे सत्य समझ बैठे हैं सत्य तो सिर्फ और सिर्फ ब्रह्मा है
*बहुतत्ववाद*- संसार में मूल तत्व की संख्या अनेक मानने वाला सिद्धांत ।जैसे अद्वैत वाद केवल ब्रह्म को ही सत्य समझते हैं पर यहां अनेक सत्य हैं।
*वस्तु वाद-(वास्तविक वाद)* ज्ञाता से पृथक वस्तुओं की सत्ता को मानने वाला सिद्धांत। संसार मेंजो वस्तुएं है जो हमारे ज्ञान के भी परे है
ज्ञान प्राप्त करते हैंबस वही वस्तु नही वह हमारे ज्ञान के अधीन नहीं है कि किसी वस्तु का अस्तित्व तभी होगा जब हम उसका ज्ञान प्राप्त करें। उसको हम देखें हमें अगर किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त नहीं भी होता है तब भी उस वस्तु का अस्तित्व है ।
*सापेक्षता वाद*- हमारा ज्ञान वस्तु के गुण और स्वरूप के सापेक्ष होता है जो स्थान समय और परिस्थितियों आदि पर निर्भर करता है
यह स्थान और समय पर आश्रित है इसलिए जिस वस्तु का ज्ञान हम अभी कर रहे हैं वह परिवर्तन भी हो सकता है जैसे चाय अभी गर्म है पर कालांतर में वह ठंडी हो जाएगी ऐसे ही ज्ञान को सापेक्षवाद कहते हैं। यह वस्तु के गुणों के अनुरूप को ज्ञान कहते हैं
अब हम जैन तत्वमीमांसा पढ़ रहे है जैन नय वाद को जाने
*नयवाद* ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं।अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। अथवा अनन्त धर्मात्मक पदार्थ के किसी एक धर्म को मुख्य और अन्य धर्मों को गौण करने वाले विचार को नय कहते हैं।
*शब्द नय* कहते है-
लिंग, संख्या, साधना आदि के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला नय शब्दनय है।
जीवादि तत्वों का ज्ञान— प्रमाणनयैरधिगम:। जीवादि तत्वों का ज्ञान प्रमाण और नयों से होता है।
जो पदार्थ के सर्वदेश को ग्रहण करे उसे प्रमाण कहते हैं ।दूसरे शब्दों मेंसम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।प्रमाण का संधि विच्छेद करें तो
प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआ– ज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है।
प्रमाण के २ भेद हैं — (१) प्रत्यक्ष प्रमाण (२) परोक्ष प्रमाण।
हम पदार्थ को या तो साक्षात् देखते हैं या किसी माध्यम से । अर्थात् जानने की दो पद्धतियाँ होती हैं ।
आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं।
हर ज्ञान प्रमाण नहीं होगा। लेकिन प्रमाण ज्ञान ही होगा।
जैन परंपरा ज्ञान को ही प्रमाण मानती है।ज्ञान को प्रमाण किस आधार पर कहा गया? और प्रमाण के विभाग कैसे किये गये? - आचार्य महाप्रज्ञ का उत्तर- "ज्ञान केवल आत्म का विकास है। प्रमाण पदार्थ के प्रति ज्ञान का सही व्यापार है। ज्ञान आत्मनिष्ठ है। प्रमाण का संबंध अंतर्जगत् और बहिर्जगत् दोनों से है। बहिर्जगत् की यथार्थ घटनाओं को जब अंतर्जगत् तक पहुँचाए यही प्रमाण का जीवन है
*6:1:21*
*अध्याय*
*नय*
प्रत्येकवस्तुके अनंत धर्मात्मक है अनंत धर्मों का अखंड पिंड ही वस्तु कहलाती है। इन अनंत गुणों में से किसी एक गुण को प्रधान करके और शेष धर्मों की और उदासीन भाव रखकर जानना नय कहलाता है। नय प्रमाण का एक अंश है
सरल भाषा में
श्रुत ज्ञान के अंश को नय कहते है।नय वस्तु के एक अंश को बताता है सम्पूर्ण वस्तु को नहीं बताता।
आत्मा को समझने का साधन नय हैं।वस्तु, नय नहीं है वस्तु को समझाना नय है।
नय कथन मेंहैं, वस्तु के ज्ञान में नय लगता हैं
क्रिया में भी नय नहीं है जैसे पूजा पाठ सामयिक नय नही है। हां ये कहो के पूजा पाठ मोक्ष का मार्ग है, यह व्यवहार नय बन जाता है। मतलब कथन से नय बनता है
आध्यात्म की दृष्टि सेनय के दो भेद हैं
*निश्चय नय* - वस्तु जैसी है वैसी समझना, जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी का घड़ा कहना,यथार्थ का निरूपण करना।
*व्यवहार नय* जो वस्तु जैसी नही हैं वैसी कहना संयोग के हिसाब से निमित्त के हिसाब से कहना
संबंध मे कोई दूर के रिश्ते में जैसे चाचा होना।उनको चाचा कह
देना किसी अंजानयुवक को भाई, कह देना बुजुर्ग को दादा
वह रियल चाचा, भाई दादा नहीं है, पर व्यवहार से बोल देते हैं यह औपचारिक रूप से सही है , पर यथार्थ रूप में नहीं जैसे - कोई मिट्टी का घड़ा हो उसमें सोना डाल दें और कहें सोने वाला घड़ा ला दो। तो व्यवहार में तो ठीक है पर वैसे असत्य है पूर्ण सत्य नहीं है।
इसे व्यवहार नय कहते है
संक्षेप में नय वाद की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों के वास्तविक अविरोध के मूल को खोज करने वाला और खोज करके उन विचारों का समन्वय करने वाला शास्त्र नय वाद कहलाता है ।उदाहरण आत्मा के विषय में ही परस्पर विरोधी मंतव्य मिलते हैं कहीं आत्मा एक है ऐसा कथन है, तो दूसरी जगह आत्मा अनेक है, ऐसा कथन मिलता है आत्मा की यह एकता और अनेकता आपस में विरोधी प्रतीत होती है, ऐसी स्थिति में नयवाद ने खोज की कि यह विरोध वास्तविक नहीं है अगर यह वास्तविक नहीं है तो इसकी संगति किस प्रकार से हो सकती है नयवाद ने इसका समाधान इस प्रकार किया कि व्यक्तियों की दृष्टि से आत्मा अनेक हैं, किंतु शुद्ध चैतन्य की अपेक्षासे एक है, इस प्रकार समन्वय करके नयवाद परस्पर विरोधी दिखाई देने वाक्यों या विचारों को अविरोध सिद्ध करता है इस प्रकार आत्मा की नित्यताऔरअनित्यता
कर्तापन और अकर्तापन आदि के मंतव्यों का अविरोध भी नयवाद घटाता है, इस प्रकार के अविरोध का मूल विचारक की दृष्टि तात्पर्य में रहता है इस दृष्टि को प्रस्तुतशास्त्र में अपेक्षा कहा जाता है। और नयवाद अपेक्षावाद भी कहलाता है
नय के 7 भेद हैं- नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय तथा एवंभूतनय।
1. *नैगमनय*
अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगमनय है। जैसे-रसोई घर में अग्नि जलाते समय कहना मैं भोजन बना रहा हूँ।
दूसरा उदाहरण-जैसे सब्जी सुधारती किसी महिला से कोई पूछे कि तुम क्या कर रही हो ? वह कहती है — सब्जी बना रही हूँ । यद्यपि उस समय वह सब्जी बना नहीं रही है मात्र सब्जी बनाने का संकल्प होने से नैगमनय इसे सत्य स्वीकारता है।इसके तीन भेद हैं।
*1भूत नैगमनय* - जहाँ पर भूतकाल का वर्तमान में आरोपण किया जाता है, उसे भूत नैगमनय कहते हैं जैसे-आज मुकुट सप्तमी को तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ मोक्ष गए।
*2भावी नैगमनय* - जहाँ पर वर्तमानकाल में भविष्य का आरोपण किया जाता है, वह भावी नैगमनय है। जैसे-अरिहंत भगवान् को सिद्ध कहना, राजकुमार को राजा कहना एवं ब्रह्मचारी जी को मुनि कहना।
*3वर्तमान नैगमनय* - जो कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है, परन्तु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है। कुछ निष्पन्न है, कुछ अनिष्पन्न है उस कार्य को हो गया ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है। जैसे -1. टेलर ने कपड़ा काटा थोड़ा सिला, कह दिया पूरा सिल गया है। 2. अधपके चावल को चावल पक गया ऐसा कहना।
2 *संग्रहनय* किसे कहते हैं ?
भेद सहित समस्त पर्यायों को अपनी जाति के अवरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करना संग्रहनय है।
जो नय अपनी जाति का विरोध नहीं करके एकपने से समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं। जैसे-द्रव्य कहने से समस्त द्रव्य, जीव कहने से समस्त जीव, मुनि कहने से समस्त मुनि और व्यापारी कहने से समस्त व्यापारी।
यहां संग्रह नय विशेष को स्वीकार नहीं करता यह नय भी त्रिकाल- विषयक और नैगमनय की भांति ही चारों निक्षेपों को स्वीकार करता है।
आगे कल
*प्रश्न के उत्तर*
*6:1:21*
1️⃣जाति का विरोध नहीं करके एकपने से समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है वो कौन सा नय है
🅰️संग्रह नय
2️⃣व्यवहार नय किसे कहते है
🅰️जो वस्तु जैसी हो उस वस्तु को वैसी कहना संयोग निमित्त के के हिसाब से कहना
3️⃣आध्यात्म की दृष्टि सेनय केकितने भेद हैं और कौन कौन से
🅰️2भेद निश्चय नय व्यवहार नय
4️⃣अरिहंत भगवान् को सिद्ध कहना,कौन सा नैगमनयहै
🅰️भावी नैगम नय
5️⃣विचारों का समन्वय करने वाला कौन सा वाद हैं
🅰️शास्त्र नयवाद
6️⃣वस्तु क्याकहलाती है
🅰️अखंड पिंड
7️⃣ किन मंतव्यों का अविरोध भी नयवाद घटाता है,
🅰️नित्यता अनित्यता,कर्ता पन अकर्ता पन
8️⃣यथार्थ का निरूपण करना कौन सा नय है
🅰️निश्चय नय
9️⃣किस केअंश को नय कहते
🅰️श्रुत ज्ञान के
1️⃣0️⃣नय कितने प्रकार का होता है किन्ही दो के नाम लिखें
🅰️7प्रकार के नैगम नय संग्रह नय
*7:1:21*
*अध्याय*
*नय आगे देखें*⤵️
*3 व्यवहारनय*
संग्रहनय के द्वाराग्रहण किए हुए पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है।
संग्रहनय जहाँ समूह को एकपने से स्वीकार करता हैं वही व्यवहार नय पृथक2 स्वीकार करता है,
संग्रहनय समस्त द्रव्य को द्रव्य मानता है वहीं व्यवहार नय
-द्रव्य के छ: भेद करता है।जैसे जीव के संसारी-मुक्त दो भेद करना।।
सामान्य को विशेष रूप से ग्रहण करना व्यवहार नय है। व्यवहार नय वस्तु के बाह्यः स्वरूप के गुणों को वस्तु मानताहै, और सिर्फ विशेषों को ही स्वीकार करता हैं। उदाहरणार्थ- जीवत्व सामान्य को स्वीकार करके संग्रहनय ने एक जीव माना था व्यवहार नय मानता है कि जो जीव है वह या तो संसारी है या मुक्त हैं ।इनमें भी संग्रहनय सब संसारी जीवो को एक मानता है, व्यवहारनय उसमें भी भेद करता है, कि जो संसारी जीव है वह या तो त्रस है या स्थावर है. इस प्रकार विधि पूर्वक भेद करना व्यवहार नय है ।,व्यवहार का कथन है कि कोयल काली है तो और हंस सफेद है( जबकि निश्चयनय इन प्रत्येक में पांचों रंग मानता है) यह नय भी तीनों कालों को शिकार करता है और चारों निक्षेपों को मानता है
निक्षेप का अर्थ है- प्रस्तुत अर्थ का बोध देने वाली शब्द संरचना।
निक्षेप का कार्य है भाव और भाषा में सम्बन्ध बैठाना।
ज्ञाता का हृदयगत अभिप्राय नय है, जानने के उपायों को निक्षेप कहते हैं। नय को जानने के लिये प्रमाण और निक्षेप जानना बहुत आवश्यक है।
निक्षेप के चार प्रकार हैं -
१/.नाम
२/. स्थापना
३/. द्रव्य
४/. भाव
*1) नाम निक्षेप*- शब्द की मूल अपेक्षा किये बिना ही किसी वस्तु का इच्छानुसार नाम करण करना नाम निक्षेप है । इसमें जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया, लक्षण आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं की जाती, जैसे- किसी अनक्षर व्यक्ति का नाम 'उपाध्याय' रखना।
*2 स्थापना निक्षेप*- मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी के अभिप्राय से स्थापित करना जैसे- किसी प्रतिमा में उपाध्याय की स्थापना करना ।
जो अर्थ तद्रूप ( समान रूप का ; वैसा ही।)नहीं है, उसे तद्रूप मान लेना स्थापना निक्षेप है। (किसी प्रतिमा में उपाध्याय की स्थापना करना) यह दो प्रकार से होती है।⤵️
*१. सद्भाव का अर्थ*-किसी के हित, मंगल या सद्भाव की भावना या उसे प्रकट करने की स्थिति और दूसरे अर्थ में
तदाकार स्थापना- का अर्थ उसी के आकार का।
व्यक्ति अपने गुरू के चित्र को गुरू मानता है।
२. असद्भाव (अतदाकार स्थापना)- एक व्यक्ति ने शंख में अपने गुरू का आरोप कर दिया।
उपरोक्त दोनों में अभेद-
नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थशून्य होते हैं।
उपरोक्त दोनों में भेद-
क) नाम यावत्कथित अर्थात् जीवनपर्यन्त रहता है जबकि स्थापना यावत्कथित भी हो सकती है और अल्पकालिक भी।
ख) नाम मात्र के धारक महावीर को देखकर लोग नतमस्तक नहीं होते, लौकिक स्थापना में होते हैं।
*द्रव्य निक्षेप* द्रव्य निक्षेप व्यक्ति अथवा वस्तु की अतीत और अनागतकालीन पर्यायों को ग्रहण करता है।
भूत और भावी अवस्था के कारण व्यक्ति या वस्तु की उस अभिप्राय से पहचान करना द्रव्य निक्षेप है, जैसे - जो व्यक्ति पहले उपाध्याय रह चुका अथवा भविष्य में उपाध्याय बनने वाला है, उस व्यक्ति को वर्तमान में उपाध्याय कहना।
*भाव निक्षेप*
