क्षमा
*कल पूछे गए सवालों के जवाब*
प्रश्न 1751 क्षमा से जीव क्या प्राप्त करता है ?
उत्तर *क्षमा करने से जीव मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता है। मानसिक प्रसंता को प्राप्त हुआ व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्री भाव उत्पन्न करता है। मैत्रीभाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है।*
प्रश्न 1752 इस श्लोक का अर्थ क्या है ?
*खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे ।*
*मित्ती मे सव्वेभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ।।*
उत्तर *मैं सभी जीवों को क्षमा देता हूं, सभी जीव मुझे क्षमा दें। सभी प्राणियों के प्रति मेरी मैत्री भाव है। किसी भी प्राणी के प्रति मेरे मन में वैरभाव नहीं है।*
प्रश्न 1753 धार्मिक साहित्य में कितनी जीवयोनियां बताई गई है ?
उत्तर *धार्मिक साहित्य में चौरासी लाख जीवयोनियां बताई गई है। उन चौरासी लाख जीवयोनियों में अनंत जीव होते हैं।*
प्रश्न 1754 खमतखामणा का आधारभूत तत्त्व क्या है ?
उत्तर *खमतखामणा का आधारभूत तत्व है -- सहनशीलता। हमारे भीतर सहन करने की शक्ति का विकास होना चाहिए।*
प्रश्न 1755 नीचे दिए गए वाक्य को पूरा करें ।
अग्नि में _____ नहीं डालने से वह अपने आप शांत हो जाती है।
उत्तर *ईधन*
*Chapter - 18*
*क्षमा से क्या मिलेगा ?*
प्रश्न किया गया -- *खमावणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ?* भंते ! क्षमा करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उत्तर दिया गया -- *खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहिं काऊण निब्भए भवइ।* क्षमा करने से जीव मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता है। मानसिक प्रसंता को प्राप्त हुआ व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्री भाव उत्पन्न करता है। मैत्रीभाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है।
क्षमापना अर्थात् खमतखामणा करने से चित्त में प्रह्लादभाव पैदा हो जाता है। जहां-जहां बैर है, दुश्मनी है, गांठ बंधी हुई है, वहां मन में कुछ मलिनता रहती है, क्लेश का भाव रहता है और जिस व्यक्ति के प्रति द्वेष का भाव है, गांठ बंधी हुई है, उसे देखते ही मन में फिर आक्रोश की मानो आग जल जाती है। प्राचीन साहित्य में कहा गया है कि जो वैर का अनुबंध है, वह एक जन्म तक नहीं अनेक जन्मों तक रह सकता है। तेरापंथ के आघ प्रवर्तक आचार्य भिक्षु ने *अनुकंपा की चौपाई* में सुंदर कहा है --
*मित्री सूं मित्रीपणों चलीयों जावें,*
*वेंरी सूं वेंरीपणों चलीयों जावें ।*
मित्र से मित्रता का अनुबंध और शत्रु से शत्रुता का अनुबंध चलता रहता है। जिसके साथ मैत्री का संबंध है, वह भी अनेक जन्मों तक चल सकता है और किसी के साथ वैर का अनुबंध हो गया, वह भी अनेक जन्मों तक चल सकता है। इस जन्म में जिसके साथ मित्रता व अथवा शत्रुता का संबंध है, अगले जन्मों में आपस में मिलेंगे तो संभव है मित्रता अथवा शत्रुता के संस्कार उभर सकते हैं। इसलिए किसी के साथ बोलचाल हो जाए, दुर्व्यवहार