जैन महाभारत u की
भाग ( १ )
U
19-11-2020
💥जैन महाभारत💥
वसुदेव जी
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इस भरत क्षेत्र की मथुरा नगरी में हरिवंश में प्रख्यात राजा ' वसु ' हुए , उनके पुत्र वृहद्ध्वजके बाद अनेक राजा हो गये । फिर ' यदु ' नाम का एक राजा हुआ । यदु के शूर नाम का पुत्र हुआ , जो सूर्य के समान तेजस्वी था । शूर नरेश के शौरि और सुवीर नाम के दो वीर पुत्र हुए । शूर नरेश ने शौरि को राज्याधिकार और सुवीर को युवराज पद देकर प्रवज्या स्वीकार कर ली । शौरि ने अपने अनुजबंधु सुवीर को मथुरा का राज्य देकर कुशार्त देश चला गया और वहाँ शौर्यपुर नामक नगर बसाकर राज करने लगा । शौरि राजा के अन्धकवृष्णि आदि कई पुत्र और सुवीर से भोजवृष्णि आदि पुत्र हुए । सुवीर ने अपने पुत्र भोजवृष्णि को मथुरा का राज्य देकर स्वयं सिन्धु देश चला गया और वहाँ सौवीरपुर नगर बसा कर राज करने लगा । शौरि नरेश ने अपने पुत्र अन्धकवृष्णि को राज देकर दीक्षा ग्रहण की और संयम-तप का आराधन कर मोक्ष प्राप्त हुए ।
मथुरा नरेश भोजवृष्णि के उग्रसेन नाम का एक उग्र पराक्रमी पुत्र हुआ और अन्धकवृष्णि को सुभद्रा रानी से दस पुत्र हुए । उनके नाम इस प्रकार थे - 1- समुद्रविजय , 2- अक्षोभ , 3- स्तिमित , 4- सागर , 5- हिमवान , 6- अचल , 7- धरण , 8- पूरण , 9- अभिचन्द्र और 10- वसुदेव । ये दशों ' दशार्ह ' नाम से प्रसिद्ध हुए । इनके कुन्ती और मद्री नाम की दो बहिने थीं । कुन्ती पाण्डु राजा को और मद्री दमघोष राजा को ब्याही थी ।
✒💠संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर 💠
2
U
20-11-2020
💥जैन महाभारत💥
नन्दीसेन
🌟🌟🌟
एक समय अन्धकवृष्णि नरेश ने सुप्रतिष्ठ नाम के अवधिज्ञानी मुनि से पूछा - " भगवन ! मेरे वसुदेव नाम का सबसे छोटा पुत्र है । वह अत्यन्त रुप सम्पन्न तथा सौभाग्यवान् है , कलाविद् और प्रभावशाली है । इस प्रकार की विशेषताएँ इसमें कैसे उत्पन्न हुई ? "
- राजन ! मगधदेश के नन्दीग्राम में एक गरीब ब्राह्मण था , उसके सोमिला नाम की पत्नी से नन्दीसेन नाम का पुत्र हुआ था । वह महा मन्दभागी था और बालवय में ही माता-पिता के मर जाने से अनाथ हो गया था । उदरविकार से उसका पेट बढ़ गया था । उसके दाँत लम्बे , नेत्र खराब और मस्तक चोरस था । वह पूराणरुप से कुरुप था । स्वजनों ने उसका त्याग कर दिया था ,किन्तु उसके मामा ने उसे अपने यहाँ रख लिया था । उसके मामा के सात पुत्रियाँ थी । वे विवाह के योग्य हुई । नन्दीसेन भी युवावस्था प्राप्त था । मामा ने नन्दीसेन से कहा - " मैं तुझे एक पुत्री दूँगा । " कन्या पाने के लोभ से नन्दीसेन , मामा के घर सभी काम , मन लगाकर परिश्रम के साथ करने लगा ।पुत्रियों ने अपने पिता द्वारा नन्दीसेन को दिया हुआ वचन सुना था । सबसे बड़ी पुत्री का लग्न शीघ्र होने वाला था । उसे चिन्ता हुई कि " यदि पिता मुझे नन्दीसेन को ब्याह देंगे , तो क्या होगा ? " उसने पिता के पास यह सूचना भेज दी कि - " यदि मेरा विवाह इस कुरुप के साथ करने का प्रयत्न किया , तो मैं आत्मघात कर लूँगी । " नन्दीसेन को इस बात की जानकारी हुई , तो निराश होकर चिन्ता-मग्न हो गया । मामा ने उसे सान्तवना देते हुए कहा; - तू चिन्ता मत कर , मैं तुझे दूसरी पुत्री दूँगा । " यह सुनकर सभी पुत्रियों ने नन्दीसेन के प्रति घृणा व्यक्त करती हुई बड़ी के समान ही विरोध किया । यह सुनकर नन्दीसेन सर्वथा निराश हो गया , किन्तु मामा ने विश्वास दिलाते हुए कहा - " ये छोकरियें तुझे नहीं चाहती , तो जाने दे । मैं दूसरे किसी की लड़की प्राप्त करके तेरा विवाह करुँगा , तू विश्वास रख । " किन्तु नन्दीसेन को विश्वास नहीं हुआ । उसने सोचा - " जब मेरे मामा की सात पुत्रियों में से एक भी मुझे नहीं चाहती , तो दूसरी ऐसी कौन होगी जो मेरे साथ लग्न करने के लिए तत्पर होगी ? " इस प्रकार विचार कर वह संसार से ही उदासीन हो गया । उसकी विरक्ति बढ़ी । वह मामा का घर छोड़कर रत्नपुर नगर आया । उसकी दृष्टि संभोगरत एक स्त्री -पुरुष के युगल पर पड़ी । वह अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ मृत्यु की इच्छा से , नगर छोड़ कर उपवन में आया और आत्मघात की चेष्टा करने लगा । उस वन में एक वृक्ष के नीचे सुस्थित नामक महात्मा ध्यानस्थ खड़े थे । नन्दीसेन ने मुनि को देखा । उसने सोचा - " मरने से पहले महात्मा को वन्दना करलूँ । " उसने मुनिराज के चरणों में मस्तक टेक कर वन्दना -नमस्कार किया । मुनिराज ने ज्ञान से नन्दीसेन के मनोभाव जाने और दया कर बोले ; -
अज्ञानी मनुष्य ! तू अपने मनुष्य-भव को नष्ट करना चाहता है । तेने पूर्वभव में प्रचूर पाप किये , जिससे मनुष्य-भव पा कर भी दुर्भागी एवं अभाव पीड़ित तथा घृणित बना , अब फिर आत्मघात का पाप करके अपनी आत्मा को विशेष रुप से दण्डित करना चाहता है । यह तेरी कुबुद्धि है । समझ और धर्माचरण से इस मानव-भव को सफल कर । तप और संयम से आत्मा को पवित्र बना कर सभी पाप को धो दे । यह अलभ्य अवसर बार-बार नहीं मिलेगा । "
महात्मा के उपदेश ने नन्दीसेन को जाग्रत कर दिया । उसकी मोहनिद्रा दूर हुई । उसने उसी समय प्रवज्या ग्रहण की और ज्ञानाभ्यास करने लगा । कुछ काल में वह गीतार्थ हो गया । उसने अभिग्रह किया कि -" मैं साधुओं की वयावृत्य करने में सदैव तत्पर रहूँगा । "
अभिग्रह ग्रहण करने के बाद नन्दीसेन मुनि आग्लान-भाव से वैयावृत्य करने लगे । बाल हो या वृद्ध , रोगी हो या तपस्वी , किसी भी साधु को सेवा की आवश्यकता हो , तो नन्दीसेन मुनि तत्पर रहते थे । उनकी वैयावृत्य की साधना सर्वत्र प्रशंसनीय हुई , यहाँ तक कि सुधर्मा-सभा को सम्बोधित करते हुए सौधर्म स्वर्ग के अधिपति शकेन्द्र ने कहा ; -
' देवगण ! वैयावृतय रुपी आभ्यन्तर तप की साधना करने में , भरतक्षेत्र में इस समय महात्मा नन्दीसेन मुनि सर्वोच्च साधक हैं । उनके समान साधक अन्य कोई नहीं है । वे वैयावृत्य के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । धन्य है ऐसे विशुद्ध एवं शुद्ध साधक महात्मा को । '
देवेन्द्र की बात में सारी देवसभा सहमत हुई । बहुत-से देव भी देवेन्द्र की अनुमोदना करते हुए धन्य धन्य करते हुए महात्मा के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने लगे । कई असम्यग्दृष्टि देव मौन रह कर भी बैठे रहे । किन्तु एक देव , इन्द्र की बात पर अविश्वासी हो कर उठ खड़ा हुआ और सच्चाई को परखने के लिए सावर्ग छोड़ कर मनुष्यलोक में आया । उसना अपना एक रुप असाध्य रोगी मुनि जैसा बना कर उसी उपवन में , एक वृक्ष के नीचे पड़ गया और दूसरा रुप बना कर नन्दीसेन मुनि के समीप आया । उस समय नन्दीसेन मुनि तपस्या का पारणा करने के लिए प्रथम ग्रास हाथ से उठा ही रहे थे कि उसने पुकारा ; -
" अरे ओ वैयावृत्यी नन्दीसेन मुनि ! तुम महावैयावृत्यी कहलाते हो , किन्तु में देखता हूँ कि तुम केवल प्रशंसा के भूखे ढोंगी हो । वहाँ एक असाध्य रोगी मुनि तड़प रहा है और यहाँ आप आनन्द से भोजन कर रहे हैं । देखी तुम्हारी वैयावृत्य ! कदाचित् अपने पेट और मन की ही वैयावृत्य करते होंगे तुम ? "
नन्दीसेन का हाथ में लिया हुआ प्रथम ग्रास फिर पात्र में गिर गया । वे तत्काल उठे और पूछा; - " महात्मन् ! कहाँ है वे रोग-पीड़ित मुनि ? क्या हुआ उन्हें ? शीघ्र बताइए , मैं सेवा के लिए तत्पर हूँ । "
" निकट के उपवन में ही अतिसार रोग से पीड़ित एक मुनि पड़े हैं । " नन्दीसेन मुनि शुद्ध पानी की याचना करने निकले , किन्तु देव-माया से सभी घरों का पानी अनैषणीय होता रहा । किन्तु मुनि लब्धिधारी थे , इसलिए देव-माया भी अधिक नहीं चल सकी और महात्मा को एक स्थान से शुद्ध पानी प्राप्त हो गया , जिसे लेकर वे उन रोगी मुनि के समीप आये । नन्दीसेन मुनि के निकट आने पर रोगी बना हुआ ढ़ोंगी साधु बोला ;-
" अरे ओ अधम ! मैं यहाँ मर रहा हूँ और तुझे इसकी चिन्ता ही नहीं ? अपनी उदर-सेवा करने के बाद बड़ा मस्त बना हुआ झुमता-टहलता चला आ रहा हैं ? ऐसा है तेरा अभिग्रह और ऐसा है तू वैयावृत्यी ? धिक्कार है तेरे इस दाम्भिक जीवन को । "
" मुनिवर ! शान्त होवें और मुझ अधम को क्षमा प्रदान करें । मैं अब आपकी सेवा में तत्पर रहूँगा और आपकी योग्य चिकित्सा की जावेगी । मैं आपके लिए शुद्ध प्रासुक जल लाया हूँ , आप इसे पियें । आपकी शान्ति होगी " - नन्दीसेन मुनि ने शांति से निवेदन किया और पानी पिला कर कहा -" आप जरा खड़े हो जाइए , अपन उपाश्रय में चलें । वहाँ अनुकूलता रहेगी । "
" तू अन्धा है क्या ? अरे दम्भी ! मैं कितना अशक्त हो गया हूँ । मैं करवट भी नहीं बदल सकता , तो उठूंगा कैसे ?
नन्दीसेन ने उस रोगी दिखाई देने वाले साधु को उठाकर कन्धे पर चढ़ाया और चलने लगे , किन्तु वह मायावी पद-पद पर वाक्-बाण छोड़ता रहा । वह कहता- " दुष्ट ! धीरे-धीरे चल । शीघ्रता करने से मेरा शरीर हिलता है और इससे पीड़ा होती है ।" नन्दीसेन जी धीरे-धीरे चलने लगे , किन्तु देव को तो उनकी परीक्षा करनी थी । उस मायावी साधु ने नन्दीसेन जी पर विष्ठा कर दी और धोंस देते हुए कहा - " तू धीरे-धीरे क्यों चलता हैं ? मेरे पेट में टीस उठ रही हैं और मल निकलने वाला हैं । " नन्दीसेन जी का सारा शरीर विष्ठा से लथपथ हो गया और दुर्गन्ध से आसपास का वातावरण असह्य हो गया । किन्तु नन्दीसेन जी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । वे यही सोचने लगे कि -" इन महात्मा के रोग कि उपशांति कैसे हो ? इन्हें भारी पीड़ा हो रही है , " आदि।
जब देव ने देखा कि भर्त्सना और अपमान करने पर और विष्ठा से सारा शरीर भर देने पर भी महात्मा का मन वैयावृत्य से विचलित नहीं हुआ , तो उसने अपनी माया का साहरण कर लिया और स्वयं देवरुप में उपस्थित होकर नन्दीसेन जी की वन्दना की, क्षमायाचना की । उसने इस परीक्षा का कारण इन्द्र द्वारा हुई प्रशंसा का वर्णन किया और बोला ;- " महामुनि ! आप धन्य है । कहिये मैं आपको क्या दूँ ? " मुनिश्री ने कहा - " गुरुकृपा से मुझे वह दुर्लभ धर्म प्राप्त है , जो तुझे प्राप्त नहीं है । इसके सिवाय मुझे किसी वस्तु की चाह नहीं है । " देव चला गया । नन्दीसेन मुनि ने बारह हजार वर्ष तक तप और संयम का शुद्धतापूर्वक पालन किया और अन्त समय निकट जानकर अनशन किया । चालू अनशन में उन्हें अपने दुर्भाग्य एवं स्त्रियों द्वारा तिरस्कृत जीवन का स्मरण हो आया । उन्होंने निदान किया -" मैरे तप संयम के फल से मैं " रमणीवल्लभ " बनूँ । बहुत सी रमणियों का प्राणप्रिय होऊँ ।" आयु पूर्ण होने पर वे महाशुक्र देव हुए और वहाँ से च्यव कर वसुदेव हुए । उनका स्त्रीजनवल्लभ होना उस निदान का फल है । "
अन्धकवृष्णि राजा ने समुद्रविजय को राज्य दे कर दीक्षा ली और मुक्ति प्राप्त की ।
✒💠संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर 💠
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21-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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कंस जन्म
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राजा भोजवृष्णि ने भी उग्रसेन को राज्यभार सौंपकर निर्ग्रन्थ -प्रवज्या स्वीकार की । उग्रसेन जी के धारिणी नाम की पटरानी थी । एकदा श्री उग्रसेन जी उद्यान की ओर जा रहे थै । उन्होंने एक तापस को देखा जो मार्ग के निकट एक वृक्ष के नीचे बैठा था । वह मासोपवास की तपस्या करता था । उसके यह नियम था कि -' पारणे के दिन भिक्षार्थ जाने पर , प्रथम जिस घर में जाय, उसी में से आहार मिले, तो लेना । यदि उस घर में आहार नहीं मिले तो आगे दूसरे घर नहीं जाकर लौट आना और फिर मासोपवास प्रारंभ कर देना । ' उग्रसेन जी ने तापस को अपने यहां पारणा करने का आमन्त्रण दिया और भवन में आने के बाद भूल गये । तापस पारणे के लिए उनके यहाँ गया , किन्तु वह भोजन नहीं पा सका और लौट कर दूसरा मासखमण कर लिया । इसके बाद उग्रसेन नरेश फिर उद्यान में गये और तापस को देखकर उन्हें अपनी भूल स्मरण हो आई । उन्होंने तापस से अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी और पारणे के दिन अपने यहां से ही भोजन लेने का फिर से निमन्त्रण दिया । तापस ने मान लिया । किन्तु कार्य व्यस्तता के कारण फिर भूल गये और तापस फिर बिना भोजन किए खाली लौट गया और तीसरा मासोपवास चालू कर दिया । राजा को पुनः अपनी भूल मालूम हुई और उसने पुनः तपस्वी से क्षमायाचना की और आग्रहपूर्वक पारणे का निमन्त्रण दिया जो स्वीकार हो गया । किन्तु भवितव्यता वश इस समय भी पारणा नहीं हो सका । तपस्वी ने तीसरी बार भी पारणा नहीं मिलने से राजा की भूल नहीं मान कर जानबूझ कर बुरी भावना से तपस्वी को सताना माना और क्रोधपूर्वक यह निदान कर लिया कि - " मेरे तप के प्रभाव से मैं भवान्तर में इस दुष्ट को मारने वाला बनूँ । इस प्रकार निदान करके उसने आजीवन अनशन कर लिया और मृत्यु पाकर उग्रसेन जी की पटरानी धारिणी देवी के गर्भ में उत्पन्न हुआ । गर्भ के प्रभाव से महारानी के मन में ' राजा के हृदय का मांस खाने ' की इच्छा उत्पन्न हुई । यह इच्छा ऐसी थी कि जिसे मुँह पर लाना भी असंभव था । रानी दिनोदिन दुर्बल होने लगी । राजा ने रानी को खेद युक्त देखकर आग्रहपूर्वक कारण पूछा और अत्याग्रह के कारण रानी को अपना भाव बताना पड़ा । राजा ने मंत्रियों से मंत्रणा की और रानी को , दोहद पूरा करने का आश्वासन दिया फिर राजा को एक अंधेरे कमरे में लेटा कर , उनकी छाती पर खरगोश का मांस रखा और उसमें से थोड़ा-थोड़ा काट कर रानी के पास भेजने लगे । जब रानी का दोहद पूरा हो गया , तो वह इस दुरेच्छा से भयभीत हुई और अपने पति की मृत्यु जानकर स्वयं भी मरने के लिए उद्यत हुई । जब मंत्रियों ने रानी को विश्वास दिलाया कि राजा जीवित है । उनका योग्य उपचार हो रहा है और वे सात दिन में ही स्वस्थ्य हो जावेंगे तो रानी को संतोष हुआ
रानी को विश्वास हो गया कि गर्भस्थ जीव कोई दुष्टात्मा है । वह मेरे और स्वामी के लिए अनिष्टकारी है । उसने उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया ,किन्तु सफल नहीं हुई और पौष कृष्ण चतुर्दशी को रात्रि को जब चन्द्रमि मूल नक्षत्र में आया , एक पुत्र को जन्म दिया । रानी इस बालक से भयभीत तो थी ही , इसलिए उसको हटाने के लिए एक काँसे की पेटी पहले से बनवाकर तैयार रखी थी । पुत्र का जन्म होते ही उसे उस पेटी में सुला दिये और उसके साथ अपने और राजा के नाम से अंकित दो मुद्रिका और एक पत्र रखा और कुछ रत्न रखकर दासी के द्वारा पेटी को यमुना नदी में बहा दिया और राजा को कहला दिया कि महारानी के गर्भ में मरा हुआ पुत्र जन्मा है । सातवे दिन पति को स्वस्थ्य देखकर उसने बड़ा भारी उत्सव मनाया ।
वह पेटी यमुना में बहती हुई शौर्यपुर नगरी के समीप आई । एक सुभद्र नाम का व्यापारी प्रातःकाल शौच के लिए नदी पर आया , उसने नदी में बहती हुई पेटी देखी और साहस करके बाहर निकाल ली । उसने पेटी खोल करके देखी , तो उसमे एक सद्यजात सुन्दर बालक और रत्नादि देखें । उसने पत्र खोलकर पढ़ा और आश्चर्यान्वित हुआ । फिर पेटी अपने घर लाकर बालक अपनी पत्नी इन्दुमति को दिया और पुत्रवत् पालन करने की प्रेरणा की । काँसे की पेटी में से निकलने के कारण उन्होंने बालक का नाम " कंस " दिया । वे उस बालक का दूध , मधु आदि अनुकूल पदार्थों से पोषण करने लगे । कंस बड़ा होने लगा और उसका स्वभाव भी प्रकट होने लगा । वह अन्य बच्चों से झगड़ता , कलह करता और उन्हें मारता -पिटता । उन बच्चों के माता-पिता आकर सेठ-सेठानी से कंस की दुष्टता कह कर उपालम्भ देने लगे । जब कंस दस वर्ष का हुआ और उसके उपद्रव बढ़ने लगे , तो सेठ ने उसे राजकुमार वसुदेव के पास -सेवक के रुप में रख दिया । कंस वसुदेवजी को प्रिय लगा । दोनों समान वय के थे । वसुदेव, कंस को सदैव अपने साथ ही रखने लगे । कंस भी वसुदेव के साथ रह कर विद्या और कलाओं का अभ्यास करने लगा । दोनों कला-निपुण होकर यौवन-वय को प्राप्त हुए ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
( 4 )
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22-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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कंस का पराक्रम
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सुक्तिमतिनगरी के राजा वसु का सुवसु नामक पुत्र , मन -दु:ख होने से घर से निकल कर चल दिया और नागपुर पहुँचा । उसके वृहद्रथ नामक पुत्र हुआ और वह भी वहाँ से चलकर राजगृह में रहने लगा । उसकी संतति में वृहद्रथ नाम का राजा हुआ और उसका पुत्र जरासंघ हुआ । जरासंघ बड़ा पराक्रमी और प्रतापी नरेश हुआ । वह बढ़ते-बढ़ते तीन खण्ड का अधिपति -प्रतिवासुदेव हो गया । जरासंघ नरेश ने दूत भेज कर राजा समुद्रविजय को आज्ञा दी कि ; -
" वैताढ्य गिरि के निकट सिंहपुर नगर का राजा सिंहरथ है । वह विरुद्धाचारी हो गया है । इसलिए उसे बंदी बनाकर मेरे पास लाओ । मैं इस कार्य को सम्पन्न करने वाले को अपनी पुत्री कुमारी जीवयशा और एक श्रेष्ठ नगरी का राज्य दूँगा ।
दूत द्वारा जरासंघ नरेश की आज्ञा सुनकर राजकुमार वसुदेव ने पिता से , सिंहरथ पर चढ़ाई कर के जाने की आज्ञा माँगी । समुद्रविजय ने कहा - ' वत्स ! अभी तुम सुकोमल कुमार हो । युद्ध के कठोर , जटिल तथा भयानक कार्य के लिए मैं तुम्हें नहीं भेज सकता । ' किन्तु कुमार का आग्रह विशेष था , अतएव समुद्रविजय को स्वीकार करना पड़ा । उन्होंने विशाल सेना और उत्तम शस्त्रास्त्र दे कर वसुदेव को विदा किया । सिंहरथ भी तत्पर होकर युद्ध-भूमि में आ डटा । दोनों पक्षों में भारी युद्ध हुआ और सिंहरथ ने वसुदेव की सेना को हरा दिया । अपनी सेना की पराजय देखकर राजकुमार वसुदेव स्वयं रथारुढ़ हो कर आगे आया । कंस उसके रथ का चालक बना । दोनों पक्षों में विविध शस्त्रास्त्रों से भयानक युद्ध , लम्बे समय तक चलता रहा , किन्तु परिणाम तक नहीं पहुँच रहा था । कंस स्वयं निर्णायक प्रहार करने के लिए तत्पर बना । उसने एक बड़े अस्त्र का प्रहार करके सिंहरथ के रथ को नष्ट कर डाला । फिर सिंहरथ खड्ग ले कर कंस का वध करने के लिए झपटा । उस समय वसुदेव ने क्षुरप्र बाण मारकर सिंहरथ की मुष्टि का छेदन कर दिया । छल एवं बल में निपुण कंस ने तत्काल सिंहरथ पर झपट कर उसे पकड़ लिया और बांध कर वसुदेव के रथ में डाल दिया । अपने राजा को बन्दी बना देखकर सेना भाग गयी और युद्ध समाप्त हो गया । विजयी सेना , सिंहरथ को लेकर लौट गयी । विजयी राजकुमार और सेना का भव्य स्वागत के साथ राजधानी में प्रवेश हुआ ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
( 5 )
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23-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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कंस का जीवयशा से लग्न
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राजा समुद्रविजय ने एकान्त में राजकुमार वसुदेव से कहा - " पुत्र ! मुझे कोष्टुकी नामक ज्ञानी ने कहा था कि - जरासंघ की पुत्री जीवयशा अच्छे लक्षण वाली नहीं है । वह पितृकुल के लिए अनिष्टकारी होगी । इसलिए सावधान रहना है । सिंहरथ को पकड़कर लाने के उपलक्ष में जरासंघ जीवयशा का लग्न तुम्हारे साथ करेगा । अपने को इससे बचना है । कहो , कैसे बचोगे ?"
