कथा श्रेणिक राजा श्रृंखला

सम्राट श्रेणिक


अनादिकाल से समय समय पर धर्म की पुनः स्थापना कर हम संसारी जीवो को मोक्षमार्ग के पथ-प्रदर्शन करनेवाले हमारे उपकारी तीर्थंकर भगवंतों को हमारा सदाकाल वन्दन हो।

शकेन्द्र भी नमोत्थुणं द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं , जिनकी भक्ति से हम भी मुक्ति-लक्ष्मी प्राप्त कर सकते हैं, जिनकी आराधना के उत्कृष्ट भाव आये तो हम भी उसी परम पद को प्राप्त कर सकते हैं, उन जिनेश्वर भगवंतों का गुणगान शब्दों में मर्यादित नही हो सकता।


एक ऐसे ही इस भरतक्षेत्र के आगामी  चौबीसी के होनेवाले प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ स्वामी को पंचांग भाव से हम सब नमन करें।


पद्मनाभ स्वामी का पूर्वभव यानी मगध सम्राट श्रेणिकराजा। जिनका जीवन आलेखन एक  किताब में समा नही सकता। उनका जीवन कई उतार-चढ़ाव  से भरपूर रहा। अन्य मत में दृढ़ मान्यता वाले श्रेणिक से दृढ़ जिनधर्मानुरागी, क्षायिक समकीती, आगामी तीर्थंकर का पद-अर्जन ,  वीरप्रभु के अनन्य भक्त बनने का सफर कई घटनाक्रमों से भरा हुआ है।


जिसमे श्रेणिक के पूर्वभव से बंधे कोणिक से वैर से लगाकर इस जन्म में पिता की परीक्षा, नगर से निकलना, नंदा से मिलन, पुत्र अभयकुमार की मदद से चेलना हरण, अनाथी मुनि द्वारा बोध, फिर भगवान महावीर के अनन्य भक्त, दृढ़ जिनधर्मानुरागी बनना,  पुत्र द्वारा कारावास औऱ अंत मे स्वयं मृत्यु के गले लगाना आदि कई रोचक घटनाक्रम समाविष्ट है। 


कल से हम इन्हीं श्रेणिकराजा के जीवन के कुछ घटनाक्रमों को जानने का प्रयास करेंगे।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 1


वीर प्रभु के जन्म के आसपास समय  का यह घटनाक्रम है। उस समय  जम्बूद्वीप के इस  भरतक्षेत्र के  दक्षिण  में स्थित आर्यखण्ड के एक विशाल , समृद्ध, वैभवी, सु-राज्य हुआ करता था - मगध । भारतवर्ष का एक अग्रगण्य राज्य था मगध । संपन्न, बुद्धिशील, गुणानुरागी प्रजा व ऐसे ही राजा। मगध सम्राट थे प्रसेनजीत राजा। प्रसेनजीत राजा राजधानी कुशाग्रपुर में रहते हुए इस विशाल राज्य की बागडोर सुविधि से संभाल रहे थे। 


प्रसेनजीत राजा की कई रानियां थी , जिसमे पटरानी का स्थान पर रानी धारिणी थी।एक ग्रंथअनुसार राजा प्रसेनजीत प्रभु पार्श्वनाथ की परंपरा का परम अनुयायी था।

प्रसेनजीत राजा को कई पुत्र थे जिसमे धारिणी रानी का अंगजात,  गुणो में शिरमोर  ऐसे श्रेणिक भी था।

श्रेणिक भी सभी कलाओं में प्रवीण, वीरोचित गुणो से युक्त वह युवा-वय में अभी कदम रख रहा था। 

राजा प्रसेनजीत को एकबार खयाल आया : - मैं अब प्रौढ़ावस्था से वृद्धावस्था की ओर गमन कर रहा हूं। अब मुझे इस विशाल राज्य के योग्य उत्तराधिकारी के विषय में सोचना चाहिये , जो इस विशाल संपन्न राज्य का संचालन, संरक्षण उचित तरह से कर सके। मेरे सभी पुत्रो में ऐसा योग्य कौन होगा ? मुझे इन सभी राजकुमारो की परीक्षा करनी चाहिए।

राजा ने परीक्षा की योजना बना ली । प्रथम परीक्षा के लिए एक प्रसंग का आयोजन किया। जिसमे सभी राजकुमारो को भोजन के लिए आमंत्रित किया गया। सभी राजकुमारो को एक साथ भोजन के लिए बैठाया गया। पकवान युक्त भोजन परोसा गया। राजा एक गवाक्ष में बैठे उन सभी का निरीक्षण कर रहे थे।  सब ने भोजन शुरू किया ही था  कि अचानक  कहीं से व्याघ्र के समान भयंकर कुछ भूखे कुत्ते वहां आ लपके। उन कुत्तों ने आते ही राजकुमारो के भोजन पर हमला बोल दिया । श्रेणिक को छोड़कर सभी राजकुमार सहसा आये कुत्तों के आक्रमण से घबराकर डर कर भाग गये। राजकुमार श्रेणिक ने बिना डरे भाइयों के छोड़े भोजन को कुत्तों की ओर सरका दिया। वे कुत्ते उस भोजन को खाने लगे । तब राजकुमार श्रेणिक ने भी बड़ी शांति के साथ अपना भोजन पूर्ण किया।


