नमुत्थुणं सूत्र मेरी क्लास का
*अध्याय*
*3:10 : 2020*
नमुत्थुणं सूत्र का पहला अक्षर है न से णं तो इस ण का क्या महत्व है ये विशेष :रूप से जान
लेते है,क्योंकि हमारा महामन्त्र भी इसी ण से आरंभ होता है,
तो निश्चित ही इसका गूढ़ अर्थ होगा। तो चलिये अपनी सीमित समझ से इसे समझ ने का प्रयास करें
“णं” का गहरा और शांतिपूर्वक उच्चारण करते समय कुछ “वायु” मुंह से (जिसे अशुभ कर्म, विचार, अशक्ति वगैरह )बाहर निकलती है
फिर जीभ तुरंत मुंह के “ऊपर के भाग” को टच करती है । और फिर ध्वनि “नाभि-चक्र” तक पहुँच कर वापस ऊपर की ओर उठती है । वो गूँज (ध्वनि) ह्रदय और गले से होती हुई वापस मुंह तक पहुँचती है । और वहां से होकर वापस नाभि चक्र में जाकर “स्थित” हो जाती है । चूँकि “णं” का उच्चारण पूरा होने पर मुंह बंद रहता है । इसलिए जो “शक्ति” प्रकट हुई है। वो “साधक” के पास सुरक्षित रहती है । दूसरे बीजाक्षर ह्रीं, श्रीं इत्यादि अधिकतर मंत्र से पहले लगते हैं। परन्तु “णं” बीजाक्षर शब्द के अंत में लगता है जो उस शब्द के प्रभाव को साधक में स्थिर कर देता है ।
“णं” के बारे में और जानिये :
नमुत्थुणं सूत्र का भी बीजाक्षर “णं” है । उसमें 44 बार “णं” का प्रयोग हुआ है ।
और भी अनेक सूत्र हैं जिनमें “णं” बीजाक्षर का प्रयोग हुआ है।
करेमि भंते में 7 बार
इरियावहियं में 1 बार
अन्नत्थ में 14 बार
लोगस्स में में 7 बार
उवसग्गहरं में 2 बार
जय वीयराय में 6 बार
कल्लाण कंदं में 5 बार
सिद्धाणं बुद्धाणं में 7 बार
इच्छामि ठामि में 5 बार
नाणंमि दंसणंमि में 6 बार
सुगुरु वंदना में 2 बार
वंदित्तु में 14 बार (43 गाथा अनुसार, कहीं पर वंदित्तु 50 गाथा का भी है!)
इससे ये बात प्रकट होती है कि जैन धर्म के सूत्रों में “णं” अक्षर का प्रयोग खूब हुआ है
अब नमुत्थुणं सूत्र का अर्थ जानें
1️⃣नमुत्थुणं जाग्रत औऱ तदनंतर उत्थान की ओर अग्रसर प्रभु को मेरा नमस्कार होवे।
2️⃣अरिहंताणं*➡️अरिहंतों को नमस्कार होवे अरिहंताणं का संधि विच्छेद करे तो ➡️ 'अरि' यानी शत्रु और 'हंत' यानी हणना, ( नाश)करने वाले
*शाब्दिक* अर्थ में वे केवल ज्ञानी जिन्होने सभी शत्रुओं का नाश किया हो, क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष रूपी आंतरिक शत्रुओं का नाश किया हो, उन्हे अरिहंत कहते हैं । वे पूर्ण स्वरुप भगवान कहलाते है!
अरिहंत भगवान का अर्थ है मोक्ष से पहले की अवस्था। ज्ञान में सिद्ध भगवान जैसी स्थिति है
अरहंताणं-अर्थात, श्रेष्ठ गुण संपत्ति के स्वामी होने से देव और देवेंद्र द्वारा भी जो पूजने योग्य है, और
यह पद बोलते हुए रागादि शत्रु को हंत कर जन्म की परंपरा को छेद कर, सर्व को पूजने योग्य अरिहंत परमात्मा को अंतरपट में बिराजमान कर के, नमस्कार करते-करते प्रार्थना करना है कि, हे नाथ, मैं तो रागादि शत्रु से पीड़ित हूं, मेरी जन्म मरण की परंपरा चालू है, और कभी यूं ही लोकनिंदा का पात्र भी बनता आया हूं।
अब आप को नमस्कार करते करते एक ही प्रार्थना करता हूं कि प्रभु, रागादि भावों से छूड़ाकर मुझे भी आप जैसा बनाओ। इस अवस्था को किया गया नमस्कार सविशेष कल्याण का कारण बनता है।
ये ही भावअरिहंत को सविषेश दर्शाने के लिए ही आगे कल➡️
*प्रश्न के उत्तर*
*3:10:2020*
1️⃣हन्त का अर्थ क्या है
🅰️ यानी हणना ,
2️⃣ज्ञान में अरिहंत भगवान की कैसी स्थिति है
🅰️ में सिद्ध भगवान जैसी स्थिति है ।
3️⃣43 गाथा अनुसार, वंदित्तु में कितनी बार णं” का प्रयोग हुआ है
🅰️ 14 बार (43 गाथा अनुसार कहीं पर 50 गाथा भी है )।
4️⃣रागादि भावों से छूड़ाकर मुझे भी किस जैसा बनाओ।
🅰️ अरिहंत भगवान जैसा ।
5️⃣अरिहंत परमात्मा को किसमें बिराजमान करते है
🅰️ अंतरपट मे ।
6️⃣अरिहंत भगवान का अर्थ किसके पहले की अवस्था।
🅰️ मोक्ष से पहले की आवस्था
7️⃣किसके उच्चारण पूरा होने पर मुंह बंद रहता है ।
🅰️ "ण"का उच्चारण ।
8️⃣आंतरिक शत्रु कौन -कौनसे है
🅰️लोभ-रोग-द्वेष- ।
9️⃣कौन सी वायु” मुंह से बाहर निकलती है
🅰️ मुंह से(अशुभ कर्म,विचार, आशक्ति) आदि ।
1️⃣0️⃣उवसग्गहरं में णं” शब्द का कितनी बार प्रयोग हुआ है ।
🅰️2 बार ।
*
*अध्याय*
*शक्र स्तव सूत्र*
5:10:2020
उत्तराध्यान अध्ययन सूत्र में कहा है कि शक्र स्तव सूत्र के प्रभाव से समकित की शुद्धि होती है
अनेक विशेषण युक्त भाव अरिहंत को गुण स्मरण के साथ प्रणिपात दंडक/ शक्रस्तव से नमस्कार किया गया है अंतिम दसवीं गाथा में भूत भविष्य और वर्तमान काल के द्रव्य अरिहंत भगवंतओं की वंदना की गई है।
इस सूत्र की भाषा आर्ष- प्राकृत है।
सामायिक में जैसा स्थान करेमि भंते सूत्र का है वैसा ही महत्वपूर्ण स्थान है चैत्यवंदन में शक्रस्तव का। शक्रस्तव सूत्र में संपदा 9 है ,पद 32 है, गुरु वर्ण 33 है ,लघु वर्ण 264 है, और सर्व वर्ण 297 है
भगवंताण
भगवंत शब्द का अर्थ है ➡️ भग शब्द के 14 अर्थ हैं उसमें से सूर्य और योनि को छोड़कर 12 अर्थ भगवंत के लायक हैं भग के 12 अर्थ
1️⃣ *ज्ञानवान* ➡️श्री अरिहंत देव जब माता की कुक्षी में पधारते हैं तब वे मती ज्ञान श्रुत ज्ञान एवं अवधि ज्ञान इन तीन ज्ञानों से युक्त होते हैं दीक्षा लेते ही चौथा मन पर्यव ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। घाति कर्म क्षय होते ही वे केवल ज्ञानी बन जाते हैं
2️⃣ *महिमावन* ➡️श्री अरिहंत देवाधिदेव के जन्म कल्याणक प्रसंग हर पल प्रतिपल मारपीट भूख प्यास आदि रोग शोक से पीड़ित नारकी जीवो को भी क्षण मात्र की सुख की अनुभूति होती है सदैव महा भयानक, घनघोर अंधकार भरी नरक भूमि भी कुछ समय के लिए प्रकाश वन्ति हो जाती है, जन्म कल्याणक समय स्थावर पृथ्वी पानी पावक पवन एवं हरियाली के जीवो के लिए भी सुख कारी हो जाती है गर्भ में आने के बाद से ही राजकुल में धन-धान्य रिद्धि सिद्धि वृद्धि होती रहती है अरिहंत के नाम स्मरण मात्र से ही उपद्रव आतंक रोगादि शांत हो जाते हैं
3️⃣ *यश वान* ➡️ दुर्जय राग द्वेष अंतरंग शत्रुओं के एवं परिषह उपसर्ग आदि के आक्रमण के समय अरिहंत सदैव विजवंत रहे हैं।अतः उनकी यश पताका यावचचन्द्र
दिवकारों तक फहराती रहेगी
वह शाश्वत कीर्ति तीनो लोक के लोक के लिए आनंद कारी होती है।
4️⃣ *वैराग्यवंत* ➡️ देवेंद्र नरेंद्र व चक्रवर्ती की ऐश्वर्य प्राप्ति के पश्चात भी वे सदा विरक्त रहते हैं भोगसुखो में भी उदासीन भाव से रहते हैं,
बाहरी युद्ध जीतकर भले ही चक्रवर्ती और अन्य शूरवीर प्रशंसा के पात्र हो सकते हैं, शौर्य आदि के विषय में उदाहरणरूप भी हो सकते हैं परन्तु वंदनीय और पूजनीय नहीं होते, वे सिर्फ अरिहंत परमात्मा ही होते हैं।क्योंकि उन्होंने आंतरिक युद्ध जीता है
5️⃣ *मुक्तिवंत* ➡️ समस्त क्लेश कदाग्रह से मुक्त
6️⃣ *रूपवान* ➡️ सभी देव अपनी संपूर्ण शक्ति से केवल अंकुश जितना रूप बनाते हैं तो भी सभी देवों का वह रूप भगवान के रूप के समक्ष कोयलेके समान दिखाई देता है।
7️⃣ *बलवान*➡️ मेरु पर्वत को दंड बनाकर पृथ्वी को छत्ररूप बनाने की शक्ति अरिहंत प्रभु में होती है ।
8️⃣ *प्रयत्न वान* ➡️ महा प्रतिमाओके भावो में/अध्यवसायोंमें, मन वचन एवं काया के विरोध में शैलेषी अवस्था आदि कार्यों में प्रयत्नशील अरिहंत होते हैं।
9️⃣ *इच्छा वान* ➡️जन्म जन्मांतरो में देव भवो में एवं तीर्थंकर के भव में दुख दावाग्नि में जलते जीवो को बचाने की तीव्र इच्छा प्रभु की होती है। 1️⃣0️⃣ *लक्ष्मी वान* ➡️ घातिकर्म / ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,मोहनीय एवं अंतराय कर्म के क्षयसे उत्पन्न अद्भुत उत्कृष्ट कोटि की सुख संपत्ति से भरपूर केवल ज्ञान रूपी तीर्थंकर लक्ष्मी से युक्त होते हैं अरिहंत प्रभु
1️⃣1️⃣ *धर्मवान*➡️दान शील तप और भाव में तथा सम्यक दर्शन ज्ञान चरित्र रूप बाह्यःअभ्यंतर महायोग रूप समस्त धर्म मय अरिहंत प्रभु होते हैं
1️⃣2️⃣ *ऐश्वर्य वान*➡️श्री अरिहंत प्रभु में संपूर्ण ऐश्वर्य इंद्र द्वारा भक्ति एवं विनम्र भाव से किए गए प्रति महा प्रतिहार्य रूप में होता है अष्टमहाप्रतिहार्य केस्वरूप में होता हैं।महाअष्टमहाप्रतिहार्य
देशना देने हेतु देवगण रजत,कनक एवं रतनमय तीन गढ़ वाले समवशरण की रचना करते हैं विहार में प्रभु के चरण के नीचे मृदु नौ नौ स्वर्ण कमलों की रचना अमरगण करते हैं।
इन 12 गुणों युक्त( वंत) भगवन्त को कोटिशः नमस्कार🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
*प्रश्न के उत्तर*
5:10:2020
1️⃣भगवान के रूप के समक्ष कोयलेके समान किसका रूप दिखाई देता है।
🅰️देवों का
2️⃣आंतरिक युद्धकिसने जीता है
🅰️अरिहंत परमात्मा
3️⃣विहार में प्रभु के चरण के नीचे क्या होता हैं
🅰️मृदु नौ नौ स्वर्ण कमल की रचना
4️⃣भग शब्द के कितने अर्थ हैं
🅰️14
5️⃣कौन से तीन गढ़ वाले समवशरण की रचना होती है
🅰️रजत,कनक,एवं रतनमय
6️⃣परिषह उपसर्ग आदि के आक्रमण के समय कौनसदैव विजवंत रहे हैं।
🅰️अरिहंत परमात्मा
7️⃣शक्र स्तव सूत्र के प्रभाव से समकित की शुद्धि होती है ऐसा किसमें वर्णित है
🅰️उत्तराध्ययन सूत्र में
8️⃣12 अर्थ भगवंत के लायक हैं उनमें से किसी तीन के नाम लिखिये
🅰️रुपवान, प्रयत्न वान,बलवान
9️⃣शक्रस्तव सूत्र में सर्व वर्ण कितने है
🅰️297
1️⃣0️⃣शक्रस्तव की भाषा कौनसी है।
🅰️आर्ष-प्राकृतउ
*अध्याय*
*भाषा*
*6:10:2020*
आइये पहले हम जो शब्द इनमें प्रयुक्त हुए है , उन्हें समझ समझ कर फिर आगे बढ़े , कल भाषा की बात आई तो जानें
भाषा ,में प्राकृत भाषा का महत्व
मानव जन्म के साथ ही भाषा का विस्तार एवं विकास अवश्य ही होता है ।
प्राकृत भाषा आर्य परिवार से सम्बन्ध रखती है।
प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति:
प्राक कृत् पद से प्राकृत है। प्राकृत् शब्द का अर्थ पूर्वकृत् लोगों के व्याकरण आदि संस्कार रहित सहज/स्वाभाविक वचन व्यवहार प्रकृति है, इससे उत्पन्न जो है वह प्राकृत है। जो भाषा प्रकृति से, स्वभाव से, स्वयं ही सिद्ध है, उसे प्राकृत कहते हैं।
प्राकृत भाषा की लोकप्रियता केमुख्य तीन कारण है
1,ध्वन्यात्मकता और व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जन सामान्य के बोल चाल की भाषा रही है।
2 विशाल जन समूह को मातृभाषा के रूप में प्राकृत ही उपलब्ध हुई ।महावीर, बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर तक के ये ये सामान्य लोगों की भाषा थी ,
जिस प्रकार वैदिक भाषा को आर्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा को आगम भाषा एवं आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी। इस लिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्य प्राप्त हुआ।
[३] प्राकृत भाषा के इस जनाकर्ष के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया।काली दास की मुख्य कृतियाँ⤵️ अभिज्ञानशाकुन्तलम् की ऋषिकन्या शकुन्तला,है। नाटककार भास की⤵️ राजकुमारी वासवदत्त, शुद्रक की नगरवधू वसन्तसेना तथा प्राय: सभी नाटकों के राजा के मित्र, कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जन समुदाय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी
कल एक शब्द आया
आर्ष प्राकृत तो आये और समझे इसका मतलब क्या है
१. आर्ष प्राकृत आर्ष का मतलब होता है ऋषि मनिषियों द्वारा लिखा या कहा गया
आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत को ऋषि भाषित कहा है। भगवान् महावीर और बुद्ध के पश्चात् आर्ष पुरुषों, महापुरुषों और ऋषिगणों की जो भाषा थी, वह भाषा आर्ष भाषा है। महावीर और बुद्ध के वचनों को आर्ष वचन भी कहा जाता है क्योंकि उनके द्वारा जन भाषा का आश्रय लेकर लोक कल्याण के लिए उपदेश दिये गये। जिसके अर्थ को उनके शिष्यों के द्वारा सूत्रबद्ध किया गया। आयार्चो, महापुरुषों और काव्य साहित्य में प्रवीण जनों के द्वारा काव्य सृजन करके आर्ष भाषा के विकास में अत्याधिक योगदान दिया। आगमों की भाषा को आर्ष प्राकृत कहना उचित है। आर्ष प्राकृत के तीन प्रकार हैं -
i पालि
ii अर्धमागधी
iii शौरसेनी
i पालि -
भगवान् बुद्ध के वचनों का संग्रह जिन ग्रन्थों में हुआ है, उन्हें त्रिपिटक कहते हैं। इन ग्रन्थों की भाषा को पालि कहा गया है। पालि का अर्थ है, पंक्ति, परिधि या सीमा। यह पालि भाषा आर्ष है। पालि मूलत: मगध की भाषा थी। पालि को प्राकृत भाषा का ही एक प्राचीन रूप स्वीकार किया जाता है। पालि भाषा बुद्ध के उपदेशों तथा तत्सम्बन्धी साहित्य तक ही सीमित हो गयी थी। इसी कारण पालि भाषा का आगे चलकर अन्य भाषाओं की तरह विकास नहीं हुआ, यद्यपि प्राकृत की सन्तति निरंतर बढ़ती रही। पालि का साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। अत: प्राचीन भारतय भषाओं को समझने के लिए पालि भाषा का ज्ञान आवश्यक है।
ii अर्धमागधी -
यह मान्यता है कि महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिये थे।[६] उन उपदेशों को अर्धमागधी और शौरसैनी प्राकृत में संकलित किया गया है।[७] कुछ विद्धान् इस भाषा को अर्धमागधी इसलिये कहते है कि इसमें आधे लक्षण मागधी प्राकृत के और आधे अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं।[८]
iii शौरसैनी -
शूरसेन प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली जनभाषा को शौरसैनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। अशोक के शिलालेखों में भी इसका प्रयोग है। प्राचीन आचार्यों षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना शौसैनी प्राकृत में की है और आगे भी अनेक आचार्योंं ने शताब्दियों तक इस भाषा में ग्रंथ लिखे जाते रहे हैं। नाटकों में पात्र शौरसैनी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसका प्रचार मध्यप्रदेश में अधिक था।
बस ये संक्षिप्त में भाषा की जानकारी थी कल अपन
फिर से शक्र स्तव की औऱ आगे बढ़ेंगे
जय जिनेन्द्र सा
*प्रश्न के उत्तर*
*6:10:2020*
1️⃣आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत को क्या कहा है।
🅰️ ऋषि भाषित कहा है।
2️⃣आर्ष का मतलब क्या होता है
🅰️ऋषि मनिषियों द्वारा लिखा या कहा गया ।
3️⃣मानव जन्म के साथ ही किसका का विस्तार एवं विकास अवश्य ही होता है ।
🅰️भाषा का विस्तार एवं विकास अवश्य होता है ।
4️⃣प्राकृत भाषा कौन से परिवार से संबंध रखती है
🅰️ आर्य परिवार से सम्बन्ध रखती है ।
5️⃣बुद्ध के वचनों का संग्रह जिन ग्रन्थों में हुआ उन्हें क्या
कहा गया है।
🅰️ त्रिपिटक कहते है ।
6️⃣ किन,ग्रन्थों की रचना शौसैनी प्राकृत में की है।
🅰️ षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों ।
7️⃣प्राकृत भाषा को-----भाषा एवं----- भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
🅰️आगम भाषा एवं आर्य भाषा ।
8️⃣आर्ष प्राकृत के तीन प्रकार कौन कौन से हैं -?
🅰️ पालि,अर्धमागधी,शौरसेनी ।
9️⃣प्राकृत भाषा की लोकप्रियता केमुख्य कितने कारण है
🅰️ तीन कारण है ।
1️⃣0️⃣काली दास की मुख्य कृति का का नाम लिखे
🅰️ अभिज्ञानशाकुन्तलम् ,वसन्तसेना ।
इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
अंजुगोलछा
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
🙏🙏
*अध्याय*
*इसे ध्यान से पढियेगा मैंने बहुत*
*सरलता से समझाने का प्रयास किया है*
*7,:10:2020*
*आइगराणं*-
आइगराणं का अर्थ है, तीर्थों की आदी (आरंभ) करने वाले, आदी, का एक और अर्थ है पूर्व में या पहले आये हुए,अर्थात
पूर्व में तीर्थंकर भी कई बार मृत्यु जन्मादि को प्राप्त करने वाले सुख -दुःख सहन किये है ,औऱ कर्म बन्धन भी किये हैं, पर वेअपने अथक पुरुषार्थ के द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा करते करते अरिहंत पद तक पंहुचते है,तथा वे उत्तरोत्तर धर्म में वृद्धि व प्रगति करते हुए ऐसी उत्तम स्थिति प्राप्त करते हैं कि तीर्थ तक की स्थापना के गुण इनमें खिल(आ जाते ) जाते हैं।
ऐसे अरिहंतभगवंतों को मेरा नमस्कार हो, 🙏🙏
यूँ कहें तो तीर्थंकरों की भीआत्मा भी अन्य जीवों की तरह अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करती रही हैं, इस कारण तीर्थंकर बनने के पूर्व अनादि काल से वह भी जैसे-जैसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव के निमित्त मिलते हैं, उसी प्रकार से कर्मों के साथ संबंध वाले बनते हैं। और कर्मों की साथ संबंध वाले होने के कारण उनका जन्म, जरा, मरण आदि रूप भी हैं । जिनको मैं नमस्कार करता/करती हूं।
🙏🙏🙏🙏
यद्यपि, श्रुतधर्म रूपका अर्थ प्रभु के दिव्य ध्वनि से निकले ज्ञान को
गणधर द्वाराअंतर्मूर्हत में गुथित ग्रंथों को श्रुत/श्रुत ज्ञान कहते है !
