ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती कथा
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती 1 भाग
अंतिम चक्रवर्ती सम्राट ब्रह्मदत्त का जन्म भगवान
अरिष्टनेमि के धर्म-शासन काल में हुआ था। ब्रह्मदत्त का
जीवन एक ओर अमावस्या की अंधेरी रात के समान भीषण दुःखों से भरपूर था तो दूसरी ओर शरद पूर्णिमा की सुहावनी शीतल चाँदनी के समान सांसारिक सुखों से ओतप्रोत।
ब्रह्मदत्त का जीवनवृत्त सांसारिक जीवन की भटकाव भरी दुरूहता का भयंकर चित्र प्रस्तुत करता है, जो बहुत ही प्रेरक और वैराग्योत्पादक है।
ब्रह्मदत्त पांचालपति ब्रह्म और उनकी रानी चुलनी
के पुत्र थे। महारानी चुलनी ने गर्भ-धारण के उपरांत चक्रवर्ती के शुभजन्मसूचक चौदह महास्वप्न देखे और गर्भकाल पूर्ण होने पर परम कान्तिमय तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। पांचालनरेश को पुत्र का मुख देखते ही ब्रह्म में रमण करने के समान परम आनंद की अनुभूति हुई इसलिए इन्होंने बालक का नाम ब्रह्मदत्त रखा।
पांचाल-नरेश ब्रह्म की काशी-नरेश कटक,
हस्तिनापुर-नरेश कणेरुदत्त, कोशल-नरेश दीर्घ और
चम्पापति पुष्पचूलक से बड़ी घनिष्ठ मित्रता थी। ये पाँचों
मित्र पाँचो राज्यों की राजधानियों में एक-एक वर्ष के लिए
साथ-साथ रहा करते थे। एक बार इस व्यवस्था के अनुसार वे लोग पाँचाल की राजधानी काम्पिल्यपुर में एकत्रित हुए। पाँचों मित्र आनंद के साथ काम्पिल्यपुर में समय बिता रहे थे कि अचानक पांचालनरेश ब्रह्म का देहान्त हो गया। शोकसंतप्त पांचालनरेश के परिवार के साथ रहकर चारों मित्रों ने महाराज ब्रह्म का अंतिम संस्कार सम्पन्न किया।
उस समय ब्रह्मदत्त की अवस्था केवल बारह वर्ष की थी। इसलिए चारों मित्रों ने आपस में मंत्रणा कर यह निश्चय किया कि जब तक ब्रह्मदत्त वयस्क न हो जाए तब तक एक-एक वर्ष के लिए उनमें से एक-एक नरेश काम्पिल्यपुर में ब्रह्मदत्त तथा पांचाल राज्य का अभिभावक और संरक्षक बनकर रहे।
इसके अनुसार पहले वर्ष के लिए कौशलनरेश दीर्घ को काम्पिल्य नगर में छोड़कर शेष तीनों राजा अपने-अपने राज्य को चले गए।
कौशलपति दीर्घ ने काम्पिल्य नगर में रहते हुए धीरे-धीरे राज्य के कोष तथा राज्य पर अपना अधिकार जमा
लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने दिवंगत मित्र ब्रह्म की
पत्नी चुलनी को भी अपने प्रेम के वशीभूत कर लिया। चुलनी भी कुल-मर्यादा को तिलांजलि देकर दीर्घ का साथ देने लगी।
पांचाल के प्रधानमंत्री धनु को दीर्घ और चुलनी के इस
अनैतिक संबंध और अविश्वासपूर्ण व्यवहार का आभास हो गया। उसके मन में शंका हुई कि ये दोनों कामान्ध हो आगे चलकर ब्रह्मदत्त के प्राण ले सकते हैं, इसलिए उसने अपने पुत्र वरधनु को रात-दिन कुमार के साथ रहने की सलाह दी और दीर्घ तथा चुलनी के प्रति भी सतर्क रहने के लिए कहा।
