आगम गगन उड़ान
*🌸🌸 आगम गगन में उड़ान 🌸🌸*
*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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19 aug
🎄🎄🎄🎄1️⃣🎄🎄🎄🎄
*🔸 🔸 🔸 भूमिका 🔸 🔸 🔸*
( प्रारम्भ एक रूप कथा से )
*◆ उपवन में एक घटादार और रमणीय वृक्ष है जिसकी छाया शीतल है।*
*◆ जो व्यक्ति इस वृक्ष की छाया में विश्रांति करता है उसका ताप (गर्मी) दूर हो जाता है।*
*◆ शाखाओं और प्रशाखाओं से सुसज्ज यह वृक्ष अपने चित्त को चोर ले ऐसा है,और हाँ उसके पुष्पों की सुगंध और सौरभ से समस्त वातावरण मादक बन जाता है।*
*◆ इस वृक्ष पर सुमधुर फल लगे हैं,जिन्हें देखकर हर किसी का इनके स्वाद में लुप्त हो जाने का मन हो जाता है।*
*◆ परन्तु इस वृक्ष पर कोई चढ़ नहीं सकता लेकिन एक हिम्मत वाला आदमी उस वृक्ष पर चढ़ जाता है।*
*◆ नीचे खड़े रहे लोग तो उसे देखते ही रह गये।उन्होंने वृक्ष पर चढ़े हुए दयालु व्यक्ति को फल देने की विनंती की।*
*☝️ इस रूपकथा के साथ हम जिनागम का अनुसंधान करते हैं... समझने का प्रयास करते हैं..*
*👉घटादार वृक्ष... यानि केवलज्ञान और केवलदर्शन*
*🙏वृक्ष पर चढ़ जाने वाले... तीर्थंकर परमात्मा*
*👏गणधर भगवंत नीचे खड़े होकर झोली फैलाते हुए पूछते हैं...*
*....❓❓ किम् तत्वम् ❓ ❓....*
*☝️उनकी झोली में जो फल गिरते हैं वे है......*
*🙏☝️🙏 अपने आगमसूत्र 🙏☝️🙏*
*कहा जाता है कि जिनशासन जयवंतु हैं।*
( हम सभी उस प्रकार के नारे भी लगाते हैं )
*लेकिन क्या आपको पता हैं...इस जिनशासन को जयवंता बनाने वाला तत्व कौन-सा हैं ?*
*☝️☝️वह तत्व है "जिनागम"☝️☝️*
*कत्थ अम्हारिसा प्राणी, दुसमा दोसदूसिया।*
*हा अण्हा कहं हुंता,जई न हुंतो जिनागमो।।*
*अर्थात्*
*दुषमकाल में दोष से दूषित ऐसे हमारे जैसै पामर जीवों का क्या होता ? जो जिनेश्वर देव के ये आगम हमें प्राप्त नहीं हुए होते ?*
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*❓❓आगम का अर्थ क्या❓❓*
*आगम की शास्त्रीय परिभाषा करते हुए बताया गया हैं कि...*
*आगम्यते ज्ञायते वस्तुतत्वमनेनेति आगम:*
*अर्थात्*
*☝️जो सिद्धांतों द्वारा यथार्थ रूप से वस्तु का बोध कराए ,उसे आगम कहते हैं।*
*☝️जिसके माध्यम से खुद के आत्मा को जान सकें ,मान सकें उन्हें आगम कहते हैं।*
*🙏जिसको गणधर भगवंतों ने सूत्र के रूप में गूँथ कर जो द्वादशांगी बनाई - - वो ही हैं आगम।*
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*🙏☝️🙏 आगम परिचय 🙏☝️🙏*
*☝️जैन धर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल आधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है।*
*🙏तीर्थंकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है।*
*👏महान प्रज्ञावान गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रंथित करके व्यवस्थित "आगम" का रूप देते हैं।*
*☝️पहले लिखने की परम्परा नहीं थी तब आगमों को स्मृति के आधार पर या गुरु परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था।भगवान महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष आगम इसी प्रकार स्मृति परम्परा पर ही चले आते थे।धीरे-धीरे आगम ज्ञान लुप्त होता गया।महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद जितना रह गया।वि.नि. के 980 या 993 वर्ष पश्चात देवार्द्धिगणी क्षमाश्रमणने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर जीनवाणी रूपी आगम ज्ञान को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया।पुनः विक्रम की 16वीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रांतिकारी प्रयत्न किया।आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ।किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान आ गए।उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को कुछ सुविधा हुई।*
*☝️आगम जिनशासन के शणगार समान हैं ,जिसके परिचय से हम अपने जीवन को रत्नत्रयी और तत्वत्रयी से शणगार दें... यही तो मनुष्य जीवन की सार्थकता और सफलता है।*
*☝️आगमों की संख्या के विषय में अनेक मत प्रचलित है।उनमें से तीन मुख्य हैं.....*
*84 आगम*
*45 आगम*
*32 आगम*
*🙏हम 32 आगम...(11 अंग , 12 उपांग , 4 मूल ,4 छेद और 1 आवश्यक) के बारे में संक्षेप में जानने का प्रयास करेंगे क्रमशः आगामी पोस्ट में....*
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30 dt
*🌸🌸 आगम गगन में उड़ान 🌸🌸*
*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸🔸प्रथम आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्री आचारांग सूत्र🔹🔹*
*🙏जिनागमो में प्रथम आगम यानि आचारांग सूत्र।*
*☝️आचारांग का दूसरा नाम वेद भी है।*
>>यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस आगम को ही प्रथम क्यों माना गया है ?
*"आचार: प्रथमो धर्म:"।*
आचार अपना सर्वप्रथम धर्म है।साधु जीवन में आचार और विचार के बिना एक कदम भीआगे नहीं बढ़ा जा सकता है।इस आगम (सूत्र) में साधु-साध्वियों को कौन-से आचारों का पालन कब करना चाहिए इसके बारे में बताया गया है।मूख्यतः इस आगम में छह जीव निकाय का सुंदर वर्णन किया गया है।
*आचारांग सूत्र का स्वरूप नंदी सूत्र में बहुत अच्छी तरह समझाया गया है। संक्षेप में आचार के पाँच प्रकार है...*
*1.ज्ञानाचार 2.दर्शनाचार 3.चारित्राचार*
*4.तपाचार और 5.वीर्याचार।*
*☝️आचार मुक्तिमहल में प्रवेश करने का भव्य द्वार है।उससे आत्मा पर लगे अनन्त काल का कर्म-मल छट जाता है।*
जिनशासन मानता है कि विचारों का उद्गम बिंदु भी आचार है।व्यवहार मात्र विचार से नहीं बल्कि आचार से चलता है, यह समझाने के लिए सबसे प्रथम आचारांग सूत्र को रखा गया है।
*☝️गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं किन्तु अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं।*
*☝️अतित काल में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, उन सभी ने सर्वप्रथम आचारांग का उपदेश दिया है।वर्तमान में जो तीर्थंकर महाविदेह क्षेत्र में विराजमान है वे भी आचारांग का ही उपदेश देते हैं और भविष्यकाल में जितने भी तीर्थंकर होंगे वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देंगे।*
*☝️आचारांग का अध्ययन किये बिना कोई भी श्रमण आचार्य पद को प्राप्त नहीं कर सकते।*
*आचारांग सूत्र बारह अंगों (द्वादशांगी) में से प्रथम अंग सूत्र है।इस अंग सूत्र का दो श्रुतस्कन्ध और पच्चीस अध्ययनो में विभागीकरण किया गया है।*
*स्कन्ध... यानि ...समुदाय।*
*श्रुतज्ञान के संचय(समुदाय)को श्रुत स्कन्ध कहते हैं।*
*🔹🚥🔸प्रथम श्रुतस्कन्ध🔸🚥🔹*
*प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन है। इसे "नव ब्रह्मचर्याध्ययन" भी कहा जाता है।ब्रह्मचर्य का अर्थ ही श्रमण धर्म है।इसमें श्रमण आचार (अहिंसा-संयम-समभाव-कषाय विजय-अनासक्ति और विमोक्ष आदि) का वर्णन है।*
*☝️प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों में सातवें अध्ययन का दस पूर्वधर श्री वज्र स्वामी के स्वर्ग गमन के बाद विच्छेद हो गया था।*
(सातवें अध्ययन की सहाय से श्री वज्र स्वामी ने आकाश गामिनी विद्या प्रकट की थी)
*☝️आचारांग निर्युक्ति में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों का सार संक्षेप में इस प्रकार है....*
*●जीव-संयम , जीवों के अस्तित्व का प्रतिपादन और उसकी हिंसा का परित्याग।*
*●किन कार्यों के करने से जीव कर्मों से आबद्ध होता है और किस प्रकार की साधना करने से जीव कर्मों से मुक्त होता है।*
*●श्रमण को अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर सदा समभाव में रहकर उन उपसर्गों को सहन करना चाहिए।*
*●दूसरे साधकों के पास अणिमा, गणिमा, लघिमा आदि लब्धियों के द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य को निहारकर साधक सम्यक्त्व से विचलित न हो।*
*●इस विराट विश्व में जितने भी पदार्थ है वे निस्सार है, केवल सम्यक्त्व रत्न ही सार रूप है।उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें।*
*●सदगुणों को प्राप्त करने के बाद श्रमणों को किसी भी पदार्थ में आसक्त बनकर नहीं रहना चाहिए।*
*●संयम साधना करते समय यदि मोहजन्य उपसर्ग उपस्थित हो तो उन्हें सम्यक प्रकार से सहन करना चाहिए।पर साधना से विचलित नहीं होना चाहिए।*
*●सम्पूर्ण गुणों से युक्त प्रन्थक्रिया की सम्यक प्रकार से आराधना करनी चाहिए।*
*●जो उत्कृष्ट संयम साधना, तप आराधना भगवान महावीर ने की उसका प्रतिपादन किया गया है।*
*🙏 हम श्री आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों के बारे में संक्षेप में जानने का प्रयास करेंगे क्रमशः आगामी पोस्ट में....*
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*जिज्ञासा और समाधान*
*(1) अणिमा, गणिमा, लघिमा*
(यहाँ संक्षेप में उत्तर लिख रहा हूँ कारण कि यह जिनागमो और जैन धर्म की मान्यता अनुसार नहीं है)
*वैदिक धर्म में आठ प्रकार की सिद्धियों का उल्लेख मिलता है।जिसमें ये तीन सिद्धियां भी है।
*अणिमा :--* अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता।
*गणिमा :--* शरीर को अत्यंत भारी बना देने की क्षमता।
*लघिमा :--* शरीर है वैसा ही परन्तु उसे भार रहित करने की क्षमता।
*🙏साधक को दूसरे साधकों के पास ऐसी लब्धियों से प्राप्त ऐश्वर्य को देखकर सम्यक्त्व से विचलित नहीं होना चाहिए।*
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*(2) वर्तमान में सर्वप्रथम दशवैकालिक सूत्र का अध्ययन प्रचलित होने का कारण ?*
*🙏अतित, वर्तमान और भविष्य में जो तीर्थंकर होंगे वे सर्वप्रथम आचारांग सूत्र का ही उपदेश देते थे,दे रहे हैं और आगे भी इसी प्रकार से आचारांग सूत्र का ही उपदेश सर्वप्रथम देंगे।*
☝️अब बात आती है कि वर्तमान में दशवैकालिक सूत्र का ही अध्ययन प्रचलित होने का क्या कारण है? मेरी अल्पबुद्धि से उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ।
*वर्तमान में भी 11 अंगसूत्रों का अध्ययन दीक्षा के बाद साधु-साध्वी करते हैं या कराया जाता है।परन्तु सर्वप्रथम दशवैकालिक सूत्र का ही अध्ययन कराया जाता है यह भी एकदम सत्य बात है।इसका उत्तर बहुत ढुंढने पर भी नहीं मिला पर अपनी अल्प बुद्धि से इसके कुछ कारण बता रहा हूँ...*
*◆इसके अंतर्गत साधु-क्रिया (आचार-विचार) का पूरा सारांश आ जाता है इसलिए इसका अध्ययन कराया जाता है।जिससे मुनि जीवन की साधना सफलता के साथ की जा सकती है।वे अपना आत्म कल्याण आसानी से कर सकते हैं।*
*◆इसको मूल सूत्र में माना गया हैऔर सबसे सरल आगम है।*
*◆एक तरह से 32 आगम का सार इसमें समाहित है।*
*◆दशवैकालिक सूत्र की रचना आचार्य शय्यमभव ने कैसे अपने पुत्र मुनि मनक कुमार जी के अल्प आयुष्य जानकर की वह हम इस आगम के स्वाध्याय में जानेंगे।*
*◆वर्तमान में चल रहे पांचवें आरे के अंत तक यही एक आगम रहेगा।बाकि सभी लुप्त हो जाएंगे।*
*(3) प्रन्थक्रिया क्या है?*
*🙏 सर्वप्रथम तो यह अन्तक्रिया(अन्त:क्रिया) है।जिस पुस्तक का स्वाध्याय कर मैं आगम को समझ रहा हूँ उसमें प्रिंट मिस्टेक थी। बहुत ढूंढने पर सही शब्द अन्तक्रिया का मालूम हुआ।अब अन्तक्रिया का अर्थ भी जानने का प्रयास करते हैं...*
*☝️साधक को मोक्ष प्राप्ति हेतु जो क्रिया करनी होती है वह अन्तक्रिया कहलाती है।या अपने शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सम्यक आराधना ही अन्तक्रिया है।*
*🌸🌸 आगम गगन में उड़ान 🌸🌸*
*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸🔸प्रथम आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्री आचारंग सूत्र🔹🔹*
*प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन*
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*(1) प्रथम अध्ययन:--- शस्त्रपरिज्ञा*
*शस्त्र :-- हिंसा के उपकरण या साधन जिनसे जीवों की हिंसा अथवा घात होती है।*
*☝️आगम में शस्त्र के दो भेद किये गए हैं।*
*(1) द्रव्य शस्त्र :--* जैसे तलवार, बंदूक आदि।
*(2) भाव शस्त्र :--* मन-वचन-काया के अशुभ भाव।
*परिज्ञा :-- ज्ञ परिज्ञा द्वारा वस्तु तत्व का यथार्थ परिज्ञान और साधनों का ज्ञान प्राप्त करके उनका त्याग करना।*
*शस्त्रपरिज्ञा :-- हिंसा के स्वरूप और साधनों का ज्ञान प्राप्त करके उनका त्याग करना।*
*हिंसा की निवृत्ति अहिंसा है।*
*अहिंसा का मुख्य आधार है आत्मा।*
*आत्मा का ज्ञान होने पर अहिंसा में आस्था दृढ़ होती है अर्थात् अहिंसा का सम्यक परिपालन किया जा सकता है।*
*आत्मा का ज्ञान == आत्मबोध...*
*●स्वयं हो जाता है अथवा*
*●●उपदेश श्रवण या शास्त्र अध्ययन से हो सकता है।*
*☝️आत्मवादी ही अहिंसा का सम्यक पालन कर सकता है।*
*🙏हिंसा के हेतु, निमित्त कारणों की चर्चा, षटकाय के जीवों का स्वरूप, उनकी संचेतना की सिद्धि, हिंसा से होने वाला आत्मपरिताप, कर्मबंध तथा उससे विरत होने का उपदेश आदि विषयों का सजीव शब्द चित्र प्रथम अध्ययन के सात उद्देशकों एवं 62 सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है।*
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*(2) दूसरा अध्ययन :-- लोक विजय*
*निर्युक्ति(गाथा 175) में लोक का आठ प्रकार से निक्षेप करके बताया गया है---नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव और पर्याय।*
*☝️इस अध्ययन में लोक से तात्पर्य "भाव लोक" से है जिसका अर्थ है---क्रोध, मान, माया, लोभ रुपी कषायों का समूह।कषाय लोक पर विजय प्राप्त करने वाला साधक काम-निवृत्त हो जाता है और काम-निवृत्त साधक संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।*
*इस अध्ययन में छह उद्देशक और सूत्र 63--105 है।*
*☝️इसमें लोक के आशय,रागादि कषाय और शब्दादि का विषय लिया गया है।क्योंकि संसार का मूल कारण रागादि कषाय ही है।ये जन्म-मरण के मूल को सींचने वाले हैं।*
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*तीसरा अध्ययन :--- "शीतोष्णीय"*
*इस अध्ययन के चार उद्देशक है और सूत्र 106--131 है।*
*शीतोष्णीय अर्थात्... शीत(अनुकूल) और उष्ण(प्रतिकूल) पर्रिषह को समता भाव से सहन करना।*
*☝️बताये गए 22 परीषहों में दो परिषह "शीत-परिषह" (स्त्री-परिषह,सत्कार परिषह) हैं। अन्य बीस "उष्ण-परिषह" हैं।*
*इस अध्ययन में सुप्त और जागृत के दो भेद बताए है।एक द्रव्य रूप से सुप्त और दूसरा भाव रूप से सुप्त।*
*🙏जो साधक सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र सहित संयम का पालन करता है वह आठ कर्मों को क्षय करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।*
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*(4) चतुर्थ अध्ययन :--- सम्यक्त्व*
*इस अध्ययन में चार उद्देशक है और सूत्र 132--146 है।*
*☝️इसमें क्रमशः सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप इन चारों भाव सम्यकों का भलीभांति विश्लेषण है।*
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*(5)पंचम अध्ययन :--- लोकसार*
*इस अध्ययन के छह उद्देशक है और 147--176 गाथाएं है।*
*🙏यहाँ पर "लोक" शब्द मुख्यतः प्राणि-लोक(संसार) के अर्थ में प्रयुक्त है।*
*सम्यक्त्व और ज्ञान का फल चारित्र है और चारित्र मोक्ष का कारण है जो कि लोक का सार है।*
*☝️हम संसारी लोग...*
*● धन को जुटाने,*
*● कामभोग के साधन जुटाने,*
*● शरीर की सुखसुविधा जुटाने*
*👉आदि में ही लोक का सार समझने लगते हैं।किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में ये सब पदार्थ सारहीन, क्षणिक एवं नाशवान है।आत्मा को पराधीन बनाने वाले और अनन्त दु:ख परम्परा को बढ़ाने वाले हैं।*
*🙏तीन लोक का यदि कोई सार है तो वह शुद्ध संयम के पालन में है क्योंकि इसी मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति होने वाली है।*
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*🙏शेष चार अध्ययनों के बारे में जानेंगे अगली पोस्ट में....*
*🌸🌸 आगम गगन में उड़ान 🌸🌸*
*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸🔸प्रथम आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्री आचारांग सूत्र🔹🔹*
*प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन*
(1, 2, 3, 4, 5 से आगे क्रमशः...)