द्वादशांगी, अर्थ की अपेक्षा से शाश्वती है परन्तु शब्द की अपेक्षा से हर तीर्थंकर के शासन में भिन्न-भिन्न होता है।
और उसकी रचना में परमात्मा की त्रिपदी कारणभूत होती है ह
हर तीर्थंकर के शासन में शब्द से भिन्न भिन्न प्रकार से द्वादशांगी की रचना होती है,
आज के आगम और शास्त्र द्वादशांगी आधार पर ही बने हैं
गणधरों की नियुक्ति करके उन्हें त्रिपदि दी जाती है,
उनको श्रुत धर्म की आदि करने वाले कहा जाता है। तीर्थ स्थापना के कारण भी इन्हे आदी-कर कहतेहै।
अर्थ की अपेक्षा से नित्य है। प्रवाह से अनादि है प्रत्येक तीर्थंकर के समय में उन सूत्रों की शब्द रचना नवीन प्रकार से पुनः पुनः होती रहती है अतः व्यवहार नय की दृष्टि से उसे
आदी मानते हैं।
द्वादशांगी अर्थ से शाश्वत है सूत्रों से शाश्वत नहीं है द्वादशांगी की परूपणा( जिसके माध्यम से तत्वों का विशेष रूप से विश्लेषण करते हैं) केअर्थ से तीर्थंकर देव करते हैं ।और गणधर भगवंत उस अर्थ को सूत्र रूप में गूंथते हैं।
सरल शब्दों में हर तीर्थकर नए तीर्थ की स्थापना करते हैं, औऱ उनकी अलग 2 त्रिपदी होती है जिन्हें उनके गणधर जी सुत्र रूप में गूँथते है।
जो बदलता है उसेशाश्वत नही
कहते।पर द्वादशांगी शब्द हमेशा रहेगा तो द्वादशांगी( अरिहंत देव द्वारा अर्थ रूप से प्रतिपादित, गणधर द्वारा सूत्र ग्रंथ रूप से रचित बारह (१२) अंग वाले अंग प्रविष्ट श्रुत को द्वादशांग कहते हैं।)वह तो हर तीर्थंकर के वक्त होती है पर शब्द बदल जाते है
क्योंकि हर तीर्थंकर की अलग अलग सूत्र होते है,इसलिए कहा
द्वादशांगी अर्थ से शाश्वत है सूत्रों से शाश्वतनहीं है।
*प्रश्न के उत्तर*
*7:10:2020*
1️⃣द्वादशांगी, अर्थ की अपेक्षा से क्या है
🅰️ शाश्वती।
2️⃣प्रभु के दिव्य ध्वनि से निकले ज्ञान को किसके द्वाराअंतर्मूर्हत में गुथितकिया जाता हैं
🅰️ गणधर द्वारा।
3️⃣जो बदलता है उसे क्या नही कहते
🅰️ शाश्र्वत।
4️⃣किनकीआत्मा भी अन्य जीवों की तरह अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करती रही हैं,
🅰️ तीर्थंकरों की आत्मा।
5️⃣परूपणा का अर्थ क्या है
🅰️जिसके माध्यम से तत्वों का विशेष रूप से विश्लेषण करते हैं।
6️⃣शब्द की अपेक्षा से हर तीर्थंकर के शासन में भिन्न-भिन्न क्या होती है।
🅰️ द्वादशांगी की रचना होती है।
7️⃣गणधरों की नियुक्ति करके उन्हें क्या दी जाती है,
🅰️ त्रिपदी।
8️⃣आइगराणं का अर्थ क्या है
🅰️ तीर्थों की आधी (आरंभ) करने वाला ।
9️⃣व्यवहार नय की दृष्टि से उसे (द्वादशांगी) क्या मानते है
🅰️आदि।
आगे कल
*तित्थयराणं*
*अध्याय*
*8:10:2020*
तित्थयराणं- का अर्थ हैतीर्थ को करने वाले,जो तीर्थ करे ऐसे अरिहंतभगवंतों को मेरा नमस्कार हो, ।🙏🙏
अंतिम भव में जब परमात्मा, साधना के द्वारा घनघाति कर्म को खपाते हैं, तब समस्त जगत को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञानादि गुण उनमें प्रगट होते हैं। उसके साथ ही पूर्व के तीसरे भव में सर्व जीवों को कल्याण करने की भावना जो उदय हुई होती है, उसी का, निकाचित किए हुए तीर्थंकर नामकर्म द्वारा विपाकोदय शुरू होता है। विपाकोदय का अर्थ है
*जो कर्म अपना दृश्य फल देकर नष्ट हो जाता है उसे विपाकोदय कहते हैं।*
वैसे मोहनिय कर्म के नाश होने के कारण से उनको तीर्थ के प्रवर्तन का कोई मोह, कोई इच्छा होती नहीं है, परन्तु जैसे सूर्य, स्वभाव से ही पूरी सृष्टि को प्रकाशित करता है वैसे परमात्मा भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से उत्कृष्ट परोपकार की प्रवृत्ति सहज भाव से करते हैं। यह परोपकार द्वारा ही उनका तीर्थंकर नामकर्म खपता है।
परमात्मा तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, उस कारण वे चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं, जिनमें सम्मिलित है- साधू, साध्वी, श्रावक और श्राविका।
(तीर्थ का दूसराअर्थ प्रवचन भी होता है।)
और उनको प्रवचन प्रदान करते हैं। परमात्मा देशना द्वारा जगत के सर्व जीवों को जड़ और चेतनद्रव्य का यथार्थ स्वरूप समझाते हैं, यद्यपि, मात्र स्वरूप ही समझाते ऐसा नहीं है, अपितु, देशना द्वारा जीवद्रव्य को कोई भी प्रकार से पीड़ा ना हो और जड़द्रव्य की कोई भी प्रकार से हानि ना हो, उस प्रकार से संयमित जीवन व्यतीत करने की पद्धति बतलाते हैं।
यह देशना सुनकर अनेक भव्य आत्माएं सत्ज्ञान और सत्क्रिया (चारित्र) का स्वीकार करते हैं और उसके द्वारा भीषण ऐसे भवसागर से तीर जाते हैं।
परमात्मा का प्रवचन, ऐसे भयंकर संसार सागर से तीराने वाला होता है, जो तीर्थ की स्थापना द्वारा होता है, और वो तीर्थंकर भगवंत द्वारा होने से उन्हें तित्थयराणं कि उपमा प्राप्त है।
प्रारंभ में परमात्मा गणधरपद के योग्य ऐसे आत्माओं को त्रिपदि का उपदेश देते हैं। बीज बुद्धि के स्वामी गणधर भगवंत परिमित शब्द में दी हुई यह त्रिपदि द्वारा समग्र विश्वव्यवस्था को पहचानते हैं। सर्व जीवों के हिताहित को जानते हैं और उसके आधार से द्वादशांगीकी रचना करते हैं।
इस द्वादशांगी के ऊपर प्रभु, मोहरछाप लगाते हैं। और उनके शासनकाल तक यह द्वादशांगी को पा कर अनेक आत्माएं भवसागर पार करती हैं।
इसलिए यह द्वादशांगीको भी तीर्थ कहते हैं।
तीर्थ का तीसरा अर्थ भी है
तारयती-इति= तीर्थः ।जो संसार -उदधि से तिरा दे।
*प्रश्न के उत्तर*
8:10:2020
1️⃣तित्थयराणं का अर्थ क्या है
🅰️ तीर्थ को करने वाले
2️⃣पूर्व के तीसरे भव में सर्व जीवों को क्या करने की भावना उदय हुई होती है,
🅰️ कल्याण करने की
3️⃣तित्थयराणं का दूसरा क्याअर्थ
🅰️ प्रवचन
4️⃣तीर्थंकर नामकर्म के उदय से किस की प्रवृत्ति सहज भाव से करते।
🅰️ परोपकार की
5️⃣तित्थयराणं कि उपमा किसको प्राप्त है।
🅰️ अरिहंत भगवंतो
6️⃣देशना सुनकर अनेक भव्य आत्माएं क्या स्वीकार करते हैं।
🅰️ सत्ज्ञान और सत्क्रिया (चारित्र)
7️⃣विपाकोदय का अर्थ क्या है।
🅰️ जो कर्म अपना दृश्य फल देकर नष्ट हो जाता है उसे विपाकोदय कहते हैं
8️⃣तारयती-इति= तीर्थः का अर्थ
🅰️ जो संसार उदधि से तिरा दे
9️⃣परमात्मा देशना द्वारा जगत के सर्व जीवों को किसका यथार्थ स्वरूप समझाते हैं,।
🅰️ जड़ और चेतन द्रव्य
1️⃣0️⃣अंतिम भव में जब परमात्मा, साधना के द्वारा कौन से कर्म को खपाते हैं,
🅰️ घनघाति कर्म
**अध्याय*
*सयंसंबुद्धाणं*
*9:10:2020*
सयंसंबुद्धाणं का अर्थ- जो स्वयं ही सम्यग बोध को पाने वाले होते हैं, ऐसे परमात्मा को नमस्कार हो।🙏🙏
जो स्वंय सिद्धा हो
अर्थात तीर्थंकर प्रभु नियम निश्चय से अपने आप प्रतिबोध पाते हैं, उनके कोई गुरु नहीं होते उनको किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती है हां भावांतर में गुरु आदि का सहयोग निमित्त भूत(पूर्व )होता है नव लोकान्तिकदेव जो कहते हैं ,"भयवं!तिथ्यम पवत्तेह"
अर्थात
यह शब्द केवल वैतालिक(स्तुति पाठक) वचन रूप है ,उपदेश रूप नहीं है
स्वयं ही वे वैराग्य को प्राप्त कर, संसार को त्याग कर संयम के मार्ग पर स्थिर हो जाते हैं।
फिर संयम जीवन के प्रारंभ से ही वह निरतिचार ( दोष न लगाना, अतिचार रहित )अर्थात➡️शील और व्रतों का निर्दोष पालन करना, ‘शीलव्रतेष्वनतीचार‘ या ‘निरतिचार शीलव्रत‘ है।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग ये पाँच व्रत हैं ये व्रत हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पंच पापों के पूर्ण त्याग करने से महाव्रत कहलाते हैं उनके सहायक यम नियमों को शील कहा जाता है।
संयम जीवन का पालन आदि, गुरु उपदेश के बिना ही स्वयं करते हैं।
साथ ही अन्य जीवों के कल्याण का कार्यभार भी वहन करते हैं।
तीर्थ रूपी चतुर्विध श्री संघ की स्थापना आदि कर के धर्म का प्रवर्तन करते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा का भव्यत्व ऐसा विशिष्ट कोटि का होता है कि उसके प्रताप से वह स्वयं ही बोध, अर्थात श्रेष्ठ बोधि को प्राप्त करते हैं।
हम जगत के जीव, गाढ मोह की निंद्रा में सोये हुए हैं, हम को जागृत करने के लिए महापुरुषों को अथक प्रयत्न करने पड़ते हैं, फिर भी अल्प ही जीव इस मोह निद्रा का त्याग कर सकते हैं। और हम बाकी सब इस भव संसार में निरंतर भटकते रहते हैं जब तकभवितव्यता से हमारा भव से तीरने का योग नहीं बन जाता।
भवितव्यता क्या है जाने
भवितव्यता का शाब्दिक अर्थ है ,होनी,जिसका होना अटल हो, औऱभाग्य ।
भवितव्य -लक्षण
जिस काल विषै जो कार्य भया सोई होनहार ,भवितव्य है !
जो होने योग्य है उसे भवितव्य कहते है और उसका भाव भवितव्यता है!
क्रोध करके दूसरे का बुरा चाहने की इच्छा तो होगी तो वैसा ही .बुरा खुद का भाग्य होगा, वही भविताव्याधीन होगा आप अच्छा करेंगे तो अच्छा बुरा करने से बुरा होगा।पर एक बार
भवितव्य बन गया तो
भवितव्य अलंघ्य ( इसको छोड़ के आगे नहीं बढ़ सकते )और इसको भोगना अनिवार्य है -
भीतर के भावों से या बाह्य
परिणामों से इसे लाख प्रयास
से भी नहीं छुड़ा सकते
अहंकार से पीड़ित संसारी प्राणी मन्त्र -तंत्र आदि अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी सुखादि कार्यों के संपन्न करने में असमर्थ रहता है
हे मानव!अब भयभीत मत होओ,रोओ मत जो भवितव्य है अर्थात जो बात जैसी होने वाली है उसे कौन रोक सकता है!
रोने से ,भयभीत होने से कुछ
अच्छा नहीं होगा , बल्कि कर्म
और भारी होंगे , इसे
आइये 10 पॉइंट में अच्छे से समझे
1-विचार,आपकी भवितव्यता के परिचायक हैं।
2-जैसेपरिणाम( भाव) ,वैसा परिणाम(नतीजा)।
3-साधर्मियो की सेवा,सिद्धों की पूर्व पर्याय की सेवा है
4-सेवा से,सीखने मिलता है।
5-कषाय से कषाय दूर नहीं होती, अतः सबके प्रति विनय-वात्सल्य रखें
6-चिंता से एक भी पर्याय आंगे पीछे नहीं होती,अतः सदा निश्चिन्त रहिये।
7-भोगो के साथी, साथी नहीं,अहित करने वाले शत्रु हैं।
8-हूँ के संग जियो,चिदानंद रस पियों।
9-पंचम काल की बहुत सारी झँझटों से बचने का उपाय-समता।
10-जगत का वैभव मात्र ज्ञान का ज्ञेय है,उससे अधिक कुछ नहीं।
*प्रश्न के उत्तर*
9:10:2020
1️⃣परिणाम के दो अलग अलग अर्थ क्या है
🅰️ भाव,नतीजा ।
2️⃣सयंसंबुद्धाणं का अर्थ- क्या है
🅰️ जो स्वयं ही सम्यग बोध को पाने वाले होते है ।
3️⃣जगत का वैभव मात्र किसका ज्ञेय हैं।
🅰️ ज्ञान का ।
4️⃣मन्त्र -तंत्र आदि अनेक सहकारी कारणों को करने सेभवितव्यता बदल जाती है।
🅰️ नहीं ।
5️⃣भवितव्यता का शाब्दिक अर्थ क्या है।
🅰️ होनी, जिसका होना अटल हो,और भाग्य ।
6️⃣रोने से ,भयभीत होने से कुछ अच्छा नहीं होगा , बल्किक्या होगा।
🅰️ कर्म और भारी होंगे ।
7️⃣भोगो के साथी, साथी नहीं, तो क्या है।
🅰️ अहित करने वाले शत्रु है ।
8️⃣तीर्थंकर परमात्मा का क्या ऐसा विशिष्ट कोटि का होता है
🅰️ भव्यत्व ।
9️⃣ पापों के पूर्ण त्याग करने से महाव्रत कहलाते हैं उनके सहायक यम नियमों को क्या कहा जाता है।
🅰️ शील कहा जाता है ।
1️⃣0️⃣वैतालिक। का अर्थ- क्या है।
🅰️स्तुति पाठक ।
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
**अध्याय*
*10:10:2020*
पुरिसुत्तमाणं-का अर्थ है जो*-पुरुषों में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
पुरि शयनात् पुरूष- यानी कि जो पुरु में शयन/चयन करने वाले हो वो पुरूष कहलाते हैं। यहां पुर् यानी शरीर और शयन/चयन करना, अर्थात, रहना।
जो जीव शरीर में रहता है वह पुरुष कहा जाता है। इस अर्थ से, संसारवर्ती सर्व जीवों को पुरुष कहा जाता हैं।
अरिहंत परमात्मा वो सर्व जीवों में उत्तम है। क्योंकि निगोद अवस्था से, संसार भ्रमण के प्रारंभ से ही, उनमें योग्यता के स्वरूप दूसरे जीवों से विशिष्ट कोटि के दस गुण रहे होते हैं, और जब जब इन गुण संपत्ति को, योग्य द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि सामग्री प्राप्त होती जाती है, तब तब यह गुण प्रगट रूप से देखने को मिलते हैं, और इस तरह उत्तरोत्तर प्रगति कर, अंतिम भव में तीर्थंकर की आत्मा में यह दस गुण पराकाष्ठा को पातें हैं।
उत्कृष्ट कोटि के यह गुण उनके सिवा अन्य कोई भी जीव में संभव हो नहीं सकते। परमात्मा के यह दस गुण, आध्यात्मिक विकास के दस स्टेप है। यह गुणों के कारण परमात्मा उत्तम है, उत्तमोत्तम है।
किसी भी आत्मा को यह आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति करनी हो तो उसको भी अपने जीवन में यह दस गुण को प्राप्त कर के उन्हें विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
*1.परार्थव्यसनी*- परार्थ=परोपकार, व्यसन=आदत।
अरिहंत की आत्मा निरंतर परोपकार की भावना से वासित होती है। या यूं कह सकते हैं कि वे परोपकार के व्यसनी होते हैं।
मनुष्य को जिस वस्तु की आदत पड़ जाती है, या किसी वस्तु का वो व्यसनी हो जाता है, तो वो वस्तु कीये बिना या उस वस्तु को पाये बिना उसको चैन नहीं पड़ता है। इस कारण वो ऐसे कार्य या ऐसी वस्तु को ढूंढता फिरता है। अरिहंत परमात्मा के परोपकार का व्यसन भी कुछ उस प्रकार का है।
उदाहरण स्वरूप, प्रभु महावीर, सभी नगरजन कि ना होने के पश्चात भी स्वयं की चिंता किए बिना चंडकौशिक को प्रतिबोधित करने के लिए जंगल की बाट पकड़ कर विचरे थे।
परोपकार करने के लिए हॄदय का अत्यंत कोमल होना आवश्यक है।
*2. स्वार्थगौणता*- हम सब पामर जीव की तरह , परमात्मा में स्वार्थ की प्रधानता कभी भी नहीं होती। परोपकार करने वाले यह जगत में फिर भी बहुत सारे मिल जाते हैं, किन्तु अपने स्वार्थ को पूर्णतया तज कर, अपने स्वयं के कार्य को गौण कर के भी, अन्य के कार्य करने की तत्परता तो कोई उत्तम ही पुरुष में देखने को मिलती है।जैसे
श्री शांतिनाथ दादा ने मेघरथ राजा के भव में कबूतर की रक्षा के लिए बाज पक्षी की क्षुधा शांत करने के लिए मेघरथ राजा स्वयं के अंग काट काट कर तराजू पर रखते चले अंत में स्वयं भी तराजू पर बैठ गए
*उपसर्ज्जनी स्वार्था*
अर्थात अरिहंत की आत्मा सदैव अपने स्वार्थ को गौण कर देती है
कठोर हॄदय वाली आत्माएं स्वार्थ से भरी होती है।
अपने स्वार्थ में, अन्य का क्या होगा, उसका उसको विचार तक भी आता नहीं है। जब कि करुणासभर हृदय, अन्य की जरूरत, अन्य की कठिनाई का सबसे पहले विचार करते हैं।
इसलिए जिनको धर्म करना है, जिनको आत्मा का आनंद प्राप्त करना है, उनको सब से पहले यह प्रथम गुण का विकास करना चाहिए। दूसरा उदाहरण
नेमिनाथ प्रभु ने हिरण आदि मूक पशुपक्षी की रक्षा करने हेतू, जिसके साथ नौ- नौ भव की प्रीत थी ऐसी, राजुलरमणी का भी त्याग कर दिया था।
*3.अदीनता*-
अदीनता का अर्थ है कितनी दुःख तकलीफ हो , किसीको,
जताना नही , जैसेपरमात्मा के जीव में दीनता का अभाव होता है। वे स्वयं को कभी दीन अवस्था में नहीं रखते ना ही अन्य किसी को अपनी कोई भी अवस्था हो, परन्तु दीनता का परिचय भी नहीं देते।
धन संपदा लूट जाएगी, खत्म हो जाएगी, आदि के भय से प्रभावित नहीं होते विपत्ति आपदा आने परअधीर नहीं होते हिम्मत नहीं हारते,अदीन भावना से आत्मा को अनुशासित करते
साधारण जीव छोटी बड़ी कठिनाइयों में तुरंत ही दीन-हीन बन जाते हैं, उनके मुख पर पूर्णतया दीनता का भाव स्पष्ट दिख जाता है। स्व-पीड़ा का भाव उनके मुख पर छा जाता है। उनको देखते ही किसी को भी दया आ जाती है। यह याचक जैसी स्थिति, लाचार जैसी स्थिति बना लेना या प्रदर्शित करना, सर्वथा अनुचित है।
तीर्थंकर की आत्मा, ऐसे में एक ज्वलंत उदाहरण समान है। उनको चाहे कोई भी कठिनाई आ जाए, कोई भी संकट आ जाए, कोई भी ऐसी प्रतिकूलता का वो सामना करे, घोर उपसर्ग भी उनकी कसौटी करने आ जाय, पर वो तनिक भी विचलित नहीं होते, दीन मुख वाले कभी नहीं बनते।भगवान ऋषभदेव 400 दिवस तक आहार के लिए फिरे। निर्दोष आहार ना मिला तो भी उनकी मुख पर की रेखा कभी बदली नहीं।
जो प्रसन्नता से आहार लेने जाते थे वही प्रसन्नता से आहार ना मिलने पर भी वापस आ जाते थे। जिनको कर्मों के फल पर पूर्ण विश्वास होता है, वही उत्तम आत्माएं ऐसी विषम परिस्थिति में अदीन भाव वाले रह सकते हैं।
कुछ अं
*अध्याय*
*12:10:2020*
*दस गुणों का विवेचन*
4️⃣ *उचित क्रिया*- जिस समय, जो संयोग हो उसमे, जो करने योग्य होता है वही करना, यह उचितक्रिया है।
अरिहंत परमात्मा की आत्मा अपनी बुद्धि और प्रतिभा का पूर्ण उपयोग कर के, जिस समय जो करने योग्य हो, वही करते हैं।
वीरप्रभु ने, परम वैरागी होने के पश्चात भी, माता का विचार कर के, मोहवश उनकी दशा बिगड़े नहीं, इस कारण गर्भावस्था में ही नियम किया था कि माता-पिता की उपस्थिति में संयम ग्रहण नहीं करेंगे।