वसुदेव ने कहा -" पिताश्री ! चिन्ता की बात नहीं । सिंहरथ को कंस ने पकड़ा है । इसलिए जीवयशा उसी को मिलनी चाहिए । "
-" पुत्र ! कंस , क्षत्रिय जैसे पराक्रम वाला होकर भी वणिकपुत्र है । जरासंघ उसे अपनी पुत्री नहीं देगा , फिर क्या होगा ?
राजा ने सुभद्र सेठ को बुलाकर कंस की उत्पत्ति का हाल पूछा । सुभद्र ने कहा -" महाराज ! कंस मैरा पुत्र नहीं , यह मथुराधिपति राजा उग्रसेनजी का पुत्र है ।" उसने कंस के मिलने की सारी घटना कह सुनाई और उस पेटी में से मिली हुई दोनों मुद्रिकाएँ तथा वह पत्र दिखाया । " पत्र में लिखा था कि - " यह बालक महाराज उग्रसेन जी का पुत्र और महारानी धारिणी का अंगजात है । भयंकर दोहद उत्पन्न होने के कारण अनिष्टकारी जानकर महारानी ने अपने पति की रक्षा के हित इस बालक का त्याग किया है । "
पत्र पढ़कर समुद्रविजय ने कहा -" महाभुज कंस , यादव-कुल के महाराज उग्रसेन जी का पुत्र है । इसी से इतना बल और शौर्य है ।" उन्होंने यह सारी बात कंस को बताई और पत्र तथा मुद्रिका भी दिखाई । कंस अपने को राजकुमार जानकर प्रसन्न हुआ , किन्तु अपने को मृत्यु के मुख में धकेलने और इस हीन दशा में डिलने के कारण पिताशपर रोष जाग्रत हुआ । पूर्वभव का वैर सफल होने का समय भी परिपक्व हो रहा था ।
समुद्रविजय जी , कंस को साथ लेकर बन्दी सिंहरथ सहित जरासंघ के पास पहुँचे ।बन्दी को भेंट करने के बाद कंस के परिक्रम का बखान किया । जरासंघ ने कंस के साथ अपनी पुत्री का लग्न कर दिया । कंस ने पिता से वैर लेने के उद्देश्य से मथुरा नगरी का राज्य माँगा । जरासंघ ने उसकी माँग स्वीकार कर ली और कंस मथुरा पर अधिकार करने के लिए सेना के साथ रवाना हो गया । कंस ने मथुरा पहुँचकर राज्य पर अधिकार कर लिया और अपने पिता राजा उग्रसेनजी को बन्दी कर के पिंजरे में बन्द कर दिया ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
( 6 )
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24-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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पति के दु:ख से दु:खी महारानी का महाक्लेश in
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राजा उग्रसेन जी के अतिमुक्त आदि पुत्र थे । पिता के बन्दी बना लेने की घटना का अतिमुक्त कुमार के हृदय पर गंभीर प्रभाव पड़ा । उन्होंने संसार से उदासीन होकर निग्रर्थ-प्रवज्या स्वीकार कर ली। राज्याधिकार पा कर कंस संतुष्ट हो गया । उसने अपने पालक सुभद्र सेठ को शौर्य्य नगर से बुलाया और बहुतसा धन देकर सम्मानित किया । महाराणी धारिणी देवी अपने पति के बन्दी बनाये जाने से अत्यन्त दु:खी थी । उन्होंने कंस को समझाया -
" पुत्र ! तुझे यमुना में बहाने वाली मैं हूँ , तेरे पिता नहीं । तेरे पिताजी को तो मालूम ही नहीं कि पुत्र जीवित जन्मा । मैंने उन्हें कहला दिया था कि -मृत बालक जन्मा है और तुझे पेटी में बन्द करवा कर दासी द्वारा यमुना में बहा दिया । तेरे साथ मैंने जो पत्र रखा था , उसमें भी यही बात लिखी थी । यदि तेरा अपराध किया है , तो मैंने । तेरे पिताजी तो सर्वथा निर्दोष हैं । तू मुझे दण्ड दे । मुझे मार डाल , पर उन निर्दोष को मुक्त कर दे । "
कंस ने माता की बात नहीं मानी । रानी हताश होकर उन लोगों के घर गई - जिन्हें कंस मानता था और विश्वास करता था । उन्हें वह करुणापूर्ण स्वर में पति को मुक्त करवाने के लिए कहती , अनुनय करती और वे , कंस को समझाते , पर वह किसी की नहीं मानता । पूर्वभव का वैर यहाँ बाधक बन रहा था ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
( 7 )
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25-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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वसुदेव द्वारा मृत्यु का ढोंग और विदेश गमन
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वसुदेव जी अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक थे ।वे नगर में फिरते , तो उन्हें देखकर स्त्रियाँ मुग्ध हो जाती और विवेक-शून्य होकर उन्हें घुरती रहती । कई घर से निकल कर उनके पीछे फिरने लगती । वसुदेव जी निदान के प्रभाव से रमणीवल्लभ थे । उनका निदान सफल हो रहा था । वे अपना समय इधर-उधर घूमने और क्रीड़ा करने में व्यतीत करने लगे । नगर के प्रतिष्ठितजनों ने , वसुदेवजी के आकर्षण से स्त्रियों में व्याप्त कामुकता , मर्यादाहीनता एवं अनैतिकता से चिन्तित होकर राजा समुद्रविजयजी से निवेदन किया । राजा ने नागरिक शिष्टमंडल को आश्वासन दे कर बिदा किया और अवसर पाकर वसुदेवजी से कहा - " बन्धु ! तुम दिनभर भ्रमण करते रहते हो । इससे तुम्हारे शरीर पर विपरीत परिणाम होता है । तुम मुझे दुर्बल दिखाई दे रहे हो । इसलिए तुम भ्रमण करना बन्द करके कुछ दिन विश्राम करो और यहीं रह कर अपनी कलाओं की पुनरावृति करो तथा नवीन कलाओं का अभ्यास करों । इससे मनोरंजन भी होगा और कला में विकास भी होगा । " वसुदेव ने ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा मानी और भवन में ही रहकर गीतनृत्यादि में काल व्यतीत करने लगा । कालान्तर में कुब्जा नाम की दासी , गन्ध-पात्र लेकर उधर से निकली । वसुदेवजी ने दासी से पूछा -" क्या लिये जा रही है ? " " यह गन्ध पात्र है । महारानी शिवादेवी ने महाराज के लिए भेजा है । मैं उन्हें देने के लिए जा रही हूँ ।" वसुदेवजी ने हँसते हुए दासी के हाथ से गन्धपात्र ले लिया और कहा - " इसकी तो मुझे भी आवश्यकता है । " दासी ने कुपित होते हुए कहा -" आपके ऐसे चरित्र के कारण ही आप भवन में बन्दी जीवन व्यतीत कर रहे हैं । " दासी की बात वसुदेवजी को लग गई । उन्होंने पूछा - " क्या कहती है ? स्पष्ट बता कि मैं बन्दी कैसे हूँ ? " दासी सकुचाई और अपनी बात को छुपाने का प्रयत्न करने लगी । किन्तु कुमार के रोष से उसे बताना ही पड़ा । उसने नागरिकजनों द्वारा महाराज से की गई विंनती और फल स्वरुप वसुदेव का भवन में ही रहने की सूचना का रहस्य बता दिया । वसुदेवजी ने सोचा - ' यदि महाराज यह मानते हों कि मैं स्त्रियों को आकर्षित करने के लिए ही नगर में फिरता हूँ और इससे उनके सामने कठिनाई उत्पन्न होती है , तथा इसी के लिए उन्होंने मुझे भवन में ही रहने की आज्ञा दी है , तो मुझे यहाँ रहना ही नहीं चाहिये ।' इस प्रकार विचार कर उन्होंने गुटिका के प्रयोग से अपना रुप पलटा और वेश बदलकर चल निकले । नगर के बाहर वे श्मसान में आये । वहाँ एक अनाथ मनुष्य का शव पड़ा था और एक ओर चिता रचीं हुई थी , वसुदेवजी ने उस शव को चिता में रखकर आग लगा दी और एक पत्र लिखकर एक खम्भे पर लगा दिया , जिसमें लिखा था ;-
" लोगों ने मुझे दूषित माना और मेरे आप्तजन के समक्ष मुझे कलंकित किया । इसलिए मेरे लिए जीवन दुभर हो गया। अब मैं अपने जीवन का अन्त करने के लिए चिता में प्रवेश कर रहा हूँ । मेरे आप्तजन और नागरिकजन मुझे क्षमा करें और मुझे भुला दें ।"
पत्र खम्भे पर लगाकर , वसुदेवजी ब्राह्मण का वेश बना चल दिये । कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने एक रथ जाता हुआ देखा । उसमें दो स्त्रियाँ बैठी थी - एक माता और दूसरी पुत्री । पुत्री सुसराल से अपनी माता के साथ पीहर जा रही थी । वसुदेव को देखकर पुत्री ने माता से कहा -' इस थके हुए पथिक को रथ में बिठा लो । ' वसुदेव को रथ में बिठाया और घर आ कर भोजनादि कराया । संध्या-काल में वसुदेव वहाँ से चले और एक यक्ष के मनादिर में आ कर ठहरे ।
जब वसुदेवजी को भवन में नहीं देखा , तो खोज होने लगी । इतने में किसी मृतक का अग्नि-संस्कार करने के लिए श्मशान में गये लोगों ने खम्भे पर लगा हुआ वह पत्र देखा और हलचल मच गई। यह आघातजनक समाचार -शीघ्र महाराज समुद्रविजयजी के पास पहुँचाया गया और नगर भर में यह बात पहुँच गई कि -' वसुदेवजी ने अग्नि में प्रवेश कर आत्म-घात कर लिया। ' महाराज , राज्य-परिवार और सारा नगर शोक-सागर में डूब गया । रुदन और आक्रन्द से सारा वातावरण भर गया और वसुदेवजी की मृत्यु सम्बन्धी सभी प्रकार की उत्तर-क्रियाएँ की गई ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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26-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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वसुदेव के लग्न
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वसुदेव कुमार आगे चलते हुए विजयखेट नामक नगर में पहुँचे । विजयखेट नगर के राजा सुग्रीव के श्यामा और विजयसेना नाम की दो पुत्रियाँ थी । वे सुन्दर आकर्षक और मोहक रुप वाली थी और कलाओं में निपुण थी । उनकी प्रतिज्ञा थी कि जो पुरुष कला-प्रतियोगिता में उन्हें जीतेगा , उन्हीं को वे पति रुप में स्वीकार करेगी । वसुदेव ने उन्हें जीत लिया और उनके साथ लग्न कर लिया । उनका जीवन सुख-भोग में व्यतीत होने लगा । कालान्तर में विजयसेना पत्नी से उनके पुत्र का जन्म हुआ , जो वसुदेव के समान ही सुन्दर था । उसका नाम 'अक्रूर ' रखा । कुछ काल के बाद वसुदेव अकेले वहाँ से चल निकले और एक घोर वन में पहुँच गये । प्यास से पीड़ित होकर वे जलावर्त नाम के जलाशय के निकट आये । उधर से एक विशाल एवं मस्त हाथी दौड़ता हुआ वसुदेव के निकट आया । कुमार सँभल गये। वे इधर-उधर घूम-घूम कर चालाकी से हाथी को चक्कर देकर खंदित करते रहे , फिर सिंह के समान छलांग मारकर उसकी गर्दन पर चढ़ बैठे । वसुदेव को हाथी के साथ खेलते और सवार होते , वहां रहे हुए अर्चिमाली और पवनंजय नाम के दो विद्याधरों ने देखा । वे वसुदेव को कुंजरावर्त उद्यान में ले गये । उस उद्यान में अशनिवेग नामक विद्याधर नरेश , अपने परिवार के साथ रहते थे । वसुदेवकुमार , राजा अशनिवेग के समक्ष आये और प्रणाम किया । राजा ने कुमार को आदर सहित अपने पास बिठाया । उसके श्यामा नाम की सुन्दर पुत्री थी । राजा ने श्यामा का विवाह वसुदेव के साथ कर दिया । एकबार श्यामा ने वीणा बजाने में अपनी कला का पूर्ण परिचय दिया ।वसुलेव उसकी उत्कृष्ट कला पर मोहित हो गये और इच्छित वस्तु माँगने का आग्रह किया । श्यामा ने कहा - " यदि आप मुझ पर प्रसन्न है , तो वचन दीजिए कि आप मुझे सदैव अपने पास रखेंगे , मुझे छोड़कर कभी नहीं जावेंगे । " वसुदेव ने पूछा - " प्रिय! यह कैसी माँग है -तुम्हारी ? क्या कारण है -इसका ? " श्यामा ने कहा -
" वैताढ्य गिरि पर किन्नरगीत नगर में अर्चिमाली राजा था । उसके ज्वलनवेग और अशनिवेग नाम के दो पुत्र थे । अर्चिमाली ने ज्वलनवेग को राज्य देकर प्रव्रज्या स्वीकार की । ज्वलनवेग के अर्चिमाला नाम की रानी से अंगारक नाम का पुत्र हुआ और अशनिवेग की सुप्रभा रानी के गर्भ से मैंने जन्म लिया ।ज्वलनवेग राजा , अपने भाई अशनिवेग को राज्यभार देकर स्वर्ग सिधारे। इसके बाद ज्वलनवेग के पुत्र अंगारक ने विद्या के बल से मैरे पिता से राज्य छिनकर अपना अधिकार कर लिया । मैरे पिता ने अंगीरस नामक चारणमुनि से पूछा कि - " मुझे मैरा राज्य मिलेगा या नहीं ?" मुनिराज ने कहा -
" तेरी पुत्री श्यामा के पति के प्रभाव से तुझे राज्य मिलेगा । जलावर्त सरोवर के निकट जो युवक मदोन्मत्त हाथी को जीतकर उस पर सवार हो जायेगा , वहीं तुम्हारी पुत्री का पति होगा और वही तुझे राज्य दिलायेगा । "
मुनिराज की वाणी पर विश्वास करके मेरे पिता यहाँ चले आये और एक नगर बसाकर रहने लगे । उन्होंने जलावर्त सरोवर के निकट आपकी खोज के लिए दो विद्याधरों की नियुक्ति कर दी । इसके बाद आप पधारे और अपना लग्न हुआ । पूर्वकाल में धरणेन्द्र , नागेन्द्र और विद्याधरों ने यह निश्चय किया था कि - " जो धर्म साधना कर रहा हो , जिसके पास स्त्री हो अथवा जो साधु के समीप रहा हो , उस व्यक्ति को यदि कोई मारेगा और वह विद्यावान हुआ तो उसकी विद्या नष्ट हो जाऐगी । " इस अभिशाप के कारण मैं आपको कहीं अकेला जाने देना नहीं चाहती । पापी अंगारक , पक्का शत्रु बना हुआ है । वह घात लगाकर या छल से आपको मारने की चेष्टा करेगा । आपको कहीं नहीं जाना चाहिए । "
वसुदेव वहीं रहकर कला के प्रयोग से मनोरंजन और सुखोपभोग करते हुए काल व्यतीत करने लगा । एकदा रात्रि के समय अंगारक आया और श्यामा के साथ सोये हुए निद्रा-मग्न वसुदेव का साहरण कर ले उड़ा । वसुदेव की निंद खुली । उन्होंने अनुभव किया कि उनका हरण किया जा रहा है । उन्होंने श्यामा के मुँह जैसा अंगारक और उसके पीछे खडग लेकर रोषपूर्वक आती हुई श्यामा को देखा , जच चिल्ला रही थी - " ठहर , ओ पापी ! मैं तुझे अभी समाप्त करती हूँ । " अंगारक ने तत्काल श्यामा के दो टुकड़े कर दिये । यह देखकर वसुदेव के हृदय को आघात लगा । किन्तु तत्काल ही उन्होंने देखा कि श्यामा के शरीर के दो टुकड़े , दो श्यामा बनकल अंगारक से लड़ने लगे ।अब वसुदेव समझ गये कि यह तो सब इन्द्रजाल है । उन्होंने अंगारक के मस्तक पर जोरदार प्रहार किया । उस प्रहार से पीड़ित होकर अंगारक ने वसुदेव को छोड़ दिया , जो चम्पानगरी के बाहर के विशाल जलाशय में गिरे। वसुदेव सावधान थे ।वे हंस के समान तैरते हुए बाहर निकले और शोष रात्रि सरोवर के देवालय में व्यतीत की । प्रातःकाल होने पर वे एक ब्राह्मण के साथ नगरी में आये ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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27-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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प्रतियोगिता में विजय और गन्धर्वसेना से लग्न
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चम्पानगरी के चारुदत्त सेठ की ' गन्धर्वसेना ' नाम की सुन्दर मोहक और लावण्यवती पुत्री थी । वह गान एवं वादन-कला में प्रवीण थी ।उसने प्रतिज्ञा की थी कि जो कलाविद , मुझे संगीत-कला में जीत लेगा, वही मैरा पति होगा । उसके रति के समान अनुपम रुप ,यौवन और गुणों से आकर्षित हो कर उसे प्राप्त करने की इच्छा से कई देशी-विदेशी युवक संगीत-कला का अभ्यास करने लगे थे । उस नगरी में सुग्रीव और यशोग्रीव नाम के दो संगीताचार्य रहते थे । प्रत्याशी युवक उन्हीं के पास अभ्यास करते थे और वे ही प्रतियोगिता के निर्णायक भी थे । वसुदेव भी प्रत्याशी बनकर संगीताचार्य सुग्रीव के समीप गये । उन्होंने अपना रुप एक मसखरे जैसा बना लिया था । संगीताचार्य के समीप पहुँच कर उन्होंने एक असभ्य गँवार-सा डौल करते हुए कहा ;- " गुरुजी ! मैं गौतम गोत्रीय ब्राह्मण हूँ । स्कन्दिल मैरा नाम है । मैं गन्धर्वसेना के साथ लग्न करना चाहता हूँ । । आप मुझे संगीत-कला सिखाइये । " आचार्य ने एक गँवार जैसे लटपट वेशवाले असभ्य युवक को देखकर उपेक्षा से मुँह मोड़ लिया । अभ्यास करने वाले युवक , इस अनोखें अनघड़ प्रत्याशी को देखकर हँसने लगे किन्तु वसुदेव तो वहीं जम गए और ग्राम्यजन योग्य वचनों से सहपाटियों को हँसाते हुए काल व्यतीत करने लगे । संगीताचार्य की पत्नी वसुदेव के हँसोड़पन से प्रभावित होकर , पुत्र के तुल्य वात्सल्य भाव रखने लगी । मासिक परीक्षा का दिन आया । आचार्यपत्नी ने सुग्रीव को अपने पुत्र के वस्त्र धारण करने को दिये । वसुदेव ने अपने पास के वस्त्र और गुरु-पत्नी के दिए हुए वस्त्र पहिने और सभा-स्थान पर आया ।वसुदेव की हास्यास्पद वेशभूषा और बोलचाल से सभी सभासद एवं दर्शक प्रभावित हुए । उन्हें मनोरंजन का एक साधन मिल गया । लोगों ने वसुदेव का व्यंगपूर्वक आदर किया और कहा - " हां भाई ! तुम हो भाग्यशाली । तुम्ही जीतोगे और गन्धर्वसेना तुम्हारे साथ ही लग्न करेगी । " वसुदेव भी तत्काल बोले - " इस सारी सभा में मेरे समान और हैं ही कौन , जो गन्धर्वसेना के योग्य पति हो सके ? " लोग हँसे और बोले - " अवश्य , अवश्य । तुमसे बढ़कर और है ही कौन ? जाओ आगे बैठो"- कहते हुए न्यायाचार्य के समीप ही बिठा दिया । वे भी लोगों का मन लुभाने लगे। इतने में देवांगना के समान उत्कृष्ट रुपधारिणी गन्धर्वसेना सभा में उपस्थित हुई । सभा का वातावरण एकदम शान्त हो गया । प्रतियोगिता प्रारंभ हुई । थोड़ी ही देर में अन्य सभी प्रत्याशी परास्त हो गये । अंत में वसुदेव की बारी आई। उन्होंने अब तक अपना वास्तविक रुप बना लिया था । गन्धर्वसेना की दृष्टि वसुदेव पर पड़ी , तो वह प्रभावित हो गयी। कुमार को सभागृह से बजाने के लिए एक वीणा दी गयी । उस वीणा को देखते ही कुमार ने लौटाते हुए कहा- " यह दूषित है । " इसी प्रकार जितनी वीणा दी गई, उनमें कुछ-न-कुछ दोष बताकर लौटा दी गई । अन्त में गन्धर्वसेना ने अपनी वीणा दी। कुमार ने उसे देख-परख कर सज्ज की ओर पूछा - " शुभे ! क्या मुझे इस वीणा के साथ गायन भी करना पड़ेगा ?" गन्धर्वसेना ने कहा - " हे संगीतज्ञ ! पद्म चक्रवर्ती के ज्येष्ठ-बंधु विष्णुकुमार मुनि द्वारा रचित त्रिविक्रम सम्बन्धी गीत इस वीणा में बजाइए । "
कुमार वीणा बजाने लगे । उन्होंने इस प्रकार वीणा द्वारा उस गीत को राग दिया कि जैसे साक्षात सरस्वती हो । सभासद , दर्शक , संगीताचार्य और गन्धर्वसेना सभी मुग्ध हो गये । कुमार का विजय-घोष हुआ । अन्य सभी प्रतियोगी हताश होकर लौट गए । चारुदत्त सेठ , कुमार को सम्मानपूर्वक अपने घर लाया और शुभ मुहूर्त में विवाह सम्पन्न होने लगा । विवाह-विधि के समय चारुदत्त ने कुमार से पूछा - " आपका गात्र क्या है ? मैं क्या कहकर संकल्प करुँ ।? " वसुदेव ने कहा - " जो आपको अच्छा लगे । " सेठ ने कहा - " आप इसे वणिक-पुत्री जान कर हँसते होंगे , किन्तु मैं इसका वृत्तांत आपको फिर सुनाऊँगा । " लग्न सम्पन्न हो गया । इसके बाद दोनों संगीताचार्यों ने भी अपनी श्यामा और विजया नाम की पुत्रियाँ वसुदेव के साथ ब्याह दी ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
(10)
U
28-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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चारुदत्त की कथा
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गन्धर्वसेना का वृतांत सुनाते हुए चारुदत्त सेठ ने वसुदेव से कहा ;- इस नगरी में भानुदत्त नाम के एक धनवान सेठ रहते थे । पुत्र-लाभ नहीं होने के कारण वे चिन्तित रहते थे । एक बार उन्होंने एक चारण मुनि से पूछा। उन्होंने कहा- " तुझे पुत्र-लाभ होगा । "कालान्तर में मैरा जन्म हुआ । यौवनवय में मैं अपने मित्र के साथ समुद्र-तट पर गया । मैने देखा कि भूमि पर किसी आकाशगामी के पाँवों की आकृति अंकित है । उसे एक पुरुष और एक स्त्री के सुन्दर चरण चिन्ह दिखाई दिये । वह उन पद-चिन्हों के अनुसार आगे बढ़ा । एक उद्यान के कदलीगृह में उसने एक पुष्य-शैया देखी , जिसके समीप ढाल और तलवार रखे हुए थे । उसके समीप ही एक मनुष्य को , एक वृक्ष के साथ लोहे की कीलें ठोक कर जकड़ा हुआ देखा । जो तलवार उसके पास रखी थी , उसके कोश( म्यान) के साथ तीन औषधियाँ बंधी हुई थी ।मैंने अपनी बुद्धि से सोच कर उनमें से एक औषधी निकाली और उसका प्रयोग कर , उस पुरुष के अंग पर लगी हुई कीलें निकाल कर उसे वृक्ष से पृथक किया । दूसरी औषधी से उसके शरीर के घाव भर दिये और तीसरी औषधी से उसकी मूर्च्छा दूर करके सावचेत कर दिया । वह पुरुष सावधान हो कर मेरा उपकार मानता हुआ बोला ;-