ब्रह्मदत्त को अपनी माता तथा दीर्घ के अनुचित सम्बन्ध के बारे में जानकर बहुत दुःख हुआ। वह अत्यंत क्रोधित भी हुआ। उसने तरह-तरह के संकेतों के सहारे अपनी
माता और दीर्घ को अपने मन की भावना बताने की कोशिश की, पर उन दोनों का पापाचार चलता रहा। दीर्घ बहुत ही चालाक था। वह ब्रह्मदत्त की चेष्टाओं को समझता था। उसने चुलनी से कहा कि अगर हम सावधान न हुए तो तुम्हारा बेटा कुछ ही दिनों में हमारा सबसे बड़ा शत्रु सिद्ध होगा। अच्छा होगा कि इससे पहले ही इस नाग का सिर कुचल दिया जाए। फलस्वरूप चुलनी अपने ही पुत्र के प्राणों की प्यासी हो गई।
लोकापवाद से बचने के लिए दोनों ने मिलकर निश्चय किया कि कुमार ब्रह्मदत्त का विवाह करवा दिया जाए और सुहागरात्रि के समय वर-वधू को लाक्षागृह सुलाकर
भस्मसात् कर दिया जाए। विवाह के लिए चुलनी ने अपने ही भाई पुष्पचूल की पुत्री पुष्पवती को चुना और विवाह की तैयारियाँ आरंभ कर दीं।
प्रधान अमात्य धनु पूर्ण सतर्क था और दीर्घ एवं
चुलनी की हर गतिविधि पर पूरा ध्यान रखता था। उसे उनके षड्यंत्र का पता चल गया और वह वर-वधू के प्राणों की रक्षा के उपाय सोचने लगा। उसने दीर्घराज से बड़ी नम्रतापूर्वक निवेदन किया-महाराज! मेरा पुत्र प्रधानामात्य के पदभार को संभालने में पूर्ण योग्य हो चुका है और मैं वृद्धावस्था के कारण राज्य की कार्य-व्यवस्था में अपेक्षित तत्परता के साथ
परिश्रम नहीं कर पा रहा हूँ। अब मैं अपना समय दान न-धर्मादि में व्यतीत करना चाहता हूँ। अतः प्रार्थना है कि मुझे प्रधानामात्य के कार्यभार से मुक्त कर दिया जाए।
दीर्घ भी कम चतुर नहीं था। उसकी कुटिल बुद्धि में यह भावना उत्पन्न हुई कि इसे राजकार्य से अवकाश मिल गया तो हमारी योजनाओं का पता लगाकर मेरी सभी दुरभिसन्धियों को चौपट कर देगा। अत: उसने बड़े ही मधुर स्वर में उत्तर दिया-मंत्रिवर!
आप जैसे विलक्षण बुद्धि-सम्पन्न मंत्री के बिना हमारा काम एक दिन भी नहीं चल सकता। अत: आप मंत्रिपद पर रहते हुए ही दान आदि धार्मिक कार्य करते रहिए।
धनु ने दीर्घ का अनुरोध स्वीकार कर लिया और
गंगानदी के तट पर विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। समस्त राजकार्य कुशलतापूर्वक सँभालते हुए उन्होंने गंगा तट पर अन्नदान का महान् यज्ञ किया।
यज्ञ-मण्डप से हजारोंलोगों को प्रतिदिन अन्नादि मिलने लगा। धनु ने इस अन्नदान आदि कार्यों से मिलने वाले धन से अपने विश्वस्त कर्मचारियों की सहायता से यज्ञमण्डप से लाक्षागृह तक एक सुरंग कानिर्माण करवा लिया। साथ में पुष्पचूल को दीर्घ और चुलनी के षड्यंत्र से अवगत करा सारा कार्य बड़ी सावधानी से करने की सलाह दी।
जिज्ञासु के निवेदन पर ही आगे की कहानी लिखी जाएगी
महामात्य के परामर्श के अनुसार पुष्पचूल ने बड़ी
धूमधाम के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह-महोत्सव सम्पन्न
करवाया और कन्यादान के रूप में बहुमूल्य विपुल सामग्री के साथ नववधू को वर के साथ विदा किया।
आगे क्रमशः.........
