कथा आर्य रक्षितसूरी जी
आर्य रक्षितसूरी जी भाग 1
चमकते तारों को तो सभी दिशाएं धारण करती है………….परंतु तेजस्वी सूर्य की जनेता का यश तो ‘पूर्व’ दिशा को ही है।
बस! सामान्य पुत्रों को जन्म देने वाली तो अनेक स्त्रियां है, परंतु युगप्रधान जैसे महर्षियों की जनेता तो विरल ही रूद्रसोमा जैसी माताएं होती है।
इतिहास के पन्नों पर अंकित इस महान प्रभावक चरित्र को जरा ध्यान से/ गौर से पढ़िए।
संभव है, आपके जीवन में नया मोड़ आ जाए…….. आपके जीवन की दिशा ही बदल जाए।
माँ तू प्रसन्न क्यो नही है?..
संगीत के सुरीले स्वरों में अंतर के भावों को अभिव्यक्त करने की शक्ति रही हुई है। परमात्मभक्ति के रस में निमग्म भक्त भक्त जब वीणा के मधुर स्वर के साथ तन्मय बन जाता है……….तब उसे पता ही नहीं चलता है कि समय कितना बीत चुका है।
संगीत के स्वरों ने किसको आकर्षित नहीं किया? भोगी और योगी, दोनों के आकर्षण का केंद्र बना है संगीत।
भोगी को पसंद है कामोत्तेजक संगीत।
योगी को पसंद है भक्ति और समर्पण का संगीत।
समर्पण सभी के जीवन का अंग है। हां! समर्पण की दिशा………. समर्पण का पात्र भिन्न भिन्न हो सकता है।
किसी का समर्पण होता है……… विशुद्ध आत्मा के चरणों में…….. तो किसी का समर्पण होता है जड़ के रंगों से रंजीत भौतिक देह और देही के प्रति।
समर्पण आनंद भी देता है और विषाद भी।
शाश्वत तत्व के प्रति किया गया समर्पण आनंद में परिणत होता है।
क्षणिक तत्व के प्रति किया गया समर्पण अंत में विषाद को जन्म देता है
आर्य रक्षितसूरी जी भाग 2
प्रातः काल की मधुर बेला में प्रकृति का सौंदर्य सभी के आकर्षण का केंद्र बना हुआ था। पूर्व दिशा में लालिमा छा चुकी थी। उषा देवी सूर्यनारायण के स्वागत के लिए आतुर थी। कोकिल के सुरीले संगीत से वातावरण मनमोहक बन रहा था। धरती माता सूर्य किरणों की चादर ओढ़ने के लिए उत्सुक थी।
दशपुर की जनता में आज आनंद समा नहीं रहा था। प्रजाजनों के ह्रदय सरोवर में आनंद की उर्मिया उछल रही थी।
महाराजा से लेकर सामान्य जनता तक के ह्रदय में बड़ी भारी उत्सुकता थी।
स्नान आदि से निवृत्त होकर, सुंदर वस्त्रों को धारण कर सभी प्रजाजन नगर के बाहर स्थित मनोरम उद्यान की ओर जा रहे थे। नारियां गीत गा रही थी। हाथी घोड़े रथ और पैदल से वातावरण प्रफुल्लित बना हुआ था। कभी हाथी की गर्जना……….तो कभी घोड़े का हेशारव, बालको के दिल को प्रसन्न कर रहा था।
प्रजावत्सल महाराजाधिराज उदायन भी रथ में आरूढ़ हो चुके थे। वह भी मनोरम उद्यान की ओर आगे बढ़ रहे थे। वीरज, बांसुरी, ढोलक, मृदंग व अन्य वाद्ययंत्रों के स्वर से वातावरण संगीत मय बना हुआ था। सभी नर नारियों के मुख मंडल में प्रसन्नता थी। जयजयकार के नारों से समूचा आकाश मंडल गूंज रहा था। चारों और स्वागत की शहनाइयां बज रही थी।
गत दिन नगर में चारों और नगर-रक्षकों के द्वारा आर्यरक्षित के आगमन पर स्वागत कि यह उदघोषणा हो चुकी थी।
दशपुर नगर के शणागार समा विप्रवर सोमदेव पुरोहित के पुत्र पण्डितवर्य आर्यरक्षित चोदह विद्याओ में पारगामी बनकर पाटलिपुत्र नगर में पधार रहे है।
ज्ञान की गंगोत्री समान आर्यरक्षित के स्वागत के लिए महाराजा स्वयं नगर के बाहर पधारेंगे………… अतः सभी प्रजाजनों को इस स्वागत यात्रा में पधारने की आज्ञा है।
नगर के नर नारियों के ह्रदय में नया उत्साह व नयी उमंग थी। सबके अधिक आनंद तो विप्रवर सोमदेव को था। सोमदेव के ह्रदय में आनन्द समा नही रहा था ।
भाग 3
लगभग 12 वर्ष के बाद पिता-पुत्र का मिलन होने वाला था। सोमदेव अपने दिलोदिमाग में अनेक कल्पना चित्र संजो रहा था।
आज वह अपने पुत्र के प्रती गर्व ले रहा था। मेरा पुत्र चोदह विद्याओ में पारगामी बनकर आ रहा है,……….वह राजसभा की शोभा में चार चांद लगाएगा……. मेरी कीर्ति का ध्वज दिग-दिगंत तक फैलाएगा।- वह भी सज धज कर अपने मित्र परिवार के साथ मनोरम उपवन में जाने के लिए निकल पड़ा था।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस देश के महाराजा भी विद्वानों का आदर सत्कार और सम्मान करते थे। “विद्वान सर्वत्र पूज्यते” की उक्ति को वे प्राचीन राजा-महाराजा अपने जीवन में सार्थक करते थे। वाद-संवाद-संगोष्ठी तथा प्रवचन आदि के माध्यम से प्रजाजनों के संस्कारों के सिंचन के लिए वे अत्यंत जागरूक रहते थे।
दशपुर के राजा उदायन भी विद्वद प्रिय थे। वे अपनी राजसभा में विद्वानों को योग्य स्थान देते थे और उन्हें गौरव व सम्मान देते थे।
कुछ ही दिनों पूर्व राजा को आर्यरक्षित की प्रतिभा के समाचार मिले थे …………..तभी से उनके दिल में आर्यरक्षित के स्वागत की तीव्र इच्छा थी।
अपनी भावना के अनुरूप महाराजा ने आर्यरक्षित के स्वागत के लिए संपूर्ण नगर में घोषणा करवा दी थी।
दशपुर प्रजा भी विद्याव्यासंगी थी। विद्वनों के प्रति प्रजा के दिल में सद्भावना थी। इसी का फल था कि सभी प्रजाजन मनोरम उपवन की ओर जा रहे थे।
पण्डितवर्य आर्यरक्षित पास ही के गांव से आ रहे थे ……..उनके दो परिचित मित्र भी उनके साथ थे।
बराबर शुभ मुहूर्त मैं आर्य रक्षित मनोरम उद्यान में आ पहुंचे।
उनके आगमन के साथ ही पंडितवर्य आर्यरक्षित की जय हो के नाद से संपूर्ण आकाश गूंज उठा।
भाग। 4
महाराजा उदायन और विप्रवर सोमदेव अग्र पंक्ति में खड़े थे।
आर्यरक्षित ने सर्वप्रथम महाराजा और अपने उपकारी पिता सोमदेव के चरणों में प्रणाम किया।
वर्षों बाद पिता पुत्र का वह अद्भुत मिलन था। दोनों की आंखों में हर्ष केआंसू बह रहे थे। पुत्र के दिल में समर्पण और सम्मान का भाव था।
पुत्र के इस नम्र व्यवहार से सोमदेव का ह्रदय आनंद से भर आया……….पिता ने पुत्र को हृदय से आशीर्वाद दिए।
त्याग, नम्रता और समर्पण आर्य संस्कृति के जीवंत प्रतीक हैं। राजा आर्यरक्षित को आशीर्वाद दिया……. और उसे हाथी पर आरूढ़ किया। वाद्य-यंत्रों की ध्वनि और जय जयकारों से सारा आकाश मंडल गूंज उठा।
नगर वासियों ने आर्यरक्षित का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन किया।
आर्यरक्षित भी हाथ जोड़कर सभी का अभिवादन स्वीकार कर रहे थे।
स्वागत यात्रा धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।
सभी के दिल में आनंद और उत्साह था। चारों और भीड़ जमा थी।
सभी के मुख पर प्रसन्नता थी……… परंतु आर्यरक्षित कुछ विचारों में खो गए थे। उनकी नजर चारों और घूम रही थी। ज्यों-ज्यों उनकी नजर दौड़ रही थी……… त्यों-त्यों उनका दिल व्यथा से भर रहा था। भीड़ के बीच स्वजन कुटुम्बी व मित्रजन सभी दिखाई दे रहे थे …….परंतु वात्सल्यमूर्ति मां के कहीं दर्शन नहीं हो पा रहे थे।
माता तो वात्सल्य की साक्षात मूर्ति होती है। उसके रोम रोम में संतान के प्रति प्रेम और वात्सल्य होता है।
विशाल भीड़ के बीच मां के दर्शन न होने से आर्यरक्षित का मन व्यथित हो उठा।…….सभी स्वजन मित्रजन आ गए ………परंतु मां क्यों नहीं आई?
क्या मां को मेरा स्वागत पसंद नहीं? क्या मां के दिल में अब मेरा कोई स्थान नहीं? क्या मां के प्रति मुझसे कोई अविनय हो गया? क्या मां स्वस्थ नहीं है? इत्यादि अनेक विचारों आर्यरक्षित के मन को घेर रखा था।
ज्यों-ज्यों स्वागत यात्रा आगे बढ़ रही थी ……..त्यों-त्यों मां के दर्शन की उत्कंठा तीव्र बनती जा रही थी……..परंतु अफसोस! नगर के किसी भी द्वार पर आर्यरक्षित को अपनी मां के दर्शन नहीं हो सके।
मां के बिना उसे यह स्वागत/आडंबर नीरस प्रतीत हो रहा था।
भाग5 आर्य रक्षितसूरी जी
आर्यरक्षित के मन में मां के प्रति अद्भुत समर्पण और सम्मान था।
उनकी हर नजर मां को शोध रही थी………. परंतु उनकी दर्शन-पिपासा किसी भी तरह शांत नहीं हो पा रही थी।
बाह्य चक्षुओं से आर्यरक्षित सभी के अभिवादन को स्वीकार कर रहे थे……. परंतु उनके अभ्यंतर नेत्र तो मां के दर्शन के लिए तड़प रहे थे।
स्वागत यात्रा राजमार्गों से गुजर रही थी…….. धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ वह जुलूस राजमहल की ओर मुडा। राजमहल के पास ही विशाल सभामंडल तैयार था। राजभवन में शोभायात्रा की समाप्ति हुई और वह स्वागत यात्रा राजसभा के रूप में बदल गई।
उदायन महाराज अपने सिंहासन पर आरूढ़ हुए। तालियों की गड़गड़ाहट से सभा मंडप गूंज उठा।
महामंत्री ने सभा का संचालन प्रारंभ किया।
पंडितवर्य आर्यरक्षित ने योग्य आसन ग्रहण किया।
प्रजाजन भी अपने अपने स्थान पर बैठ गए।
सर्वप्रथम खड़े होकर महामंत्री ने हाथ जोड़कर महाराजा को प्रणाम किया। तत्पश्चात परमात्मा की जय बुलवाकर सभा को शांत कीया। फिर वह बोले प्रिय प्रजाजनों आज आपके दिल में आनंद और उल्लास देखकर मेरा मन मयूर नाच उठा है। आप सबको ज्ञात है कि विप्रवर सोमदेव पुरोहित के ज्येष्ठ पुत्र आर्यरक्षित चोदह विद्याओ में पारगामी बनकर अपने नगर में पधारे हैं। आज हमने आर्यरक्षित का भव्य स्वागत किया। निकट भविष्य में ही आर्यरक्षित हमारी राजसभा के एक विशिष्ट अंग बनेंगे…….और उनकी बुद्धि, प्रतिभा से समस्त प्रजा लाभान्वित बनेगी।…….. इसके पश्चात महामंत्री ने आर्यरक्षित का विशेष परिचय दिया।
महामंत्री के बाद स्वयं महाराजा ने खड़े होकर आर्यरक्षित को पुष्पहार पहनाकर उनका हार्दिक स्वागत और अभिनंदन किया और कहा-आज से हमारी सभा को एक अनमोल रत्न की प्राप्ति हुई है, जिससे हमारी राज सभा की शोभा में चार चांद लगेंगे।
भाग 6आर्य रक्षितसूरी जी
अंत में आर्यरक्षित ने अत्यंत विनम्र भाव से कहा- वास्तव में, मैं इस स्वागत के योग्य नहीं हूं। महाराजा तथा पूजनीय माता-पिताश्री के शुभ आशीर्वाद से ही मैं थोड़ा बहुत ज्ञानार्जन कर सका हूं…….. वास्तव में यश के भागी तो वही है……उनकी कृपा से ही मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान मिला है, अतः इस सम्मान के अधिकारी तो वे पुज्यवर ही है ।
इतना कहकर आर्यरक्षित ने अपना आसन ग्रहण किया। तत्पश्चात नगर के मुख्य व्यक्तियों ने आर्यरक्षित की प्रशक्ति करते हुए काव्यपाठ प्रस्तुत किए।
थोड़ी ही देर बाद महामंत्री ने प्रजाजनों का आभार मानकर सभा विसर्जित कर दी।
आर्यरक्षित अपने स्वजन- मित्रजन वर्तुल के साथ अपने घर की ओर आगे बढ़ने लगे। हर दृष्टि हर नजर में वे अपनी मां को खोज रहे थे……परंतु कहीं भी उनकी उन्हें अपनी प्यारी मां के दर्शन नहीं हो पाए। तीर्थसभा मां के चरण-रज के स्पर्श के लिए उनके दिलो-दिमाग में तड़पन थी। जल बिन मछली की भांति उन्हें इस स्वागत में कोई भी आनंद नहीं आया था।
आर्यरक्षित ने सोचा- शायद घर के वह कौन थे, जिनको मृत्यु के रुदन के निमित्त से वैराग्य आया था❓ पर मां खड़ी होगी। मां के दर्शन कर में पावन बन सकूंगा। परंतु घर भी आ गया। आर्यरक्षित की आशा के बादल बिखर गए…….. माता के दर्शन की पिपासा शांत ना हो पाई। पड़ोस की स्त्रियों ने अक्षत और कुमकुम का तिलक कर आर्यरक्षित का स्वागत किया।
आर्यरक्षित ने घर आंगन में प्रवेश किया……. परंतु कहीं भी उन्हें अपनी प्राण प्यारी मां दिखाई नहीं दी…… आखिर मन में घूमड रहा वह प्रश्नवाचा के द्वारा व्यक्त हो ही गया।
आर्यरक्षित ने पुकारा- “मां….. मां….. मां….ओ मां!”
परन्तु घर के किसी कोने से कोई प्रत्युत्तर प्राप्त नहीं हुआ।
आखिर आर्यरक्षित ने पूछ ही लिया, “मां कहां है”?
पता चला मां ऊपरी खंड में बैठी है और सामायिक कर रही है। मां की ममता का प्यासा आर्यरक्षित तेजी से ऊपरी खंड में पहुंच गया। दूर से ही उसने माँ के दर्शन किए और उसकी आंखें हर्ष व आनंद से भीग गई।
भाग7 आर्य रक्षितसूरी जी
……. आर्य रक्षित ने दूर से ही मां के चरणों में प्रणाम किया।
परंतु आश्चर्य मां ने कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया।
मां रुद्रसोमा उच्चतम संस्कारों से युक्त महासती सन्नारी थी। बचपन से ही उसने जैन धर्म का गहन अभ्यास किया था। जीव क्या है? पुण्य और पाप क्या है? इत्यादि तत्वों से वह पूर्ण ज्ञाता थी। तत्व की वह शुष्क ज्ञाता मात्र नहीं थी, उसने जैन तत्वज्ञान को जीवन में आत्मसात भी किया था……… उसके रोम रोम में जिनेश्वर परमात्मा के प्रति अपूर्व भक्ति और समर्पण का भाव था। उसका ह्रदय मैत्री के भावों से भावित था। ईर्ष्या, द्वेष व अहंकार की कालीमा को उसमें प्रेम-मैत्री व नम्रता, जल से धो दिया था। जगत के यथार्थ स्वरुप का उसे ज्ञान था। जगत के कर्मजन्य वैचित्र्य भावों को देखकर वह समत्व भाव में स्थिर रह सकती थी।
सम्यग्दर्शन का प्रदीप उसकी अंतरात्मा में प्रज्वलित था। आत्मबंधन रूप राग,द्वेष के यथार्थ स्वरुप की वह ज्ञाता थी। ‘ममत्व ही बंधन है’ । इस सनातन सत्य को मात्र उसने जाना ही नहीं था, बल्कि उसे जीवन में आत्मसात भी किया था। और इसी के फलस्वरुप उसे यह भौतिक संसार एक बंधन सा प्रतीत हो रहा था। जिनेश्वर परमात्मा के द्वारा बताए हुए सनातन सत्य के प्रति उसके दिल में अपूर्व श्रद्धा थी। संसार के भौतिक सुख क्षणिक है, नाशवंत है, इन सुखों की प्राप्ति से, आत्मा कभी तृप्त होने वाली नहीं है,- यह बात उसके दिल में जम चुकी थी।
रूद्रसोमा के मन में त्याग-तप और विरक्ति की भावना थी। वह अनेक बार सोचती थी, इस संसार के बंधन से में कब छुटूंगी?……. वह दिन कब आएगा जब मैं संसार के नश्वर संबंधों से मुक्त होकर शाश्वत पदार्थ आत्मा के साथ संबंध जोड़ सकूंगी! क्या मेरी संतान इसी भौतिक मार्ग पर चलेगी? अहो! क्या मेरी संतान भी भौतिकवाद के रंग में रंग जाएगी? ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे मैं अपनी संतान को इस संसार से मुक्त कर सकूं?