" मैं वैताढ्यगिरि के शिवमन्दिर नगर के विद्याधर नरेश महाराज महेन्द्रविक्रम का पुत्र अमितगति हूँ । मैं अपने मित्र धूमशिख और गौरमुण्ड के साथ क्रीड़ा करने के लिए हीमवान पर्वत पर गया । वहाँ मैरे तपस्वी मामा हिरण्यरोम की पुत्री सुकुमालिका दिखाई दी । वह अत्यन्त रुपवती एवं मन-मोहक थी । मैं उसे देखकर कामातुर हो गया और अपने घर चला आया । मैं उदास रहने लगा । मैरे पिता , मैरी उदासी एवं चिन्ता-मग्न दशा देखकर सोच में पड़ गये । उन्होंने मुझसे चिन्ता का कारण पूछा, किन्तु मैं मौन रहा । मैरे मित्र ने उन्हें कारण बता दिया ।फिर पिताजी ने मैरा विवाह सुकुमालिका के साथ कर दिया । मैं सुखभाग पूर्वक जीवन बिताने लगा । मेरे मित्र धूमशिख की दृष्टि मैरी पत्नी सुकुमालिका पर पड़ी । वह उस पर मोहित हो गया । मैने उसकी दृष्टि में विकार देखा था , फिर भी मैने अपनी मित्रता में कमी नहीं आने दी । मैं अपनी पत्नी के साथ वन-विहार करता हुआ यहाँ आया और आमोद-रत था कि वह कुमित्र यहाँ आया और अचानक आक्रमण करके मुझे इस वृक्ष के साथ कीलें ठोक कर जकड़ दिया और मैरी पत्नी का हरण करके ले गया । मैं अचानक आई हुई इस विपत्ति और पीड़ा से बेभान हो गया और कदाचित् मर भी जाता ,किन्तु आपने ऐसी विकट परिस्थिति और भयंकर दुर्दशा में से मुझे बचाया और जीवनदान दिया । आप मैरे महान उपकारी है । कहिये , मैं आपका क्या हित करुँ , जिससे कुछ मात्रा में भी ॠण-मुक्त बनूँ ।
" महानुभाव ! मैं तो आपके दर्शन से ही कृतार्थ हो गया । अब मुझे कुछ भी आवश्यकता नहीं है । " इतना सुनने पर वह विद्याधर मुझे प्रणाम कर आकाश में उड़ कर चला गया और मैं अपने घर गया । कालान्तर में मैंरा विवाह मेरे मामा की पुत्री मित्रवती के साथ हो गया । मैं कला में अधिक रुचि रखता था , इससे मेरी रुचि भोग की ओर नहीं लगी । मुझे स्त्री में अनासक्त जानकर मेरे पिता चिंतित हुए । उन्होंने मुझे श्रृंगार-रस की ललित- क्रियाओं में लगाया । मैं स्वेच्छाचारी बना और एक दिन कलिंगसेना वेश्या की पुत्री बसंतसेना के सहवास में पहुँच गया । वहाँ मैं बारह वर्ष रहा और बाप की कमाई का सोलह करोड़ स्वर्ण उड़ा दिया । अंत में निर्धन जानकर , कलिंगसेना ने मुझे अपने आवास से निकाल दिया । बसंतसेना का मुझ पर प्रगाढ़ स्नेह था । किंतु माता के आगे उसकी एक नहीं चली । वह छटपटाती रही और मैं उससे बिछुड़ गया । मैं घर आया , तब मालूम हुआ कि माता-पिता तो कभी के स्वर्गवासी हो गये हैं और घर में दरिद्रता पूरी तरह छा गई हैं । मैने अपनी पत्नी के गहने बेचकर व्यापार के लिए धन प्राप्त किया और मामा के साथ उशीरवर्ती नगरी आया । वहाँ मैंने कपास खरीदा । कपास लेकर मैं ताम्रलिप्तिनगरी जा रहा था कि मार्ग में लगे हुए दावानल में सारा कपास जल गया और मैं फिर से निराधार बन गया । मैरे मामा ने मुझे दुर्भागी जानकर छोड़ दिया । इसके बाद मैं घोड़े पर बैठकर अकेला ही पश्चिम दिशा की ओर चला , किन्तु मैरा दुर्भाग्य अभी उन्नति पर बढ़ रहा था , तो थोड़ी ही दूर गया हुँगा कि मैरा घोड़ा मर गया । अब मैं अपना सामान उठाकर पैदल ही चलने लगा । कहाँ तो मैं दिन-रात सुख-भोग में ही लीन रहने वाला और कहां मेरी यह सर्वथा निराधार अवस्था । मैं भूख-प्यास से पीड़ित और चलने के श्रम से थका हुआ क्लान्त, दु:खी अवस्था में प्रियंगु नगर में पहुँचा । यह नगर व्यापार का केन्द्र था । वहाँ मेरे पिता के मित्र सुरेन्द्रदत्त रहते थे । वे मुझे अपने घर ले गये और भोजन तथा वस्त्र से संतुष्ट किया । वहाँ पुत्र के समान मेरा पालन किया जाने लगा । फिर उनसे एक लाख द्रव्य ब्याज पर लेकर मैं व्यापार में लगा । मैंने कुछ चीजें खरीदी और जहाज भरकर विदेश चला गया । मैंने कई ग्रामों में जाकर व्यापार किया और आठ कोटि स्वर्ण उपार्जन किया । फिर मैंने अपना समस्त द्रव्य जहाज में भरकर
के लिए प्रस्थान किया । इस समय मेरा दुर्भाग्य फिर जागा और जहाज टूटकर डूब गया । मैं एक पटिये के सहारे तैरता हुआ सात दिन में किनारे लगा । राजपुर नगर वहाँ से निकट ही था । उसके बाहर उद्यान में झाड़ी बहुत थी । मैं भूखा-प्यासा और समुद्र में हुई दुर्दशा से अत्यंत अशक्त था , सो उस झाड़ी में एक ओर पड़ गया । मेरे निकट ही दिनकरप्रभ नामक त्रिदण्डी सन्यासी था । वह मेरी ओर आकर्षित हुआ । उसने मेरा हाल पूछा , तो मैंने उसे अपना पूरा वृतान्त सुना दिया । सन्यासी मुझ पर प्रसन्न हुआ और मुझे पुत्र के समान रखने लगा ।
एक दिन सन्यासी ने मुझसे कहा -" वत्स ! तू धन का इच्छुक है और धन के लिए ही इतने भयंकर कष्टों का सामना करता है। तू मेरे साथ चल । उस पर्वत पर मैं तुझे ऐसा रस दूँगा कि जिससे तू करोड़ों स्वर्ण द्रव्य बना सकेगा । तेरा समस्त दारिद्र दूर हो जायेगा । " सन्यासी के वचन मुझे अमृत के समान लगे । मैं उसके साथ चल दिया और ऐसी अटवी में पहुँचा जिसमें अनेक सन्यासी रहते थें । वहाँ से हम पर्वत पर चढ़े । पर्वत पर एक गुफा दिखाई दी , जो अनेक प्रकार के यन्त्रों से वेष्ठित शिलाओं से युक्त थी । उस गुफा में एक बहुत ही ऊँडा कुआँ था । 'दुर्ग पाताल ' उसका नाम था । त्रिदण्डी ने मंत्रोच्चारण करके उस गुफा का द्वार खोला और हम दोनों ने उसमें प्रवेश किया । हम उसमें रसकूप की खोज करते रह
बहुत खोज करने के बाद हमें एक रसकूप दिखाई दिया । उसका द्वार चार हाथ लंबा -चौड़ा और नरक के द्वार जैसा भयंकर था । त्रिदण्डी ने मुझसे कहा ;- " तू इस मंचिका पर बैठ कर , इस रसकूप में उतर जा और तुम्बी भरकर रस ले आ ।" उसने एक मंचिका के रस्सी बाँधी और मुझे बिठाकर तथा तुम्बी देकर रसकूप में उ
। मैं लगभग चार पुरुष प्रमाण ऊँडा उतरा कि मुझे उसमें चक्कर लगाती हुई मेखला ( चक्र जैसी गोलाकार वस्तु ) और उसके मध्य में रहा हुआ रस दिखाई दिया । मैं रस लेना ही चाहता था कि मेरे कानों में एक ध्वनि आई । मैंने सुना कि कोई मुझे रस लेने का निषेध कर रहा हैं । मैंने निषेधक से कहा -
" मैं चारुदत्त नाम का व्यापारी हूँ । महात्मा त्रिदण्डी ने मुझे रस लेने के लिए इस कूप में उतारा हैं । तुम निषेध क्यों कर रहे हो ?"
-" भाई ! मैं खुद धनार्थी व्यापारी हूँ । उस पापात्मा त्रिदण्डी ने ही मुझे बलिदान के बकरे के समान इस कूप में डाल दिया और वह मुझे यहीं छोड़कर चल दिया । मेरा सारा शरीर इस रस से गल गया है । मैं तो दु:खी हो ही रहा हूँ । मेरी मृत्यु निश्चित है और थोड़े काल में ही होने वाली है । तू इस रस के हाथ मत लगा और अपनी तूंबड़ी तू मुझे दे । मैं रस से भर कर तुझे दे दूँगा । फिर तुम ऊपर जाओ, तो तूम्बी उसे मत देना और अपने को बाहर निकालने का आग्रह करना । यदि रस-तूम्बी फहले दे दी , तो वह तुम्हें कुएँ में डाल देगा और मेरे जैसी ही दशा तुम्हारी होगी । वह बड़ा पापी और धूर्त है ।"
मैंने उसे तूम्बी दे दी । उसने रसभर कर तूम्बी मेरी मंचिका के नीचे बाँध दी । इसके बाद मैने रस्सी हिलाई , जिससे त्रिदण्डी ने मंचिका खिंची । मैं कुएँ के मुँह के निकट आया। त्रिदण्डी ने मुझसे रस-तूम्बी माँगी । मैंने उससे कहा -" पहले मुझे बाहर निकालो । " किन्तु उसने पहले तूम्बी देने का आग्रह किया । मैने तूम्बी नहीं दी । जब वह बहुत ही हठ करने लगा , तो मैने तूम्बी का रस उसी कुएँ में डाल दिया । त्रिदण्डी ने क्रूद्ध होकर मुझे मंचिका सहित कुएँ में डाल दिया । भाग्य-योग मैं उसी वेदिका पर पड़ा । मुझे गिरा हुआ देखकर उस अकारण-मित्र ने कहा -" भाई ! चिन्ता मत करों । यह अच्छा ही हुआ कि तुम रस में नहीं गिर वेदिका पर पड़े । यदि भाग्य ने साथ दिया , तो तुम इस कूप से बाहर निकल सकोगे। यहां एक गोह ( गोधा - एक भुजपरिसर्प प्राणी ) आती है, यदि तुमने उसकी पूछ पकड़ ली , तो ऊपर पहुँच कर सुखी हो सकोगे । " मैं उसके वचन सुनकर आश्वस्त हुआ और नमस्कार महामंत्र का स्मरण करता हुआ काल व्यतित करने लगा । मेरा वह अनजान हितेषी , मृत्यु को प्राप्त हुआ । कुछ काल बाद मुझे एक भयानक आहट सुनाई दी । मैने चौक कर देखा , तो एक गोह आ रही थी । मुझे उस मनुष्य की बात याद आई । जब गोधा रस पी कर लौटने लगी , तो मैने दोनों हाथों से उसकी पूँछ पकड़ ली । जिस प्रकार गाय की पूँछ पकड़कर ग्वाला , नदी को प्यार कर लेता है , उसी प्रकार मैं भी गोधा की पूँछ पकड़ कर कुएँ से भाहर निकल आया और बाहर आते ही पूँछ छोड़ दी । थोड़ी देर तो मैं अचेत होकर भूमि पर पड़ा रहा । फिर सचेत होकर मैं इधर-उधर फिरने लगा । इतने में एक मस्त जंगली भैंसा भागता हुआ उधर आया । मैं उसे देखकर भय के मारे एक शिला-खंड पर चढ़ गया । भैंसा क्रोधपूर्वक उस शिलाखंड पर अपने सींग से प्रहार करने लगा । इतने में उस शिला-खंड के पास से एक बड़ा भुजंग निकला और भैंसे पर झपटा । वह भैंसे पर लिपट गया और अपने विशाल फण से प्रहार करने लगा । भैंसा भी भानभूल हो कर सर्प से छुटकारा पाने की भरसक चेष्टा करने लगा । मैं इस अवसर का लाभ लेकर वहां से भागा । भागते-भागते मैं अटवी को पार कर एक गाँव के निकट पहुँचा । उस गाँव में मेरे मामा का मित्र रुद्रदत्त रहता था । रुद्रदत्त ने मुझे अपनाया । मैं उसके घर रहकर अपनी दशा सुधारने लगा । कुछ ही दिनों में मैं पूर्ण स्वस्थ्य हो गया ।
यहाँ से मैं अपने मामा के मित्र के साथ सुवर्णभूमि जाने के लिए थोड़ा द्रव्य उधार ले कर चल दिया । मार्ग में इषुवेगवती नामक नदी थी । उस नदी को उतर कर हम गिरीकूट पहुँचे । वहाँ से आगे हमने बरु के वन में प्रवेश किया और आगे बढ़कर टंकण देश में आकर दो मेंढ़े ( भेड़ जाति के पशु ) लिये । उन मेंढ़ों पर सवार होकर हम ' अजमार्ग ' ( बकरा चले वैसा रास्ता ) पर चले । अजमार्ग पार कर के आगे बढ़ने पर हमने देखा कि अब पाँवों से चलने जैसा मार्ग भी नहीं है । रुद्रदत्त ने कहा - " अब इन मेंढ़ों की हमें कोई आवश्यकता नहीं , इसलिए इनको मारकर इनका अन्तरभाग उलट दें और खाल अपने शरीर पर लपेट कर बाँध लें । जब भारण्ड पक्षी यहाँ आवेंगे , तो मांस के लोभ में हमें उठालेंगे और ले जाकर स्वर्णभूमि पर रख देंगे । इस प्रकार हम सरलता से पहुँच जावेंगे । " रुद्रदत्त की बात सुनकर मैंने कहा - " नहीं , ऐसा नहीं करना चाहिए । जिन प्राणियों की सहायता से हम विषम-मार्ग पार कर यहाँ तक पहुँचें, उन उपकारी प्राणियों को मार डालना महापाप है । " रुद्रदत्त ने मैरी बात नहीं मानी और बोला ; - " ये दोनों भेड़ तेरे नहीं मैरे हैं । तू मुझे नहीं रोक सकता । " इतना कहकर तत्काल उसने एक मेंढ़ें को मार डाला । यह देखकर दूसरा मेंढ़ा भयपूर्ण दृष्टि से मैरी ओर देखने लगा । मैने उससे कहा-" मैं तेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हूँ । मैं तुझे नहीं बचा सकता । तू जिनधर्म का शरण लेऔर शान्त मन से धर्म का चिन्तन कर । इससे तू मर कर भी सुखी हो जाएगा। " मेंढ़ा मैरी बात समझ गया और धैर्यपूर्वक खड़ा रहा । मैं उसे नमस्कार महामंत्र सुनाने लगा । क्रूर-प्रकृति रुद्रदत्त ने उस मेंढ़ें को भी मारडाला । वह मेंढ़ा शुभ भावों में मरकर देव हुआ ।फिर मेंढ़ों की खाल उलट कर हमने ओढ़ ली और बैठ गये । तत्पश्चात् वहां दो भारण्ड पक्षी आये और मांस-पिण्ड समझकर उन्होंने-एक एक ने -हम एक-एक को उठाया और उड़ गये । आगे चलते हुए वे दोनों आकाश में ही लड़ने लगे । इस झगड़े में मैं उस पक्षी की पकड़ से छूट गया और एक सरोवर में गिरा । मैंने तत्काल छूरी से उस चमड़े को काटकर पृथक किया और तैर कर सरोवर के किनारे आया । इसके बाद मैं वहाँ से चलकर एक पर्वत पर गया । पर्वत पर ध्यानस्थ रहे हुए मुनि को देखकर मैंने उनकी वंदना की । उन्होंने मुझे देखकर कहा ;-
" चारुदत्त ! इस दुर्गम स्थान पर कैसे आए ? यहाँ पक्षी , विद्याधर और देव के सिवाय कोई पादचारी तो आ ही नहीं सकता । मुझे पहिचाना ? मैं वही अमितगति हूँ , जिसे तुमने कीलें निकाल कर बचाया था । मैं वहाँ से उड़कर अपने शत्रु के पीछे पड़ा और अष्टापद पर्वत के निकट आया । मुझे देखकर वह दुष्ट मेरी पत्नी को छोड़कर भागा और पर्वत पर चला गया । मेरी पत्नी उस दुष्ट से बचने के लिए पर्वत पर से गिरकर प्राण देने को तत्पर थी । मुझे देखकर वह प्रसन्न हुई । मैं उसे लेकर राजधानी में आया । मेरे पिता ने मुझे राज्य देकर , हिरण्यगर्भ और सुवर्णगर्भ नाम के चारणमुनि के पास दीक्षा ली । मेरी मनोरमा पत्नी से मुझे सिंहयश और वराहग्रीव नाम के दो पुत्र हुए । ये ही पराक्रमी एवं वीर हैं । विजयसेना नाम की दूसरी रानी से मेरे एक पुत्री हुई , जिसका नाम गन्धर्वसेना है और वह उत्तम रुप-लावण्य सम्पन्न तथा गायन-विद्या में निपुण है । मैने बड़े पुत्र को राज्य और छोटे को युवराज पद दिया और अपने पिता गुरु के पास प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । यह लवणसमुद्र के मध्य कंभकंटक द्वीप का कर्केटक पर्वत है । मैं यहाँ तपस्या कर रहा हूँ । अब तुम बताओ, यहाँ कैसे आये ? "
चारुदत्त ने अपना वृतान्त सुनाया । इतने में दो विद्याधर वहाँ आ पहुँचे, जो मुनिराज जैसे ही रुप-सम्पन्न थे । उन्होंने महात्मा को प्रणाम किया । मैंने आकृति देखकर समझ लिया कि ये दोनों इन महात्मा के पुत्र हैं । महात्मा ने उन्हें मेरा परिचय कराया । उन दोनों ने मुझे प्रणाम किया । हम बातें करते थे कि इतने में एक विमान उतरा । उसमें से एक देव ने उतर कर पहले मुझे प्रणाम किया और फिर मुनि को वंदना की विद्याधर बन्धुओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ । उन्होंने देव से वंदना के उल्टे क्रम का कारण पूछा । देव ने कहा ;- " यह चारुदत्त मेरा धर्माचार्य है । इसने मेंढ़ें के भव में मुझे धर्म प्रदान किया था । इसी से में देव-ऋद्धि पाया और इस उपकार के कारण मैंने इन्हें प्रथम प्रणाम किया । "
मेंढ़ें के जीव -देव ने चारुदत्त को प्रथम वंदन करने के कारण के साथ , अपना पूर्वभव बतलाते हुए कहा ;- काशीपुर में दो सन्यासी रहते थे । उनके सुभद्रा और सुलसा नाम की दो बहिनें थी । वे दोनों विदुषी वेद और वेंदांग में पारंगत थीं । उन्होंने बाद में बहुत से वादियों को पराजित किया था । एक बार याज्ञवल्यक्य नाम का सन्यासी उनके साथ वाद करने आया उनमें आपस में प्रतिज्ञा हुई कि " जो वाद में पराजित हो जाय , वह विजेता का दास बन कर रहेगा । " वाद प्रारम्भ हुआ , उसमें याज्ञवल्यक्य की विजय हुयी और सुलसा पराजित होकर दासी बन गई । तरुणी सुलसा पर , नवीन तरुण्य प्राप्त याज्ञवल्यक्य मोहित होकर काम-क्रीड़ा करने लगा । कालान्तर में याज्ञवल्यक्य के संयोग से सुलसा के पुत्र जन्मा । लोक-निन्दा के भय से वे पुत्र को पीपल के पेड़ के नीचे सुला कर अन्यत्र चले गये । सुभद्रा ने सुलसा के पुत्र जन्म और उस पुत्र का त्याग कर पलायन करने की बात सुनी , तो वह उस पीपल के पेड़ के पास आई । उस समय एक पका हुआ पीपल-फल , बच्चें के मुँह में गिर पड़ा था और वह मुँह चलाकर उसे खाने का उपक्रम कर रहा था । बच्चे को इस दशा में देखकर सुभद्रा ने उठा लिया और पीपल के वृक्ष के नीचे , पीपल फल खाते हुए मिलने के कारण बच्चे का नाम " पिप्लाद " रखा । सुभद्रा के द्वारा यत्नपूर्वक पोषण पाया हुआ पिप्लाद बड़ा हुआ और विद्याभ्यास से वेद विद्या का महापंडित हो कर समर्थ वादी बन गया । उसने बहुत से वादियों को वाद में जीत कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली । उसकी कीर्ति चारों ओर व्याप्त हो गयी । जब याज्ञवल्य ने उसकी ख्याति सुनी तो वह भी सुलसा को साथ लेकर वाद करने आया और वाद में दोनों पति-पत्नी पराजित हो गये । पिप्लाद को ज्ञात हुआ कि ये दोनों मैरे माता-पिता हैं और मुझे जन्म के बाद ही वन में छोड़कर चले गये थे , तो उसे उन पर क्रोध आया । उसने माता-पिता से वैर लेने के लिए ' मातृमेघ' और ' पितृमेघ ' यज्ञ की स्थापना का और दोनों को मारकर होम दिया । मैं उस समय पिप्लाद का ' वाकबलि' नाम का शिष्य था । मैने पशुबलि में अनेक पशुओं का वध किया और फलस्वरुप घोर नरक में गया । नरक में से निकलकर मैं पाँच बार भेंड़ -बकरा हुआ और पाँचों बार ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ में मारा गया । इसके बाद में टंकण देश में मेंढ़ा हुआ । वहाँ मुझे इनके साथी रुद्रदत्त ने मारा , किन्तु इन चारुदत्त जी की कृपा से मुझे धर्म की प्राप्ति हुई और मैं देवगति को प्राप्त हुआ । चारुदत्त जी ही मैरे धर्मगुरु हैं । इन्हीं की कृपा से मैने धर्म पाकर देवभव पाया । इस महोपकार के कारण मेरे लिए ये सर्व-प्रथम वन्दनीय है । मैने इन्हें उस उपकार के कारण ही -मुनिराज से भी पहले -वन्दन किया है ।"
देव का पूर्वभव सुनकर दोनों विद्याधरों ने कहा-" चारुदत्त महाशय तो हमारे लिए भी वन्दनीय हैं । इन्होंने हमारे पिताश्री को भी जीवन-दान दिया है ।"
देव ने चारुदत्त से कहा-" महानुभाव ! कहिये मैं आपका कौनसा हित करुँ ? " चारुदतूत ने कहा-" अभी तो कुछ नहीं , परंतु जब मैं तुम्हें स्मरण करुँ , तब तुम आकर मुझे योग्य सहायता देना । " चारुदत्त की बात स्वीकार कर , देव यथास्थान चला गया । इसके बाद वे दोनों विद्याधर भ्राता मुझे ( चारुदत्त को ) लेकर शिवमन्दिर नगर आये । वहाँ विद्याधरों की माता सुकुमालिका ने मेरा बहुत आदरपूर्वक स्वागत किया और अपन स्वजन-परिजनों के समक्ष मेरे द्वारा बचाए हुए विद्याधरपति महाराज अमितगति का वर्णन सुनाया । सभी लोग मैरा बहुत आदर और सम्मान करने लगे । मैं बहुत दिनों तक वहाँ आनन्दपूर्वक रहा , एक दिन उन्होंने अपनी बहिन राजकुमारी गन्धर्वसेना का परिचय देते हुए कहा ;-
" पिताजी ने प्रव्रज्या ग्रहण करने के पूर्व हमें कहा था कि- " मुझे एक ज्ञानी ने कहा था;- इस कन्या को कला-प्रदर्शन में जीतकर , भूचर मनुष्य वसुदेवकुमार ग्रहण करेंगे । इसलिए मैरे भूचर मित्र चारुदत्त को इसे दे देना , जिससे कि वे इसका वसुदेवकुमार के साथ लग्न कर दें । इसलिए इसको आप अपनी ही पुत्री समझकर साथ ले जाइए। " मैं गन्धर्वसेना को ले कर अपने घर आने को ततापर हुआ । मेरे स्मरण करने पर देव उपस्थित हुआ और अमितगति के दोनों पुत्र , अपने साथियों सहित गन्धर्वसेना को लेकर आकाशमार्ग से मुझे यहाँ लाये । देव और विद्याधर , मुझे करोड़ों स्वर्ण , रत्न, मोती आदि से समृद्ध बनाकर चले गये । दूसरे दिन मैं अपने मामा , मेरी मित्रवती पत्नी और वेणीबन्ध रहित मेरी प्रेमिका वेश्या बसंतसेना से मिला और हम सब सुखी हुए । हे कुमार वसुदेवजी ! यह गन्धर्वसेना की कथा है । यह मैरी पुत्री नहीं , किनुतु विद्याधर नरेश अमितगति की राजकुमारी है । आप इसकी अवज्ञा नहीं करें ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
(11)
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29-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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वसुदेवजी का हरण और नीलयशा से लग्न
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इस प्रकार चारुदत्त से गन्धर्वसेना का वृतान्त सुनकर वसुदेव संतुष्ट हुए और गन्धर्वसेना के साथ क्रीड़ा करने लगे । एक बार वसंतॠतु में वसुदेव , गन्धर्वसेना के साथ रथारुढ़ होकर क्रीड़ा करने के लिए उद्यान में गए । उन्होंने देखा- एक मातंग युवती अपने अनेक साथियों के साथ बैठी है । मातंगकुमारी का रुप देखकर कुमार मोहित हो गए और वह सुन्दरी भी कुमार पर मुग्ध हो गई । दोनों एक-दूसरें को अनिमेष दृष्टि से देखने लगे । गन्धर्वसेना यह देखकर रुष्ट हुई और रथ-चालक से बोली-" रथ की चाल तेज करो ।" वहाँ से आगे बढ़कर वे उपवन में पहुँचे और क्रीड़ा करने के बाद नगर में आये । उसी समय एक वृद्धा मातंगी , वसुदेव के समीप आई और आशिष दे कर कहने लगी ; -
