कथा श्रेणिक राजा श्रृंखला2

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 47

जंबुस्वामी

2:1:21



जंबुकुमार मातापिता से दीक्षाकी अनुमति मांगते है।  जंबुकुमार के बहुत  समझाने के बाद आख़िर में रुषभदत्त व धारिणी एक शर्त रखते है। जिन 8 श्रेष्ठी कन्याओ के साथ तुम्हारा विवाह तय हुआ है उनके साथ विवाह कर लो। फिर तुम चाहो तो संयम अंगीकार कर लेना। 
 अंदर से मातापिता को विश्वास था कि 8- 8 अनुपम सुंदरियों को पत्नी रूप में पाकर जंबुकुमार संयम की बात भूल जाएंगे। जंबुकुमार ने अनुमति दे दी। 
यहां किसी के साथ छल का कोई उद्देश्य ही नही था। रुषभदत्त ने यह संवाद, यह समाचार उन 8 कन्याओं के मातापिता तक पहुँचाया। 8  कन्याएँ पूर्वभव की स्नेही थी तथा संस्कार भी उत्तम थे। उनका जवाब आ गया। अब हमने जब जंबुकुमार को मन से पति मान लिया है तब उनकी हर बात स्वीकार्य। हम उन्हीं से विवाह करेंगे। उनके मातापिता ने भी पुत्रियों के दृढ़ विश्वास को देखकर अनुमति दे दी। विवाह की तैयारी शुरु कर दी। सभी को यह लग रहा था कि जंबुकुमार विवाह बाद संयम की बात ही भूल जाएंगे।
आखिर विवाह का दिन आ गया। 8 - 8 सुंदर अप्सरा सी कन्याओं के साथ जंबुकुमार का विवाह हुआ। विपुल धनसामग्री प्रितिदान में आई। विवाह की प्रथम रात्री। सुंदर कक्ष सजाया गया। 8 कन्याएँ सज-धज कर अपने पति का संयम आग्रह छुड़ाकर,  संसार के जीवन  में प्रवेश करने के लिए कटिबद्ध थी। बड़े से महल में जहां बाहर से पधारे अन्य रिश्तेदारों के कक्ष से अलग एक सजे-धजे कक्ष में जंबुकुमार ने प्रवेश किया। 8 विवाहिताओं ने उनका स्वागत किया। एक आसन के चारो तरफ लगे  8 आसन पर सभी बिराजित हुए। 

यह जो मिलन था, इतिहास में एक अनूठा मिलन था, जहां विवाह की प्रथम रात्री में  8 विवाहिताओं ने अपने वैरागी पति को संसार सुख की और मोड़ने का भरपूर प्रयास किया था पर,  अंत  में स्वयं उन्हीं का हृदय परिवर्तन होकर वे भी वीर मार्ग पर चल पड़ी थी।  आठों  कन्याओं ने प्रथम तो विविध कथानकों के माध्यम से जंबुकुमार की विरक्ति को मोड़ने का प्रयास किया। 


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र

कल का जवाब  :  ।  जंबूद्वीप के अधिष्ठायक देव का नाम अनाधृत देव ।

आज का सवाल : - जंबुस्वामी का विवाह कितनी श्रेष्ठी कन्याओ से तय हुआ था?


पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 48

जंबुस्वामी
4:1:21

जंबुकुमार व 8 पत्नियों के विवाह की प्रथम रात्री।

जंबुकुमार को वैराग्य से मोड़ने के लिए प्रयासरत आठो पत्नियों ने संसार का सुख, जीवन का आनंद उठाने की बोधरूप कथाएँ कही।
जंबुकुमार ने उन सभी को उन्हीं के कथानकों को एक अलग कथानक से प्रत्युत्तर देकर संसार की विषमता तथा संयम की श्रेष्ठता समझाई। राग के माहौल में उन्होंने वितरागीता को पूर्ण रूप से उजागर किया। ग्रन्थों में यह सब कथाएं उपलब्ध है। विषय की जगह  मिलन की पूरी रात त्याग की बातों में पूर्ण हुई। 
और 
अहो आश्चर्यम !
आठो पत्नियों ने जंबुकुमार की संयम की राह में पत्थर बनने की जगह उसी राह पर अनुगामी बनने का निश्चय कर लिया। यानी कि सभी 8 पत्नियों ने भी संयम स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। अदभुत अदभुत!

चिंतन व स्वकल्याण की भावना कितनी अदभुत।
पर अभी एक और घटना बनी वहां
500 साथियों  के साथ एक प्रभव नामक लुटेरा विवाह में आये रिश्तेदारों व प्रितिदान में मिले धन को लूटने वहां आ पहुँचा था। 
अब?
कौन था यह लुटेरा , प्रभव ?

विंध्याचल के एक राज्य का एक गलत राह पर चलकर बिगड़ा हुआ राजकुमार था वह। राजा ने अपने पुत्र को राज्य से निष्कासित कर दिया तो वह जंगल मे जाकर रहा। अपने जैसे लोगो से मिलकर चोरियां करने लगे। धीरे-धीरे यह चोर साथियों की संख्या 500 हो गई। समय बीतते प्रभव अत्यंत शक्तिशाली बन गया। उसके पास जगत के किसी भी तालों को खोलने की कला विद्या तालोदघाटिनी तथा सभी को गहरी नींद में सुलाने की विद्या अवस्वापिनी भी प्रभव को सिद्ध हो गई थी। अब उसका साहस भी बढ़ने लगा था। धनाढ्य जंबुकुमार के विवाह की बात जानकर बड़ी लूट के आशय से वह जंबुकुमार के घर आया था ।

 दोनो विद्याओं का प्रयोग कर उसने सबको सुला दिया था वह जंबुकुमार के कक्ष तक आ पहुंचा था। कक्ष में प्रवेश कर ही रहा था परन्तु उसने जंबुकुमार व पत्नियों के बीच हो रहे संवाद को सुना। 

उसे आश्चर्य था, मेरी अवस्वापिणी विद्या का जंबुकुमार आदि पर प्रभाव नही हुआ। यही नही उसके 500  साथी भी उसके कक्ष तक आकर स्तंभित हो गये। उसने कक्ष के बाहर से ही जंबुकुमार व पत्नियों के बीच का संवाद सुना, तब उसका आश्चर्य हजार गुना बढ़ गया। यह क्या? भोग के चरमसुख की यानी प्रथम विवाह रात्री पर वैराग्य की बाते? ज्यों-ज्यों सुनता गया उसका चिंतन मुड़ता गया। 

उसने कक्ष में प्रवेश कर जंबुकुमार से उनके पास रही स्तंभिनी विद्या सीखने की मांग की। बदले में अपनी दोनो विद्याएं जंबुकुमार को सिखलाने की तैयारी बतलाई। तब जंबुकुमार ने कहा  मैं वैरागी हुँ। मेरे पास न ऐसी कोई विद्या है न मुझे अब इन विद्याओं की आवश्यकता है।  मैं कल ही संयम अंगीकार करूँगा। यह सुनकर प्रभव ने उनसे ज्यादा संवाद किया। तब जंबुकुमार ने  प्रभव को संसार की नश्वरता व सिद्ध-सुख की आवश्यकता समझाई। मनुष्यभव की सार्थकता किस में है यह समझाई।

अहो अहो आश्चर्यम।
एक खतरनाक लुटेरा, जो 500 चोरों का सरदार था, जिसका जीवन ही पापों में बीता था वह भी वैराग्यवासित हो उठा। उसने भी जंबुकुमार से संयम ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। इसी समय साथी सभी 500 चोरों ने भी संयम लेने का मन बना लिया। एक ही शब्द निकलता है अदभुत।

भोर हुई।

माता धारिणी यह समाचार सुनने को आतुर थी कि आठ पत्नियों ने जंबुकुमार की दीक्षा रोक दी। प्रभात के प्रारंभिक कार्य निपटाकर जंबुकुमार माता-पिता से मिलने आये। आठों पत्नियों के माता-पिता को भी आमंत्रित किया गया। 


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र

कल का जवाब  :  - जंबुस्वामी का विवाह 8 श्रेष्ठीकन्याओ से निश्चित हुआ था।


आज का सवाल : प्रभव किस राज्य का राजकुमार था?

पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -49

जंबुस्वामी
5:1:21

विवाह के दूसरे दिन जंबुकुमार ने धारिणी व रुषभदत्त के साथ 8 श्वसूर व सास को  एकत्र किया।
सभी के सामने जंबुकुमार ने अपने संयम ग्रहण का दृढ़ निर्णय दोहराया उसके साथ ही आठ पत्नियों ने भी अपने संयम स्वीकार करने का निर्णय बताया। सब स्तब्ध रह गए। कहां तो आशा यह थी कि जंबुकुमार अपना निर्णय बदल लेंगे, पर यहां तो आठो पत्नियां भी उनके साथ वीर मार्ग पर चलने को  तत्पर हो गई। रात को आया लुटेरा प्रभव भी उनके साथ दीक्षा लेगा!!!!
जंबुकुमार ने उन सभी  के आश्चर्य को सुंदर  शब्दों में शांत किया। उन्हें संयम के आगे संसार की भौतिक सुख सुविधा के दुःख बताये। अब उनकी वाणी सुनकर  जंबुकुमार के एवं आठ पत्नियों के माता-पिता भी दीक्षा लेने को तैयार हो गए। 500 चोर भी उपस्थित थे। नेता का अनुसरण कर अणगार धर्म स्वीकार करने का उन्होंने भी निश्चय कर लिया। एक वैरागी ने कितनो का जीवन पलट दिया।

बड़े ठाटबाट से जंबुकुमार व 527  मनुष्यों की दीक्षा संपन्न हुई। सुधर्मास्वामी ने प्रभव आदि मुनियों को, जंबूस्वामी को  शिष्यरूप प्रदान किये। जंबूस्वामी की संयम व तप की उत्कृष्ट आराधना के साथ ही उनकी ज्ञान आराधना भी उच्च थी। उनकी जिज्ञासा, उनका विनय, ज्ञान पचाने की उनकी  विशेषताएँ देखकर सुधर्मास्वामी ने उन्हें  आगम की वांचना दी। आज जो आगम उपलब्ध है वह सब सुधर्मास्वामी की जंबूस्वामी को दी हुई वांचना का ही स्वरूप है। धन्य थे गुरु शिष्य दोनो। धन्य है उनका हम पर उपकार। यह जिनवाणी हम तक पहुंचाई।

वीर निर्वाण के 12 वर्ष बाद केवली गौतमस्वामी का कुल 92 वर्ष की उम्र में  निर्वाण हुआ। और उस समय 92 वर्ष की उम्र में सुधर्मास्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। 8 वर्ष तक और जंबूस्वामी केवली सुधर्मास्वामी के निश्रा में विचरते रहे। 100 वर्ष की उम्र में जंबूस्वामी को जिनशासन का उत्तराधिकारी बनाकर सुधर्मास्वामी निर्वाण को प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।

एक योग्य आचार्य बनकर जिनशासन की महत्ती सेवा की। केवलज्ञान प्राप्त किया। अंत मे प्रभवस्वामी को जिनशासन की धुरा सौंपकर वे निर्वाण को प्राप्त हुए। लोकाग्र पर जाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने। चौथे आरे में जन्मे पांचवे आरे में मोक्ष जाने वाले वह अंतिम जीव थे। उनके बाद इस भरत क्षेत्र से मोक्ष का द्वार बन्द हो गया जो अब आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के शासन में ही खुलेगा। यहां द्वार का आशय सांकेतिक है। सिद्ध शिला का द्वार नही होता। पर इस काल में अब इस भरतक्षेत्र से कोई मोक्ष नही जा सकता ।इसलिए ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने द्वार  बन्द किये ऐसे बोला जाता है ।
सिर्फ मोक्ष ही नही , जंबूस्वामी के निर्वाण के बाद मोक्ष के साथ कुल 10 वस्तुओं का विच्छेद हुआ। यानी अब भरत क्षेत्र में ये 10  वस्तुयें हमें प्राप्त नही हो सकती।
वे दस  वस्तुएँ हैं ।

1  -केवलज्ञान, 
2 - मनःपर्यव ज्ञान, 
3 - परमावधि ज्ञान,
4 - परिहार विशुद्ध चारित्र
5 - सूक्ष्म संपराय चारित्र 
6 - यथाख्यात चारित्र
7 - पुलाक लब्धि
8 - आहारक शरीर
9 - क्षायिक समकित
10 - जिनकल्पी मुनिपना



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  -  प्रभव विंध्याचल राज्य का राजकुमार था ।


आज का सवाल : - गौतमस्वामी की कुल उम्र कितनी थी?


पिक प्रतीकात्मक है।
6:1:21

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 50

शालीभद्र जी


जिनशासन के दो अदभुत विरले सितारों की गाथा। जिन्हें सुनकर बस त्याग की पराकाष्ठा की अनुभूति होती है।  साला और बहनोई की कथा।शालीभद्र जी - धन्ना जी

राजगृही नगरी में श्रेणिकराजा का राज्य था। उस समय की कथा है यह : -  धनाढ्य सेठ गोभद्र व माता भद्रा के सुकोमल राजकुमार जैसे पुत्र । पुत्र जन्म के कुछ समय बाद गोभद्र सेठ का देवलोक हुआ। सेठ का व्यापार बहुत विस्तीर्ण था। बहुत सा धन खजानों में भरा हुआ था। अब सभी कारोबारी कार्य माता भद्रा संभाल रही थी। वे भी दक्ष थे। राज संबंधित कार्य में भी भद्रा माता प्रवीण थे। राज के लिए उनकी राष्ट्र भक्ति भी बेजोड़ थी।

कहते है : -  देव बनकर पुत्र-प्रेम वश गोभद्र जी  रोजाना विभिन्न समृद्धि वाली सामग्री की धन की 99 पेटियां शालीभद्र के लिए भेजा करते थे। सोचो , कितना वैभव होगा।
सहज जिज्ञासा होती है कि शालीभद्र को इतनी रिद्धि कैसे मिली?

तो इसके लिए हम  उनका पूर्वभव के बारे में जानकारी समझते है : -
राजगृही के पास एक छोटा गांव,  वहां धन्या नाम की एक ग्वालिन अपने छोटे से पुत्र संगम के साथ रहती थी। बहुत दरिद्र अवस्था मे ये दोनों जी रहे थे पर संस्कार धार्मिक थे। 
एकबार पड़ोस के बच्चों को खीर खाते देख बालक संगम ने माँ से खीर खाने की इच्छा व्यक्त की । घर मे खीर बनाने की सामग्री नही थी। धन्या व्यथित हुई। आसपास की महिलाओं ने खीर बनाने की सामग्री दी। धन्या ने खीर बनाई। संगम काफी उतावला हो रहा था खीर खाने को। खीर बनने के बाद धन्या ने उसे पात्र में डालकर दी और स्वयं पानी भरने चली गई। संगम खीर ठंडी होने की राह देख रहा था। इतने में वहां एक जैन मुनिराज पधारे। संगम को बहुत खुशी हुई। माँ के संस्कार थे। उसने साधुजी का स्वागत किया। अत्यंत अहोभाव से जिस खीर के लिए लालायित था वह पात्र की सारी खीर साधुजी के पात्रो में उंडेल दी। उस समय उसके भाव, सुपात्र दान के भाव इतने उच्च थे , शुभ नाम कर्म का बन्ध कर लिया। उसी शुभनाम कर्म की वजह से इस भव शालीभद्र की रिद्धि प्राप्त की।

पुत्र शालीभद्र ने अभी युवावस्था में कदम रखा था। 32 सुंदर श्रेष्ठी कन्याओं के साथ विवाह हुआ था। माता के रहते शालीभद्र अभी तक व्यवहारिक काम से अछूते ही रहे थे। यही नही , व्यवहार का सामान्य ज्ञान भी अभी उन्हें नही था। माता ने अत्यंत लाड़ में , वैभव में पाला था। घर में ही सारे सुख मुहैया करवाये गये थे ।अभी तक घर से बाहर निकलना तो दूर,  पर सात मंजिला महल के सातवें मंजिल से उन्हें ज्यादा नीचे आने तक का काम नही पड़ता था। बहुत सुकुमाल अवस्था मे शालीभद्र जी पल बढ़ रहे थे।

माता भद्रा की राज निष्ठा का एक दृष्टांत उल्लेखनीय है , जो शालीभद्र कि विरक्ति का निमित्त बना। यह हम  आगे देखेंगे।



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  - गौतमस्वामी की कुल उम्र 92 वर्ष थी।


आज का सवाल : - शालीभद्र जी के पिता का नाम?



पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 51

शालीभद्र जी

7:1:21
भद्रा माता की राज-निष्ठा तथा 
शालीभद्र जी की विरक्ति।

राजगृही नगरी में एक बार एक रत्नकंबल का व्यापारी आया। उसके पास अति मूल्यवान (प्रत्येक एक लाख स्वर्णमुद्रा कीमत के) 16 रत्नकंबल थे। राजगृही नगरी में उसने कंबल बेचने का प्रयास किया। यहां तक कि राजमहल के चक्कर भी लगाये। पर एक लाख सुवर्णमुद्रा का महंगा एक कंबल खरीदने को कोई तैयार नही था। श्रेणिक का राजकोष संपन्न था, परन्तु श्रेणिक उस धन को प्रजा की संपत्ति मानता था। प्रजा की संपत्ति को इस तरह खर्च करना गवाँरा नही था।

वह व्यापारी निराश हो गया, राजगृही जैसी श्रीमंतो की नगरी होते हुए कोई  उसके 1 कंबल तक खरीद नही पाया। तो राजगृही श्रीमंत नगरी कैसे हुई? उस निराशा को शब्दों में अभिव्यक्त करता हुआ राजमार्ग से होते हुए भद्रा माता के महल से गुजरा।

उसके वचन माता भद्रा ने सुने, राजगृही से कोई निराश जाए, अन्य राज्यो में जाकर राजगृही के राजा व राज्य की निंदा करेगा यह भद्रमाता को असह्य लगा। उसने व्यापारी को बुलाया। सत्कार करने  के बाद,  जहां कोई एक कंबल खरीदने को तैयार नही था वहाँ भद्रा ने अपनी 32 पुत्रवधुओं के लिए 32 कंबल मांगे। पर उस व्यापारी के पास 16 थे। भद्रा ने 16 ही कंबल खरीद लिए। और उसी व्यापारी के सामने उस 16 कंबल के 2 - 2 टुकड़े कर अपनी पुत्रवधुओं को पहुंचा दिए। यह देख व्यापारी चकित हो गया। राजगृही की श्रीमंताई, वैभव के लिए बोले उसके शब्दों के लिए माफी मांग कर चला गया। भद्रमाता अब संतुष्ट हुई कि उनकी नगरी की शाख को आंच न आई।

पुत्रवधुओं ने वे कंबल के टुकड़े को वापरकर दूसरे दिन कचरे में निकाल दिए। यह बात दासियों द्वारा राजमहल में पहुंची। राजा श्रेणिक इस लखलूट, अमाप वैभव को जानकर, भद्रमाता की राजनिष्ठा को देख-सुन कर उस वैभव के मालिक शालीभद्र जी से मिलने आये।

माता भद्रा ने उनका आदर सत्कार किया। तब शालीभद्र अपने महल के सातवीं मंजिल पर थे। श्रेणिक ने शालीभद्र से मिलने की इच्छा की। माता ने श्रेणिका सन्देश पहुँचाया - कि हमारे नाथ  आये है । ( कुछ ग्रंथो में शालीभद्र जी का जवाब इस तरह है : - माता, मैं* क्यों आऊं ,  नाथ को खरीदकर अभी गोदाम में रखवा दीजिये। यह उनकी सुकुमालिता, उनके व्यवहारिक नादानी (अनजानेपन) को दर्शाता है। 


2/3 बार सन्देश पहुँचाने के बाद  शालीभद्र जी आये, श्रेणिक से मिले। राजा श्रेणिक ने उन्हें अपनी गोद में बैठाया ,  लेकिन कोमल शय्या पर कांटे की तरह यह गोद उनको चुभने लगी ।
श्रेणिकराजा का यथोचित आदर सत्कार करने के बाद थोड़े समय में महाराज वापिस चले गये। 

सुकुमाल देह वाले शालीभद्र जी इतनी देर में घबरा गये थे। श्रेणिकराजाके जाने के बाद माता से नाथ शब्द का अर्थ पूछा - माता ने बताया : - नाथ मतलब मालिक, स्वामी । राजा हमारे मालिक होते है। 

बस चिनगारी लग गई। 
कैसे ? यह आगे देखेंगे....


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  - शालीभद्र जी के पिता का नाम गोभद्र सेठ था।



आज का सवाल : - माता भद्रा ने कितने रत्न कंबल खरीद लिए

पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 52

शालीभद्र जी चारित्र आगे...
8:1:21

श्रेणिक राजा, 
हमारे नाथ है, मालिक है।
यह शब्द शालीभद्र जी को चुभ गया। अहो, इतना वैभव, इतनी समृद्धि, मेरा इतना सुख होते हुए भी मुझ पर कोई नाथ है? मेरा कोई मालिक है? 
चिंतन बढ़ता गया। वैराग्य के बीज को नाथ शब्द का निमित्त मिलते ही वह पनप कर वृक्ष बन गया।
अब मुझे ऐसा सुख पाना है,  जहां कोई मेरा नाथ नही।और सिद्धत्त्व का वह सुख पाने के लिए एक ही मार्ग है संयम ग्रहण। निर्णय ले लिया अब संयम ग्रहण ही एक उपाय, इस दासत्व से मुक्ति पाने का।
माता भद्रा से आज्ञा मांगी। माता पर तो जैसे वज्रपात हुआ। बहुत प्रलोभन दिए, कई तरह से समझाया गया। कई तरह संबंधो की दुहाई दी। पर शालीभद्र जी अब दृढ़ थे।
आखिर माता ने उनका निर्णय स्वीकार किया। पर उन्होंने शर्त रखी। तेरी साधुजीवन की आदत नही। अचानक संयम की दुष्कर साधना तुम सह नही पाओगे। ऐसे करो धीरे-धीरे सुख वैभव छोड़ते जाओ। जैसे 32 पत्नियों को एक साथ छोड़ना कठिन है। उन्हें एक-एक कर छोड़ते जाओ।

माता की आज्ञा स्वीकार की। रोज धीरे-धीरे सुख सुविधाओं के त्याग के साथ 1- 1 पत्नियों के त्याग प्रारंभ किया। 
इतने बड़े श्रेष्ठी के संयम ग्रहण की बात नगर में फैल गई। उसी नगर में भद्रामाता की पुत्री सुभद्रा का विवाह धन्ना नामक सेठ से हुई थी। धन्ना सेठ के अन्य 7 पत्नियां भी थी।  सुभद्रा को जब यह बात पता चली तो उसकी आँखों से आंसू बह निकले। धन्ना सेठ ने वजह पूछी तो सुभद्रा ने शालीभद्र जी की दीक्षा का सब बताया।
धन्ना सेठ ने कहा -   शालीभद्र कायर है, यदि वीर होता तो एक साथ 32 पत्नियां और सब सुख सुविधा क्यों नही छोड़ता।
सुभद्राजी भाई के *
संसार त्याग के वियोग से संतप्त थी, सहसा उसके मुख से निकल गया : - यह मुख से कहना सहज है, करना सरल नही। इतनी सुख साहबी छोड़ना आसान नही। 
यह धन्ना सेठ को व्यंग्य लग गया। और उसी क्षण सब त्याग करने का निर्णय बता दिया। सुभद्रा आदि 8 पत्नियों ने बहुत समझाया, माफी मांगी परन्तु धन्ना सेठ अब दृढ़ थे ।



घर से निकलकर शालीभद्र जी के यहां आए। और उन्हें समझाया। 
दोनो ने तत्काल दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया।
अब आगे...


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  - माता भद्रा ने 16 रत्न कंबल खरीद लिए।



आज का सवाल : - शालीभद्र जी को क्या बात चुभ गई?

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।
#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 53
9:1:21
शालीभद्र जी चारित्र आगे...


पत्नी के वचन से जाग्रत हुए धन्ना जी ने शालीभद्र जी को भी जगाया। दोनो ने वीर प्रभु के पास जाकर संयम ग्रहण किया। उत्कृष्ट तप व संयम आराधना करते हुए प्रभुके साथ विचरते रहे। 
बारह वर्ष बाद पुनः एकबार वीर प्रभुके साथ राजगृही नगरी पधारे। उद्यान में रहकर साधना करने लगे।दोनो मुनि को मासखमण तप का पारणा था। गोचरी हेतु प्रभुके पास आज्ञा लेने आये। तब प्रभुने संकेत दिया आज मासखमण का पारणा आपकी माता के हाथों से दी हुयी गोचरी से होगा। दोनो मुनि नगर में आये। प्रभु की वाणी थी तो दोनो मुनि सीधे भद्रा माता के घर आये। 
इधर प्रभु व धन्ना शालीभद्र मुनि के नगर पदार्पण की सूचना भद्रामाता को मिली। पुत्र व दामाद मुनि के दर्शन को अत्यंत उत्सुक बन गए। माता ने सभी पुत्रवधुओं को तैयार होने की आज्ञा दी व स्वयं भी प्रभुदर्शन करने जाने की तैयारी में लग गए। घर मे जैसे उत्सव छा गया था।

मुनि द्वय भद्रामाता के घर आये, बारह वर्ष में मुनियों ने तप से अपने शरीर अत्यंत क्षीण कर दिए थे। उनके देह की आकृति बदल गई थी। बदली हुयी देह व मुनि वेशमें घर मे तैयारी में मशगूल किसी ने पहचाना नही । और सब तैयारियों में व्यस्त होने से मुनि-द्वय को किसी ने ध्यान नही दिया। मुनि-युगल गोचरी लिए बिना ही लौट गए। रास्ते मे धन्या नामकी एक ग्वालिन ने बड़े भाव से दही बहोराया। मुनि युगल ने आकर प्रभु को गोचरी बतलाई। 
और कहा कि भद्रमाता से गोचरी नही मिली। पर एक ग्वालिन से मिली। तब केवलज्ञानी प्रभु ने शालीभद्र जी को उनके पूर्वभव (संगम ग्वाला तथा खीर का प्रसंग) की कथा सुनाई एवं वह धन्या माता आपकी पूर्वभव की माता है यह बताया।

कर्मो का विपाक समझ मुनियुगल ने अब अंतिम आराधना करने का सोच लिया। प्रभु आज्ञा लेकर वैभार गिरी पर्वत पर आकर अंतिम संलेखना कर पादपोप गमन संथारा स्वीकार किया।
भद्रामाता व सभी पुत्रवधु प्रभु के दर्शन करने आये। दर्शन वन्दन पश्चात उन दो मुनियों के विषय मे पूछा- तब प्रभु ने बताया कि वे आपके घर गोचरी आए थे पर आप ने उन्हें पहचाना नही। यह सुनकर माता अत्यंत व्यथित हुई। प्रभु से उनकी साधना स्थल जान कर पश्चाताप के भाव लिए सब वैभारगिरी आये। 

मुनिद्वय तो ध्यान में थे। पश्चाताप व पुत्र मोह से माता आदि ने दर्शन के लिए , आंखे खोलने के लिए कई मिन्नतें की। धन्ना मुनि इन सब से ऊपर अपनी साधना में दृढ़ हो चुके थे। पर शालीभद्र मुनि ने माता के वचनों से द्रवित होकर एक पल के लिए आंखे खोली और पुनः ध्यान में लीन हो गये।
यह क्षणमात्र का मोह उनके मोक्ष को एक भव दूर ले गया। धन्ना मुनि निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने व शालीभद्र मुनि काल कर सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुये। वहां से काल कर अगले भव में मोक्ष जाएंगे।

धन्य है जिनशासन
हम प्रभु से  शालीभद्र जी की रिद्धि वैभव मांगते है, 
कभी शालीभद्र जी का त्याग मांगा है??
सोचिएगा।

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  -
श्रेणिक राजा,  हमारे नाथ है, मालिक है।
यह शब्द शालीभद्र जी को चुभ गया। अहो, इतना वैभव, इतनी समृद्धि, मेरा इतना सुख होते हुए भी मुझ पर कोई नाथ है? मेरा कोई मालिक है? शालीभद्र जी को यह बात चुभ गई।



आज का सवाल : - अंतिम आराधना करने *मुनियुगल कहां पधारे?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।





#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 54
11:1:21
दुर्दुरांक देव की कथा

श्रेणिक राजा वीरप्रभु का अब अनन्य भक्त बन चुका था। वीरप्रभु के राजगृही में विचरण दरम्यान राजा प्रभुके दर्शन, वन्दन तथा देशना श्रवण का नियमित लाभ लेता था।
। प्रभु की वाणी सुनने देवो का भी आवागमन होता रहता था। ऐसे ही प्रभु के समोवसरण में एक बार श्रेणिक राजा बैठे हुए थे , वहां कुष्ठ रोग से पीड़ित, जिसके हाथ पांव रोग से गल गये थे, अंगों से पिप बह रहा था, देखने में जुगुप्साजनक ऐसा एक व्यक्ति आया। वह  आकर सीधा प्रभु  के चरणों में बैठ गया। अपने अंगों से बहते पीप ( परु, पस ) को लेकर प्रभुके चरणों में लगाने लगा।

श्रेणिकराजा को यह देखकर क्रोध आया पर वे मौन रहे। इतने में प्रभु को छींक आयी (?)  , तब वह व्यक्ति प्रभुको बोल पड़ा : - मर जाओ। श्रेणिकराजा क्रोधित हो गया। कुछ समय बाद राजा को छींक आई। वह कोढ़ी राजा से बोला : - चिरंजीवी रहो। कुछ क्षणों बाद उपस्थित अभयकुमार को छींक आई। जिओ या मरो! श्रेणिकराजा मन मसोसकर बैठे थे। फिर थोड़ी देर बाद कालसौरिक को छींक आई। तब कोढ़ी बोला : - न जीओ न मरो ।
बाद में जब उठकर वह पुरुष जाने लगा तब श्रेणिकराजा की आज्ञा से राज सेवको ने उसे घेर लिया। 
पर यह क्या!! वह पुरुष सेवको के देखते-देखते देखते ही दिव्य रूप लेकर आकाश में उड़ गया।

राजा व सभाजन आश्चर्यचकित रह गये।
प्रभुने उनके आश्चर्यका समाधान करते हुए कहा : - राजन, वह देव था। 
राजा : - प्रभु , वह देव फिर कोढ़ी बनकर क्यों आया, इसका रहस्य क्या?

प्रभु ने उसका पूर्वभव सुनाना शुरू किया,

: - कौशांबी नगरी में शतानीक राजा का शासन चल रहा था। वहां सेढुक नामक एक मूर्ख व्यक्ति रहता था। अपनी मूर्खता की वजह से उसकी परिस्थिति भी दरिद्र ही थी। ऐसे दीन-हीन स्थिति में उसकी जीवन की गाड़ी चल रही थी, कि उसकी पत्नी गर्भवती बनी। जब दरिद्रता की वजह से उन दोनों का जीवनयापन भी मुश्किल से हो रहा था वहां एक अन्य जीव का पोषण कैसे करना? प्रसूति तक की सामग्री की व्यवस्था करना मुश्किल था।
तब पत्नी ने राजा से सहाय मांगने का सुझाव दिया। सेढुक,  राजा के पास गया। प्रणाम किया पर संकोचवश राजा को बिना कुछ कहे ही लौट आया। फिर दूसरे दिन गया, पर खाली हाथ लौट आया। ऐसे कुछ दिनों तक चलता रहा।

अब आगे क्या होगा??

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  - अंतिम आराधना करने मुनियुगल वैभारगिरी पर्वत पर पधारे।




आज का सवाल : - हम किस देव का वृत्तान्त पढ़ रहे है??