हो जाए तो उसको धो डालना चाहिए। साफ कर देना चाहिए। उसे साफ करने का तरीका है -- खमतखामणा करना। अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है -- साॅरी। थोड़ी सी भूल, गलती या आशातना हो जाए तो तत्काल साॅरी बोलकर खेद प्रकट किया जाता है। यह तो छोटी बात के लिए है। कोई बड़ी बात हो जाए तो गांठ बांध कर न रखे। कोई समस्या हो तो मिल बैठकर उसे सुलझाने का प्रयास करे, गांठ को काटने की बजाय उसे खोलने का प्रयास करे और चित्त को प्रसन्न बनाए रखे।
जैन परंपरा में संवत्सरी महापर्व आता है। उस दिन सायंकालीन प्रतिक्रमण के बाद परस्पर खमतखामणा का प्रयोग होता है। यह वर्ष में एक बार आता है। हालांकि हम साधु- साध्वियां एक वर्ष में पचीस बार खमतखामणा करते हैं यानी एक महीने में दो बार पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हैं, इसके बाद खमतखामणा भी करते हैं। इस प्रकार बारह महीनों में चौबीस बार और एक बार संवत्सरी के दिन विराट रूप में खमतखामणा किया जाता है। इस दिन केवल साधु-साध्विया ही नहीं, गृहस्थ लोग भी परस्पर खमतखामणा करते हैं। यह मैत्री का पर्व भाद्रव महीने में आता है। यह एक ऐसा पर्व है कि वर्षभर में हमारे द्वारा कोई अविनय, अशिष्ट व्यवहार हुआ हो या हमारे व्यवहार से किसी को कष्ट हुआ हो तो हम खमतखामणा करके उसे साफ कर लें। उसका महत्वपूर्ण आधारभूत श्लोक है --
*खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे ।*
*मित्ती मे सव्वेभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ।।*
मैं सभी जीवों को क्षमा देता हूं, सभी जीव मुझे क्षमा दें। सभी प्राणियों के प्रति मेरी मैत्री भाव है। किसी भी प्राणी के प्रति मेरे मन में वैरभाव नहीं है। यह केवल बोलना ही नहीं है, वैसी अनुभूति भी होने चाहिए। इसका मतलब है आदमी का मन साफ हुआ है, हल्का हुआ है। यह खमतखामणा का प्रयोग हर जाति, वर्ग और अवस्था वाले व्यक्तियों के लिए आचरणीय है। भले कोई हिंदू या मुस्लिम आदि हों, भले ग्रामीणजन हों या शहरी लोग हों, चाहे छोटे बच्चे हों या बुजुर्ग व्यक्ति हों, चाहे समाज में काम करने वाले हो या राजनीति आदि में काम करने वाले हो, यह क्षमापना की बात सबके लिए उपयोगी है।
मेरे मन में कई बार एक बात आती है कि जब-जब चुनाव का माहौल होता है। तब विभिन्न पार्टियों के लोग एक दूसरे की छींटाकशी भी करते हैं, आक्षेप भी लगाते हैं कभी आधार तो कभी निराधार भी आक्षेप-प्रक्षेप हो सकता है। हमने थोड़ी राजनेताओं से बात की। उन्होंने बताया कि चुनाव के दिनों में एक दूसरे पर आक्षेप-प्रक्षेप न करें या विपक्षियों की कमजोरियां ना बताए तो हमें वोट कैसे मिलेंगे। मेरा मानना है कि यदि चुनाव के दिनों में इस प्रकार का कार्य करना भी पड़े तो कम से कम चुनाव संपन्न हो जाने के बाद आपस में खमतखामणा कर लेना चाहिए। ताकि बाद में मन साफ हो जाए।
