संहनन
संहनन – अस्थि-रचना अथवा शरीर में कठोर भाग की रचना, जिसके आधार पर शरीर का ढांचा बनता है ।सरल शब्दों में कहें तो हमारे हड्डियों की शक्ति का दूसरा नाम संहनन है
संहनन छह हैं- 1 .वज्रऋषभनारच, 2ऋषभनारच, 3नारच,4 अर्धनारच, 5कीलिका, 6सेवार्त।
1️⃣वज्रऋषभनारच संहनन – का अर्थ
इसका संधि विच्छेद करे तो
*वज्र अर्थात*बहुत मजबूत जैसे इन्द्र का अस्त्र जिसका भेदन ना किया जा सके
नाराच का अर्थ लोहे का बाणऔऱ दूसरा अर्थ अस्थियां दोनो औऱ से मजबूती से गुन्थी (मर्कट बंध) होना
तो तीनों ही चीजें कितनी मजबूत है
अब देखिए अस्थि काकील के लिए वज्र का।
अस्थि परिवेष्टन( गुंथ ) के लिए ऋषभ का।
परस्पर गुंथी के लिए नाराच शब्द का इस्तेमाल किया गया है
इससे मजबूत कुछ नहीं होता
दूसरे सीधे अर्थ में एक ऐसी अस्थि रचना जिसमें उक्त तीनों अस्थियों को भेदकर अस्थिकील(बोल्ट) से आर पार
कसा होता है।
औऱ यही संहनन हमारे शलाका पुरुषों (तीर्थंकर ,चक्रवर्ती आदि)के होता है , एक ये हीऐसा संहनन है
जो मोक्ष गामी भी बनाता है औऱ सातवीं नरकगामी भी।क्योंकि इसी संहनन वाले बहुत पुण्य भी कर सकते है ,शुक्ल ध्यान भी इसी संहनन वाले कर सकते है,और अत्यधिक पाप भी ।
उत्कृष्ट साधना भी औऱ क्रुर कर्म भी
इनका गुण स्थान होता है ,पहले से तेरहवाँ।
पर एक अजूबा है कि ये ही एकमात्र संहनन भोग भूमि वालों के होता है पर
वे ना मोक्ष में जाते है ना नरक में सातवीं नरक तो दूर की बात है।
2️⃣ऋषभ नाराच ➡️संहनन का एक प्रकार, जिसमें हड्डियों की आंटी व वेष्टन होते है, कील नहीं होती ।
जिसमें वज्र के बंध नही होता पर कील औऱ हड्डियां वज्र के समान होती है ,पर गुंथा हुआ
कील औऱ हड्डियां के मुकाबले बहुत
कमजोर होती है , जैसे किसी ने लोहे के छड़ों को सुतली से बांध दिया हो
इस संहनन वालों का गुण स्थान
1 से 11 तक होता है
ये ग्रेविएक से भी ऊपर गति में जा सकते है
औऱ ये 5 वी नरक तक जा सकते है
3️⃣नाराच संहनन➡️अस्थिरचना का एक प्रकार, जिसमें अस्थि के दोनों तरफ मर्कटबन्ध होता है
इसमें वज्र औऱ ऋषभ जैसा कुछ भी नही है ,साधारण नाराचा से कीलित हड्डियों की संधिहै,
पर फिर भी हमारी अपेक्षा तो बहुत मजबूत है
ये 1 से 11 गुणस्थान तक ही जा सकते है।
ये9 ग्रेविएक तक जा सकते है
4️⃣अर्धनाराच➡️ वह अस्थिरचना, जिसमें हड्डी का एक छोर मर्कटबन्ध से बंधा हुआ होता है तथा दूसरा छोर कील से बंधा हुआ होता है ।
एक अस्थि रचना ऐसी होती है जिसमें नाराच्(मर्कट बंध) आधा होता है मतलब हड्डियां आधी जुड़ी बंधी होती है अस्थियों के छोर पर परस्पर एक ओर से घूमते हुए होते हैं उससे और अर्धनाराच् कहा गया है।
ये 1से 7 तक गुण स्थान तक जा सकता है
और 16 देव लोक तक जा सकते हैं
5️⃣कीलिका ➡️संहनन का एक प्रकार, जिसमें अस्थियों के छोर परस्पर जुड़े हुए होते है – एक दुसरे से बंधे हुए होते
एक अस्थि रचना ऐसी होती है जिसमें अस्थियों के छोर परस्पर जुड़े हुए होते हैं एक दूसरे का स्पर्श किए होते हैं उसे कीलिका कहा गया है।इसमे यूँ कहे तो नाराच (नाड़ियों से गुंथी)से नहीं होती बस
