जैन रामायण
🌞 _💥Veer Gurudevaay's exclusive💥
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📚 _* 📿 जैन रामायण 📿*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ प्रस्तावना में दो शब्द ]
पूज्यपाद श्री हेमचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा ने त्रिषष्टी शलाका पुरुष चरित्र के अंतर्गत कथा के माध्यम से जैनत्व की कई तत्व भरी बातें दर्शायी हैं । इस त्रिषष्टी शलाका पुरुष ग्रंथ के अन्तर्गत वर्तमान में इसका सांतवाँ पर्व जैन रामायण के नाम से विशेष प्रख्यात बना है ।
यहाँ प्रश्न हो सकता है - रामायण रामायण है , राम का चरित्र है , इसके आगे जैन शब्द क्यों ?
जैन शब्द लगाने के पीछे विशिष्ट कारण हैं । अन्य रामायणों के पात्रों के नाम लगभग समान हैं परंतु पात्रों की विचारसरणी , दिनचर्या और पात्रों के अंतिम ध्येय में अन्य रामायणों के पात्रों से जैन रामायण के पात्रों में महद् अंतर हैं । इस अंतर के कारण अन्य रामायणों से इस रामायण को भिन्न दर्शाने के कारण जैन शब्द लगाना आवश्यक है । वैसे अन्य रामायणों के कथा-प्रसंगों में भी तफावत है । उनमें भी वाल्मिकी रामायण , तुलसी रामायण आदि कई नामों से रामायण पहेचानी जाती है ।
आप इस रामायण में प्रसंग-प्रसंग पर रजोहरण ग्रहण की बात पढ़ेंगे । अन्य रामायणों में आपको सन्यास ग्रहण की कोई बात नहीं मिलेगी । सबसे महत्व का तफावत यही है ।
जैन शासन में " चारित्र बिना मुक्ति नही " यह मूल विधान है । आप सुनेंगे हारनेवालों नै भी चारित्र लिया , जीतनेवालों ने भी चारित्र लिया । पति की मृत्यु , भाई की मृत्यु , पिता की मृत्यु के दूसरे दिन ही दीक्षा , पति बेहोश है , पत्नी की दीक्षा , पिता बेहोश है चाचा का शव घर में पड़ा है पुत्र की दीक्षा , ऐसे कई प्रसंग आपको जैन रामायण में पढ़ने को मिलेंगे ।
आप गुणग्राही दृष्टि अपनाकर सुसंस्कार वृद्धि हो ऐसा उपयोगकर आत्म कल्याणकर मार्ग में प्रत्येक पाठक आगे बढ़े ।
कल से धारावाहिक रुप से प्रतिदिन जैन रामायण प्रकाशित की जावेगी ।कृपया , इसे नियमित अवश्य पढ़े ।
जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कडं ।
✒ क्रमशः:-
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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📚 _* 📿 जैन रामायण 📿*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 1 ]
रावण के पूर्वज राक्षस कुल की नींव
प्रथम सर्ग
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काजल के समान कान्तिवाले , हरिवंश में चंद्र के समान श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी के शासन में हुए पद्म बलदेव , नारायण वासुदेव और प्रतिवासुदेव रावण के चरित्र कहे जाते हैं ।
भगवान श्री अजितनाथ जी के समय में इसी भरतक्षेत्र के राक्षस नामक द्वीप की लंका नगरी में राक्षसवंश का मूल घनवाहन नामक राजा राज्य करता था । उसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है ।
भरतक्षेत्र के वैताढ्यपर्वत पर रथनूपुर नगर के राजा पूर्णमेघ का पुत्र घनवाहन है । एक दिन शत्रुओं से डरा हुआ , वह श्री अजितनाथ भगवान के समवसरण में शरण के लिए आया , तब उसके पूर्वभव के पिता , राक्षसों के राजा भीम ने स्नेहपूर्वक इस प्रकार कहा - इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के लवणसमुद्र में सात सौ योजन सभी दिशाओं में घेराववाला , देवताओं को भी दुर्जय राक्षस नाम का द्वीप है । वह तीन पुरद्वारों से युक्त , गोलाकार नव योजन ऊँचा और पांच सौ योजन विस्तारवाला अत्यन्त दुर्गम स्थान है । उस द्वीप में स्वर्ण महल और तोरणवाले घरों से युक्त लंका नगरी मेरे द्वारा अभी बसायी गयी है । छः योजन भूमध्य का अतिक्रमण करने पर शुद्ध स्फटिक कोटवाली, विविधरत्नमय निवासस्थानवाली , सुंदर , अत्यन्तदुर्गम , सवा सौ योजन प्रमाणवाली , लम्बे समय से रही हुई मेरी पाताल लंका नगरी है । इन दोनों नगरिओं को प्राप्तकर उनके तुम राजा बनो । ऐसा कहकर भीमेन्द्र ने नवमाणिक्य हार और राक्षसी विद्या दी । घनवाहन भी भगवान को नमस्कारकर राक्षसद्वीप आकर दोनों लंकाओं का राजा बना । राक्षसद्वीप के राज्य से और राक्षसी विद्या प्राप्त करने से उसका वंश राक्षस वंश कहलाया । उस मतिमन्त घनवाहन ने अपने पुत्र महाराक्षस को राज्य सौंपकर , स्वयं अजितनाथ भगवान के समीप दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया ।
देवराक्षस आदि असंख्य राक्षसद्वीप के राजाओं के पश्चात् श्री श्रेयांसनाथ प्रभु के तीर्थ के समय में कीर्तिधवल राजा हुआ । तब वैताढ्यपर्वत के मेघपुर नगर में अतीन्द्र नामक विद्याधर विद्याधरों का राजा राज्य करता था । उसके श्रीकण्ठ नामक पुत्र और देवी नामक पुत्री थी । रत्नपुर नरेश पुष्पोत्तर के द्वारा अपने पुत्र पद्मोत्तर के लिए देवी की याचना करने पर भी , अतीन्द्र ने कीर्तिधवल से देवी का विवाह कर दिया । पुष्पोत्तर देवी का विवाह सुनकर अतीन्द्र और श्रीकण्ठ से वैर रखने लगा । एक दिन मेरुपर्वत से लौटते हुए श्रीकण्ठ के द्वारा पुष्पोत्तर की पुत्री पद्मादेवी देखी गयी । परस्पर राग जागा ! श्रीकण्ठ ने उसका अपहरण किया । दासी के चीखने पर पुष्पोत्तर पीछे दौड़ा । श्रीकण्ठ ने जाकर कीर्तिधवल का आश्रय लिया । पुष्पोत्तर को युद्ध के लिए आया जानकर कीर्तिधवल ने दास के मुख से पुष्पोत्तर को कहलाया कि तेरा यह प्रयास व्यर्थ है , क्योंकि स्वयं पद्मा के द्वारा ही श्रीकण्ठ वरा गया है । अतः तेरा युद्ध का प्रयास निष्फल है और पद्मा ने भी दूती के मुख से पिता को कहलाया कि मेरे द्वारा ही श्रीकण्ठ वरा गया है । इन बातों को सुकर पुष्पोत्तर राजा का क्रोध भी शांत हुआ उसने उन दोनों का विवाह किया । कीर्तिधवल ने श्रीकण्ठ से कहा , वैताढ्यपर्वत पर तुम्हारे बहुत शत्रु हैं , इसलिए यही रहो
✒ क्रमशः:-
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📦 क्रमांक :- [ 2 ]
वानर द्वीप(किष्किन्धा नामक नगरी)
पीछे से निरंतर-
इसी राक्षसद्वीप के समीप में , वायव्य दिशा में तीन सौ योजन प्रमाणवाला वानरद्वीप है । मित्र ! मेरे अन्य भी बिखरे हुए स्वर्ण के टुकड़े के समान बर्बरकूल , सिंहल प्रमुख द्वीप हैं । उनमें से किसी एक द्वीप में राजधानी बनाकर सुखपूर्वक रहो । श्रीकण्ठ ने स्नेह के वश से वानरद्वीप का वास स्वीकार किया । वानरद्वीप के अंदर किष्किन्ध नामक पर्वत पर किष्किन्धा नामक नगरी का निर्माण किया । उस नगरी के राज्य पर कीर्तिधवल ने श्रीकण्ठ को स्थापित किया । श्रीकण्ठ ने वहाँ पर भ्रमण करते , मनोहर वानरों को देखा , अमारि घोषणाकर , उनको अन्नपानादि दिलाये ! विद्याधरों ने कौतुक से लेख , ध्वज , छत्र आदि पर वानरों के चिन्ह किये । उससे विद्याधरों की " वानर " इस प्रकार ख्याति हुई । राक्षसवंश और वानरवंश की उत्पत्ति का यह इतिहास है । श्रीकण्ठ का पुत्र वज्रकंठ है । एक दिन श्रीकण्ठ नन्दीश्वरद्वीप की यात्रा के लिए जाते देवों को देखकर , उनके पीछे गया किन्तु मानुषोत्तर पर्वत पर विमान की स्खलना से , मैं अल्प तप वाला हूँ , इस प्रकार खेद को प्राप्त हुआ , उसके बाद पुत्र को राज्य देकर स्वयं ने दीक्षा लेकर सिद्धगति को प्राप्त किया । वज्रकंठ आदि अनेक राजाओं के बाद श्री मुनिसुव्रतस्वामी के तीर्थ में घनोदधिरथ नामक राजा राज्य करता था । तब लंका में तडित्केश नामक राजा था । उन दोनों का आपस में स्नेह था । एक दिन तडित्केश राजा क्रीड़ा करने के लिए नन्दन नामक उद्यान में गया । वहाँ अपनी पत्नी के शरीर को नखों से घायल करते हुए एक बंदर को देखकर , क्रोधित होकर उसने बंदर को बाण से मारा । बाण के प्रहार से दु:खित वह बंदर , थोड़ा आगे जाकर , प्रतिमा में खड़े एक साधु भगवंत के आगे गिरा । उनको नमस्कार किया , मुनि भगवंत ने उसको नमस्कार महामंत्र सुनाया । उसके प्रभाव से मरकर वह बंदर भवनपति में अब्धिकुमार देव बना । उसने अपने पूर्व भव को जानकर मुनि के पास आकर मुनि भगवंत को वंदना की । वहाँ तडित्केश के सुभटों के द्वारा मारे जाते दूसरे बंदरों को देखा । क्रोध से युक्त उस देव ने अनेक बड़े बंदरों का रुप धारणकर , शिला बरसाते हुए राक्षसों को उपद्रवित किया । तडित्केश ने भी उस समय यह दिव्यप्रयोग है ऐसा जानकर उसकी पूजा की और पूछा ' आप कौन हैं ? ' देव रुपी बंदर से पूर्व के वृत्तान्त को सुनकर , उसके साथ मुनि के समीप जाकर , वैर का कारण पूछा ! तब मुनि ने कहा - श्रावस्तिनगरी में तू दत्त नामक मंत्री का पुत्र था और यह देव का जीव शिकारी था । तू दीक्षा लेकर वाराणसी आया । उस शिकारी ने अपशकुन समझकर तुझे मार डाला । मरकर तू माहेन्द्र देवलोक में देव के रुप में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्यवकर तू तडित्केश राजा बना और शिकारी नरक की वेदना भोगकर बन्दर हुआ । इस भव में तूने इसे मारा यही वैर का कारण हैं । उस समय देव साधु को नमस्कार कर और लंका नरेश से क्षमा याचनाकर उनकी आज्ञा लेकर अपने स्थान पर गया । तडित्केश ने उस वृत्तान्त को सुनकर संसार से भयभीत होकर अपने पुत्र सुकेश को राज्य सौंपा और स्वयं दीक्षा लेकर परमपद को प्राप्त किया । घनोदधिरथ राजा ने भी किष्किन्धा नगरी के राज्य पर अपने पुत्र किष्किन्धि को स्थापित कर , स्वयं दीक्षा लेकर मुक्तिपद प्राप्त किया ।
वैराग्नि को उत्पन्न होते ही शांत न करे तो वह आग अनेक भवों तक आत्मा को जलाती हैं । इन दोनों ने वैराग्नि को समझकर शीघ्र शांत किया तो सुखाधिकारी बनें । उनके वर्णन को सुनकर घनोदधिरथ भी जागृत हो गया और उसने भी राज्य मोह छोड़कर चारित्र लेकर मुक्ति पद प्राप्त किया ।
✒ क्रमशः:-
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 3 ]
गतांक से आगे :-
यहाँ वैताढ्य के रथनूपुर नगर में अशनिवेग राजा था । उसके विजयसिंह और विद्युद्वेग नामक दो पुत्र थे । उसी वैताढ्यपर्वत में मन्दरमाली नामक विद्याधरों का राजा था । उसकी श्रीमाली कन्या थी । उसने स्वयंवर में किष्किन्धि नरेश के कंठ में वरमाला डाली । यह देखकर क्रोधित हुए विजयसिंह ने कहा -ये अन्यायी पहले भी वैताढ्यपर्वत की राजधानी से निकाले गये थे । ये वापिस किसके द्वारा बुलाये गये हैं ? मैं इनके प्राण लेकर रहूँगा , इस प्रकार कहकर विजयसिंह , किष्किन्धि का वध करने के लिए खड़ा हुआ । तब किष्किन्धि के पक्ष में सुकेशादि ( लंका के राजा ) आये और दूसरों ने विजयसिंह का पक्ष लिया । किष्किन्धि के भाई अन्धक के द्वारा विजयसिंह की मौत होने पर , उनकी सेना भयभीत बनी । युद्ध में विजय और श्रीमाला कन्या को वरनेवाला किष्किन्धि नरेश वापिस किष्किन्धा नगरी लौटा । अशनिवेग ने पुत्रवध के समाचार सुनने के बाद किष्किन्धा नगरी पर आक्रमण किया । सुकेश , किष्किन्धि और अन्धक सेना सहित नगरी से बाहर निकले ! युद्ध में अशनिवेग के द्वारा अन्धक मारा गया । यह देख वानरों की सेना भयभीत हुई । सुकेश , किष्किन्धि पाताल लंका चले गये ! अशनिवेग भी शत्रु के वध से शांत कोपवाला हुआ ।
नारी के कारण युद्ध और युद्ध में राज्य खोना यही तो विषयवासना की प्राबल्यता दर्शाती है । उसने लंका के राज्य पर निर्घात नामक विद्याधर को स्थापित किया और खुद अपनी नगरी में आया । वहां उसने अपने पुत्र सहस्त्रार को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की । पाताल लंका में सुकेश की पत्नी इन्द्राणी की कुक्षि से माली , सुमाली और माल्यवान् नामक पुत्रों का जन्म हुआ । किष्किन्धि को अपनी पत्नी श्रीमाला से आदित्यरजा और ऋक्षरजा नामक दो पुत्र हुए । एक दिन किष्किन्धि , सुमेरु की यात्रा से वापिस लौटते समय , मधुपर्वत को देखकर , वहाँ किष्किन्धिपुर बसाकर रहने लगा । सुकेश के तीनों पुत्रों ने अपने पिता के मुख से पूर्व में घटित वृत्तान्त सुना । उन्होंने लंका पर आक्रमण कर निर्घात को बंदी बनाया और माली राजा बना । किष्किन्ध पर्वत के किष्किन्धा नगरी में आदित्यरज राजा हुआ ।
यहाँ वैताढ्यपर्वत के रथनूपुर में अशनिवेग के पुत्र सहस्त्रार की पत्नी चित्रसुन्दरी की कुक्षि में कोई देव का जीव च्यवकर अवतीर्ण हुआ । कुछ समय पश्चात् इन्द्र से संभोग का दोहद हुआ । सहस्त्रार ने विद्या के द्वारा इन्द्ररुप बनाकर , उस दोहद को पूर्ण किया । पुत्र का जन्म हुआ । उसका नाम इन्द्र रखा गया । सहस्त्रार ने पुत्र को राज्य योग्य जानकर स्वयं को आत्मसाधन में विशेष समय मिले इस कारण इन्द्र का राज्याभिषेक कर , स्वयं घर में ही धर्म क्रिया करने लगा । इस प्रकार इन्द्र राजा बना । वह खुद को वास्तविक इन्द्र मानता था । उसने चार लोकपाल , सात प्रकार की सेना , उनके नायक , वज्र नामक अस्त्र , ऐरावण हाथी , रम्भा आदि वारांगनाएँ , बृहस्पति मन्त्री और नैगमेषी को सेना का नायक बनाया । पूर्वदिशा में मकरध्वज , आदित्यकीर्ति का पुत्र और ज्योतिपुर का नरेश सोम दिकपाल , पश्चिम दिशा में मेघरथ , वरुणा का पुत्र और मेघपुर का नरेश वरुण दिकपाल , उत्तर दिशा में सुर , कनकावती का पुत्र और कांचनपुर के राजा कुबेर दिकपाल और दक्षिण दिशा में कालाग्नि , श्रीप्रभा का पुत्र , किष्किन्धनगर के राजा आदित्यरजा को बंधी बनाकर यम को दिकपाल के रुप में स्थापित किया ।
✒ क्रमशः:-
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📦 क्रमांक :- [ 4 ]
इन्द्र कामाली सुमाली से युद्ध
गतांक से आगे :-
इधर लंका का राजा माली उस इन्द्र के प्रताप को सह न सका । इसलिए भाई , मित्र और मन्त्री से युक्त युद्ध करने के लिए निकला । अपशकुन हुए तब सुमाली के द्वारा रोकने पर भी , माली ऐरावण हाथी पर चढ़े हुए , लोकपालों से घेरे हुए और वज्र आयुधवाले ऐसे उस इन्द्र के साथ लड़ाई करने लगा । जब माली की सेना बिखरने लगी , तब माली अधिक क्रोध से उसके सामने गया । माली के साथ इन्द्र और सुमाली आदि के साथ लोकपाल आदि युद्ध करने लगे । इन्द्र के द्वारा वज्र से माली को मर जाने पर , सुमाली के साथ राक्षस और वानर पाताल लंका चले गये ।
कहावत है " बिना विचारे जो करे वह पीछे पछताये । " माली के हृदय में दूसरों की उन्नति की ईर्ष्या उत्पन्न हुई , उस ईर्ष्या रुपी आग ने प्रथम उसके हृदय को जलाया , उस आग की अभिवृद्धि हुई और इन्द्र को हराने हेतु दौड़ा । कुदरत शुभ-अशुभ का संदेश संकेत करवा देती है । परंतु माली जैसे अनेक मानव कुदरत को तुच्छ समझकर अपने अहं को कुदरत से टकराते है । अहंकारी व्यक्ति दूसरे की तो क्या सगे भाई की बात नहीं स्वीकारते उसका उदाहरण है यह माली । सगे भाई सुमाली के मना करने पर भी , भाई साहब अपशुकन हो रहे है आगे मत बढ़ो , वह उसके घर में बैठा है , अपना उसने कुछ भी नहीं बिगाड़ा है फिर आप क्यों दौड़ लगा रहे हो ? इत्यादि हितकारी बातों की अवहेलना कर युद्ध के लिए आया और अंत में स्वयं तो संसार से चल बसा पर साथ में भाइयों को परिवार की पैतृक राज्य से वंचित भी करता गया । वर्तमान में भी ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपनी धन कमाने की अंधी दौड़ में अपने परिवार को दु:खी दु:खी कर दिया हैं ।
✒ क्रमशः:-
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📦 क्रमांक :- [ 5 ]
रावण का जन्म
गतांक से आगे:-
इधर इन्द्र ने विश्रवा और कोशिका के पुत्र वैश्रवण को लंका दी । पाताललंका में सुमाली को रत्नश्रवा नामक पुत्र हुआ । कुसुम उद्यान में विद्या साधते रत्नश्रवा के समीप में , कोई विद्याधरी , पिता के आदेश से खड़ी हुई । तब मानवसुन्दरीविद्या की अधिष्ठायिका ' मैं तुझे सिद्ध हुई हूँ ' इस प्रकार रत्नश्रवा से कहा ! विद्या सिद्ध करने के बाद रत्नश्रवा जपमाला छोड़कर , सामने खड़ी उस विद्याधर कुमारी को देखकर ' तू कौन है ? किस कारण से यहाँ आयी हो ? इस प्रकार पूछा । उस विद्याधरी ने कहा - कौतुकमंगल नामक नगर में व्योमबिन्द् नामक विद्याधर है । उसकी दो पुत्रियाँ हैं - कोशिका और कैकसी । कौशिका , यक्षपुर नगर के राजा विश्रवा के द्वारा विवाहित की गयी उसका ( धनद ) वैश्रवण नामक पुत्र हैं । इन्द्र के आदेश से लंका में राज्य करता है और मैं केकसी , जो ज्योतिष्क के वचन से पिता के द्वारा तुमको दी गयी हूँ । सुमाली के पुत्र रत्नश्रवा ने इस प्रकार उसके वचनों को सुनकर , वहाँ ही उससे विवाह किया और पुष्पान्तक नामक नगर बसाकर रहने लगा । एक बार कैकसी ने स्वप्न में हाथी के कुम्भ स्थल को भेदते सिंह को मुख में प्रवेश करते हुआ देखा । ' तुझे महापराक्रमी पुत्र होगा ' इस प्रकार पति के द्वारा कहा गया । गर्भधारण के बाद कैकसी की वाणी निष्ठुर बनी । शरीर के अवयव श्रम को जीतनेवाले बने । दर्पण के होने पर भी अपना मुख तलवार में देखती । निष्कारण ही मुख में हुंकार को धारण करती । गुरुओं को भी नमस्कार नहीं करती थी । शत्रुओं के सिर पर पैर रखने की इच्छा करती । इत्यादि दारुण भावों को धारण करती थी । गर्भस्थ बालक के स्वभाव का प्रभाव माता पर गिरता है इसका यह उदाहरण है । शत्रुओं के आसनों में कमापन उत्तपन्न करता हुआ , बारह हजार वर्ष से भी अधिक आयु वाला ऐसा पुत्र कैकसी ने जन्म दिया । सूतिका शय्या में रहा वह बालक उछलकूद करता हुआ , पूर्व में भीमेन्द्र के द्वारा दिये गये नवमाणिक्य से निर्मित हार को , समीप में रहे हुए संदूक में से हाथ के द्वारा निकालकर कण्ठ में डाला । जन्मते ही उसने अपना स्वभाव बता दिया । यह वृतान्त कैकसी ने पति से कहा । जो भीम राक्षस नरेश के द्वारा पहले आपके पूर्वज मेघवाहन को हार दिया गया था और जो आजतक देवता के समान पूजा गया है , दूसरों के द्वारा जो उठाया न जा सका , निधान के समान , जो हजारों नागों से बचाया गया है , ऐसा वह नवमाणिक्य से निर्मित हार , बालक के द्वारा कण्ठ में डाला गया । नवमाणिक्यों में भी बालक के मुख का प्रतिबिम्ब संक्रमित होने से , पिता ने उसी समय उसका ' दशमुख ' नाम रखा और कहा -पहले चार ज्ञान को धारण करने वाले मुनि भगवंत ने मेरे पिता को कहा था कि -जो नवमाणिक्य हार को उठायेगा वह अर्धचक्री होगा । इसके बाद कैकसी को भानु ( सूर्य ) के स्वप्न दर्शन से भानुकर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ , जिसका दूसरा नाम कुम्भकर्ण हुआ । इसके बाद एक पुत्री उत्पन्न हुई जिसके चन्द्र के समान नाखून होने के कारण चन्द्रनखा और दूसरा शूर्पणखा नाम दिया गया और चन्द्र के स्वप्न दर्शन से युक्त बिभीषण नामक पुत्र हुआ । वे तीनों भाई साढ़े सोलह धनुष शरीर प्रमाणवाले थे ।
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 6 ]
गतांक से आगे :-
इस प्रकार जैन रामायण के प्रारंभ में प्रतिवासुदेव होने वाले रावण के परिवार की बातें दर्शायी गयी हैं । इसमें रावण कोई राक्षसी आकृतिवाला राक्षस नहीं था , इसका विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण दिया हैं । हनुमान के पूर्वज और हनुमान कोई पूंछवाले और बंदर जैसी आकृतिवाले नहीं थे । इसका भी स्पष्टीकरण वानर के चित्रवाले वाहन आदि के प्रयोग के कारण उन्हें वानर कहते थे । जैसे आज भी जिन्होंने राजाओं के राज में कोठार , कारभार , मोदी आदि का कार्य किया है वे आज भी कोठारी , कारभारी , मोदी , मुथा आदि अटक से पहचाने जाते हैं ।
नवमाणिक्यवाले हार में उस बालक के मुख का प्रतिबिंब संक्रमित होने से दश मुख दिखायी देने लगे और उससे उसका नाम दशमुख , दशानन हो गया । अज्ञ लोगों ने उसे दसमुख वाला ही मान लिया । अन्य लोग तो ठीक पर जैनों के घरों में अधिकांश लोग रावण को दसमुख और और बीसभुजा वाला ही मानते आये हैं । मुझे इसका भी इतना आश्चर्य नहीं जितना आश्चर्य हमारे मंदिरों में अष्टापद के पटों में अष्टापदजी के मंदिरों में रावण को दशमुख और वीशभुजा वाला ही बताया गया है , बताया जा रहा है । इसके पीछे कोई भी अपेक्षा होगी परंतु सामान्य अज्ञ बालजीव तो यही मान रहे हैं कि रावण दसमुख वाला ही होगा तभी तो अपने पटों में इस प्रकार दर्शाया गया है।
एक ओर विचारणीय बाबत यह है कि देव द्वारा प्रदत्त हार श्री अजितनाथ भगवंत के समय से लेकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी के समय तक लाखो कोटी सागरोपम काल तक रहा , लंकानगरी से भागकर आये तब यह हार पाताललंका में कैसे आया ? ऐसे प्रश्नों का समाधान यह है कि देव ने वह हार औदारिक पुद्गलों से निर्मितकर उसकी रक्षा का भार नागदेवता के जिम्मे सौंप दिया था । उन देवताओं के स्थान पर जो देव आये उन्होंने परंपरा हे उस हार की रक्षा की । पाताललंका में हार आने का समाधान हैं कि वे विद्यावाले थे और विद्या के बल से अपनी उपयोगी सामग्री स्थान छोड़ते ही मंगवा लेते होंगे ।
अब आगे रावण लंका का राज्य किस प्रकार लेता है और तीन खंड कैसे जीतता है यह सब वर्णन द्वितीय सर्ग में ।
✒ क्रमशः:-
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🌞 _*Veer Gurudevaay's exclusive*_...