जिस व्यक्ति या वस्तु का जो स्वरूप है,वर्तमान में वह उसी स्वरूप को प्राप्त है, अर्थात् उसी पर्याय में परिणत है, वह भाव निक्षेप है। इसमें किसी प्रकार का उपचार नहीं होता । इसीलिए वह वास्तविक निक्षेप है; जबकि द्रव्य निक्षेप में पूर्वोत्तर दशा होती है। स्वर्ग में देवों को देव कहना यह वास्तविक निक्षेप है। जैसे- अध्यापन की क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को ही अध्यापक कहना।
अध्यापक की भाँति ही अर्हत् शब्द के भी निक्षेप किये जा सकते
A) आगमत: भाव निक्षेप :- (ज्ञान + उपयोग दोनों) उपाध्याय का अर्थ जानने वाला तथा उस अनुभव में परिणत व्यक्ति को आगमत: भाव उपाध्याय कहते हैं। उपाध्याय शब्द के अर्थ में उपयुक्त आगमत: भाव निक्षेप।
B) नो आगमत: भाव निक्षेप:- उपाध्याय के अर्थ को जानने वाला तथा अध्यापन क्रिया (ज्ञान + क्रिया दोनों) में प्रवृत्त भाव निक्षेप (भाव उपाध्याय) नो आगमत: भाव निक्षेप कहा जाता है।
चारों को एक उदाहरण से समझे⤵️
1. नाम अर्हत्- अर्हत् कुमार नाम का व्यक्ति।
2. स्थापना अर्हत्- अर्हत् की प्रतिमा ।
3. द्रव्य अर्हत्- जो अतीत में तीर्थंकर हो चुके तथा भविष्य में होने वाले हैं।
4. भाव अर्हत्- जो केवलज्ञान उपलब्ध कर चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर।
**प्रश्नके उत्तर*
*7:1:21*
1️⃣शंख में अपने गुरू का आरोप करना कौन सी स्थापना है
🅰️ *असद्भाव*
2️⃣तदाकार स्थापना- का अर्थ क्या है
🅰️ *उसी के आकार का*
3️⃣निक्षेप का कार्य क्याहै
🅰️ *भाव और भाषा मे सम्बंध बैठाना*
4️⃣किसी अनक्षर व्यक्ति का नाम 'उपाध्याय' रखना कौनसा निक्षेप है
🅰️ *नाम निक्षेप*
5️⃣स्वर्ग में देवों को देव कहना यह कौन सा निक्षेप है।
🅰️ *वास्तविक निक्षेप*
6️⃣सामान्य को विशेष रूप से ग्रहण करना क्या है
🅰️ *व्यवहार नय*
7️⃣निक्षेप का अर्थ क्या है
🅰️ *प्रस्तुत अर्थ का बोध देनेवाली शब्द संरचना*
8️⃣व्यवहार नय वस्तु के किन गुणों को वस्तु मानताहै
🅰️ *संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये पदार्थों का विधीपूर्वक भेद करना*
9️⃣निक्षेप के कितने प्रकार हैं -किन्हीं दो के नाम लिखें
🅰️ *चार प्रकार के नाम, और स्थापना*
1️⃣0️⃣नाम और स्थापना दोनों वास्तविक में क्या होते हैं
🅰️ *वास्तविक अर्थ शुन्य होते हैं*
*इस no पर भेजे* ⤵️
*8:1:21*
*अध्याय*
*नय गतांक सेआगे*
*4ऋजुसूत्रनय*
वर्तमानकाल को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्रनय है। तात्पर्य यह है कि जो दृष्टिकोण भूतकाल और भविष्य काल की उपेक्षा करके वर्तमान कालीन पदार्थों की पर्याय मात्र को ही वस्तु मानता है वह ऋजु सूत्र नय कहलाता है। इस नय के अभिप्राय को समस्त पदार्थ क्षण में नश्वर है कोई स्थाई रूप से रहने वाला नहीं है। यह नय चार निक्षेपों में से केवल भाव निक्षेप को ही स्वीकार करता है। दृष्टांत एक सेठ श्रावक सामायिक में बैठे थे, उस समय कोई उन्हें बुलाने आया सेठ की पुत्रवधू घर पर ही थी, वह बड़ी चतुर और बुद्धिमती थी। जब आने वाले ने पूछा क्या सेठ जी घर पर है तो बहू ने उत्तर दिया सेठ जी जूता खरीदने चमार के घर गए हैं। वह आगंतुक चमार के घर पहुंचा सेठ जी वहां नहीं मिले तो लौटकर फिर उसने पूछा सेठ जी चमार की दुकान पर नहीं है। क्या लौट आए हैं? तब बहू ने कहा पंसारी की दुकान पर सोंठ लेने गए हैं, वह बेचारा पंसारी की दुकान पर पहुंचा देखा वहां भीसेठ जी नहीं मिले, तब घबरा कर कहने लगा बहिन- क्यों चक्कर कटवा रही हो, ठीक- ठीक बताओ ना सेठ जी कहां है ?इतने में सेठ जी की सामायिक पूरी हो गई सामायिक पार कर सेठ जी बाहर निकले और बहू पर नाराज होकर कहने लगे तुम इतनी चतुर हो,और फिर झूठ क्यों बोली तब बहू ने विनय पूर्वक कहा क्या सामायिक में बैठे-बैठे आपका विचार चमार और पंसारी की दुकान पर नहीं गया था बहू का यह उत्तर सुनकर सेठ जी चकित रह गए उन्होंने कहा हां मन गया तो था, सही पर तुझे कैसे मालूम पड़ा बहू ने कहा आपकी अंग चेष्टाओं से उनसे मैंने अनुमान किया (किसी किसी का कहना है कि बहू को विशिष्ट ज्ञान था) इस दृष्टांत का अर्थ यही है कि जैसे बहू ने सेठ जी के वर्तमान कालिन विचार को सेठ को समझाया इसी प्रकार जो नय वर्तमान कालीन पर्याय कोई वस्तु समझता है वह ऋजु सूत्रनय है ।
और ये सिद्ध करता है कि2
ऋजु सूत्र नय सिर्फ भाव निक्षेप को ही स्वीकारता है।
आप पूजा कऱे और मन इधर उधर भटके उसे ये स्वीकार नहीं जैसे कबीर दास जी ने कहा⤵️
*माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं*।
*मनुवा तो चहुँदिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं*।।
कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है पर उसका मन दसों दिशाओं में भागता है। यह कोई भक्ति नहीं है।
जैसे- जो पुरुष विवश औरपराधीन होने के कारण वस्त्र गंध आभूषण स्त्री और सैयां आदि का उपयोग नहीं करसकता हैं परंतु जिनमें वो की आकांक्षा बनी हुई है। वह त्यागी नहीं कहलाते।
जो पुरुष कमनियां और प्रिय भागों के प्राप्त होने पर भी उनसे विमुख हो जाता है ,और अपनी इच्छा से उन भोगों का परित्याग करता है, वह त्यागी कहलाता है यह कथन ऋजु सूत्र नय की अपेक्षा से जानना चाहिए
इसके दो भेद हैं *1सूक्ष्मऋचुसूत्रनय*-जो नय एकसमयवर्ती पर्याय को विषय
करता है, वह सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है। जैसे-सर्व क्षणिक है ।
*2स्थूलऋजुसूत्रनय* - जो नय अनेक समयवर्ती स्थूल पर्याय को विषय करता है, वह स्थूलऋजुसूत्रनय है। जैसे- मनुष्य आदि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती हैं।
*5शब्दनय*
संख्या, लिंग,कारक आदि के दोष को दूर करके शब्द के द्वारा पदार्थ को ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे - आम्रा वन:, आमों के वृक्ष वन हैं। यहाँ आम्र शब्द बहुबचनांत है और वन शब्द एकवचनांत है। यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं। तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय नहीं मानता है।
पर्यायवाची सभी शब्दों का एक ही अर्थ ग्रहण करता है, वह शब्दनय है ।जैसेइन्द्र के अनेक नाम है इंद्र शक्ति पुरंदर देवराज आदि इन सब शब्दों में अर्थ की जो विशेषता है उसकी उपेक्षा करके सबको एकार्थक मानना ही शब्दनय का अभिप्राय है
जैसे निग्रन्थ, श्रमण, मुनि आदि ।
*प्रश्न के उत्तर*
*8:1:21*
1️⃣इस नय के अभिप्राय को समस्त पदार्थ क्षण में --- है कोई ––---- से रहने वाला नहीं है।
🅰️ *नश्वर, स्थायी*
2️⃣अपनी इच्छा से उन भोगों का परित्याग करता है, वह क्या कहलाता है।
🅰️ *स्थायी त्यागी*
3️⃣पहली बार बहू ने क्या उत्तर दिया की सेठ जी कहाँ गए हैं
🅰️ *जुता खरीदने चामर के घर*
4️⃣कौन बड़ी चतुर और बुद्धिमती थी।
🅰️ *सेठ की पुत्रवधू*
5️⃣किसी किसी का कहना है कि बहू को कौन सा ज्ञान था
🅰️ *विशिष्ट*
6️⃣ऋजुसूत्रनय क्या है
🅰️ *वर्तमान कालीन पर्याय वस्तु समझता है*
7️⃣जिनमें भोग की आकांक्षा बनी हुई है वह क्या नहीं कहलाता
🅰️ *त्यागी*
8️⃣केवल भाव निक्षेप को ही कौनस्वीकार करता
🅰️ *ऋजुसूत्र नय*
9️⃣दूसरी बार सेठ जी भाव से कहाँ गए
🅰️ *पंसारी की दुकान पर सोंठ लेने*
1️⃣0️⃣हाथ में माला जीभ में राम नाम मन दस दिशाओं में फिरे(भागता) ये क्या नहीं है।
🅰️ *भक्ति*
*इस no पर भेजे* ⤵️
*9:1:21*
*अध्याय*
*नय गंताक से आगे*
*6समभिरूढ़नय*
यह शब्दनय से भी सूक्ष्म है शब्द नय अनेक पर्यायवाची शब्दों का अर्थ एक ही मानता है जबकि समभिरूढ़ नय पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थ में भी भेद स्वीकार करता है। इस नए के अभिप्राय से कोई भी दो शब्द एक अर्थ के वाचक नहीं होते
समभिरूढनय-वाचकभेद
से वाच्यार्थ(मुख्यार्थ) में भिन्नता मानने वाले अथवा शब्दभेद से अर्थभेद मानने वाले नय को समभिरूढ़नय कहते हैं। इसी का प्रकारान्तर(दूसरी तरह) से गाथा में संकेत किया है कि यदि शब्दभेद है तो अर्थ में भेद होना चाहिये, और यदि एक वस्तु में अन्य शब्द का आरोप किया जाये तो, वह अवस्तु रूप हो जाती है , इसका तात्पर्य यह हुआ कि शब्दनय लिंग और वचन की समानता होने से इन्द्रः शक्र: पुरन्दरः इन शब्दों का वाच्यार्थ एक मान लेता है किन्तु इस नय में प्रवृत्ति का निमित्त जब भिन्न-भिन्न है, तो मनुष्य आदि शब्दों की तरह इन शब्दों का वाच्यार्थ भी भिन्न-भिन्न है / क्योंकि व्युत्पत्ति(किसी शब्द की उत्पत्ति आदि का विवरण।)
की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इन्द्र, शकन- समर्थ होने से शक्र और पुरों नगरों का दारण-नाश(तोड़ने वाला) करने से पुरन्दर कहलाता है। किन्तु जो परम ऐश्वर्य पर्याय है, वही शकन या पुरदारण पर्याय नहीं है / इसलिये ये इन्द्रादि शब्द भिन्न-भिन्न अभिधेय
(नाम देने योग्य ,कथनीय।)
वाले हैं । यदि सभी पर्यायों को एक माना जाये तो सांकर्य दोष(मिश्रणदोष) होगा । इस नय के मत से इन्द्र शब्द से शक शब्द उतना ही भिन्न है, जितना घट से पट और अश्व से हस्ती।
*7. एवंभूतनय*-भूत शब्द यहां तुल्य का वाचक है,
अत: जिस शब्द का जो व्युत्पत्ति(शब्द का वह मूल रूप जिससे वह निकला या बना हो)
रूप अर्थ होता है, उसी के अनुसार अर्थक्रिया करने वाले पदार्थ को ही उस शब्द का वाच्य(वाणी या कथन,,),
मानने वाला नय एवंभूतनय कहलाता है। वस्तु का जैसा काम, जैसा परिणाम वैसा ही उसका नाम होना चाहिए, यह इस नय की मान्यता है।
तात्पर्य यह है कि एवंभूतनय पूर्ववत सभी नयों से सूक्ष्म है। इस नय के अभिप्राय से सभी शब्द क्रिया-शब्द हैं अर्थात् किसी न किसी क्रिया के ही बोधक होते हैं। अत: जो वस्तु जिस समय अपने नाम के अनुसार क्रियापरिणत हो, उसी समय उसको उस नाम से कहना चाहिए। अन्य समय में नहीं। जो व्यक्ति जिस समय भोजन पका रहा हो, उसी समय उसे पाचक कहा जा सकता है। जब वह पकाने की क्रिया न करके और क्रिया कर रहा हो तब उसे पाचक नहीं कहा जा सकता। जब देवराज ऐश्वर्य को भोग रहा हो तभी उसे इन्द्र कह सकते हैं, जब वह शत्रु के नगर का ध्वस कर रहा हो, तभी वह पुरन्दर कहला सकता है। यह नय वस्तु का जैसा उपयोग हो, उसी प्रकार उसे मानता है। असंख्यात प्रदेश युक्त धर्मास्तिकाय हो तो ही उसे धर्मास्तिकाय द्रव्य मानता है।
जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूतनय कहते हैं। यही आशय गाथोक्त पदों का है कि व्यंजन-शब्द से जो वस्तु का अभिधेय अर्थ होता है, उसको प्रकट किया जाये, उसे ही एवंभूतनय कहते हैं जैसे—जिस समय आज्ञा और ऐश्वर्यवान् हो, उस समय ही वह इन्द्र है, अन्य समयों में नहीं।
*समभिरूढ़नय से एवंभूतनय* में यह अन्तर है कि यद्यपि ये दोनों नय व्युत्पत्तिभेद से शब्द के अर्थ में भेद मानते हैं, परन्तु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है । परन्तु एवंभूतनय तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जबकि वस्तुतः क्रियापरिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो । सुनय और दुर्नय-पूर्वोक्त सात नयों में से यदि वे अन्य धर्मों का निषेध करके केवल अपने अभीष्ट एक धर्म का ही प्रतिपादन करते हैं, तब दुर्नय रूप हो जाते हैं / दुर्नय अर्थात् जो वस्तु के एक धर्म को सत्य मानकर अन्य धर्मों का निषेध करने वाला हो जैसे नैगमनय से नैयायिक-वैशेषिक दर्शन उत्पन्न हुए। अद्वैतवादी और सांख्य संग्रहनय को ही मानते हैं। चार्वाक व्यवहारनयवादी ही है। बौद्ध केवल ऋजुसूत्रनय का तथा वैयाकरणी शब्द आदि तीन नयों का ही अनुसरण करते हैं ।इस प्रकार ये सभी एकान्त पक्ष के आग्रही होने से दुर्नयवादी हैं। सात नयों का वर्गीकरण और
*प्रश्न के उत्तर*
*9:1:21*
1️⃣इन्द्र शब्द से शक शब्द उतना ही,कितना भिन्न है,
🅰️ जितना घट से पट और अश्व से हस्ती।
2️⃣एक वस्तु में अन्य शब्द का आरोप किया जाये तो, वह क्या होजाती है
🅰️वह अवस्तु रुप हो जाती है।
3️⃣शब्द क्रिया-शब्द हैं अर्थात् क्या
🅰️ किसी न किसी क्रिया के ही बोधक होते हैं।
4️⃣अद्वैतवादी और सांख्य कौन से नय को मानते हैं
🅰️ संग्रहनय
5️⃣चार्वाक कौन से नय वादी है।
🅰️ व्यवहारनयवादि
6️⃣कब इन्द्र पुरन्दर कहला सकता है।
🅰️ जब वह शत्रु के नगर का ध्वस कर रहा हो तभी वह पुर न्दर कहला सकता है