" बहुत काल पहले भगवान ऋषभदेवजी ने राज्य का विभाग करके अपने पुत्रों को दे दिया और प्रव्रजित हो गए । उनके संसार - त्याग के बाद नमि और विनमि , भगवान के पास वन में गये और राज्य का हिस्सा प्राप्त करने के लिए सेवा करने लगे । उनकी सेवा से प्रसन्न हो कर धरणेन्द्र ने दोनों को वैताढ्य की दो श्रेणियों का राज्य दिया । दोनों ने राज्य-सुख भोगनें के बाद अपने पुत्रों को राज्य देकर प्रव्रज्या अंगीकार कर ली और मुक्ति प्राप्त की । नमि राजा के पुत्र का नाम मातंग था । वह भी दीक्षा लेकर स्वर्ग पहुँचा । उसकी वंश-परम्परा में अभी प्रहसित नाम का विद्याधर राजा है । मैं उसकी हिरण्यवती नाम की रानी हूँ । मैरा पुत्र सिंहदृष्ट है और उसकी पुत्री का नाम नीलयशा है । उस नीलयशा को ही आपने आज उद्यान में देखा है । नीलयशा ने आपको जबसे देखा है , तभी से वह आप पर मुग्ध है । इसलिए आप उसे अपनी पत्नी बना कर उसकी इच्छा पूरी करें । इस समय मुहूर्त भी अच्छा हैं । वह विलम्ब सहन नहीं कर सकती । आप शीघ्रता करें और विरह से उत्पन्न खेद को मिटावें । "
वसुदेव ने कहा -" मैं तुम्हारी बात पर विचार करुँगा । तुम बाद में आना । "
- " अब मैं आपके पास आऊँगी, या आप उसके पास पहुँचेगे , यह तो भविष्य ही बताएगा । " -कहकर मातंगिनी चली गई ।
ग्रीष्म ऋतु का समय था । वसुदेव, गन्धर्वसेना के साथ सोये हुए थे कि एक प्रेत ने वसुदेव का हरण कर लिया और उन्हें एक वन में ले गये । वहाँ उन्होंने देखा -एक ओर चिता रची हुई है और दूसरी ओर भयानक रुप वाली वह हिरण्यवती विद्याधरी खड़ी है । हिरण्यवती ने उस प्रेत से आदरपूर्वक कहा - " चन्द्रवदन ! अच्छा किया तुमने ।" चन्द्रवदन , वसुदेव कुमार को हिरण्यवती को सौंपकर अन्तर्ध्यान हो गया । हिरण्यवती ने हँसकर वसुदेव का स्वागत किया और पूछा - ' कुमार ! कहों क्या विचार है-तुम्हारा ? मेरा कहना मानो और नीलयशा को ग्रहण करों " उसी समय अनेक सुन्दरियों के साथ नीलयशा वहां आई । वह लक्ष्मी के समान सुसज्जित थी । हिरण्यवती ने कहा-" पौत्री ! यह तेरा पति है । तू इसे ले चल । " नीलयशा उसी समय वसुदेव को लेकर अपनी दादी और अन्य साथियों के साथ आकाश-मार्ग से चली । प्रातःकाल होने पर हिरण्वती खेचरी ने वसुदेव से कहा - " यह मेघप्रभः वन में व्याप्त ह्यीयमान पर्वत है । चारणमुनि यहाँ पधारते और ध्यान करते रहते है । यहाँ ज्वलनप्रभः विद्याधर का पुत्र अंगारक , विद्याभ्रष्ट होकर पुनः साधना में रत है । वह पुनः विद्याधरों का अधिपति होना चाहता है । अब उसे विद्या सिद्ध होगी भी विलम्ब से ही । यदि आप उसे दर्शन दे दें , तो आपके प्रभाव से उसको शीघ्र ही विद्या सिद्ध हो जायेगी । " वसुदेव ने इन्कार करते हुए कहा - " मैं अंगारक को देखना भी नहीं चाहता । " हिरण्यवती उसे वैताढ्य पर्वत पर रहे हुए शिवमन्दिर नगर में ले गई । वहाँ सिंहदृष्ट राजा ने वसुदेव के साथ नीलयशा का लग्न कर दिया ।
उसी समय राजभवन के बाहर कोलाहल सुनाई दिया । वसुदेव ने कोलाहल का कारण पूछा । द्वारपाल ने कहा- " नील नाम का विद्याधर झगड़ा कर रहा हैं । वह नीलयशा को प्राप्त करना चाहता है झगड़े का मूल यह है कि - शकटमुख नगर के नीलवान राजा की नीलवती रानी से एक पुत्र और एक पुत्री जन्मे । बहिन का नाम " नीलांजना " और भाई का नाम " नील " रखा । दोनों भाई-बहिन , पहले वचन-बद्ध हो चूके थे कि " यदि अपने में से किसी एक के पुत्र और दूसरे के पुत्री होगी , तो दोनों का परस्पर लग्न कर देगे । " यह नीलयशा - आपकी सद्य परिणिता पत्नी , उस नीलांजना की पुत्री है , जो वचनबद्ध है और वह झगड़ा करने वाला रानी का भाई नील है । वह कहता है कि वचन का पालन करके नीलयशा का लग्न , मेरे पुत्र नीलकंठ से होना चाहिए । उसने पहले भी संदेश भेजा था । उसे स्वीकार करने में खास बाधा यही थी कि कुछ काल पूर्व बृहस्पति नामक मुनि ने नीलयशा का भविष्य बतलाते हुए कहा था कि - ' अर्ध भारतवर्ष के पति ऐसे वासुदेव के पिता और यादव-वंश में उत्तम तथा कामदेव के समान रुपसम्पन्न एवं सौभाग्यशाली राजकुमार वसुदेव इस नीलयशा के पति होंगे । " इस भविष्य-वाणी के कारण नीलयशा आपको दी जा रही है और यही नील के झगड़े का कारण है । हम नीलयशा उसे दे सकते है । सिंहदृष्ट राजा ने नील के साथ युद्ध करके उसे पराजित कर दिया है । इसी का यह कोलाहल है । "
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
(12)
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30-11-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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नीलयशा का हरण और सोमश्री से लग्न
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नीलयशा के साथ क्रीड़ा करते हुए वसुदेव , सुखपूर्वक रहने लगे । शरदॠतु में विद्याधर लोग विद्या साधने और औषधियें प्राप्त करने के लिए ह्यीमान पर्वत पर जाने लगे । यह जानकर वसुदेव ने नीलयशा से कहा ; - मैं तुमसे कुछ विद्या सीखना चाहता हूँ । कहों , तुम मैरी गुरु बनोंगी ? नीलयशा और वसुदेव ह्यीमान पर्वत पर आये । पर्वत की शोभा और मोहक दृश्य देखकर वसुदेव कामातुर हो गए । नीलयशा ने तत्काल कदलिगृह की विकुर्वणा की । वे दोनों क्रीड़ारत हुए । इतने में उनके सामने से एक अत्यंत सुंदर मयूर निकला । उस मयूर की सुंदरता एवं आकर्षकता देखकर नीलयशा उसे पकड़ने के लिए दौड़ी । जब वह मयूर के पास पहुँची , तो वह धूर्त उसे अपनी पीठ पर बिठाकर उसी समय उड़ गया । वसुदेव ने उसका पीछा किया , किन्तु वे उसको छुड़ा नहीं सके । वे चलते हुए गाँव में पहुँचे । रात वही व्यतित कर दक्षिण-दिशा की ओर चले और एक पर्वत की तलहटी में बसे हुए गाँव में पहुँचे । वहाँ कई ब्राह्मण मिलकर उच्च ध्वनि से वेद-पाठ कर रहे थे । वसुदेव के पूछने पर एक ब्राह्मण ने कहा ;-
' रावण के समय दिवाकर नाम के विद्याधर ने नारद जी को अपनी पुत्री दी थी । उनके वंश में सुरदेव नाम का ब्राह्मण है और वही इस गाँव का मुखिया है । उसके क्षत्रिया नाम की पत्नी से सोमश्री नाम की पुत्री है । वह वेद शास्त्र की ज्ञाता है । उसके पिता ने उसके लिए वर के विषय में कराल नाम के ज्ञानी से पूछा , तो उसने कहा था कि " जो व्यक्ति वेद सम्बन्धी शास्त्रार्थ में सोमश्री को जीतेगा , वही उसका स्वामी होगा । "ये जितने भी वेदाभ्यासी ब्राह्मण है , वे सभी सोमश्री पर विजय प्राप्त करने के लिए वेद पढ़ रहे है ।" वसुदेव भी ब्राहामण का रुप बनाकर वेदाचार्य ब्रह्मदत्त के पास गया और बोला ;- मैं गौतम-गौत्रीय स्कन्दिल नाम का ब्राह्मण हूँ और वेदाभ्यास करना चाहता हूँ । ' वसुदेव ने अभ्यास कियाऔर शास्त्रार्थ में सोमश्री से विजय प्राप्त करके उसके साथ लग्न किये और वहीं रहकर सुखपूर्वक काल बिताने लगा ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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01-12-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
(13)
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जादूगर द्वारा हरण और नर-राक्षस का मरण
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एक दिन वसुदेव , उद्यान में गए । वहाँ उन्होंने इन्द्रशर्मा नामक इन्द्रजालिक के आश्चर्यकारक जादुई विद्या के चमत्कार देखे । वसुदेव ने इन्द्रशर्मा से कहा -" तुम मुझे यह विद्या सिखा दो । " इन्द्रशर्मा ने कहा - " मैं तुम्हें मानस-मोहिनी विद्या सिखा दूँगा , किन्तु उसकी साधना विकट एवं कठोर है । सन्ध्या समय साधना प्रारंभ होती है , जो सूर्योदय तक चलती है । किन्तु साधनाकाल में विपत्तियाँ बहुत आती है । इसलिए किसी सहायक मित्र की आवश्यकता होगी । यदि तुम्हारे पास कोई सहायक नही हो , तो मैं और मेरी पत्नी तुम्हारी सहायता करेंगे । " वसुदेव साधना करने लगे । उस समय उस धूर्त इन्द्रशर्मा ने वसुदेव को एक शिविका में बिठा कर हरण किया । पहले तो वसुदेव ने इसे साधना में उपसर्ग समझा और स्थिर रहे, किन्तु प्रातःकाल होने पर वे समझ गये कि मायावी इन्द्रशर्मा ही मुझे लिये जा रहा है । वे शिविका में से उतरे । इन्द्रशर्मा ने उन्हें पकड़ने का यत्न किया , किन्तु वे उसके हाथ नहीं आये और दूर निकल गए । संध्या समय वे तृणशोषक ग्राम में पहुँचे और एक खाली घर देखकर सो गए । रात को वहाँ सोदास नाम का नर-राक्षस आया और उन्हें उठाने लगा । वसुदेव ने उससे मल्लयुद्ध किया और नीचे गिराकर मार डाला । प्रातःकाल , सोदास को मरा हुआ जानकर ग्राम-वासियों के हर्ष का पार नहीं रहा । वे सभी मिलकर अपने उपकारी वसुदेव कुमार का उपकार मानते हुए उत्सव मनाने लगे । वे वसुदेव को रथ में बिठाकर समोरोहपूर्वक ग्राम में लाये । वसुदेव ने सोदास का वृतान्त पूछा। लोगों ने कहा -
" कलिंगदेश में कांचनपुर नगर के जितशत्रु राजा का यह पुत्र था । सोदास स्वभाव से ही क्रूर , निर्दय एवं मांस-लोलुप था । खासकर मयूर का मांस उसे बहुत रुचिकर था, किन्तु जितशत्रु नरेश धर्म-प्रिय , अहिंसक एवं निरामिषभोजी शासक थे । पुत्र की मांस-लोलुपता उन्हें खटकती थी, किन्तु मोह के कारण विवशतापूर्वक उन्हें पुत्र की क्रूरता चला लेनी पड़ी । उसके लिए वन में से रोज एक मयूर मारकर लाया और पकाया जाने लगा । एक दिन रसोइये की असावधानी से मयूर का मांस , बिल्ला लेकर भाग गया । अब क्या किया जाय ? रसोइये ने एक मृत बालक का शव मँगवाकर उसका मांस पकाया और कुमार को खिलाया । सोदास को वह बहुत स्वादिष्ट और अपूर्व लगा । उसने रसोइये से पूछा -
" आज यह मांस इतना स्वादिष्ट क्यों है ? " - रसोइये ने कारण बताया तब सोदास ने कहा -
" अब मेरे लिए मयूर के बदले रोज बालक का मांस ही बनाये करना । "
- " मैं बालक का मांस कहाँ से लाऊँ ? यदि मुझे बालक शव मिला करेगा , तो बना दिया करुँगा । पशु-पक्षियों को मारना जितना सहज है , उतना मनुष्य को नहीं । और महाराज को आप जानते ही है । इसलिए बालक के मांस की बात ही आप छोड़ दें , तो अच्छा हो " - रसोइये ने कठिनाई बतलाई
- " तेरे पास बालक का शव पहुँच जाया करेगा" -सोदास ने कहा ।
अब सोदास गुप्तरुप से बच्चों का हरण करवा कर मरवाने और खाने लगा ।नगर में कोलाहल हुआ और अन्त में राजा को पुत्र का राक्षसी-कृत्य ज्ञात होने पर देश-निकाला दे दिया । इधर-उधर भटकता हुआ सोदास , दुर्ग में आकर रहा । वह सदैव मनुष्यों की ताक में रहने लगा । जहाँ भी मनुष्य दिखाई दिया और अनुकुलता लगती , वह लपक कर पकड़ लेता और मार डालता । ऐसे नर-भक्षी मानव रुपी राक्षस को मारकर आपने हम सब का उद्धार किया है
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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02-12-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
(14)
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एक साथ पाँच सौ पत्नियाँ [ 14 ]
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आप हमारे परम उपकारी है । हमारा सब कुछ आप ही का है । हम अपनी पाँच सौ कन्याओं को आपको अर्पण करते है । आप जैसे नरवीर को पा कर वे धन्य हो जायेगी ।
वसुदेव ने उन कन्याओं से लग्न किया और रात्रि वहीं व्यतित की । प्रातःकाल चलकर अचलग्राम पहुँचे । वहाँ सार्थवाह-पुत्री मित्रश्री के साथ भी लग्न किए । वहाँ से वे वेदस्ताम नगर आये । वनमाला की दृष्टि वसुदेव पर पड़ते ही वह बोल उठी -" अरे देवरजी ! आप यहाँ कब आये? चलों, घर चलें । " वे वनमाला के साथ उसके घर गए । यह वनमाला , इन्द्रशर्मा जादूगर की पत्नी थी । वनमाला के पिता ने कहा - -" महाभाग ! मैंने ही अपने जामाता इन्द्रशर्मा को आपका हरण कर लाने के लिए भेजा था । बात यह थी कि -यहाँ के नरेश कपिलदेव की सुपुत्री कपिला के लिए आपको यहाँ लाना था । राजकुमारी कपिला के लिए एक महात्मा ने गिरितट ग्राम में कहा था कि - राजकुभार वसुदेव इसके पति होंगे । आपको जानने के लिए उन्होंने कहा था कि ' आपकी अश्वशाला के प्रचण्ड अश्व स्फुलिंगवदन का जो दमन करेगा , वही आपका जामाता होगा । ' इन्द्रशर्मा ने राजाज्ञा से ही आपका हरण किया था ।किन्तु आप बीच में से ही लौट गये । अब आप उस अश्व को अपने वश में कीजिए । " वसुदेव , कुदते-फाँदते और दूर से ही भयानक दिखाई देने वाले अश्व के समीप बड़ी चतुराई से पहुँचे और लपक कर उस पर सवार हो गए । घोड़ा उछला , कूदा और छलांग मारने लगा । वसुदेव ने घोड़े का कान पकड़ कर मुँह अपनी ओर मोड़ा , फिर नथूने पकड़कर दबाया और लगाम चढ़ाकर बाहर निकाला ।उन्होंने उसे खूब दौड़ाया , थकाया और वश में कर लिया । राजा ने अपनी पुत्री कपिला का लग्न वसुदेव से कर दिया । वसुदेव वहीं रहकर सुख-भोग में समय व्यतीत करने लगे । उनके एक पुत्र हुआ , जिसका नाम " कपिल " रखा गया ।
एक बार वसुदेव , हस्तीशाला में गये और उन्होंने एक नये आकर्षक हाथी को देखा । वे उस पर सवार हो गये । उनके सवार होते ही हाथी ऊपर उठकर आकाश में लड़ने लगा ।वसुदेव उस मायावी हाथी पर मुक्के का प्रहार करने लगे । मार की पीड़ा से पीड़ित होकर वह नीचे गिरा और एक सरोवर के किनारे आ लगा । नीचे गिरते ही वह अपना मायावी रुप छोड़कर वास्तविक रुप में आया । अब वह नीलकंठ विद्याधर दिखाई देने लगा । यह वही नीलकंठ है जो नीलयशा से वसुदेव के विवाह के समय युद्ध करने आया था ।
वहाँ से चलकर वसुदेव सालगृह नगर आये । वहाँ उन्होंने भाग्यसेन राजा को धनुर्वेद की शिक्षा दी । कालान्तर में भाग्यसेन राजा पर उसका भाई मेघसेन सेना ले कर चढ़ आया । वसुदेव कुभार ने अपने युद्ध-कौशल से मेघसेन को जीत लिया । भाग्यसेन ने वसुदेव के पराक्रम से प्रभावित होकर अपनी पुत्री पद्मावती का उसके साथ लग्न कर दिया और मेघसेन ने भी अपनी पुत्री अश्वसेना ब्याह दी । वसुदेव ने कुछ दिन वहीं रहकर सुखमय काल व्यतीत किया । वहाँ से चलकर वे भद्दिलपुर नगर गये । भद्दिलपुर नरेश की अचानक मृत्यु हो गई थी । उनके पुत्र नहीं था । राज्य का संचालन उनकी पुंढ्रा नाम की पुत्री , पुरुष-वेश में रहकर करती थी । वसुदेव कुमार को देखते ही वह मोहित हो गई । उसने वसुदेव कुमार के साथ विवाह किया । कालान्तर में उसके पुंढ्र नामक पुत्र हुआ । वह वहाँ का राजा घोषित हुआ ।
वसुदेव रात के समय निंद्रा ले रहे थे कि अंगारक विद्याधर उन्हें उठाकर ले गयाऔर गंगा नदी में डाल दिया । वसुदेव नदी में गिरते ही सँभल गये और तैर कर किनारे पर आये । सूर्योदय के बाद वस्त्रों के सूख जाने पर वे इलावर्द्धन नगर में आये और एक सार्थवाह की दुकान पर बैठ गये । उनके बैठने के बाद व्यापार , खूब चला और व्यापारी को लाख-स्वर्णमुद्राओं का लाभ हुआ । सार्थवाह ने कुमार को सौभाग्यशाली एवं पुण्यवान जान कर आदर-सत्कार किया और रथ में बिठाकर अपने घर लाया तथा थोड़े ही दिनों में अपनी रत्नवती नाम की पुत्री का विवाह - वसुदेव के साथ-कर दिया । इन्द्र महोत्सव के समय वसुदेव अपने ससुर के साथ महापुर नगर गये । उन्होंने नगर के बाहर एक नवीन नगर की रचना देख कर उसका कारण पूछा । सार्थवाह ने कहा - " इस नगर के सोमदत्त राजा ने, अपनी सोमश्री पुत्री के स्वयंवर के लिए इस नवीन नगर की रचना की और बहुत से राजाओं को बुलाया , किन्तु वे सभी राजा अपनी बुद्धि-कौशल में सही नहीं उतरे , जिससे उन्हें खाली हो लौट आना पड़ा । तब से यह नवीन नगर बना हुआ है । " वसुदेव इन्द्रस्तम्भ के पास गये और नमस्कार किया । उसी समय राजरानी , अपने अन्त:पुर के परिवार सहित इन्द्रस्तम्भ को वन्दन करके लौट रही थी कि गजशाला से बन्धन तुड़ाकर एक हाथी भाग निकला । वह हाथी उसी ओर भागा , जिस ओर से रानी सपरिवार आ रही थी । हाथी ने राजकुमारी को सूँड में पकड़ कर रथ में से नीचे गिरा दिया । राजकुमारी नि:सहाय हो कर एक ओर पड़ी थी और हाथी उस पर पुनः वार करना चाहता था कि वसुदेव उसके निकट आये और हाथी को ललकारा । हाथी , कुमारी को छोड़कर वसुदेव पर झपटा । वसुदेव ने पहले तो हाथी को छलावा देकर इधर-उधर खूब घुमाया , फिर योग्य स्थान देखकर भुलावा दिया और मूर्च्छित राजकुमारी को उठाकर निकट के एक घर में सुलाया और वस्त्र से हवा करते हुए सावचेत करने लगे । सावचेत होने पर कुमारी को धायमाता के साथ उसे राज्य के अन्त:पुर में पहुँचा दिया । वसुदेव अपने श्वसुर के साथ कुबेर सार्थवाह के घर आये । इतने में राजा का आमन्त्रण मिला । प्रतिहारी ने कहा ;- " राजकुमारी सोमश्री के लिए स्वयंवर की तैयारी हो रही थी । उधर सवार्ण नाम के मुनिराज का केवल-महोत्सव करने के लिए देवों का आगमन हुआ । देवागमन देखकर राजकुमारी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ । उसे अपने पूर्व के देव-भव में भोगे हुए भोग का स्मरण हो आया । वह अपने प्रिय देव के मरने पर शोकार्त हो गयी थी । उसने किन्हीं केवलज्ञानी भगवान से अपने पतिदेव का उत्पत्ति स्थान पूछा था । भगवान ने कहा था कि " तेरा पति भरत क्षेत्र में हरिवंश के एक राजा के यहाँ पुत्रपने उत्पन्न हुआ है और तू भी आयु पूर्णकर राजकुमारी होगी । यौवनवय में तुझ पर एक हाथी का उपद्रव होगा । ऊस हाथी से तेरी रक्षा वही राजकुमार करेंगा और वही तेरा पति होगा । " इसके बाद कालान्तर में वहाँ से च्यव कर वह राजकुमारी हुई । पूर्वभव का ज्ञान होने पर राजकुमारी मौन रहने लगी । आग्रहपूर्वक मौन का कारण पूछने पर कुमारी ने अपने पूर्वभव का वृतान्त , अपनी सहेली के द्वारा बताया । अब महाराज आपको स्मरण कर रहे है । कृपया पधारिये । " वसुदेव राजभवन में पहुँचे । उनका राजकुमारी सोमश्री से विवाह हो गया । वे वहीं सुखपूर्वक रह कर समय व्यतीत करने लगे ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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03-12-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
(15)
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वसुदेव से वेगवती का छलपूर्वक लग्न [ 15 ]
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कालान्तर में एक दिन वसुदेव की प्रातःकाल नींद खुली, तो उन्हें सोमश्री दिखाई नहीं दी !उन्हें गंभीर आघात लगा । वे शून्यचित्त हो गये , फिर रुदन करते हुए , तीन दिन तक शयनकक्ष में ही रहे , बाद में मनरंजन के लिए उपवन में गये । अचानक उन्हें सोमश्री दिखाई दी । वसुदेव तत्काल उसके निकट पहुँचे और उपालम्भ पूर्वक बोले-" अरे मानिनी ! मैने तेरा कौनसा अपराध किया , सो तू मुझे छोड़कर यहाँ वन में आ बैठी ? बता तू क्यों रुठी और यह बनवास क्यों लिया ? "
- " नाथ मैं रुठी नहीं , किन्तु अपने नियम का पालन कर रही हूँ । मैने आपके लिए एक विशेष व्रत लिये था , जिससे तीन दिन तक मौनपूर्वक रह कर , इस देव की आराधना करती रही । अब आप इस देव की पूजा करके मुझे पुनः देव-साक्षी से ग्रहण करें , जिससे इस व्रत का विधि पूरी हो और अपना दाम्पत्य-जीवन पूर्णरुप से सुखमय एवं निरापद रहे । "
वसुदेव ने वैसा ही किया । फिर उस सुंदरी ने कहा -' यह देव का प्रसाद ग्रहण कीजिए ।' -कह कर वसुदेव को मदिरा पिलाई । वे वहीं एक कुंज में रहकर क्रीड़ा करते रहे । जब प्रातःकाल वसुदेव की नींद खुली , तो देखा कि उसके पास रानी सोमश्री नहीं , किन्तु कोई दूसरी ही स्त्री है । आश्चर्य के साथ वसुदेव ने पूछा - " सुन्दरी ! तू कौन है ?सोमश्री कहाँ गई ? "