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_*📿 जैन रामायण 📿*_
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 7 ]
द्वितीय सर्ग
गतांक से आगे :-
अन्य दिन भाईओं के साथ , दशमुख ने विमान में बैठे हुए , आकाश मार्ग से आते वैश्रमण को देखकर , ' यह कौन हैं ? ' इस प्रकार माँ से पूछा । उसने कहा -यह मेरी बड़ी बहन का पुत्र हैं और इन्द्र का अग्रगणनीय सुभट हैं ।इन्द्र ने तेरे बड़े पितामह माली को मारकर , राक्षसद्वीप सहित लंका वैश्रवण को दी गयी है । उस घटना के बाद तेरे पिता लंका प्राप्ति की इच्छावाले , यहाँ पाताललंका में रहने लगे । पूर्व में भीम , राक्षसों के राजा ने अपने पूर्वभव के पुत्र मेघवाहन जो राक्षसवंश के मूल हैं , उनको राक्षसद्वीप सहित लंका , पाताललंका और राक्षसी विद्या दी थी । तेरे पितामह अपने पद से भ्रष्ट हो गये और पिता मृत प्रायः हैं । हम दोनों यही सोचते हैं कि हम कब तुझे पितामह के आसन पर बैठा हुआ देखेंगे ? तुम जब तक इस शत्रु से अपना पैतृक राज्य ग्रहण नहीं करोगे तब तक मुझे सुख की नींद भी नहीं आयेगी । यह मेरी बहन का पुत्र है परंतु मेरे लिये यह शत्रु है । हृदय में लगे शल्य से भी अधिक दु:खदायी है । तीन-तीन पुत्रों की माता होते हुए भी मैं अपने आपको वंध्या मान रही हूँ । जो पुत्र अपने पैतृक राज्य संपत्ति को ग्रहण न कर सके उन पुत्रों का होना न होने के बराबर है ।
इस प्रकार एक माता ने अपने पुत्रों के हृदय में द्वेषाग्नि की आग सुलगाने का अत्यन्त घिनौना कार्य किया । यह संसार अनादि से ऐसे ही पात्रों से भरा पड़ा है । जिस माता का कर्तव्य अपनी संतानों में सुसंस्कारों का सिंचन करने का होता है वही माता जब ऐसे भड़कीले वचनों का प्रयोग कर अपने ही स्वजनों से युद्ध का आव्हान करवाती है ऐसी माताएँ मातृत्व को लज्जित करती हैं ।
ऐसे आक्रोश भरे वचनों को सुनकर बिभीषण ने कहा - अब विषाद करने की जरुरत नहीं । दशमुख के सामने इन्द्र कौन है ? और वैश्रमण कौन है ? कुम्भकर्ण भी वैरी रुपी हाथीओं के लिए सिंह के समान है अथवा भाई के आदेश से मैं ही काफी हूँ । तब दशमुख ने कहा - हे माता ! तुमने ये बातें इतने दिन तक अपने मन में क्यों रखी ? तुम मुझे बालक समझ रही थी । तुमने पहले ही ये बातें कह दी होती तो आज मैं तुझे लंका में देखता । खैर अब ही सही मैं भुजाओं के पराक्रम से ही दूसरों को जीतने में समर्थ हूँ तो भी कुलपरंपरा से आयी हुई विद्याओं को साधूगाँ । इसके पश्चात् माता-पिता को नमस्कार कर भाईओं के साथ दशमुख भयंकर अटवी में आया । उन तीनों ने , भयंकर अटवी में भी दो प्रहर में ही सभी प्रकार के इच्छित अन्न को देनेवाली आठ अक्षरों वाली विद्या को साध ली । उसके पश्चात् दश करोड़ हजार के जाप से फल देने वाले सोलह अक्षर वाले मन्त्र को साधने लगे ।
✒ क्रमशः:-
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📦 क्रमांक :- [ 8 ]
गतांक से आगे :-
उस अटवी में आये हुए जम्बूद्वीप के स्वामी , अनादृत नामक देव ने उनको क्षोभित करने के लिए स्वर्ग की अप्सराओं को भेजा तो भी वे क्षोभित नहीं हुए । विपरीत वे देवियाँ क्षोभित हो गयी और रीझाने के लिए प्रयत्न करने लगी । उनका प्रयत्न विफल हुआ । तब अनादृत ने कहा -किसके द्वारा तुमने ऐसा पाखण्ड ( ढोंग करना ) सिखा ? जाओ , जाओ ! यह सब ढोंग छोड़ दो अथवा मैं तुम्हारें वांछित को दूँगा । उसके वचनों से भी अक्षोभित होने पर , उसके द्वारा प्रेरित व्यन्तरों ने उनको डर दिखाया
( भयभीत किया ) । माता-पिता और उनके बहन का रुप बनाकर , बांधकर उनके सामने रखा । माता-पिता और बहन ने रक्षा करो , रक्षा करो इस प्रकार बहुत प्रकार से पुकार की । व्यन्तरों ने उनके मस्तक को छेद डाले । तो भी उन व्यन्तरों के कार्यो को नहीं देखने के समान , वे अक्षोभित रहे । रावण के आगे दोनों छोटे भाईओं के सिर गिराये और उन दोनों के आगे रावण का सिर । दोनों भाई रावण के उपर भक्ति के कारण , थोड़े क्रोधित होकर क्षोभित हुए किन्तु सत्व की हीनता से नहीं । सुंदर सुंदर ( साधु साधु ) इस प्रकार आकाश से आवाज प्रकट हुई । सब व्यन्तर भाग गये प्रज्ञप्ति आदि हजारों विद्याओं को रावण ने प्राप्त की । कुम्भकर्ण ने संवृद्धि आदि पांच विद्याएँ और बिभीषण ने सिद्धार्था आदि चार विद्याओं को सिद्ध की । अनादृत देव ने रावण से क्षमा माँगी और रावण के लिए वही स्वयंप्रभ नामक नगरी बनायी । विद्या की सिद्धी को सुनकर माता-पिता , बहन और स्वजन -संबंधी वहाँ आये । उसके पश्चात् रावण ने छह उपवास के द्वारा चन्द्रहास खड्ग को साधा ।
यहाँ वैताढ्यपर्वत को दक्षिणश्रेणी में सुरसंगीतपुर के राजा मय के द्वारा अपनी पुत्री मन्दोदरी स्वयंप्रभपुर में आकर रावण को दी गयी । रावण मन्दोदरी के साथ सुखपूर्वक दिन बीताने लगा । अन्य दिन रावण मेघरव नामक पर्वत पर गया । वहाँ सरोवर में क्रीड़ा करती पद्मावती आदि छह हजार विद्याधर की कन्याएँ , रावण के दर्शन से उत्पन्न हुई रागवाली , गान्धर्व विवाह से उनको स्वीकार किया । युद्ध में प्रहार करते उन कन्याओं के पिताओं को प्रस्वापन अस्त्र से मोहितकर , नागपाशों से बांध दिया । विवाहित कन्याओं के वचनों से उनको छोड़ दिया । रावण उनको साथ लेकर स्वयंप्रभनगर आया । ये तेरी सेवा के लिए लायी है ।इनकी सुरक्षा का भार तेरे पर है । मन्दोदरी अपने पति के पराक्रम से अत्यन्त प्रसन्न बनी ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 9 ]
गतांक से आगे:-
कुम्भकर्ण ने कुम्भपुर नगर के राजा महोदर की पुत्री तडिन्माला से विवाह किया । बिभीषण ने वैताढ्यपर्वत के दक्षिणश्रेणी में ज्योतिषपुर के राजा वीर की पुत्री पंकजश्री से विवाह किया । मन्दोदरी ने इन्द्रजित और मेघवाहन नामक दो पुत्रों को जन्म दिया । कुम्भकर्ण और बिभीषण पिता के वैर की बात स्मरणकर शत्रु के द्वारा आश्रित लंका नगरी में उपद्रव करने लगे । वैश्रवण ने दूत के द्वारा सुमाली को कहलाया तुम अपने पौत्रों को समझाओं , मेरी नगरी में उपद्रव न करें नहीं तो मैं इन दोनों शिशुओं को मार डालूँगा या तेरे साथ इन दोनों को माली के मार्ग पर पहुँचा दूँगा । दूत के वचन सुनकर सुमाली के जबाब देने के पूर्व ही रावण ने क्रोधपूर्वक कहा -यह धनद कौन है ? इन्द्र का दिया हुआ टुकड़ा खा रहा है । क्या इसने स्वयं ने पराक्रम करके राज्य प्राप्त किया है ? क्या इसने स्वयं ने माली को हराया था ? दूसरों की नौकरी कर पेट भरने वाले को ऐसी बातें करते लज्जा आनी चाहिए । जा और तेरे राजा से कह देना रावण स्वयं तेरा पराक्रम देखने आ रहा है । दूत ने लंका जाकर सर्व वृतान्त कहा । दूत के पीछे-पीछे ही भाईओं और सैनिकों के साथ रावण ने लंका नगरी पर आक्रमण किया । धनद भी लंका से निकलकर , रावण के साथ युद्ध करने लगा । युद्ध में रावण के द्वारा जीतने से , मान के खंडन से धनद-वैश्रमण का संसार पर से ममत्व हट गया । उसने सोचा ' यह रावण मुझ पर उपकार करने वाला बना । इसने सत्य ही कहा था कि तू दूसरों के आधिन रहकर राज्य सुख भोग रहा है । संसार स्वयं पराधीनों का ही हैं । उसमें भी मैं दूसरों के पराक्रम पर जी रहा था । इसने आकर मुझे जागृत किया । अब मुझे मेरे पराक्रम से भौतिक नहीं आत्मिक राज्य प्राप्त करना है । आत्मिक राज्य प्राप्त करने की शक्ति मुझमें भरी पड़ी है । अब मै उस शक्ति का उपयोग करुँगा ऐसा सोचकर उसी युद्धभूमि में पंचमुष्टि लोच किया । देवताओं ने वेश दिया ।
यह देखकर रावण ने जाकर अपने बड़े भाई को विनति की । हे भाई ! तुम दीक्षा न लो यह राज्य तुम भोगो । मैं और कही राजधानी बना लूंगा । मेरे कारण तुम दीक्षा न लो । मेरा अपराध क्षमा करो ।
वैश्रमण ने कहा , ' मैं हार गया हूँ इसलिए दीक्षा नही ले रहा हूँ । राज्य की इच्छा होती तो इन्द्र से सहायता लेकर पुनः तुझसे युद्ध करता । परंतु तेरे शब्दों ने मुझे जागृत कर दिया हैं । मैं पराधीन होकर सुख भोग रहा था । अब मैं स्वयं के पराक्रम से स्वयं का स्वराज्य प्राप्त करुँगा ।
रावण ने वैश्रमण मुनि भगवंत को यथा योग्य वंदना की । मुनि भगवंत वहां से विहार कर गये । फिर रावण ने उनको नि:स्पृह जानकर , उनके पुष्पक विमान और लंका नगरी को ग्रहण किया ।
क्रमशः -
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 10 ]
गतांक से आगे :-
एक दिन पुष्पक विमान में बैठकर रावण ने सम्मेतशिखर पर जाकर जिनेश्वर भगवंतों को नमस्कार किया । उतरते समय प्रहस्त नामक रावण के सेनापति के द्वारा सेना के कोलाहल से गर्जना करते वन के हाथी को देखकर
' स्वामी के वाहन के रुप में यह हाथी योग्य है । ' इस प्रकार सोचा । तब दशानन ने पीले दांतवाले , शहद के समान पीले नेत्रवाले , सात हाथ ऊँचे और नौ हाथ लम्बे हाथी को वशीभूत कर उस पर चढ़ा । उस हाथी का
' भुवनालंकार ' नाम रखा । रात वहीं बितायी । प्रातः सभा में बैठे रावण को , प्रहार से जर्जरित पवनवेग विद्याधर ने आकर विनती की । देव ! किष्किन्धि के दोनों पुत्र सूर्यरजा और ऋक्षरजा पाताललंका से किष्किन्धा नगरी गये थे । यम ने उनके साथ युद्धकर जीता और बांधकर कारागार में डाल दिया है । यम ने वैतरणी से युक्त नरक आवासों को बनाये हैं , उनमें परिवार सहित वे दोनों छेदन -भेदन आदि दु:खों को प्राप्त कर रहे हैं । आप उन दोनों को छुड़ाएँ । रावण ने कहा ' यम के द्वारा मेरे सेनानी भी बाँधें गये हैं । अब उस कार्य का फल उसको बताऊँगा । ' इस प्रकार कहता हुआ रावण सेना सहित यम द्वारा पालित किष्किन्धा नगरी गया । वहाँ सीसे का पान , शिला पर पटकने आदि से भयंकर सात नरकों को देखकर , परमाधार्मिकों को भयभीत कर खुद के सैनानीओं को और दूसरों को भी छुड़ाया । नरक के आरक्षकों से यह वृतान्त जानकर , यम युद्ध करने लगा । उन दोनों ने लंबे समय तक बाण से युद्ध किया । बाद में यम दंड उठाकर मारने के लिए दौड़ा । रावण ने उस दंड को बाण से खंडित किया और दूसरे अनेक बाणों को फेंकते हुए , यम को घायल किया । यम वहाँ से पलायन कर , इन्द्र के पास गया । नमस्कार कर कहा - मैं यमत्व नहीं करुंगा । दशास्य यमों का भी यम है । उसके द्वारा नारकी मनुष्य छुड़ायें गये हैं । क्षात्रव्रत को धारण करने वाले उसने मुझे रण में जीते हुए छोड़ा है । वैश्रवण को जीतकर उसने लंका और पुष्पकविमान को ग्रहण कर लिया है । यह सुनकर शक्र क्रोधित हुआ । मन्त्रीयों ने उसे युद्ध से रोका । यम को सुरसंगीतपुर देकर स्वयं वैसे ही विलास करने लगा ।
पाप से निर्भय मानव दानव बनते देर नहीं लगाता । अपने आप को इन्द्र मानकर यमादि लोकपाल बनाकर जीते जी मानवों को नरक समान वेदना देकर उन आत्माओं ने कितना पापार्जन किया होगा ? वास्तव में यह सब मान कषाय की पूर्ति के लिए ही किया गया था । रावण ने उस नरक समान वेदना भोगनेवालें दु:खी मानवों को बंधन मुक्त करवा दिया ।
यहाँ रावण ने आदित्यरजा को किष्किन्धा नगरी दी और ॠक्षरजा को ऋक्षपुर पहले दी थी । स्वयं लंका में पितामह के राज्य की रक्षा करता रहा । इधर वानरों के राजा , आदित्यरजा को अपनी पत्नी इन्दुमालिनी से वाली नामक पुत्र हुआ ।
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📦 क्रमांक :- [ 11 ]
गतांक से आगे :-
जम्बूद्वीपं समुद्रान्तं वाली बाहुबलोल्बणः ।
नित्यं प्रदक्षिणीकुर्वन्सर्वचैत्यान्यवन्दत ।।
समुद्र तक विस्तार वाले जम्बूद्वीप को , अत्यन्त बाहुबली वाली नित्य प्रदक्षिणा देकर सभी जिनचैत्यों को वन्दन करता । आदित्यरजा का दूसरा पुत्र सुग्रीव था और श्रीप्रभा नामक छोटी कन्या थी । ऋक्षरजा को भी हरिकान्ता पत्नी से नल और नील नामक दो पुत्र हुए । आदित्यरजा ने वाली को राज्य देकर , स्वयं दीक्षा ली और मोक्ष गये । वाली ने भी सम्यग्दृष्टि , दयालु और खुद के अनुरुप सुग्रीव को युवराज पद पर स्थापित किया ।
अन्य दिन पत्नी सहित हाथी पर बैठकर दशानन चैत्यनमस्कार के लिए मेरुपर्वत गया हुआ था , उस समय मेघप्रभ का पुत्र खर नामक विद्याधर ने अपने ऊपर रागवाली चन्द्रनखा रावण की बहन का अपहरण किया । पाताललंका जाकर आदित्यरजा के पुत्र चन्द्रोदर को नगर से बाहर निकालकर स्वयं उस नगरी को ग्रहण किया । यात्राकर आया हुआ दशानन उस वृतान्त को जानकर क्रोधित हुआ । खर के वध के लिए जाते हुए रावण को , मन्दोदरी ने दोनों भाईओं से कहलाया कि - कन्या अवश्य ही किसी को देंगे और चन्द्रनखा दूषण के अग्रज , दूषण रहित ऐसे खर पर रागवाली है । इसलिए चन्द्रनखा का उसके साथ विवाह कर पाताललंका दीजिए । दशास्य ने उसकी बात स्वीकार कर उसके विवाह के लिए मय और मारिची को भेजकर विवाह कराया । उसके बाद खर पाताललंका में रावण की आज्ञा से रहा । तब खर के द्वारा निकाले गये चन्द्रोदर के कुछ समय पश्चात् मरण होने पर उसकी पत्नी अनुराधा वहाँ से भाग गयी । गर्भ को धारण करती उसने वन में विराध नामक पुत्र को जन्म दिया । यौवन को प्राप्त पराक्रमी विराध कलाओं का अभ्यासकर , भूमि पर विचरण करने लगा ।
एक दिन रावण ने कथा के प्रसंग से , सभा में वाली के प्रौढ प्रताप के बारे में सुना । उसके प्रताप को सहने में असमर्थ रावण ने दूत के द्वारा वाली को कहलाया - तेरे पूर्वज श्रीकण्ठ ने शत्रुओं से भयभीत होकर हमारे पूर्वज कीर्तिधवल का शरण लिया था । अपनी पत्नी के भाई उस श्रीकण्ठ को , कीर्तिधवल ने शत्रुओं से बचाकर इसी वानरद्वीप में रहने दिया । उस समय से दोनों राज्यों के बीच स्वामी -सेवक का संबंध रहा । बहुत से राजाओं के जाने के बाद तेरे पितामह किष्किन्धि और मेरे प्रपितामह सुकेश के बीच वह संबंध अखंड रहा । मेरे द्वारा ही तेरे पिता आदित्यरजा , यम के बंधनों से छुड़ाकर किष्किन्धा के राज्य पर स्थापित किया गया , यह जगप्रसिद्ध है । उससे तू , उसका पुत्र , न्यायी होने के कारण पूर्व के समान हमारी सेवा कर ।स्वामी -सेवक की अयोग्य बात श्रवणकर मन में क्रोधित होने पर भी वाली ने अपना यथार्थ अभिप्राय इस प्रकार कहा - मैं मानता हूँ कि राक्षस और वानरों का परस्पर स्नेहसंबंध आजतक अखंडित है सम्पदा और आपदाओं में पूर्वजों ने परस्पर सहायता की थी ।किन्तु सेव्य -सेवक भाव से नहीं । अरिहन्त देव , साधु-सुगुरु के बिना दूसरों को मैं सेव्य नहीं मानता हूँ । आज इस प्रकार कहते रावण के द्वारा पूर्व का स्नेह तोड़ा गया है । उसकी निन्दा के भय से मैं कुछ नहीं करुंगा । किन्तु वह विपरीत करेगा , तो मैं अवश्य प्रतिक्रिया करुंगा। तेरा स्वामी रावण यथाशक्ति प्रयत्न कर सकता है । जाओ इस प्रकार कहकर दूत को भेज दिया । दूत ने वाली की बातों में मिर्च मसालें डालकर रावण को सुनायी । वह तो आपको तुच्छ समझता है , एक दूसरें की विपत्ति में सहायक बनें उसमें स्वामी-सेवक भाव कहाँ से आ गया ! तेरे राजा को अहंकार आ गया है , इधर आयेगा तो अहंकार का नाश उतार दूंगा । इत्यादि कई बातें दूत ने कही ।
क्रमश: --
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✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 12 ]
7/12को डालना ह
गतांक से आगे :-
यह सब सुनकर क्रोधपूर्वक रावण ने किष्किन्धा आने पर , वाली भी सामने आकर युद्ध करने लगा । दयालु वाली ने रावण को समझाकर सैन्य युद्ध से रोका और दोनों आपस में युद्ध करने लगे । दशानन के द्वारा छोड़े गये अस्त्रों को अस्त्रों से और मन्त्र अस्त्रों को मन्त्र अस्त्रों से नष्ट किया । चन्द्रहास तलवार को निकालकर दौड़ते रावण को वाली ने अपने बाये हाथ से लीला के समान धारण कर , गेंद के समान बगल में दबाकर पृथ्वी पर भ्रमणकर , वैसे ही वहाँ वापिस आकर , भूमि पर रखा शर्म से झूके रावण को वाली ने कहा - अरिहंत के बिना मुझे कोई नमस्करणीय नहीं है । तेरे मान को धिक्कार हो । जिसके द्वारा मेरे प्राणों की इच्छावाले तेरी ऐसी दशा हुई है । परोपकार की स्मृति से मैं तुझे छोड़ता हूँ और मेरे द्वारा दिये गये राज्य पर शासन कर । मेरे होने पर तुझे यह पृथ्वी कैसे प्राप्त होगी ? इसलिए मैं दीक्षा ग्रहण करुँगा । किष्किन्धा नगरी में तेरी आज्ञा को धारण करने वाला सुग्रीव होगा । इस प्रकार कहकर , सुग्रीव को राज्य देकर , स्वयं ने गगनचन्द्रर्षि के पास दीक्षा स्वीकार की ।
मान कषाय मानव को निम्न स्थिति पर पहुँचा देता है । इस बात को कई बार श्रवणकर भी मानव स्वयं के हृदय में प्रकटित मानोदय को समझ नहीं सकता । रावण ने वाली की प्रशंसा सुनी । सुनकर आनंदित होना था कि मेरे एक मित्र का पुत्र कितना बलशाली है । कितना धर्मात्मा है । उसके गुणगान मुझे भी करने चाहिए ऐसी विचारधारा के स्थान पर विपरित विचारधारा अपनाकर युद्ध करने गया । हारकर ' मेरे द्वारा दिये गये राज्य पर शासन कर ' ऐसे शब्दों को सुनने पड़े । मानाधीन व्यक्तियों की ऐसी ही दशा होती है ।
इधर वाली अपने आप में अपनी महानता का दर्शन जगत को करवाता है । मैं अपने राज्य पर शासन से संतुष्ट था । रावण राज्य देने के लिए आ गया । फिर भी उसने सीधा सोचा कि वास्तव में यह संसार ही कषायमय है । इस रावण की यह दशा कषाय के कारण बनी है तो मुझे ऐसे संसार से क्या लेना है ! मैं मेरे पराक्रम को सही दिशा में उपयोग में लूं । भौतिक जगत का विजयी आखिर में अंत में मोहराजा के सामने हार जाता है । आयुष्य कर्म पूर्ण होते ही उसका चक्रवर्तीत्व भी खत्म हो जाता है । इस प्रकार चिंतनकर वाली मुनि बन गया । तत्पश्चात् नानाप्रकार के अभिग्रहों को धारण करते हुए प्रतिमाधारी , ध्यानी , पृथ्वीतल पर विचरते हुए वाली मुनि ने विविधप्रकार की लब्धियों को प्राप्त की । अष्टापद पर्वत पर जाकर कायोत्सर्ग को धारण किया । मास के अन्त में कायोत्सर्ग पूर्णकर पारणा करते । ऐसा बार-बार करते हुए विचरते थे ।
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8/12को डालना
📦 क्रमांक :- [ 13 ]
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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गतांक से आगे :-
सुग्रीव ने अपनी बहन श्रीप्रभा का रावण के साथ विवाह किया । युवराज पद पर वाली के पुत्र चन्द्ररश्मि को स्थापित किया । लंका में रहा हुआ रावण , विद्याधरों की कन्याओं से बलपूर्वक भी विवाह करता । अन्य दिन नित्यालोकपुर में नित्यालोक विद्याधर की पुत्री रत्नावली से विवाह करने के लिए जाते हुए , अष्टापद पर्वत के ऊपर पुष्पकविमान के स्खलित होने पर , क्रोधित हुआ । स्खलना के कारण को देखते हुए , विमान के नीचे खड़े प्रतिमाधारी वाली को देखकर कहा - रे पाखण्डी ! क्या आज भी तू मेरे ऊपर विरोध रखता है ? पहले भी किसी माया के द्वारा मुझे वहन किया था । उस कृत्य के प्रतिकार के भय से तूने दीक्षा ली । वह मैं ही हूँ और मेरे बाहु भी वें ही हैं । जैसे तूने मुझे चन्द्रहास तलवार सहित उठाकर पृथ्वी पर भ्रमण किया था , वैसे ही पर्वत सहित तुझको उठाकर समुद्र में फेंकूँगा । इस प्रकार कहकर , जमीन को भेदकर , अष्टापद तल में प्रवेश किया और हजार विद्याओं का स्मरणकर , उस पर्वत को उठाया । तड़तड़ शब्द से व्यंतर निकाय के देव भयभीत हुए । झलझल शब्द से चंचल समुद्र के द्वारा पृथ्वीतल भरा गया । खड़खड़ इस प्रकार गिरते पत्थरों के द्वारा वन और द्वीप नष्ट किये गये और कड़-कड़ शब्द से पहाड़ के उपवन वृक्ष तूटें । अष्टापद पर्वत रावण के द्वारा उठाया गया , ऐसा अवधिज्ञान से जानकर , अनेक लब्धिरुपी नदीयों के लिए समुद्र के समान , विशुद्धबुद्धिवाले उन महामुनि ने सोचा -यह दुष्ट क्यों मेरे ऊपर मात्सर्य से अनेक जंतुओं का संहार और भरतचक्रवर्ती द्वारा बनाये गये चैत्यों का ध्वंस करने के लिए प्रयत्न करता है ? ममत्वरहित मैं , चैत्य और प्राणी रक्षा के लिए राग-द्वेष बिना ही उसको थोड़ी शिक्षा दूँगा । उसके बाद पैर का अंगूठा लीला मात्र से ही पर्वत पर दबाने से , संकुचित शरीर वाला रावण खून की उल्टियाँ करता हुआ पृथ्वी रो उठे वैसे राव ( शब्द ) किये ! उससे रावण नाम से प्रसिद्ध हुआ । रावण की पुकार सुनकर वाली के द्वारा छोड़ा गया । रावण ने बाहर निकलकर , नमस्कार किया और क्षमा माँगी ।