7️⃣एकान्त पक्ष के आग्रही होने से कौन से वादी हैं
🅰️ दुर्नयवादी हैं।
8️⃣समभिरूढ़नय किससे सूक्ष्म हैं
🅰️ शब्द नय से
9️⃣जो परम ऐश्वर्य पर्याय है, वह किसका पर्याय नहीं
🅰️ शकन या पुरदारण पर्याय नहीं है
1️⃣0️⃣कौनअनेक पर्यायवाची शब्दों का अर्थ एक ही मानता है
🅰️ शब्द नय
*इस no पर भेजे* ⤵️
*11:1:21*
*अध्याय*
*आओ नय को औऱ समझे शायद कुछ आसानी हो जाये*
लोग समझते हैं कि नय को समझना क्या जरूरी है? बहुत जरुरी है , जैन शास्त्रों को समझने के लिए नय बहुत जरूरी है।
मेरा आशय यह की कहने का ये सब कहते हैं जैन ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखे हैं। पर मैं तो कहूंगा कि एक और भाषा है, जिसमें शास्त्र ,लिखे गए हैं। वह है नय की भाषा।(यह भी तो एक नय है ,क्योंकि इसका भावार्थ अलग निकल रहा है)
इसीलिए जब तक आप नय को नहीं समझेंगे। आप शास्त्रों को नहीं समझ पाएंगे जैसे
एक मां का पुत्र रात्रिको सिनेमा का शो देख कर आया। मां ने गुस्से में कहा जा और देख ले वहीं बैठ जा
चला जा , पर पुत्र कहता हैं नहीं मां आगे से नहीं जाऊंगा। मां कह रही है चला जा और पुत्र कहता है नहीं जाऊंगा अब आप ही बताइए कौन से शब्दकोश में लिखा है की चला जा ,को नहीं जाऊंगा अर्थ होता है ।
ऐसे ही शास्त्रों के भाव होते हैं। कि की शास्त्रों में लिखा कुछ और होता है और भावार्थ कुछ और होता है। आप ऋषि मनीषियों ,शास्त्रोंकी बात तभी समझ पाएंगेजब नय समझेंगे
यह नहीं है की मनीषियों ने सही तथ्य नहीं दिए, या पूर्णता से शास्त्रों मेंनहीं समझाया हम अपने अभिप्राय से कुछ और समझ लेते हैं, क्योंकि हमें नय का पूर्ण ज्ञान नहीं है। जब तक हमें नय का ज्ञान नहीं होगा हम शास्त्र का मर्म नहीं समझ पाएंगे। नय के बिना आदमी दृष्टिहीन है। यह कहदे तोअतिशयोक्ति नहीं है ।नय देखने का दृष्टिकोण है ,नजरिया है कई बार हास्यास्पद बात भी होती है जैसे कपड़े छोटे हो गए। अब कपड़े छोटे हुए हैं या बच्चे बड़े हुए हैं, सच्चाई तो यह है कि कपड़े छोटे नहीं हुए। नय यह अपेक्षा को समझने का नजरिया है।इसलिए ये झूठ नहीं है ,जैसे हम ट्रेन में जाते हैं तो कहते हैं जोधपुर आ गया, जोधपुर तो वहीं था हम आ गए तो इस तरह से कथन कुछ और होते हैं आशय कुछ और।
जब आप भावार्थ समझेंगे अन्यथा शब्दों में उलझ के रह जाएंगेऔऱ यह यही समझाइश नय देता है
विवाद तब खड़े होते हैं जब अपेक्षा समझ नहीं आती अपेक्षा को समझो आचार्यों की। क्या कहना चाहते हैं वक्ता क्या कहना चाहता है ,अपेक्षा को पकड़ेंगे तो नय इतने कठिन नहीं लगेंगे नय की कई परिभाषाएं सामने आती है पर नय कीमूल बात एक ही है किप्रतिपक्ष धर्म का विरोध नहीं ।नयो का ज्ञान उलझने के लिए नहीं सुलझने ने के लिए
नय नहीं पढ़ेंगे तो सम्यक दर्शन की प्राप्ति भी नहीं होगी
कोई तुम्हें चोर कह दे बेईमान कह दे ।तो तुम नय दृष्टि से देखो यदि तुमने बेईमानी की है चोरी की है ,तो वह तो सही है फिर क्रोध क्यों ?और यदि तुमने नहीं की है तो भी तुम्हें क्रोध क्यों जब तुम हो ही नहीं तो ,उसके कहने से थोडे हो जाओगे ।और पर्याय नय के दृष्टिकोण से देखोगे तो यह बात शाश्वत नहीं है क्षणिकहैं, तो गुस्से की कोई सार्थकता नहीं ।
साधारण बातें तो जो रोज की बात होती है हम समझ जाते हैं हम उसका अर्थ निकाल लेते हैं पर कई कई बार शास्त्रों में लिखे देखो तो हम इतनी आसानी से नहीं समझ पाते और अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं जैसे एक उदाहरण⤵️
रामायण में आया एक प्रसंग हैं याद दिला रही हूं की अर्थ को अपने आशय से समझने से कितना अनर्थ हो जाता है समझिए⤵️
ये पशु वध से युक्त यज्ञ कहाँ से शुरु हुए ? ऐसा रावण के पूछने पर नारद ने कहा -पर्वतक ऋषि जो मेरे सहपाठी थे
एक बार
वह अपने शिष्यों को ऋग्वेद की व्याख्या करते हुए -अजैर्यष्टव्यम् -अजों के द्वारा यज्ञ करना चाहिए । यहाँ अज यानि बकरों से इस प्रकार कहने पर मैंने कहा - भाई ! यह तुम्हारी भ्रान्ति है । अज यानि नहीं उगनेवाले तीन वर्ष पुराने धान्य हैं । ऐसा गुरु ने भी कहा था । पर्वतक कहने लगा -पिताजी ने अज शब्द की ऐसी व्याख्या नहीं की थी । निघन्टुओं में भी ( शब्दकोष ) अज यानि बकरे ऐसा अर्थ किया है । मैने भी कहा -शब्दों के मुख्य और गौण अर्थ होते हैं । यहाँ गुरुजी ने गौण अर्थ के बारे में बताया था । व्यर्थ में ही पाप मत बांधो । पर्वतक ने कहा -गुरुजी ने अज का मेष ( बकरा ) अर्थ ही कहा था ।
और उनकी हठधर्मिता से अपनी जिद पर रहे औऱ बकरेबलि की कुप्रथा चला दी
यदि वह दूसरे को भी सही मान लेते तो ,शायद एक बड़ा अनर्थ होने से बच जाती है और इसी कारण
इस अर्थ के पर्याय को समझने की भूल से यज्ञ में बलि प्रथा आरंभ हुई यह थी अपनी अपेक्षा से अर्थ को समझना और अनर्थ कर डालना आपको नहीं लगता कि नय समझना चाहिए अगर वह नय समझते तो ऐसा अनर्थ कभी नहीं होता यह अभी जो जैन रामायण के सर्ग चल रहे के 18 वर्ग मेंसर्ग से ली गई है । प्रसंग वश मैंने छोटा सा उदाहरण दिया है
कल हम जानेंगे
निश्चय नय औऱ व्यवहार नय
को उदाहरण सहित शायद
क्लिष्ट विषय कुछ ग्रहणीय हो जाये इसी आशा- विश्वासके साथ
*अंजुगोलछा*
*प्रश्न के उत्तर*
*11:1:21*
1️⃣बलि की कथा किसमें से ली गई है
🅰️रामायण
2️⃣अज का एक अर्थ बकरा (मेष) था तो दूसरा अर्थ क्या है
🅰️नहीं उगने वाले तीन वर्ष पुराने धान
3️⃣नय कीमूल बात एक ही है क्या
🅰️प्रतिपक्ष धर्म का विरोध नहीं
4️⃣क्या पकड़ेंगे तो नय इतने कठिन नहीं लगेंगे
🅰️अपेक्षा
5️⃣नय नहीं पढ़ेंगे तो किसकी की प्राप्ति भी नहीं होगी
🅰️सम्यक दर्शन
6️⃣नय के बिना आदमी क्याहै
🅰️दृष्टिहीन
7️⃣शास्त्रों में लिखा कुछ और होता है और क्या कुछ और होता है।
🅰️भावार्थ
8️⃣ये पशु वध से युक्त यज्ञ कहाँ से शुरु हुए किसने पुछा
और किसने बताया?
🅰️रावण के पूछने पर नारद ने बताया
9️⃣जैन शास्त्रों को समझने के लिए किसकी जरूरत है।
🅰️नय
1️⃣0️⃣हम किसे अपने अभिप्राय से कुछ और समझ लेते हैं,
🅰️तथ्य
*12:1:21*
*अध्याय*
निश्चय नय और व्यवहार नय
को हमनें पहले भी पढ़ा ।आज हम एक बार थोड़ी सी पुनरावृत्ति कर लेते हैं
निश्चय नय का विषय हैयथार्थ का प्रतिपादन ।,वर्तमान में कोई वस्तु उस रूप में अभिव्यक्ति ना हो ,किंतु वास्तव में उसकी सत्ता है तो उसका प्रतिपादन निश्चय दृष्टि से ही किया जा सकता है व्यवहार नय ऊपर ऊपर से विचार करता है। वह लोक मान्यता के आधार पर तत्व का प्रतिपादन करता है। वास्तविकता ना होने पर भी लोक मान्यता में जिस वस्तु का विस्तृत रूप से प्रचलन हो उसे दार्शनिक भूमिका पर भी नकारा नहीं जा सकता। इस दृष्टि से तत्व के प्रतिपादन में व्यवहार नय की भी अपनी मूल्यवता हैं
निश्चय नय और व्यवहार नय की प्रतिपादन-शैली को यहां कुछ उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है .
भौरे में कौन-सा वर्ण (रंग) है ? यह एक प्रश्न है । इस प्रश्न का आबालगोपाल प्रसिद्ध समाधान यह है कि वह काला होता है । जहां कहीं कालेपन को समझाया जाता है, वहां भौरे को ही प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह व्यवहार दृष्टि है ।
परमार्थ दृष्टि के अनुसार भौरा काला नहीं, पांच वर्ण वाला होता है क्योंकि कोई भी बादर (स्थूल) पुद्गल-स्कन्ध पंच वर्णात्मक ही होता है। यह तथ्य असत् मालूम पड़ता है, पर है सत्य । इस सत्य का ग्रहण निश्चय नय की दृष्टि से ही किया जा सकता है ।
आकाश नीला है, यह एक दृष्टि कोण है । क्योंकि वह ऐसा ही दिखाई देता है। किन्तु सच्चाई यह है कि आकाश में कोई रंग होता ही नहीं, वह अरूप होता है। इस उदाहरण में भी पहला दृष्टिकोण व्यवहार नय का है और दूसरा निश्चय नय का । एक सैनिक युद्ध में जाता है, हाथ में शस्त्र उठाता है और शत्रु सेना को परास्त कर देता है। व्यवहार दृष्टि के अनुसार यह धर्म है । क्योंकि राष्ट्रधर्म भी लोकमान्यता में केवल धर्म के नाम से चलता है। किन्तु निश्चय नय इसे धर्म नहीं कहेगा । उसके अनुसार धर्म वहीं होगा , जहां अहिंसा है। किसी
भी दृष्टि से की गई हिंसा, हिंसा ही है । वह व्यवहार्य तो हो सकती है, किन्तु उसे धर्म का जामा नहीं पहनाया जा सकता । इस प्रकार सैकड़ों उदाहरण हैं जो निश्चय नय और व्यवहार नय की भेदरेखा को स्पष्ट करते हैं। इन दोनों ही नयों का हमारे जीवन में उपयोग है, इसलिए अपने-अपने स्थान पर दोनों का मूल्य है ।
यही छोटा प्रयास मैंने अपने अल्प बुद्धि से नय समझाने के लिए किया है कुछ त्रुटि हो तो माफ करिएगा
*प्रश्न*
*12:1:21*
1️⃣धर्म वहीं होगा , जहां क्या है।
🅰️अहिंसा
2️⃣परमार्थ दृष्टि के अनुसार भौरा कौनसे रंग का है
🅰️पांच वर्ण का
3️⃣जहां कहीं कालेपन को समझाया जाता है, वहां किसको को ही प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया जाता है
🅰️भौरे को
4️⃣उदाहरण हैं जो किसके भेदरेखा को स्पष्ट करते हैं।
🅰️निश्चय नय और व्यवहार नय
5️⃣निश्चय नय का विषय क्या है।
🅰️हैयाथार्थ का प्रतिपादन
6️⃣सच्चाई यह है कि आकाश में कौन सा रंग होता हैं
🅰️कोई रंग ही नहीं होता है वह अरूप हैं
7️⃣कौन लोक मान्यता के आधार पर तत्व का प्रतिपादन करता है।
🅰️व्यवहार नय
8️⃣दार्शनिक भूमिका पर भी किसे नकारा नहीं जा सकता
🅰️जिस वस्तु का विस्तृत रूप से प्रचलन हो
9️⃣व्यवहार नय कैसे विचार करता है।
🅰️ऊपर ऊपर से
1️⃣0️⃣राष्ट्रधर्म कौनसी मान्यता है
🅰️लोकमान्यता
*इस no पर भेजे* ⤵️
*13:121*
*अध्याय*
*स्याद वाद/अनेकाकांत वाद*
नय निक्षेप वाद स्याद वाद औऱ अनेकांतवाद यह सभी एक दूसरे से जुड़े हैं, एक दूसरे को समझने के लिए एक दूसरे को समझना बहुत जरूरी है हमने अभी तक नय औऱ निक्षेप को समझा अब हम
जैन का अनेकाकांत वाद/स्याद वाद समझेंगे निक्षेपवाद नयवाद स्यादवाद अनेकांतवाद में
बहुत झीना झीना फर्क होता है पर फर्क होता है उसी फर्क को हम सूक्ष्मता से समझने का प्रयत्न करते हैं
*स्यादवाद /अनेकांतवाद*
हम ज्ञान की दृष्टि से देखे तो दो भेद है-तत्व मीमांसा दूसरा ज्ञान मीमांसा ।मीमांसा का अर्थ होता है -जानना समझना ।और तत्व होता है भौतिक चीजों का ज्ञान तो भौतिक चीजों को जानना अनेकांतवाद है और ज्ञान को जानना स्यादवाद है।ये एक दूसरे के पूरक है ,तत्व को जानना जैसे अणु आदि को जानना तत्व है और ज्ञान है- अणु को किसने बनाया-अणु को भगवान नेबनाया। उसको जानना मतलब तत्व के बाहर की चीज को जानना उसे ज्ञान मीमांसा कहते हैं। जो हमेंबाह्यः चक्षु से दिखाई नहीं देता उसको ज्ञान मीमांसा कहते हैं। हर पदार्थ के बहुत सारे गुण धर्म होतेहै पर हमारा जीवन बहुत सीमित है इसलिए हम कोई वस्तु का पूर्ण गुण धर्म नहीं जान सकते हम एक विशाल आईना ले ले फिर भी अकेले दर्पण से हम स्वयं को पूरा नहीं देख पाएंगे सामने से भले ही पूरा देख ले पर पीठ रह रह जाएगी। वैसे ही हम वस्तु के समस्त गुणों को नहीं जान सकते ।इसलिए भी हमें कभी नहीं कहना चाहिए हमें पूर्ण ज्ञान या बहुत ज्ञान है।स्थूलत् यहभी सम्भव नहीं जो आंखों से देख रहे है वह भी पूर्णता से समझ पाते हैजैसे-
एक कल्पना कीजिए एक व्यक्ति रस्सी से बांधकर दूसरे व्यक्ति को खड्डे में डाल रखा है, आप देखकर क्या सोचेंगे की इसने इसे खड्डे में डाल दिया या यह इसे खड्डे से निकाल रहा है। तो आप किसे सही मानेंगे और किसे गलत मानेंगे। आपने जो अपने जीवन में ज्ञान प्राप्त किया है, शायद आप उसे भी पूरा नहीं समझते हो , जैसे
आप साधारण लोगों से पानी के बारे में पूछोगे तो वह बताएंगे कि पानी प्यास बुझाता है कपड़े धोने के काम आता है बर्तन साफ करने के काम आता है ज्यादा से ज्यादा अग्नि बुझाने के काम आता है और इसी तरह के कुछ साधारण काम और बता देंगे। पर आप किसी केमेस्ट्री के जानकार को बोलोगे तो वह बताएगा पानी
H2O है ,पानी एक यौगिक है
ये दुनिया का सबसे ज्यादा घुलनशील पदार्थ है। इसमें कोई सुगंध रूप नहीं है, इत्यादि इत्यादि तो रोजमर्रा में इस्तेमाल करने वाले पानी के बारे में भी हम पूर्ण नहीं जानते तो हम और पदार्थों के पूर्णता का दावा कैसे कर सकते हैं?