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*(6)छठा अध्ययन --- धुत*
*👏जैन और बोद्ध दोनों परम्पराओं में "धुतवाद" सम्मत है।बोद्धों के विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ में तेरह धुतों का वर्णन है।प्रथम आगम आचारांग के इस अध्ययन में पांच धुतों का निरूपण किया गया है।इनका अर्थ पांच उद्देशकों में संग्रहित है।सूत्र 113 है।*
*धुत का अर्थ है..प्रकम्पन व शुद्ध*
*धुत दो प्रकार का बताया गया है..*
*(1) द्रव्य धुत - -* वस्त्र आदि पर लगी धूल को झाड़कर उसे निर्मल करने को द्रव्य धुत कहते हैं।
*(2) भाव धुत - -* जिसके द्वारा अष्टविध कर्मों का धूनन(कम्पन-त्याग) होता है वह भाव धुत है।
*☝️त्याग या संयम अर्थ में यहाँ भाव धुत शब्द प्रयुक्त है।*
*☝️धुतवाद "कर्म-निरोध" का सिद्धांत है।*
*कर्म बंध के प्रमुख हेतु चार है....*
*● ममत्व भाव, ●शरीर, ●उपकरण, स्वजन*
*👉यहाँ पर इस अध्ययन में इन चार हेतुओं के त्याग(धूनन) का प्रतिपादन किया गया है।*
*☝️उद्देश्य :-- साधक संसार वृक्ष के बीजरूप कर्मों(कर्म बन्धों) के विभिन्न कारणों को जानकर उनका परित्याग करे और कर्मों से सर्वथा मूक्त बने, अवधूत बने।*
*🙏कर्मरज से रहित आत्मा अर्थात संसार वासना का त्यागी अणगार कहलाता है।*
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*(7) सातवां अध्ययन - - महापरिज्ञा*
*☝️महान-विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोहजनित दोषों को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उनका परित्याग किया जाता है।*
*आज यह उपलब्ध नहीं है।इसका लोप कैसे हुआ, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है।*
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*(8) आठवां आध्ययन - - विमोक्ष*
*☝️इस अध्ययन में संबंध आदि के तथा शरीर के विमोक्ष(विसर्जन) की विधि बतलाई गई है।इसके आठ उद्देशक है और सूत्र 130 व गाथा 25 है।*
*विमोक्ष का अर्थ है..परित्याग करना(अलग हो जाना)*
*विमोक्ष दो प्रकार का बताया गया है..*
*(1) द्रव्य विमोक्ष :--* बेड़ि आदि किसी बन्धन से छूट जाने को द्रव्य विमोक्ष कहते हैं।
*(2) भाव विमोक्ष :--* आत्मा के साथ लगे कर्मों के बन्धन रूप संयोग से मुक्त हो जाना भाव विमोक्ष है।
*☝️भाव विमोक्ष दो प्रकार का होता है..*
*देश विमोक्ष और*
*सर्व विमोक्ष।*
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*(9) नौवां अध्ययन - - उपधानश्रुत*
*👉उपधान का सामान्य अर्थ - -* शय्या आदि पर सुख से सोने के लिए सिर के निचे(पास में) सहारे के लिए रखा जाने वाला साधन तकिया। *यह है द्रव्य उपधान*
*☝️भाव उपधान :-- ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप है। ये ही साधक के शाश्वत सुखदायक उपधान है।*
*श्रुत अर्थात सुना हुआ।*
*🚥🚥उपधान श्रुत🚥🚥*
*👏इसमें भगवान महावीर की दीक्षा से लेकर निर्वाण तक की घटनाओं का उल्लेख मिलता है।जिसे पढ़ते समय ऐसा लगता है कि आर्य सुधर्मा ने भगवान महावीर के साधना काल का प्रत्यक्ष-दृष्ट विवरण प्रस्तुत किया है।*
*☝️इसके चार उद्देशक है और चारों में भगवान महावीर के तपोनिष्ठ जीवन की झलक है।*
*उद्देश्य :-- प्रथम आठ अध्ययनों में प्रतिपादित साध्वाचार विषयक साधना कोरी कल्पना ही नहीं है।इसके प्रत्येक अंग को भगवान ने अपने जीवन में आचरित किया था।ऐसा दृढ़ विश्वास प्रत्येक साधक के ह्रदय में जागृत हो और वह अपनी साधना नि:शंक व निश्चल भाव के साथ सम्पन्न कर सके।*
*🙏 भगवान महावीर ने अपने निकाचित कर्मोंका क्षय करने के लिए अनार्य क्षेत्रों में विचरण किया जहाँ उन्हें घोर उपसर्गों, परिषहों को सहन करना पड़ा।*
*🙏भगवान महावीर के जीवन-दर्शन के अध्ययन के लिए यह अध्ययन अत्यंत प्रामाणिक स्त्रोत है।*
🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥
*🙏 प्रथम श्रुतस्कन्ध (ब्रह्मचर्य)के सम्बंध में आप अपनी जिज्ञासा रख सकते हैं।*
*👏 आगे हम जानने का प्रयास करेंगे आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध(आचाराग्र) के बारे में ....*
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*🌸🌸 आगम गगन में उड़ान 🌸🌸*
*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸🔸प्रथम आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्री आचारांग सूत्र🔹🔹*
*🚥🚥 द्वितीय श्रुतस्कन्ध🚥🚥*
*इस श्रुतस्कन्ध को "आचाराग्र" या "आचारचूला" नाम से जाना जाता है।*
*आचाराग्र* जैसे वृक्ष के मूल का विस्तार(अग्र) उसकी शाखाएं-प्रशाखाएँ है वैसे ही प्रथम श्रुतस्कन्ध-गत आचार-धर्म का विस्तार आचाराग्र है।
*आचारचूला* पर्वत या प्रासाद पर जैसे शिखर अथवा चोटी होती है उसी प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध की यह चूला रूप चोटी है।
*🙏प्रथम श्रुतस्कन्ध के रचियता गणधर भगवान सुधर्मा स्वामी है जबकि द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थविर ग्रन्थित माना गया है।*
*( स्थविर अर्थात चतुर्दश पूर्वधर )*
कहीं तो इसे भी गणधरकृत ही माना गया है।
*☝️भले ही यह गणधरकृत हो या स्थविरकृत। इसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है।इसको सर्वत्र स्वीकार किया गया है।*
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*द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन है..*
*1.पिण्डैषणाध्ययन*(आहार शुद्धि का प्रतिपादन)
*2.शय्यैषणा*(संयम साधना के अनुकूल स्थान शुद्धि)
*3.इर्यैषणा*(गमनागमन का विवेक)
*4.भाषाजातैषणा*(भाषा शुद्धि का विवेक)
*5.वस्त्रैषणा*(वस्त्र ग्रहण मर्यादा)
*6.पात्रैषणा*(पात्र ग्रहण मर्यादा)
*7.अवग्रहैषणा*(आज्ञा ग्रहण विधि)
*8.चेष्टिकाध्ययन*(खड़े रहने की विधि)
*9.निषिधिका*(बैठने की विधि)
*10.उच्चार प्रस्त्रवण अध्ययन*(परठने की विधि)
*11.शब्दाध्ययन*(शब्द श्रवण विधि)
*12.रूपाध्ययन*(रूप देखने की विधि)
*13.पर क्रियाध्ययन*(गृहस्थ से क्रिया की विधि)
*14.अन्योन्य क्रियाध्ययन*(परस्पर क्रिया विधि)
*15.भावनाध्ययन*(इसमें महावीर स्वामी के चारित्र और 5 महाव्रतों की 25 भावनाओं का वर्णन है)
*16.विमुक्त अध्ययन*(इसमें साधु की उपमाओं का वर्णन है)
*👉विमुक्ति का सामान्य अर्थ होता है--बन्धनों से विशेष प्रकार की मुक्ति या छुटकारा।*
*☝️जैसे सर्प अपनी जीर्ण त्वचा--कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है वैसे ही साधक संयम में विचरण करते हुए नरकादि दु:खों या कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है।*
*🙏तीर्थंकर गणधर आदि ने संसार को "महासमुद्र" की उपमा देते हुए फरमाया कि...*
*जमाहु ओहं सलिलं अपारगं,*
*महासमुद्दं व भुयाहिं दुत्तरं।*
*अहे व णं परिजाणाहिंं पंडिए,*
*से हु मुणी अंतकड़े त्ति वुच्चती।।*
*☝️जिस तरह अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को पार करना दुस्तर है।अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को (ज्ञ--परिज्ञा) जानकर (प्रत्याख्यान परिज्ञा से) उसका परित्याग कर दें।इस प्रकार का त्याग करनेवाला पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करनेवाला कहलाता है।*
*🙏प्रभु फरमाते है...*
*☝️दीक्षा लेकर जो भी आचार में रमण नहीं करके स्वच्छंदाचारी बन जाते हैं वे अनेकविध आरंभ में पड़कर कर्म बढ़ाते हैं।*
*👏यह जानकर बुद्धिमान साधक को पापकार्यों का सेवन नहीं करना चाहिए।साररूप में कहा जा सकता है कि साधक आत्माएं तत्वज्ञानी भी बने और पापों के त्यागी भी बने।*
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👏प्रथम आगम *"आचारांग सूत्र"* का संक्षेप में परिचय यहाँ सम्पन्न हुआ।आगे हम जानेंगे द्वितीय आगम *"सूयगडांग सूत्र"* के बारे में.....
*👉आज आप प्रथम आगम संबंधी जिज्ञासा ग्रुप में रख सकते हैं।यथासंभव अगले दिन तक समाधान देने का प्रयास रहेगा।*🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥
*पाँच महाव्रतों की 25 भावनाएं*
👏 👏 👏 👏 👏
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*👏प्रथम महाव्रत .*
*पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं पाणातिवासं।*
भंते ! मैं प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण प्राणातिपात(हिंसा) का प्रत्याख्यान करता हूँ।
*☝️पांच भावनाएं . . . . .*
*(1) ईर्यासमिति से युक्त होना,*
*(2) मन को सम्यग् दिशा में प्रयुक्त करना,*
*(3) भाषासमिति/वचनगुप्ति का पालन करना,*
*(4) आदान-भाण्ड-मात्र-निक्षेपणासमिति का पालन करना और*
*(5) अवलोकन करके आहार-पानी ग्रहण करना।*
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*👏 दूसरा महाव्रत . .*
*दोच्चं भंते ! महाव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मुसावायं वइदोसं।*
भंते ! मै द्वितीय महाव्रत में सभी प्रकार के मृषावाद(असत्य) और सदोष-वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान(त्याग) करता हूँ।
*☝️पांच भावनाएं . . . . .*
*(6) वक्तव्यानुरुप चिन्तनपूर्वक बोले,*
*(7) क्रोध का परित्याग करे,*
*(8) लोभ का परित्याग करे,*
*(9) भय का परित्याग करे,*
*(10) हास्य का परित्याग करे।*
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*👏तृतीय महाव्रत . . .*
*तच्चं भंते ! महव्वयं पच्चाइक्खामि सव्वं आदिनादाणं*
भगवन् ! मैं तृतीय महाव्रत में अदत्तादान का प्रत्याख्यान(त्याग) करता हूँ।
*☝️पांच भावनाएं . . . . .*
*(11) अवग्रह की बारबार याचना करना,*
*(12) अवग्रह की सीमा जानना,*
*(13) स्वयं अवग्रह की बार-बार याचना करना,*
*(14) साधर्मिकों के अवग्रह का अनुज्ञाग्रहण पूर्वक परिभोग करना और*
*(15) सर्वसाधारण आहार-पानी का गुरुजनों आदि की अनुज्ञा ग्रहण करके परिभोग करना।*
*👉अवग्रह > >* ग्राह्य पदार्थ
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*👏 चतुर्थ महाव्रत. . . .*
*चउत्थं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं*
भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत में समस्त प्रकार के मैथून-विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ।
*पांच भावनाएं . . . . .*
*(16) स्त्री-पशु-नपुंसक-- संसक्त शय्या और आसन का वर्जन,*
*(17) स्त्री कथा विवर्जन,*
*(18) स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करना,*
*(19) पूर्वरत एवं पूर्वक्रीड़ित का स्मरण न करना और*
*(20) प्रणीत आहार न करना।*
*👉प्रणीत आहार > >* स्निग्ध-सरस आहार
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*☝️पंचम महाव्रत . . . . .*
*पंचमं भंते ! महव्वयं सव्वं परिग्गहं पच्चाइक्खामि*
भगवन् ! मैं पांचवें महाव्रत में सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ।
*☝️ पांच भावनाएं . . . . .*
*(21) श्रोत्रेन्द्रिय-रागोपरति,*
*(22) चक्षुरिन्द्रिय-रागोपरति,*
*(23) घ्राणेन्द्रिय-रागोपरति,*
*(24) रसनेन्द्रिय-रागोपरति और*
*(25) स्पर्शेन्द्रिय-रागोपरति।*
*👉रागोपरति >>* मनोज्ञ में आसक्ति/राग न करना और अमनोज्ञ में घृणा/द्वेष न करना।
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*🙏जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो त्रिविधे-त्रिविधे मिच्छामि दुक्कडं।*
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*पाँच महाव्रतों की 25 भावनाएं*
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*👏प्रथम महाव्रत .*
*पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं पाणातिवासं।*
भंते ! मैं प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण प्राणातिपात(हिंसा) का प्रत्याख्यान करता हूँ।
*☝️पांच भावनाएं . . . . .*
*(1) ईर्यासमिति से युक्त होना,*
*(2) मन को सम्यग् दिशा में प्रयुक्त करना,*
*(3) भाषासमिति/वचनगुप्ति का पालन करना,*
*(4) आदान-भाण्ड-मात्र-निक्षेपणासमिति का पालन करना और*
*(5) अवलोकन करके आहार-पानी ग्रहण करना।*
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*👏 दूसरा महाव्रत . .*
*दोच्चं भंते ! महाव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मुसावायं वइदोसं।*
भंते ! मै द्वितीय महाव्रत में सभी प्रकार के मृषावाद(असत्य) और सदोष-वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान(त्याग) करता हूँ।
*☝️पांच भावनाएं . . . . .*
*(6) वक्तव्यानुरुप चिन्तनपूर्वक बोले,*
*(7) क्रोध का परित्याग करे,*
*(8) लोभ का परित्याग करे,*
*(9) भय का परित्याग करे,*
*(10) हास्य का परित्याग करे।*
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*👏तृतीय महाव्रत . . .*
*तच्चं भंते ! महव्वयं पच्चाइक्खामि सव्वं आदिनादाणं*
भगवन् ! मैं तृतीय महाव्रत में अदत्तादान का प्रत्याख्यान(त्याग) करता हूँ।
*☝️पांच भावनाएं . . . . .*
*(11) अवग्रह की बारबार याचना करना,*
*(12) अवग्रह की सीमा जानना,*
*(13) स्वयं अवग्रह की बार-बार याचना करना,*
*(14) साधर्मिकों के अवग्रह का अनुज्ञाग्रहण पूर्वक परिभोग करना और*
*(15) सर्वसाधारण आहार-पानी का गुरुजनों आदि की अनुज्ञा ग्रहण करके परिभोग करना।*
*👉अवग्रह > >* ग्राह्य पदार्थ
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*👏 चतुर्थ महाव्रत. . . .*
*चउत्थं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं*
भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत में समस्त प्रकार के मैथून-विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ।
*पांच भावनाएं . . . . .*
*(16) स्त्री-पशु-नपुंसक-- संसक्त शय्या और आसन का वर्जन,*
*(17) स्त्री कथा विवर्जन,*
*(18) स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करना,*
*(19) पूर्वरत एवं पूर्वक्रीड़ित का स्मरण न करना और*
*(20) प्रणीत आहार न करना।*
*👉प्रणीत आहार > >* स्निग्ध-सरस आहार
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*☝️पंचम महाव्रत . . . . .*
*पंचमं भंते ! महव्वयं सव्वं परिग्गहं पच्चाइक्खामि*
भगवन् ! मैं पांचवें महाव्रत में सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ।
*☝️ पांच भावनाएं . . . . .*
*(21) श्रोत्रेन्द्रिय-रागोपरति,*
*(22) चक्षुरिन्द्रिय-रागोपरति,*
*(23) घ्राणेन्द्रिय-रागोपरति,*
*(24) रसनेन्द्रिय-रागोपरति और*
*(25) स्पर्शेन्द्रिय-रागोपरति।*
*👉रागोपरति >>* मनोज्ञ में आसक्ति/राग न करना और अमनोज्ञ में घृणा/द्वेष न करना।
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*🙏जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो त्रिविधे-त्रिविधे मिच्छामि दुक्कडं।*
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*🌸🌸 आगम गगन में उड़ान 🌸🌸*
*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
🔹🌸🔹🌸🔹🌸🔹🌸🔹🌸
🎄🎄🎄🎄6️⃣🎄🎄🎄🎄
*🔸🔸🔸दूसरा आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्रीसूयगडांग सूत्र🔹🔹*
. *(सूयगडो)*
*द्वादशांगी में प्रस्तुत आगम का स्थान दूसरा है।इसे "सूत्रकृतांग सूत्र" के नाम से भी जाना जाता है।*
*☝️इस आगम के चार अनुयोग है...*
*(1). चरणकरणानुयोग (2).धर्मकथानुयोग*
*(3).गणितानुयोग (4).द्रव्यानुयोग*
*☝️प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध है।प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16 अध्ययन है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 7 अध्ययन है।*
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*रचनाकाल और रचनाकार*
➖➖➖➖➖➖➖➖
. *रचनाकार*
*पारंपरिक दृष्टि से यह सम्मत है कि द्वादशांगी की रचना गणधरों ने की थी।इसके अनुसार "सूत्रकृतांग" गणधरों की रचना है।किंतु वर्तमान में कोई भी अंगसूत्र अविकल रूप में प्राप्त नहीं है।आज जो भी प्राप्त है वह उत्तरकाल में संकलित है।और संकलनकर्ता के रूप में वर्तमान आगमों के रचनाकार "देवर्धिगणी" हैं।*
. *रचनाकाल*
*प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना सुधर्मा स्वामी की है, अतः इसका रचनाकाल ईस्वी पूर्व पांचवी शताब्दी होना चाहिए।*
*द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना ईसापूर्व दूसरी शताब्दी के आसपास होनी चाहिये।*
. *रचनाशैली*
*प्रथम श्रुतस्कन्ध पद्यशैली में लिखित है।द्वितीय श्रुतस्कन्ध का बड़ा भाग गद्यशैली में लिखित है।*
*☝️सूत्रकृतांग जैन परम्परा में बहुमूल्य आगम रहा है।इसका दार्शनिक मूल्य बहुत है।इसमें भगवान महावीर के समय कि गंभीर चिन्तन अन्तर्निहित है।इस पर अनेक आचार्यों ने व्याख्याएं लिखी है।इसमें प्रमुख व्याख्या-ग्रंथ ये हैं....*
1.निर्युक्ति 2.चूर्णी 3.वृत्ति 4.दीपिका 5.विवरण 6.स्तबक।
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➖➖ *प्रथम श्रुतस्कन्ध* ➖➖
*1.समय अध्ययन* इसमें स्वसमय(जैन मत) और परसमय(जैनेतर मत) का निरूपण है।इस अध्ययन के चार उद्देशक और 88 श्लोक है।
*2.वैतालीय अध्ययन* इसमें सम्बोधि का उपदेश है।भगवान ऋषभ प्रव्रजित हुए और कैवल्य प्राप्त कर विहरण करने लगे।उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत भारतवर्ष (छह खंडों) पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती हुआ।उसने अपने 98 भाईयों से कहा--तुम सब मेरा अनुशासन स्वीकार करो व अपने–अपने राज्य का आधिपत्य छोड़ दो।वे सारे असमंजस में पड़ गए।भरत की बात उन्हें अप्रिय लगी।राज्य का विभाग महाराजा ऋषभ ने किया था, अतः वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे।
. उस समय भगवान ऋषभ अष्टापद पर्वत पर विहार कर रहे थे।वे सारे भाई वहाँ गए।भगवन् को वन्दना कर उन्होंने पूछा--- भगवन् ! भरत हम सबको अपने अधीन करना चाहता है।उसने हम सबको उसका स्वामित्व स्वीकार करने के लिए कहा है।अबआप बताएं हम क्या करें ?आप हमारा मार्गदर्शन करें। *तब भगवान ऋषभ ने दृष्टांत देकर समझाते हुए इस अध्ययन का कथन किया।*
ऋषभ के 98 पुत्रों ने इस अध्ययन को सुनकर जान लिया कि संसार असार है।
*☝️विषयों के विपाक कटु और नि:सार होते हैं।*
*☝️आयुष्य मदोन्मत्त हाथी के कानों की भांति चंचल है।*
*☝️पर्वतीय नदी के वेग के समान यौवन अस्थिर है।*
*👏भगवान् की आज्ञा या मार्गदर्शन ही श्रेयस्कर है यह जानकर 98 ही भाई भगवान के पास प्रव्रजित हो गये।*
प्रस्तुत अध्ययन में तीन उद्देशक और 76 श्लोक है।
*3.उपसर्गपरिज्ञा अध्ययन* प्रस्तुत अध्ययन का नाम "उपसर्गपरिज्ञा" है।जब मुनि अपनी संयम-यात्रा प्रारम्भ करता है तब उसके सम्मुख अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होते हैं।उन उपसर्गों को समतापूर्वक सहने की क्षमता वाला मुनि अपने लक्ष्य को पा लेता है।अनुकूल उपसर्ग मानसिक विकृति पैदा करते है और प्रतिकूल उपसर्ग शरीर-विकार के कारण बनते हैं।अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म होते है और प्रतिकूल उपसर्ग स्थूल होते हैं।।इस अध्ययन के चार उद्देशक और 82 श्लोक है।
*4.स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन* इसमें स्त्री दोष का वर्जन--ब्रह्मचर्य साधना का उपदेश है।इसके दो उद्देशक और 53 श्लोक है।
स्त्री का विपक्ष है पुरुष।साध्वी के लिए प्रस्तुत अध्ययन को "पुरुषपरिज्ञा" के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।दस प्रकार के पुरुषों का वर्णन आता है।
*स्त्री-परवशता से...*
*☝️अभयकुमार बुद्धिबल के धनी थे पर उनका बुद्धिबल पराजित हो गया।*
*☝️चंडप्रद्योत शरीरबल के धनी थे पर उनका शरीर बल पराजित हो गया।*
*☝️कूलबाल तपोबल के धनी थे पर उनका तपोबल भी स्त्री परवशता से उन्हें मुनि मार्ग से च्युत होने से नहीं बचा सका।*
इस तरह इस अध्ययन में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध है।इनसे कामवासना के परिणाम जानकर उनसे विरत होने की प्रसल प्रेरणा जागृत होती है।
*5.नरकविभक्ति अध्ययन* इसमें उपसर्गभीरु और स्त्रीवशर्ती मुनि का नरक में उपपात का वर्णन है।यह अध्ययन 18 पापों के आचरण प्रति विरक्ति पैदा करता है।प्रस्तुत अध्ययन में दो उद्देशक और 52 श्लोक है।
*6.महावीरतुती अध्ययन* इसमें भगवान महावीर ने जैसे उपसर्ग और परिसह पर विजय प्राप्त की,वैसी ही उन पर विजय पाने का उपदेश है।इह अध्ययन में उद्देशक नहीं है।इसमें 26 श्लोक है।
*7.कुशीलपरिभाषित अध्ययन* इस अध्ययन में कुशील का परित्याग और शील का समाचरण का बताया है।प्रस्तुत अध्ययन के चौथे श्लोक में कर्मवाद से सम्बंधित चार प्रश्न पुछे गये हैं...
*☝️क्या किये गए कर्मों का फल उसी जन्म में मिल जाता है?*
*☝️क्या किए गए कर्मोंका फल दूसरे जन्म में मिलता है?*
*☝️क्या उस कर्म का तीव्र विपाक एक ही जन्म में मिल जाता है?*
*☝️जिस अशुभ प्रवृत्ति के आचरण से वह कर्म बांधा गया है, क्या उसी प्रकार से उदीर्ण होकर फल देता है या दूसरे प्रकार से?*
*👏चुर्णिकार और वृत्तिकार ने इनका विस्तार से समाधान इस अध्ययन में प्रस्तुत किया है।*
इस अध्ययन में 30 श्लोक है।
*8.वीर्य अध्ययन* इसमें वीर्य का बोध और पंडितवीर्य के प्रयत्न का बताया है।प्रस्तुत अध्ययन में 27 श्लोक है।
*9.धर्म अध्ययन* इस अध्ययन में यथार्थ धर्म का निर्देश है।
*☝️इसमें श्रमण के मूलगुण और उत्तरगुणों की विशद चर्चा है।*
*☝️इसमें धर्म क्या है और उसकी प्राप्ति के क्या-क्या उपाय है?*
*☝️इसमें लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म की क्या व्याख्या है?*
☝️विभिन्न लोग धर्म की विभिन्न परिभाषाएं करते हैं।उनमें कौन सी परिभाषा धर्म की कसौटी पर खरी उतरती है--आदि प्रश्नों का 36 श्लोकों में समुचित समाधान दिया गया है।
*10.समाधि अध्ययन* इस अध्ययन में समाधि का प्रतिपादन है।समाधि के मुख्य चार भेद है..