एकबार ठोकर खाने के बाद ( खाकर ) भी कभी-कभी दुनिया के कहे जानेवाले महामानव भी पुनः कषायाधिन हो जाते हैं ।
रावण ने वाली की शक्ति का परिहास किया । देव विमानों का तो नियम है कि चैत्य , प्रतिमाधर मुनि , तपस्वी मुनि आदि का उल्लंघन न करना । अतः विमान स्खलित हुआ था । लेकिन रावण ने विपरीत अर्थघटन किया । उसने यह भी नहीं सोचा कि पर्वत को उठाने से कितना अनर्थ होगा ।
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📦 क्रमांक :- [ 14 ]
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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गतांक से आगे :-
कहावत है कि क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है । उसे कुछ दिखाई नहीं देता । वैसा ही हुआ रावण के साथ । उसने पर्वत उठाने का कार्य तो किया पर वाली मुनीश्वर के चैत्य रक्षा के लिए कदम उठाने पर उनके चरण अंगूठे की शक्ति से दण्डित् होना पड़ा । दशानन को रोना आ गया । कथा कहती है कि उस समय से उसका नाम रावण हुआ । दशानन के नाम से पहचानने वाले तो विद्वद्जन ही रहे और सामान्य लोगों में तो रावण नाम ही रहा ।
मुनीश्वर वाली ने पूर्व में भी उस पर दया की थी और आज भी वे तो दया सागर ही थे । उन्होंने उसे छोड़ दिया ।
रावण को क्षमायाचना करनी पड़ी । यही तो बिना विचारे किये कार्य का फल है। आप महान है । मैं अज्ञानी हूँ । आपने मुझे प्राण दिये । इस प्रकार कहकर तीन प्रदक्षिणा दी और वंदन किया । वाली के ऊपर देवों ने पुष्पवृष्टि की । रावण पुनः वाली को नमस्कार कर और अन्तःपुर सहित अष्टापद पर्वत पर जाकर विधि से पूजा की । बहन से वीणा लेकर , उसे साफ किया । बाद में महासाहसिक दशानन भक्ति से वीणा को बजाने लगा । दशानन के वीणा बजाने पर और अन्तःपुर के गायन करते समय , वहाँ पर धरणेन्द्र आया । अरिहन्त भगवंतों की पूजा , नमस्कारकर रावण से कहा - गीत से रंजित मैं तुझ पर तुष्ट हूँ । वर माँगों । रावण ने कहा - अरिहंत के भक्त आपके लिए यह योग्य है । वर लेते मेरे भक्ति को दाग लगाने के समान है , इस प्रकार कहने पर , अत्यन्त खुश नागेन्द्र ने अमोघशक्ति , रुपविकारिणी विद्या देकर अपने स्थान गया । रावण के हृदय में जिनभक्ति का रंग चोल मजीठ के रंग समान था । वह जब भक्ति में मस्त बनता था तब उसका मन मयूर नाच उठता था । कथाकारों का कहना है कि रावण अष्टापद पर्वत पर वीणा बजाता था उस समय वीणा का तार टूट गया , भक्ति में भंग न पड़े इसलिए हाथ में से नस निकालकर लघु लाघवी कला से उस नस को तार के स्थान पर लगाकर भक्ति के रंग को अखंड रखा और वहाँ उसने तीर्थंकर नामकर्म के दलिक इक्कट्ठे करना प्रारंभ किया ।
धरणेन्द्र के प्रसंग से एक बात स्पष्ट होती है कि भक्ति के बदले मांगना भक्ति का फल घटाना है । वर्तमान में जो लोग बदले के लिए ही , प्राप्त करने के लिए ही भक्ति करते हैं वे भगवंत की भक्ति करते हैं या धनद की भक्ति करते हैं वे स्वयं सोचें । रावण श्री जिनेश्वरों को नमस्कार कर , रत्नावली से विवाह कर लंका गया । वाली को तभी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और क्रम से मोक्ष गये ।
यहाँ वैताढ्यपर्वत के ज्योतिष्पुर के ज्वलनशिख की पुत्री तारा , चक्रांक विद्याधर के पुत्र साहसगति और सुग्रीव के द्वारा मांगी गयी । पिता ने नैमित्तिक से सुग्रीव के दीर्घायुष के बारे में सुनकर उसको दी । तारा से अंगद और जयानन्द नामक दो पुत्र हुए । तारा को अपहरण करने की इच्छावाला साहसगति , लघुहिमवंत पर्वत पर जाकर , रुपपरावर्तिनी शेमुषी विद्या की साधना करने लगा ।
क्रमशः -
ई
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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10/12/20
📚 _* 📿 जैन रामायण 📿*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 15 ]
गतांक से आगे :-
यहाँ रावण दिग्यात्रा के लिए निकला । द्वीप में रहने वाले विद्याधर और राजाओं को वशकर पाताललंका गया । वहाँ खर नामक विद्याधर ने भेंटों से पूजा की । चौदह हजार विद्याधरों के स्वामी खर के साथ रावण इन्द्र को जीतने चला । सुग्रीव भी उसके पीछे गया । नर्मदा नदी के तट पर बैठे रावण ने पवित्र होकर मणिमय पाट पर रत्नमयी जिनप्रतिमा रखी । नदी के पानी से बिम्ब को स्नान कराकर , नदी के कमलों से पूजा करते समय , अकस्मात् ही समुद्र के तरंगों के साथ आये बहाव के कारण पूजा में विघ्न पड़ने से अपना शिरच्छेद मानता हुआ क्रोधित हुआ और कहा -मिथ्यादृष्टि नर , खेचर , असुर अथवा सुर यह कौन है जिसने पूजा में विघ्न किया ? किसी विद्याधर ने निवेदन किया - यहाँ से दूर माहिष्मती नामक नगरी है । उसका राजा सहस्त्रांशु है , जो हजारों राजाओं से सेवित और अत्यन्त पराक्रमी है । नर्मदा नदी के जलक्रीड़ा में , पुल के द्वारा पानी को बांधकर हजार रानियों के साथ क्रीड़ा करता है । नदी के दोनों तट पर उसकी रक्षा करने वाले एक लाख सैनिक खड़े हैं । वे तो उस पराक्रमी पुरुष के शोभामात्र हैं । हजार स्त्रियों से युक्त उसके द्वारा फेंके जाते हुए उस पानी ने बड़े लहरों का रुप लेकर आपकी देवपूजा को बहाया । इस बात की सत्यता के लिए देखें -ये उस राजा के स्त्रियों के निर्माल्य हैं और उनके चन्दन आदि विलेपनों से मिश्रित यह पानी है । यह सुनकर दशानन क्रोधित हुआ और कहा -उस राजा ने अपने अंग से दूषित पानी से , यह पूजा दूषित की है । रावण ने उसके बन्धन के लिए सैनिकों को आदेश दिया । आकाश में रहकर उन्होंने पृथ्वीतल पर रहे सहस्त्रांशु राजा के सुभटों को मोहित करते हुए उपद्रव किया । सहस्त्रांशु ने वैसी स्थिति देखकर , धनुष पर डोरी चढ़ाकर बाण फेंकते हुए उन सैनिकों को वापिस लौटाया । रावण ने वापिस लौटे उन सैनिकों को देखकर स्वयं जाकर , उससे लम्बे समय तक अस्त्रों से युद्ध किया । भुजाओं के पराक्रम से उसे अजेय जानकर , विद्या से मोहितकर ग्रहण किया और अपने स्थान पर ले गया । सभा में बैठा हुआ रावण , चारणश्रमण शतबाहु को आकाश मार्ग से आते देखकर उठा और नमस्कार किया । उनको आसन पर बिठाकर स्वयं भूमि पर बैठा और हाथ जोड़कर आने का कारण पूछा । तब चारणश्रमण ने कहा - मैं माहिष्मती नगरी में शतबाहु नामक राजा था । सहस्त्रांशु को राज्य देकर , मैंने दीक्षा ग्रहण की थी । इस प्रकार मुनि के द्वारा अर्धवाक्य कहने पर , विनयवान रावण ने पूछा -क्या श्रीपूज्य का यह सहस्त्रांशु पुत्र है ? मुनि के द्वारा हाँ कहने पर , रावण ने कहा -पूजा में विघ्न डालने के कारण , इसको यहाँ लाया हूँ । मैं मानता हूँ कि इसने अज्ञान में ही यह कार्य किया है । आपका पुत्र क्या अरिहंत की आशातना करेंगा , इस प्रकार कहकर सहस्त्रांशु को वहाँ ले आया । शर्म से युक्त उसने पिता को नमस्कार किया । तब दशानन ने कहा - तुम हम तीनों भाईओं के लिए छोटे भाई के समान हो । सहस्त्रांशु ने कहा - मैं दीक्षा ग्रहण करुँगा । ऐसा कहकर रावण को अपना पुत्र समर्पित कर , चरम शरीरी सहस्त्रांशु ने उनके पास दीक्षा ग्रहण की । अपने मित्र और अयोध्या नगरी के राजा अनरण्य को दीक्षा ग्रहण की खबर पहुँचाई । अनरण्य राजा ने भी शीघ्र ही व्रत संकेत को स्मरण कर , दशरथ को राज्य सौपकर दीक्षा ली ।
क्रमश:
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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11/12/20
📦 क्रमांक :- [ 16 ]
गतांक से आगे :-
इस वर्णन में रावण की जिनभक्ति के भाव प्रदर्शित हैं । युद्ध के लिए निकला हुआ रावण अपने साथ जिन -प्रतिमा ले जाता है । मार्ग में जहाँ पड़ाव होता है वहाँ भी जिनपूजा कर लेता है । वर्तमान के जैनों को इस पर से बोध पाठ लेना चाहिए कि रावण अगर युद्ध दरम्यान भी जिनपूजा के नियम का अचूक पालन करता था तो हम अपने घर में ही रहकर जिनपूजा से रहित कैसे रहे ? जिन प्रतिमा घर -घर में होनी चाहिए । शास्त्रकारों ने जिस घर में जिन प्रतिमा नहीं उस घर को श्मशान तुल्य कहा है । आपके लाखों करोड़ों के बंगले वालों को जिनप्रतिमा ही नहीं घर में गृहमंदिर बनाना ही चाहिए । विशेषकर वर्तमान में गृहमंदिर की अति आवश्यकता है । बच्चों की स्कूल -कालेज का समय ऐसा आता है कि कभी बच्चें सात-सात दिन प्रभु दर्शन से भी वंचित रह जाते हैं । अगर घर में ही जिनमंदिर या जिनप्रतिमा हो तो घर का प्रत्येक व्यक्ति के आराधक भाव में अभिवृद्धि कर सकता है । आशातना के भूत को भगाकर , भक्ति के भाव जगाकर प्रत्येक आराधक आत्मा को अपने घर में जिनमंदिर या जिनप्रतिमा की स्थापना अवश्य करवानी चाहिए ।
जहाँ सहस्त्रांशु को मुनिराज का पुत्र जाना तो उस पर कैसा स्नेहभाव प्रकट हुआ कि उसे अपना चौथा भाई मान लिया । यही तो है महान आत्माओं की महानता ।
सहस्त्रांशु भी वैरागी पिता का पुत्र था । उसे संसार का वैभव क्षणिक लगा । भौतिक सुख एक भ्रमणा है ऐसा अनुभव हुआ । हजारों राणियों से क्रीड़ा करने के आनंद में निमग्न को क्षणभर में बंदी हो जाना पड़ा , बस उसी से उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ । दीक्षा लेने के पूर्व मित्र राजा अनरण्य को संदेश भेज दिया । हम दोनों ने जो निर्णय लिया था कि जो पहले दीक्षा ले वह दूसरे को समाचार भेजे । दोनों को दीक्षा लेनी ही हैं ।
मित्रता इसका नाम । जो परलोक में भी हितकर हो ।सहस्त्रांशु ने दीक्षा ली तो उधर अयोध्या में अनरण्य ने अपने एक महिने के पुत्र दशरथ को राज्य देकर दीक्षा ले ली ।
क्रमश:
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 17 ]
गतांक से आगे :-
रावण शतबाहु और सहस्त्रांशु को नमस्कारकर , सहस्त्रांशु के पुत्र को राज्य पर स्थापित कर , आकाशमार्ग से चला । तब लकड़ी के प्रहार से जर्जरित नारद ॠषि ' अन्याय-अन्याय ' इस प्रकार चीखते हुए रावण से कहने लगे-राजपुर में मरुत नामक मिथ्यादृष्टि राजा यज्ञ कर रहा था । वहाँ रोते हुए पशुओं को देखकर , मैं आकाश से नीचे उतरा और पूछा -यह क्या है ? तब मरुत ने कहा - यह यज्ञ है जो ब्रह्मा के द्वारा बताया गया है । यहाँ वेदिका के अन्दर देवों की तृप्ति के लिए पशुओं को होमना चाहिए । यह उत्तम धर्म है । तब मैने उसको इस प्रकार कहा - शरीर साफ की हुई भूमि के समान कहा गया हैं । आत्मा को यज्ञ करने वाला , तप को अग्नि , ज्ञान को घी , कर्मो को लकड़ी , क्रोधादि कषाय को पशु , सत्य को यूपस्तंभ , सर्व प्राणियों के रक्षण को दक्षिणा , रत्नत्रयी को तीन वेदिका के समान बताया गया है । इस प्रकार वेद में कहा हुआ यज्ञ योग विशेष से किया जाय , तो मुक्ति का साधन होता है । बकरें आदि प्राणियों के वध से तो नरकगति ही होगी । इसलिए राजन ! तू उत्तम , बुद्धिमान् होकर शिकारी के उचित कर्म मत कर । प्राणियों के वध से यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती , तो यह जीवलोक अल्प दिनों में ही शून्य हो जाता । इस प्रकार मेरे वाक्यों से क्रोधित ब्राह्मण मुझे डंडे आदि से मारने लगे । मैं वहाँ से भागकर आपके पास आया हूँ । इसलिए उन पशुओं को आप बचाओं । तत्पश्चात् दशानन , उस यज्ञ को देखने की इच्छा से , विमान से नीचे उतरा । मरुत ने पैर धोने और आसन देने आदि से पूजा की । तब रावण ने कहा - धर्म अहिंसा से होता है । उस यज्ञ को मत करो । यदि करेगा तो इस लोक में मेरे पहेरे में रहोगे और परलोक में नरक को प्राप्त करोगे । ऐसा रावण के द्वारा कहने पर मरुत ने यज्ञ को रोक दिया । ये पशु वध से युक्त यज्ञ कहाँ से शुरु हुए ? ऐसा रावण के पूछने पर नारद ने कहा -
चेदि देश में शुक्तिमती नामक नदी से शोभित शुक्तिमती पुरी है । अनेक राजाओं के राज्य करने के बाद , सुंदरव्रत को धारण करने वाले भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के समय में अभिचन्द्र नामक उस नगरी का राजा हुआ । उसका पुत्र वस था । वह सत्यवादी के रुप में प्रख्यात था । क्षीरकदम्ब नामक गुरु का पर्वतक नामक पुत्र था । राजपुत्र वसु , पर्वतक और मैं तीनों ही उनके समीप में पढ़ते थे । एक दिन रात्रि के समय हम तीनों के सो जाने पर गुरु ने दो चारणश्रमणों के द्वारा इस प्रकार कहते हुए सुना कि -इन तीनों में से एक स्वर्ग जायेगा और दो नरक में । यह बात सुनकर परीक्षा की इच्छावाले गुरु ने हम तीनों को एक-एक आटे का मूर्गा देकर कहा -जहाँ कोई भी नहीं देखता हो , वहाँ इसको मारना । वसु और पर्वतक ने शून्य प्रदेश में मार डाला । मैं नगर से बाहर , दूर जाकर गुरु के वचनों को विचारने लगा -यह मूर्गा देख रहा है , मैं देख रहा हूँ , ये पक्षी देख रहे हैं , लोकपाल देख रहे हैं और ज्ञानी भी देख रहे हैं । इसलिए निश्चय ही दयालु गुरु हमारी बुद्धि की परीक्षा कर रहे हैं । वापिस लौटकर गुरु को सच्ची बात निवेदन की । गुरु ने अपनी बांहों में भर लिया और मेरी प्रशंसा की । वसु और पर्वतक ने भी अपनी बात कही । तब गुरु ने उन दोनों से कहा -अरे पापी ! क्या तुम दोनों नहीं देख रहे थे ? पक्षी नहीं देख रहे थे ? फिर क्यों मारा ? बाद में गुरु ने पुत्र के और पुत्र से भी अधिक वसु के नरकगति की प्राप्ति के ज्ञान से , संसार से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की ।
क्रमशः -
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 18 ]
13/12/20
गतांक से आगे :-
उस युग में गुरु को अपने शिष्य की कैसी चिंता थी । इसका ख्याल इस घटना से प्राप्त हो रहा हैं । मेरे पास अध्ययन करने वाला दुर्गति में जाय यह कैसे सहन हो ? ऐसी परिणतिवाले अध्यापक होते थे और आज तो दुर्गति का सीधा मार्ग बतायें दुर्गति प्राप्ति का ज्ञान दें और शिक्षण का हेतु ही दुर्गति की प्राप्ति हो गया हैं । अध्यापक केवल धन से संबंध रखता हैं । वर्तमान में कितने ही अध्यापक तो उन्मार्ग का अनुसरण करते पकड़े भी गये हैं । शिक्षा एवं शिक्षक दोनों इतने विकृत हो गये हैं कि जिसकी शुद्धि करनी भी कठिन हो गयी हैं । लवण समुद्र में मीठे पानी की लहर और शृंगी मच्छ वही पानी पिते हैं । वैसी बात इस दूषित शिक्षा -शिक्षक के समय में भी शुद्ध शिक्षा शुद्ध शिक्षक का प्रारंभ देशी गुरुकुलों की स्थापना के द्वारा प्रारंभ हुआ हैं । यह अतीव आनंद का एवं अपनाने का विषय हैं ।
पर्वतक उनके स्थान पर गुरु हुआ । मैं वापिस स्वदेश आया । अभिचन्द्र राजा के दीक्षा ग्रहण करने पर वसु पृथ्वी का रक्षण करने लगा । सत्यवादी के रुप में प्रसिद्ध था और सत्य ही कहता । एक दिन विन्ध्याचल पर्वत के मध्यभाग में शिकार करने के लिए गये हुए शिकारी के द्वारा फेंका हुआ बाण , बीच में ही गिर पड़ा । उसका कारण ढूँढते हुए , हाथ के स्पर्श से वहाँ पर आकाश के समान अदृश्य स्फटिक शिला का पता चला । तब उसने सोचा -मैंने दूसरी ओर चरते हिरण के प्रतिबिंब को इस शिला पर संक्रान्त हुआ देखा । इस कारण से यह शिला वसु राजा के योग्य हैं । उसने रहस्य ( एकांत ) में जाकर , राजा से बात की । राजा ने शिला को ग्रहण कर ली और उस शिकारी को धन दिया । राजा ने गुप्त रीति से उस शिला के द्वारा खुद के लिए आसन की वेदिका घड़ाकर , शिल्पीओं को मरवा डाला । उस शिला के वेदिका पर रखा हुआ सिंहासन , सत्य के प्रभाव से आकाश में स्थित हुआ हैं , इस प्रकार लोग मानने लगे । इसके सत्यव्रत से देवता खुश होकर इसका सान्निध्य कर रहे हैं ऐसी प्रसिद्धि से भयभीत बने दूसरे राजा उसके वश हुए । अन्य दिन पर्वतक के यहाँ मैं गया । वह अपने शिष्यों को ऋग्वेद की व्याख्या करते हुए -अजैर्यष्टव्यम् -अजों के द्वारा यज्ञ करना चाहिए । यहाँ अज यानि बकरों से इस प्रकार कहने पर मैंने कहा - भाई ! यह तुम्हारी भ्रान्ति है । अज यानि नहीं उगनेवाले तीन वर्ष पुराने धान्य हैं । ऐसा गुरु ने भी कहा था । पर्वतक कहने लगा -पिताजी ने अज शब्द की ऐसी व्याख्या नहीं की थी । निघन्टुओं में भी ( शब्दकोष ) अज यानि बकरे ऐसा अर्थ किया है । मैने भी कहा -शब्दों के मुख्य और गौण अर्थ होते हैं । यहाँ गुरुजी ने गौण अर्थ के बारे में बताया था । व्यर्थ में ही पाप मत बांधो । पर्वतक ने कहा -गुरुजी ने अज का मेष ( बकरा ) अर्थ ही कहा था । उसने जिह्वाछेद की शर्त रखी और कहा -वसु हमारा सहअध्यायी प्रमाण हैं । उस शर्त को मैंने भी स्वीकार की । माता ने पर्वतक से रहस्य ( एकांत ) में कहा -गृह कार्यों में व्यस्त होते हुए भी मैंने तेरे पिता के मुख से अज यानि तीन वर्ष पुराने धान्य की बात सुनी थी । तूने बिना सोचे शर्त लगायी हैं । पर्वतक ने कहा -प्रतिज्ञा करने के बाद , उसे झूठलाया नहीं जा सकता । माता राजा के पास जाकर पुत्र की भिक्षा माँगने लगी । राजा के आदर सहित पूछने पर , बीती घटना का निवेदन कर , अज यानि मेष ( बकरा ) इस प्रकार कहने के लिए प्रार्थना की । वसु ने कहा - गुरु के वचनों को अन्यथा कहना और झूठी गवाही देना , ये दोनों महापाप हैं । ऐसा कहने पर माता ने रोष पूर्वक कहा -यदि सत्यव्रत को जानते हो , तो गुरु के पुत्र का बहुमान करों । वसु ने भी माता के वचनों को मान लिया । बाद में मैं और पर्वतक , सभा में सभ्य के होने पर , अपने-अपने पक्ष की बात को प्रकट किया । वृद्ध ब्राह्मणों से सत्य श्रवण करने के बाद भी वसु ने पर्वतक के पक्ष को स्थापित किया । यह सुनकर क्रोधित हुए देवताओं के द्वारा आकाश स्फटिक आसन को वेदिका सरकाई गयी । वसु नीचे गिरा और मरकर नरक में गया । वसु के पुत्र पृथुवसु , चित्रवसु , वासव , शक्र , विभावसु , विश्वावसु , सूर और महासूर ये सब पिता के आसन पर बैठे । देवताओं ने उनको तत्काल ही मार डाला । सुवसु नामक नौवां पुत्र भागकर नागपुर गया और दशंवा बृहद्ध्वज नामक पुत्र मथुरा । इस वर्णन से शिक्षक -अध्यापक कैसी विचारणा वाला होना चाहिए इसका मार्गदर्शन मिलता है।
✒ क्रमशः:-
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14:12:20ज
📿📚 _* 📿 जैन रामायण*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 19 ]
गतांक से आगे :
14:12:20
साथ में राजा लोग कैसे स्वार्थी होते हैं । इसका स्पष्टीकरण भी मिलता है । वसु ने अपनी यह चालाकी कभी-भी उजागर न हो इस स्वार्थ के कारण शिल्पीओं को जान से मरवा डालें । यह न सोचा कि ' पाप एक न एक दिन प्रकाश में आये बिना नहीं रहेगा । '
मानव की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह अपने पापों को छुपाने के लिए दूसरों की हत्या भी करवा देता है । वर्तमान में भी ऐसे अनेक प्रसंग दैनिक पेपरों में चमक गये हैं । जिन्होंने अपने पापों को छिपाने के लिए दूसरों की हत्या की । हत्याकर खुश तो हो गये पर अल्पावधि में ही पाप प्रकट हो गया और पकड़े जाकर मृत्यु को भेटना पड़ा ।
पूर्व के कथानकों में पढ़ने के बाद वर्तमान में ऐसी घटनाएँ पेपरों में पढ़ने के बाद भी मानवों की अपनी पाप लीला को छुपाने की प्रवृति में परिवर्तन नहीं आया । एक वर्णन तो ऐसा पढ़ने में आया था कि एक मुनि ने अपनी पाप लीला छुपाने के लिए एक मुनि की हत्या करवा दी ।
इस वर्णन में एक शब्द के अर्थघटन में परिवर्तन का परिणाम कितना दुःखद हुआ यह भी देखने को मिलता है ।
पर्वतक ने अर्थघटन गलत किया , नारद ने सही अर्थ बताया । पर्वतक की माता ने भी सही अर्थ की पुष्टि की पर पकड़ हो जाने के बाद असत्य को भी सत्य सिद्ध करने के प्रयास तीव्रता से चलते हैं । गुरुमाता भी पुत्र मोह में आ गयी और उसने वसु को असत्य को सत्य कहने के लिए आग्रह किया । इतने वर्षो तक सत्य ही कहा है एक बार असत्य कह दूंगा तो कौनसा अनर्थ हो जायेगा ऐसी ही कुछ विचारणा से वसु भी उस असत्य को सत्य सिद्ध करने की पकड़ में आ गया । एक अनर्थ अनेक अनर्थों को निमंत्रित कर देता है । जहाँ वसु ने असत्य को सत्य कहा वहाँ ही उसका पाप फूट पड़ा । सत्यवादीपने का बिरुद तो हवा में हवा हो गया साथ साथ में सातवी नरक की हवा खाने जाना पड़ा । एकबार का असत्य कितना कितना खतरनाक होता है इसका भी स्पष्टीकरण मिल जाता है । वसु को अपने पापों की सजा मिल गयी ।
