सनत चक्रवर्ती कथा
सनत चक्रवर्ती
कुरु देश के गजपुर नगर में सनतकुमार राज्य करते थे। उन्होंने सर्व राजा-रजवाड़ों को वश करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था। वे खूब स्वरूपवान थे। उनके जैसा सुन्दर रूप धरती पर किसी का न था। इंद्र महाराजा ने देवों की सभा में सनतकुमार के रूप की प्रशंसा की। इंद्र महाराजा की वाणी सुनकर दो देवों को शंका हुई। खेद पाकर दोनों देव रूप की परीक्षा करने ब्राह्मण वेष धरकर सनतकुमार के पास पधारे।
उस समय सनतकुमार स्नान करने बैठे थे। उनका रूप देखकर दोनों देव हर्षित हुए। सचमुच! जगत में किसी का न हो ऐसा रूप देखकर सनतकुमार को कहाँ, ‘आपका रूप देखने के लिए बड़ी दूर से आये हैं, वाकई विधाता ने आपको बेमिसाल रूप दिया हैं। ऐसा कहकर खूब बखान किया। सनतकुमार ने कहा, ‘इस समय मेरी यह काया स्नान के हेतु उबटन से भरी हुई हैं और काया खेह से भरी होने से बराबर नहीं हैं। मैं नहाकर पोषक – अलंकार धारण करके राज्यसभा में आउ तब मेरा रूप देखना यथार्थ रूप देखना हो तो राज्यसभा में पधारना।’
राज्यसभा की तैयारी हुई। सनतकुमार आभूषण से सजधज कर आये और दोनों देव भी ब्राहमण वेष में सनतकुमार का रूप निहारने पधारे। सनतकुमार स्नान करने बैठे थे उस समय का र्रोप उनको न दिखा, काया रोग से भरी हुई दिखाई दी। सनतकुमार को उन्होंने कहा , ‘नहीं, आपकी काया रोग से भरी हुई हैं।’ सनतकुमार को मानसिक ठेस पहुंची लेकिन कहा, मेरे रूप में क्या कमी हैं। मैं कहाँ रोगी हूँ? ‘देवों ने कहाँ एक नहीं सोलह रोग से आपकी काया भरी हुई हैं।’ सनतकुमार ने अभिमान से कहा, ‘आप पिछाड़ी बुद्दी के ब्राहम्ण हैं।’ ब्राह्मणों ने कहा ‘एक बार ठुनककर देखों तो सही।’ सनतकुमार का मुख ताम्बुल से भरा हुआ था। उन्होंने थूंककर देखा तो उसमे कीड़े बिलबिलाते हुए देखें वे यह देखकर सोचने लगे, ‘अरे रे! ऐसी मेरी काया? इस काया का क्या भरोसा?’ ऐसा सोचकर छ: खण्ड का राज्य-कुटुंब-कबीला सब कुछ छोड़कर चरित्र ग्रहण कर लिया।
उनके सेनापति, उनकी स्त्रियाँ वगैरह हाथ जोड़कर राज्य में रहकर, राज्यचलाने की विनती करने लगे, लेकिन कुछ भी सुने बिना वे चरित्र में अटल रहें। किसकों को भी उत्तर न दिया और विहार कर गए।
इंद्र ने पुन: उनके संयम और नि:स्पृहित व् उनकी लब्धि की प्रशंसा की। पुन: एक देव को सनतऋषि की परीक्षा लेने का मन हुआ। वैध रूप धारण कर सनत मुनि के पास पहुँचे और उपचार करने को कहा, ‘मुझे कोई इलाज नहीं करना हैं। मेरे कर्मों का ही मुझे क्षय करना हैं, इसलिए भले ही रोग का हमला हो, इलाज करना ही नहीं हैं। औषध तप मेरे पास क्या नहीं हैं ? कई विधाएँ प्राप्त हुई हैं। देखों, मेरा यह थूंक जहाँ भी लगाऊँ, वहा सब ठीक हो जाता हैं। काया कंचनवर्णी हो जाती हैं। ऐसा कहकर अपना थूंक एक अंगूली पर लगाया तो वह वह भाग कंचन सामान शुद्ध हो गया। ऋषि की ऐसी लब्धि देखकर देव प्रसन्न होकर स्थान पर लौटे। सनतकुमार ने इस रोग का परिषह होना चाइये या परिसर बराबर हैं? सात सों वर्ष तक सहा। कभी भी उपचार नहीं किया, समता रखकर कालानुसार तृतीय देव लोक पधारे और दूसरा भव करके मोक्ष पधारेंगे।🙏🙏
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