- " मैं दक्षिण -श्रेणी के सुवर्णाभ नगर के राजा चित्रांग और उनकी अंगारवती रानी की पुत्री वेगवती हूँ । मानसवेग मैरा भाई है । मैरे पिता ने भाई को राज्य दे कर प्रव्रज्या स्वीकार की । मैरे भाई राजा मानसवेग ने आपकी रानी सोमश्री का अपहरण किया और उसे समझाने के लिए मुझे भेजा , किन्तु आपकी रानी ने उसकी दुरेच्छा पूरी नहीं की । सोमश्री ने मुझे अपनी सखी बना ली और आपको उसके पास ले जाने के लिए मुझे यहाँ भेजी । मैने यहाँ आकर आपको देखा , तो स्वयं मोहित हो गई । आपको पाने के लिए मैंने सोमश्री का रुप धारण किया और छलपूर्वक आपके साथ विधिवत् लग्न किये । अब तो मैं आपकी हो ही गई हूँ । मैं आपको सोमश्री के पास भी ले चलूँगी । "
जब वहाँ के लोगों ने सोमश्री के स्थान पर वेगवती को देखा , तो उनको अत्यन्त आश्चर्य हुआ । वेगवती ने वसुदेव की आज्ञा से सोमश्री के हरण और अपने आगमन तथा लग्न सम्बन्धी सारा विवरण लोगों को कह सुनाया ।
वसुदेव निंद्रा-मग्न थे कि मानसवेग उनको उठाकर आकाश-मार्ग से ले उड़ा ।जब वसुदेव को अपना अपहरण लगा , तो वे मानसवेग पर मुष्टि-प्रहार करने लगे । मुष्टि-प्रहार से पीड़ित हुए मानसवेग ने वसुदेव को छोड़ दिया । वे गंगा नदी पर उड़ रहे थे । वसुदेव मानसवेग से छूट कर नीचे गंगा नदी में गिरने लगे । उस समय गंगा में चण्डवेग नामक विद्याधर , विद्या की साधना कर रहा था । वसुदेव उसी पर गिरे । इस आकस्मिक विपत्ति में भी साधना में स्थिर रहने के कारण उसकी विद्या उसी समय सिद्ध हो गयी । चण्डवेग ने वसुदेव से कहा - " महात्मन ! आपके प्रभाव से मेरी विद्या सिद्ध हो गई। कहिये मैं आपकी क्या सेवा करुँ ? " वसुदेव ने उससे आकाशगामिनी विद्या माँगी । चण्डवेग ने प्रसन्नतापूर्वक सिखाई । अब वसुदेव कनखल गाँव के द्वार में रह कर समाहित मन से विद्या साधने लगा ।
चण्डवेग के जाने के बाद विद्युद्वेग राजा की पुत्री मदनवेगा वहाँ आई और वसुदेव को देखते ही उस पर आसक्त हो गई । वसुदेव को उठाकर वह वैताढ्यपर्वत पर ले गई और पुष्यशयन उद्यान में रख दिया । फिर वह अमृतधार नगर में गई । प्रातःकाल मदनवेगा के तीन भाई -1- दधिमुख 2- दण्डवेग 3- चंडवेग , वसुदेव के पास आये । इस चंडवेग ने ही गंगा नदी पर वसुदेव को आकाशगामिनी विद्या सिखाई थी । वे वसुदेव को आदरपूर्वक नगर में ले गये और अपनी बहिन मदनवेगा का लग्न उनके साथ कर दिया । अब वसुदेव वही रहने लगे । वे मदनवेगा पर इतने प्रसन्न हुए कि उसे इच्छित माँगने का वचन दे दिया ।
अन्यदा दधिमुख ने वसुदेव से कहा - " दिवस्तिलक नगर का राजा त्रिशिखर के सूर्पक नाम का पुत्र है । राजा त्रिशिखर ने अपने पुत्र के लिए मेरे पिता से मदनवेगा की माँग की । मेरे पिता ने उसकी माँग स्वीकार नहीं की । एक चारण मुनि से पूछने पर पिताश्री को उन्होंने कहा था कि " मदनवेगा का पति हरिवंश कुलोत्पन्न वसुदेव होंगे । कुमार वसुदेव की पहचान यह कि तुम्हारा पुत्र चण्डवेग , गंगा नदी में विद्या साधन करेगा , तब वसुदेव आकाश से चण्डवेग के कन्धे पर गिरेगा और उसके गिरते ही चण्डवेग की विद्या सिद्ध हो जायगी । " इस भविष्यवाणी के कारण मेरे पिताश्री ने त्रिशिखर नरेश की माँग स्वीकार नहीं की । इससे क्रुद्ध होकर बलवान राजा त्रिशिखर ने मेरे पिता को बन्दी बना लिया और अपने यहाँ ले गया । आपने मैरी बहिन मदनवेगा पर प्रसन्न होकर जो वरदान दिया है , उसका पालन करने के लिए आप हमारे पिताश्री एवं अपने ससुर को बन्धन-मुक्त कराइए । हमारे पूर्वज नमि राजा थे । उनके पुलस्त्य पुत्र था । उसके वंश क्रम में अरिंजय नगर का स्वामी मेघनाद नामक राजा हुआ । सुभूम चक्रवर्ती उसके जामाता थे । सुभूम ने अपने ससुर मेघनाद को वैताढ्यपर्वत की दोनों श्रेणियों का राज्य और ब्रह्मास्त्र आग्नेयास्त्र आदि दिव्य- अस्त्र दिये । उसी के वंश में रावण और बिभीषण हुए । बिभीषण के वंश में मेरे पिता विद्युद्वेग हुए । वे दिव्यास्त्र हमारे पास है । आप उन्हें ग्रहण करके हमारे पिता को मुक्त कराइए । दिव्यास्त्र भी आप जैसे भाग्यशाली को ही सफल होते है ।
अब त्रिशिखर ने सुना कि ' मदनवेगा का एक भूचर मनुष्य के साथ लग्न कर दिया , तो वह क्रुद्ध हो गया और सेना ले कर युद्ध करने आया । इधर विद्याधरों ने एक मायावी रथ तैयार कर के वासुदेव को उसमें बिठाया और दधिमुख आदि सैनिक उसके सहायक बने । युद्ध प्रारम्भ हो गया । अन्त में वसुदेव ने इन्दास्त्र से त्रिशिखर राजा का मस्तक काट कर मार डाला और अपने ससुर को मुक्त कराया ।
वसुदेव के मदनवेगा से एक पुत्र हुआ , जिसका नाम
" अनादृष्टि " रखा ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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1️⃣9️⃣
गौतमॠषि और अहिल्या का नाटक
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U
07-12-2020
उसी दिन वसुदेव ने एक नाटक देखा । उस नाटक में बताया गया था कि -
विद्याधर राजा नमि का पुत्र वासव हुआ । उसके वंश में कितने ही वासव हुए । अंतिम वासव का पुत्र ' पुरुहुत' हुआ । एक दिन पुरुहुत हाथी पर बैठकर वन-विहार करने गया । उसने एक आश्रम में गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को देखी और काम-पीड़ित हो कर उसके साथ दुराचरण करने लगा । इतने में कहीं बाहर गये हुए गौतम ऋषि आ गये । उन्होंने कुपित होकर पुरुहुत का लिंगच्छेद कर दिया । नाटक का यह दृश्य देखकर वसुदेव भयभीत हुए । उन्होंने सोचा - ' राजकुमारी के पास गुपचुप जाना भी भयपूर्ण है ।' वे नहीं गए । रात को अचानक उनकी निंद्रा खुली । उन्होंने अपने शयन कक्ष में एक दिव्यरुपधारिणी स्त्री-देखी । उन्होंने मन में ही सोचा - ' यह देवाँगना जैसी महिला कौन है ? ' उसी समय देवी ने कहा - " वत्स ! तू क्या सोचता है ? चल मेरे साथ । " इतना कह कर और वसुदेवजी का हाथ पकड़कर उद्यान में ले गई और उनसे कहने लगी -
" इस भरत क्षेत्र में श्रीचन्द्रनगर का ' अमोघरेता ' राजा था । उसकी चारुमती रानी का आत्मज चारुचन्द्र कुमार था । उस नगर में अनंगसेना वेश्या की पुत्री कामपताका बड़ी सुन्दर एवं आकर्षक थी । एक बार राजा ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया जिसमें बहुत-से सन्यासी और तापस आदि आये । उनमें ' कौशिक " और " तृणबिन्दु " नाम के दो उपाध्याय भी थे । उन दोनों ने राजा को कुछ फल दिये । राजा ने उनसे पूछा - " अदभूत फल कहाँ से लाये ? " उन्होंने हरिवंश की उत्पत्ति से सम्बन्धित कल्पवृक्षों का वृतान्त सुनाया । उस समय राजसभा में कामपताका वेश्या नृत्य करत थी । उसके सौन्दर्य और नृत्य-कला से कौशिक उपाध्याय और राजकुमार चारुचन्द्र मोहित हो गए । यज्ञ पूर्ण होने के बाद राजकुमार ने कामपताका को अपने भवन में बुलवा लिया । उधर कौशिक उपाध्याय ने राजा के सामने कामपताका की माँग उपस्थित की । राजा ने कहा - " कामपताका श्राविका हो गई है और वह कुमार को वरण कर चुकी है । अब वह तुझे स्वीकार नहीं करेगी । " इस पर क्रूद्ध होकर कौशिक ने शाप दिया दिया कि - " यदि कुमार उस कामपताका के साथ सम्भोग करेगा , तो अवश्य ही मर जायगा । " राजा को मोह के प्रभाव का विचार आते वैराग्य हो गया ।उसने चारुचन्द्र का राज्याभिषेक करके सन्यास ग्रहण कर लिया और वन में चला गया ।उसकी रानी चारुमती भी उसके साथ ही वन में चली गई । उस समय वह अज्ञातगर्भा थी । कुछ कालोपरान्त गर्भ प्रकट हुआ । उसने पति को अवगत कराया । उसके कन्या उत्पन्न हुई । उसका नाम "ऋषिदत्ता " रखा । वय प्राप्त होने पर किसी चारणमुनि के उपदेश से वह श्राविका हुई । थोड़े ही दिनों में उसकी माता का देहान्त हो गया और वह पिता के साथ ही आश्रम में रहने लगी ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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04-12-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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1️⃣6️⃣
जरासंघ द्वारा वसुदेव की हत्या का प्रयास
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एकबार वसुदेव ने मदनवेगा को ' वेगवती ' के नाम से पुकारा । यह सुनकर मदनवेगा क्रूद्ध हो गई । उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे पास रहते हुए भी इनके मन में वेगवती बसी हुई है , इससे उसी का नाम लेते है । मेरे लिए इनके हृदय में स्थान नहीं है , मेरे साथ ये प्रसन्न नहीं रहते । इस प्रकार सोचकर वह रुठ गई और एकान्त कक्ष में जाकर सो गई । उधर त्रिशिखर नरेश की विधवा रानी सूर्पणखा ने , अपने पति को मारने का वैर लेने के लिए मदनवेगा का रुप बनाकर और मदनवेगा के कक्ष में आग लगा कर वसुदेव को वहाँ से ले गई । फिर उन्हें राजगृही नगरी के निकट आकाश से नीचे गिराकर लौट गई । पुण्य-योग से वसुदेव घास की गंजी पर गिरे , जिससे कुछ भी चोट नहीं लगी । वे वहाँ से चलकर राजगृही नगरी में पहुँचे । इधर-उधर भटकते हुए वे जुआ-घर में पहुँच गये । वहाँ द्युत-क्रीड़ा में वे कोटि सुवर्ण जीते और उस जीते हुए सभी स्वर्ण को याचकों में बांट दिया । उनकी उदारता की ख्याति सुनकर , सुभटों ने आकर उन्हें पकड़ लिया और जरासंघ नरेश के दरबार में ले चले । उन्होंने सुभटों से पूछा - " तुमने मुझे बिना किसी अपराध के क्यों पकड़ा और अब कहाँ ले जा रहे हो ? " सुभटों के आध्यक्ष ने कहा -
" किसी ज्ञानी ने जरासंघ नरेश को कहा था कि " कल प्रातःकाल यहाँ आ कर जो कोटि- द्रव्य जीत कर दान करेगा , उसका पुत्र ही तुम्हारा घातक होगा । " इस भविष्यवाणी से प्रेरित हो कर राजा ने तुम्हें बन्दी बनाने की आज्ञा दी है और अब तुम्हारा जीवन समाप्त होने वाला है । जब तुम ही नहीं रहोंगे , तो तुम्हारें पुत्र होगा ही कैसें ? ओर राजा को मारने वाला जन्मेगा ही नहीं , तो भविष्यवाणी अपने-आप निष्फल हो जावेंगी ।यद्यपि तुम निरपराध हो , तथापि भावी अनिष्ट को टालने के लिए तुम्हारी मृत्यु आवश्यक हो गयी है । "
लोकापवाद से बचने के लिए , वसुदेवजी को गुप्तरुप से मारने की व्यवस्था की गई । उन्हें एक चमड़े की धमण में बन्द किये और वन में एक पर्वत पर ले जाकर नीचे फेंक दिया ।
इधर रानी वेगवती की धात्रिमाता वसुदेवजी की खोज करती हुई उधर आ निकली ।उसै वसुदेव जी के अपहरण और राजगृही आने का पता लग चुका था । जब मारक लोग एक चमड़े का बड़ा-सा थेला उठाकर ले जा रहे थे , तो उसे देखकर वह शंकित हुई । उसने अधर से ही उस धमण को झेल लिया और यहाँ ले आई । वसुदेव ने अनुभव किया कि मुझे भी चारुदत्त के समान कोई भारण्ड-पक्षी उठाकर आकाश में ले जा रहा है । उन्हें पृथ्वी पर रखकर थेले का बन्धन खोला । जब वसुदेव ने बाहर देखा , तो उन्हें वेगवती के पाँव दिखाई दिए । वे तत्काल थेले से बाहर निकलें । उन्हें देखते ही वेगवती ' हे नाथ ! इस प्रकार सम्बोधन करती हुई उनकी ओर बढ़ी । वसुदेव ने वेगवती से पूछा ; - मेरा पता तुम्हें कैसे लगा ?' वेगवती ने कहा;-
" स्वामिन ! जिस समय मैरी नींद खुली और मैने आपको नहीं देखा , तो मैरे हृदय में गम्भीर आघात लगा । मैं रोने-चिल्लाने लगी । प्रज्ञप्ति नाम की विद्या से मुझे आपके अपहरण का पता लगा । फिर मैने सोचा कि मैरे पति के पास किसी महात्मा की बताई हुई कोई विद्या अवश्य होगी और उससे वे सुरक्षित रहकर कुछ ही दिनों में मुझसे आ मिलेंगे । इस प्रकार सोचकर कुछ काल तक तो मैने संतोष रखा । किन्तु जब अकुलाहट बढ़ी , तो पिता की आज्ञा प्राप्त कर के मैं आपकी खोज में निकली । कुछ दिनों तक तो मुझे आपका पता नहीं लगा , किन्तु एक दिन मैने आपको मदनवेगा के साथ वन-विहार करते देख लिया । फिर मैं अदृश्य रहकर आपके पीछे-पीछे घूमती रही । एक बार आपने मैरा नाम लेकर मदनवेगा को समाबोधित किया , तो मुझे अपने मन में बड़ा सन्तोष हुआ । मैने सोचा कि हृदयेश के मन में मैं बसी हुई हूँ । इससे मैरे हृदय का क्लेश मिट गया , किन्तु इसी निमित्त से मदनवेगा रुठ गई । उधर शूर्पणखा मदनवेगा के कक्ष को आग लगा कर , मदनवेगा का रुप बनाकर आपको ले उड़ी तो मैं भी साथ रही । जब उसने आपको नीचे गिराया , तो मैं आपको झेलने के लिए आई , किन्तु उसने मुझे देख लिया और विद्याबल से मुझे वहाँ से हटा दिया । मैं उसके भय से इधर-उधर भागने लगी , तो अचानक मुझ-से एक मुनि महात्मा का उल्लंघन हो गया , इससे मैरी विद्या भ्रष्ट हो गई। किन्तु सद्भाग्य से मेरी धात्रिमाता उसी समय मुझसे आ मिली । मैंने उससे सारा वृतान्त कह सुनाया । वह आपकी खोज करने निकली । उसने जरासंघ के सुभटों से आपकी रक्षा की और उसी दशा में यहाँ ला कर आपको मुक्त किया । यही आपसे मिलन की कहानी है । "
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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05-12-2020
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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1️⃣7️⃣
बालचन्द्रा का वृतान्त
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रानी वेगवती का वृतांत सुनकर वसुदेव प्रसन्न हुए और उसी वन में एक तापस के आश्रम में रह गए । एकबार वे दोनों नदी किनारे घूम रहे थे कि उन्हें नागपाश में जकड़ी हुई एक युवती दिखाई दी । वेगवती से उसकी दशा देखी नहीं गई । उसकी प्रेरणा से वसुदेव ने उस युवती को नागपाश से मुक्त किया और जल -सिंचन से उसकी मूर्च्छा दूर कर सावचेत की । चैतन्यता प्राप्त युवती ने अपने उपकारी की ओर देखा और तत्काल उठ कर प्रदक्षिणा पूर्वक प्रणाम किया , फिर , कहने लगी ; -
" महानुभाव ! आपके प्रभाव से मैरी विद्या सिद्ध हो गई । वैताढ्य गिरि के गगनवल्लभ नगर का राजा विद्युदृंष्ट , एक महात्मा को ध्यानस्थ अवस्था में देखकर चौंका और बोला - " यह कोई विपत्ति का वाहक है । अवश्य ही यह उत्पात करेंगा । इसलिए इसे यहाँ से वरुणाचल ले जा कर मार डालना चाहिए । उसके इन शब्दों से , उसके अनुचर उन महात्मा को मारने के लिए उद्यत हुए । वे ध्यानस्थ मुनि उस समय शुक्लध्यान में वर्द्धमान होकर क्षपकश्रेणी चढ़ रहे थे । उन्हें केवलज्ञान हो गया । धरणेन्द्र वहाँ केवल महोत्सव करने आया । धरणेन्द्र ने देखा कि सर्वज्ञ वीतराग भगवान के विरोधी , उन्हें कष्ट देने को तत्पर हैं , तो उसने कुपित होकर उन्हें विद्याभ्रष्ट कर दिया । उन आक्रमणकारियों को अपनी अधमता का भान हुआ । वे अत्यन्त विनम्र होकर दीनतापूर्वक कहने लगे ; -
" देवेन्द्र ! न तो हम इन महात्मा को जानते है और न इनसे किसी प्रकार का द्वेष है । हम अपने स्वामी महाराजा विद्युदृंष्टजी की आज्ञा से यह अधम कृत्य करने लगे थे । आप हमें क्षमा करें । "
- " अज्ञानियों ! मैं इन वीतरागी महात्मा के केवलज्ञान का महोत्सव करने आया हूँ । इसलिए मैं तुम जैसे पापियों की उपेक्षा करता हूँ । अब तुम जाओ । पुनः साधना करने पर तुम्हें विद्या सिद्ध हो जाएगी । किन्तु यह स्मरण रहे कि यदि तुमने अरिहंत और साधुओं को सताया , तो वे विद्याएँ तत्काल निष्फल हो जाएँगी और रोहिणी आदि महाविद्याएँ तो अब तुम्हारे इस राजा को प्राप्त होगी भी नहीं । इतना ही नहीं , इसके किसी वंशज पुरुष या स्त्री को भी ये महाविद्याएँ तभी सिद्ध होगी , जब किसी महात्मा या पुण्यात्मा के दर्शन हों । " इस प्रकार कह कर और केवल-महोत्सव कर के धरणेन्द्र चले गए ।
राजा विद्युदृंष्ट के वंश में केतुमति नाम की एक कन्या हुई हैं । वह रोहिणी विद्या की साधना करने लगी । उसके लग्न पुण्डरीक वासुदेव के साथ हुए । उसके बाद ही उसको विद्या सिद्ध हुई । मैं उसी वंश की पुत्री हूँ । मेरा नाम ' बालचंद्रा ' है । आपके प्रभाव से मेरी साधना सफल हुई । आप जैसे भाग्यशाली पुरुष-श्रेष्ठ के चरणों में मैं अपने आप को समर्पित करती हूँ । आपके पुण्य- प्रभाव से मैरी विद्या सिद्ध हुई है । यह विद्या भी आपके उपयोग में आएगी । वसुदेव ने उसे वेगवती को भी विद्या सिखानें का आदेश दिया । उसके बाद वेगवती को साथ लेकर बालचन्द्रा गगनवल्लभ नगर में गई और वसुदेव , तपस्वी के आश्रम में पहुँचें । दो राजा , तापसी -दीक्षा लेकर तत्काल ही उस आश्रम में आए । वे अपने कुकृत्य से खेदित हो रहे थे । वसुदेव ने उनके खेद का कारण पूछा । वे बोले -
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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06-12-2020
1️⃣8️⃣
प्रियंगुसुन्दरी का वृतांत और मूर्तियों का रहस्य
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" श्रावस्ति नगरी में एणीपुत्र नाम के प्रतापी नरेश हैं । उनका जीवन एवं चरित्र निर्दोष है । उनके ' प्रियंगुसुन्दरी ' नामकी एक पुत्री है । उसके स्वयंवर के लिए भ
बहुत से राजा एकत्रित हुए । किन्तु प्रियंगुसुन्दरी को कोई भी नहीं भाया । सभी राजा हताश हुए । उन्ओंने सम्मिलित रुप से हमला किया , किन्तु एणीपुत्र नरेश के आगे वे ठहर नहीं सके और भाग कर जहाँ स्थान मिला- छुप गए । हम भी उन प्रत्याशियों में थे । हमे इस पलायन से बहुत लज्जा आई और हम तपस्वी बन कर इस आश्रम में आए हैं । हमें अपना जीवन भी अप्रिय लग रहा है । " वसुदेवजी ने उन्हें जिनधर्म का उपदेश दिया । उपदेश से प्रभावित होकर उन्होंने जैन दीक्षा ग्रहण की । इसके बाद वसुदेव जी श्रावस्ति नगरी गए । श्रावस्ति के बाहर उद्यान में उन्होंने एक देवालय देखा, जिसके तीन द्वार थे । मुख्य द्वार बत्तीस अर्गलाओं से बन्द था । उसकी दूसरी ओर के द्वार से भीतर गए । उन्होंने देखा कि उस मन्दिर में तीन मूर्तियाँ है - 1- मुनि की 2-गृहस्थ की और 3- तीन पाँव वाले भैंसे की । उन्होंने एक ब्राह्मण से इन मूर्तियों का रहस्य पूछा । वह बोला -
" यहाँ जितशत्रु राजा था । उसके मृगध्वज कुमार था । उसी नगर में कामदेव नामक एक सेठ था । एकबार कामदेव सेठ अपनी पशुशाला में गया । सेठ से ग्वाले ने कहा -" सेठ ! आपकी भैंस के पाँच पाड़े तो मार डाले गए , किन्तु इस छट्ठे पाड़े को देख कर दया आती है । यह बड़ा सीधा, भयभीत और कम्पित है तथा बार-बार मैरे पाँवों में सिर झुकाता है । इसलिए मैने इसे नहीं मारा । आप भी इसे अभयदान दीजिए । यह पाड़ा कदाचित जातिस्मरण वाला हो । " ग्वाले की बात सुनकर सेठ , उस पाड़े को लेकर राजा के पास आए और उसके लिए अभय की याचना की । राजा ने अभय स्वीकार करते हुए कहा -" यह पाड़ा इस नगर में निर्भय होकर सर्वत्र घूमता रहेगा । " अब पाड़ा उस नगर में निसंक घूमने लगा और यथेच्छ खाने लगा । कालान्तर में राजकुमार मृगधावज ने उस पाड़े का एक पाँव छेद दिया । अपने पुत्र के द्वारा ही अपनी आज्ञा की अवहेलना देखकर राजा क्रोधित हो गया और कुमार को नगर छोड़कर निकल जाने का आदेश दिया । कुमार ने नगर का ही त्याग नहीं किया , वह संसार को छोड़कर निकल गया और श्रमण-प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । पाँव टूटने के बाद अठारहवें दिन पाड़ा मर गया और प्रव्रज्या के बाइसवें दिन मृगध्वज महात्मा को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवेन्द्र , नरेन्द्रादि ने कवल-महोत्सव किया । धर्मदेशना के पश्चात् जितशत्रु नरेश ने पूछा - " भगवन् ! उस पाड़े के साथ आपका पूर्वभव का कोई वैर था ?"