जब भी आप अपने ज्ञान की बात करें तो उस पर पूर्ण विराम ना लगाएं ये कहें मुझे ज्ञान है ---? यही है सप्त भंगी स्यादवाद इसका शंकराचार्य जी ने विरोध किया है वह बोलते हैं या तो ज्ञान है या तो नहीं है यह स्याद -स्याद क्या है
तब प्रसिद्ध हिंदी साहित्य लेखक फणीश्वर नाथ रेणु जिन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
ने कहा मैं शंकराचार्य जी का बहुत बड़ा प्रसंशक हूं पर स्यादवाद की समझ मेंउनसे बड़ी चूक हो गई। मुझे ऐसा लगता है।
उनके विचार मैंने पढ़ा तब मुझे लगा वेदांतोके कई आचार्यों ने इसे नहीं समझा ।
और वही महावीर प्रसाद द्विवेदी जी उनका परिचय -आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' के नाम से जाना जाता है।इतने बड़े साहित्यिक हस्ताक्षर
ने कह दिया -जैन का सत स्यादवाद को जो कोई जानता ही नहीं के किस चिड़िया का नाम है उन्होंने इनका खंडन कर डाला। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों के मूल ग्रंथों को पढ़ा होता उनसे ऐसी गलती नहीं होती।
कई धारणाओं में स्याद का अर्थ शायद कर दिया जो उचित नहीं है स्याद का अर्थ है किसी अपेक्षा से किसी विशेष दृष्टिकोण से अवधारणा की बात करता है। ना कि शायद। जैसे कोई व्यक्ति किसी का पिता है, पर वह अपने पिता का तो पुत्र हैं, तो कोई पुत्र ये हल्ला ना करे कि इन्हें कोई
पुत्र ना कहे ये तो पिता है।
वैसे ही पिता ना कहे ये मेरा पुत्र ही है पिता नही। पिता का तो वह पुत्र ही है और पुत्र का वह पिता ही है।
कल थोडे औऱ विस्तार से जानेंगे ।
*स्यादवाद /अनेकांतवाद*
कुछ लिखने में भूल हुई हो तो मिच्छामि दुक्कड़म
*अंजू गोलछा*
*प्रश्न के उत्तर*
*13:1:21*
1️⃣हिंदी साहित्य का दूसरा युग को किस नाम से जाना जाता है।
🅰️ *द्विवेदी युग*
2️⃣पर स्यादवाद की समझ मेंउनसे बड़ी चूक हो गई ये किसने कहा
🅰️ *फणीश्वरनाथ*
3️⃣कई धारणाओं में स्याद का अर्थ क्या कर दिया जो उचित नहीं है
🅰️ *शायद*
4️⃣फणीश्वर नाथ रेणु जी को कौन से पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
🅰️ *पद्म श्री*
5️⃣किसमें- किसमें बहुत झीना झीना फर्क होता है
🅰️ *निक्षेपवाद,नयवाद,स्यादवाद, अनेकांतवाद*
6️⃣ज्ञान मीमांसा किसे कहते हैं।
🅰️ *तत्व के बाहर की चिज जानना*
7️⃣यह स्याद -स्याद क्या है किसने कहा
🅰️ *शंकराचार्य जी*
8️⃣मीमांसा का अर्थ क्याहोता है
🅰️ *जानना, समझना*
9️⃣स्याद का अर्थ है किसी -- से किसी विशेष --- से अवधारणा की बात करता है
🅰️ *अपेक्षा, विशेष दृष्टिकोण*
1️⃣0️⃣जैनों के मूल ग्रंथों को पढ़ा होता उनसे ऐसी गलती नहीं होती ये किसने कहा
🅰️ *आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी महान साहित्यकार*
*इस no पर भेजे* ⤵️
*14:1:21*
*अध्याय*
*स्याद्वाद और अनेकान्तवाद*
अनेकान्तवाद ,प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन ने जिस सापेक्षवाद Theory of relativity का कथन किया है यह वही सापेक्षता का सिद्धांत है, लेकिन वह केवल भौतिक पदार्थो तक सीमित है। जैन दर्शन मे इसे और भी व्यापक अर्थो मे कहा है कि लोक के सारे अस्तित्व साक्षेप है। उन्हे लेकर कहा गया कोई भी निरपेक्ष कथन सत्य नहीं है।"
-जैन दर्शन के दो विशिष्ट शब्द हैं । अनेकान्त सिद्धान्त और स्याद्वाद। उसके निरूपण की पद्धति है। है-अनेकान्त का अर्थ :
"अनेकान्त" शब्द अनेक और अन्त दो शब्दो से बना है। अनेक का अर्थ नाना, एक से अधिक और अन्त का अर्थ विनाश, छोर आदि है पर यहा धर्म से अभिप्रेत है। जैन दर्शन अनुसार वस्तु परस्पर अनेक गुणधर्मो का पिण्ड है, उसका परिज्ञान हमे एकान्त दृष्टी की अपेक्षा अनेकान्त से ही हो सकता है। अनेकान्त जैन दर्शन का हृदय है। समस्त जैन वाङ्गमय अनेकान्त के आधार पर वर्णित है। इसके बिना लोक व्यवहार भी नही चलता।
प्रत्येक पदार्थ मे प्रत्येक समय "उत्पाद-व्यव-ध्रौव्यात्मक " परिणमन होता आ रहा है। प्रत्येक समय परिणमनशील(रूपांतरण) होने के बाद भी उसकी चिरसंतति उच्छिन्न(नष्ट) नहीं होती, इसलिए वह नित्य है, तथा उसकी पर्याय प्रतिसमय बदल रही है, इसलिए वह अनित्य भी है। इस दृष्टी से हम कहे कि वस्तु बहुमुखी, बहुआयामी है। इस प्रकार अनेकान्त अर्थ हुआ वस्तु का समग्र बोध करनेवाली "दृष्टी"
आइये समझें⤵️
( *उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य* का सिद्धान्त। जैन धर्म का एक प्रमुख सिद्धान्त है। इसके अनुसार इस जगत में कोई अपेक्षा से नवीन घटनाएँ जन्म लेती है, कोई अपेक्षा से पुरानी घटनाओं का नाश होता है, और कोई अपेक्षा से सभी घटनाओं में एकरूपता बनी रहती है। प्राणियों के लिये इसका अर्थ है - कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनादि से संसार है, फिर भी आत्मा की शुद्ध चैतन्य शक्ति का ध्रुवत्व के कारण कभी भी नाश नहीं हुआ है और ना कभी भविष्य में नाश होगा। हर एक घटना का काल मूलतः एक समय का ही होता है। मानव यदि यथार्थ पुरुषार्थ करे और इस ध्रुव चैतन्य शक्ति पर अपना ध्यान एकाग्रता के साथ केंद्रित करे तो वह अपने वर्तमान दुःख और अपूर्ण ज्ञान की अवस्था को नाश या व्यय कर के अव्याबाध (बिना बाधा)सुख प्राप्त कर सकता हैऔर ज्ञान रूपी निर्वाण या मोक्ष -कर्म रहित अवस्था का अपने में उत्पाद कर सकता है।)
"एक ही अणु मे आकर्षण और विकर्षण की शक्ति विद्यमान है। जंहा उसमे सहांरकारी शक्ति विद्यमान है, वही उसमे निर्माणकारी शक्ति भी विद्यमान है। वस्तु के परस्पर गुणधर्मो का सही मूल्यांकन सापेक्ष/अनेकान्त दृष्टी अपनाने पर ही सम्भव है।
*"गोपी नवनीत (मक्खन) तभी निकाल पाती है जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खीचती है और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है। इसी प्रकार जब एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को प्रधान किया जाता है तभी सत्य का नवनीत हाथ लगता है। अतएव 'एकान्त' के गंदले पोखर से निकलकर 'अनेकान्त' के शीतल सरोवर मे अवगाहित होना श्रेयस्कर है।*"
*अनेकान्त की उपयोगिता* :
वस्तु के स्वरुप को नही समझ पाने के कारण विभिन्न मतवादों का उद्भव हुआ है तथा सब अपने-अपने मत को सत्य मानाने के साथ दूसरे के मत को असत्य करार दे रहे है। नित्यवादी पदार्थ के नित्य अंश को पकड़कर अनित्यवादी को भला-बुरा कह रहा है, तो अनित्यवादी नित्यवादी को उखाड़ फेकने की कोशिश में है। सभी वस्तु के एक पक्ष को ग्रहण कर सत्यांश को ही पूर्ण सत्य मानने का दुराभिमान कर बैठे है। वस्तु के विभिन्न पहलुओ को मिलाने का प्रयास करने पर वस्तु अपने पूर्ण रूप में साकार हो उठेगी।
*प्रश्न के उत्तर*
*14:1:21*
1️⃣हर एक घटना का काल मूलतः कितना ही होता है।
🅰️ एक समय का ही होता है।
2️⃣अपूर्ण ज्ञान की अवस्था को नाश या व्यय कर केक्या पा सकता है
🅰️अव्याबाध (बिना बाधा)सुख प्राप्त कर सकता है और ज्ञान रूपी निर्वाण या मोक्ष कर्म रहित अवस्था का अपने में उत्पाद कर सकता है।
3️⃣समस्त जैन के क्या अनेकान्त के आधार पर वर्णित है
🅰️वाड्गंमय।
4️⃣एक ही अणु मे किस -किसकी शक्ति विद्यमान है।
🅰️ आकर्षण और विकर्षण।
5️⃣गोपी नवनीत (मक्खन) कब निकाल पाती है
🅰️ गोपी नवनीत तभी निकाल पाती है जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खींचती है और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है
6️⃣वस्तु के स्वरुप को नही समझ पाने के कारण क्या हुआ
🅰️ विभिन्न मत वादों का उद्भव हुआ।
7️⃣सापेक्षवाद Theory of relativity का कथन किसने किया है
🅰️ अल्बर्ट आइंस्टाइन।
8️⃣शुद्ध चैतन्य शक्ति का किसके कारण कभी भी नाश नहीं हुआ है
🅰️ध्रुवत्व के कारण।
9️⃣अनेकान्त" शब्द किन दो शब्दो से बना है।
🅰️ अनेक और अंत।
1️⃣0️⃣व्यापक अर्थो मे कहा है कि लोक के क्या साक्षेप है।
🅰️सारे अस्तित्व।
*15:1:21*
*अघ्याय*
*स्याद वाद /अनेकाकांत वाद*
*आगे*
अनेकान्त समन्वय का श्रेष्ठ साधन है। आज वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक या जीवन के किसी भी क्षेत्र मे हमारे एकान्तिक रुख के कारण विसंवाद हो रहे है। इस क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टी अपनी ही बात नहीं रखती अपितु, सामनेवाले की बात को धैर्यपूर्वक सुनती है। एकान्त "ही" का प्रतीक है। तो अनेकान्त "भी" काप्रतीक है। जंहा ”ही" का आग्रह होता है, वहा संधर्ष होता है, जहा "भी"की अनुगूंज होती है वहा समन्वय की सुरभि फैलती है। "ही" में आग्रह, कलह है, "भी" में समन्वय, अपेक्षा है।
*स्याद वाद*
स्यात शब्द दो है। एक क्रियावाचक और दूसरा अनेकान्तमक। यहां अनेकान्त का वाचक लिया है। वाक्यो मे प्रयुक्त "स्यात" शब्द अनेकान्त का द्योतक है। यहा स्याद शब्द निपात रूप है। निपात रूप(अर्थ को बल प्रदान करते हैं, वे निपात कहलाते हैं। तक, भर, ही, भी आदि शब्द अर्थ को बल प्रदान करते हैं। )
स्याद के अनेक अर्थ नही लिये है। निपात वाचक और द्योतक दोनो है। उसके बिना अनेकान्त रूप अर्थ की प्रतिप्राप्ति नहीं हो सकती है।
एक वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का स्वीकार । तत्त्वचिन्तन और व्यवहार-निर्वहण-इन दोनों कामों में बहुत सुविधा हो जाती है ।
प्रस्तुत बोल में स्याद्वाद के सात प्रकार, भंग या विकल्प बतलाए है इन्हें सप्तभंगी भी कहते है
१. स्यात् अस्ति
३. स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति
२. स्यात् नास्ति
४. स्यात् अवक्तव्य
५. स्यात् अस्ति, स्यात् अवक्तव्य
६. स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्त
७. स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्य
स्यात् अस्ति▶️प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है।
यह पहला मत है। उदाहरण के तौर पर यदि कहा जाय कि 'स्यात् हाथी खम्भे जैसा है' तो उसका अर्थ होगा कि किसी विशेष देश, काल और परिस्थिति में हाथी खम्भे जैसा है। यह मत भावात्मक है।
स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से हर वस्तु का अस्तित्व है। संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो अस्तित्ववान् नहीं है। अस्तित्व के अभाव में वह और होगा ही क्या ? किन्तु अस्तित्व के साथ स्यात् शब्द इस बात का द्योतक है कि उसमें अस्तित्व धर्म तो नास्तित्व भी है। उसे नहीं समझा जाएगा तो वस्तु का बोध पूर्ण नहीं
*स्यात् नास्ति*
जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अस्तित्ववान् है, वैसे ही वह दूसरे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा से नहीं भी है। नास्तित्व के बिना अस्तित्व हो ही नहीं सकता। अस्तित्व नास्तित्व के सहावस्थान- एक साथ उपस्थित रहने को एक उदाहरण से जा सकता है, जैसे-हमारे सामने एक घड़ा है । उसमें अस्ति धर्म और
धर्म की एक साथ उपस्थिति इस प्रकार घटित होती है *द्रव्य*-घड़ा मिट्टी का है, सोने का नहीं है।
*क्षेत्र*-घड़ा अहमदाबाद का बना हुआ है, कलकत्ता का नहीं है।
*काल*-घड़ा शीतकाल में बना हुआ है, गर्मी में बना हुआ नहीं है।
*भाव*-धड़ा पानी रखने का और लाल रंग का है। वह थी रखने का और काले रंग का नहीं है।
आचार्य समन्तभद्र को सयाद्वादविद्या का अग्रगण्यगुरु कहा गया है, औऱ
"आचार्य समन्तभद्र के प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ "आप्तमीमांसा" मे लिखा है, प्रत्येक वस्तु या तथ्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सत(सत्य) है, तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा असत है। ये सत और असत धर्म वस्तु में एक साथ रहते है। वस्तु अस्तित्ववान है, तो नास्तिवान भी है। प्रत्येक वस्तु विरोधी धर्मो का पुंज है।"
*प्रश्न के उत्तर*
*15:1:21*
1️⃣जीवन के किसी भी क्षेत्र मे हमारे किसरुख के कारण विसंवाद हो रहे।
🅰️एकान्तिक रूख के कारण
2️⃣आचार्य समन्तभद्र के प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ "का नाम क्या है
🅰️आप्तमीमांसा
3️⃣स्यात् अस्ति का अर्थ क्या है
🅰️प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व
4️⃣स्याद्वाद के सात प्रकार, भंग या विकल्प बतलाए है उन्हें क्या कहते है
🅰️सप्तभंगी
5️⃣निपात रूप का अर्थ
🅰️स्याद शब्द रूप (अर्थ को बल प्रदान करते है
6️⃣किस केबिना अस्तित्व हो ही नहीं सकता।
🅰️नास्तित्व के बिना
7️⃣कौन सी धर्म वस्तु में एक साथ रहते है।
🅰️सत और असत
8️⃣भी" काप्रतीक कौनहै
🅰️अनेकान्त
9️⃣प्रत्येक वस्तु या तथ्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा क्या है,
🅰️सत्य हैं
1️⃣0️⃣जंहा "ही"का आग्रह होता है, वहा क्या होता है
🅰️संघर्ष
*
*16:1:21*
*अघ्याय*
*स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति*
नास्ति का अर्थ आभाव है,
नास्तित्व का बहुत महत्व है
क्योंकि ये भेद करता है एक पुद्गल का परमाणु सेदुसरे पुदगल परमाणु से।
जो कभी अकारण मिल नहीं सकता।
नीलेरंग में काले रंगका आभाव है,काले में सफेद का आभाव
है ,नहीं तो सब एकमेक हो जाता। इसलिए अभाव जरूरी है।
नहीं तो सोचिए अलग-अलग कलर की लाइन में या चित्रकारी कैसे कर पाते
और सफ़ेद पेपर पे दूसरे रंगकैसे दिख पाता?सबका अलग अस्तित्व रहे इसलिए आभाव जरूरी है
इसीलिए अभाव जरूरी है और ये है कि वस्तुअपने आप से तो कभीबदल नहीं सकती
कपड़ा, कपड़ा रहेगा औऱ मेज मेज रहेगी।
अस्ति और नास्ति ये 36 का आंकड़ा नहीं है यह परस्पर विरोधी भी नहीं है ,यह 63 का आंकड़ा है मुंह तो अपॉजिट साइड है परंतु आमने-सामने है जैसे दो मित्र आमने सामने खड़े हो तो एक का मुंह पूर्व में तो दूसरे का मुंह पश्चिम में ।पर दोनों में दुश्मनीनहीं है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ऐसे ही आस्ति और नास्ति है।
दूसरा उदाहरण जैसे एक भाई व्यापार में खरीदारी करता है और दूसरा भाई समान बेचता है, तो क्या दोनों में दुश्मनी है, नहीं ना! फिरभी जबकि दोनों अलग-अलग काम करते हैं एक दुकान मेंसमान भरता है, दूसरा सामान निकलता है(बेचता) फिर भी एक दूसरे के पूरक हैं ऐसे ही नास्ति और आस्ति है
ये दोनों आत्मा में अवस्थित है ।
आत्मा में कितने विरोधी तत्व रहते है , एक -अनेक ,सत असत ,
पुण्य -पाप।
इनसभी विरोधी वस्तु को रखने का पावर है आत्मा में।आस्ति नास्ति धर्म ही इस आत्मा के पावर का नाम हैं
स्वरूप का विरोध अपनी जगह है और उनका साथ मे रहना अपनी जगह पर है
जैसे किसी के 2 पुत्र एक नास्तिक और एक आस्तिक दोनों एक घर में रह सकते हैं वैसे ही दो परस्पर विरोधी चीज एक आत्मा में रह सकती है
वस्तु में अस्तित्व धर्म भी है, नास्तित्व धर्म भी है तो क्या ये दोनों साथ-साथ नहीं रहते हैं? यदि इनका सहअस्तित्व है तो एक ही धर्म का प्रतिपादन क्यों? इस प्रश्न के उत्तर में तीसरा विकल्प यह बनता है कि उसमें किसी अपेक्षा से अस्तित्व है और किसी अपेक्षा से नास्तित्व है।
इस कथन के साथ ही एक समस्या और खड़ी हो जाती है कि वस्तु में अस्तित्व एवं नास्तित्व एक साथ रहते हैं, फिर इनका प्रतिपादन क्रमिक क्यों ? पहले अस्तित्व और उसके बाद नास्तित्व क्यों ? क्या जिस काल में अस्तित्व है, उस काल में नास्तित्व नहीं है? यदि है तो फिर इनका एक साथ प्रतिपादन क्यों नहीं ? इस प्रश्न के समाधान ने चौथा भंग उत्पन्न किया-स्यात् अवक्तव्य ।
*उत्तर*
*16:1:21*
1️⃣आस्ति नास्ति धर्म ही किस के पावर का नाम हैं
🅰️ *आत्मा*
2️⃣इस प्रश्न के समाधान ने चौथा भंग उत्पन्न किया
🅰️ *एक साथ प्रतिपादन क्यों नहीं*
3️⃣चौथा भंग का नांम
🅰️ *स्यात अवयक्तव*
4️⃣ नास्ति और आस्ति कहाँ अवस्थित है ।
🅰️ *आत्मा में*
5️⃣आत्मा में कोई विरोधी तत्व रहते है कोई दो के नाम लिखिए,
🅰️ *पाप पुण्य*
6️⃣ये दोनों आत्मा में अवस्थित है ।
🅰️ *नास्ति आस्ति*
7️⃣नास्ति का अर्थ क्या है,
🅰️ *आभाव*
8️⃣एक दूसरे के पूरक कौन हैं
🅰️ *आस्ति नास्ति*
9️⃣नास्तित्व किसमें भेद करता है
🅰️ *एक पुद्गल का परमाणु से दुसरे पुद्गल परमाणु से*
1️⃣0️⃣अस्ति और नास्ति ये किस का आंकड़ा नहीं है
🅰️ *36*
*18:1:21*
*अघ्याय*
*4,स्यात् अवक्तब्य*
जिन भावों को वाणी के द्वारा व्यक्त न किया जा सके,उन्हे अवक्तव्य कहते है।
सरल शब्द में जिसे व्यक्त नही किया जा सकता
जो दिखता नही है मतलब की आत्मा का शुद्ध स्वरूप देखते है तब उनके पर्याय को गौण रहते है मतलब की वो अव्यक्तरहते है ।
जो कथनीय न हो।जो वरणीय न हो।अव्यक्तव्य में जीने वाला धार्मिक है।अव्यक्तव्य में जीने वाला सब व्यक्तव्यों को समझ लेता है।व्यक्तव्य में ग्रसित नही होता।परिभाषित नही होता
आत्मा के गुण अनेक है और शब्द कम है जिन्हें गणधर भी व्यक्त करें तो ना कर सके
आत्मा में व्यक्त गुण और अव्यक्तगुण दोनों हैं व्यक्त गुण इसलिए है कि वह बताता है कि आत्मा में अनंत गुण है, शक्ति है।
और अव्यक्त यह बताता है कि उन गुणों का और शक्ति का वर्णन नहीं करा जा सकता
ज्ञान में जानने की शक्ति है शब्द में कहने की ताकत नहीं है।
सत्य यह है कि वस्तु का कितना भी वर्णन किया जाये, किन्तु वह रहेगा आंशिक ही, पूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता। जैसे - एक
उदाहरण कबीर दास जी का एक दोहा⤵️
*सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ*।
*धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ*॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि यदि मैं इन सातों समंदर को स्याही कि तरह सब वृक्षों को
लेखनी कर लूं
और इस धरती को एक कागज़ कि तरह प्रयोग करूँ फिर भी श्री हरी के गुणों को लिखा जाना सम्भव नहीं है ।
यदि किसी मत में परस्पर विरोधी गुणों के संबंध में एक साथ विचार करना हो तो, उस विषय में स्यात् अवक्तव्यम् का प्रयोग किया जाता है। हाथी के संबंध में कभी ऐसा भी हो सकता है कि निश्चित रूप से नहीं कहा जा सके कि वह खम्भे जैसा है या रस्सी जैसा। ऐसी स्थिति में ही स्यात् अवक्तव्यम् का प्रयोग किया जाता है। कुछ ऐसे प्रश्न होते हैं जिनके संबंध में मौन रहना, या यह कहना कि इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, उचित होता है। जैन दर्शन का यह चौथा परामर्श इस बात का प्रमाण है कि वे विरोध को एक दोष के रूप में स्वीकार करते हैं।
*प्रश्न के उत्तर*
*18:1:21*
1️⃣आत्मा का शुद्ध स्वरूप देखते है, तब उनके क्या गौण रहते है ।
🅰️. पर्याय
2️⃣चौथा परामर्श किस बात का प्रमाण है।
🅰️ विरोध को एक दोष के रूप। मे स्वीकार करते है
3️⃣वस्तु का कितना भी वर्णन किया जाये, किन्तु वह क्या रहेगा?