औऱ जैसे श्री महावीर की आत्मा नयसार ने अटवी(जंगल) में भी भोजन करने के प्रथम अतिथि की खोज की थी ।पथ भूले मुनिवर को नगर का मार्ग बदला ने के लिए भी सेवक को नहीं भेजते ,एवं स्वयं जाते हैं इसे कहते हैं और औचित्य पालन
यह नियम, परम औचित्य का सूचक है।
यह औचित्य का विचार कषाय की अल्पता हुए बिना शक्य नहीं।
कषायों से परे हो कर ही वो कार्य संबंधी विचारणा करते हैं जिस कारण वो औचित्यपूर्ण क्रिया कर सकते हैं।
कषाय की प्रबलता वाले जीव कभी भी औचित्य का विचार नहीं कर सकते।
उनकी विवेक शक्ति क्षीण हुई होती है।
जिस कारण कब, किन संजोगों में क्या करना है, इसका सही निर्णय नहीं ले पाते।
परिणाम स्वरूप अनुचित क्रियाओं में रिक्त हो कर दुख़ दर्द तो सहते ही हैं अपितु अपना भविष्य भी बिगाड़ देते हैं।
*5. सफलारंभीता*- किसी कार्य को प्रारंभ करते पूर्व ही उस कार्य की सफलता के फल का उचित विचार करना यह सफलारंभ है।
उत्तम पुरुष अवश्य ही कार्य करने से पहले उसके फल का विचार करते हैं।
जो क्रिया करने से शुभफल की प्राप्ति की संभावना होती है वही क्रिया का वो प्रारंभ करते हैं। यदि कोई क्रिया के पश्चात उसका उचित फल नहीं मिलना होता है, ऐसी कोई भी क्रिया, मन, वचन और काया द्वारा वो करते ही नहीं है।
इसी कारण से ही जब तक निकाचित भोगावली कर्म का नाश ना हो तब तक तीर्थंकर की आत्माएं संयम भी स्वीकारते नहीं है।
उनको पता होता है कि यदि संयम का स्वीकार कर लिया और फिर निकाचित भोगावली कर्म उदय में आया तो निश्चित ही उनके संयम पर आंच आने की संभावना होगी।
वे पहले अपने संयम कि सफलता को ज्ञान और विचार पूर्वक सुनिश्चित कर लेते हैं और तभी उस कार्य का प्रारंभ, अर्थात संयम ग्रहण करने की प्रक्रिया आरंभ करते हैं।
इस कारण उनका संयम उच्चतम कोटि का होता है और उसकी सफलता उनके तीर्थंकर पद की प्राप्ति है।
6. अदृढ़ अनुशय* - अदृढ़ मतलब जो मजबूत न हो
अनुशय यानी कषाय।
अरिहंत की आत्माएं प्रारंभ से ही कषाय मुक्त नहीं होती। कषायों की उपस्थिति उनमें होती है अपितु उसमे तीव्रता नहीं होती।
अधम से अधम अपराधी के अपराधों को भी वो क्षण मात्र में भूल सकते हैं, उन्हें क्षमा प्रदान कर देते हैं। ऐसे अल्प प्रमाण में उपस्थित कषाय का त्याग योग्य समय पर सरलता से हो जाता है।
*7. कृतज्ञता*- अरिहंत की आत्मा में कृतज्ञता गुण भी विशिष्ट कोटि का होता है।
हम सामान्य जीव भी अन्य के उपकार को अवश्य याद रखते हैं, परन्तु तब तक ही जब तक उस व्यक्ति के तरफ से कोई भी अपकार ना हो जाए। उस समय उनके सारे उपकार हम तुरंत ही भुला कर उस व्यक्ति को दोषी मान लेते हैं, और अवसर प्राप्त होते ही उसका बदला चुकाने का प्रयोजन करते हैं।
परन्तु, अरिहंत की आत्माएं तो उन पर अन्य जीव द्वारा अनेक अपकार होने के पश्चात भी उनके छोटे-छोटे भी उपकार को कभी भूलते नहीं है।
यह भी उनकी कृतज्ञता का सूचक है।
*आधार :-*
*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*
*"सूत्र संवेदना-2"
*अध्याय*
*13:10:20*
*प्रभु के गुण*
*8.अनुपहत चित्त*-अनुपहतअर्थ होता हैं कोरा या निर्मल चित मतलब मन
अर्थात प्रभु का मन मेअनर्थक बाते या पूर्वाग्रह से ग्रसित नही होते वे जो देखते है ,वही सोचते है ,बेमतलब की सोच
स्वयं पर हावी नही होने देते यूँ
कहें तो वे अपने उद्देश्य के प्रति ही समर्पित होते है इसलिए फालतू की सोच को अपने पास
आने ही नही देते।
अरिहंत आत्मा का उत्साह भंग मनोभेद एवं बुद्धि विपर्यास नहीं होता।निराश हताश मायूस नहीं होते मन चंचल नहीं होता
इसीलिए तो कहते है
परमात्मा अत्यंत सात्विक मन के धारक होते हैं। निराशा या चंचलता उनके मन में कदापि नहीं होती।
जहां हम जैसे पामर मानवी ऐसा चंचल मन रखते हैं कि
जरा सी भी स्थिति परिस्थिति बदलते ही हमारा मन भटकने लगता है।
और हमारे कार्यों मे थोड़ी सी भी कठिनाई आई या कुछ भी समझौता करना पडा, हम तुरंत ही निराश हो जाते हैं।
जब कि अरिहंत परमात्मा की आत्मा को साधना करते करते अनेक उपसर्ग और परिषह का सामना करना पड़ता है, वे अडिग रहते हैं, तनिक भी चलायमान नहीं होते, विचलित नहीं होते। लाट देश मे महावीर प्रभु को इतनी प्रताड़ना मिली
इसके लिए लाट देश की वज्रभूमि और शुभ्र भूमि का क्षेत्र अनुकूल है...अनार्य क्षेत्र के लोग अत्यंत क्रोधी ,क्षुद्र क्रूर एवम अधम मनोवृत्ति के है ।उनके खेल और मनोरंजन के साधन भी हिंसक और घोर पापपूर्ण है ।
भगवान उधर ही पधारे ।लोग उन्हें देख कर क्रोध में भभक उठते ,मारते पीटते और शिकारी कुत्तों को छोड़कर कटवाते वे भयंकर कुत्ते भगवान के पाँवो में दांत गढ़ा देते, मांस तोड़ लेते और असहय पीड़ा उत्पन्न करते ।
उस भूमि में विचरने वाले शक्यादी साधु भी क्रूर कुत्तों से बचाव करने के लिए लाठिये रखते थे ,फिर भी कुत्ते उनका पीछा करते और काट भी खाते पर वीर जी निरन्तर वहीं विचरण करते रहे, अरिहंत को
जब तक उनको सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती, जब तक उनका लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक उनका मन साधना से चलित नहीं होता, वे हर हाल में स्थिर, निश्चल रहते हैं।
प्रारंभ किया हुआ कार्य वह कभी भी अपूर्ण छोड़ते नहीं है। कार्य के फल तक उनका उत्साह अकबंद रहता है, और कार्य पूर्ण हो कर ही करता है।
ये कभी मान कर नहीं चलना है कि वे तो तीर्थंकर की आत्मा है, भगवान है, उनको भला कष्ट कैसा।
कर्मजनित कष्ट व उपसर्ग उनको भी सहन करने पड़ते हैं। फर्क है तो वो समता में, सहनशक्ति में है। जिनमें वे बेजोड़ है।
*9.देव गुरु का बहुमान*-
देव गुरु की आज्ञा का पालन करना वही वास्तविक देव गुरु का बहूमान है।
यूं तो तीर्थंकर भगवंत को आगे चल कर स्वयं देव गुरु स्वरूप ही बनना है, फिर भी देव गुरु पद के प्रति उनका पराकोटिका, अत्यंत उच्च कोटि का बहुमान है।
भगवान महावीर प्रारंभ से ही तीन ज्ञान के स्वामी थे। फिर भी माता-पिता ने उनको विद्यालय में भेजा। वहां अपने गुणों व ज्ञान का तनिक भी प्रदर्शन नहीं किया, ऐसा संशय भी होने नहीं दिया।
परमात्मा ने स्व में ही देव तत्व को और श्रेष्ठ गुरु तत्व को संपन्न किया होता है, इस कारण उनमें पराकाष्ठा का देव गुरु का सम्मान व आदर भाव होता है।
*10.गंभीरता*- स्व के गुण और पर के दोष को पचाने की शक्ति वो है गंभीरता।
उत्तम पुरुष गुणों के भंडार होते हैं फिर भी वे अपने गुणों का कथन कभी भी नहीं करते और अन्य के दोषों को देखने के पश्चात भी उन व्यक्तियों के ऊपर अप्रीति या द्वेष नहीं करते, यहां तक कि उनके दोष को देख कर अपनी मुख की रेखा भी पलटाते नहीं है।
सामने अनेक दोष से युक्त संगम पर द्वेष भी नहीं किया अपितु परम करुणासभर हॄदय वाले परमात्मा ने ऐसे दोषपूर्ण व्यक्ति पर भी दया ही प्रदर्शित की है। औऱ अंतिम वक्त में दिल उसके प्रति इतनी करुणा से भर गया कि उनके नेत्र भीग गए
शूलपाणि ने इतने उपसर्ग दिए
पर वे करुणा मुर्ति ही बने रहे।
*अध्याय*
*14:10:20*
*पुरिस- सिहाणं-*-
पुरुषों में सिंह समान, अर्थात पुरुष में अतुल्य ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।सिंह शौर्य आदि गुणों से युक्त होता है वैसे ही तीर्थंकर देव भी कर्म -अरि का उच्छेद करने में शूरवीर है तपस्या करने मेंवीर राग द्वेष आदि वृतियों को नियंत्रण करने में गंभीर परिषहोंओं को सहन करने में धीर संयम में स्थिर उपसर्गों में निर्भय होते हैं एवं ध्यान में निष्प्रकंपक होते हैं।
जैसे परीक्षार्थ आये देव को शौर्य गुण वाले कुमार महावीर ने मुष्टि प्रहार से ताड़ जैसे ऊंचे देव को मच्छर जैसा छोटा बना दिया।
सामान्य पशु से अधिक, सिंह में उत्तम कोटि के दस गुणों का प्रवर्तन होता है। इस कारण से, इन विशिष्ठ गुणों के कारण से ही उसे जंगल का राजा माना गया है।
तीर्थंकर परमात्मा मे भी ऐसे ही विशिष्ठ गुण होते हैं। इसलिए उनको पुरुषों में सिंहतूल्य कहा गया है।
उन *दस गुणों* का वर्णन इस प्रकार है।
1️⃣. *शूर*-
सिंह में 500हाथी का बल होता है और उन सैंकड़ों हाथियों के टोले के सामने अकेला शौर्य दिखा सकता है, उसी तरह लेश मात्र भी परमात्मा भयंकर कर्म के उदय के काल में भी विचलित हुए बिना, उनके सामने पराक्रम दिखाते हैं।
इस तरह भगवान की शूरवीरता सामान्य शत्रुओं कि आश्रित नहीं होती, परन्तु जगत के मनुष्यों को लाचार कर दे ऐसे कर्मशत्रु का सामना बिना भय के शौर्य से करते हैं,
2️⃣. *क्रूर*- जिस तरह सिंह अपने शत्रु को खत्म करने के लिए अति क्रूर बन जाते हैं, इसी तरह परमात्मा कर्मशत्रु के विनाश के लिए क्रूर होते हैं।
परमात्मा जब संयम आदि में प्रवृत्त होते हैं तब उनमें उनको विघ्न करने वाले कर्म उदय में आते हैं, परन्तु परमात्मा शूरवीरता से, क्रूरता से उन कर्मों का नाश करते हैं।
3️⃣. *असहिष्णु*-हम सामान्य मनुष्य भी असहिष्णु होते हैं परन्तु हमारी और प्रभु परमात्मा कि असहिष्णुता में पूर्णतया विरोधाभास है।
हम असहिष्णु है कषायों के पोषण में जब की तीर्थंकर परमात्मा अपनी आत्मा में कषायों के प्रवेश के विषय में असहिष्णु होते हैं, प्रवेश को सहन नहीं करते। अर्थात प्रतिबंध लगाए होते हैं।
जिस तरह सिंह अपने शत्रु को सहन नहीं कर सकता उसी तरह प्रभु भी अपनी चित्तभूमि पर शत्रुभूत क्रोधादि कषायों का प्रवेश तनिक भी चला नहीं लेते। बिलकुल निषेध रखते हैं।
4️⃣ *वीर्यवान*-
सामान्य पशु के आगे सिंह का वीर्य विशेष कोटि का होता है। ऐसा वीर्य ही उसको अपने कार्य में उत्साहित रखता है।
जिस तरह सिंह वीर्यवान होने के बाद भी हर जगह अपनी शक्ति का व्यय नहीं करता, अपितु बलवान शत्रु के सामने पूर्ण वीर्य का प्रयोग करता है।
उसी तरह भगवान रागादि बलवान शत्रु के सामने ही पूर्ण वीर्य का उपयोग करके उसका नाश करने का प्रयत्न करते हैं।
*प्रश्न के उत्तर*
*14:10:20*
1️⃣भगवान किस बलवान शत्रु के सामने ही पूर्ण वीर्य का उपयोग करते हैं
🅰️रागादि
2️⃣तीसरा गुण कौन सा है
🅰️असहिष्णुता
3️⃣सिंह में कितने हाथी का बल होताहै
🅰️500हाथी
4️⃣ परमात्मा किसके विनाश के लिए क्रूर होते हैं।
🅰️कर्म शत्रु के विनाश के लिए
5️⃣पुरिस- सिहाणं-का मतलब क्याहोता हैं
🅰️पुरुषों में सिंह के समान अर्थात पुरुष में अतुल्य
6️⃣परमात्मा किसके सामने पराक्रम दिखाते हैं।
🅰️कर्म के सामने
7️⃣सामान्य पशु के आगे किसका वीर्य विशेष कोटि का होता है।
🅰️सिंह का
8️⃣परमात्मा किस कर्म के उदय के काल में भी लेश मात्र भी विचलित हुए बिना, उनके सामने पराक्रम दिखाते हैं।
🅰️भयंकर कर्म काल में
9️⃣सिंह में उत्तम कोटि के कितने गुणों का प्रवर्तन होता है।
🅰️10गुण
1️⃣0️⃣शौर्य गुण वाले कुमार महावीर ने मुष्टि प्रहार से ताड़ जैसे ऊंचे किसकोको मच्छर जैसा छोटा बना दिया।
🅰️ परिक्षार्थी आये देव को
*अध्याय*
*15:10:2020*
*पुरिस- सिहाणं-3*-पुरुषों में सिंह समान, अर्थात पुरुष में अतुल्य ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
गतांक से हम परमात्मा और सिंह कि दस प्रकार की तूलना पर विचार कर रहे हैं।
5️⃣ *वीर* -प्रभु परमात्मा को सिंह कि भांति वीर कहा गया है। वीर शब्द की व्युत्पत्ति दो तरीके से होती है।
'विशेषण राजते इति वीर' -
(जिस तरह सिंह अपनी केशावली से विशेष शोभायमान होता है।) उसी तरह परमात्मा तप-संयम आदि गुणों से विशेष शोभित होते हैं।
'विशेषण ईरयति इति वीर' -
जिस तरह सिंह अपने सत्व के प्रभाव से नीडर हो कर विशेष प्रकार से वन में गति करता है। उसी तरह परमात्मा भी कर्मनाश के लिए विशेष प्रकार से प्रवृत्ति करते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा पूर्णतया सत्वशाली होते हैं, इस कारण उनकी वृत्ति प्रवृत्ति विशेष प्रकार कि होती है और उनका प्रभाव भी अति उत्तम कहा गया है।
6️⃣ *अवज्ञावाले*-
सिंह को कभी जब भूख लगती है तब वो किसी भी सूरत में घास तो नहीं ही खायेगा। और वो छोटे छोटे प्राणियों की हिंसा भी नहीं करता।
इस तरह वो तुच्छ वस्तुओं की उपेक्षा या अवज्ञा करता है। और अपने भोज के लिए धैर्य रख कर प्रयास करता है।
उसी तरह भगवान भी क्षुधादि परिषहों की उपेक्षा और अवज्ञा करते हैं। छोटी बड़ी कठिनाई की या अंतरायों की उपेक्षा करते हुवे अपने योग्य लक्ष्य की प्राप्ति हेतू प्रयत्नशील हो जाते हैं। और उसी मार्ग पर अविचल विहार करते हैं।
7️⃣ *निर्भय*- जिस तरह सिंह हजारों हाथी की टोली से भी भयभीत नही होता उसी तरह परमात्मा भी मरणांत उपसर्गों आते हैं तो लेश मात्र भी भयभीत नही होते।
8️⃣. *निश्चिंत*- सिंह जब तृप्त होता है तब भविष्य के आहार की चिंता नही कराता, उसके लिए संग्रह भी नहीं करता। उस तरह देवाधिदेव भी अपनी इंद्रियों या देह को कुछ भी अनुकूल या प्रतिकूल मिले उसकी चिंता कभी भी नहीं करते। वो अपने अध्यात्मिक ध्यान द्वारा ही तृप्ति का अनुभव करते है।
9️⃣ *अखिन्न*-सिंह को अपने मार्ग में कभी भी उदासीनता या कंटाला नही आता उस तरह संयम की कठोर साधना करते परमात्मा को कभी भी उदासीनता या खेद नही होता, अपितु परम् आनंद होता है।
1️⃣0️⃣ *निष्कंप*-सिंह की यह बात प्रचलित है कि ये एक बार जब लक्ष्य तय करता है तो फिर उसका सम्पूर्ण ध्यान, सम्पूर्ण दृष्टि और सम्पूर्ण शक्ति उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए केन्द्रित हो जाती है।
वो अपने इष्ट कार्य में स्थिर और अचल होते हैं। आपत्ति विपत्ति से चलित न होते हुए अपने शौर्य का, अपने पराक्रम का प्रदर्शन करते हैं।
उसी तरह त्रिलोकनाथ परमात्मा भी अपने ध्यान में अत्यंत स्थिर होते हैं।
चाहे कैसे भी उपसर्ग का सामना उनको करना पड़े, वे चलित नहीं होते और उनके ध्यान की अखंड धारा चलती ही रहती है। कई भी तूटती नही है।
वो अपने ध्यान में मेरु के सम निष्कंप होते है।
पुरिस- सिहाणं, यह पद बोलते हुए,कर्म और कषाय के सामने क्रूर बने हुए और कष्टों के सामने सहिष्णु बने हुए परमात्मा को अंतरपट में ला कर भाव से नमस्कार करते-करते परमात्मा को प्रार्थना करनी है कि,
हे नाथ, आप को किया हुआ यह नमस्कार, कर्म और कषायों के सामने झूकी हुई मेरी आत्मा को सुदृढ़ और स्थिर बना दें और कष्टों को सहन करने के लिए शक्तिमान बना दें।
*प्रश्नके उत्तर*
*15:10:20*
1️⃣भगवान भी किस की उपेक्षा और अवज्ञा करते हैं
🅰️क्षुधा आदि परिषहो की
2️⃣मेरी आत्मा को ----- और ------ बना दें और कष्टों को सहन करने के लिए शक्तिमान बना दें।
🅰️सुदृढ़,स्थिर
3️⃣परमात्मा किससे भयभीत नही होते
🅰️मरणांत उपसर्गों से
4️⃣कर्मनाश के लिए विशेष प्रकार से कौनप्रवृत्ति करते हैं।
🅰️तीर्थकर परमात्मा
5️⃣सिंह को कभी जब भूख लगती है तब वो किसी भी सूरत में क्या नहीं खायेगा।
🅰️घास
6️⃣9 वा गुण क्या है
🅰️अखिन्न
7️⃣विशेषण राजते इति वीर' -का अर्थ
🅰️सिंह अपनी विशेष केशावली से शोभित होता है उसी तरह परमात्मा तप संयम आदि गुणों से शोभित होते है
8️⃣मरणांत उपसर्गों आते हैं तो लेश मात्र भी भयभीतकौन नही होते।
🅰️परमात्मा
9️⃣सिंह जब तृप्त होता है तब ----के आहार की चिंता नही कराता।
🅰️भविष्य
1️⃣0️⃣सिंह की कौन सी बात प्रचलित है
🅰️एक बार लक्ष्य तय करता है तो सम्पूर्ण ध्यान लक्ष्य पूर्ति के लिये केन्द्रित हो जाती हैं
*अध्याय*
*16:10:20*
*पुरिसवर-पुण्डरीयाणं*- पुरुषों में श्रेष्ठ ऐसे, सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक का अर्थ श्वेत कमलहोता है, अर्थात श्वेत निरजके सम परमात्माकेमांस औऱ लहू भी श्वेत होता है, अशुभता से रहित को मेरा नमस्कार हो।
फूलों में कमल के फूल का एक अपना महत्वपूर्ण स्थान होता है।
अपनी विशिष्ठ सुंदरता के कारण यह सभी को प्रिय होता है।
उसमे भी श्रेष्ठ ऐसे पुंडरीक कमल तो अतुलनीय होते हैं। अप्रतिम सुंदरता के कारण यह सर्वश्रेष्ठ कहे गए हैं।
पुंडरिक कमल में आठ प्रकार की विशेषताएं होती है, ऐसी ही विशेषताएं तीर्थंकर भगवान में भी उपस्थित होती है। इसलिए भगवान को पुंडरीक कमल समान कहा गया है।
कमल के साथ परमात्मा की आठ प्रकार की तूलना -
1️⃣ *कादव/कीचड़ में जन्म*- सुंदर ऐसे कमल का जन्म जिस तरह कीचड़ में होता है उसी तरह प्रभु का जन्म भी कर्मरूपी कादव से, कीचड़ से भरे हुए इस संसार में होता है।
परन्तु जैसे कीचड़ में रहते हुए भी कमल अपनी विशिष्ठ सुंदरता का त्याग नहीं करता उसी तरह प्रभु परमात्मा भी इस कीचड़ जैसे संसार में रहते हुए भी, निर्लिप्त, निर्लेप रह पाते हैं।