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 55
12:1:21
दुर्दुरांक देव की कथा

दरिद्र सेढुक रोज श्रेणिक राजा के पास आता, प्रणाम करता औऱ लौट जाता। 

उन दिनों एक बार चंपानरेश ने किसी राजकीय अदावत के कारण कौशांबी पर हमला बोल दिया। शतानीक राजा युद्ध के लिए तैयार नही था। उसने नगरी के द्वार बंद करवा दिए। चंपानरेश नगरी को घेरकर बैठ गये। दिन बीतने लगे। चंपानरेश को नगरी में घुसने का मार्ग मिल नही रहा था। खाली बैठकर सैनिक भी थकने लगे। शिथिलता, रोगादि के कारण कुछ सैनिक मरने लगे। चंपानरेश को यह घेराबंदी महंगी पड़ी। उन्होंने घेरा उठाकर चुपचाप चलने की तैयारी की। 
दरिद्र सेढुक ब्राह्मण को यह बात पता चली, उसने शतानीक नरेश को यह सूचना दी। औऱ कहा कि भागते हुए शत्रु पर आप आक्रमण कर दीजिये। आपको विजयश्री प्राप्त होगी।

शतानीक को भी यह योग्य लगा। उसने चंपानरेश के भागते सैन्य पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण सफल रहा। शत्रुसेना बिखर गई। शतानीकने उनके हाथी घोड़े आदि अपने दस्तक ले लिए।
जंग जीतनेके बाद विजयोत्सव मनाते हुए राजा ने सेढुक को अपना मनोवांछित वर मांगने को कहा। उसका पुण्योदय हुआ पर, हाय रे तकदीर!
सेढुक अपनी पत्नी से पूछने आया कि राजा से क्या मांगु?

पत्नी भी खुश हुई। एक जागीर मिल जाए तो जीवनभर का दारिद्र्य मिट जाएगा, पर उसके मन में विपरीत विचार आये।
यदि जागीर मांग ली, तो मदोन्मत्त होकर कहीं ब्राह्मण सौत ले आया तो? नही! सुखमय शांति से जीवन जीने के लिए जितना जरूरी है उतना ही मांग लेते है।
दोनो ने प्रतिदिन भोजन व दक्षिणा में एक स्वर्णमुद्रा मिल जाए ऐसा वरदान मांगने का निर्णय लिया।
 
ब्राह्मण ने राजा से अपनी मांग रखी। राजा ने स्वीकार किया। ब्राह्मण को रोज राजमहल की भोजनशाला में भोजन मिलता व दक्षिणा मिलने लगी।
दिन पलटे। राजा का खास बनने पर लोगो में भी सन्मान मिला। प्रजा में से स्वार्थी लोग राजा से काम निकलवाने की लालच में उसे अपने घर बुलाकर भोजन करवाने लगे।

दक्षिणा की लालच में वह  राज्य की भोजनशाला में किये भोजन को वमन कर देता औऱ पुनः भोजन करने लगा। समय बीता। परिवार बढ़ा , बच्चे बड़े होने लगे। पर उसकी लालच से भोजन, वमन पुनः भोजन की आदत बन गई । 
आखिर शरीर इस अकुदरती चर्या से थककर कुष्ठ रोग से ग्रसित हो गया। हाथ पांव आदि सड़ने लगे।

इस कुष्ठरोगी को देख राजा ने भी महल में आना बंद करवा दिया। भोजन दक्षिणा बंद होते ही समाज तथा परिवारजनों का रवैया भी बदल गया।

उसकी बीमारी अन्यो को न लगे इसलिए उसे घर से निकालकर एक अलग झोंपड़े में रखा। उसके साथ घृणाजनित व्यवहार होने लगा। 
एकलता, घृणाजनक व्यवहार से सेढुक अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने सोचा: मेरे ही द्वारा संग्रहित धनसंचय पर ये लोग आराम से रहते है ओर मुझ से ऐसा व्यवहार?
उसने परिवार जनों को इस धृष्टता की सजा देने का नक्की किया।

पर कैसे?

अब आगे क्या होगा??

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  हम दुर्दुरांक देव का वृत्तान्त पढ़ रहे है ।



आज का सवाल : -  सेढुक को कौन सा रोग हुआ?

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


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मगध_सम्राट_श्रेणिक - 56
15:1:21
दुर्दुरांक देव की कथा,

भगवान महावीरस्वामी श्रेणिकराजाको उस देव के पूर्वभव की कथा सुना रहे है।

सेढुक ने क्रोधित होकर अपने परिवारजनों को उनकी उपेक्षा के लिए सजा देने का निर्णय लिया। 
उसने अपने परिवार से कहा कि अब वो इस दुःखी जीवन से ऊब गया है। जल्द ही मृत्यु की कामना करता है। पर मृत्यु पूर्व अपने कुलरीति अनुसार एक मन्त्रवासित पशु मुझे देवता को अर्पण करना है, जो बाद में परिवारजनों को ही प्रसाद के रूप में मिल जाएगा।
परिवार ने उसे पशु लाकर दे दिया। कषाय में अंध बने सेढुक ने अपने घावों से निकलता पिप उस पशु के चारे में मिलाना शुरू किया। कुछ ही दिन में उस पशुको भी कोढ़ हो गया। अब सेढुक ने उस पशु को मारकर अपने ही परिवार को खिला दिया।

पुत्रादि ने प्रसाद में आये उस पशु को खाया तो उन सबको भी कोढ़ हो गया। सेढुक अंतिम तीर्थयात्रा का बहाना कर के वन में निकल गया। वन में बहुत प्यास लगने पर एक द्रह का पानी पिया। 
उस द्रह में सूर्य के ताप, पास ही उगे वृक्षो से गिरे फूल-पत्ते, पास उगी औषधियों की बेले आदि से उस द्रह का पानी औषधि रूप हो गया था। वह कुछ दिन उसी द्रह के पास रहा। औषधिरूप पानी से , वन के ताज़े फल ग्रहण करने से कुछ ही दिनों में उसका आरोग्य एकदम सुधर गया। शक्ति का भी संचार हो गया।
संपूर्ण स्वस्थ होकर पुनः अपने नगर कौशांबी लौट आया। वहां आकर असत्य बताया : -  मैंने एक देव की आराधना की। उनके प्रभाव से मैं संपूर्ण स्वस्थ हो गया हूं।

लोगो ने कहा कि तुम्हारा परिवार जो कुष्ठ रोग से ग्रसित है उन्हें भी ठीक कर दो। तब सेढुकने क्रोध में आकर इन्कार कर दिया। इन्होंने मुझसे बहुत गलत व्यवहार किया है। मैने ही उन्हें कोढ़ी पशु खिलाकर कोढ़ी बनाया है। ये सब अपने कुकर्मो का फल भुगत रहे है। मैं इन्हें ठीक नही करूँगा।

तब सब प्रजाजनों ने उसे क्रूर , निर्दयी कहकर धुत्कार दिया। वो भटकता हुआ राजगृही आया। भटकता हुआ रोजगार की तलाश में वह तुम्हारे महल के द्वारपाल से मिला। द्वारपाल ने उसे आश्वासन दिया।

उस समय मैं यहीं राजगृही में उपस्थित था।  द्वारपाल ने मेरे तीर्थंकर होने आदि की बात कहकर भाव भक्ति की बात कही। फिर द्वारपाल उसे अपने स्थान पर बैठाकर मेरी देशना सुनने आया। 
 
ज्यादा समय बीत गया। भूखे सेढुक ने वहां रखे दुर्गादेवी के प्रसाद को खा लिया पर पानी नही मिला। अत्यंत तीव्र ग्रीष्म ऋतु में पानी की चाहना करते हुए उसने प्राण त्याग दिए।

पानी की चाह लेकर मरे सेढुक का जीव इसी नगरी के बाहर मेंढक के रूप में उत्पन्न हुआ। आसपास से गुज़रते लोगो के मुख से मेरे आगमन की बात सुनी। उसने विशेष ध्यान दिया तो उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पिछला भव देख मुझे वन्दन करने के शुभ भाव से वह निकला। पर मार्ग में तुम्हारे ही  रथ के पहियों के नीचे आकर उसने प्राण त्याग दिए। 

वीरप्रभु श्रेणिक की जिज्ञासा शांत करते हुए फरमा रहे है।


शुभ भावो  में मृत्यु से वह दुर्दुरांक देव बना।
देवसभा में तुम्हारी श्रद्धा की प्रसंशा सुनकर तुम्हें देखने आया । तुम्हारी परीक्षा करने आया है । उसने कोढ़ी व्यक्ति का रूप बनाया। उसने मेरे पांव पर पीप नही बल्कि गोशीर्ष चंदन का लेप लगाया था। यह सब उसने वैक्रिय शक्ति से किया ।

अब उसने प्रभु को जब छींक आई तो मर जाओ क्यों कहा?

यह आगे....

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  सेढुक को कुष्ठ रोग हुआ ।


आज का सवाल : -  दुर्दुरांक देव ने अभयकुमार को छींक आने पर क्या कहा था??

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 57
16:1:21

दुर्दुरांक देव की कथा,

श्रेणिकराजा : - प्रभु , उसने आपके लिए अमांगलिक शब्द क्यों कहे?

प्रभु फरमा रहे है : - राजन,
उसने मुझे कहा  " मर जाओ ", यानी मैं इस संसार में अभी तक क्यों बैठा हूं। मेरी मृत्यु मुझे शाश्वत सुख सिद्धत्त्व देने वाली है। जितना जल्दी मृत्यु प्राप्त करूँगा उतना शीघ्र सिद्ध बनूंगा।

राजन, उसने आप को चिरंजीवी होने का कहा, क्योंकि आपकी मृत्यु दुःखद होगी व उसके बाद आप नरक में जाओगे। तो यहां आप ज्यादा जिओ ऐसा उसका आशय था।

अभयकुमार एक भव्य आत्मा है, ये जीवित रहकर भी उच्च धर्म साधना करेंगे और मरे तो भी अनुत्तर विमान में देव बनकर सुख प्राप्त करेंगे। यानी जिओ या मरो, दोनो सुखमय।

कालसौरिक कसाई : -
यह रोज इतनी हिंसा करता है, कि इसका जीना बोझरूप , पाप रूप है। यह मरकर भी नरक की असह्य वेदना भुगतेगा। तो उसका न जीना अर्थ का है, न ही मरना। मतलब न जिओ न मरो।

श्रेणिकराजा की अन्य जिज्ञासा का समाधान तो हो गया पर जब उसने अपनी नरकगति का सुना तो उदास हो गये।

प्रभु,
आप जैसे परम तारक को पाकर हजारों मनुष्य तिर गये, और मैं आपका परम भक्त , नरक में जाकर दुःख भुगतुंगा? यह अचंभे की बात है।

राजन, तुमने पूर्व में ही नरकायु का बन्ध कर लिया है। 

प्रभु,
मुझे इस नरक की आयु को तोड़ने का उपाय बताइये। मैं इस बन्ध को कैसे भी तोडूंगा।

प्रभु ने आखिर श्रेणिक राजा से कहा कि तुम निम्न उपायों को कर सको तो तुम्हारी नरक की आयु टूट जाएगी।


1 कपिला दासी से संतो को भावपूर्वक दान दिलवा दो।
2 कालसौरिक कसाई से उसका हिंसायुक्त काम छुड़वा दो,
3 आप नवकारशी तप कर लो,
4 आपकी दादी को भावपूर्वक मेरे दर्शन करवा सको ।
5 पुनिया श्रावक की एक सामायिक खरीद सको,
 


नोट : - तीर्थंकर चारित्र बुक में मात्र ऊपर के दो उपाय ही वर्णित है। पर अन्यत्र कहीँ पढ़े सुने अन्य 3 उपाय भी मात्र आप जिज्ञासुजनों के जानकारी हेतु लिखे है। यदि किसी को मेरा यह लिखना पसंद न आया हो तो मैं  उनसे नम्रभाव से क्षमा चाहता हूं।  तत्त्व केवली गम्य है। हम छद्मस्थो के लिए आगम व  गुरु वचन ही सत्य । 

इन उपायों को सुनकर श्रेणिकराजा क्या करेंगे यह हम आगे पढ़ेंगे।

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :  दुर्दुरांक देव ने अभयकुमार को छींक आने पर जिओ या मरो कहा था ।


आज का सवाल : - श्रेणिक की नरक टालने के लिए तीर्थंकर चारित्र बुक में कौनसे उपाय बतलाये??

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


18:1:21
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मगध_सम्राट_श्रेणिक - 58

श्रेणिक के नरक टालने के प्रयास,

राजमहल आकर श्रेणिकराजा अपनी नरक को कैसे रोका जाए उसके प्रयासों में लग गये।
उन्होंने प्रथम प्रयास किया। कपिला दासी का।
वह प्रथम उपाय था : - कपिला दासी के हाथों से संतो को भाव पूर्वक दान दिलवाना।  

श्रेणिक राजा की  एक अभवी दासी थी। ( अभवी यानी क्या, उसे हम अवसर मिलेगा तब अलग पोस्ट दी थी 2 दिन पहले )  नाम था कपिला। वह सुदेव, सुगुरु, सुधर्म में बिल्कुल नही मानती थी। भव परभव मोक्ष आदि में तनिक भी विश्वास नही था। दान आदि  धर्म में भी बिल्कुल श्रद्धा नही। जब राजा ने जबरन आदेश देकर  दान दिलवाने बैठाया तब वह यह बोलते हुए दान देती : -  मैं दान नही दे रही, राजा के आदेश से मेरे हाथ का कड़छा दान दे रहा है। वह भाव से दान नही दे पाई ।श्रेणिकराजा यहां  निराश हुए। 


2 रा उपाय : -  कालसौरिक कसाई को एक दिन के लिए भी हिंसा से रोकना। कालसौरिक राजगृही का सबसे बड़ा कसाई था। यह  अभवी जीव प्रतिदिन 500 पाडे की हत्या करता था।  भाव से वह इतना क्रूर व इस हिंसा का इतना आदी बन चुका था कि 500 पाडे की हत्या किए बिना उसे  चैन नही मिलता। वीर प्रभु के कहने के बाद श्रेणिकराजा ने उसे समझाया। पर वह हिंसा बन्द करने के लिए माना नही। 
तब श्रेणिक ने एक दिन के लिए उसे  जेल यानि काराग्रह में डाल दिया। और संतुष्ट हुआ कि  जेल में वह हिंसा नही कर पायेगा। पर अफसोस ! राजा  की यह कोशिश भी व्यर्थ गई। कालसौरिक ने  जेल में भी दीवार पर 500 पाडे के चित्र बनाकर उन्हें मार कर अपनी कषायाग्नि को मनोभावों से तृप्त किया। ( एक मत अनुसार वहाँ की मिट्टी या अपने शरीर के मैल से उसने पाडे बनाकर मारे।  ) श्रेणिकराजा फिर निराश हुआ।

तीसरा उपाय : - श्रेणिकराजा नवकारशी तप करें। पूर्व भव के बांधे किसी अंतराय कर्म की वजह से राजा यह छोटा सा तप भी नही कर पाते थे। प्रभुने उपाय बताया इसलिए राजा ने एक दिन कोशिश भी की। पर प्रातः में ही किसी ने राजा को अपने बाग के आम भेंट किये। राजा को तप का याद नही रहा और उन्होंने आम खा लिए। बाद में जब ध्यान आया तब उन्हें बहुत अफसोस हुआ।

चौथा उपाय : - आपकी दादी भावपूर्वक मेरे दर्शन करे।
श्रेणिकराजाने यह  प्रयास भी कर लिया। पर दादी जो अभवी भी थी, भाव दर्शन करने को तैयार ही नही हुई। वह अंतर से उन्हें न भगवान मानती थी ना ही उनके प्रति अहोभाव था।  जब श्रेणिकराजा ने युक्ति से प्रभु के दर्शन करवाने चाहे तब , दादी ने स्वयं की आंखे ही फोड़ ली।


पांचवा उपाय 
  
पुनिया श्रावक की एक सामायिक खरीद लो।

कौन थे यह पुनिया श्रावक?

हम इसका दृष्टांत  कल थोड़ा विस्तार से देखेंगे।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र व जैन धर्म का मौलिक इतिहास

कल का जवाब  :श्रेणिककी नरक टालने के लिए तीर्थंकर *
चारित्र किताब में निम्न 2 उपाय बतलाये ।

 1 कपिला दासी से संतोको भावपूर्वक दान दिलवा दो।
2 कालसौरिक कसाई से उसका हिंसायुक्त काम छुड़वा दो,



आज का सवाल : - आज की पोस्ट में कितने व कौन से अभवी जीवो के नाम आये?