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती भाग .2
महामात्य के परामर्श के अनुसार पुष्पचूल ने बड़ी
धूमधाम के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह-महोत्सव सम्पन्न
करवाया और कन्यादान के रूप में बहुमूल्य विपुल सामग्री
के साथ नववधू को वर के साथ विदा किया।
काम्पिल्य नगर में दीर्घ और चुलनी ने सुहागरात्रि
के लिए अपने पुत्र और पुत्र-वधू को लाक्षागृह में भेजा।
धनु के संकेत से सचेत और सावधान होकर पुष्पचूल ने वधू के रूप में अपनी पुत्री पुष्पवती की जगह उसी के समान आकार और रूपवाली दासी-पुत्री को भेजा था, जिसका पता किसी को भी नहीं चल पाया। रात के समय लाक्षागृह लाल-लाल लपलपाती ज्वालामयी लपटों से घिर उठा और देखते-देखते वह गगनचुम्बी महल द्रव बनकर इधर-उधर बहने लगा।
उधर वरधनु द्वारा सारी स्थिति से अवगत हो ब्रह्मदत्त उसके साथ सुरंग मार्ग से गंगातट पर स्थित यज्ञ मण्डप में जा पहुंचा।
प्रधानामात्य धनु ने ब्रह्मदत्त और वरधनु को दो तेज दौड़ने
वाले घोड़ों पर बिठाकर सुदूर प्रदेश के लिए रवाना कर दिया और स्वयं भी किसी निरापद स्थान की खोज में निकल गया।
दोनों घोड़े पवन वेग से निरन्तर भागते-भागते
काम्पिल्यपुर से 50 योजन दूर तो आ गये, पर अनवरत भागने से दोनों घोड़ों के फेफड़े फट गए और वे धराशायी हो गए।
अब ब्रह्मदत्त और वरधनु अपने पैरों के सहारे बेतहाशा भागने लगे और भागते-भागते कोष्ठक ग्राम पहुँचे।
ब्रह्मदत्त को गाँव के बाहर ही छोड़कर वरधनु गाँव में गया और एक नाई को साथ ले आया। नाई से अपना सिर मुंडवाकर ब्रह्मदत्त ने काले वस्त्र पहन लिए और अपने श्रीवत्स चिह्न को ढंक लिया।
वरधनु ने अपना यज्ञोपवीत उसके गले में डाल दिया। इस
तरह वेश बदल कर वे ग्राम में घुसे तो एक ब्राह्मण उन्हें अपने घर ले गया और बड़े सम्मान से उन्हें भोजन देकर विश्राम करने के लिए कहा।
दोनों मित्र बैठे ही थे कि ब्राह्मणी अपनी परम सुन्दरी
पुत्री बन्धुमती के साथ आई और ब्रह्मदत्त के सम्मुख हाथ
जोड़कर खड़ी हो गई। दोनों मित्र आश्चर्य चकित हो एकदूसरे का मुँह देखने लगे। ब्राह्मणी बोली-मेरी कन्या के
चक्रवर्ती राजा की पत्नी होने का योग है। निमित्तज्ञों ने इसके वर की जो पहचान बताई है वह पहचान मुझे आज मिल गई है। उन्होंने कहा था कि जो व्यक्ति अपने “श्रीवत्स चिह्न'को वस्त्र से छिपाए हुए तुम्हारे घर आकर भोजन करे वही तुम्हारी कन्या का वर होगा।
ब्रह्मदत्त का विवाह बन्धुमती के साथ हो गया। एक
रात्रि के सुख के पश्चात् पुनः दुःख का दरिया। सूर्य उदय भी न हो पाया था कि दीर्घराज के सैनिकों ने कोष्ठक ग्राम को घेर लिया। यह देख दोनों मित्र ब्राह्मण के घर से बाहर निकले और वन्य-मृगों की तरह वन के वृक्षों और झाड़ियों में छिपछिपा कर भागते रहे। भागते-भागते ब्रह्मदत्त को तीव्र प्यास लगी। उसने वरधनु से कहा-वरधनु! अब एक पग भी नहीं चला जाता, प्यास से प्राण निकल रहे हैं।
ब्रह्मदत्त एक पेड़ के सहारे बैठ गया। ब्रह्मदत्त को वहीं छोड़कर वरधनु पानी लेने गया। पानी लेकर आ ही रहा था कि कुछ सैनिकों ने उसे घेर लिया और ब्रह्मदत्त के बारे में पूछने लगे। वरधनु ने कोई उत्तर नहीं दिया तो सैनिक उसे मारने लगे। मारे खाते वरधनु ने ब्रह्मदत्त को इशारों से भाग जाने के लिए कहा। ब्रह्मदत्त घने वृक्षों और झाड़ियों की ओट से भागने लगा। तीन दिन तक लगातार भागते रहने के बाद ब्रह्मदत्त ने एक तापस को देखा।
तापस ब्रह्मदत्त को अपने आश्रम के कुलपति के पास ले
गया। कुलपति ने ब्रह्मदत्त का तेजपूर्ण व्यक्तित्व तथा वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न देखा और आश्चर्य चकित हो पूछा कि तुम इस स्थिति में कैसे फँस गए?