2️⃣. *पानी से वृद्धि*- कमल जिस तरह पानी से बढ़ता है, वृद्धि पाता है, उसी तरह प्रभु दिव्यभोग रूपी पानी के द्वारा वृद्धि पाते हैं। और इस तरह अपने जीवन का निर्वाह कर, अपने लक्ष्य को पाने का कार्य करते हैं।
3️⃣. *दोनों से अलिप्त*-
वृद्धि पाते हुए कमल, जिस तरह कादव और पानी दोनों से अलिप्त रहता है, उसी तरह भगवान भी कर्मों से प्राप्त हुए जन्म और दिव्यभोग से वृद्धि पाने के पश्चात भी दोनों से अलिप्त रहते हैं।
उनकी आत्मा पर इन दोनों वस्तुओं का कोई प्रभाव नहीं होता।
वे पूर्णतया अविरक्त हो जाते हैं और परम कल्याण की राह पकड़ लेते हैं।
4️⃣ *सहज सौंदर्य*-
कमल की जिस तरह स्वाभाविक सुंदरता होती है, उसी तरह भगवान में 34 अतिशय और आत्मिक गुणों के योग से बाह्य और अभ्यंतर दोनों प्रकार की स्वाभाविक सुन्दरता होती है।
बाह्य सुंदरता ऐसी होती है कि कोई भी तुरंत ही उन पर मोहित हो जाए। परन्तु उनके पवित्र गुणों के योग से ये मोह भी भक्तिरूप ही होता है।
उनकी अभ्यंतर सुंदरता, आत्मिक सुंदरता का लाभ तो हर जीव को प्राप्त होता है। क्योंकि उनकी आत्मा में परोपकार की भावना बसी होती है। ऐसे परोपकार की भावना जो ये भव और परभव दोनों को सुधारने के लिए सक्षम है।
5️⃣. *लक्ष्मी का स्थान*-
कमल पर जिस तरह श्रीदेवी का वास है उसी तरह भगवान में भी केवलज्ञानादि लक्ष्मी और सर्वोच्च पुण्यसंपत्ति का वास है।
पद्म का सेवन नरगण अमरगण एवं त्रियंच करते हैं वैसे ही केवल ज्ञान आदि उत्तम गुण के कारण भव्य प्राणी भी प्रभु की पर्यूपासना सेवा करते हैं
*आधार :-*
*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*
*"सूत्र संवेदना-2"
*प्रश्न के उत्तर*
*16:10:20*
1️⃣प्रभु की पर्यूपासना सेवा कौनकरते हैं
🅰️भव्य प्राणी
2️⃣भगवान केकितने अतिशय होते है
🅰️34
3️⃣भगवान वृद्धि पाने के पश्चात भी किन दोनों से अलिप्त रहते हैं।
🅰️जन्म और दिव्य भोग
4️⃣पुंडरीक का अर्थ क्या है
🅰️श्वेत कमल
5️⃣पहला गुण क्या है
🅰️कीचड़ में जन्म
6️⃣परमात्माकेमांस औऱ लहू का रंग कैसा है
🅰️सफेद
7️⃣कमल के साथ परमात्मा की कितने प्रकार की तूलना की है
🅰️आठ
8️⃣प्रभु कौन से पानी के द्वारा वृद्धि पाते हैं
🅰️दिव्यभोग रूपी
9️⃣पद्म का सेवनकौन कौन करते हैं
🅰️नर,अमर और तिर्यंच
1️⃣0️⃣ इस संसार मेंक्या भरा है।
🅰️कीचड़
*अध्याय*
*17:10:20*
*
6️⃣ *चक्षु आदि को प्रीतिकर*- श्रेष्ठ कमल, आह्लादक होता है।
दर्शनीय होता है। आंख-नाक आदि इंद्रियों को आनंद देता है। देखने वालों को पुलकित करता है।
उसी तरह परमात्मा अद्भुत रूप आदि के कारण चक्षु आदि के लिए आनंददायक बनते हैं। उनका अदभुत व्यक्तित्व मनुष्य को भाव विभोर, हर्ष विभोर करने कि क्षमता रखता है।
और विशेषतः जगत के जीवों को तत्व का दर्शन प्राप्त करा के, सम्यकदर्शन गुण को प्रगटाकर आत्मिक आनंद प्राप्त कराते हैं।
7️⃣. *उत्तम देव, मनुष्य और तिर्यंच से सेव्य*- जिस तरह कमल में सुगंध सौंदर्य आदि विशिष्ट गुण होने से भ्रमररूपी तिर्यंच को आकर्षित करते हैं। उपरांत मनुष्य और देव भी उसको सेव्य करते है, यावत परमात्मा को चढ़ाने द्वारा।
उसी तरह अरिहंत परमात्मा में केवलज्ञान आदि विशिष्ट गुण होने से भव्य ऐसे तिर्यंच, मनुष्य और देव, परमात्मा की उपासना करते हैं।
8️⃣. *सुख का कारण*-
श्रेष्ठ कमल जिस तरह देव मनुष्य के सुख का कारण होता है उसी तरह भगवान भी भव्य जीवों के लिए अनंत आनंद स्वरूप मोक्ष सुख का कारण बनते हैं।
इस तरह कमल तुल्य 8 गुणों से युक्त परमात्मा को मेरा नमस्कार ।
यह पद बोलते हुवे, उत्तम ऐसे पुंडरीक कमल की उपमायुक्त परमात्मा को स्मृति में ला कर ऐसी इच्छा अभिव्यक्त करनी है कि,
हे नाथ, कमलवत सर्व बाह्य भावों से अलिप्त वैसे आप को किया हुआ नमस्कार मुझे भी सर्व बाह्य भावों से अलिप्त कर के आप की तरह निर्लेप बनाएं।
*पुरिस-वर-गंध-हत्थिणं*- श्रेष्ठ गंधहस्ती जैसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
सूंढ़ रूप हस्त जिसको है, वो हस्ति कहलाते है। जो हाथी के मरूस्थल से अत्यंत सुगंध युक्त मद ज़रता है वो गंधहस्ति कहलाते हैं। ऐसे गंधहस्तिओं में भी जो श्रेष्ठ हो, जिनकी गंध मात्र से क्षुद्र-हल्के हाथी एवं अन्य हल्के जीव घबराकर भाग जाते हैं, उनको 'वर-गंध-हत्थि' कहते हैं।
भगवान श्रेष्ठ और गंधहस्ति तूल्य है।
गंधहस्ति को जिस तरह किसी के साथ युद्ध नहीं करना पड़ता, क्योंकि उसकी गंध मात्र से ही कमजोर हाथी और दूसरे प्राणी दूर भाग जाते हैं। उसी तरह परमात्मा को भी कोई मंत्र तंत्र की साधना करनी नहीं पड़ती है। उन साधना के बिना ही भगवान जहां जहां भी जाते हैं वहां अतिवृष्टि-अनावृष्टि, मारी-मरकी इति उपद्रव आदि सर्व अनिष्ठ पलायन हो जाते हैं, अदृश्य हो जाते हैं। और हल्के हाथी सम कुवादी जो अपने आप को महाज्ञानी समझते हैं और अभिमान रूपी मुकुट धारण कीये होते हैं वो सभी सर्वज्ञ के सामने टिक नहीं पाते।
अनिष्टकारी कोई भी तत्व परमात्मा की उपस्थिति में टिक नहीं सकता है। इन्हीं कारणों से परमात्मा को श्रेष्ठ गंधहस्ति तुल्य माना गया है।
ऐसे यह त्रिलोकबंधु परमात्मा को हृदयस्थ करके भाव से नमस्कार करते हुए प्रभु के पास ऐसी प्रार्थना करनी है कि,
हे परमात्मा!!! आपको भाव से किया हुआ यह नमस्कार मेरी साधना में आने वाले विघ्नों के बादल को बिखेर दें और मेरा मार्ग भी निर्विग्न कर दें।
*अध्याय*
19 :10: 20
*लोगुत्तमाणं* का अर्थ है➡️
अरिहंत देव पुरुषों में ही नहीं अपितु लोक में भी उत्तम है। लोक शब्द में जहां त्रियंच मानव नारकदेव आदि जीव लोक में से भी उत्तम है 34 अतिशय धारी असाधारण गुणसमूह से संपन्न अरिहंत देव हैं अतः समस्त सुर असुर खेचर विद्याधर नर,तिरी समूह से उत्तम होने से वंदितहै
(भव्य) लोक में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
'लोक' शब्द से यहां भव्य जीव रूपी, ऐसा अर्थ ग्रहण करना है। क्योंकि अभव्य रूप लोक में भगवान को उत्तम कहने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अभव्यादि से तो भव्य जीव उत्तम है ही, और भव्यों में भी भगवान सर्वोत्तम है यह ये पद द्वारा कहा गया है।
भव्य का अर्थ है मोक्षगमन योग्य। सर्व प्रयोजन जहाँ सिद्ध होते हैं। ऐसे मोक्ष नाम के स्थान को प्राप्त करने की योग्यता वो भव्यत्व है।
मोक्ष में जाने के योग्य आत्माएं तो बहुत होती हैं, और आज तक अनंत आत्माएं सर्व कर्म को खपा कर मोक्ष में गए भी है, परन्तु यह सर्व जीवों में प्रत्येक अरिहंत की आत्मा अलग ही होती है। उनका तथाभव्यत्व ही ऐसा विशिष्ट कोटि का होता है कि वे जहां होते हैं वहां विशिष्ट भावों को पाते हैं।
अंतिम भव में तीर्थंकरनाम कर्म के उदय से सर्वश्रेष्ठ समृद्धि को तो वे पाते ही हैं, परन्तु एक इंद्रियादी के भव में भी वे विशिष्ट रत्न आदि के रूप में जन्म लेते हैं।
बेइंद्रिय आदि भवों में हो तो विशेष प्रकार के शंख आदि के रूप में जन्म लेते हैं।
इस तरह औदायिक भाव की अवस्था में भी, उनको सर्वश्रेष्ठ कोटी की ही प्राप्त होती है (भव्य) लोक में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
हमने देखा कि लोक में उत्तम ऐसे तीर्थंकर परमात्मा किन विशिष्ट गुणों के कारण और विशेषताओं के कारण इस पद को प्राप्त करते हैं।
मोक्षगामी भव्य जीवों में भी ये सर्वश्रेष्ठ आत्माएं उनके भूतकाल के हर जन्म में, चाहे एकिंद्रिय, बेइंद्रिय भी क्यों न हो, अपितु उनमें भी श्रेष्ठता को प्राप्त कर, उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए अरिहंत परमात्मा की महानता तक पंहुचजाते हैं।
कर्म के क्षयोपशम से, कर्मक्षय से, उत्पन्न हुए सम्यकत्व आदि गुण भी उनके विशेष प्रकार के होते हैं।
अन्य जीव दर्शनमोहनिय कर्म के क्षय से सामान्य बोधि को पाते हैं। जब कि अरिहंत की आत्माएं दर्शनमोहनिय कर्म के फल से सर्व जीवों को शासन प्राप्त करवाने की इच्छा रूप वरबोधि को पाते हैं।
अन्य जीव घाती कर्म के नाश से केवलज्ञान आदि को प्राप्त कर के मोक्ष में जाते हैं। जब कि अरिहंत की आत्मा, केवलज्ञान को प्राप्त कर, तीर्थ की स्थापना कर के, अनंत जीवों को तीरने का मार्ग बता कर मोक्ष में जाते हैं।
इस तरह मार्गदर्शकादि गुण भी उनमें विशेष होने से वे लोकोत्तम पुरुष कहलाते हैं।
यह पद बोलते हुए, ऐसे लोकोत्तम पुरुष को स्मरण में ला कर के उनके गुणों के प्रति आदर और अहोभाव उल्लासित कर के नमस्कार करते हुए ऐसी भावना का स्रोत बहाना है कि,
हे जगतवत्सल पिता!!! आप जिस तरह लोकोत्तम पुरुष बने हो उसी तरह आप को किया हुआ मेरा सामान्य भी नमस्कार लोकोत्तम पदप्राप्ति का कारण बने।
*अध्याय*
20:10:20
*कल में अपन ने भवि अभवी* *की चर्चा की चलो थोड़ा विस्तार से जानेक्या होता है भवि अभवी*
1️⃣ *भवी जीव और अभवी जीव की क्या पहचान है* ?
*भवी जीव* के आत्म परिणामों में बदलाव आ सकता है अर्थात अगर वह मिथ्यात्वी हैं तो उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है।
*अभवी जीवों* के आत्म परिणाम अनादि काल से जैसे थे वैसे ही रहेंगे व अनंत काल तक भी नही बदलेंगे। वह मिथ्यात्वी थे, हैं व रहेंगे।
*भवी जीव* मोक्ष प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है।वो कर्म बंध और कर्म बंध से मुक्त होने की प्रक्रिया में विश्वास करता है।
*अभवी जीव* मोक्ष में विश्वास ही नही करता। उसके अंदर मोक्ष की अभिलाषा ही उत्पन्न नही हो सकती।
*भवी जीव* में संवेग (मोक्ष की तीव्र अभिलाषा) उत्पन्न होता है।उसके मन मे ये चिंतन रहता है कि मैं मोक्ष जा सकूंगा या नही। कहीं मैं अभवि तो नही।
*अभवि* के ऐसा चिंतन नही। जिनके ऐसा चिंतन नही वह सभी अभवी हैं ऐसा नही है किंतु अभवी के मन मे ऐसा भाव ही नही होता।
मिथ्यादृष्टि और अभवी मे क्या फर्क है?
*मिथ्यादृष्टि* अर्थात आत्मा के न्यूनतम विकास की श्रेणी। *अभवी* वह जीव जो कभी मोक्ष नही जाएंगे।
इस लिए हम मिथ्यादृष्टिको अभवी, नहीं मान
प्राणी मात्र या तो भवी होगा या अभवी। हर मिथ्यादृष्टि प्राणी अभवी हो यह ज़रूरी नही पर हर अभवी जीव मिथ्यादृष्टि ही होगा क्योंकि वह आत्मा का कितना भी विकास करें पर मोक्ष को या उसको प्राप्त करने के साधनों को स्वीकार नही करते।
कौन सा जीव अभवी बनेगा कौन सा भवी इसका चयन कैसे होता है?
*जीव अभवी बनेगा या भवी इसका चयन कोई नही कर सकता। स्वयं अरिहंत भी नही, क्योंकि उनका भवी या अभवी होना अनादि काल से था, है और रहेगा। यह आत्मा का अनादि पारिणामिक भाव है जिसका चयन करता कोई भी नही।*
*सहज एक प्रश्न आता है कि. *अभवी जीव पंच परमेष्ठी के कितने पद प्राप्त कर सकते हैं* ?
*उ ० अभवी में चारित्र नहीं होता, मात्र द्रव्य चारित्र होता है । पाँच चारित्रों में मात्र दो चारित्र - सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र हीं द्रव्य से होते हैं । भाव में चारित्र नहीं होता ।
3. अभवी को परिहार विशुद्ध चारित्र नहीं होता क्योंकि परिहार विशुद्ध चारित्र में नौवें पूर्व की तीसरी आचार वत्थु का ज्ञान न्यूनतम होना अनिवार्य है, जबकि अभवी में नौवें पूर्व की तीसरी आचार वत्थु से कम ज्ञान होता है ।
अभवी सम्यक्त्वी नहीं हो सकता और बिना सम्यक्त्व के
मन से अभवि चारित्र ग्रहण नहीं कर सकता। हां, व्यवहार में अभवी साधु वेश धारणकर उपाध्याय, आचार्य बन भी सकता है । ऐसा व्यक्ति भारी तपस्या कर काल पूरा करे तो नव ग्रेवेयक तक भी जा सकता है किन्तु न तो पांच अनुत्तर विमान में जा सकता है और न मोक्ष में ही जा सकता है*।
बाकि कल
*प्रश्न के उत्तर*
*20:10:20*
1️⃣किससे अभवि चारित्र ग्रहण नहीं कर सकता।
🅰️मन से
2️⃣जीव अभवी बनेगा या भवी इसका चयन कोई कर सकता।
🅰️ नहीं
3️⃣अभवि भारी तपस्या कर काल पूरा करे तो कहाँ तक जा सकता है।
🅰️ नवग्रैवयक
4️⃣किसके आत्म परिणामों में बदलाव आ सकता है
🅰️भवी जीव के
5️⃣अभवी में -- पूर्व की ----- आचार वत्थु से कम ज्ञान होता है ।
🅰️ नौंवे,तीसरी
6️⃣भवी जीव* में क्या संवेग उत्पन्न होता है
🅰️ मोक्ष की तीव्र अभिलाषा
7️⃣मिथ्यादृष्टि क्या होती है
🅰️ आत्मा के न्यूनतम विकास की श्रेणी
8️⃣मिथ्यात्वी हैं तो भी उन्हें क्या प्राप्ति हो सकती है।
🅰️ सम्यक्तव
9️⃣ द्रव्य चारित्र कितने और कौन - कौन से होते है
🅰️ दो सामायिक और छेदोपस्थापनीय
1️⃣0️⃣भवि अभवी में क़ोई दो असमानता बताइये
🅰️*अभवी जीवों* के आत्म परिणाम अनादि काल से जैसे थे वैसे ही रहेंगे व अनंत काल तक भी नही बदलेंगे। वह मिथ्यात्वी थे, हैं व रहेंगे।
*भवी जीव* मोक्ष प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है।वो कर्म बंध और कर्म बंध से मुक्त होने की प्रक्रिया में विश्वास करता है।
*अभवी जीव* मोक्ष में विश्वास ही नही करता। उसके अंदर मोक्ष की अभिलाषा ही उत्पन्न नही हो सकती।
*भवी जीव* में संवेग (मोक्ष की तीव्र अभिलाषा) उत्पन्न होता है।उसके मन मे ये चिंतन रहता है कि मैं मोक्ष जा सकूंगा या नही। कहीं मैं अभवि तो नही।
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*21:10:20*
*आइयेअपन लोग अभवि को*
*औऱ विस्तार से जानते है*।
1️⃣. अभवी आहारक लब्धि प्राप्त नहीं होती ।
2️⃣अभवी आगम व्यवहारी नहीं होते हैं ।
3️⃣ अभवी तीर्थंकरों से दान प्राप्त करने भी नहीं जाते क्योंकि तीर्थंकरों के पास जाकर दान लेने की भावना ही नहीं बनती ।
4️⃣ अभवी 63 (त्रेसठ) श्लाघनीय पुरुषों की पदवी प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।
5️⃣. अभवी जीवों की दीक्षा तीर्थंकर परमात्मा के मुखारविन्द से नहीं होती ।
6️⃣अभवी एवं मिथ्यात्वी जीव, वास्तव में आराधक नहीं होते ।
7️⃣ अभवी को पांच भावों में से औदयिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक ये तीन भाव हो सकते हैं । परंतु औपशमिक एवं क्षायिक भाव नहीं होता ।
.8️⃣ अभवी की गति जीव के 563 भेदों में से 5 अनुत्तर विमान को छोड़कर 553 हो सकती हैं एवं आगति 366 (7 नरक के पर्याप्ता + 48 तिर्यंच + 217 मनुष्य + 94 देव) होती है ।
9️⃣ अभवी भक्ति से, स्वरुचि से, अपनी इच्छा से भगवान् के समवशरण में नहीं आते हैं । स्वामी की आज्ञा से या व्यवहारादि निभाने आते हैं ।
1️⃣0️⃣. अभी वर्तमान में प्रसिद्ध अभवी जीव-
1) संगमदेव,
2) कालसौरिक कसाई,
3) कपिला दासी
4) श्रेणिक की दादी
5) विनयरत्न भट्ट (चंड़प्रद्योतन राजा के राज्य में 12 वर्षों तक साधु वेश में रहा और उदायन राजा की पौषधावस्था में हत्या की)
6) अंगारमर्दनाचार्य ~ 500 शेर शिष्यों का गीदड़ के रुप में नेतृत्व (राजा को स्वप्न आना) जिसकी राजा ने परीक्षा ली । अंतर ह्रदय से दया के भाव नहीं थे ।
7) खंदक जी मुनि के 500 शिष्यों को घाणी में पीलने वाला पालक मंत्री,
8) सोमिल ब्राह्मण,
9) धन्वंतरि वैद्य - भगवान अरिषटनेमि के समय में हुये । त्रस जीवों की हिंसा करता था, छह काय के जीवों की हिंसा कर दवाईयों में मिलाता था ।
10) कृष्ण वासुदेव का पुत्र पालक जिसने भगवान अरिष्टनेमि के चूंटिया भरा था और नख का निशान बनाया ।
1️⃣1️⃣ अभवी जीव जो द्रव्य से चारित्र क्रिया के आराधक होते हैं, पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन कर सकते हैं मगर सकाम निर्जरा नहीं कर सकते हैं ।
1️⃣2️⃣ अभवी जीव का स्थान ही पहला गुणस्थान है । वह उस स्थान को छोड़ता ही नहीं है
1️⃣3️⃣. अभवी जीवों में आहारक एवं आहारक मिश्र को छोड़कर शेष तेरह योग, तीन दर्शन, तीन अज्ञान और लेश्या छह भी हो सकती है ।
1️⃣4️⃣. अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण मात्र भवी जीव ही कर सकता है । यथा-प्रवृत्तिकरण भवी एवं अभवी दोनों कर सकते हैं ।
1️⃣5️⃣. जघन्य-युक्त-अनंता अभवी जीव व्यवहार राशि की अपेक्षा से है ।
बाक़ी कल
*अध्याय*
*22:10:20*
अभवी को 28 लब्धियों में से 15 लब्धियां प्राप्त हो सकती है:-
(1) आमर्षोहि ~ बड़ी नीत के स्पर्श से रोग नष्ट हो जाए
(2) विप्पोसोहि ~ शरीर के स्पर्श से रोग नष्ट हो जाए
(3) खेलोसहि-श्लेष्म
(4) जल्लोसहि-पसीने से
(5) सव्वोसही
(6) अवधिज्ञान-विभंग ज्ञान दोनों
(7) आशीविष
(8) खीर-मधुरोसहि ~ वचन एवं शब्द घी जैसा
(9) कोष्टबुद्धि ~ सीखा ज्ञान भूले नहीं, दिमाग में सुरक्षित रखे
(10) पदानुसारिणी ~ एक पद से अनेक पदों की जानकारी
(11) बीज-बुद्धि ~ थोड़े से विस्तृत जानकारी