राजा यह सब देख रहा था, उसने सोचा एक श्रेणिक ही  ऐसा है जो आसपास के शत्रुओं को युक्ति से दूर ही उलझाकर राज्यलक्ष्मी का निर्बाध उपभोग कर सके। बाकी सब अयोग्य है । जो अपने भोजन की ही रक्षा न कर सके वे विशाल राज्य को कैसे संभालेंगे।

राजन खुश तो हुए परन्तु संतुष्ट नही।


उन्होंने अगली परीक्षा की तैयारी शुरू की।


एक बार फिर सभी को भोजन के लिए आमंत्रित किया गया। सभी राजकुमारो को भोजन के लिए बैठाया गया। उन सभी के सामने लड्डुओं से भरा एक - एक करंडिया रखवाया गया जो ऊपर से बंद था। एक पानी भरा नया मिट्टी का मटका रखा गया। जिसका मुंह भी बंद किया हुआ था। उन सभी राजकुमारो को निर्देश दिया गया  कि आपको इस करंड़िये व मटके का मुंह खोले बिना भोजन पूरा करना है।

सभी राजकुमार हैरान हो गये। यह कैसा भोजन। बिना करंडग औऱ मटके का मुंह खोले अंदर की सामग्री खाई व पी जाए?

 

क्या होगा आगे?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


#सम्राट_श्रेणिक - 2


सभी राजकुमार हैरान हो गये। यह कैसा भोजन। बिना करंडग (जिसमे आम आदि फल या सब्जियां रक्खी जाती है।)  औऱ मटके का मुंह बिना खोले अंदर की सामग्री कैसे खायी व पी-जाए?

 

एक-एक कर के सभी राजकुमार  मुंह बनाते हुए चले गये। श्रेणिक कुछ सोच रहे थे। उन्हें युक्ति मिल गयी । सबसे पहले मटके के नीचे एक पात्र रख दिया। अब लड्डू के करंडग को जोर-जोर से हिलाने लगे। जोर से हिलाने की वजह से वह सब लड्डू अंदर ही टूट कर चुरा होने लगे। हिलाने से वह चुरा करंडग के छेदों से बाहर आने लगा। श्रेणिक ने उस चूरे को साफ कपड़े में झेल लिया। जब पर्याप्त चुरा बाहर आ गया। तब उसने उस चूरे का शांति से भोजन किया। अब तक मिट्टी के मटके के सतह पर रहे बारीक छिद्रों से रिसते हुए पानी से श्रेणिक ने मटके के नीचे रखवाया पात्र भी पानी से भर गया था। भोजन के बाद वह पानी पीकर श्रेणिक तृप्त हुआ। और शांति से उस कक्ष से बाहर निकल गया। राजा  यह सब देख रहे थे। वे श्रेणिक की युक्ति व उसके इस परीक्षा के प्रदर्शन से अभिभूत हुए। उनकी नजरो में एक संतोष का आनंद था।

उन दिनों कुशाग्रपुर में आग लगने की घटनाएं बढ़ गई थी। पूरे नगर में कहीँ न कहीँ से रोज आग लगने की खबरे आने लगी थी। राजा ने आग को नियंत्रित करने के लिए एक आदेश घोषित करवाया था। जिसके घर उसकी गलती से आग लगेगी उसे यह नगर छोड़ना पड़ेगा। ताकि लोग आगजनी न हो इसके लिए ज्यादा सावधानी बरतें। 

पर एकदिन राजमहल के रसोइये की गलती से राजमहल में ही आग लग गई। आग राजमहल में फैलने लगी। सभी को त्वरित महल छोड़ने की सूचना दी गई। और साथ ही सब राजकुमारो को भी निर्देश दिए गये की राजमहल से उन्हें जो भी वस्तु पसन्द हो वह लेकर निकल जाए। जो वस्तुएं वे आग से बचाकर बाहर ले जाएंगे वे वस्तुएं उस राजकुमार की होगी।

सभी राजकुमार  अपनी इच्छानुसार मूल्यवान वस्तुएं उठाकर महल से निकल गये।


श्रेणिक ने क्या लिया?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।



,#सम्राट_श्रेणिक - 3


आग में जल रहे राजमहल से श्रेणिक ने भंभा लिया । (  भंभा = यानी शायद युद्ध आदि प्रसंगों पर एक आवाज करने का एक वाद्य )

राजा ने पूछा : - श्रेणिक, सबने मूल्यवान वस्तुएं उठाई, तुमने क्यों भंभा ही उठाया ।

तब श्रेणिक ने कहा - पूज्य, सभी मूल्यवान वस्तुये इस भंभा से प्राप्त हो सकती है। यह राजाओं का प्रथम जयघोष होता है। इसका नाद राजाओ के दिग्विजय में मंगलरूप होता है। जहां इसका विजयनाद होता है, वहां सभी मूल्यवान वस्तुये खींची चली आती है। *इसलिए* इस मंगलवाद्य की रक्षा सर्वप्रथम होनी चाहिए ।


प्रसेनजित राजा, श्रेणिक की सूझबूझ, दीर्घदृष्टि व बुद्धिमत्ता से अत्यंत प्रसन्न हुए । (एक परंपरा उस समय श्रेणिक के राज्यमुद्रा, राजा की चामर आदि बचाने का उल्लेख भी करती है।  )   भंभा बजाने के कारण श्रेणिक का दूसरा नाम भँभसार हुआ ।