वह सदा परमात्मा की पूजा भक्ति करती और प्रभु से भव-निर्वेद, मोक्ष संवेग, मार्गानुसारिता आदि गुणों की प्रार्थना करती।
मां रुद्रसोमा को भी यह समाचार मिल चुके थे कि उसका पुत्र चौदह विद्याओ में पारगामी बनकर आज नगर में प्रवेश कर रहा है………और महाराजा की ओर से उसका स्वागत होने वाला है…….. परंतु उस स्वागत यात्रा में वह नही गई थी।
भाग8 आर्य रक्षितसूरी जी
थोड़ी ही देर बाद रुद्रसोमा की सामयिक पूर्ण हुई।सामयिक में वह मोन थी …….उसने अपने पुत्र आर्यरक्षित को कुछ भी नहीं कहा था क्योंकि वह जानती-समझती थी कि सामयिक में संसार संबंधी किसी भी प्रकार का चिंतन नहीं करना चाहिए। उस नियम के पालन में वह दृढ थी।
आर्यरक्षित भी जानता था कि मां सामायिक में है, अतः उसकी चरणरज का स्पर्श नहीं हो सकता है……. अतः वह भी मां के सामने मौन खड़ा था।
रुद्रसोमा ने सामयिक पूर्ण की और तत्क्षण आर्यरक्षित प्यारी मां के चरणों में गिर पड़ा। उसकी आंखों से आनंद के आंसू प्रवाहित होने लगे।
आरक्षित ने देखा- मां के चेहरे पर कोई प्रसन्नता सूचक चिन्ह नहीं है।
उसने पूछा- “मां! ओ मां! आज नगर के समस्त प्रजाजनों के दिल में आनंद की उर्मियाँ उछल रही है। सभी खुश है……. परंतु तेरी आंखों में विषाद क्यों?”
उसने सोचा- इतने शास्त्रों के अध्ययन के बाद भी यदि मैं अपनी मां को खुश नहीं कर सका……. तो मुझे धिक्कार है।
इतना सोच कर उसने कहा- ओ मां! तेरी अप्रसन्नता का कारण क्या है?
…… तेरे मुख पर बिषाद देखकर मेरा दिल कांप रहा है, माँ! जो भी कारण हो, मुझे कह, मैं तेरी मुख की विषाद अवस्था को देखने में असमर्थ हूं।
मां! मेरी जो भी गलती हो…… मुझे बता मैं तेरी आज्ञा शिरोधार्य करूँगा। दुनिया को प्रसन्न करके मुझे कोई आनंद नहीं है, ‘मैं तो तेरी प्रसन्नता चाहता हूं।’ बोलते-बोलते आर्यरक्षित का गला भर आया…….वह आगे कुछ बोल भी नहीं पाया। श्रमणोपासिक माँ रुद्रसोमा ने अपने पुत्र में मातृभक्ति का आदर्श देखा,….. शांति और गंभीर स्वर से अपनी वाचना प्रकट करते हुए वह बोली- “बेटा, मैं तेरी मां हूं….. इसीलिए अप्रसन्न हूं।”
मां के शब्द आर्यरक्षित ने सुने…… परंतु वह कुछ भी समझ नहीं पाया।
उसने कहा- “मां होकर अप्रसन्नता का कारण? मेरी समझ में नहीं आ रहा है।”
“बेटा! आर्यरक्षित! मेरे दिल में तेरे प्रति प्रेम है…….स्नेह है…..वात्सल्य है….। मेरे ह्रदय में तेरी हितचिंता का झरना बह रहा है…….मैं चाहती हूं, तू पूर्णता प्राप्त कर।”
भाग9 आर्य रक्षितसूरी जी
मां! तुझे पता नहीं है, मै चोदह विद्याओं में पारगामी बन कर आया हूं……. राजा और प्रजा सभी का सम्माननीय बना हूँ। क्या मेरी इस विद्या में अपूर्णता दिखाई दे रही है?”
“बेटा! मेरे दिल में मात्र इस जीवन की ही चिंता नहीं है। तू जानता है कि इस देह में रहा आत्मतत्व शाश्वत है। देहि (आत्मा) शाश्वत है। देह की चिंता/देह के सौंदर्य की चिंता के लिए यह जीवन नहीं है,……… इस जीवन की सार्थकता आत्मा की पूर्णता पाने में है।”
“बेटा! तू जिस विद्या को पढ़ कर आया है……. वह तो विनाशी तत्व की विद्या है। इस विद्या के अभ्यास से पद, प्रतिष्ठा और संपत्ति की प्राप्ति हो सकती है……. परंतु वह सब क्षणिक है। क्षणिक तत्व में आनंद पाना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। तू जानता ही है कि इस दुनिया के भौतिक पदार्थों का सौंदर्य व अस्तित्व क्षणिक और विनाशी है।”
“बेटा! मेरे दिल में तेरे प्रति अपार स्नेह है…… मुझे आनंद होता है यदि तू शाश्वत तत्व की विद्या सीख कर आता। क्षणिक तत्व का आनंद विनाशी है…… शाश्वत तत्व का आनंद अविनाशी है।”
“यह जीवन अल्पकालीन है……… इस जीवन में यदि शाश्वत तत्व से अनुराग न जन्मे तो फिर किस जीवन में आत्म-तत्व की साधना कर पाएंगे? अतः बेटा! इस दुर्गति प्रद विद्या के अध्ययन से में कैसे प्रसन्न बनु?”
“मां! ओ मां! तेरे दिल में मेरे प्रति स्नेह है….. और मेरे दिल में तेरे प्रति भक्ति है….. मेरे लिए तो तू ही तीर्थ है……….तू ही सर्वस्व है….. तू जो आज्ञा करेगी, वह मुझे स्वीकार्य है, बोल! में कौनसा अध्ययन करूं तो तुझे प्रसन्नता होगी?…… मुझे तेरा आशीर्वाद प्राप्त होगा?”
“बेटा! तेरी इस समर्पण भावना से मुझे प्रसन्नता है। बेटा! तू यदि दृष्टिवाद का अध्ययन करें तो मुझे प्रसन्नता होगी।”
“मां के मुख से दृष्टिवाद का नाम सुनकर आर्यरक्षित प्रसन्न हो उठे। उन्होंने सोचा दृष्टिवाद नाम ही कितना सुंदर है! तो फिर उसके अध्ययन में कितना आनंद आएगा?”
“मां! प्यारी मां! मुझे बता…. यह दृष्टिवाद मुझे कौन पढ़ाएगा?”
मां ने कहा, हे वत्स! मेरी बात तू ध्यानपूर्वक सुन। इस दृष्टिवाद के ज्ञाता जैन मुनि होते हैं। वे महासत्वशाली होते हैं, सन्मार्गगामी होते हैं…….. और उस मार्ग पर चलते समय बीच में कितने ही परिषह-उपसर्ग भी आए तो भी वे सन्मार्ग से च्युत नहीं होते हैं। आत्म-साधना ही उनका जीवन मंत्र होता है। भौतिक जगत से पर होते हैं। अब्रह्म और परीग्रह के पाप से वे सर्वथा मुक्त होते हैं। संसार में जीवात्मा को इन्ही दो पापों का आकर्षण होता है….. परंतु यह जैनमुनि इन दोनों पापों से सर्वथा मुक्त होते हैं-इतना ही नहीं वह अपने जीवन में, जीवन निर्वाह के लिए भी किसी जीव की हिंसा नहीं करते है। इनके जीवन में अहिंसा की पुर्ण प्रतिष्ठा होती है। उनका मन परमार्थ में स्थित होता है। दुनिया के क्षणिक और भौतिक सुखों के वे त्यागी होते
हैं…… जीवन की प्रत्येक पल वे आत्मा के शुद्धिकरण में व्यतीत करते हैं। इतना ही नहीं वे सम्यग ज्ञान- सम्यग दर्शन और सम्यक चरित्र की साक्षात मूर्ति होते है।
इस प्रकार जैन मुनि के जीवन का वृतांत कहने के बाद रुद्रसोमा ने कहा, बेटा! इस दृष्टिवाद के ज्ञाता तोसलीपुत्र आचार्य है।
मां! ओ मां! मुझे जल्दी कह…… वे आचार्य कहां विराजमान हैं?
बेटा! वे आचार्य भगवंत अभी इक्षुवाटिका में विराजमान है।
मां! वे मुझे दृष्टिवाद पढ़ाएंगे न?
हां! बेटा! वे तुझे अवश्य दृष्टिवाद सिखाएंगे……तू नम्र है……तू विनीत है…….तू अवश्य उनका कृपापात्र बनेगा। बेटा! जा, मेरा शुभ आशीष है, तू दृष्टिवाद का अध्ययन कर।
मां! तेरी इस मंगल-भावना को पूर्ण करने के लिए मैं कल ही प्रातः काल आचार्य भगवंत के पास जाऊंगा।- आर्यरक्षित ने कहा।
माँ की आंखों में हर्षाश्रु आ गए। आर्यरक्षित मां के चरणों में गिर पड़ा। रुद्रासोमा ने पुत्र के मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए।
मां-पुत्र ने शाम का भोजन किया। तत्पश्चात आर्यरक्षित अपने शयनकक्ष में पहुंच गया।
भाग। 10 आर्य रक्षितसूरी जी
दीक्षा स्वीकार
स्वप्न की दुनिया बड़ी विचित्र है। स्वप्न- सृष्टि मानव ह्रदय में अनेक प्रकार के उत्पाद भी मचाती है और आशा की उज्जवल किरणे भी चमका देती है। स्वप्न की अगम्य कल्पना में मानव कभी नंदनवन में पहुँच जाता है . . . तो कभी मरुभूमि की भयावह रेगिस्तान में भी । कभी हर्ष से नाच उठता है. . . . तो कभी शोक से क्रन्दन कर बैठता है। स्वप्न की रंगीली दुनिया में कभी उत्कर्ष के शिखर पर पहुँच जाता है तो कभी गहरी खाई में डूब जाता है।
पण्डितवर्य आर्यरक्षित शय्या पर सोया हुआ था. . . . परन्तु उसकी आँखो में तन्द्रा या निंद्रा नहीं थी. . . वह अपने उज्जवल भविष्य की कल्पनाओं में डूबा हुआ था जैनाचार्य के पवित्र चरित्र के श्रवण के बाद उसके मन में नई आशा और नई किरण प्रस्फुटित हो रही थी।
आकाश में पूर्णिमा का चंद्र अपनी सोलह कलाओं के साथ खिला हुआ था । चंद्र की निर्मल ज्योत्स्ना धरती पर के अन्धकार पट को चीर रही थी।
वातावरण में निरवता व्याप्त थी आर्यरक्षित के मन में जैनाचार्य से मिलने की तीव्र उत्सुकता और उत्कंठा थी। आर्यरक्षित विचारों में खोया हुआ था. . . धीरे-धीरे रात्रि बढ़ने लगी . . . और आर्यरक्षित निद्राधीन हो गया। वह एक नवीन स्वप्नसृष्टि में खो गया।
नदी के नीर की भाँति समय का प्रवाह अस्खलित गति से बहता रहता है। हाँ! कोई उस प्रवाह के बीच नवीन सर्जन कर देता है . . . तो कोई प्रमाद के वशीभूत होकर समय को व्यर्थ गवा देता है।
रात्रि व्यतीत हुई. . . मुर्गे ने बाँग दी . . . मंगल ब्रह्ममुहूर्त में आर्यरक्षित की निद्रा खुली . . . शय्या पर बैठकर उसने परमात्मा का नाम स्मरण किया ब्रह्मअर्चना की। स्नानादि से निवृत होकर वह फिर वह माँ के चरणों में पहुँच गया। उसने माँ के चरणों में बहुमानपूर्वक प्रणाम किया। माँ ने पुत्र को आशीष दी । माँ का मन प्रसन्नता से भर आया।
भाग11 आर्य रक्षितसूरी जी
ऊषा रानी का सोनेरी पालव सरोवर के सुमधुर जल पर फैल गया था। पूर्व दिशा में मृदु और शीतल वायु चारों दिशाओं में नवीन जीवन भर रहा था। कोयल का कूजन प्रारंभ हो चुका था।
मां की शुभ आशीष लेकर आर्य रक्षित ने इक्षुवाटिका की और प्रस्थान किया।
मन में उत्साह और उमंग हो तो चरणों में भी सहज गति होती है और मन यदि विषाद ग्रस्त हो तो गति में भी सतत ब्रेक लगा रहता है।
आर्य रक्षित के दिल में उमंग और उत्साह था….. अतः वह अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक आगे बढ़ रहा था।
आर्य रक्षित की ख्याति और उसके आगमन को सुनकर अनेक मित्रजन आर्यरक्षित को बधाई और भेंट देने के लिए दशपुर में आ रहे थे। गत दिन भी दूर-दूर से अनेक मित्रजनों ने आकर आर्यरक्षित का अभिवादन किया था।
सोमदेव पुरोहित के एक मित्र को-जो खेती का व्यवसाय करता था, उसे कल देरी से आर्यरक्षित के आगमन के समाचार मिले थे, अतः वह आज सूर्योदय के पूर्व ही अपने गांव से निकलकर सोमदेव पुरोहित के घर आ रहा था। बीच मार्ग में ही उसे आर्यरक्षित मिल गया, उसने आर्यरक्षित का हार्दिक स्वागत किया और उसे इक्षु के दण्ड भेंट देने लगा। आर्यरक्षित ने इक्षुदण्ड गिने बराबर साढे नो टुकड़े थे।
आर्यरक्षित ने कहा-“पूज्यवर! में माता की आज्ञा से बाहर जा रहा हूं….. कार्य समाप्ति के बाद शीघ्र ही वापस जाऊंगा। आप मेरे घर पधारे और माता-पिता को यह भेंट प्रदान करें।
आर्यरक्षित की यह बात सुनकर उस मित्र ने नगर की ओर प्रस्थान किया।
संसार के रंगमंच पर होने वाली घटनाओं के पूर्व संकेत बतलाने में शकुन शास्त्र का एक महत्वपूर्ण स्थान है। शकुन किसी भी घटना का सर्जक नहीं है….. किंतु सूचक अवश्य है शुभ-अशुभ शकुन से हम भविष्य में होने वाली घटनाओं का अनुमान कर सकते हैं।
आर्यरक्षित सोचने लगा- इक्षुवाटिका की ओर ही में जा रहा हूं और मुझे इक्षुखंड के जो शकून हुए हैं…….. वह अत्यंत ही शुभ लगते हैं। जहां तक मुझे लगता है साढे नो गन्नो के संकेत अनुसार मुझे दृष्टिवाद के साढे नो अध्याय अथवा परिच्छेदों का बोध हो सकेगा। इससे अधिक बौध संभव नहीं है।……. इत्यादि सोचते हुए आर्यरक्षित आगे बढ़ने लगा। थोड़ी ही देर में वह इक्षुवाटिका में पहुंच गया।
भाग 12आर्य रक्षितसूरी जी
इक्षुवाटिका के एक खंड में तोसलीपुत्र आचार्य भगवंत विराजमान थे। उस खंड में अनेक मुनिवर स्वाध्याय और ध्यान में तल्लीन थे। स्वाध्याय की शब्द ध्वनि सुन कर आर्यरक्षित द्वार पर ही खड़ा हो गया और असमंजस में डूब गया, अहो! यह जैन मुनि स्वाध्याय में मग्न बने हुए हैं। इनके पास कैसे जाना चाहिए? क्या बोलना चाहिए? किस प्रकार बातचीत करनी चाहिए? इत्यादि विधि से तो मैं अनभिज्ञ हूं। जिससे ज्ञान पाना है- उनके औचित्य का किसी प्रकार से भंग ना हो जाए- यह चिंता आर्यरक्षित को सताने लगी।
वह सोचने लगा- अंदर जाऊँ? या न जाऊँ?
पुण्यशाली को किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए कोई विशिष्ट प्रयत्न और पुरुषार्थ करना नहीं पड़ता है, उसके लिए तो लक्ष्मी स्वयं द्वार पर आकर खड़ी होती है।
आर्यरक्षित चिंतामग्न था कि मैं आचार्य भगवंत के पास कैसे जाऊं?