(12) तेजो लेश्या
(13) शीत लेश्या
(14) वैक्रिय लब्धि
(15) अक्षीण महानसी ~ खुद सेवन न करे, तब तक खतम नहीं होवे ।
अभवी जीव मात्र व्यवहार राशि में हैं । अव्यवहार राशि में है, तो वे निकलते नहीं ।
अनंत भवी जीव के पीछे एक अभवी जीव होता है । यह भवी एवं अभवी जीवों का अनुपात है ।
30. जीवधड़ा में अभवी के 553 भेद बताए गए हैं, इससे सिद्ध होता है कि लोकान्तिक देव भी अभवी हो सकते
अभवी के आठों हीं कर्मों का उदय रहता है ।
अभवी तीर्थंकर परमात्मा को सुपात्र दान नहीं दे सकता ।
अभवी आठ प्रवचन माता की प्ररूपणा करता है, पालन करता है, परन्तु श्रद्धा स्पर्शना नहीं करता ।
तीर्थंकरों के प्रथम भिक्षादाता भवी ही होते हैं क्योंकि ऐसे भिक्षा दाता उसी भव में या तीसरे भव में मोक्ष जाते हैं ।
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...पुनः आरंभ
*लोगनाहाणं-1*- लोक के नाथ ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
लोक शब्द का अर्थ यहां रागादि उपद्रवों से रक्षणीय है
विशिष्ट संज्ञी भव्य लोग समझना है,* *नाथ वही* *कहलाते हैं जो योग और क्षेम* *करते हैं*
बीज का पोषण आदि करना उसे योग कहते हैं उपद्रवों से रक्षण करना उसे *क्षेम* कहते हैं
बीजा धान ➡️ बीज यानि सम्यकत्व धान यानि स्थापना ।
अरिहंत देव अप्राप्त को प्राप्त कराते हैं और प्राप्त की रक्षा करते हैं भव्य में भी जाति भव्य का योग क्षेम प्रभु नहीं कर सकते
*प्रश्न के उत्तर*
*22:10:20*
1️⃣नाथ कौन*कहलाते हैं
🅰️जो योग और क्षेम करते है वहीं नाथ कहलाते हैं
2️⃣क्षेम किसे कहते हैं
🅰️उपद्रवों से रक्षण करना उसे क्षेम कहते हैं
3️⃣अव्यवहार राशि में है, कौन निकलते नहीं हैं।
🅰️अभवी जीव
4️⃣कोष्टबुद्धि किसे कहते है
🅰️सिखा ज्ञान भूलें नहीं दिमाग में रखें
5️⃣अनंत भवी जीव के पीछे एक जीव क्या होता है ।
🅰️अभवी जीव
6️⃣जीवधड़ा में अभवी के कितने भेद बताए गए हैं,
🅰️553भेद
7️⃣खीर-मधुरोसहि का अर्थ क्या है
🅰️वचन एवं शब्द घी जैसा
8️⃣*बीजा धान का अर्थ क्या है
🅰️सम्य्क्त्व धान यानी स्थापना
9️⃣भिक्षा दाता ---- में या ------ भव में मोक्ष जाते हैं ।
🅰️उसी,तीसरे
1️⃣0️⃣13वी लब्धि कौन सी हैं
🅰️शीत लेश्या
इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
अंजुगोलछा
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*23:10:20*
हमने अभी जाना
संसार में मुक्त होने की योग्यता सहित संसारी जीवों को भव्य और वैसी योग्यता से रहित जीवों को अभव्य कहते हैं। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि सारे भव्य जीव अवश्य ही मुक्त हो जायेंगे। यदि यह सम्यक् पुरुषार्थ करे तो मुक्त हो सकता है अन्यथा नहीं, ऐसा अभिप्राय(मतलब) है। भव्यों में भी कुछ ऐसे होते हैं जो कभी भी उस प्रकार का पुरुषार्थ नहीं करेंगे, ऐसे जीवों की अभव्य समान भव्य कहा जाता है। और जो अनंतकाल जाने पर पुरुषार्थ करेंगे उन्हें दूरांदूर भव्य कहा जाता है। मुक्त जीवों को न भव्य कह सकते हैं न अभव्य।इस प्रकार भव्य जीव। की भी तीन श्रेणी है
⤵️
1️⃣.विशिष्ट भव्य
2️⃣ सामान्य भव्य
3️⃣अभव्यसम भव्य जीव का लक्षण
*विशिष्ट भव्य*➡️
धर्म की रुचिरूप बीज का आरोपन जिनमें हो सकता है, अर्थात जो जीव सरलता से प्रभु द्वारा अर्पित धर्म को ग्रहण कर पाते हैं, उनको आसन्नभव्य, अर्थात, विशिष्टभव्य कहते हैं। और प्रभु परमात्मा को ऐसे विशिष्टभव्य जीवों के नाथ कहा गया है।
नाथ उनको कहते हैं जो योग और क्षेम करें। बीजाधानयुक्त भव्य जीवों को परमात्मा धर्म की प्राथमिक कक्षा के से ले कर मोक्ष तक की उच्चतम श्रेणी तक पंहुचा देते है परम सुख सरलता से प्राप्त करा सकते हैं। इस तरह से अप्राप्त को प्राप्त कराने के लिए भगवान उनका योग करते हैं, और उपदेश प्रदानादि द्वारा प्राप्त हुए धर्म का रक्षण करने द्वारा उनका क्षेम भी करते रहते हैं। इस कारण से आसन्नभव्य जीवों के भगवान नाथ है।और जो जीव। निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरणरूप से जो होगा उसेही
विशिष्टभव्य कहते हैं।
यूं तो साधारणतया अरिहंत भगवंत, सर्व जीव के नाथ माने गये हैं। परन्तु विभाजन, भव्य और अभव्य का, सिद्धगती की प्राप्ति जो भवी जीव को अपेक्षित है, उस कारण से है।
दूसरे जो सामान्य भविजीव है, वो कुछ इस प्रकार के हैं।
2️⃣ *सामान्य भविजीव*➡️
इन जीवों में धर्म की प्राप्ति के प्रति वास्तविक रुचिरूप बीज नहीं होता। ये जीव भी धर्म तो करते हैं, धर्म के फल को जान कर भगवान का उपदेश सुनकर या भगवान का बाह्य वैभव देख कर, द्रव्य से दीक्षा भी लेते हैं। और उसके कारण उनको सुख, समृद्धियुक्त देव आदि भवों की प्राप्ति भी होती है और दुख को देने वाले नर्क आदि भवों से उनका रक्षण भी होता है।
परन्तु, फिर भी वास्तविक सुख की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए जो गुण की प्राप्ति है, वो सामान्य भविजीव को नहीं होती। और उनमें दुख की परंपरा का सर्जन करने वाले दोष का नाश भी नहीं हो पाता है।
इस कारण ही ऐसे जीवों के परमात्मा नाथ नहीं बन सकते हैं।
जब कि विशिष्ट भव्यता वाले बीजाधानयुक्त भव्य जीव तो एक बार भी यदि भगवान को नाथ की तरह स्वीकार कर के उनकी आज्ञा अनुसार धर्म क्रिया करते हैं, तो उससे उनकी सद्गति की परंपरा का सर्जन होता है। उनमें क्षमा आदि गुणों का सर्जन होता है, और दुख को देने वाले रागादि भावों का विसर्जन होता है।
इस तरह से, क्रम से गुण की प्राप्ति और दोष के नाश से आत्मा सिद्धि गति को भी प्राप्त करते हैं।
इसलिए ही भगवान विशिष्ट भव्य रूप लोक के नाथ कहलाते हैं।
यह पद बोलते हुए, वास्तविक सुख को प्राप्त कराने वाले और प्राप्त हुए सुख का रक्षण करने वाले परमात्मा का हॄदय सिंहासन पर संस्थापन कर के नमस्कार करते हुए भावना भानी है कि,
हे करुणानिधि!!!!अनादि काल से अनाथ ऐसे मेरे लिए भी आप सच्चे अर्थ में नाथ बनो।
जो न भव्य हैं और न अभव्य हैं, किंतु जिन्होंने मुक्ति को प्राप्त कर लिया है, और अतीत संसार हैं। उन जीवों को नो भव्य नो अभव्य जानना चाहिए।
लोक के नाथ ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
कल आगे 3 श्रेणी का वर्णन
*प्रश्न के उत्तर*
*23:10:20*
1️⃣भव्य जीव की कितनी श्रेणी है
🅰️3
2️⃣तीसरी श्रेणी कौन सी है
🅰️अभव्यसम
3️⃣किन इन जीवों में धर्म की प्राप्ति के प्रति वास्तविक रुचिरूप बीज नहीं होता।
🅰️विशिष्ट भव्य
5️⃣द्रव्य से दीक्षा भी लेते हैं। और उसके कारण कौन।देव बन सकते हैं।
🅰️सामान्य भव्य जीव
6️⃣मोक्ष तक की उच्चतम श्रेणी तक कौन पंहुचा देते है
🅰️परमात्मा
7️⃣सुख की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए जो गुण की प्राप्ति है, वो किस को नहीं होती।
🅰️सामान्य भव्य जीव को
8️⃣आत्मा कैसे सिद्धि गति को प्राप्त करती हैं।
🅰️गुण की प्राप्ति और दोष के नाश से
9️⃣परमात्मा को विशेष कैसे जीवों के नाथ कहा गया है।
🅰️विशिष्ट भव्य जीव
1️⃣0️⃣आसन्नभव्य का अर्थ
🅰️जो जीव निज शुद्ध आत्मा के सम्यक श्रद्धा, ज्ञान और आचरण रुप होता है।
अध्याय
24:10:20
*अभव्यसम भव्य जीव का लक्षण*➡️जो अभव्य है या अभव्यों के समान नित्य निगोद को प्राप्त हुए भव्य हैं।त्रिकाल विषै मुक्त होने के नहीं केवल मुक्त होने की योग्यता ही कौं धरें हैं ते अभव्य-सम भव्य हैं।
अब प्रश्न ये है कि
अभव्यसम भव्य को भी कैसे कहते हैं ?जो भव्य अनंत काल में भी सिद्ध न होगा वह तो अभव्य के तुल्य ही हैं?
उत्तर–नहीं, वह अभव्य नहीं है, क्योंकि उस में भव्यत्व शक्ति है। जैसे कि कनक पाषाण को जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अंधपाषाण नहीं कह सकते अथवा उस आगामी काल को जो अनंत काल में भी नहीं आयेगा अनागामी नहीं कह सकते उसी तरह सिद्धि न होने पर भी भव्यत्व शक्ति होने के कारण उसे अभव्य नहीं कह सकते। वह भव्य राशि में ही शामिल है।
*लोगहियाणं*
लोगहियाणं-*➡️- जो लोक का हित करते हैं ,कल्याण करते हैं लोक शब्द से यहां 14 राज लोक गत एकेंद्रिय जीव से लेकर पंचेेंद्रीय जीव पर्यंत व्यवहार राशि वाले जीवो को समझना है अरिहंत प्रभु एक केंद्रीय आदि प्राणियों की अत्यधिक रक्षा करते हैं मोक्ष मार्ग का उपदेश देखकर दुखी जीवो की रक्षा स्वयं भी करते हैं औरों से भी करवाते हैं महाराजा भरत चक्री के जब 98 भाइयों से कहा मेरी आज्ञा का पालन करो।तो 98 भाइयों ने श्री ऋषभदेव दादा से पूछा क्या करें?
तब दादा ने उपदेश में अंगारदाहक का दृष्टांत सुनाया वैरागी 98 भाइयों ने दीक्षा ले ली इस प्रकार सम्यक परूपना करके सभी जीवो का हित श्रेय करते हैं
लोक के हित करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार हो।
यहां लोक शब्द से "पंचास्तिकायरूप लोक" ग्रहण करना है।
अरिहंत परमात्मा धर्मास्तिकायादि पांचो द्रव्यों का हित करने वाले होते हैं, ऐसा कह कर उनकी हित कामना सीमातीत है ऐसा बतलाया है।
यहां प्रश्न हो सकता है कि भगवान जीवजगत का हित करते हैं, ये तो बराबर है लेकिन पुदगल आदि झड़ द्रव्यों का हित किस तरह कर सकते हैं?
तो, हित की व्याख्या से नय के दो प्रमुख भेद है1 व्यवहारनय से और 2निश्चयनय दोनों से अलग- अलग होती है। व्यवहारनय बाह्य प्रवृत्ति पर हिताहीत का विभाग करता है। जब कि निश्चयनय स्वपरिणाम से हिताहित का विभाग करते हैं। इसलिए व्यवहारनय से जीव में ही हित की संभावना होती हैं इस लिए भगवान जीव का हित करने वाले कहलाते हैं। परन्तु निश्चयनय से जो विषय में हित का परिणाम प्रवर्त्तमान है वो सर्व का हित करने वाले परमात्मा कहलाते हैं।
परमात्मा का हित का परिणाम चर-अचर, सर्वलोक, अलोक को आश्रय प्रदान करता है। इसलिए प्रभु को लोक का हित करने वाले कहा है।
इस तरह परम उपकारी परमात्मा लोक के हित रूप धर्म का प्रवर्तन (आरम्भ)करते हैं और उनके द्वारा लोक के जीव धर्म को पा कर, अपने कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं।
इसी विषय पर कुछ और विवेचन हम कल देखेंगे।
*अध्याय*
*26:10:20*
*लोगहियाणं-2*- लोक के हित करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार हो।
कल से हम इस विषय पर विवेचन का अभ्यास कर रहे हैं।
अरिहंत परमात्मा लोक में सभी का हित करने वाले होते हैं।
कोई भी पदार्थ का हित इस तरह होता है।
1️⃣ *यथावस्थित दर्शन* .जो वस्तु जो स्वरूप में हो, उसी स्वरूप से उसको देखना
2️⃣ *सम्यक प्ररूपणा*
जो वस्तु जैसी है, उस वस्तु को वैसी ही कहना
3. और भविष्य में वस्तु के स्वरूप में कोई विकृति न हो इस तरह वर्तन (व्यवहार, स्थापना) करना।
भगवान केवलज्ञान द्वारा जगतवर्ती सर्व पदार्थों को जैसे हैं, उसी तरह देखते हैं।
जिस तरह से देखते हैं उसी रूप से उस पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं।
और सर्व द्रव्यों के साथ भविष्य में उनका अहित ना हो उसी तरह वर्तन करते हैं।
इस तरह से वो सर्व द्रव्यों का हित करने वाले होते हैं।
यह पद बोलते ही ऐसा लगता है, कि सच्चे अर्थ में दूसरों का तो नहीं, परन्तु अपनी आत्मा का भी हित हम कर सकते नहीं है। जब कि अरिहंत भगवान अपने आत्मा का तो हित करते ही है, तदुपरांत समस्त जीव जगत और जड़ जगत का भी हित करते हैं।
परमहितकारक परमात्मा को नमन करते हुए हम याचना करते हैं कि,
हे जगत के हितकारक परमात्मा!!!! आप को किया हुआ नमस्कार हम में भी सर्व के हित करने के सामर्थ्य को प्रगट करने वाला बने।
*जिज्ञासा-*
परमात्मा यथार्थ दर्शनादि द्वारा धर्मास्तिकाय आदि का हित करने वाले है, ऐसा कहा, तो परमात्मा हित करते है वो बात तो ठीक है, परन्तु धर्मास्तिकायादि अर्थात पुदगल आदि जड़ वस्तु का हित जैसा कुछ भी होता ही नहीं फिर भी परमात्मा को हित करने वाले क्यों मान ले?
*तृप्ति-*
ये वस्तु इस तरह सोच सकते है कि- एक मां बाप अपने बच्चे को बहुत सुंदर संस्कार देते हैं लेकिन बच्चे की योग्यता ना होने से वह संस्कारों को झेल नहीं सकते। फिर भी उन मां-बाप को बच्चे का हित करने वाले ही कहा जाता है।
उसी तरह दूसरी बात समझ ले।
एक शिकारी ने एक पक्षी पर तीर छोड़ा लेकिन चालाक पक्षी तीर की आवाज से उड़ गया इसलिए वह मरा नहीं। लेकिन तीर मारने वाले शिकारी व्यवहार से तो उसको वध करने वाले ही कहे जाते हैं, और वधजन्य पाप भी उनको लगता ही है।
यूं हमारी मान्यता के आधार पर जड़ पदार्थ का हित होता नहीं है, फिर भी पदार्थ यथार्थदर्शन, कथन और प्रवर्तन से प्रभु उसके हित करने वाले कहलाते हैं।
वस्तु के यथार्थदर्शन के बिना उन वस्तु का हित नहीं हो सकता।
वीतराग परमात्मा जगत के तमाम पदार्थों का यथार्थ स्वरूप देखते हैं और देखकर जग के आगे वह पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन भी करते हैं और उस पदार्थ के साथ उचित वर्तन करते हुए वो उसमें राग द्वेष या पसंद नापसंद कर के कर्म बांध कर अपने आत्मा का अहित भी नहीं करते और उन सर्व वस्तु के प्रति औचित्यपूर्वक वर्तन करने के द्वारा अन्य का भी अहित नहीं करते।
*प्रश्नके उत्तर*
*26:10:20*
1️⃣भगवान केवलज्ञान द्वारापदार्थों को कैसे देखते हैं।
🅰️ भगवान केवल ज्ञान द्वारा जगतवर्ती सर्वप्रथम को जैसे है उसी तरह दिखते हैं।
2️⃣बच्चासंस्कारों को झेल नहीं सकते। फिर भी उन मां-बाप को बच्चे का क्या करने वालाकहा जाता है।
🅰️ हित करने वाले
3️⃣सम्यक प्ररूपणा*किसे कहते है
🅰️ जो वस्तु जैसी है ,उस वस्तु को वैसा ही कहना
4️⃣यथावस्थित दर्शन* किसे कहते है
🅰️ जो वस्तु जो स्वरूप में हो, उसी स्वरूप में उसको देखना
5️⃣मारे नहीं पर व्यवहार से वध करने की कोशिश करनेको वालों कोकौन सा पाप लगता है
🅰️ वधजन्य पाप
6️⃣धर्मास्तिकायादि अर्थात पुदगल आदि जड़ वस्तु का हित जैसा कुछ भी होता हैक्या?
🅰️ नहीं।
7️⃣वस्तु के --–-- के बिना उन वस्तु का हित नहीं हो सकता।
🅰️ यथार्थ।
8️⃣परमात्मा को कियाहुआ नमस्कार क्या प्रगट करने वाला बने।
🅰️ हम में भी सर्व के हित करने के सामर्थ्य प्रकट करने वाला बने।
9️⃣वर्तन का अर्थ क्या है
🅰️व्यवहार , स्थापना।
1️⃣0️⃣सर्व द्रव्यों के साथ ----- में उनका अहित ना हो उसी तरह वर्तन करते हैं।
🅰️भविष्य।
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*27:10:20*
*लोग-पईवाणं-*➡️-लोक में दीपक के समान ।
भव्य जीवों के हृदय रूपी सदन में रहे हुए मिथ्यात्व रूपी घोर अन्धकार का नाश करके, ज्ञान रूपी प्रकाश फैला कर सत्य ..; का, धर्म-अधर्म का यथार्थ स्वरूप प्रकट करने वाले भगवान ही सच्चे देश प्रदेशक दीपक हैं .
लोक के लिए प्रदीप तुल्य परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
यहां लोक शब्द से विशिष्ट संज्ञी ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवों को ही ग्रहण करना है।
परमात्मा की देशना सुन कर मिथ्यात्व रूपी अंधकार का नाश कर के सम्यकज्ञान का प्रकाश जो जीवों को हो सके ऐसे विशिष्ट सम्यकदृष्टि जीवों के लिए भगवान प्रदीप तुल्य है। अन्य के लिए नहीं।
क्योंकि ज्यूं चक्षु के बिना अंध आत्मा दीपक की सहाय से भी किसी भी वस्तु को यथार्थ स्वरूप में देख नहीं सकते उसी तरह सम्यकदर्शन के परिणाम के बिना जीव परमात्मा के वचन रूप प्रदीप से भी तत्व मार्ग को देख नहीं सकता है।
इसलिए कहा है कि यह ज्ञान के किरण को झेलने की शक्ति सम्यकदृष्टि में ही है। मिथ्यादृष्टि में नहीं है क्यों की मिथ्यादृष्टि भगवान के उपदेशात्मक वचन को सुनते हैं फिर भी वो उन वचनों के परमार्थ को समझ नहीं पाते। उन वचन में रहे हुए सूक्ष्म भाव उनके ध्यान में नहीं आते। इसलिए उनको भगवान प्रदीप तुल्य नहीं हो सकते। उसमें उन जीवों की योग्यता का अभाव ही कारण है, भगवान की शक्ति का अभाव कारणभूत नहीं है।
और एक आवश्यक बात यह है कि, अरिहंत परमात्मा के अतिरिक्त और कोई अन्य उपदेशक हो तो ऐसा हो सकता है कि छ्द्मस्थता के कारण, पुण्यप्रकाश के अभाव के कारण कोई जीव योग्य होने से भी उन उपदेशकों से बोधित नहीं हो पाते, अर्थात उन जीवों पर पूर्ण उपकार ना भी हो पाए।
परन्तु, प्रकृष्ठ पुण्य और केवलज्ञान के स्वामी भगवान के लिए ऐसा नहीं होता है।
अरिहंत परमात्मा केवल सम्यगदृष्टी जीवों के मार्ग को ही क्यों प्रकाशित कर पाते हैं।
क्यों मात्र सम्यकदृष्टि के लिए भगवान को प्रदीपतुल्य कहा और भगवान के वचन से जिनके मिथ्यात्व का नाश होना है ऐसे जीवों के लिए भगवान को प्रदीपतुल्य क्यों ना कहा?