ब्रह्मदत्त ने अपना सारा वृत्तान्त कुलपति को सुनाया
तब उन्होंने उसे अपने हृदय से लगा लिया और बोले-वत्स,तुम्हारे पिता महाराज ब्रह्म मेरे बड़े भाई के समान थे। इस आश्रम को तुम अपना ही घर समझो और आनन्द से रहो।
ब्रह्मदत्त वहाँ रहकर विद्याध्ययन करने लगा। उसकी
कुशाग्रबुद्धि से प्रभावित होकर कुलपति ने उसे सब प्रकार के शास्त्रों, विद्याओं तथा शस्त्रास्त्रों की शिक्षा दी। विद्याभ्यास करते एवं आश्रम में रहते हुए ब्रह्मदत्त सर्वांग-स्वस्थ और सुन्दर सात धनुष की ऊँचाई वाला युवक बन गया था।
एक दिन ब्रह्मदत्त अपने कुछ तापस साथियों के
साथ फल-फूल आदि लाने के लिए वन में गया। वन में उसे हाथी के ताजे पदचिह्न दिखाई दिए। वह हाथी की खोज में निकल पड़ा और पदचिह्नों के पीछे-पीछे चलता हुआ साथियों से बिछड़कर बहुत दूर निकल आया। अन्त में उसने एक जंगली हाथी देखा जो अपनी सूंड से एक वृक्ष को उखाड़ रहा था। ब्रह्मदत्त हाथी से जा भिड़ा, हाथी उस पर झपटा। ब्रह्मदत्त ने हाथी पर अपना उत्तरीय फेंका और ज्यों ही हाथी ने उत्तरीय पकड़ने के लिए अपनी सूंड ऊँची की, त्यों ही ब्रह्मदत्त उछलकर हाथी के दाँतों पर पैर रख पीठ पर सवार हो गया। हाथी पर सवार होकर वह बड़ी देर तक उसके साथ क्रीड़ा करता रहा कि एकाएक काली घटाएँ घिर आईं और मूसलाधार वृष्टि होने लगी। वर्षा से भीगता हुआ हाथी चिंघाड़कर भागा। ब्रह्मदत्त एक विशाल वृक्ष की डाल पकड़कर उस पर चढ़ गया। जब बरसात कुछ मंद पड़ी तो घनी मेघ-घटाओं से दिशाएँ धुंधली हो चुकी थीं।
ब्रह्मदत्त पेड़ से उतरकर आश्रम की ओर चला पर दिग्भ्रमित हो दूसरे वन में जा पहुँचा। इधर-उधर भटकता हुआ वह एक नदी के तट पर पहुँचा। उसने तैरकर नदी पार की तो पास ही उसे एक उजड़ा हुआ गाँव दिखाई दिया। आगे बढ़ने पर वह घने बाँसों के झुरमुट के बीच पहुँचा, जहाँ उसे एक तलवार और ढाल रखी दिखाई दी। उसने कुतूहलवश बाँसों के झुरमुट को काटना
शुरु किया। झुरमुट को काटते-काटते उसे अपने सामने
मनुष्य का कटा हुआ सर और धड़ गिरकर तड़पड़ाता दिखाई दिया। ध्यान से देखने पर पता चला कि कोई मनुष्य बाँसों पर उल्टा लटक कर किसी विद्या की साधना कर रहा था, जिसे बिना देखे अज्ञानतावश उसने काट डाला था। उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई कि उसने व्यर्थ ही एक साधनारत युवक की हत्या कर दी है।
पश्चात्ताप करता हुआ आगे बढ़ा तो उसने एक रमणीय
में भव्य भवन देखा। वह भवन की सीढ़ियों पर चढ़ने
लगा तो उसे एक सजे हुए कमरे में एक अपूर्व सुन्दर कन्या पलंग पर चिंतित मुद्रा में बैठी दिखाई दी। आश्चर्य करते हुए वह उस बाला के पास पहुँचा और बोला-देवी, तुम कौन हो और इस निर्जन भवन में इस प्रकार क्यों बैठी हो? युवती अचानक एक युवक को अपने सम्मुख देखकर भयभीत हो गई। उस स्त्री ने पूछा-आप कौन हैं और आपके यहाँ आने का प्रयोजन ? ब्रह्मदत्त ने शांत और स्थिर स्वर में युवती को निर्भय करते हुए कहा-देवी! मैं पांचाल-नरेश ब्रह्म का पुत्र...!