……. उसे भय था कि कोई अविधि हो जाए तो कहीं लाभ के बदले नुकसान ना हो जाए।
थोड़ी ही देर में नगर से एक सुश्रावक आचार्य भगवंत को वन्दन करने के लिए इशूवाटिका में आया। उसने आचार्य भगवंत के खंड में प्रवेश किया। द्वार पर छीपकर आर्यरक्षित श्रावक की प्रत्येक क्रिया को सूक्ष्मता से देखने लगा। श्रावक ने गुरुदेव के चरणों में विधि पूर्वक वन्दन किया। बुद्धि निधान आर्यरक्षित ने श्रावक की गुरु वंदन विधि को बराबर याद कर लिया।
जिस व्यक्ति/आत्मा पर सरस्वती की कृपा बरसती हो…………. उस पुण्यधन आत्मा को, एक बार ही सुनने से याद हो जाए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आर्यरक्षित में अवधारणा की कोई अपूर्व शक्ति थी।
गुरु वंदन कर श्रावक गुरु चरणो में बैठ गया।
बस! मन में अत्यंत ही शुभ भाव को धारण कर आर्यरक्षित ने गुरुदेव के खंड में प्रवेश किया और सर्वप्रथम मस्तक पर अंजली स्थापित कर मस्तक झुकाते हुए ‘मत्थएण वंदामि’ बोला। तत्पश्चात अत्यंत ही विनम्र भाव से उसने विधिपूर्वक गुरु को वंदन किया और वंदन करने के बाद वह गुरु चरणों में बैठ गया।
भाग 13 आर्य रक्षितसूरी जी
‘सर्व साधुओं को वंदन करनेU के बाद गुरु चरणों में बैठे हुए श्रावक को भी प्रणाम करना चाहिए’ इस विधि का ज्ञान नहीं होने के कारण आर्यरक्षित ने वहाँ बैठे हुए श्रावक को प्रणाम नहीं किया। आर्यरक्षित कि इस अपूर्ण क्रिया को देखकर तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत ने सोचा, यह कोई नवीन श्रावक लगता है, अतः आचार्य भगवंत ने उससे पूछा हे महानुभाव! किससे धर्म की प्राप्ति हुई है?
आर्यरक्षित ने पास में ही बैठे श्रावक की ओर इशारा किया।
इसी बीच एक मुनिवर ने आकर कहा- भगवन! यह तो श्रमणोपासिका रुद्रसोमा का पुत्र है। कल ही राजा ने इसका नगर प्रवेश करवाया था। चौदह विद्याओं में पारगामी बन कर आया है…… परंतु यहां इसे आगमन का क्या कारण है? यह पता नहीं है।
उसी समय अत्यंत प्रसन्न होकर आर्यरक्षित ने कहा- गुरुदेव! मेरी माता ने मुझे दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए आपके पास भेजा है…… मैं आपके पास दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए आया हूं।
आचार्य भगवंत सोचने लगे-धन्य है उस माता को। धन्य है उस श्राविका को, जो इस प्रकार स्नेह के बंधनों को तोड़कर पुत्र की आत्म हित की चिंता कर रही है। वास्तव में यह पुत्र बड़भागी है, जिसे मोक्ष मार्ग में प्रेरक ऐसी माता मिली है।
आर्यरक्षित के मुख पर प्रसन्नता थी….. वाणी में मधुरता थी…. और ह्रदय में समर्पण का भाव था। मन-वचन-काया के पवित्र शुभ योगों ने आचार्य भगवंत के दिल में एक आकर्षण जमा दिया।
तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत सोचने लगे-यह महानुभाव अपने पवित्र आचारों से अत्यंत कुलीन प्रतीत होता है। ‘आकृतिर्गुणान् कथयति’ की उक्ति के अनुसार इसमें अनेकविध योग्यताएं रही हुई है। यह आसक्ति/श्रद्धालु प्रतीत होता है और इसमें अपनी मातृकुलोचित मृदुता/कोमलता दिखाई दे रही है……. अतः यह जिनेश्वर परमात्मा के द्वारा बताए हुए मार्ग के लिए योग्य है।
इस विचार के साथ ही गुरुदेव तोसली पुत्र ने श्रुत का उपयोग दिया और श्रुतज्ञान के बल से आर्यरक्षित का भविष्य देखने लगे-अहो! युगप्रधान-वज्रस्वामी के पश्चात यह जिन शासन की यश पताका को दिग-दिगंत तक फैलाने वाले महान प्रभावक होने वाले हैं
भाग 14 आर्य रक्षितसूरी जी
आचार्य भगवंत श्रमणोंपासीका रुद्रसोमा के जीवन से सुपरिचित थे……. रुद्रसोमा आचार्य भगवंत कि सांसारिक भगिनी थी। रुद्रसोमा के दिल में शासन उन्नति व रक्षा की जो प्रबल भावना थी……. उसे आचार्य भगवंत अच्छी तरह जानते थे।
संसार में पुत्र मोह का एक जबरदस्त बंधन है। इस कठोर बंधन को तोड़ना कोई सामान्य बात नहीं है….. उसके लिए वज्र सा ह्रदय चाहिए। माँ रुद्रासोमा ने पुत्र व्यामोह का वस्त्र उतार दिया था……… जगत के स्वरूप को वह अच्छी तरह से जानती थी।
आचार्य भगवंत में आर्यरक्षित मैं भावी प्रभावक के दर्शन किए…….. और वे अत्यंत सुमधुर स्वर से बोले- महानुभाव! तुम्हारी भावना उत्तम है….. परंतु जैन दीक्षा के बिना दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं हो सकता है…….. यह जैन शासन की विधि मर्यादा है।
प्रभो! मर्यादा का पालन अवश्य ही होना चाहिए। इस कार्य के लिए जो भी मर्यादा हो…… उसका पालन अवश्य होना चाहिए, क्योकी विधि के पालन का सर्वत्र सुंदर परिणाम होता है।
प्रभो! आप जो भी आज्ञा करेंगे……… उस आज्ञा के पालन के लिए मैं कटिबद्ध हूं, अतः उस कार्य के लिए आपको जो उचित लगे, मुझे आज्ञा करें। आप मुझे जैन विधि से प्रवज्या प्रदान करने का अनुग्रह करें।
प्रभु मेरी एक प्रार्थना है- मिथ्या मोह के कारण इस नगर की प्रजा मुझ पर अत्यंत राग करती है। संभव है राजा भी मेरी दीक्षा छुड़वा दे…….. अबुध जनों का ममत्व अत्यंत ही दृढ़ होता है………उसका त्याग करना अत्यंत ही कठिन कार्य है, अतः दीक्षा देने के बाद कृपया यहां से विहार कर दें….. तो अच्छा रहेगा, जिससे जैन शासन की लघुता न हो।
आर्यरक्षित की उस भावना को जानकार तोसलिपुत्र आचार्य भगवंत अत्यंत ही प्रसन्न हुए। सोचने लगे, इसमें कितनी दीर्घदर्शिता है? शासन की हिलना/निंदा से बचने/बचाने के लिए यह कितना सावधान है?
भाग15 आर्य रक्षितसूरी जी
संसारी जीवो के रंग-राग से आचार्य भगवंत सुपरिचित थे, अतः उन्होंने कहा, महानुभाव! तुम्हारी बात सत्य है…….. संसारी जीवों के लिए ममत्व का एक मजबूत बंधन होता है और उस बंधन को तोड़ना उनके लिए अत्यंत कठिन होता है……. अतः तुम्हारी भावना अनुसार दिक्षा के पश्चात यहां से विहार की भावना रखता हूं।
आचार्य भगवंत ने दीक्षा के लिए तत्पर बने आर्यरक्षित को महाव्रतो का स्वरूप समझाया। आर्यरक्षित यति-दिनचर्यादि आचारों को ध्यानपूर्वक सुनने लगा। ज्यों-ज्यों साधुजीवन के महाव्रतों का स्वरूप समझने लगा, त्यों-त्यों उसके दिल में उस पवित्र जीवन के प्रति सद्भाव तीव्र होने लगा।
आचार्य भगवंत ने आर्यरक्षित को भव और मोक्ष का यथार्थ स्वरुप समझाया। भव और मुक्ति के यथार्थ स्वरुप के अवबोध के साथ ही आर्यरक्षित का दिल भवबंधन से मुक्त बनने के लिए मुक्ति के परमानंद को पाने के लिए आतुर हो उठा।
“गुरूदेव! भव के बंधन से मुक्त बनने के लिए मुझ पर अनुग्रह कर…….. मुझे प्रव्रज्या प्रदान करो।
गुरुदेव ने उसकी भावना को जानकर दीक्षा विधि प्रारंभ की
जैन शासन में मुमुक्षुजन को ही दीक्षा दी जाती है। जिसके मन में संसार के प्रति भय पैदा हुआ हो……. जिसके दिल में मोक्ष के प्रति तीव्र रुचि पैदा हुई हो…… जिसके दिल में पाप के प्रति नफरत जगी हो।…… ऐसी आत्मा चारित्र्य धर्म के लिए योग्य गिनी गई है। जिसके दिल में संसार के सुखों के प्रति तीव्र राग आसक्ति रही हुई हो…… जिसके दिल में पाप के प्रति लेश भी भय न हो….. ऐसी आत्मा जैन शासन की प्रव्रज्या के लिए अयोग्य गिनी गई है।
भवबंधन से मुक्त बनने के लिए मुमुक्षु आत्मा गुरुदेव से स्वयं ही प्रार्थना करती है कि “मुझे प्रव्रजित ……..करो मुझे साधु वेष प्रदान करो।”
दीक्षा विधि की यह प्रणालीका है। उस विधि से पता चलता है कि जैन दीक्षा के अभिलाषी के जीवन में कितना विनय समर्पण भाव होना चाहिए।
जैन प्रव्रज्या कोई वेष परिवर्तन की क्रिया मात्र नहीं है। प्रव्रज्या कोई नाट्यकला का प्रदर्शन नहीं है।
जैन प्रव्रज्या तो जीवन समर्पण का एक अद्भुत समारोह है। मुमुक्षु आत्मा चारित्र्य-धर्म स्वीकार कर…….. अपने मन-वचन और काया के तीनों योग गुरु चरणों में समर्पित कर देती है। मुमुक्षु शिष्य का न तो स्वतंत्र विचार होता है……. न ही स्वतंत्र वाणी…… और न ही स्वतंत्र प्रवृत्ति।
जीनाज्ञा/शास्त्राज्ञा और गुरु आज्ञा का प्रतिबिंब ही ‘उसका विचार, उसकी वाणी और उसका वर्तन होता है।
भाग 16 आर्य रक्षितसूरी जी
जिन शासन में गुरु की भी अपनी योग्यताएं बतलाई गई है। हर किसी को गुरु बनने का अधिकार नहीं है। गुरु पर शिष्य के आत्म हित की सबसे बड़ी जवाबदारी होती है। शिष्य का योगक्षेम करने की ताकत हो और जिसमें स्वपर हिताहित को जानने/सोचने व करने की शक्ति हो, वही गुरुपद प्राप्त कर सकता है और वही व्यक्ति गुरु पद के गौरव को टीका सकता है।
प्रवज्या-विधि में गुरुदेव शिष्य के मस्तक पर वासचूर्ण डालते हैं और कहते हैं…… हे महानुभाव! तुम जल्दी ही भव से निस्तार को प्राप्त करो।
तोसलीपुत्र आचार्य भगवंत ने प्रव्रज्या विधि कराकर, आर्यरक्षित के मस्तक पर मंत्रित सुगंधित वास निक्षेप किया। तत्पश्चात आचार्य भगवंत ने उसके मस्तक का केशलोच किया।
केशलोच एक सामान्य विधि नहीं है……. उसके पीछे देहाध्यास को तोड़ने का एक महान विज्ञान रहा हुआ है। देह के प्रति निर्मम बनी आत्मा, स्वेच्छा से अपना केशलोच करवाती है।
आचार्य भगवंत क्लेश की भांति सर्व केशो का भी लुंचन कर दिया।
उसके बाद ईशान कोने में जाकर आर्यरक्षित ने अपने गृहस्थ-वेष का परित्याग किया और साधु जीवन के श्वेत वस्त्र धारण किए
आर्यरक्षित के जीवन में एक नया मोड आया।
वर संसारी मिटकर साधु बन गए।
वे भोगी मिटकर योगी बन गए।
वे अगारी मिलकर अणगार बन गए।
साधु वेष के साथ ही आर्यरक्षित की जीवनचर्या/दिनचर्या बदल गई।
मानव मन पर वेष का भी अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। वेष भी शुभाशुभ भावों का जनक है। उद्भट वेष कामवासना को उद्दीप्त करता है….. तो साधु का पवित्र वेष वासनाओं के जाल को भस्मीभूत कर देता है और जीवन में नई चेतना लाता है।
गुरुदेव ने आर्यरक्षित के मस्तक पर हाथ रखा….. और उसे ह्रदय से आशीष प्रदान की।
प्रवज्या विधि की समाप्ति के बाद नूतन मुनिवर आर्यरक्षित को साथ लेकर आचार्य भगवंत ने वहां से विहार कर दिया।
साधु जीवन अर्थात यतनामय जीवन। यतनापूर्वक ही चलना, बोलना, खाना, पीना, सोना, उठना इत्यादि। यतना यह साधु जीवन का भूषण/अलंकार है।
आर्यरक्षित मुनिवर के संयम जीवन का शुभारंभ हो चुका था। उनके श्रमण-जीवन में माता की भावना निमित्त बनी। बस! नूतन मुनिवर साधू-चर्या में मस्त बन गए। स्वाध्याय साधु जीवन का मुख्य अंग है। शास्त्र में साधु के लिए 5 प्रहर तक स्वाध्याय करने का विधान है।
भाग 17 आर्य रक्षितसूरी जी
आर्यरक्षित स्वाध्याय की साधना में आकंठ डूब गए। स्वाध्याय के साथ-साथ संयम जीवन की प्रत्येक क्रिया भी वे उपयोग पूर्वक करने लगे।
योग्य गुरु को योग्य शिष्य की प्राप्ति हो चुकी थी। तोसली पुत्र आचार्य भगवंत भी अत्यंत प्रेम व वात्सल्यपूर्वक नूतन मुनिवर आर्यरक्षित को ज्ञानदान कर रहे थे। नूतन मुनिवर भी अत्यंत नम्र, विनीत और ज्ञान पिपासु होने के कारण गुरुदेव के ज्ञानदान को भक्तिपूर्वक ग्रहण कर रहे थे। शास्त्र के अध्ययन द्वारा आर्यरक्षित मुनिवर शास्त्र के ज्ञाता बने।
शास्त्रज्ञ बनने के कारण स्व-पर हिताहित के ज्ञाता बने।
उनकी हर प्रवृति में नम्रता के दर्शन होने लगे।
शास्त्र तथा गुरु आज्ञानुसार वे जीवन जीने लगे। गुरुदेव तोसली पुत्र आचार्य भगवंत ने अपना ज्ञान खजाना आर्यरक्षित के सामने खाली कर दिया था……. और आर्यरक्षित ने उस गुरु-प्रदत्त भेंट को अच्छी तरह से ग्रहण किया था।
आर्यरक्षित की ज्ञान पिपासा अपूर्व थी……….यदि उसे युग प्रधान शासन प्रभावक वज्रस्वामीजी के पास विशेष अध्ययन के लिए भेजा जाए तो आर्यरक्षित को विशेष लाभ हो सकता है और आर्यरक्षित जिनशासन का महान प्रभावक बन सकता है। ऐसा आचार्य भगवंत सोचने लगे।
निर्यमणा
धन्य है वे शिष्य, जो गुरूदेव के हृदय में बसे हैं और धन्य है वे शिष्य, जिनके ह्रदय में गुरु का वास है।
आर्यरक्षित मुनिवर ने अपने जीवनचरित्र द्वारा शास्त्र की इस उक्ति को जीवन में चरितार्थ किया था।
उनके जीवन में ऐसा अपूर्व समर्पण था कि वे गुरू के ह्रदय में बस गए थे।
उनके हृदय में प्रगाढ गुरुभक्ति थी, जिसके फलस्वरुप उनके हृदय में सतत गुरु का वास था।
जिस शिष्य के ह्रदय में गुरु का वास है, उस शिष्य को गुरु का विरह कभी नहीं होता है।
भौतिक देह से कदाचित वह विनीत शिष्य गुरु-चरण से सैकड़ों मील दूर हो सकता है, परंतु उसके मन मंदिर में गुरु का विरह कभी नहीं होता है
भाग18 आर्य रक्षितसूरी जी
विनीत शिष्य की योग्यता जानकर एक दिन तोसली पुत्र आचार्य भगवंत ने ज्ञान पिपासु मुनिवर आर्य रक्षित को बुलाकर कहा, वत्स अवशिष्ट के पूवो के अभ्यास के लिए तुझे उज्जयिनी नगरी में युगप्रधान वज्रस्वामी के पास जाना होगा।
“गुरुदेव! तब तो मुझे आप का विरह हो जाएगा?”