वर्तमान में असत्य अर्थ की सत्यता की सिद्धि में मुनिसंस्था भी जुड़ गयी है । जिसके कारण जैनशासन आज अनेक प्रकार के गृहयुद्ध की आग में झुलस रहा हैं । मैं कहुँ वही सच्चा , दूसरा असत्य । परिणाम विपरीत ही आ रहा हैं ।
इधर नगर के लोग , पर्वतक के ऊपर बहुत हँसे और नगर से बाहर निकाल दिया । तब महाकाल नामक , असुरदेव ने उसको ग्रहण किया ।
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📿📚 _* 📿 जैन रामायण*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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15:12:20
📦 क्रमांक :- [ 20 ]
गतांक से आगे :
यह महाकाल कौन है ? इस प्रकार दशास्य के पूछने पर नारद ने कहा - चारणयुगल नामक पुर में अयोधन नामक राजा राज्य करता था । उसको दीति नामक पत्नी , सुलसा नामक पुत्री थी । उसके स्वयंवर में अनेक राजा आये थे । उन सब राजाओं में सगर नामक राजा अधिक दिखायी देता था । सगर की आज्ञा से मन्दोदरी नामक दासी -प्रतिदिन अयोधन राजा के महल में जाती थी । किसी वक्त उसने गुप्त रीति से छुपकर , महल के उद्यानवन के कदलीगृह में रहे हुए दीति और सुलसा के वार्तालाप को सुना । दीति ने अपनी पुत्री से कहा - भरत और बाहुबली के सूर्य और सोम नामक दो पुत्र थे । सोम के वंश में तेरे मामा तृणबिन्दु हुए । सूर्य के वंश में यह तेरे पिता । तुम्हारे पिता की बहन सत्ययशा , तृणबिन्दु राजा की पत्नी है और उनको मधुपिंग नामक पुत्र है । मैं तेरा विवाह उसके साथ करना चाहती हूँ किन्तु तेरे पिता स्वयंवर में चूने हुए वर को देंगे । इसलिए मेरे मन के शल्य को दूर करने के लिए तू मेरे भतीजे को वरना । सुलसा ने भी वह मान लिया । मन्दोदरी से यह वृतान्त जानकर , सगर ने अपने पुरोहित विश्वभूति से कहा कि तू ऐसा कोई ग्रंथ बना जिसमें मेरी अधिकता और मधुपिंग की निष्कृष्टता दिखायी दे । वह भी आशुकवि था । उसने ऐसी राजलक्षणसंहिता बनायी , जिससे सगर संपूर्ण राजलक्षण से युक्त और मधुपिंग उससे रहित हो । विश्वभूति ने उस पुस्तक को पुराण के समान पेटी में डाल दी । अन्य दिन राजा की आज्ञा से उसने सभा में उस पुस्तक को निकाली । पुस्तक के पढ़ने से पहले , सगर ने कहा - जो पुस्तक के वचनों के अनुसार निर्लक्षण होगा , वह वध्य और त्याग करने लायक होगा । पुस्तक के पढ़ने पर निर्लक्षणता के कारण मधुपिंग तापसी दीक्षा ग्रहणकर अज्ञान तपस्या करते हुए आयुष्य पूर्ण कर महाकाल नामक साठ हजार असुर देवों का स्वामी हुआ ।
अवधिज्ञान से सगर द्वारा किये गये कार्य को जानकर , सगर और अन्य राजाओं को मारने की इच्छावाला , ब्राह्मण का वेश धारणकर , शुक्तिमती नदी के समीप में , पर्वतक को देखकर कहा - शाण्डिल्य नामक , मैं तेरे पिता का मित्र हूँ । क्षीरकदम्ब और मैं , दोनों साथ में ही पढ़ते थे । नारद और लोगों के द्वारा तू नगर से बाहर निकाला गया है , यह सुनकर मैं तेरे पास आया हूँ । मैं मन्त्रों से विश्व को मोहितकर , तेरे पक्ष को पूर्ण करुँगा । इस प्रकार कहकर पर्वतक से युक्त वह महाकाल , कुधर्म से लोगों को मोहित करने लगा । लोगों में व्याधि , भूतादि दोषों को उत्पन्न करता । पर्वतक भी शाण्डिल्य की आज्ञा से रोगों को शान्तकर , लोगों को अपने मत में स्थापित करता । इस प्रकार सगर के नगर और अंतःपुर आदि में , उस महाकाल के द्वारा विकुर्वे हुए रोग से पीड़ित होने पर , शाण्डिल्य और पर्वतक के आश्रय से रोग की शांति हुई ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📿📚 _* 📿 जैन रामायण*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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16:12:20
📦 क्रमांक :- [ 21 ]
गतांक से आगे :-
सौत्रामणी नामक यज्ञ में शराब पीना , गोमेधयज्ञ ( जिसमें गौ को मारकर होम किया जाता है ) में स्त्री का सेवन , मातृमेध और पितृमेध यज्ञ में उनका वध करना , कछुएँ की पीठ पर रखे हुए अग्नि में स्वाहा कहकर , जुह्वका नामक यज्ञ करना , कछुएँ के अभाव में , पीली कान्तिवाले गंजे और मुख तक जल में उतरे हुए ब्राह्मण के कछुएँ के समान कान्ति धारण करते मस्तक पर होम करना , यज्ञ में मांस खाना , संपूर्ण जगत् जीवमय है , उससे कौन नहीं मारता ? अर्थात परस्पर की हिंसा करते ही हैं ! उससे यज्ञ में यथेच्छा से हिंसा करनी चाहिए , इत्यादि उपदेशों से सगर को अपने मत में स्थापितकर , कुरुक्षेत्रादियों ( जहाँ पाप को दूर किया जाता है उस जगह ) में वेदिका के अंदर , उसने यज्ञ कराये । राजसूयादि ( राजा को करने लायक एक यज्ञ ) भी कराये । यज्ञ में मारे हुए को उस महाकाल असुर ने विमान में बैठे हुए दिखाये । विश्वास को प्राप्त लोग शंका रहित यज्ञ करने लगे । अन्य दिन मैंने और दिवाकर नामक विद्याधर ने यज्ञ पशुओं का हरण किया । उस असुर ने मंत्र विद्या के विनाश के लिए ऋषभदेव की प्रतिमा को स्थापित किया । उपाय रहित होने पर , मैं और वह विद्याधर अन्यस्थान पर चले गये । यज्ञों में भावित किए हुए सुलसा युक्त सगर को उसने यज्ञ की अग्नि में होम डाला । इस प्रकार अपना वैर वसुली का कार्यकर महाकाल असुर अपने स्थान पर चला गया । इस प्रकार पर्वतक से चालू हुए हिंसात्मक यज्ञ , तूझे रोकने ही चाहिए । रावण ने उस बात को स्वीकारकर , मरुत के पास से नारद को क्षमा मंगवाकर विसर्जित किया ।
इस यज्ञ के प्रकरण के मूल में अर्थघटन की विपर्यासता के साथ सगर का स्त्री मोह , स्त्री मोह के कारण मधुपिंग प्रति द्वेषोत्पत्ति और मैं बड़ा हूँ अतः कन्या मुझे ही मिलनी चाहिए ऐसे भावों के कारण मायाचरण कर मधुपिंग को अपमानित करवाया और उस अपमान का बदला अनेक निर्दोष पशुओं-मानवों एवं सगर राजा तक को होम में हवन करवाकर लिया ।
एक उन्माद प्रचलित हो जाता है फिर उस प्रचलित उन्मार्ग को सन्मार्ग के रुप में स्थापित करने के लिए पुरुषार्थ किया जाता है । कोई उसे उन्मार्ग कह दे , सिद्ध करने जाय तो उसे अनेक प्रकार की कुयुक्तियाँ , कुतर्को के द्वारा असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न होता है । उस यज्ञ में पशुओं की हत्या को रोकने हेतु नारदजी के प्रयत्न को श्री ऋषभदेवजी ( श्री शांतिनाथजी ) की प्रतिमा के द्वारा उनके बल को क्षीण करवा दिया ।
क्रमश:
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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📦 क्रमांक :- [ 22 ]
17:12:20
गतांक से आगे :-
इसके बाद मरुत ने रावण से पूछा - यह कृपालु कौन हैं ? तब रावण ने कहा - ब्रह्मरुचि नामक तापस और उसकी गर्भवती कूर्मी नामक भार्या थी । एक दिन उनके यहाँ साधु आये । एक साधु से प्रतिबोध पाकर , तापस ने दीक्षा ग्रहण की और कूर्मी श्राविका बनी । नारद के जन्म होने पर , तिर्यकजृम्भक जाति के देवों ने उसका अपहरण कर लिया । उस दु:ख से कूर्मी ने भी दीक्षा ग्रहण की । नारद को देवों ने पाला , शास्त्र पढ़ाया और आकाशगामिनी विद्या दी । अणुव्रतधारी नारद यौवनावस्था को प्राप्त कर शिखा को धारण करने से , न गृही और न यति हुआ ।कलह देखने की इच्छावाला । गीतनृत्यादि में कुतूहल रखनेवाला , सदा हास्य नाटकीय चेष्टा और वाचालता में अत्यन्त वात्सल्यवाला , वीरों और चाहकों के बीच में सन्धि और लड़ाई करानेवाला , बगल में छाता , हाथ में आसन , पैरों में पादुका धारण करनेवाला , देवों के द्वारा बड़ा करने के कारण , देवर्षि नाम से पृथ्वीतल पर प्रख्यात हुआ । यह नारद प्रायःकर ब्रह्मचारी और पृथ्वीतल पर स्वेच्छा पूर्वक विचरता है । नारद का वृतान्त सुनने के बाद , मरुत नृप ने रावण से क्षमा मांगकर , कनकप्रभा नामक अपनी कन्या का रावण के साथ पाणिग्रहण किया । वहाँ से विदाय लेकर , रावण मथुरा गया ।
मथुरा नरेश हरिवाहन त्रिशूल धारण किये हुए मधु नामक अपने पुत्र के साथ भक्तिपूर्वक संमुख आया । तब रावण ने पूछा - यह त्रिशूल कहां से प्राप्त हुआ ? भ्रकूटि संज्ञा से पिता के द्वारा आदेश प्राप्त मधु कहने लगा - पूर्वजन्म के मित्र चमरेन्द्र ने मुझे दिया है । उसका वृतान्त इस प्रकार है-धातकीखंड के ऐरावतक्षेत्र में शतद्वार नाम का नगर है । राजा के पुत्र सुमित्र और कुलपुत्र प्रभव , दोनों अच्छे मित्र थे । क्रम से सुमित्र राजा बना और प्रभव को भी उसने राजा बनाया । अन्य दिन घोडेसवार राजा , घोडे के विपरीत दिशा में जाने के कारण , किसी विषम पल्ली में पहुँचा । वहाँ पल्लीपति की पुत्री वनमाला से विवाहकर वापिस नगर में आया । प्रभव उसके रुप में मोहित होकर , विषय वासना की इच्छावाला , खान-पान आदि क्रियाओं में चित्त न लगने के कारण दुर्बल हुआ । सुमित्र के अत्यन्त आग्रहपूर्वक दुर्बलता का कारण पूछने पर , उसने अपने मन की बात कहीं । अपने मित्र के स्वरुप को जानकर सुमित्र ने वनमाला को उसके आवास में भेजा । वनमाला को आते देखकर , अपने कार्य से लज्जित प्रभव सिर झुकाकर कहने लगा - मैं निर्लज्ज हूँ , जो माता के समान आप पर मैंने विषय-वांछा रखी । धिक्कार है मुझको , इस प्रकार कहते हुए अपने मस्तक का छेदन करने के लिए तलवार उठाई । दरवाजे पर खड़े सुमित्र ने यह वृतान्त देखकर , उसको अकार्य करने से बचा लिया और पूर्ववत दोनों राज्य करने लगे ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📿📚 _* 📿 जैन रामायण*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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18:12:20
📦 क्रमांक :- [ 23 ]
गतांक से आगे :-
मित्र की मित्रता सत्कार्य तक ही उपयोग में आनी चाहिए और तो ही उसे मित्रता कही जा सकती है । मित्र जब मित्र के उन्मार्ग में सहायक बन जाता है तब वह मित्र न रहकर शत्रु पद को प्राप्त हो जाता है । सुमित्र नाम का सुमित्र था । उसने प्रभव की कुइच्छा की बात सुनकर उसे समझाकर उन्मार्ग से सन्मार्ग की ओर लाने का प्रयत्न करना था । विपरीत उसने वनमाला को भेजकर कुमित्र का कार्य ही किया था ।
पति की आज्ञा शिरोमान्य होती है परन्तु वह आज्ञा जिनाज्ञा एवं जनाज्ञा से विरुद्ध नहीं होनी चाहिए । जनाज्ञा का अर्थ व्यवहार विरुद्ध नहीं होनी चाहिए । वनमाला ने पति की बात स्वीकारी यह जिनाज्ञा एवं जनाज्ञा विरुद्ध कार्य किया ।
वर्तमान में ऐसी पाप लीलाएँ अपनी -अपनी पत्नियाँ मित्रों के साथ बदलकर हो गयी है । पापियों को पाप दिखता ही नहीं है ।
यहाँ तो प्रभव की भवितव्यता उत्तम थी ।अतः उसे सद्बुद्धि उत्पन्न हो गयी और उसने वनमाला को माता कह दिया ।
जैन शासन में पाप का प्रायश्चित आत्म हत्या नहीं है । यहाँ तो सद्गुरु के पास से यथायोग्य दंड ग्रहणकर शुद्धि करने का विधान है । बाद में सुमित्र दीक्षा ग्रहणकर ईशान देवलोक में देव हुआ और वहाँ से च्यवकर , मैं मधु हुआ हूँ । प्रभव भी संसार में भ्रमण करते हुए , अज्ञान तपस्या से चमरेन्द्र हुआ । मधु ने कहा दो हजार योजन तक , यह त्रिशूल अपना कार्यकर वापिस लौटता है । ऐसा यह शस्त्र चमरेन्द्र ने प्रेमपूर्वक दिया हैं । रावण ने उस वृतान्त को सुनकर , मधु को मनोरमा नामक अपनी कन्या दी । लंका से प्रयाणकर ।अट्ठारह वर्ष बीत जाने पर , मेरु पर्वत के पांडुक वन में जिनालयों की पूजा की ।
क्रमश:
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📿📚 _* 📿 जैन रामायण*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर❄❀•~•~•~•~•~•~•~•~•~•❀
📦 क्रमांक :- [ 24 ]
गतांक से आगे :-
कुम्भकर्णादि रावण की आज्ञा से दुर्लड्घपुर में रहे पूर्वदिशा के दिक्पाल नलकूबेर को जीतने के लिए निकले । नलकूबेर ने आशाली विद्या से सौ योजन प्रमाण किला अग्निमय किया । चारों ओर से अग्निमय यन्त्रों का आधार लेकर खड़े उस किले को देखने में असमर्थ , वापिस लौटकर रावण से निवेदन किया । रावण भी उपाय रहित ,चिन्ता सहित हुआ । उसी समय , रावण पर अनुरागी , उपरम्भा नामक नलकूबेर की पत्नी ने दासी के मुख से कहलाया -तेरे गुणों से , तुझ पर रागी बनी उपरम्भा , किले की रक्षा करने वाली , आशालीविद्या , तुझे देगी । उससे तू नगर को ग्रहण कर सकेगा और यहाँ सुदर्शन चक्र भी तुझे सिद्ध होगा । रावण ने बिभीषण की ओर देखा , बिभीषण ने भी उस बात को स्वीकार कर , दासी को भेज दिया । यह देख क्रोधित हुए रावण ने बिभीषण से कहा - अरे ! हमारे कुल के विरुद्ध इस अकार्य को तूने क्यों माना ? तूने वचन से भी अपने कुल को कलंकित किया । तब बिभीषण ने कहा -आर्य ! वाणी मात्र से कुल कलंकित नहीं हो जाता हैं । उपरम्भा आकर विद्या दे बाद में शत्रु को वश करें । उस स्त्री को वचन की युक्ति से छोड़ दे , इस प्रकार बिभीषण के बोलने पर , उपरम्भा वहाँ आकर , रावण को आशालीविद्या और व्यन्तर देवों से अधिष्ठित शस्त्र दिये । रावण ने उस विद्या से , अग्निमय किले का संहरणकर , नगर में प्रवेश किया । युद्ध करने के लिए तैयार शत्रुओं को , बिभीषण ने ग्रहण किया और वहाँ देव , असुरों से भी अजेय ऐसे इन्द्र के लोकपाल नलकूबेर के समीप से रावण ने सुदर्शन चक्र को प्राप्त किया ।झूके हुए शत्रु को , उसी राज्य पर स्थापित कर , उपरम्भा से कहा -अपने पति की सेवा कर , विद्या देने से आप मेरे गुरु है । इस प्रकार कहकर , उपरम्भा को भेज दिया और स्वयं रथनूपुर नगर की तरफ चला ।
इस दुर्लघपुर के प्रकरण में नारी की नीचता दृष्टिगोचर होती है । ऐसा सुंदर लोकपाल के रुप में प्रख्यात पति को प्राप्त कर भी नारी ने परपुरुष को समर्पित होने की तैयारी कर अपने पति का अहित भी कर दिया । वासना से ग्रसित नारी को नागन कहा है यह ऐसे प्रसंगों पर सत्य दिखायी देता है । उपरंभा रावण में आशक्त होकर आशाली विद्या न देती तो पति को रावण को नमस्कार करने का प्रसंग ही नहीं आता ।
रानियों की सेवा में रखी हुई दासियाँ भी नमकहराम बनती हैं तभी ऐसी रानियाँ अपनी पाप लीला में आगे कदम बढ़ा सकती है । जहाँ-जहाँ भी ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं तो वहाँ दासियों की सहायता पूरक रुप में बहुलता से होगी ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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20:12:20
📦 क्रमांक :- [ 25 ]
गतांक से आगे :-
यहाँ रावण की उत्तमता भी दृष्टिगोचर होती है । बिभीषण मुंह से उपरंभा की दासी को स्वीकृति का वचन बोलता है । उस समय के रावण के उद्गार अतीव उच्च कोटी के हैं । आशाली विद्या की प्राप्ति से भी अकार्य न करने का टंकार महत्त्वशाली हुआ है और जब उपरंभा समर्पित होने आयी तब उसे हितशिक्षि देकर अपने पति को ही समर्पित रहने का आदेश दिया ।
ऐसी घटनाओं से ही रावण की गिनती महापुरुषों में हुई है ।
रावण को आते सुनकर , सहस्त्रार ने अपने पुत्र इन्द्र से स्नेहपूर्वक कहा -तू पराक्रमी और वंश की उन्नति करने वाला है । इस समय तो नीतिमान लोगों को भी स्थान देना चाहिए । बिना विचार कर काम करने वाले , एकान्त पराक्रम से नष्ट हो जाते हैं । समय-समय पर पृथ्वी , पराक्रमी पुरुषों को जन्म देती रहती हैं । यहाँ मान मत करों । इस समय दशानन बलवान् है । वह सहस्त्रांशु का बंधक , क्रीड़ा मात्र से ही अष्टापद पर्वत को उठाने वाला , मरुत के द्वारा किये जाते यज्ञों को रोकने के लिए , जो यम समान था , जम्बूद्वीप के स्वामी , अनादृत देव से भी जो घबराहट को प्राप्त न हुआ , धरणेन्द्र से प्राप्त शक्तिवाला , दोनों भाईओं से युक्त अत्यन्त शक्तिमान , यम का भी यम , तेरे सैनानी वैश्रवण को जीतनेवाला , जिसकी आज्ञा सुग्रीव भी धारण करता है और जिसके भाईओं के द्वारा दुर्लग्घपुर का राजा नलकुबेर बांधा गया , ऐसे सम्मुख आते रावण को तू प्रणाम कर , शांत कर और इस रुपिणी नामक कन्या को उसे दे ।इस प्रकार कहने से क्रोधित हुए इन्द्र ने कहा - मारने लायक , उसे कैसे कन्या दी जाये । याद करें कि इसके पूर्वजों ने भी आपके पिता विजयसिंह को मारा था । जो मैंने इसके पितामह माली के साथ किया था , वैसा ही इसके साथ भी करुंगा । मेरे ऊपर स्नेह के कारण , आप कायर मत बनों । इतना कहते ही दशानन की सेना ने नगर को घेर लिया । दूत ने आकर इन्द्र को , रावण की सेना में उपस्थित होने को कहा । इन्द्र के नही मानने पर , रावण भी युद्ध के लिए तैयार हुआ । इन्द्र भी युद्ध की तैयारी कर , नगर से बाहर निकला । भयंकर युद्ध में , भुवनालंकार पर बैठे हुए रावण और ऐरावण पर बैठे हुए इन्द्र ने परस्पर युद्ध किया । मन्त्रास्त्र युद्ध करने के बाद , रावण अपने हाथी को ऐरावण के पास ले गया और उस हाथी के महावत को मारकर , ऐरावण सहित इन्द्र को बांधकर , अपनी सेना में ले गया । वैताढ्यपर्वत के दोनों श्रेणियों का राजा होने के बाद , लौटकर वापिस लंका आया । इन्द्र को कारागार में डाला । दिक्पाल सहित सहस्त्रार लंका में आकर , हाथ जोड़ नमस्कार कर , रावण से कहने लगा , अष्टापद पर्वत को उठाने वाले , आपने हमको जिता है इसलिए हम लज्जित नही होते हैं । आपसे याचना करना भी , हमारे लिए शर्म का कारण नही है । आप मुझे पुत्रभिक्षा दे । तब रावण ने कहा - यदि यह इन्द्र दिक्पाल परिवार सहित , लंका को चारों तरफ से तृण , काष्ट आदि रहित करेगा , हर प्रातः दिव्यगंध वाले पानी से चारों ओर सिंचन करेगा और माली के समान पुष्पों को चुनकर , उन्हें गूंथकर , जिनचैत्य आदि में पहुँचायेगा , तब मैं इसे छोडूंगा । इस प्रकार के कार्यो को करते हुए वह अपने राज्य को ग्रहण करें । इन्द्र वैसा ही करेगा , इस प्रकार सहस्त्रसार के कहने पर , रावण ने उसे छोड़ दिया । अत्यन्त खेदित बना इन्द्र भी रथनूपुर जाकर रहा ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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📚 _* 📿 जैन रामायण 📿*
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21:12:20
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 26 ]
गतांक से आगे :-
इस विवरण में पिता की अवसरोपयोगी हितशिक्षा न मानने का परिणाम इन्द्र को कैसा भुगतना पड़ा उसका दर्शन होता है । संसार में सेर पर सवा सेर वाली बात अनादि से चल रही है । पिता दीर्घदृष्टि संपन्न थे । उन्होंने रावण का अवसरोपयोगी चित्रांकन अपने पुत्र के सामने रखा था । परंतु उस समय इन्द्र की दृष्टि में माली आ गया । माली का पुण्य और रावण के पुण्य को देखने में इन्द्र भूलथाप खा गया । पिता और पुत्र दोनों का पुण्य समान नहीं होता । कभी पिता का पुण्य प्रबल होता है और पुत्र निष्पुण्यक भी हो जाता है । कभी पिता कम पुण्य वाला होता है और पुत्र अत्यधिक पुण्यवंत होता है ।
इसे समझ न सकने से इन्द्र को अत्यधिक अपमानित होने जैसी शर्ते स्वीकारनी पड़ी ।
यहाँ जो लोग यह मानते है कि रावण के यहाँ देवलोक का इन्द्र कचरा साफ करने आता था यह बात नहीं थी । इन्द्र नामधारी राजा के पास ये शर्ते स्वीकृत करवायी थी । केवल उसके अहं को खंडित करने के लिए । रावण इतना निम्न प्रकृति का नहीं था कि इन्द्र जैसे राजा के पास ऐसा कार्य करवाये ।