शास्त्रकारों ने कहा है कि जब तक जीवन में मिथ्यात्व की उपस्थिति है तब तक भगवान के वचन को यथार्थ स्वरूप में समझने की शक्ति जीव में आती नहीं है।
ऐसे मंद मिथ्यात्वी जीव जब भगवान के वचन को सुनते हैं तब देशना से उनको ज्ञानचक्षु की प्राप्ति होती है।
प्राप्त हुए यह चक्षु से पदार्थ का स्थूलरूप दर्शन कर सकते हैं और इस तरह से पदार्थ के यथार्थ दर्शन से उनका मिथ्यात्व नष्ट होता है। तत्पश्चात ही उनमें सम्यकदर्शन गुण की प्राप्ति होती है और बाद में ही वे भगवान के वचन पर यथार्थ श्रद्धा कर सकते हैं और उनके वचनों के सूक्ष्म भावों को भी जान सकते हैं और तब ही ऐसे जीवों के लिए भगवान प्रदीप तुल्य बन सकते हैं। अन्यथा नहीं।
हे,लोकालोक प्रकाशक परमात्मा!!! आप को किया हुआ यह नमस्कार हम में सम्यकदर्शन गुण को प्रगटा कर हमको सम्यकमार्ग प्राप्त करने हेतू समर्थक हो।
*लोगपज़्ज़ोअगराणं*- लोक को प्रद्योत करने वाले
परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
लोक शब्द से यहां विशिष्ट बुद्धि के धारक गणधरपद के योग्य ऐसे विशिष्ट भव्य ही, ग्रहण करना है, समझना है। क्योंकि प्रकृष्ट रुप से प्रकाश करने का यह प्रद्योत है। अर्थात यह उत्कृष्ट ज्ञान के प्रकाश का स्रोत है, जो केवल गणधर भगवंत ही उनकी योग्यता के कारण ग्रहण कर सकते हैं। इस कारण से मात्र गणधरों के लिए ही परमात्मा प्रद्योतक है।
*प्रश्न केउत्तर*
*27:10:20*
1️⃣भगवान प्रदीप तुल्य किन के लिए नहीं।
🅰️ मिथ्यादृष्टि के लिऐ नहीं ।
2️⃣कौन भगवान के उपदेशात्मक वचन को सुनते हैं फिर भी वो उन वचनों के परमार्थ को समझ नहीं पाते
🅰️ मिथ्यादृष्टि जीव ।
3️⃣लोगपज़्ज़ोअगराणं का अर्थ
🅰️ लोक को प्रधोत करने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो ।
4️⃣विशिष्ट बुद्धि के धारक ----- के योग्य ऐसे ---- भव्य ही, ग्रहण करना है,
🅰️ गणधरपद के योग्य ऐसे विशिष भव्य ही,
5️⃣मात्र गणधरों के लिए ही परमात्मा क्या है।
🅰️ प्रधोतक है ।
6️⃣लोग-पईवाणं का अर्थ
🅰️ लोक में दीपक के समान ।
7️⃣क्या नष्ट होने के पश्चात ही उनमें सम्यकदर्शन गुण की प्राप्ति होती है
🅰️ मिथ्यात्व ।
8️⃣यह ज्ञान के किरण को झेलने की शक्ति किसमे है
🅰️ सम्यकदृष्टि में ही है।
9️⃣कौन से जीवों के लिए प्रदीपतुल्य हैं परमात्मा
🅰️ विशिष्ट सम्यगदृष्टि जिवों के लिए ।
1️⃣0️⃣अंध आत्मा किस की सहाय से भी किसी भी वस्तु को यथार्थ स्वरूप में देख नहीं सकते
🅰️ दीपक की सहाय ।
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*28:10:20*
*लोगपज्जोयगराणं*
लोगपज्जोयगराणं- जन्म के समय में तथा केवलज्ञान होने के बाद सूर्य के समान प्रकाशकर्त्ता होने से भगवान् ही सर्वप्रकाशक सच्चे सूर्य हैं।परंतु हम
परमात्मा को "सामान्य प्रकाश करने वाले" नहीं कह सकते ,वरन वे तो विशष्ट प्रकाशक है ,
परमात्मा ही त्रिपदी दाता है।
जब सभी गणधरों ने प्रभु महावीर सेप्रश्न किया
🙏🏻किं तत्वं तब
प्रभु महावीर ने उत्तर दिया
*"*उपन्नेइ* वा ,अर्थात सब उत्पन्न होता है |
*विगमेइ* वा,अर्थात नष्ट होता है |
*धुवेइ वा"* -अर्थात इस संसार की स्थिति निश्चल है |
धुर्व का अर्थ है ➡️ शाश्वत है सदा विधमान रहेगा
मतलब जो पैदा हुआ ,है वह नष्ट होगा पर ये संसार सदा था सदा रहेगा ।
14 पूर्व का ज्ञान दात्री
इस त्रिपदी द्वारा समस्त जगत का दर्शन करा सके ऐसे प्रबोधक महा प्रकाशक कहा गया है।
भगवान तो समस्त जगत के लिए ऐसा प्रकृष्ट प्रकाश करने वाले हैं।
लेकिन ये त्रिपदी बीज बुद्धि के मालिक गणधर के सिवा किसी की भी शक्ति नहीं है कि मात्र यह तीन पद को सुन कर विशिष्ट प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम द्वारा समस्त जगत को और जगतवर्ती पदार्थों को यथार्थ जान सके और जानकर मात्र एक ही अंतर्मुहूर्त में समस्त द्वादशांगी की रचना कर सके।
गणधर का उत्पाद व्यय ध्रौव्य का चक्र चलता रहता है
उत्पाद व्यय काअर्थ हैं➡️भिन्न भिन्न परिणामस्वरूप उतपन्न होना और नष्ट होना क्या है
ध्रौव्य काअर्थहै ➡️उस पदार्थ पर मनन चिंतन करना ध्रौव्य है
गणधर भगवंत ही इस तरह का, तीर्थंकर के प्रथम शिष्य होने का पुण्य लेकर आए हुए हैं। इसलिए भगवान के वचन उनके लिए विशिष्ट प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम रूप प्रद्योत को करने वाले बनते हैं।
यह पद बोलते हुए, जिनकी जैसी योग्यता है उनको उस तरह प्रमाणित करना है।
परम उपकारी परमात्मा के प्रति, अत्यंत पूज्य बुद्धि को धारण कर के हृदय को भावों से भिगोकर नमस्कार करना है और नमस्कार करते करते ऐसी प्रार्थना करनी है कि- लोकप्रद्योत हे नाथ !!!! आपको किया हुआ यह नमस्कार हम में ऐसी योग्यता को प्रगटाए कि जिससे आप हमारे लिए भी प्रद्योतक बन सको।
*अभयदयाणं का अर्थ अभय को देने वाले ।जीव के प्राणों की रक्षा होगी तो ही अन्य प्रकार के कार्य सम्पन्न हो सकेंगे। तो अरिहंतो से लोक के चर अचर
सभी को अभय मिलता है ,उनसे किसी को भी प्राण का
कोई खतरा नही ऐसे अभय देने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कारहो
धर्म साधना की शुरुआत चित्त की स्वस्थता से होती है। चित्त की स्वस्थता भय की निवृत्ति से होती है, और भय की निवृत्ति पूर्ण अभयभाव से रहे हुए परमात्मा के प्रति बहुमान से होती है। इस तरह अभय का परिणाम परमात्मा के प्रति बहुमान से होता है।
इस कारण अरिहंत परमात्मा को ही अभय को देने वाले कहते हैं।
यह पद द्वारा अभय को देने वाले परमात्मा को नमस्कार करने के लिए बतलाया गया है।
संसारवर्ती सर्व जीवों को सात प्रकार के भय निरंतर सताते रहते हैं। सभी जीव अधिक या आंशिक रूप से इन भयों से पीड़ित होते हैं। मात्रा, यद्यपि, उनके कर्म जनित परिणामों पर निर्भर है।
कर्म भारी तो भय भी भारी और उस भय के परिणाम भी भारी।
कर्म हल्के फुल्के हो तो भय भी साधारण मात्रा में और उसके परिणाम भी।
सात भय होते है,कल जानेंगे
*प्रश्न के उत्तर*
*28:10:20*
1️⃣विगमेइ काअर्थ क्या है
🅰️ अर्थात नष्ट होता है ।
2️⃣धुवेइ वा"काअर्थ क्या है
🅰️ अर्थात इस संसार की स्थिति निश्चल है ।
3️⃣ उपन्नेइ का अर्थ क्या है
🅰️ अर्थात सब उत्पन्न होता है ।
4️⃣किस की शक्ति है कि मात्र यह तीन पद को सुन कर विशिष्ट प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशमकर सके
🅰️ गणधर की ।
5️⃣ध्रौव्य काअर्थ क्याहै
🅰️ उस पदार्थ पर मनन चिंतन करना ध्रौव्य है ।
6️⃣गणधर का कौन सा चक्र चलता रहता है
🅰️ उत्पाद व्यय ध्रौव्य का चक्र चलता रहता है ।
7️⃣अभयदयाणंकाअर्थ क्याहै
🅰️ अभय को देने वाले ।
8️⃣भय कितने होते हैं
🅰️ सात प्रकार के ।
9️⃣परमात्मा को "सामान्य प्रकाश करने वाले" कह सकते है।
🅰️ नहीं कह सकते,वरन वे तो विशष्ट प्रकाशक है ।
1️⃣0️⃣14 पूर्व का ज्ञान दात्री कौन है
🅰️ भगवान के द्वारा प्रदत्त त्रिपदी
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*अध्याय*
29:10:20
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
भीति को भय कहते हैं। उदय में आये हुए जिन कर्म स्कंधों के द्वारा जीव के भय उत्पन्न होता है उनकी कारण में कार्य के उपचार से ‘भय’ यह संज्ञा है।
पर चक्र के आगमनादिका नाम भय है। अथवा जिस कर्म के उदय से जीव के सात प्रकार का भय उत्पन्न होता है, वह भय कर्म है।
यह सात भय इस प्रकार है,
1. इहलोकभय- समान जातिवाले से भय।भव में लोकों का डर रहता है कि ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड़ करेंगे,
मेरे इष्ट पदार्थ का वियोग न हो जाये और अनिष्ट पदार्थ का संयोग न हो जाये इस प्रकार इस जन्म में क्रंदन करने को इहलोक भय कहते हैं।
2. परलोकभय ➡️अन्य जातिवाले से भय।औऱपरभव में न मालूम क्या होगा ऐसा भय रहनापरभव में भावि पर्यायरूप अंश को धारण करने वाला आत्मा परलोक है और उस परलोक से जो कंपने के समान भय होता है, उसको परलोक भय कहते हैं।यदि स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा है, मेरा दुर्गति में जन्म न हो इत्यादि प्रकार से हृदय का आकुलित होना
वर्तमान पर्याय में भावी पर्याय से सम्बंधित भय का होना, सो परलोक भय है !
जैसे :- अगले जन्म में पता नहीं कौन सी गति मिलेगी, कहीं खोटी गति न मिल जाये, नरक में न जाना पड जाए, कष्ट न झेलने पड जाएँ आदि भाव परलोक भय के उदाहरण हैं !
- ज्ञानीजीव को पर-लोक का भय नहीं होता, क्यूंकि वह तो मानता है की उसकी पूंजी तो उसका ज्ञान और दर्शन गुण हैं ! जो इस लोक और परलोक में सदा उसके साथ ही रहने वाली है !
3. आदानभय- स्वयं का कुछ लूट जाने का भय।
मेरा कोई रक्षक, सहायक, मित्र, शरण नहीं है, संकट में मेरी रक्षा कैसे होगी, कहीं कुछ हो गया तो मुझे कौन बचाएगा ?, कहीं डाका ,चोरी ना होजाये ,कोई मुझे लूट ना ले इस प्रकार के भाव को- मेरे रहने का स्थान सुरक्षित नहीं है, मकान कमज़ोर है, कोई भी कभी भी आ सकता है ! कोई मज़बूत किला तो है नहीं ! कोई मेरे स्थान पर आ गया तो मेरा क्या होगा !
- ज्ञानी जन को यह भय नहीं वह मानते हैं कि किसी द्रव्य में किसी अन्य द्रव्य का प्रवेश ही नहीं हो सकता !
अतः सर्व द्रव्य स्वयं गुप्त हैं ! ऐसी उनकी प्रतीति रहती है !
4. अकस्मातभय- घर या बाहर, रात या दिन, कोई भी स्थल पर एकाएक अकस्मात् भयानक पदार्थ से प्राणी को जो भय उत्पन्न होता है दूसरा
संभव,असंभव जो आपत्तियां/विपदाएं/संकट होंगे अथवा नहीं भी होंगे, किन्तु उनकी कल्पना करके ही भयभीत होते रहने को "आकस्मिक भय" कहते हैं !
ज्ञानी जन को यह भय नहीं है, क्यूंकि वह "निजस्वरूप" को ही अपनी शरण मानते हैं, और वह तो सदा साथ ही है !
5. आजीविका भय- स्वयं की आजीविका का बंध या विक्षेप पड़ने का भय।इस लोक में मेरा जीवन कैसे गुजरेगा ! धन की आय का उपाय कम होता जा रहा हैं, ऐसे-ऐसे कानून बनते जा रहे हैं, जिससे संपत्ति का रहना कठिन हो रहा है, बुढ़ापे में क्या होगा, संतानें कैसी होंगी आदि भाव इहलोक भय के उदाहरण हैं !
- ज्ञानीजीव को इस-लोक का भय नहीं होता, क्यूंकि वह तो अपनी आत्मा को ही लोक समझता है, उसमे पर का प्रवेश नहीं !!!
6. मरण भय- मृत्यु का भय।
मैं जीवित रहूँ, कभी मेरा मरण न हो, अथवा दैवयोग से कभी मृत्यु न हो, इस प्रकार शरीर के नाश के विषय में जो चिंता होती है, वह मृत्युभय कहलाता है।
- मरण समान भय कोई अन्य नहीं !
-किन्तु ज्ञानी पुरुष मानते हैं कि "मेरे प्राण तो ज्ञान और दर्शन हैं" जिनका वियोग कभी हो नहीं सकता ! अतः मेरा मरण होता ही नहीं है !
7. अपयश भय- स्वयं की की हुई कोई प्रवृत्ति से अपयश के भोग बनने का भय।
ज्ञानी जीव मानते हैं कि
जो-जो, जब-जब, जैसे-जैसे, जहाँ-जहाँ, जिस-जिस के द्वारा होना है, वो-वो, तब-तब, वैसे-वैसे, वहां-वहां, उस-उस के द्वारा होकर ही रहेगा ! तो भय किस बात का ?
- जहाँ भय का भाव रहेगा, वहां ज्ञान का अभाव रहेगा ! इसलिए यह भय त्याज्य है !
- नमन है परम शुद्ध ज्ञान की उस अवस्था को जिसमे भय का लोप हो जाता है !
परमात्मा हमें सर्व प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।
कोई जीवों को यह सभी भय, व्यक्त रूप से सताते हैं, तो कई जीवो को पुण्य के उदयकाल में भय अव्यक्त रूप से रहे होते हैं।
जब तक कोई भी प्रकार के भय का परिणाम होता है तब तक चित्त स्वस्थ् नहीं होता है। जब भय से मुक्त हो कर जीव आंशिक भी अभयभाव को पाता है तब ही अनादि संसार में प्रथम बार उसको स्वस्थता का अनुभव होता है।
चित्त की यह स्वस्थता ही मोक्षसाधक धर्म की शुरुआत है।
*भवनिर्वेद ही भगवद् बहुमान*
भवनिर्वेद रूप भगवद् बहुमान के परिणाम द्वारा मोहनीय कर्म मंद होने से प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रकार से प्राप्त हुए भगवान के वचन के आधार से जीव को संसार की वास्तविकता का भान होता है।
यह सत्य का स्वीकार ही चित्त की यह स्वस्थता का कारण है।
जन्म से जूडी हुयी मृत्यु, संयोग से जुड़ा हुआ वियोग, सम्पत्ति के कारण आती हुई विपत्ति, आदि के विचार करते करते ये संसार असार लगता है। इस तरह से संसार पर नीरसता आ जाती है। संसार पर आयी ये नीरसता ही भवनिर्वेद का परिणाम है। और यह नीरसता ही वीतराग के प्रति बहुमान का कारण बनता है।
जब तक संसार के प्रति राग तीव्र होता है तब तक संसार से पूर्णतया विपरीत भाव में रहे हुए भगवान के प्रति जीव को बहुमान नहीं हो सकता। लेकिन संसार की वास्तविकता का विचार करते करते जब भव का राग थोड़ा धटता है और आत्मा के ऊपर लक्ष्य बंधता है तब ही आत्मा के महासुख को पाए हुए भगवान के ऊपर बहुमान का परिणाम आता है। और इससे ही भगवान के वचनों का यत्किंचित विचार आ सकता है।
*प्रश्न के उत्तर*
*29:10:20*
1️⃣भवनिर्वेद का परिणाम क्या है।
🅰️ संसार पर नीरसता आ जाती है। संसार पर आयी ये नीरसता ही भवनिर्वेद का परिणाम है ।
2️⃣अपयश भय क्या है
🅰️ स्वयं की की हुई कोई प्रवृत्ति से अपयश के भोग बनने का भय।
3️⃣स्वयं का कुछ लूट जाने का भय कौन सा भय हैं
🅰️ आदन भय ।
4️⃣अगले जन्म में पता नहीं कौन सी गति मिलेगी,ये कौन सा भय है
🅰️ परलोकभय ।
5️⃣भीति को क्या कहते हैं
🅰️ भीति को भय कहते है।
6️⃣चित्त स्वस्थ् कब तक नहीं होता है।
🅰️जब तक कोई भी प्रकार के भय का परिणाम होता है तब तक चित्त स्वस्थ् नहीं होता ।
7️⃣ज्ञानीजीव किसको ही अपना लोक समझता है
🅰️ अपनी आत्मा को ।
8️⃣समान जातिवाले से भय कौन सा भय है
🅰️ इहलोकभय ।
9️⃣इस लोक में मेरा जीवन कैसे गुजरेगा ये कौन सा भय हैं।
🅰️ आजीविका भय ।
1️⃣0️⃣ किन्तु उनकी कल्पना करके ही भयभीत होते रहने को कौन सा भय कहते हैं।
🅰️ "आकस्मिक भय" कहते हैं ।
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*नमुत्थुणं सूत्र व अर्थ*
*30:10:20*
अभयदयाणं --अभय को देने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार हो।
अरिहंत परमात्मा हमें सर्व प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।
भगवान के वचनों पर विचार करने से हमें ये समझ में आता है कि संसार में जो भी सुख दुख प्राप्त हुआ है वह मेरे कर्मों के अनुसार ही है।
मेरे कर्म के सिवा इस जगत में मुझे कोई सुख या दुख करने वाले नहीं है।
मृत्यु भी शरीर का होता है मेरा नहीं।
मैं तो आत्मा हूं और आत्मा तो अमर है।
यश, अपयश, संपत्ति विपत्ति, यह सर्व भाव कर्माधीन होते हैं।
कर्मकृत इन भावों से मुझे किसी भी प्रकार का दुख या उदासीनता होने की आवश्यकता नहीं है।
कर्म का नाश होते ही यह सुख दुःख के भाव भी जरूर नाश होते हैं।
ऐसे विचार करते-करते जीव भयरहित स्वस्थता का अनुभव कर सकता है।
ऐसे मार्मिक चिंतन से अवश्य ही दुख व ग्लानि के भावों का अंत होता है।
ऐसे सम्यक चिंतनमें आत्मा के भगवद बहूमान में वृद्धि होती है। जिससे जीव आंशिक चित्त की स्वस्थता प्राप्त करता है, जिसमें उत्तरोत्तर उन्नति होती है।
चित्त की यह स्वस्थता, वो द्युति है, आत्मबल है। और यह द्युतिअर्थात आत्मबल
से ही जीव सच्चे सुख के मार्ग की शोध कर सकते हैं।
सुख की खोज के लिए जो सकारात्मकता की मानसिकता आवश्यक है वो इस आत्मा के वीर्य द्वारा प्राप्त चित्त की स्वस्थता से ही संभव है।
वरना, भयभीत अवस्था चित्त को स्वस्थ नहीं रख सकती है और परिणाम स्वरूप आत्मबल की न्यूनता से नकारात्मक हो कर जीव सच्चे सुख के मार्ग का पथिक बन ही नहीं सकता।
विचार करें कि हम वन में हैं।
वहां जंगली पशुओं के भय से कांप रहे हैं, रोंगटे खडे कर देने वाली आवाज़ें निरंतर सुनाई दे रही है, व्यंतरों का अट्टहास जहां दिखाई दे रहा है, चोर डाकूओं का जहां सतत भय है, ऐसे जंगल से गुजरते हुए मुसाफिर का मन अत्यंत आकुल व्याकुल और भयभीत होता है। उसके घबराहट का पार नहीं होता।
ऐसे समय में कोई शक्तिशाली परोपकारी पुरुष के अचानक दर्शन होते हैं तब हमको अनहद(जिसकी सीमा ना हो,असीम)
आनंद व शांति की अनुभूति होती है। भय कम हो जाता है और हमको ऐसा लगता है कि अब कोई चिंता नहीं है। यह पुरुष के सहारे में जंगल निर्भय हो कर पार कर सकूंगा।
इसी तरह से सात भय से निरंतर भयभीत संसारी आत्मा भी जब अभय भाव में रहे हुए अचिंत्य शक्तियुक्त (असीम शक्ति ,हमारी सोच से परे अत्यधिक शक्ति)और परहित में रत परमात्मा के दर्शन करते हैं, बहुमान पूर्वक उनके वचनों का विचार करते हैं तब उसका मन भी स्वस्थ होता है। भय कम होता है और धुती(आलोक, ) की प्राप्ति होती है, और धृतिपूर्वक(दृढ़ता पूर्वक) भगवान के वचन पर अवलंबित प्रवृत्ति करते हुए भयावह संसार में से निकलने का मार्ग भी उसको मिल सकता है।
भगवान अभय भाव को पा चूके हैं।l सर्वश्रेष्ठ गुण के स्वामी है और अचिंत्य शक्ति से युक्त है और परमहीत में रत है। इसलिए ही भगवान के निमित्त से सर्व को अभय भाव की प्राप्ति होती है इसलिए ही भगवान अभय आदि को देने वाले हैं ऐसा कहना योग्य है।
सामान्य केवली या गुरु से कवचित अभय भाव की प्राप्ति होती है लेकिन वह अंत में तो अरिहंत के द्वारा ही प्राप्त हुई होती है। क्योंकि गुर्वादि भी जो अभयप्राप्ति का मार्ग बतलाते हैं वह स्वयं नहीं बताते अपितु भगवान के वचन को ही बतलाते हैं। इसलिए अपने भाव में रहे हुए परमात्मा का आलंबन ही एक ऐसा है कि जो जीव को संपूर्ण निर्भय बना सकता है।
अभयदाता परमात्मा को नमस्कार करते हुए प्रभु के पास प्रार्थना करनी है कि-
सर्व जीवों को अभय देने वाले हे प्रभु!!! निरंतर भय से घीरे हुए मुझको भी आप भय से मुक्त कर के सर्व प्रकार से निर्भय बना दो।
*प्रश्न के उत्तर*
*30:10:20*
1️⃣चित्त की यह स्वस्थता, वो द्युति क्या है,
🅰️ आत्मबल है ।
2️⃣कर्म का नाश होते ही किसका नाश होता हैं
🅰️ सुख दुःख के भाव का ।
3️⃣सर्वश्रेष्ठ गुण के ---हैंऔर ------- से युक्त है
🅰️ स्वामी है और अचिंत्य शक्ति युक्त है ।
4️⃣मृत्यु किसकी होती है
🅰️ शरीर की होती है ।
5️⃣भगवान कौन भाव को पा चूके हैं।l
🅰️ अभय भाव को ।
6️⃣ऐसे समय(भयावह ) में कोई शक्तिशाली परोपकारी पुरुष के अचानक दर्शन होते हैं तब हमको किसकी अनुभूतिहोती हैं
🅰️ हमको आनंद और शांति की अनुभूति होती है ।
7️⃣कौन सी अवस्था चित्त को स्वस्थ नहीं रख सकती है
🅰️ भयभीत अवस्था ।
8️⃣ऐसे सम्यक चिंतनमें आत्मा में किसकी वृद्धि होती
🅰️ भगवद बहूमान मे ।
9️⃣यश, अपयश, संपत्ति विपत्ति, यह सर्व भाव किस के अधीन होते हैं।
🅰️ कर्माधीन होते है ।
1️⃣0️⃣संसार में जो भी सुख दुख प्राप्त हुआ है वह किसके अनुसार ही है।
🅰️ वह मेरे कर्मों के अनुसार है ।
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*इस no पर भेजे* ⤵️
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*शक्र स्तव का अर्थ*
*31:10:20*
*चक्खुदयाणं**-चक्षु प्रदान करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
भगवान चक्षु दाता है।
दुनिया के स्वरूप को, पदार्थ को देखने वाले साधन को चक्षु कहते हैं। सामान्य से यह चक्षु द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
परन्तु यहां चक्खुदयाणं का भावार्थ यह है कि, भगवान ने यह दोनों चक्षु से भिन्न एक विशिष्ट चक्षु का दान हमको दिया है।
यह चक्षु यानी मोहनियकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुए तत्वश्रद्धारूप आत्मा का परिणाम।
श्रद्धा अर्थात तत्व की रूचि, अर्थात धर्म करने का परिणाम।
अभय की प्राप्ति से साधक आत्मा का चित्त स्वस्थ होता है। और उसके कारण वो आत्मा कदर्थना( बुरी दशा) भरे संसार को पहचान सकती है।
यह संसार से भिन्न कोई और भी सुख का रास्ता है, वो जानने की इच्छा होती है। बार बार विचार करने से उसको ज्ञात होता है कि कषाय से युक्त मेरे परिणाम से ही मैं दुखी हूं। और कषाय रहित शुद्ध परिणाम ही मेरे सुख का कारण
अब जानते है *कषाय* क्या होता है⤵️
जो आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराती है, वह कषाय कहलाती है, ऐसी कषाय कितनी होती हैं, उनका स्वरूप क्या है, उनका फल क्या है आदि का वर्णन इस अध्याय में है।
प्रश्न 1. कषाय किसे कहते हैं ?