1.द्रव्य समाधि 2.क्षेत्र समाधि 3.काल समाधि
*4.भाव समाधि* भाव समाधि चार तरह की होती है.. ज्ञान समाधि, दर्शन समाधि, चारित्र समाधि और तप:समाधि। दशवैकालिक सूत्र में विनय,श्रुत,तप: और आचार समाधि का वर्णन है।इस अध्ययन में 24 श्लोक हैजिनमें समाधि के लक्षण और असमाधि के स्वरूप का वर्णन है।
*11.मार्गअध्ययन* इसमें मोक्षमार्ग का निर्देश है।भगवान महावीर ने अपनी साधना-पद्धति को "मार्ग'" नाम से अभिहित किया है जो क्रमशः निम्न प्रकार से प्राप्त होता है...
*मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तमजाति, उत्तमकुल, सुरूपता,स्वास्थ्य, दीर्घ-आयुष्य, सद्बुद्धि, धर्मश्रुति, धारणा, श्रद्धा और चारित्र।*
इस अध्ययन में चार बातें दुर्लभ बताई है...
*मनुष्यभव, धर्मश्रुति, श्रद्धा और धर्माचरण।*
*☝️अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता।*
*☝️अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से देशविरति प्राप्त नहीं होती।*
*☝️प्रत्याख्यान कषाय के उदय से चारित्र लाभ नहीं होता।*
*☝️संज्वलन कषाय के उदय से यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती।*
इस अध्ययन में 38 श्लोक है।
*12.समवसरण अध्ययन* समवसरण का अर्थ है--वाद-संगम। जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं।इस अध्ययन में क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद इन चार वादों की कुछेक मान्यताओं की समालोचना कर,यथार्थ का निश्चय किया गया है।इसलिए इसे समवसरण अध्ययन कहा गया है।इस अध्ययन में 22 श्लोक है।
*13.याथातथ्य अध्ययन* इसमें यथार्थ का प्रतिपादन है। इसमें 23 श्लोक है।
*14.ग्रन्थ अध्ययन* इसमें गुरुकुलवास का महत्व बताया है।इसमें 27 श्लोक है।
*15.यमकीय अध्ययन* इसमें आदानीय-चारित्र का प्रतिपादन है। इसमें 25 श्लोक है।
*16.गाथा अध्ययन* इसमें पूर्वोक्त विषय का संक्षेप में संकलन है।निर्ग्रन्थ आदि की परिभाषा बतलाई है। इस अन्तिम अध्ययन में 6 सूत्र है।
*👏 सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के बारे में जानेंगे अगली पोस्ट में...*
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*🌸🌸 आगम गगन में उड़ान 🌸🌸*
*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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🎄🎄🎄🎄6️⃣🎄🎄🎄🎄
*🔸🔸🔸दूसरा आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्रीसुयगडांग सूत्र🔹🔹*
*द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 7 अध्ययन*
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*(1) पौण्डरीक अध्ययन (पुण्डरीक)*
☝️इस गद्यमय अध्ययन में 72 सूत्र है।प्रथम बारह सूत्रों में भगवान महावीर ने पुष्करिणी में स्थित पौंडरिक के माध्यम से धर्म, धर्मतीर्थ और निर्वाण के महत्व को समझाया है। सूत्र 56 से 66 में मुनिचर्या के कुछ नियम प्रदर्शित है...
1.भिक्षु पांच महाव्रतों का पालन करे।
2.अतिचारों का सेवन न करे।
3.भविष्य की आशंसा न करे,निदान न करे।
4.कर्म-बंध की प्रवृत्ति न करे,संयम में उपस्थित और असंयम से प्रतिविरत रहे।
5.परिग्रह से मुक्त रहे।
6.पारलौकिक कर्म न करे।
7.अशुद्ध और अनैषणीय आहार का उपभोग न करे।
8.एषणाशुद्ध,शस्त्रातीत और माधुकरी से प्राप्त आहार करे।
9.हित, मित आहार करे।अनासक्त रहकर शरीर निर्वाह मात्र के लिए भोजन ले।
🙏इस प्रकार यह अध्ययन अध्यात्म साधना की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है।
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*(2)क्रियास्थान अध्ययन*
☝️इस अध्ययन में कर्मबन्ध और मोक्ष की कारणभूत क्रियाओं का प्रतिपादन है।इसमें कर्मबन्ध की 12 क्रियाओं का और कर्मबन्ध से मुक्त होने की तेरहवीं क्रिया का वर्णन है।
कर्मबन्ध के 12 क्रियास्थान:--
1.अर्थदंड 7. अदत्तादानप्रत्यय
2.अनर्थदंड 8.आध्यात्मिक(मन)
3.हिंसादंड 9.मानप्रत्यय
4.अकस्मातदंड 10.मित्रदोषप्रत्यय
5.दृष्टिविपर्यासिकादंड 11.मायाप्रत्यय
6.मृषाप्रत्यय 12.लोभप्रत्यय
कर्मबन्ध से मुक्त होने की तेरहवीं क्रिया है-- *ईर्यापथिक*
☝️इस अध्ययन के उन्नीसवें सूत्र में 14 प्रकार के क्रूर कर्म बतलाए है। इस अध्ययन के भी 72 सूत्र है।इस अध्ययन का सार यही है कि बारह क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाला कर्मों से बन्धता है,संसार भ्रमण को बढ़ाता है और तेरहवीं क्रिया में प्रवृत्ति करनेवाला संसार-भ्रमण का उच्छेद कर देता है।
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*(3)आहारपरिज्ञा अध्ययन*
आहारपरिज्ञा द्विपद नाम है इसमें दो पद है-- आहार और परिज्ञा।
☝️प्रत्येक सांसारिक प्राणी आहार के आधार पर जीता है।शरीर आहार के बिना नहीं चलता।धर्म की उपासना शरीर के बिना नहीं होती।अतः धर्म की आराधना के लिए शरीर का पोषण भी करना होता है।सभी प्राणी आहार करते हैं।स्थावर भी और त्रस भी।नारक और देव भी आहार करते हैं।
☝️जीवों की उत्पत्ति की दृष्टि से यह अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण है।किस परिस्थिति में,किस निमित्त को पाकर जीव किस प्रकार जन्म लेता है,इसकी अत्यंत सूक्ष्म जानकारी प्रस्तुत अध्ययन में प्राप्त है।जीवविज्ञान के साथ तुलनात्मक अध्ययन के लिए इसमें प्रचुर सामग्रि है।
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*(4) प्रत्याख्यानक्रिया*
☝️अठारह पापों के प्रत्याख्यान करने या न करने से क्या-क्या लाभ और हानियां हैं उनका विवेक इसमें है। प्रश्नोत्तर के माध्यम से यह समझाया गया है कि अप्रत्याख्यान पाप-कर्मबन्ध का मूल है और प्रत्याख्यान कर्ममुक्ति का मार्ग है।
प्रत्याख्यान = विरति और
अप्रत्याख्यान = अविरति।
☝️अविरति आश्रव है।यह कर्मागमन का द्वार है।जब तक यह द्वार खुला है तब तक कर्म आते रहेंगे।
👏 विरति से यह द्वार बन्द हो जाता है और फिर कर्म नहीं आते।
प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद है...
द्रव्यप्रत्याख्यान और भावप्रत्याख्यान।
*अप्रत्याख्यानी आत्मा के कर्मबन्ध होता है, संसार और दु:ख में वृद्धि होती है।*
इस अध्ययन का सारांश यह है कि जो पापकर्म का प्रत्याख्यान कर देता है, उसके पापकर्म का बन्धन नहीं होता है। व्यावहारिक दृष्टि के अनुसार मन,वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति के बिना पापकर्म का बन्ध नहीं माना जाता है किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार पापकर्म के बंध का एक कारण अविरति है।उससे निरन्तर वह बन्ध होता रहता है।दुष्प्रवृत्ति उसकी अभिव्यक्ति मात्र है।वह कभी-कभी होती है, निरन्तर नहीं होती।
☝️इसलिए साधक को अविरति के समय को विरति में बदलने की दिशा में उपक्रम करना चाहिए।उसके बदलने पर दुष्प्रवृत्ति सहज निरुद्ध होने लग जाती है।
*यह दृष्टिकोण साधना के क्षेत्र में बहुत रहस्यपूर्ण है।*
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*(5)आचारश्रुत अध्ययन*
☝️इस अध्ययन में आचार का वर्णन है इसलिए इसका नाम आचारश्रुत है।निर्युक्तिकार ने इसका दूसरा नाम *अनगारश्रुत* बतलाया है।क्योंकि इसमें अनाचार को जानने का निर्देश है,इसलिए इसे *अनाचारश्रुत* भी कहा जाता है।
इस अध्ययन का दार्शनिक फलित यह है कि एकान्तवाद मिथ्या है,अव्यवहार्य है।अनेकान्तवाद सम्यग है,व्यवहार्य है।जो दार्शनिक.....
●लोक को एकान्तत: *शाश्वत या अशाश्वत,*
●शास्ता(प्रवर्तक)को एकान्तत: *नित्य या अनित्य,*
●प्राणी को एकान्तत: *कर्मबद्ध या कर्ममुक्त*
एकान्तत: *सदृश या विसदृश मानते हैं,*
*❓वे मिथ्या प्रवाद करते हैं।*
*☝️अनेकान्तवाद के अनुसार व्यवहार इस प्रकार घटित होगा...*
◆लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी।
◆भव्य प्राणि मुक्त भी होंगे और मुक्त नहीं भी होंगे।
◆प्राणी कर्म-बद्ध भी है और कर्म-बद्ध नहीं भी है।
◆प्राणी सदृश भी है और असदृश भी है।
◆छोटे-बड़े प्राणी को मारने से कर्म-बन्ध होता भी है और नहीं भी होता।
◆पांचो शरीर एक भी है और नहीं भी है।
●सर्वत्र शक्ति है भी और सर्वत्र शक्ति नहीं भी है।
*👏अन्तिम तीन पद्यों (30--32) में मुनि के लिए वाणी विवेक के ये बिन्दु निर्दिष्ट है कि मुनि...*
◆यह सम्पूर्ण है, यह अक्षत-नित्य है, क्षणिक है, केवल दु:खात्मक है---ऐसा न कहे।
◆प्राणी वध्य है या अवध्य है--ऐसा न बोले।
◆दान देने वाले को (दान देते समय) पुण्य होता है, पुण्य नहीं होता है या पाप होता, पाप नहीं होता--ऐसा न बोले।
☝️इस प्रकार इस अध्ययन में व्यावहारिक अनाचारों का कथन न कर,सैद्धांतिक अनाचार-एकान्तवाद का सेवन न करने के लिए परामर्श दिया गया है,क्योंकि यह दर्शन-दृष्टि और वचन का अनाचार है।
*☝️अनेकान्तवाद है दर्शन और*
*☝️स्यादवाद है वाणी का आचार।*
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*(6)आर्द्रकीय अध्ययन*
मुनि आर्द्रक से सम्बन्धित होने के कारण प्रस्तुत अध्ययन का नाम "आर्द्रकीय" रखा गया है।इसमें...
●आजीवक मत के आचार्य गोशालक द्वारा महावीर पर लगाए गए आक्षेप और आर्द्रक का उत्तर।
●बौद्ध भिक्षुओं द्वारा अपने मत की स्थापना और आर्द्रक द्वारा उसका प्रतिवाद।
●ब्राह्मण धर्म की प्रतिपति के विषय में आर्द्रक का उत्तर।
●एकदंडी परिव्राजकों(साख्य)की स्थापना और आर्द्रक का प्रत्युत्तर।
●हस्तितापसों के सिद्धांत का खंडन।
*👏इस प्रकार आर्द्रककुमार ने अन्यतीर्थिकों के आक्षेपों का उत्तर दिया, यह एक समाधि है!*
*समाधि तीन प्रकार की होती है--*
ज्ञानसमाधि,दर्शनसमाधि और चारित्रसमाधि। आर्द्रककुमार इस त्रिविध समाधि में सुस्थित था।
☝️यहां पर मुख्यतया दर्शनसमाधि का प्रकरण है।
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*(7)नालंदीय अध्ययन*
🚥राजगृह नगर के उत्तर-पूर्व में नालंदा नाम का उपनगर था।वहां गणधर गौतम और पार्श्वापत्यीय श्रमण उदक के मध्य पंचयाम धर्म और चातुर्याम धर्म को लेकर चर्चा हुई, वार्तालाप हुआ था।नालंदा में होने के कारण इस अध्ययन का नामकरण *नालंदीय* रखा गया है।
🙏सूत्रकृतांग आगम में स्वसमय और परसमय के विषय में अनेक चर्चाएं हैं।इसमें साधुओं के आचार और अनाचार के विषय में ऊहापोह है। *प्रस्तुत अध्ययन में श्रावक-विधि, श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है।* इससे पूर्व के अध्ययन में अन्यतीर्थिकों के साथ हुए वाद-प्रतिवाद का संकलन था।प्रस्तुत अध्ययन में अपनी ही परम्परा(पंचयाम/चातुर्याम) का ऊहापोह है।
*🙏इस अध्ययन में गणधर गौतम और पार्श्व परम्परा के श्रमण उदक के मध्य लम्बे समय तक चर्चा चली।उदक का मन कैसे समाहित होता है और कैसे वह गणघर गौतम के साथ भगवान महावीर के पास आए और वंदना कर पंचयाम धर्म में प्रव्रजित होने की इच्छा व्यक्त करते है, तब भगवान महावीर ने उसे प्रतिक्रमणयुक्त पांच महाव्रतों की दीक्षा दे अपने श्रमण-संघ में सम्मिलित कर लिया।यह सारा वर्णन इस अध्ययन में विस्तार से बताया गया है।*
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*👏संक्षेप में दूसरे आगम सूत्रकृतांग का विवेचन यहाँ सम्पन्न हुआ।समयाभाव के कारण विस्तार से नहीं समझ सके हैं।आपकी जिज्ञासा अवश्य रखें। समाधान पर्युषण मेंही देने का प्रयास रहेगा।*
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*🙏कल 15 अगस्त से प्रारम्भ हो रहे पर्युषण महापर्व में प्रथम सात दिन हम "श्री उत्तराध्ययन सूत्र" का अध्ययन कर जानने समझने का प्रयास प्रतिदिन करेंगे।*
*👏आप सभी पर्युषण आराधना स्वाध्याय, तप,जप और आत्मचिंतन के साथ करें यही मंगलकामना है।*
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*।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
*🙏जैन आगमों में उत्तराध्ययन सर्वाधिक प्रिय आगम है।इसकी प्रियता का कारण इसके सरल कथानक, सरस संवाद और सरस रचना-शैली है।इसकी सर्वाधिक प्रियता के साक्ष्य इसका व्यापक अध्ययन-अध्यापन और विशाल व्याख्या ग्रन्थ है।जितने व्याख्या-ग्रन्थ उत्तराध्ययन के हैं,उतने अन्य किसी आगम के नहीं है।*
*🚥🚥 रचनाकाल 🚥🚥*
*वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी की पूर्ति के साथ-साथ दशवैकालिक की रचना हो चुकी थी।उत्तराध्ययन उससे पूर्ववर्ती रचना है।उत्तराध्ययन प्रथम आगम आचारांग के बाद पढ़ा जाने लगा था। यह आगम अपनी विशेषता के कारण थोड़े समय में ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुका था।इस प्रकार उत्तराध्ययन के प्रारम्भिक संस्करण की सकलना वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही हो चुकी थी।*
*🙏महावीर वाणी का प्रतिनिधि सूत्र🙏*
*अविकल उत्तराध्ययन भगवान् महावीर की प्रत्यक्ष वाणी भले न हो, किन्तु उसमें भगवान् महावीर की वाणी का जिस समीचीन पद्धति से संगुम्फन हुआ है, उसे देखकर सहज ही यह कहने को मन ललचा उठता है कि यह महावीर-वाणी का प्रतिनिधि सूत्र है।*
*☝️उत्तराध्ययन के 36 अध्ययन है।प्रथम दो अध्ययन के बारे में हम आज जानने का प्रयास करेंगे।*
*1️⃣ विनयश्रुत (पहला अध्ययन)*
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*🙏भगवान् महावीर की साधना-पद्धति का एक अंग "तपोयोग" है।उसके 12 प्रकार है।उनमें आठवां प्रकार "विनय" है।विनय के सात रूप प्राप्त होते हैं...*
*1.ज्ञानविनय 2.दर्शनविनय 3.चारित्रविनय 4.मनविनय 5.वचनविनय 6.कायविनय और 7.लोकोपचारविनय*
*☝️इस प्रकार इस अध्ययन में विनय के सभी रूपों का सम्यक संकलन हुआ है।प्राचीनकाल में विनय का बहुत मूल्य रहा है।23वें श्लोक में बताया गया है कि आचार्य विनीत को विद्या देते हैं।अविनीत विद्या का अधिकारी नहीं माना जाता। विनय जिन-शासन का मूल है।जो विनयरहित है,उसे धर्म और तप कहाँ से प्राप्त होगा।विनय के व्यावहारिक फल है--कीर्ति और मैत्री।विनय करनेवाला अपने अभिमान का निरसर,गुरुजनों का बहुमान,तीर्थंकर की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन करता है।*
"हवई किच्चाणं सरणं,भूयाणं जगई जहा"
*☝️जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार होती है, उसी प्रकार विनीत शिष्य धर्माचरण करने वालों के लिए आधार होता है।*
मा गलियस्सेव कसं वयणमिच्छे पुणो-पुणो।
कसं व दट्ठुमाइण्णे पावगं परिवज्जए।।
*☝️जैसे अविनीत घोड़ा चाबुक को बार-बार चाहता है,वैसे विनीत शिष्य गुरु के वचन(आदेश-उपदेश) को बार-बार न चाहे।जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ दे।*
रमए पण्डिए सासं हयंव वाहए।
बालं सम्मइ सासंतो गलियस्सं व वाहए।।
*जैसे उत्तम घोड़े को हांकते हुए उसका वाहक आनंद पाता है, वैसै ही पंडित(विनीत)शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु आनंद पाता है।जैसे दुष्ट घोड़े को हांकते हुए उसका वाहक खिन्न होता है वैसे ही बाल(आविनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु खिन्न होता है।*
*☝️विनीत शिष्य का कर्तव्य है कि वह आचार्य को कुपित जाने तो उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करे।प्रश्न होता है कि यह कैसे जाना जाए कि आचार्य कुपित हुए हैं?चूर्णिकार ने कुपित को जानने के छह लक्षण बताए हैं...*
1.उसकी ओर दृष्टि उठाकर भी न देखना।
2.पूर्वकृत को भुला देना।
3.तिरस्कार करना।
4.दुश्चरित्र का कथन करना।
5.बातचीत न करना।
6.उसकी विशेषता पर विस्मय प्रकट न करना।
*आत्मा का ऐहिक औरपारलौकिक हित विनय की आराधना से संभव है।आचार्य नेमिचन्द्र ने इसकी पुष्टि में एक प्राचीन गाथा उध्दृत की है...*
विणया णाणं णाणाओ दंसणं दंसणाओ चरणं च।
चरणहिंतो मोक्खो,मोक्खे सोक्खं निराबाहं।।
*विनय की आराधना से ज्ञान,*
*ज्ञान से दर्शन,*
*दर्शन से चारित्र और*
*चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है।*
*☝️मोक्ष में निराबाध सुख उपलब्ध होता है।*
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*2️⃣ परीषह-प्रविभक्ति (दूसरा अध्ययन*
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*🙏भगवान् महावीर की धर्म-प्ररूपणा के दो मूख्य अंग है..अहिंसा और कष्टसहिष्णुता।कष्ट सहने का अर्थ शरीर, इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं, किन्तु अहिंसा आदि धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाये रखना है।आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है...*
सुहेण भाविदं णाणं,दुहे जादे विणस्सदि।
तम्हा जहाबलं जोई,अप्पा दुक्खेहि भावए।।
*अर्थात् सुख से भावित ज्ञान दु:ख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने-आपको दु:ख से भावित करना चाहिए।*
*☝️इसका अर्थ काया को क्लेश देना नहीं है।यद्यपि एक सीमित अर्थ में काय-क्लेश भी तप रूप में स्वीकृत है किन्तु "परीषह"और "काय-क्लेश" एक नहीं है।"काय-क्लेश"...*
*●आसन करने,*
*●ग्रीष्म-ऋतु में आतापना लेने,*
*●वर्षा-ऋतु में तरूमूल में निवास करने,*
*●शीत-ऋतु में अपावृत स्थान में सोने और*
*●नाना प्रकार की प्रतिमाओं को स्वीकार करने,*
*●न खुतलाने,*
*●शरीर की विभूषा न करने के अर्थ में स्वीकृत है।*
☝️उक्त प्रकारों में से कोई कष्ट स्वयं इच्छानुसार झेला जाता है, वह *काय-क्लेश* है और जो इच्छा के बिना प्राप्त होता है ,वह *परिषह* है। जो सहा जाता है उसे कहते हैं परीषह।परिषह सहने के दो प्रयोजन है...