ब्रह्मदत्त अपना वाक्य पूरा भी न कर पाया था कि
वह युवती उसके पैरों में गिर पड़ी-कुमार! मैं आपके मामा
पुष्पचूल की पुत्री पुष्पवती हूँ, जिसे वाग्दान में आपको दिया गया था। पर आपके साथ विवाह होने के पूर्व ही नाट्योन्मत्त नामक विद्याधर मेरा हरण कर मुझे यहाँ ले आया। मुझे वशीभूत करने के लिए वह पास ही किसी झाड़ी में विद्या की साधना कर रहा है। अब मैं आपकी शरण में हूँ, आप मेरी रक्षा करें। कुमार ने पुष्पवती को पूर्णतया आश्वस्त करते हुए कहा-वह विद्याधर अभी-अभी मेरे हाथों अज्ञान में मारा गया है। मेरे रहते हुए तुम्हें किसी प्रकार का भय नहीं।
तत्पश्चात् ब्रह्मदत्त ने पुष्पवती के साथ गांधर्व-विधि से विवाह किया और इस प्रकार चिर दुःख के बाद फिर सुख के झूले में झूलने लगा। रात्रि के व्यतीत होने पर एकाएक बादलों की गड़गड़ाहट-सी आवाज सुनकर ब्रह्मदत्त चकित हो इधरउधर देखने लगा तो पुष्पवती ने कहा-यह विद्याधर की खण्डा और विशाखा नामक बहनों के आने का संकेत है। मुझे इनका तो कोई डर नहीं है, पर अपने भाई की मृत्यु का समाचार जानकर अगर अपने अन्य भाइयों को ले आई तो संकट का सामना करना पड़ सकता है। अच्छा होगा, आप छिप जाएँ।
मैं इनसे बात कर इनके मन में आपके प्रति आकर्षण उत्पन्न करने की कोशिश करूँगी, अगर बात बनती दिखी तो मैं लाल पताका फहराऊँगी और आप नि:शंक बाहर आ जाइयेगा। अन्यथा श्वेत पताका दिखाकर संकेत करूँगी कि उनका क्रोध शांत नहीं हो रहा है और आप चुपचाप भाग जाइएगा। पुष्पवती विद्याधर बहनों के स्वागतार्थ चली गई और ब्रह्मदत्त उसकी ओर से संकेत की प्रतीक्षा करता रहा।
एकाएक उसे सफेद पताका हिलती दिखाई दी और उसने
सोचा वहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है और चुपचाप वन की ओर चल पड़ा। घने वन को पार करने के बाद वह एक विशाल जलाशय के पास पहुँचा। जलाशय के स्वच्छ जल का आकर्षण संवरण न कर सका और उसमें कूद पड़ा तथा धीरे-धीरे तैरते हुए दूसरे किनारे पर जा पहुँचा। वहाँ उसे पास के लताकुंज में फूल चुनती हुई एक अति सुन्दर कन्या दिखाई दी। वह उसकी ओर देखता ही रह गया। उसे लगा जैसे वह भी उसकी ओर देख कर धीरे-धीरे मुस्कुरा रही है। फिर उसने देखा कि वह अपनी एक सहेली से उसकी ओर संकेत कर के कुछ कह रही है और कुछ ही क्षणों बाद दोनों ही उस लताकुंज में अदृश्य हो गईं।
ब्रह्मदत्त उसी दिशा में मुग्ध-सा देखता रह गया। तभी उसे अपने पास ही पायल की झंकार सुनाई दी। उसने मुड़कर देखा तो उस सुन्दरी की दासी को ताम्बुल, वस्त्र और आभूषण लिये अपने सम्मुख खड़े पाया। उसने
ब्रह्मदत्त से कहा-आप ने कुछ समय पहले जिन राजकुमारीजी को देखा था उन्होंने आपकी सेवा में ये वस्तुएँ भेजी हैं और साथ ही कहा है कि मैं आपको उनके पिताजी के मंत्री के यहाँ पहुँचा दूँ। ब्रह्मदत्त चित्रलिखित-सा उस दासी के पीछेपीछे चल पड़ा।
उस सुन्दर कन्या का नाम श्रीकान्ता था। वह वसन्तपुर के राजा की एकमात्र कन्या थी। श्रीकान्ता का पिता