बालक बालिकाओं में प्रारंभ से ही खमतखामणा के संस्कार पुष्ट हों। बच्चों के सामने संभावित लंबा भविष्य है। जो वृद्ध हो गए हैं, उनके सामने संभावित भविष्य कुछ कम रह गया है। जो अभी युवा हैं,उनके सामने भी संभावित भविष्य कुछ कम रह गया है। किंतु जो अभी बच्चे हैं, उनके सामने लंबा भविष्य हो सकेगा। उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए। उनमें ज्ञान का विकास हो, अच्छे संस्कारों का विकास हो। बच्चों में निर्भीकता रहे, निडरता रहे। निडरता का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि वह उदंड बन जाएं। निडरता के साथ-साथ नम्रता का योग होना चाहिए। किसी बालक-बालिका से कोई गलती हो जाए, अपनी ओर से किसी को कष्ट हो जाए तो उन्हें परस्पर खमतखामणा कर लेना चाहिए ताकि मैत्रीपूर्ण संबंध बने रह सकें।
आदमी के जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग आ जाते हैं, कोई ऐसी बात हो जाती है। जिससे मन में गांठ बंध जाती है। पूज्य गुरुदेव तुलसी मेवाड़ यात्रा कर रहे थे। मैं भी गुरूदेव के साथ ही था। एक गांव में पूज्य गुरुदेव का पादार्पण हुआ। ज्ञात हुआ कि गांव में किसी बात को लेकर आपस में विवाद चल रहा है। विवाद से सम्मुख लोगों में से एक व्यक्ति को गुरुदेव ने कहा -- तुम ध्यान दो, इस विवाद को मिटा दो। वह बोला -- गुरुदेव ! में आपका भक्त हूं, श्रावक हूं। आप आदेश दे तो मैं धूप में खड़ा-खड़ा सूख जाऊंगा किंतु इस विवाद को नहीं मिटाऊंगा। उस भाई में कितनी पकड़ थी। बात बहुत तन गई थी। हालांकि फिर उसे समझाया गया और उसने भी स्वीकार किया कि मैं बात को छोड़ दूंगा, विवाद को संपन्न कर दूंगा। आदमी में क्षमा का भाव जाग जाए तो किसी बात को मिटाने में सहायता मिल जाती है।
आदमी के भीतर कितने प्रकार के विकार हैं। अशुभ भाव है जैसे -- आक्रोश का भाव- वैमनस्य का भाव, दुराग्रह का भाव आदि-आदि। आदमी विचार करे, चिन्तन-मंथनपूर्वक इन विकारों पर ऐसा प्रहार करे जिससे इन विकारों के स्थान पर क्षमा, सामंजस्य,अनाग्रह, प्रेम, करुणा आदि भाव स्थापित हो सकें। जहां इस प्रकार के भाव होते हैं वहा सामान्यतया समस्या पैदा ही नहीं होती। कदाचित समस्या उत्पन्न हो जाती तो समाधान भी आसानी से दिया जा सकता है। जहां प्रेम का भाव होता है, वहां खमतखामणा की अपेक्षा ही नहीं रहती। मात्र उपचार की दृष्टि से भले ही खमतखामणा किया जा सकता है किंतु नैश्चयिक दृष्टि से फिर खमतखामणा की जरूरत नहीं रहती।
धार्मिक साहित्य में चौरासी लाख जीवयोनियां बताई गई है। उन चौरासी लाख जीवयोनियों में अनंत जीव होते हैं। पाक्षिक,चातुर्मासिक और संवत्सरी महापर्व के दिन उन सभी चौरासी लाख जीवयोनिक जीवों से परंपरागत रूप से अथवा उपचार से खमतखामणा किया जाता है, यह भी अच्छी बात है। किंतु विशेष रूप खमतखामणा अपने भाई के साथ, पति / पत्नी के साथ करना चाहिए। अपने आसपास रहने वालों के साथ करना चाहिए। जिनके साथ हमारा काम पड़ता रहता है, उनसे उनके साथ खमतखामणा करना चाहिए। जिनके साथ ज्यादा व्यवहार होता है, उनके साथ दुर्व्यवहार होने की संभावना रहती है। इसलिए उनके साथ विशेष रूप से खमतखामणा करना चाहिए। जिससे मन साफ और शांत रह सके।