राजा ने घोषणा करवाई थी कि जिस के घर  गलती से आग लगेगी उसे नगर छोड़ना पड़ेगा। अब जब राजमहल में ही आग लगी तब राजा ने न्यायप्रियता का दृष्टांत देते हुए स्वयं नगर का त्याग किया।  कुशाग्र नगर से एक गाउ दूर पड़ाव डाला। प्रसेनजित राजा को वह स्थान बहुत पसंद आया । उनकी आज्ञा से वहां नगर निर्माण होने लगा। सर्वप्रथम राजा का घर होने की वजह से उसका  नाम राजगृह  पड़ा। 

राजगृह (या राजगृही ) नगरी अतिशय रमणीय, विशाल, सुदृढ बड़े-बड़े आवासों एवं महलों से युक्त बन गई। इसका सुंदर विस्तृत वर्णन आगमो में भी मिलता है। 

 

राजा अब पुनः राज्य के उत्तराधिकारी के विषय मे सोचने लगे। उन्हें श्रेणिक के लिए तसल्ली हो चुकी थी। विशाल मगध साम्राज्य को सुचारू रूप से संभालने के लिए सभी राजकुमारो में एकमात्र श्रेणिक योग्य लगा। परन्तु अब सभी राजकुमारो में राज्य के लिए सजगता आ चुकी थी। सब स्वयं को उत्तराधिकारी मानने लगे थे। राजा ने सोचा यदि में श्रेणिक को उत्तराधिकारी घोषित कर दूंगा तो सब इसके शत्रु बन जाएंगे। श्रेणिक कहीँ राज्यपरिवार के खटपटो का शिकार न बन जाये उसका उपाय ढूंढना होगा।


आगे....


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


#सम्राट_श्रेणिक - 4


प्रसेनजित नरेश ने श्रेणिक को उत्तराधिकारी के रूप में सर्वथा योग्य समझकर अब श्रेणिक को अन्य राजकुमारो की शत्रुता से बचाकर निर्विघ्न रूप से राज्य की बागडौर संभाल सके उसके लिए योजना बनायी और उसके तहत क्रियान्वित हो गये।

उन्होंने श्रेणिक की उपेक्षा कर के छोटे-छोटे प्रदेशो की जागीर अन्य राजकुमारो को देना प्रारंभ कर दिया। वे राजकुमार वहांके राजा बन गये। राजा का उद्देश्य यह था कि फिर बचा मुख्य राज्य तो श्रेणिक को ही देना है।


पर श्रेणिक यह समझ नही पाया। भाइयों को राज्य और खुद की उपेक्षा होती देखकर वह खुद को अपमानित समझने लगा। अब उसे इस राजमहल, इस नगर  में रहना मुश्किल लगा। और एक दिन वह  राज्यभवन , नगर तक को छोड़कर निकल गया।

वन उपवन ग्राम नगर घूमते हुए श्रेणिक एक दिन वेणातट नामक नगर आ पंहुचा। इस नगर में आया तब रात हो चुकी थी। श्रेणिक के पास रहने सोने का कोई स्थान तो था नही , ना ही अब राजगृह से इतने दूर बसे नगर में कोई उसे पहचानने वाला था। श्रेणिक यहां नितांत अजनबी अतिथि था। उसका भेष भी बदल चुका था। महल से कुछ भी लिए बिना निकला श्रेणिक अब तक जैसे तैसे अपना जीवन चला रहा था। वेणातट नगर में आकर वह कल कुछ काम की तलाश करेगा यह सोच रहा था। रात गुजारनेके लिए उसने बाजार की एक बड़ी दुकान का ओटला ( दुकान के आगे की बरामदे जैसी खुली जगह ) देखा और वहीं सो गया।

यह दुकान एक भद्र नामक जैन धर्मानुरागी श्रावक की थी। वह भी उच्च गुण वैभव युक्त गृहस्थ था। सुबह जब वह अपनी दुकान पर आया तब उसकी नजर अपनी बंद दुकान के  ओटले पर सो रहे अजनबी पर पड़ी।

उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी?


आगे... 


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 5


वेणातट नगर का भद्र नामक सेठ  सुबह जब अपनी दुकान पर आया तब उसे अपनी बंद दुकान के  ओटले पर सो रहे अजनबी पर पड़ी। यह अतिथी बाहर से आया है यह समझ आ गया, वह ओटले पर एक कोने में सोया था,  तो भद्र प्रकृति के सेठ ने उसे उठाया नही । वह दुकान खोलकर अपने काम में लग गये। 

थोड़ी देर बाद जब दुकान में चहलपहल बढ़ी तब श्रेणिक स्वतः उठकर बैठ गया। आज नगर में महोत्सव था, तो ग्राहकी बहुत ज्यादा थी । सेठ की नजर बार-बार बाहर बैठे  अजनबी   पर पड़ रही थी। उसे मन ही मन ऐसा लग रहा था , कि प्रभावी मुखमुद्रा का धारक यह अतिथी कोई साधारण मनुष्य नही । हो न हो कोई परम भाग्यशाली है। उसके बैठने से आज आम त्योहार के दिनों से भी ज्यादा बिक्री हो रही है। धीरे-धीरे उसका विश्वास दृढ़ हो गया। कुछ घण्टे तक श्रेणिक कहां जाऊ उस असमंजस में बैठा था। 