उसके पश्चात् निर्वाणसंगम नामक ज्ञानी को , वहाँ आये सुनकर , शक्र ने पूछा - किस कर्म से रावण से यह मेरा पराभव हुआ ? तब मुनि ने कहा - अरिंजयपुर में विद्याधरों के राजा ज्वलनसिंह की पुत्री अहल्या के स्वयंवर में अनेक विद्याधर राजा आये थे । चन्द्रावर्तपुर के राजा आनन्दमाली वहाँ आया था । सूर्यावर्तपुर का तू तडित्प्रभ राजा था । तू स्वतंत्र राजा है ऐसा न समझकर तू किसी के साथ में आया होगा ऐसी समझ से , तुझे छोड़कर , कन्या ने आनन्दमाली को वरा और वहाँ तेरा पराभव हुआ । अन्य दिन आनन्दमाली ने दीक्षा ग्रहणकर विहार करते हुए रथावर्त नामक पर्वत पर आये । तूने उनको देखकर , पूर्व में हुए पराभव की स्मृति से , बांधकर मारा । तो भी मुनि अपने ध्यान से चलित नहीं हुए । उनके भाई कल्याण गुणधर नामक मुनि ने तुझ पर तेजोलेश्या फेंकी । तेरी पत्नी सत्यश्री के क्षमा माँगने पर , उन्होंने तेजोलेश्या का संहरण कर लिया । तू भी मुनि पराभव के पाप से , संसार में भ्रमण कर , शुभ कर्मो का उपार्जन कर , इन्द्र हुआ । तूने जो मुनि का पराभव किया था , उसके फलस्वरुप ही रावण से पराभव प्राप्त किया है । यह वृतान्त सुनकर , इन्द्र ने अपने पुत्र दत्तवीर्य को राज्य देकर , स्वयं दीक्षा ग्रहणकर सिद्ध हुआ ।
✒ क्रमशः:-
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📚 _* 📿 जैन रामायण 📿*
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22:12:20
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 27 ]
गतांक से आगे :-
द्वेषभाव से ग्रसित होकर व्यक्ति जब सामनेवाले व्यक्ति के स्थान को न देखकर पूर्व के कार्य का बदला लेना चाहता है तब वह निबिड़ अशुभ कर्म बांध लेता है । इन्द्र की आत्मा ने आनंदमाली को मुनि वेश में भी आनंदमाली राजा ही मानकर उसकी विडंबना की । उस समय वे कर्म निबिड़ बंध गये । इन्द्र के भव में जगत में इन्द्र के रुप में पूजे जाने के बाद बंधन में गिरने और ऐसी शर्त स्वीकारने रुप उस पाप का फल भोगना पड़ा ।
अतः ज्ञानियों का यह कथन सतत ध्यान में रखना चाहिए कि ' बंध समय चित्त चेतिए , उदये सो संताप । '
अन्य दिन रावण , अनन्तवीर्यर्षि को वंदन करने के लिए स्वर्णतुंग पर्वत पर गया । तब रावण ने उन केवली भगवंत से पूछा -किससे मेरी मृत्यु होगी ? केवली भगवंत ने कहा - परदारा की इच्छा के दोष के कारण , भविष्यकाल में होने वाले वासुदेव से । रावण ने केवली भगवंत के पास अभिग्रह लिया - मुझे नहीं चाहनेवाली परस्त्री के साथ मैं विषयसेवन नहीं करुंगा । जो रावण इच्छती हुई उपरंभा का त्याग करने की शक्तिवाला अपनी मृत्यु के कारणभूत परनारी है ऐसा जान लेने के बाद , वह भी केवलज्ञानी के मुख से श्रवणकर भी परनारी का त्याग रुप नियम न ले सका ।
इस प्रसंग में भवितव्यता ने रावण को भूला दिया । जिससे परनारी शब्द के पीछे उसने विशेषण लगाकर नियम लिया । ' मुझे नहीं इच्छती ' और यही कारण उसके मृत्यु में निमित्त बना ।
होनहार को मिटाने की ताकत किसी में भी नहीं है ।यह ऐसे प्रसंगों में स्पष्ट दिखायी देता है । उसके बाद अपने पुष्पक विमान में बैठकर , रावण वापिस लंका आया ।
✒ क्रमशः:-
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📚 _* 📿 जैन रामायण 📿*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
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📦 क्रमांक :- [ 28 ]
23:12:20
तीसरा सर्ग
गतांक से आगे :-
वैताढ्यपर्वत के आदित्यपुर नगर में प्रहलाद राजा और केतुमती रानी का पवनंजय नामक पुत्र है । इस ओर भरतक्षेत्र में , समुद्र के समीप में रहे हुए दन्तिपर्वत पर बसे महेन्द्रनगर में , महेन्द्र नामक विद्याधरों का राजा है । उसकी हृदयसुन्दरी नामक पत्नी से अरिंदमादि , सौ पुत्रों के ऊपर अंजनासुन्दरी नामक पुत्री है । पिता की आज्ञा से मन्त्रियों ने , अंजना के लिए अनेक विद्याधरों के रुपों का चित्रांकन कर दिखाये । हरिण्याभ के पुत्र विद्युत्प्रभ और प्रहलाद के पुत्र पवनंजय के रुप को देखकर , राजा ने मंत्री से कहा - रुपवान और कुलिन इन दोनों के बीच में , अंजना के लिए कौन योग्य वर है ? मंत्री ने कहा -ज्योतिषियों ने बताया है कि अठारह वर्ष की आयुवाला विद्युत्प्रभ मोक्ष जायेगा । पवनंजय तो दीर्घायुवाला और योग्य वर है । इसलिए पवनंजय को कन्या दें ।
इसी बीच , विद्याधर नंदीश्वर यात्रा करने गये । वहाँ जाते हुए प्रहलाद ने महेन्द्र राजा से , अपने पुत्र पवनंजय के लिए कन्या माँगी । महेन्द्र ने मुझे भी इष्ट है , ऐसा कहकर स्वीकार की। तीसरे दिन , मानस सरोवर में विवाह होगा , इस प्रकार कहकर दोनों अपने-अपने स्थान पर गये । स्वजनों के साथ , मानस सरोवर जाकर , आवास बनाये । पवनंजय ने अपने मित्र , प्रहसित से कन्या के रुप के बारे में पूछा ।
यहाँ एक बात स्पष्ट हो रही है कि न तो अंजना ने विवाह के पूर्व पवनंजय के चित्र को देखा है न पवनंजय ने अंजना के चित्र को भी देखा है । आज से 50 साल पूर्व तक लड़के -लड़की को देखने की कोई प्रथा ही उत्पन्न नहीं हुई थी । हाँ कथानकों में राजा -महाराजाओं की कन्याओं के स्वयंवर की बातें आती है और वे भी हजारों राजाओं के सामने अपने परिवार के सामने उन-उन राजाओं के देश , नगर , गुण स्वभाव के बारे में पूर्ण वर्णन सुनने के बाद वरमाला पहनायी जाती थीं ।
लड़के -लड़की के माता-पिता आपस में खानदानी , लड़के -लड़की के गुण-दोष स्वजन संबंधियों से जानकर संबंध निश्चित करते थे । उन संबंधों में तीराड़ की बातें संबंध विच्छेद की बातें शादी के बाद हजारों में एकाध भी सुनने को नहीं मिली थी और वर्तमान में एक-दूसरे को देख-परख कर संबंध जोड़ने के बावजूद जैन संघ में ही हजारों की संख्या में गुजरात एवं राजस्थान में संबंध विच्छेद हो गये । फिर भी वर्तमान के युवा वर्ग में से यह विकृति जाने का नाम नहीं लेती हैं ।
विकृति तो वहाँ तक बढ़ गयी है कि अन्य जाति के घरों में जैनियों की कन्याएँ कितनी ही चली गयी है । कुछ तो अत्यन्त दुःखी जीवन जीते हुए पश्चाताप भी कर रही है ।
युवावर्ग सोचेगा और पूर्व की प्रथा अपनायेगा तो सुदंर परिणाम पुनः उपस्थित हो जायेगा । इसके लिए वर्तमान की शिक्षा पद्धति विशेष अहितकर सिद्ध हुई है । अतः सर्वप्रथम शिक्षा पद्धति पर विचार करना आवश्यक है ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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24:12:20
📦 क्रमांक :- [ 29 ]
गतांक से आगे :-
उसने भी अंजना के रुप को वाणी से अवर्णीनीय , रम्भा आदि से भी अधिक होने का वर्णन किया । पवनंजय तभी उसको देखने की इच्छा से उत्सुक हुआ । मित्र सहित पवनंजय रात के समय विद्या से उड़कर , महल के सातवे खंड में गुप्त रीति से छुपकर ,अंजना को देखने लगा । वहाँ एक सखी ने कहा - तू धन्या है जिसको पवनंजय जैसा पति मिला । द्वितीय बोली - चरमशरीरी विद्युत्प्रभ को छोड़कर कौन वर प्रशंसनीय है ? पुनः पहली सखी ने कहा - विद्युत्प्रभ तो अल्प आयु वाला है । इसलिए स्वामिनी के लिए योग्य वर न था । द्वितीय बोली - थोड़ा सा भी अमृत श्रेयस्कारी है, किन्तु विष बहुत हो , तो भी ठीक नहीं । पवनंजय ने सोचा -अंजना को यह बात अच्छी लगी , क्योंकि इसने निषेध नहीं किया हैं । क्रोधित और हाथ में तलवार लिये पवनंजय ने कहा - जिन दो के हृदय में विद्युत्प्रभ है , सामने प्रकट होकर उन दो के सिर का छेदन कर दूँगा , इस प्रकार कहता हुआ चला । प्रहसित ने उसको बाहु में जकड़कर कहा - अपराध करने वाली स्त्री भी अवध्य है । इस निरपराध स्त्री को मारने से क्या लाभ ? इस प्रकार कह कर उसे रोका । पवनंजय वहाँ से उड़कर वापिस अपने स्थान पर आया । दुःखित पवनंजय ने रात को जागते हुए बितायी । प्रातः मित्र से कहा -मुझ पर विराग वाली इस स्त्री से क्या प्रयोजन ? इसलिए हम अपनी नगरी वापिस लौट चलते हैं । मित्र ने कहा - स्वीकार किये गये वचन का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । बड़ों के द्वारा स्वीकारे हुए का तो क्या कहना । अंजना निर्दोष है । स्वेच्छा से नगर की ओर जाते , तू क्या अपने और अंजना के माता-पिता को लज्जित करेगा ? मित्र के वचन से रहे हुए पवनंजय ने उसके साथ विवाह किया । महेन्द्र से सन्मानित प्रहलाद , वर-वधु को लेकर अपनी नगरी आया । अंजनासुंदरी को सात खंडवाला महल दिया । पवनंजय ने उसको वचन से भी नहीं पुकारा । अंजना ने भी पलंग पर करवटे बदलती हुई , कैसे भी करके , उस दीर्घ रात्रि को एक वर्ष के सम बितायी । घुटनों के अंदर मुख रखकर , पति के चित्रलेखनों के द्वारा ही दिनों को बिताती । सखियों के बार-बार बुलाने पर भी , मौन ही रहती ।
एक दिन रावण के दूत ने आकर प्रहलाद से कहा - वरुण राजा रावण के साथ वैर रखता है । नमस्कार करने के लिए कहने पर , वह अपने दोनों भुजाओं को देखता हुआ बोला- यह रावण कौन है ? उससे क्या सिद्ध होगा ? न मैं इन्द्र हूँ , न कुबेर , न नलकुबेर , न सहस्त्रांशु , न मरुत, न यम और न अष्टापद पर्वत , किन्तु मैं वरुण हूँ । यदि उसको अपने देवता अधिष्ठित रत्नों से गर्व है , तब वह आ जाये । उसके गर्व को नाश कर दूँगा । इससे क्रोधित बने रावण ने जाकर उसके नगर को घेर लिया । वरुण भी राजीव , पुंडरीक आदि पुत्रों से युक्त , नगर से निकलकर युद्ध करने लगा । वरुण के पुत्रों ने खर और दूषण को बांधकर ले गये । राक्षसों की सेना बिखर जाने पर वरुण वापिस अपनी नगरी में आया । रावण ने विद्याधर राजाओं को बुलाने के लिए दूतों को भेजा हैं । मैं आपके पास भेजा गया हूँ ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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_*📿 जैन रामायण 📿*_
25;12:20
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 30 ]
गतांक से आगे :-
युद्ध के लिए पिता प्रहलाद को आग्रहकर रोका और स्वयं पवन चलने लगा । अंजना ने पति के यात्रा के बारे में सुनकर , महल से नीचे उतरकर , स्तम्भ का आधार लेकर , उसको देखने के लिए निर्निमेष खड़ी रही । पवनंजय ने उसको थकी हुई , विलेपन रहित , लटकते हुए केशों से आच्छादित भालवाली , कमर पर रखे हुए शिथिल भुजावाली , पीले होठोंवाली , आँसुओं से धोई हुई मुखवाली , ऐसी आगे खड़ी अंजना को देखकर , सोचा -अहो ! इसकी निर्लज्जता , निर्भयता । यह तो पहले भी जान लिया था , किन्तु बड़ों की प्रतिज्ञा के भंग हो जाने के भय से , मैंने इसके साथ विवाह किया ।अंजना भी पैंरो पर गिरकर कहने लगी - आपने सबसे बातचीत की , मेरे साथ कभी भी नहीं । तो भी मैं आपसे विज्ञप्ति करती हूँ कि आप मुझे भूल न जायें । पवनंजय उसका तिरस्कार कर चला गया । दुःखित अंजना भी महल में आकर , भूमि पर गिरी ।
एक शंका ने पवनंजय को कितना निष्ठुर बना दिया । सखियों की मजाक में अंजना को बोलने जैसा था ही नहीं ।ऐसी विचारणा प्रहसित के कहने पर भी पवनंजय ने नहीं अपनायी ।
अंजना ने बाईस वरसों में एक दिन भी अपनी सासु के सामने फरियाद नहीं की । न पति का दोष माना । मेरे ही पूर्वकृत कोई कर्म उदय में आये हैं जिस कारण सुयोग्य होते हुए भी पतिदेव मेरे तिरस्कार में निमित्त बने हैं । उसने अपनी सखी वसंततिलका से भी पति का दोष नहीं कहा । जिसने स्वयं के दोष देखें उसे दूसरे के दोष देखने की याद ही नहीं आती ।
अंजना की सोच थी मैं मेरे पतिदेव के भौतिक सुखोपभोग में अंतरायभूत मेरे अशुभ कर्मो के कारण बनी । कथा में कहीं पवनंजय के दूसरी पत्नी की कोई गंध भी नहीं है ।
शादी के बाद बाईस-बाईस वर्ष तक पत्नी के सुख से वंचित व्यक्ति ने दूसरी शादी की बात सोची भी नहीं ।
वर्तमान युग के युवावर्ग को पवनंजय और अंजना के इस व्यवहार से बोध पाठ लेना चाहिए । जिससे बात-बात पर संबंध विच्छेद की जो बातें क्रियान्वित रही हैं उस पर अंकुश आ सकता हैं ।
क्रमश:
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📦 क्रमांक :- [ 31 ]
26:12:20
गतांक से आगे :-
पवनंजय वहाँ से उड़कर मानस सरोवर आया । रात्रि के समय , विद्या से महल बनाकर , पलंग पर बैठा , प्रिय के वियोग से दु:खित और रोती एक चक्रवाक पक्षी को देखकर -अंजना कैसे रह रही होगी ? इस प्रकार सोचते हुए अपने मित्र प्रहसित से कहा । उससे प्रेरित पवनंजय उड़कर , अंजना के खंड के द्वार पर छिपकर रहा । उसके खंड में प्रवेश किये हुए प्रहसित ने उसको अल्प पानी में रही हुई मछली के समान , पलंग पर करवटे बदलती , चित्त के संताप से टूटी हुई मोतियों के हारवाली , दीर्घ निःश्वास को छोड़ती हुई , पलंग के कोने में , असह्यता के कारण भुजाओं को नीचे गिराने से भांगी हुई रत्न कंगणवाली , सखी के द्वारा आश्वासन दी जाती हुई , शून्य स्थान पर दृष्टि स्थापित की हुई और शून्य चितवाली अंजना को देखा । वह भी उसको देखकर , तू कौन हैं ? परस्त्री के घर में खड़े मत रहो । सखि ! इस पुरुष को , बाहु से पकड़कर बाहर निकालों । यहाँ पवनंजय के बिना अन्य पुरुष को प्रवेश का अधिकार नहीं हैं । इस प्रकार कहती अंजना को , वह पुरुष नमस्कार कर बोला -स्वामिनि ! आपको बधाई दी जाती हैं । पवनंजय आ रहा हैं । मैं उसका मित्र , यह समाचार देने के लिए पहले आया हूँ । तब अंजना ने कहा - प्रहसित ! भाग्य मुझ पर हंस रहा है, तू भी मत हंसो । यह मजाक करने का समय नहीं है अथवा मेरे कर्मो का ही यह दोष है । जो वैसा भी पति मुझको छोड़ रहा है । मेरे पाणिग्रहण के बाद बाईस वर्ष बीत गये हैं, तो भी मैं जीवित हूँ , इस प्रकार कहती अंजना के वचनों से दु:ख को प्राप्त पवनंजय अंदर प्रवेशकर गद्-गद् सहित बोला- मैंने निर्दोष होते हुए भी , अज्ञानता के कारण तुझे छोड़ दिया था । मेरे पुण्य उदय से तू जीवित है । अंजना ने भी अपने पति को पहचानकर लज्जासहित पलंग से उठी । पवनंजय ने अपने पापों की क्षमा याचना माँगी । अंजना ने कहा-मैं आपकी दासी हूँ । मुझसे क्षमा माँगना अनुचित हैं । उस रात को वहीं बिताकर , प्रातः समय जानकर , पवनंजय ने कहा-प्रिये ! तुम खेद मत करों और सुखपूर्वक रहों । मैं रावण के कार्य को पूर्णकर , वापिस लौटूँगा । अंजना ने कहा -यदि मुझे जीवित देखना चाहते हैं , तो शीघ्र वापिस आईए और दूसरा आज ही मैंने ऋतुस्नान किया है । यदि आपके परोक्ष में , मैं गर्भिणी बनूँगी , तो अधमपुरुष निन्दा करेंगे । पवनंजय ने कहा -मैं शीघ्र आ जाऊँगा । उससे अधम लोगों को मौका कैसे मिलेगा ? अथवा मुझसे मिलने का सूचन करने वाली , मेरे नाम से अंकित अंगुठी को ग्रहण करों । अंगुठी देकर मानस सरोवर के तट पर बसे अपने सैन्य में चला गया ।
इस वर्णन में अंजना की सतीत्व की टंकार झलक रही हैं । परपुरुष को अपने महल में प्रवेश करते देखकर उसने वचनों द्वारा जो कहा वह सतीत्व गुण से युक्त नारी की शोभा को प्रकटित कर रहा हैं ।
वर्तमान युग की कितनी ही नारियाँ समय बेसमय परपुरुषों के घर जाती हैं , उनसे हंसी मजाक करती हैं , अनुचित छूटछाट लेती हैं वे विचारें ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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27: 12:20
📦 क्रमांक :- [ 32 ]
_*📿 जैन रामायण 📿*_
जैन रामायण
गतांक से आगे :-
बाईस वरस के बाद पतिदेव के आने पर भी उपालंभ का एक शब्द तो नहीं-नहीं पर पति के क्षमा याचना के शब्दों के लिए भी यह कहना मैं आपकी दासी हूँ । मुझसे क्षमा माँगकर मुझे लज्जित न करें । कितनी गांभीर्यता होगी अंजना में ।
आज की नारी कहीं-कहीं तो पति को नौकर समझकर उनसे कार्य करवाती हैं । पतिदेव कुछ कह दे तो उनको धमकियाँ भी दे देती हैं । कभी- कभी तो थका हुआ पति घर आता है तो उसे उपालंभो का हार पहनाया जाता है । यह नहीं किया , यह नहीं लाया , यह नहीं करना था , वहाँ नहीं जाना था । इत्यादि कई बातें सुनानेवाली भी गृहलक्ष्मियाँ हैं ।
ऐसी गृहलक्ष्मियों को अंजना से हितशिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।
तत्पश्चात् वहाँ से लंका जाकर , रावण को नमस्कार किया । सैन्य सहित रावण भी पाताललंका में प्रवेश कर , वरुण के सन्मुख गया ।
यहाँ गर्भवती अंजनासुंदरी को अपनी सासु केतुमती ने तिरस्कार सहित कुलकलंककारिणी कहकर भर्त्सना की । तब अंजना ने भी पवनंजय नाम से अंकित अंगुठी दिखायी । केतुमती ने कहा-अंगुठी दिखाकर तू हमको ठगती हैं ? जो तेरा नाम भी नहीं लेता था , उसने तेरे साथ संग कैसे किया ? मेरे घर से निकल जाओ । अपने पिता के घर चली जाओं , कहकर सखीयुक्त अंजना को रथ में बिठाकर रक्षक सुभटों के द्वारा , उनको महेन्द्रनगर के सीमा प्रांत में छोड़ दिया । वहाँ उसने रात कष्टपूर्वक बिताकर , सुबह भिक्षुकों के समान पिता के गृहद्वार पर गयी । द्वारपाल के पूछने पर , सखी ने उस वृतान्त को कहा । द्वारपाल से वृतान्त को जानकर , पिता - स्त्रिओं का अचिन्त्य चरित्र होता हैं , इस प्रकार सोचकर चिन्ता को प्राप्त हुआ । तब प्रसन्नकीर्ति नामक पुत्र ने कहा - यह कुलदुषिका यहाँ से निकाल दी जाये । महोत्सह नामक मंत्री ने कहा -ससुराल में दु:ख प्राप्त करने पर , पुत्रियों के लिए पिता का घर ही शरण होता हैं । क्रूर सासु , निर्दोष होने पर भी इसमें किसी दोष को निकालकर , घर से निकाल दे,तो भी जब तक सदोषता अथवा निर्दोषता व्यक्त न हो जाए, तब तक गुप्त रीति से पाले । राजा ने कहा -यह पति की शत्रु हैं । उससे ही गर्भ की संभावना कैसे हो सकती हैं ? मैं इसका मुख भी नहीं देखना चाहता । राजा की आज्ञा से द्वारपाल ने उसको निकाल दिया । भूख और प्यास के कारण थकी-रोती हुई, दर्भ से फटी हुई पैर के तलवाली , वृक्ष-वृक्ष के नीचे विश्राम करती हुई , सखी के साथ वह चली । पूर्व में आये हुए राजपुरुषों के निषेध से किसी भी ग्राम , नगरादि में जगह को प्राप्त न किया । एक भयंकर अटवी में ,वृक्ष के नीचे बैठी हुई , सासु-पिता, माता, भाई और पति को उपालम्भ न देकर अपने अशुभ कर्मोदय को उपालम्भ देती रोती हुई ,अंजना को सखी ने समझाकर , आगे एक गुफा के पास ले गयी ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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28:12:20
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 33 ]
गतांक से आगे:-
इस प्रकरण में केतुमती अंजना को अपने घर से निकाल रही है , इसमें केतुमती सती अंजना का बहिष्कार नहीं कर रही हैं । केतुमती के सामने पति से त्यक्त अंजना है ऊपर से अंगुठी का बताना आग में घी का काम कर गया ।
अंजना के कर्म ही ऐसे थे कि किसी को यह याद न आया कि एक विद्याधर भेजकर पवनंजय से पूछ लिया जाय । अंजना स्वयं भी यह कह न सकी ।
ऐसे प्रसंगों में सासुओं का सासुपना विशेष उग्र बन जाता हैं । प्रहलाद राजा ने कहा भी था कि पवनंजय आ जाय वहां तक इसे महल में रहने दी जाय । परंतु केतुमती के मानसपटल पर सासुपना सवार हो चुका था । उसने कह दिया यह इधर रहेगी तो मैं अन्न जल नही लूंगी ऐसा कहकर उसकों राज्य में से निकलवा ही दी ।
पीयर में माता-पिता-भाई आदि सभी उसका मुख भी देखना नही चाहते थे । अनादि का यह नियम चल रहा है कि पुत्री को ससुराल में दु:ख हो तो वह पियर आकर अपना शेष जीवन पूर्ण करती है । परंतु अंजना के अशुभ कर्मो ने मातृत्व-पितृत्व और भातृत्व को भी विस्मृत करवा दिया । मंत्री की योग्य सलाह भी स्वीकृत न हुई । अंजना को वहाँ से भी तिरस्कृत कर निकाली गयी । साथ-साथ में इसे कोई सहारा न दे इस हेतु उद्घोषणा भी करवा दी । अतः उन दोनों को जंगल का सहारा लेना पड़ा और वे गुफा के पास में आयी ।
गुफा के अंदर ध्यान में खड़े अमितगति नामक चारणश्रमण को देखकर नमस्कार किया । ध्यान पूर्ण करने के बाद मुनि ने धर्मलाभ की आशिष दी । सखी ने अंजना के दु:ख के निवेदन पूर्वक इसके गर्भ में कौन अवतीर्ण हुआ हैं ? और किस कर्म से इसने ऐसी दशा प्राप्त की है ? इस प्रकार पूछने पर , मुनि ने कहा -