1.मार्गाच्यवन(स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने के लिए)
2.निर्जरा (कर्मों को क्षीण करने के लिए)
*👏परिषह सहन करने से स्वीकृत अहिंसा आदि धर्मों की सुरक्षा होती है।*
*परिषहों का जो विभाग कश्यप-गोत्रीय भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित या प्ररूपित है,इस अध्ययन के अनुसार परिषह 22 हैं---*
*(1) क्षुधा परिषह,* देह में क्षुधा व्याप्त होने पर तपस्वी और प्राणवान साधु फल आदि का छेदन न करे,न कराए।उन्हें न पकाए और न पकवाए।साधु अदीनभाव से विहरण करे।
*(2) पिपासा परिषह,* संयमी साधु प्यास से पीड़ित होने सचित पानी का सेवन न करे,किन्तु प्रासुक जल की एषणा करे।साधु अदीनभाव से प्यास के परिषह को सहन करे।
*(3) शीत परिषह,* शीत से प्रताड़ित होने पर मुनि ऐसा न सोचे-- मेरे पास शीत-निवारक घर आदि नहीं है और छवित्राण भी नहीं है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूं।
*(4) उष्ण परिषह,* गर्मी से अभितप्त होने पर भी मेघावी मुनि स्नान की इच्छा न करे।शरीर को गीला न करे।पंखा,आदि से शरीर पर हवा न ले।
*(5) दंशमशक परिषह,* डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर मुनि समभाव में रहे,संत्रस्त न हो,उन्हें हटाए भी नहीं।मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए,उनका हनन न करे।
*(6) अचेल परिषह,* सचेलत्व और अचेलत्व दोनों को यति धर्म के लिए हितकर जानकर ज्ञानी मुनि वस्त्र न मिलने पर दीन न बने।
*(7) अरति परिषह,* एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए अकिंचन मुनि के चित्त में अरति उत्पन्न हो जाए तो अकिंचन मुनि उस परिषह को सहन करे और अरति को दूर कर विहरण करे
*(8) स्त्री परिषह,* "स्त्रियां ब्रह्मचारी के लिए दल-दल समान है"--यह जानकर मेघावी मुनि उनसे अपने संयम-जीवन की घात न होने दे,किन्तु आत्मा की गवेषणा करते हुए विचरण करे।
*(9) चर्या परिषह,* संयम के लिए जीवन-निर्वाह करनेवाला मुनि परीषहों को जीतकर अकेला(राग-द्वेष रहित होकर) विचरण करे।गांव या स्थान आदि के साथ ममत्व न करे,उनसे प्रतिबद्ध न हो।गृहस्थों से निर्लिप्त रहे।अनिकेत (गृह-मुक्त) रहता हुआ परिव्रजन करे।
*(10) निसध्या परिषह,* राग-द्वेष रहित मुनि चपलताओं का वर्जन करते हुए साधना में बैठे, दूसरों को त्रास न दे।उपसर्ग को समता से सहन करे।
*(11) शय्या परिषह,* तपस्वी और प्राणवान भिक्षु उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर हर्ष या शोक न लाए।प्रतिरिक्त(एकान्त) उपाश्रय भले फिर वह सुन्दर हो या असुन्दर--को पाकर "एक रात या कुछ समय में क्या होना जाना है"--ऐसा सोचकर रहे,जो भी सुख-दु:ख हो उसै सहन करे।
*(12) आक्रोश परिषह,* मुनि परुष, दारुण और ग्राम-कंटक(कर्ण-कंटक) भाषा को सुनकर मौन रहता हुआ उसकी उपेक्षा करे,उसे मन में न लाए। *जैसे मुनि अर्जुन(अर्जुन मालाकार जो मुद्गरपाणी यक्ष का परम भक्त था) ने ऐसे सभी प्रकार के आक्रोशों को समभावों से सहा और कर्मों का क्षय कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।*
*(13) वध परिषह,* संयत और दान्त श्रमण को कोई कहीं पीटे तो भी वह क्रोध न करे,मन में द्वेष न लाते हुए यह चिन्तन करे "आत्मा का नाश नहीं होता"।प्रतिशोध की भावना न लाए।
*(14) याचना परिषह,* अनगार भीक्षु को जीवन भर सब कुछ याचना से ही मिलता है फिर भी "गृहवास ही श्रेय है" मुनि ऐसा चिन्तन नकरे।
*(15) अलाभ परिषह,* आहार थोड़ा मिलने या न मिलने पर संयमी मुनि अनुताप न करे।
*(16) रोग परिषह,* रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीड़ित होने पर मुनि दीन न बने।व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा को स्थिर बना और प्राप्त दु:ख को समभाव से सहन करेः
*(17) तृणस्पर्श परिषह,* अचेलक और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी घास पर सोने से शरीर में चुभन होती है उसे समभावों से सहन करे।
*(18) जल्ल परिषह,* निर्जरार्थी मुनि देह-विनाश पर्यंत काया पर जल्ल(स्वेद-जनित मैल) को धारण करे और तज्जनित परिषह को सहन करे
*(19) सत्कार-पुरस्कार षरिषह,* मुनि सम्मानजनक व्यवहारों की स्पृहा न करे।अलोलुप मुनि रसों में गृद्ध न हो।प्रज्ञावान मुनि दूसरों को सम्मानित देख अनुताप न करे।
*(20) प्रज्ञा परिषह,* "पहले किये हुए अज्ञानरूप-फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात उदय में आते हैं"---इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि आत्मा को आश्वासन दे।
*(21) अज्ञान परिषह,* तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमा का पालन करता हूँ--इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर भी मेरा छद्म(ज्ञान का आवरण) निवर्तित नहीं हो रहा है--ऐसा चिन्तन न करे।
*(22) दर्शन परिषह।*
*नत्थि नूणं परे लोए*
★"निश्चय ही परलोक नहीं है,तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूँ"---भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे।
★"जिन हुए थे, जिन है और जिन होंगे--ऐसा जो कहते हैं वे झूठ बोलते हैं"---भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे।
*नत्थि नूणं परे लोए*
(निश्चय ही परलोक नहीं है)
*इहको आधार बनाकर व्याख्याकारों ने आचार्य आषाढ़ का सुन्दर कथानक प्रस्तुत किया है।*
(समयाभाव से इसका पूरा कथानक नहीं बता पा रहा हूँ)
*🙏उपरोक्त परीषहों का काश्यप-गोत्रीय भगवान् महवीर ने प्ररूपण किया है।इन्हें जानकर इनमें से किसी के द्वारा कहीं भी स्पृष्ट होने पर मुनि इनसे पराजित(अभिभूत)न हो।
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*👏जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो त्रिविधे-त्रिविधे तस्स मिच्छामि दुक्कडं*
आपको आज की प्रस्तुति कैसी लगी ?अवश्य बताएं।
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. *।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*3️⃣ चतुरंगीय (तीसरा अध्ययन)*
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*🙏उत्तराध्ययन के तीसरे अध्ययन में*
(1) मनुष्यता (2) धर्मश्रुति (3) श्रद्धा और
(4) तप-संयम में पुरुषार्थ।
*इन चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन है।*
*☝️जीवन के ये चार प्रशस्त अंग--विभाग है। ये अंग प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सहज प्राप्य नहीं है।चारों का एकत्र समाहार बिरलों में पाया जाता है।जिनमें ये चारों अंग नहीं पाए जाते वे धर्म की पूर्ण आराधना नहीं कर सकते।एक की भी कमी उनके जीवन में लंगड़ापन ला देती है।इन चार अंगों की दुर्लभता प्रत्येक के विवेचन से समझी जा सकती है।*
*(1) मनुष्यता :- -*
☝️●आत्मा से परमात्मा बनने का एकमात्र अवसर मनुष्य-जन्म में प्राप्त होता है। मनुष्य का विवेक जागृत होता है।वह नारक की तरह अति दु:खी और देव की तरह अति सुखी नहीं होता अतः वह धर्म की पूर्ण आराधना का उपयुक्त अधिकारी है।
●तिर्यंच जगत में क्वचित पूर्व संस्कारों से प्रेरित होकर धर्माराधना होती है, परन्तु वह अधुरी रहती है।
● देवता धर्म की पूरी आराधना नहीं कर पाते।वे विलास में ही अधिक समय गवां देते हैं।श्रामण्य के लिए वे योग्य नहीं होते।
● नैरकिय जीव दु:खों से प्रताड़ित होते हैं अतः उनका धार्मिक-विवेक प्रबुद्ध नहीं होता।
*☝️जीव अपने कृत कर्मों के कारण कभी देवलोक में,कभी तिर्यंच में,कभी नरक में और कभी असुरों के निकाय में उत्पन्न होता है।हम सौभाग्य से(काल-क्रम से) मनुष्य भव को प्राप्त है।इस प्रकार चार दुर्लभ अंगों में से एक हमें प्राप्त हुआ है।हमने एक दुर्लभता को प्राप्त कर लिया है।*
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*(2) धर्म श्रुति :- -*
मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी *धर्म की श्रुति* दुर्लभ होती है।निर्युक्तिकार ने श्रुति की दुर्लभता के 13 कारण बतलाए हैं...
*1.आलस्य.* मनुष्य आलस्य के वशीभूत होकर धर्म के प्रति उद्यम नहीं करता।वह कभी साधु-साध्वियों के पास धर्म-श्रवण हेतु नहीं जाता।
*2.मोह.* व्यक्ति गृहस्थ के कर्तव्य निभाते-निभाते उसमें एक ममत्व भाव पैदा हो जाता है और वह पूरे समय उसी में डूबा रहता है।उसमें हेय या उपादेय के विवेक का अभाव हो जाता है।
*3. अवज्ञाभाव* श्रमणों के प्रति अवज्ञाभाव आ जाता है वह सोचता है कि ये श्रमण क्या जानते हैं ? मैं इनसे अधिक जानता हूँ। *ये मुझे क्या उपदेश देंगे?*
*4. अहंकार* व्यक्ति के मन में जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य का अहंकार जाग जाता है तब वह सोचता है---ये मुनि अन्य जाति के हैं।मेरा कुल और जाति इतनी उत्तम है, *फिर मैं इनके पास क्यों जाऊं ?*
*5. क्रोध* किसी के मन में श्रमणों के प्रति प्रीति नहीं होती।वह उनको देखते ही कुपित हो जाता है, सदा उनके प्रति द्वेष भाव रखता है।वह भी धर्म-श्रवण के लिए नहीं जा पाता।
*6. प्रमाद* कुछ व्यक्ति निरन्तर प्रमाद में रहते हैं, नींद लेना और खाना-पीना ही उन्हें सुहाता है।वे भी धर्म-श्रवण से वंचित रहते हैं।
*7. कृपणता* कुछ व्यक्ति अत्यंत कृपण होते हैं।वे सोचते हैं कि धर्मगुरुओं के पास जाएंगे तो अर्थ का निश्चय ही नुकसान होगा।उनके वहाँ जाने से व्यर्थ पैसा खर्च हो जाएगा।इसलिए इनसे दूर रहना ही अच्छा समझने लगते है।
*8. भय* व्यक्ति जब धर्म प्रवचन में बार-बार नारकीय जीवों की वेदना के बारे में सुनता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं और मन भय से व्याप्त हो जाता है। *यह भय भी धर्म-श्रवण में बाधक बनता है।*
*9. शोक* शोक(परिजन-वियोग) या चिंता (बिमारी, आर्थिक नुकसान आदि) और उनकी स्मृति में निरंतर खोए रहना भी धर्म-श्रवण में बाधा उपस्थित करता है।
*10. अज्ञान* जब व्यक्ति का ज्ञान मोहावृत हो जाता है, तब वह मिथ्या धारणाओं में फंस कर धर्म की श्रुति से वंचित रह जाता है।
*11व्याक्षेप :--* गृहवास में व्यक्ति निरन्तर आकुल-व्याकुल रहता है।वह सोचता है--अभी यह करना है, अभी वह करना है।इससे उसका मन व्याक्षिप्त हो जाता है, और उसके लिए *धर्मश्रुति दुर्लभ हो जाती है।*
*12.कुतुहल* नाटक देखना, संगीत सुनने या अन्य मनोरंजन क्रीड़ाओं में रत रहने से भी व्यक्ति धर्म के प्रति आकृष्ट नहीं हो पाता।
*13. क्रीड़ाप्रियता* कुछ व्यक्ति सांडों को लड़ाने, जूआ खेलने आदि में रत रहते हैं, *वे धर्म-श्रुति का लाभ नहीं ले पाते।
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*(3) श्रद्धा :- -*
व्यक्ति को मनुष्य भव मिल जाता है, धर्मश्रुति भी प्राप्त हो जाती है फिर भी उसमें श्रद्धा होना दुर्लभ है।बहुत से लोग मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी उससे भ्रष्ट हो जाते हैं।
*☝️यहाँ पर चूर्णिकार जमाली आदि निह्नवों का उल्लेख करते हैं।ये निह्नव कुछ एक शंकाओं को लेकर नैर्यातृकमार्ग--निर्गृन्थ प्रवचन से भ्रष्ट हो गऐ थे,दूर हो गए थे।*
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*(4) तप--संयम में पराक्रम :- -*
मनुष्य भव, श्रुति और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी संयम में पुरूषार्थ होना अत्यंत दुर्लभ है।बहुत से लोग संयम में रुचि रखते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करते।
*🙏मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है- - वह तपस्वी संयम में पुरूषार्थ कर संवृत हो कर्मरजों को धुन डालता है और शाश्वत सिद्ध हो जाता है।*
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*4️⃣ असंस्कृत (असंखयं) चौथा अध्ययन*
असंखयं जीविय मा पमायए
जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं।
*☝️जीवन सांधा नहीं जा सकता ,इसलिए प्रमाद मत करो।*
👉जिसका संस्कार किया जा सके, सांधा जा सके, बढ़ाया जा सके-- *उसको संस्कृत कहा जाता है।*
*☝️जीवन "असंस्कृत" होता है।न उसको सांधा जा सकता है और न बढ़ाया जा सकता है।यही जीवन की सच्चाई है।*
👉सड़े-गले घर की मरम्मत कर उसमें दो-चार वर्ष रहा जा सकता है।किन्तु ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे टूटे हुए जीवन को सांधा जा सके।
*☝️"जीवन असंस्कृत है---उसका संधान नहीं किया जा सकता, इसलिए व्यक्ति को प्रमाद नहीं करना चाहिए"---यही इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है।*
*(1) यह माना जाता था कि धर्म बुढ़ापे में करना चाहिए, पहले नहीं।*
*🙏भगवान ने कहा---* धर्म करने के लिए सब काल उपयुक्त है, बुढ़ापे में कोई त्राण नहीं है।
*(2) लोग धन को त्राण मानना और येनकेन प्रकारेण धन अर्जित करना*
*🙏भगवान ने कहा---* जो व्यक्ति अनुचित साधनों द्वारा धन का अर्जन करते हैं, वे धन को छोड़कर नरक में जाते हैं।यहाँ इस भव में या परभव में धन किसी कि त्राण नहीं बन सकता। *धन का व्यामोह व्यक्ति को सही मार्ग पर जाने नहीं देता।*
*(3) किये हुए कर्मों का फल परभव में मिलता है या यह मानना कि कर्मों का फल है ही नहीं।*
*🙏भगवान ने कहा---* "किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता।कर्मों का फल इस जन्म में भी मिलता है और पर-जन्म में भी।
*(4) यह मान्यता कि एक व्यक्ति बहुतों के लिए कोई कर्म करता है तो उसका परिणाम वे सब भुगतते हैं*
*🙏भगवान ने कहा---* संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो साधारण कर्म करते हैं, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते, उसका भाग नहीं बंटाते।
*(5) यह मान्यता कि साधना के लिए समूह विघ्न है।व्यक्ति को अकेले में साधना करनी चाहिए*
*भगवान् ने कहा---* "जो स्वतंत्र वृत्ति का त्याग कर गुरु के आश्रयण में साधना करता है, वह मोक्ष पा लेता है।
*(6) यह मान्यता कि छन्द के निरोध से मुक्ति मिलती है तो वह यह कार्य अन्त समय में भी किया जा सकता है*
*🙏भगवान् ने कहा---* "धर्म पीछे(अन्तिम समय में) करेंगे---ऐसी बात वे शाश्वतवादी कर सकते हैं जो अपने आपको अमर मानते हो, उनका यह कथन हो सकता है, परन्तु जो जीवन को क्षण-भंगुर मानते हैं वे भला काल की प्रतिक्षा कैसे करेंगे ? वे काल का विश्वास कैसे करेंगे ?"
*🙏धर्म की उपासना के लिए समय का विभाग अवांछनीय है।व्यक्ति को प्रतिपल अप्रमत्त रहना चाहिए।*
*👏इस प्रकार यह अध्ययन जीवन के प्रति एक सही दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और मिथ्या मान्यताओं का निरसन करता है।*
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. *।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*अकाममरणीय*
*(पांचवांअध्ययन)*
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*🙏जीवन यात्रा के दो विश्राम है--*
★★★ *जन्म और मृत्यु* ★★★
*☝️जीवन जीना एक कला है तो मृत्यु भी उससे कम कला नहीं है।जो जीने की कला जानते हैं और मृत्यु की कला नहीं जानते, वे सदा के लिए अपने पीछे दूषित वातावरण छोड़ जाते हैं।व्यक्ति को कैसा मरण नहीं मरना चाहिए,इसका विवेक आवश्यक है। प्रस्तुत अध्ययन में मरण के दो प्रकार बतलाए गए हैं...*
*1. अकाममरण : - -* जो व्यक्ति विषय में आसक्त होने के कारण मरना नहीं चाहता किंतु आयु पूर्ण होने पर मरना पड़ता है, उसका मरण विवशता की स्थिति में होता है इसलिए उसे अकाममरण कहा जाता है।इसे बालमरण या अविरति का मरण भी कहा जा सकता है।
*2. सकाममरण : - -* जो व्यक्ति विषयों के प्रति अनासक्त होने के कारण मरण-काल में भयभीत नहीं होता किन्तु उसे जीवन की भांति उत्सव रूप मानता है, उस व्यक्ति के मरण को सकाममरण कहा जाता है।इसे पंडितमरण या विरति का मरण भु कहा जा सकता है।
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☝️
*अज्ञानियों का अकाममरण*
जो व्यक्ति कामभोगों में आसक्त होता है, उसकी गति मिथ्याभाषण की हो जाती है।वह कहता है--परलोक तो मैंने देखा नहीं, वर्तमान में प्राप्त आनंद तो आंखों के सामने है।वह समझने लगता है कि जो गति सबकी होगी वो ही गति मेरी भी हो जाएगी।और वह धृष्ट बन जाता है।वह काम-भोग के अनुराग से संक्लिष्ट परिणांम को प्राप्त करता है।वह प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है।
● हिंसा करने वाला,
●झूठ बोलने वाला,
●छल-कपट करने वाला,
●चुगली खाने वाला, वेश-परिवर्तन कर अपने आप को दूसरे रूप में प्रस्तुत करने वाला...
*👉 अज्ञानी मनुष्य शराब और मांस का भोग करता है और "यह श्रेय है" ऐसा मानता है।*
●वह शरीर और वाणी से मत्त होता है,
●धन और स्त्रियों से गृद्ध होता है,
●वह आचरण और चिंतन से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है जैसे शिशुनाग(अलसीया/केंचुआ) मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का।
👉वह अपना आयुष्य क्षीण होने पर अपने कृत कर्मों का चिन्तन कर परलोक से भयभीत होता है।वहाँ जाता हुआ अनुताप करता है।
*☝️जैसे कोई गाड़ीवान समतल राजमार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है...*
*🙏उसी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर, अधर्म को स्वीकार कर, मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञानी धुरी टूटे हुए गाड़ीवान की तरह शोक करता है।*
*☝️फिर मरणांत के समय वह अज्ञानी परलोक के भय से संत्रस्त होते हुए अकाम-मरण से मरता है।*
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*पण्डितों का सकाममरण*
जैसा कि सुना है--पुण्यशाली, संयमी और जितेन्द्रिय व्यक्तियों का मरण प्रसन्न और आघातरहित होता है।सकाम मरण होता है।
*☝️यह सकाममरण न सब साधुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को।क्योंकि गृहस्थ विविध प्रकार के शील वाले होते हैं और भीक्षु (साधु) भी विषम-शील वाले होते हैं।*
*🙏कुछ साधुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है किंतु साधूओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है।*
"भिक्खाए वा गिहस्थे वा सुव्वए कम्मई दिवं"
*👉भीक्षु हो या गृहस्थ यदि वह सुव्रती है तो स्वर्ग ( देवलोक ) में जाता है।*
*🙏🙏 देव लोक 🙏🙏*
(सौधर्म देवलोक से अनुत्तरविमान तक)
*🙏देवताओं के आवास उत्तरोत्तर उत्तम, मोहरहित और देवों से आकीर्ण होते हैं उनमें रहने वाले देव यशस्वी---*
(दीर्घायु, ऋद्धिमान, दीप्तिमान, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हो ऐसी कान्ति वाले और सूर्य के समान अति-तेजस्वी) *होते हैं।*
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*👉👉 मरण का भय 👈👈*
सभी प्रकार के भयों में मरण का भय अत्यंत कष्टप्रद होता है समझें एक कथानक से...