🅰️ आशिंक ही , पूर्ण वर्णन नह़ीं किया जा सकता ।
4️⃣किसे नही कहा जा सकता खम्भे जैसा है या रस्सी जैसा।
🅰️ हाथी के सबंध में .
5️⃣आत्मा में कौनसे दोनों गुण है
🅰️ व्यक्त गुण और अव्यक्तगुण दोनों
6️⃣किस के गुण को गणधर व्यक्त करे तो न कर सके।
🅰️ आत्मा के
7️⃣ज्ञान में जानने की -----हैं शब्द में कहने की ---– नहीं है।
🅰️ शक्ति है शब्द में कहने की ।
8️⃣विरोधी गुणों के संबंध में एक साथ विचार करना हो तो उस विषय में किसका प्रयोग किया जाता है।
🅰️स्यात् अवक्तव्यम का ।
9️⃣अव्यक्तव्य में जीने वाला क्या समझ लेता है।
🅰️ सब व्यक्तव्यों को ।
1️⃣0️⃣कबीर दास जी किसको लेखनी बनाने की बात कह रहे है।
🅰️ वृक्षों को ।
*19:1:21*
*अध्याय*
*सप्तभंगी*
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
बाकि समस्त भंग इनमें ही निहित हो जाते है , बहुत ही सूक्ष्म फर्क है उसको समझाने के लिए संक्षिप्त व्याख्या ⤵️
*4स्यात् अवक्तव्यम्*
वस्तु है किन्तु अवक्तव्य है। पर
सत्य यह है कि वस्तु का कितना भी वर्णन किया जाये, किन्तु वह रहेगा आंशिक ही, पूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता।
अब आगे
*5 स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम्*
कोई वस्तु या घटना एक ही समय में हो सकती है और फिर भी संभव है कि उसके विषय में कुछ कहा न जा सके। किसी विशेष दृष्टिकोण से हाथी की सूंड
को रस्सी जैसा कहा जा सकता है। परन्तु दृष्टि का स्पष्ट संकेत न हो तो हाथी के स्वरूप का वर्णन असंभव हो जाता है। अतः हाथीकीसूंड
रस्सी जैसी और अवर्णनीय है। यह पहले और चौथे भंग को जोड़ने से प्राप्त होता है।
*6,स्यादन्नास्ति अवक्तव्य*
वस्तु नहीं है औऱ अवक्तव्य भी है उसे स्यादन्नास्तिअवक्तव्य कहते है।
किसी विशेष दृष्टिकोण से संभव है कि किसी भी वस्तु या घटना के संबंध में 'नहीं है' कह सकते हैं, किंतु दृष्टि स्पष्ट न होने पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अतः हाथी कीसूंड
रस्सी जैसी नहीं है और अवर्णनीय भी है। दूसरे और चौथे भंग को मिला देने से प्राप्त हो जाता है।
*7, स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य*
वस्तु है भी, नहीं भी है और अवक्तव्य है। उसे स्यादस्तिनास्ति कहते है
इस मत के अनुसार एक दृष्टि से हाथीकी सूंड रस्सी जैसी है, दूसरी दृष्टि से नहीं है और जब दृष्टिकोण अस्पष्ट हो तो अवर्णनीय भी है। तीसरे और चौथे भंग को मिलाकर बनाया गया है।
हम जो भी बातचीत करते है
वह क़ोई ना कोई भंग से निहित ही होती है और हम जानते ही नहीं
की जिसे हम रोज प्रयोग करते
वह नय ,स्याद वाद ,अनेकाकांत वाद हमें समझने के लिये इतना कठिन है हमें
किसी भी प्रश्न का उत्तर देते समय इन सात भंगों में से किसी न किसी एक भंग का उपयोग करना पड़ता है। प्रस्तुत विषय को सुगमतापूर्वक समझने के लिए यहाँ पर एक स्थूल और व्यावहारिक उदाहरण देते हैं। ⤵️
किसी मरणासन रोगी के बारे में पूछा जाये कि उसकी हालत कैसी है? तो उसके जवाब में वैद्य अधोलिखित सात उत्तरों में से एक उत्तर देगा
1. अच्छी हालत है (अस्ति)
2. अच्छी हालत नहीं है (नास्ति)
3. कल से तो अच्छी है (अस्ति), परन्तु इतनी अच्छी नहीं है कि आशा रखी जा सके (नास्ति) (अस्ति, नास्ति)
4. अच्छी या बुरी कुछ नहीं कहा जा सकता ( अवक्तव्य)
5. कल से तो अच्छी है (अस्ति), फिर भी कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा (अवक्तव्य) (अस्ति अवक्तव्य)
6. कल से तो अच्छी नहीं है (नास्ति), फिर भी कहा नहीं जा सकता कि क्या होगा? (अवक्तव्य) (नास्ति अवक्तव्य)
7. वैसे तो अच्छी नहीं है ( नास्ति परन्तु कल की अपेक्षा तो अच्छी है (अस्ति) तो भी कहा नहीं जा सकता कि क्या होगा? (अवक्तव्य) (अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य)।44
सापेक्ष दृष्टि से वस्तु को प्रतिपादित करने के लिए मुख्य रूप से ये चार भंग या विकल्प काम में आते हैं, शेष तीनों विकल्प इनके संयोग से बनते हैं । मूलतः विकल्प चार ही हैं । पर दार्शनिक जगत् में सप्तभंगी प्रसिद्ध है। इस दृष्टि से स्याद्वाद के सात प्रकार बतलाए गए हैं।
स्याद्वाद शब्द जैनों का है। किन्तु तत्त्व-निरूपण की दृष्टि से यह सबको मान्य हो सकता है। स्याद्वाद का मूल उत्स तीर्थंकरों की वाणी है। इसको दार्शनिक रूप उत्तरवर्ती आचार्यों ने दिया है। स्याद्वाद जितना दार्शनिक है, उतना ही व्यावहारिक है। इसलिए किसी भी क्षेत्र में इसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता ।
*19 : 1: 21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣स्याद्वाद का मूल उत्स क्या है।
🅰️ तीर्थंकरों की वाणी ।
2️⃣जिसे हम रोज प्रयोग करते
वह -----,-----––,--------,हमें समझने के लिये इतना कठिन है ।
🅰️ नय,स्या वाद,अनेकाकांत वाद ।
3️⃣एक दृष्टि से हाथीकी सूंड किस जैसी है।
🅰️ रस्सी जैसी ।
4️⃣स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् कौन कौन सेभंग को जोड़ने से प्राप्त होता है।
🅰️ पहले और चौथे भंग को ।
5️⃣स्याद्वाद जितना दार्शनिक है, उतना ही क्या है।
🅰️ व्यावहारिक है ।
6️⃣अच्छी हालत है ये कौनसा भंग है
🅰️ 1भंग (अस्ति )
7️⃣किन्तु किस की दृष्टि से यह सबको मान्य हो सकता है।
🅰️ तत्त्व- निरूपण ।
8️⃣हम जो भी बातचीत करते है वह किस से निहित ही होती है
🅰️ कोई ना कोई भंग से निहित होती है।
9️⃣परन्तु इतनी अच्छी नहीं है कि आशा रखी जा सके
इसमें कौन 2 से भंग है।
🅰️ (अस्ति, नास्ति) 7
1️⃣0️⃣स्यादन्नास्ति अवक्तव्य किसे कहते है
🅰️ वस्तु नहीं है और अवक्तव्य भी है उसे स्यादन्नास्ति अवक्तव्य कहते है ।
*20:1:21*
*अध्याय*
*शक्र स्तव*
नय ,स्याद्वाद ,अनेकाकांत वाद ,के बाद
अब पुनः लौटते है शक्र स्तव की तरफ
अभी शक्र स्तव के इस अंश में थे
*सिव-मयल- मरुअ- मणंत-मक्खय- मव्वाबाह- मपुणरावित्ति- सिद्धिगइ-नामधेयं-ठाणं- संपत्ताणं*-
शिव-अचल-अरूज़-अनंत-अक्षय-
अव्याबाध और जहां से पुनरागमन न करना पड़े ऐसी सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त किया हो, ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
हम सिद्धिगति और इस संसार की तुलना का विवेचन देख रहे हैं।
उदाहरण के तौर पे, जो यदि नगर के लोग उदारता, गंभीरता आदि गुणों से युक्त हो तो वह नगरी ही गुणीयल नगरी कहलाती है। उसी तरह शिव, अचल आदि गुणयुक्त सिद्ध की आत्माएं जो स्थान में रहती है, वह स्थान को भी व्यवहार से शिवादी गुणयुक्त कहा जाता है।
अनंत काल से संसारी जीव जो चार गति रूप संसार में रहते हैं, वो स्थान सिद्धिगति से पूर्ण विरोधाभास वाला अशिव उपद्रवों से भरा हुआ है। इन दोनों स्थान की यदि तुलना की जाये तो सिद्धिगति का आदर अत्यंत वृद्धिमान होता है। और उपद्रव आदि से युक्त जीव को निरुपद्रवादिवाले स्थान प्राप्त करने की अभिलाषा और प्रवृत्त होती है।
*शिव*- पूरा संसार उपद्रव से भरा हुआ है। जब कि सिद्धिगति में उपद्रव का नामोनिशान भी नहीं है। क्योंकि बाह्य या अंतरंग कोई भी प्रकार का उपद्रव, कर्म के कारण ही प्राप्त होता है। सिद्धात्माऐं सर्वथा कर्म से रहित है, इस कारण वो निरूपद्रव स्थान को प्राप्त कर चुके हैं।
*अचल*- अचल संसार मे किसी का स्थान ऐसा नहीं है कि जो बाह्य या अंतरंग तरह से स्थिर हो। जब कि सिद्धिगति कभी भी चलायमान न हो, ऐसी अचल है।
*अरूज़*- जहां शरीर है वहां रोग होने की संभावना है। सिद्धअवस्था में सडन, पडन आदि स्वभाव वाला शरीर किसी का भी नहीं होता है, इस कारण सिद्धिगति पूर्णतया रोगमुक्त अवस्था वाली गति है।
*अनंत*-अनादि काल से प्रवर्तित संसार के सुखद या दुखद सर्व भाव अंत वाले है।
जब कि सिद्धिगति को पाए हुए सर्व आत्मा के ज्ञानादि गुण अनंत है। उनको प्राप्त हुए अव्याबाध सुख अनंत है और उनको अनंत काल तक वहां ही रहना है। इसलिए सिद्धिगति अनंत है यानी कि यह गति का कभी भी अंत नहीं होता। *अक्षय*-संसार के दैवी सुख भी क्षय पाने वाले नाशवंत है। सदास्थायी नहीं है, लेकिन सिद्धिगति, वो आत्मा की शुद्ध अवस्था स्वरूप है। स्वभावभूत यह अवस्था की प्राप्ति होने के बाद उसका किसी भी तरह से क्षय नहीं होता। इसलिए वह अक्षय है। यहां स्थिति का नाश नहीं है।
यह पद बोलते हुए, दुख से भरे इस संसार से पूर्णतया विरोधाभास वाले, महासुख के स्थानभुत मोक्ष और वहां रहे हुए महासुख में रमण करते परमात्मा को नजर समक्ष ला कर, उनको प्रणाम करते हुए प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!! आप को किया हुआ यह नमस्कार हम को शीघ्र, आप को प्राप्त ऐसे गुणों के स्थानभूत, सिद्धिगति को प्राप्त करवा दे।
इस तरह सिव-मयलादि विशेषण अरिहंत परमात्मा में जचते हैं, अर्थात उनको शोभीत करते हैं।
सिव-मयलादि विशेषण यूं तो सिद्ध भगवंत के हैं, अपितु व्यवहारनय से, स्थान और स्थानी का अभेद करके यहां वह विशेषण सिद्धिगति के बतलाए हुए हैं।
*प्रश्न के उत्तर*
*20:1:21*
1️⃣सिव-मयलादि विशेषण किस को जचते हैं,
🅰️अरिहंत परमात्मा को
2️⃣कँहा उपद्रव का नामोनिशान भी नहीं है
🅰️सिध्दिगति में
3️⃣कौन से भाव अंत वाले है।
🅰️अनादि काल से प्रवर्तित सुखद या दुःखद सर्व भाव
4️⃣कौन सीआत्मा के ज्ञानादि गुण अनंत है।
🅰️सिध्दि गति पाये हुए सर्व आत्मा के
5️⃣नगर के लोग उदारता, गंभीरता आदि गुणों से युक्त हो तो वह नगरी क्या कहलाती है
🅰️गुणीयल
6️⃣यह नमस्कार से हम आप के प्राप्त कौन2 से गुणो को प्राप्त करना चाहता है ।
🅰️स्थान भूत और सिध्दिगति
7️⃣बाह्य या अंतरंग तरह से स्थिर हो।
🅰️अचल
8️⃣संसार के कौन से सुख क्षय पाने वाले नाशवंत है।
🅰️दैवीसुख
9️⃣सिद्धिगति का आदर क्या होता है।
🅰️वृध्दिमान
1️⃣0️⃣बाह्य या अंतरंग कोई भी प्रकार का उपद्रव, किस कारण प्राप्त होता है।
🅰️कर्मों के कारण
*इस no पर भेजे* ⤵️
*21:1:21*
*अध्याय*
*शक्र स्तव*
पिछली पोस्ट्स से हम सिद्धिगती और इस संसार की तुलना देख रहे हैं।
*अव्याबाध*- का अर्थ है बिना व्यवधान
शरीर और कर्म के साथ आत्मा जब तक जूडी होती है तब तक कर्मों के कारण शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार की पीड़ा जीव की निरंतर होती रहती है। जब
चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में वेदनीय कर्म के पूर्ण रूप से नाश हो जाने पर, अव्याबाध गुण प्रगट होता है
सिद्धिगति में पीड़ा करने वाले शरीर, मन या कर्म कुछ भी नहीं है। मात्र अमूर्त आत्मा है। अमूर्त अवस्था होने से वहां कोई बाधा होती नहीं है।
*अपुनरावृत्ति*- संसार में विभिन्न स्थानों में पुनः पुनः जीव परिभ्रमण करते रहते हैं। जब कि मोक्ष में गए हुए जीव को पुनः संसार में आना नहीं है। पुनः जन्म लेना नहीं है। वहां अनंत अनंत काल तक, वहां के गुण में ही रमणता करनी है। इसलिए सिद्धिगति अपुनरावृत्ति होने योग्य है। संसार भ्रमण के बीज रूप कर्मों का अभाव हो जाने से वह पुनर्जन्म नहीं लेंगे
ऐसी सिद्धिगति नाम के स्थान को परमात्मा ने प्राप्त किया हुआ है।
*नमो जिणाणं जियभयाणं-*-भयों को जिन्होंने जीते हो,(भय सात प्रकार के है-1इहलोक भय
2पारलौकिक भय3 वेदना भय
4अत्राणभय,5अगुप्ति भय
6मृत्युभय7 ,आकस्मिक भीति)जिनेश्वर कर अलावा
हर व्यक्ति को भिन्न भिन्न कारणों से अनेक प्रकार के भय सताते ही रहते हैं।
मेरे इष्ट पदार्थ का वियोग न हो जाये और अनिष्ट पदार्थ का संयोग न हो जाये इस प्रकार इस जन्म में क्रंदन करने को इहलोक भय कहते हैं।
जैसे कि बौद्धों के क्षणिक एकांत पक्ष में चित्त क्षण-प्रतिसमय नश्वर होता है
दैवयोग से कभी मृत्यु न हो, इस प्रकार शरीर के नाश के विषय में जो चिंता होती है, वह मृत्युभय कहलाता है संबंधी मृत्यु भयहै
इस प्रकार
यहां कोई भी व्यक्ति पूर्णतया भयमुक्त नहीं।