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में , मन्दरपुर नामक नगर में , प्रियनन्दी वणिक का दमयन्त नामक पुत्र था । उसने साधुओं के समीप से सम्यक्त्व ग्रहण किया । विविध नियमों का पालन करता हुआ , आयुष्य पूर्ण कर ईशान देवलोक में देव हुआ । वहाँ से च्यवकर , मृगांकपुर के राजा हरिचन्द्र का पुत्र सिंहचन्द्र हुआ । जिनधर्म का पालनकर देव बना । वहाँ से च्यवकर वैताढ्यपर्वत के वारुण नगर में सुकण्ठ का पुत्र सिंहवाहन हुआ । राज्य भोगकर श्री विमलनाथ के तीर्थ में , लक्ष्मीधरर्षि के पास दीक्षा ग्रहण कर लान्तक कल्प में देव बना । वहाँ से च्यवकर तेरी सखी की कुक्षि में अवतीर्ण हुआ है । यह भुजबलवाला और चरमशरीरी है ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📦 क्रमांक :- [ 34 ]
29:12:20
गतांक से आगे :-
दूसरा वृतान्त इस प्रकार है । कनकपुर में कनकरथ राजा की कनकोदरी और लक्ष्मीवती नामक दो पत्नीयाँ थीं । लक्ष्मीवती श्राविका थी और सदा रत्नमय जिनबिम्ब की पूजा करती । कनकोदरी ने ईर्ष्या से उस बिम्ब को कचरे में डाल दिया । उस समय जयश्री साध्वी ने वह देखकर उसको प्रतिबोधित किया । पश्चाताप से युक्त उसने , उस बिम्ब को स्वच्छकर , लक्ष्मीवती से क्षमा माँगकर यथास्थान रख दिया । तत्पश्चात सम्यक्त्वधारी बनी कनकोदरी मरकर सौधर्म देवलोक में देवी हुई । वहाँ से च्यवकर यह तेरी सखी अंजना बनी और तू उस भव में कनकोदरी की दासी थी । उस कर्म के अनुमोदन से , उसका परिणाम साथ में भुगत रही हो । वह कर्म लगभग भोगा जा चूका है । तुम दोनों जैन धर्म स्वीकार करो । इसका मामा अचानक ही एक दिन आकर ,अंजना को अपने घर ले जायेगा । शीघ्र ही पति का संग होगा , इस प्रकार कहकर , जिनधर्म में उन दोनों को स्थापित कर , मुनि आकाशमार्ग से उड़ गये ।
ईर्ष्या की आग में उलझकर जिनेश्वर भगवंत की प्रतिमा की आशातना का फल कितना दु:खदायी बना । यह तो अंजना का जीवन बता रहा है । उस भव में पश्चाताप भी किया था । पर प्रतिमा को अपने स्थान से उठाते समय जो द्वेषभाव था वह इतना गाढ़ था कि पश्चाताप से विशेष फेर न पड़ा । उस पश्चाताप ने एक लाभ कर दिया कि इस कर्म के उदय काल में अंजना में आर्तध्यान न आया । यह उस पश्चाताप का फल मिला । दु:ख में भी धैर्यता की प्राप्ति भी उस भव के जिनाशातना के पाप के पश्चाताप के फल रुप में ही हुई ।
मूर्ति को अशुची स्थान में रखने में सहायक कनकोदरी की दासी को उसका परिणाम अंजना के साथ ही भुगतना पड़ा ।
पति के वियोग के दु:ख की पूर्णाहुती होते ही कलंक आ पड़ा । महल में से जंगल में आकर रहना पड़ा । यह सब जिन पड़िमा की आशातना का फल था ।
वर्तमान में कुछ लोग जिन पड़िमा के कट्टर विरोधी बनकर लोगों को जिनदर्शन- पूजन से वंचित रखने वाले न मालूम कितने निबिड़ अशुभ कर्म बांधते होंगे ? ज्ञानी जाने ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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30:12:20
📦 क्रमांक :- [ 35 ]
गतांक से आगे :-
वहाँ पर अत्यन्त क्रूर सिंह , उन दोनों को भयभीत कर रहा था । सिंह गुफा का स्वामी मणिचूल नामक गन्धर्व ने शरभ ( आठ पाँव वाला प्राणी , जो सिंह से विशेष बलवान होता है ) का रुप धारण कर उसको भगा दिया । गन्धर्व ने अपना रुप प्रकटकर पत्नी सहित उसने , उन दोनों के प्रमोद के लिए जिनेश्वर भगवंत के गुणों की स्तुति की । उसके सानिध्य में , वहाँ रही हुई वे दोनों मुनिसुव्रतस्वामी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करती थी । अंजना ने सद्लक्षणवाले पुत्र को जन्म दिया।सखी ने सूति संबंधी कार्यो को किया । पुत्र को गोद में लेकर रोती अंजना को देखकर , विमान से जाते हुए हनूपुर के राजा प्रतिसूर्य विद्याधर ने कारण पूछा । अंजना से वृतान्त को जानकर रोते हुए कहने लगा-मैं तेरा मामा हूँ । भाग्य से तुझे जीवित देखा है । इस प्रकार कहते हुए साथ में आये नैमित्तिक से पुत्र के जन्मादि के बारे में पूछा । उसने कहा -यह अवश्य राजा बनेगा । इसी भव में सिद्ध होगा । आज चैत्र की कृष्ण अष्टमी है , वार रवि , श्रवण नामक तारे का स्थान है , मेष राशि में सूर्य ऊंचा है , मकर राशि के मध्य भवन में चन्द्रमा रहा हुआ है । वृष राशि के मध्य में मंगल ग्रह है , मीन राशि के मध्य में चन्द्रमा का पुत्र बुध ग्रह है । कर्क राशि में गुरु ऊंचा है । मीन राशि में शनि से युक्त दैत्य गुरु शुक्र ऊंचा है । मीन लग्न के उदय और ब्रह्मयोग होने पर , यह सब शुभ है ।
प्रतिसूर्य ने सखी और पुत्र सहित अंजना को विमान में बिठाकर अपने नगर की ओर प्रयाण किया । बालक विमान में लटकती हुई रत्नों की छोटी घंटी को ग्रहण करने की इच्छा से , माता की गोद से उछला और पर्वत के शिखर पर जा गिरा । वह पर्वत उसके गिरने रुपी प्रहार के वश से टुकड़े-टुकड़े हो गया । प्रतिसूर्य ने हृदय को पीटकर , रोती हुई अंजना के उस बालक के पीछे उड़कर , अक्षत अंग वाले बालक को लाकर दिया । बाद में उन तीनों को अपनी नगरी हनुरुहपुर लेकर गया । जन्म के तुरंत बाद में , हनुरुहपुर आने के कारण से , मामा ने उसका हनुमान नाम रखा । विमान से गिरे हुए इस बालक ने , पर्वत ( शैल ) के टुकड़े कर दिये । इसलिए श्रीशैल नामक दूसरा नाम रखा । हनुमान प्रतिदिन बढ़ने लगा ।प्रतिसूर्य तो कलंक कब उतरेगा , इस प्रकार हमेशा विचार करती थी ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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31 :12:20 यहां से एक साथ
📦 क्रमांक :- [ 36 ]
गतांक से आगे :-
यहाँ पवन वरुण से संधि करवाकर , खर और दूषण को छुड़वाकर , रावण को खुशकर वापिस अपने नगर लौटा । माता-पिता को नमस्कार कर , अंजना के आवास में गया । वहाँ उसे नहीं देखकर , किसी स्त्री के समीप से वृतान्त को जानकर , प्रिया को मिलने की उत्सुकता से अपने ससुर के नगर गया । वहाँ पर भी एक स्त्री को पूछने से -पिता ने भी उसे निकाल दिया -यह बात सुनकर वज्रघात के समान अनुभव करता हुआ पर्वत , वनादि जगह पर ढूंढा । उसके समाचार के अप्राप्ति से खेदित होते हुए अपने मित्र प्रहसित से कहा -मित्र ! जाकर माता-पिता से कहना । अंजना तो नहीं मिली । वापिस खोज करने पर भी यदि न मिली तो एक महिने के बाद मैं अग्नि में प्रवेश करुँगा । प्रहसित ने उसे बहुत समझाया पर जब उसने एक न सुनी तब उसने उसके पिता के पास जाकर कह दिया । केतुमती यह सुनकर मूर्छित हुई । होश पाकर कहने लगी -प्रहसित ! तूने उसे अकेला वन में क्यों छोड़ा ? अथवा मैंने ही विचारे काम किया । मैंने यही पर साध्वी के दोषारोप के फल को प्राप्त किया । इस प्रकार रोती उसको रोककर , सैन्य सहित प्रहलाद पुत्र की खोज में निकला । सभी विद्याधर राजाओं के पास अंजना-पवनंजय की शुद्धि के लिए अपने आदमियों को भेजा और स्वयं सभी जगह ढूंढता हुआ भूतवन गया । चिताग्नि को जलाते पवनंजय को देखा और सुना -हे वनदेवियों ! मैं प्रहलाद-केतुमती का पुत्र हूँ । मैरी पत्नी महासती अंजना निर्दोष है । खेदित मैने उसके साथ एक रात बितायी और अपने नाम की अंगूठी उसको निशानी के रुप में दी थी । गर्भवाली अंजना को देखकर , दोष की शंका से बड़ों ने उसे घर से निकाल दिया । किस स्थान पर हैं , यह बात मालूम नहीं हैं । मेरे ही अज्ञान का यह दोष है । उसकी अप्राप्ति में , मैं अपने शरीर को अग्नि में होमता हूँ । यदि आप कही पर देखों , तब उसे यह बता दे कि तेरे वियोग से तेरे पति ने अग्नि में प्रवेश कर लिया हैं ।
संसार की कई विचित्रताओं में से एक यह भी विचित्रता है । पास में थी तब अप्रिय थी और अब उसके लिए मरने को तैयार हो गया । इस जगत में ऐसे मूर्ख मानवों का परिवार आज दिन तक चला आ रहा है । प्रेमी के विरह में मरने से प्रेमी मिल जायेगा ऐसी मान्यता मूर्खो की ही हो सकती है । जीता नर तो पदार्थ को पुनः प्राप्त कर सकता है । परंतु मरने के बाद कौन कहाँ ? और कौन कहाँ ? मिलना ही असंभव । उसमें भी पति विरह में पत्नी कहीं मेंरे शील धर्म पर आँच न आये इस कारण धर्म रक्षा हेतु अग्नि का शरण ले यह व्यवहार धर्म मान्य हो सकता हैं । परंतु पत्नी के न मिलने से अग्नि का शरण पति ले यह तो मूर्खता ही है और यह मूर्खता पवनंजय कर रहा था ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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📦 क्रमांक :- [ 37 ]
गतांक से आगे :-
राजा ने उसके वचनों को सुनकर , अग्नि में झम्पापात देने की इच्छावाले पवनंजय को बाहुओं से रोक लिया । पवनंजय कहने लगा - यह कौन है जो पत्नी के वियोग से पीड़ित मुझे प्रतिकार करने से रोक रहा है । तब पिता ने उसको कहा - वत्स ! मैं तेरा पिता हूँ । तेरी माता ने एक अविचारी कार्य किया । तू दूसरा मत कर । मेरे आदेश से हजारों विद्याधर उसकी खोज कर रहे हैं । इसी बीच कोई विद्याधर पवंनजय-अंजना को ढूँढते हुए हनूपुर गया । अंजना उनसे पवनंजय की अग्निप्रवेश की प्रतिज्ञा सुनकर मूर्छित हुई । शीत उपचार आदि से होश में आकर रोने लगी । पतिव्रता नारियाँ अग्नि में प्रवेश करें यह योग्य है । हजारों स्त्रियों को भोगनेवाले पुरुषों के लिए स्त्री का शोक क्षणिक ही है । उसमें अग्नि प्रवेश क्यों कर रहे हैं ? प्रिय ! यह कार्य विपरीत मालूम होता है । न यह सास-ससुर का दोष है अथवा न ही माता-पिता का , किन्तु यह मेरे ही कर्मो का दोष है । इस प्रकार रोती अंजना को समझाकर , पुत्र सहित उसको विमान में बिठाकर , प्रतिसूर्य पवनंजय को खोजता हुआ वहाँ गया । प्रहसित ने अंजना सहित उसको आते देखकर जयकार पूर्वक प्रहलाद-पवनंजय से कहा । प्रतिसूर्य और अंजना ने प्रहलाद को नमस्कार किया । प्रहलाद ने प्रतिसूर्य को आलिंगन किया ।यह गोद में रखा हुआ बालक आपका पौत्र है । इस प्रकार प्रतिसूर्य के कहने पर , प्रहलाद ने कहा-साधु, साधु तू ही मेरा बन्धु है जिसने मुझे शोक रुपी समुद्र से बाहर निकाला । पवनंजय भी खुश हुआ । सभी मिलकर हनूपुर गये । पत्नी सहित महेन्द्र भी वहाँ पर आ गया । केतुमती और अंजना के माता-पिता-भाई आदि क्षमा याचना करने लगे तब अंजना ने कहा इसमें आपका कोई दोष नहीं था । दोष मेंरे पूर्वकृत जिन प्रतिमा की आशातना के कर्मोदय का था । इस प्रकार महोत्सव कर सभी वापिस अपने-अपने नगर लौट आये । पुत्र और पत्नी सहित पवनंजय वही रह गया । हनुमान ने कलाओं को ग्रहण कर विद्याओं को साधकर , यौवन को प्राप्त किया ।
यहाँ रावण ने संधि में दूषण उत्पन्न कर , वरुण को जीतने के लिए प्रयाण किया । दूत के द्वारा निमंत्रित पवनंजय , प्रतिसूर्य को रोककर , हनुमान अपनी सेना सहित , रावण की सेना में आया । रावण ने भी नमस्कार करते हनुमान को अपनी गोद में बिठाया । वरुण के नगरी के समीप में रावण के ठहरने पर , सौ पुत्रों से युक्त वरुण युद्ध के लिए बाहर निकला । वरुण , सुग्रीव आदि से और उसके पुत्र रावण से युद्ध करने लगे । रावण को खेदित करते वरुण के पुत्रों को हनुमान ने विद्या से स्तंभित कर बांध लिया । वरुण ने यह देखकर हनुमान से युद्ध करने के लिए दौड़ा । बीच में रावण ने रोककर , युद्ध किया और बांध लिया । अपनी सेना में ले गया । पुत्र सहित वरुण के प्रणाम करने पर , छोड़ दिया । इस युद्ध में हनुमान अपनी शक्ति से विद्याधरों में आदरणीय बन गया । वह अपने गुणों की सुगंध सभी पर छोड़ने में सफल रहा । उसके नम्रता गुण से आकर्षित होकर वरुण ने अपनी पुत्री सत्यमती , हनुमान को दी । लंका को प्राप्त रावण ने चन्द्रनखा की पुत्री अनन्तकुसुम , हनुमान को दी । सुग्रीव ने पदमराग को , नल ने हरिमालिनी को , अन्य विद्याधरों ने भी हजारों की संख्या में अपनी कन्याएँ दी । हनुमान अपनी नगरी हनूपुर वापिस आया । दूसरे भी अपने-अपने स्थान वापिस लौट गये ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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_*📿 जैन रामायण 📿*_
10:1:21
📦 क्रमांक :- [ 38 ]
चतुर्थ सर्ग
गतांक से आगे :-
मिथिला नगरी में हरिवंश में उत्पन्न वासवकेतु और विपुला का पुत्र जनक राजा राज्य करता था और अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु वंश के अन्तर्गत रहे आदित्यवंश में श्री मुनिसुव्रतस्वामी तीर्थ में विजय राजा , हिमचूला रानी और उनके वज्रबाहु और पुरन्दर नामक दो पुत्र थे । यहाँ नागपुर में इभवाहन राजा की पुत्री मनोरमा के साथ विवाह कर वज्रबाहु , उदयसुन्दर नामक अपने साले के साथ , अपनी नगरी की ओर जाते हुए बीच में ध्यानस्थ खड़े गुणसागरमुनि को देखा । वाहन को रोककर यह महात्मा वन्दनीय है इस प्रकार कहा । तब उदयसुंदर ने कहा - क्या आप प्रवज्या लेने की इच्छावालें हैं ? वज्रबाहु ने कहा - यह बात तो मन में है ही । उदयसुंदर ने मजाक करते हुए कहा -मैं भी आपके साथ लूँगा । कुमार ने कहा - प्रतिज्ञा को मत छोड़ना । उसके द्वारा हाँ कहने पर , कुमार वाहन से उतरकर वसन्त पर्वत पर चढ़ा । जब उदयसुंदर को ऐसा लगा कि ये वास्तव में दीक्षा के परिणाम वाले हो गये हैं तब बात को घूमाने के लिए उदयसुंदर ने कहा - मजाक से कही बातों से आप दीक्षा ग्रहण न करें । अभी आप भोगों को भोगें । आपके बिना मनोरमा कैसे जीवित रहेगी ? आप इसका भी विचार कीजिए । आपके माता-पिता पुत्रवधु की राह देख रहे हैं , उनको मिलकर राज्य का उपभोग कर फिर दीक्षा लेना । तब वज्रबाहु ने कहा - चारित्र मनुष्य जन्म रुपी वृक्ष का फल है । आपका मजाक भी हमारे लिये परमार्थक सिद्ध हुआ है । यदि आपकी बहन कुलीन होगी तब तो वह भी दीक्षा ग्रहण करेगी । यदि ऐसा न हो तो उसका मार्ग कल्याणकारी हो । अब तो मुझे भोगों से काम नहीं । मेरे माता-पिता ने मुझे दीक्षा के संस्कार ही दिये हैं । वे तो मेरी दीक्षा की बात सुनकर फ्रसन्न बनेंगे । वे भी दीक्षा ले लेंगे , अब तो आपको भी संधि का पालन करना चाहिए । इस प्रकार कहकर , मुनि के समीप जाकर कुमार ने विधिवत वंदना कर देशना सुनी । वैराग्य पोषक देशना से उदयसुंदर , मनोरमा , वज्रबाहु के मित्र 25 राजकुमार इन सभी ने उसी जंगल में महामंगलकारी प्रव्रज्या का परम पुनित पथ स्वीकार किया । एक राजकुमार ने अयोध्या में आकर सारी बातें राजसभा में आकर सुनायी ।
विनय राजा यह बात सुनकर वैराग्य को प्राप्त हुए । राज्य पर पुरन्दर को स्थापितकर स्वयं ने निर्वाणमोह मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की । पुरन्दर ने भी पृथिवी रानी की कुक्षि से उत्पन्न कीर्तिधर को राजा बनाकर स्वयं क्षेमंकरर्षि के पास मुनि बने । कीर्तिधर राजा की सहदेवी पत्नी थी । प्रवज्या ग्रहण करने की इच्छावाले कीर्तिधर को , मंत्रियों ने पुत्रोत्पति तक रोका । सहदेवी की कुक्षि से उत्पन्न सुकोशल बालक को राज्य पर स्थापितकर , स्वयं ने विजयसेनसूरि के समीप में दीक्षा ग्रहण की । वे गुरु आज्ञा से एकाकी विहार करते हुए , मासक्षमण के पारणे के लिए , मध्यान्ह के समय अयोध्या नगरी में फिरने लगे । महल में खड़ी सहदेवी ने मुनि को देखकर सोचा - इन पति के दीक्षा लेने पर , मैं पतिहीन हुई । यदि इनको देखकर , सुकोशल भी दीक्षा ले लेंगा तब मैं पुत्र रहित बन जाऊँगी । इसलिए मुझे इनको यहाँ से निकाल देना चाहिए । यह सोचकर उसने निरपराधी पति -मुनि को अन्य धर्मी साधुओं के साथ बाहर निकाल दिया । सुकोशल ने उस मुनि के दु:ख से दु:खित और रोती हुई अपनी धायमाता को देखकर कारण पूछा । धायमाता से संपूर्ण वृतान्त को जानकर , पिता के पास जाकर , दीक्षा की याचना की । गर्भिणी उसकी पत्नी चित्रमाला , मंत्रियों के साथ वहाँ आकर राजा रहित राज्य को आप छोड़कर नहीं जा सकते इस प्रकार कहने पर सुकोशल ने कहा - तेरे गर्भ में रहे हुए बालक का मैने राज्य पर अभिषेक कर दिया है । इस प्रकार वहाँ ही अभिषेक कर मंत्री लोगों से बातचीत कर पिता के समीप में प्रव्रज्या ग्रहण कर , पिता-पुत्र विविध प्रकार के तप करने लगे । वे दोनों पिता-पुत्र ममत्व और कषाय रहित पृथ्वी पर विचरण करने लगे । पुत्र के वियोग से खेदित बनी सहदेवी , आर्तध्यान से मरकर पर्वत की गुफा में वाघण बनी ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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*📿 जैन रामायण 📿*_
11:1:21
📦 क्रमांक :- [ 39 ]
गतांक से आगे :'
अयोध्या की महारानियों ने यह सहदेवी एक ऐसी महारानी आयी जिसने विराग के स्थान पर अप्रशस्त राग को महत्व दिया । पति को दीक्षा लेते रोक न सकी । उस समय पति के प्रेम को पुत्र पर प्रेम में परिवर्तित कर पुत्र के लालन पालन में ओतप्रोत रही और जब दीक्षित पति के दर्शन अयोध्या के राजमार्ग पर हुए तब हर्ष के स्थान पर विषाद छा गया । पुत्र पर के अप्रशस्त राग ने उसे विवेक भ्रष्ट भी कर दिया । इनको देखकर मेरा पुत्र भी इनके साथ चला न जाय । इस भय से उसने विवेक को ताक पर रखकर अत्यन्त अयोग्य आदेश दे दिया । उस समय उसने मुनि आशातना , पतिद्रोह , राजद्रोह , व्यवहार द्रोह आदि अनेक पाप बांध लिये । नतीजा भी उसकी इच्छा से विपरीत ही रहा ।
सुकोशल ने गर्भस्थ बालक का राज्याभिषेक कर चारित्र ले लिया । सहदेवी कुछ कर न सकी । मोहान्ध बनकर स्वयं का भयंकर अहित कर लिया । अयोध्या का महारानी पद हारकर आर्तध्यान से मरकर जंगल में वाघण का हिंसामय भव पाया । मोक्ष या स्वर्ग पाने के जो निमित्त कारण मिले थे उन निमित्त कारणों का सदुपयोग न कर सकने से मनुष्य भव हार गयी ।
संसार छोड़ने की इच्छा वाला अधिकतर संसारीयों की चिंता से दूर रहता हैं । तभी तो गर्भस्थ बालक का राज्याभिषेक कर दीक्षा ली गयी है ।
यह जैन रामायण है इसमें त्याग विराग के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं ।
एक दिन उन दोनों मुनियों ने पर्वत की गुफा में वर्षा ऋतु बीताकर , कार्तिक मास के आने पर , पारणे के लिए जाते हुए उनको वाघण ने देखा । दर से दौड़कर आती हुई , विस्तार मुखवाली उस वाघण को देखकर दोनों मुनि कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े हो गये । उसने प्रथम सुकोशल पर आक्रमण किया और उनको भूमि पर गिरा दिया । चट-चट इस प्रकार के शब्द से , नखों के द्वारा चमड़ी का विदारण कर रक्त पिया । त्रट-त्रट शब्द से , दांतों के द्वारा मांस के टुकड़े कर खाये । कट-कट शब्द से आंतड़ियों को खाया । मुनि शुक्लध्यान पर चढ़ते हुए , घातिकर्मो का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त किया और वहीउअं आयुष्य पूर्णकर अघातिकर्मो का भी क्षयकर मोक्ष गये । कीर्तिधर भी केवलज्ञान प्राप्तकर क्रम से मोक्ष गये ।
क्रमशःJ
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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*📿 जैन रामायण 📿*_
📦 क्रमांक :- [ 40 ]
12:1:21
गतांक से आगे :-
वज्रॠषभ नाराच संघयण वाला आत्मा चार-चार आठ-आठ महिने वर्षभर एक स्थान पर खड़े रह जाय तो भी उनको थकान नहीं आती । पिता-पुत्र मुनियों की दिनचर्या ही विशिष्ट कोटि की थी । समता भी उत्कृष्ट थी । चातुर्मास की पूर्णाहुति में नगर की ओर प्रयाण के समय वाघण ने पूर्वभव के संस्कारों का उपयोग किया-पुत्र ने मुझे पूछे बिना दीक्षा ले ली । इससे उस सहदेवी ने पुत्र पर भी द्वेषभाव के संस्कार पुष्ट किये थे । वे जागृत हुए और पुत्र को खाना प्रारंभ किया । पिता मुनि ने निर्यामणा करवायी । क्षपकश्रेणी द्वारा घाती अघाती खपाकर मोक्ष में गये सुकोशल मुनि ।
इधर वाघण ने सहदेवी के भव में बालक सुकोशल के मुंह में दांतों पर सोने का पतरा जो चढ़ाया था । वे दांत देखने से जातिस्मरण प्राप्त हुआ और फिर तो पति मुनि की ओर दयनीय दृष्टि से देखा । मुनि ने उस वाघण को उसके प्रायोग्य धर्म समझाया । वाघण अणसण कर देवलोक में गयी ।
मूल में संसार के प्रति का राग ही आत्मा के पास अनर्थकर कार्य करवाकर दुर्गतियों में भ्रमण का सिलसिला बढ़ाता है । जिसे उत्थान करना है , उसे संसार प्रति का राग घटाना- मिटाना ही होगा ।