हड्डियां गढ़े औऱ कील की तरह जुड़ी होती है
ये 1से 7 तक गुण स्थान तक जा सकता है
12 वे स्वर्ग तक जा सकते है
औऱ 5 वी नरक तक
6️⃣सेवार्त संहनन➡️ वह अस्थि-रचना, जिसमें दो हड्डियों के पर्यन्त भाग परस्पर एक दुसरे को स्पर्श कर रहे हों सिर्फ मात्र छू है,
कुछ शरीरों में अस्थियां परस्पर जुड़ी हुई नहीं होती आमने सामने होती है, केवल बाहर से शिरा स्नायु मांस आदि लिपट जाने के कारण संगठित होती है इस प्रकार की अस्थि संरचना को सेवार्थ कहा गया है यह सबसे दुर्बल अस्थि संरचना है धवला में इसकी तुलना परस्परअसंप्राप्त और शिराबद्ध सर्प की अस्थियों से की गई है।
सरल भाषा में कहें तो काँच के पाइप सूतली से बांध दिए गए हो
आज अधिकांश मनुष्य इसी संहनन में आते है, तभी तो थोड़ा ही कुछ होता है
हड्डियां टूट जाती हैं ।
ये 1से 7 तक गुण स्थान तक जा सकता है
8 वे देवलोक तक
3 नारकी तक जा सकते हैं
बाकी कल
एक पुनः अवलोकन
क्रम.
1. नारकी, देवता,तथा सिद्धों
0 ,कोई भी संहनन नहीं
2. 5 स्थावर, 3 विकलेन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी मनुष्य
1सेवार्त
3. गर्भज मनुष्य, तिर्यन्च
6,सभी
4. सर्व युगलिया, 63 श्लाका पुरुष
1
वज्रऋषभनारच होते है।
1. अंतिम 3 संहनन वाले 7वें गुणस्थान से आगे नहीं जाते। 7 वें में उदय व्युच्छित्ति।
2. देव या नारक बनने के लिए पूर्व भव में संहनन आवश्यक है।
3. संहननवाला ही योग्यतानुसार देव गति, नरकगति में जाता है।
4. वज्रृऋषभनाराच ,ऋषभनाराच ,नाराच,अर्द्ध नाराच ये संहनन वज्रस्वामी के साथ विच्छिन्न हो गए।ऐसा दशवै कालिक की भूमिका में उल्लेख है। यानि अभी शायद अंतिम तीन ही संहनन हैं। क़ोई 2 तो ये ही मानते है
की अभी केवल दो ही संहनन है
शायद आज जो रेसलिंग वाले कुश्ती लड़ने वाले इत्यादिहै , उनके अर्धनाराच होता होगा।
क्योंकि इस जग में भांति 2 के लोग है।
कोई फूंक से उड़ जाते है ,औऱ क़ोई - पांच2 आदमियों को उड़ा दे
अस्थि-संरचना का साधना और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से विशेष महत्त्व है ।
शुक्ल ध्यान की साधना के लिए और मोक्ष-गमन के लिए वज्रऋषभनारच संहनन का होना जरूरी है ।
उत्कृष्ट साधना की भांति उत्कृष्ट क्रूर कर्म भी इसी अस्थि-रचना वाले प्राणी करते हैं । मोक्ष और सांतवी नरक में नियमा वज्रऋषभनारच संहनन वाले जीव ही जाते है । अर्थात् कि अति अच्छे और अति बुरे दोनों कार्यों में पूरी शक्ति और और उत्तम संहनन की आवश्यकता है
वज्रऋषवनाराच सहनन मोक्ष जाने के लिए व् सातवी नरक जाने के लिए जरूरी है । पर वो होने से मोक्ष जायेगें ही या सातवी नरक जायेंगे ही, यह जरूरी नहीं । जलचर मोक्ष नहीं जायेगा व् स्त्री सातवी नरक नहीं जायेगी । जलचर मोक्ष नहीं जायेगा व् स्त्री सातवी नरक नहीं जायेगी । जबकि दोनों के वज्रऋषवनाराच सहनन होता है भरत क्षेत्र में ना सही
पर दूसरक्षेत्र में तो आज भी है और एक वक्त में तो भरत क्षेत्र में भी था ।
पर स्त्री कभी भी सातवीं नरक में नहीं
जाती
क्या इस पंचम आरे में छहों ही संहनन हैं ?