( आज के परिप्रेक्ष्य में कोरोना)
*☝️महामारी घोड़े पर चढ़कर जा रही थी।*
*👉एक व्यक्ति सामने मिला।उसने पूछा कौन हो तुम ?*
*☝️मैं महामारी हूँ।*
*👉कहाँ जा रही हो ? क्यों जा रही हो ?*
*☝️मैं अमुक नगर में हजार व्यक्तियों को मारने जा रही हूँ।*
कुछ दिनों बाद वह महामारी उसी रास्ते से लौटी।संयोगवश वही व्यक्ति पुनः मिल जाता है पूछता है...
*👉देवी महामारी तुम तो गई थी हजार व्यक्तियों को मारने और वहाँ मरे हैं पांच हजार।तुमने झूठ क्यों कहा ?*
*☝️भैया ! मैंने झूठ नहीं कहा। मैंने तो हजार व्यक्तियों को ही मारा था।शेष चार हजार तो मेरे नाम के भय से,मोत के भय से मर गये।उसका मैं क्या करूं ?*
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इस अध्ययन में सोलहवें श्लोक में कहा गया है...
"तओ से मरणंतमि,वाले संतस्सई भया"
*इसका तात्पर्य है बाल--अज्ञानी व्यक्ति अपने जीवनकाल में धर्म को छोड़कर अधर्म से जीवन-यापन करता है।वह मरणकाल में परलोक-गमन....नरकगमन के भय से संत्रस्त हो जाता है।वह सोचता है मैंने नरक-प्रायोग्य कर्म किये हैं औल मुझे उनको भोगना है।*
इसी श्लोक में आगे कहा गया है...
"न संतसन्ति मरणन्ते"
*जिसका तात्पर्य है कि शीलवान् और संयमी मुनि मरणकाल में भी संत्रस्त नहीं होता।वह जानता है कि उहकी सुगति होगी,क्योंकि उसने धर्म के प्रशस्त मार्ग का अनुसरण किया है।वह संलेखना कर,अनशनपूर्वक मृत्यु का स्वेच्छा से वरण करता है।*
🙏
*मनुष्य जैसे जीने के लिए स्वतंत्र है वैसे ही मरने के लिए भी स्वतंत्र है।मरण भी वांछनीय है।उसकी शर्त यह है कि वह आवेशकृत न हो।जब यह स्पष्ट प्रतीत होने लगे कि योग क्षीण हो रहे हैं, उस समय समाधिपूर्वक मरण वांछनीय है। समाधिमरण तीन प्रकार का बताया गया है...*
*(1) भक्त-प्रत्याख्यान-मरण - -* यावज्जीवन के लिए त्रिविध या चतुर्विध आहार के त्यागपूर्ण मरण जो मरण होता है,उसे *भक्त-प्रत्याख्यान-मरण* कहा जाता है।
*(2) इंगिनी-मरण - -* प्रतिनियत स्थान पर अनशनपूर्वक मरण को *इंगिनी-मरण* कहा जाता है।अर्थात् जिस मरण में मुनि अपने अभिप्राय से अपनी शुश्रूषा करे,दूसरे मुनियों से सेवा न ले उसे इंगिनी-मरण कहा जाता है।
*☝️यह मरण चतूर्विध आहार का प्रत्याख्यान करनेवाले के ही होता है।*
*(3) पादोपगमन-मरण - -* अपनी परिचर्या न स्वयं करे और न दूसरों से कराए , ऐसे मरण को *पादोपगमन-मरण* कहते हैं।
( इस अनशनपूर्वक मरण में साधक अपने पांवों से संघ से निकल कर और योग्य प्रदेश में जाकर वृक्ष के निचे स्थिर अवस्था में चतूर्विध आहार के त्यागपूर्वक प्रत्याख्यान करता है)
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. *।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*क्षुल्लक-निर्ग्रन्थिय*
(छठा-अध्ययन)
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*इस अध्ययन में निर्ग्रन्थ के बाह्य और आभ्यंतर ग्रन्थ-त्याग*(परिग्रह-त्याग) *का संक्षिप्त निरूपण है।*
*☝️बौद्ध साहित्य में स्थान-स्थान पर भगवान् महावीर को निर्ग्रन्थ*(निगण्ठ) *कहा है। तपागच्छ पट्टावली के अनुसार सुधर्मास्वामी से आठ आचार्यों तक जैनधर्म "निर्ग्रन्थ-धर्म" कै नाम से प्रचलित था।*
*☝️अविद्या और दु:ख का गहरा सम्बन्ध है,जहाँ दु:ख है वहाँ अविद्या है।ग्रन्थ*(परिग्रह) *को त्राण मानना भी अविद्या है।इसलिए...*
*🙏भगवान् महावीर ने कहा - -*
*●"परिवार त्राण नहीं है,"*
*●"धन भी त्राण नहीं है"*
*●और तो क्या अपनी देह भी त्राण नहीं है।*
*🙏साधु देह-मुक्त नहीं होता फिर भी प्रतिपल उसके मन में यह चिन्तन होना चाहिये कि देह-धारण का प्रयोजन पूर्व-कर्मों को क्षय करना है।लक्ष्य जो है वह बहुत ऊंचा है,इसलिए साधक को नीचे कभी आसक्त नहीं होना चाहिये।उसकी दृष्टि सदा उर्ध्वगामी होनी चाहिए।इस प्रकार इस अध्ययन में अध्यात्म की मौलिक विचारणाएं उपलब्ध हैं।*
*☝️चूर्णिकार ने कहा है--संयमी-जीवन के निर्वाह के लिए पात्र आवश्यक है।वह परिग्रह नहीं है।मुनि अपने पात्र में भोजन करे, गृहस्थ के पात्र में नहीं।*
"पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए"
*अर्थात् जैसे पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ता है,इसलिए उसे पीछे की कोई अपेक्षा-चिन्ता नहीं होती, वैसे ही भिक्षु अपने पात्र आदि उपकरणों को जहाँ जाए वहाँ साथ ले जाए,संग्रह करके कहीं रखे नहीं अर्थात् पीछे की चिन्ता से मुक्त होकर---निरपेक्ष होकर विहार करे।*
*इस अध्ययन के अन्तिम श्लोक का एक पाठान्तर है।उसके अनुसार इस अध्ययन के प्रज्ञापक भगवान पार्श्वनाथ हैं।यद्यपि चूर्णिकार और टीकाकार ने इस पाठान्तर का अर्थ भी भगवान् महावीर से सम्बन्धित किया है।*
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. *उरभ्रीय*
(सातवां अध्ययन)
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*☝️श्रामण्य का आधार अनासक्ति है।जो विषय-वासना में आसक्त होता है, वह कभी दु:खों से मुक्त नहीं हो सकता।*
👉विषयानुगृद्धि में रसासक्ति का भी प्रमुख स्थान है।जो रसनेन्द्रिय पर विजय पा लेता है, वह अन्यान्य विषयों को भी सहजतया वश में कर लेता है।
*🙏भगवान् महावीर ने कहा-- अल्प के लिए बहुत को मत खोओ।जो ऐसा करता है, वह पीछे पश्चाताप करता है।*
☝️जो मनुष्य मानवीय काम-भोगों में आसक्त हो थोड़े-से सुख के लिए मनुष्य जन्म गवां देता है वह शाश्वत सुखों को हार जाता है।देवताओं केकाम-भोगों के समक्ष मनुष्य के काम-भोग तुच्छ और अल्पकालीन है।दोनों के काम-भोगों में आकाश-पाताल का अन्तर है।प्रज्ञावान पुरूष की देवलोक में अनेक *वर्ष नयुत* की स्थिति होती है--- *यह ज्ञात होने पर भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष जितने अल्प जीवन के लिए उन दीर्घकालीन सुखों को हार जाता है।*
**** समझें *वर्ष नयुत* को ****
>> *नयुत* शब्द पदार्थ की गणना में भी प्रयुक्त होता है और आयुष्य काल की गणना में भी प्रयुक्त होता है।आयुष्य काल की गणना में इसे *वर्ष नयुत* कहा गया है।
*84 लाख वर्ष------का--- 1 पूर्वांड्क*
*84 लाख पूर्वांड्क---का---1 पूर्व*
*84 लाख पूर्व -----का----1नयुतांग*
*84 लाख नयुतांग----का---1 नयुत।*
(84लाख × 84लाख × 84लाख × 84लाख)=49786136 000,000,000,000,000,000,00 वर्ष का *एक वर्ष नयुत* होता है।
*☝️ऐसे अनेक वर्ष नयुत का आयुष्य देवलोक का होता है।*
*☝️मनुष्य-भव मूल पूंजी है।देवगति उसका लाभ है और नरकगति उसका छेदन है।*
☝️जो मनुष्य है और अगले जन्म में भी मनुष्य हो जाता है, वह मूल पूंजी की सुरक्षा है।
*🙏जो मनुष्य-जन्म में अध्यात्म का आचरण कर आत्मा को पवित्र बनाता जाता है, वह मूल को बढ़ाता है।*
👉जो विषय-वासना में फंसकर मनुष्य जीवन को हार देता है--तिर्यंच या नरक में चला जाता है--- *वह मूल को भी गवां देता है।*
*☝️जिसमें धृति होती है--उसके तप होता है,*
(सुख और दु:ख में विचलित नहीं होना धृति है)
*☝️जिसके तप होता है,--उसको सुगति सुलभ है।*
*👉जो अधृतिमान पुरूष हैं,उनके लिए तप भी निश्चित ही दुर्लभ है।*
*🙏इस मनुष्य-भव में काम-भोगों से निवृत्त न होने वाले व्यक्ति का आत्म-प्रयोजन नष्ट हो जाता है।वह पार ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी बार-बार भ्रष्ट होता है।*
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*कापिलीय*
( आठवां अध्ययन )
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*कपिल ब्राह्मण था।लोभ की बाढ़*(दो मासा सोने से एक करोड़ सोनैया तक) *ने उसके मन में विरक्ति ला दी।उसे सही स्वरूप ज्ञात हुआ।वह मुनि बन गया। संयोगवश एक बार उसे महाअरण्य में बलभद्र आदि 500 चोरों ने घेर लिया।तब कपिल मुनि ने उन्हें उपदेश दिया,प्रतिबोध दिया। क्रमशः उसी समय सभी 500 चोर प्रतिबुद्ध हो गये। यह प्रतिबोध संगीतात्मक था। उसी का इस अध्ययन में संग्रह किया गया है।प्रथम मुनि गाते,चोर भी उनके साथ-साथ गाने लग जाते....*
*अधुवे असासंयमि,*
*संसारंमि दुक्खपउराए।*
*......... न गच्छेज्जा।।*
(यह प्रथम श्लोक ध्रुवपद था)
*>>अध्रुव,अशाश्वत और दु:ख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म--अनुष्ठान है,जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं ?*
*☝️जो इस जन्म में जीवन को अनियंत्रित रखकर समाधि-योग से परिभ्रष्ट होते हैं, वे कामभोग और रसों से आसक्त बने हुए मनुष्य--असुर-काय में उत्पन्न होते हैं।*
*👉 वहाँ से निकलकर भी वे संसार में बहुत पर्यटन करते हैं।वे प्रचुर कर्मों के लेप से लिप्त होते हैं।इसलिए उन्हें बोधि प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है।*
*☝️धन-धान्य से परिपूर्ण यह समूचा लोक भी कोई किसी को दे दे---उससे भी वह संतुष्ट नहीं होता--तृप्त नहीं होता...*
*.👉इतना दुष्पूर है यह आत्मा👈*
जैसे लाभ होता है वैसे ही लोभ होता है।लाभ से लोभ बढ़ता है। *दो माशे से पूरा होने वाला कार्य कपिल के लिए करोड़ स्वर्ण मुद्राओं से भी पूरा नहीं हुआ।*
*☝️मुनि कपिल द्वारा यह---अध्ययन गाया गया था, इसलिए इसे कापिलीय कहा गया है।*
*🙏इस प्रकार विशुद्ध प्रज्ञा वाले कपिल ने यह धर्म कहा।जो इसका आचरण करेंगे वे तरेंगे और उन्होंने दोनों लोकों को आराध लिया।*
( समयाभाव से *स्वयंबुद्ध कपिल* का पूरा विवरण यहाँ नहीं बताया है।अलग से विवरण प्रस्तुत करने के भाव है)
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*🌳🌳🌳स्वयंबुद्ब कपिल🌳🌳🌳*
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*कोशाम्बी नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था।उसकी सभा में चौदह विद्याओं का पारगामी काश्यप नाम का ब्राह्मण था।उसकी पत्नी का नाम यशा और कपिल नाम का एक पुत्र था।राजा काश्यप से प्रभावित था।वह उसका बहुमान करता था।अचानक काश्यप की मृत्यु हो गई।उस समय कपिल की अवस्था बहुत छोटी थी।राजा ने काश्यप के स्थान पर दूसरे ब्राह्मण को नियुक्त कर दिया।*
*नव नियुक्त ब्राह्मण जब घर से दरबार में जाता तब घोड़े पर आरूढ़ हो छत्र धारण करता था।काश्यप की पत्नी यशा जब यह देखती तो पति की स्मृति में भाव विव्ह्ल हो रोने लग जाती थी।कुछ काल बीता।कपिल भी बड़ा हो गया।एक दिन जब उसने अपनी मां को रोते देखा तो इसका कारण पूछा।यशा ने कहा---सारी बात बतलाई। तब कपिल ने कहा--"मां ! मैं भी विद्या पढ़ूंगा। वह अपने पिता के परम मित्र इन्द्रजीत ब्राह्मण जो श्रावस्ती नगरी में रहते थे उनके पास पहुंच गया।उसका अध्ययन प्रारम्भ हो गया।उसके भोजन की व्यवस्था शालीभद्र नामक धनाढ्य के यहाँ रहती थी।उसे एक दासी भोजन परोसा करती थी।धीरे-धीरे कपिल एवं दासी के सम्बंध प्रगाढ़ हो गऐ।*
*एक बार दासी ने कपिल से कहा--तुम मेरे सर्वस्व हो। मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं हैऔर दासी महोत्सव आ गया है।मैं कैसे महोत्सव मनाऊं। कपिल का मन खिन्न हो गया।उसे अपने अपौरूष पर रोष आया। दासी ने कहा-- तुम धैर्य मत खोओ।समस्या का एक समाधान भी है। इसी नगरी में धन नाम का एक सेठ रहता है।जो व्यक्ति प्रात:काल उसे सबसे पहले बधाई देता है उसे वह दो माशा सोना देता है।तूम वहाँ जाओ।उसे बधाई देकर दो माशा सोना ले आओ।इससे मैं पूर्णता से महोत्सव मना लूंगी।*
*कपिल ने बात मान ली।कोई व्यक्ति उससे पहले नहीं पहुंच जाए, यह सोच वह तुरंत घर से निकल गया।रात्रि का समय था।नगर-आरक्षक इधर उधर घुम रहे थे।उन्होंने कपिल को चोर समझ पकड़ लिया और ले जा कर राजा प्रसनजित के सम्मुख प्रस्तुत किया।*
*★राजा ने रात्रि में अकेले घूमने का कारण पूछा।*
*●कपिल ने सहज में सभी बता दिया।राजा उसकी स्पष्टवादिता पर प्रसन्न हुआ।उसे मुह मांगा इनाम देने का वादा किया।*
*●कपिल ने कहा---राजन् !मुझे सोचने का कुछ समय दिया जाए*
*★राजा ने कहा--- "यथा इच्छा।"*
*●कपिल राजा की आज्ञा ले अशोक वनिका में चला गया।वहां उसने सोचा---"दो मासा सोने से क्या होगा ?क्यों न मैं सौ मोहरें मांग लूं ?" चिन्तन आगे बढ़ा।उसे सौ मोहरें भी तुच्छ लगने लगी।हजार ,लाख ,करोड़ तक उसने चिन्तन किया।परन्तु मन नहीं भरा। सन्तोष के बिना शान्ति कहाँ ? उसका मन आन्दोलित हो उठा।*
*☝️तत्क्षण उसे समाधान मिल गया।मन वैराग्य से भर उठा।चिन्तन का प्रवाह मुड़ा।उसे जाति स्मृति ज्ञान हो गया।वह स्वयं बुद्ध बन गया।वह स्वयं अपना लुंचन कर,प्रफुल्ल वदन हो राजा के पास आया।*
*★राजा ने पूछा-- "क्या सोचा है, जल्दी कहो।*
*● कपिल ने कहा-- राजन् ! समय बीत चुका है।मुझे जो कुछपाना था पा लिया है।तुम्हारी सारी वस्तुएं मुझे तृप्त नहीं कर सकी।किन्तु उनकी अनाकांक्षा ने मेरा मार्ग प्रशस्त कर दिया है।सारा घटनाक्रम राजा को बता दिया।*
*★ राजा ने कहा---- "ब्राह्मण मुझे मेरा वचन पूरा करने का अवसर दो।मैं करोड़ मोहरें देने को तैयार हूँ।"*
*● कपिल ने कहा--- "राजन् ! तृष्णा की अग्नि अब शान्त हो गई है।मेरे भीतर करोड़ से भी अधिक मूल्यवान वस्तु पैदा हो गई है।मुनि कपिल राजा के सानिध्य से दूर चला गया।साधना चलती रहती।मुनि कपिल छह मिह तक छद्मस्थ अवस्था में रहे।*
*राजगृही और कोशाम्बी के मध्य 18 योजन का एक महाअरण्य था। वहाँ बलभद्र आदि 500 चोर रहते थे।मुनि कपिल ने अपने ज्ञान-बल से जान लिया कि सभी चोर एक दिन अपनी पापकारी वृत्ति को छोड़कर संबुद्ध हो जाएंगे।उन सबको प्रतिबोध देने के लिए कपिल मुनि श्रावस्ती से चलकर उस महा अटवी में आ गये।चोरों के सन्देश वाहक उन्हें पकड़कर अपने सेनापति के पास ले गया।*
*☝️सेनापति ने उन्हें श्रमण समझ कर छोड़ते हुए कहा---*
*श्रमत कुछ संगान करो।"*
*👏श्रमण कपिल ने हावभाव के साथ संगान शुरु किया।वहां उपस्थित सभी चोर भी साथ-साथ संगान करने लगे।*
*☝️कईं चोर प्रथम श्लोक सुनते ही संबुद्ध हो गए, कई दूसरे, कई तीसरे, कई चौथे श्लोक आदि सुनकर संबुद्ध हो गये।इस प्रकार पांचसौ ही चोर संबुद्ध हो गये।मुनि कपिल ने उन्हें दीक्षा दी और वे मुनि बन गये।*
*"तेसिं विमोक्खणट्ठाए"*
*कपिल ने पूर्व-भव में इन सभी 500 चोरों के साथ संयम का पालन किया था और उन सबके द्वारा यह संकेत दिया हुआ था कि समय आने पर हमें सम्बोधी देना।उसकी पालना के लिए कपिल मुनि ने उन्हें संबुद्ध किया।*
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. *।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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. *नमि-प्रवज्या*
(नौवां अध्ययन)
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*🙏मुनि वही बनता है जिसे बोधि प्राप्त है।वे तीन प्रकार के होते हैं - - -*
*स्वयं-बुद्ध* जो स्वयं बोधि प्राप्त करते हैं, उन्हें स्वयं-बुद्ध कहा जाता है।
*प्रत्येक-बुद्ध* जो किसी एक घटना के निमित्त से बोधि प्राप्त करते हैं, उन्हें प्रत्येक-बुद्ब कहा जाता है।
*बुद्ध-बोधित* जो बोधि-प्राप्त व्यक्तियों से बोधि-लाभ करते हैं,उन्हें बुद्ध-बोधित कहते है।
*🙏उत्तराध्ययन सूत्र के इस नवम अध्ययन का सम्बन्ध प्रत्येक-बुद्ध मुनि से है।*
*करकण्डु*(कलिंग राजा)
*द्विमुख*(पंचाल राजा)
*नमि*(विदेह राजा) और
*नग्गति*(गंधार राजा)
(बुढ़ा बैल--इन्द्रध्वज--एक कंकण की नीरवता और मंजरी-विहीन आम्र वृक्ष----ये चारों घटनाएं क्रमशः चारों के बोधि-प्राप्ति की हेतु बनी)
*☝️ये चारों समकालीन प्रत्येक-बुद्ध हैं।*
● इन चारों प्रत्येक-बुद्धों के जीव पुष्पोतर नाम के विमान से एक साथ च्युत हुए थे।
● चारों ने एक साथ प्रव्रज्या ली।
● चारों एक ही समय में प्रत्येक-बुद्ब हुए।
● चारों एक ही समय में केवली बने।
●चारों एक ही समय में सिद्ध हुए।
*☝️एक बार चारों प्रत्येक-बुद्ध विहार करते हुए क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आए।वहाँ व्यन्तरदेव का एक मन्दिर था।उसके चार द्वार थे।*
*करकण्डु पूर्व दिशा के द्वार से,*
*द्विमुख दक्षिण दिशा के द्वार से,*
*नमि पश्चिम दिशा के द्वार से और*
*नग्गति उत्तर दिशा के द्वार से प्रविष्ट हुए।*
*☝️वहाँ के व्यंतरदेव ने यह सोचकर कि साधुओं को पीठ देकर कैसे बैठूं,अपना मुंह चारों ओर कर लिया।*
*करकण्डु खुजली से पीड़ित था।उसने एक कोमल कण्डूयन लिया और कान को खुजलाया।खुजला लेने के बाद उसने कण्डयून को एक ओर छिपा लिया।*
*द्विमुख ने यह देख लिया।उसने कहा---"मुने ! अपना राज्य, राष्ट्र, पुर, अंत:पुर...आदि सब कुछ छोड़कर आप इस कण्डूयन का संचय क्यों करते हैं ?"*
*यह सुनते ही करकण्डु के उत्तर देने से पूर्व ही नमि ने कहा--- "मुने ! आपके राज्य में आपके अनेक कृत्यकार--आज्ञा पालने वाले थे।उनका कार्य था दण्ड देना और दूसरों का पराभव करना।इस कार्य को छोड़ आप मुनि बने।आज आप दूसरों के दोष क्यों देख रहे हैं।"*
*यह सुन नग्गति ने कहा--- "जो मोक्षार्थी हैं, जो आत्म-मुक्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, जिन्होंने सबकुछ छोड़ दिया है, वे दूसरों की गर्हा कैसे करेंगे ?"*