खमतखामणा का आधारभूत तत्व है -- सहनशीलता। हमारे भीतर सहन करने की शक्ति का विकास होना चाहिए। कोई कुछ भी कह दे, हम उसे सहन करेंगे, यह माद्दा होना चाहिए। सहनशीलता की प्रेरणा बाल्यावस्था से ही दी जानी चाहिए। विद्यार्थी अध्ययन करते हैं, ज्ञानार्जन करते हैं। उनकी ज्ञान शक्ति का विकास होता है, समझशक्ति का विकास होता है। परंतु केवल ज्ञानशक्ति और समझशक्ति का ही विकास न हो, उसके साथ-साथ सहनशक्ति का भी विकास होना चाहिए। जिससे वह प्रतिकूल परिस्थितियों को झेल सके और बड़ी सरलता के साथ अपने परिवार के साथ, अपने साथियों के साथ और अपने संबंधियों के साथ रह सके। जिन बालक-बालिकाओं में ज्ञान शक्ति और समझशक्ति का विकास हो किंतु सहनशक्ति का विकास न हो तो वे परिस्थितियों को जान लेंगे, समझ लेंगे परंतु सहनशीलता के अभाव में उनके मन में प्रतिक्रिया होगी, वेदना होगी और दुःखी बन जाएंगे। इसलिए बालक, बालिकाओं का भविष्य उज्ज्वल बने, उनका जीवन सुखमय, शांतिमय और आनंदमय हो, एकदर्थ अपेक्षा है कि उनमें सहनशक्ति का विकास हो।
पूज्य गुरुदेव तुलसी और पूज्य आचार्य महाप्रज्ञ ने शिक्षा जगत के लिए *जीवन विज्ञान* का प्रारूप प्रस्तुत किया। ताकि विद्यार्थी ऐसे रहस्यों को पकड़ें, ऐसे प्रयोग करें, जिससे उसके भीतर भावात्मक शक्ति का विकास हो सके, भाव शुद्ध रह सके। आदमी में आई. क्यू. का विकास होना चाहिए, इ. क्यू. का विकास भी होना चाहिए इसके आगे एस. क्यू. अर्थात् आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए। जिसमें आध्यात्मिक विकास होता है, उसमें सहनशक्ति का विकास भी संभव है। सहन करने वाला व्यक्ति ही क्षमा कर सकता है और मानसिक प्रसंता को प्राप्त कर सकता है।
समर्थ रामदास एक घर में भिक्षा के लिए गए। द्वार पर खड़े होकर *भिक्षां देहि* यह कहकर भिक्षा की याचना की गृहस्वामिनी उस समय बहुत आक्रोश में थी। क्रोध के आवेग में वह संतुलन नहीं रख सकी। उस समय वह रसोई साफ कर रही थी। उसके हाथ में रसोई साफ करने का वस्त्र *मसौता* था। उस गन्दे मसौते को गृहस्वामिनी ने संत रामदास के मुंह पर फेंक दिया। समर्थ रामदास कुछ नहीं बोले। वे सीधे नदी पर गए और उस कपड़े को रगड़- रगड़कर साफ किया। उसकी बाती बनाई। सांयकाल दीपक में रखकर उस बाती को जलाया और अपने इष्ट की आरती करने लगे। आरती करते-करते उन्होंने अपने इष्टदेव से निवेदन किया -- *प्रभो ! जिस प्रकार यह बाती अंधकार का नाश कर रही है, उसी प्रकार उसे गृहस्वामिनी के भीतर का अंधकार भी दूर हो, उसके भीतर भी प्रकाश पैदा हो यह हो।* यह है व्यक्ति की सहनशीलता और क्षमाशीलता। किसी कवि ने सुंदर कहा है --
*क्षमाशस्त्रं करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति ?*
*अतृणे पतितो वहिः स्वयमेवोपशाम्यति ।।*
क्षमा रूपी शस्त्र जिसके हाथ में है, दुर्जन व्यक्ति उसका क्या अनिष्ट कर सकता है ? अग्नि में इंधन नहीं डालने से वह अपने आप शांत हो जाती है। अपेक्षा है, आदमी क्षमाशील बने, मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त करें, सब के साथ मैत्री भाव रखें और भावशुद्धि के द्वारा परमगति को प्राप्त करें।
प्रश्न 1751 क्षमा से जीव क्या प्राप्त करता है ?