- " राजन ! पूर्वकाल में अश्वग्रीव नाम का एक अर्द्ध चक्री नरेश था । उसके हरिश्मश्रु नाम का मंत्री था । वह नास्तिक था और धर्म की निन्दा करता था । किन्तु राजा आस्तिक था और धर्म का गुणगाण करता रहता था । राजा और मंत्री के बीच धार्मिक-विवाद होता ही रहता था । राजा और मंत्री को त्रिपृष्ट वासुदेव और अचल बलदेव ने मारा । वे दोनों मरकर सातवीं नरक में गए । नरक से निकल कर भव-भ्रमण करते हुए अश्वग्रीव का जीव मैं आपका पुत्र हुआ और हरिश्मश्रु मंत्री वह पाड़ा हुआ । पूर्व का वैर उदय होने से मैंने उस पाड़े का पाँव ही काट डाला । वह पाड़ा मरकर असुर कुमार में लोहिताक्ष नामक देव हुआ और यह मुझे वंदना करने आया हैं । संसार रुप रंगभूमि का नाटक कितना विचित्र है ? जीव कैसे व कितने स्वांग सज कर खेल खेलता है । " केवलज्ञानी की बात सुनकर लोहिताक्ष देव , भगवान को वंदना करके चला गया और उसी ने इसी मन्दिर में मृगध्वज मुनि , कामदेव सेठ और पाड़े की प्रतिमा करवा कर यह मन्दिर बनाया । कामदेव सेठ का पुत्र कामदत्त और कामदत्त की पुत्री बन्धुमती यही रहते है । सेठ ने बन्धुमती के विषय में किसी भविष्यवेत्ता से पूछा था , तो उन्होंने कहा था -" जो पुरुष इस देवालय के मुख्य द्वार को खोलेंगा , वही इसका पति होगा । " वसुदेव ने यह बात सुनकर वह द्वार खोला । कामदत्त सेठ , मन्दिर का द्वार खुला जान कर तत्काल वहाँ आया और अपनी पुत्री बन्धुमती का विवाह वसुदेव जी के साथ कर दिया । वसुदेव द्वारा मंदिर का द्वार खोलने और बन्धुमती के लग्न वसुदेव से होने की बात राजा के अन्त:पुर में भी पहुँची । राजकुमारी प्रियंगुसुन्दरी भी राजा के साथ सेठ के घर आई वसुदेवजी को देखकर प्रियंगुसुन्दरी मोहित हो गई । अन्त:पुर रक्षक वसुदेवजी को , दूसरे दिन अन्त:पुर में आने का कह कर चला गया ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
2️⃣0️⃣
प्रियंगुसुन्दरी का वृत्तान्त
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U
08-12-2020
ऋषिदत्ता अपने पिता के साथ आश्रम में रहती हुई युवावस्था को प्राप्त हुई । उसके समस्त अंग विकसित एवं सौन्दर्य सम्पन्न हो गए । एक बार राजा शिलायुद्ध , मृगया के लिए वन में भटकता हुआ आश्रम में चला आया । अमोघरेता उस समय आश्रम में नहीं था । ऋषिदत्ता अकेली थी । शिलायुद्ध और ऋषिदत्ता का मिलन , वेद-मोहनीय का पोषक बना । उस समय वह ऋतु-स्नाता थी । उसने राजा से कहा - " मैं ऋतु-स्नाता हूँ । यदि हमारा मिलन गर्भाधान का कारण बना , तो क्या होगा ? राजा ने कहा - " मैं श्रावस्ति नगरी का राजा शिलायुद्ध हूँ । यदि तेरे पुत्र उत्पन्न हो , तो उसे ले कर मेरे पास आना । मैं उसे अपना उत्तराधिकारी बनाऊँगा । " इतना कहकर राजा चला गया । ऋषिदत्ता ने पिता के आने पर राजा के आगमन का वृत्तान्त सुनाया । गर्भकाल पूर्ण होने पर ऋषिदत्ता के पुत्र का जन्म हुआ । पुत्र-जन्म के बाद ऋषिदत्ता की किसी रोग से मृत्यु हो गई । वह ऋषिदत्ता मैं ही हूँ । मैं ज्वलनप्रभ नागेन्द्र की अग्रमहिषी हुई । मेरी मृत्यु से मेरे पिता , मेरे पुत्र को गोदी में ले कर रुदन करने लगे । मैं अपने पिता और पुत्र की दशा देखकर द्रवित हुई और हिरनी के रुप में पुत्र को स्तनपान कराने लगी । मैरा वह पुत्र ' एणीपुत्र ' के नाम से विख्यात हुआ । वह कौशिक तापस मरकर मेरे पिता के आश्रम में ही दृष्टि-विष सर्प हुआ । उसने मैरे पिता को डस लिया । किन्तु मैने पहुँच कर विष उतारा और सर्प को बोध दिया । सर्प मैरे उपदेश से प्रभावित हुआ और शुभ भावों में आयु पूर्ण कर 'बल' नामक देव हुआ ।
मैं ऋषिदत्ता का रुप धारण कर और पुत्र को लेकर श्रावस्ति नगरी के राजा शिलायुध के पास गई । किन्तु शिलायुध पुत्र को नहीं पहचान सका । मैने पुत्र को उसके पास रख दिया और स्वयं अंतरिक्ष में रहकर राजा को समझाने लगी ;-
" देख राजा ! तू मृगया करते हुए आश्रम में पहुँचा था .........उससे इस पुत्र का जन्म हुआ । इसके जन्म के बाद रोग-ग्रस्त होकर ऋषिदत्ता मर गई और इन्द्रानी हुई । मैं वही हूँ । मैंने तेरे इस पुत्र का पालन किया । स्मरण कर और अपने इस पुत्र को सम्भाल । "
राजा की स्मृति जागृत हुई । उसने पुत्र को उठाकर छाती से लगाया । मैं अपने स्थान चली गई । राजा ने उसी समय पुत्र का राज्याभिषेक किया और संसार की विचित्र दशा देखकर , वैराग्य प्राप्त कर प्रव्रजित हो गया । वह संयम का पालन कर स्वर्गवासी देव हुआ । एणीपुत्र राजा ने सन्तान प्राप्ति के लिए तेले की तपस्या करके मेरी आराधना की । मेरे निमित्त से उसके एक पुत्री हुई । प्रियंगुमंजरी वहीं है । उसने स्वयंवर में आये हुए सभी राजाओं की उपेक्षा कर दी । सभी राजाओं ने एणीपुत्र राजा पर हमला कर दिया । किन्तु मेरी सहायता से एणीपुत्र की विजय हुई और सभी राजा हार कर भाग गए । वहीं प्रियंगुमंजरी तुम पर आसक्त हुई और तुम्हें प्राप्त करने के लिए उसने मैरी आराधना की । मेरी ही आज्ञा से द्वारपाल ने तुम्हें निमंत्रण दिया था । किन्तु तुम्हें विश्वास नहीं हुआ और तुम नहीं गए । अब कल तुम वहाँ जाना । तुम्हें द्वारपाल बुलाने आएँगा । तुम उस राजकुमारी का पाणिग्रहण कर लेना । यदि तुम्हें किसी प्रकार के वरदान की आवश्यकता हो , तो बोलो । "
देवी की बात सुनकर वसुदेव ने कहा -" जब मैं आपको स्मरण करुँ , तब अवश्य पधारें । " देवी ने वसुदेव जी की बात स्वीकार की और अपने स्थान पर चली गई । दूसरे दिन द्वारपाल के बुलाने पर वसुदेव जी प्रियंगुसुन्दरी के स्थान पर गए और वही गन्धर्व-विवाह कर लिया । इसके बाद अठारहवें दिन द्वारपाल ने राजा को इस गन्धर्व-विवाह की सूचना दी । राजा , पुत्री और जामाता को अपने साथ राज-भवन में ले आया ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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09-12-2020
2️⃣1️⃣
सोमश्री से मिलन और मानसवेग से युद्ध
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वैताढ्य पर्वत पर गंधसमृद्ध नाम का नगर था । गंधारपिंगल वहाँ का शासक था । उसके प्रभावती नाम की पुत्री थी । वय-प्राप्त होने पर वह देशिटन करती हुई सुवर्णाभ नगर आई । वहाँ अचानक उसकी रानी सोमश्री से मिलना हो गया । वे दोनों स्नेह बंधन में बन्ध गई । सोमश्री को पति-विरह से खेदित जानकर प्रभावती बोली - " सखी ! तू चिन्ता मत कर । मैं अभी जाती हूँ और तेरे पति को लेकर शीघ्र लौटूँगी । मैं वेगवती जैसी वंचक नहीं हूँ । तू चिन्ता छोड़ दे । " इतना कहकर वह श्रावस्ति नगरी गई और वसुदेवजी को ले आई । वसुदेवजी को मानसवेग की ओर से भय था ही । इसलिए वे सावधानी पूर्वक सोमश्री के साथ रहे । ' कुछ दिन बाद मानसवेग ने वसुदेव को देखा और तत्काल उन्हें पकड़ लिया , किन्तु इससे उत्पन्न कोलाहल से आकर्षित हो कर , कई वृद्धजन वहाँ आये और उन्होंने वसुदेव को मुक्त कराया । अब वसुदेव और मानसवेग के साथ सोमश्री के सम्बन्ध में विवाद होने लगा । दोनों पक्ष सोमश्री पर अपना-अपना दावा करने लगे । समाधान नहीं होने पर दोनों वहाँ से चलकर वैजयंती नगरी के शासक राजा बलसिंह के पास, न्याय कराने के लिए आए। वहाँ सूर्पक आदि भी पहुँच गए । मानसवेग ने कहा - " सोमश्री सबसे पहले मेरे मन में बसी हुई थी । मैने इसे अपनी मान लिया था , किन्तु वसुदेव ने चालबाजी से उसको प्राप्त कर लिया । अतएव सोमश्री मुझे मिलनी चाहिए । दूसरी बात यह है कि यह व्यक्ति बड़ा चालाक और धोखा-बाज है । इसने मैरी आज्ञा प्राप्त किए बिना ही छलपूर्वक मैरी बहन वेगवती को प्राप्त कर , उसके साथ लग्न कर लिया । वह बड़ा धूर्त है । इसे इसकी धूर्तता का दण्ड भी मिलना चाहिए ।
वसुदेव ने कहा ;- " मैने सोमश्री के साथ लग्न किए है । इसके पिता और माता ने अपनी और सोमश्री की इच्छा से मुझे अपनी पुत्री प्रदान की । मैने विधिवत विवाह किया । अतएव मैं ही सोमश्री का पति हूँ । मानसवेग दुराचारी है , अनधिकारी है । इसे दुराचरण में प्रवृत होने का दण्ड मिलना ही चाहिए और वेगवती ने तो खुद ने मेरे साथ छलपूर्वक , सोमश्री का रुप धारण करके लग्न किये है । अतएव उनके लिए मुझे दोषीं बताना असत्य है । वेगवती स्वयं इस दुराचारी के दुराचार की साक्षी देगी । जिस अधम ने छलपूर्वक सोमश्री का अपहरण किया है , वह कठोर दण्ड का पात्र है ।
न्याय वसुदेव के पक्ष में हुआ और मानसवेग झूठा सिद्ध हुआ । किन्तु उसने न्याय का आदर नहीं किया और वसुदेव से युद्ध करने के लिए तत्पर हो गया । नीलकंठ , अंगारक और सूर्पक आदि भी उसके सहायक हुए । वसुदेव को वेगवती की माता अंगारवती ने , दिव्य धनुष और दो तूणीर दिये और प्रभावती ने प्रज्ञप्ति विद्या दी । विद्या और दिव्यास्त्र से सन्नद्ध होकर वसुदेवजी युद्ध करने लगे । उनके उग्र पराक्रम से थोड़ी देर में ही शत्रुदल पराजित हो गया । मानसवेग को बन्दी बनाकर वसुदेव ने उसे रानी सोमश्री के चरणों में डाला , किन्तु अंगारवती के आग्रह से उसे बन्धन-मुक्त कर दिया । अब तो मानसवेग , वसुदेव का सेवक बनकर रहने लगा । वे सभी विमानारुढ़ होकर महापुर आये और वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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10-12-2020
2️⃣2️⃣
सूर्पक द्वारा वसुदेव का हरण
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सूर्पक के मन में वसुदेव के लिए वैर की ज्वाला अब तक जल रही थी । उसने एक दिन अश्व का रुप धारण किया । आकर्षक अश्व ने वसुदेव को ललचाया । वे उस पर सवार हुए । अश्व भागा , वन में पहुँच कर तो वह उड़ने लगा । वसुदेव समझ गये कि यह किसी शत्रु का षडयन्त्र है । उन्होंने उसके मस्तक पर जोरदार प्रहार किया । अश्व ने वसुदेव को अपनी पीठ पर से नीचे गिरा दिया । सद्भाग्य से वसुदेव जी गंगा नदी में गिरे । नदी पार करके वे किनारे पर रहे हुए एक सन्यासी के आश्रम में पहुँचे । उन्होंने देखा - आश्रम में एक स्त्री अपने गले में हड्डियों की माला धारण करके खड़ी है । पूछने पर सन्यासी ने बताया कि ' यह स्त्री जितशत्रु राजा कि नन्दिसेना रानी और जरासंघ की पुत्री है । इसे एक सन्यासी ने वशीभूत कर लिया था । उस सन्यासी को राजा ने मार डाला , किन्तु मन्त्रयोग से प्रभावित यह स्त्री , अब तक उस सन्यासी की अस्थियों को धारण करती हैं ।"
वसुदेव ने अपने मन्त्रबल से उस स्त्री के कामण छुड़ा दिये । वसुदेव की इस सफलता से प्रभावित होकर जितशत्रु राजा ने अपनी बहिन केतुमति का वसुदेव से लग्न कर दिया ।
इस घटना के समाचार सुनकर जरासंघ के दूत ने जितशत्रु राजा से कहा - " रानी को सन्यासी के प्रभाव से मुक्त कराने वाले महानुभाव से , महाराजा जरासंघजी मिलना चाहते है । इसलिए इन्हें उनकी सेवा में भेजें । " राजा ने वसुदेवजी को रथारुढ़ कर भेजा । वहाँ पहुँचते ही नगर-रक्षक ने उन्हें बन्दी बना लिया । उन्होंने कारण बताया ' किसी ज्ञानी ने उन्हें कहा था कि -" तुम्हारी बहिन नन्दिसेना को सन्यासी के कामण से मुक्त करने वाले पुरुष का पुत्र ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा । " इस भविष्यवाणी का सम्बन्ध तुम से है । तुम्हारा पुत्र महाराज का घातक बनेगा। इसलिए हम तुमको ही समाप्त कर दें कि जिससे महाराज का वह शत्रु उत्पन्न ही नहीं हो । " वे लोग वसुदेवजी को वध-स्थल पर ले गए । वहाँ मारक लोग तैयार ही थे ।
उस समय गन्धसमृद्ध नगर के राजा गन्धारपिंगल ने किसी विद्या के द्वारा अपनी पुत्री प्रभावती को वरण करने वाले वसुदेव का परिचय प्राप्त कर , प्रभावती की धात्रीमाता भगीरथी को भेजा । भगीरथी तत्काल वध-स्थल पर आई और विद्याबल से वसुदेव को मुक्त करवा कर ले गई । प्रभावती के साथ वसुदेवजी के लग्न हो गए । वहाँ अन्य कन्याओं के अतिरिक्त कुमारी सुकौशला के साथ भी वसुदेवजी के लग्न हुए । वे सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगे ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
2️⃣3️⃣
हंस-कनकवती सम्वाद
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11-12-2020
भरत क्षेत्र में पेढालपुर नामक नगर था- विद्याधरों के भव्य नगर जैसा । भव्य भवनों , प्रासादों , अट्टालिकाओं , गृहोद्यानों , वाटिकाओं और ऋद्धि-सम्पत्ति से सुशोभित एवं दर्शनीय था । वहाँ सभी ऋतुएँ अनुकूल रह कर जन-जीवन को सुखमय बनाती थी न्याय-नीति तथा धर्म में तत्पर महाराजा हरिश्चन्द्र वहाँ के शासक थे। उनके उत्तम चरित्र एवं निष्पक्ष न्याय की यशोपताका संसार में फहरा रही थी । लज्जा , शील एवं उत्तम गुणों से युक्त महारानी लक्ष्मीवती , राजा की प्राणवल्लभा थी । महारानी से एक पुत्री का जन्म हुआ । कनकवती का शरीर विद्युत्त-प्रभा के समान देदीप्यमान , आकर्षक , मोहक यावत् सुन्दर था । वह देवलोक से च्यव कर आई थी । पूर्वभव में वह महाऋद्धिशाली कुबेर देव की अग्रमहिषी थी । यहाँ उसकी देह-कांति सर्वोत्तम एवं सर्वाकर्षक थी । देवांगना पर अत्यंत प्रीति होने के कारण जन्म-समय कुबेर ने कनक-वृष्टि की थी । इसी निमित्त राजा ने पुत्री का नाम
' कनकवती ' रखा । कनकवती क्रमशः विकसित और सभी कलाओं में प्रवीण हो यौवनवय को प्राप्त हुई । महाराजा ने पुत्री के योग्य वर की बहुत खोज की । अन्त में निराश होकर स्वयंवर समारोह का आयोजन किया ।
किसी समय राजकुमारी अपने प्रमोद-कक्ष में बैठी थी कि अकस्मात् एक राजहंस आकर खिड़की पर बैठ गया । हंस अत्यंत श्वेत वर्ण का सुन्दर था । उसकी आँखें , चोंच और चरण लाल थे । उसके कंठ में सोने की माला थी । उसकी बोली बड़ी मधुर एवं सुहावनी थी । हंस को देखकर कुमारी समझ गई कि यह हंस , किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा पालित है । उसी ने इसे आभूषण पहिनायें है । कुमारी ने चतुराई से हंस को पकड़ लिया । हंस के रुप और कोमलता पर मोहित हो कर राजकुमारी ने अपनी सखी को हंस को बन्द करने के लिए पिंजरा लाने का आदेश दिया । यह सुनकर हंस बोला ; -
" राजकुमारी ! तू समझदार एवं चतुर है । मुझे पिंजरे में बन्द करने से तुझे कोई लाभ नहीं होगा । मुझे खुला ही रहने दे । मैं तेरा हितेषी हूँ और तुझे एक प्रियजन का शुभ संदेश देने आया हूँ ? "
हंस की मानुषी-वाणी सुन कर कुमारी चकित हो कर बोली-
" हंस ! तू विलक्षण जीव है । कौन है मैरा वह प्रियजन , जिसका तू मुझे शुभ संदेश देने आया है ? "
" सुन्दरी ! विद्याधर-पति कोशल नरेश की सुकोशला पुत्री के युवक पति , यादव-कुल-तिलक , कुमार वसुदेव ही वे श्रेष्ठ पुरुष-रत्न है , जो रुप , गुण और कलाओं में सर्वोत्तम है । उनके जैसा श्रेष्ठ पुरुष अन्य कोई नहीं है । जिस प्रकार तू स्त्रियों में श्रेष्ठ रत्न है , वैसे वसुदेव भी अनुपम पुरुष-रत्न है । मैंने तुम दोनों की जोड़ी उपयुक्त समझकर , वसुदेव से तुम्हारी प्रशंसा की और उनके मन में तुम्हारें प्रति अनुराग उत्पन्न किया । वे तुम्हारें स्वयंवर में आवेंगे । स्वयंवर-सभा में आयें हुए अन्य प्रत्याशी राजाओं में उनका रुप एवं तेज विशिष्ट होगा । जिस प्रकार तारा-मण्डल में चन्द्रमा श्रेष्ठ है उसी प्रकार उस सभा में वसुदेव श्रेष्ठ पुरुष होंगे ।तू उन्हें पहिचान कर उन्हीं का वरण करना । बस अब मुझे छोड़ दे। मैं तेरे हित में कार्य करुँगा ।"
हंस की वाणी से कनकवती प्रसन्न हुई । उसे भी अपने लिए हंस को मुक्त करना हितकारी लगा । उसने सोचा -' यह हंस कोई मामूली पक्षी नहीं होगा । पक्षी के रुप में कोई विशिष्ट आत्मा है । ' उसने हंस को छोड़ दिया । हंस उड़ गया और आकाश में रह कर कुमारी के पास एक चित्रपट डाला , जिसमें वसुदेवजी का रुप आलेखित था । हंस आकाश में रह कर बोला -
" भद्रे ! इस चित्र में उस विशिष्ट युवक का रुप उतारा गया है । इसे भली प्रकार देखकर ध्यान में जमा लें । यही पुरुष स्वयंवर में आएगा । "
कनकवती चित्र देखकर प्रसन्न हुई और बोली ; -
" भव्यातमा ! आप कौन है ? मैं नहीं मानती कि आप पक्षी है । अवश्य ही आप कोई महापुरुष हैं, या देव है और मैरे हित के लिए आपने रुप परिवर्तन करके यह कष्ट उठाया है । "
राजकुमारी ने देखा - उस हंस पर एक खेचर पुरुष सवार है । वेश और आभूषण से वह सुशोभित है और देवपुरुष के समान दिखाई देता है । उसने कहा - " मैं चन्द्रातप नामक खेचर हूँ और तेरे भावी पति की सेवा में रहता हूँ । हाँ , कुमार वसुलेव यहाँ स्वयंवर मेः , दूसरे व्यक्ति के दूत बनकर , तुम्हारें पास आवेंगे । तुम सावधान रहना , भुलावें में मत आना । मैंने चित्रपट तुम्हारी सावधानी के लिए ही दिया है । "
खेचर चला गया । राजकुमारी ने सोचा - सद्भाग्य से ही मुझे ऐसा दैविक-संदेश प्राप्त हुआ । वह अनिमेष नयनों से चित्र देखनें लगी । मोहावेग में विरह -पीड़ित हो कर वह नि:श्वास लेने लगी । कभी उस चित्र को मस्तक पर चढ़ाती और कभी हृदय से लगाती । उसके सोच-विचार का विषय , वसुदेव कुमार ही बन गया था ।
चन्द्रातप, कनकवती के पास से विदा होकर , विद्याधर नगर गया और विद्याशक्ति से उसी रात्रि वसुदेवजी के शयन-कक्ष में पहुँचा । वसुदेवजी निन्द्रमग्न थे । चन्द्रातप उनके पाँव दबाने लगा । वसुदेव जागे। चन्द्रातप ने एकान्त में वसुदेव को कनकवती का सःदेश सुनाते हुए कहा - " कनकवती आपके विरह में तड़प रही है। मैने आपका चित्र बना कर उसे दिया था । चित्र देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई ।उसे मस्तक और हृदय से लगाया । वह आप ही के विचारों में मग्न हो गई । आगामी शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन स्वयंवर होगा । आज कृष्ण पक्ष की दशवी तिथि है । आपको वहाँ यथासमय पहुँच जाना है । वह सुन्दरी आपकी प्रतिक्षा में ही है ।"
- " मैं स्वजनों की अनुज्ञा लेकर सायंकाल के समय प्रस्थान करुँगा । तुम मुझे प्रमोद वन में मिलना । वहाँ से अपन साथ ही चलेंगे ।"
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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2️⃣4️⃣
वसुदेवपर कुबेर की कृपा + कनकवती से लग्न
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12-12-2020
स्वजनों की आज्ञा लेकर वसुदेव पेढालपुर पहुँचे । हरिश्चन्द्र नरेश ने वसुदेव का स्वागत-सत्कार किया और उन्हे लक्ष्मीरमण उद्यान के भवन में ठहराया । उद्यान अत्यंत रमणीय था । वसुदेव उद्यान की शोभा देख ही रहे थे कि वहाँ एक रत्न-जड़ित देव-विमान उतरा । वसुदेव को ज्ञात हुआ कि यह ' कुबेर नामक वैमानिक देव ' का विमान है । विमान रुका । विमान में बैठे हुए देव की दृष्टि वसुदेव पर पड़ी । देव ने सोचा - ' यह मनुष्य कोई अलौकिक प्रतिभा वाला है । इस प्रकार की आकृति भूचर में तो क्या , विद्याधरों और देवों में भी नहीं मिलती । वास्तव में यह कोई उत्तम भाग्यशाली पुरुष है । देव ने ज्ञानबल से वसुदेव को पहिचाना , फिर संकेत करके अपने पास बुलाया । वसुदेव चलकर देव के निकट आये और प्रणाम किया । देव ने उचित सत्कार के बाद कहा;-
" महाशय ! आपके योग्य ही मैरा एक काम है । मैं चाहता हूँ कि आप मेरे दूत बनकर राजकुमारी के पास जावें और उसे मैरा संदेश देवें कि -
" देवेन्द्र के उत्तर-दिशा के लोकपाल कुबेर ( जो वैश्रमण कहलाते है ) तुम्हें चाहते है । पूर्वभव में तुम कुबेर की प्रिय देवांगना थी । तुम्हारे स्नेह के कारण वे यहाँ आये हैं ।स्वयंवर में तुम उन्हें ही अपना पति बनाना । मानुषी होते हुए भी कुबेर तुम्हें देवी के समान ही स्वीकार करेंगे ।"
" मेरी ओर से तुम यह संदेश , कनकवती को दो और उसे मेरे अनुकूल बनाओं । मेरे प्रभाव से तुम दूसरों से अदृश्य रहकर कनकवती तक पहुँच सकोंगे । "
वसुदेव अपने आवास में आये और राजसी-वेशभूषा उतार कर , दूत के योग्य साधारण वस्त्र पहिने और राज्य के अन्त:पुर में आये । कनकवती के स्वयंवर की हलचल वहाँ भी बहुत थी । दास-दासियाँ इधर-उधर जा-आ रही थी । वे बिना रोकटोक के अन्त:पुर में पहुँचे । दासियों की बातचीत और गमना-गमन से अनुमान लगाकर , वे राजकुमारी की ओर बढ़ रहे थे । एक दासी ने दूसरी दासी से पूछा - " राजदुलारी अभी कहाँ है ? क्या कर रही है ? " उसने कहा-" वे अपने कक्ष में अकेली बैठी है ।" यह बात सुनकर वसुदेव उसी ओर गए और राजकुमारी के समक्ष पहुँच गए । उस समय राजकुमारी चित्र देखने में तन्मय हो रही थी । वसुदेव पर दृष्टि पढ़ते ही वह स्तब्ध रह कर , अपलक देखती रही-कभी चित्र को ओर कभी वसुदेव को । अचानक ही अपनी इष्ट-सिद्धि देखकर उसकी प्रसन्नता का पार नहीं रहा । वह वसुदेव का सत्कार करने उठी और बोली ; -
" हृदयेश्वर ! मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि आप अनायास घर बैठे ही मुझे प्राप्त हो गए । मेरे मनोरथ सफल हुए । देव ने मुझे आपका जो संदेश दिया था, वह पूर्ण रुप से सत्य सिद्ध हुआ ।"
" भद्रे ! मैं तुम्हारा पति नहीं । मैं तो तुम्हारे पति का सन्देशवाहक दूत हूँ । तुम्हारे पुण्य अत्यंय प्रबल है । तुम मनुष्य नहीं , एक महान वैभवशाली देव की पत्नी होगी । तुम्हें पहले जो संदेश मिला था , वह मैरे लिए नहीं , इन्द्र के लोकपाल कुबेर के लिए था । वे यहाँ आये है । मैं तुम्हें उनका संदेश सुनाने आया हूँ । तुम स्वयंवर में उन्हें वरण कर के , उनकी पटरानी बनों " - वसुदेव राजकुमारी को समझाने लगे ।
" महाभाग ! वे कुबेर देव , अब मेरे लिए आदर-सत्कार के योग्य है। उन्होंने स्नेह-वश मैरी वर्तमान दशा की ओर नहीं देखा होगा । आप स्वयं सोचिये कि कहाँ तो वे वैक्रिय-शरीरी देव और कहाँ मैं हाड़-मांसादि युक्त दुर्गन्धमय औदारिक शरीरधारिणी नारी ? उनका मैरा संबंध कैसे हो सकता हैं ? मैं समझती हूँ कि आपको दूत बनाना भी कदाचित् किसी सुखद उद्देश्य से हो !"