*तब करकण्डु ने कहा---"मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त साधु और ब्रह्मचारी यदि अहित का निवारण करते हैं तो वह दोष नहीं है।नमि,द्विमुख और नग्गति ने जो कुछ कहा है, वह अहित-निवारण के लिए ही कहा है अत: दोष नहीं है।"*
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*🙏विदेह राज्य में दो नमि हूए हैं।दोनों अपने-अपने राज्य का त्याग कर अनगार बने ।एक तीर्थंकर हुए दूसरे प्रत्येक-बुद्ध।*
*☝️इस अध्ययन में दूसरे नमि*(प्रत्येक-बुद्ध) *की प्रव्रज्या का विवरण है।इसलिए इसका नाम नमि-प्रव्रज्या रखा गया है।*
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. *नमि-प्रव्रज्या*
. 👏👏👏👏👏
*मालव देश के सुदर्शनपुर नगर में मणिरथ राजा राज्य करता था।उसका कनिष्ट भ्राता युगबाहु था।मदनरेखा युगबाहु की पत्नी थी,जो अति सुंदर थी।मणिरथ ने मदनरेखा को पाने के लिए कपटपूर्वक युगबाहु को मरवा डाला।मदनरेखा उस समय गर्भवती थी।वह युगबाहु की मृत्यु के बाद जंगल में चली गई।जंगल में मदनरेखा ने एक पूत्र को जन्म दिया। मिथिला-नरेश पद्मरथ जिनके कोई सन्तान नहीं थी। संयोग से पद्मरथ राजा जंगल में आखेट पर आता है।एक नवजात को अकेले देखा।* (उस समय मदनरेखा विशुद्धि हेतु तालाब की ओर गई थी) *राजा पद्मरथ बालक को मिथिला ले आते हैं।उसका नाम "नमि कुमार" रखा।*
*कालांतर में पद्मरथ के श्रमण बन जाने पर "नमि" मिथिला का राजा बना।एक बार राजा नमि दाह-ज्वर से आक्रान्त हुआ।छह मास तक घोर वेदना रही उपचार के दौरान रानियां स्वयं चन्दन घिसती।एक बार सभी रानियां चन्दन घिस रही थी।उनके हाथों में पहने हुए कंगण बज रहे थे।कंगणों की आवाज से नमि राजा खिन्न हो उठा।उसने कंगण उतार लेने का कहा।सभी रानियों ने सौभाग्य-चिन्हस्वरूप एक-एक कंगण रखते हुए बाकी कंगण उतार लिए।*
*कुछ देर बाद नमि राजा ने अपने मंत्री से पूछा---कंगणों का शब्द सुनाई क्यों नहीं दे रहा है ?*
*मंत्री ने कहा---महाराज ! कंगणों के घर्षण का शब्द आपको अप्रिय लगा था इसलिए सभी रानियों ने एक-एक कंगण रखकर शेष सभी उतार दिए।अकेले कंगण से घर्षण नहीं होता और घर्षण के बिना शब्द(शोर) कहाँ से होगा ?*
*☝️राजा नमि प्रबुद्ध हो गया।उसने सोचा सुख अकेलेपन में है।जहाँ दो है वहाँ द्वन्द है--दु:ख है।नमिराजा विरक्त भाव से आगे बढ़े और प्रव्रजित होने का दृढ़संकल्प किया।*
*👉अकस्मात ही नमि को राज्य छोड़ प्रव्रजित होते देख उनकी परीक्षा लेने के लिए इद्र ब्राह्मण का वेश बनाकर आते हैं, और प्रणाम कर नमि को लुभाने हेतु दसों प्रयास करते हैं।ब्राह्मण रूपी इन्द्र और दीक्षा हेतु तत्पर नमि राजा के मध्य संवाद निम्नानुसार चला- - -*
*☝️(1) हे राजर्षि ! आज मिथिला के प्रासादों और गृहों में कोलाहल से परिपूर्ण दारुण शब्द क्यों सुनाई दे रहे हैं ?*
*👏 हे ब्राह्मण! मिथिला में एक चैत्य-वृक्ष था।उसके आश्रित रहने वाले ये पक्षी दु:खी अशरण और पीड़ित होकर आक्रन्दन कर रहे हैं।*
*☝️(2) हे राजर्षि ! यह अग्नि और यह वायु है।यह आपका मन्दिर जल रहा है।आप अपने रनिवास की ओर क्यों नहीं देखते ?*
*👏 है ब्राह्मण देवता! मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ नहीं जल रहा है।भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती।सभी बन्धनों से मुक्त "मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं" इस प्रकार एकत्व-दर्शी , गृह-त्यागी एवं तपस्वी भिक्षु को विपुल सुख होता है।*
*☝️(3) हे क्षत्रिय ! अभी तुम परकोटा, बुर्ज वाले नगर-द्वार, खाई और* "शतघ्नी" *बनवाओ,फिर मुनि बन जाना।*
"एक बार में सौ व्यक्तियों का संहार करनेवाला यंत्र" को शतघ्नी कहा जाता था।
*👏 हे ब्राह्मण ! तप-रूपी लोह-बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म-रूपी कवच को भेद डाले।इस प्रकार संग्राम का अन्त कर मुनि संसार से मुक्त हो जाता है।*
*☝️(4) हे क्षत्रिय ! अभी तुम प्रासाद, वर्धमान-गृह और चन्दनशाला बनवाओ, फिर मुनि बन जाना।*
*👏 हे ब्राह्मण देवता ! वह संदिग्ध ही बना रहता है जो मार्ग में घर बनाता है।*(न जाने कब उसे छोड़कर जाना पड़े) *अपना घर वहीं बनाना चाहिए जहां जाने की इच्छा हो--जहां जाने पर फिर कहीं जाना न हो।*
*☝️(5) हे क्षत्रिय ! अभी तुम बटमारों,प्राण-हरण करनेवाले लुटेरों, गिरहकटों और चोरों का निग्रह कर नगर में शान्ति स्थापित करो,फिर मुनि बन जाना।*
*👏मनुष्य द्वारा अनेक बार मिथ्यादण्ड का प्रयोग किया जाता है।अपराध नहीं करनेवाले यहां पकड़े जाते हैं और अपराध करनेवाला छूट जाता है।*
*☝️(6) हे नराधिप क्षत्रिय ! जो कई राजा तुम्हारे सामने नहीं झुकते उन्हें वश में करो, फिर मुनि भन जाना।*
जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ।।
*👏 जो पुरूष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीतता है, यह उसकी परम विजय है।*
*☝️(7) हे क्षत्रिय ! अभी तुम प्रचुर यज्ञ करो,श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराओ,दान दो,भोग भोगो और यज्ञ करो,फिर मुनि बन जाना।*
*👏जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान देता है उसके लिए भी संयम ही श्रेय है,भले फिर कूछ भी न दे।*
(यहां दान से संयम को श्रेष्ठ बताया है)
*☝️(8) हे मनुजाधिप ! तुम गार्हस्थ को छोड़कर सन्यास की इच्छा करते हो,यह उचित नहीं।तुम यहीं रहकर पौषध में रत होओ--अणुव्रत, तप आदि का पालन करो।*
*👏 कोई गृहस्थ मास-मास की तपस्या के मध्य कुश की नोक पर टिके उतना सा आहार करे तो भी वह चारित्र धर्म की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता।*
*☝️(9) हे क्षत्रिय ! अभी तुम चाँदी, सोना,मणी,मोती, कांसे के बर्तन, वस्त्र, वाहन और भण्डार की वृद्धि करो,फिर मुनि बन जाना।*
*👏 कदाचित् सोने और चांदी के कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत हो जाएं,तो भी लोभी पुरूष को उनसे कुछ नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।*
*☝️(10) हे पार्थिव ! आश्चर्य है कि तुम इस अभ्युदय काल में सहज प्राप्त भोगों को त्याग कर रहे हो और अप्राप्त काम-भोगों की इच्छा कर रहे हो--इस प्रकार तुम अपने संकल्प से प्रताड़ित हो रहे हो।*
*👏 काम-भोग शल्य है,विष है और आशीर्विष सर्प के तुल्य हैं।काम-भोगों की इच्छा करनेवाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं।मनुष्य...*
*>>क्रोध से.....अधोगति में जाता है।*
*>>मान से......अधम गति में जाता है।*
*>>माया से......सुगति का विनाश होता है।*
*>>लोभ से...... दोनों प्रकार का--ऐहिक और पारलौकिक--भय होता है।*
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*🙏देवेंद्र ने ब्राह्मण का रूप छोड़, इन्द्र रूप में प्रकट हो नमि राजर्षि को वन्दना की और इन मधुर शब्दों में स्तुति करने लगा....*
*हे राजर्षि !...*
*● आश्चर्य है तुमने क्रोध को जीता है !*
*● आश्चर्य है तुमने मान को पराजित किया है !*
*● आश्चर्य है तुमने माया को दूर किया है !*
*● आश्चर्य है तुमने लोभ को वश में किया है !*
*★अहो ! उत्तम है तुम्हारा आर्जव, मार्दव, क्षमा*(सहिष्णुता) *और उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता।*
*👏इस प्रकार इन्द्र ने उत्तम श्रद्धा से राजर्षि की स्तुति की और प्रदक्षिणा करते हुए बार-बार वन्दना की।*
*नमि नमेइ अप्पाणं*
*नमि राजर्षि ने अपनी आत्मा को नमा लिया।*
*☝️वे साक्षात् देवेन्द्र के द्वारा प्रेरित होने पर भी धर्म से विचलित नहीं हुए और सर्वस्व त्याग कर श्रामण्य में उपस्थित हो गये।*
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*विनम्र प्रस्तुति: : सुरेश चन्द्र बोरदिया भीलवाड़ा*
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. *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*🔹🔹इगतीसवां अध्ययन🔹🔹*
*🙏🙏 चरण–विधि 🙏🙏*
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2️⃣9️⃣
*पापश्रुत-प्रसंग*
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☝️पाप के उपादानकारणभूत जो शास्त्र हैं, उन्हें *पापश्रुत* कहते हैं। उन शास्त्रों का अभ्यास– *पापश्रुत-प्रसंग* है।
*1. भौम–* भुकम्प आदि के फल को बताने वाला निमित्त-शास्त्र।
*2. उत्पात–* स्वाभाविक उत्पातों का फल बताने वाला शास्त्र।
*3. स्वप्नशास्त्र–* स्वप्न के शुभाशुभ फल को बताने वाला शास्त्र।
*4. अन्तरिक्ष–* आकाश में उत्पन्न होने वाले नक्षत्रों के युद्ध का फला फल बताने वाला शास्त्र।
*5. अंगशास्त्र–* अंग-स्फुरण का फल बताने वाला शास्त्र।
*6. स्वर-शास्त्र–* स्वर के शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र।
*7. व्यंजनशास्त्र–* तिल, मसा आदि के फल को बताने वाला शास्त्र।
*8. लक्षणशास्त्र–* शारीरिक लक्षणों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र।
*उपरोक्त अष्टांग निमित्त के प्रत्येक अंग के तीन-तीन प्रकार होते हैं–*
*(1)* सूत्र *(2)* वृत्ति और *(3)* वार्तिका
*☝️इस प्रकार 24 पापश्रुत प्रसंग हुए। आगे के निम्न प्रकार हैं–*
*25. विकथानुयोग–* अर्थ और काम के उपायों के प्रतिपादक ग्रन्थ।
*26. विद्यानुयोग–* रोहणी आदि विद्या की सिद्धि बताने वाला शास्त्र।
*27. मन्त्रानुयोग–* मन्त्र-शास्त्र।
*28. योगानुयोग–* वशीकरणादि योग सूचक शास्त्र।
*29. अन्यतीर्थिकानुयोग–* अन्यतीर्थिकों द्वारा प्रवर्तित हिंसाप्रधान आचारशास्त्र।
*🙏इन 29 प्रकार के पापाश्रवजनक शास्त्रों का प्रयोग उत्सर्ग मार्ग में न करना साधु का कर्तव्य है।*
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. *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*🔹🔹इगतीसवां अध्ययन🔹🔹*
*🙏🙏 चरण–विधि 🙏🙏*
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2️⃣7️⃣
*🙏सताईस अणगारगुणों में जो भिक्षु सदैव उपयोग रखता है–वह संसार में नहीं रहता।*
*साधु के 27 गुण–*
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*पांच महाव्रतों का सम्यक् पालन करना*
*1.* प्राणातिपात से विरमण,
*2.* मृषावाद से विरमण,
*3.* अदत्तादान से विरमण,
*4.* मैथुन से विरमण,
*5.* परिग्रह से विरमण।
*पांचों इन्द्रियों का निग्रह*
*6.* श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह,
*7.* चक्षु-इन्द्रिय-निग्रह,
*8.* घ्राणेन्द्रिय-निग्रह,
*9.* रसनेन्द्रिय-निग्रह,
*10.* स्पर्शनेन्द्रिय-निग्रह।
*चार कषाय-विवेक*
*11.* क्रोध-विवेक,
*12.* मान-विवेक,
*13.* माया-विवेक,
*14.* लोभ-विवेक।
*15.* भाव-सत्य,
( अन्त:करण शुद्ध रखना )
*16.* करण-सत्य,
(वस्त्र-पात्रादि का भलीभांति प्रतिलेखन आदि करना)
*17.* योग-सत्य,
*18.* क्षमा,
*19.* विरागता,
*20.* मन-समाधारणता,
( मन की शुभ प्रवृत्ति )
*21.* वचन-समाधारणता,
( वचन की शुभ प्रवृत्ति )
*22.* काय-समाधारणता,
( शरीर की शुभ प्रवृत्ति )
*23.* ज्ञान-सम्पन्नता,
*24.* दर्शन-सम्पन्नता,
*25.* चारित्र-सम्पन्नता,
*26.* वेदना-अधिसहन और
*27.* मारणान्तिक-अधिसहन।
🙏किसी आचार्य ने 27 अनगार गुणों में *चार कषायों* के त्याग के बदले....
● लोभत्याग,
● रात्रिभोजन त्याग,
● छहकाय के जीवों की रक्षा और
● संयमयोगयुक्तता को माना है।
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2️⃣8️⃣
*अट्ठाईस आचार-प्रकल्प*
*प्रकल्प–* वह शास्त्र जिसमें मुनि के कल्प–व्यवहार का निरूपण हो।
*🙏आचारांग का दूसरा नाम "प्रकल्प" है*
*🙏निशीथ सूत्र* ( तीन अध्ययन ) *सहित आचारांग*( 25 अध्ययन ) *को "आचार-प्रकल्प" कहा जाता है।*
*आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन–*
*1.* शस्त्र-परिज्ञा, *2.* लोक-विचय,
*3.* शीतोष्णीय, *4.* सम्यक्त्व,
*5.* आवंती, *6.* धुत,
*7.* विमोह, *8.* उपधान-श्रुत और
*9.* महापरिज्ञा।
*आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 16अध्ययन–*
*10.* पिंडैषणा, *11.* शय्या,
*12.* ईर्या, *13.* भाषा,
*14.* वस्त्रैषणा, *15.* पात्रैषणा,
*16.* अवग्रह-प्रतिमा,
*17–23.* सप्त-सप्ततिका
( सात स्थानादि एक-एक )
*24.* भावना और *25.* विमुक्ति।
*निशीथ सूत्र के तीन अध्ययन–*
*26. उद् घात,*(लघु प्रायश्चित)
>> जिस प्रायश्चित में भाग किया जाता है।
*27. अनुद् घात*(गुरु प्रायश्चित)
>> जिस प्रायश्चित में भाग नहीं किया जाता है।
*28. आरोपण*(प्रायश्चित्त)
🙏प्रथम तीर्थंकर के समय उत्कृष्ट प्रायश्चित *बारहमास* का,
🙏मध्यम 22 तीर्थंकरों के काल में *आठ मास* का और
🙏चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर के काल में वह *छहमास* का होता है।
🙏वर्तमान में भगवान् महावीर के शासन में *तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास* की है।
*🙏उपरोक्त 28 अध्ययनों में वर्णित साध्वाचार का पालन करना और अनाचार से विरत होना साधु का परम कर्तव्य है।*
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*🙏आगे की पोस्ट में हम जानेंगे 29 पापश्रुत-प्रसंगों के बारे में और 30 मोह-स्थानों के बारे में...*
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*🔸🔸🔸दूसरा आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्रीसुयगडांग सूत्र🔹🔹*
*द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 7 अध्ययन*
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*(1) पौण्डरीक अध्ययन (पुण्डरीक)*
☝️इस गद्यमय अध्ययन में 72 सूत्र है।प्रथम बारह सूत्रों में भगवान महावीर ने पुष्करिणी में स्थित पौंडरिक के माध्यम से धर्म, धर्मतीर्थ और निर्वाण के महत्व को समझाया है। सूत्र 56 से 66 में मुनिचर्या के कुछ नियम प्रदर्शित है...
1.भिक्षु पांच महाव्रतों का पालन करे।
2.अतिचारों का सेवन न करे।
3.भविष्य की आशंसा न करे,निदान न करे।
4.कर्म-बंध की प्रवृत्ति न करे,संयम में उपस्थित और असंयम से प्रतिविरत रहे।
5.परिग्रह से मुक्त रहे।
6.पारलौकिक कर्म न करे।
7.अशुद्ध और अनैषणीय आहार का उपभोग न करे।
8.एषणाशुद्ध,शस्त्रातीत और माधुकरी से प्राप्त आहार करे।
9.हित, मित आहार करे।अनासक्त रहकर शरीर निर्वाह मात्र के लिए भोजन ले।
🙏इस प्रकार यह अध्ययन अध्यात्म साधना की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है।
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*(2)क्रियास्थान अध्ययन*
☝️इस अध्ययन में कर्मबन्ध और मोक्ष की कारणभूत क्रियाओं का प्रतिपादन है।इसमें कर्मबन्ध की 12 क्रियाओं का और कर्मबन्ध से मुक्त होने की तेरहवीं क्रिया का वर्णन है।
कर्मबन्ध के 12 क्रियास्थान:--
1.अर्थदंड 7. अदत्तादानप्रत्यय
2.अनर्थदंड 8.आध्यात्मिक(मन)
3.हिंसादंड 9.मानप्रत्यय
4.अकस्मातदंड 10.मित्रदोषप्रत्यय
5.दृष्टिविपर्यासिकादंड 11.मायाप्रत्यय
6.मृषाप्रत्यय 12.लोभप्रत्यय
कर्मबन्ध से मुक्त होने की तेरहवीं क्रिया है-- *ईर्यापथिक*
☝️इस अध्ययन के उन्नीसवें सूत्र में 14 प्रकार के क्रूर कर्म बतलाए है। इस अध्ययन के भी 72 सूत्र है।इस अध्ययन का सार यही है कि बारह क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाला कर्मों से बन्धता है,संसार भ्रमण को बढ़ाता है और तेरहवीं क्रिया में प्रवृत्ति करनेवाला संसार-भ्रमण का उच्छेद कर देता है।
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*(3)आहारपरिज्ञा अध्ययन*
आहारपरिज्ञा द्विपद नाम है इसमें दो पद है-- आहार और परिज्ञा।
☝️प्रत्येक सांसारिक प्राणी आहार के आधार पर जीता है।शरीर आहार के बिना नहीं चलता।धर्म की उपासना शरीर के बिना नहीं होती।अतः धर्म की आराधना के लिए शरीर का पोषण भी करना होता है।सभी प्राणी आहार करते हैं।स्थावर भी और त्रस भी।नारक और देव भी आहार करते हैं।
☝️जीवों की उत्पत्ति की दृष्टि से यह अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण है।किस परिस्थिति में,किस निमित्त को पाकर जीव किस प्रकार जन्म लेता है,इसकी अत्यंत सूक्ष्म जानकारी प्रस्तुत अध्ययन में प्राप्त है।जीवविज्ञान के साथ तुलनात्मक अध्ययन के लिए इसमें प्रचुर सामग्रि है।
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*(4) प्रत्याख्यानक्रिया*
☝️अठारह पापों के प्रत्याख्यान करने या न करने से क्या-क्या लाभ और हानियां हैं उनका विवेक इसमें है। प्रश्नोत्तर के माध्यम से यह समझाया गया है कि अप्रत्याख्यान पाप-कर्मबन्ध का मूल है और प्रत्याख्यान कर्ममुक्ति का मार्ग है।
प्रत्याख्यान = विरति और
अप्रत्याख्यान = अविरति।
☝️अविरति आश्रव है।यह कर्मागमन का द्वार है।जब तक यह द्वार खुला है तब तक कर्म आते रहेंगे।
👏 विरति से यह द्वार बन्द हो जाता है और फिर कर्म नहीं आते।
प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद है...