“वत्स! जिसके दिल में गुरु के प्रति समर्पण रहा हो, उसे गुरु का विरह कभी नहीं होता है। शास्त्र अध्ययन से तू जानता ही है कि गुरु की आज्ञा से सैकड़ों मील दूर गया शिष्य गुरु के समीप ही है……. और गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कर गुरु के निकट रहा शिष्य गुरु से दूर ही है।”
“वत्स! तेरे मन में जो गुरु भक्ति का आदर्श जीवन्त है…… उससे मुझे पूर्ण संतोष है। युग प्रधान आचार्य श्री वज्रास्वामी जी दशपूर्वधर महर्षि है, वे श्रुतज्ञान के महासागर है…… और अब वृद्धावस्था को भी प्राप्त हुए हैं।”
“वत्स! तुम्हारी अंतरंग योग्यता को देखकर मेरे दिल में भी विचार आया है कि यदि तुम वज्रस्वामी जी के पास जाकर अभ्यास ग्रहण करोगे तो स्व-पर उपकार द्वारा जिनशासन के महान प्रभावक बन सकोगे।”
“अपने पूज्य गुरुदेव के मुखकमल से बहती हुई इस अमृतवाणी और आशीवृष्टि को सुनकर आर्यरक्षित का मन भर आया और उनकी आंखों में हर्षाश्रु उभर पड़े।”
“आर्यरक्षित ने कहा, भगवंत! आप करुणावत्सल हो! आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। आपका आशीर्वाद ही मेरा संबल है। प्रभु! आपकी कृपा निरंतर बरसती रहे, यही प्रार्थना है।”
“वत्स! तेरी भव्य भावना से मैं प्रसन्न हूं….. अब शीघ्र ही विहार की तैयारी करनी होगी।”
“भगवंत! आप शुभ दिन फरमाए।”
“रक्षित! शुक्ला पंचमी का दिन उत्तम है, उस दिन सिद्धियोग भी है। दिन के प्रथम प्रहर में विहार यात्रा आरंभ करना। अन्य मुनिवर भी तुम्हारे साथ आएंगे।”
“भगवंत! जैसी आपकी आज्ञा।”
जिनशासन एक लोकोत्तर शासन है। जीव आत्मा का आत्मा हित कैसे हो? इसका सरल व सचोट उपाय जैन शासन में निहित है।
जैनशासन में गुरुतत्व का भी अपूर्व स्थान है। गुरु-शिष्य की जो आचार व विनय मर्यादा जैनशासन में देखने को मिलती है, उसकी प्राप्ति अन्यत्र संभव है।
भाग 19 आर्य रक्षितसूरी जी
एक शुभ दिन बुद्धि निधान आर्यरक्षित मुनिवर ने अन्य मुनिवर के साथ उज्जैन नगरी की ओर विहार प्रारंभ कर दिया। सभी मुनिवर विहार में आने वाले परिषह-उपसर्गों को अत्यंत समता-समाधि पूर्वक सहन करने लगे।
धीरे-धीरे विहार यात्रा आगे बढ़ने लगी। इस प्रकार क्रमशः विहार करते हुए आर्यरक्षित मुनिवर उज्जैन नगरी के बाहर उद्यान में पहुंच गए
इस उद्यान में महान प्रभावक दशपूर्वधर आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरी जी म. विराजमान थे। भद्रगुप्तसूरी जी की देहलता जर्जरीत हो चुकी थी। त्याग, तप तितिक्षा की साधना द्वारा उन्होंने अपने जीवन को सार्थक बना दिया था।
देह जर्जरित था…… परंतु उनके मुखमंडल पर अपूर्व ही तेज था कष्टों को समता पूर्वक सहन करना-उनका जीवन मंत्र था, इसी के फलस्वरुप से देह के प्रति निर्मम होकर संयमित जीवन की साधना कर रहे थे।
आर्यरक्षित मुनिवर ने खंड में प्रवेश करते हुए कहा-‘मत्थएण वन्दामि’
उनकी आवाज सुनकर भद्रगुप्तसूरीजी म. बोले-कोन?
भगवन! में आर्यरक्षित!- आर्यरक्षित मुनिवर ने जवाब दिया।
ओह! आर्यरक्षित! तुम हो। कह कर भद्रगुप्तसूरिजी अपने आसन से खड़े हो गए और उन्होंने आर्यरक्षित का स्वागत किया।
आर्यरक्षित ने भद्रगुप्तसूरीजी म. के पवित्र चरणों में प्रणाम किया और उनकी चरणरज अपने मस्तक पर लगा ली।
“भगवन! आप अपने आसन पर बिराजे, आपकी काया जरावस्था से घिरी हुई है।”
“आर्य! क्षीण होना तो शरीर का धर्म है। आखिर तो यह शरीर जडपुद्गलों से ही बना है न? आखिर कब तक इस का अस्तित्व रह सकेगा?”
“भगवन! अपने गोचरी वापरी? आज मुझे सेवा का लाभ दे।”
आचार्य भद्रगुप्तसूरीजी म. की सम्मति मिलते ही आर्यरक्षित मुनिवर गोचरी के लिए निकल पड़े और थोड़ी देर बाद गोचरी लेकर उपाश्रय में आ गए।
गोचरी वापरने के बाद भद्रगुप्तसूरीजी ने थोड़ी देर आराम किया।
आर्यरक्षित मुनिवर ने भद्रगुप्तसूरीजी की सेवा सुश्रुषा की।
थोड़ी देर बाद भद्रागुप्तसूरीजी म. अपने आसन पर बैठ गए। उन्होंने आर्यरक्षित को पूछा-रक्षित! तुम्हारे गुरुदेव कुशल है न?
भगवन! देव-गुरु की असीम कृपा से कुशल है।
भाग 21 आर्य रक्षितसूरी जी
अभी तुम्हारी विहार-यात्रा किस ओर चल रही है? भद्रगुप्तसूरीजी ने पूछा।
भगवंत! अभी गुरुदेवश्री की आज्ञा से उज्जैन नगरी की ओर विहार हो रहा है। पूज्य गुरुदेव ने मुझे पूर्वो के अभ्यास के लिए युगप्रधानवज्रस्वामीजी भगवंत के पास जाने की आज्ञा फरमाइ है।
भगवंत! आपश्री के देह में निरामयता है न? आप श्री का देह अधि कृश हो गया है।
‘आर्य! इस संसार में जिसका जन्म है…… इसका अवश्य मरण है। मानव देह क्षणिक व विनाशी है……अतः उसका अस्तित्व मर्यादित है….. उसको टिकाने के लिए कितने प्रयत्न और प्रयास किए जाए….. परंतु यह देह अधिक टिक नहीं सकता है, अतः अब जीवन के साध्य को सिद्ध करने की इच्छा है। मृत्यु द्वारा इस भौतिक जगत के साथ हुए संबंधों का विसर्जन होता ही है, संयम जीवन को स्वीकार कर कुटुंब परिवार व अर्थ काम का त्याग किया है…… और अब समाधि मृत्यु द्वारा निर्मम भाव से इस देह का त्याग करना है।’
‘मुनिवर! मेरे जीवन का अंत समय समीप लगता है, अतः तुम्हें अनुकूलता हो तो तुम मेरी समाधि-मृत्यु के निर्यामक बनो।’
आचार्य प्रवर श्री भद्रगुप्तसूरीजी दशपूर्वधर ज्ञानी महर्षि थे। वे ज्ञान के महासागर थे। फिर भी उन्होंने आर्यरक्षित मुनिवर को निर्यामक बनने के लिए आग्रह किया…….. इससे हम मृत्यु की भयंकरता की कल्पना कर सकते हैं।
जरा सोचे! एक इंजेक्शन लेने में भी जो ऊंचा नीचा हो जाता हो…… वह लाखो इंजेक्शनों की पीड़ा से भी भयंकर मृत्यु की पीड़ा में समत्व-भाव कैसे रख सकेगा? जिस देह के प्रति ममत्व बुद्धि रही हो……. और जिसके रक्षण/पालन व पोषण के लिए ही जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत किया हो, वह व्यक्ति मृत्यु के समय देह की ममता का त्याग कैसे कर पाएगा?
धन,पुत्र व पत्नी के मोह-त्याग से भी देह की ममता का त्याग करना अत्यंत कठिन कार्य है।
‘समत्व पूर्वक देह के ममत्व भाव का त्याग करना’ एक सामान्य साधना नहीं है। इसीलिए तो देह के त्याग के लिए जिन शासन में दैनिक तप-आराधना का विधान किया गया है।
तप-धर्म की साधना देह के ममत्व पर विजय पाने के लिए ही है।
मृत्यु को मंगलमय और महोत्सवरूप बनाने के लिए जीवन के अंत समय में निर्यामणा की जाती है
भाग20 आर्य रक्षितसूरी जी
योग्य निर्यामक का योग हो और मृत्यु के समय समाधि की तीव्र इच्छा हो……. तो मृत्यु को महोत्सव स्वरूप बनाया जा सकता है। भद्रगुप्तसूरी म. की बात को सुनकर आर्यरक्षित ने कहा-भगवंत! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है…… आपकी आज्ञा हो….. तो मैं अभी यहीं रहूंगा।
बस! भद्रगुप्तसूरी म.की आज्ञा से आर्यरक्षित मुनवर वहीं रह गए । वह बार-बार आचार्य भगवंत को परमात्म-भक्ति-प्रेरक वैराग्य के प्रेरक काव्य मधुर कंठ से सुनाने लगे ।
‘मैं देह नहीं हूं……. देह से भिन्न अजर-अमर आत्मा हूं। अनंतज्ञान-अनंतदर्शन आदि आत्मा की सच्ची संपत्ति है….. आत्मा स्वयं अक्षय सुख का भंडार है…… आत्मा में लीन बनने से, आत्मा स्वयं परमानंद का आस्वाद करती है। बहिर्भाव से मुक्त बनकर, जब आत्मा, आत्मा में स्थिर बनती है, आलौकिक-लोकोत्तर परमानंद का अनुभव होता है। देह विनाशी है……. आत्मा अविनाशी है।
इस प्रकार का आत्म-स्वरुपदर्शक अनेक बातें आर्यरक्षित मुनिवर पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री से करने लगे…… और बार-बार नमस्कार महामंत्र के स्मरण व अरिहंत आदि की शरणागति का श्रवण कराने लगे।
धीरे-धीरे समय बीतने लगा। आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान से देखा- अब इस देह का संबंध निकट प्रहर में ही छूटने वाला है। उन्होंने आर्यरक्षित को पास बुलाया और एक सूचना करते हुए कहा-रक्षित! तुम विद्या अध्ययन के लिए युगप्रधान वज्रस्वामीजी के पास जा रहे हो, परन्तु तुम वहां अलग उपाश्रय में उतरना और भोजन-शयन भी अलग ही करना क्योंकि जो भी मांडली में उनके साथ एक बार भी भोजन करता है, उसकी मृत्यु उनके साथ ही होगी……. तुम तो जिनशासन के महान प्रभावक बनने वाले हो…….. संघ के भावी आधार हो…….. अतः मेरे आदेश का पालन करोगे न?
आचार्य भगवंत के चरणों में प्रणाम करते हुए आर्यरक्षित ने कहा- “भगवन! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं आपकी आज्ञा का बराबर पालन करूंगा।
आर्यरक्षित मुनिवर अत्यंत विनम्र और विनीत थे…….
ज्येष्ठ कि जिनाज्ञागर्भित आज्ञा का सहर्ष स्वीकार करना जैन मुनि का एक जीवन्त का आदर्श होता है।
भाग 21 आर्य रक्षितसूरी जी
आचार्य भगवंत संथारे पर लेट गए……. उनका देह लगभग क्षीण हो चुका था…… आर्यरक्षित मुनिवर पास में ही बैठे थे। आचार्य भगवंत ने समस्त जीवो से क्षमापना की…. नमस्कार महामंत्र का जोर से उच्चारण किया……. णमो अरिहंताणं….. णमो सिद्धाणं….. णमो आयरियाणं….. णमो उवज्झायाणं….. णमो लोएसव्वसाहूणं ऐसो पंच नमुक्कारो , सव्व पवप्पणासणो……मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं।
चत्तारि सरणम्……. पवज्जामी। अरिहंते सरणं पवज्जामी। सिद्धे सरणं पवज्जामी। साहू सरणं पवज्जामी। केवलि-पण्णतं धम्मं सरणं ……..पवज्जामी।
आर्यरक्षित मुनिवर नमस्कार महामंत्र का जोर से उच्चारण करने लगे ……..आचार्य भगवंत भी स्वर में स्वर मिलाकर बोलने लगे…….. बस! जीवन के अमूल्य क्षण बीतने लगे……. आचार्य भगवंत ने कहा- नमो….. अ….रि….हं….ताणं…… उन्होंने अपना देह सदा के लिए छोड़ दिया। पंछी उड़ गया…… पिंजरा पड़ा था। देह का त्यागकर आचार्य भगवंत देवगति को प्राप्त हुए।
आर्यरक्षित पास में ही बैठे थे……… आचार्य भगवंत के स्वर्ग-गमन से आर्यरक्षित की आंखें अश्रुसिक्त हो गई….… उनके मुख पर विषाद छा गया।
आसपास से आए हुए अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने आचार्य भगवंत कि देह के अंतिम दर्शन किए।
आर्यरक्षित मुनिवर की अनुज्ञा से एक मुनिवर ने आचार्य भगवंत की देह को उठाया….. और वे जंगल/निर्जीव स्थान में जाकर उसे परिष्ठापन करके आ गए।
स्वर्गस्थ आचार्य भगवंत के निमित्त सभी मुनियों ने मिलकर देववंदन किया।
आर्यरक्षित मुनिवर ने सभी को जीवन की अनित्यता…….. क्षण भंगुरता समझाई और जीवन में सामाधि-प्रेरक उपदेश दिया। आचार्य भद्रगुप्तसूरिजी के स्वर्ग गमन से जैन शासन को जबरदस्त क्षति पहुंची
भाग 23 आर्य रक्षितसूरी जी
अब आर्यरक्षित मुनिवर ने उज्जैन नगरी में प्रवेश करने के लिए विहार प्रारंभ किया।
उज्जयिनी नगर में युगप्रधान आचार्य भगवंत ने एक स्वप्न देखा, मेरे पास दूध से भरा हुआ पात्र था, कोई अतिथि आया……. उसके सामने वह पात्र धरा….. उसने उस पात्र में थोड़ा सा दूध बाकी रखा….. और शेष सब दूध पी गया। वज्रस्वामीजी ने यह सपना अपने शिष्यो को बताया और उसका अर्थ करते हुए बोले, आज कोई आनेवाला है, जो मेरे पास से अधिकांश श्रुत ग्रहण कर लेगा…… थोड़ा ही श्रुत मेरे पास बचेगा, जो वह ग्रहण नहीं कर पाएगा।
वज्रस्वामीजी अपने शिष्यो से इस प्रकार बात कर रहे रहे थे कि मुनि आर्यरक्षित ने आकर उपाश्रय में प्रवेश किया और जोर से बोले- मत्थएण वंदामी।
अतिथि का आगमन जानकर वज्रस्वामीजी प्रसन्न हो गए और अपने आसन से खड़े हो गए।
वास्तव में, सत्पुरुषों का स्वप्न शीघ्र फलदाई होता है।
वज्रस्वामीजी ने भी ‘मत्थएण वंदमी’ कहकर आगंतुक मुनिवर का स्वागत किया और अत्यंत मधुर स्वर से बोले, ‘मुनिवर! आपका आगमन कहां से हुआ है?’
‘भगवन! मैं तोसलीपुत्र आचार्य भगवंत के पास से आ रहा हूं- आर्यरक्षित ने कहा।
यह सुनकर वज्रस्वामीजी बोले, अहो! तुम आर्यरक्षित, शेष पूर्व के अभ्यास के लिए तुम आए हो?
“हां! भगवन! आर्यरक्षित ने विनम्र स्वर से कहा।”
“तुम्हारी उपधि पात्र व संस्तार आदि कहां से है? आओ आज तुम अतिथि हो, अतः गोचरी जाने के लिए आवश्यकता नहीं है। गोचरी वापरने के बाद यही अपना पाठ चालू कर देंगे।” वज्रस्वामी ने कहा।
वज्रस्वामीजी की बात सुनकर आर्यरक्षित बोले-भगवन! में अलग स्थान में उतरा हूं….. वहीं पर गोचरी और शयन करूँगा।
वज्रस्वामीजी ने पूछा- प्रथक रहकर किस प्रकार अध्ययन करोगे?
