मगध_सम्राट_श्रेणिक कथा 3

 

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6-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 74


चण्डप्रद्योत से टक्कर

अभयकुमार चण्ड को चुनौती देकर राजगृही आये। श्रेणिकराजाa उसे देखकर प्रसन्न हुए।


कुछ समय बाद अभयकुमार 2 सुंदर युवती तथा एक चण्ड जैसा कद-काठी वाला युवक के साथ व्यापारी का भेष बनाकर अवंति आया । अवंति मे घर किराये से लेकर रहने लगा। 

अपनी योजना के मुताबिक अभयकुमार रोजाना उस चण्ड जैसे कद-काठी वाले युवक को खाट पर डालकर मजदूरों द्वारा वैध के यहां ले जाने के बहाने दूर तक ले जाने लगा।


वह व्यक्ति चिल्लाता : - अरे, कोई मुझे बचाओ, मैं यहां का राजा हूं। शुरू-शुरू में लोग यह सुनकर राजा को बचाने इकट्ठा हो जाते। तब व्यापारी के रुप में बदले हुए भेष में अभयकुमार यह कहते : - अरे, यह मेरा भाई है, पागल हो गया है। इसी तरह कुछ भी बकता रहता है। उसे वैध के पास उपचार करवाने ले जा रहा हूं। लोग आश्वस्त होकर लौट जाते। यह प्रतिदिन होने लगा । अब लोग कुछ नही बोलते। न उसकी बात सुनते।

योजना के अनुसार उधर एक दूसरा काम अभयकुमार के साथ आई 2 युवतियों ने किया। चण्ड के आने-जाने के स्थान व मार्ग पर सजधज कर आवागमन करने लगी। ताकि वे औऱ उनकी सुंदरता राजा की नज़रों में आये। तीर निशाने पर लगा। चण्ड उन दोनो सुंदरियों पर मुग्ध हो गया। उसने एक दुतनी भेजकर उन सुंदरियों के पास प्रणय निवेदन किया। 

शुरुआत में युवतियो ने इनकार कर दिया। चण्ड और तीव्र आसक्त हो गया। फिर  कुटनी  दुतनी ने 3/4 बार प्रयास किया। अब चण्ड की मुग्धता समझकर, लोहा गर्म हो चुका यह जान लिया। युवतियों ने कहा : - अभी हम हमारे भाई के साथ है। लज्जावश ऐसा कुछ नही कर सकते। आज से 7 दिन बाद जब भाई बाहरगांव जानेवाले है तब राजा को यहां भेज देना।

योजना अंतिम चरण पर आ गई थी। सातवे दिन एकांत में राजा चण्ड आया। मौका देखकर अभयकुमार ने अपने सैनिकों द्वारा राजा को खाट पर बांध दिया। और उसे उठाकर नगर में राजमार्गो से होकर निकलने लगे। राजा गुस्सा, लाचारी से तड़प उठा। वह चिल्लाया अरे, कोई मुझे बचाओ, मैं यहां का राजा हूं। पर किसी ने उसकी ओर ध्यान नही दिया। वहां से वे वन में आये। पहले से तैयार रथ में डाला और राजगृही लेकर आये।


श्रेणिकराजा शत्रु को देखकर क्रोधित होकर उसे मारने उठे, परन्तु अभयकुमार ने उन्हें शांत किया। अपनी चुनौती उसे याद करवाकर अपना ऋण वसूल किया। फिर उसे राजा योग्य सन्मान के साथ वापिस अवंति लौटा दिया।


हमने पिछले कथानकों में चण्ड के कामुकता के 2 प्रसंग देखे जिसमे एक तो संबन्ध में साली ऐसी मृगावती जी तथा अभयकुमार के साथ आई युवती का प्रसंग था। एक ऐसा अन्य प्रसंग भी हम साथ में देखेंगे जिसमे जिनशासन के एक अन्य महान विभूति के लिए भी हम जानेंगे।


कौन थी वो महान आत्मा, जिसे आज भी याद किया जाता है।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ



कल का जवाब  :  - (पुरानी पोस्ट से )

चंडप्रद्योत के पास 4 दुर्लभ रत्न थे। 

1 अग्नि-भीरू रथ ,2 रानी शिवादेवी , 3 अनलगिरी हाथी,  4 लोहजंघ दूत ।



आज का सवाल : कल की पोस्ट से।

अभयकुमार ने चण्ड से तीसरे वरदान में क्या मांगा?



जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।

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7-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 75



राय उदायन ।


एक उद्दात्त चारित्र,

वीरशासन के एक वीर , प्रतापी व क्षमासम्राट की उपमा प्राप्त उदायन राजा ,

 

यह कथा इतने प्रसंगों से भरी है कि 1/2 पोस्ट में समाविष्ट नही कर सकते । फिर भी संक्षिप्त करने का प्रयास किया है।


एक विशाल, समृद्ध देश सिंधु-सौवीर । 10 मुकुटधारी राजा  व 16 जनपद जिनकी सेवा में थे ऐसे देश के पाटनगर वित्तभय  के राजा उदायन,  राजा चेटक की पुत्री प्रभावती के पति व श्रेणिकराजा तथा विकारी चंडप्रद्योत के एक साढू  । उनके पुत्र का नाम था अभिचिकुमार। एक भांजा केशी कुमार भी उनके साथ ही रहता था।

दृढ़ जैन धर्मी व एक कुशल राजा। जीव-अजीव आदि 9 तत्त्वों के ज्ञाता श्रावक के सभी व्रतों का श्रद्धा से पालन करते। पौषध आदि भी नियमित करते।



उदायन राजा के यहां सुवर्णगुलिका नामक एक अति सुंदर दासी  थी। उसकी सुंदरता की प्रसंशा सुनकर  एक बार चण्डप्रद्योत गुप्त वेश से अपने अनिलवेग हाथी पर आकर उस दासी को उठा ले गया।

यद्यपि उदायन राजा व्यर्थ हिंसा में नही मानने वाले एक व्रती श्रावक थे परंतु यह राज्य की आन बान व शान का प्रश्न था। सेना लेकर वित्तभय नगर से उज्जयनी नगर आकर उस चण्डप्रद्योत को युद्ध मे हराया । चण्डप्रद्योत के ललाट पर "दासीपति" शब्द छपवा कर बंदी बनाकर उसे साथ लिए अपने राज्य के लिए निकल गए।


जंगल के रास्ते मे ही पहुंचे थे कि चातुर्मास की शुरुआत हो गयी। वर्षा भी बहुत बढ़ गई थी। इतनी बड़ी सेना के गमन से  जीवो की हानि भी बहुत तथा सेना को भी पानी मे दिक्कत। रास्ते मे ही पड़ाव डाला और ठहर गये। उदायन राजा, बंदी चण्डप्रद्योत के साथ भी एक राजा योग्य सन्मान के साथ व्यवहार करता था। दोनो का भोजन साथ मे बनता था।

पर्युषण पर्व आया। जंगल मे भी उदायन

 राजा बराबर  श्रावकोचित आराधना कर रहे थे। संवत्सरी का दिन आया। उदायन राजा ने प्रतिपूर्ण पौषध करने का विचार किया। अगले दिन  सैनिक जब भोजन के आदेश लेने आये थे तब उदायन ने 

अपने उपवास व पौषध का बताया तथा कहा कि आप चण्डप्रद्योत से पूछकर उन्हें जो खाना हो वह भोजन उनके लिए बनवा दे।

सैनिक चण्डप्रद्योत के पास आये । सब जानकर चण्डप्रद्योत को इस पर शंका हुई , कि सिर्फ मेरे लिए बने भोजन में विष मिलाने का षड्यंत्र तो नही। उसने कह दिया कि आज संवत्सरी का मैं भी उपवास करूँगा। 

प्रतिक्रमण के बाद जब उदायन राजा ने सर्व जीवो को खमाया (क्षमापना की) तब वे चण्डप्रद्योत के पास भी खमाने के लिए आये। निर्लज्ज चण्डप्रद्योत ने कहा: - राजन , मुझे बंदी बनाकर कैसी क्षमा याचना। यदि सही हृदय से क्षमा मांगने आये होते तो पहले मुझे मुक्त करते, मेरा जीता हुआ राज्य लौटाते। फिर होती क्षमायाचना। उदायन धर्मसंकट में पड़ गए। धर्मी मन चण्डप्रद्योत को मुक्त करने की बात कहता तो राज्य नीति उसे दंडित करने का सुझाव देता। आखिर धर्म संस्कार की जीत हुई। राजा उदायन ने बड़ी उदारता के साथ उसका सर्वस्व लौटाकर क्षमादान दिया। उसके मस्तक का दासीपति शब्द छुपाने के लिए एक स्वर्ण मस्तकबन्ध दिया। आज इसी लिए क्षमादाता का उल्लेख होता है तो उदायन राजा का नाम अवश्य लिया जाता है।


यही उदायन राजा आगे चलकर क्या करते है ?

  

वली राय उदायन , दियो भाणेज ने राज,

पोते चारित्र लइ ने , सार्यो आतम काज ।।



नाम में थोड़ा वैभिन्य है।

उदयन,

उदायन

उद्राय

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ



कल का जवाब  :  - कल की पोस्ट से।

अभयकुमार ने चण्ड से तीसरे वरदान में  मांगा  - आपके तीसरे रत्न अग्नि भीरू रथ को तोड़कर उसकी लकड़ियों की चित्ता जलाई जाए।



आज का सवाल : कितने जनपद उदायन की सेवा में थे?



जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


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8-2-2021


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 76



राय उदायन ।



चण्डप्रद्योत को क्षमादान देनेवाले, नित्य 3 मनोरथों का चिंतन करते राजा उदायन कालांतर में वैरागी बने। प्रभुजीके आगमन पर उनकी देशना सुनकर  प्रवजित होने को तत्पर हुए।

राजमहल में आकर दीक्षा के बाद राज्य की व्यवस्था के लिए सोचने लगे। उनके पुत्र का नाम था अभिची कुमार। परन्तु उनके आचरण को देख राजा को आभास हुआ कि यह राजा बनेगा तो अवश्य भोगादि में डूबकर नरकेश्वरी बनेगा। इससे बेहतर  मैं अपने भांजे केशिकुमार को राजा बनाकर निश्चिन्त होकर दीक्षा लूं। केशिकुमार योग्य भी है तथा अभिचिकुमार के बाद उसका हक भी।

अंततः राज्य सिंहासन को केशिकुमार को सौंपकर संयम अंगीकार किया। विहार करते हुए उग्र साधना आराधना करने लगे। इधर राज्य न मिलने पर नाराज हुए अभिचिकुमार कोणिक के साथ चले गए। कोणिक जिनधर्मानुरागी था। उसकी संगत से कुछ असर अभिचिकुमार पर हुआ। वह भी जिनवाणी पर श्रद्धांवित हुआ। कालांतर में जीवादी 9 तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक बना। पर पिता के लिए द्वेष का खटका इसके मन में सदा बना रहा। बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय में बिताने के बाद आयुष्य के अंत में अर्ध मासिकी संलेखना ( पर अपने वैरभाव की आलोचना नही की ) कर आयु पूर्ण कर मृत्यु के बाद असुरकुमार देव बना। एक पल्योपम की अपनी आयु पूरी कर वे महाविदेह में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे।




इधर उदायन मुनि विहार करते हुए पुनः वित्तभय नगरी के उद्यान में पधारे। तप व उत्कृष्ट साधना अविरत जारी थी।  देह में कुछ अस्वस्थता थी पर मुनि उसके लिए उदासीन थे। मुनि के आने की खबर केशीराजा को हुई। वे दर्शन को आने तत्पर हुए। पर एक विद्वेषी मंत्री ने उन्हें ऐसा भरमाया कि राजा की पूरी मति घूम गई। उदायन राजा अपना राज्य वापिस लेने आये है। षड्यंत्र का कुछ जाल मंत्री ने  ऐसे बुना कि केशिकुमार को मंत्री पर विश्वास हो गया। अब राजा मंत्री दोनो मुनि की हत्या को तत्पर हुये। 

पर वे मुनि थे और वह भी उस राज्य के पूर्व राजा। सीधा हमला नही कर सकते थे। उनके भोजन में विष मिलाकर चुपचाप मारने का षड्यंत्र रचा गया। एक समकीती देव ने यह बात मुनि को बता दी। मुनि 2 बार तो बच गए। पर एकदा मंत्री व राजा ने पुनः प्रयास किया। मुनि औषधि रूप दही ले रहे थे उसमें विष मिला दिया। आखिर विष ने देह पर तो प्रभाव दिखाया। पर वह विष मुनि के आत्मबल से जीत न पाया। मुनि ने अपने भाव अंशमात्र कलुषित न होने दिए। चिंतन को उर्ध्वगामी बनाया। अंतिम क्षणों में केवल्यप्राप्ति कर मोक्ष के निवासी बने।




जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व  डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,



कल का जवाब  :  - सोलह जनपद उदायन की सेवा में थे।




आज का सवाल : अभिचिकुमार के जीव कौनसा व कितनी स्थिति वाला देव बना?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।



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9-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 77


अर्जुनमाली,



महाराज श्रेणिकके जीव

न प्रसंग में उग्रतपस्वी , समता के उग्र साधक अर्जुनमुनि का उल्लेख आवश्यक है। 


कौन थे ये अर्जुनमुनि?


एक क्रूर , पापी जीव भी धर्म से जुड़कर अपनी आराधना से उसी भव अपना उत्कृष्ट कल्याण कर सकता है । यह सटीक उदाहरण।


राजगृही नगरी में अर्जुनमाली व बन्धुमती नामक एक मालाकार ( माली ) दंपत्ति रहता था। बगीचे में फूलो की खेती कर  बाजार में फूलों को बेचना उनका काम। वहां नगर के एक छौर पर  मुदगरपाणि नामक एक यक्ष का स्थान ( यक्षायतन ) था। उस यक्ष के हाथ में अत्यंत वजनदार मुदगर नामक शस्त्र रहता था।  अर्जुनमाली व बन्धुमती बरसो से इस यक्ष की पूजा करते आ रहे थे। एक दिन ऐसे ही वे पूजा करने यक्षायतन में आये। तब वहाँ नगर के उच्छृंखल , नीच 6 मित्रो की टोली उपस्थित थी। राजा के किसी कठिन कार्य के करने पर इन्हें राजा से अभयदान मिला हुआ था । यानी ये कोई भी गुनाह करे सब माफ। इस अभयदान से यह ललित मित्र मंडली अपने अधम कृत्यों में निरंकुश बन चुकी थी।

जब माली दंपत्ति यक्षायतन में आये तब वहां यह टोली उपस्थित थी। बन्धुमती को देखकर उनकी विषयवासना उन्मत्त बनी। छहो मित्रो ने यक्ष की मूर्ति के सामने अर्जुनमाली को बांधकर बन्धुमती के साथ व्यभिचार का धृणित कृत्य किया। अर्जुनमाली लाचार क्रोध व परवशता से छटपटा रहा था। उसका क्रोध फिर उस यक्ष की तरफ मुड़ा। उसने यक्ष प्रतिमा के आगे अपना क्रोध व्यक्त किया। बरसो से यक्ष की पूजा करने का यह क्या फल दिया? तुम ताकतवर होते तो 6 मित्रो की इतनी हिम्मत नही होती। अर्जुनमाली की वेदना, उसका क्रोध, उसकी अभिव्यक्ति देख यक्ष प्रकट होकर अर्जुनमाली के देह में प्रविष्ट हो गया। उसके देह में आते ही अर्जुनमाली में अथाह बल आ गया। सारे बंधन तोड़ दिए। और वहीं छहों मित्रों को तथा बन्धुमती को मृत्यु तक पहुंचा दिया।

अब उस यक्ष का क्रोध शांत नही हो रहा था। अर्जुनमाली रोज 6 पुरुष व एक स्त्री की हत्या करता रहा। करीब 6 माह में कुछ कम दिन तक यह क्रम चलता रहा। 

राजा श्रेणिक भी इस यक्ष के प्रकोप से परेशान था। राजा ने उस क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया। उस राह से भी किसी मनुष्य को जाने की अनुमति नही थी। 

ऐसे माहौल में वीर प्रभु विचरण करते हुए पधारे। नगरी के बाहर उद्यान में स्थित होकर धर्माराधना करने लगे।


आगे.....




जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 



कल का जवाब  :  - अभिचिकुमार का जीव एक पल्योपम स्थिति  वाला असुरकुमार देव बना ।




आज का सवाल : यक्ष के हाथ में कौन सा शस्त्र रहता था?



जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


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10-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 78


अर्जुनमाली,


अदभुत गाथा , आगे.....


समभाव रखना बहुत बड़ा तप है।


वीर प्रभु के राजगृही पधारने के समाचार सुनकर जनता अत्यंत हर्षित हुई। पर अफसोस, बाहर जाने की उस राह पर तो अर्जुनमाली की दहशत थी। नगरजनों को मन-मसोसकर प्रभु को अपने स्थान से ही वन्दन कर संतोष करना पड़ा।

नगर में एक सुदर्शन नामक व्रतधारी श्रेष्ठी रहते थे। वीर प्रभु के अनन्य भक्त। प्रभु के समाचार सुनकर घर में कैसे बैठे रहते। उन्होंने प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन करने जाने का निर्णय लिया। अपनी श्रद्धा व भक्ति का बल लेकर अपने माता-पिता को समझाया व बहुत समझाने के बाद उनकी अनुमति लेकर वे नगर के बाहर उद्यान में जाने के लिए निकले। मार्ग में अर्जुनमाली का Bस्थान आया।

अर्जुनमाली के देह में प्रविष्ट यक्ष ने उसे देखकर उसकी हत्या के लिये उद्यत हुआ। 

सुदर्शन सेठ ने उपसर्ग आया जानकर आगार सहित संथारा ग्रहण किया। सर्व जीव राशि को खमाकर आलोचना की। व ध्यान में लीन हो गये।


 यक्ष ने नजदीक आकर सुदर्शन पर मुदगर का प्रहार किया, परन्तु  यह क्या, .?  उसका मुदगर स्तंभित हो गया। काफी देर तक मुदगर न उठा तो यक्ष, कोई बड़ी शक्ति समझकर अर्जुनमाली के देह से निकलकर वहां से भाग गया। 

अर्जुनमाली वहीँ बेहोश होकर गिर पड़ा। कुछ देर बाद सुदर्शन ने उपसर्ग टल गया देखकर संथारा पार लिया। अर्जुनमाली को बेसुध देख उसकी सुश्रुषा कर उसे सुध में लाये। 

अर्जुनमाली ने स्वस्थ होते सुदर्शन से उसका परिचय पूछा व वे कहां जा रहे है यह पूछा। तब सुदर्शन सेठ ने अर्जुनमाली को वीर प्रभु के दर्शन करने जाने की बात  बताई। उनकी महिमा समझाई। अर्जुनमाली की विनती के अनुसार सुदर्शन सेठ उसे लेकर वीर प्रभु के चरणों मे आये। प्रभु के दर्शन, वन्दन व देशना श्रवण दोनोें को अत्यंत शाताकारी लगा। खास कर अर्जुनमाली के धधकते हृदय को अपार शांति मिली। जैसे दहकती आग में किसी ने शीतल जल का छींटकाव कर दिया।

प्रभु के पास संयम ले लिया। बेले-बेले पारणा करने का निश्चय कर संयम की उत्कृष्ट आराधना करने लगे।

इस प्रकार सुदर्शन सेठ ने अपनी श्रद्धा के बल पर ना सिर्फ नगर को भयमुक्त किया अपितु अर्जुनमाली के जीवन को भी सही मार्ग बताकर उसका कल्याण किया।

इधर अर्जुनमुनि उत्कृष्ट आराधना कर रहे है। पारणे के दिन नगर में जाते तो उसके जुल्म के भोग बने हुए नगरजन उसे धिक्कारते। उनकी नफरत उनका क्रोध शब्दों में व्यक्त करते रहते। कोई मारने को उद्यत होता तो कोई अत्यंत अभद्र शब्दों का प्रयोग करता। पर समभाव में दृढ़ मुनि उसकी वजह जानकर शांत रहते। किसी पर अंशमात्र द्वेष नहीं रखते। इस तरह अपमान, तिरस्कार नफरत के उपसर्ग सहन करते भी अर्जुनमुनि अपनी आराधना में अडिग रहे। ऐसी साधना की , की 6 मास में ही विपुल कर्मो को खपाकर अंत में मोक्ष प्राप्त किया।


धन्य धन्य जिनशासन





जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 



कल का जवाब  :  -  यक्ष के हाथ में मुदगर शस्त्र रहता था ।



आज का सवाल : आज की पोस्ट में किस बड़े तप की बात है?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


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10-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 79


संयम सहज-सस्ता नही है।


राजगृही में एक दरिद्र लकड़हारा रहता था। एकदा वह सुधर्मास्वामीजी की देशना सुनकर  विरक्त हो गया। उसने संयम अंगीकार कर लिया।

पर  वह भिक्षाचर्या के लिए जब नगर में जाता - तब अज्ञानी लोग उसका बहुत उपहास करते। 

ये देखो , महात्मा जी आये है। 

चलो, अच्छा हुआ इन्होंने दीक्षा ले ली। 

रोजाना वन में जाकर लकड़ियां काटना, फिर बाजार लाकर बेचना, जो थोड़ा बहुत मूल्य आये उससे गुजर-बसर करना , यह सब छूट गया। अब तो लोगो के घर से तैयार खाना। 

आज तक जो दरिद्र था वह पूजनीय बन गया। जिनके पास पैसे लेने के लिए घर से बाहर खड़ा रहता था आज वे ही लोग इनके मान-सन्मान करेंगे, चरण पूजेंगे। वाह भाई वाह!