नहीं है। इस पंचम आरे में भरत क्षेत्र से कोई मोक्ष नहीं जाता, इसका एक कारण वज्रऋषभनाराच संहनन का अभाव है । इसी तरह इस पंचम आरे में भरत क्षेत्र में निश्चित वज्रऋषभनाराच संहनन वाले यौगलिक और 63 श्लाका पुरुष भी नहीं होते । तो अभी इसलिए भरत क्षेत्र (वज्रऋषभनाराच संहनन का अभाव के कारण) में मोक्ष व सातवीं नरक दोनों का अभाव है ।
1. सातवीं नरक में प्रथम संहनन वाले ही जा सकते हैं।
2. छठी नरक में प्रथम दो संहनन वाले जा सकते हैं।
3. पांचवीं नरक में प्रथम तीन यानि नाराच वाले संहनन वाले तक जा सकते हैं।
4. चौथी नरक में प्रथम चार संहनन वाले ही जा सकते हैं।
5. तीसरी नरक में प्रथम पांच संहनन वाले जा सकते हैं।
6. प्रथम दो नरक में छहों संहनन वाले जा सकते हैं।
7. सेवार्त वाले सिर्फ प्रथम दो ही नरक में जा सकते हैं।
8. 7वीं नरक का द्वार तो सिर्फ मनुष्य व जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ही खुला है ।
9. प्रथम चार देवलोक में छह ही संहनन वाले जीव जा सकते हैं। भवनपति वाणव्यन्तर ज्योतिष्क में भी छह ही संहनन वाले जीव जा सकते हैं ।
10. पांचवें, छठे देवलोक में प्रथम पांच संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
11. सातवें,आठवें देवलोक में प्रथम चार संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
12. नौवें से बारहवें देवलोक में प्रथम तीन संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
13. नौ ग्रैवेयक में प्रथम दो संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
14. पांच अनुत्तर में प्रथम एक ही संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
एक तथ्य उभर कर आया कि अभवी जीव भी ऋषभनाराच संहनन वाला हो सकता है । वज्रऋषभनाराच भी हो सकता है । वज्र ऋषभनाराच मोक्ष जाने के लिए आवश्यक है, पर जायेगा ही आवश्यक नहीं।
एक तथ्य ये भी है कि
सभी 63 शलाका पुरुष भवी ही होते हैं ।
*आहारक शरीर के साथ क्या संहनन का सम्बन्ध है* ?
आहारक शरीर के साथ प्रथम तीन संहनन का सम्बन्ध है। कारण: 7 गुणस्थान के बाद प्रथम तीन संहनन का उदय नहीं।अर्थात 3प्रथम तीन संहनन के बाद तो 7 वे गुण स्थान के
ऊपर नहीं जा सकता अन्तिम
तीन हीन संहनन वाले जीव तो श्रेणी चढ़ ही नहीं सकते । शरीर की शक्ति की अपेक्षा तीन प्रथम संहनन जोकि उत्तम है -उपशम श्रेणी चढ़ने वाले साधु इन तीन संहनन में से किसी एक संहनन वाले होते है किन्तु क्षपक श्रेणी चढ़ने के लिए अर्थात चारित्र मोहनीय के क्षय करने के लिए मात्र वज्रऋषभनाराच सहनन आवश्यक है! ये दोनों श्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज की शारीरिक शक्ति की अपेक्षा अंतर होता है
संहनन – अस्थिसंचय से उपमित शक्ति विशेष, जैसे – देवों का शरीर । (जैपाश-298)
संहनन नाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदरिक शरीर में अस्थि तथा कठोर भाग की रचना होती है ।
संहनन बन्ध – अवयवों तथा पृथक-पृथक वस्तुओं का संघात । बैलगाड़ी के अवयवों का संयोजन देशसंहनन बन्ध और दूध-
पानी की भांति मिलन सर्वसंहनन बन्ध है ।
अब एक प्रश्न दिमाग मे उठता हैं कि
पांच अनुत्तर विमान में प्रथम एक ही संहनन वाले जीव जा सकते हैं।"
लेकिन उपशम श्रेणी लेने वाला जीव प्रथम तीने ही संहनन वाले हो सकते हैं। यदि वो जीव ग्यारहवॉं गुण स्थान में मृत्यु को प्राप्त होता है तो निश्चित ही अनुत्तर विमान में जाता
है।
तो क्या यहां भी ये नियम है कि श्रेणी करने वाला जीव यदि प्रथम संहनन वाला हो तो ही ऐसा होगा?