उत्तर *क्षमा करने से जीव मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता है। मानसिक प्रसंता को प्राप्त हुआ व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्री भाव उत्पन्न करता है। मैत्रीभाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है।*
प्रश्न 1752 इस श्लोक का अर्थ क्या है ?
*खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे ।*
*मित्ती मे सव्वेभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ।।*
उत्तर *मैं सभी जीवों को क्षमा देता हूं, सभी जीव मुझे क्षमा दें। सभी प्राणियों के प्रति मेरी मैत्री भाव है। किसी भी प्राणी के प्रति मेरे मन में वैरभाव नहीं है।*
प्रश्न 1753 धार्मिक साहित्य में कितनी जीवयोनियां बताई गई है ?
उत्तर *धार्मिक साहित्य में चौरासी लाख जीवयोनियां बताई गई है। उन चौरासी लाख जीवयोनियों में अनंत जीव होते हैं।*
प्रश्न 1754 खमतखामणा का आधारभूत तत्त्व क्या है ?
उत्तर *खमतखामणा का आधारभूत तत्व है -- सहनशीलता। हमारे भीतर सहन करने की शक्ति का विकास होना चाहिए।*
प्रश्न 1755 नीचे दिए गए वाक्य को पूरा करें ।
अग्नि में _____ नहीं डालने से वह अपने आप शांत हो जाती है।
उत्तर *ईधन*
*Chapter - 18*
*क्षमा से क्या मिलेगा ?*
प्रश्न किया गया -- *खमावणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ?* भंते ! क्षमा करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उत्तर दिया गया -- *खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहिं काऊण निब्भए भवइ।* क्षमा करने से जीव मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता है। मानसिक प्रसंता को प्राप्त हुआ व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्री भाव उत्पन्न करता है। मैत्रीभाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है।
क्षमापना अर्थात् खमतखामणा करने से चित्त में प्रह्लादभाव पैदा हो जाता है। जहां-जहां बैर है, दुश्मनी है, गांठ बंधी हुई है, वहां मन में कुछ मलिनता रहती है, क्लेश का भाव रहता है और जिस व्यक्ति के प्रति द्वेष का भाव है, गांठ बंधी हुई है, उसे देखते ही मन में फिर आक्रोश की मानो आग जल जाती है। प्राचीन साहित्य में कहा गया है कि जो वैर का अनुबंध है, वह एक जन्म तक नहीं अनेक जन्मों तक रह सकता है। तेरापंथ के आघ प्रवर्तक आचार्य भिक्षु ने *अनुकंपा की चौपाई* में सुंदर कहा है --
*मित्री सूं मित्रीपणों चलीयों जावें,*
*वेंरी सूं वेंरीपणों चलीयों जावें ।*
मित्र से मित्रता का अनुबंध और शत्रु से शत्रुता का अनुबंध चलता रहता है। जिसके साथ मैत्री का संबंध है, वह भी अनेक जन्मों तक चल सकता है और किसी के साथ वैर का अनुबंध हो गया, वह भी अनेक जन्मों तक चल सकता है। इस जन्म में जिसके साथ मित्रता व अथवा शत्रुता का संबंध है, अगले जन्मों में आपस में मिलेंगे तो संभव है मित्रता अथवा शत्रुता के संस्कार उभर सकते हैं। इसलिए किसी के साथ बोलचाल हो जाए, दुर्व्यवहार हो जाए तो उसको धो डालना चाहिए। साफ कर देना चाहिए। उसे