वज्रस्वामीजी के इस वचन को सुनकर आर्यरक्षित ने भद्रगुप्तसूरीजी म. की कही बात कह दी। आर्यरक्षित कि इस बात को सुनकर वज्रस्वामी ने आर्यरक्षित को अलग वसति में ठहरने की सम्मति दे दी।
बस! शुभ मुहूर्त में आर्यरक्षित का अध्ययन प्रारंभ हो गया। अत्यंत विनय के साथ वे अध्ययन करने लगे।
योग्य निर्यामक का योग हो और मृत्यु के समय समाधि की तीव्र इच्छा हो……. तो मृत्यु को महोत्सव स्वरूप बनाया जा सकता है। भद्रगुप्तसूरी म. की बात को सुनकर आर्यरक्षित ने कहा-भगवंत! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है…… आपकी आज्ञा हो….. तो मैं अभी यहीं रहूंगा।
बस! भद्रगुप्तसूरी म.की आज्ञा से आर्यरक्षित मुनवर वहीं रह गए । वह बार-बार आचार्य भगवंत को परमात्म-भक्ति-प्रेरक वैराग्य के प्रेरक काव्य मधुर कंठ से सुनाने लगे ।
‘मैं देह नहीं हूं……. देह से भिन्न अजर-अमर आत्मा हूं। अनंतज्ञान-अनंतदर्शन आदि आत्मा की सच्ची संपत्ति है….. आत्मा स्वयं अक्षय सुख का भंडार है…… आत्मा में लीन बनने से, आत्मा स्वयं परमानंद का आस्वाद करती है। बहिर्भाव से मुक्त बनकर, जब आत्मा, आत्मा में स्थिर बनती है, आलौकिक-लोकोत्तर परमानंद का अनुभव होता है। देह विनाशी है……. आत्मा अविनाशी है।
इस प्रकार का आत्म-स्वरुपदर्शक अनेक बातें आर्यरक्षित मुनिवर पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री से करने लगे…… और बार-बार नमस्कार महामंत्र के स्मरण व अरिहंत आदि की शरणागति का श्रवण कराने लगे।
धीरे-धीरे समय बीतने लगा। आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान से देखा- अब इस देह का संबंध निकट प्रहर में ही छूटने वाला है। उन्होंने आर्यरक्षित को पास बुलाया और एक सूचना करते हुए कहा-रक्षित! तुम विद्या अध्ययन के लिए युगप्रधान वज्रस्वामीजी के पास जा रहे हो, परन्तु तुम वहां अलग उपाश्रय में उतरना और भोजन-शयन भी अलग ही करना क्योंकि जो भी मांडली में उनके साथ एक बार भी भोजन करता है, उसकी मृत्यु उनके साथ ही होगी……. तुम तो जिनशासन के महान प्रभावक बनने वाले हो…….. संघ के भावी आधार हो…….. अतः मेरे आदेश का पालन करोगे न?
आचार्य भगवंत के चरणों में प्रणाम करते हुए आर्यरक्षित ने कहा- “भगवन! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं आपकी आज्ञा का बराबर पालन करूंगा।
आर्यरक्षित मुनिवर अत्यंत विनम्र और विनीत थे…….
ज्येष्ठ कि जिनाज्ञागर्भित आज्ञा का सहर्ष स्वीकार करना जैन मुनि का एक जीवन्त का आदर्श होता
भाग 25 आर्य रक्षितसूरी जी
वज्रस्वामीजी भी आर्यरक्षित को सुयोग्य जानकर पूर्वो का अभ्यास कराने लगे।
आर्यरक्षित स्वाध्याय सागर में आकंठ डूब गए। ज्यों-ज्यों अभ्यास में आगे बढ़ने लगे, त्यों-त्यों उनका उत्साह बढ़ने लगा। जिनशासन के अगम्य रहस्य जानकर वे अपने आप को बड़भागी समझने लगे।
‘धन्य जिनशासन! धन्य गुरुदेव!’ की मधुर ध्वनि उनके रोम रोम में गूंजने लगी।
उनकी ज्ञान की सच्ची साधना व तीव्र लगन को देखकर वज्रस्वामीजी भी प्रसन्न हो गए।
अपूर्व ज्ञान साधना
योगी और भोगी का जीवन पंथ न्यारा और निराला ही होता है। एक गान में आसक्त होता है तो दूसरा ज्ञान में। दोनों के पंथ/ दोनों की दिशाएं भिन्न भिन्न है। फिर भी उन दोनों में एक समानता दिखाई देती है कि वह सदा अतृप्त होते हैं।
भोगी को भोग के साधन कितने ही मिल जाए, वह सदा अतृप्त ही रहता है। इंद्रियों के विषय-सेवन के बाद भी उसे पूर्ण तृप्ति या आनंद का अनुभव नहीं होता है……… उसकी तृषा…… उसकी भूख सदा बनी रहती है। वह सदा नए-नए भोगो और उनके साधनों की प्राप्ति के लिए लालायित बना रहता है। इस प्रकार वह सदा अतृप्त ही रहता है।
बस यही अतृप्ति की स्थिति है- एक योगी की भी। परंतु हा! उसकी दिशा और उसका पंथ अलग ही है, उसे आनंद आता है ज्ञान की प्राप्ति में। ज्यों-ज्यों शास्त्र अध्ययन-अध्यापन के बल से उसे नए-नए ज्ञान की प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों उसकी ज्ञान पिपासा बढ़ती जाती है।
ठीक ही कहा गया है-
‘संसारी जीव का शरीर भोग और भोग के साधनों की प्राप्ति के लिए होता है, जबकि योगियों का शरीर ज्ञान की प्राप्ति के लिए होता है।’
सम्यग ज्ञान की साधना में/ प्राप्ति में जो आनंद है उसे अज्ञानी कैसे जान सकता है। मानसरोवर का आनंद तो हंस लेता है। विष्टा में आलोटने वाला सूअर आनंद की कल्पना भी कैसे कर सकता है?
भाग 26
समग्र विश्व में ज्ञेय पदार्थ अनंत है, अतः ज्ञान भी अनंत है। ज्यों-ज्यों पदार्थ के यथार्थ स्वरुप का बोध होता जाता है, त्यों त्यों योगियों का ह्रदय आनंद से भरता जाता है। उनका समग्र जीवन ज्ञान प्राप्ति के लिए ही होता है। जिस प्रकार ज्ञान असीम है, उसी प्रकार ज्ञान का आनंद भी असीम है।
श्रुतज्ञान महासागर सम है। चौदह पूर्वो का समावेश श्रुतज्ञान के अंतर्गत होता जाता है। चौदह पूर्वधर महर्षि श्रुतकेवली कहलाते हैं। वह भी एक केवली की भांति धर्म देशना दे सकते हैं। श्रोताजन को पता ही नहीं चलता कि वह केवल ज्ञानी है या श्रुतज्ञानी।
श्रोताजन के बल से भी वस्तु के अनेक पर्यायों को आसानी से जाना जा सकता है।
आर्यरक्षित मुनिवर एक योगी आत्मा थे…….. उनके मन में ज्ञान प्राप्ति की अदम्य लालसा थी।
दशपूर्वधर महर्षि वज्रस्वामी के शुभ सानिध्य में बैठकर वे निरंतर एकाग्रता पूर्वक पूर्वो का अभ्यास कर रहे थे।
समय के प्रवाह के साथ साथ ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ होने लगे। क्रमशः एक के बाद एक पूर्व का अभ्यास करते ही जा रहे थे।
(1) उत्पाद पूर्व (2) अग्रायनीय प्रवाद (3) वीर्य प्रवाद (4) अस्ति प्रवाद (5) ज्ञान प्रवाद (6) सत्य प्रवाद (7) आत्म प्रवाद (8) कर्म प्रवाद और (9) प्रत्याख्यान प्रवाद की समग्रता वे प्राप्त कर चुके थे।
ज्ञानसाधना में उन्हें असीम आनंद का अनुभव हो रहा था। सचमुच! ऐसा आनंद दुनिया में अन्यत्र का मिल सकता है?
अब वज्रस्वामीजी के पास आर्यरक्षित ने 10 वे पूर्व का अभ्यास प्रारंभ कर दिया।
आर्यरक्षित को दीक्षा अंगीकार किए भी दीर्घकाल व्यतीत हो चुका था।
अचानक एक दिन रुद्रसोमा का ह्रदय मातृवात्सल्य से भर आया। आखिर तो वह मां थी। उसके दिल में आर्यरक्षित के मुखदर्शन की पिपासा जाग उठी। आर्यरक्षित का सुकोमल चेहरा उसकी आंखों के सामने मंडराने लगा। आर्यरक्षित को दीक्षा लिए वर्षों बीत चुके थे। परंतु वे किधर विचर रहे हैं? इसके कोई समाचार रुद्रसोमा के पास नहीं थे।
भाग27 आर्य रक्षितसूरी जी
वह सोचने लगी, ‘आर्यरक्षित अभी कहां विहार कर रहे हैं? उनका मुझे पता नहीं है, अतः उनकी जांच के लिए छोटे पुत्र फल्गुरक्षित को भेज दूं तो ज्यादा ठीक रहेगा।’
इस प्रकार विचार कर उसने अपने मन की बात अपने पति सोमदेव को कही।
सोमदेव ने कहा- प्रिये! आर्यरक्षित को बुलाने के लिए तूने फल्गुरक्षित को भेजने का जो निर्णय लिया है, वह समुचित ही है। अपने पतिदेव की सहमति प्राप्त कर रुद्रसोमा ने अपने पुत्र फल्गुरक्षित को बुलाया।
फल्गुरक्षित भी अत्यंत विनम्र और माँ का आज्ञाकारी पुत्र था। उसके दिल में मां के प्रति अपूर्व भक्ति और आर्यरक्षित के प्रति आदर व स्नेह का भाव था।
मां के बुलावे के साथ ही फल्गुरक्षित दौड़कर आया और मां के चरणों में प्रणाम कर बोला- माताजी! मेरे लिए क्या आज्ञा है?
फल्गुरक्षित के जीवन में हमें आर्यसंस्कृति के पवित्र संस्कारों के साक्षात दर्शन होते हैं। इस पवित्र संस्कृति का पुजारी, माता पिता की आज्ञा शिरोधार्य करता था। फल्गुरक्षित विनम्र भाव से मां के सामने खड़ा रहा।
मां ने कहा, बेटा! आज तुझे किसी अनिवार्य कार्य के लिए बुलाया है।
मां! जो भी आज्ञा हो, मुझे फरमाए! फल्गुरक्षित ने अत्यंत नम्रता से जवाब दिया।
बेटा! मैं तुझे आर्यरक्षित के पास भेजना चाहती हूं। तू अपने भाई के पास जाओ और उससे मेरी बात कहना-
आर्य रक्षित तूने माता का त्याग कर दिया है…… भाई का राग तोड़ दिया है……. मोह के साथ तू संघर्ष कर रहा है…… तेरे जीवन की समग्रता अंतरंग शत्रुओं के सामने लड़ने में व्यतीत हो रही है, यह जानकर मुझे आनंद है…… प्रसन्नता है। परंतु आर्यरक्षित! तेरे दिल मे राग की भावना न हो, यह उचित है फिर भी तेरे दिल में वत्सल्यता बुद्धि तो होनी ही चाहिए न? याद कर प्रभु महावीर को! जब वे मां के गर्भ में थे, तब भी उनके दिल में मां के प्रति कितनी भक्ति का भाव था।
‘बेटा! जीवन में स्नेह राग नहीं चाहिए, परंतु इसने भाव तो चाहिए न!
भाग 28
किसी जीव के प्रति राग भाव न होना, समुचित है……. परंतु स्नेह भाव/निस्वार्थ वात्सल्य भाव तो होना ही चाहिए न! अतः तू एक बार इधर आ जा! मेरे तेरे मुख दर्शन के लिए उत्कंठित बनी हूं। तेरा मार्ग प्रशस्य है और उसी मार्ग पर चलने की मेरी भी उत्कंठा है, इतना ही नहीं, मैं तो चाहती हूं कि तेरे पिता, तेरा भाई….. तेरी बहन सभी तेरे मार्ग का अनुसरण करें।
हा! स्नेह के बंधन तूने तोड़ दिए हैं। तू एक कुटुंब का मिटकर समग्र विश्व का बन गया है, अतः तेरे दिल में एक छोटे से परिवार की विशेष ममता ना हो, यह बन सकता है। फिर भी हृदय में वात्सल्य भाव तो होना ही चाहिए ना!
खैर, तेरे दिल में हमारे प्रति लेश भी ममता/राग ना हो तो भी हमारे उद्धार के लिए तुम एक बार इधर जरूर आ जाओ।
इस प्रकार रुद्रसोमा ने अपने पुत्र आर्यरक्षित के लिए अपने लघु पुत्र फल्गु रक्षित के साथ अपना संदेश भिजवाया।
मां का संदेश लेकर फल्गु रक्षित आगे बढ़ने लगा। क्रमशः एक के बाद एक नगर को पार करते हुए वह उज्जैन नगरी पहुंच गया।
एक शुभ घड़ी में दोनों भाइयों का परस्पर मिलन हुआ। आर्यरक्षित को मुनिवेष में देखकर प्रथम क्षण तो फल्गु रक्षित को आश्चर्य हुआ……. परंतु दूसरे ही क्षण वह अपने ज्येष्ठ बंधु के चरणों में गिर पड़ा।
फल्गुरक्षित भातृ मिलन के आनंद को ह्रदय में समा न सका। फलस्वरूप वह आनंद, आंसुओं के द्वारा बाहर निकल पड़ा।
आर्यरक्षण ने लघु बंधू को ‘धर्मलाभ’ कि आशीष दी।
फल्गुरक्षित का गला रुंधा हुआ था। आर्यरक्षित ने भाई को आश्वासन देते हुए कहां, बंधो! हर्ष के स्थान पर तू शोक क्यों कर रहा है? इस संसार में जीवन के संबंध में कितने अस्थिर ओर क्षणभंगुर है?
“फल्गु! जब तक आत्मा को जैनदर्शन के तत्वो का यथार्थ बोध नहीं होता है तभी तक हमें संसारिक पदार्थों का आकर्षण होता है…… परंतु तत्व के यथार्थ बोध के साथ ही संसारिक पदार्थों और सम्बन्धो का आकर्षण क्षीण हो जाता है। पल-पल में जिनकी प अवस्थाए बदल रही है…..उन पदार्थो के प्रति क्या राग करना।”
29
फल्गुरक्षित अत्यंत ही ध्यानपूर्वक आर्यरक्षित की तत्ववाणी का श्रवण कर रहा था।
फल्गु रक्षित ने कहा- पूज्यवर आपकी बात यथार्थ हीं है, फिर भी आत्मा में रहा मोह उछल ही पड़ता है। मैं आपके पास मां का संदेश लेकर आया हूं।
“कहो मां का क्या संदेश है? मां कुशल है ना? आर्यरक्षित ने पूछा।”
“पूज्यवर ऐसे तो मां कुशल ही है….. परंतु उसके दिल में आपके दर्शन की प्यास जगी है। मां का कहना है कि आप शीघ्र ही विहार कर दशपुर नगर की ओर पधारें। माताजी आपको बहुत याद कर रही है।”
फल्गुरक्षित की बात सुनकर आर्यरक्षित ने कहा- “फल्गु! संसार के क्षणिक पदार्थों पर क्या मोह करना? दुनिया के संबंध तो बदलते ही रहते हैं……. अतः उन पदार्थों पर राग करना निरर्थक है। सांसारिक सम्बन्धो में राग करना, आत्मा के लिए बन्धन रूप ही है अनादि काल से अपनी आत्मा राग द्वेष के बंधनों से जकड़ी हुई है। एक मात्र इसी जीवन में……. इस मानव भव में उन बन्धनों की, जंजीरों को छोड़ना संभव है। इस अमूल्य जीवन के बंधन-मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं होगा तो फिर उसके लिए पुरुषार्थ कब होगा।
“फल्गु! महान पुण्यउदय से हमें इस यह जीवन मिला है, राग द्वेष के बंधन तोड़ने में ही इस जीवन की सफलता/सार्थकता है। उस संसार में कौन किसका मित्र और कौन किसका शत्रु है?…… एक वटवृक्ष पर संध्या समय इकट्ठे हुए पक्षियों की भांति ही हमारा संयोग है…… उन संबंधों में मोहित हो जाना है एक मात्र अज्ञानता ही है…….. और फल्गु! देख, अभी मेरे ‘पूर्वो’ का अभ्यास चल रहा है। नो पूर्वो का अध्ययन पूर्ण हो चुका है, अभी तो मैं ज्ञान के अतल सागर की गहराई में डूबा हुआ हूं। पुण्योदय से परमाराध्यपाद वज्रस्वामीजी जैसे महान युगप्रधान महर्षि का मुझे संयोग प्राप्त हुआ है। वह मुझे माता सा वात्सल्य प्रदान करते हुए अभ्यास करवाते हैं। उनकी देह-लता जर्जरित हो चुकी है…..अतः इस ज्ञान साधना में अंतराय पैदा करना क्या तुझे उचित लगता है?