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।




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19 :1:21

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 59

श्रेणिक के नरक टालने के प्रयास,

पांचवे उपाय में बताये वे कौन थे पुनिया श्रावक?
TF

एक सुंदर प्रेरणादायक  दृष्टांत तृष्णा पर विजय प्राप्त किये हुए पुणीया सेठ का है। जिन्होंने अंशमात्र परिग्रह तक का त्याग कर दिया था। 

राजगृही के एक श्रावक , नाम पुनिया श्रावक। वीर प्रभु के मुख से जिनवाणी सुनने के बाद धर्म को पूर्ण रूप से समझकर अपने जीवन में उतार भी चुके थे। परिग्रह व्रत धारण किया था। रुई की पूणी बनाकर पति-पत्नी अपने एक दिन की जरूरत पूर्ण कर लेते थे। इसके अलावा कोई परिग्रह या धन कमाने की लालसा तक नही। यही नही, पर गलती से भी बिना अपने हक के अंशमात्र वस्तु का भी वे उपयोग नही करते थे। एक बार राह में पड़े गाय के गोबर के उपले अनजाने में प्रयोग किये , जब सामायिक करने के समय मन स्थिर नहीं हो रहा था तब ध्यान में आया और तब उन्हें स्वयं को ही बेहद अफसोस हुआ व दूसरी बार ऐसे उपले भी न लेने का निर्णय लिया। यह सब सोचना भी हमारे लिए दुष्कर।

दूसरा व्रत उन्होंने लिया था साधर्मिक भक्ति या अतिथि का स्वागत। हर दिन पति-पत्नी किसी एक अतिथि को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करते थे। 
पर मेहमान को भोजन कराने का खर्च ? अब इसके लिए अतिरिक्त कमाई का नही सोचा,  पर स्वयं तप कर के भूखे रहते थे। एक दिन पति उपवास करता एक दिन पत्नी। और इस तरह अपने आतिथ्य धर्म का बखूबी पालन करते।

यहीं तक उनकी साधना  सीमित नही हो रही। उन्होंने सामायिक व्रत भी धारण किया था। प्रतिदिन उत्कृष्ट भाव से वे सामायिक करते। इनकी सामायिक की क्रिया इतनी शुद्ध व भाव पूर्वक होती थी कि केवली भगवान महावीर स्वामी  

#ने अपने ज्ञान से यह देखकर उनकी सामायिक की प्रसंशा की थी।
   

 राजन् स्वयं पुनिया श्रावक के घर आये। घर की सादगी देखी। उनके व्रत की निष्ठा देखी। उनका संतोष रूपी धन देखा। उनके भाव सुनकर लगा कि वाकई में उनकी धर्म क्रिया उतनी शुद्ध है तभी प्रभुने मुझे उनकी सामायिक खरीदने को कहा। राजा ने पुनिया श्रावक से एक सामायिक खरीदने की इच्छा व्यक्त की। जो भी मूल्य वे मांगे वह सब चुकाकर भी एक सामायिक उन्हें खरीदनी है यह व्यक्त किया। पुनिया श्रावक आश्चर्य चकित हुआ। उसने कहा पहले आप प्रभु से सामायिक का मूल्य जान ले, फिर सामायिक क्रय करना। दोनो प्रभु के पास गये । राजा ने प्रभु के पास जाकर उनसे पूछा। तब प्रभु ने जवाब दिया। एक लाख योजन के मेरु पर्वत जितने धन के 3 ढेर भी लगाओ पर उस धन से एक शुद्ध सामायिक को खरीद नही सकते। एक सामायिक का इतना अतुल्य फल होता है।
वीर प्रभु ने पुनिया श्रावक की एक सामायिक खरीदने का क्यों कहा? तो उनकी धर्म निष्ठा, उनके संतोष, उनके सभी व्रतों की सुंदर पालना  व उत्कृष्ट भावों से सामायिक करना।
श्रेणिकराजा यहां भी निराश हुए।

तब प्रभु ने कहा : -  राजन्, निराश मत होइए। बंधे हुए कर्मो को हमे कैसे भी भुगतना है। बस उस समय नये कर्मो का बन्ध न हो यह लक्ष्य रखना। आप उस नरक का आयु पूर्ण कर इसी भरत क्षेत्र की आगामी उत्सर्पिणी काल की चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर बनोगे। पद्मनाभस्वामी के नाम से।
यह सुनकर श्रेणिक राजा व अन्य उपस्थित सभाजन  संतुष्ट व प्रसन्न हुए। 

इस तरह तृष्णा के त्याग के अदभुत उदाहरण पुनिया श्रावक की आत्मा को हमारा सदा नमन हो। नमन हो। 



सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथो के आधार से

कल का जवाब  : कल की पोस्ट में 3 अभवी जीवो के नाम आये । कपिला दासी, श्रेणिकराजाकी दादी व कालसौरिक कसाई





आज का सवाल : - पुनिया श्रावक किस नगर के थे?

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।

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20-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 60

मम्मण सेठ

तृष्णा के त्याग के अदभुत उदाहरण रूप पुनिया श्रावक की कथा हमने कल पढ़ी। तो आज उसके बिल्कुल विपरीत दृष्टांत, परिग्रह कषाय की पराकाष्ठा रूप राजगृही के ही मम्मण सेठ का दृष्टांत देखते है।

अपार अमर्यादित धन होते हुए भी तृष्णा के वशीभूत होकर वे कैसे  दु:खी हुए व अपनी निकृष्ट गति का बंध कर लिया।

राजगृही नगरी में श्रेणिकराजा का राज्य था तब के समय की यह घटना है।
राजा व चेलना रानी एक रात्रि अपने महल के गवाक्ष में से प्रकृति को देख रहे थे।


भादो की काली अंधियारी रात में घने काले बादल गरज-गरज कर बरस रहे थे, चारों तरफ अंधकार छाया हुआ था और अत्यंत तीव्र बारिश हो रही थी, बिजलियाँ रह-रह कर कौंध रही थी। महाराज श्रेणिक और महारानी चेलना अपने झरोखे से वर्षा का रूप निहार रहे थे। तभी रात्रि के गहन अंधकार को चीरते हुए, दूर एक बिजली चमकी, राजा व रानी ने बिजली की रौशनी में देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति, बारिश में उफनती नदी के तट से लकड़ियाँ बीन रहा है।

उस वृद्ध का श्रम देख दोनों चिंतित हो गए। हमारे राज्य में ऐसा भी कोई दरिद्र है जो दिन भर के कठिन परिश्रम के उपरांत भी दो वक्त की रोटी का जुगाड नहीं कर पा रहा, तभी तो इतनी अंधेरी रात व भीषण वर्षा में, अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, ये वृद्ध लकड़ियाँ इकट्ठी कर रहा है। सम्पन्न मगध राज्य में इतनी दरिद्रता? ऐसी बारिश व अंधेरे में तो जानवर भी बाहर नहीं निकलते और यहाँ तो आदमी को अपने पेट की आग बुझाने के लिए मौत से खेलना पड़ता हैै!! सोचकर राजा का हृदय दु:खी हो गया, उन्हे उस वृद्ध पर दया आ गई। राजा श्रेणीक ने तुरंत अपने सेवकों को बुलाकर निर्देश दिया कि जाओ और नदी पर जो वृद्ध व्यक्ति लकड़ियाँ इकट्ठी कर रहा है, उसका पता लगाओ और प्रातःकाल उसे राज दरबार में उपस्थित करो। वृद्ध की दरिद्रता के बारे में सोच-सोच कर राजा को रात भर नींद नहीं आई, तूफानी बारिश में ठंड से काँपता वह वृद्ध-काय शरीर बार-बार स्मृति को झंझोड़ रहा था।

प्रात: सेवकों ने एक व्यक्ति को महल में पेश करते हुए राजा से कहा,  : - महाराज यही वह व्यक्ति है जो कल रात नदी से बह आई लकड़ियाँ इकट्ठी कर रहा था। राजा ने उस व्यक्ति का अवलोकन किया। शरीर पर बेशकीमती रेश्मी वस्त्र, कानों में मणि जड़ित कुंडल तथा हाथों में हीरों की अंगूठियाँ देख, राजा को लगा कि सेवक गलती से किसी अन्य व्यक्ति को पकड़ लाए हैं। उसने सेवकों को क्रोध में कहा  : - ये किन्हें पकड़ कर लाए हो, तुम लोगों से कुछ भूल हुई है । सेवक बोले “ नहीं महाराज! यही वो व्यक्ति है जो कल रात बारिश में नदी के किनारे पर लकड़ियाँ इकट्ठी कर रहा था, हमसे कोई भूल नहीं हुई है|” राजा ने आश्चर्यचकित होकर उस व्यक्ति से उसका परिचय पुछा।

वह व्यक्ति बोला “ महाराज ! मैं आपके ही राज्य का एक व्यापारी हूँ, मुझे लोग “मम्मण सेठ” के नाम से जानते हैं।” राजा बोले “आप दिखने में तो समृद्ध व सुखी लगते हैं, फिर इतनी बारिश में नदी के किनारे जाकर अपने प्राणों को दांव पे लगाने की क्या ज़रूरत थी।” इस पर मम्मण सेठ बोला “महाराज! दिखने में तो मैं बड़ा ही सम्पन्न व सुखी हूँ पर मेरे मन की पीड़ा को बस मैं ही जानता हूं। मैं एक बहुत बड़े अभाव से ग्रस्त हूँ, जिसकी पूर्ति के लिए मैंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है, ये सुन्दर वस्त्र एवं आभूषण तो मात्र, कहीं आने जाने के लिए रखे हैं ।

अन्यथा मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ लगाकर भी मेरी कमी पूरी नहीं हो रही है। इसी कारण  मैं रात्री श्रम से नदी पर लकड़ियाँ इकट्ठी करने में लगा रहता हूं। जब तक वह अभाव, वह कमी पूरी नहीं हो जाती, मुझे कठोर परिश्रम करते रहना होगा।
 राजा बोले : - ऐसी कौनसी कमी है आपको? मुझे बताइए, हो सकता है , मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।

सेठ बोला : - महाराज मेरे पास एक परम सुन्दर बैल है, उसी की जोड़ी का दूसरा बैल मुझे चाहिए। इसीलिए ये कठोर परिश्रम कर रहा हूँ।
 राजा ने कहा : -  अगर इतनी सी बात है , तो आप हमारी वृषभशाला में जाइये और जो भी बैल पसंद आए ले जाइये । सेठ  : - महाराज! आपकी इस कृपा के लिए धन्यवाद, किन्तु मेरे बैल की जोड़ी का एक भी बैल आपकी वृषभशाला में नहीं है। यह सुनकर महाराज सोच में पड़ गए कि ऐसा कैसा बैल है!! जिसकी जोड़ का कोई बैल हमारी विशाल वृषभशाला में भी नहीं है!!  
आश्चर्यचकित राजा ने पूछा : -  ऐसा कैसा बैल है आपके पास ? उसे लेकर आइये, हम उस अद्वितीय बैल को देखना चाहेंगे। सेठ : - महाराज ! मेरा बैल यहाँ नहीं आ सकता, उसे देखने के लिए तो आपको मेरा घर ही पावन करना पड़ेगा।

राजा की उत्सुकता और बढ़ गई। उन्होंने अपने मंत्री अभयकुमार से मंत्रणा कर, अगले दिन ही सेठ के घर जाना निश्चित किया। जब रानी ने राजदरबार में घटा पूरा वृत्तांत सुना तो वह भी उत्सुकता से  साथ चलने के लिए तत्पर हुई। अगले दिन महाराज श्रेणिक अपने मंत्री अभयकुमार तथा रानी चेलना के साथ सेठ के घर पहूँचे। मम्मण सेठ ने महाराज का यथायोग्य स्वागत किया। उत्सु्क राजा ने कहा : - सेठ ! सीधे ही अपनी गौशाला में ले चलो ।  हमें केवल तुम्हारा बैल देखना है। तब सेठ ने कहा कि उसका बैल गौशाला में नहीं बल्कि घर में है। राजा ने मन ही मन सोचा, कैसा मूर्ख है ये सेठ जो बैल को घर में रखता है।

कैसा बैल होगा??

कथा सहयोग : -  अभी यह कथा एक फेसबुक की पोस्ट से ली।


कल का जवाब  : पुनिया श्रावक राजगृही नगर के थे ।

आज का सवाल : - मम्मण सेठ ने किस पाप से निकृष्ट गति का बन्ध कर लिया?

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


U
21:1:21

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 61

मम्मण सेठ..
कैसा बैल होगा !!

सेठ तीनों को लेकर अपने मकान के तहखाने में गया, आगे बढ़कर जैसे ही एक कक्ष का पर्दा हटाया  कि चारों ओर रंग-बिरंगा प्रकाश फ़ैल गया। सामने हीरे, मोती तथा रत्नों से जड़ित एक सोने के बैल की मूर्ति थी। जिसकी चमक चारों ओर आभा फैला रही थी। बैल की आँखों में अत्यंत दुर्लभ मणियाँ थीं। सींग तथा पूँछ पर नीलम और पन्ने जड़े थे। राजा, रानी एवं मंत्री उस बैल को देखकर अवाक् रह गए। उन्होंने ऐसा दुर्लभ बैल आज तक नहीं देखा था। राजा को चकित देखकर सेठ ने कहा : -  महाराज ! कई वर्षों पहले मैंने अपने व्यापार से कमाए धन को एक स्थान पर सुरक्षित रखने के लिए यह बैल बनवाया था, परन्तु उस समय मुझे भी नहीं मालूम था कि यह इतना सुन्दर बन जाएगा। मैं दिन-रात बस इसी के बारे में सोचता रहता। एक दिन मेरे मन से प्रेरणा हुई कि अगर ऐसा ही दूसरा बैल होता तो इसकी जोड़ी कितनी सुन्दर होती, दोनों साथ में खड़े होते तो इनका सौंदर्य तथा वैभव अद्भुत होता!! बस फिर क्या था, मैंने ऐसा ही एक और बैल बनाने की ठानी, परन्तु मेरे पास इतना धन अब शेष नहीं बचा था कि इस अजोड़ बैल की जोड़ का एक और बैल बनाया जा सके। धन इकट्ठा करने के लिए मैंने व्यापार में जोरदार परिश्रम करना प्रारम्भ किया । अपने सभी खर्चों को कम कर दिया, रुखी सुखी खाता, फटे पुराने कपड़े पहनता, किसी तरह के सुख-वैभव का नहीं उपभोग करता।  परन्तु फिर भी उतना धन इकट्ठा नहीं हो पाया। अपनी इस आकांक्षा को पूरी करने के लिए अब  मैं दिन-भर व्यापार करता हूँ तथा रात में नदी से लकड़ियाँ लाकर बेचता हूँ , ताकि जल्दी हीं अधिक से अधिक धन इकट्ठा हो पाए। यह कहते हुए, व्यापारी तीनों को दूसरे कक्ष में ले गया। कक्ष का पर्दा जैसे ही हटा, वहां भी पहले के समान एक हीरे, मोतियों से जड़ा सोने का सुन्दर बैल था।

उसे दिखा कर सेठ ने कहा : -  महाराज ! ये उसकी जोड़ी का बैल है। ये लगभग पूरा बन चुका है, केवल दाहिने  सींग का कुछ हिस्सा बनाना  बाकी है, बस उसी के लिए मैं रोज़ नदी  पर जाता हूँ।

राजा, रानी तथा मंत्री आश्चर्य से चकित होकर उस सेठ की बातों को सुन रहे थे। अंत में राजा ने कहा, “सेठ ! आप सत्य कहते थे, ऐसा बैल तो मेरी वृषभशाला में भी नही है । इतना कहकर वे वापस अपने महल लौटने लगे। मन ही मन राजा को कभी सेठ के उन बैलों पर विस्मय होता, तो कभी सेठ की बैल बुद्धि पे तरस आता, जिसके कारण वो अपनी अपार धन सम्पदा का सुख भोगने तथा दान पुण्य करने के बजाय, बैल बनाने में लगा है। जो उसके लोभ को और बढाने के अतिरिक्त, किसी काम में नहीं आने वाला।

राजा ने रानी से कहा “देवी ! क्या आप लोभ में अंधे इस सेठ की गरीबी मिटा सकती है?
 रानी बोली : - लोभ तथा ममत्व में डूबे इस सेठ के एक क्या, अनंत जोड़ियाँ भी बन जाए, तब भी एक जोड़ी तो  बाकी रह ही जाएगी। ऐसे तृष्णावान  व्यक्ति की कोई सहायता नहीं कर सकता। लोभ और तृष्णा का कहीं भी अंत नहीं है।

कहते है महापरिग्रह व उसमे तीव्र आसक्ति के साथ मम्मण सेठ ने नरक का आयुष्य बंध किया।