- " शुभे ! तुम्हें देव की अवगणना नहीं करनी चाहिए । इसका परिणाम हितकारी नहीं होगा , कदाचित् तुम्हें अनिष्ट परिणाम भोगना पड़े । तुम्हें ज्ञात होगा कि ऐसी अवगणना का फल ' दवदन्ती' ( दमयंती ) के लिए कितना अनिष्टकारी हुआ था ? सोचो और अपने निर्णय पर पुनः विचार करों " - वसुदेव ने कुमारी को समझाया ।
-" आपके द्वारा " कुबेर " नाम सुनते ही मेरे मन में उनके प्रति आकर्षण बढ़ा । मैं भी सोचती हूँ कि मेरा उनसे पूर्वभव का कोई संबंध है । फिर भी भव-संबंधी अनुलघनीय विपरितता की उपेक्षा कैसे हो सकती है ? मैं उनका आदर-सत्कार कर सकती हूँ , किन्तु पति के रुप में स्वीकार नहीं कर सकती । आप इस विषम स्थिति की ओर उनका ध्यान खिंचेंगे, तो वे अवश्य समझ जाएँगे । हृदयेश्वर ! आप ही मैरे पति हैं । आपने मैरे हृदय में स्थान पा लिया है । अब वह स्थायी ही रहेगा । इस हृदय में पति-भाव से अब कोई प्रवेश नहीं कर सकता । मेरी वरमाला आज आप ही के कण्ठ में आरोपित होगी " - कनकवती ने अपना निर्णय सुना दिया ।
वसुदेव लौटे और अदृश्य रह कर ही बाहर निकले । कुबेर को राजकुमारी का अभिप्राय सुनाने लगे । कुबेर ने उन्हें रोककर कहा -
" मैं सब समझ गया हूँ । वास्तव में तुम उत्तम पुरुष हो । तुमने निर्दोष भाव से अपने कर्तव्य का पालन किया । मैं तुम्हारें सरल एवं निष्कपट भाव से प्रसन्न हूँ । "
देव ने वसुदेवजी पर तुष्ट होकर उन्हें ' सुरेन्द्रप्रिय ' गन्ध से सुवासित ऐसे दो देवदूष्य ( वस्त्र ) , ' सूरप्रभ ' नामक सिरोरत्न ( मुकुट ) ' जलगर्भ ' नामक कुण्डलजोड़ी, ' शशि-मयूख ' नामक दो केयूर ( भुजबंध ) ,' अर्धशारदा ' नाम की नक्षत्रमाला ( 27 मोतियों का हार ), सुदर्शन मणि से जड़ित दो कड़े , ' स्मरदारुण ' नामक कटिसूत्र , दिव्य पुष्पमालाएँ और दिव्य विलेपन दिये । वसुदेव का ऐसा दिव्यरुप देखकर राजा और सभी लोग मुग्ध हुए । राजा हरिश्चन्द्र ने , स्वयंवर-सभा में पधारने की देवराज कुबेर से प्रार्थना की । कुबेर अपने विमान सहित स्वयंवर -स्थल पर आये । वे अपनी देवांगनाओं के साथ सिंहासन पर बैठे थे । उनके समीप ही वसुदेव बैठे थे । सभा में बहुत से राजा अपने-अपने सिंहासन पर बैंठे थे । कुबेर ने अर्जुन-स्वर्ण से बनी हुई अपनी नामांकित मुद्रिका वसुदेव को दी , जिसे पहनते ही दूसरों के लिए वे कुबेर की ही मूर्ति के समान दिखाई देने लगे ।
राजकुमारी स्वयंवर-मण्डप में आई । उसने श्वेत वस्त्र धारण किये थे । वह लक्ष्मी देवी के समान सुसज्ज थी । अनेक सखियों, दासियों और धात्रीमाता से घिरी हुई और हाथ में माला लिए हुए वह आगत राजाओं और राजकुमारों का परिचय पाती हुई आगे बढ़ने लगी । उसने सभी राजाओं और राजकुमारों को देख लिया, किन्तु वसुदेव दिखाई नहीं दिए । वह उदास हो कर , स्तब्धतापूर्वक खड़ी रही । उसने जब किसी को भी वरण नहीं किया , तो सभी प्रत्याशी विचार करने लगे-' क्या हम सब अयोग्य है ? हम में से कोई भी इसको नहीं भाया ? क्या यह आयोजन व्यर्थ रहेगा और यह कुमारी अविवाहित ही रह जायगी ?' इस प्रकार के संकल्प-विकल्प उनके मन में उठने लगे । कुमारी सोचती थी - " हृदयेश कहाँ छूप गये ? यहाँ क्यों नहीं आए ? क्या मैरी समस्त आशाएँ निष्फल जायगी ? हा , मैरा हृदय क्यों नहीं फटता ? मृत्यु क्यों नहीं आती ?" इस प्रकार निराशापूर्वक चिन्तन करते हुए उसकी दृष्टि लोकपाल कुबेर पर पड़ी । उसने कुबेर को वन्दना की और विनति करने लगी ; -
हा, देव ! मैं पूर्वभव की आपकी प्रिया हूँ । आपने यदि मैरे साथ यह छल किया हो , तो मुझे क्षमा करें । मुझे लगता है कि मुझे संतप्त करने के लिए ही आपने हृदयेश को अदृश्य किये हैं । मुझ पर दया करो- देव !
कुबेर ने हँसकर वसुदेव से कहा -" यह कुबेरकान्ता मुद्रिका अंगुली में से निकाल दो ।" अंगुठी निकालते ही कुमारी को वसुदेव दिखाई दिए । कुमारी की उदासी विलीन हो गई । उसने हर्षावेग युक्त वसुदेवजी के निकट आ कर माला पहिनाई । कुबेर की आज्ञा से देवों ने दुंदभी -नाद किया । अप्सराएँ मंगल गीत गाने लगी । दिव्य वृष्टि हुई और वसुदेव के साथ राजकुमारी कनकवती का लग्न हो गया ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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U
13-12-2020
2️⃣5️⃣
नल-दमयंती आख्यान - कुबेर द्वारा
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विवाहोपरान्त वसुदेव ने लोकपाल कुबेर से पूछा - " देवलोक छोड़कर यहाँ आने का आपका प्रयोजन क्या है ? " देव ने कहा ; -
" इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में , अष्टापद पर्वत के निकट
' संगर नाम का एक नगर था । वहाँ मम्मण नरेश था और वीरमती रानी थी । धर्मविहिन और मलिन मानस राजा और रानी किसी दिन आखेट के लिए वन में गए ।उधर से कुछ सन्त-महात्मा आ रहे थे ।उनका शरीर मैलयुक्त था । राजा की दृष्टि एक मुनि पर पड़ी । । मलिन-गात्र मुनि को देखते ही राजा को विचार हुआ - ' यह साधु मेरे लिए अपशकुन है । आज मुझे मृगया में सफलता नहीं मिलेगी । ' राजा ने कुपित होकर साधु को बन्दी बना लिया । आखेट करके लौटने पर राजा को बन्दी मुनि का स्मरण हो आया । उसने बारह घंटे के बाद उन्हें मुक्त किया और निकट बुलाकर मुनि का परिचय पूछा । मुनिवर ने पाप का दु:खद फल और धर्म का महाफल बताते हुए राजदम्पत्ति को धर्मोपदेश दिया और अभयदान का महत्व समझाया । राजा-रानी पर मुनिराज के धर्मोपदेश का कुछ प्रभाव पड़ा । उन्होंने मुनिवर को आहार-पानी प्रतिलाभित किया और एक उत्तम स्थान पर ठहरने का निवेदन किया । फिर तो राजा प्रतिदिन सन्त संगति करता रहा और यथावसर मुनिवर को प्रतिलाभित भी करता रहा । राज दम्पत्ति ने धर्म-रंग में रंग कर श्रावक-व्रत धारण किये । मुनिराज विहार कर गये । राजा-रानी धर्म का रुचिपूर्वक पालन करने लगे । धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु पा कर वे देवलोक में दम्पत्ति रुप में उत्पन्न हुए ।
मम्मण राजा का जीव देव-भव पूर्ण करके इसी भरतक्षेत्र के पोतनपुर नगर में 'धन्य ' नाम का अहिर-पुत्र हुआ ।वह भाग्यशाली था । वीरमती रानी का जीव भी अहीर जाति में उत्पन्न हो कर धन्य की ' धूसरी ' नामक पत्नी हुई । धन्य, वन में भैंस चराने जाता । वर्षा ऋतु में धन्य भैंस चराने गया । वर्षा जोरदार हो रही थी । उसने अपने बचाव के लिए छाता लगा लिया था । आगे चलते एक तपस्वी महात्मा ध्यानारुढ़ खड़े दिखाई दिए । उन पर वर्षा का पानी पड़ रहा था । शीतल वायु से शरीर काँप रहा था । धन्य के हृदय में अनुकम्पायुक्त भक्ति उत्पन्न हुई । वह तत्काल अपना छाता , महात्मा पर लगाकर खड़ा हो गया । इससे तपस्वी मुनि के परिषह में कमी हुई । वृष्टि दीर्घ काल तक होती रही और धन्य भी उसी भाव से छाता ताने खड़ा रहा । महात्मा का ध्यान पूर्ण हुआ और वर्षा रुक गई । धन्य ने मुनिराज को वन्दना-नमस्कार कर निवेदन किया , - " महर्षि ! यह वर्षा लगातार सात दिन से हो रही है । आप सात दिन से यहाँ निराहार रहे । आपका शरीर अशक्त हो गया है । आप मैरे भैंसे पर बैठें और गांव में पधारें । " मुनिवर ने कहा ; - " भद्र ! साधु तो अपने पाँवों से ही चलते है , किसी भी वाहन पर नहीं बैठते । हमारा अहिंसा-धर्म , किसी भी जीव को किंचित मात्र भी कष्ट देने का निषेध करता है । इसलिए मैं पैदल ही चलूँगा " मुनिराज और धन्य धीरें-धीरें चल कर नगर में पहुँचें । धन्य ने महात्मा से निवेदन किया ; - " आप थोड़ी देर यहाँ ठहरिए , मैं भैसो को दुहकर अभी आता हूँ । " मुनिराज रुक गए । भैंसें दुहकर धन्य ने मुनिवर को पर्याप्त दूध का दानकर पारणा कराया और एक स्थान में ठहराया । वर्षा समाप्त होने पर मुनिराज वहाँ से विहार कर गए ।
धन्य अहीर अपनी पत्नी के साथ श्रावक-व्रत का पालन करने लगा । कालान्तर में वे संसार का त्याग कर सर्वविरत बनें और उदय भाव की विचित्रा से वे हिमवंत क्षेत्र में युगल रुप से उत्पन्न हुए । युगलिक आयु पूर्णकर देवलोक में पति-पत्नी हुए । धन्य का जीव देवायु पूर्णकर इस भरत क्षेत्र के कौशल देश की कोशला नगरी के इक्ष्वाकु-वंशीय निषध नरेश की सुन्दरा रानी की कुक्षि में पुत्र रुप से उत्पन्न हुआ ।उसका नाम ' नल ' रखा गया । नल के कुबेर नाम का छोटा भाई भी था ।धूसरी का जीव , देव-भव पूर्णकरके विदरूभ देश कुण्डिन नगर के राजा भीमरथ की पुष्पदंती रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । रानी ने उस रात्रि को स्वप्न में , दावाग्नि से प्रेरित एक श्वेत वर्ण के हाथी को राजभवन में प्रवेश करते हुए देखा । रानी ने अपना स्वप्न राजा को सुनाया । राजा ने कहा - " देवी ! कोई पुण्यात्मा तुम्हारें गर्भ में आया हैं । "
राजा और रानी , भवन-वाटिका में विचरण कर विनोद कर रहे थे कि एक श्वेत वर्ण का हाथी , कही से आकर उनके पास खड़ा रहा और दोनों को सूँड से उठाकर अपनी पीठ पर चढ़ा लिया । फिर वह नगर में भ्रमण कर राजभवन के पास आया और राज-दम्पत्ति को अपनी पीठ पर से उतार कर हस्तीशाला में चला गया ।
गर्भकाल पूर्ण होने पर शुभ घड़ी में रानी के एक पुत्री का जन्म हुआ । कन्या शुभ लक्षणवाली , सुन्दर और मनोरम थी । उसके ललाट पर जन्म से सहज ही तिलक शोभायमान हो रहा था । गर्भ में आते ही माता ने स्वप्न में दावानल से भयभीत हो कर राजभवन में आये हुए श्वेत दन्ती ( हाथी ) को देखा था । इस स्वप्न के आधार पर पुत्री का नाम ' दवदन्ती ' रखा , जिसे बाद में ' दमयंती ' भी कहने लगे । ज्यों-ज्यों कन्या बढ़ती गई , त्यों-त्यों उसका रुप-सौन्दर्य और आभा विकसीत होती गई । वह अपनी सौतेली माताओं , बहिन-बन्धुओं और राजभवन के लोगों में सर्वप्रिय बन गई ।उसके जन्म के पश्चात् राजश्री में भी वृद्धि हुई और राजा का प्रभाव भी बढ़ गया ।
योग्य-वय में दमयंती ने स्त्री-योग्य कलाओं का अभ्यास किया । उसका धर्मशास्त्र का अभ्यास भी असाधारण था । वह कर्मप्रकृति , नवतत्व और स्याद्वाद आदि विषयों की असाधारण ज्ञाता थी । पुत्री के तत्व-विवेचन ने पिता को भी धर्म अभिमुख कर दिया । दमयंती को यौवन-वय प्राप्त होने पर , राजा उसके योग्य वर की खोज में लगा , किन्तु दमयंती के योग्य कोई वर दिखाई नहीं दिया । दमयंती की वय अठारह वर्ष की हुई , तब नरेश ने सोचा -
' पुत्री स्वयं विचक्षण है । वह अपने योग्य वर का चयन स्वयं कर लें , इसलिए स्वयंवर का आयोजन करना ही उत्तम है ।' उसने योग्य दूतों को विभीन्न राज्यों में भेजा और स्वयंवर में उपस्थित होने के लिए राजाओं और युवराजों को आमन्त्रित किया । निर्धारित समय पर सभी आमन्त्रित राजा , अपने राजकुमारों सहित कुंडिनपुर आए। कोशल नरेश निषध भी अपने पुत्र नल और कुबेर सहित आ पहुँचे । कुंडिनपुर के अधिपति महाराज भीमरथ ने सबका उचित स्वागत-सत्कार किया । स्वयंवर मण्डप तैयार करवाया और आगत नरेशों और राजकुमारों के योग्य आसनों की व्यवस्था की। निश्चित समय पर सभी प्रत्याशी बड़ी सज-धज के साथ आयें और अपने-अपने आसन पर बैठें । राजकुमारी दमयंती अपनी सखियों , दासियों और चतुर प्रतिहारी के साथ एक देवी के समान शोभायमान होती हुई मण्डप में पृविष्ट हुई । भीमरथ नरेश के निर्देशानुसार प्रतिहारी , प्रत्येक राजा और राजकुमार का परिचय एवं विशेषता बताती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी । जब वह निषध नरेश के सुपुत्र नल के समीप आई , तो उसे देखते ही , पूर्वभव के सम्बन्ध से प्रेरित होकर युवराज नलकुमार के गले में वरमाला पहिना कर , पति रुप में वरण कर लिया ।सभा ने राजकुमारी द्वारा चुनाव एवं वरण की प्रशंसा की । किन्तु कृष्णराज कुमार को यह सम्बन्ध अखर गया । वह तत्काल आसन से उठकर खड़ा हुआ और बोला -
" दमयंती ने भूल की है । ओ मूर्ख नल ! उतार यह वरमाला ! तू इसके योग्य नहीं है ।यह सुन्दरी मैरे लिए है ।मैं इसको अपनी पत्नी बनाऊँगा ।तू निकलजा यहाँ से । यदि तूझे अपनी शक्ति का घमण्ड़ है , तो उठ और अपने शस्त्र लेकर चल रणभूमि में । मुझ पर विजय पाये बिना, तू दमयंती को प्राप्त नहीं कर सकेगा । "
कृष्णराज की गर्वोक्ति सुनकर नल हँसता हुआ बोला -
" दुष्ट ! तू ईर्ष्या की आग में क्यों जल रहा है ? दमयंती अपना वर चुनने में स्वतंत्र थी । अब वह मैरी हुई और मैरी ही रहेगी ।यदि तेरी मति भ्रष्ट हो गयी और तुझे अपने बल का घमण्ड़ है , तो मैं तुझे शिक्षा देने के लिए तत्पर हूँ । चल और भुगत अपनी दुष्टता का फल । "
दोनों ओर की सेनाएँ शस्त्र सज्ज होकर आमने-सामने खड़ी हो गई । इस विषम परिस्थिति को देखकर दमयंती चिन्ताग्रस्त हो गई । वह सोचने लगी - मैरे लिए युद्ध की तैयारी हो रही है । मैं कितनी दुर्भागिनी हूँ । मेरे ही कारण यह रक्तपात होने वाला है । हे देव ! हे शांति एवं संतोषदायिनी शासनदेवी ! बचाओं - इस मानव-संहारक युद्ध से । सन्मति दो इन ईर्ष्यालु जीवों को । अपनी पवित्र शांति-वर्षा से ईर्ष्या और युद्ध की आग को बुझा दों । हृदयेश को विजय प्राप्त हो । "
इस प्रकार शुभ कामना करती हुई दमयंती ने नमस्कार महामंत्र का स्मरण किया और मन में दृढ विश्वास से संकल्प किया - " मैं जिनेश्वर भगवंत की उपासिका हूँ । मैरे रोम-रोम में धर्म बसा हुआ है । जिनेश्वर भगवंत स्वयं अपरिमित शांति के महासागर हैं । धर्म के प्रभाव से यह उपद्रव शीघ्र ही शांत हो जाय " - इस प्रकार भावपूर्वक बोलती हुई दमयंती ने अंजली भर कर दोनों सेनाओं पर जल छिड़का । उस जल के कुछ छींटे कृष्णराज के मस्तक पर भी पड़े । शुद्ध हृदय की पवित्र एवं उत्कट भावनायुक्त जल के छिटे लगते ही कृष्णराज ने सिर ऊँचा किया । उसने गवाक्ष में जलधारी लिये हुए शांत एवं पवित्र भावना वाली राजकुमारी दमयंती को देखा । उसे लगा जैसे कोई देवी अपने हाथ के संकेत से शांति और पवित्रता का संदेश दे रही हो । उसकी ईर्ष्या की आग बुझ गई । वह शांत हो गया और शस्त्र झुका कर नलकुमार का सम्मान करने लगा । उसके शांत मन में नलकुमार एक भाग्यशाली उत्तम पुरुष लगा । वह तत्काल विनम्र होकर कहने लगा ; -
" महाभाग ! मैंने ईर्ष्यावश आपका अपशब्दों से अपमान किया । यह मैरी वज्र-भूल थी । मैं आपका अपराधी हूँ । कृपया मैरा अपराध क्षमा करें । "
नलकुमार ने विनम्र होकर आए हुए कृष्णराज का सत्कार किया और मिष्ट शब्दों से संतुष्ट कर बिदा किया । भीमरथ नरेश , अपने जामाता का प्रभाव देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और पुत्री के वर-चयन की प्रशंसा करने लगे । उन्होंने स्वयंवर में आए हुए सभी नरेशों को सम्मानपूर्वक बिदा किया और विवाहोत्सव रचा कर दमयंती का नल के साथ लग्न कर दिया । निषध नरेश पुत्र का विवाह कर राजधानी लौट रहे थे । वन में वृक्ष के नीचे ध्यानारुढ़ एक मुनिराज खड़े थे । नलकुमार की दृष्टि मुनिराज पर पड़ी । उन्होंने पिता से कहा -
" पूज्य ! उस वृक्ष के नीचे कोई महात्मा खड़े है , दर्शन-वंदन करना चाहिए । " वाहन से उतर कर पिता -पुत्र मुनिराज के समीप आये । वन्दना की । कुमार ने देखा - महात्मा के शरीर पर भ्रमरवृन्द मँडरा रहा है । कई भ्रमर उनके शरीर को डंक देकर पीड़ित कर रहे थे । ' कदाचित किसी मदान्ध गजराज ने अपने मदझरित गण्डस्थल को खुजालने के लिए महात्मा के शरीर से घर्षण किया हो ! उस घर्षण से गजराज का मद मुनिराज की देह से लिप्त हो गया हो और उसकी सुगंध से भौंरे उपद्रव कर रहे हो । " महात्मा की उत्कट साधना देखकर निषधराज प्रभावित हुए । उनकी भक्ति बढ़ी । उन्होंने महात्मा के शरीर को पोंछकर साफ किया । भौंरो का उपद्रव दूर कर वे आगे बढ़े । दमयंती -युवराज्ञी का नगर-प्रवेश धूमधाम पूर्वक हुआ । नल-दमयंती के दिन सुखभोग पूर्वक व्यतीत होने लगें ।