आर्यरक्षित की अमृत सी मधुर वाणी का श्रवण कर फल्गुरक्षित का दिल आनंद से भर आया। उसकी आत्मा में रहीं हुई मोह की मूर्छा दूर हो गई और वह बोला, “पूज्यवर! आपकी बात बिल्कुल ठीक है। संसार के संबंध से मोहजाल भरे हुए हैं…. फिर भी माता ने जो कहलाया है- ‘हम पर उपकार करने के लिए भी एक बार तुम अवश्य आना, इस बात की और थोड़ा सा ध्यान देना ही चाहिए।
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आर्यरक्षित ने कहा- “बन्धु! तुम्हारी बात बिल्कुल ठीक है…. परंतु अभी विद्या अध्ययन चल रहा है….. इसकी समाप्ति के बाद में भी मां की भावना पूर्ण करने के लिए दशपूर नगर आने की भावना रखता हूं। माता-पिता को सन्मार्ग प्रदान करके ही सचमुच उनके ऋण से मुक्ति पा सकते हैं। अतः विद्या अध्ययन की समाप्ति के बाद उस और विहार करने की भावना है। हां! फल्गु, तेरे दिल में मेरे प्रति स्नेह हो तो तू यहीं ठहर जा, हम दोनों साथ में चलेंगे।”
फल्गुरक्षित ने कहा- “मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूं।”
“फल्गु! तुम्हारा गृहस्थ वेष में रहना ठीक नहीं लगता है अतःअब तुम भी मेरे समान दिक्षित हो जाओ!” – आर्यरक्षित ने कहा।
तुरंत ही फल्गुरक्षित ने आर्यरक्षित की बात स्वीकार कर ली।
शुभ मुहूर्त में फल्गुरक्षित ने भी भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली। वह भी आगारि मिटकर अणगार बन गया। भोगी मिटकर योगी बन गया।
श्रेयस्कारी कार्य के लिए देरी किस बात की? फल्गु रक्षित भी निर्मम भाव से संयम जीवन की साधना करने लगा।
आर्यरक्षित मुनिवर 10 वे पूर्व का अध्ययन कर रहे थे। इस पूर्व में अत्यंत कठिन नय-गम और निपेक्ष जविको का अध्ययन हो चुका था……. परंतु अब आर्यरक्षित को अध्ययन में कठिनाई महसूस हो रही थी।
एक बार आर्यरक्षित ने सहजता से वज्रस्वामीजी से पूछा- “भगवंत! अब मेरा अध्ययन कितना बाकी है?”
वज्रस्वामीजी ने कहा- अभी तो तुम्हारा समुद्र में बिंदु तुल्य ही अध्य्यन हो पाया है। मेरु के आगे सरसव का जो माप है, उतना ही अध्य्यन तुम्हारा हो पाया है, अतः समाप्ति की उत्सुकता किए बिना, स्थिरता पूर्वक अध्ययन करो।
स्थिरतापूर्वक अध्ययन करोगें तो ज्ञान का महासागर तुम पार कर सकोगे। वज्रस्वामीजी की इस बात को सुनकर आर्यरक्षित मुनि पुनः अध्ययन में लीन हो गए…… परंतु कुछ ही दिनों के बाद उन्हें आगे के अध्ययन में प्रमाद होने लगा। घोर श्रम करने पर भी आगे के सूत्र उन्हें याद नहीं हो रहे थे।
कुछ दिन बीतने के बाद फल्गुरक्षित ने पूनः आर्यरक्षित से पूछा- बंधुवर! अब कितने दिन ठहरना है?
आर्यरक्षित ने कहा- मैं आचार्य भगवंत से पूछकर जवाब देता हूं।
अध्ययन से श्रांत बने आर्यरक्षित ने एक दिन अवसर देखकर पुनः आचार्य भगवंत से पूछा- “भगवन! मेरा मन संबंधीजन के संग में उत्कंठित हुआ है…… में उनसे मिलकर अध्ययन के लिए पुनः आ जाऊंगा।”
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आर्यरक्षित की यह बात सुनकर वज्र स्वामी जी ने अपने ज्ञान का उपयोग लगाया। श्रुत के उपयोग से उन्होंने जान लिया कि मेरा आयुष्य अल्प है…… अतः आर्यरक्षित मुझे पुनः मिल नहीं पाएगा। आर्यरक्षित कि इतनी ही योग्यता होने से वह आगे के श्रुत का अध्ययन नहीं कर पाएगा और प्रभु महावीर के शासन में अंतिम दशपूर्व का ज्ञान मेरे तक सीमित रह जाएगा। जो भावी है, उसे टाला नहीं जा सकता, अतः अब आर्यरक्षित को रोकना उचित नहीं है। उस प्रकार विचार कर वज्र स्वामी जी ने कहा- वत्स! मैं तुम्हें जाने की अनुमति देता हूं। तुम खुशी से अपनी जन्मभूमि की और प्रयाण करो। इन सब मुनियों के बीच तुम्हारे जैसा कोई मेधावी नहीं है और इसी कारण मुझे भी तुमको अध्यापन कराने में विशेष आनंद आ रहा था। तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी हो।
वज्रस्वामीजी के मुख से इस प्रकार आशीर्वाद पूर्ण वचन सुनकर आर्यरक्षित का ह्रदय आनंद से भर आया। उन्होंने वज्र स्वामीजी के चरणों में अत्यंत बहुमानपूर्वक प्रणाम किया। स्थिरता दरमियान जाने-अनजाने में हुई अपनी गलतियोंके लिए क्षमा याचना की।
वज्रस्वामी जी ने भी मिच्छामी दुक्कड़म बोला।
वज्रस्वामी जी के शुभ आशीर्वाद प्राप्त कर आर्यरक्षित ने अपनी विहार यात्रा प्रारंभ कर दी।
भगवान महावीर के शासन में वज्रस्वामी जी अंतिम दशपूर्वधर महर्षि हुए।
आर्यरक्षित ने वज्रस्वामीजी से साढ़े नो पूर्व का अध्ययन किया था।
गुरु के चरणों में समर्पण पूर्वक जो ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, वह ज्ञान स्वपर उद्धारक होता है। लोकोत्तर जैनशासन में ज्ञान प्राप्ति के लिए जो आचार मर्यादाएं बतलाई गई है, वह अन्यत्र कही भी नहीं मिल सकती।
आर्यरक्षित मुनिवर के जीवन में विनय और नम्रता थी- इसी के फलस्वरुप ज्ञान के अगाध सागर को वे पा सके।
वह अपने बंधु मुनि आदि के साथ विहार करते हुए पाटलिपुत्र नगर में पधारे।
पाटलिपुत्र में उस समय तोसलिपुत्र आचार्य भगवंत विराजमान थे।
गुरुदेव श्री के दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा के कारण आर्यरक्षित मुनिवर शीघ्र विहार कर तोसलिपुत्र आचार्य भगवंत के चरणों में आ पहुंचे।
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आर्यरक्षित मुनिवर ने गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया।
काफी समय के बाद गुरुदेव श्री के दर्शन हो रहे थे………. अतः गुरु दर्शन से उनका मन पुलकित हो उठा।
उन्होंने गुरुदेव की कुशल पृच्छा की। गुरुदेव ने आर्यरक्षित को हृदय से आशीर्वाद दिए।
गुरुदेव ने अपने ज्ञान के उपयोग से देखा- मेरा आयुष्य अब अल्प है और आर्यरक्षित आचार्यपद के लिए हर तरह से योग्य है, अतः उसे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करना ही चाहिए। – यही सोचकर गुरुदेव ने आर्यरक्षित को आचार्य पद प्रदान करने का निर्णय किया।
वे स्वयं ज्योतिविर्द थे। उन्होंने पंचांग देखकर आचार्यपदवी के लिए शुभ दिन निकाल लिया और पाटलिपुत्र संघ को इस संबंध में जानकारी दी ।
आर्यरक्षित मुनिवर कि आचार्य पदवी के समाचार से समस्त जैन संघ में आनंद की लहर फैल गई। संघ ने बहुत ही भक्ति भाव से आचार्य पदवी का महोत्सव किया और एक शुभ दिन शुभ घड़ी में गुरुदेव ने आर्यरक्षित मुनिवर को विधि पूर्वक अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।
जैन शासन में आचार्य की बहुत बड़ी जवाबदारी है। तीर्थंकर परमात्मा के विरह काल में जैनशासन की धुरा को आचार्य भगवंत ही वहन कर सकते हैं।इस पद के लिए महान योग्यताएं होनी चाहिए। हर किसी को इस पद पर प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता है।
ज्योही गुरुदेव ने आर्यरक्षित के मस्तक पर आचार्य पद का वासक्षेप डाला, त्योंही ‘नूतन आचार्य अमर रहे’। ‘जैनम जयति शासनम’। आदि नारो से आकाश मंडल गूंज उठा। चारो ओर जिनशासन की अद्भुत प्रभावना हुई। गुरुदेव ने नूतन आचार्य को अपने आसन पर बिठाया और समस्त संघ के साथ नूतन आचार्य को वन्दन किया।
गुरुदेव ने अपनी समस्त संघीय जवाबदारी नूतन आचार्य को सौंप दी।
आचार्यपदवी का महोत्सव सानंद संपन्न हुआ।
आर्यरक्षित मुनि से मुनिपति बने।
तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत अति वृद्ध हो चुके थे। उनकी काया अत्यंत कृश बन चुकी थी…… फिर भी उनके मुख मंडल पर अद्भुत तेज था।
धीरे-धीरे समय बीतने लगा।
तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत का स्वास्थ्य धीरे धीरे गिरने लगा।
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नूतन आचार्य भगवंत आदि मुनिवर अपने गुरुदेव की सेवा में तैयार थे। आचार्य भगवंत अत्यंत ही सावधान थे। जिनशासन के रहस्य को उन्होंने मात्र जाना ही न था…….. उन रहस्यो को जीवन में आत्मसात भी किया था- इसी के फलस्वरुप उन्हें मृत्यु लेश भी भय नहीं था…… वह मृत्यु के स्वागत के लिए सुसज्ज से बने हुए थे। उनके मुख पर कोई ग्लानि नहीं थी…… और ना ही मृत्यु का भय।
‘मृत्यु तो देह का परिवर्तन मात्र है। मृत्यु द्वारा आत्मा मात्र देह को बदलती है। मैं देह से भिन्न अजर अमर आत्मा हूं। मृत्यु तो देह की होती है……. मेरी नहीं। मैं तो शाश्वत तत्व हूं। मैं अविनाशी हूं। मैं देह से ‘भिन्न हूं’।
इस प्रकार के सनातन सत्यो को उन्होंने अपने जीवन में आत्मसात किया था…….. इसी कारण उनके लिए मृत्यु का आगमन महोत्सव स्वरूप था।
“णमो अरिहंताणं….. णमो सिद्धाणं….. णमो आयरियाणं….. णमो उवज्झायाणं….. णमो लोएसव्वसाहूणं ऐसो पंच नमुक्कारो , सव्व पवप्पणासणो……मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं।
चत्तारि सरणम्……. पवज्जामी। अरिहंते सरणं पवज्जामी। सिद्धे सरणं पवज्जामी। साहू सरणं पवज्जामी। केवलि-पण्णतं धम्मं सरणं ……..पवज्जामी।” की अमरवाणी उनके मुखारविंद से प्रस्फुटित हो रही थी।
उन्होंने समस्त जीव राशि से, अपने शिष्य परिवार आदि से क्षमायाचना की। सभी शिष्यों ने भी अपने अपराधों के लिए उनसे क्षमायाचना की…….. और थोड़े ही पलों में उन्होंने सदा के लिए अपनी आंखें मूंद ली। भौतिक देह का त्याग कर वे अनंत की यात्रा में विलीन हो गए।
‘उड गया पंखी, पड रहा माला’ बस, समस्त शिष्य परिवार शोकमग्न हो गया। शिष्यो का शिरःछत्र दूर हो गया। उनके स्वर्ग-गमन से जैन संघ को भी एक भारी क्षति पहुंची।
वे एक महान युग प्रभावक महर्षि थे।
आर्यरक्षित सूरिजी आदिकी आँखे अश्रुसिक्त हो गई।
गुरुदेव की चिर-विदाई से संघ व समुदाय की समस्त जवाबदारी उनके सिर पर आ पडी। वे इस जवाबदारी को विवेकपूर्ण वहन करने लगे
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परिवार का उद्धार
आचार्य पद से अलंकृत आर्यरक्षित सुरीवर शासन के ऐसे ही अनोखे प्रभावक पुरुष थे।
गुरुदेव के वियोग के बाद समस्त शासन और संघ की जवाबदारी उन पर थी। वे शास्त्रगामी थे……… ज्ञानी थे……. दक्ष थे…… गीतार्थ थे….. प्रभावक थे…… प्रवचनकार थे…… सर्वजीवचिंतक थे।
जिनशासन की अजोड़ प्रभावना करते हुए वे मालवा की भूमि पर विचर रहे थे। जिन-जिन गांवों में उनका पदार्पण होता….. लोग अत्यंत आदर-बहुमान से उनका स्वागत-सत्कार करते थे। इनकी अमृतवाणी का पान कर अनेक पुण्यात्मा जिनशासन रसिक बन रही थी।
अनके पुण्यशाली आत्माओं को उन्होंने सर्ववीरति का दान किया था। अनेक पुण्य आत्माओं को जिनशासन रसिक श्रद्धालु श्रावक बनाया था।
इस प्रकार अनेक क्षेत्रों में जिनशासन की ध्वजा फहराते हुए वे अपनी जन्म भूमि की ओर विहार कर रहे थे। विहार-यात्रा आगे बढ़ रही थी। इधर माँ रुद्रसोमा अपने पुत्र मुनिवर आर्यरक्षित के दर्शन के लिए उतावली बनी हुई थी। एक दिन आर्यरक्षित सूरीजी म. अपनी जन्मभूमि के बाहर पहुंच गए, फल्गुरक्षित मुनि ने नगर में प्रवेश किया। वह तुरंत ही अपने घर पर पहुंच गए और मां को शुभ संदेश देते हुए बोले- “माँ! माँ! तुम्हारा पुत्र आर्यरक्षित, गुरु बन कर आ गया है।”
रुद्रसोमा ने फल्गु रक्षित को जैन श्रमण वेष में देखा। वह आनंदित हुई और बोली, “क्या मैं इतनी पुण्यशाली हूं कि उसका मुख देख पाऊंगी?”
रुद्रसोमा इस प्रकार बोल रही थी कि तत्क्षण आर्यरक्षित सूरीजी म. वहां आ उपस्थित हो गए।
माता रुद्रसोमा ने आर्यरक्षित को जैन साधु के रूप में देखा……. उसका ह्रदय आनन्द से भर आया…. वह रोमांचित हो उठी….. उसकी आंखों में हर्ष के अश्रु अवतरित हुए।
उसी समय आर्यरक्षित सूरिवर के पिता सोमदेव पुरोहित भी वहां आ गए। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को देखा और अत्यंत ही स्नेह से आलिंगन किया।
उसने कहा- “बेटा! प्रवेश महोत्सव के बिना तुमने नगर में शीघ्र ही प्रवेश कैसे कर लिया? हां! मैं इसका कारण जान गया हूं……. तुम माता की विरह वेदेना को समझ गए हो…… अतः इसकी वेदना को दूर करने के लिए ही शीघ्र आ गए हो।”
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“खैर! अब तुम पुनः नगर के बाहर जाओ। मैं राजा को विज्ञप्ति करूंगा और वह तुम्हारा भव्य प्रवेश महोत्सव करेगा…… फिर तुम इस श्रमण वेष का त्याग कर देना….. और ग्रहस्थाश्रम का स्वीकार करना।
“तुम्हारे गुण और रूप के अनुरूप मैंने तुम्हारे लिए कन्या खोज लि है। वैद-विहित विधि के अनुसार तुम्हारा विवाह किया जाएगा……. जिससे तुम्हारी माता को भी पूरा संतोष होगा।
बेटा! तुझे धन अर्जन करने की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सात पीढ़ी तक खुटे नहीं, इतना धन अपने पास है। तुम्हारे गृहस्थ जीवन के स्वीकार करने के बाद ही मैं वानप्रस्थाश्रम स्वीकार कर लूंगा।
अपने पिता सोमदेव पुरोहित की यह बात सुनकर आर्यरक्षित ने कहा- तात! आप मोहाधीन होकर इस प्रकार की बातें कर रहे हैं? इस संसार में कौन किसका पिता और कौन किसका पुत्र है? सभी अपने कर्म के अनुसार नए-नए जन्म धारण करते हैं। राजा की कृपा से प्राप्त धन की क्या कीमत है?
बाह्य वैभव और संपत्ति कोई वास्तविक संपत्ति नहीं है। बाह्य धन संपत्ति को जल तरंग की भांति अत्यंत चपल है। वायु की तरह जीवन अस्थिर है। योवन तृण के अग्रभाग पर रहे जलबिंदु के समान है। दुनिया के संबंध/संगम स्वप्नतुल्य है। इन अस्थिर संबंधों में क्या राग करना? क्या द्वेष करना?