कथा सहयोग : -  अभी यह कथा एक फेसबुक की पोस्ट से ली।


कल का जवाब  :  मम्मण सेठ ने परिग्रह व उसमे आसक्ति पाप से निकृष्ट गति का बन्ध कर लिया ।


आज का सवाल : - ..... औऱ ...... का कंही भी अंत नही है।

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


U
22-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 62

श्रेणिक की आस्था

हमने देखा कि श्रेणिकराजा ने नरक टालने के उपाय किये। परन्तु एक बार बांधा हुआ कर्म हर जीव को भुगतना ही है।
वीरप्रभु ने श्रेणिकको यह समझाते हुए उनके भविष्य की ओर अंगुलिनिर्देश किया : - श्रेणिक , तुम हताश न हो। आगामी उत्सर्पिणी काल में तीसरे आरे में तुम प्रथम तीर्थंकर के रूप में जन्म लोगे। धर्म की स्थापना कर उसी भव मोक्ष को प्राप्त करोगे। यह सुनकर उसकी हताशा दूर हुई।

पिछले कथानक में हमने पढा था कि दुर्दुरांक नामक देव ने श्रेणिकराजा के जैन धर्म में श्रद्धा की परीक्षा लेने आया था। 
उसका आज विस्तार से हम देखते है।


एकदा वीरप्रभु को वन्दन करके वापिस राजभवन लोट रहे श्रेणिक राजा ने मार्ग में एक संत के भेष में मच्छी मारते हुये मनुष्य को देखा।
तब श्रेणिक के उन्हें टोकने पर उसने कहा : - देखो राजा, तुम यदि वीरप्रभु के सब सन्तो को उत्तम आचार संपन्न मानते हो तो यह गलती है। कई राजघराने व ऐसे मांसमत्स्य  भक्षी घरों से आये संत मांस मत्स्य भक्षी है। सब छुप-छुपकर अपनी इच्छा पूरी करते है।
तब श्रेणिक ने अत्यंत कठोरता से उसे डांटते हुए कहा : - भगवान के साधु तो महान त्यागी, शुद्धाचारी, तपस्वी है। यदि तुझसे साधुता नही पलती तो यह पवित्र भेष छोड़ दे तथा अन्य साधु संतो को व्यर्थ बदनाम न कर । अभी प्रभु समीप जाकर अपनी आत्मा को शुद्ध करो। अन्यथा कठोर दंड मिलेगा।

श्रेणिक आगे बढ़ने पर उसे सगर्भा साध्वी मिली। तब श्रेणिक ने उन्हें टोकने पर साध्वीजी ने भी उन्हें उपरोक्त जवाब दिया। कि हजारों साध्वी जी ऐसे करती है। तुम किन-किन को रोकोगे?

श्रेणिक : - पापिष्ठा, अपना पाप छुपाने के लिए दुसरों को गलत बताती है। वीर प्रभु की साध्वियों के उत्कृष्ट आचार को निम्न बताते तुम्हे लज्जा नही आती। इस भेष को छोड़कर अंतःपुर में चलो तुम्हारे प्रसव का इंतजाम हो जाएगा। पर अन्यो को कलंकित कहना छोड़ दे।

राजा की दृढ़ श्रद्धा देखकर वहाँ साध्वी के स्थान पर देव प्रकट हुआ।
: - राजन , मैं दुर्दुरांक नामक देव। इंद्र ने जब तुम्हारी वीर प्रभु पर अडिग श्रद्धा की प्रसंशा की तो मैं तूम्हारी परीक्षा लेने आया। वह मत्स्य मारने वाला सन्त भी में ही था। सच मे इंद्र द्वारा प्रसंशा के तुम योग्य हो। मैं तुम्हारी श्रद्धा को नमन करता हुँ। और हार व मिट्टी के 2 गोले भेंट देकर वह देव चला गया।

इस तरह की थी श्रेणिक की दृढ़ आस्था।

श्रेणिक ने वह हार चेलनारानी को दिए तथा मिट्टी के गोले नंदारानी को दिए।
मिट्टी के 2 गोले मिलते देख नंदारानी को बुरा लगा। अपनी प्रिय रानी को हार दे दिए और मुझे मिट्टी के गोले??😢 उसने दोनो गोले क्रोध में खंभे की तरफ फेंक दिए। खंभे से टकराकर गोले टूट गये तो उनमें से एक में दिव्य कुंडल मिले औऱ दूसरे से सुंदर रेशमी वस्त्र।
दोनो रानियां अब प्रसन्न थी। यही हार आगे चलकर कितने जीवो की घात में निमित्त बनेगा😢😢। यह हम आगे देखेंगे।

वीरप्रभु व जिनधर्म पर अडिग श्रद्धा की वजह से राजा ने उत्कृष्ट धर्म दलाली की। बहुत से लोगो को संयममार्ग पर चलने की प्रेरणा दी औऱ उन्हें इस मार्ग पर चलने की अनुकूलता भी की।  कृष्ण वासुदेव की तरह : - जिन्हें संयम ग्रहण करना हो और वे सांसारिक जिम्मेदारियों की वजह से संयम ग्रहण न कर पा रहे हो उनकी समस्त सांसारिक जिम्मेदारियाँ राज्य की ओर से उठाई जाएगी यह घोषणा भी की । इसी उत्कृष्ट धर्म दलाली से उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। 
राजा की घोषणा के बाद अनेक नागरिकों ने संयम ग्रहण किया।
स्वयं श्रेणिक के राज्यपरिवार से जाली, मयाली, उवयाली आदि 23 राजकुमार तथा नंदा, नंदमती, नंदोत्तरा आदि 13 रानियों ने संयम ग्रहण कर वीरसंघ में प्रवेश किया । तीर्थंकर प्रभु की उपकारी वाणी से हजारों लोग सन्मार्ग पर लगे।

( वीर प्रभु की केवलीचर्या का यह सातवां वर्ष बतलाया गया है। )


कल का जवाब  :  लोभ औऱ तृष्णा का कहीं भी अंत नही है।

आज का सवाल : - देव ने श्रेणिक को क्या उपहार दिया?

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।





U
23-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 63

नंद मणियार

एकबार प्रभु महावीरस्वामी विचरण करते हुए राजगृही नगरी पधारे। श्रेणिकराजा सहित कई नागरिक दर्शन, वंदन व देशना सुनने हेतु पधारे। उन नागरिकों में राजगृही के निवासी नंद मणियार नामक श्रेष्ठी भी थे । प्रभु की देशना सुनकर वह श्रमणोपासक बना। और यथोचित धर्म साधना करने लगा।
प्रभु ने विहार कर दिया।

कालांतर में साधुभगवन्तो के सत्संग, संपर्क व स्वाध्याय के अभाव में उसकी श्रद्धा क्षीण होने लगी। क्रिया तो करता था पर उनमे भाव-श्रद्धा अति कम होते गये।
एकबार पौषधशाला में रहकर तेले का तप कर रहा था । ग्रीष्म ऋतु थी। उस समय वह भूख-प्यास से व्याकुल हो गया। उसे व्रत करना बंधनरूप व असह्य लगने लगा। देह से भले हीं वह तप में था पर मन से व्रत-मर्यादा तोड़ चुका था।

प्यास परिषह में वह मन से सरोवर की शीतलता एवं जलक्रीड़ा का सुख भोगने की कल्पना करने लगा। सोचने लगा कि जिन्होंने नगर के बाहर बाग-बगीचे, सरोवर बनाकर सुख भोग रहे है वे महानुभाव धन्य है। प्रातःकाल होते ही मैं भी राजा के पास जाकर अनुमति लेकर ऐसे उद्यान पुष्करिणी ( वाव = सीढ़ियों वाला कुँवा ) आदि  बनवाऊंगा।
प्रातः पौषध पाल कर वह यथोचित भेंट लेकर राजा से मिलने गया।
राजा से मिलकर उसने नगर के बाहर भूमि भेंट लेकर निष्णातो की सहाय से एक अति सुंदर पुष्करिणी तैयार करवाई। उसके पुण्योदय से पुष्करिणी में जल भी अत्यंत सुस्वादु मधुर जल आ गया। उसके चारो ओर उसने एक सुंदर बगीचा बनवाया जिसमें विविध दर्शनीय, सुगंधी फूल पौधे लगवाए । उद्यान की पुर्व दिशा में मनमोहक, आकर्षक चित्रों तथा अदभुत कारीगरी युक्त मूर्तियों से युक्त एक चित्रसभा बनवाई। जो कि सबको मनोरंजन करवाने वाली  नाट्यशाला भी बन गई। दक्षिणी उद्यान में एक भोजनशाला का निर्माण किया। जिसमे भिखारियों को भोजन दिया जाता था। पश्चिमी उद्यान में कुशल वैध से सज्ज औषधशाला बनवाई। जिसमे लोगो को पथ्य आहार, औषध आदि देकर निरोगी किया जाता था।उत्तर दिशा में एक अलंकार सभा बनवाई जिसमें अलंकारिक सेवक ( नाई आदि ) रखकर लोगो को विलेपन, केशकर्तन, मर्दन, अभ्यंगन आदि का सुख मिलने लगा। कुल मिलाकर संसारिक भोग सुख के लिए एक अति उच्च सुविधास्थान का निर्माण किया।
पहले वहां से गुज़रते पथिक आने लगे। वहां की सुंदरता , सुख सुविधा देख संतुष्ट होकर जाते व अन्य लोगो को बताते।
नंद श्रेष्ठी स्वयं भी इन सब सुख सुविधाओ का उपभोग करने लगा।

धीमे-धीमे अन्य नागरिकों का आवागमन भी बढ़ने लगा। लोग वहां आकर प्रसन्न हो जाते। औऱ नंद श्रेष्ठी की भरपूर प्रसंशा करते। यह प्रसंशा बढ़ती गई। लोगो का आवागमन बढ़ता गया।
इस प्रसंशा रूपी ज़हर से नंदमणिकार फूला न समाता। धीमे-धीमे उस वाव में उसकी आसक्ति बढ़ने लगी।
अशुभ कर्मो का उदय हुआ। श्रेष्ठी के शरीर में भयानक रोगो का उदभव हुआ। बहुत उपाय करवाये, पर कोई इलाज कारगर सिद्ध नही हुआ। अंत में वाव में आसक्ति रखकर उसने प्राण त्याग दिया।
नश्वर वस्तुओं के परिग्रह व गाढ़ आसक्ति का परिणाम हमे भी समझने योग्य है। नंद श्रेष्ठी मृत्यु के बाद उसी वाव में मेंढ़क के रूप में उत्पन्न हुआ।

लोग अभी भी उस वाव पर आते। आराम आनंद  पाते और नंदमणिकार की प्रसंशा करते। यह मेंढक भी उस प्रसंशा को सुनता। एक दिन ऐसे ही उसकी प्रसंशा सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। अपने पूर्व भव में पालन किये हुए श्रावक व्रतों को देखा। मिथ्यामती होकर इस वाव का निर्माण व उसमे आसक्ति देखी। उस आसक्ति के परिणाम स्वरूप इस मेंढक भव का दुर्विपाक को समझा। उसे अत्यंत अफसोस हुआ। अपने व्रतों को न पालकर कितना गलत काम किया यह समझ आ गया।
अब वह पछताया। पुनः धर्म साधना के लिए सज्ज हो गया। पूर्व पाले हुए श्रावक के व्रतों को अंगीकार किया। बेले-बेले पारणे का तप करने लगा।

( भूलो के प्रायश्चित से सभी का जीवन बदल सकता है। )

एकबार फिर वीरप्रभु का राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में आगमन हुआ। लोग दर्शन वंदन हेतु उमड़ने लगे। लोगो के आवागमन का कारण जानकर वह मेंढक भी प्रसन्न हो गया। प्रभु के दर्शन की उत्कृष्ट भावना भाते हुए वह भी वाव से निकलकर जाने लगा।
पर राह जाते हुए श्रेणिकराजा के नौजवान घोड़े के पैर के नीचे आकर कुचला गया। अत्यंत जख्मी हो गया। आगे बढ़ना मुश्किल था, अंतिम समय दिखाई दिया, पर वह संभल गया। सरककर राह के एक तरफ आकर उसने अनशन ग्रहण कर लिया। 

शुभभाव में काल कर प्रथम देवलोक में दुर्दुर नामक देव बनकर दुर्दुरावतंसक विमान में उत्पन्न हुआ।
अवधिज्ञान से उसने जब अपने पूर्वभव का अंतिम समय देखा तब वीरप्रभु के दर्शन की इच्छा हुई। वह समोवसरण में आया। प्रभु को वंदन किया। श्रेणिकराजा उस समय समोवसरण में ही थे। उन देव को देखकर गौतमस्वामी की जिज्ञासा हुई। प्रभु ने दुर्दुर देव का उपरोक्त कथानक सुनाया।

वहां 4 पल्योपम देव-सुख भोगकर महाविदेह में जन्म लेकर संयम ग्रहण कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेगा।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ
(नंदमणिकार का कथन श्री ज्ञाताधर्म कथांग जी सूत्र में है।  )


कल का जवाब  :  - देव ने श्रेणिक को हार व मिट्टी के 2 गोले उपहार दिया ।


आज का सवाल : वाव की पश्चिम दिशा में नंदमणिकार ने क्या बनवाया?



जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।
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24-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 64

धन धन्ना अणगार

एकबार महावीर प्रभु के आगमन पर श्रेणिकराजा उनके दर्शन वंदन करने गये। प्रभु के संघ में 14,000 साधुजी व 36,000 साध्वी रत्न थे। उन संयमी आत्माओका उच्च क्रिया पालन भाव आदि देखकर श्रेणिकराजा अहोभाव से नतमस्तक हो जाते। उनका जैन धर्म पर श्रद्धा-भाव बढ़ जाता। एकबार उन्हें जिज्ञासा हुई : - सभी त्यागी सन्तो का संयमपालन श्रेष्ठ ही है। पर इन सब में तप आदि में सबसे श्रेष्ठ कौन?
यह जिज्ञासा उन्होंने प्रभुके सामने रखी। 
तब प्रभुने बताया : - सभी उच्च संतो में धन्ना अणगार उच्च व श्रेष्ठ तपस्वी है।

कौन थे ये धन्ना अणगार

हमने शालीभद्र जी के साथ उनके बहनोई धन्ना जी की कथा पढ़ी ये वे धन्ना जी नही। ये अलग मुनि है। इनका वर्णन कुछ इस तरह है।

काकन्दी नगरी में भद्रा नामक एक अत्यंत वैभवी सार्थवाही थी। उनके पुत्र का नाम धन्यकुमार था। उच्च गुणो से युक्त धन्यकुमार का विवाह 32 श्रेष्ठी कन्याओं के साथ हुआ था। 
माता गृह व व्यापार में दक्ष थी। कुमार अत्यंत सुखमय अवस्था मे अपना भोगयुक्त जीवन जी रहे थे। तब वहां पर वीर प्रभु का पदार्पण हुआ।
वीर प्रभु की देशना सुनकर धन्यकुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। अपने मनुष्यभव को सार्थक बनाने हेतु संयम ग्रहण को उत्सुक हुए।
घर आकर माता से आज्ञा मांगी। इकलौते पुत्र को सरलता से आज्ञा कहां मिल जाती। बहुत संवाद हुआ। माता ने कई प्रलोभन दिए, कई विलाप, कई युक्तियों का प्रयोग किया। परन्तु भव्यात्मा धन्यकुमार दृढ़ बन चुके थे। आख़िर माता को सहमत होना पड़ा।
भद्रामाता राजा जितशत्रुजी के पास दीक्षा महोत्सव के लिए छत्र चामर आदि लेने गए। इतने वैभव को छोड़कर संयम ग्रहण? राजा जितशत्रुजी भी यह सुनकर प्रभावी हुए। उन्होंने स्वयं दीक्षा महोत्सव किया। 
इस तरह धन्यकुमार धन्ना अणगार बने।
दीक्षा के दिन ही भगवान की आज्ञा लेकर आजीवन छट्ठ के पारणे छट्ठ करने का अभिग्रह लिया। 

अहो, उत्कृष्ट तप, अहो रसनेन्द्रिय पर उत्कृष्ट विजय। पारणे में भी आयंबिल करना, व आयंबिल में भी उज्झित आहार ही वापरने का निर्णय लिया। उज्झित आहार मतलब जो आहार फेकने योग्य हो, जिसे याचक भी ग्रहण करने से मना कर दे ऐसे आहार । मात्र देह का निर्वाह हो। 
इनकी इस अनासक्ति, इस उग्र तप को आज भी अनुमोदा व सराहा जाता है।