यहां पृथ्वीलोक में भी अच्छे से अच्छे व्यक्ति का संयोग हुआ हो , बहुत आनंद प्राप्त हुआ हो, परंतु उसी से यहां भी फिर वियोग का दुख तो निश्चित होता ही है।
राग देश के विजेता एवं उपविजेता है,अरिहंत जिनेश्वर
अरिहंत देव संसार रूप प्रपंच से निवृत हो गए हैं अतः उन्हें कभी भी किसी से भी कुछ भी नहीं है
यह पद बोलते हुए, भय से भरे हुए इस संसार को और भय के कारण विह्ववल हुए अनंत जीवों को एक तरफ, और भय से सर्वथा मुक्त हुए परमात्मा को नजर समक्ष ला कर, विचार करना है कि निर्भय ऐसे परमात्मा मेरी समक्ष है और भयावह ऐसे यह संसार से मुक्त होने के लिए निर्भय ऐसे परमात्मा का ही मुझे शरण है, ऐसे विश्वास से परमात्मा को भाव पूर्वक किया हुआ नमस्कार साधक आत्मा को तत्काल भय में से उगार कर निर्भय, स्वस्थ और शांत बना देता है।
*प्रश्न के उत्तर*
*21:1:21*
1️⃣अव्याबाध गुण प्रगट कबहोता है
🅰️चौहदवे गुणस्थान के अंतिम समय में वेदनीय कर्म के पूर्ण रूप से नाश हो जाने पर
2️⃣शरीर और कर्म के साथ आत्मा कब तक जूडी होती है
🅰️जब तक अव्याबाध गुण प्रकट नहीं होता है
3️⃣अरिहंत देव किस से निवृत हो गए हैं
🅰️संसार रूपी प्रपंच से
4️⃣विभिन्न स्थानों में पुनः पुनः जीव क्या करते रहते हैं।
🅰️परिभ्रमण
5️⃣ क्या करने से साधक आत्मा को तत्काल भय में से उगार कर निर्भय, स्वस्थ और शांत बना देता है।
🅰️परमात्मा को भाव पूर्वक नमस्कार
6️⃣इस प्रकार इस जन्म में क्रंदन करने को कौनसा भय कहते हैं।
🅰️इहलोक भय
7️⃣जैसे कि बौद्धों के क्षणिक एकांत पक्ष में क्या होता हैं
🅰️चित्त क्षण प्रतिसमय नश्वर
8️⃣ बहुत आनंद प्राप्त हुआ हो, परंतु उसी से यहां भी किस का दुख तो निश्चित होता ही है।
🅰️वियोग का दुःख
9️⃣भय कितने प्रकार के है औऱ किन्हीं दो के नाम लिखे
🅰️7प्रकार वेदना भय,अगुप्ति भय
🔟जीव किसके अभाव हो जाने से वह पुनर्जन्म नहीं लेते
🅰️संसार भ्रमण के बीज रूपी कर्मों का
*
*22:1:21*
*अध्याय*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
प्रथम पद 'नमोडत्थु णं' में 'नमो' शब्द रखा गया है। और यहां इस पद में भी प्रथम 'नमो' शब्द रखा गया है, ईसका प्रयोजन यही है कि आदि से अंत तक सर्व पदों में नमो शब्द को जोडना है, ऐसा बतलाया गया है।
तैतीस विशेषणों द्वारा भावअरिहंतो को नमस्कार किया, ये अरिहंतो के प्रति विशेष भक्ति के कारण, उनकी विशेष उपस्थिति के लिए अब तीन काल के सर्व द्रव्य तीर्थंकरों को नमस्कार करते हुए कहते हैं,
*जे अ अइया सिद्धा, जे अ भविस्संसति णागए काले,*
*संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि-* - जो अरिहंत परमात्मा, भूतकाल में सिद्ध हुए है, जो भविष्यकाल में सिद्ध होने वाले हैं और वर्तमान काल मे जो (द्रव्य अरिहंत रुप) विद्यमान है, वो सर्व अरिहंत भगवंतों को मैं त्रिविध वंदन करता/करती हूँ।
तीनों काल के द्रव्य जिनों के वंदन की यह गाथा का अर्धघटन कुछ ऐसा भी देखा गया है, जिसका अर्थ यह था, "अतीतकाल में जो सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में अन्य गति में रहे हुए, अपितु, भविष्य में सिद्ध होने वाले हैं और वर्तमान में जन्म ले चूके हैं, अर्थात विहरमान है और छद्मस्थ अवस्था मे विचर रहे हैं, ।
-धर्मसंग्रह वृत्ति
आज तक भूतकाल में अनंती उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी हो गई है। वह सर्व उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में भरत-ऐरावत में 24-24 तीर्थंकर अनंती बार और महाविदेह में अनंत तीर्थंकर हुए हैं, और भूतकाल जिस तरह अनंता है, उसी तरह भविष्य काल भी अनंतकाल है उसका कोई अंत नहीं है। भूतकाल की तरह ही अनंत भविष्य में अनंता तीर्थंकर अभी होने वाले हैं।
भूत, वर्तमान और भविष्य काल में विभिन्न क्षेत्रों में हुए और होने वाले तीर्थंकर परमात्मा के विषय मे हम समीक्षा कर रहे हैं।
अन्य क्षेत्र के साथ पांचो महाविदेह क्षेत्रों में भी हजारों तीर्थंकर की आत्माएं जन्म ले चुकी है, और द्रव्यजिन रूप में भी अनेक अवस्थाओं में वह विद्यमान है।
उन द्रव्य जिन को भी यह पद द्वारा स्मृति में लाना है।
यह पद बोलते हुए अनंत भूतकाल, आने वाले अनंत भविष्यकाल और वर्तमान काल तीनों को मनःपट पर उपस्थित कर के, विभिन्न समय में हुए और होने वाले, चाहे कद से,ऋषभदेव 500 धनुष काया के वंही तदन्तर कम होते होते महावीर जी की7 हाथ ऋषभदेव जी की वय84 लाख पूर्व
तदन्तर कम होते होते महावीर
स्वामी की 72 वर्ष थी ऐसे
परमात्मा को नजर समक्ष ला कर उनके गुणों से मन को उपरंजित कर के, वाणी से यह शब्द बोल कर और काया से दो हाथ को जोड़ कर मस्तक झुका कर नमस्कार करना है।
इस तरह से उपकारीयों को नमस्कार कर के ही जीव मोक्ष में जाने के लिए योग्यता का संपादन कर सकता है। और उसके द्वारा उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए धर्माराधना आदि में आत्मा को जोड़ कर अपने मोक्ष रूपी लक्ष्य को प्राप्त करता है।
23:1:21
ये शक्र स्तव सूत्र भगवान की स्तवना स्वरूप है।
सूत्र में अलग अलग पद की संपदा बताई गई है।
यह सम्पदाएँ इस प्रकार है,
1 स्तोतव्य संपदा
2 सामान्य हेतु संपदा
3 असाधारण हेतु संपदा
4 सामान्य उपयोग संपदा
5 उपयोग हेतु संपदा
6 विशेष उपयोग संपदा
7 सकारण स्वरूप संपदा
8 आत्मतुल्य-परफल-कर्तृत्व
9 प्रधानगुण अपरिक्षय-प्रधानफ्लाप्ति-अभय संपदा
*1. स्तोतव्य संपदा-*
सूत्र के प्रथम दो पदों की पहली संपदा बताई गई है। बुद्धिमान जीवों को ऐसा प्रश्न होता है कि स्तुति करने योग्य कौन है?
उसके उत्तर स्वरूप, स्तुति करने योग्य अरिहंत भगवंत है, यही स्तोतव्य संपदा में बतलाया गया है।
*2. सामान्य हेतु संपदा-*
अरिहंत भगवंत स्तुति करने योग्य है वो देखा। यहां प्रश्न होता है कि अरिहंत भगवंत ही स्तवना करने योग्य क्यों?
उसके सामान्य और विशेष कारण, "प्रधान साधारण असाधारण हेतू संपदा" नाम की दूसरी संपदा में बताया गया है। उसको योगशास्त्रकारआदिने सामान्य हेतू संपदा कहा है।
*3. असाधारण हेतू संपदा-*
'तित्थयराणं' और ' सयं संबुद्धाणं' यह दोनों पदों को परमात्मा के असाधारण धर्म स्वरूप बतलाये गये हैं, क्योंकि यह दोनों धर्म अरिहंत की आत्मा के सिवा कहीं भी नहीं मिलते।
अरिहंत परमात्मा ने तीर्थ का प्रवर्तन कर के हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है। इस कारण प्रभु हमारे लिए स्तवनिय है।
उसके उपरांत परमात्मा को किसी ने बोध नहीं दिया है। वह स्वयं संबोधित है।
दूसरी आत्माओं की तरह जो वह अन्य के उपदेश से धर्ममार्ग में जूड़े होते तो भगवान को उपदेश देने वाले अन्य उपदेशक हमारे उपकारी भी हो जाते। लेकिन ऐसा नहीं है भगवान तो स्वयं ही श्रेष्ठ बोधि प्राप्त कर चूके होते हैं, इसलिए हमारे ऊपर अरिहंत का उपकार है, और उस तरह वो वंदन के योग्य है। यूं दो पद द्वारा स्तुती के असाधारण कारण बताए गए हैं।
बुद्धिमान को पुनः प्रश्न होगा कि ऐसे प्रभु का अनादि काल से कैसा स्वरूप होगा कि जिसके कारण वह यह भव में अरिहंत भगवंत बने, तो यह कारण, आगे के 4 पदों से बनी स्तोतव्य संपदा 'असाधारण हेतु संपदा' नाम की तीसरी संपदा में बतलायी गयी है।
*4. सामान्य उपयोग संपदा-*
अरिहंत भगवन क्यों स्तुति करने योग्य है ये असाधारण हेतू संपदा में देखा
अनादि काल से परमात्मा का स्वरूप कैसा है यह 'पुरीसुत्तमाणं' पद से बताया गया।
संयम स्वीकारने के बाद वे कैसे पराक्रमी थे यह 'पुरिस- सिहाणं' द्वारा बताया गया, और केवल ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद वह परिवारादी के लिए गंधहस्ति तुल्य किस तरह है यह 'पुरिसवर-गंध-हत्थिणं' पद द्वारा बताया गया।
*प्रश्न के उत्तर*
*23:1:21*
1️⃣कितनी सम्पदा स से आरंभ है
🅰️4
2️⃣किन 2पदों को परमात्मा के असाधारण धर्म स्वरूप बतलाये गये हैं।
🅰️तित्थयराणं' और ' सयं संबुद्धाणं' यह दोनों पदों
3️⃣5 वी संपदा का नाम लिखिए
🅰️उपयोग हेतु संपदा
4️⃣अरिहंत भगवंत ही स्तवना करने योग्य है।ये कौन -कोनसी सम्पदामें लिखा है
🅰️सामान्य हेतु संपदा,
5️⃣ हमारे ऊपर किसका का उपकार है,
🅰️अरिहंत का
6️⃣संयम स्वीकारने के बाद वे कैसे पराक्रमी थे यह 'किसके द्वारा बताया गया,
🅰️पुरिस- सिहाणं' द्वारा बताया गया
7️⃣अरिहंत परमात्मा ने तीर्थ का प्रवर्तन करके उपकार
किया इसलिए वह क्या है
🅰️हमारे लिए स्तवनिय है।
8️⃣संपदा कितनी है?
🅰️9
9️⃣अनादि काल से परमात्मा का स्वरूप कैसा है यह 'किस पद बताया गया।
🅰️पुरीसुत्तमाणं' पद
🔟 कौन से सूत्र भगवान की स्तवना स्वरूप है।
🅰️शक्र स्तव
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।
*25:1:21*
*अघ्याय*
*शक्र स्तव औऱ उनकी संपदा*
कल हमनें जाना
संयम स्वीकारने के बाद वे कैसे पराक्रमी थे यह 'पुरिस- सिहाणं' द्वारा बताया गया, और केवल ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद वह परिवारादी के लिए गंधहस्ति तुल्य किस तरह है यह 'पुरिसवर-गंध-हत्थिणं' पद द्वारा बताया गया।
अंत में, अर्थात, मोक्ष की प्राप्ति के पश्चात वह कैसे हैं, यह 'पुरिस-वर-पुंडरीयाणं' पद द्वारा बतलाकर निगोद अवस्था से ले कर अंतिम समय तक परमात्मा का स्वरूप कितना विशिष्ट था यह इस संपदा में बतलाया गया है।
इतना जानने के बाद अब प्रेक्षावान को प्रश्न होगा कि ऐसे विशिष्ट भगवान से हम को क्या लाभ??? उसके समाधान के लिए ही चौथी 'सामान्य उपयोग संपदा' बताई गई है। क्योंकि प्रेक्षावान लोग फलप्रधान प्रवृत्ति को करने वाले होते हैं।
*5. उपयोग हेतु संपदा-*'लोगुत्तमाणं' आदि पांच पदों द्वारा स्तोतव्य ऐसे अरिहंत भगवंतों का सामान्य उपयोग बताया गया है। यहा सामान्य उपयोग कहने का कारण यह है कि श्रुत और चरित्र रूप धर्म मे श्रुत धर्म वो सामान्य धर्म है। भगवान लोक के नाथ बनते हैं। लोक का हित करते हैं। लोक के प्रदीपक या प्रद्योतक बनते हैं।
ये उपदेशरूप श्रुतधर्म की अपेक्षा से है।
ये श्रुतधर्म, चारित्र धर्म की अपेक्षा से सामान्य धर्म है। इसलिए ये चार पद रूप 'सामान्य उपयोग संपदा'बताई गई है।
और भगवान सामान्य उपयोगी किस तरह बने? उसका मूलभूत कारण क्या है? वो बतलाने के लिए पांच पदों की 'उपयोग हेतू' संपदा बताई गई है।
*6. विशेष उपयोग संपदा-*
अभय से लेकर बोधि की प्राप्ति कराने तक सामान्य से प्रभु ने जीवों पर क्या क्या उपकार किया है वो देखा। चारित्र धर्म की प्राप्ति करवाने द्वारा भगवान विशेष उपकार क्या करते है वो बाद के पांच पदरूप छठवी विशेष उपयोग संपदा में बताते है।
*7.सकारण स्वरूप संपदा-*
चारित्र रूप धर्म प्रदान करने द्वारा विशेष उपकार करने वाले अरिहंत भगवंत कैसे स्वरूप में रहे हुए हैं, वो बताने के लिए सातवी संपदा 'सकारण स्वरूप संपदा' है।
सकारण इसलिए कहा गया है कि जब भगवान श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन को धारण करते हैं, तब ही स्तुति करने योग्य होते हैं और वो ज्ञान-दर्शन के धारक छद्म (छाद्ममस्थिक भाव) में गए बिना प्राप्त नही होता।
*8.आत्मतुल्य- परफल- कर्तृत्व-*
भगवान ने जो फल प्राप्त किया, वो ही फल वो अपने भक्तों को देने का कार्य करते हैं, ये बतलाने की लिए जो पदों का प्रयोग किया गया है उन पदों की 'आत्मतुल्य- परफल- कर्तृत्व' नाम की आठवी संपदा बताई गई है।
स्वयं सरीखा दुसरो को बनाना। जो फल स्वयं को मिला है, वो ही फल दूसरों को प्राप्त करवाने का परमात्मा का यह परम उपकार सदा स्मरण में रहे तो परमात्मा के प्रति अहोभाव, आदरभाव अत्यंत बढ़ जाता है।
*9. प्रधानगुण अपरिक्षय-* प्रधानफलाप्ति-अभय संपदा-
दीर्धदृष्टि वाले विचारक पुरुष को परमात्मा का इतना स्वरूप जानने के बाद भी ऐसी जिज्ञासा होती है कि ऐसे परमात्मा अंत मे कौन से अक्षय गुण और अक्षय फल प्राप्त करते है?