वैसे तो वसन्तपुर का राजा था पर गृह-कलह के कारण
चौरपल्ली में आकर रहने और राज्य करने लगा था। उन्होंने ब्रह्मदत्त का स्वागत तथा आदर-सत्कार किया और अपनी पुत्री के साथ बड़ी धूम-धाम के साथ उनका विवाह कर दिया। ब्रह्मदत्त एक बार फिर राजसी सुख का आनंद लेने लगा।
एक दिन वसन्तपुर जाने की इच्छा से वह चौरपल्ली
से चला। रास्ते में शाम हो गई अतः रात बिताने के लिए वह एक छोटे से नगर के अतिथिगृह में चला गया। अतिथिगृह में रहने की व्यवस्था करके वह भोजनशाला में पहुँचा ही था कि दरवाजे से भीतर प्रवेश करते हुए एक व्यक्ति पर उसकी निगाह पड़ी। ध्यान से देखने पर उसने पाया कि वह कोई और नहीं, उसका साथी वरधनु है। उसने दौड़कर वरधनु को गले से लगा लिया। वरधनु भी ब्रह्मदत्त से मिलकर आश्चर्यपूर्ण प्रसन्नता से नाच उठा।
दोनों मित्रों ने साथ-साथ भोजन किया और दोनों ब्रह्मदत्त के कमरे में ही सोने के लिए गए। वरधनु ने अपनी कहानी सुनाते हुए कहा-मैं तुम्हारे लिए पानी ला ही रहा था कि दीर्घ के सैनिक मुझे पकड़कर मारने और आपके
बारे में पूछने लगे तो मैंने उन्हें बताया कि आपको एक शेर ने खा लिया है। इस पर मुझसे उन्होंने वह स्थान बताने को कहा। उन्हें इधर-उधर भटकाते हुए मैंने आपको इशारे से भाग जाने को कहा। आपके भाग जाने के बाद उन्होंने मारमार कर मुझे अधमरा बना दिया। अवसर पाकर मैंने मूर्छा की गोली मुँह में रख ली, जिससे मुझे मरा समझ कर वैसे ही छोड़.कर चले गए। उनके जाने के बाद मुँह से गोली निकाल कर मैंने आपको ढूँढना शुरु किया, पर आपका कहीं पता न चला। पिताजी के एक मित्र से पिताजी के कहीं भाग जाने और दीर्घ द्वारा माताजी को सताए जाने का समाचार मिला
तो मैंने किसी तरह माताजी को काम्पिल्यपुर से हटा लेने का निश्चय किया। बड़े नाटकीय तरीके से मैं माताजी को वहाँ से बाहर लाकर पिताजी के एक घनिष्ट मित्र की देखरेख में छोड़कर आपकी खोज में निकला और भटकता हुआ आज यहाँ पहुँचा हूँ।
इसके बाद ब्रह्मदत्त ने अपना सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया।
ब्रह्मदत्त अपनी कहानी पूरी भी नहीं कर पाया था कि उन्हें
दीर्घराज के सैनिकों के बड़े दल के आने की सूचना मिली। वे दोनों भाग कर वनों और गुफाओं में भटकते हुए कौशाम्बी नगरी पहुंचे।
और आगे क्रमशः........
जाएगी 🙏
आपने बहुत सुन्दर तरीके से यह कथा प्रस्तुत की है बहुत आभार. कृपया इसके आगे के भाग भी पोस्ट करे.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
Puri katha kahe
हटाएंइस कहानी को अंतिम परिणाम तक पहुंचाया जाय।सही और सत्य मभिरतीय इतिहास को जानवूझकर ओझल कर दिया गया है।
जवाब देंहटाएंकैलाश ठाकुर से वा निवृत्त वाणिज्य कर संयुक्त आयुक्त प्रशासन पूर्णियां प्रमंडल एवं कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष अंगिका संसद भागलपुर
Kahani ka next part upload karen
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