थोड़ी अनुकूलता मिली तब  सेठ ने श्रेणिक को भीतर बुलाकर परिचय पूछा। श्रेणिक ने अपना मूल परिचय नही दिया।  सेठ ने भी ज्यादा पूछताछ नही की। श्रेणिक ने सेठ को दुकान में हाथ बटाना शुरू किया। सेठ उसकी स्फूर्ति, उसकी सूझबूझ, उसका स्वभाव देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये। श्रेणिक को पूछकर उसे हमेशा के लिए दुकान में काम पर रख लिया। श्रेणिक को तो यह आवश्यकता थी ही।

दिन बीतने लगे। श्रेणिक अब अनजान नाम से सेठ का अत्यंत मददरूप व विश्वासु मददनीश बन चुका था। श्रेणिक ने अपने व्यवहार से सेठ को अत्यंत संतुष्ट कर दिया था।


उन भद्र सेठ की नंदा नामक अति धार्मिक प्रकृति की, सुंदर व  सुशील कन्या थी। उसकी दैनिक क्रिया में मातापिता की सेवा उपरांत जिनेश्वर प्रभु की भक्ति, तप, साधर्मिक भक्ति आदि अग्र तौर पर समाविष्ट थे। 


 श्रेणिक को सेठ अब भोजन के लिए अपने साथ अपने घर ही ले जाते। कुछ महीनों के बाद जब सेठ को श्रेणिक से इतना विश्वास व इतना लगाव हो गया  कि अपनी तनया नंदा को श्रेणिक के साथ ब्याह का सुझाव दिया।

श्रेणिक ने तब बताया  कि वे अभी तक उसके मूल परिचय से अज्ञात है। अपनी कन्या का ब्याह करते समय पात्र का कुल आदि जानना आवश्यक है। तब सेठ ने कहा  कि मनुष्य की पहचान उसके कुल से नही गुणो से की जाती है। इतने दिनों में तुम्हारे व्यवहार से मैंने तुम्हे अच्छी तरह परख लिया है। मेरी पुत्री के लिए तुम से अधिक योग्य वर कोई नही हो सकता।


इस तरह श्रेणिक व नंदा का विवाह हुआ। दोनो गृहस्थी का सुख भोगने लगे। दिन बीत रहे थे। 


( आगे चलकर यह नंदा श्रेणिकराजा की रानी बनने के बाद कालांतर में वीर प्रभु से बोधित होकर संयम ग्रहण किया। उच्च आराधना कर वे सिद्ध बुद्ध व मुक्त बनी थी। )


इधर राजा प्रसेनजित की उम्र ढल रही थी। एकबार राजा गंभीर रूप से बीमार हुए। उन्हें यह बीमारी अब अंतिम लगी। उन्हें अपने आयुष्य का अंत दिखाई दे रहा था। 

श्रेणिकके गृह छोड़ने के बाद गुप्तचरों द्वारा श्रेणिक की वे पूरी खबर भी रख रहे थे।

अब उन्हें श्रेणिक को बुलाने के लिए योग्य अवसर लगा।

सैनिकों द्वारा वेणातट नगर में श्रेणिक को समाचार भेजकर अतिशीघ्र आने की सूचना दी।


आगे...


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


सवाल : - नंदारानी के संयम ग्रहण तथा मुक्ति का वर्णन किस आगम में है ?


पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 6


कल का जवाब


नंदारानी के संयम ग्रहण तथा मुक्ति का वर्णन आठवें अंगसूत्र अंतगड आगम में है ।


प्रसेनजित राजा की अस्वस्थता के आये सन्देश को सुनकर श्रेणिक तुरन्त राजगृही जाने के लिए तत्पर हो गये। वह जाने से पहले एकबार नंदा से मिला व उसके जाने की सूचना दी। नन्दा उस समय गर्भवती थी। श्रेणिक ने अपना पूरा परिचय जाते समय भी नही दिया। मात्र एक दीवार पर लिखा  कि मैं राजगृही का गोपालक हूं। 


श्रेणिक राजगृही आये। राजा प्रसेनजित जैसे उसी की राह देख रहे थे। सभीके सामने श्रेणिक को राज्य की बागडौर देकर वे मृत्यु को प्राप्त हुए।


श्रेणिक अब राजा बना। उसका मगध के सिँहासन पर राज्याभिषेक किया गया। श्रेणिक एक योग्य शासक बना। उसके शासन में मगध एवं राजगृह सुसंचालित, सुव्यवस्थित, दृढ़ व्यवस्थित, व्यापार , कला धर्म आदि क्षेत्रो में सुविकसित बन गया। सीमाएं बढ़कर औऱ मजबूत हुई। श्रेणिक राजा ने प्रजा को सभी उत्तम व्यवस्थाएं प्रदान की। दिन, महीने, बरसो बीतते गये। श्रेणिक का राज्य समृद्धि , कला, धर्म क्षेत्र में अब अग्रगण्य बन चुका था। प्रजा अब समृद्ध, तात्त्विक, कलाक़े कदरदान , धर्मरूचि युक्त     थी।  श्रेणिक अब एक राजा से सम्राट बन चुका था।


बरसो  बीतते गये। इस दौरान श्रेणिक राजा को नंदारानी को बुलाने या याद करने का मौका नही मिला। या पूर्वभव का कोई कर्म उदय में आया व श्रेणिकराजा नंदा को विस्मृत कर बैठे।  श्रेणिकराजा के कई राजकन्याओं से विवाह हुए। उन्हें यह तक याद नही आया की जब वे वेणातट