साफ करने का तरीका है -- खमतखामणा करना। अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है -- साॅरी। थोड़ी सी भूल, गलती या आशातना हो जाए तो तत्काल साॅरी बोलकर खेद प्रकट किया जाता है। यह तो छोटी बात के लिए है। कोई बड़ी बात हो जाए तो गांठ बांध कर न रखे। कोई समस्या हो तो मिल बैठकर उसे सुलझाने का प्रयास करे, गांठ को काटने की बजाय उसे खोलने का प्रयास करे और चित्त को प्रसन्न बनाए रखे।
जैन परंपरा में संवत्सरी महापर्व आता है। उस दिन सायंकालीन प्रतिक्रमण के बाद परस्पर खमतखामणा का प्रयोग होता है। यह वर्ष में एक बार आता है। हालांकि हम साधु- साध्वियां एक वर्ष में पचीस बार खमतखामणा करते हैं यानी एक महीने में दो बार पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हैं, इसके बाद खमतखामणा भी करते हैं। इस प्रकार बारह महीनों में चौबीस बार और एक बार संवत्सरी के दिन विराट रूप में खमतखामणा किया जाता है। इस दिन केवल साधु-साध्विया ही नहीं, गृहस्थ लोग भी परस्पर खमतखामणा करते हैं। यह मैत्री का पर्व भाद्रव महीने में आता है। यह एक ऐसा पर्व है कि वर्षभर में हमारे द्वारा कोई अविनय, अशिष्ट व्यवहार हुआ हो या हमारे व्यवहार से किसी को कष्ट हुआ हो तो हम खमतखामणा करके उसे साफ कर लें। उसका महत्वपूर्ण आधारभूत श्लोक है --
*खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे ।*
*मित्ती मे सव्वेभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ।।*
मैं सभी जीवों को क्षमा देता हूं, सभी जीव मुझे क्षमा दें। सभी प्राणियों के प्रति मेरी मैत्री भाव है। किसी भी प्राणी के प्रति मेरे मन में वैरभाव नहीं है। यह केवल बोलना ही नहीं है, वैसी अनुभूति भी होने चाहिए। इसका मतलब है आदमी का मन साफ हुआ है, हल्का हुआ है। यह खमतखामणा का प्रयोग हर जाति, वर्ग और अवस्था वाले व्यक्तियों के लिए आचरणीय है। भले कोई हिंदू या मुस्लिम आदि हों, भले ग्रामीणजन हों या शहरी लोग हों, चाहे छोटे बच्चे हों या बुजुर्ग व्यक्ति हों, चाहे समाज में काम करने वाले हो या राजनीति आदि में काम करने वाले हो, यह क्षमापना की बात सबके लिए उपयोगी है।
मेरे मन में कई बार एक बात आती है कि जब-जब चुनाव का माहौल होता है। तब विभिन्न पार्टियों के लोग एक दूसरे की छींटाकशी भी करते हैं, आक्षेप भी लगाते हैं कभी आधार तो कभी निराधार भी आक्षेप-प्रक्षेप हो सकता है। हमने थोड़ी राजनेताओं से बात की। उन्होंने बताया कि चुनाव के दिनों में एक दूसरे पर आक्षेप-प्रक्षेप न करें या विपक्षियों की कमजोरियां ना बताए तो हमें वोट कैसे मिलेंगे। मेरा मानना है कि यदि चुनाव के दिनों में इस प्रकार का कार्य करना भी पड़े तो कम से कम चुनाव संपन्न हो जाने के बाद आपस में खमतखामणा कर लेना चाहिए। ताकि बाद में मन साफ हो जाए।
बालक बालिकाओं में प्रारंभ से ही खमतखामणा के संस्कार पुष्ट हों। बच्चों के सामने संभावित लंबा भविष्य है। जो वृद्ध हो गए हैं, उनके सामने संभावित भविष्य कुछ कम रह गया है। जो अभी युवा हैं,उनके सामने भी संभावित भविष्य कुछ कम रह गया है। किंतु जो अभी बच्चे हैं, उनके सामने लंबा भविष्य हो सकेगा। उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए। उनमें ज्ञान का विकास हो, अच्छे संस्कारों का विकास हो। बच्चों में निर्भीकता रहे, निडरता रहे। निडरता का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि वह उदंड बन जाएं। निडरता के साथ-साथ नम्रता का योग होना चाहिए। किसी बालक-बालिका से कोई गलती हो जाए, अपनी ओर से किसी को कष्ट हो जाए तो उन्हें परस्पर खमतखामणा कर लेना चाहिए ताकि मैत्रीपूर्ण संबंध बने रह सकें।
आदमी के जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग आ जाते हैं, कोई ऐसी बात हो जाती है। जिससे मन में गांठ बंध जाती है। पूज्य गुरुदेव तुलसी मेवाड़ यात्रा कर रहे थे। मैं भी गुरूदेव के साथ ही था। एक गांव में पूज्य गुरुदेव का पादार्पण हुआ। ज्ञात हुआ कि गांव में किसी बात को लेकर आपस में विवाद चल रहा है। विवाद से सम्मुख लोगों में से एक व्यक्ति को गुरुदेव ने कहा -- तुम ध्यान दो, इस विवाद को मिटा दो। वह बोला -- गुरुदेव ! में आपका भक्त हूं, श्रावक हूं। आप आदेश दे तो मैं धूप में खड़ा-खड़ा सूख जाऊंगा किंतु इस विवाद को नहीं मिटाऊंगा। उस भाई में कितनी पकड़ थी। बात बहुत तन गई थी। हालांकि फिर उसे समझाया गया और उसने भी स्वीकार किया कि मैं बात को छोड़ दूंगा, विवाद को संपन्न कर दूंगा। आदमी में क्षमा का भाव जाग जाए तो किसी बात को मिटाने में सहायता मिल जाती है।
आदमी के भीतर कितने प्रकार के विकार हैं। अशुभ भाव है जैसे -- आक्रोश का भाव- वैमनस्य का भाव, दुराग्रह का भाव आदि-आदि। आदमी विचार करे, चिन्तन-मंथनपूर्वक इन विकारों पर ऐसा प्रहार करे जिससे इन विकारों के स्थान पर क्षमा, सामंजस्य,अनाग्रह, प्रेम, करुणा आदि भाव स्थापित हो सकें। जहां इस प्रकार के भाव होते हैं वहा सामान्यतया समस्या पैदा ही नहीं होती। कदाचित समस्या उत्पन्न हो जाती तो समाधान भी आसानी से दिया जा सकता है। जहां प्रेम का भाव होता है, वहां खमतखामणा की अपेक्षा ही नहीं रहती। मात्र उपचार की दृष्टि से भले ही खमतखामणा किया जा सकता है किंतु नैश्चयिक दृष्टि से फिर खमतखामणा की जरूरत नहीं रहती।
धार्मिक साहित्य में चौरासी लाख जीवयोनियां बताई गई है। उन चौरासी लाख जीवयोनियों में अनंत जीव होते हैं। पाक्षिक,चातुर्मासिक और संवत्सरी महापर्व के दिन उन सभी चौरासी लाख जीवयोनिक जीवों से परंपरागत रूप से अथवा उपचार से खमतखामणा किया जाता है, यह भी अच्छी बात है। किंतु विशेष रूप खमतखामणा अपने भाई के साथ, पति / पत्नी के साथ करना चाहिए। अपने आसपास रहने वालों के साथ करना चाहिए। जिनके साथ हमारा काम पड़ता रहता है, उनसे उनके साथ खमतखामणा करना चाहिए। जिनके साथ ज्यादा व्यवहार होता है, उनके साथ दुर्व्यवहार होने की संभावना रहती है। इसलिए उनके साथ विशेष रूप से खमतखामणा करना चाहिए। जिससे मन साफ और शांत रह सके।
खमतखामणा का आधारभूत तत्व है -- सहनशीलता। हमारे भीतर सहन करने की शक्ति का विकास होना चाहिए। कोई कुछ भी कह दे, हम उसे सहन करेंगे, यह माद्दा होना चाहिए। सहनशीलता की प्रेरणा बाल्यावस्था से ही दी जानी चाहिए। विद्यार्थी अध्ययन करते हैं, ज्ञानार्जन करते हैं। उनकी ज्ञान शक्ति का विकास होता है, समझशक्ति का विकास होता है। परंतु केवल ज्ञानशक्ति और समझशक्ति का ही विकास न हो, उसके साथ-साथ सहनशक्ति का भी विकास होना चाहिए। जिससे वह प्रतिकूल परिस्थितियों को झेल सके और बड़ी सरलता के साथ अपने परिवार के साथ, अपने साथियों के साथ और अपने संबंधियों के साथ रह सके। जिन बालक-बालिकाओं में ज्ञान शक्ति और समझशक्ति का विकास हो किंतु सहनशक्ति का विकास न हो तो वे परिस्थितियों को जान लेंगे, समझ लेंगे परंतु सहनशीलता के अभाव में उनके मन में प्रतिक्रिया होगी, वेदना होगी और दुःखी बन जाएंगे। इसलिए बालक, बालिकाओं का भविष्य उज्ज्वल बने, उनका जीवन सुखमय, शांतिमय और आनंदमय हो, एकदर्थ अपेक्षा है कि उनमें सहनशक्ति का विकास हो।
पूज्य गुरुदेव तुलसी और पूज्य आचार्य महाप्रज्ञ ने शिक्षा जगत के लिए *जीवन विज्ञान* का प्रारूप प्रस्तुत किया। ताकि विद्यार्थी ऐसे रहस्यों को पकड़ें, ऐसे प्रयोग करें, जिससे उसके भीतर भावात्मक शक्ति का विकास हो सके, भाव शुद्ध रह सके। आदमी में आई. क्यू. का विकास होना चाहिए, इ. क्यू. का विकास भी होना चाहिए इसके आगे एस. क्यू. अर्थात् आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए। जिसमें आध्यात्मिक विकास होता है, उसमें सहनशक्ति का विकास भी संभव है। सहन करने वाला व्यक्ति ही क्षमा कर सकता है और मानसिक प्रसंता को प्राप्त कर सकता है।
समर्थ रामदास एक घर में भिक्षा के लिए गए। द्वार पर खड़े होकर *भिक्षां देहि* यह कहकर भिक्षा की याचना की गृहस्वामिनी उस समय बहुत आक्रोश में थी। क्रोध के आवेग में वह संतुलन नहीं रख सकी। उस समय वह रसोई साफ कर रही थी। उसके हाथ में रसोई साफ करने का वस्त्र *मसौता* था। उस गन्दे मसौते को गृहस्वामिनी ने संत रामदास के मुंह पर फेंक दिया। समर्थ रामदास कुछ नहीं बोले। वे सीधे नदी पर गए और उस कपड़े को रगड़- रगड़कर साफ किया। उसकी बाती बनाई। सांयकाल दीपक में रखकर उस बाती को जलाया और अपने इष्ट की आरती करने लगे। आरती करते-करते उन्होंने अपने इष्टदेव से निवेदन किया -- *प्रभो ! जिस प्रकार यह बाती अंधकार का नाश कर रही है, उसी प्रकार उसे गृहस्वामिनी के भीतर का अंधकार भी दूर हो, उसके भीतर भी प्रकाश पैदा हो यह हो।* यह है व्यक्ति की सहनशीलता और क्षमाशीलता। किसी कवि ने सुंदर कहा है --
*क्षमाशस्त्रं करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति ?*
*अतृणे पतितो वहिः स्वयमेवोपशाम्यति ।।*
क्षमा रूपी शस्त्र जिसके हाथ में है, दुर्जन व्यक्ति उसका क्या अनिष्ट कर सकता है ? अग्नि में इंधन नहीं डालने से वह अपने आप शांत हो जाती है। अपेक्षा है, आदमी क्षमाशील बने, मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त करें, सब के साथ मैत्री भाव रखें और भावशुद्धि के द्वारा परमगति को प्राप्त करें।
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