ऐसे त्यागवीरो से ही जिनशासन देदीप्यमान है।
इस तरह उत्कृष्ट संयम आराधना करते हुए देह को क्षीण बनाकर एक माह की अंतिम आराधना संलेखना कर विपुलगिरी से कालधर्म को प्राप्त हुए। व सर्वार्थसिद्ध विमानमें 33 सागरोपम स्थिति (आयुष्य) वाले देव बने।


इन सभी की गाथा हमारे जीवन में भी सत्पुरुषार्थ की प्रेरणा बने यही मंगलकामना।







सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - वाव की पश्चिम दिशा में नंदमणिकार ने औषधशाला बनवाइ।



आज का सवाल : उग्र तपस्वी धन्ना अणगार किस नगरी के थे?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।





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025-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 65

रोहिणीया चोर

चरम तीर्थंकर श्रमण भगवंत कैवल्य लक्ष्मी को प्राप्त कर चतुर्विध संघ की स्थापना कर अनेकों भव्य जीवो को प्रतिबोध देते हुए भरत क्षेत्र में विचरण कर रहे थे। उस समय की यह कथा है।

राजगृही के निकट स्थित वैभारगिरी पर्वत की गुफा में रहकर, वहां निबिड़ कंदराओं में घूमता, भयानक बीहड़ो में भी निर्भयता से रहनेवाला लोहखुर नामक एक डाकू था। क्रूर, निर्दयी, हिंसात्मक व भयानकता की पराकाष्ठा रूप वह डाकू डाका डालकर, अनेकों धनाढ्यों को लूटकर, व्यभिचार आदि भोगों में रत अपना जीवन गुज़ार रहा था। 
भगवान महावीरस्वामी के प्रभाव की यशोगाथा उसने भी सुन रखी थी। उनकी वाणी ऐसी थी कि बड़े-बड़े दिग्गज , महामहोपाध्याय गौतम जैसे ज्ञानी पंडित उनके प्रथम दर्शन, प्रथम वाणी श्रवण से ही प्रभावित होकर दीक्षित हो गये। जो उनके पास जाता वह उन में मिल जाता, वापिस घर नही आता। कितना अदभुत प्रभाव था प्रभुकी वाणी में, कि अनेक राजामहाराजा  ने क्षणभर में अपना राजपाट त्याग दिया औऱ साधु बनकर धर्म मार्ग पर चल पड़े।
उनके तो उपासकों का भी इतना प्रभाव था कि देव-प्रकोप तक मिट जाता। अरे जिनके चरणों में इंद्र आदि देव तक तत्पर रहते थे उनके गुणो का क्या कहना! उनके संग से जीव अपना दुराश्चरण त्याग देते।
यह सब लोहखुर डाकू को डरावना लगता। उसे अपनी डाकुगिरी के लिए प्रभु की वाणी जोखिमभरी लगती। उसे लगता : मैं यदि वाणी सुनकर यह लूटपाट छोड़ दूंगा तो कैसे रहूंगा? इस डर से वह कभी वीरप्रभु के पास फटकता तक नही। हमेशा उनसे बचता रहता।
अब उसे वृद्धावस्थाने घेर लिया। अपनी मृत्यु उसे निकट दिखाई दी। तब अपने पुत्र रौहिणेय को उसने बुलाकर अंतिम शिक्षा दी। साथ ही उसे यह समझाया कि महावीरप्रभु के पास कभी जाना नही। उनकी वाणी भूल से भी सुनना नही। यदि अपना प्रिय रोजगार चलाना और सुखी रहना है तो मेरी यह बात पर अमल करना।

वीरप्रभु के प्रभाव से अनभिज्ञ रौहिणेय ने उन्हें वचन दिया कि वह प्रभु से कभी नही मिलेगा और ना ही उनकी वाणी सुनेगा। कुछ समय में लोहखुर मृत्यु को प्राप्त हुआ। 

पिता का क्रियाकर्म निपटाकर कुछ दिनों में रौहिणेय अपने पिता प्रदत्त व्यवसाय में लग गया। वह चौर कार्य में अत्यंत निपुण था। उतनी कुशलता, तीव्रता, बहुलता से वह नगर में श्रेष्ठियों के यहां सेंध लगाता कि कुछ ही समय में लोग त्राहिमाम हो गये। उसकी चोरियों से दुःखी प्रजा ने राज-प्रशासन में शिकायत की। रौहिणेय की कुशलता इतनी थी कि चोरी करने के बाद कोई संदेह, कोई सबूत न छोड़ता जिससे पता चले की उसी ने चोरी की है। वह नगर में निर्भय होकर घूमता। नगर रक्षकों ने चोर को पकड़ने की बहुत कोशिश की। पर रौहिणेय हाथ न आया।
अब महामंत्री अभयकुमार को यह ज्ञात हुआ। चोर को पकड़ने वह कटिबद्ध हुए। कुछ खोजबीन की।  कुछ अंदेशो से अभयकुमार को रौहिणेय पर संदेह हुआ।
उसने आदेश दिया कि जब रौहिणेय नगर में प्रवेश करे तब उसे घेर लिया जाय। 

उस समय वीरप्रभु राजगृही में विराजमान थे। उनकी देशना की गंगा अस्खलित बह रही थी। उस समय कहीँ से  ही चोरी करके रौहिणेय भाग रहा था। तब प्रभुकी सभा के पास से उसका गुज़रना हुआ। प्रभु की वाणी चल रही यह समझ में आते ही उसे अपने पिता को दिया वचन याद आ गया। भागते हुए अपने कानों में उंगलियां डाल दी। ताकि जिनवाणी उसके कानो में न पड़े।
पर भवितव्यता कुछ औऱ थी।
भागते हुए उसके पैरों में एक कांटा चुभ गया।
अब?
वही रुककर उसे कांटा निकालने के लिए कानो से हाथ हटाने पड़े। कांटा निकाला उतनी देर तक प्रभु की देशना का कुछ अंश उसके कानो में पड़े।
उसमे कुछ ऐसी बाते थी जो उसे याद रह गई। प्रभु की देशना में उस समय देवो का वर्णन चल रहा था। वे बाते थी :- 

1 देव-देवी के चरण पृथ्वी को स्पर्श नही करते,
2 उन के नेत्र की पलके झपकती नही
3 उनकी पुष्पमाला मुरझाती नही,
4 उन्हें प्रस्वेद (पसीना)नही होता।

उसे यह इतनी सी वाणी सुनकर भी अफसोस हुआ पर अब क्या करता!


इधर अब अभयकुमार क्या करेंगे यह आगे!



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  -उग्र तपस्वी धन्ना अणगार काकन्दी नगरी के थे।



आज का सवाल : गौतम स्वामी के लिए आज क्या उपमा आई?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।



U
026-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 66

रोहिणीया चोर

अभयकुमार की आज्ञा से सैनिकोंa ने येनकेन प्रकार से रौहिणेय को घेर लिया गया। उससे पूछा गया : - तुम कौन हो?
रौहिणेय : - मैं शालिग्राम का रहवासी दुर्गचण्ड नामक किसान हूं। मैं यहां यह नगर देखने आया था, मुझे एक निर्दोष को सैनिकों ने क्यों पकड़ रखा है?
अभयकुमार : - तुम रौहिणेय चोर हो , नगर में चोरी करने आये थे, अब झूठा परिचय दे रहे हो।
रौहिणेय : - आप मेरी सत्यता मेरे ग्राम जाकर तलाश लीजिए। एक निर्दोष को दंड देने से पहले आप को न्यायधर्म समझना चाहिए।
रौहिणेय चालाक था, उसने पहले ही ऐसी व्यवस्था कर रखी थी कि शालिग्राम जाकर कोई पूछे तो वहां के नागरिक ऐसे जवाब देते कि वह सत्य ही लगता।
अभयकुमार ने शालिग्राम में सैनिक भेजा।
पर रौहिणेय की चालाकी से व्यर्थ साबित हुआ। वह शालिग्राम का निवासी दुर्गचण्ड प्रमाणित हुआ। उसके पास चोरी का कोई सामान भी नही था। न किसी ने चोरी करते हुए देखा था। पर अभयकुमार को विश्वास था कि यही रौहिणेय है। पर न्याय प्रणाली अनुसार उसे बंदी बनाना उचित नही था।

अब अभयकुमार ने एक अलग युक्ति सोच ली।  अभयकुमार रौहिणेय को स्नेहपूर्वक राजभवन लाये । उसे स्नानादि करवाकर मूल्यवान आभूषण पहनाए गये। उच्च प्रकार की मदिरा पिलाकर मद में अतिशय मत्त कर दिया गया। 
इस दौरान अभयकुमार की आज्ञा से उस स्थान का माहौल एकदम बदल दिया गया। जैसे कोई देवलोक हो। अति सुंदर वैभवी साज-शय्या,  खिड़कियों से सुंदर बाग बगीचों के दृश्य, सुंदर देव देवी जैसे मूल्यवान आभूषण युक्त दास दासी, एक तरफ किंन्नरीओ का मधुर गान, कुछ दासी को अप्सरा बनाकर उनके द्वारा नृत्य प्रदर्शन । सब मिलाकर साक्षात देवलोक बन गया।

जब रौहिणेय का नशा कम हुआ। तब देव-देवी बने दास दासी उसके पास आकर उसकी जयजयकार करने लगे।

एक देव ने उन्हें कहा : - आपकी जय हो स्वामिन! आप हजारो सेवक सेविका रूप देव देवी के स्वामी के रूप में देवलोक में उत्पन्न हुए है। हम सब आपके अधीन है। पर  इन सब का उपभोग करने से पूर्व आपको यहां के आचार अनुसार पूर्वभव में क्या क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य किये उसका वर्णन कीजिये।

महामंत्री अभयकुमार की योजना यह थी कि रौहिणेय थोड़ा नशे में, देवलोक के लाभ में अपनी सारी चोरी स्वीकार कर लेगा।
उसकी योजना सफल हो रही थी।
रौहिणेय मद में मत्त तो था ही, पर नशा उतार में था । वह सोचने लगा। पूर्वभव में क्या हुआ। उसे सब बातों के साथ वीरप्रभु की देशना के वह 4 बाते भी याद आ गई जो उसने अनिच्छा से सुनी थी।

देव-देवी के लक्षण। उसने उन बातों का विचार कर आसपास के कथित देव-देवी का निरीक्षण किया। भगवान के वचन अनुसार उनके लक्षण नही थे। सब विपरीत था। देवके चरण भूमि पर थे, नेत्र टिमटिमा रहे थे, देह प्रस्वेद युक्त था, कुछ की पुष्पमाला भी मुरझाई हुई थी।
वह समझ गया। कि मुझे फंसाने, मुझसे मेरे चोरी के अपराध उगलवाने यह नाटक महामंत्री द्वारा किये गये है।
वह संभल गया।
उसने फिर कहा : - मैने पूर्वभव में अति पुरुषार्थ कर दुःखीजनों की सेवा, सुपात्रदान, अभयदान आदि किया। शुद्धाचार पाला, तभी देव बना । आज तक कोई पाप नही किया।
अभयकुमार की चाल व्यर्थ हुई। उन्हें रौहिणेय को मुक्त करना पड़ा।

मुक्त होते ही उसने विचार किया।
मेरे पिता की आत्मा पापमय थी, तभी तो मैं पापमुक्त न बन जाऊँ उस अपेक्षा से वीरप्रभु के दर्शन तथा उनकी वाणी श्रवण से मुझे रोके रखा। पर उन उपकारी प्रभुकी वाणी तो कितनी आनंदकारी है। जिसे सुनते ही हृदय को तृप्ति मिलती है। जिनके मात्र 4 वाक्यों ने मुझे आजीवन कारावास या मृत्युदंड से बचा लिया।

वह भगवान के पास गया। उनकी वाणी सुनी। फिर विरक्त होकर संयम ग्रहण की इच्छा व्यक्त की। वहां उपस्थित श्रेणिक महाराज के पास जाकर अपनी सारी हकीकत सत्य बता दी। महामंत्री की बुद्धि , उनकी योजना की प्रसंशा की। किस तरह वीरप्रभुके वचन से वह बच गया यह विस्तार से कहा। बीहड़ो, गुफाओं , भेखड़ो में छुपाया सारा धन राजा को सौंप दिया। 
श्रेणिकने उसके हृदयपरिवर्तन को देख उसे माफ किया।
फिर रौहिणेय ने प्रभु से संयम ग्रहण कर तप संयम की आराधना की। यथाकाल आयु पूर्ण कर देवलोक में उत्पन्न हुए।




सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  -गौतम स्वामी के लिए कल की पोस्ट में महामहोपाध्याय उपमा आई ।


आज का सवाल : रौहिणेय ने श्रेणिकराजा से किसकी प्रसंशा की?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 67

U
027-1-2021

सम्राट चंडप्रद्योत को टक्कर


श्रेणिकराजा की पट्टरानी चेलना की एक बड़ी बहन शिवादेवी अवंति के राजा चण्डप्रद्योत के साथ ब्याही गई थी। यानी श्रेणिक व चंडप्रद्योत संबन्ध में साढू थे। पर चण्डप्रद्योत की राज्यविस्तार की भावना ने संबंधो में जहर घोल दिया था।
एक बार चंडप्रद्योत अपने सहयोगी 14 राजा  के साथ विशाल सेना लेकर राजगृही नगरी पर हमले के लिए निकल पड़ा।
सीमारक्षक व भेदिये ने श्रेणिक को यह सूचना दे दी। 
श्रेणिक राजा, चण्डप्रद्योत की महत्त्वाकांक्षा एवं उसकी विशाल सेना व सामर्थ्य को जानते थे। वे युद्ध के विचार से थोड़े चिंतित बने पर अभयकुमार ने उनको सांत्वना दी औऱ राजा को निश्चिन्त रहने का आश्वासन दिया।

चारो प्रकार की बुद्धि के धनी महामंत्री अभयकुमार नगरी के बाहर आकर निरीक्षण करने लगे। एक भूमि देखकर शत्रु अपना डेरा यही डालेगा  ऐसा अनुमान लगाया।
उन्होंने कुछ लोह-पात्रो में स्वर्ण मुद्रा भरवाकर वहां अलग अलग गाढ़ दिया और ऊपर कुछ संकेत भी बना दिए।
कुछ ही समय में चण्ड की सेना नगरी के बाहर पहुंच गई। मगध की सेना ने नगरी अंदर से बंद कर दी। अभी तक मगध की सेना ने शत्रु का कोई प्रतिकार नही किया। चण्ड की सेना ने सरलता से नगरी को घेरकर पड़ाव डाल दिया। 

अब अभयकुमार ने अपनी योजना आगे बढाते हुए एक विचक्षण दूत द्वारा उसी रात्री  चण्डप्रद्योत के पास एक पत्र भेजा।

उस पत्र में अभयकुमार ने बड़ी चतुराई से चेलना-शिवादेवी के संबन्ध को महत्त्व देकर,  चंडप्रद्योत को सन्मान देकर, उसके हितस्वी बनकर यह गुप्त बात बताई कि आपके सैन्य के सभी अधिकारियों को मगध राज्य द्वारा हजारों सुवर्णमुद्रा का उपहार व आपके राज्य का हिस्सा देने का वचन देकर आपके विरुद्ध कर लिया गया है। अब उनके ही साथ लेकर आपको आज रात ही बंदी बना लिया जाएगा। आपका राज्य अब मगध में मिल जाएगा। आपको विश्वास न हो तो आपके पड़ाव के आसपास ही वह मुद्रा छुपाई हुई मिल जाएगी। शब्दो की चतुराई से अभयकुमार ने चण्ड को अपने ही सेनाधिकारियों के खिलाफ इतना भड़काया कि चण्ड आवेग में आ गया। 2/3 जगह चण्ड ने पड़ाव के आसपास तलाश करवाई तो लोहपात्र में भरी सुवर्णमुद्रा भी मिल गई। 
बस अब खेल तमाम हो चुका था।  चण्ड पूरी तरह महामंत्री के जाल में फंस चुका था। उसने पुरस्कार देकर अभयकुमार का आभार व्यक्त कर दूत को वापस भेज दिया।
अब वह भयभीत हो गया। जब सैन्य ही उसके खिलाफ हो तो यहां रुकना उसे अनुचित लगा। कुछ अंगरक्षकों को लेकर स्वयं भाग खड़ा हुआ । अचानक यह सब देखकर इन सबसे अनजान सेना भी स्तब्ध रह गई। सेना को कोई बड़े जोखिम का अंदेशा हुआ। वह भी वहां से भागने लगी। भागती हुई चण्ड की सेना पर पहले से तैयार मगध सेना ने आक्रमण कर दिया। भागती सेना युद्ध क्या करती? अफ़रा-तफ़री मच गई। मगधसेना का हमला असरकारक बन गया। चण्ड की सेना को भागने के अलावा कुछ सुझा ही नही। मगध सेना ने उनके साथ रहा हस्ती-अश्व दल, धन आदि लूट लिया। 

थोड़े समय बाद जब सब अवंती इकट्ठे हुए, सभी बातों के खुलासे हुए, परिस्थिति को शांति से देख-विचार किया तब सभी को समझ में आया कि यह सब महामंत्री की योजना थी। और वे सब झांसे में आकर ठगा गये- लूट लिए गये।
चण्डप्रद्योत इस घटना से अत्यंत विक्षुब्ध, अपमानित व क्रोधित हो गया। अब वह क्या करेगा?