से निकले तब पत्नी नंदा गर्भवती थी।


अब नंदा का क्या हुआ?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


आज का सवाल - नंदारानी के पिता का नाम ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 7


कल का जवाब - नंदा रानी के पिता का नाम भद्र सेठ था।


इधर श्रेणिक राजकुमार से राजा औऱ राजा से एक शक्तिशाली सम्राट बन गया औऱ इधर भद्र सेठ की पुत्री नंदा का क्या हुआ यह देखे हम।


श्रेणिक राजा की प्रथम पत्नी नंदा गर्भवती थी। जब पुण्यशाली जीव गर्भ में आता है तब माता को दोहद भी ऐसे पवित्र ही आते है। नंदारानी को गर्भकाल दौरान एक दोहद हुआ । हाथी पर आरूढ़ होकर धूमधाम के साथ भ्रमण करू । तथाअन्य जीवो को अभयदान दु। याचको को दान दु। भद्र सेठ सुभद्र थे । यानी प्रभावशाली । उन्होंने राजा से मिलकर पुत्री का यह दोहद पूर्ण करवाया। कई जीवो को बंधन से मुक्त कर अभयदान दिया। याचको को इच्छित दान दिया। नंदरानी ने स्वस्थ मन से धर्म क्रिया करते हुए शुभभाव में गर्भकाल पूर्ण किया। 

गर्भकाल पूरे होने पर एक तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। सेठ ने उसका नाम दोहद अनुसार अभयकुमार रखा।


अभयकुमार का थोड़ा परिचय ,


जैन इतिहास का एक महान पात्र। तीव्र बुद्धि के लिए आज भी उसे याद किया जाता है। उसे सब बुद्धिनिधान कहते है। आज भी जैन लोग दीपावली के समय अभयकुमार जैसी बुद्धि प्राप्ति की प्रार्थना करते है। उसे सिर्फ बुद्धि निधान कहेंगे तो सर्वथा गलत होगा। उनकी पितृ भक्ति, उनकी क्षमता उनकी राज्यभक्ति अदभुत होते हुए भी सत्ता के लिए अनासक्ति, वीतराग मार्ग पर दृढ़ श्रद्धा , जिनेश्वर प्ररूपित धर्म की प्रभावना के लिए सदा उद्यत, राजकार्य में अति कुशल, प्रजा की सुखाकारी के लिए उनका कर्तृत्व आदि श्रेष्ठ गुणो के भी स्वामी थे। आगे की कथा में हम कुछ घटनाएं देखेंगे।


8 वर्ष का होते- होते अभयकुमार का बुद्धि कौशल्य निखर आया था। पुरुषोचित 72 कला में प्रवीण होने लगा था। प्रकृति से भद्र था, स्वभाव में वीरता झलकती थी। 

एकबार साथ खेलते हुए बच्चों ने उसे पिता न होने का व्यंग्य किया। किसी बच्चे से एकबार कुछ विवाद हुआ तब उसने कहा : - अरे, तू ऊंची आवाज में बात क्यों करता है?  तेरे बाप का तो पता नही ।

यह बात अभयकुमार के हृदय को भेद गई।


 तब वह पिता से मिलने की जिद्द करता रहा। नंदारानी उसे समझाया की यह सुभद्र सेठ ही तुम्हारे पिता समान है । ये ही तुम्हारा पालन-पोषण कर रहे है।

 समय बीतता रहा अभयकुमार अब यौवन में कदम रख रहा था। एक बार माता से फिर पिता के विषय में पूछा तब माता ने श्रेणिक के आगमन से लेकर उसके जाने तक का सारा प्रसंग कह सुनाया। 

 अभयकुमार ने पूछा की उन्होंने अपने परिचय में कुछ नही कहा?

 तब माता ने कहा : - परिचय तो कभी नही दिया पर जाते जाते दीवार पर यह गोपालक होने का लिखकर गये है।

 अभयकुमार ने उस दीवार पर लिखे अक्षरों को देखा -  मैं राजगृह नगर का गोपाल हूं।

अभयकुमार समझ गये । उसने माता से कहा : - माता, ये तो मगधनरेश ही होंगे।

अब अभयकुमार आगे क्या करेंगे?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


आजका सवाल : - राजगृह किसने बसाया?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 8


कल का जवाब - राजगृह नगर श्रेणिक के पिता प्रसेनजित राजा ने बसाया।


अभयकुमार को यह समझ आ गया  कि मगध सम्राट श्रेणिक ही उसके पिता है। पर उनके बिना बुलाये अब उनके पास नही जाना है। उन्हें माता के स्वाभिमान की भी उतनी ही चिंता थी। पर कुछ ऐसा किया जाए कि सम्राट को खुद याद आये व वे स्वयं माता को आमंत्रित करे।

अभयकुमार ने इसके लिए प्रथम तो राजगृह नगर जाने का निश्चय किया। मातामह सुभद्र सेठ की आज्ञा लेकर वे माता के साथ राजगृही नगरी आये। नगर के बाहर एक मकान की व्यवस्था कर वहां रह कर उचित मौके की राह देखने लगे।

राजगृही नगरी में भ्रमण करते रहते। इन दिनों श्रेणिकराजा के दरबार में विशाल मगध साम्राज्य को संभालने के लिए विविध विभागों के सुनियोजित संचालन के लिए 499 मंत्री थे।