इत्यादि वचनों से उन मुनि की खुब आलोचना करते।

उस मुनि ने यह बात आकर सुधर्मास्वामीजी को बतलाई। उस समय अभयकुमार वन्दन हेतु आये हुए थे।

मुनि के वचन सुनकर दुःखी हुये।

उन्होंने नगरजनो को संयम की महिमा बताने का निर्णय किया।


उन्होंने राजमार्ग के चौराहे पर  रत्नों के बड़े-बड़े 3 ढेर लगवाए । पूरे नगर में यह उदघोषणा करवाई कि जो भी महामंत्री की 3 शर्तो का आजीवन पालन करेगा उसे यह रत्नों के 3 ढेर उपहार में दिए जाएंगे।


लोग उमड़ पड़े।

ढेर लेने आये लोगो को महामंत्री ने 3 शर्ते बताई।


अग्नि ,

सचित्त पानी व

स्त्री का स्पर्श इन तीनो का आजीवन त्याग।

मुफ्त में मिल रहे रत्नों को लेने आये लोग शर्त सुनकर स्तब्ध रह जाते। यदि इन तीन का त्याग ही करना है तो रत्न भण्डार लेकर भी क्या करना फिर!

निराश होकर सब वापिस लौटने लगे।

फिर महामंत्री ने कहा : - उस दरिद्र कठियारे ने तो इन रत्नों के ढेर के लालच बिना ही स्वमुक्ति लक्ष्य से संयम ग्रहण किया था। क्या तुम उससे भी गये गुजरे हो, तुम्हे तो रत्न मिल रहे है। संयम ले लो। 

अब सब नगरजनो को महामंत्री का उद्देश्य व संयम जीवन का महत्त्व समझ में आ गया। उन सभी को अपनी गलती के लिए पश्चाताप हुआ। उन्होंने अभयकुमार से माफी मांगी।


लोगो को अपनी भूल समझाकर महामंत्री ने सब को संयम का महत्त्व समझाया।


आजकल अज्ञान या कषाय वश हम भी जब साधुसंतों की निंदा करते है। तब यह दृष्टांत हमें भी समझना चाहिए।



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 



कल का जवाब  :  - कल की पोस्ट में  बड़े तप  "समभाव " की बात है ।



आज का सवाल : महामंत्री की 3 शर्ते कौन सी थी?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।

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11-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 80


अभयकुमार की निर्लिप्तता



श्रेणिकराजा की अवस्था बढ़ रही थी। उच्च धर्म दलाली, सुं HVदर राज्य व्यवस्था, समृद्ध प्रजा का विकास करते हुए राजा अपनी उत्तरावस्था पर पंहुचने लगे थे।


युवराज अभयकुमार समस्त मगध साम्राज्यके संचालक बन चुके थे। कई कठिन परिस्थियां आई, आक्रमण का भय आया पर सब संकट में से अभयकुमार ने अपनी तीव्र बुद्धि से मगध को बिना नुकसान पंहुचाये बाहर निकाल लिया। यही नही राज्यतंत्र का सुंदर संचालन, प्रजा की सुख-समृद्धि, राज्य का विकास सुंदर तरीके से उर्ध्वगामी बनाया। लोगो के हृदय में राजा तथा अभयकुमार के लिए एक उच्च स्थान, एक भक्तिभाव बन चुका था। 

इतना सबकुछ करते हुए भी अभयकुमार मन से इन सब से अलिप्त हो चुके थे। श्रावक व्रत तो कब से ग्रहण कर रखा था।  जितना भी संभव हो उतना  धर्मध्यान करते हुए पूर्ण संयम लेकर धर्माराधना करने की भावना बढ़ती जा रही थी। 

पर शायद अप्रत्याख्यानी चतुष्क का अल्प उदय अभी शेष था। (यानी संयमग्रहण के लिए रुकावट ) राज्य की जिम्मेदारी, पिता का मोह, पिता की उन्हें राज्य का उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा, यह सब उन्हें संयमग्रहण से रोक रहा था। 


एकबार जब प्रभु के मुख से उदायन नरेश का चरित्र सुनते हुए जब जाना कि उदायन अंतिम राजर्षि है। (राजर्षि मतलब यहां राजा बनकर दीक्षित हुए मुनि समझना  )।

तब उन्हें विश्वास हो गया कि पिता की इच्छानुसार यदि मैं राजा बन गया तो दीक्षा नही ले पाऊंगा। 

बस,

शायद उचित अवसर आ गया था, सभी अंतराय का अंत हो चुका था। पिता को समझाकर संयमग्रहण की आज्ञा ले ली। श्रेणिक तो उन्हें राजा बनाने वाला था, पर उनके मन में भी धर्म की श्रद्धा व पुत्र का कल्याण तो था ही। अब उन्होंने आज्ञा दे दी।


नंदादेवी प्रदत्त दिव्य कुंडल व दिव्य वस्त्र हल-विह्लल नामक भाइयों को दे दिए ।महोत्सव पूर्वक इनकी दीक्षा हुई। 

पांच वर्षों तक उत्कृष्ट संयमपालन कर के अभयकुमार साधनापूर्वक काल कर विजय नामक अनुत्तर विमान में देव बने। वहां का आयुष्य पूरा कर अगले मनुष्यभव में मोक्ष प्राप्त करेंगे।

अभयकुमार ने दीक्षा ले कर अपना कल्याण कर लिया। अब श्रेणिकराजा के लिए राज्य का उत्तराधिकारी चुनने की जिम्मेदारी आ गई। श्रेणिक के कई राजकुमार थे। उनमे से बहुत ने संयममार्ग अपना लिया था। कोणिक, काल आदि कुमार  में श्रेणिक को कोणिक राज्य के योग्य लगा। पहले उन्होंने अन्य पुत्रो को राज्य के छोटे-छोटे हिस्से देना शुरू कर दिया। सेंचनक हस्ती व चेलनारानी का देव प्रदत्त हार कोणिक के छोटे भाइयों को दिया। श्रेणिक के मन में यही था कि अब बाकी संपूर्ण राज्य कोणिक ही संभाल लेगा।

पर कर्मसत्ता को कुछ और ही मंजूर था।

क्या था विधाता के लेख??

यह आगे देखेंगे।




सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 



कल का जवाब  :  - 

अभयकुमार की 3 शर्त

अग्नि ,

सचित्त पानी व

स्त्री का स्पर्श इन तीनो का आजीवन त्याग



आज का सवाल :- हल-विहल को क्या मिला ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।

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14-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिकa - 81


पितृद्रोही कोणिक


श्रेणिक के मन में कभी कोणिक के लिए द्वेषभाव नही आया । परंतु सेनक के भव में श्रेणिक के जीव को मारने का निदान करने के कारण इस भव में कोणिक हमेशा श्रेणिक से तीव्र नफरत करता रहा। 

हालांकि गर्भ में उसके लक्षण देखने के बाद चेलना ने कोणिक के लिए प्रेम नही रखा पर श्रेणिक के मन में तो कोणिक प्रिय था।


भाई हल विहल को हार-हाथी, अन्यो को कुछ राज्य के हिस्से देने के बाद  की श्रेणिक के प्रति घृणा चरम सीमा पर पहुंच गई। उसे यह समझ नही आया कि अन्य भाइयों को छोटे राज्य देकर पिता उसका ही मगधनरेश के रूप में राज्यारोहण करवाने वाले है। लेकिन कोणिक को लगा पिता उसे कुछ नही देंगे। कोणिक वैसे वीरप्रभु का परम भक्त था। जिनेश्वर देव प्रति उसकी श्रद्धा भी भरपूर थी। पर पूर्व में बांधे कर्म! पिता के वात्सल्य को वह समझ नही पाया।



अब कोणीक ने अपने काल आदि भाइयों को भड़काकर उनका साथ लेकर एक दिन श्रेणिक को बंदी बनाकर उसका राज्यसिंहासन अपने अधिकार में कर लिया।


एक समय का महाप्रतापी सम्राट अपनी उत्तरावस्था में पुत्र द्वारा ही लाचार , बंदी बनाया गया, बेड़ियों में बांधा गया । कर्मो की कैसी लीला! श्रेणिकराजा अपने भाग्य को कोसते, आर्तरौद्र ध्यान करते हुए कारावास काटने लगे। 

इधर कोणिक अब मगधेश्वर बन गया।


(एक मान्यता अनुसार पूर्वभव के वैर विपाक से कोणिक अपने बंदी पिता को भोजन-पानी भी नही देने देता था। प्रतिदिन सुबह शाम उसे 100- 100 कौडे मारे जाते। राज्यसत्ता में असहाय चेलना को बहुत दु:ख होता। वो रोज राजा से मिलने जाती। तब अपने बालों के जुड़े में उडद का लड्डू बनाकर ले जाती। बालों को मदिरा में भिगोकर ले जाती । उस उड़द के लड्डू व मदिरा की बूंदों से श्रेणिक की क्षुधा तृप्त करती। श्रेणिक को वह धर्म आदि सुनाकर आश्वस्त करती। ) 

कुछ समय ऐसे ही बीता।

एक बार माता को उदास देखकर कोणिक ने उनकी उदासी का कारण पूछा। तब माता ने उसे धिक्कार दिया। 


(एक ग्रन्थ अनुसार यह घटनाक्रम कुछ ऐसा है। कोणिक राजा को पद्मावती नामक पट्टरानी थी। उससे कोणिक को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। यह पुत्र उसे अत्यंत प्रिय था। एकबार जब कोणिक चेलना के सामने भोजन कर रहा था। उसका बाल पुत्र भी उसके पास ही था। उसे दुलारते हुए नन्हे राजकुमार ने कोणिक के भोजन थाली में लघुशंका कर दी। पर कोणिक को उस पर गुस्सा नही आया। वह बच्चे को फिर दुलारने लगा साथ ही भोजन कर रहा था। कोणिक ने चेलना को बोला कि उसे अपना पुत्र कितना प्रिय है कि वह उसे फिर भी प्यार-दुलार कर रहा है , यह देखकर चेलना उसे उपालंभ देती है कि आज जिस तरह यह पुत्र तुझे प्रिय है, उसकी लघुशंका भी तुझे घृणित नही लग रही, ठीक वैसे ही तू तेरे पिता का प्रिय था, कि तेरे घाव में रहा परु भी वे चूस गये थे। )