जो आत्मा के चारित्र गुण का घात करे, उसे कषाय कहते हैं।
कषाय शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। ‘कष+आय'। कष का अर्थ संसार है क्योंकि इसमें प्राणी अनेक दु:खों के द्वारा कष्ट पाते हैं और आय का अर्थ है ‘लाभ'। इस प्रकार कषाय का अर्थ हुआ कि जिसके द्वारा संसार की प्राप्ति हो, वह कषाय है।
आत्मा के भीतरी कलुष परिणामों को कषाय कहते हैं, इनके द्वारा जीव चारों गतियों में परिभ्रमण करता हुआ दु:ख प्राप्त करता है। कषाय चुम्बक के समान है, जिसके द्वारा कर्म चिपक जाते हैं।
प्रश्न 2. कौन-सी गति में जीव के उत्पन्न होते समय कषाय कौन सी रहती है ?
नरकगति में उत्पन्न जीवों के में प्रथम समय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का उदय, तिर्यञ्चगति में माया का उदय और देवगति में लोभ का उदय नियम से रहता है तथा इन गतियों में इन्हीं कषायों की बहुलता रहती है, किन्तु स्त्रियों में माया कषाय की बहुलता रहती है।
3. कषाय कितने प्रकार की होती हैं ?
कषाय सामान्य से चार प्रकार की होती हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ।
क्रोध आदि आत्मा का स्वभाव नहीं विभाव है,ये विजातीय तत्व हैं।फिर भी आत्मा के साथ पूर्ण रूप से लिप्त होकर आत्मा का अभिन्नअंग बन गये है, कषायों की तीव्रता मंदता के आधार पर क्रोध, मान, माया, लोभ। इनके चार चार भेद किये हैं ।और इनके आधार पर
सब भेदों को मिला कर 16 भेद
होते है
1️⃣ *अनन्तानुबन्धी* क्रोध मान, माया, लोभ।
2️⃣ *अप्रत्याख्यानावरण* क्रोध, मान, माया, लोभ ।
3️⃣ *प्रत्याख्यानावरण* क्रोध, मान, माया, लोभ एवं
4️⃣ *संज्वलन क्रोध*, मान, माया, लोभ।
1️⃣. *अनन्तानुबन्धी*➡️
अनन्त भवों को बाँधना ही जिसका स्वभाव है, वह अनन्तानुबन्धी कषाय कहलाती है। यह कषाय सम्यक्त्व और चारित्र दोनों का ही घात करती है।
*क्रोध* ➡️ पत्थर की रेखा के समान
*मान* ➡️पत्थर के स्तम्भ के समान
*माया* ➡️बांस की जड़ के समान
*लोभ* ➡️कृमि रेशम के रंग के समान
2️⃣. *अप्रत्याख्यानावरण कषाय* ➡️
जो थोड़ा कम घात करती है,
इसका अनुबंध कुछ शिथिल होता है वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है।
*क्रोध*➡️भूमि की रेखा के समान
*मान*➡️अस्थि के स्तम्भ के समान
*माया* ➡️मेंढे के सींग के समान
*लोभ*➡️कीचड के रंग के समान
3️⃣. *प्रत्याख्यानावरण कषाय*➡️ किसे कहते हैं ?
जो औऱ भी हल्का अनुबंध होता है।
क्रोध➡️बालू की रेखा के समान
मान➡️काष्ठ के स्तम्भ के समान
माया ➡️चलते बैल के मूत्रकी धारा के समान
लोभ➡️गाड़ी के खँजनके समान
4️⃣ *संज्वलन कषाय* ➡️ये सबसे हल्का अनुबंध है
इसमें कषाय का अस्तित्व तो है पर कषाय की सत्ता डांवाडोल रहती हैं
जिस कषाय के रहते सकल संयम तो रहता है किन्तु यथाख्यात संयम प्रकट नहीं हो पाता है, वह संज्वलन कषाय है।
क्रोध➡️जल की रेखा के समान
मान➡️लता के स्तम्भ के समान
माया ➡️छिलते हुवे बांस की छाल के समान
लोभ➡️हल्दी के रंग के समान
*अनंतानुबंधी क्रोध* पत्थर की लकीर के समान है सामान्यतः पत्थर में रेखा दरार होती नहीं और हो जाने के बाद व सहज रूप से मिटती नहीं इसी प्रकार अनंतानुबंधी क्रोध गहरी पकड़ के रूप में होता है क्रोध की उत्पत्ति के निमित्त समाप्त हो जाने पर व्यक्ति शांत नहीं होता उसका मन आग की भांति धधकता रहता है। उसको उसके चारों और उत्तेजना का वलय निर्मित हो जाता है पत्थर की रेखा को मिटाने के लिए उसे छैनी से तराशने की अपेक्षा रहती है ।इसी प्रकार अनंतानुबंधीक्रोध की क्षान्ति रूपी क्षेनी से तराशने पर ही उसअनंतानुबंधी प्रभाव क्षीण हो सकता है
*अनंतानुबंधी *मान* पत्थर के स्तंभ के समान है लकड़ी का खंबा इधर-उधर हो सकता है पर पत्थर के खंभों को झुकाना प्रयत्न साध्य भी नहीं है और वह टूट जाता है पर झुकता नहीं है इसी प्रकार अनंतानुबंधी
मान रखने वाले व्यक्ति किसी भी परिस्थिति के साथ समझौता नहीं कर सकता मृदुता का विकास ही इस स्थिति का समाधान है *अनंतानुबंधी माया* बांस की जड़ के समान है बांस की जड़ इतनी वक्र होती है कि वह टेढ़ापन के अतिरिक्त कुछ होता ही नहीं ऐसी माया व्यक्ति को धूर्तता के शिखर पर पहुंचा देती है इसे प्रतिहत करने के लिए ऋजुता काअभ्यास आवश्यक है।
अनंतानुबंधी लोभ कृमि रेशम के समान है इसका रंग दिन दिन गहरा होता जाता है अन्य रंग प्रयत्न करने पर उतर जाते हैं मंजिष्ठ का रंग पक्का होता है कृमि रेशम उससे भी अधिक पक्के रंग वाला होता है अनंतानुबंधी लोभ का प्रभाव भी संतोष रूपी रंग काट के द्वारा समाप्त हो सकता है।
बाकि कल
*प्रश्न के उत्तर*
*31:10:20*
1️⃣कषाय किसे कहते हैं ?
🅰️जो आत्मा के चारित्र गुण का घात करें उसे कषाय कहते हैं
2️⃣सामान्य से यह चक्षु के भेद कितने औऱ कौन कौन से हैं।
🅰️दो प्रकार के,द्रव्य और भाव
3️⃣लता के स्तम्भ के समान कौन है
🅰️संज्वलन मान कषाय
4️⃣अनन्त भवों को बाँधना ही जिसका स्वभाव है, वह क्या कहलाती है
🅰️अनन्तानुबंधी कषाय
5️⃣सब भेदों को मिला कर कितनेभेद होते है।
🅰️16भेद
6️⃣नरकगति में उत्पन्न जीवों के में प्रथम समय में किसका का उदय,होता हैं
🅰️क्रोध का उदय होता है
7️⃣कृमि रेशम के रंग के समान कौन सा लोभ होता है
🅰️अनन्तानुबंधी लोभ
8️⃣पत्थर की रेखा को मिटाने के लिए किसकी अपेक्षा रहती है।
🅰️छैनी से तराशने की अपेक्षा रहती है
9️⃣सबसे हल्का अनुबंध किस कषाय में होता है
🅰️संज्वलन कषाय
1️⃣0️⃣हल्दी के रंग के समान कौनसा लोभ होता है
🅰️संज्वलन लोभ
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*कषाय*
*अध्याय*
*2:11:20*
अप्रत्याख्यान कषाय अनंतानुबन्धी से कुछ हल्का होता है इसकी तुलना क्रमशः भूमि की रेखा अस्थि के स्तम्भ मेंढे के सींग और कीचड़ के रंग से की गई है कड़ी भूमि में पड़ी हुई दरार को सामान्यता मिटाना कठिन है। हवा उसे भर नहीं सकती किंतु वर्षा के योग से भूमि में नमी का प्रवेश होता है यह रेखा सम हो जाती है।
उसी प्रकार अस्थि स्तंभ भी पत्थर केस्तम्भ से कुछ लचीला होता है विशेष प्रयत्न के द्वारा इसे इधर से उधर मोड़ा जा सकता है।
अप्रत्याख्यान माया मेंढे के सींग
के समान है,मेंढे के सींग में बांस के जड़ जितनी वक्रता नहीं होती फिर भी वह काफी टेढ़ा होता रहता है अप्रत्याख्यान लोभ कीचड़ के रंग जैसा है वस्त्र में कीचड़ के धब्बे लग जाए तो वह सहजता से नहीं छूटते इसी प्रकार आत्मा पर लगे हुएअप्रत्याख्यान लोभके धब्बे उसे कलुषित बनाए रखते हैं
प्रत्याख्यान कषाय चतुष्क बालू
की रेखा, काठ के स्तंभ, चलते हुए बैल के मूत्र की धारा और गाड़ी के खंजन के समान है बालू की रेखा साधारण सी हवा से मिट जाती है काष्ठ स्तंभ को प्रयत्न से झुकाया जा सकता है चलते हुए बैल कि मूत्र धारा टेढ़ी-मेढ़ी होने पर भी उलझी हुई नहीं होती गाड़ी का खंजन वस्त्र को विद्रूप बनाता है, फिर भी वह केरोसिन आदि तेल के प्रयोग से जल्दी ही साफ हो जाता है इसी प्रकार प्रत्याख्यान क्रोध मान माया और लोभ भी क्षमा आदि की साधना से काफी हल्के हो जाते हैं।
संज्वलन क्रोध मान माया लोभ क्रमशः जल की रेखा के समान लता स्तंभ के समान खिलते हुए बांस की छाल के समान और हल्दी के रंग के समान है पानी की रेखा क्षणिक होती है वह अपने अस्तित्व को टिका कर रखी नहीं सकती ,लता स्तंभ में कड़ापन नाम का कोई तत्व होता ही नहींछिलते हुए बांस की छाल टेढ़ी होती है पर वह सरलता से सीधी हो जाती है हल्दी का रंग वस्त्र पर चढ़ता है पर धूप दिखाते ही वह उड़ जाता है इसी प्रकार संज्वलन
क्रोध मान माया लोभ व्यक्ति को समय और परिणाम दोनों दृष्टिओं से बहुत कम प्रभावित कर पाते हैं।
*कषाय के होने वाले अभिघात के चार प्रकार*
*1अनन्तानुबन्धी चतुष्क से सम्यक्त्व का अभिघात*
*2 अप्रत्याख्यान चतुष्क से देशव्रत अभिघात*
*3प्रत्याख्यान चतुष्क से महाव्रत का अभिघात*
*4 संज्वलन चतुष्क से यथाख्यात चरित्र का अभिघात*
जीव की आदी नहीं है, कषाय की भी आदी नहीं है वह अनादिकाल से जीव के साथ जुड़ा हुआ है। जीव को संसार में परिभ्रमण कराने वाला भी वही है, जब तक कषायका अस्तित्व रहता है जन्म और मृत्यु कीश्रृंखला का अंत नहीं होता, वह निर्विवाद तथ्य है पर प्रश्न यह है, कि कषाय केवल मोक्ष का ही बाधक है, या अन्य किसी तत्व का अभिघात करता है कषाय के उदय से व्यक्ति व्यवहारिक जीवन में भी असफल रहता है या उससे आत्म गुणों का भी घात होता है
शेष कल
*प्रश्नके उत्तर*
*2 :11:20*
1️⃣कषाय के होने वाले अभिघातमें दूसरा नम्बर पर कौनसा है
🅰️अप्रत्याख्यान चतुष्क से देशव्रत अभिघात
2️⃣क्याअनादिकाल से जीव के साथ जुड़ा हुआ है
🅰️कषाय के साथ
3️⃣अप्रत्याख्यान माया किसके समान है
🅰️मेंढे के सिंग के समान
4️⃣वर्षा के योग से भूमि में किसका प्रवेश होता है
🅰️नमी का प्रवेश होता हैं
5️⃣साधारण सी हवा से क्या मिट जाती है
🅰️बालु की रेखा
6️⃣वस्त्र को विद्रूप कौन बनाता है
🅰️गाडी का खंजन
7️⃣सरलता से कौन सीधी हो जाती
🅰️बांस की छाल
8️⃣अस्थि स्तंभ किससे कुछ लचीला होता है
🅰️पत्थर के स्तम्भ से
9️⃣आत्मा पर लगे हुए किसके धब्बे उसे कलुषित बनाए रखते हैं
🅰️अप्प्रत्याख्यान लोभ के
1️⃣0️⃣अप्रत्याख्यान कषाय किससे कुछ हल्का होता है
🅰️अनन्तानुबंधी कषाय से
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*कषाय*
*3:11:20*
आत्मा के दो विशेष गुण है सम्यकत्व और चारित्र
सम्यकत्व का अर्थ है सही दृष्टिकोण और चारित्र का अर्थ है आत्म संयम यह 2 गुण ऐसे हैं जिनके द्वारा जीव अपने मूल स्वभाव को प्राप्त कर सकता है जीव एक शुद्ध बुद्ध और आनंदमय तत्व है क्रोध मान माया और लोभ यह चार कषाय हैंउसको विकृत बना देते हैं। आत्मा की विकृति जितनी अधिक है, आत्म गुणों का प्रतिघात उतनी मात्रा में होता है कषाय की मंदता और तीव्रता के आधार पर अभिघात के भी चार प्रकार हैं।
कल हमनें नाम जानें
कषाय के होने वाले अभिघात के चार प्रकार* की संक्षिप्तव्याख्या जानते है
*1अनन्तानुबन्धी चतुष्क से सम्यक्त्व का अभिघात* होता है सम्यक्तव काअभिघात होने से आत्मा परमात्मा धर्म साधना आदि के संबंध में दृष्टि विपर्यय हो जाता है, जो तत्व सही है उसके बारे में धारणा गलत बन जाती है, जिस प्रकार हरा और पीला चश्मा लगाने से किसी भी रंग का पदार्थ हरा और पीला दिखाई देता है वैसे ही सम्यक्त्व के अभाव में व्यक्ति की तत्व श्रद्धा विपरीत हो जाती है
*2 अप्रत्याख्यान चतुष्क से देशव्रत अभिघात*
देश व्रत का अभिघात होने से व्यक्ति गलत तत्व को गलत समझने पर भी उसे छोड़ने के लिए संकल्पबद्ध नहीं हो सकता उसकीज्ञान परिज्ञा विकसित रहती है, किंतु प्रतियाख्यान परिज्ञा जागनहीं पाती
*3प्रत्याख्यान चतुष्क से महाव्रत का अभिघात*
महाव्रत का अभिघात होने से व्यक्ति अपने संकल्प को पूर्णता के बिंदु तक नहीं ले जा सकता है उसकी व्रत चेतना खंडश विकसित होती है, इसीलिए वह आंशिक रूप से व्रत स्वीकार करता है पर महाव्रत की साधना नहीं कर सकता
*4 संज्वलन चतुष्क से यथाख्यात चरित्र का अभिघात*
यथाख्यात चरित्र का अभिघात* होने से व्यक्ति वीतराग नहीं बन सकता वीतराग का हर आध्यात्मनिष्ठ व्यक्ति का लक्ष्य होता है पर वह तब तक उपलब्ध नहीं हो सकती जब तक संज्वलन कषाय का उदय रहता है।
यह चारों ही अभिघात आत्म गुणों के विकास में बाधक है अतः विशेष पुरुषार्थ के द्वारा कषाय चतुष्टयी को क्षीण करने का प्रयत्न होना बहुतआवश्यक है।
नो कषाय के नौ भेद है
1 हास्य 2 रति 3आरति
4 भय 5 शोक 6 जुगुप्सा
7, स्त्री वेद 8 पुरूष वेद
9 नपुंसक वेद
कषाय के 16 भेदो और उनके उदाहरणों को समझने के बाद नो कषाय को समझना भी जरूरी है सामान्यतः नो शब्द निषेध का वाचक होता है किंतु यहां यह सादृश्य( बराबरी, तुलना।) का वाचक है नो कषाय कषाय को उत्तेजना देने वाला है, इसीलिए यह कषाय का ही प्रतिरूप है वह कुछ हल्का है अतः उसके लिए दूसरे शब्द का प्रयोग किया है हास्य रति अरति भय शोक जुगुप्सा स्त्रीवेद व पुरुष वेद और नपुंसक वेद यह नोकषाय के नौ प्रकार है।
इसमें पहला है हास्य- हास्य दो प्रकार का होता है स्मित, औऱ अट्टहास।
स्मित से कषाय को
सहारा नहीं मिलता इसीलिए वह हेय नहीं है, अट्टहास आगे चलकर कषाय में परिणित हो सकता है ,कौरवों और पांडवों के बीच हुआ महाभारत हास्य की ही तो परिणीति था यदि द्रौपदी कौरवों का उपहास नहीं करती तो संभवतः महाभारत नहीं होता।
रति और अरति ये दोनों विरोधी शब्द हैं | असंयम में असंयम के प्रति उदासीनता इसकी निष्पत्ति है। इससे चेतना की ऊर्जा का प्रवाह विपरीत दिशा में बहने लगता है | विपरीतगामी प्रवाह व्यक्ति को अशक्त बना देता है | इससे चैतसिक निर्मलता मलिनता में बदल जाती है |भय, शोक और जुगुप्सा भी कषाय की उत्पत्ति के हेतु हैं | जिसके कारण भय उत्पन होता है, उसके प्रति द्वेष होना अस्वाभाविक नहीं है । इसी प्रकार प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से व्यक्ति शोकविह्नल बन जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ही जुगुप्सा का बीजवपन होता है । ये तीनों तत्त्व आत्महित में बाधक हैं, इसलिए इन्हें भी समाप्त करने का प्रयत्न होना जरूरी है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद भी नोकषाय के प्रकार हैं । स्त्री की पुरुषाभिलाषा, पुरुष की स्त्री सम्बन्धी अभिलाषा और नपुंसक की उभयमुखी अभिलाषा वेद कहलाती है | ये मोह कर्म की प्रकृतियां हैं | इनके मूल राग-द्वेष मूलक वृत्तियों का प्रभाव है । इनके साथ में जब तक अशुभयोग जुड़े रहते हैं, वेद व्यक्त विकार के रूप में परिणत हो जाते हैं । सातवें गुणस्थान में अशुभयोग नहीं है, इस दृष्टि से वहां व्यक्त विकार भी नहीं है । वेद काअस्तित्व नौवें गुणस्थान तक है | कषाय की भांति नोकषाय भी वीतरागता की स्थिति में बाधक है | इसलिए विशेष साधना के द्वारा नोकषाय को क्षीण कर आत्मस्वरूप को प्राप्त किया जा सकता है |
*प्रश्न के उत्तर*
*3:11:20*
1️⃣आत्मा के दो विशेष गुण कौन कौन से है
🅰️सम्य्क्त्व और चारित्र
2️⃣सम्यक्त्व के अभाव में व्यक्ति की क्या विपरीत हो जाती है
🅰️तत्व श्रध्दा विपरीत हो जाती हैं
3️⃣सम्यकत्व का अर्थ क्या है
🅰️सही दृष्टिकोण
4️⃣नपुंसक की कौन सी अभिलाषा वेद कहलाती
🅰️उभयमुखी अभिलाषा
5️⃣कषाय की भांति कौनभी वीतरागता की स्थिति में बाधक है
🅰️नो कषाय
6️⃣कौन व्यक्ति को अशक्त बना देता है |
🅰️विपरीत गामी प्रवाह
7️⃣नो कषाय का सातवां वेद कौन सा है।
🅰️स्त्री वेद
8️⃣किसका अभिघात होने से व्यक्ति अपने संकल्प को पूर्णता के बिंदु तक नहीं ले जा सकता।
🅰️महाव्रत का अभिघात होने से
9️⃣किसकाअस्तित्व नौवें गुणस्थान तक है
🅰️वेद का अस्तित्व
1️⃣0️⃣व्यक्ति कब शोकविह्नल बन जाता है
🅰️प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से
*
*अध्याय*
*4:11:20*
शक्र स्तव का अर्थ
*चक्खुदयाणं-*-चक्षु प्रदान करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार हो।
यद्यपि, प्राथमिक कक्षा में आत्मा की ये भूमिका में अभी इतना सूक्ष्म बोध नही होता है। उसको सुख का रास्ता अभी स्पष्ट नहीं दिखाई देता है।
इसमें प्रगति तब होती है जब जीव भगवान के कृपा के पात्र बन कर, साधक बन कर इस विषय मे जब अधिक विचार करते हैं, तब तब मोहनीय कर्म का पटल भेदते जाते हैं। उसके कारण तत्व मार्ग का विशेष बोध प्राप्त होने लगता है।
सुख, इस मार्ग पर चलने से ही मिलता है ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है। यह श्रद्धा का परिणाम ही चक्षु है।
जिन चक्षु से तत्वश्रृद्धारूप आत्मा के परिणाम प्राप्त होते हैं। ऐसे चक्षु को प्रदान करने वाले अरिहंत परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
इन चक्षु रूप तत्व की श्रद्धा को पाने के विषय का हम कल से विवेचन देख रहे हैं।
तत्व की श्रद्धा रूपी परिणाम वो धर्म के प्रति रूचि का परिणाम है।
कषाय का नाश करने के द्वारा धर्म ही हमें सुख देगा ऐसी प्रतीति यह भूमिका में होती है। इसके कारण सुंदर धर्म करने वाले आत्मा को देखकर आनंद आता है। और उसकी प्रशंसा करने का मन होता है।
अपितु, यह श्रद्धा का परिणाम अब तक ऐसा तीव्र नहीं है कि जो तत्वदर्शन कराए फिर भी तत्व दर्शन का कारण बन सके ऐसा तो है ही।
जिस तरह शत्रुंजय पर्वत चढ़ते चढ़ते आदेश्वर दादा के दर्शन हो नहीं सकते फिर भी सरलता से पर्वत चढ़ने की शुरुआत करने वाले यात्रियों को श्रद्धा होती है कि अब थोड़े ही समय में दादा के दर्शन होंगे। उसी तरह चक्षुस्वरूप क्षयोपशम को पा कर जीव ने अब तक कोई उपशम सुख की अनुभूति नहीं कि, फिर भी "मैं अवश्य सुखी हो जाऊंगा" ऐसा उसको लगने लगता है। क्योंकि यहां उसको उपशम भाव स्वरूप मोक्ष का मार्ग दिखता है।
श्रद्धा रूप यह परिणाम प्राप्त होते ही यह आत्मा तत्वज्ञो के पास जाता है। तत्व विषयक अनेक प्रश्न पूछता है, तत्व प्राप्ति का कारण जानता है और आत्मा की शुद्धिरूप तत्व को प्राप्त करने के लिए अनुष्ठान की तैयारी करने वाले पुण्यशाली की औचित्य पूर्ण प्रशंसा करता है।
तत्पश्चात स्वयं भी अनेक शुभ अनुष्ठान करता है। ऐसी भूमिका में रहा हुआ जीव तत्व विषयक जिज्ञासा अधिक रखता है।इससे उसको अभय की भूमिका से ऊपर का एक विशेष बोध होता है।
उसके पूर्व भी जीव धर्म क्रिया तो करता है, परन्तु कषायों के उपशम से हुए आत्मिक सुख को पाने के लिए नहीं। इस कारण से उस धर्म से ये भूमिका प्राप्त धर्म भिन्न होता है।
अभय की प्राप्ति की तरह तत्व की श्रद्धा की प्राप्ति के कारणभूत यह चक्षु भी परमात्मा द्वारा ही प्राप्त होते हैं क्योंकि भगवान सर्वज्ञ वितराग है और केवलज्ञान रूप विशिष्ट चक्षु से वह सर्व पदार्थों को देख सकते हैं। ऐसे विशिष्ट चक्षु को धारण किये होते हैं इसलिए ही परमात्मा ये विशिष्टचक्षु प्रदान कर सकते हैं।
जिनके पास ऐसे चक्षु नहीं है वह दूसरों को ऐसे चक्षु दे भी नहीं सकते।
यद्यपि, धर्मरूचि रूप यह चक्षु काल, स्वभाव, भवितव्यता आदि की अपेक्षा रखता है। फिर भी भगवान की कृपा के बिना यह सब प्राप्त नहीं हो सकता। इस जगत में तत्वमार्ग का प्रकाश फैलाने का कार्य मात्र परमात्मा ने ही किया है। और उनकी कृपा के पात्र बने हुए जीव ही इस प्रकार से संसार को देख सकते हैं, अन्य कोई नहीं। इसलिए ही परम पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज साहेब ने अपने स्तवन में कहा है...