वो 'प्रधानगुण अपरिक्षय- प्रधानफलाप्ति-अभय संपदा' (मोक्ष फलप्राप्ति संपदा) में बतलाया गया है। अथवा अरिहंत भगवंत जो मोक्ष अवस्था को प्राप्त कर चुके है, उनका स्वरूप बताया है।
*प्रश्न के उत्तर*
*25:1:21*
1️⃣भगवान ने जो फल प्राप्त किया, उसका क्या कार्य करते हैं,
🅰️वो ही फल वो अपनेभक्तों को देने का कार्य करते हैं,
2️⃣परमात्मा का यह परम उपकार सदा स्मरण में रहे तो परमात्मा के प्रति क्याबढ़ जाता है
🅰️अहोभाव, आदरभाव अत्यंत बढ़ जाता है
3️⃣सकारण स्वरूप संपदा' है को सकारण स्वरूप संपदाक्योँ कहा गया है
🅰️सकारण इसलिए कहा गया है कि जब भगवान श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन को धारण करते हैं,
4️⃣संयम स्वीकारने के बाद वे कैसे पराक्रमी थे यह 'किसके द्वारा बताया गया,
🅰️पुरिस- सिहाणं' द्वारा बताया गया,
5️⃣श्रुत और चरित्र रूप धर्म मे कौन सा सामान्य धर्म है।
🅰️श्रुत धर्म
6️⃣अरिहंत भगवंत कैसे स्वरूप में रहे हुए हैं, वो बताने के लिएकौन सी सम्पदा है
🅰️सकारण स्वरूप संपदा' है।
7️⃣लोक का हित करते हैं। लोक के ----–या ----–बनते हैं।
प्रदीपक,प्रद्योतक
8️⃣लोगुत्तमाणं' आदि पांच पदों द्वारा स्तोतव्य ऐसे अरिहंत भगवंतों का क्या बताया गया है
🅰️सामान्य उपयोग
9️⃣भगवान सामान्य उपयोगी किस तरह बने ये कौन सी संपदा में बताई गई हैं?
🅰️उपयोग हेतू' संपदा
10प्रधानगुण अपरिक्षय- प्रधानफलाप्ति-अभय संपदा' का अर्थ
A मोक्ष फलप्राप्ति संपदा
*अध्याय*
*26:1:21*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
*पूर्णाहूति*
*Conclusion*
इस सूत्र के अर्थ भावार्थ को समझ कर, इसका चिंतन मनन कर के यदि हम ये सूत्र का पाठ करें तो निश्चित रूप से हमारे भावों में परिवर्तन होगा।
वैसे अन्य सूत्रों की तरह इस सूत्र को केवल बोला जाये, चैत्यवंदन में हो या प्रतिक्रमण, बस सिर्फ बोलने के लिये ही, फुल स्पीड में, तो भावों का अभाव तो अवश्य ही रहेगा साथ ही भाव के अभाव प्रभाव का अभाव भी रहेगा
और परिणाम स्वरूप उद्धेश्य का भी और फल का भी अभाव, अर्थात, ध्येय की अपूर्णता और फल की अप्राप्ति। हमें पूर्ण भावों को प्रभु मय बना, प्रभु के समस्त गुणों को ध्यान में रख कर
एक 2 शब्द को समझ कर बोलना चाहिए नही तो महज वह गुन -मून ही रह जायेगा।
उद्देश्य रहित।
ये सही है कि आज हम सभी के पास धैर्य की कमी है। हम सभी यही कहते हैं के हमारे पास समय ही नहीं तो कोई भी
समय अभाव में अनुष्ठान व विधि में धीरज से इन सूत्रों का पाठ कहाँ से होगा? नहीं होगा
परंतु, कुछ सूत्र ऐसे हैं, जिस में अरिहंत परमात्मा की स्तुति की गई है, गुणगान गाये गए हैं, उनके प्रति भक्ति, आदर सन्मान प्रकट किया गया है। ऐसे सूत्र में भाव की परम आवश्यकता है, वरना इनका महत्व नहीं रहता और हमारे द्वारा इनका सही मूल्यांकन भी नहीं होता।
इंद्र महाराजा ने स्वयं इस महान सूत्र के उच्चारण द्वारा इस पर अहोभाव व्यक्त किया है, ऐसा ये सूत्र और साथ मे ऐसे और महाप्रभावी सूत्र हमारे मानव जीवन की अमूल्य धरोहर है। हमारे प्रचंड पुण्योदय के कारण ये हमे इतनी सुगमता से प्राप्त है।
हम इनका महत्व समझे, इन स्तोत्रों द्वारा प्रभु परमात्मा की अनुपम भक्ति करें और स्व-पर कल्याण के पथ पर अग्रसर हो जायें, ये ही अभ्यर्थना।
आईये इसके साथ ही हम पुनः
वँहा लौट चलते है ,जंहा आदी नाथ भगवान का स्नात्र महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है,
औऱ इन्द्र भगवान द्वारा भाव पूर्वक ऋषभदेव जी को *नमुऽत्थु णं वंदन* किया जा रहा है
*भक्ति से रोमांचित होकर इन्द्र* ने *शक्रस्तव से प्रभु जी *वंदना* कर इस तरह *कहने लगा...
" *हे जगन्नाथ❗ हे *त्रैलोक्य कमल*मार्तण्ड❗ *(तीन लोकके प्राणी रूपी कमलो के लिए सूरजके समान)*
*हे संसार रूपी मरुस्थल में कल्पवृक्ष* ❗*हे विश्वका उद्धार* करने वाले बांधव ❗
*मै आप को नमस्कार करता हूँ*❗
यह मूहर्त भी वन्दनीय है *जिसमे धर्म को जन्म देने वाले, अपुर्नजन्मा)*
(जिनका फिर कभी *जन्म नही होगा ऐसे) *और जग जन्तुओ का न करने वाले ऐसे आपका जन्म हुआ है❗*इन्द्रआगे▶ स्तुति करते हुए कहते है*, हे नाथ❗ इस समय आपके *जन्माभिषेक*
के जलके जल के *पुट से पल्लवित हुई है और बिना यत्न किये जिसका मल दूर हुआ है*
ऐसी यह *रत्नप्रभा पृथ्वी सत्य नाम वाली हुई है*❗
*कल आगे का भाग*▶▶▶▶
*अघ्याय*
*27 :1:21*
*आदिनाथ प्रभु जी का जन्म*
इन्द्र भगवान आगे कहते हैं➡️
हे प्रभु❗जो आपका दिन रात दर्शन करेंगे,* उनका जन्म धन्य है❗ हम तो *अवसर आने पर ही आपके दर्शन* करने वाले है❗
*हे स्वामी❗भरत क्षेत्र के प्राणियों का* मोक्षमार्ग *ढक गया है, उसे आप नवीन* पथ या पथिक *होकर फिर से प्रगट कीजिये*❗
*इन्द्र आगे भक्ति से प्रेरित* हो कहते है" *हे प्रभु*❗आपकी *अमृत तुल्य धर्मदेशना* की तो *बात ही क्या है*❓ आपका *दर्शनमात्र ही प्राणियो का कल्याण करने वाला है*❗
*है भवतारक(संसार को तारने वाले)*❗आपकी उपमा के पात्र कोई नहीं, *जिससे आपकी उपमा दी* जाय ऐसा *कोई भी नहीं*, इसलिये *मैं -आपके तुल्य आप ही हो, ऐसा कहता हूँ*,
तो अब *अधिक स्तुति किस तरह की जाय*❓ *हे नाथ*❗आपके *अर्थ को बताने वाले गुणों* (सत्य अर्थ को बताने वाले)को भी *मैं कहने में* असमर्थ हूँ, *क्योंकि स्वयंभूरमण समुद्र के जल* को कौन माप सकता है❓"
*इस तरह जगत्पत्ति* की स्तुति करके, *प्रमोद(खुशी)* से जिसका मन *सुगंधमय हुआ* ❗
*
*अब शकेन्द्र जी ने पहले की तरह पांच रूप* बनाये❗उनमे से 1 रूप*अप्रमादी 1 रूप से उसने *ईशान इन्द्र* की *गोद से*, रहस्य की तरह *जगत्पत्ति को*, अपने *हृदय पर लिया*❗दूसरे रूप
*स्वामी की सेवा* को जानने वाले उसके , नियुक्त किये हुए *नौकर की तरह*, *स्वामी का पहले की तरह अपना काम* करने लगे❗
*फिर अपने देवताओँ*सहित *देवता* का नायक *शकेन्द्र, आकाशमार्ग*से ,
*मरूदेवी से अलंकृत मंदिर(महल) में आयर*❗
वहाँ शकेन्द्र जी *तीर्थंकर जी के प्रतिबिम्ब* का उपसंहार करके उन्होंने उसी *जगहपर माता की बगल में प्रभु को रख दिया*❗
प्रभु को सुलाकर,* फिर जिस तरह *सूर्य पद्मिनी* की नींद को *भंग करता* है, उसी तरह *शक्र जी* ने *माता मरूदेवीजी* की *अवस्वापीनणी* निद्रा *भंग की*❗
*सरिता तट*पर रहे हुए *हँसमाला* के विलास को *धारण करने वाला उजला*, दिव्य और रेशमी *वस्त्र* का एक जोड़ा उन्होंनेप्रभु के
*सिरहाने रखा*❗
*बाल्यावस्था* में भी पैदा हुए *भामंडल* के विकल्प को करनेवाले *रत्नमय दो कुंडल भी प्रभु* के *सिरहाने रखे*❗इसी तरह *सोने* से बने हुए विचित्र *रत्नहार* और *अर्द्धहार* से व्याप्त *सोने* के सूर्य के समान *प्रकाशित झुमर श्रीदामगंड(गिल्लिडंडा) खिलौना प्रभु के *दृष्टिविनो* के लिए रखा❗
*कल आगे का भाग*▶▶▶▶
✍ बेहेन हिनाजी भूरा सिवनी* के सौजन्य से प्राप्त
*महावीर के उपदेश ग्रुप टीम
*प्रश्न के उत्तर*
*27:1:21*
1️⃣किसका उपसंहार करके उन्होंने उसी *जगहपर माता की बगल में प्रभु को रख दिया*❗
🅰️ तीर्थंकर जी के प्रतिबिंब का उपसंहार करके
2️⃣ किनका मोक्षमार्ग *ढक गया है,
🅰️ भरत क्षेत्र के प्राणियों का मोक्ष मार्ग ढक गया है।
3️⃣अब शकेन्द्र ने पहले की तरह कितने रूपबनाये
🅰️ पांच रूप
4️⃣,किसकी तरह *शक्र* ने *माता मरूदेवीजी* की
अवस्वापीनणी* निद्रा *भंग की*❗
🅰️जिस तरह सूर्य पद्मिनी की नींद को भंग करता है उसी तरह
5️⃣नियुक्त किये हुए *किस की तरह, *स्वामी का पहले की तरह अपना काम* करने लगे❗
🅰️ नौकर की तरह
6️⃣ किसके रहस्य की तरह *जगत्पत्ति को*, अपने *हृदय पर लिया*❗
🅰️ *शकेन्द्र जी ने पहले की तरह पांच रूप* बनाये❗उनमे से 1 रूप*अप्रमादी 1 रूप से उसने *ईशान इन्द्र* की *गोद से*, रहस्य की तरह *जगत्पत्ति को*, अपने *हृदय पर लिया*❗
7️⃣,कौन ?अवसर आने पर ही आपके दर्शन* करने वाले है❗
🅰️ इन्द्र भगवान
8️⃣भामंडल* के विकल्प को करनेवाले क्या प्रभु* के *सिरहाने रखे*❗
🅰️ रत्नमय दो कुंडल भी प्रभु के सिरहाने रखे।
9️⃣श्रीदामगंड का अर्थ क्या है
🅰️गिल्ली डंडा
🔟देवता* के नायक कौन है
🅰️ शकेन्द्र जी
*इस no पर भेजे* ⤵️
प्रश्न का उत्तर देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।
*28:1:21*
*अध्याय*
*189*
*अब प्रभु* की नजर को *आनंदित* करने के लिए, *आकाश के सूर्य* की तरह,
*ऊपर⬆ चन्दरवा* की *तरह(झुमर)गिल्लिडंडा लटका दिया*❗
*फिर शकेन्द्र* ने कुबेर को *आज्ञा दी* कि *बत्तीस करोड़* हिरण्य(विशेष धातु), *बत्तीस करोड़ सोना,* बत्तीस नंदासन, बत्तीस भद्रासन, और दूसरे मनोहर *वस्त्रइत्यादि* मूल्यवान पदार्थ----- जिससे *सांसारिकसुख * होता है ऐसे
*स्वामीके भुवन* बरसाने के लिए कहा
*कुबेर ने आज्ञा* पाते ही *त्रयजम्भभृक*( दस तरह के *देव जो कुबेर* की आज्ञा में रहते है) ने सभी चीजें बरसाई❗
*फिर शकेन्द्र* जैसे *सूरज बादलों में पानी* डालता है वैसे ही उसने *भगवान के अंगूठे* में अनेकतरह के *रस भर दिए* अर्थात *अंगूठे में अमृत* भर दिया❗
*अर्हन्त स्तनपान* नही करते है इसलिए जब उनको *भूखलगती* है तब वे
*सुधारस की वृष्टि* करनेवाले, *अपने आप, अमृत बरसाने* वाला अपना *अंगूठा, मुँह*में लेकर *चूसते है❗शेष प्रभु*का
*धात्रुकर्म*(धाय का काम*)
करने के लिए उसने *पांच अप्सराओं5⃣* को, * करने के लिए वही रहने की *आज्ञा दी*❗अर्थात उनको *धाय*की तरह *प्रभु के लालन-पालन की आज्ञा दी*❗
*जिन- स्नात्र हो *जाने के बाद*▶,जब *इन्द्र जी भगवान* को रखने के *लिए आये* उस *समय बहुत से देवता* मेरुशिखरसे *नन्दीश्वरद्वीप* गये❗
*सौधर्म*भी *नाभिपुत्र* को *उनके महल* में रख कर,स्वर्गवासीयों के निवास *समान नन्दीश्वरद्वीप* गये और *वहाँ पूर्व➡ दिशा* के,क्षुद्र *मेरुपर्वत*( दूसरे चार *मेरुपर्वत*4⃣ है❗*84000* योजन *ऊंचे* है❗) के समान प्रमाण वाले, *देवरमण नामके अंजनगिरी* पर उतरे❗वहाँ उसने *विचित्र मणियों* की पीठिका वाले, *चैत्यवृक्ष हैं और इन्द्रध्वज* द्वारा अंकित, और *चार दरवाजों* वाले चैत्य में प्रवेश *किया* और *अष्टान्हिका उत्सव* सहित *ऋषभ आदि अर्हतों* की शाश्वती *प्रतिमाओं की पूजा की*❗
स *अंजनगिरी चार दिशाओं* में *चार बड़ी बावडिया* हैं❗ उनमे से हर *एक मे एक* एक *स्फटिक मणि* का दधिमुख *पर्वत* है❗उन *चारों पर्वतो* के *ऊपर के चैत्यों* में शाश्वती अर्हतों( *ऋषभ,चन्द्रानन,वारिषेण और वर्धमान*) की *प्रतिमाएं* है❗ *शकेन्द्रके चार4⃣दिग्पालऒने,अष्टान्हिका *उत्सव मनाया तथा
, उन *प्रतिमाओं की विधिवत पूजाकी❗ ईशान इन्द्र उत्तर⬆ दिशा* के नित्य रमणीक ऐसे *रमणीय नामक अंजनगिरी* पर उतरा और उसने उस *पर्वत* पर के *चैत्य में ऊपर की तरह* शाश्वत *प्रतिमाओंकी,अष्टान्हिक* उत्सव *सहित पूजा🌸 की*❗
*कल आगे का भाग*▶▶▶
✍ बेहेन हिनाजी भूरा सिवनी* के सौजन्य से प्राप्त
*महावीर के उपदेश ग्रुप टीम
*प्रश्न के उत्तर*
*28:1;21*