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - रौहिणेय ने श्रेणिकराजा से महामंत्री व उनकी योजना की प्रसंशा की।

आज का सवाल : - चंडप्रद्योत के साथ कितने राजा की सेना थी?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

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U
28-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 68

सम्राट चंडप्रद्योत को टक्कर

अभयकुमार की वजह से चण्डप्रद्योत को राजगृही से दुम दबाकर भागना पड़ा यह अपमान चंडप्रद्योत को असह्य लगा। वह अब किसी भी तरह अभयकुमार को बंदी बनाकर अपने पास मंगवाना चाहता था। उज्जयनी नरेश चंडप्रद्योत महासती शिवादेवी का पति था, पर अत्यंत कामी, सत्ता लालची, महत्त्वाकांक्षी था। उसे अपने कषायों की पूर्ति करने के लिए पराक्रमी होने के बावजूद धूर्तता का आश्रय लेना भी मंजूर था। नीति-धर्म उससे कोसो दूर था। उसने अपने अन्य 2 साढू के साथ भी अनुचित व्यवहार किया। श्रेणिक की कथा के साथ हम उन 2 प्रसंगों को भी आगे अवसर पर देखते है। अभी अभयकुमार की कथा आगे...
अभयकुमार पर क्रोधित चण्ड ने अपने नगर में घोषणा करवाई कि जो भी अभयकुमार को पकड़कर लाएगा उसे मैं उचित पुरस्कार दूंगा। 
महामंत्री अभयकुमार की बुद्धि की यशोगाथा सब जगह फैल गई थी। (शायद सब अपने राजा के लिए भी ज्यादा सन्मान न रखते हो यह संभव है) कोई वीर यह कार्य करने को तैयार नही हुआ।
तब एक गणिका ने इस कार्य का बीड़ा उठाया।  चण्ड ने अनुमति दी।

गणिका ने एक योजना बनाई। उसने 2 अन्य स्त्रियों का सहारा लिया। वह अभयकुमार की धर्मश्रद्धा जानती थी। नगर में रही जैन साध्विजीयो के पास जाकर दंभ से कुछ ऊपरी ज्ञान-क्रिया सीख लिया। 

फिर अपनी तैयारी के साथ वे तीनो राजगृही आई। आकर एक मकान किराये से रख लिया। अपनी पहचान एक धनाढ्य सेठ की विधवा तथा उनकी दो पुत्र वधुओं के रूप में दी। वे अब दीक्षा लेना चाहती थी। उससे पूर्व मगध में विचरण कर रहे वीरप्रभु व चन्दना जी महासतीजी के दर्शन व कुछ दिन देशना सुनने राजगृही आई है यह बताया। गणिका दंभ करने में परवीन थी।

 महासती वृन्द के पास आकर अत्यंत दंभ के साथ उसने अपने बनावटी धार्मिक रूप को उजागर किया। अति भक्ति, नियमित प्रतिक्रमण आदि क्रिया से सब को अपनी ओर आकृष्ट किया। अभयकुमार भी दर्शनवन्दन हेतु नियमित उपाश्रय आते थे। 
गणिका ने  उनसे परिचय बढ़ाया। 

एक दिन साधर्मिक भक्ति हेतु अभयकुमार के आमंत्रण पर उन के भवन भी आई। वहां से जाते हुए अत्यंत आग्रह किया कि महामंत्री उनके निवास पर आये। अभयकुमार ने आमंत्रण स्वीकार किया। 


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - चंडप्रद्योत के साथ 14 राजा की सेना थी ।

आज का सवाल : - पुरानी पोस्ट से
नंदमणिकार मेंढक से काल कर कौन सा देव बना?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

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U
29-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 69

सम्राट चंडप्रद्योत को टक्कर

एक दिन अभयकुमार इस श्राविका रूप में रह रही गणिका के आवास पर आये। वहां उन्हें सुगंधी शीतल जल में चन्द्रहास नामक मदिरा पिला दी। जिससे अभयकुमार मूर्छित से हो गये। 
गणिका ने अपने सेवको की मदद लेकर अभयकुमार को सुषुप्त अवस्था में रथ में लिटाकर उज्जयनी भेज दिया।

जब काफी समय तक अभयकुमार गुम रहे तब श्रेणिक चिंतित हुआ। उन्होंने श्राविकाओं के यहां तलाश करवाई। पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया। 

इधर गणिका अभयकुमार के साथ राजा के सामने उपस्थित हुई। अपनी कथा बहादुरी के साथ सुनाई। तब उस क्षण तो चण्ड ने भी धर्म का सहारा लेकर इस कार्य को करने के लिए गणिका को लताड़ा।
अभयकुमार ने भी चण्ड को वारांगना स्त्रियों का उपयोग करके धूर्तता से अभयकुमार का अपहरण करने के लिए धिक्कार दिया। यदि वीर होते तो बहादुरी अपनाते। वारांगना का उपयोग कर धर्म को बदनाम करने की धूर्तता नही करते।
चंडप्रद्योत लज्जित हुआ। पर उसने तत्क्षण क्रोध में आकर अभयकुमार को बंदी गृह भेज दिया।

चंडप्रद्योत के पास 4 दुर्लभ रत्न थे। 1 अग्नि-भीरू रथ 2 रानी शिवादेवी 3 अनलगिरी हाथी  4 लोहजंघ दूत ।
उस समय भृगुकच्छ राज्य चण्ड के अधीन था। वह लोहजंघ दूत को बार-बार वहां भेजकर वहां की प्रजा को त्रस्त करता था। 
एकबार वहां की प्रजा ने लोहजंघ दूत से त्रस्त होकर उसकी मृत्यु के लिए विषमिश्रित लड्डू उसके आहार में रखवा दिए। अपशुकन व अभयकुमार की बुद्धि से वह दूत बच गया। तब चण्डप्रद्योत ने अभयकुमार को मुक्ति के अलावा कोई भी इच्छा पूरी करने का वरदान दिया। 
अभयकुमार ने समय आने पर वह मांग लेगा यह कहकर उसे अभी अमानत के तौर पर रखा। 

चंडप्रद्योत राजा की अंगारवती नामक रानी थी। जिससे उसे वासवदत्ता नामक पुत्री थी। वह परम सुंदरी गुणवती, राज्यलक्ष्मी-सी सुशोभित थी। राजा को उस पर अत्यंत स्नेह था। राजकुमारी सभी कलाओं में पारंगत थी। बस एक गन्धर्व विद्या सीखनी बाकी थी। पर उसका निष्णात गुरु मिल नही रहा था। राजा ने अपने मंत्रियों से पूछा ।
मंत्रियों ने इस विद्या के लिए निष्णात कौशांबी नरेश उदयन का नाम दिया।
गंधर्व विद्या में वे अत्यंत प्रवीण है। अपने संगीत से वे बड़े-बड़े गजराजों को अपने वश में कर लेते है।
अब उन्हें यहां कैसे लाया जाए??



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - - ( पुरानी पोस्ट से )
नंदमणिकार मेंढक से काल कर दुर्दुर नामक देव बना ।

आज का सवाल : कौशांबी नरेश उदयन की माता का नाम क्या था? (अभी तक इनकी कहानी इस श्रेणी में नही आई है। )


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।

U
30-1-2021

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 70

महासती मृगावती जी

मंत्रियों ने राजा चंडप्रद्योत से कौशांबी नरेश उदयन की गंधर्व विद्या की प्रसंशा की। कौन थे ये उदयन?
इसके लिए हम वापिस कुछ वर्ष पूर्व के इतिहास में जाते है।

श्रेणिकराजा की पट्टरानी चेलना की एक बड़ी बहन यानी चेटकराजा की एक अन्य पुत्री थी मृगावती जी। जो कौशांबी नगर के राजा शतानीक को ब्याही गई थी। मृगावती जी एक धर्मनिष्ठा, पति परायणा, एक वीर नारी थी। जितना शौर्य उन्होंने रानी के रूप में दिखाया उसी शौर्य के साथ उन्होंने वीरमार्ग भी अपनाया था। इतिहास के पन्नो पर उनका नाम सुवर्णाक्षरो में अंकित है।
राजा शतानीक, रानी मृगावती जी , नन्हे से पुत्र उदयन। सुखमय दिन बीत रहे थे।
कि एक दु:खद घटना घटी। उस घटना के बीज कुछ इस तरह अनजाने बोये गये।

कौशांबी नरेश अपनी ऋद्धि के लिए गर्वान्वित थे। उनके समृद्ध राज्य, अपार वैभव आदि का उन्हें गर्व था। इसी गर्व को आगे बढ़ते हुए उन्होंने एक भव्य चित्रशाला बनवाना प्रारंभ किया।

कौशांबी में एक निपुण चित्रकार रहता था। उसकी अविरत चित्र साधना से उसे एक अदभुत कला हस्तगत हो गई थी। वह किसी व्यक्ति का पांव का अंगूठा मात्र देख लेता तो वह उसका पूरा हूबहू चित्र बना सकता था। 

उस कला के प्रदर्शन के लिए एकबार उसे राजमहल में बुलाया गया। महारानी मृगावती का पांव का अंगूठा देखकर उसने उनका चित्र बनाना शुरू किया। अदभुत कलाकारी। उसने सिर्फ अंगूठा देखा था पर महारानी का हूबहू चित्र बन रहा था। पर यह क्या? चित्र बनाते समय काले रंग का एक बूंद चित्र में महारानी की जंघा पर गिर गया। गलती हुई मानकर चित्रकार ने उस काली बून्द को साफ कर दिया। पर अहो आश्चर्यम ! दूसरी, तीसरी बार उसके हाथों से एक काले रंग की बूंद उसी जगह गिरी। तब चित्रकार ने उसे रहने दिया। वह बून्द जंघा पर स्थित एक तिल जैसे लग रही थी।
चित्र पूरा हुआ। राजा ने देखा वह भी इस कला से प्रसन्न हुआ पर जब उसकी नजर जंघा के तिल पर गई तब उसे संदेह हुआ : - इस चित्रकार को जंघा के तिल का कैसे पता? हो न हो उस ने गलत तरीके से कभी देखा होगा या रानी के साथ कभी  गलत संबन्ध रहा होगा। 
शंका के इस विष ने राजा शतानीक की मति भ्रमित कर दी।
जिस चित्रकार को पुरस्कृत करना चाहिए था उसे दण्ड स्वरूप दाहिने हाथ का अंगूठा कटवाकर देश निकाला दे दिया। 

वह चित्रकार अपने आप को अपमानित हुआ देखकर, राजा से बदला लेने का सोचा। उसने अपनी कला फिर आजमाई । बिना अंगूठे के ही , रानी मृगावती का सुंदर चित्र बनाकर ,  अवन्तिनरेश , स्त्री की सुंदरता जिसकी कमजोरी थी, ऐसे लंपट व कामी चण्ड प्रद्योत को दिखाया। और यही नही उसकी सुंदरता की स्तुति कर चण्डप्रद्योत को मृगावती को पाने के लिए लालायित कर दिया।

मृगावती जी चंडप्रद्योत की पत्नी शिवादेवी की छोटी बहन थी पर, कामी नरेश चण्डप्रद्योत ने मृगावतीजी को प्राप्त करने के मोह में सार असार का विवेक छोड़कर कौशांबी पर अचानक आक्रमण कर दिया। सहसा हुए इस हमले से स्तब्ध शतानीक नरेश ने प्राण त्याग दिए।
अब राजमहल में लाचार असहाय नारी मृगावती , अपने नन्हे पुत्र के साथ । पर नही, वे एक वीर नारी थी। नगर के बाहर खुद को प्राप्त करने के लिए विशाल सेना लेकर बैठा शत्रु, सेना से भयभीत खुद की नगरी,  महल में पति का देहांत इन विपरीत परिस्थिति में भी कुछ ही समय में मृगावती ने अपने आप को संभाल लिया। खुद के शील की, नगरजनो की सुरक्षा, पुत्र उदयन का राज्य सिँहासन , औऱ उसकी सुरक्षा के लिए यह वीर रानी कटिबद्ध हुई।
उसने युक्ति आजमाई । नगरी के बाहर बैठे शत्रु को कहलवाया : -  मैं अपने आपको समर्पण करने को तैयार हूं, पर अभी मेरे पति का देहांत हुआ है, 6 माह तक मुझे पति शोक से बाहर आने का समय दीजिये।
चण्डप्रद्योत भी मान कर नगरी में आक्रमण करने से रूक गया। वह 6 माह का समय देकर अवंति लौट गया। रानी ने तब तक अपनी नगरी की सुरक्षा के सघन प्रयास कर लिए। 

6 माह बाद चण्डप्रद्योत ने अपने दूत भेजकर अपना वचन याद दिलवाया। तब सिंह समान चरित्र वाली महासती ने अपने चारित्र से डिगने का स्पष्ट इन्कार कर दिया।  मैं राजा शतानीक की विधवा हूं, प्राण त्याग दूंगी परन्तु अपने शील को पतित नही होने दूंगी। किसी भी कीमत पर मैं चण्डप्रद्योत की रानी बनना स्वीकार नही करूंगी।
यह सुनकर आवेश में आया चण्डप्रद्योत ने पुनः कौशांबी पर आक्रमण कर दिया।

इसी दौरान वीरप्रभु का कौशांबी में पदार्पण हुआ। प्रभुकी देशना सुनने सभी पधारे। मृगावती भी उदयन के साथ थी। वहीँ चण्डप्रद्योत भी था। प्रभुकी देशना सुनकर मृगावती विरक्त हो गई। उसने वहीँ चण्डप्रद्योत से दीक्षा की आज्ञा मांगी।

जिस मृगावतीजी को पाने के लिए चण्डप्रद्योत 6 माह से उतावला हो रहा था, जिसके लिए विशाल सेना लेकर नगरी के बाहर बैठा था, क्या उसे वह दीक्षित होने की आज्ञा  देगा??