अरे! कुल कलंक,

मैंने गर्भ से ही तुम्हारे लक्षण जानकर जब जन्म लेते ही तुम्हारा त्याग किया था तब पिता ने तुम्हें कचरे के ढेर से वापिस लाकर तुम्हें प्राणों का दान दिया। तुम्हारी उंगली कुक्कुट द्वारा काटी गई थी, जिसमें परु हो गया था। तब मगध सम्राट ने बिना कोई झिझक अपने मुंह से वह परु चूसकर तुम्हें बिना दर्द पंहुचाये रोग मुक्त किया । आजीवन तुम्हे प्रेम करते रहे तुम्हें राज्य सौंपने वाले थे और उन्हीं पिता को तुमने बंदी बनाया है। उपकारों का बदला इस अपकार से दिया है। 

माता के वचन सुनकर कोणिक का द्वेष मिट गया। या पूर्वका वैर का उदय शांत हो गया था। उसे अपनी गलती का अनुभव हुआ। वह तत्काल परसु लेकर पिता की बेड़ी तोड़कर उन्हें बंधनमुक्त करने दौड़ा। वह अत्यंत शोकमय बन चुका था। अपनी नीचता, अधमता का एहसास का डंख सहन नही हो रहा था। 

श्रेणिक ने दूर से परसु लेकर कोणिक को अपनी ओर आते हुए देखा । उन्हें लगा कि आवेश में आकर कोणिक परसु से उसकी हत्या करने आ रहा है। पुत्र को पितृ हत्या के पाप से बचाना चाहिए। यह सोचकर अंगूठी में रखे हुए तालपुट विष को अपनी जिव्हा पर रख लिया। तुरन्त विष ने असर किया और श्रेणिक ने प्राण त्याग कर दिए।


एक महाराज, महासम्राट ने बेड़ी से बंधी हालत में,  कारागार में, आत्महत्या कर प्राण त्यागने पड़े यह कर्मो की ही लीला है।

एक महान युग का अस्त हो गया। श्रेणिक ने बांधे हुए कर्म अनुसार वे करीब 84,000 वर्ष की स्थिति के साथ प्रथम नरक में लोलुयच्चय नरकवास में उत्पन्न हुए।


समकीती आत्मा नरक का आयु नही बांधती । श्रेणिकराजा का जीव भी क्षायिक सम्यक्त्वी था, परंतु उन्होंने समकित प्राप्ति पूर्व ही नरकायु बांध लिया था। 

अब समभाव से वे नरक के दुःखों को सहन करते हुए अपना आयु पूर्ण कर आगामी उत्सर्पिणी के तीसरे आरे के 3 वर्ष साढ़े आठ माह पूर्ण होने पर इसी भरत क्षेत्र में जन्म लेंगे।

उम्र आदि वीर प्रभु जैसे सभी लक्षण होंगे। चतुर्विध संघ की स्थापना कर भव्य जीवो को प्रतिबोध देते हुए विचरण करेंगे। उनके शासन स्थापना बाद भरतक्षेत्र से मुक्ति का दरवाजा (मोक्ष जाने की शुरुआत) फिर खुलेगा। लोग उत्कृष्ट आराधना से केवल्यप्राप्ति कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन पायेंगे।


श्रेणिकराजा का जीवन अंत के साथ ही यह श्रृंखला वैसे तो पूरी होती है। पर श्रेणिक की मृत्यु के बाद के कुछ समय में ऐसी घटनाएं हुई, जो श्रेणिक को देव ने दिए हार, श्रेणिक का सेंचनक हाथी, श्रेणिक के पुत्र, श्रेणिक के श्वसुर चेटक आदि से जुड़ी हुई तो थी ही, परन्तु इतिहास में भीषणता की अपेक्षा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। तो उन घटना की कुछ पोस्ट अभी औऱ आएगी।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 

जैन धर्म का मौलिक इतिहास,


कल का जवाब  :  - हल-विहल को अभयकुमार की माता के दिव्य कुंडल, दिव्य वस्त्र, चेलना रानी का हार व सेंचनक हाथी मिले।



आज का सवाल :- नरक में श्रेणिकराजा का आयुष्य कितना है ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।

U

16-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 82


मगध राज्य को विकास, उन्नति, समृद्धि के शिखर पर बिराजमान करके, हजारों भव्यात्माओं को कल्याणमार्ग में सहायक बनकर मगध सम्राट श्रेणिक की करुण संयोगों में मृत्यु हुई।


यह घटना वीर निर्वाण से करीब 17 वर्ष पूर्व हुई ऐसा उल्लेख आया है।


उसके बाद कोणिक ने साम्राज्य संभाला। श्रेणिक के अंतिम समय कोणिक का हृदय श्रेणिक के लिए साफ हो चुका था। पिता के देहांत का उसे अत्यंत दुःख हुआ। पिता के स्नेह को समझने के बाद उनके प्रति वात्सल्य बढ़ गया था। वह पितृशोक से विह्वल हो उठा। अब राजगृही में उसका मन उचटने लगा। हितेच्छु पुरुषों की सलाह पर उसने नई राजधानी बनाने का निर्णय ले लिया।

वास्तुशास्त्र के विशेषज्ञों को उसने योग्य भूमि की तलाश करने भेजा। मगध जैसे विशाल साम्राज्य की राजधानी योग्य उचित जगह की तलाश करते हुए वे सभी एक वन में जा पहुंचे। वहां एक चंपा का विशाल वृक्ष देखा। सामान्यतः नगर में पनपने वाला यह वृक्ष वन में कैसे? जहां कोई उसे सिंचित करने वाला कोई नही!! इस वृक्ष के आसपास की जगह भी उचित लगी। इस वृक्ष को महत्त्वपूर्ण समझकर यहां नई नगरी बसाने का सुझाव दिया। कोणिक ने अनुमति दी। शीघ्र ही चंपा का निर्माण हुआ।

( कुछ वर्षों बाद ऐसे ही कोणिक पुत्र उदायी ने मगध की राजधानी चंपा से पाटलिपुत्र बनाई, उस स्थापना के समय पाटलि वृक्ष के निमित्त श्री अर्निकापुत्र आचार्य व पुष्पचुलाजी का घटनाक्रम आता है।)


मगध की राजधानी राजगृही से अब चंपा बनी । कोणिक एक वीर योद्धा के नाम से इतिहास में मशहूर हुआ। भारत के इतिहास में उसे पराक्रमी राजा के नाते वर्णित किया गया है।

जैन इतिहास में भी यह जिनधर्मी, वीरप्रभु का अनन्य भक्त के रूप में प्रसिद्ध है। वीरप्रभु के विहार की सूचना हेतु इसने अलग से सेवक रखे हुए थे। वीरप्रभु के चंपा आगमन पर नियमित दर्शन-वन्दन के लिए जाता था।

एक प्रतापी, बहादुर, दृढ़ जिनोपासक होने के बाद भी इसके तीव्र कषायो युक्त कार्यो की वजह से छठी नरक के असह्य दुख भोग रहा है। क्या थे वे नीच अधम कार्य?

एक तो हमने देखा कि किस तरह उसने राज्यलोभ में श्रेणिकको बंदी बनाकर रखा था। अन्य उससे भी अत्यंत घृणित कार्य किये। 

इतिहास में हमेशा के लिए कोणिक का नाम खराब करने वाले उस कार्य का निमित्त बना एक स्त्री-हठ,

पिता की संपत्ति में से कोणिक के सगे छोटे दो भाई हल-विहल ( विह्लल- विहास ) को देवता द्वारा मिला 18 लड़ियों का हार व सेंचनक हाथी मिला था।अभयकुमार व नंदारानी द्वारा दिव्य वस्त्र व कुंडल मिले थे। ये चारो वस्तु के साथ जब दोनो कुमार बाहर निकलते, रानियो के साथ जब जलक्रीड़ा आदि करते, तब देवकुमार जैसे शोभायमान लगते। बार-बार उनकी यह अदभुत शोभा से कोणीकराजा की पट्टरानी पद्मावती ईर्ष्या से पीड़ित हो गई। 


अब वह क्या करेगी?



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 



कल का जवाब  :  -नरक में श्रेणिकराजा का आयुष्य 84,000 वर्ष उपरांत है ।



आज का सवाल :- उदायी राजा ने कौन सी नगरी बसाई? 


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।

U

18-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 83


कोणिक की धृष्टता


हल-विहल के पास हार व हाथी की शोभा देखकर पद्मावती ईर्ष्या से भर गई। उसने कोणिक को वे उत्तम अलंकारों को प्राप्त करने की मांग करने लगी।

तब कोणिक ने साफ इनकार कर दिया। कहा कि ये  वस्तुयें पिता द्वारा उन्हें दी गई है। मैं उनसे नही मांग सकता। 

पर उत्तम वस्तुए सिर्फ सम्राट के पास ही होनी चाहिए यह जिद्द पद्मावती ने छोड़ी नहीं। तब मोहवश कोणिक ने उसे ये दिव्य अलंकार देने का वचन दे दिया।


हल-विहल ने इन वस्तुओं के बदले आधा राज्य मांगा। कोणीक ने इनकार कर दिया। अब इन अलंकार के लिए स्त्रीहठ के साथ राज्यहठ भी जुड़ गई। अब चंपा में रहना हल-विहल को मुश्किल लगा। किसी भी समय राज्य सत्ता के बल पर उनकी वस्तुएं छीन सकता था। एक रात मौका देखकर दोनों भाई अपनी रानियों के साथ अपने अलंकारों व हाथी के साथ अपने नाना चेटकराजा की शरण में चले गये। चेटकराजा ने अपने दोहित्रो का स्वागत किया व उन्हें युवराज की भांति सन्मान दिया। 


कोणिक को जब यह पता चला तब वह क्रोधित हो उठा। अब यह उसकी प्रतिष्ठा का विषय बन गया था। पत्नी के दुराग्रह ने उसे मूढ़मति बना दिया। उसने एक दूत वैशाली नगरी भेजकर नाना से अपने भाइयों को संपत्ति सहित वापिस भेजने का संदेश पंहुचाया। 


चेटकराजा ने शालीनता से इनकार कर दिया। शरण में आये एक सामान्य व्यक्ति को भी भयस्थान में भेजा नही जाता जबकि ये दोनों तो पुत्र समान मुझे प्रिय मेरे दोहित्र हैं । तब दूत ने आगे कहा : - आप दोनो भाइयों को रखे , कोई बात नही पर सेंचनक हाथी व दिव्य हार लौटा दे ताकि विवाद मिट जाए।

तब चेटकराजा ने इस अन्यायपूर्ण सुझाव को भी नकार दिया।

पिता की दी हुई संपत्ति पर इनका अधिकार है, मैं उस अधिकार से इन्हें कैसे वंचित कर सकता हूं।