श्रेणिकराजा उन सभी मंत्रियों के ऊपर एक औऱ मंत्री नियुक्त करना चाहते थे। वे इस पद के लिए योग्य व्यक्ति की तलाश कर रहे थे।

जब आसपास कोई ऐसा योग्य व्यक्ति नज़र नही आया तब उन्होंने नगर में से किसी बुद्धिमान व्यक्ति को ढूंढने की आवश्यकता लगी। पर वह व्यक्ति कैसे खोजा जाए । फिर एक योजना बनाई गई। 


नगर में एक सूखा कुआँ था, जिसमे अंशमात्र पानी नही था। राजा ने उस सूखे कुएं में एक अंगूठी फिंकवा दी। उसके बाद नगर में घोषणा करवाई। कुएं में उतरे बिना जो व्यक्ति वह अंगूठी बाहर निकालकर देगा, राज्य की ओर से उसे सन्मानित किया जायेगा।

नगर भ्रमण करते हुए अभयकुमार ने यह घोषणा सुनी । अब वह क्या करेगा?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


आजका सवाल : - राजगृह के बाद मगध की राजधानी कौन सी रही, किसने बसाई , 2 नाम ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।




#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 9


कल का जवाब : - मगध की राजधानी के स्थापक

राजगृह - प्रसेनजित राजा

चंपा - कोणिक राजा

पाटलिपुत्र - उदायन राजा


नगर भ्रमण करते हुए अभयकुमार ने कुएं में फेंकी हुई अंगूठी की घोषणा सुनी । वह उस सूखे कुएं के पास आया । आसपास थोड़ा निरीक्षण किया। उसने देखा  कि सब नगर-जन आ-आ कर देखकर चले जा रहे है। सभी उस अंगूठी को बाहर निकालने के लिए , राज्य सन्मान प्राप्त करने को तो उत्सुक है पर कोई समझ नही पा रहे, कि अंगूठी कैसे निकाली जाये! 

अभयकुमार ने हल सोच लिया। उसने राज्याधिकारी को कहा  कि वह यह काम करने को तैयार है। कल सुबह वह सबके सामने यह काम कर दिखायेगा। राज्याधिकारी ने यह समाचार राजा को  दिये। देखते हीं देखते नगर में यह बात फैल गई  कि बाहर से आया एक नवजवान राजा के दिए कार्य को कल सुबह करके दिखायेगा।


सुबह हुई। कुएं के पास सारी प्रजा एकत्र हो गई। राज्याधिकारी भी उपस्थित थे। अभयकुमार भी आ गया। सर्व प्रथम उसने  गाय के ताजा उपला (गाय का गोबर )  मंगवाया। उस गीले  उपले को हाथ में लेकर बराबर कुएं के तल में दिख रही अंगूठी के ऊपर फेंका। अब वह अंगूठी दिख नही रही थी। वह गोबर में दब गई। फिर अभयकुमार ने घास-फूस मंगवाया। उस सूखे घास-फूस को कुएं में डलवा दिया। औऱ कुएं में ही उसे सुलगा (आग लगा) दिया। थोड़ा समय बीता । वह आग शान्त हुई। उस आग के ताप से वह गीला गोबर अब एक सूखा उपला बन चुका दिखाई दे रहा था। सब असमंजस भरी स्थिति से उस नौजवान को देख रहे थे। उन्हें समझ नही आ रहा था , यह नवजवान क्या कर रहा है।

अभयकुमार ने अब पास ही स्थित पानी भरे कुएं से पानी लाकर इस सूखे कुएं में भरवाना चालू किया। धीरे-धीरे कुआँ पानी से भरने लगा। कुछ समय में कुआँ पानी से पूरा भर गया। पानी की सतह ऊपर आ गई। उस पानी में सूखा हुआ उपला भी तैर कर ऊपर आ गया था। 

अभयकुमार ने वह उपला हाथ से ही निकाल लिया। उसे पलटाकर उसे तोड़ दिया। उसमे से दबी हुई अंगूठी निकली। जो अभयकुमार ने राज्याधिकारी को दे दी। नगरजनो ने खुश होकर अभयकुमार की जय-जयकार कर दी।


यह अंगूठी व समाचार श्रेणिकराजा तक पंहुचाये गये। बाहरगांव से आये अतिथि अभयकुमार की बुद्धि का प्रसंग सुनकर राजा भी खुश हुए। पर 500 मंत्रियों के अध्यक्ष बनाने के पद किसी को सौंपने से पहले वे थोड़ा औऱ संतुष्ट होना चाहते थे।


उन्होंने एक औऱ परीक्षा का आयोजन किया।

वह आयोजन क्या था??