द्रव्यप्रत्याख्यान और भावप्रत्याख्यान।
*अप्रत्याख्यानी आत्मा के कर्मबन्ध होता है, संसार और दु:ख में वृद्धि होती है।*
इस अध्ययन का सारांश यह है कि जो पापकर्म का प्रत्याख्यान कर देता है, उसके पापकर्म का बन्धन नहीं होता है। व्यावहारिक दृष्टि के अनुसार मन,वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति के बिना पापकर्म का बन्ध नहीं माना जाता है किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार पापकर्म के बंध का एक कारण अविरति है।उससे निरन्तर वह बन्ध होता रहता है।दुष्प्रवृत्ति उसकी अभिव्यक्ति मात्र है।वह कभी-कभी होती है, निरन्तर नहीं होती।
☝️इसलिए साधक को अविरति के समय को विरति में बदलने की दिशा में उपक्रम करना चाहिए।उसके बदलने पर दुष्प्रवृत्ति सहज निरुद्ध होने लग जाती है।
*यह दृष्टिकोण साधना के क्षेत्र में बहुत रहस्यपूर्ण है।*
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*(5)आचारश्रुत अध्ययन*
☝️इस अध्ययन में आचार का वर्णन है इसलिए इसका नाम आचारश्रुत है।निर्युक्तिकार ने इसका दूसरा नाम *अनगारश्रुत* बतलाया है।क्योंकि इसमें अनाचार को जानने का निर्देश है,इसलिए इसे *अनाचारश्रुत* भी कहा जाता है।
इस अध्ययन का दार्शनिक फलित यह है कि एकान्तवाद मिथ्या है,अव्यवहार्य है।अनेकान्तवाद सम्यग है,व्यवहार्य है।जो दार्शनिक.....
●लोक को एकान्तत: *शाश्वत या अशाश्वत,*
●शास्ता(प्रवर्तक)को एकान्तत: *नित्य या अनित्य,*
●प्राणी को एकान्तत: *कर्मबद्ध या कर्ममुक्त*
एकान्तत: *सदृश या विसदृश मानते हैं,*
*❓वे मिथ्या प्रवाद करते हैं।*
*☝️अनेकान्तवाद के अनुसार व्यवहार इस प्रकार घटित होगा...*
◆लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी।
◆भव्य प्राणि मुक्त भी होंगे और मुक्त नहीं भी होंगे।
◆प्राणी कर्म-बद्ध भी है और कर्म-बद्ध नहीं भी है।
◆प्राणी सदृश भी है और असदृश भी है।
◆छोटे-बड़े प्राणी को मारने से कर्म-बन्ध होता भी है और नहीं भी होता।
◆पांचो शरीर एक भी है और नहीं भी है।
●सर्वत्र शक्ति है भी और सर्वत्र शक्ति नहीं भी है।
*👏अन्तिम तीन पद्यों (30--32) में मुनि के लिए वाणी विवेक के ये बिन्दु निर्दिष्ट है कि मुनि...*
◆यह सम्पूर्ण है, यह अक्षत-नित्य है, क्षणिक है, केवल दु:खात्मक है---ऐसा न कहे।
◆प्राणी वध्य है या अवध्य है--ऐसा न बोले।
◆दान देने वाले को (दान देते समय) पुण्य होता है, पुण्य नहीं होता है या पाप होता, पाप नहीं होता--ऐसा न बोले।
☝️इस प्रकार इस अध्ययन में व्यावहारिक अनाचारों का कथन न कर,सैद्धांतिक अनाचार-एकान्तवाद का सेवन न करने के लिए परामर्श दिया गया है,क्योंकि यह दर्शन-दृष्टि और वचन का अनाचार है।
*☝️अनेकान्तवाद है दर्शन और*
*☝️स्यादवाद है वाणी का आचार।*
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*(6)आर्द्रकीय अध्ययन*
मुनि आर्द्रक से सम्बन्धित होने के कारण प्रस्तुत अध्ययन का नाम "आर्द्रकीय" रखा गया है।इसमें...
●आजीवक मत के आचार्य गोशालक द्वारा महावीर पर लगाए गए आक्षेप और आर्द्रक का उत्तर।
●बौद्ध भिक्षुओं द्वारा अपने मत की स्थापना और आर्द्रक द्वारा उसका प्रतिवाद।
●ब्राह्मण धर्म की प्रतिपति के विषय में आर्द्रक का उत्तर।
●एकदंडी परिव्राजकों(साख्य)की स्थापना और आर्द्रक का प्रत्युत्तर।
●हस्तितापसों के सिद्धांत का खंडन।
*👏इस प्रकार आर्द्रककुमार ने अन्यतीर्थिकों के आक्षेपों का उत्तर दिया, यह एक समाधि है!*
*समाधि तीन प्रकार की होती है--*
ज्ञानसमाधि,दर्शनसमाधि और चारित्रसमाधि। आर्द्रककुमार इस त्रिविध समाधि में सुस्थित था।
☝️यहां पर मुख्यतया दर्शनसमाधि का प्रकरण है।
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*(7)नालंदीय अध्ययन*
🚥राजगृह नगर के उत्तर-पूर्व में नालंदा नाम का उपनगर था।वहां गणधर गौतम और पार्श्वापत्यीय श्रमण उदक के मध्य पंचयाम धर्म और चातुर्याम धर्म को लेकर चर्चा हुई, वार्तालाप हुआ था।नालंदा में होने के कारण इस अध्ययन का नामकरण *नालंदीय* रखा गया है।
🙏सूत्रकृतांग आगम में स्वसमय और परसमय के विषय में अनेक चर्चाएं हैं।इसमें साधुओं के आचार और अनाचार के विषय में ऊहापोह है। *प्रस्तुत अध्ययन में श्रावक-विधि, श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है।* इससे पूर्व के अध्ययन में अन्यतीर्थिकों के साथ हुए वाद-प्रतिवाद का संकलन था।प्रस्तुत अध्ययन में अपनी ही परम्परा(पंचयाम/चातुर्याम) का ऊहापोह है।
*🙏इस अध्ययन में गणधर गौतम और पार्श्व परम्परा के श्रमण उदक के मध्य लम्बे समय तक चर्चा चली।उदक का मन कैसे समाहित होता है और कैसे वह गणघर गौतम के साथ भगवान महावीर के पास आए और वंदना कर पंचयाम धर्म में प्रव्रजित होने की इच्छा व्यक्त करते है, तब भगवान महावीर ने उसे प्रतिक्रमणयुक्त पांच महाव्रतों की दीक्षा दे अपने श्रमण-संघ में सम्मिलित कर लिया।यह सारा वर्णन इस अध्ययन में विस्तार से बताया गया है।*
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*👏संक्षेप में दूसरे आगम सूत्रकृतांग का विवेचन यहाँ सम्पन्न हुआ।*
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*🔸🔸🔸दूसरा आगम 🔸🔸🔸*
*🔹🔹श्रीसूयगडांग सूत्र🔹🔹*
. *(सूयगडो)*
*द्वादशांगी में प्रस्तुत आगम का स्थान दूसरा है।इसे "सूत्रकृतांग सूत्र" के नाम से भी जाना जाता है।*
*☝️प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध है।प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16 अध्ययन है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 7 अध्ययन है।*
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*रचनाकाल और रचनाकार*
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. *रचनाकार*
*पारंपरिक दृष्टि से यह सम्मत है कि द्वादशांगी की रचना गणधरों ने की थी।इसके अनुसार "सूत्रकृतांग" गणधरों की रचना है।किंतु वर्तमान में कोई भी अंगसूत्र अविकल रूप में प्राप्त नहीं है।आज जो भी प्राप्त है वह उत्तरकाल में संकलित है।और संकलनकर्ता के रूप में वर्तमान आगमों के रचनाकार "देवर्धिगणी" हैं।*
. *रचनाकाल*
*प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना सुधर्मा स्वामी की है, अतः इसका रचनाकाल ईस्वी पूर्व पांचवी शताब्दी होना चाहिए।*
*द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना ईसापूर्व दूसरी शताब्दी के आसपास होनी चाहिये।*
☝️सूत्रकृतांग जैन परम्परा में बहुमूल्य आगम रहा है।इसका दार्शनिक मूल्य बहुत है।इसमें भगवान महावीर के समय कि गंभीर चिन्तन अन्तर्निहित है।
➖➖ *प्रथम श्रुतस्कन्ध* ➖➖
*1.समय अध्ययन* इसमें स्वसमय(जैन मत) और परसमय(जैनेतर मत) का निरूपण है।इस अध्ययन के चार उद्देशक और 88 श्लोक है।
*2.वैतालीय अध्ययन* इसमें सम्बोधि का उपदेश है।भगवान ऋषभ प्रव्रजित हुए और कैवल्य प्राप्त कर विहरण करने लगे।उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत भारतवर्ष (छह खंडों) पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती हुआ।उसने अपने 98 भाईयों से कहा--तुम सब मेरा अनुशासन स्वीकार करो व अपने–अपने राज्य का आधिपत्य छोड़ दो।वे सारे असमंजस में पड़ गए।भरत की बात उन्हें अप्रिय लगी।राज्य का विभाग महाराजा ऋषभ ने किया था, अतः वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे।
. उस समय भगवान ऋषभ अष्टापद पर्वत पर विहार कर रहे थे।वे सारे भाई वहाँ गए।भगवन् को वन्दना कर उन्होंने पूछा--- भगवन् ! भरत हम सबको अपने अधीन करना चाहता है।उसने हम सबको उसका स्वामित्व स्वीकार करने के लिए कहा है।अबआप बताएं हम क्या करें ?आप हमारा मार्गदर्शन करें। *तब भगवान ऋषभ ने दृष्टांत देकर समझाते हुए इस अध्ययन का कथन किया।*
ऋषभ के 98 पुत्रों ने इस अध्ययन को सुनकर जान लिया कि संसार असार है।
*☝️विषयों के विपाक कटु और नि:सार होते हैं।*
*☝️आयुष्य मदोन्मत्त हाथी के कानों की भांति चंचल है।*
*☝️पर्वतीय नदी के वेग के समान यौवन अस्थिर है।*
*👏भगवान् की आज्ञा या मार्गदर्शन ही श्रेयस्कर है यह जानकर 98 ही भाई भगवान के पास प्रव्रजित हो गये।*
प्रस्तुत अध्ययन में तीन उद्देशक और 76 श्लोक है।
*3.उपसर्गपरिज्ञा अध्ययन* प्रस्तुत अध्ययन का नाम "उपसर्गपरिज्ञा" है।जब मुनि अपनी संयम-यात्रा प्रारम्भ करता है तब उसके सम्मुख अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होते हैं।उन उपसर्गों को समतापूर्वक सहने की क्षमता वाला मुनि अपने लक्ष्य को पा लेता है।अनुकूल उपसर्ग मानसिक विकृति पैदा करते है और प्रतिकूल उपसर्ग शरीर-विकार के कारण बनते हैं।अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म होते है और प्रतिकूल उपसर्ग स्थूल होते हैं।।इस अध्ययन के चार उद्देशक और 82 श्लोक है।
*4.स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन* इसमें स्त्री दोष का वर्जन--ब्रह्मचर्य साधना का उपदेश है।इसके दो उद्देशक और 53 श्लोक है।
स्त्री का विपक्ष है पुरुष।साध्वी के लिए प्रस्तुत अध्ययन को "पुरुषपरिज्ञा" के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।दस प्रकार के पुरुषों का वर्णन आता है।
*स्त्री-परवशता से...*
*☝️अभयकुमार बुद्धिबल के धनी थे पर उनका बुद्धिबल पराजित हो गया।*
*☝️चंडप्रद्योत शरीरबल के धनी थे पर उनका शरीर बल पराजित हो गया।*
*☝️कूलबाल तपोबल के धनी थे पर उनका तपोबल भी स्त्री परवशता से उन्हें मुनि मार्ग से च्युत होने से नहीं बचा सका।*
इस तरह इस अध्ययन में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध है।इनसे कामवासना के परिणाम जानकर उनसे विरत होने की प्रसल प्रेरणा जागृत होती है।
*5.नरकविभक्ति अध्ययन* इसमें उपसर्गभीरु और स्त्रीवशर्ती मुनि का नरक में उपपात का वर्णन है।यह अध्ययन 18 पापों के आचरण प्रति विरक्ति पैदा करता है।प्रस्तुत अध्ययन में दो उद्देशक और 52 श्लोक है।
*6.महावीरतुती अध्ययन* इसमें भगवान महावीर ने जैसे उपसर्ग और परिसह पर विजय प्राप्त की,वैसी ही उन पर विजय पाने का उपदेश है।इह अध्ययन में उद्देशक नहीं है।इसमें 26 श्लोक है।
*7.कुशीलपरिभाषित अध्ययन* इस अध्ययन में कुशील का परित्याग और शील का समाचरण का बताया है।प्रस्तुत अध्ययन के चौथे श्लोक में कर्मवाद से सम्बंधित चार प्रश्न पुछे गये हैं...
*☝️क्या किये गए कर्मों का फल उसी जन्म में मिल जाता है?*
*☝️क्या किए गए कर्मोंका फल दूसरे जन्म में मिलता है?*
*☝️क्या उस कर्म का तीव्र विपाक एक ही जन्म में मिल जाता है?*
*☝️जिस अशुभ प्रवृत्ति के आचरण से वह कर्म बांधा गया है, क्या उसी प्रकार से उदीर्ण होकर फल देता है या दूसरे प्रकार से?*
*👏चुर्णिकार और वृत्तिकार ने इनका विस्तार से समाधान इस अध्ययन में प्रस्तुत किया है।*
इस अध्ययन में 30 श्लोक है।
*8.वीर्य अध्ययन* इसमें वीर्य का बोध और पंडितवीर्य के प्रयत्न का बताया है।प्रस्तुत अध्ययन में 27 श्लोक है।
*9.धर्म अध्ययन* इस अध्ययन में यथार्थ धर्म का निर्देश है।
*☝️इसमें श्रमण के मूलगुण और उत्तरगुणों की विशद चर्चा है।*
*☝️इसमें धर्म क्या है और
उसकी प्राप्ति के क्या-क्या उपाय है?*
*☝️इसमें लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म की क्या व्याख्या है?*
☝️विभिन्न लोग धर्म की विभिन्न परिभाषाएं करते हैं।उनमें कौन सी परिभाषा धर्म की कसौटी पर खरी उतरती है--आदि प्रश्नों का 36 श्लोकों में समुचित समाधान दिया गया है।
*10.समाधि अध्ययन* इस अध्ययन में समाधि का प्रतिपादन है।समाधि के मुख्य चार भेद है..
1.द्रव्य समाधि 2.क्षेत्र समाधि 3.काल समाधि
*4.भाव समाधि* भाव समाधि चार तरह की होती है.. ज्ञान समाधि, दर्शन समाधि, चारित्र समाधि और तप:समाधि। दशवैकालिक सूत्र में विनय,श्रुत,तप: और आचार समाधि का वर्णन है।इस अध्ययन में 24 श्लोक हैजिनमें समाधि के लक्षण और असमाधि के स्वरूप का वर्णन है।
*11.मार्गअध्ययन* इसमें मोक्षमार्ग का निर्देश है।भगवान महावीर ने अपनी साधना-पद्धति को "मार्ग'" नाम से अभिहित किया है जो क्रमशः निम्न प्रकार से प्राप्त होता है...
*मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तमजाति, उत्तमकुल, सुरूपता,स्वास्थ्य, दीर्घ-आयुष्य, सद्बुद्धि, धर्मश्रुति, धारणा, श्रद्धा और चारित्र।*
इस अध्ययन में चार बातें दुर्लभ बताई है...