अनादि काल से परिभ्रमण करती हुई आत्मा को उस संसार में मनुष्य जन्म कि प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है। यह जीवन तो संसार में अमूल्य रत्न की प्राप्ति तुल्य है…… इसकी कीमत जीवन को प्राप्त करके जो मनुष्य सांसारिक सुखों के लिए अपना जीवन बिता देता है, वह कांच के टुकड़े के लिए रत्न देने की तैयारी कर रहा है।
“मनुष्य जीवन की सफलता विषय सुखों का त्याग कर मोक्ष सुख के लिए प्रयत्न करने में है। इंद्रियजन्य सुख तो क्षणिक, नश्वर व तुच्छ हैं। उन में आसक्त बनना बुद्धिमत्ता नहीं है।
“है तात! संसार के उन तुच्छ भोगों से आत्मा कब तृप्त बनी है? आत्म-तृप्ति तो त्याग से ही सम्भव है, भोग से नहीं?
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मैंने संसार के नश्वर स्वरूप को अच्छी तरह से जान लिया है……. अतः इस महान आहर्ती प्रवज्या को स्वीकार कर पुनः इसके त्याग की मूर्खता क्यों करूं? यह तो मुझे महान पुण्य उदय से प्राप्त हुई है। इसके त्याग की इच्छा मूर्खता ही है।
गन्धक कुल में उत्पन्न हुआ सर्प, वमन किए हुए जहर को पुनः नहीं पीता है…. वह अग्नि में भस्मसात हो जाएगा परन्तु वमन की गई वस्तु का पुनः आस्वाद नहीं करेगा….. मैंने भी संसार के तुच्छ भोग सुखों का स्वेच्छा से त्याग किया है, अतः अब पुनः ग्रहण करने की बालीश चेष्ठा क्यो करू?
“यदि आपके दिल में मेरे प्रति स्नेह है….….तो आप सब प्रवज्या ग्रहण करें।”
“आर्यरक्षित कि वैराग्य पूर्ण धर्मदेशना सुनकर पिता ने कहा- मैं तुम्हारी तरह कठोर जैन व्रत स्वीकार करने में समर्थ नहीं हूं।”
आर्यरक्षित ने सोचा पिता का मिथ्यात्व अभी मन्द नहीं हो पाया है, अतः पहले अपनी मां को प्रतिबोध करूं। यह बाद में प्रतिबोध पाएंगे। इनके पहले मां को प्रतिबोध दू। माता दृढ़ सम्यक्त्व व्रतधारी है और उसी ने मुझे मोक्षमार्ग प्रदान किया है। इतना विचार कर उन्होंने अपनी माता से कहा- माँ! तुम तो ज्ञान की महानिधि हो। तुम्हारी आज्ञा से ही दृष्टिवाद को पढ़ते हुए मुझे इस संसार से पार उतरने की इच्छा जगी थी।
“इस कलयुग में सुनन्दा धन्य है जिसने वज्रस्वामी जैसे पुत्ररत्न को जन्म दिया है, परन्तु में तो सुनन्दा से भी तुझे अधिक धन्य मानता हूँ। उसने तो रुदन से खिन्न होकर अपने पति मुनि को पुत्र सोपा था……. और उसके बाद पुनः पुत्र प्राप्ति के लिए विवाद भी किया था, परन्तु तुमने तो संसार सागर से पार उतारने की बुद्धि से ही मुझे तोसलिपुत्र आचार्य को सौप दिया था। महान पुण्योदय से वज्रस्वामी के पास पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर अब तुम्हारे पास आया हू, अतः तुम भी परिवार सहित दीक्षा स्वीकार कर भवसागर से पार उतारो।”
माता ने कहा, “आर्यरक्षित! मै दीक्षा स्वीकार करने के लिए तैयार हूं, यदि परिवार में मेरे प्रति स्नेह वाले। होंगे तो वे भी मेरे पीछे अवश्य दीक्षा स्वीकार करेंगे।
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बस आर्यरक्षित सुरिवर के उपदेश अमृत का पान कर सोमदेव शिवाय सभी दीक्षा के लिए तैयार हो गए।
आर्यरक्षित ने अपनी माता सभी को शुभ मुहूर्त में दीक्षा प्रदान की।
“सभी की दीक्षा हो जाने पर सोमदेव ने कहा, में भी दीक्षा लेने के लिए तैयार हूं, परंतु मुझे कुछ वस्तुओं की छूट दो।”
आर्यरक्षित ने पूछा, “कौनसी छूट चाहते हो?”
सोमदेव ने कहा, “मैं धोती पहनूंगा, पैरों में जूते पहनूंगा, छत्री और जनेऊ धारण करूंगा इत्यादि।”
आर्यरक्षित सूरीश्वर महान ज्ञानी और गीतार्थ थे।
उन्होंने सोचा, भविष्य में यह स्वयं इन वस्तुओं का त्याग कर देंगे- इस प्रकार विचार कर पिता की शर्त में निषेध अनुमति दिए बिना उन्हें भागवती दीक्षा प्रदान कर दी।
एक बार आर्यरक्षित सूरीश्वर विहार कर किसी नगर में गए। वहां के श्रावको ने सभी मुनियों का वंदन किया, किंतु छत्रधारी सोमदेव मुनि को वन्दन नही किया।
उपाश्रय में आकर सोमदेव मुनि ने आर्यरक्षित सूरीश्वरजी से पूछा, “क्या मैं वंदनीय नहीं हूं”?
आर्य रक्षित ने कहा, “तात! छत्र धारण के साथ वंदनीय कैसे बनोगे? अतः छत्र छोड़ दो…… जब गर्मी पड़े तब सिर पर वस्त्र रख लेना।”
आर्यरक्षित की यह बात सोमदेव मुनि ने तुरंत स्वीकार कर ली और उन्होंने हमेशा के लिए छत्र का त्याग कर दिया।
इस प्रकार धीरे-धीरे आर्यरक्षित सूरीश्वरजी ने अपने पिता मुनि के पास से छत्र, जूते तथा जनेउ आदि गृहस्थ वेष युक्तिपूर्वक छुड़वा दिया……. परंतु उन्होंने धोती का त्याग नहीं किया।
एक बार आर्यरक्षित सूरीश्वरजी म. के समुदाय में किसी मुनि का स्वर्गवास हो गया। उस समय ऐसी प्रथा थी कि स्वर्गस्थ मुनि के देह को एक मुनि उठाकर जंगल में ले जाते और उस देह का परिष्ठापनिका समिति के अनुसार वोसिरा कर देते थे।
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मुनि के स्वर्ग-गमन के बाद उनके मृत देह को पठारने की क्रिया के लिए अनेक गीतार्थ मुनि तैयार हो गए तभी कल्पित कोप करते हुए सूरिवर बोले, ‘क्या सभी पुण्य के कार्य तुम ही करोगे? क्या मेरे स्वजन में से किसी को करने नहीं दोगे?
आर्यरक्षित की यह बात सुनकर पिता मुनि बोले, यदि इस कार्य में महान पुण्य हो तो मैं यह कार्य करूंगा।
आर्यरक्षित ने कहा, मृत देह को वहन करते समय अनेक उपसर्ग भी हो सकते हैं और यदि आप उपसर्ग से चलित हो जाओ तो हम पर भयंकर आपत्ती आ सकती है…….अतः जो उचित लगे वैसा करो।
यह सुनकर सोमदेव मुनि ने कहा, ‘क्या मैं इतना स्त्वहीन और निर्बल हूं? मैं इस कार्य को अवश्य करूंगा। पहले भी मैंने वेदमंत्रों के द्वारा राजा और राष्ट्र की आपत्ति दूर की है……अतः इस कार्य में मुझे कोई घबराहट नहीं है। इस प्रकार दृढ़ बनकर सोमदेव मुनि स्वयं उस मृत देह को उठा कर जंगल की तरफ चल पड़े, तभी पूर्वशिक्षित बच्चों ने उनकी धोती खींच ली। बच्चों के इस उपसर्ग से वे मन में अत्यंत दुखी हुए, ‘यदि इस शव को नीचे रख दिया तो मेरा पुत्र पर आपत्ति आ जाएगी ‘इस भय से उन्होंने शव को नीचे नही उतारा और जंगल में जाकर मृत देह की अंतिम क्रिया कर दी। लौटने पर आर्यरक्षित ने उन्हें वस्त्र दिया और उन्होंने उसे शीघ्र ही चोलपट्टे की तरह पहन लिया।
सोमदेव मुनि का जीवन हर तरह से बदल चुका था। उनकी प्रत्येक आचार क्रिया साधु समान ही थी….. परंतु उन्हें गोचरी के लिए जाने में शर्म आती थी। अनेक प्रयत्न करने पर भी वे भिक्षा- गमन के लिए तैयार नहीं हुए।
आर्यरक्षित ने सोचा, कदाचित् मेरा आयुष्य पहले क्षीण हो जाये तो इन्हें वृद्धावस्था में तकलीफ पड़ सकती है, अतः इन्हें किसी भी प्रकार से भीक्षा विधि सिखानी चाहिए।
एक बार अपने शिष्यों को इकठ्ठा कर आर्यरक्षित ने कहा- मैं विहार करके पास के गाँव में जाऊंगा…..तुम लोग यही ठहरना ……. रोज भिक्षा लाना, किन्तु सोमदेव मुनी को भोजन के लिए आमंत्रण मत देना।
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आर्यरक्षित की बात शिष्य समझ न सके……. फिर भी उन्होंने गुरु आज्ञा को ‘तहत्ति’ कर स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन आर्यरक्षित सूरिवर विहार कर पास के गांव में चले गए।
सोमदेव मुनि वहीं ठहरे हुए थे। सभी शिष्य गोचरी लाकर वापरने लगे, किंतु उन्होंने सोमदेव मुनि को आमंत्रण नहीं दिया। 2 दिन तक वे भूखे रहे और तीसरे दिन आर्यरक्षित सूरिवर वापस लौट आए।
आर्यरक्षित सुरिवर के आने के साथ ही सोमदेव मुनि ने कहा, यदि आप थोड़े दिन अधिक बाहर रहते तो अकाल में हीं मेरी मृत्यु हो जाती…… आपकी आज्ञा होने पर भी किसी मुनि ने मुझे भोजन के लिए आमंत्रण नहीं दिया।
तुरंत ही झूठा कोप करते हुए आर्यरक्षित सुरिवर बोले, तुमने पिता मुनि को भोजन के लिए आमंत्रण क्यों नहीं दिया?
तभी पूर्व शिक्षित एक मुनि ने कहा, भगवंत! आपके विरह की व्यथा से हम शुन्यमनस्क हो गए थे, अतः हमारे इस अपराध को आप क्षमा करें।
तभी आर्यरक्षित सुरिवर ने पिता मुनि को कहां, पराभव में कारणभूत ऐसी दूसरे की आशा कभी नहीं करना चाहिए। पर की आशा अंत में निराशा पैदा करती है।
इतना कहकर आर्यरक्षित सूरिवर स्वयं खड़े हो गए और बोले, “आपके उचित आहार के लिए मैं स्वयं जाता हूं।”
तभी सहसा सोमदेव मुनि बोले, वत्स! मेरे होते हुए तुम भिक्षा के लिए कहां जाओगे? तुम तो गच्छ के अधिपति हो…… तो तुम्हें जाना उचित नहीं है। इतना कहकर निषेध करते हुए भी पात्र ग्रहण कर भिक्षा के लिए निकल पड़े।
किसी श्रेष्ठी के पिछले द्वार से उन्होंने हवेली में प्रवेश किया और जोर से ‘धर्मलाभ’ बोले।
मकान के पीछले द्वार से गोचरी के लिए आए मुनिवर को देखकर श्रावक ने पूछा, “हे मुनिवर! आप मुख्य द्वार से क्यों नहीं आए?”
सोमदेव मुनि ने कहा “हे महानुभाव! क्या लक्ष्मी पिछले दरवाजे से नहीं आती है?”
उस श्रावक ने खुश होकर अत्यंत भक्तिभावपूर्वक सोमदेव मुनि को 32 लड्डु बहोराये।
सोमदेव मुनि गोचरी बहोरकर उपाश्रय में आए। प्रथम दिन भीक्षा में सोमदेव मुनि के पात्र में 32 लड्डू देखकर निमित्त शास्त्र में उपयोग देखकर आर्यरक्षित सुरिवर ने सोचा पहली भिक्षा में 32 लड्डू मिले हैं, अतः मेरे पीछे 32 शिष्य होंगे।
आर्यरक्षित सूरीवर ने पूछा, तात! पहले राजकुल में से जो धन मिलता था……… उनका स्व-उपभोग करने के बाद किसे देते थे?”
सोमदेव ने कहा, “गुणवान पुरोहित को देते थे।”
आर्यरक्षित ने कहा, ‘योग्य पात्र में लक्ष्मी का दान करने से वह नवीन सुकृत को जन्म देने वाली बनती है, अतः यह अपने साधु गुणों की निधि है….. योग्य पात्र हैं, इनकी भक्ति करने से महान पूण्य का बंध होता है।
आर्यरक्षित सुरिवर कि यह बात सुनकर उत्साही बने सोमदेव मुनि ने कहा, “बाल, ग्लान आदि साधुओ के लिए उपकारी आहार लाकर मैंने क्या नहीं पाया? “अर्थात मैंने बहुत कुछ पाया है”
इस प्रकार आर्यरक्षित सूरीवर ने अपने सोमदेव मुनी के मन में भी भिक्षावृत्ति के प्रति आदर भाव पैदा कर दिया।
अब सोमदेव मुनि सुंदर रीती से संयम धर्म की आराधना करने लगे।
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पुष्यमित्र
महान प्रभावक आर्यरक्षित सूरीजी महाराज के गच्छ में अनेक विद्वान और प्रभावक मुनिवर थे।
आर्यरक्षित सुरिश्वर विविध क्षेत्रों में विहार करते हुए जिनशासन की अजोड प्रभावना कर रहे थे।
उनके शिष्य परिवार में चार मुख्य प्रकांड विद्वान शिष्य थे।-
(1) दुर्बलिका पुष्यमित्र
(2) विंध्य
(3) फल्गुरक्षित और
(4) गोष्ठामाहिल।
दुर्बलिका पुष्यमित्र अर्थात स्वाध्याय की साक्षात मूर्ति!
वे ज्ञान के अत्यंत व्यसनी थे। विशुद्ध चरित्र पालन के साथ-साथ उन्हें ज्ञान में तीव्र रस था। वे सतत स्वाध्याय में लीन रहते थे….. और इस कारण घी का पान करने पर भी उनकी देह लता अत्यंत दुर्बल थी। भोजन में उन्हें कोई रस या आसक्ति नहीं थी। अतः स्वाध्याय के अति श्रम के कारण घी का भोजन भी पच जाता था और मानसिक श्रम के कारण उनका शरीर दुर्बल ही रहता था। उन्होंने अपने गुरुदेव आर्यरक्षित सूरीजी म. के पास में 9 पूर्व का अभ्यास किया था। ग्रहण किया गया श्रुत भूल न जाए, इस हेतु वे रात-दिन स्वाध्याय में लीन रहते थे।
ग्रहण किये श्रुत को स्थिर करने के लिए उसका बार-बार स्वाध्याय/पुनरावर्तन अनिवार्य है…… यदि सतत पुनरावर्तन जारी न रखा जाए तो ग्रहण किया गया सभी श्रुत विस्मृत हो जाता है।
रोटी सेकने के लिए उसे बार-बार अग्नि पर घुमाना पड़ता है, यदि ऐसे ही रख दि जाए तो वह जलकर भस्मीभूत हो जाती है।
बस, इसी प्रकार ज्ञान को स्थिर करने के लिए उसका पुनरावर्तन अत्यंत जरूरी है।
उनका मुख्य नाम तो पुष्यमित्र था…….. परंतु स्वाध्याय के कारण दुर्बल काया होने से लोग उन्हें दुर्बलिका पुष्यमित्र कहते थे।
पुष्यमित्र के स्वजन संबंधी बौद्ध धर्म के थे।
एक बार आर्यरक्षित सूरीजी म. दशपुर नगर में विराजमान थे, तभी पुष्यमित्र के संबंधी उनको वंदना करने के लिए आए।
वन्दन करने के बाद पुष्यमित्र के संबंधी जनों ने पूछा, “क्या आपके धर्म में ध्यान नहीं है?” सुरिवर ने कहा, हमारे धर्म में तो श्रेष्ठ ध्यान है…… ऐसा ध्यान योग अन्य कहीं नहीं है। तुम्हारे संबंधी पुष्यमित्र मुनि, ध्यान के कारण ही अत्यंत दुर्बल है।
उन्होंने कहा, “ऐसा नहीं होना चाहिए, हमारे ख्याल से तो तप करने और मधुर आहार के अभाव के कारण ही वे अत्यंत दुर्बल हुए हैं।”
सुरिवर ने कहा, “पूज्यो की कृपा से यह तो घी का भोजन करता है”, परंतु सतत स्वाध्याय और ध्यान के कारण अत्यंत कृश दिखाई देता है।
सम्बन्धी जनो कहा, “नहीं आपके पास स्नेह की संपत्ति कहां है? सो आप इसे घी पिलाओ?”
आर्यरक्षित सुरिवर ने कहा, “यह स्वयं घी पिता है…. फिर भी तुम्हें विश्वास ना हो तो इसे अपने घर ले जाओ और इसे घी का स्निग्ध आहार खिलाओ, फिर तुम स्वयं जान लोगे कि इसकी दुर्बलता का कारण क्या है?”