दूत से यह विवरण जानकर कोणिक ने पुनः दूत को वैशाली नगरी भेजा । दूत ने चेटकराजा से कहा : - राजन, राज्य में होती हर संपत्ति का अधिकार राजा को होता है। इसलिए हार-हाथी पर कोणिक का पूर्ण अधिकार है। आप उस अधिकार को मान्य कर दोनो वस्तुएं कोणिक को लौटा दीजिये।


चेटकराजा ने एक न्यायप्रिय बहादुर राजा की तरह जवाब दिया : - मेरे लिए जैसा कोणिक है वैसे ही हल-विहल है। तीनो मुझे प्रिय है। परन्तु एक न्यायनिष्ठ राजा के पद पर से यह साफ दिखता है कि कोणिक अन्याय के पक्ष में है। पिता ने उन्हें राज्य नहीं देकर सिर्फ  हार-हाथी दिए है।  हार-हाथी के बदले यदि हल-विहल की मांग अनुसार कोणिक आधा राज्य दे सकता है तो देकर दोनो वस्तु खुशी से ले जाए।


दूत से चेटकराजा का जवाब सुनकर कोणिक अत्यंत क्रोध में आ गया। अब उसकी राज्यहठ सीमा लांघ चुकी। विनय, धर्म, नीति की मर्यादा भूल चुका। विशाल साम्राज्य मगध का नरेश होने का उसका गर्व चरमसीमा पर आ गया। हालांकि वैशाली भी एक गणमान्य, प्रतिष्ठित, समृद्ध राज्य था , कोणिक के नाना द्वारा ही शासित था। पर विवेक शून्य व्यक्ति सही समझ खो बैठता है।  

उसने तीसरी बार दूत भेजा। उस दूत को सभी मर्यादा पार जाकर एक संदेश कहलवाया। जैसे कोणिक का आदेश था वैसे करने को दूत मजबूर हुआ।

वह तीसरी बार पुनः वैशाली के दरबार में आया। 


प्रथम तो उसने चेटकराजा के पास आकर विधिवत प्रणाम किया। फिर कहा : - राजन, आपकी धर्मनिष्ठा, न्यायप्रियता के लिए मुझे स्वयं को विनय है। अब मैं जो करूँगा उसे मेरा दूत धर्म समझना। मेरे राजा का आदेश समझना।

इतना कहकर उसने अपने बांए पैर से राजा के सिंहासन की पाद-पीठिका को ठोकर मारी। भाले की नोंक दिखाकर उसने कोणिक का संदेश सुनाया।

: - रे मृत्यु के इच्छुक , निर्लज्ज, दुर्भागी चेटक, तुझे मगध के महाराजाधिराज कोणिक आदेश देते है, कि सेंचनक हाथी, हार व दोनो भाईयो को मुझे अर्पण कर दे, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जा। मगधपति विशाल सेना लेकर शीघ्र आ रहे है।


चेटकराजा इस अशिष्टता से क्रोधित हुए। उसने कोणिक की बात मानने का स्पष्ट इनकार कर दूत को अपमानित कर पिछले रास्ते से भेज दिया।


दूत का जवाब सुनकर कोणिक ने अपने दस भाइयों को बुलाकर उन्हें अपनी बात समझाई। उन्हें अपनी ओर करके सेना को युद्ध की तैयारी का आदेश दे दिया। हर भाई के पास 3- 3 हजार हाथी, घोड़े, रथ व 3करोड़ पदाति सैन्य था। उन सबके साथ कोणिक ने उन्हें युद्ध के लिए बुलवाया।



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 



कल का जवाब  :  -उदायी राजा ने पाटलिपुत्र नगरी बसाई ।


आज का सवाल :- कोणिक ने दूत को कितनी बार वैशाली भेजा?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


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19-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 84


चेटक-कोणिक संग्राम


स्त्रीहठ, राजहठ ने इतिहास में कितने घृणित कार्य करवा दिए इसका एक बड़ा द्रष्टांत ।


कोणिक ने दस भाइयों को अपनी ओर कर युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। दसों भाई अपने राज्य में जाकर अपनी सेना सहित कोणिक के पास उपस्थित हो गये। राज्य आदेश पर हजारों हाथी, घोड़े, रथ के साथ करोड़ों सैनिक युद्ध के लिए सज्ज हो गये।

कोणिक के पास 33 हजार हाथी, 33 हजार घोड़े, 33 हजार रथ व 3 करोड़ पदाति सैनिक थे।


इधर कोणिक की युद्ध तैयारी का संकेत पाकर वैशाली नरेश चेटकराजा ने भी अपने साथी 9 मल्लवी व 9 लिच्छवी राजाओं को बुलाकर अपना पक्ष रखकर न्याय का मार्ग पूछा। अठारहों राजा ने एक सुर में शरणागत की रक्षा के लिए चेटकराजा का मार्ग, उनका पक्ष स्वीकार किया। उन सभी ने युद्ध में उनका साथ देने का वचन दिया।


चेटक नरेश की सेना में उनकी अधीनता में 57,000 हाथी, उतने घोड़े, उतने रथ व 57 करोड़ का पदाति सैन्य था। 


दोनो सैन्य युद्ध भूमि पर आ पंहुचे। एक सत्य की,  न्याय की राह पर था तो एक अपनी राज्यसत्ता के मद, अपने अहंकार के वश में था। 

युद्ध का परिणाम, उसका जय-विजय जो भी हो, परन्तु उसकी घातकता मनुष्य जाती के लिए सर्वथा हानिकारक साबित हुई है।



युद्ध का प्रथम दिन,


कोणिक ने गरुड़ व्यूह बनाया व चेटकराजा ने शकट व्यूह रचवाया। कोणिक के दस भाई कालकुमार आदि  प्रचंड योद्धा थे।  कालकुमार सेनापति बने। इधर चेटकराजा स्वयं सेना का नेतृत्व संभाल कर सेनाध्यक्ष बने।  उन दोनों की निश्रा में भयानक युद्ध प्रारंभ हुआ। विविध आयुधों से युक्त सैनिक लड़ने लगे। (एक करुणता देखिए इतिहास के सभी युद्धों की - इनमें मुख्यतः लोगों का परिणाम जो भी हो, परंतु दोनो ही ओर के हजारों-लाखों निर्दोष सैनिक अपने प्राणों से हाथ धो बैठते है। उनके पीछे रहा उनका निर्दोष परिवार अपनी पूरी जिंदगी इन युद्धों में हार जाते है। कितना भीषण। जिसकी असर वर्षों तक उस परिवार को भुगतना पड़ता है। ) 

मारकाट मचने लगी। अत्यंत दारुण भीषण संग्राम हुआ। देखते-देखते ही लाशें बिछने लगी। लाशों के बड़े-बड़े टीले (ढेर) लग गये। रक्त की नदियां बहने लगी। कालकुमार अपने पूरे जोश में शत्रु सेना पर टूट पड़ा था।  चेटकराजा की सेना भी वीरों से सज्ज थी। चेटकराजा व कालकुमार का सामना हुआ। चेटकराजा ने कालकुमार की घातकता देखकर उसका जीवित रहना अपनी सेना के लिए भयानक लगा। और ऊपर से वह चेटकराजा को मारने आया। चेटकराजा ने दिव्य अस्त्रों से उसका वध कर दिया। (कहा जाता है , चेटकराजा के युद्ध के कुछ  नियम थे, जीवदया हेतु तलवार को पूंजनी से पूंजकर चलाने का नियम था ताकि कोई सूक्ष्म जीव भी ना मरे । दूसरे उन पर प्रहार करने वाले को ही वे मारते थे, यानी प्रथम वार वे नहीं करते और एक दिन में एक ही दिव्य अस्त्र चलाते। दूसरा प्रहार तक वे नही करते । इन नियमों  को उन्होंने पूरे युद्ध में निभाया। )

शत्रुसेना के सेनापति का वध होते ही वैशाली की सेना जोश में आ गई। कोणिक की सेना छिन्न-भिन्न हो गई। युद्ध के प्रथम दिन का अंत हुआ , हारकर कोणिक सेना शिविर में लौटी।

दूसरे दिन कोणिक की ओर से उसके दूसरे भाई महाकाल सेनापति बनकर युद्ध करने आया। चेटकराजा ने उसे भी मार गिराया।

युद्ध का दूसरा दिन भी भीषण नरसंहार के साथ पूरा हुआ। इसी तरह 10 दिन में कोणिक के 10 बहादुर योद्धा भाई चेटकराजा के हाथों मारे गये।


इधर युद्ध भूमि में युद्ध की भीषणता चल रही थी तो उसी समय चंपा नगरी में क्या हो रहा था? यह हम आगे देखते हैं।

 

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र 



कल का जवाब  :  - कोणिक ने दूत को तीन बार वैशाली भेजा ।


आज का सवाल :- काल कुमार के पास कितने हाथी, घोड़े, रथ व पदाति सैन्य था ? कल की पोस्ट से।


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।



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21-2-2020

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 85


चेटक -कोणिक संग्राम



इधर चेटक - कोणिक के बीच भीषण युद्ध चल रहा था।  प्रभु की केवलीचर्या का वह करीब चौदहवाँ वर्ष था। उस समय वीरप्रभु का पदार्पण कोणिक की नई बसाई नगरी चंपा में हुआ । युद्ध के लिए गये मगध सैन्य की सुरक्षा, उनका भविष्य , युद्ध के परिणामों का डर प्रजा में था ही। ऐसे में शांति के दाता विश्व वंदनीय प्रभु का आगमन प्रजा को शीतल लगा। प्रजा दर्शन-वन्दन हेतु उमड़ पड़ी।  कोणिक के साथी बनकर उसके 10 महाबली भाई भी युद्ध में उसके साथ गये हुए थे। उन राजकुमारों की 10 माताएं यानी श्रेणिक राजा की 10 रानियां भी वहीं चंपा नगरी में उपस्थित थी। ( यहां पर यह बता दें कि पिछले कथानकों में हमने देखा था कि श्रेणिक की नंदारानी आदि अन्य 13 रानियों ने संयम मार्ग स्वीकार कर लिया था। )

इधर उन 10 योद्धाओं की 10 माता वीर प्रभु के दर्शन के लिए गई। 

उन्होंने  प्रभु के दर्शन-वन्दन , देशना श्रवण पश्चात पूछा - हम युद्ध में गये अपने पुत्रों को वापिस देख पायेंगे या नही। तब प्रभु ने इनकार किया। दसों रानियां  समझ गई कि अब वे जीवित लौटकर नही आयेंगे। प्रभु की देशना सुनकर वे वैरागी तो बन ही चुके थे। निमित्त भी मिल गया। उन्होंने भी संयम स्वीकार किया। और सिर्फ संयम ग्रहण कर के ही नही रहे। ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। एकबार गुरुणी चंदनबाला जी की आज्ञा लेकर उत्कृष्ट तप की आराधना प्रारंभ की। इन्होंने जो विविध तप किये आज भी वे कठिन तप व तपस्वी को धन्य माने जाते है।