( वाघण ने कीर्तिधर मुनि के सुलक्षणवाले दांत , हाथ, मुख , भुजाएँ आदि अंगो को स्नेह की दृष्टि से देखा । उतने में ही उसे जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हुई । वह खुद की निन्दा करने लगी और रोई । केवली कीर्तिधर मुनि के पास अनशन की आराधना की । पंचपरमेष्ठी का स्मरण करती हुई , अपने प्राण त्यागकर देव बनी । इस प्रकार दूसरें ग्रन्थ में लिखा है । )
सुकोशल की पत्नी चित्रमाला ने हिरण्यगर्भ नामक पुत्र को जन्म दिया । यौवन को प्राप्त हिरण्यगर्भ की मृगावतो पत्नी थी । हिरण्यगर्भ ने , रानी के द्वारा सफेद बाल दिखाने पर , अपने पुत्र नघुष को राज्य सौंपकर स्वयं विमलमुनि के समीप में दीक्षा ग्रहण की । अन्य दिन नघुष राजा सिंहिकादेवी को राज्य पर स्थापित कर स्वयं उत्तरापथ में राजाओं को जीतने निकला । दक्षिणापथ के शत्रु राजाओं ने अयोध्या नगरी को घेर लिया । सिंहिकादेवी पुरुष के समान , शत्रु सेनाओं से लड़कर उनको जीत लिया । वापिस आये नघुष ने उसके महिला के अनुचित कार्य के बारें में सुनकर निश्चय ही यह असती है ऐसा विचारकर उससे बोलना , मिलना छोड़ दिया । अन्य दिन नघुष को दाह ज्वर उत्पन्न हुआ , कितने ही उपचारों के बाद , दाहज्वर की अनुपशान्ति से पीड़ित नघुष को , सिंहिकादेवी ने अपनी सत्यता का बयानकर , सतीत्व के शपथ सहित पानी का छींटकावकर शान्त किया । देवों ने भी उसके ऊपर पुष्पों की वृष्टि की । उसके बाद से राजा उसको बहुत मानने लगा ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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*📿 जैन रामायण 📿*_
13:1:21
📦 क्रमांक :- [ 41 ]
गतांक से आगे :-
नघुष ने सिंहिका को देखने की दृष्टि बदल दी । जिससे उसने सिंहिका का त्याग किया । राज्य की सुरक्षा के लिए सिंहिका ने अपने अंदर रही हुई शक्ति का उपयोगकर राज्य की सुरक्षा की थी । पर नघुष का चिंतन विपरीत था । यह परपुरुषों के परिचय में आयी ही क्यों ? इस विचार ने उसके त्याग करने रुप अकार्यकर अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार दी ।
कुदरत ने दाहज्वर उत्पन्नकर सिंहिका पर के शंका-कुशंकाओं के बादल बिखेर दिये । सतीत्व की शक्ति का परिचय पाकर नघुष ने सती सिंहिका का सहर्ष स्वीकार किया । नघुष ने अपने पुत्र सोदास को राज्य देकर प्रव्रज्या ग्रहण की ।
एक दिन मंत्रियों ने अरिहन्त भगवान के अष्टान्हिका महोत्सव में अमारि की घोषणा की । तब सोदास के पूछने पर मंत्रियों ने सोदास से कहा- आपके पूर्वज अरिहन्त के अष्टान्हिका महोत्सव में अमारी पटह बजवाते थे और नगर को आठ दिन निरामिष बनाते थे । इसी से यह अमारी पटह बजवाया गया है । सोदास ने रसोईए से कहा - गुप्त रीति से मांस लाना । रसोईया भी अमारि की घोषणा के कारण , मांस की अप्राप्ति से , राजा से भयभीत बना । बालक के मृतक को देखकर उसे संस्कारित किया और राजा को दिया । वह भी उसके रस में आसक्त बना और पूछा - किस प्राणी विशेष का यह मांस है ? रसोईए से मनुष्य के मांस के बारे में जानकर , मुझे सदा नर मांस लाकर देना इस प्रकार कहा । रसोईया भी बालकों का अपहरण करने लगा ।
रामायण में सहदेवी एक ऐसी महारानी थी जिसने अयोध्या के पूर्व की महारानियों से विपरीत कार्य किया तो सोदास एक ऐसा राजा अयोध्या की राजगद्दी पर आया जिसने अकृत्य करने की सीमा का भी उल्लंघन कर दिया ।
सती सिंहिका ने सोदास को संस्कारित करने में कोई कसर नहीं रखी थी । खान-पान , रहन-सहन के विषय में उसे समझाने में सिंहिका ने पूर्ण परिश्रम किया था । परंतु अध्ययन के समय में एक पुरोहित पुत्र की संगति ने उसे धर्मभ्रष्ट करने का कार्य किया । पुरोहित पुत्र ने घूमने के बहाने जंगल में ले जाकर घूमाकर थकाकर पूर्व नियोजित षडयंत्रानुसार उसे क्षुधा से पीड़ित बनाकर सिंहिका माता की महल में मौजूदगी के समय में ही उस दिन जंगल में आलू की सब्जी का स्वाद चखकर धीरे-धीरे उसे एक नंबर का मांस भक्षी बना दिया था ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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*📿 जैन रामायण 📿*_
14:1:21
📦 क्रमांक :- [ 42 ]
गतांक से आगे :-
पर्युषण के दिनों में मांस न मिलने से पुरोहित पुत्र की सलाह से उसी दिन गाड़े हुए मृत बालक का मांस खिलाया और उस दिन से सात-आठ दिन तक बालकों का अपहरणकर नर मांस की पूर्ति की । नगर में हाहाकार मच गया । अयोध्या के गुप्तचरों ने रसोईए को बालक का अपहरण करते पकड़कर मंत्रियों के सामने उपस्थित किया ।
राजा को गुन्हेगार जानकर मंत्रियों ने इस विषय में विचार-विमर्शकर राजा को राज्य से निष्कासितकर , अरण्य में छोड़ दिया और उसके पुत्र सिंहरथ का राज्य पर अभिषेक किया । सोदास भी भटकता हुआ , मुनि से हिंसा के कटुफल को श्रवणकर अपने पूर्व के संस्कारों को जागृतकर मद्य , मांस आदि परिहार से प्रधान ऐसे श्रीजिनधर्म को पुनःस्वीकारकर ,श्रावक बना और संसार से डरने लगा । महापुर नगर में अपुत्रीय राजा के मरने पर , पांचदिव्यों के द्वारा सोदास का राज्य पर अभिषेक किया गया । तब सोदास ने मेरी आज्ञा को स्वीकार करों । इस प्रकार सिंहरथ को कहलाने के लिए दूत भेजा । वहाँ दूत का तिरस्कार होने पर , दोनों राज्यों के बीच युद्ध शुरु हुआ । युद्ध में सोदास ने सिंहरथ को जीत लिया । दोनों राज्यों को ग्रहणकर वापिस सिंहरथ को सौंपकर स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की और शिवपद पाया ।
तद्भव मोक्षगामी आत्मा को भी उसकी थोड़ी सी असावधानी से किस प्रकार विडंबित होना पड़ता है यह सोदास के प्रकरण में दिखायी देता हैं । खाने के लालच की आदत ने उसे अपमानित करवाया । अयोध्या के राजा को मंत्री मंडल निष्कासित करे । यह कोई सामान्य बात नहीं बनी । दूसरी अपेक्षा से देखें तो अयोध्या का मंत्रीमंडल कितना सक्षम होगा जिसने गुन्हेगार राजा को देश से निष्कासित कर दिया ।
गिरा हुआ व्यक्ति उठकर चलने लगता है तो उसे विशेष नुकशान नहीं होता । व्यवहार मार्ग से पतित सोदास , मुनि भगवंत के उपदेश से अपने अकार्यो का पश्चाताप कर पूर्व के रहे हुए संस्कारो पर लगी धूल को झाटककर अतिशीघ्र संस्कारी मानव बन गया । पुनः पुण्य का उदय जागृत हुआ और महापुर का राजा बना । अब उसे राज्य की आवश्यकता नहीं थी । पर अयोध्या से कलंकित बनकर आया था । उस कलंक को दूर करने के लिए पुत्र से युद्ध करना अनिवार्य था । युद्ध में विजयी होनी ही थी । दोनों राज्य पुत्र को देकर दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया ।
सोदास ने एक संदेश दे दिया कि संगत के समय सावधान न रहे तो कहीं मेरे जैसी दशा हो जायेगी । अतः संगत में सावधान रहें ।
✒ क्रमशः:
📦 क्रमांक :- [ 43 ]
रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
*📿 जैन रामायण 📿*_
गतांक से आगे :-
15:1:21
सिंहरथ का पुत्र ब्रह्मरथ राजा था । उसके पश्चात् चतुर्मुख , हेमरथ , शतरथ , उदयपृथु , वारिरथ , इन्दुरथ , आदित्यरथ , मान्धाता , वीरसेन , प्रतिमन्यु , पद्मबन्ध , रविमन्यु, वसन्ततिलक , कुबेरदत्त , कुन्थु , शरभ , द्विरद , सिंहदशन , हिरण्यकशिपु , पुंजस्थल , ककुत्स्थ , रघु । इस प्रकार किन्हीं राजाओं के सिद्धगति प्राप्त करने पर और किन्हीं के स्वर्गगमन के बाद अनरण्य राजा हुआ । उसको पृथ्वीदेवी पत्नी से अनन्तरथ और दशरथ नामक दो पुत्र हुए । अनरण्य का मित्र सहस्त्रांशु ने रावण के द्वारा जीतने पर दीक्षा ग्रहण कर ली । एक महीने के बालक दशरथ का राज्य पर अभिषेक कर , अनन्तरथ सहित अनरण्य ने दीक्षा ग्रहण की । अनरण्य मोक्ष चले गये और अनन्तरथ पृथ्वी पर विहार करने लगे । आयु से बालक होते हुए भी दशरथ अपने पराक्रम से सभी राजाओं में अधिक शोभता था । दशरथ के राज्य करने पर शत्रु आदियों का भय नहीं था । श्री जिनधर्म का पालन करता था । दभ्रस्थलपुर के राजा सुकोशल और अमृतप्रभा की पुत्री अपराजिता से विवाह किया तथा कमलसंकुलपुर के राजा सुबन्धुतिलक की पुत्री और मित्रा की कुक्षि से उत्पन्न सुमित्रा जिसके दूसरे नाम कैकयी , मित्राभू , सुशीला है उससे विवाह किया और अन्य सुप्रभा से विवाह किया । धर्म , अर्थ के अबाधा से काम को भोगने लगा ।
अनरण्य राजा के मित्र सहस्त्रार ने दीक्षा ली । अनरण्य को समाचार भेजे यह बात प्रथम सर्ग में आ गयी है । अनरण्य राजा ने दीक्षा लेने के लिए अनंतरथ को राज्याभिषेक के लिए कहा तब उसने कहा आप राज्य किसलिए छोड़ रहे है ? अगर यह राज्य आपके लिए दु:खदायी है तो फिर मेरे लिए क्या सुखदायी हो जायेगा ? मुझे भी आपके साथ चारित्र लेना हैं । इस प्रकार प्रत्युत्तर सुना । मंत्रियों ने रुकने के लिए आग्रह किया । दशरथ एक महिने का ही था । परंतु अनरण्य राजा संसाररुपी कारावास से शीघ्र मुक्त होना चाहते थे । मित्र को दिये वचन की पालना करनी थी और अयोध्या के मंत्री मंडल पर विश्वास था और संसार को पीठ दिखानेवाला संसार की चिन्ता नहीं करता । अनंतरथ के साथ अनरण्य ने चारित्र ले लिया । योग्य उम्र होने पर दशरथ अयोध्या का राज्य व्यवस्थित चलाने लगा ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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💥अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम💥
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
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📚 _* 📿 जैन रामायण 📿*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
❄~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ❄
16:1:21
📦 क्रमांक :- [ 44 ]
गतांक से आगे :-
भरतक्षेत्र के तीन खंड को भोगते हुए रावण ने मुझे स्वतः अथवा पर से विपत्ति होगी ? इस प्रकार ज्योतिषी से पूछा । सीता के कारण लक्ष्मण से आपकी मृत्यु होगी , उसके द्वारा ऐसा कहने पर जनक और दशरथ दोनों को मारकर सत्य वाणी वाले इसके वचन को झूठा सिद्ध करुँगा , इस प्रकार बिभीषण ने कहा । रावण के हाँ कहने पर , बिभीषण अपने महल गया । सभा में उपस्थित नारद यह वृतान्त सुनकर , दशरथ के पास गया । दशरथ उनकी सेवा-भक्ति आदि कर आप किस स्थान से आये हैं ? इस प्रकार पूछने पर कहा - पूर्वविदेह के पुण्डरीकीणी नगरी में श्री सीमन्धरस्वामी के दीक्षा महोत्सव को देखने गया था । वहाँ से मेरुपर्वत पर स्थित जिनालयों को नमस्कार कर , लंका नगरी में स्थित श्री शांतिनाथ भगवान को नमस्कार किया । रावण के महल में , नैमित्तिक से सीता के लिए तेरे पुत्र से होने वाले रावण वध के बारे में सुना । बिभीषण ने तुझे और जनक को मारने की प्रतिज्ञा की है और यहाँ पर आने ही वाला है । मैं साधर्मिक की प्राप्ति से तुझे कहने के लिए आया हूँ । दशरथ से सम्मानित नारद वहाँ से निकलकर जनक के पास जाकर वही वृत्तान्त कह सुनाया । जनक और दशरथ दोनों गुप्त वेश में पृथ्वो पर फिरने लगे । मंत्रियों ने अपने-अपने राजा की लेप्यमूर्ति रख दी । शीघ्रता से आये बिभीषण ने , अंधकार में लेप्यमयी दशरथ मूर्ति के सिर को छेद दिया । नगर में कोलाहल और अन्तःपुर में आक्रन्द शब्द की ध्वनि सुनायी दी । सामन्त कवच आदि धारण कर उसकी ओर दौड़े । आपस में गुप्त बातचीत वाले मंत्रीयों ने मृतकार्य किया । बिभीषण ने उसे मरा हुआ जानकर जनक के वध में अवज्ञाकर वापिस लंका लौट आया ।
मृत्यु का भय हर आत्मा को भयंकर लगता हैं । उसमें भी जो बड़े पुरुष कहलाते हैं और जो व्यवहार से विरुद्ध वर्तन अपने अहंकार के कारण विशेष करते हैं , उनको दूसरों के द्वारा मृत्यु का भय विशेष होता है । वैसा ही भय रावण को था । इसलिए रावण ने पूछा ।
मृत्यु में निमित्त सीता बनने वाली थी । इस समय भी यह बुद्धि उत्पन्न न हुई कि मैं परस्त्री का सर्वथा त्याग कर दूं । स्वयं के बचाव के लिए दूसरों की हत्या करने के लिए कभी-कभी धर्मात्मा कहे जाने वाले व्यक्ति भी तैयार हो जाते हैं । रावण की भक्ति के आवेश में बिभीषण दशरथ एवं जनक की हत्या करने का निर्णय कर लेता है । रावण अनुमति भी दे देता है ।
✒ क्रमशः:-
🌞 _*Veer Gurudevaay's exclusive*_...
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_*📿 जैन रामायण 📿*_
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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गंताक से आगे-
जैन रामायण
रचयिता - श्री हेमचंद्राचार्य जी
भाषांतर - मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
क्रमांक - 045
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गतांक से आगे :-
जगत का एक अटल नियम है कि हाथ में से कदाच कोई खींच ले पर भाग्य में लिखे लेख को मिटाने की ताकत किसी में नहीं है ।
दशरथ के भाग्य में नारद की वहाँ उपस्थिति थी और नारद ने साधर्मिक पर संकट को देखकर उस संकट की सूचना देने से वे संकट में से मुक्त होने का उपाय करेंगे । ऐसा सोचकर नारद ने सारी बातें कह दी ।
मंत्री मंडल ने सोच -विचारकर बुद्धि का उपयोगकर दशरथ राजा को गुप्तवेश में नगर के बाहर भेजकर , अन्तपुर में भी किसी को कानोंकान खबर न हो इस प्रकार लेप्यमय मूर्ति बनाकर मंद प्रकाश वाले कमरे में मूर्ति स्थापनकर अन्तःपुर सहित नगर में समाचार प्रसारित कर दिये कि दशरथ राजा आकस्मिक बिमारी से ग्रसित हो गये । राजवैद्य ने संपूर्ण आराम का आदेश दिया हैं ।
बिभीषण यही समझा कि मैंने साक्षात दशरथ को खत्म कर दिया है ।
दशरथ की हत्या के बाद उसमें विवेक जागृत हुआ कि दशरथ मर गया , रामचंद्र -लक्ष्मण की उत्पत्ति ही नहीं होगी तो फिर सीता से क्या होने वाला है ? व्यर्थ में जनक की हिंसा का पाप क्यों करुं ? और इस विचार से वह अयोध्या से सीधा लंका में चला गया ।
जनक और दशरथ भ्रमण करते हुए परस्पर मिले और उत्तरापथ गये । वहाँ कौतुकमंगलपुर में शुभमति नामक राजा की पृथ्वीश्री पत्नी की कुक्षि से उत्पन्न और द्रोणमेघ की बहन सभी कलाओं में कुशल ऐसी कैकयी के स्वयंवर में गये । वहाँ कैकयी के द्वारा दशरथ को वरने पर हरिवाहण आदि राजा क्रोधित हुए । युद्ध के लिए तैयार होकर कहने लगे कषाय वस्त्र को धारण किये हुए इस अकेले से हम कन्या को छीन लें । शुभमति राजा दशरथ के पक्ष में युद्ध के लिए तैयार हुआ । पति की आज्ञा से , कैकयी के द्वारा रथ का सारथ्य करने पर , दशरथ ने शत्रुओं को जीत लिया । वर मांगो ऐसा दशरथ के कहने पर कैकयी ने समय आने पर मांगूंगी कहा । बलपूर्वक शत्रु सेनाओं को जीतकर , उनका स्वामीत्व पाकर अनेक सैनिकों के परिवार वाला दशरथ कैकयी से युक्त श्वसुर प्रदत्त राजमहल में गया । जनक अपनी नगरी में गया । दशरथ शंका के कारण अयोध्या न गया , किन्तु अपनी लाखों की सेना के बल से मगध देश के राजा को जीतकर वहीं रहा और अपराजिता आदि मुख्य अन्तःपुर को वहाँ बुला लिया ।
क्रमश:
संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
📦 क्रमांक :- [ 46 ]
18:1:22
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
✏संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
गतांक से आगे :-
अन्यदिन अपराजिता ने गज , सिंह , चन्द्र और सूर्य को रात्रि के शेष भाग में स्वप्न में देखकर , बह्मकल्प से च्यवेदेव को गर्भ में धारण किया । यथोचित समय में पुत्र को जन्म दिया । जन्मदिन के समय राजा ने दान दिया और महोत्सव किया । तब उस बालक के प्रभाव से , राजाओं ने अचिन्त्य वस्तुओं को भेंट रुप में दिये । पिता ने बालक पद्म नाम रखा , जो बाद में रामचंद्र नाम से प्रसिद्ध हुआ । सुमित्रा ने भी गज , सिंह , सूर्य , चन्द्र , अग्नि , लक्ष्मी और समुद्र को स्वप्न में देखा । जन्में हुए पुत्र का राजा ने महोत्सवपूर्वक नारायण नाम रखा । जिसका दूसरा नाम लक्ष्मण प्रसिद्धि में आया । वे दोनों बालक , धात्रियों के द्वारा लालन-पालन किये जाते हुए राजाओं के द्वारा प्रीतिपूर्वक गोद में लिये गये । क्रम से बढ़ते हुए , विशेषकर नीले और पीले वस्त्र को धारण करने लगे , अपने भुजा के बल से शत्रु के बल को तृण के समान मानते हुए शस्त्र के कौशल को कुतूहल के लिए मानते थे । दशरथ उन दोनों के पराक्रम को देखकर , खुद को देव , असुर आदि से अजेय मानता हुआ अपनी नगरी अयोध्या में सपरिवार आ गया । समय पर कैकयी और सुप्रभा ने भरत और शत्रुघ्न को जन्म दिया । वे दोनों परस्पर अत्यन्त स्नेहपूर्वक रहते थे ।
यहाँ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में , दारुग्राम में वसुमति ब्राह्मण रहता था । उसकी अनुकोशा पत्नी थी । उन दोनों को अतिभूति पुत्र और सरसा नामक पुत्रवधु थी । कयान नामक ब्राह्मण के द्वारा सरसा का अपहरण करने पर , अतिभूति उसको ढूंढने के लिए पृथ्वी पर भ्रमण करने लगा और उन दोनों के लिए वसुभूति-अनुकोशा भी फिरने लगे ।पुत्र और पुत्रवधु के नहीं मिलने पर , उन दोनों ने दीक्षा ग्रहणकर , सौधर्म में देव बनें । वहाँ से च्यवकर वैताढ्यपर्वत के रथनूपुर नगर में चन्द्रगति और पुष्पवती नामक राजा -रानी हुए । सरसा ने भी दीक्षा ग्रहणकर ईशान देवलोक में देवी बनी । उसके वियोग से दु:खित अतिभूति संसार में भ्रमणकर हंस के बालक के रुप में जन्म लिया । बाज पक्षी के द्वारा भक्षण किये जाते उस हंस के बालक ने मरण से पहले साधु भगवंत से नमस्कार मंत्र श्रवण किया था । उसके प्रभाव से मरकर दस हजार वर्ष का आयुष्यवाला किन्नरों में देव बना । वहाँ से च्यवकर विदग्धपुर के राजा प्रकाशसिंह का पुत्र कुण्डलमंडित हुआ । कयान भी भोगों में आसक्त , संसार में भ्रमणकर चक्रपुर नगर में चक्रध्वज राजा के पुरोहित धूमकेश का पुत्र पिंगल हुआ । अपने ऊपर रागिनी और साथ में पढ़नेवाली राजा की पुत्री अतिसुन्दरी का अपहरण कर विदग्धनगर में गया ।वहाँ तृण , काष्ठादि के विक्रय से अपना पोषण करता था । वासना से ग्रसित मानव भौतिक सुखों को छोड़कर दु:खी बनेगा पर वेसना को नहीं छोड़ेगा । अतिसुंदरी राजकुमारी थी पर वासना के कारण तृण , काष्ठ बेचने का कार्य करने लगी ।
वर्तमान में भी कई धनवानों की कन्याएँ वासना पूर्ति के लिए नीच कौम जाति के घर उनसे शादी कर निम्न कार्यो के द्वारा पेट भर रही हैं ।
क्रमश:
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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19:1:21
_*📿 जैन रामायण 📿*_
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 47 ]
यहां तक पढ़ा
गतांक से आगे :
कुण्डलमण्डित ने उस अतिसुन्दरी को देखा । परस्पर राग जगा और उसका अपहरणकर , पिता के भय से दुर्गदेश में पल्लीकर रहने लगा । दशरथ राजा की सीमा में लूंट करते हुए , सामन्त के द्वारा बांधा गया और कुछ समय पश्चात् उसे छोड़ दिया । पिता के राज्य ग्रहण की इच्छा से पृथ्वी पर विचरण करते हुए चन्द्रमुनि के पास श्री जिनधर्म को सुनकर श्रावक बना । राज्य की इच्छा वाला कुंडलमंडित मरकर मिथिला नगरी में जनक राजा की पत्नी विदेहा के गर्भ में पुत्र के रुप में उत्पन्न हुआ । सरसा भी संसार में भ्रमणकर , पुरोहित की पुत्री वेगवती बनी । वहाँ उसने दीक्षा ग्रहणकर ब्रह्मलोक में गयी और च्यवकर विदेहा के गर्भ में कुंडलमंडित के जीव के साथ पुत्री के रुप में जन्म लिया । पिंगल ने अतिसुन्दरी के दु:ख से आर्यगुप्त आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । उस पर राग धारण करता हुआ आयुष्यपूर्ण कर सौधर्म में देव हुआ । विदेहा की कुक्षि से उत्पन्न उन संतानों की जोड़ी को देखा । जन्म को प्राप्त कुण्डल के जीव को पूर्वभव के वैर के कारण अपहरण किया और सोचा - इसको मैं शिला पर पटककर मार डालूँ अथवा पूर्व जन्मों में किये हुए दुष्कर्मो का फल , मैंने बहुत भव पर्यन्त अनुभव किये हैं । पुण्य के उदय से साधुता प्राप्तकर इतनी ऋद्धि प्राप्त की । फिर से भ्रूण की हत्याकर अनन्त भवी कैसे बनूँ ? इस प्रकार सोचकर कुण्डलादि आभूषणों से सजाकर वैताढ्यपर्वत की दक्षिण श्रेणी के रथनूपुर नगर में गिरती हुई ज्योति के भ्रम को पैदा करने वाले उस बालक को धीरे से छोड़ा । चन्द्रगति ने वह देखकर , यह क्या है ? इस प्रकार की भ्रान्ति से , उसके गिरने के स्थान पर जो नन्दन नामक उपवन था वहाँ गया । अपुत्रीय उस राजा ने बालक को लेकर , पत्नी को समर्पित किया । मेरी पत्नी गूढ़गर्भवाली थी । अभी उसने पुत्र को जन्म दिया है इस प्रकार की घोषणाकर , जन्मोत्सव मनाया । भामण्डल ( दीप्ति ) के कारण उसका भामण्डल नाम रखा ।