1️⃣स्फटिक मणि* का कौन सा *पर्वत है*
🅰️दधिमुख पर्वत
2️⃣, मेरुपर्वत कितने हैं औऱ कितने ऊंचे है
🅰️चार 84000योजन
3️⃣भगवान के अंगूठे* में अनेकतरह के *-----दिए* अर्थात *अंगूठे में -–----* भर दिया❗
🅰️रस,अमृत
4️⃣किन्होंने अष्टान्हिका *उत्सव मनाया तथा
🅰️दिग्पालओने तथा उन प्रतिमाओं की विधिवत पूजा की
5️⃣विचित्र मणियों* की पीठिका वाले, *चैत्यवृक्ष कहाँ है
🅰️देवरमण नाम के अंजनगिरी पर
6️⃣त्रयजम्भभृक किसे कहते हैं
🅰️दस तरह के देव जो कुबेर की आज्ञा में रहते हैं
7️⃣धात्रुकर्म* करने के लिए कौन थी औऱ कितनी थी
🅰️धाय अप्सराए पांच थी
8️⃣शाश्वती अर्हतों कौन कौन से ही जिनकी*प्रतिमाएं* है❗
🅰️ऋषभ ,चन्द्रानन,
वारिषेण,और वर्धमान
9️⃣बत्तीस संख्या में क्या क्या चीज बरसाने को कहा
🅰️हिरण्य,सोना,
नंदासन,भद्रासन
🔟किस समय बहुत से देवता* मेरुशिखरसे *नन्दीश्वरद्वीप* गये❗
🅰️स्नात्र पूजा हो जाने के बाद जब इन्द्र जी भगवान को रखनें के लिए आये
*इस no पर भेजे* ⤵️
*29:1:21*
*अध्याय*
पिछली पोस्ट में जो चार नाम शाश्वत तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त हुए तो
जिज्ञासा होती है- चार शाश्वत जिन से क्या तात्पर्य है ? समाधान - जिन, तीर्थंकर कभी शाश्वत नहीं होते। उनके नाम जरूर शाश्वत हो सकते हैं। पाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र एवं दस क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल में 24-24 तीर्थंकर होते हैं। उनमें ऋषभ, चन्द्रानन, वारिषेण और वर्द्धमान ये चार नाम वाले शाश्वत तीर्थंकर होते ही हैं। राजप्रश्नीय सूत्र में लिखा है
*'तासिणं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमा ओं जिणुस्सेहपमाणमेताओ.... जहा उसभा, वद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेण'।* देवलोकों आदि में शाश्वत चैत्यों में भी उक्त 4 नामों की प्रतिमाएँ विराजित हैं। वर्तमान चौबीसी भरतक्षेत्र में ऋषभ, वर्द्धमान हुए। ऐरावत क्षेत्र में चंद्रानन एवं वारिषेण नाम के तीर्थंकर हुए। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये संक्षेप में आठ कर्म हैं। - उत्तराध्ययन (64,65)
अब आगे
इधर स्वामिनी मरूदेवा सवेरे के समय* ज्योहीं *उठी:* उन्होंने *रात के स्वप्न* की तरह अपने *स्वामी नाभिराजा* से *देवताओं का आने* जाने का सारा हाल कहा❗
*जगत्पत्ति के दाएं उरू* ( जांघ) पर *ऋषभ का चिन्ह था*,
(सभी तीर्थंकरों के ऐसे ही दाये उरु पर चिंह
होते है औऱ उसी आधार पर उनके लाँछन तय होते है)
उसी तरह *माता ने सारे स्वप्न* के *पहले ऋषभ* ही देखा था, इसलिए *आनंदमग्न माता पिता*ने शुभदिन देखकर , *उत्त्साहपूर्वक प्रभु का नाम*
*ऋषभ* रखा❗
उन्ही के साथ मे युग्म- धर्म से *पैदा हुई कन्या का नाम भी सुमंगला* ऐसा यथार्थ और *पवित्र नाम रखा*❗
प्रभु का जन्म* हुए ज्योही *एक वर्ष* होने को आया,त्योंही *सौधर्मं इन्द्र वंश-स्थापन्न* करने के लिए वहाँ आये❗
*सेवक को खाली हाथ* *स्वामी के दर्शन* करना उचित नही:इस *विचार से इन्द्र* ने ईख का *एक बड़ा गन्ना* अपने साथ ले लिया❗
*शरीरधारी शरदऋतु* के समान *सुशोभित इन्द्र गन्ने* के सहित वहाँ आया जहाँ *प्रभु नाभिराजा* की *गोदी में बैठे* हुए थे❗
*प्रभु ने अवधिज्ञान* द्वारा *इन्द्र* का इरादा जान , *हाथी की (सूंड) तरह अपना हाथ गन्ना* लेने को *लंबा किया*❗
*जैसे ही प्रभु* ने *हाथ लंबा------ किया*, *स्वामी* का भाव जानने वाले *इन्द्र ने सर झुकाकर* प्रणाम कर, *गन्नाभेंट* की तरह *प्रभु को अर्पण* किया ❗
*प्रभु ने इक्षु ग्रहण किया इसलिए *इन्द्रने प्रभु* के वंश का नाम *"इक्वाक्षु"*
स्थापन्न कर *इन्द्र स्वर्गको चला गया*❗
*युगादिदेव को चारों अतिशय जन्म* से मिले थे❗ *प्रभु के 34 अतिशय* होते हैं, उनमे से *4 जन्म* के साथ प्राप्त होते है❗
*युगादिदेव का शरीर पसीना*, रोग और मल से रहित था❗वह *स्वर्ण कमल* के समान शोभता था❗यह पहला अतिशय था❗
*युगादिदेव के शरीर* का मांस और रुधिर गाय के *दूध की धारा* के समान *उज्वल और दुर्गंध* रहित थे❗उनके *आहार-भोजन*, निहार(मलत्याग) की विधि *चर्मचक्षु के अगोचर* थी❗यानी कोई *आँखों से प्रभु* का *भोजन करना* या *मलत्याग करना देख नही सकता* था❗उनकी *सांस की सुगंध* खिले हुए *कमल* के समान थी❗ ये *चारों अतिशय प्रभु* को जन्म से ही मिले थे❗
*वज्रऋषभषभनाराच* संहनन वाले *प्रभु इस विचार*से धीरे धीरे चलते थे कि कहीं *जमीन----धंस* न जाये❗उनकी *उम्र छोटी* थी, तो भी वे *गंभीर और मधुर* बोलते------ थे❗कारण, लोकोत्तर *पुरुषों का बचपन* उम्र की *दृष्टि* से ही होता है❗
*29:1:21*
*प्रश्न के उत्तर*
1️⃣वंश-स्थापन्न* करने के लिए वहाँ कौनआये❗
🅰️सौधर्म इन्द्र
2️⃣युगादिदेव का शरीर किस किस से रहित था❗
🅰️पसीना,रोग,मल,मांस और रुधिर से
3️⃣शाश्वत तीर्थंकर होते ही हैं किसमें लिखा है
🅰️राजप्रशनिय सूत्र
4️⃣*प्रभु कौन से सँहनन वाले होते है
🅰️वज्रॠषभनारच
5️⃣प्रभु के कितने अतिशय* होते हैं, उनमे से * जन्म* के साथ कितने प्राप्त होते है❗
🅰️34अतिशय 4जन्म से
6️⃣युग्म- धर्म से *पैदा🤱🏼 हुई कन्या का नाम क्या रखा
🅰️सुमंगला जी
7️⃣संक्षेप में कितने कर्म हैं।
🅰️आठ
8️⃣इन्द्रने प्रभु* के वंश का नाम *"इक्वाक्षु"*की स्थापना क्यों की
🅰️प्रभु ने इक्षु ग्रहण किया इसलिए
9️⃣जगत्पति के उरू* ( जांघ) पर किसका का चिन्ह था*,
🅰️ऋषभ का
🔟चंद्रानन एवं वारिषेण नाम के तीर्थंकर कहाँ हुए
🅰️ऐरावत क्षेत्र में
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।
*30:1:21*
*अध्याय*
ऋषभ देव का जी का बचपन अदभुत था ,देव उनके साथ विभिन्न खेल खेलते ।
यदि कोई *देव बलपरिक्षा* के लिए *उनकीउंगली पकड़ता* था तो वह उनके *श्वास के पवन* से रेती के कण की *तरह उड़ कर दूर जा गिरता*था❗
कई *देव कुमार कंदुक(गेंद)* की तरह *प्रभु के सामने लोटते*
युवाअवस्था* को प्राप्त *गृहवासी अरिहंत सिद्धअन्न*( रंधा हुआ अनाज) का *भोजन करते है:* परंतु *नाभि नंदन ऋषभ भगवान* तो *उत्तरकुरुक्षेत्रसे देवताओं* के द्वारा लाये हुए *कल्पवृक्ष के फलों का भोजन* करते थे,और *क्षीरसागर का पानी पीते* थे❗
प्रभु के तलुए* में *चक्र का चिन्ह था,माला ,अंकुश तथा ध्वजा के चिन्ह* थे❗वे मानो *लक्ष्मीरूपी हथिनी को हमेशा *स्थिर रखने* के लिए थे❗
लक्ष्मी के लीलाभवन* के समान *प्रभुके चरण* तल में *शंख और कुम्भ* के चिन्ह थे व *एड़ी में स्वस्तिक का* एक चिन्ह था❗ऐसे पूरे शरीर में शुभ चिन्ह थे।
उंगलिया चरणरूपि *कमल के पत्तों* समान मालूम होती थी❗उन उंगलियों के नीचे *नंद्यावर्त* के चिन्ह शोभते थे❗उनके प्रतिबिम्ब जमीन पर पड़ने से *धर्मप्रतिष्ठा के हेतु रूप होते थे: अर्थात चैत्य- प्रतिष्ठा में जिस तरह नन्दावर्त का पूजन* होता है, उसी तरह प्रभु की उंगलियो के नीचे के नंद्यावर्त के चिन्हों के प्रतिबिम्ब या निशान जमीन पर पड़ने से
*धर्मप्रतिष्ठा के हेतु रूप होते थे*❗
आज तक युगलिये उम्र के अंत मे पति पत्नी रूप में रहते पर पहली बार दूसरी विधिवत शादी हुई
*सुनन्दा जी* के साथ आइये देखते है कैसे?
एक दिन एक *युगलियो की जोड़ी* *ताडवृक्ष* के नीचे बालको के लायक खेलकूद करती थी❗उस समय बहुत *मोटा ताड का फल* उस युगल पुरूष के सर पर पड़ा और *काकतालिय न्याय*
से, वह पुरुष तत्काल ही अकालमृत्यु से
*काकतालिय न्याय* का अर्थ होता हैं⤵️
किसी ताड़ के पेड़ के नीचे कोई पथिक लेटा हो और ऊपर एक कौवा बैठा हो। कौवा किसी ओरको उडा़ और उसके उड़ने के साथ ही ताड़ का एक पका हुआ फल नीचे गिरा। यद्यपि फल पककर आपसे आप गिरा हो तथापि पथिक ने दोनों बातों को साथ होते देख यही समझा कि कौवे के उड़ने से ही तालफल गिरा। जहाँ दो बातें संयोग से इस प्रकार एक साथ हो जाती हैं वहाँ उनमें परस्पर कोई संबंध न होते दुए भी लोग संबंध समझ लेते हैं। ऐसा संयोग होने पर यह कहावत कही जाती है।
*. *पंच तत्व* पाया( असमय में मर गया)❗
युगलिक के मृत्यु* की घटना *पहली बार* हुई थी❗ *अल्प कषाय* के कारण वह *युगलिक लड़का* मरकर *स्वर्गमे गया*❗ कारण......
*रुई भी बहुत वजनवाली* होने से *आकाश* में जाती है❗
*पहले बड़े पक्षी,* अपने *घोंसलो की लकड़ी* की तरह *युगलिको के मृत* शरीर को उठाकर *समुद्रमें डाल देते* थे, मगर *उस समय* यह *बात नहीं* रही थी; *अवसर्पिणी काल* का प्रभाव *आगे बढ़* रहा था❗ इसलिए *वह कलेवर- मुर्दा* वहाँ पड़ा रहा❗
युगलिकजोड़े में जो *बालिका थी वह वह स्वभाव से ही मुग्धपन* से सुशोभित हो रही थी❗ अपने साथी लड़के के *मर* जाने से , *बिकने के बाद बची हुई* चीज की तरह *चंचल आँखों वाली* वह बालिका वही बैठी रही❗
फिर उसके *मातापिता उसे वहां से उठाकर ले गए* और उसका
पालन पोषण करने लगे❗
उन्होंने उसका नाम *सुनंदा* रखा❗
..… कुछ दिनों बाद सुनंदा के मातापिता मर गए❗ कारण *संतान पैदा होने के बाद युगलिकों की जोड़ी थोड़े दिन ही जीवित रहती है*❗
उस *अकेली मुग्धा को देख,* कितने ही *युगलिये कींकर्तव्यविमूढ* , हो गए(याने क्या करना चाहिए सो नही समझने से) *जड़ युगलिये उसे नाभिराजा* के पास ले गए❗
*श्री नाभिराजा ने 'यह कहा -ये ऋषभ की धर्मपत्नी हो'*
एक दिन सौधरमेंद्र* अवधिज्ञान से *प्रभु का लग्न- विवाह समय* जानकर *अयोध्यानगरी* में आये❗
औऱ उनके बहुत समझाने से
ऋषभदेव जी मान गए
इन्द्रने प्रभु का आंतरिक अभिप्राय* समझ कर, *विवाह के लिए उन्हें प्रस्तुत समाज*, *विवाह कर्म आरम्भ* करने के लिए *तत्काल वहाँ देवताओ* को बुलाया❗ और
इस तरह ये विधिवत पहली शादी थी।
*प्रश्न के उत्तर*
*30:1:21*
1️⃣संतान पैदा होने के बाद युगलिकों की जोड़ी कितने दिन जीवित रहती है*❗
🅰️थोङे दिन
2️⃣प्रभु का लग्न- विवाह समय* जानकर *अयोध्यानगरी* में कौन आए और किस ज्ञान से जाना
🅰️सौधरमेन्द्र देव,अवधि ज्ञान से
3️⃣उंगलियो के नीचे के किनके चिन्हों के प्रतिबिम्ब या निशान जमीन पर पड़ने थे
🅰️नंद्यावर्त
-4️⃣ये ऋषभ की धर्मपत्नी हो'*किसने कहा
🅰️नाभिराजा ने
5️⃣कौन औऱ किसके श्वास के पवन* से रेती के कण की *तरह उड़ कर दूर जा गिरता*था❗
🅰️ऋषभदेव जी के श्वास से देव
6️⃣कौनसे न्याय* से, वह पुरुष तत्काल ही अकालमृत्यु को प्राााप्त हुआ
🅰️काकतालिय
7️⃣प्रभुके चरण* तल में *किन के चिन्ह थे
🅰️शंख और कुंभ
8️⃣अकेली मुग्धा को देख,कौन* कींकर्तव्य विमूढ हो गए*
🅰️युगलिये
9️⃣किस* के कारण वह *युगलिक लड़का* मरकर *स्वर्गमे गया*
🅰️अल्प कषाय के कारण
🔟ऋषभ भगवान* तो *उत्तरकुरुक्षेत्रसे देवताओं* के द्वारा लाये हुए *किसकाभोजन* करते थे,और *कहाँ का पानी पीते थे*
🅰️कल्पवृक्षो के फलों का व पानी क्षीर सागर का पीते थें
इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
**
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।
*
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