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र व अन्य ग्रँथ


आजका सवाल : - श्रेणिकराजा के परिवार में आगामी चोवीसी के तीर्थंकर कौन बनेंगे?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।




#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  10


सम्राट श्रेणिक ने दूसरी परीक्षा का आयोजन किया। उन्होंने अभयकुमार को एक बकरी भेजी औऱ कहलवाया की इस बकरी को एक माह तक अपने पास रखना है। इसे राजकीय अमानत समझकर इसकी देखभाल करनी होगी। इसके खाने-पीने का पूरा खयाल रखा जाए।  मुख्य शर्त यह रहेगी  कि एक महीने तक इस बकरी को रखकर अंत में जिंदा वापिस पहुँचाना है , पर इसके वजन में न अंशमात्र वृद्धि होनी चाहिए और न कमी। 

नगरजनो ने यह जाना तब आश्चर्य में डूब गये। यह कैसे संभव है। खिलाएंगे तो वजन बढ़ेगा, नही खिलाया तो कम हो जाएगा।


अभयकुमार इस चुनौती के लिए भी तैयार हो गये। उन्होंने बकरी के लिए अच्छी व्यवस्था की।  दो विभाग वाले बीच में सरिए की दीवार-युक्त एक  बड़े पिंजरे की व्यवस्था की। जिसमे एक तरफ अच्छा घास-चारा वगैरह रखवाया। पानी का पात्र रखवाया। औऱ बकरी के लिए नर्म  सेज (सोने की जगह ) भी बिछवा दी। औऱ बकरी को उसमे रखवा दिया। बकरी ने मजे से भोजन किया। कुछ देर बाद पिंजरे के दूसरे विभाग में कंही से खूंखार शेर लाकर बंद करवा दिया। बकरी बीच के सरियों के उस पार रहे शेर को देखकर सिहर उठी।

अब बकरी के हाल बदल चुके थे।

उसे अपनी मौत करीब दिखने लगी। उसे लगा कभी-भी यह शेर उसका निवाला बना लेगा,  यह डर उसके मन में बैठ गया। 

समय बीतने लगा। अभयकुमार दोनो जानवरो का बराबर ध्यान रख रहे थे।


बकरी घास चारा बराबर खाती , पानी भी पीती। पर उसे शायद शेर का डर भी था। 


धीरे- धीरे एक महीना पूरा हुआ। राज्याधिकारी बकरी लेने आये। अभयकुमार ने तराजू मंगवाकर उनके सामने बकरी का वजन करवाया। अहो आश्चर्यम ! बकरी तंदुरस्त तो दिख रही थी पर उसका वजन आश्चर्यजनक रूप से स्थिर हो गया था। न बढ़ा न ही कम हुआ।


राज्याधिकारी भी सोच में पड़ गये। उन्होंने अभयकुमार से यह कैसे किया यह पूछा तब अभयकुमार ने सारी घटना बता दी। उसने खुराक पूरी ली तो वजन कम नही हुआ और जब जीव को सतत मृत्यु के भय के साथ जीना पड़े तो उसके वजन में वृद्धि कैसे संभव हो?


सब खुश हुए। बात राजा तक पहुंची।


श्रेणिकराजा ने क्या किया यह आगे।


सन्दर्भ : - बहुत समय पहले पढ़े एक अन्य ग्रँथ से


आजका सवाल : - श्रेणिकराजा के परिवार से छठी नरक कौन गया?


कल का जवाब : -  श्रेणिकराजा के परिवार में आगामी चोवीसी के तीर्थंकर स्वयं श्रेणिकराजा तथा उनका पौत्र उदायन  बनेंगे ।


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  11


श्रेणिकराजा बाहरगांव के अतिथि की बुद्धिमत्ता से अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसे राज्यदरबार में आमंत्रित किया गया।

अभयकुमार दरबार में आये। उसकी प्रभावी मुखमुद्रा, उसका विनय , उच्च कुलवंत परिवार की आभा देखकर श्रेणिकराजा औऱ भी ज्यादा प्रसन्न हुए। उसे देखकर राजा श्रेणिक को

वात्सल्य की अनुभूति हुई।। 

उन्होंने परिचय पूछा ।

अभयकुमार ने अपना नाम व वेणातट नगर से आगमन का बताया। वेणातट नगर सुनकर श्रेणिक को नंदारानी का स्मरण हो आया। उन्हें नंदा के उस समय गर्भवती होने का याद आया। उसने  अभयकुमार से

 भद्र सेठ का तथा उनकी पुत्री के विषय में  पूछा। 

अब योग्य समय जानकर अभयकुमार ने अपना पूर्ण परिचय दिया। अभयकुमार उनका स्वयं का पुत्र है यह जानकर श्रेणिक गदगद हो गया।

सिंहासन से उतरकर अभयकुमार को*

 गले से लगा लिया। पिता-पुत्र के इस स्नेहमय मिलन को सारे दरबारी प्रसन्नता से देख रहे थे। श्रेणिक ने नंदा रानी की कुशलता के समाचार पूछे तब अभयकुमार ने कहा  कि आपका निरंतर स्मरण करने वाली माता इसी नगर के बाहर एक घर में रह रहे है। श्रेणिक की ख़ुशी का पार न रहा। वे उत्साह के साथ पूरे राजकीय सन्मान हाथी, घोड़े, वाजिन्त्र, छत्र, चामर आदि प्रतीक के साथ नंदा को लेने पंहुचे। नंदरानी पति को देखकर हर्षित हुई।

अभयकुमार भी माता-पिता के मिलन से प्रसन्न हो रहे थे। 


श्रेणिकराजा पूरे सन्मान के साथ दोनो को राजमहल में लेकर आये। नंदा को महारानी का पद दिया। अभयकुमार महामंत्री बने। श्रेणिक ने बहन सुसेना की पुत्री के साथ अभयकुमार का विवाह करवाया। उसे बहुत सा धन प्रितिदान में दिया।