*तो उसका जबाब है*
जो जीव उपशम श्रेणी करते हुवे 11 गुण स्थान में काल करेगा वह नियमा पहले सहनन वाला ही होगा अन्यथा वह काल नही करेगा क्यो की बिना आयुष्य बंध के कोई भी जीव काल नही करता और आयुष्य बंध 1 से 7 गुणस्थान में 3 को छोड़ कर होता है और कोई भी जीव अनुत्तर विमान का आयुष्य बंध करता है तो वह जीव 1पहले सहनन वाला ही होगा और वही जीव 11 वे गुणस्थान में काल करेगा।
- वज - जो वज़ के समान अभेद्य अर्थात् जिसका भेदन न किया जाए उसे वज़ कहते हैं।
- ऋषभ - जिससे बाँधा जाए उसे ऋषभ (बेस्टन) कहते हैं।
- नाराच - नाराच नाम कील का है। जैसे - दरवाजे के कब्जों के बीच लोहे की कील होती है।
- संहनन - हड़ियों का समूह।
- वज़ऋषभनाराच संहनन - जिस शरीर में वज़ की हड़ियाँ हों, वज़ का ऋषभ हो और वज़ का नाराच हो, उसे वज़ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं।
- वज़नाराचसंहनन - जिसमें वज़ के बंधन न हों, सामान्य बंधन से बाँधा जाए किन्तु कील व हड़ियाँ वज़ की हों, उसे वज़नाराच संहनन कहते हैं। जैसे - लोहे के सामान को सुतली से बांधना।
- नाराच संहनन - जिसमें वज़ विशेष से रहित साधारण नाराच से कीलित हड़ियों की संधि हो, उसे नाराच संहनन कहते हैं।
- अर्द्धनाराच संहनन - जिसमें हड़ियों की सन्धियाँ नाराच से आधी जुड़ी होती हैं, उसे अर्द्धनाराच संहनन कहते हैं।
- कीलक संहनन - जिसमें हड़ियाँ परस्पर में नोंक व गड़े के द्वारा फँसी हों, अर्थात् अलग से कील नहीं रहती, उसे कीलक संहनन कहते हैं।
- असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन - जिसमें अलग-अलग हड्डियो से बंधी हों, परस्पर में कीलित न हों, उसे असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन कहते हैं। (जै.सि.को, 4/155)
वजत्रदृषभनाराच संहनन | 1 से 13 गुणस्थान तक |
वज्रनाराच्च और नाराच्च संहनन अर्द्धनाराच,कीलक संहनन और | 1 से 11 गुणस्थान तक |
असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन | 1 से 7 गुणस्थान तक |
असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन | 8 वें स्वर्ग तक |
कीलक संहनन | 12 वें स्वर्ग तक |
अर्द्धनाराच | 16 वें स्वर्ग तक |
नाराच्च संहनन | नवग्रैवेयक तक |
वज्रनाराच | नवअनुदिश तक |
वजत्रदृषभनाराच संहनन | सर्वार्थसिद्धि एवं मोक्ष भी (गो.क.30) |
वजत्रट्टषभनाराच संहनन वाला | सातवी पृथ्वी तक |
वज्रनाराच्च संहनन से अर्द्धनाराचसंहनन वाला | छठवी पृथ्वी तक |
कीलक संहनन वाला | पाँचवीं पृथ्वी तक |
असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन वाला | तीसरी पृथ्वी तक। (गो.क.31) |
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