तप पूर्ण होने के बाद भी विविध धर्म तप आराधना करने लगी। फिर जब तप से देह अत्यंत कृश हो गया। हड्डियों से भी कड़कड़ आवाज आने लगी। तब अंत समय जानकर इन्होंने अंतिम संलेखना अनशन ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया। और सिद्ध बुद्ध मुक्त बनी। 


उन वीर माताओं के नाम - उनके तप का नाम - उनकी संयम पर्याय इस प्रकार है।


1 - काली रानी - रत्नावली तप - 8 वर्ष

2 - सुकाली रानी - कनकावली - 9 वर्ष,

3 - महाकाली रानी - लघु सिंह निष्क्रीडित तप - 10 वर्ष, 

4 - कृष्णा देवी - महा सिंह निष्क्रीडित तप - 11 वर्ष, 

5 - सुकृष्णा रानी  - सप्तसप्तमिका से दशदशमिका तप - 12 वर्ष, 

6 - महा कृष्णा रानी - लघुसर्वतो भद्र - 13 वर्ष, 

7 - वीर कृष्णा रानी - महा सर्वतोभद्र - 14, 

8 - राम कृष्णा रानी - भद्रोत्तर प्रतिमा - 15 वर्ष, 

9 - पितृसेन कृष्णा रानी  - मुक्तावली तप - 16 वर्ष, 

10 - महासेन कृष्णा - आयंबिल वर्धमान तप - 17 वर्ष।


इधर संग्राम की घटना तरफ हम देखते है।

10 दिनों में विशाल सैन्य को हानि, 10 प्रतापी भाइयों के संहार को देखकर कोणिक कांप उठा। उसे अपनी अवैचारिकता पर क्रोध आया। चेटकराजा के बल, उनके दिव्य अस्त्रों को पहचाने बिना ही युद्ध की जल्दबाजी कर ली । दिव्यास्त्रों से युक्त चेटकराजा को परास्त करना असंभव है यह सोचकर कोणिक अब आगे क्या करना यह सोचने लगा।


क्या करेगा कोणिक?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास



कल का जवाब  :  - काल कुमार के पास 3,000 हाथी, उतने घोड़े, उतने ही रथ व 3 करोड़ पदाति सैन्य था ।


आज का सवाल :-  भद्रोत्तर प्रतिमा का आराधन किस रानी ने किया ?


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22-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 86




महाशिलाकंटक संग्राम


10 दिनों में युद्ध का परिणाम व चेटकराजा के दिव्यास्त्रों से 10 भाइयों की मृत्यु से कोणिक व्यथित हो गया। अब युद्ध से पीछे हटना तो संभव नही था। प्रतिष्ठा का सवाल ( अहो! मनुष्य की ऐसी भावना कितनी घातक! समझ में आ गया की यह युद्ध गलत हो रहा, फिर भी अपने कथित मान-सन्मान, अपनी जिद्द , अपना अहंकार को छोड़ने की जगह पतन के मार्ग पर और आगे बढ़ना😢😢 )


कोणिक ने देव आराधन किया। पूर्वभव के साथी देवेंद्र शक व चमरेंद्र उसके सामने प्रकट हुए। कोणिक ने उन्हें चेटक को नष्ट करने की विनती की। तब दोनो ने साफ इनकार कर दिया। 

कोणिक, तुम्हारी मांग अनुचित है। चेटकराजा धर्मपरायण, नीतिमान, दृढ़ श्रमणोपासक है। मेरे साधर्मिक है। उनका वध नही कर सकते। हां, उनसे हम तुम्हारी रक्षा जरूर कर सकते है। वे तुम्हे जीत न पाये यह हम करेंगे। कोणिक संतुष्ट हुआ।



अगले दिन कोणिक स्वयं युद्ध में आया। इंद्र ने महाशिलाकंटक संग्राम की रचना की।  कोणिक अपने उदायी नामक हस्ती पर आरूढ़ होकर इंद्र द्वारा प्रदत्त वज्रामय कवच पहनकर आया था। देव निर्मित यंत्र महाशिला कंटक का इस दिन प्रयोग हुआ। इस यंत्र से जो भी तृण, काष्ट, पत्र, लोष्ठ, बालुका , जो भी वस्तु फेंकी जाती, शत्रुसेना के लिए वह ृबड़ी शिला जैसी प्राण हारी बन जाती। कुछ ही समय में वैशाली की सेना में इस शिलोपम प्रहार से हड़कंप मच गया। 


चेटकराजा व कोणिक का सामना हुआ। इस बार चेटकराजा के दिव्यास्त्र से इंद्र का दिया वज्र टूटकर बिखर गया पर कोणिक बच गया। चेटकराजा ने दूसरा बाण नही चलाया। 

 

इधर वैशाली व 18 मल्लवी- लिच्छवी राजा की सेना के लाखों सैनिक मारे गये थे। मनोबल टूटते सेना पीठ दिखाकर भाग गई।

 इस एक दिन के संग्राम में 84 लाख सैनिक मरकर नरक व तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुए। 

 (भीषणता देखिए,  युद्ध की , यह भव तो बिगड़ा ही, पर आयुबन्ध के समय आर्त रौद्र ध्यान के परिपाक से आगामी भव भी नरक- तिर्यंच का😢!! ) 

 अब आगे क्या?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास



कल का जवाब  :  - भद्रोत्तर प्रतिमा का आराधन रामकृष्णा रानी ने किया ।


आज का सवाल :-  महाशिलाकंटक युद्ध में एक दिन में कितने सैनिक मारे गये?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


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23-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 87


रथमुसल संग्राम

वरुण औऱ उनका बालमित्र,


अभी तक हुए भयंकर यद्ध में मारे गये करोड़ो सैनिकों , उनके परिजनों की व्यथा , उनके आगामी भवों के दुःख भी कोणिक को अपनी जिद्द के सामने महत्त्वपूर्ण नहीं लग रहे थे। अहंकार मेंं अंध मनुष्य और कितनी घातकता फैलाएगा।😢


अगले दिन रथमुसल संग्राम की योजना बनाई। कोणिक अपने भुतानंद हाथी पर सवार होकर युद्ध में आया पिछले दिन की पराजय के बाद चेटकराजा वीरतापूर्वक 18 राजाओं के साथ पुनः व्यवस्थित होकर युद्ध में आ डटे। कोणिक देवेन्द्र द्वारा प्रदत्त कवच सहित आया था। शकेन्द्र, चमरेंद्र उसकी जीवरक्षा का वचन निभाने उसके साथ ही थे।


एक तरफ मानवेन्द्र जैसा राजा , एवं देवेंद्र,  तथा असुरेन्द्र 

और दूसरी तरफ 

चेटकराजा व उनके साथ 18 राजा सहित विशाल सेना ।


इस रथमुसल संग्राम व्यूहरचना में युद्ध में कोणिक का एक स्वचालित यांत्रिक रथ था जो स्वयं रणभूमि में घूम-घूम कर शत्रुओं पर हजारों मुसलों का प्रहार कर रहा था। मूसल के समान अस्त्र-शस्त्र निकल कर शत्रु सेना का भयंकर संहार कर रहा था । आज भी वैशाली की सेना के लिए भारी दिन था। 

इस युद्ध में एक पात्र ऐसा जो चेटक राजा के बुलाने पर शामिल हुआ जो दृढ़ जैन धर्मी था। इकलौता ऐसा योद्धा जो इस युद्ध में अति घायल होने पर अपना अंतिम समय जानकर शुद्ध मनोभावों में क्रिया सहित संथारा पच्छखाण लेकर मृत्यु प्राप्त कर देव गति में उत्पन्न हुआ। 

कौन थे वह?

वह था वरुण । संभवतः ये श्रेणिक के 32 अंगरक्षकों में से किन्हीं का पुत्र व नाग रथीक सुलसा के पौत्र थे। जो वैशाली आकर बस गया था। वह ऋद्धि संपन्न, उच्चाधिकार प्राप्त, महान शक्तिशाली तो थे ही पर जिनेश्वर का परम उपासक व तत्त्वज्ञ थे। श्रावक के अन्य व्रतों की आराधना के साथ वे बेले-बेले पारणे के तप की अविरत आराधना भी करते थे। वे चेटकराजा के आमंत्रण से युद्ध में जुड़कर आज  बने थे । उन्होंने भी नियम ले रखे थे, कि सेना की अगवानी के साथ वह अपने जान पर वार करने वाले को ही मारेंगे। सज्ज होकर अपने एक बाल मित्र के साथ वे युद्ध में सम्मिलित बने थे।

वह मित्र असम्यग्दृष्टि था पर वरुण के साथ अपनी मैत्री से वशीभूत स्वयं युद्ध में जुड़ गया था। 

शत्रु के सेनापति को वरुण ने वीरता से मार गिराया। पर उसके पहले शत्रु ने किये वार से वह घायल हो गये। उस मर्मान्तक घाव से मगध के सेनापति की मृत्यु के बाद उन्हें अपना मरण समय भी आया हुआ जान लिया। रणक्षेत्र में एक एकांत स्थान देखकर उन्होंने विधि सहित संथारा संलेखना ग्रहण कर ली। पंच परमेष्ठी को वन्दन कर सभी पापो की आलोचना , सर्व सावध्य योग का त्याग , देह तक का त्याग कर लिया। प्रतिक्रमण करते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए। समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर वरुण का जीव प्रथम देवलोक के अरुणाभ विमान में उत्पन्न हुआ। वहां से आयु पूरी कर महाविदेह में जन्म लेकर उत्कृष्ट आराधना से सिद्ध बुद्ध मुक्त होंगे।

यह सब अंतिम विधि उनका मित्र देख रहा था। उसे सही गलत या संथारे की समझ तो नही थी। पर मित्र वरुण पर उसे पूरा विश्वास था। 

जब वह भी घायल हो गया तब उसने भी वही क्रिया की जो वरुण को करते हुए देखा। साथ ही बोलता गया कि जैसा-जैसा व्रत नियम मेरे मित्र ने अंतिम समय में लिए वह मेरे भी हो। इस तरह अंतिम शुभ भावो में काल कर वह भी उत्तम मनुष्यभव में उत्पन्न हुआ।

(शुभ संगत का असर )

इस युद्ध का परिणाम भी कोणिक की तरफ रहा। वैशाली की सेना के लाखों सैनिक मृत्यु के शरण हुए। एक ही दिन के इस युद्ध में 96 लाख जीव काल कर एक देव, एक मनुष्यभव में और बाकी सब नरक व तिर्यंच में उत्पन्न हुए। इनमें से दस हजार तो एक ही मत्स्य के पेट में जन्म लिए।