*मनुष्यभव, धर्मश्रुति, श्रद्धा और धर्माचरण।*
*☝️अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता।*
*☝️अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से देशविरति प्राप्त नहीं होती।*
*☝️प्रत्याख्यान कषाय के उदय से चारित्र लाभ नहीं होता।*
*☝️संज्वलन कषाय के उदय से यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती।*
इस अध्ययन में 38 श्लोक है।
*12.समवसरण अध्ययन* समवसरण का अर्थ है--वाद-संगम। जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं।इस अध्ययन में क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद इन चार वादों की कुछेक मान्यताओं की समालोचना कर,यथार्थ का निश्चय किया गया है।इसलिए इसे समवसरण अध्ययन कहा गया है।इस अध्ययन में 22 श्लोक है।
*13.याथातथ्य अध्ययन* इसमें यथार्थ का प्रतिपादन है। इसमें 23 श्लोक है।
*14.ग्रन्थ अध्ययन* इसमें गुरुकुलवास का महत्व बताया है।इसमें 27 श्लोक है।
*15.यमकीय अध्ययन* इसमें आदानीय-चारित्र का प्रतिपादन है। इसमें 25 श्लोक है।
*16.गाथा अध्ययन* इसमें पूर्वोक्त विषय का संक्षेप में संकलन है।निर्ग्रन्थ आदि की परिभाषा बतलाई है। इस अन्तिम अध्ययन में 6 सूत्र है।
. *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*🔹🔹इगतीसवां अध्ययन🔹🔹*
*🙏🙏 चरण–विधि 🙏🙏*
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. *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*🔹🔹इगतीसवां अध्ययन🔹🔹*
*🙏🙏 चरण–विधि 🙏🙏*
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1️⃣8️⃣
*🙏 अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।*
*अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य*
➖➖➖➖➖➖➖➖
*औदारिक काम-भोगों का–*
(मनुष्य, तिर्यंच सम्बन्धी)
*(1)* मन से सेवन न करे,
*(2)* मन से सेवन न कराए और
*(3)* सेवन करनेवाले का मन से अनुमोदन भी न करें।
*(4)* वचन से सेवन न करे,
*(5)* वचन से सेवन न कराए और
*(6)* सेवन करनेवाले का वचन से अनुमोदन भी न करे।
*(7)* काया से सेवन न करे,
*(8)* काया से सेवन न कराए और
*(9)* काया से सेवन करनेवाले का अनुमोदन भी न करे।
➖➖➖➖➖➖➖➖
*दिव्य काम-भोगों का–*
( देव सम्बन्धी )
*(10)* मन से सेवन न करें,
*(11)* मन से सेवन न कराए और
*(12)* सेवन करनेवाले का मन से अनुमोदन भी न करे।
*(13)* वचन से सेवन न करे,
*(14)* वचन से सेवन न कराए और
*(15)* सेवन करनेवाले का वचन से अनुमोदन भी न करे।
*(16)* काया से सेवन न करे,
*(17)* काया से सेवन न कराए और
*(18)* सेवन करनेवाले का काया से अनुमोदन भी न करे।
*🙏अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य से विरत होना और अठारह प्रकार के संयम में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है।*
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1️⃣9️⃣
*ज्ञाताधर्मकथा के 19 अध्ययन*
*🙏ज्ञातासूत्र के 19 अध्ययनों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।*
*1. उत्क्षिप्त-ज्ञाता,*
(मेघकुमार का जीवन)
*2. संघाट 3. अण्ड, 4. कूर्म, 5. शैलक,*
*6. तुम्ब, 7. रोहिणी, 8. मल्ली, 9. माकन्दी*
*10. चन्द्रिका, 11. दावद्रव, 12. उदत्त-ज्ञात*
*13. मंडूक, 14. तेत्तली, 15. नन्दी-फल,*
*16. अवरकंका, 17. आकीर्ण, 18. सुंसमा,*
*19. पुण्डरीक-ज्ञात।*
*🙏उपरोक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार संयम-साधना में प्रवृत्त होना तथा इनसे विपरीत असंयम से निवृत्त होना साधुवर्ग के लिए आवश्यक है।*
*☝️इन 19 उदाहरणों के बारे में विस्तार से "समवाओ" के अध्ययन में जानेंगे।*
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2️⃣0️⃣
*बीस असमाधिस्थान*
*🙏बीस प्रकार के असमाधिस्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।*
*☝️बीस असमाधिस्थान इस प्रकार है–*
*1.* धम-धम करते चलना,
*2.* प्रमार्जन किए बिना चलना,
*3.* अविधि से प्रमार्जन कर चलना,
*4.* प्रमाण से अधिक शय्या, आसन आदि रखना,
*5.* रत्नाधिक साधुओं का पराभव–तिरस्कार करना, उनके सामने मर्यादा-रहित बोलना,
*6.* स्थविरों का उपघात(अवहेलना) करना,
*7.* प्राणियों का उपघात करना,
*8.* प्रतिक्षण (बार-बार) क्रोध करना,
*9.* अत्यंत क्रोध करना, (लम्बे समय तक क्रोध युक्त रहना)
*10.* परोक्ष में अवर्णवाद (निन्दा-चुगली) बोलना,
*11.* बार-बार निश्चयकारी भाषा बोलना,
*12.* अनुत्पन्न नए-नए कलहों को उत्पन्न करना,
*13.* अपशमित और क्षमित पुराने कलहों की उदीरणा करना,
*14.* सरजस्क हाथ-पैरों का व्यापार करना,
(सरजस्क पाणि-भिक्षाग्रहण)
*15.* अकाल में स्वाध्याय करना,
*16.* कलह करना,(आक्रोशादि रूप कलह करना)
*17.* रात्रि में जोर से बोलना,
*18.* खटपट करना,
(संघविघटनकारी वचन बोलना)
*19.* सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार-बार भोजन करना,
*20.* एषणा-समिति रहित होना।
*असमाधि–* जिस कार्य के करने से चित्त में अशान्ति एवं अप्रशस्त भावना उत्पन्न हो, रत्नत्रयी से आत्मा भ्रष्ट हो।
*समाधि–* जिस सुकार्य के करने से चित्त में शान्ति, स्वस्थता और मोक्षमार्ग में अवस्थिति रहे।
*🙏प्रस्तुत में असमाधि से निवृत्त होना और समाधि में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है।*
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*🙏आज से मेरे कुछ दिन अन्य स्वाध्याय में व्यस्तता रहेगी अतः दिनांक 25-11-2020 से स्वाध्याय का क्रम पुन: प्रारम्भ कर सकेंगे। आप सबको हो रही असुविधा एवं स्वाध्याय में खलल के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।*
. 🙏
*सुरेश चन्द्र बोरदिया भीलवाड़ा*
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2️⃣3️⃣
🙏सूत्रकृतांगसूत्र के 23 अध्ययनों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।
*1.* समय *2.* वैतालिक
*3.* उपसर्ग-परिज्ञा *4.* स्त्री-परिज्ञा
*5.* नरक-विभक्ति *6.* महावीर-स्तुति
*7.* कुशील-परिभाषित *8.* वीर्य
*9.* धर्म *10.* समाधि
*11.* मार्ग *12.* समवसरण
*13.* यथातथ्य *14.* ग्रन्थ
*15.* यमकीय *16.* गाथा
*17.* पौंडरीक *18.* क्रियास्थान
*19.* आहार-परिज्ञा *20.* अप्रत्याख्यानक्रिया
*21.* अनगार-श्रुत *22.* आद्रकीय और
*23.* नालंदीय।
☝️इन 23 अध्ययनों के भावानुसार संयमी जीवन में प्रवृत्त होना और असंयम से निवृत्त होना साधुवर्ग के लिए आवश्यक है।
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2️⃣4️⃣
*🙏जो भिक्षु चौबीस प्रकार के देवों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।*
*24 प्रकार के देव–(प्रथम व्याख्यानुसार)*
( आचारचूला के अनुसार )
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*10 प्रकार के भवनपति देव*
*8 प्रकार के व्यन्तरदेव*
*5 प्रकार के ज्योतिष्कदेव*
*1 प्रकार वैमानिक देव*
( समस्त प्रकार के वैमानिक देवों को सामान्य रूप से एक ही प्रकार में गिना है )
*24 प्रकार के देव–(दूसरी व्याख्यानुसार)*
( समवायांग के अनुसार )
➖➖➖➖➖➖➖➖
*1.* ऋषभ, *9.* सुविधि, *17.* कुन्थु,
*2.* अजित, *10.* शीतल, *18.* अर,
*3.* शम्भव, *11.* श्रेयांस, *19.* मल्लि,
*4.* अभिनन्दन, *12.* वासुपूज्य, *20.* मुनिसुव्रत,
*5.* सुमति, *13.* विमल, *21.* नमि,
*6.* पद्मप्रभु, *14.* अनन्त, *22.* नेमि,
*7.* सुपार्श्व, *15.* धर्म, *23.* पार्श्व,
*8.* चन्द्रप्रभु, *16.* शान्ति, *24.* वर्धमान।
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2️⃣5️⃣
*पांच महाव्रतों की 25 भावनाएँ*
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*प्रथम अहिंसा महाव्रत की 5 भावनाएँ–*
*1.* ईर्या-समिति,
*2.* आलोकित पानभोजन,
*3.* आदान-निक्षेपसमिति,
*4.* मनोगुप्ति और
*5.* वचनगुप्ति।
*द्वितीय सत्य महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*6.* विचार पूर्वक बोलना,
*7.* क्रोध का प्रत्याख्यान,
*8.* लोभ का प्रत्याख्यान,
*9.* भय का प्रत्याख्यान और
*10.* हास्य का त्याग।
*तृतीय अचौर्य महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*11.* अवग्रहानुज्ञापना,
*12.* अवग्रहसीमा परिज्ञान,
*13.* स्वयं ही अवग्रह की अनुग्रहणता,
*14.* साधर्मिकों के अवग्रह की याचना तथा परिभोग और
*15.* साधारण भोजन का आचार्य आदि को बता कर परिभोग करना।
*चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*16.* स्त्रियों में कथा का वर्जन,
*17.* स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के अवलोकन का वर्जन,
*18.* अतिमात्र एवं प्रणित पान-भोजन का वर्जन,
*19.* पूर्वभुक्तभोग-स्मृति का वर्जन और
*20.* स्त्री आदि से संसक्त शयनासन का वर्जन।
*पंचम अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*21.* श्रोत्रेन्द्रिय
*22.* चक्षुइन्द्रिय
*23.* घ्राणेन्द्रिय
*24.* रसनेन्द्रिय
*25.* स्पर्शनेन्द्रिय
☝️इन पांच इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस,गंध और स्पर्श के इन्द्रियगोचर होने पर मनोज्ञ पर रागभाव और अमनोज्ञ पर द्वेषभाव न रखना।
*🙏पांच महाव्रतों की उपरोक्त 25 भावनाओं द्वारा रक्षा करना तथा संयमविरोधी भावनाओं से निवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है।*
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2️⃣6️⃣
*दशाश्रुतस्कन्ध के 10 उद्देशों,*
*वृहत्कल्प के 6 उद्देशों और*
*व्यवहारसूत्र के 10 उद्देशों*
*इन तीन सूत्रों में साधु-जीवन सम्बन्धी आचार, आत्मशुद्धि एवं शुद्ध व्यवहार की चर्चा है।*
*🙏साधु को इन 26 उद्देशों के अनुसार अपना आचार, व्यवहार एवं आत्मशुद्धि का आचरण करना चाहिए।*
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*🙏आगे की पोस्ट में हम जानेंगे साधु के 2️⃣7️⃣ गुणों के बारे में।*
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3️⃣0️⃣
*महामोहनीय(मोह)के 30 स्थान*
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*🙏महामोहनीय कर्म के कारणों में (मोह-स्थानों में) जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।*
*☝️मोहकर्म के परमाणु व्यक्ति को मूढ़ बनाते हैं। उनका संग्रह व्यक्ति अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करता है। महामोह उत्पन्न करनेवाली तीस प्रवृत्तियां इस प्रकार है–*
*1.* त्रसजीवों को पानी में डूबो कर मारना।
*2.* त्रसजीवों को सिर पर गीला चर्म आदि बांधकर मारना।
*3.* हाथ आदि से मुख आदि अंगों को बंद कर प्राणी को मारना।
*4.* मण्डप आदि में मनुष्यों को घेर, वहाँ अग्नि जला, धुंए की घुटन से उन्हें मारना।
*5.* त्रसजीवों को मस्तक पर डंडे आदि के घातक प्रहार से मारना।
*6.* विश्वासघात कर मारना।
*7.* अनाचार को छिपाना, माया को माया से पराजित करना, की हुई प्रतिज्ञाओं को अस्वीकार करना।
*8.* अपने द्वारा कृत हत्या आदि महादोष का दूसरे पर आरोप लगाना।
*9.* यथार्थ(सत्य) को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र-भाषा(सत्य जैसा झूठ) बोलना– सत्यांश की ओट में बड़े झूठ को छिपाने का यत्न करना और कलह करते ही रहना।
*10.* अपने अधिकारी या राजा को अधिकार और भोगसामग्री से वंचित करना।
*11.* बाल-ब्रह्मचारी न होते हुए भी अपने आप को बाल-ब्रह्मचारी कहना।
*12.* अब्रह्मचारी होते हुए भी ब्रह्मचारी होने का ढोंग रचना।
*13.* आश्रयदाता का धन हड़पना–चुराना।
*14.* कृत उपकार को न मान कर कृतघ्नता करना, उपकारी के भोगों का विच्छेद करना।
*15.* पोषण देने वाले व्यक्ति, सेनापति और प्रशास्ता आदि को मार डालना।
*16.* राष्ट्र-नायक, निगम-नायक(व्यापारी-प्रमुख), सुप्रसिद्ध सेठ को मार डालना।
*17.* जनता एवं समाज के आधारभूत विशिष्ट परोपकारी पुरुष की हत्या करना।
*18.* संयम के लिए तत्पर मुमुक्षु और संयमी साधु को संयम से विमुख करना।
*19.* अनन्तज्ञानी का अवर्णवाद बोलना–सर्वज्ञता के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करना।
*20.* अहिंसादि मोक्ष-मार्ग की निन्दा कर जनता को उससे विमुख करना।
*21.* जिन आचार्य और उपाध्याय से शिक्षा प्राप्त की हो, उन्हीं की निन्दा करना।
*22.* आचार्य और उपाध्याय की सेवा और पूजा न करना।
*23.* बहुश्रुत न होते हुए भी स्वयं को *बहुश्रुत*(पण्डित) कहलाना।
*24.* तपस्वी न होते हुए भी अपने आप को तपस्वी कहना।
*25.* शक्ति होते हुए भी *ग्लान साधर्मिक*(रोगी, वृद्ध, अशक्त आदि) की सेवा न करना।
ग्लान साधर्मिक की "उसने मेरी सेवा नहीं की थी" इस कलुषित भावना से सेवा नहीं करना।
*26.* ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विनाश करनेवाली कथाओं का बार-बार प्रयोग करना।
*27.* अपने मित्र आदि के लिए बार-बार निमित्त, वशीकरण आदि का प्रयोग करना।
*28.* ऐहिक-पारलौकिक भोगों की लोगों के सामने निन्दा करके छिपे-छिपे उनका सेवन करते जाना, उनमें अति आसक्त रहना।
*29.* देवताओं की ऋद्धि, द्युति, यश, बल और वीर्य का मखौल करना।
*30.* देव-दर्शन न होने पर भी मुझे देव-दर्शन होता है–ऐसा झूठमूठ कहना।
*🙏 साधु को इन 30 महामोहनीय कारणों से सदैव अपनी आत्मा को बचाना चाहिए।*
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🙏भगवान् सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन गए और *भगवान् हीरोइन को प्राप्त हो गए।*
☝️उपरोक्त कथन में *हीरोइन* शब्द के तात्पर्य को निम्न प्रकार समझा जा सकता है–
*🙏सर्वप्रथम हम समझें🙏*
*केवली के योगनिरोध के क्रम को*
🙏☝️🙏☝️🙏☝️🙏☝️🙏
जीव केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् आयुष्य कर्म अनुसार शेष आयु को भोगता हुआ जब अन्तर्मुहूर्त(एक मिनट से कम समय) परिमित आयु शेष रहती है, तब अनगार योगनिरोध में प्रवृत्त होता है। उस समय वह शुक्लध्यान को ध्याता हुआ...
🙏 सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करता है।
🙏तत्पश्चात वचनयोग का निरोध करता है।
🙏उसके पश्चात् काययोग का निरोध करते-करते आनापान (श्वासोच्छवास) का निरोध कर लेता है।
🙏योगों का निरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है।इसे *अयोगीकेवलीगुणस्थान* (14वां गुणस्थान) कहते हैं। इस अवस्था का कालमान मध्यम गति से पांच लघु अक्षरों ( अ, इ, उ, ऋ,लृ ) का उच्चारण करने जितना रहता है।
🙏इस बीच शुक्लध्यान का चतुर्थपाद होता है जिसके प्रभाव से *चार अघाती कर्म*( वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र ) सर्वथा क्षीण हो जाते हैं। उसी समय आत्मा औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर छोड़कर देहमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है।
*🙏 अब हम समझें 🙏*
*मोक्ष की ओर जीव की गति को*
🙏 🙏 🙏 🙏 🙏 🙏🙏 🙏
🙏देहमुक्त आत्मा ऋजुश्रेणी को प्राप्त कर एक समय में *उर्ध्वगति*(अस्पृशद्गतिरूप) से बिना मोड़ लिए सीधे लोकाग्र में जाकर साकारज्ञानोपयोगी अवस्था में..
*🙏 सिद्ध होता है,*
*🙏बुद्ध होता है,*
*🙏 मुक्त होता है,*
*🙏परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और*
*🙏समस्त दु:खों का अन्त कर देता है।*
☝️मेरी समझ से परिनिर्वाण को प्राप्त होना और समस्त दु:खों का अन्त कर देना ही *हीरोइन* को प्राप्त होना है।
( इस प्रस्तुति में संशोधन सावकाश है )
*प्रस्तुति–सुरेश चन्द्र बोरदिया भीलवाड़ा*
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*🙏मंगलं भगवान् वीरो,🙏*
*🙏मंगलं गौतमो गणी।🙏*
*🙏मंगलं स्थुलिभद्राद्या,🙏*
*🙏जैन धर्मोस्तु मंगलं।।🙏*
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*☝️यह पंक्तियां हम सालों से सुनते आ रहे हैं। इन पंक्तियों में चार प्रकार के मंगल बताए हैं...*
*1️⃣प्रथम में भगवान् महावीर को मंगल बताया है जो हम सभी जानते ही हैं,*
*2️⃣ दूसरा मंगल गौतम गणधर को बताया है, जिनके बारे में हम आज जानेंगे,*
*3️⃣ तीसरा मंगल स्थूलिभद्र स्वामी को बताया है जिसका कारण हमने पहले जाना था,*
*4️⃣ और चौथा मंगल जैन धर्म को बताया है।*
*🙏आज हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि गौतम स्वामी को मंगल रूप क्यों माना गया है।*
*❓प्रश्न हो सकता है कि गौतम स्वामी से पहले गौशालक प्रभु के पास आया था, प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया था। गौतम स्वामी तो तब आए जब प्रभु केवली बन गए थे, परन्तु गौशालक तो प्रभु के साधनाकाल में प्रभु के साथ रहा और उसने भी प्रभु के साथ रहते हुए कष्टों का अनुभव किया तथापि गोशालक को मंगल रूप न मानकर हम इन्द्रभूति गौतम को मंगल रूप कैसे मानते हैं ?*
*✅ तो इसका समाधान यह हैं कि गोशालक प्रभु के साथ अवश्य रहा लेकिन वह मात्र अपने स्वार्थ वश ही रहा। उसके ह्रदय में प्रभु के प्रति कोई भक्ति अथवा आदरभाव नहीं था। वह आराधक न बन कर विराधक ही बना।*
*🙏इसके विपरीत गौतम स्वामी...*
*☝️ विनय एवं समता की प्रतिमूर्ति थे।*
*☝️ तप के आराधक थे,*
*☝️ जिज्ञासु प्रवृत्ति के होने के साथ साथ*
*☝️उनके ह्रदय में प्रभु के प्रति असीम भक्ति थी।*
*☝️ इन्द्रभूति गौतम उच्चतम कोटि के आराधक थे।*
*🙏अतः गणधर गौतम द्वितीय मंगल रूप है।*
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*🙏आगे की पोस्ट में हम जानेंगे–*
सिद्धों के 3️⃣1️⃣ *आदि गुणों* के बारे में,
( मुक्त होने के प्रथम क्षण में होने वाले गुण)
3️⃣2️⃣ *योग-संग्रहो*ं के बारे में और
(समाधि के कारणभूत–समाधि के वाचक)
3️⃣3️⃣ *आशातनाओ*ं के बारे में।
(जो सम्यग्दर्शन आदि का नाश करती है)
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. *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*
*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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*🔹🔹इगतीसवां अध्ययन🔹🔹*
*🙏🙏 चरण–विधि 🙏🙏*
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2️⃣3️⃣
🙏सूत्रकृतांगसूत्र के 23 अध्ययनों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।
*1.* समय *2.* वैतालिक
*3.* उपसर्ग-परिज्ञा *4.* स्त्री-परिज्ञा
*5.* नरक-विभक्ति *6.* महावीर-स्तुति
*7.* कुशील-परिभाषित *8.* वीर्य
*9.* धर्म *10.* समाधि
*11.* मार्ग *12.* समवसरण
*13.* यथातथ्य *14.* ग्रन्थ
*15.* यमकीय *16.* गाथा
*17.* पौंडरीक *18.* क्रियास्थान
*19.* आहार-परिज्ञा *20.* अप्रत्याख्यानक्रिया
*21.* अनगार-श्रुत *22.* आद्रकीय और
*23.* नालंदीय।
☝️इन 23 अध्ययनों के भावानुसार संयमी जीवन में प्रवृत्त होना और असंयम से निवृत्त होना साधुवर्ग के लिए आवश्यक है।
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2️⃣4️⃣
*🙏जो भिक्षु चौबीस प्रकार के देवों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।*
*24 प्रकार के देव–(प्रथम व्याख्यानुसार)*
( आचारचूला के अनुसार )
➖➖➖➖➖➖➖➖
*10 प्रकार के भवनपति देव*
*8 प्रकार के व्यन्तरदेव*
*5 प्रकार के ज्योतिष्कदेव*
*1 प्रकार वैमानिक देव*
( समस्त प्रकार के वैमानिक देवों को सामान्य रूप से एक ही प्रकार में गिना है )
*24 प्रकार के देव–(दूसरी व्याख्यानुसार)*
( समवायांग के अनुसार )
➖➖➖➖➖➖➖➖
*1.* ऋषभ, *9.* सुविधि, *17.* कुन्थु,
*2.* अजित, *10.* शीतल, *18.* अर,
*3.* शम्भव, *11.* अभिनन्दन, *19.* मल्लि,
*4.* अभिनन्दन, *12.* वासुपूज्य, *20.* मुनिसुव्रत,
*5.* सुमति, *13.* विमल, *21.* नमि,
*6.* पद्मप्रभु, *14.* अनन्त, *22.* नेमि,
*7.* सुपार्श्व, *15.* धर्म, *23.* पार्श्व,
*8.* चन्द्रप्रभु, *16.* शान्ति, *24.* वर्धमान।
🚥➖🚥➖🚥➖🚥➖🚥➖🚥
2️⃣5️⃣
*पांच महाव्रतों की 25 भावनाएँ*
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
*प्रथम अहिंसा महाव्रत की 5 भावनाएँ–*
*1.* ईर्या-समिति,
*2.* आलोकित पानभोजन,
*3.* आदान-निक्षेपसमिति,
*4.* मनोगुप्ति और
*5.* वचनगुप्ति।
*द्वितीय सत्य महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*6.* विचार पूर्वक बोलना,
*7.* क्रोध का प्रत्याख्यान,
*8.* लोभ का प्रत्याख्यान,
*9.* भय का प्रत्याख्यान और
*10.* हास्य का त्याग।
*तृतीय अचौर्य महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*11.* अवग्रहानुज्ञापना,
*12.* अवग्रहसीमा परिज्ञान,
*13.* स्वयं ही अवग्रह की अनुग्रहणता,
*14.* साधर्मिकों के अवग्रह की याचना तथा परिभोग और
*15.* साधारण भोजन का आचार्य आदि को बता कर परिभोग करना।
*चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*16.* स्त्रियों में कथा का वर्जन,
*17.* स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के अवलोकन का वर्जन,
*18.* अतिमात्र एवं प्रणित पान-भोजन का वर्जन,
*19.* पूर्वभुक्तभोग-स्मृति का वर्जन और
*20.* स्त्री आदि से संसक्त शयनासन का वर्जन।
*पंचम अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ–*
*21.* श्रोत्रेन्द्रिय
*22.* चक्षुइन्द्रिय
*23.* घ्राणेन्द्रिय
*24.* रसनेन्द्रिय
*25.* स्पर्शनेन्द्रिय
☝️इन पांच इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस,गंध और स्पर्श के इन्द्रियगोचर होने पर मनोज्ञ पर रागभाव और अमनोज्ञ पर द्वेषभाव न रखना।
*🙏पांच महाव्रतों की उपरोक्त 25 भावनाओं द्वारा रक्षा करना तथा संयमविरोधी भावनाओं से निवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है।*
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2️⃣6️⃣
*दशाश्रुतस्कन्ध के 10 उद्देशों,*
*वृहत्कल्प के 6 उद्देशों और*
*व्यवहारसूत्र के 10 उद्देशों*
*इन तीन सूत्रों में साधु-जीवन सम्बन्धी आचार, आत्मशुद्धि एवं शुद्ध व्यवहार की चर्चा है।*
*🙏साधु को इन 26 उद्देशों के अनुसार अपना आचार, व्यवहार एवं आत्मशुद्धि का आचरण करना चाहिए।*
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*🙏आगे की पोस्ट में हम जानेंगे साधु के 2️⃣7️⃣ गुणों के बारे में।*
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. *🙏दीपावली और जैन आगम🙏*
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*🙏जैन आगम मे दीपावली का लक्ष्मी पूजन से कोई सम्वन्ध नही है* ।
*जैनी को रात्रि में किसी तरह की पुजा नहीं करनी चाहिए। यदि घर,आफिस,दुकान आदि पर दिन मे भी पुजा करें तो जैन संस्कार विधि से करें। हो सके तो हमें भाव पुजा ही करना चाहिए*।
. *आज धनतेरस है।*
( आज रात्रि 9-30 से धनतेरस प्रारम्भ है )
*यह*(धनतेरस) *धन की वर्षा का दिन नही है। अपितु धन्य हो गयी तेरस कि आज भगवान योग निवृति मे चले गए, इसीलिए इसका नाम धन्य तेरस*(धनतेरस) *पड़ा। आज ही के दिन भगवान् ने अनशन (संथारा) ग्रहण किया था। भगवान् के अनशन को ध्यान में रखते हुए कईं भाई-बहिन आज का उपवास रखते हुए दीपावली तक अट्ठम तप (तेला) करते हैं। जिनके अट्ठम तप नहीं हो सकता वे दीपावली के दिन उपवास रखते हैं।*
*🙏दीपावली पर मोक्ष-लक्ष्मी की भावना भानी चाहिए। हमे जो लक्ष्मी* (धन सम्पतिआदि) *प्राप्त होती है वह हमारे लाभ अन्तराय कर्म के क्षयोपसम से व हमारे साता वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होती है, ना कि लक्ष्मी की पुजा करने से।*
*☝️लक्ष्मी* (धन-सम्पति आदि) *यदि पुजा से मिलती है तो पुरा देश पुजा करता है सभी लक्ष्मी पति अर्थात पैसे वाले बन जाने चाहिए पर ऐसा होता नहीं है। अतः मिथ्यात्व को ना पाले और भ्रमित (बावले ) ना हो।*
*सुरेश चन्द्र बोरदिया भीलवाड़ा*
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