इधर बालक के अपहरण से विदेहा के रोने पर जनक ने उसकी खोज की , किन्तु कहीं पर भी उसकी शुद्धि प्राप्त न की । अनेक गुण रुपी धान्य के अंकुर के समान , युगल के रुप में जन्मी उस पुत्री का मैथिली , जिसका दूसरा नाम सीता रखा । समय के बीतते शोक कम हो गया । सीता के यौवनावस्था में आने पर , राजा ने उसके योग्य कोई वर न पाया । इतने में अर्धबर्बरदेश के आतरंगतम आदि राजाओं के द्वारा देश में उपद्रव मचाने पर , जनक ने अपने मित्र राजा दशरथ को बुलाने के लिए दूत भेजा । दशरथ ने दूत से पूछा - मेरे मित्र के राष्ट्र , पुर आदि में कुशल है ? दूत ने कहा - मेरे स्वामी के आप ही असाधारण मित्र हो । इसलिए आज कष्ट में आपको याद किया गया है । वैताढ्यपर्वत के दक्षिण दिशा में और कैलास के उत्तर दिशा में अनार्य देश है । वहाँ अर्धबर्बर देश में मयूरमाल नगर में आतरंगतम नामक मलेच्छ राजा है । उसके पुत्र शुक , अंकनक , अम्बोज आदि हजारों देशों का राज्य करते हैं । अब आतरंगतम उनके साथ जनक की पृथ्वी का आक्रमण कर रहा है और जिनालयों में उपद्रव मचा रहा है । सत्य स्वरुप वाले जनक और धर्म की आप रक्षा करे ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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20:1:21
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 48 ]
21:121
गताकं से आगे:
भाईयों के साथ रामचंद्र ने , युद्ध के लिए प्रयाण करते पिता को रोककर स्वयं मिथिला गया । म्लेच्छों के द्वारा रामसैन्य को नष्ट करने पर , दुरापाती , दृढ़प्रहरी और शीघ्रवेधी रामचंद्र ने कुपित और आश्चर्यचकित शीघ्र ही अस्त्रों की वर्षा से अंधा करते ऐसे म्लेच्छ राजाओं को एक दिशा से दूसरी दिशा में भगा दिया । जनक ने रामचंद्र के साथ सीता का विवाह निश्चित किया । तब सीता के रुप को देखने की इच्छा से नारद कुतूहल से आया और कन्या के खंड में प्रवेश किया ।सीता ने उसको पीले केशवाला , पीली आँखोंवाला , बढ़े हुए पेटवाला , छत्रिका धारण किया हुआ , हाथ में दंडवाला , कृश अंगवाला और हिलती शिखा धारण किये हुए भीषण आकृतिवाले नारद को देखा , भयभीत और काँपी हुई सीता हे माता ! इस प्रकार रोती हुई गर्भगृह के अंदर चली गयी । सीता को भयभीत देखकर आये हुए दासी और द्वारपालों ने उसे ( नारदजी ) कण्ठ शिखा और बाहु में धारणकर रोका । मारो , इस प्रकार कहते राजपुरुषोंअं से कैसे भी अपने को छुड़ाकर , उड़कर वैताढ्यपर्वत पर गया । कलह प्रवृति में आनंद माननेवाले नारद जी ने सोचा -चन्द्रगति के पुत्र भामण्डल को उसका रुप पट में चित्राकंनकर दिखाऊँगा । जिससे वह बलपूर्वक उसका अपहरण करें । जिससे मेरे अपमान का बदला मिल जायेगा । नारद ने वैसे ही किया । भामण्डल चित्र देखकर उसको पाने की चिन्ता में खान-पान आदि से विमुख और दु:खित देखकर उसके पिता ने -क्या कोई आधि , व्याधि है ? अथवा किसी ने तेरा अपमान किया है ? इत्यादि कारण पूछने पर , उसके मित्रों से यथार्थ स्थिति को जानकर , नारद को बुलाया और पूछा -वह कौन है ? और किसकी पुत्री है ? इत्यादि पूछने पर नारद ने कहा - वह जनक की पुत्री सीता है । उसका रुप कोई भी लिख नहीं सकता । न देवियों में और नहीं असुरनिकाय की कन्याओं में वैसा रुप है । देव और मनुष्यों में इसके समान रुप नही है अथवा बहुत क्या कहूँ ? जैसे उसका यथार्थरुप चित्राकंन करना मुश्किल है वैसे ही वाणी से वर्णन करना भी मुश्किल है । तेरे पुत्र के लिए ही यह कन्या योग्य है । राजा ने पुत्र को - यह तेरी पत्नी होगी इस प्रकार आश्वासन देते हुए नारद को विसर्जित किया ।
क्रमश:
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
22:1:21
📦 क्रमांक :- [ 49 ]
गतांक से आगे :-
चपलगति नामक विद्याधर ने रात्रि के समय जनक का अपहरणकर चन्द्रगति के पास ले गया । चन्द्रगति ने स्नेहपूर्वक जनक से भेंटकर , बिठाया और मित्रतापूर्वक कहने लगा - तेरी कन्या लोकोत्तर गुणवाली है । मेरा पुत्र भामण्डल भी रुपवान है । इन दोनों का योग शुभकारी होगा । ऐसे मन को अप्रियवचन सुनकर संयमित रहकर जनक ने राजा से कहा - मैने रामचंद्र को कन्या दी हैं । कन्या दान एक बार ही किया जाता है । चन्द्रगति ने कहा - मित्रता के लिए मैने तुमसे कन्या माँगी है । उसको अपहरण करने में भी समर्थ हूँ । यदि रामचंद्र को कन्या दान मुंह से कह दिया है , तो भी रामचंद्र हमको पराजित कर विवाह करेगा । वज्रावर्त और अर्णवावर्त ऐसे दो धनुष सदा हजार यक्षों से अधिष्ठित , दु:सह तेजवाले , देवताओं की आज्ञा से गोत्रदेवता के समान हमारे घर में सदा पूजे जाते हैं । ये धनुष्य भविष्य में होने वाले बलदेव और वासुदेव के लिए हैं । इसलिए इन दोनों को तू ग्रहण कर । यदि वह रामचंद्र इन दोनों में से एक पर भो डोरी का आरोपण करता है , तब हम जीत गये और उसके बाद तेरी कन्या से वह विवाह करें ।बलपूर्वक इस प्रकार की प्रतिज्ञा को ग्रहण करवाकर , पुत्र और धनुष के साथ चन्द्रगति , जनक को उसके महल में छोड़कर स्वयं मिथिला के बाहर रहा । जनक ने उसी रात्रि में विदेहा से सब कुछ कह दिया । देवी रोने लगी । भाग्य! पुत्र के अपहरण से तृप्त नहीं हुआ , पुत्री का भी हरण करेगा ।सचन्द्रगति की इच्छा से बताया हुआ धनुष का आरोपण यदि रामचंद्र से सिद्ध न हुआ , तब अनिष्ट वर की प्राप्ति होगी । जनक ने देवी को यह राघव बलवान है इस प्रकार संबोधन कर , प्रातः उन दोनों धनुष रत्नों की पूजा कर , मण्डप में रखा । सीता के स्वयंवर में बुलाये गये विद्याधर और भूचर राजा मंच पर बैठे । सखीयुक्त सीता , धनुष की पूजाकर , रामचंद्र का ध्यान करती हुई वहाँ खड़ी रही । भामण्डल सीता रूप के दर्शन से खुश हुआ । जो इन दोनों धनुष में से एक का भी डोरी का आरोपण करता है , वह भूचर अथवा विद्याधर सीता से विवाह करे इस प्रकार की घोषणा होने पर भयंकर सर्पो से वेष्टित , शब्द करती हुई ज्वाला से युक्त उन दोनों धनुषों को स्पर्श अथवा ग्रहण करने में अशक्त और शर्म से झुके हुए दूसरें राजाओं के होने पर , रामचंद्र ने शांत हो गये हैं , सर्प और अग्निज्वालाएँ जिसकी ऐसे वज्रावर्त धनुष को हाथ से स्पर्श कर लोहे की पीठ पर स्थापित किया और झुकाकर डोरी का आरोपणकर स्वर्ग और पृथ्वी को गूंजाता हुआ पछाड़ा । नारद जी ने सीता का अहित करने के लिए प्रयत्न किया पर सीता के भाग्य ने सब अनुकूल कर दिया । सीता ने रामचंद्र के कण्ठ में वरमाला डाली । लक्ष्मण ने भी रामचंद्र की आज्ञा से अर्णवावर्त धनुष पर डोरी का आरोपण किया । उस समय प्रसन्न होकर विद्याधरों से दी गयी अठारह कन्याओं के साथ लक्ष्मण का विवाह हुआ । विद्याधर , खेदित भामण्डल से युक्त अपने -अपने स्थान गये । जनक के संदेश से दशरथ के वहाँ आने पर , रामचंद्र और सीता का विवाह हुआ । भरत ने जनक के भाई कनक की पुत्री भद्रा से विवाह किया । दशरथ परिवार सहित अयोध्या आये ।
✒ क्रमशः:-
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
23:1:21
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*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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*📿 जैन रामायण 📿*_
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
📦 क्रमांक :- [ 50 ]
गतांक से आगे :-
अन्य दिन दशरथ , चैत्य महोत्सव में शान्तिस्नात्रकर , स्नात्र जल पहले पट्टरानी को देने के लिए वृद्ध नौकर को भेजा और बाद में दासीयों के द्वारा अन्य पत्नीओं को भेजा । दूसरी दासिओं ने यौवन अवस्था के कारण शीघ्र जाकर रानीयों को दे दिया और उन्होंने स्नात्र जल का मस्तक , आँख पर लगाकर बहुमान किया । बुढ़ापे के कारण , धीरे से चलते नौकर के नहीं आने पर , महारानी अपना अपमान मानती हुई वस्त्र से फांसी लगाने लगी ।
कुछ लोग किंचित निमित्त को पाकर धैर्यगुण न होने से अतिशीघ्र अपना अपमान मान लेते है और उस निमित्त की पूर्ण खोज भी नहीं करते और मरने की विचारधारा अपना लेते हैं । अपराजिता ने थोड़ी धीरज रखी होती, दासी द्वारा तपास करवायी होती तो इतिहास के पन्नों पर उसकी यह उतावल अंकित नहीं होती ।
वर्तमान में भी जो आत्महत्याएँ हो रही हैं उसमें ऐसी ही शीघ्रता , धीरज का अभाव , सोच शक्ति का अभाव आदि कारण हैं जो कारण कोई विशेष महत्व नहीं रखते ।
तभी आये राजा ने उसे रोककर , मरण का कारण पूछा । महारानी के कहते समय ही नौकर आ गया । स्नात्रजल से उसके मस्तक पर अभिषेक किया । राजा के द्वारा देरी आने का कारण पूछने पर बुढ़ापे का दोष कहा । राजा ने उसके देह का स्वरुप सोचा-जब तक मुझे वृद्धावस्था न सताये तब तक मुझे मोक्ष का प्रयत्न कर लेना चाहिए । दूसरों की स्थिति देखकर स्वयं जागृत होने वाला महामानव हो जाता है । इस प्रकार के मनोरथ वाला और विषयों से पराड्मुख बनकर समय को बीताने लगा । चार ज्ञान से युक्त ऐसे सत्यभूति मुनि का आगमन सुनकर , परिवार सहित वंदन करने गया ।
इसी बीच भामण्डल की उदासीनता मिटाने के लिए चन्द्रगति उसको साथ लेकर तीर्थ यात्रा करवाता था । उस दिन भी भामण्डल के साथ चन्द्रगति रथावर्त पर्वत पर जिनेश्वरों को वंदन कर लौट रहा था । उस समय वहाँ उन मुनि को देखकर , आकाश से नीचे उतरा और विधिवत् वंदना कर बैठा । मुनि ने भामण्डल के सीता की अभिलाषा से उत्पन्न ताप को जानकर , देशना करने के बाद उसके पूर्वभवों को और युगल के रुप में जन्म लेने की बात कहीं । भामण्डल को जातिस्मरण ज्ञान हुआ । चन्द्रगति आदि ने वैराग्य प्राप्त किया । भामण्डल ने सीता को बहन से संबोधितकर , नमस्कार किया और आशिष दी । भामण्डल ने रामचंद्र को नमस्कार किया । चन्द्रगति ने विद्याधरों के द्वारा पत्नी सहित जनक को वहाँ बुलाकर -यह भामण्डल तेरा पुत्र है इस प्रकार कहकर संतोषित किया । भामण्डल ने माता-पिता को प्रणाम किया । चन्द्रगति ने भामण्डल को वहाँ ही राज्य सौंपकर , उन्हीं मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा लेने की भावना वाले संसार को कारावास समझकर निमित्त मिलते ही कारावास में से भागने की ही करते हैं वैसा ही किया चंद्रगति ने । भामण्डल , सत्यभूति , पिता-मुनि, माता-पिता , दशरथ और रामचंद्र -सीता को नमस्कार कर अपनी नगरी में गया ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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🌞 _*Veer Gurudevaay's exclusive*_...
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_*📿 जैन रामायण 📿*_
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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📦 क्रमांक :- [ 51 ]
गतांक से आगे :
दशरथ के द्वारा पूर्वभवों के बारे में पूछने पर सत्यभूति ने कहा - सेनापुर में तू उपास्ति नामकी एक वणिक की कन्या थी । साधुओं पर शत्रुता धारण करती हुई , आयुष्य पूर्णकर चिरकाल तक तिर्यंच आदि भवों में भ्रमणकर , चन्द्रपुर में धन का पुत्र वरुण बना । वहाँ दानादि करते हुए , आयुष्य पूर्णकर धातकीखंड के उत्तरकुरुक्षेत्र में युगलिक के रुप में जन्म लिया । आयुष्य पूर्णकर देव बना । वहाँ से च्यवकर पुष्कलावती विजय के पुष्कलापुरी में नन्दीघोष राजा का पुत्र नन्दीवर्धन हुआ । तेरे पिता यशोधरर्षि के पास दीक्षा ग्रहण कर ग्रैवेयक गये । तू राजा बना और श्रावक व्रतों का पालन कर ब्रह्मलोक गया । वहाँ से च्यवकर पश्चिमविदेह में वैताढ्यपर्वत की उत्तरश्रेणी में रत्नमाली विद्याधर राजा के पुत्र सूर्यजय हुआ । अन्य दिन रत्नमाली वज्रनयन विद्याधर राजा को जितने के लिए गया । आबाल-वृद्ध सहित उसकी नगरी सिंहपुर को जलाने की इच्छावाले रत्नमाली को पूर्वभव के पुरोहित उपमन्यु ने सहस्त्रार देवलोक से आकर समझाया - तू पाप मत कर । तू पूर्वभव में भूरिनन्दन नामक राजा था । मांस न खाने की प्रतिज्ञा ली थी । उपमन्यु पुरोहित के कहने पर तूने प्रतिज्ञा तोड़ दी । अन्य दिन वह पुरोहित स्कन्द नामक पुरुष के द्वारा मारा गया । मरकर हाथी बना । भूरिनन्दन राजा ने उसे ग्रहण कर लिया । एक दिन वह हाथी युद्ध में मारा गया और मरकर भूरिनन्दन का ही पुत्र अरिसुदन बना । जातिस्मरण ज्ञान से अपने पूर्वभव को जानकर , दीक्षा ग्रहण की और सहस्त्रार देवलोक में देव बना । वो मैं ही हूँ । भूरिनन्दन मरकर अजगर हुआ । दावानल से जलाया हुआ मरकर द्वितीय नरक में गया और मेरे द्वारा बोधित किया गया , वह तू रत्नमाली राजा बना । रत्नमाली इस प्रकार सुनकर , युद्ध करने से रुक गया । कुलनन्दन पुत्र को राज्य सौंपकर अपने पुत्र सूर्यजय के साथ दीक्षा ग्रहण की । दोनों भी आयुष्य पूर्णकर महाशुक्र देवलोक में देव हुए । सूर्यजय का जीव वहाँ से च्यवकर तू दशरथ हुआ और रत्नमाली का जीव वहाँ से च्यवकर जनक हुआ । उपमन्यु जनक का भाई कनक हुआ । जो नन्दीवर्धन भव में तेरे पिता नन्दीघोष थे , वह मैं ग्रैवेयक से च्यवकर सत्यभूति हुआ हूँ ।
दशरथ ने यह सुनकर , संवेग प्राप्त किया । राजमहल जाकर रानी, पुत्र और मंत्रियों से दीक्षा की अनुमति मांगी उस समय भरत के द्वारा कहा गया - मैं आपके साथ चारित्र लूँगा । अन्यथा मुझे दो कष्टों का सामना करना पड़ेगा-एक आपका विरह और दूसरा संसार का दु:ख । तब कैकेयी ने अपने पुत्र वियोग के बारें में सोचती हुई सारथ्य के अवसर में दिये गये वर को माँगा । राजा ने कहा - दीक्षा निषेध के बिना जो मेरे आधीन है वह माँगों । उसने कहा भरत को राज्य दो इस प्रकार कैकेयी के कहने पर राजा ने यह राज्य भरत को दिया कहकर लक्ष्मण सहित रामचंद्र से कहा - मैंने पूर्व में जो कैकेयी को वर दिया था , आज उसने भरत के लिये राज्य माँग लिया हैं । रामचंद्र भी खुश होकर कहने लगा-माता ने योग्य वर माँगा हैं । मैं और भरत एक ही हैं । पिता ने मुझ पर कृपा कर यह पूछा । यह भी योग्य नहीं हुआ क्योंकि एक स्तुतिपाठक पर खुश होकर , पिता यह राज्य उसको दे दे तो भी निषेध करने अथवा सहमति देनें में मुझ सेवक की प्रभुता नहीं हैं । इस प्रकार रामचंद्र के वचनों को सुनकर , राजा ने जब मंत्रियों को राज्याभिषेक का आदेश दिया , उतने में ही भरत ने कहा - मैंने प्रथम ही आपके साथ दीक्षा लेने की बात कहीं हैं , मुझे राज्य नहीं चाहिए । राजा ने कहा - मैरी प्रतिज्ञा को सफल कर । रामचंद्र ने भरत से कहा - तू राज्य ग्रहण कर । यद्यपि तू गर्व रहित है , तो भी पिता के वचनों को सत्य कर । भरत रामचंद्र के चरणों में गिरकर कहने लगा - पिता और आपका राज्य दान योग्य है , किन्तु मेरा लेना योग्य नहीं हैं । उस समय रामचंद्र ने पिता से कहा - यहाँ मेरे होने पर , भरत राज्य ग्रहण नहीं करेगा । इसलिए मैं वनवास के लिए जाता हूँ , इस प्रकार कहकर , भरत को रोते छोड़कर रामचंद्र धनुष और बाण के तरकश को धारणकर निकले । राजा बार-बार मूर्च्छा प्राप्त करने लगा । रामचंद्र ने अपराजिता देवी को नमस्कारकर कहा -मेरे समान भरत को देखना । अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए पिता ने भरत को राज्य दिया है । मेरे यहाँ होने पर , यह राज्य ग्रहण नहीं करेगा , इसलिए मैं वन में जा रहा हूँ । माता भी मूर्च्छित हुई । विविध उपचारों के बाद , होश में आकर अनेक प्रकार से विलाप करती हुई , माता रामचंद्र के द्वारा समझायी गयी उन्हें प्रणामकर , दूसरी माताओं को भी प्रणामकर राजमहल से निकला । सीता ने भी दूर से दशरथ राजा को नमस्कार कर , अपराजिता से रामचंद्र के पीछे जाने की आज्ञा माँगी । उसने भी सीता को पास में बिठाकर कहा-बेटी ! तू पैर से चलने की पीड़ा को कैसे सहन करोगी ? वन के कष्टों से खेदित तू अपने पति को भी कष्ट पहुँचाएँगी । अपने पति के पीछे जाने से और कष्ट के आने से निषेध करने के अलावा अनुमति देने में मैं उत्साहित नहीं हूँ । सीता ने कहा - आपकी भक्ति मेरी सहाय कर्ता बनें , इस प्रकार कहकर , नमस्कार कर , नगर के लोगों के द्वारा देखो यह सती स्त्री है इस प्रकार प्रशंसा की जाती हुई सीता भी निकल गयी ।
क्रमशः
✏ *संकलन :- शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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🌞 *टीम वीर गुरुदेवाय*
*..विचारशुद्धि का साम्राज्य..*
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25-1-2021
🏹 *जैन रामायण * 🏹
✏रचयिता :- श्री हेमचंद्राचार्य जी
✏भाषांतर :- मुनिश्री रैवतचंद्रविजयजी
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( 52 )
गतांक से आगे :-
रामचंद्र को जाते हुए देखकर , लक्ष्मण क्रोधित हुआ और सोचने लगा - पिताजी प्रकृति से सरल हैं । स्त्रियाँ असरल होती हैं । जो चिरसमय तक वर धारणकर अब माँग रही हैं । पिता ने भरत को राज्य दिया उनका वरदान पूरा हुआ , अब मैं भरत से बलपूर्वक राज्य हरणकर रामचंद्र को दूँगा । पुनः सोचा रामचंद्र महासत्वशाली हैं । छोड़े हुए राज्य को ग्रहण नहीं करेंगे और पिता को दु:ख होगा । इसलिए मैं भी रामचंद्र के पीछे जाऊँ । रामचंद्र के बिना मैं रह नहीं सकूँगा । ऐसा सोचकर राजा को नमस्कारकर , सुमित्रा से पूछा - रामचंद्र के पीछे जा रहा हूँ । उसने भी कहा-अच्छा-अच्छा बड़े भाई के पीछे जा रहे हो । रामचंद्र मुझे नमस्कारकर दूर चला गया हैं , तू देरी मत कर । लक्ष्मण भी -अच्छा , अच्छा मेरी अच्छी माता हो इस प्रकार कह कर अपराजिता को नमस्कार किया । उसने रिमचंद्र के पीछे जा रहा हूँ इस प्रकार कहते हुए लक्ष्मण से कहा -वत्स मैं मन्दभाग्यवाली हूँ , जो तू भी मुझे छोड़कर जा रहा है । मेरे आश्वासन के लिए तू यहां ही रह । लक्ष्मण ने कहा - आप रामचंद्र की माता हो । धैर्य धारण करों । मैरें बड़े भाई दूर चले गये हैं । हे माता ! आप विघ्न न करें इस प्रकार कहकर चला गया । कैकेयी पर और अपने भाग्य पर आक्रोश धारण करने वाले नगर के लोग , आंसू बहाते हुए उन तीनों के पीछे चले । राजा भी पीछे गया । अयोध्या उज्जड़ भूमि के समान बन गयी । रामचंद्र ने कैसे भी पिता और माताओं को वापिस लौटा दिया । नगर के लोगों को भी लौटा कर शीघ्र चलने लगा । गाँव-गाँव और नगर-नगर में लोगों के द्वारा ठहरने के लिए प्रार्थना करने पर भी नहीं ठहरे , तीनों चलते रहे ।
दशरथ की दीक्षा की बात में कैकेयी के स्वार्थ ने बहुत बड़ा झमेला राजमहल में उत्पन्न कर दिया । पुत्र मोह से ग्रसित बनकर उसने व्यवहार से विरुद्ध वरदान मांग लिया । इसमें कितने ही लोगों की परीक्षा हुई । दशरथ राजा ने रामचंद्र को पूछे बिना राज्य देना स्वीकार कर लिया । उस समय अपने पुत्रों पर पिताओं को अतूट विश्वास होता था । आज ऐसे विश्वास की अतीव आवश्यकता है । बाद में बात कही तो भी रामचंद्र ने अपना पुत्रत्व प्रकट किया कि आपने मुझे पूछा यह ठीक नहीं किया । आपका राज्य आप एक भाट-चारण को भी दे सकते हैं । मैं निषेध करने वाला कौन ? फिर भरत को राज्य लेने के लिए समझाने पर भी न समझने से दूसरा मार्ग अपनाया । मेरे यहाँ रहते यह राजा बनने में संकोच करे यह व्यावहारिक सत्य है । अतः मुझे ही यहाँ से दूर हो जाना है । सोचा और शीघ्र अमल में रख दिया । पत्नी को पूछने नहीं गये । वर्तमान के पति , माता-पिता भाई-बहन के कार्य में पत्नी को पूछने की प्रवृतिवाले रामचंद्र के इस प्रकार के वर्तन सै बोध पाठ लें ।
क्रमशः
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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