"काल, स्वभाव, भवितव्यता, ते सघळा तुज दासों रे,
मुख्य हेतु तू मोक्ष नो, मुज सबल विश्वासो रे..."
श्रद्धारूप चक्षु के बिना अंध बने जीव अनंत काल से इस संसार में भटकते हैं। अंत में जब वह परमात्मा की कृपा के पात्र बनते हैं तब ही उनको ऐसे विशिष्ट चक्षु की प्राप्ति होती है। बाद में उनको संसार में अधिक भटकना नहीं पड़ता।
यह पद बोलते हुए, कैवल्यचक्षु को पाए हुए परमात्मा को दृष्टि समक्ष रख कर साधक विचार करता है, कि श्रद्धारूप नेत्र के बिना मै अनंत काल से यहां से वहां भटकता, दुखी बनता आया हूं, तो चक्षुदाता
हे विभु!!!आप को किया हुआ यह नमस्कार मुझे श्रद्धारूप चक्षु के प्रदान में सहायक बने।
*प्रश्न के उत्तर*
*4:11:20*
1️⃣काल, स्वभाव, भवितव्यता, ते सघळा तुज दासों रे,ये किसने कहा है
🅰️ *उपाध्याय श्री यशो विजय जी* *महाराज साहेब*
2️⃣किसके बिना अंध बने जीव अनंत काल से इस संसार में भटकते हैं।
🅰️ *श्रद्धा रूप चक्षु के बिना*
3️⃣मोहनीय कर्म के क्या भेदते जाते हैं
🅰️ *मोहनिया कर्म के पटल*
4️⃣कौन सी कक्षा मेंआत्मा की ये भूमिका में अभी इतना सूक्ष्म बोध नही होता है।
🅰️ *प्राथमिक कक्षा*
5️⃣किसके करने वाले कीआत्मा को देखकर आनंद आता है।
🅰️ *सुंदर धर्म करने वाले आत्मा को*
6️⃣किसकी कृपा के पात्र बनते हैं तब ही उनको ऐसे विशिष्ट चक्षु की प्राप्ति होती है
🅰️ *परमात्मा द्वारा*
7️⃣परमात्मा क्या प्रदान कर सकते हैं।
🅰️ *विशिष्टचक्षु*
8️⃣किसका का परिणाम ही चक्षु है।
🅰️ *श्रद्धा का*
9️⃣ किसके विषयक अनेक प्रश्न पूछता है,
🅰️। *तत्व विषयक*
1️⃣0️⃣तत्पश्चात स्वयं भी अनेक क्या करता है।
🅰️ *अनेक शुभ अनुष्ठान करता है।*
*अध्याय*
*5:11:20*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
मग्गदयाणं --मार्ग को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
ये पद द्वारा सच्चे और यथार्थ मार्ग की प्राप्ति कराने वाले प्रभु को नमस्कार किया हुआ है।
यह अन्य कोई मार्ग नहीं परन्तु ये मार्ग मोक्ष नगर तक पँहुचाने वाली चित्त की सरल परिणीति है।
गाढ़ मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय के कारण अनादिकाल से जीव का चित्त वक्र चलता है। वक्र, अर्थात टेढ़ा। जीव के चित्त की अवस्था सही और यथार्थ मार्ग को छोड़, विपरीत दिशा में भटकने की ही होती है। जिससे, दुख का कारणभूत संसार जीव को अच्छा लगता है, संसार की निरर्थक सुख सामग्री अच्छी लगती है, और सुखकारक आत्मा और आत्मा के गुणों की जीव उपेक्षा करता है।
दुःखकारक वस्तु को सुखकारक मानना और सच्ची सुखकारक वस्तु की उपेक्षा करना वो ही चित्त की वक्रता है।
भव से विरक्त बना हुआ जीव, भगवान की कृपा के पात्र बनता है। भगवान की कृपा से निर्भय बना हुआ साधक का चित्त थोड़ा स्वस्थ बनता है। स्वस्थ चित्त से तत्व की (सच्चे सुख और उसके कारण की) विचारणा करते हुए प्राप्त हुए, कर्म के क्षयोपशम से तत्व की श्रद्धा प्रगटती है। और श्रद्धा के मार्ग में आगे बढ़कर सच्चा सुख का मार्ग मिलता है। सच्चा सुख का मार्ग वो ही चित्त का 'अवक्रगमन', अर्थात जीव का वक्रता से पलट जाना। उल्टे विपरीत मार्ग से पलट कर सीधी राह को पकड़ना।
सांप जिस तरह अपने बिल में शरीर घीस न जाए उस डर से टेढ़ी चाल को त्यज कर सीधा चलता है।
उसी तरह सरल और सीधा मार्ग मिलने से साधक आत्मा भी मिथ्यात्वजन्य कदाग्रह को, कुटिलताओं और कुमान्यताओं का त्याग कर के, जहाँ सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है, वही मार्ग पर चलना आरंभ करता है।
यह मार्ग पर चलते चलते जीव को सानुबंध मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है। सानुबंध अर्थात, जिस कर्म का क्षयोपशम नये कर्म का क्षयोपशम कराए वो कर्म। यही क्षयोपशम के कारण आगे बढ़े हुए जीव को सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होती है। इस कारण ही मार्गप्राप्ति के परिणाम को विशिष्ट गुणस्थान की प्राप्ति कराने वाला क्षयोपशम कहा है।
इस तरह प्राप्त हुआ ये मार्ग स्वरसवाही होता है। स्वरसवाही अर्थात स्वेच्छा से ही मोक्ष मार्ग में गमन कराने वाला। अथवा,
स्व यानी स्व का, और रस यानी गुण।
यहां सुख को प्राप्त कराने वाले अपने ज्ञानादि गुणों के तरफ का अभिगम प्रारंभ होता है। वरना तो मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का उदय, जीव को जहाँ सुख नहीं है, वहां सुख को मनवा कर दौड़ाता है।
दुःखस्वरूप, दुःखहेतू और दुःखफलक
(दुःखरुवे, दुःखफले, दुःखाणुबंधे-)येपंचसूत्र संसार को अच्छा मनवाता है। अच्छा मानकर उसमे आसक्ति उत्पन्न करता है। यही जीव की वक्रता है।
अभय और चक्षु की प्राप्ति के बाद, मोहनियकर्म का विशेष प्रकार से क्षयोपशम होने से जीव का बोध बलवान बनता है और तत्पश्चात इस बोध से ही सच्चे सुख के मार्ग की प्राप्ति होती है।
यह बलवान बोध यानी योग मार्ग की उच्चतम चोटी, उसकी प्राप्ति होती है।
पहले दो स्तर से यहां विवेक की मात्रा अधिक बढ़ जाती है।
यद्यपि इस उत्कृष्ट मार्ग की प्राप्ति के पहले भी जीव कदाचित धर्म तो करता ही है,
अपितु वो धर्म कोई आशंसा, सांसारिक अपेक्षा से या
विचारशून्यता से ही होता है। और संसार से परे ऐसे कोई तत्व के प्रति उसको रूचि होती नहीं है।
बाद जब इस सर्वोत्तम मार्ग की प्राप्ति होती है तभी उसकी धर्मक्रिया, आत्मशुद्धि या गुणप्राप्ति के यथार्थ प्रयत्न रूप बनती है।
यही चित्त की सरलता है।
ऐसे चित्त की सरलता प्राप्त होने से पहले गुणवान गुवॉदि का योग भी उसको सम्यगदर्शन का परिणाम उत्पन्न नहीं करा सकता। हां, वो पहले प्राप्त हुआ गुरु का उपदेश या शास्त्र अभ्यास, आदि अनादि से बाकी चाल का त्याग करने के बाद सच्चे मार्ग को प्राप्त करवाने का कारण अवश्य बन सकता है।
*अध्याय*
*6:11:20*
मग्गदयाणं --मार्ग को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
अरिहंत परमात्मा द्वारा प्राप्त विशेष धर्म मार्ग पर हम विवेचन देख रहे हैं।
पिछली बार हमने देखा के जीव का मार्ग किस तरह वक्र अर्थात टेढ़ा चलता रहता है और एक बार जब उसे चित की सरलता प्राप्त होती है तभी वह चित के अवक्रगमन रूप मार्ग का प्रवासी बनता है।
कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुआ, चित्त का अवक्रगमनरूप यह परिणाम भी परमात्मा के द्वारा ही हुआ है, ये निस्संदेह है।
परमात्मा को केवलज्ञान प्रगट हुआ है। वो संपूर्ण मार्ग को देखते हैं, और वीर्यान्तरायकर्म के सहयोग से उनको अनंत वीर्य प्राप्त हुआ है। उससे अत्यंत उचित प्रवृत्ति रूप मार्ग में ही उनका गमन होता है और वह परार्थ को करने वाले होते हैं।
परमात्मा में ऐसे विशिष्ट गुण रहे हुए हैं इसलिए उनको निमित्त से मार्ग की प्राप्ति हुइ होती है और इस तरह भगवान, मार्ग के दाता कहलाते हैं।
परोपकार का ये अरिहंत परमात्मा का गुण जीव के लिए अनंत उपकार का कारण बनता है, कल्याण का कारण बनता है। उनके द्वारा अर्पित इस मार्ग के अभाव में न तो आत्मा की कोई प्रगति उन्नति हो सकती है, न ही सुख की प्राप्ति और अंत में न ही मुक्ति की।
यह पद बोलते हुए, इस श्रेष्ठ मार्ग को पा कर मोक्ष में गए हुए परमात्मा को स्मृति में ला कर नमस्कार करते हुए प्रभु के पास प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!!अनादि काल से मार्ग को भूले हुए हमको आप मार्ग पर ला कर उस पर चलने का सामर्थ्य देना।
सरणदयाणं--शरण देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
शरण देना अर्थात रक्षण करना।
भय से पीड़ित आत्मा की सुरक्षा करना, उसको शांति मिले, वह निर्भय बने ऐसा करना, यह शरण है।
इस संसार में सच्चे अर्थ में शांति, सुरक्षा या निर्भयता तत्व चिंतन से ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए तत्व चिंतन ही सच में शरण है। आत्मादि तत्व के चिंतन बिना, उसकी विशेष प्रकार से विचारणा करे बिना कहीं भी शांति नहीं मिल सकती।
भववैराग्य से जब प्रभु के प्रति बहुमान का भाव प्रकट होता है, तब साधक आत्माओं का चित्त स्वस्थ बनता है। स्वस्थ चित्त से आत्मादि तत्व की जिज्ञासा होती है। उसमें एक श्रद्धा का परिणाम प्रगट होता है। तत्व की रूचिरुप श्रद्धा से चित्त की सरलतारूप मार्ग की प्राप्त होती है। मार्ग प्राप्त होने से कषायों के अभाव में ही वास्तविक सुख है, ऐसा ज्ञात होता है।
इन कारणों से बुद्धिमान जीवात्मा ये मार्ग विषयक गंभीर चिंतन करतें हैं। तत्व को विशेष और विशेष जानने की इच्छा रखते हैं। इस विशेष जानकारी की इच्छा को अन्य दर्शनकार विविदिषा कहते हैं। उससे ही अब तत्वश्रवण करने की उत्कंठा जगती है। सच्चे अर्थ में धर्मश्रवण की भूमिका यहां प्रगट होती है। तत्वचिंतन या धर्मश्रवण की यह भूमिका वो ही सच्चे अर्थ में शरण है। क्योंकि जीव को इससे ही वो सुख मिलना है जिससे उसके आत्मभाव की सुरक्षा होती है। ये सम्यकदर्शन आदि गुणों की प्राप्ति तत्व चिंतन से ही होती है।
विशेष रूप से तत्वचिंतन करने से अपनी आत्मा में तत्व संबंधी आठ गुण प्रगट होते हैं।
स्वरूप बुद्धि के 8 गुण।
*प्रश्न के उत्तर*
*6:11:20*
1️⃣शरण देना अर्थातक्या
🅰️सरणदयाणं/ रक्षण करना
2️⃣आत्मा में तत्व संबंधी कितने गुण प्रगट होते हैं।
🅰️आठ गुण
3️⃣किसके सहयोग से उनको अनंत वीर्य प्राप्त हुआ है।
🅰️वीर्यान्तराय कर्म के
4️⃣भगवान, किसके दाता कहलाते हैं।
🅰️मार्ग के दाता
5️⃣इस विशेष जानकारी की इच्छा को अन्य दर्शनकार क्या कहते हैं।
🅰️दाता
6️⃣ये सम्यकदर्शन आदि गुणों की प्राप्ति किससे होती हैं
🅰️तत्व चिंतन से
7️⃣कौन सीजीवात्मा ये मार्ग विषयक गंभीर चिंतन करतें हैं।
🅰️बुद्धिमान
8️⃣सच्चे अर्थ में शांति, सुरक्षा या निर्भयता किससे प्राप्त हो सकती है।
🅰️तत्व चिंतन से
9️⃣–-----से जब प्रभु के प्रति बहुमान का भाव प्रकट होता है
🅰️वैराग्य भाव
1️⃣0️⃣प्रभु के पास क्या प्रार्थना करनी है
🅰️नाथ अनादि काल से मार्ग को भुले हुए हमको आप मार्ग पर लाकर उस पर चलने का सामर्थ्य देना
*इस no पर भेजे* ⤵️
9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣
*अंजुगोलछा*
*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज मैसेज भी भेज सकते हैं*
*अध्याय*
*7:11:20*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
स्वरूप बुद्धि के 8 गुण।
1. शुश्रुषा- तत्व सुनने की इच्छा।
सच्चा सुख कोनसा है? आत्मा का सुख किस तरह प्राप्त होता है? ये जानने की इच्छा ही सुश्रुषा है।
2. श्रवण- ज्ञान के सम्पूर्ण उपयोग पूर्वक एक एक शब्द तत्व प्राप्ति का कारण बने, उस तरह श्रवण करना, सुनना।
3. ग्रहण- श्रवण किए हुए तत्व के ऐसे शब्द, केवल कान को छू कर चले न जाए, अपितु उनसे तत्व की समज प्राप्त हो उस तरह एक एक शब्द पकड़ना।
4. धारणा- ग्रहण किये हुए सर्व वाक्य पूर्वापर के अनुसंधान पूर्वक मन मे धारण करना।
5. विज्ञान- धारण किये हुए उस तत्व के विषय में कोई अज्ञान या संशयादि का ध्वंस पूर्वक का ज्ञान।
6. ऊह- विशेष चिंतन करने के बाद मन मे ऐसा हो कि यह वस्तु इस तरह क्यों है?
जिस तरह अहिंसा धर्म है, तो श्रावक को बाह्य रूप से आंशिक हिंसा रूप जिनपूजा का विधान क्यों?, ऐसी जिज्ञासा होनी अथवा तत्व विषयक सामान्य ज्ञान वो है, ऊह।
7. अपोह- मन मे जो शंका के समाधान मिले ऐसा तत्व विशेष बोध।
8. तत्वाभिनिवेश- ये पदार्थ इस तरह ही सही है, ऐसा निर्णय।
इन आठ गुण के प्रगट होने के बाद धर्मश्रवण की क्रिया, पूर्व की धर्मश्रवण की क्रिया से विशिष्ट होती है। पूर्व में धर्मश्रवण की क्रिया से थोड़े शुभ भाव तो होते हैं, परन्तु विशिष्ट प्रकार का हेय-उपादेय का विवेक तो इन आठ गुण की प्राप्ति द्वारा ही संभव है। यही विवेक के कारण संसार के सर्वश्रेष्ठ लगने वाले भाव भी तुच्छ लगते हैं।
तत्पश्चात, नरेंद्र या चक्रवर्ती के भोगो में भी आसक्ति नही होती है, अपितु उसमे नरकादि के दुःख का दर्शन होता है। और आत्मोपकार संयम आदि भाव जीव को सुंदर लगते हैं। संयम आदि भावों को प्राप्त करने के लिए मन मे सदा झंखना रहती है। यहां सम्यग्दर्शन की निकटतम भूमिका सम्पन्न होती है।
तत्वचिंतन रूप ये शरण देने वाले भी अरिहंत ही है। क्योंकि वो सर्व प्रकार से तत्वभूत अवस्थाओं को पा चूके हैं। वो स्वयं सर्वांश रागादि शत्रुओं से सुरक्षित है।
इसी स्वरूप से परमात्मा को देखने से, उनका मनन चिंतन या ध्यान करने से हम को अशरणदशा में ले जानेवाले रागादि भावों और उनको उत्पन्न करने वाले कर्मों का नाश होता है। इस तरह से निमित्त भाव से परमात्मा ही सच्चे शरण को देने वाले है।
शरण देने वाले इन परमात्मा को स्मृतिपट में ला कर सर्वथा रागादि शत्रु के विजेता परमात्मा के प्रति बहुमानभाव प्रगट कर के नमस्कार करते हुए प्रार्थना करनी है कि,
हे नाथ!!!! अनंतकाल से अशरण दशा में भटकते हुए ऐसे हम को आप शरण देकर सच्चे सुख के स्वाम
बोहिदायणं-*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
बोधि यानी सम्यगदर्शन।
जिनेश्वर भगवंत ने जो पदार्थ जिस प्रकार से कहे हैं, वो वैसे ही है ऐसी अडीग श्रद्धा वो सम्यगदर्शन है। यह परिणाम, तत्व के विशिष्ट चिंतन से प्राप्त हुए मोहनीयकर्मों के उपशम या क्षयोपशम से होता है। इस तरह ही विशिष्ट तत्वचिंतन रूप शरण का फल बोधि की प्राप्ति है।
गाढ मिथ्यात्व के उदय काल में जीव में तीव्र कोटि के रागद्वेष के परिणाम का प्रवर्तन होता है। यह तीव्र रागद्वेष के परिणाम को, संस्कार को ग्रंथि कहतें है, ग्रंथी अर्थात, गांठ।
यह गांठ किन किन प्रकार की है ये शास्त्र में चार विशेषणो द्वारा दर्शाया गया है।
1. कर्कश- काठी कि डोरी आदि में पड़ी हुई गांठ। छुड़ाते हुए हाथ तक छिल जाते हैं। उसी तरह विचित्र और विलक्षण परिणाम स्वरूप ये रागादि कषायों को निकालने में इंसान का दम निकल जाता है।
2. घन- रेशम की डोरी की गांठ।
जिस तरह तेल और मैल चढ़ने के कारण नक्कर, गट्ठ हो जाती है। वैसे ही कर्म के अनुबंधों के कारण यह रागादि घन, मजबूत होता जाता है।
3. रूढ़- बारीक रेशम की डोर में बहुत समय से पडी हुई गांठ।
जिस तरह वो रूढ हो जाती है, उसी तरह अनादि काल से वृत रागादि के परिणाम अत्यंत रूढ, पक्के हो जाते हैं।
4. गूढ़- बारीक रेशम की डोरी में बहुत समय से पडी हुई गांठ जिस तरह दिखती ही नहीं वैसे ही जीव में मिथ्यात्व के कारण हुए बुद्धि के विभ्रम से यह रागादि, भावदोष रूप दिखते नहीं है।
और यह दोषरूप भाव कहां से उठते हैं, कौन से निमित्त से प्रगट होते हैं और आत्मा को किस तरह से अहित करते हैं, ये समझ में ही नहीं आता है।
*
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें