स्वाध्याय
स्वाध्याय
ध्याय के भेदjain temple25
आचार्याों ने स्वाध्याय के पांच भेद बताये हैं, उनका हमें अच्छी प्रकार से ज्ञान होना चाहिये। आचार्य श्री उमास्वामीने ‘तत्वार्थ सूत्र’ में इस प्रकार कहा है स्वाध्याय के भेद करते हुए -
वाचनापृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायधर्मोंपदेशाः।।25।। अ009।।अर्थ -
1 वाचना - आत्मकल्याण के लिए निर्दोष ग्रन्थों का स्वयं पढ़ना, दूसरों को बताने अथवा पढ़ाने के लिए पढ़ाना, वाचना नामक स्वाध्याय है
2 पृच्छना - सत्पथ की ओर गमन करने के लिए, मार्ग व पदार्थों का स्वरूप निश्चय करना तथा संशय निवारणार्थ प्रश्न पूछना, पृच्छना नामक, स्वाध्याय का द्वितीय भेद है।
3 अनुप्रेक्षा - मन की स्थिरता कायम रखने के लिए, निश्चित किये हुए वस्तु स्वभाव व पदार्थ स्वरूपक ा बार-बार मनन-चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
4 आम्नाय - चित्त रोककर शांतिदायक पाठों को शुद्धतापूर्वक पढ़ना, याद करना, धोकना, मनन करना अम्नाय नामक स्वाध्याय है।
5 धर्मोंपदेश - सत्य की खोज करने के लिए मार्ग तथा संदेह निवृत्ति के लिए पदार्थ का स्वरूप कहना तथा श्रोताओं की सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र में प्रवृत्ति के लिए धर्मोपदेश करना, प्रवचन देना, यह कहलाता है धर्मोंपदेश, स्वाध्याय का पांचवां अंग है। इस प्रकार स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है। मन, वचन, काय से इस स्वाध्याय में रत रहना ही खोज है आत्मा की, प्राप्ति है सुख की, बार (वारगा) है अशुभ को रोकने की।
स्वाध्याय किन ग्रन्थों का?
हमें सही मार्गदर्शन वे ही शास्त्र दे सकते हैं, जिनके रचयिताओं ने सही मार्ग प्राप्त किया हैं जिन्होनंे अपने को भली प्राकर जान, कर्ममन से परे हो संसार को भी जान लिया है, ऐसे भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए, किया है चार ज्ञान के धारक गणधरों ने अर्थ जिनका और संसार-शरीर-भाोगों से विरक्त ऐसे 36 मूलगुणों के धारी आचार्यों ने की जिनकी रचना ऐसे सद्शास्त्र हैं, स्वाध्याय करने योगय। इनके अतिरिक्त रागवर्धक, एकानतपोषक, मिथ्यात्व से परिपूर्ण कुशास्त्रों को पढ़ने से हमारे अंदर एकांत आ जाता है। इसी प्रकार मुक्ति-पथ गामी, वीतरागी, आचार्यों के ग्रन्थाों को पढ़ने-सुनने, अनुभव करने से दिखने लगे सच्चा मार्ग, उत्पन्न हो उठेगी भावों में वीतरागता, हो जायेगा उसी समय भेदज्ञान। इसलिये आचार्यों द्वारा और उनके अनुसार ही जो ग्रन्थों की रचना की गयी हो मात्र वही शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य है। आचार्यों ने उन सब ग्रन्थों को चार भागों मं विभाजित किया है - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग। इन चारों का स्वाध्याय किये बिना अनेकांत हमारे में नहीं आ सकता। इसलिए चारों अनुययोगों का स्वाध्याय करना आवश्यक है। अब आगे चारों अनुयोगों का वर्णन किया जाता है।
चारों ही अनुयोग हैं, वीतरागता सेतु।
जो धारें क्रम से इन्हें, करते हैं जिन हेतु।।30।।प्रथमानुयोग का स्वाध्याय क्यों?
कथानुयोग, जिसको सबसे पहले होने के कारण प्रथमानुयोग कहते हैं इसका स्वाध्याय इसलिए आवश्यक है कि इसमें महापुरूषों के जीवन-चरित्र का वर्णन किया गया है, जिसको पढत्रकर यह पता लगता है कि एक पापी, व्यसनी मनुष्य भी सदाचार का आश्रय लेकर अपने जीवन का उत्थान कर सकता है, मोड सकता है पापों की ओर से अपने को और कर सकता है मुक्ति को प्राप्त क्रम-2 से तथा एक धार्मात्मा मनुष्य भी पापादि कार्यें को करने से दुर्गति का पात्र बन सकता है, पथ-भ्रष्ट होकर संसार-उटवी में भटक सकता है। साथ ही इसमें दुर्बोध तत्वों को साकार रूप दे दिया है। इसलिए इसका स्वाध्याय कर बालबुद्धि भ धर्म के रहस्य को समझकर उसे अपने जीवन में उतार सकता है। कथानक इतने रोचक होते हैं कि पढ़ते-पढ़ते मन कभी नहीं कहता कि बस, ज्यों-ज्यों पढ़ते जाते हैं त्यों-त्यों ही इच्छा बेल बढ़ती जाती है। कथानक मात्र कथानक ही नहीं, यह उन महापुरूषों की गौरव गाथा है, जिन्होंने अपने पुरूषार्थ के बल से समस्त शत्रुओं को जीत मुक्तिवधू को प्राप्त किया है।ऐसे महापुरूषों का चरित्र पढ़ने से जाग उठता है पुरूषार्थ और मोड़ लिया जाता है अपने को पापों की ओर से। कष्ठाअें व दुर्गतियों से भयभीत होकर लगा दिया जाता है मन को धर्मकार्यों में, व्रत-आचरणों में, आत्म-चिन्तन में, मुक्ति-लक्ष्मी से मिलने के लिए। इसलिए हमें प्रथमानुयोग के महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, वरांगचरित्रादि
स्वाध्याय
सत्शास्त्र का वांचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है मोक्षमार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है। सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्याय के लिए अयोग्य समझे जाते हैं।
*अध्याय - 19*
*वाचना से क्या मिलेगा ?*
प्रश्न किया गया -- *वायणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ?* भंते ! वाचना (अध्यापन ) करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उत्तर दिया गया -- *वायणाए णं निज्जरं जणयइ सुयस्य य अणासायणाए वट्टए। सुयस्य अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्मं अवलंबइ। तित्थधम्मं अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ।* वाचना से वह कर्मों को क्षीण करता है। श्रुत की अनाशातना होती है। श्रुत की अनाशातना करने वाला तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेता है। तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेने वाला महानिर्जरा और महापर्यवसान का भागी होता है।
स्वाध्याय तपस्या का एक प्रकार है। स्वाध्याय के पांच प्रकार बताए गए हैं। वे एक प्रकार से अध्यापन की प्रक्रिया के अथवा ज्ञान दान के प्रकार हैं। उनमें एक प्रकार है -- वाचना। वाचना का मतलब है विद्यार्थियों को, शिष्यों को पढ़ाना। विद्यालयों में कितने-कितने विद्यार्थी वाचना प्राप्त करते हैं, ज्ञान प्राप्त करते हैं और स्वयं के अज्ञान को दूर करते हैं। शिक्षक और विद्यार्थी का एक संबंध होता है। शिक्षक का कार्य है ज्ञान देना और विद्यार्थी का कार्य है ज्ञान लेना। शिक्षक वाचना को अथवा ज्ञान देने के कार्य को भार न समझे, मात्र जीविका का साधन न समझे अपितु पुनीत कार्य समझे कि मैं ज्ञान-दान के द्वारा कितनों का अंधकार मिटा रहा हूं।
*अन्धकारनिरोधित्वात् , गुरुरित्यभिधीयते।*
अंधकार को रोकने के कारण शिक्षक का नाम गुरु हो गया। गुरु का बड़ा दायित्व होता है कि वह अपने शिष्यों का, विद्यार्थियों का अज्ञान रूपी अंधकार दूर करे। शिक्षक में तीन बातें होनी चाहिए -- शिष्टता, ज्ञान की योग्यता और ज्ञान-दान में कर्मठता। शिक्षक का जीवन इतना पुनीत हो, सदाचार संपन्न हो कि बोलकर कुछ न कहने पर भी उसके व्यवहार को देखकर विद्यार्थी व्यवहार का प्रशिक्षण प्राप्त कर सके। उसमें नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा हो, अहिंसा और मैत्री की चेतना जागृत हो। उसका जीवन नशा मुक्त हो। ऐसे सदगुण संपन्न शिक्षक को शिष्ट शिक्षक कहा जा सकता है।
शिक्षक स्वयं अध्ययन करे। अपने ज्ञान को स्पष्ट और पुष्ट रखें, जिससे विद्यार्थियों को सही ज्ञान दिया जा सके। हालांकि अध्यापन करने से स्वतः ही शिक्षक का ज्ञान पुष्ट और स्पष्ट होता है। एक दृष्टि से विद्यार्थी शिक्षक होता है और शिक्षक विद्यार्थी होता है। क्योंकि शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी की जिज्ञासा होती है, प्रश्न होते हैं। उससे शिक्षक का ज्ञान और ज्यादा खुलता है, पुष्ट होता है। इस मायने में विद्यार्थी अपने गुरु के शिक्षक बन जाते हैं और चूंकि शिक्षक का ज्ञान विद्यार्थियों की जिज्ञासा के कारण स्पष्ट बनता है इसलिए शिक्षक को विद्यार्थी भी कहा गया है।
शिक्षक में श्रमशीलता होनी चाहिए। वह अपने विषय की पूरी तैयारी करे। बहुत श्रम के साथ और निष्ठा के साथ विद्यार्थियों को पढ़ाए। शिक्षक के मन में यह तड़प होनी चाहिए कि मुझे विद्यार्थियों का निर्माण करना है। मात्र कालांश के समय में ही नहीं यदि अपेक्षा हो तो अतिरिक्त समय में भी पढ़ाने का ज्ञान देने का प्रयास करना चाहिए। धर्म परंपरा में भी ज्ञान दान का क्रम चलता है। धर्मगुरु भी अपने शिष्यों को ज्ञान देते हैं। शास्त्रों में कितना गहन ज्ञान होता है। हम वेदों को देखें, उपनिषदों को देखें, जैन आगमों को देखें, पिटक आदि को देखें, और भी विभिन्न ग्रंथ मिल सकते हैं, जिनमें कितना विशद और विशाल ज्ञान है। गुरु ज्ञान के उन विभिन्न प्रकल्पों में निष्णात होते हैं। अपने शिष्यों को रहस्य बता सकते हैं। यद्यपि स्वयं पढ़ने से भी काफी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। किंतु कुछ रहस्य ऐसे होते हैं जिन्हें विशेषज्ञ गुरु ही प्रकट कर सकते हैं। इसलिए गुरु से ज्ञान लेने की अपेक्षा रहती है।
गुरु का धर्म है, कार्य है कि वह अपने शिष्यों को ज्ञान दे और शिष्य का धर्म है कि वह विनयपूर्वक गुरुद्वारा दीयमान ज्ञान को ग्रहण करे। एक शिष्य के लिए अपेक्षित है कि वह अहंकार मुक्त रहे। गुरु के प्रति विनम्र रहने से ज्ञान प्राप्त हो सकेगा। विद्यार्थी के लिए अपेक्षित है कि वह ज्यादा गुस्सा ना करें, अक्रोध भाव रखें, शांत रहे तो ज्ञान आसानी से प्राप्त हो सकेगा। विद्यार्थी के लिए अपेक्षित है कि वह प्रमाद से बचे, ज्यादा मनोरंजन न करे, नशा न करे, जागरूक रहे, ज्ञान अच्छी तरह मिल सकेगा और विद्यार्थी के लिए यह भी अपेक्षित है कि वह बीमार न बने, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें। रुग्ण व्यक्ति कितना और क्या अध्ययन कर पाएगा? इसलिए शरीर स्वस्थ रहे, उसके लिए योगासन का अभ्यास, खान-पान का संयम, प्रातः काल भ्रमण आदि हो तो शरीर को स्वस्थ रखने में सहायता मिल सकती है। विद्यार्थी के लिए अपेक्षित है कि वह आलस्य न करे। आलस्य मनुष्य का एक शत्रु है जो उसका नुकसान कर देता है। जो व्यक्ति श्रम करता है वह कभी अवसादग्रस्त नहीं बनता।
रात्रि का समय था। लड़का तन्मयता के साथ पढ़ रहा था। मां सरस्वती ने देखा कि कितना श्रमशील विद्यार्थी है। इतनी रात्रि में पढ़ रहा है। कहते हैं कि मां सरस्वती प्रकट हुई और बोली -- वत्स ! मैं तुम्हारी अध्ययन निष्ठा और श्रमनिष्ठा से प्रभावित हूं। इसलिए अब तुम्हें पढ़ना-लिखना बंद कर दो, अपने आप अच्छे अंको से पास हो जाओगे। लड़के ने कहा -- मां ! तुम्हारी बड़ी कृपा है कि मुझे बिना पढ़े ही अच्छे अंक मिल जाएंगे। किंतु मुझे यह वरदान नहीं चाहिए। यदि तुम कुछ देना ही चाहती हो तो इस दीये में तेल डाल दो। यह दीया जलता रहे और मैं रात भर पढ़ता रहूं। कितनी श्रमनिष्ठा और ज्ञान के प्रति कितना अच्छा अध्यवसाय था। ज्ञान के साथ-साथ उसका आचार भी अच्छा बने, क्योंकि ज्ञान का सार है आचार। जैसे -- दूध का सार मक्खन होता है, वैसे ही ज्ञान का सार सदाचार होता है। ज्ञान वृद्धि और सदाचार के साथ-साथ अजीविका प्राप्त हो सके, ऐसी स्थिति का निर्माण भी अपेक्षित होता है। एक विद्यार्थी यदि आजीविका प्राप्ति के योग्य नहीं बन पाता है तो वह अपना परिवार कैसे चलाएगा ?उसके लिए वह ज्ञान भी आवश्यक है।उसमें वह क्षमता भी अपेक्षित है जिसके द्वारा वह कमाई कर सके और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके।
अभिभावक अपने लाडलों को विद्यालय में भेजते हैं। उनके मन में कई कल्पनाएं होती है। हम उन कल्पनाओं को अपनी कल्पनाओं से अनुमानित कर सकते हैं। अभिवाहक यह सोचते हैं कि वर्षों तक हमारा बच्चा विद्यालय में पढेगा तो वह ज्ञान संपन्न बन जाएगा, आजीविका प्राप्ति के योग्य बन जाएगा और संस्कार संपन्न बन जाएगा। ज्ञान संपन्नता, आत्मनिर्भरता और संस्कार संपन्नता -- का इन अपेक्षाओं की पूर्ति विद्या-संस्थाओं से होती है तो वह संस्थान अपने आप में सफल है सुफल है। यदि इन अपेक्षाओं की पूर्ति में कमी रहती है तो मानना चाहिए कि कहीं-न-कहीं कमी है। चाहे शिक्षक में कमी है, चाहे सिस्टम में कमी है या फिर स्वयं विद्यार्थी में कमी है कि वह ठीक तरह ज्ञान प्राप्त नहीं कर रहा है, संस्कार प्राप्त नहीं कर रहा है और योग्यता का विकास नहीं कर पा रहा है।
विद्यार्थी में ज्ञानात्मक विकास के साथ भावनात्मक विकास भी हो। उसके भाव शुद्ध बन सके जिससे वह न अपने लिए समस्या बने, न परिवार के लिए समस्या बने और न समाज के लिए समस्या बने, अपितु उसमें समस्या का समाधान देने की क्षमता का निर्माण हो। अगर विद्यार्थी में अच्छे संस्कार अच्छा ज्ञान और अच्छी क्षमता है तो वह समस्या उत्पादन नहीं, समस्या समाधायक बन सकता है। ज्ञान का अभाव कई बार आदमी को गलत रास्ते पर भी ले जा सकता है। लौकिक विद्या का ज्ञान आवश्यक है तो अलौकिक विद्या का बोध भी अपेक्षित है। जिससे जीवन में संतुलन बना रह सके। ज्ञान अनंत है किंतु जो महत्वपूर्ण है, सारभूत है, उस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। जैसे -- हंस दूध और पानी में से दूध को ग्रहण कर लेता है, वैसे ही ज्ञानार्थी सारयुक्त ज्ञान को प्राप्त करे। इस ज्ञान प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण माध्यम बनती है वाचना। वाचना से निर्जरा होती है और तीर्थधर्म की स्थिरता रहती है। ज्ञान की परंपरा चलती रहती है।
परम पूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने कितना ज्ञान प्राप्त किया और कितनों को बोध दिया, कितनों को ज्ञान देने का प्रयास किया। कितनों को संस्कृत भाषा के ग्रंथ पढ़ाए और तो क्या, आदम संपादन करके कितने-कितने पाठकों के लिए आगम ज्ञान सुलभ बना दिया। कितने-कितने विद्यार्थी साधु-साध्वियों, समण- समणियों ने आचार्य प्रवर के चरणो में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया है। उन विद्यार्थियों में एक नाम मेरा भी है। यह अलग बात है कि किसने, कितना ध्यान आत्मसात किया। फिर भी पूज्य प्रवर के उपपात में बैठकर कुछ सीखने का, पढ़ने का अवसर मिला, यह भाग्य की बात है।आचार्य श्री ने वाचना देकर कितनों पर उपकार किया। ऐसे महामनीषी म, विद्यामनीषी, आगमज्ञानमनीषी व्यक्ति भी कुछ कुछ ही होते हैं। जिनकी अपनी प्रज्ञा होती है, मेधा होती है, अध्यवसाय होता है और जिन्हें अनुकूल स्थितियां मिल जाती हैं।
आर्षवाणी में सुंदर कहा गया है कि वाचना से निर्जरा होती है, श्रुत का सम्मान होता है और श्रुत का सम्मान करने वाला व्यक्ति तीर्थ धर्म का अवलंबन लेता है। तीर्थ धर्म का अवलंबन लेने वाला व्यक्ति कर्मों का और संसार का अंत करने वाला होता है।
ध्याय के भेदjain temple25
आचार्याों ने स्वाध्याय के पांच भेद बताये हैं, उनका हमें अच्छी प्रकार से ज्ञान होना चाहिये। आचार्य श्री उमास्वामीने ‘तत्वार्थ सूत्र’ में इस प्रकार कहा है स्वाध्याय के भेद करते हुए -
वाचनापृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायधर्मोंपदेशाः।।25।। अ009।।अर्थ -
1 वाचना - आत्मकल्याण के लिए निर्दोष ग्रन्थों का स्वयं पढ़ना, दूसरों को बताने अथवा पढ़ाने के लिए पढ़ाना, वाचना नामक स्वाध्याय है
2 पृच्छना - सत्पथ की ओर गमन करने के लिए, मार्ग व पदार्थों का स्वरूप निश्चय करना तथा संशय निवारणार्थ प्रश्न पूछना, पृच्छना नामक, स्वाध्याय का द्वितीय भेद है।
3 अनुप्रेक्षा - मन की स्थिरता कायम रखने के लिए, निश्चित किये हुए वस्तु स्वभाव व पदार्थ स्वरूपक ा बार-बार मनन-चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
4 आम्नाय - चित्त रोककर शांतिदायक पाठों को शुद्धतापूर्वक पढ़ना, याद करना, धोकना, मनन करना अम्नाय नामक स्वाध्याय है।
5 धर्मोंपदेश - सत्य की खोज करने के लिए मार्ग तथा संदेह निवृत्ति के लिए पदार्थ का स्वरूप कहना तथा श्रोताओं की सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र में प्रवृत्ति के लिए धर्मोपदेश करना, प्रवचन देना, यह कहलाता है धर्मोंपदेश, स्वाध्याय का पांचवां अंग है। इस प्रकार स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है। मन, वचन, काय से इस स्वाध्याय में रत रहना ही खोज है आत्मा की, प्राप्ति है सुख की, बार (वारगा) है अशुभ को रोकने की।
स्वाध्याय किन ग्रन्थों का?
हमें सही मार्गदर्शन वे ही शास्त्र दे सकते हैं, जिनके रचयिताओं ने सही मार्ग प्राप्त किया हैं जिन्होनंे अपने को भली प्राकर जान, कर्ममन से परे हो संसार को भी जान लिया है, ऐसे भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए, किया है चार ज्ञान के धारक गणधरों ने अर्थ जिनका और संसार-शरीर-भाोगों से विरक्त ऐसे 36 मूलगुणों के धारी आचार्यों ने की जिनकी रचना ऐसे सद्शास्त्र हैं, स्वाध्याय करने योगय। इनके अतिरिक्त रागवर्धक, एकानतपोषक, मिथ्यात्व से परिपूर्ण कुशास्त्रों को पढ़ने से हमारे अंदर एकांत आ जाता है। इसी प्रकार मुक्ति-पथ गामी, वीतरागी, आचार्यों के ग्रन्थाों को पढ़ने-सुनने, अनुभव करने से दिखने लगे सच्चा मार्ग, उत्पन्न हो उठेगी भावों में वीतरागता, हो जायेगा उसी समय भेदज्ञान। इसलिये आचार्यों द्वारा और उनके अनुसार ही जो ग्रन्थों की रचना की गयी हो मात्र वही शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य है। आचार्यों ने उन सब ग्रन्थों को चार भागों मं विभाजित किया है - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग। इन चारों का स्वाध्याय किये बिना अनेकांत हमारे में नहीं आ सकता। इसलिए चारों अनुययोगों का स्वाध्याय करना आवश्यक है। अब आगे चारों अनुयोगों का वर्णन किया जाता है।
चारों ही अनुयोग हैं, वीतरागता सेतु।
जो धारें क्रम से इन्हें, करते हैं जिन हेतु।।30।।प्रथमानुयोग का स्वाध्याय क्यों?
कथानुयोग, जिसको सबसे पहले होने के कारण प्रथमानुयोग कहते हैं इसका स्वाध्याय इसलिए आवश्यक है कि इसमें महापुरूषों के जीवन-चरित्र का वर्णन किया गया है, जिसको पढत्रकर यह पता लगता है कि एक पापी, व्यसनी मनुष्य भी सदाचार का आश्रय लेकर अपने जीवन का उत्थान कर सकता है, मोड सकता है पापों की ओर से अपने को और कर सकता है मुक्ति को प्राप्त क्रम-2 से तथा एक धार्मात्मा मनुष्य भी पापादि कार्यें को करने से दुर्गति का पात्र बन सकता है, पथ-भ्रष्ट होकर संसार-उटवी में भटक सकता है। साथ ही इसमें दुर्बोध तत्वों को साकार रूप दे दिया है। इसलिए इसका स्वाध्याय कर बालबुद्धि भ धर्म के रहस्य को समझकर उसे अपने जीवन में उतार सकता है। कथानक इतने रोचक होते हैं कि पढ़ते-पढ़ते मन कभी नहीं कहता कि बस, ज्यों-ज्यों पढ़ते जाते हैं त्यों-त्यों ही इच्छा बेल बढ़ती जाती है। कथानक मात्र कथानक ही नहीं, यह उन महापुरूषों की गौरव गाथा है, जिन्होंने अपने पुरूषार्थ के बल से समस्त शत्रुओं को जीत मुक्तिवधू को प्राप्त किया है।ऐसे महापुरूषों का चरित्र पढ़ने से जाग उठता है पुरूषार्थ और मोड़ लिया जाता है अपने को पापों की ओर से। कष्ठाअें व दुर्गतियों से भयभीत होकर लगा दिया जाता है मन को धर्मकार्यों में, व्रत-आचरणों में, आत्म-चिन्तन में, मुक्ति-लक्ष्मी से मिलने के लिए। इसलिए हमें प्रथमानुयोग के महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, वरांगचरित्रादि
स्वाध्याय
सत्शास्त्र का वांचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है मोक्षमार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है। सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्याय के लिए अयोग्य समझे जाते हैं।
*अध्याय - 19*
*वाचना से क्या मिलेगा ?*
प्रश्न किया गया -- *वायणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ?* भंते ! वाचना (अध्यापन ) करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उत्तर दिया गया -- *वायणाए णं निज्जरं जणयइ सुयस्य य अणासायणाए वट्टए। सुयस्य अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्मं अवलंबइ। तित्थधम्मं अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ।* वाचना से वह कर्मों को क्षीण करता है। श्रुत की अनाशातना होती है। श्रुत की अनाशातना करने वाला तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेता है। तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेने वाला महानिर्जरा और महापर्यवसान का भागी होता है।
स्वाध्याय तपस्या का एक प्रकार है। स्वाध्याय के पांच प्रकार बताए गए हैं। वे एक प्रकार से अध्यापन की प्रक्रिया के अथवा ज्ञान दान के प्रकार हैं। उनमें एक प्रकार है -- वाचना। वाचना का मतलब है विद्यार्थियों को, शिष्यों को पढ़ाना। विद्यालयों में कितने-कितने विद्यार्थी वाचना प्राप्त करते हैं, ज्ञान प्राप्त करते हैं और स्वयं के अज्ञान को दूर करते हैं। शिक्षक और विद्यार्थी का एक संबंध होता है। शिक्षक का कार्य है ज्ञान देना और विद्यार्थी का कार्य है ज्ञान लेना। शिक्षक वाचना को अथवा ज्ञान देने के कार्य को भार न समझे, मात्र जीविका का साधन न समझे अपितु पुनीत कार्य समझे कि मैं ज्ञान-दान के द्वारा कितनों का अंधकार मिटा रहा हूं।
*अन्धकारनिरोधित्वात् , गुरुरित्यभिधीयते।*
अंधकार को रोकने के कारण शिक्षक का नाम गुरु हो गया। गुरु का बड़ा दायित्व होता है कि वह अपने शिष्यों का, विद्यार्थियों का अज्ञान रूपी अंधकार दूर करे। शिक्षक में तीन बातें होनी चाहिए -- शिष्टता, ज्ञान की योग्यता और ज्ञान-दान में कर्मठता। शिक्षक का जीवन इतना पुनीत हो, सदाचार संपन्न हो कि बोलकर कुछ न कहने पर भी उसके व्यवहार को देखकर विद्यार्थी व्यवहार का प्रशिक्षण प्राप्त कर सके। उसमें नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा हो, अहिंसा और मैत्री की चेतना जागृत हो। उसका जीवन नशा मुक्त हो। ऐसे सदगुण संपन्न शिक्षक को शिष्ट शिक्षक कहा जा सकता है।
शिक्षक स्वयं अध्ययन करे। अपने ज्ञान को स्पष्ट और पुष्ट रखें, जिससे विद्यार्थियों को सही ज्ञान दिया जा सके। हालांकि अध्यापन करने से स्वतः ही शिक्षक का ज्ञान पुष्ट और स्पष्ट होता है। एक दृष्टि से विद्यार्थी शिक्षक होता है और शिक्षक विद्यार्थी होता है। क्योंकि शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी की जिज्ञासा होती है, प्रश्न होते हैं। उससे शिक्षक का ज्ञान और ज्यादा खुलता है, पुष्ट होता है। इस मायने में विद्यार्थी अपने गुरु के शिक्षक बन जाते हैं और चूंकि शिक्षक का ज्ञान विद्यार्थियों की जिज्ञासा के कारण स्पष्ट बनता है इसलिए शिक्षक को विद्यार्थी भी कहा गया है।
शिक्षक में श्रमशीलता होनी चाहिए। वह अपने विषय की पूरी तैयारी करे। बहुत श्रम के साथ और निष्ठा के साथ विद्यार्थियों को पढ़ाए। शिक्षक के मन में यह तड़प होनी चाहिए कि मुझे विद्यार्थियों का निर्माण करना है। मात्र कालांश के समय में ही नहीं यदि अपेक्षा हो तो अतिरिक्त समय में भी पढ़ाने का ज्ञान देने का प्रयास करना चाहिए। धर्म परंपरा में भी ज्ञान दान का क्रम चलता है। धर्मगुरु भी अपने शिष्यों को ज्ञान देते हैं। शास्त्रों में कितना गहन ज्ञान होता है। हम वेदों को देखें, उपनिषदों को देखें, जैन आगमों को देखें, पिटक आदि को देखें, और भी विभिन्न ग्रंथ मिल सकते हैं, जिनमें कितना विशद और विशाल ज्ञान है। गुरु ज्ञान के उन विभिन्न प्रकल्पों में निष्णात होते हैं। अपने शिष्यों को रहस्य बता सकते हैं। यद्यपि स्वयं पढ़ने से भी काफी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। किंतु कुछ रहस्य ऐसे होते हैं जिन्हें विशेषज्ञ गुरु ही प्रकट कर सकते हैं। इसलिए गुरु से ज्ञान लेने की अपेक्षा रहती है।
गुरु का धर्म है, कार्य है कि वह अपने शिष्यों को ज्ञान दे और शिष्य का धर्म है कि वह विनयपूर्वक गुरुद्वारा दीयमान ज्ञान को ग्रहण करे। एक शिष्य के लिए अपेक्षित है कि वह अहंकार मुक्त रहे। गुरु के प्रति विनम्र रहने से ज्ञान प्राप्त हो सकेगा। विद्यार्थी के लिए अपेक्षित है कि वह ज्यादा गुस्सा ना करें, अक्रोध भाव रखें, शांत रहे तो ज्ञान आसानी से प्राप्त हो सकेगा। विद्यार्थी के लिए अपेक्षित है कि वह प्रमाद से बचे, ज्यादा मनोरंजन न करे, नशा न करे, जागरूक रहे, ज्ञान अच्छी तरह मिल सकेगा और विद्यार्थी के लिए यह भी अपेक्षित है कि वह बीमार न बने, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें। रुग्ण व्यक्ति कितना और क्या अध्ययन कर पाएगा? इसलिए शरीर स्वस्थ रहे, उसके लिए योगासन का अभ्यास, खान-पान का संयम, प्रातः काल भ्रमण आदि हो तो शरीर को स्वस्थ रखने में सहायता मिल सकती है। विद्यार्थी के लिए अपेक्षित है कि वह आलस्य न करे। आलस्य मनुष्य का एक शत्रु है जो उसका नुकसान कर देता है। जो व्यक्ति श्रम करता है वह कभी अवसादग्रस्त नहीं बनता।
रात्रि का समय था। लड़का तन्मयता के साथ पढ़ रहा था। मां सरस्वती ने देखा कि कितना श्रमशील विद्यार्थी है। इतनी रात्रि में पढ़ रहा है। कहते हैं कि मां सरस्वती प्रकट हुई और बोली -- वत्स ! मैं तुम्हारी अध्ययन निष्ठा और श्रमनिष्ठा से प्रभावित हूं। इसलिए अब तुम्हें पढ़ना-लिखना बंद कर दो, अपने आप अच्छे अंको से पास हो जाओगे। लड़के ने कहा -- मां ! तुम्हारी बड़ी कृपा है कि मुझे बिना पढ़े ही अच्छे अंक मिल जाएंगे। किंतु मुझे यह वरदान नहीं चाहिए। यदि तुम कुछ देना ही चाहती हो तो इस दीये में तेल डाल दो। यह दीया जलता रहे और मैं रात भर पढ़ता रहूं। कितनी श्रमनिष्ठा और ज्ञान के प्रति कितना अच्छा अध्यवसाय था। ज्ञान के साथ-साथ उसका आचार भी अच्छा बने, क्योंकि ज्ञान का सार है आचार। जैसे -- दूध का सार मक्खन होता है, वैसे ही ज्ञान का सार सदाचार होता है। ज्ञान वृद्धि और सदाचार के साथ-साथ अजीविका प्राप्त हो सके, ऐसी स्थिति का निर्माण भी अपेक्षित होता है। एक विद्यार्थी यदि आजीविका प्राप्ति के योग्य नहीं बन पाता है तो वह अपना परिवार कैसे चलाएगा ?उसके लिए वह ज्ञान भी आवश्यक है।उसमें वह क्षमता भी अपेक्षित है जिसके द्वारा वह कमाई कर सके और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके।
अभिभावक अपने लाडलों को विद्यालय में भेजते हैं। उनके मन में कई कल्पनाएं होती है। हम उन कल्पनाओं को अपनी कल्पनाओं से अनुमानित कर सकते हैं। अभिवाहक यह सोचते हैं कि वर्षों तक हमारा बच्चा विद्यालय में पढेगा तो वह ज्ञान संपन्न बन जाएगा, आजीविका प्राप्ति के योग्य बन जाएगा और संस्कार संपन्न बन जाएगा। ज्ञान संपन्नता, आत्मनिर्भरता और संस्कार संपन्नता -- का इन अपेक्षाओं की पूर्ति विद्या-संस्थाओं से होती है तो वह संस्थान अपने आप में सफल है सुफल है। यदि इन अपेक्षाओं की पूर्ति में कमी रहती है तो मानना चाहिए कि कहीं-न-कहीं कमी है। चाहे शिक्षक में कमी है, चाहे सिस्टम में कमी है या फिर स्वयं विद्यार्थी में कमी है कि वह ठीक तरह ज्ञान प्राप्त नहीं कर रहा है, संस्कार प्राप्त नहीं कर रहा है और योग्यता का विकास नहीं कर पा रहा है।
विद्यार्थी में ज्ञानात्मक विकास के साथ भावनात्मक विकास भी हो। उसके भाव शुद्ध बन सके जिससे वह न अपने लिए समस्या बने, न परिवार के लिए समस्या बने और न समाज के लिए समस्या बने, अपितु उसमें समस्या का समाधान देने की क्षमता का निर्माण हो। अगर विद्यार्थी में अच्छे संस्कार अच्छा ज्ञान और अच्छी क्षमता है तो वह समस्या उत्पादन नहीं, समस्या समाधायक बन सकता है। ज्ञान का अभाव कई बार आदमी को गलत रास्ते पर भी ले जा सकता है। लौकिक विद्या का ज्ञान आवश्यक है तो अलौकिक विद्या का बोध भी अपेक्षित है। जिससे जीवन में संतुलन बना रह सके। ज्ञान अनंत है किंतु जो महत्वपूर्ण है, सारभूत है, उस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। जैसे -- हंस दूध और पानी में से दूध को ग्रहण कर लेता है, वैसे ही ज्ञानार्थी सारयुक्त ज्ञान को प्राप्त करे। इस ज्ञान प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण माध्यम बनती है वाचना। वाचना से निर्जरा होती है और तीर्थधर्म की स्थिरता रहती है। ज्ञान की परंपरा चलती रहती है।
परम पूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने कितना ज्ञान प्राप्त किया और कितनों को बोध दिया, कितनों को ज्ञान देने का प्रयास किया। कितनों को संस्कृत भाषा के ग्रंथ पढ़ाए और तो क्या, आदम संपादन करके कितने-कितने पाठकों के लिए आगम ज्ञान सुलभ बना दिया। कितने-कितने विद्यार्थी साधु-साध्वियों, समण- समणियों ने आचार्य प्रवर के चरणो में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया है। उन विद्यार्थियों में एक नाम मेरा भी है। यह अलग बात है कि किसने, कितना ध्यान आत्मसात किया। फिर भी पूज्य प्रवर के उपपात में बैठकर कुछ सीखने का, पढ़ने का अवसर मिला, यह भाग्य की बात है।आचार्य श्री ने वाचना देकर कितनों पर उपकार किया। ऐसे महामनीषी म, विद्यामनीषी, आगमज्ञानमनीषी व्यक्ति भी कुछ कुछ ही होते हैं। जिनकी अपनी प्रज्ञा होती है, मेधा होती है, अध्यवसाय होता है और जिन्हें अनुकूल स्थितियां मिल जाती हैं।
आर्षवाणी में सुंदर कहा गया है कि वाचना से निर्जरा होती है, श्रुत का सम्मान होता है और श्रुत का सम्मान करने वाला व्यक्ति तीर्थ धर्म का अवलंबन लेता है। तीर्थ धर्म का अवलंबन लेने वाला व्यक्ति कर्मों का और संसार का अंत करने वाला होता है।
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