96 लाख!!!😢



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास



कल का जवाब  :  - महाशिलाकंटक युद्ध में एक दिन में 84 लाख सैनिक मारे गये।


आज का सवाल :-  कोणिक के 2 हाथी के नाम ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


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24-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 88


सेंचनक हाथी की स्वामी भक्ति



इन्द्रों की सहायता से हुए रथमुसल व  महाशिलाकण्टक युद्ध में भीषण नरसंहार हुआ। वैशाली की सेना को दारुण संयोगों का सामना करना पड़ा। 


शायद अब इस नरसंहार को रोकने के शुभ आशय से चेटकराजा ने युद्ध के अलावा मार्ग सोच लिया। वैशाली का गढ़ अजेय था, मजबूत व अभेद्य था। उन्होंने अपने व नगरजनो की सारी व्यवस्था कर के वैशाली के दुर्ग को अंदर से बंद कर लिया।


कोणिक की सेना ने बाहर से नगरी को घेर लिया। यह घेरा बहुत लंबे समय तक चलता रहा। दोनों की सहन शक्ति ज्यादा थी। इतने समय अन्य राज्य के नगर के बाहर इतनी सेना की व्यवस्था करना किसी के लिए आसान नही होता। या लंबे समय तक दुर्ग में बंद रहकर प्रजा की जरूरतें पूरी करना भी कम सामर्थ्य वालो के बस में नहीं होता। पर चेटक व कोणिक, दोनो समृद्ध व बुद्धिमान राजा थे। दोनो अपनी जगह अड़े रहे थे। समय बीतता जा रहा था। 

ऐसे में हल-विहल ने कुछ कपट का आश्रय लिया। वे रात्रि के अंधकार में गढ़ से निकलकर सेंचनक हाथी पर सवार होकर मगध की सेना में आते तथा असावधान सैनिकों को रात्रि के अंधकार में मौत के घाट उतारकर चले जाते।

कुछ दिन यही घटनाक्रम अविरत चलता रहा। रोज हो रही सैनिकों की मृत्यु से कोणिक परेशान हो उठा। मंत्रियों से चर्चा की। औऱ इस तकलीफ का हल निकाल लिया।

अगली रात जब सेंचनक पर बैठकर हल-विहल नगर के बाहर निकलने लगे तब मार्ग पर एक स्थान पर हाथी कुछ विपत्ति समझकर रुक गया। यह हाथी को आनेवाले मार्ग में रहे संकट का आभास हो गया था। 


कोणिक ने एक जगह खाई खुदवाकर उसमे आग लगा दी औऱ ऊपर से आच्छादित करवा दिया था । हल- विहल को यह पता नही लगा , पर हाथी समझ गया। आगे नही बढ़ा। तब इस अग्नि से अनभिज्ञ हल-विहल उस हाथी को डांटने लगे। तीखे शब्दो में उस हाथी की भर्त्सना की।

स्वामी भक्त हाथी ने उन दोनों भाइयों को झटके से नीचे उतार दिया व खुद उस खाई में गिरकर जल मरा। काल कर वह प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ।

यह सब जब दोनों भाइयों ने देखा, समझा, उनका जीव बचाने वाले सेंचनक की मृत्यु देखी तब वे स्तब्ध रह गये। वे वही बैठ पड़े। बीते हुए दिनों का अवलोकन करने लगे। एक हार-हाथी के लिए हुए भीषण नरसंहार का अपना पाप देखा। उनका चिंतन बढ़ता गया। अपने कर्मो के परिपाक को समझा। अब उन्हें भविष्य में ऐसे कार्य कभी नही करने का सोच लिया। उन्हें इस संसार से ही विरक्ति हो गई। प्रभु का शरण मिले तो वे शीघ्र संयम ग्रहण कर लेवें ऐसा सोचने लगे। प्रभु उस समय श्रावस्ती नगरी की ओर विहार कर रहे थे। सम्यक्त्वी देवी ने उनकी मनोभावना जानकर उन्हें प्रभु के पास पंहुचा दिया। वहां भाइयों ने संयम ग्रहण किया। तप-संयम की विशुद्ध आराधना कर के आयु पूरी कर अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। वहां आयु पूरी कर वे महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।


कोणिक-चेटकराजा का क्या?? 


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास



कल का जवाब  :  - कोणिक के 2 हाथी के नाम, उदायी व भुतानंद।


आज का सवाल :- सेंचनक हाथी का जीव अभी कंहा है  ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।





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26-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 89


युद्ध का निमित्त ऐसा सेंचनक हाथी आग में जल मरा , हल-विहल ने दीक्षा ले ली। अब कोणिक-चेटकराजा का क्या?? 

युद्ध के निमित्त तो हट गये पर घेरा व मानव हठ वही थी।


अपने दस भाइयों व विशाल सेना को नाश स्वयं करवाने वाले कोणिक को अभी भी चेटकराजा दोषित लग रहे थे। हार देवता ले गये थे। हाथी व हल विहल भी अब उपस्थित नही थे। पर वैशाली अजेय, सुरक्षित थी। उसका दुर्ग कोणिक भेद नही पाया, यह बात कोणिक को अपमान जनक लग रही थी। इतने लंबे समय से वे घेरा डालकर बैठा था पर कोई परिणाम नहीं निकल रहा था। उसने प्रतिज्ञा ले ली कि वैशाली को जीतकर उसकी भूमि में गधों द्वारा हल नही चला पाया तो मैं अग्नि या पानी में आत्महत्या करूँगा।


मंत्रीगण व अन्य साथी राजा भी चिंतित हो गये। ऐसे में  भाग्य-योग से एक देवी ने उन्हें एक सुझाव दिया।

"यदि आपकी चंपा नगरी की मागधिका वेश्या द्वारा कुलवालुक मुनि को मोहित कर ले, तो वह मुनि वैशाली नगर में जाकर वैशाली को तोड़ने का उपाय ढूंढ लेगा।"


कोणिक ने तुरन्त राजधानी से मागधिका को बुलाया। वह सुंदर व बुद्धिवैभव युक्त गणिका थी। कोणिक ने उसे कुलवालुक मुनि को ढूंढकर उसे मोहित कर यहां लाने का आदेश दिया। बदले में भरपूर धनराशि का उपहार देने का वचन दिया। उसने कोणिक के आदेश को स्वीकार किया। 


अब उन मुनि के ठिकाने का पता कैसे लगाया जाय? वह चतुर थी। उसने एक श्राविका का स्वांग रचाया। एक आचार्य को अपने धार्मिकता के ढोंग से प्रसन्न किया। एक दिन उनसे कुलवालुक मुनि के विषय में पूछा। उन भोले मुनि को उसका कुत्सित योजना के विषय में पता ही नही था। उन्होंने उसकी कथा सुनाई।


कौन थे ये कुलवालुक मुनि ?


एक सुसंयमी उत्तम गुरु का एक कुशिष्य था। एक बार पहाड़ उतरते हुए शिष्य के मन में अनायास गुरु हत्या का विचार आया। उसने अपने से नीचे उतर रहे गुरु पर एक बड़ा पत्थर लुढ़का दिया। संयोगवश गुरु ने यह देख लिया और समयसूचकता से वे बच गये। पर उन्होंने उस कुशिष्य को श्राप दे दिया। क्रुतघ्नी दुष्ट, तू घोर पापी है। साधुता क्या तू सदाचारी गृहस्थ के योग्य भी नहीं। स्त्री के संसर्ग से तू भ्रष्ट होकर महापतित होगा।

कुशिष्य को पछतावा नही हुआ वह उल्टा गुरु को बोला : - मैं तुम्हारा श्राप सच होने ही *नहीं* दूंगा। मैं ऐसी जगह चला जाऊंगा जहाँ कोई स्त्री न हो। ऐसा कहकर। वो मुनि एक अरण्य में जा बसा। वहां पाक्षिक, मासिक आदि उग्र तपस्या करते हुए रहने लगा। पारणे के दिन वहां से कोई पथिक गुजरते तब कुछ निर्दोष आहार मिलता तो वे पारणा कर लेते।  

मागधिका वेश्या ने उनका स्थान जान लिया। अब वह क्या करेगी?



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास



कल का जवाब  :  - सेंचनक हाथी का जीव अभी प्रथम नरक में है।


आज का सवाल :-  कोणिक ने क्या प्रतिज्ञा ली?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।




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28-2-2020

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 90


मागधिका एक श्राविका का भेष धारणकर खाद्य सामग्री व आवश्यक वस्तुएं लेकर कुलवालुक मुनि के पास अरण्य में आ गई।


एक श्राविका का ढोंग रचाकर मुनि को वन्दनादि करके वह बोली। मेरा जीवन अब धर्मसाधना में ही बीतता है। तपस्वियों, मुनियों के दर्शन करने अभी मैं निकली हूं। मैंने उन महाव्रतियो की सेवा आदि करके अपने कर्मो की निर्जरा का लक्ष्य बनाया है। इस वन से गुजरते हुए पथिकों से आपकी साधना जानकर आप के दर्शन करने चली आई।

अपनी बातों से  मुनि पर प्रभाव जमाते हुये कहा। मेरे पास निर्दोष मोदक है। यदि आप मुझे प्रतिलाभ देंगे तो कृपा होगी। मुनि का उस दिन पारणा था। उन्होंने मोदक ग्रहण किये। 

पर कुटिल मनकी मागधिका ने उसमें दस्त होने की दवाई मिला रखी थी। मुनि को दस्त हो गये। तबियत इतनी बिगड़ी की उनकी सारी शक्ति क्षीण हो गई।

अब वह खेदित होने का नाटक करती हुई बोली मेरी वजह से आपका स्वास्थ्य खराब हुआ। अब आपकी सेवा करके, जब तक आप संपूर्ण स्वस्थ नही हो जाते तब तक यहीं पर रहकर आपकी सेवा करूंगी।


क्षीण शक्ति मुनि को भी सेवा की आवश्यकता लगी। उन्होंने अनुमति दी। समय बिता।  वह गणिका मुनि की खुब सेवा करने लगी। स्वयं द्वारा तेल का मर्दन, आहार का ध्यान, उनका संगीत आदि से मनोरंजन करने लगी। उस गणिका के नाटक से उसके मोह में आखिरकार मुनि फंस ही गये। आखिर अब वे मागधिका के बिना रह नही सकते थे, दोनों में पति-पत्नी योग्य व्यवहार होने लगा, ऐसा समय भी आ गया। मुनि को इस तरह जाल में फंसाकर उसे कोणिक के आदेशानुसार वैशाली नगरी के बाहर पड़ाव में ले आई।

कोणिक ने मुनि का आदर सत्कार कर, वैशाली तोड़ने की अपनी इच्छा बतलाई। मुनि (इन्हें अब मुनि कहे ?) 