 

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - - ( कौशांबी नरेश उदयन की माता का नाम मृगावती जी था । (अभी तक इनकी कहानी इस श्रेणी में नही आई है। )

आज का सवाल :  चंडप्रद्योत के पास कौन से 4 रत्न थे?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

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U
31-1-2021
#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 71

महासती मृगावती जी


प्रभुकी देशना का प्रभाव , जहां जीव अपने जातिगत वैर भी भूल जाते है , उस प्रभुके अतिशय का ही चमत्कार  था , कि चण्डप्रद्योत भी मान गया। उसने आक्रमण का विचार छोड़ उदयन को राजा बनाकर मृगावतीजी का दीक्षा समारोह किया।
मृगावतीजी चन्दनबाला जी आर्या की शिष्या बनी।
दीक्षित होकर संयम की उत्कृष्ट आराधना करने लगे।
एकबार आर्या मृगावती जी वीर प्रभुके समोवसरण में गुरुणी चन्दनबाला जी के साथ  प्रभुकी दिव्य देशना सुन रही थी। उस समोवसरण मे सूर्य व चन्द्र आदि देव भी उपस्थित थे। यह भी एक आश्चर्य ही था कि ज्योतिष देव अपने मूल देह व विमान के साथ  समोवसरण में उपस्थित थे।
 देशना के बाद  समय सूर्यास्त तक पहुंच गया। तेजस्वी देह व विमानों की वजह से समोवसरण में दिन जैसा ही उजाला था। आर्या चन्दनबाला जी अन्य संकेतो से दिन का अस्त हुआ समझकर अपनी साध्वी मर्यादा समझकर वहाँ से उठकर चले गए। परन्तु वहां चल रही धर्मचर्चा में तल्लीन आर्या मृगावतीजी को सूर्यास्त का ध्यान कुछ देर बाद आया। वे तत्काल गुरुणी जी के पास आ गये।
गुरुणी जी ने एक अल्प उपालंभ व साध्वी आचार को समझने का, ऐसे व्यवहार रखने का सूचन किया। 
मृगावतीजी को अपनी गलती का बेहद पश्चाताप हो रहा था। उस पश्चाताप में गुरुणी के लिए द्वेष नही, पर खुद की गलती का अफसोस था। उस गलती को भविष्य में न दोहराने का, संयम में उत्कृष्ट आराधना करने का चिंतन करने लगे। उनका चिंतन क्रमशः उर्ध्वगामी बनता गया। धीरे-धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट हो गए। और उसी रात उन्हें केवल्यज्ञान की प्राप्ति हो गई। लोकालोक की तीनो काल की समग्र वस्तु बिना किसी इन्द्रिय या मन की सहायता से प्रत्यक्ष दिखने लगी।
काजल-सी काली घनघोर अंधेरी रात में उन्होंने ज्ञान का प्रकाशपुंज प्राप्त कर लिया। कितना अदभुत वह चिंतन होगा!!!

गुरुणी चन्दनबाला जी वहीं निंद्रा में थे। उनके पास के संथारे ( सोने की जगह ) पर आर्या मृगावतीजी थे। अचानक उस अंधेरी रात में भी ज्ञान के प्रकाश में उन्होंने एक काले विषधर नाग को गुरुणी की शय्या के पास देखा। गुरुणी का हाथ उस विषधर के मार्ग में आनेवाला था। मृगावतीजी ने गुरुणी का हाथ हल्के से उठाकर दूसरी तरफ कर दिया। सांप चला गया। पर हाथ के स्पर्श से गुरुणी जी जाग गये। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ, तब मृगावतीजी ने वहां से गुजरे सर्प की बात बताई।
चन्दनबाला जी आश्चर्यचकित हो गये, इतने अंधेरे में आपको काला सर्प कैसे दिखाई दिया? क्या कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ। तब आर्या मृगावतीजी ने कहा : - हां, आपकी कृपा से केवल्यप्राप्ति हुई है। यह केवली का भी गुरु के प्रति विनय देखने जैसा है।
गुरुणी को बहुत हर्ष हुआ, पर अचानक उन्हें शाम में दिए उपालंभ याद आया! अहो, मैने केवली को डांटा, उनकी आशातना की। इस दु:ख में वे विलाप करने लगे। उनसे ऐसी गलती कैसे हो गई, वह उनके रुदन की वजह बन गई। यह विलाप शुभत्त्व की ओर बढ़ा। धीरे-धीरे विलाप के स्थान पर शुक्लध्यान में प्रवेश किया। उर्ध्वचिन्तन की श्रृंखला में बढ़ते हुए उन्होंने भी उसी रात केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।

अहो, अदभुत अदभुत था गुरु शिष्या का संयम, उनकी धर्म निष्ठा व संयम में सजगता, अपने दोषों के प्रति जागरूकता। जिससे उन्होंने केवल्यप्राप्ति तक हो गई।
मृगावतीजी ने केवलिपने में विचरते हुए अपना आयु पूर्ण कर अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त बने।

उन महासती जी का पुत्र ही उदयन था जो महासतीजी की दीक्षा के समय बालक था वह आज अब युवान राजा बन चुका था। इधर चण्ड के मंत्रियों ने  राजकुमारी वासवदत्ता को गंधर्व विद्या सिखाने के लिए उदयन को उपयुक्त बतलाया।
अब एक राजा को विद्या सीखाने कैसे लाया जाए?

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - चंडप्रद्योत के पास कौन से 4 रत्न थे । 1 अग्नि-भीरू रथ 2 रानी शिवादेवी 3 अनलगिरी हाथी  4 लोहजंघ दूत ।


आज का सवाल : पुरानी पोस्ट में से
भरतक्षेत्र में अब विलुप्त 10 वस्तुओं में से पांचवा क्या? 

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।



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2-2-2021
#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 72

चण्डप्रद्योत से टक्कर

अभयकुमार अभी चण्ड के यहां कैदी ही था पर उसे उसकी बुद्धिवैभव को देखते हुए संपूर्ण मान-सन्मान मिल रहा था। पर था तो बंदी ही।
चण्ड नरेश ने पुत्री को गंधर्व विद्या सीखने के लिए कौशांबी नरेश उदयन को अपहरण करने की योजना बनवाई। 
उदयन राजा हस्तियों के शौकीन थे। उस बात का फायदा उठाकर चण्ड ने एक वास्तविक हाथी जैसी काष्ठ के एक कृत्रिम हाथी का निर्माण करवाया। जिसके मध्य में कुछ पोलार रखी ताकि अंदर सैनिक छुप सके। उसमें यांत्रिक रचना ऐसी रखी कि अंदर के सैनिक उस यंत्र से हाथी को चला घुमा हिला सके ताकि वह जीवंत लगे। हुबहु दिखने वाले इस हाथी को इस तरह वन में छोड़ दिया कि उदयन वहां आये और उस हाथी को देखे।
हुआ भी वैसा ही।
पहले कुछ सैनिकों द्वारा सुंदर हाथी के समाचार उदयन को पंहुचाये गये। बात सुनकर उदयन जब वन में आया , तब वह इस हाथी को देखकर प्रसन्न हो गया। उसके पास जाने पर वह सैनिकों द्वारा पकड़ लिया गया। बंदी बनाकर चंडप्रद्योत के समक्ष लाया गया।

चंडप्रद्योत ने उसे उसकी पुत्री वासवदत्ता को गंधर्व विद्या सिखाने का आदेश दिया। उदयन बंदी था, उसे आदेश मानना पड़ा। 
पर चंडप्रद्योत ने उदयन को अपनी पुत्री कानी बताया। वासवदत्ता को भी गंधर्व विद्या सिखाने वाले गुरु मिल गये है यह सूचना दी गई। पर उसके मन में पहले से गुरु के लिए अरुचि उत्पन्न हो इस लिए गुरु को कोढ़ी व कुरूप बताया गया। संगीत शिक्षा दोनो के मध्य एक पर्दा रखकर , दोनो एक दूसरे से अनभिज्ञ रखकर होगी ऐसी योजना बनाई गई। 

   संगीत शिक्षा शुरू हुई। पर एकबार यह भेद उन दोनो के सामने खुल गया। दोनो ने एक दूसरे को देखा। दोनो कामदेव-रति के समान सुंदर थे। उन्हें समझ मे आ गया कि हमे योजनापूर्वक एक दूसरे पर मोहित न हो, इसलिए भ्रमित रखा गया। दोनो ने अपना मूल स्वरूप दिखाया। 
   अब इन दोनो में प्रणय के अंकुर फूटे। दोनो एक दूसरे के साथ प्रेम बंधन में बन्ध गये। चण्ड को जिस बात की आशंका थी वह हो ही गया। 
   अब प्रत्यक्ष में शिक्षक-विद्यार्थी का संबन्ध रखा पर अंतरंग में वे एक दूसरे से स्नेहबंधन से जुड़ गये। उदयन ने कहा कि अब वो मौका देखकर वासवदत्ता को भगा ले जाएगा। 
   एकबार चण्ड का प्रिय हाथी अनलगिरी मदोन्मत्त हो गया। हस्तिशाला के संचालक उसे वश में नही कर पाये। हाथी राजा का प्रिय था तो उसे मारा भी नही जा सकता था। 
   फिर अभयकुमार की सलाह पर उदयन राजा के संगीत कौशल्य की मदद लेकर उस हाथी को वश में किया गया।
   राजा चण्ड फिर अभयकुमार पर खुश हो गया। उसने अभयकुमार को दूसरी बार वरदान मांगने को कहा। अभयकुमार ने उसे भी भविष्य के लिए अमानत रखा।


  

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - पुरानी पोस्ट में से
भरतक्षेत्र में अब विलुप्त 10 वस्तुओं में से पांचवा सूक्ष्मसंपराय चारित्र



आज का सवाल : पुरानी पोस्ट से
उदयन किस नगर का राजा था?



जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


U
04-2-2021
#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 73

चण्डप्रद्योत से टक्कर


उदयन व वासवदत्ता एक दिन योजना बनाकर वहां से भाग गये। चण्ड अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने अनलगिरी हाथी के साथ सैनिकों को उदयन को पकड़ने भेजा।
   उदयन तो हस्तियों का जानकार था। हाथियों की कमजोरी उसे पता थी। अपनी योजना से वह जोरावर अनलगिरी हाथी को मुग्ध कर सब सैनिकों से आगे निकल कर राज्य की सीमा पार कर गया।
   यह सुनकर आवेग में आये चण्ड को उसके मंत्रियों ने शांत किया। आपकी पुत्री के लिए उदयन जैसा योग्य पात्र योग से मिल गया है तो अब उसे स्वीकार कर लेने में ही श्रेय है।
   शांतचित्त से सोचने पर चण्ड को भी यह सुझाव सही लगा। उसने उदयन को दामाद के रूप में स्वीकार कर सिरपाव भेज दिया।

अब भी अभयकुमार बंदी थे।

एक बार अवंति में भीषण आग लगी। जिसे अभयकुमार की बुद्धि से बुझाई गई। प्रसन्न हुए चण्ड ने मुक्ति के अलावा अभयकुमार को कुछ भी इच्छित वरदान मांगने को कहा। अभयकुमार ने उसे भी भविष्य के लिए सुरक्षित रखा। 
एक बार अवंति नगरी में महामारी फैली। फिर अभयकुमार की बुद्धि काम आई। अभयकुमार की योजना से नगर महामारी से मुक्त हुआ। चंडप्रद्योत ने फिर अभयकुमार को वरदान दिया। पर वह मुक्ति नही मांग सकता था।

अब अभयकुमार ने समय पहचान लिया। उन्होंने चारो वरदान  एक साथ मांग लिए।
अभयकुमार ने क्या मांगा ?

अभयकुमार ने अपनी विचक्षण बुद्धि का प्रयोग करते हुए राजा से निम्न चार बाते मांगी।

1 आप अनलगिरी हाथी पर महावत बनकर बैठे।
2 उस हाथी की अंबाड़ी में मैं शिवादेवी की गोदी में बैठु
3 आपके तीसरे रत्न अग्नि भीरू रथ को तोड़कर उसकी लकड़ियों की चित्ता जलाई जाए।
4 हम तीनो (राजा, रानी, अभयकुमार ) उस अनलगिरी हाथी समेत उस चित्ता में जल मरे।

राजा समझ गया। उसकी यह मांग पूरी करना असंभव था। आखिर चण्डको अभयकुमार को मुक्त करना ही पड़ा।

अभयकुमार को राजगृही पंहुचाने की व्यवस्था की गई।
मुक्ति के समय अब अभयकुमार ने राजा को चुनौती दी।
राजन, तुमने मुझे धर्म का नाम बदनाम कर के, गणिकाओं द्वारा निकृष्ट योजना से अपहृत किया था। पर अब मैं आपको आपकी नगरी के राजमार्गो से, दिन के खुले उजाले में नगरजनो के सामने से उठाकर ले जाऊंगा। आप चिल्लाते रहोगे कि मैं राजा हूं, मुझे कोई तो बचाओ। पर उस समय आपकी बात कोई नही सुनेगा।
चण्ड ने उसे हंसी में टाल दिया।

अब अभयकुमार ऐसा क्या करेंगे??




सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - पुरानी पोस्ट से,
उदयन कौशांबी नगर का राजा था ।



आज का सवाल : राजा चंडप्रद्योत के पास कितने व कौन से रत्न थे? (पुरानी पोस्ट से )



जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।



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5:2-2021
#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 74

चण्डप्रद्योत से टक्कर
अभयकुमार चण्ड को चुनौती देकर राजगृही आये। श्रेणिकराजाa उसे देखकर प्रसन्न हुए।

कुछ समय बाद अभयकुमार 2 सुंदर युवती तथा एक चण्ड जैसा कद-काठी वाला युवक के साथ व्यापारी का भेष बनाकर अवंति आया । अवंति मे घर किराये से लेकर रहने लगा। 
अपनी योजना के मुताबिक अभयकुमार रोजाना उस चण्ड जैसे कद-काठी वाले युवक को खाट पर डालकर मजदूरों द्वारा वैध के यहां ले जाने के बहाने दूर तक ले जाने लगा।

वह व्यक्ति चिल्लाता : - अरे, कोई मुझे बचाओ, मैं यहां का राजा हूं। शुरू-शुरू में लोग यह सुनकर राजा को बचाने इकट्ठा हो जाते। तब व्यापारी के रुप में बदले हुए भेष में अभयकुमार यह कहते : - अरे, यह मेरा भाई है, पागल हो गया है। इसी तरह कुछ भी बकता रहता है। उसे वैध के पास उपचार करवाने ले जा रहा हूं। लोग आश्वस्त होकर लौट जाते। यह प्रतिदिन होने लगा । अब लोग कुछ नही बोलते। न उसकी बात सुनते।
योजना के अनुसार उधर एक दूसरा काम अभयकुमार के साथ आई 2 युवतियों ने किया। चण्ड के आने-जाने के स्थान व मार्ग पर सजधज कर आवागमन करने लगी। ताकि वे औऱ उनकी सुंदरता राजा की नज़रों में आये। तीर निशाने पर लगा। चण्ड उन दोनो सुंदरियों पर मुग्ध हो गया। उसने एक दुतनी भेजकर उन सुंदरियों के पास प्रणय निवेदन किया। 
शुरुआत में युवतियो ने इनकार कर दिया। चण्ड और तीव्र आसक्त हो गया। फिर  कुटनी  दुतनी ने 3/4 बार प्रयास किया। अब चण्ड की मुग्धता समझकर, लोहा गर्म हो चुका यह जान लिया। युवतियों ने कहा : - अभी हम हमारे भाई के साथ है। लज्जावश ऐसा कुछ नही कर सकते। आज से 7 दिन बाद जब भाई बाहरगांव जानेवाले है तब राजा को यहां भेज देना।
योजना अंतिम चरण पर आ गई थी। सातवे दिन एकांत में राजा चण्ड आया। मौका देखकर अभयकुमार ने अपने सैनिकों द्वारा राजा को खाट पर बांध दिया। और उसे उठाकर नगर में राजमार्गो से होकर निकलने लगे। राजा गुस्सा, लाचारी से तड़प उठा। वह चिल्लाया अरे, कोई मुझे बचाओ, मैं यहां का राजा हूं। पर किसी ने उसकी ओर ध्यान नही दिया। वहां से वे वन में आये। पहले से तैयार रथ में डाला और राजगृही लेकर आये।

श्रेणिकराजा शत्रु को देखकर क्रोधित होकर उसे मारने उठे, परन्तु अभयकुमार ने उन्हें शांत किया। अपनी चुनौती उसे याद करवाकर अपना ऋण वसूल किया। फिर उसे राजा योग्य सन्मान के साथ वापिस अवंति लौटा दिया।

हमने पिछले कथानकों में चण्ड के कामुकता के 2 प्रसंग देखे जिसमे एक तो संबन्ध में साली ऐसी मृगावती जी तथा अभयकुमार के साथ आई युवती का प्रसंग था। एक ऐसा अन्य प्रसंग भी हम साथ में देखेंगे जिसमे जिनशासन के एक अन्य महान विभूति के लिए भी हम जानेंगे।

कौन थी वो महान आत्मा, जिसे आज भी याद किया जाता है।

सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


कल का जवाब  :  - (पुरानी पोस्ट से )
चंडप्रद्योत के पास 4 दुर्लभ रत्न थे। 
1 अग्नि-भीरू रथ ,2 रानी शिवादेवी , 3 अनलगिरी हाथी,  4 लोहजंघ दूत ।


आज का सवाल : कल की पोस्ट से।
अभयकुमार ने चण्ड से तीसरे वरदान में क्या मांगा?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।






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