कुछकाल व्यतीत होने पर निषधराज ने युवराज नल का राज्याभिषेक और कुबेर को युवराज पद देकर स्वयं मोक्ष-साधना में संलग्न हो गए । नल नरेश विधिवत राज्य-संचालन और प्रजा-रंजन में व्यस्त रहने लगे । बुद्धि और पराक्रम सम्पन्न तथा शत्रुता से रहित , नल नरेश का शासन निराबाध चलने लगा । उनके राज्य में वृद्धि हुई । उनका शासन आधे भरत क्षेत्र पर चलता था । राजधानी से दो सौ योजन दूर तक्षशिला नगरी थी । वहाँ का राजा कदंब , नल नरेश के शासन को स्वीकार नहीं करता था और डाह रखता हुआ उद्दण्डतापूर्वक व्यवहार करता था । नल नरेश ने अपना दूत तक्षशिला भेजा और अधीनता स्वीकार करने के लिए सूचना करवाई । कदम्ब को अपने बाहुबल का गर्व था । उसने नल नरेश के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और युद्ध करने के लिए तत्पर हो गया । नल नरेश भी सेना लेकर तक्षशिला पहुँचे और नगरी को घेर लिया । दोनों ओर की सेना युद्ध-क्षेत्र में आमने-सामने जम गई और बाण-वर्षा करती हुई युद्ध करने लगी । सैनिकों और हाथी-घोड़ादि का व्यर्थ संहार रोकने के लिए नल ने कदम्ब को द्वंद युद्ध के लिए प्रेरित किया । सेना का युद्ध रुक गया और दोनों वीर विभीन्न रीति से लड़ने लगे । कदम्ब भी योद्धा था , परंतु नल के समान नहीं । भिन्न-भिन्न प्रकार के दांव-पेंच लगा कर उसने देख लिया कि नल राजा से पार पाना कठिन है । वह अवसर देखकर खिसक गया और एकान्त में जाकर सर्वत्यागी संत हो , ध्यानारुढ़ हो गया । नल नरेश , कदम्ब मुनि के पाह पहुँचे । उन्होंने कहा -" युद्ध में तो मैं आप से विजयी रहा , किंतु धर्म-क्षेत्र में मैं आपकी समानता नहीं कर सकता । हे मुनिराज ! आप क्षमा-श्रमण बन कर आभ्यन्तर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें । मैं आपको वन्दना करता हूँ ।"
कदम्ब-पुत्र जयशक्ति का राज्याभिषेक कर, नल नरेश राजधानी लौटे । उनका शासन निराबाध चलता रहा ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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14-12-2020
2️⃣6️⃣
जुआ खेलकर राज्य हारे + वन गमन
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नल नरेश का भाई कुबेर , कुलांगार था । राज्य- लोभ ने उसे छिद्रान्वेषी बना दिया । वह नल के पतन के निमित्त की ताक में रहा । नल नरेश, न्याय -नीति और सदाचार से युक्त थे । परंतु वे द्युतक्रीड़ा के व्यसनी थे । जुआ खेलने में उनकी विशेष रूचि थी । बड़े-बड़े दांव लगाकर वे पाशा फेंकते थे । कुबेर ने नल से राज्य लेने का यही मार्ग उचित समझा । वह नल के साथ जुआ खेलने लगा । कभी नल की जीत होती तो ,कभी कुबेर की । नल द्युत- क्रीड़ा में प्रवीण था , किंतु दुर्भाग्य का जब उदय होता है , तो बड़े-बड़े निष्णात भी चूक जाते हैं । नल की पराजय का दौर चला । वह दाँव पर , गांव , नगर और मंडल लगाकर हारने लगा और ज्यों-ज्यों हारता गया , त्यों त्यों अधिक दाँव लगाता गया । उसकी हार से हितैषी जनों को चिंता होने लगी । वे ' हा हा कार ' करने लगे । दवदन्ती ने भी नल से प्रार्थना की - 'स्वामी ! अब रुक जाइए । नहीं - नहीं अब मत खेलिए- यह विनाशक खेल । यह खेल हमारा शत्रु बन रहा है । हम सबको विपत्ति में डाल रहा है । नाथ! जरा ठहरो और सोचो , अब तक कितना खो चुके । जो बचा है , उसे ही रहने दो । यदि आपको अपने अनुज बांधव को राज्य देना ही है , तो यों ही दे दो ,जो ' दान ' तो कहा जाएगा । हार से तो दान अच्छा ही है , परंतु इस पापी खेल को बन्द कर दो । स्वामिन ! महापुरुषों ने इसे ' कुव्यसन ' कहा है और इसके दुष्परिणाम बताये हैं । यह सब प्रत्यक्ष हो रहा है । खेल-खेल में राज्य गँवा रहे हो । इतनी आसक्ति किस काम की ? जिस धरा को अनेक भयानक युद्धों और लाखों मनुष्यों के रक्तपात से प्राप्त की , उसे खेल-खेल में गँवा कर हँसी का पात्र मत बनो - देव "
दमयंती की करुण प्रार्थना भी नल को नहीं डिगा सकी वहाँ से हटकर दमयंती अपने कुल-प्रधानों के पास गई और कहने लगी -" अपने स्वामी को इस विनाशकारी खेल से रोको । " प्रधानों ने भी प्रार्थना की , किन्तु नल ने किसी की बात नहीं मानी और खेल में हारते-हारते , राज्य और दमयंती सहित सारा अन्त:पुर भी हार कर दरिद्र बन गया । अपने अंग के आभूषण भी द्युतार्पण कर दिये । नल को दरिद्र बनाकर कुबेर ने कहा -
" अब आपका राज्य भवन और किसी भी वस्तु पर कोई अधिकार नहीं रहा । इसलिए अब आपको यहाँ से चला जाना चाहिए । "
नल ने कहा ; - " पुरुषार्थी को लक्ष्मी प्राप्त करना अधिक कठिन नहीं होता , किन्तु तुझे घमण्ड नहीं करना चाहिए । "
नल अपने पहिने हुए वस्त्रों से ही वहाँ से निकल कर जाने लगा । नल को जाता हुआ देखकर दमयंती भी उसके पीछे जाने लगी । दमयंती को जाती देखकर कुबेर क्रोधपूर्वक बोला ; -
" दमयंती ! मैनें तुझे दाँव पर जीता है । अब तू नल की पत्नी नहीं रही । तुझ पर मेरा अधिकार है । चल तू अन्त:पुर में चल और अन्त:पुर को सुशोभित कर । "
कुबेर के दुष्टतापूर्ण वचन सुनकर मन्त्री आदि शिष्ट-जनों ने कुबेर से कहा -
" दमयंती सती है । यह दूसरे पुरुष की छाया का भी स्पर्श नहीं करती । इसलिए इसको रोकने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए तथा ज्येष्ठ बन्धु की भार्या तो माता के समान होती है । कुलीन व्यक्ति उसे तुच्छदृष्टि से भी नहीं देखते , तब राज्य-परिवार में और राज्याधिकार पाने वाले व्यक्ति के मुँह से ऐसे शब्द नहीं निकलने चाहिए । यदि कुछ दु:साहस किया , तो सती का कोप तुम्हें नष्ट कर देगा । अब तुम सभ्यतापूर्वक इन्हें बिदा करो और इन्हें पाथेय सहित एक रथ भी दो । "
मन्त्रियों के परामर्श से कुबेर ने दमयंती को जाने दिया और पाथेय सहित रथ भी दिया । नल ने पाथेय और रथ लेना अस्वीकार करते हुए कहा -
" मैं अपना आधे भरत क्षेत्र का राज्य छोड़ कर जा रहा हूँ , तब रथ क्यों लूँ और पाथेय भी कब तक मेरी पूर्ति करेगा ? नहीं मैं नहीं लूँगा । "
- ' राजेंद्र ! हम आपके चीरकाल के सेवक हैं और आपके साथ ही वन में आना चाहते हैं , परंतु ये कुबेर हमें रोकते हैं । ये भी इस राजवंश के ही वंशज है । यहां के राजवंश और राज्याधिकारी को सहयोग देना हमारा कर्तव्य है । इसलिए हम चाहते हुए भी आपके साथ नहीं आ सकते । इस विपत्ति के समय महारानी दमयंती ही आपकी पत्नी, सहधर्मिणी , मंत्री , मित्र और सेविका है । आप इनकी सुख - सुविधा का पूरा ध्यान रखिएगा । हमें चिंता है कि महारानी दमयंती , शिरीष के पुष्प के समान कोमल चरण वाली , कंकर- पत्थर काँटे और पथरिली -भूमि पर किस प्रकार चल सकेगी ? भयानक वन के कष्ट कैसे सहन कर सकेगी ? इस तीव्र उष्ण ऋतु की भयानक उष्णता , तवे के समान तपती भूमि और लू को झुलसा देने वाली लपटों में यह कोमलंगी किस प्रकार सुरक्षित रह सकेगी ? इसलिए हमारी प्रार्थना है कि आप रथ की भेंट स्वीकार कर लीजिए । आपका प्रवास कल्याणकारी हो ।"
मंत्रियों और शिष्ट- जनों की आग्रहपूर्ण प्रार्थना सुनकर नल ने रथ स्वीकार किया और दमयंती सहित रथ में बैठकर नगर के बाहर जाने लगा । प्रयाण के समय दमयंती के शरीर पर मात्र एक ही वस्त्र था । राजरानी को एक ही वस्त्र से ढकी हुई और सर्वथा अकिंचन दशा में देखकर नगर की महिलाएं रोने लगी ।
नगर के मध्य होकर रथ जाने लगा , तब उन्होंने दिग्गज के आलान- स्तंभ जैसा पाँच सौ हाथ ऊंचा एक स्तंभ देखा । नल रथ से नीचे उतरे और जिस प्रकार हाथी , कदलीस्तंभ को उखाड़े , उसी प्रकार नल ने उस स्तंभ को उखाड़ डाला और फिर वही गाड़ दिया । नल का ऐसा पराक्रम जानकर नागरिक जन आश्चर्य करने लगे । नल जब बालक थे और कुबेर के साथ क्रीड़ा करने के लिए नगर के बाहर उद्यान में गए थे , तो वहां उन्हें एक महा ज्ञानी महात्मा मिले थे । उन महर्षि ने कहा था कि -
" पूर्व भव में मुनि को दिए हुए क्षीरदान के प्रभाव से यह नल , आधे भरत का स्वामी होगा । यह इस नगरी के दीर्घकाय स्तंभ को उखाड़ेगा और इस नगरी का जीवन पर्यंत स्वामी रहेगा ।"
महर्षि के वचनों का पूर्वभाग तो सत्य सिद्ध हुआ, किंतु राज्य - त्याग ने भविष्य को शंकास्पद बना दिया है । लगता है कि ये कुछ दिनों बाद पुनः लौटेंगे और अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे । महर्षि का कहा हुआ भविष्य अन्यथा नहीं होता ।"
इस प्रकार के उद्गार सुनता हुआ नल , नगर छोड़कर बाहर चला गया । दमयंती का रुदन रूक ही नहीं रहा था । अश्रु -प्रवाह से उसका वस्त्र और रथ भीग रहे थे । रथ वन में प्रवेश कर चुका था ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
U
15-12-2020
2️⃣7️⃣
नल-दमयंती का वियोग
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रथ चलते - चलते भयानक वन में प्रवेश किया । नल ने दमयंती से पूछा ; - " देवी ! अभी हम बिना लक्ष्य के चले जा रहे हैं । हमारा प्रवास किसी निश्चित स्थान की ओर नहीं है । अब हमें गंतव्य स्थान का निश्चय करना है । कहो, हम कहां जाएं ?
"स्वामिन ! अपन कुंडिनपुर चलें । विवाहोपरांत वहां जाना हुआ ही नहीं । वहां जाने पर मेरे माता-पिता प्रसन्न होंगे और अपन भी सुख पूर्वक रह सकेंगे । मेरे माता-पिता पर कृपा कर वही पधारे ।
नल ने कुंडिनपुर की दिशा में रथ बढ़ाया । वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गए त्यों - त्यों अटवीं की भयंकरता बढ़ती गई । व्याघ्र , सिंह , रींछ आदि क्रूर प्राणियों से भरपूर उस वन में तस्करों का समूह भी इधर-उधर घूम रहा था । म्लेच्छ एवं भील जाति के क्रूर लोग , मद्यपान करके नाच रहे थे । कोई ढोल बजाता , तो कोई सींग फूँक कर बजाता और कोई उछल - कूद करता । कोई मल्ल- युद्ध में संलग्न था । उन सब का काम , चोरी, लूटमार और अपहरण करके दुर्गम वन में छुप कर निश्चिंत हो जाना था । नल राजा के रथ को देखकर दस्यु वर्ग प्रसन्न हुआ । वह सन्नद्ध होकर रथ के निकट आने लगा । यह देखकर नल खड़ग हाथ में लेकर रथ से नीचे उतरा और तलवार घुमाता हुआ उस दस्यु-दल में घुस गया । दमयंती , नल के बाहुबल का पराक्रम जानती थी । वह रथ से नीचे उतरी और नल का हाथ पकड़कर बोली -" ये तो बिचारे क्षुद्र पशु हैं । इनका रक्त बहाने में कोई लाभ नहीं । ये यों ही भाग जाएंगे । "
नल को रोककर दमयंती एकाग्रता पूर्वक ' हुँ 'कार करने लगी । उसके बार-बार किए हुए ' हुँ ' कार शब्द दस्युओं के कानों में हो कर तीक्ष्ण लोह- शलाका की भांति गर्म स्थल का भेदन करने लगे । दस्यु-दल दिग्मूढ़ बन कर पलायन कर गया । उनका पीछा करता हुआ नल और उसके पीछे दमयंती बहुत दूर निकल गए । इधर एक दूसरा चोर- दल इनका रथ उड़ाकर ले गया । दुर्भाग्य का उदय वृद्धिगत था । विपत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी । नल नरेश , अब अनाथ स्त्री- पुरुष की भाँति दमयंती का हाथ पकड़कर वन में भटकने लगे । कोमलाँगी दमयंती के कोमल चरण , नग्न पृथ्वी का प्रथम बार स्पर्श सहन नहीं कर सके । कष्ट की उपेक्षा करती हुई पति के साथ चलने लगी । नल , दमयंती के दु:ख को जानता था । उसने देखा कि दमयंती के चरण -चिन्ह रक्त- रंजित हो रहे हैं ।उसका ह्रदय आर्द्र हो गया । उसने दमयंती का पट्टबंध ( जो पटरानी का सूचक था ) फाड़कर दमयंती के चरणों में बांधा । थोड़ी दूर चलकर दमयंती थक गई , तो एक वृक्ष के नीचे बिठाकर नल अपने उत्तरीय वस्त्र से पंखे के समान वायु संचालन करने लगा । पलाश -पत्र में पानी लाकर दमयंती की प्यास बुझाने लगा । दमयंती कष्ट से कातर होकर बोली -"नाथ !अब यह अटवी कितनी शेष रही है ?"
- " देवी ! सौ योजना अटवी में से हम अभी केवल पाँच योजन ही आए हैं । अभी तो 95 योजन शेष रही है । अब धीरज रखकर सहन करने से ही हम पार पहुंच सकेंगे।"
दंपति चलते रहे । सूर्यास्त का समय होने लगा । नल ने अशोक वृक्ष के पल्लव एकत्रित किए और उनके कठोर डंठल तोड़कर शय्या के समान बिछाया और दमयंती को शयन करने का आग्रह करते हुए कहा - " प्रिये ! सो जाओ । मैं अन्त:पुर रक्षक के समान तुम्हारी रक्षा करूंगा । " नल ने उस पल्लव -शय्या पर अपना उत्तरीय वस्त्र बिछाया । दमयंती अरहंत भगवान को नमस्कार कर , परमेष्ठी का ध्यान करती हुई सो गई ।
नल चिंता - मग्न हुआ । अपनी दशा और गमन- लक्ष्य पर विचार करता हुआ वह सोचने लगा ; -
" जो पुरुष , ससुराल का आश्रय लेता है , उसका प्रभाव नष्ट हो जाता है । वह अधम पुरुष है । संपन्न अवस्था में , ससुराल के आग्रह पूर्ण आमंत्रण पर , कुछ दिनों के लिए जाना तो शोभाजनक है , किंतु विपन्न अवस्था में दरिद्र बनकर दीर्घकाल के आश्रय के लिए जाना तो नितांत अनुचित है । मुझे अपनी हीनतम अवस्था में वहां नहीं जाना चाहिए । लोग मेरी ओर अंगुली उठा कर हीन- दृष्टि से देखेंगे और कहेंगे - " ये पक्के खिलाड़ी हैं , जो राज्य गँवा कर , अब ससुराल की शरण में पड़े हैं । मैं ऐसा अपमान कैसे सहन कर सकूंगा ? "
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
🏹 *जैन महाभारत* 🏹
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U
16-12-2020
2️⃣8️⃣
दमयंती को वन में ही छोड़ दिया
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राज्यच्युत विपदयग्रस्त नल नरेश के स्वाभिमान ने उन्हें ससुराल जाने से रोका । उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वे इस दशा में ही वहां नहीं जाएंगे । अब उनके सामने दमयंती की सुख -सुविधा का प्रश्न था । एक ही दिन के कष्ट में दमयंती की दशा , मुरझाई हुई चंपक लता सी हो गई थी । वह विदेश के कष्ट कैसे भोग सकेगी ? अब जीवन यापन का आधार मजदूरी , नौकरी या दासवृति के सिवाय और है ही क्या ? यह कोमलाँगी कैसे सहेगी ये दु:ख ? विचार के अंत में नल ने दमयंती को वहीं छोड़कर एकाकी चले जाने का निश्चय किया । उसने सोचा- " दमयंती को मेरे वियोग से अपार दु:ख होगा , किंतु वह कुछ देर बाद संभल जाएगी और पितृगृह या ससुरगृह - जहां चाहे चली जाएगी । उसकी सुरक्षा की तो कोई चिंता नहीं है । उसका शील और धर्म उसकी रक्षा करेगा और वह यथा स्थान पहुंचकर सुखी हो जाएगी । " यद्यपि नल के धैर्य का बांध टूट रहा था , तथापि विवश था । उसके समक्ष और कोई चारा ही नहीं था । उसने साहस के साथ धैर्य धारण किया और छुरी से अपनी अंगुली चीर कर अपने रक्त से दमयंती के वस्त्र पर लिखा ; -
" प्रिय जीवनसंगिनी ! तुम मेरी प्राणाधार हो । मैं अपने को बरबस पत्थर बना कर तुमसे पृथक हो रहा हूं । इस भयानक वन में तुम्हें अकेली निराधार छोड़कर जा रहा हूं- भावी असह्य यातनाओं से बचाने के लिए । मेरा भविष्य अंधकारमय है , दु:ख पूर्ण है और अनेक प्रकार के विघ्नों से भरपूर है । तुम इन कष्टों को सहन नहीं कर सकोगी । मैं अपने दुष्कृत्य का फल स्वयं ही भोगूँगा । यदि भवितव्यता अनुकूल हुई , तो फिर कभी तुमसे मिलूंगा । तुम संतोष धारण करके अपने शरीर और मन को स्वस्थ रखना । जिस भवितव्यता ने वियोग का असह्य दु:ख दिया , वही संयोग का परम सुख भी देगी । इस निकट के वृक्ष की दिशा में जो मार्ग जाता है वह विदर्भ की ओर जाता है और उसके बाई ओर का मार्ग कौशल की ओर । जहां तुम्हारी इच्छा हो , चली जाना और सुख पूर्वक रहना । आश्रित होकर रहना मुझे अच्छा नहीं लगता , इसीलिए मैं जा रहा हूं । मुझे क्षमा कर दो देवी !"
मनुष्य जीवन में कभी ऐसा समय भी आता है , जब भावनाओं को दबा कर अनिच्छनीय कार्य करना पड़ता है । हृदय में उठते हुए वेगमय गुबार को दबाता हुआ और अश्रुपात करता हुआ , नल दमयंती को छोड़ कर चल दिया । वह आंखें पोंछ कर पीछे मुड़ - मुड़कर पत्नी को कातर -दृष्टि से देखता जाता था । जब तक वह दिखाई दी मुड़ - मुड़कर देखता रहा । कुछ दूर निकल जाने पर उसे विचार हुआ- " रात का समय है । यदि कोई सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक पशु उसे अपना भक्ष बना ले , तो ? " वह लौटा और ऐसे स्थान पर छुप कर बैठा - जहां से सोती हुई प्रिया दिखाई दे । दमयंती को भूमि पर पड़ी देखकर नल का भावावेग उभरा ; - " हा, देव ! यह महिला - रत्न जिसे सूर्य की किरणें भी स्पर्श नहीं कर सकती थी , जिसने कभी भूमि पर पांव नहीं रखा था , जिसकी सेवा में अनेक दास - दासियाँ सद उपस्थित रहती थी , वह कौशल देश की महारानी आज अनाथ दशा में एक दरिद्रतम स्त्री के समान भूमि पर पड़ी है । हा , नल ! तू कितना दुर्भागी, पापी और अधम है । तेरे दूराचरण और दूव्यर्सन के कारण ही यह राजदुलारी आज भिखारिणी से भी बुरी दशा में पड़ी है । " वह बैठा हुआ रोता रहा और सोती हुई प्रियतमा को देखता रहा । प्रात: काल दमयंती को जागृत होती देखकर वह उठा और चल दिया ।
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✒️ *संकलन : शैलेन्द्रकुमार जैन , इन्दौर*
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