मुनि ने कोणिक की इच्छा स्वीकार की।


एक नैमितज्ञ, यानी निमित्त आदि चिह्नों से भविष्य के जानकार के रूप में वैशाली नगर में किसी तरह प्रवेश कर लिया। तप का तेज, उग्र तप से प्राप्त कुछ लब्धियाँ तो थी ही इनके पास। वे नगर में घूमने लगे। उनकी दृष्टि वह खोज रही थी जिसके वहां होने से वैशाली अजेय, अभेद्य, दुर्गम बनी हुई थी। लोग महीनों से नगर में बंद थे। उन्हें भी इस कारावास से मुक्ति चाहिए थी। सब नगरजनों की यही जिज्ञासा थी कि वैशाली के बाहर का घेरा कब उठेगा।

नगर में घूमते हुए उन्होंने भगवान मुनिसुव्रत स्वामी का एक प्राचीन स्तूप देखा। कुछ निमित्त समझने का प्रयास किया। उन्हें विश्वास हो गया कि यही वह स्तूप है जिससे वैशाली आज तक मजबूत रही है।


अब वे क्या करेंगे?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास (स्तूप आदि के विषय में संकलनकर्ता का अपना कोई अभिप्राय नही। मात्र ग्रन्थ का अनुसरण किया गया है। स्वयं तीर्थंकर चरित्र, मौलिक इतिहास में इसका वर्णन आया है पर एक सन्दर्भ के साथ।  )



कल का जवाब  :  - कोणिक ने प्रतिज्ञा ले ली कि वैशाली को जीतकर उसकी भूमि में गधों द्वारा हल नही चला पाया तो मैं अग्नि या पानी में आत्महत्या करूँगा।





आज का सवाल :-  कुलवालुक मुनि ने ऐसा क्या खाया तो उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।




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1-2-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 91


वैशाली भंग तथा सत्यकि रुद्र ।


कुलवालुक मुनि ने स्तूप का महत्त्व जान लिया। अब वैशाली के नगरजनो में पहले उत्सुकता बढाई। थोड़ा अपना महत्त्व बढ़ाया ताकि लोग उन पर विश्वास कर ले। अब धीरे से यह बात फैला दी, कि वे इस नगर में आई तकलीफों का कारण जान चुके है। भीड़ इकट्ठा होने लगी। जब पर्याप्त व अनुकूल समय समझ लिया तब मुनि ने वहां एकत्र, मगध की सेना के कारण त्रस्त नागरिकों को कहा : - वैशाली के सारे कष्टों की जड़ यह स्तूप है। जब यह स्तूप नही रहेगा तब वैशाली की सारी तकलीफों का अंत स्वयमेव हो जाएगा।

इकट्ठा भीड़ आवेश में आ गई। बहुत प्राचीन स्तूप था। (बूढ़े समझदार नागरिकों ने शायद रोका भी होगा पर समूह में इतनी अक्ल कहां?) उसी समय उपस्थित भीड़ ने वह स्तूप गिरा दिया। देखते-देखते उसका नामो निशान मिट गया।

कुलवालुक ने ध्वनि संकेत देकर कोणिक को आक्रमण करने की सूचना दे दी। निमित्त मिलते ही उपादान तैयार हो गया। कोणिक ने दुगुने जोश के साथ धावा बोल दिया। योग-संयोग शायद बन चुका था।


मगध सेना द्वारा अजेय गढ़ तोड़ दिया गया। नगर में वैशाली की सेना घुस गई । सहसा हुए आक्रमण, महीनों से बंद प्रजा हार गई। कोणिक ने अपना मनोरथ पूरा कर वैशाली की भूमि में गधे द्वारा हल चलवाया। (इस अहंकार के भयानक परिपाक को कोणिक कितने समय तक भुगतेगा। मात्र व मात्र अपनी जिद्द की खातिर करोड़ो मनुष्यो की बलि चढ़ा दी उसने 😢  )

चेटकराजा?

वैशाली के टूटने के समाचार मिलते ही चेटकराजा स्तब्ध हो गये। वो अत्यंत निराश होकर मन से टूटकर बिखर गये। तब उनकी छट्ठी पुत्री सुज्येष्ठा जी का पुत्र सत्यकी रुद्र आकाशमार्ग से आया। और अपने मातामह को उड़ाकर ले गया। जीवन से ऊब चुके चेटकराजा ने अनशन स्वीकार कर जलाशय में कूद पड़े। तब साधर्मिक जानकर धरणेन्द्र वहां आये और अपने भवन में लाये। वहाँ राजा ने आलोचना आदि कर अरिहंतो का शरण ग्रहण किया। धर्म ध्यान युक्त जीवन पूरा कर देवलोक में उत्पन्न हुए।


सत्यकी रुद्र

पिछले कथानकों में हमने चेलना हरण का प्रसंग देखा था। अपनी जगह चेलना को श्रेणिक के साथ जाते हुए देख वह दुखी हुई। अत्यंत मानसिक परिताप से आगे वह विरक्त हो गई। उसने दीक्षा ले ली। साध्वी ज्येष्ठा जी एक बार उपाश्रय में कायोत्सर्ग में लीन थे तब "पेढाल"  नामक विद्या सिद्ध परिव्राजक आकाशमार्ग से जा रहा था। वह अपनी विद्या देने के लिए किसी सुयोग्य मनुष्य की खोज में था, जो ब्रह्मचारिणी के कुक्षी से उत्पन्न हुआ हो। सुज्येष्ठाजी को देखकर उसे अपनी आशा फलीभूत होते हुए दिखी। उसने धुंध फैलाकर अंधेरा कर दिया। साध्वीजी को मूर्छित कर के उनकी कुक्षी में अपना वीर्य प्रक्षिप्त किया। कालांतर में साध्वीजी गर्भवती बने। उन्होंने श्रावक के घर पुत्र को जन्म दिया वह पेढाल ले गया। उसका नाम सत्यकी रखा । पेढाल ने उसका उचित पालनपोषण किया। रोहिणी आदि सभी विद्याएं उसको दी।

सुज्येष्ठा जी संपूर्ण निर्दोष थे। स्वयं भगवान ने सुज्येष्ठाजी के सतीत्व का स्वीकार किया था । सूत्र में भविष्य के तीर्थंकरों में सत्यकी रुद्र भी आगामी चौबीसी के तीर्थंकर बनेंगे यह उल्लेख आया है। 

एक अवसर्पिणी काल में जैसे 24 तीर्थंकर , 12 चक्रवर्ती आदि 63 श्लाघनीय पुरुष होते है। ठीक वैसे एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी काल में 24 कामदेव, 9 नारद व 11 रुद्र भी होते है। इस अवसर्पिणी काल के रुद्र में सत्यकी का भी नाम है।





सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास 



कल का जवाब  :  - कुलवालुकमुनि ने मागधिका द्वारा दिए गये , दस्त हो ऐसी दवाई मिश्रित मोदक खाया तो उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया ।




आज का सवाल :- कल इस श्रेणी का अंतिम भाग आएगा। इस श्रेणी में आप को सबसे ज्यादा क्या पसंद आया ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


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28-11-2020

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 92


कोणिक का अंत


वीरप्रभु का एक अनन्य भक्त कोणिक, एक जिद्द पर करोड़ो मनुष्यो को मृत्यु देनेवाला कोणिक,  विशाल व समृद्ध मगध साम्राज्य का प्रतापी योद्धा कोणिक, वैदिक इतिहास में शायद जिसे अजात शत्रु के नाम से जाना गया ऐसा बहादुर सम्राट कोणिक। 

चेटकराजा के साथ हुए युद्ध में विजयी बनने के बाद औऱ गर्वान्वित या अहंकारी बन गया था। स्वयं को वह चक्रवर्ती समझने लगा था।


प्रभु का यह भक्त उनकी पर्युपासना भी करता पर प्रभु की वाणी अपने आचरण में नही उतार पाया। शायद भवितव्यता ही ऐसी थी। एकबार जब प्रभु चंपा पधारे तब उसने दर्शन वन्दन पश्चात अपनी गति पूछी। काल कर वह कहां उत्पन्न होगा यह जानना चाहा।


प्रभु ने कहा : - छट्ठी नरक!


कोणिक की तो मति ही उल्टी थी। उसने सोचा, चक्रवर्ती तो सातवी नरक तक जा सकते है न!

प्रभु ने कहा : - कोणिक, तुम चक्रवर्ती नही हो, एक अवसर्पिणी काल में 12 चक्रवर्ती ही होते है जो इस काल में हो चुके है। 

कोणिक : - चक्रवर्ती की पहचान क्या?

प्रभु : - उसके यहां पूर्वपुण्य से 14 रत्न आदि उत्पन्न होते है। उसके लिए तिमिस्त्रा गुफा के द्वार खुलते है आदि।

कोणिक को फिर चक्रवर्ती बनने की धुन बन गई। उसने अपने सेनापति आदि को रत्न की उपमा दी। पद्मावती रानी को स्त्रीरत्न बनाया। और सेना सहित तिमिस्त्रा गुफा के द्वार पर आकर वहां के रक्षक देव को द्वार खोलने को आदेश दिया।

गुफा के द्वार रक्षक देव कृत माल ने उसे तत्क्षण मौत के घाट उतार दिया। अपने सभी पाप कर्मो का फल भोगने के लिए वह छट्ठी मघा यानि तमः प्रभा नरक में उत्पन्न हुआ।


मगध के साम्राज्य के एक और सम्राट का दुखद अंत हुआ। उसके बाद उसका पुत्र उदायी सम्राट हुआ। वह भी दृढ़ जिनोपासक व धर्मिष्ठ बना।  आगामी चौबीसी में वे तीर्थंकर बनेंगे।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक 

कोणिक की मृत्यु के साथ ही हमारी यह श्रेणी यही पूरी होती है। पोस्ट लिखते समय मुझसे जाने अनजाने देव, गुरु, धर्म की कोई भी आशातना हुई हो, मेरे अज्ञान, कषाय वश बुक से विपरीत लिखने में आया हो , पोस्ट कॉमेंट से किसी का दिल दुखाया हो तो उन सभी गलतियों के लिए हृदयपूर्वक मिच्छामि दुक्कडम।  खमतखामना । सभी के सकारात्मक प्रतिभावो से मुझे यह संकलन लिखने की प्रेरणा मिली, जो मेरे लिए भी एक सुखद, आल्हादकारी अनुभव रहा , उस अनुभव के लिए आप सभी का आभारी हूं। खुब खुब धन्यवाद।



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास 






आज का सवाल : - इस श्रेणी के बाद आप को किस विषय में पढ़ने की ज्यादा इच्छा है ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।




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