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संबंधीजनों ने पुष्यमित्र को अपने घर पधारने के लिए आमंत्रण दिया। गुरुदेव की अनुज्ञा से पुष्यमित्र अपने कुटुंबीजनों के घर गए और संयम जीवन के लिए योग्य बस्ती में ठहरे।
वहां रहने पर संबंधीजनों ने स्निग्ध भोजन व घी आदि से पुष्यमित्र की खूब-खूब भक्ति की……. परंतु स्वाध्याय में लीन बने पुष्यमित्र को स्निग्ध भोजन में लेश भी आसक्ति नहीं थी, स्वाध्याय की लीनता के कारण उनकी काया क्रश ही बनी रही।
कुटुंबीजनों ने सोचा पुष्यमित्र द्वारा किया गया भोजन राक में घी डालने की तरह निरर्थक ही जा रहा है, बहुत सा और गरिष्ठ भोजन करने पर भी इसे कुछ भी फायदा नहीं हुआ?
कुटुंबीजन सोच में पड़ गए। उन्होंने पुष्यमित्र को स्वाध्याय के लिए मना किया और फिर आहार ग्रहण करने के लिए आग्रह किया।
गुरुदेव की आज्ञा से पुष्यमित्र ने थोड़े समय के लिए स्वाध्याय बंद कर दिया……. अब उनका शरीर धीरे-धीरे पुष्ट होने लगा। अंत प्रांत भोजन से भी उनका शरीर पुष्ट ही हो रहा था।
कुछ ही दिनों में कुटुंबिजनो को प्रतीत हो गई कि वह ना तो रोगी थे और ना ही तुच्छ भोजन थे……..परंतु स्वाध्याय आदि के कारण उनकी काया क्रश थी।
पुष्यमित्र ने अपने संबंधीजनों को प्रतिबोध दिया। स्वाध्याय की महिमा और उसका स्वरूप समझाया।
पुष्यमित्र के धर्मोंपदेश का श्रवण कर सभी कुटुंबीजन जैन धर्म के उपासक बन गए।
पुष्यमित्र मुनि पुनः अपने गुरुदेव के चरणों में आ गए।
आर्यरक्षित सुरीवर प्रतिदिन अपने शिष्यों को श्रुत की वाचना प्रदान करते थे। सुरिवर का एक शिष्य विंध्य भी अत्यंत मेधावी था। परंतु जिस गति से आर्यरक्षित सूरिवर स्वाध्याय मंडली में वाचना दे रहे थे, उसे विंध्यमुनि अच्छी तरह से ग्रहण नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने गुरुदेव से विज्ञप्ति की, “भगवंत! श्रुत मांडली में मेरा पाठ स्खलित हो रहा है, अतः मुझे अलग से कहो।”
गुरुदेव ने कहा, अच्छा! मैं तुम्हारे लिए स्वाध्याय की अलग व्यवस्था कर देता हूं।
सुरिवर ने पुष्यमित्र मुनि को बुलाकर कहा, इस विंध्यमुनि को रोज वाचना प्रदान करो।
विंध्यमुनि ने गुरुदेव की आज्ञा तहत्ती कर स्वीकार की।
पुष्यमित्र मुनि विंध्यमुनि को वाचना देने लगे, इस प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए।
एक दिन उसने आकर गुरुदेव से विज्ञप्ति कि – “भगवन! मेरी प्रार्थना है, वाचना में व्यग्रता के कारण मैं अपना ग्रहण किया हुआ श्रुत भूल रहा हूं…….. समयाभाव के कारण पूरा स्वाध्याय नहीं हो पा रहा है…… पहले आप की आज्ञा से अपने घर गया था और वहा स्वाध्याय बन्द कर देने से अब मुझे स्वाध्याय में भूले आ रही है…..यदि अब मं. वाचना दूंगा तो निश्चय ही नोवां पूर्व भूल जाऊँगा।
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आर्यरक्षित सुरिवर ने सोचा, ओहो! इतना मेधावी होकर भी यदि यह आगम श्रुत को भूल जाएगा तो फिर दूसरा कौन इस श्रुत को धारण कर सकेगा? सचमुच दिन-प्रतिदिन जीवो की श्रुत ग्रहण शक्ति घटती जा रही है, अतः मुझे समस्त आगमो का सरलतापूर्वक अभ्यास हो सके। इसके लिए कुछ प्रयत्न करना चाहिए! इस विचार कर आर्यरक्षित सुरिवर ने आगमो को चार अनुयोग द्वारो में विभक्त कर दिया।
अंग, उपांग, मूलसूत्र और छेदसूत्रों का चरणकरनानुयोग में समावेश किया।
उत्तराध्ययन आदि का धर्मकथानुयोग में समावेश किया।
सूर्यप्रघ्यप्ति आदि आगमों को गणित अनुयोग में और दृष्टिवाद का द्रव्यानुयोग में समावेश किया।
इस प्रकार भगवान महावीर की पाट परंपरा में आगमो को चार अनुयोग में विभक्त करने का सर्वप्रथम भगीरथ कार्य आर्यरक्षित सुरिश्वर म. ने किया।
आर्यरक्षित सुरिवर ने विंध्यमुनि के लिए यही कार्य किया था। इसके पूर्व एक ही सूत्र में चार अनुयोगों की बातें आती थी।
इंद्र का आगमन
इस जंबूदीप के पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती विजय में सीमंधर स्वामी भगवंत पृथ्वी तल को पावन करते हुए विचर रहे है। उनका कुल आयुष्य 84 लाख पूर्व वर्ष का है, उनकी काया 500 धनुष की है।
भरत क्षेत्र में श्री कुंथुनाथ भगवान के शासनकाल में वैशाख वद 10 के पवित्र दिन तारक परमात्मा सीमंधर स्वामी भगवंत का जन्म पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिनी नगरी में हुआ था। उनकी माता का नाम सत्यकी ओर पिता का नाम श्रेयांस राजा था। 83 लाख पूर्व वर्ष काल गृहस्थ जीवन में व्यतीत कर, बीसवें श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवंत के निर्वाण के बाद, फाल्गुन सुद 3 के दिन सीमंधर स्वामी भगवंत ने संसार का त्याग कर चरित्र धर्म स्वीकार किया था। 1000 वर्ष के छद्मस्थ पर्याय की पूर्णाहुति के बाद चैत्र 3 के दिन सीमंधर स्वामी भगवन को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। महाविदेह क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी काल में आठवें उदय तीर्थंकर के निर्वाण के बाद उनके शासनकाल दरम्यान श्रावण सूद 3 के दिन सीमंधर स्वामी भगवंत का निर्वाण होगा।
एक बार इंद्र महाराजा सीमंधर स्वामी भगवंत के समवसरण में पधारे। उस दिन सीमंधर स्वामी भगवंत ने संसार के यथार्थ स्वरुप को समझाने वाली धर्मदेशना दी।
अनादिकाल से अनंत संसारी जीव निगोद में रहे हुए हैं। एक श्वासोच्छवास में उनके सत्रह बार जन्म और सत्रह बार मरण ओर अठारवीं बार पुनर्जन्म होता है। निगोद में रहा जीव सतत जन्म मरण की पीड़ा भोग रहा है।
जब किसी एक आत्मा का मोक्ष गमन होता है, तब अपनी भवितव्यता के योग से और व्यवहार राशि (निगोद) में रही हुई आत्मा बाहर निकलती है और व्यवहार राशि में आती है।
सीमंधर स्वामी तारक परमात्मा ने अत्यंत ही सूक्ष्मता से निगोद में रहे हुए जीव के स्वरूप का वर्णन किया, जिसे इंद्र महाराजा ने अत्यंत ही ध्यान पूर्वक सुना। इस प्रकार सुष्मतापूर्वक निगोद के स्वरूप का वर्णन उन्होंने पहली बार सुना था। उनके आश्चर्य का पार न रहा। ओहो! निगोद का जीव सतत इतनी भयंकर वेदना भोग रहा है।
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देशना समाप्ति के बाद इंद्र महाराजा ने विज्ञप्ति करते हुए भगवंत से पूछा, भगवंत निगोद के इस प्रकार के सूक्ष्म स्वरूप को समझाने वाला कोई व्यक्ति भरत क्षेत्र में है?
सीमंधर स्वामी भगवंत ने कहा, हां! भरत क्षेत्र में मथुरा नगरी में आर्य रक्षित सूरी जी विराजमान है, वे इस प्रकार से निगोद का वर्णन करने में समर्थ है।
सीमंधर स्वामी भगवंत के मुख से यह बात सुनकर इंद्र महाराजा के दिल में उत्सुकता पैदा हुई और वह सीधे महाविदेह क्षेत्र से भरत क्षेत्र में मथुरा नगरी में आ गए।
इंद्र महाराजा ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया। ब्राह्मण की देह लता अत्यंत जर्जरीत थी……… आंखें निस्तेज बनी हुई थी….. मस्तक पर काश पुष्प की भांति सफेद बाल थे….. शरीर कांप रहा था…… हाथ में लकड़ी लिए धीरे-धीरे चल रहे थे……. हाथ व पैर कांप रहे थे…… दांत गिर चुके थे……मुख पर उदासीनता थी…… आंखों में पानी भरा हुआ था….. इस प्रकार क्रश काया का रूप धारण कर इंद्र राजा आर्यरक्षित सूरी जी के पास आए और वन्दन आदि कर गुरु चरणों में बैठे…… तत्पश्चात उन्होंने निगोद का स्वरुप जानने के लिए प्रश्न किया।
निगोद का स्वरूप जानने की जिज्ञासा जानकार सुरिवर प्रसन्न हुए और अत्यंत प्रेमपूर्वक वे निगोद के स्वरूप का वर्णन करने लगे।
ब्राह्मण के वेष में रहे इंद्र महाराजा अत्यंत ध्यानपूर्वक सुनने लगे और बीच-बीच में प्रश्न भी करने लगे।
सुरिवर ने ब्राह्मण वेश में रहे इंद्र की सभी शंकाओं का प्रेम से समाधान किया……. जिसे सुनकर इंद्र महाराजा के आश्चर्य का पार न रहा।
ब्राह्मण विष में रहे इंद्र ने पूछा, भगवन! मेरा आयुष्य कितना है?
अपने श्रुत ज्ञान का उपयोग लगाकरआर्यरक्षित सुरिवर ने कहा, तुम्हारा आयुष्य दिन, मास, वर्ष, हजार वर्ष और लाख वर्ष से भी मापा नहीं जा सकता है। अरे! तुम्हारे आयुष्य को तो लाखों करोड़ों वर्षों से भी मापा नहीं जा सकता है……. तुम्हारा आयुष्य दो सागरोपम का है।…… तुम सोधर्म देवलोक के इंद्र हो….. और मेरी परीक्षा के लिए आए हो।
बस, तत्क्षण इंद्र महाराजा ने ब्राह्मण वेष का त्याग कर दिया और वे अपने मूल स्वरुप में प्रकट हुए।
आर्यरक्षित सुरिवर ने कहा, अन्य मुनियो के समाधान के लिए तुम कुछ समय यहां ठहर जाओ।
इंद्र महाराजा ने कहा, मेरी ऋद्धि और समृद्धि को देखकर कोई साधु भूल से निदान न कर बैठे, इसके लिए मेरा यहां ठहरना उचित नहीं है।
*आर्यरक्षित44*
आर्यरक्षित ने कहा तुम्हारे आगमन का कोई चिन्ह करते जाओ।
तब तत्क्षण इंद्र महाराजा ने उपाश्रय के दरवाजे की दिशा उल्टी कर दी। जो उपाश्रय पूर्व सन्मुख था, उसे पश्चिम सन्मुख कर दिया। इतना करके इंद्र महाराजा देवलोक में चले गए।
थोड़ी देर बाद जब शिष्य आए, तो उन्होंने उपाश्रय के मुख्य द्वार के स्थान पर दीवार देखी- सभी को आश्चर्य हुआ। आर्यरक्षित ने कहा, द्वार इधर है।
सभी शिष्य आवक रह गए……द्वार कैसे बदल गया?
तब आर्यरक्षित ने इंद्र के आगमन की सब बात कही……. सभी शिष्य को आश्चर्य हुआ।
जिन शासन की प्रभावना करते हुए आर्यरक्षित सुरिवर वृद्धा अवस्था को प्राप्त हो चुके थे। सुरिवर विहार करते हुए मथुरा पधारें। उस समय मथुरा में कीसी नास्तिक ने वाद के लिए ललकारा। गोष्ठामाहील ने उसके साथ वाद किया और उसे पराजित कर दिया।
सूरी जी ने सोचा, अब में वृद्ध हो चुका हूं, अतः गच्छ का भार योग्य शिष्य को सौप दु।
विचार करते हुए उन्होंने निर्णय लिया कि इस पद के लिए पुष्यमित्र सुयोग्य है, शिष्यो में से किसी ने फल्गुरक्षित और गोष्ठिमाहिल का नाम सूचित किया। उसी समय आचार्य भगवंत ने 3 घडे मंगवाए और उन्हें क्रमशः वाल, तेल और घी से भरवा दिए- फिर उन तीनों को खाली करवाया।
(1) वाल का घड़ा संपूर्ण खाली हो गया था।
(2) तेल के घड़े में थोड़ा सा तेल चिपका रहा।
(3) घी के घड़े में तेल से भी अधिक घी चिपका रहा।
आर्यरक्षित ने अपने शिष्यों को कहा-
1. पुष्यमित्र के प्रति में वाल के घट समान हूं अर्थात उसके प्रति निर्लिप्त हूँ। उसने मेरे पास से अधिक ज्ञान प्राप्त किया है।
2. फल्गुरक्षित के प्रति तेल के घट समान हूं- अर्थात उसके प्रति अल्प राग/लेप वाला हूं। उसने मेरे पास से थोड़ा कम ज्ञान प्राप्त किया है।
3. गोष्ठिमाहिल के प्रति में घी के घट के समान हूं- उसके प्रति में अधिक लेप वाला हूं। उसने मेरे पास से पुष्यमित्र व फल्गुरक्षित से कम ज्ञान प्राप्त किया है। अतः मेरे पद के लिए हर तरह से पुष्यमित्र सुयोग्य है।
और एक शुभ दिन उन्होंने शुभ मुहूर्त में पुष्यमित्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। वे गच्छ के भार से मुक्त हो गए।
*आर्यरक्षित45*
समाधिमरणम!
नदी के नीर की भाती जीवन का प्रवाह बह रहा है। वर्तमान काल प्रतिक्षण भूतकाल बनता ही जा रहा है।
जो जन्म लेता है उसका अवश्य मरण होता है। जीवन के साथ मृत्यु की कड़ी जुड़ी हुई है।
जन्म के साथ मृत्यु अनिवार्य है- परंतु मृत्यु के बाद जन्म वैकल्पिक है। संयम की उत्कृष्ट साधना- पूर्वक, पवित्र जीवन जिया जाए तो आत्मा भव बंधन से मुक्त बन कर सदा काल के लिए अजर-अमर बन सकती है।
आर्यरक्षित सुरिवर का जीवन भव बंधन से मुक्ति पाने के लिए ही था। उनके साधक जीवन की प्रत्येक पल, कर्म के जाल को तोड़ने के लिए ही था। तप,त्याग,सयंम,तितिक्षा,ज्ञान,ध्यान और स्वाध्याय आदि की साधना द्वारा उनकी आत्मा फुल की भांति हल्की बन चुकी थी। उनके मुख पर ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज था। वृद्धावस्था से देह जर्जरित होने पर भी उनके मुख पर दीनता का नामोनिशान नहीं था। वे शांत और गंभीर थे। शासन के हित के लिए वे सतत चिंतातूर थे। देह के क्षणिक सौन्दर्य को पाने के बजाय उन्हें आत्मा के अक्षय अखण्ड सौन्दर्य को पाने की अधिक उत्कंठा थी।
उन्होंने देखा- देह क्षीण हो चुका है…… इस देह का अब कोई भरोसा नहीं है। इस प्रकार विचार कर उन्होंने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर अनशन स्वीकार लिया। उनकी आत्मा परमात्मा ध्यान में मग्न थी।
शुभ ध्यान के बल से वे अनंत अनंत कर्मों की निर्जरा कर रहे थे।
उनके होठों पर आत्मानंद का स्मिथ था……..तथा उनके मुख में परमेष्ठी भगवंतों का सतत स्मरण था।
और एक घड़ी…… एक क्षण ऐसी आ गई…… उन्होंने इस जर्जरित देह का त्याग कर सदा के लिए विदाई ले ली। उनका आतम पंछी अनंत गमन में उड़ गया।
औदारिक देह का त्याग कर वे वैक्रिय देहधारी देव बन गए।
उनके अवसान से जैन संघ को बड़ी भारी क्षति हुई…… सभी के आंखों में आंसू थे……. सभी के दिल में वेदना थी…… सभी के मुख पर शब्द थे.. ऐसे गुरुदेव अब कहां मिलेंगे?
हजारों के तारक गुरुदेव आर्यरक्षित सुरिवर को चतुर्विध संघ ने अपनी भावभरी श्रद्धांजलि समर्पित की।
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