अभयकुमार महामंत्री बनते हुए भी अपने विनयोचित व्यवहार को बनाये  रखा। थोड़े ही समय में राज्यव्यवस्था को सुचारू रूप से संभाल लिया। कई दुर्दांत राजाओ को उसने अपनी बुद्धिमत्ता से वश में कर लिया। इतने महत्वपूर्ण हौदे ??  पर रहकर भी वह अपने आपको अदना-सेवक ही मानता तथा ऐसे ही व्यवहार रखता था। 

श्रेणिकराजा के अन्य भी कई आज्ञानकित पुत्र थे। फिर भी अभयकुमार के आने के बाद श्रेणिकराजा के राज्य व्यवस्था औऱ सुचारू बन गई थी।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र


कलका जवाब : - श्रेणिकराजा के परिवार से छठी नरक श्रेणिकपुत्र कोणिक गया।


आजका सवाल : - श्रेणिकराजाका सबसे बड़े पुत्र का नाम ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  12


मगध राज्य में सम्राट श्रेणिक व महामंत्री अभयकुमार का सुचारूरूप से शासन चल रहा था। प्रजा अब सभी तरह से अपना विकास कर रही थी। सभी सुखसुविधा की अनुकूलता में प्रजा में धर्म भावना भी वृद्धि प्राप्त हो रही थी।

उस काल उस समयमें मगध के जैसा ही एक सुविकसित, समृद्ध राज्य था जिसकी राजधानी वैशाली भी अत्यंत समृद्ध विकसित नगरी थी।

यहां वीर, दृढ़ श्रमणोपासक , जीवदया के प्रतिपालक, सदा प्रजा का हित नजर में रखने वाले चेटक नाम के राजा का शासन था।

चेटक राजा अत्यंत पराक्रमी होने के साथ ही दृढ़ जिनधर्मी थे। पराक्रम तो ऐसा था की शत्रु के लिए इनका एक ही बाण काफी हो जाता था।

युद्ध की अति आवश्यकता होने पर ही युद्ध करते वह भी करुंणा के साथ। 


इनकी उत्कृष्ट जीवदया के लिए  कहा जाता है कि युद्ध मे जाने से पूर्व भी अपने घोड़े के जिन को भी पुंजनी से पुंजकर  घोड़े पर चढ़ते थे ताकि कोई छोटा जीव हो तो उसकी अकारण हिंसा न हो। 

 यह वैशाली नगरी अभेद्य मानी जाती थी। इसमे मुनिसुव्रत स्वामी का एक स्तूप हुआ करता था। जिसके लिए नगरजनो को काफी श्रद्धा थी। इस स्तूप को ही नगरी का विजयस्तंभ कहते थे यानी इसी स्तंभ की वजह से नगरी शत्रुओ से अजेय रही थी।

यहाँकी प्रजा सुखी, धार्मिक, राष्ट्रभक्त थी। हैयय कुल के चेटक राजा की रानी का नाम पृथा (कहीँ पृथ्वि ) था। महाराज के 7 शीलवंती, गुणीयल, धर्मनिष्ठ 7 पुत्रियां थी। जैन इतिहास में सातों पुत्रियों का गौरवपूर्ण स्थान है। 16 महासतियो में इनमें से 4 का नाम सन्मान के साथ लिया गया है। जिन्होंने अपने दोनो कुल की शोभा बढ़ाते हुए जिनशासन को भी गौरवांवित किया।  जिनका वर्णन कुछ इस प्रकार है।


 1 - प्रभावती - जिनका विवाह वित्तभय नगर के अधिपति उदायन के साथ हुआ था।

2 - पद्मावती - चंपानरेश दधिवाहन

3 - मृगावती - कौशांबी नरेश शतानीक

4 - शिवा कुमारी -  उज्जयनी नरेश चण्डप्रद्योत

5 - ज्येष्ठा - क्षत्रिय कुंड नरेश नंदिवर्धन

अन्य 2 का विवाह नही हुआ था।


6 -सुज्येष्ठा 

7 - चेलना


सुज्येष्ठा व चेलना दोनो अनुपम सुंदरियां थी। सभी कलाओ मे निपुण, धर्म में रुचियुक्त थी।


एकबार शोचमूलक धर्म की एक साध्वीजी अपनी शिष्याओं के साथ राजमहल के अंतःपुर में आई। औऱ अपने शौचमूलक धर्म का उपदेश दिया। सुज्येष्ठा जी दृढ़ जिनधर्मानुरागी थी। उसने उनके सभी तर्क को जिनवाणी के तथ्यों से निरस्त किया। वे साध्वीजी अपने उपदेश का असर नही हुआ, अपने धर्म का प्रचार नही हुआ यह देखकर असंतुष्ट व नाराज़ हुई। उसने सुज्येष्ठा के लिए मन में एक ग्रन्थि बांध ली। अब देख तुझे  मैं कैसे विधर्मी के साथ बंधवाती हूं , यह निर्णय कर वहां से चली गई।

अब ये साध्वी क्या करेंगी?


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र


कलका जवाब : श्रेणिकराजाका सबसे बड़े पुत्र का नाम अभयकुमार


आज का सवाल : - आज की कथामे वीर प्रभुकी भाभी का नाम आया, वे कौन?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।





#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  14


अभयकुमार श्रेणिकराजा को सुज्येष्ठा के साथ उनका विवाह करवाने का वचन देकर घर आये। अब वे कुछ युक्ति सोचने लगे।


उन्होंने श्रेणिक का एक सुंदर चित्र आलेखित किया। फिर अपना वेश - रूप  परिवर्तन कर वैशाली नगरी में आया। वहां पर अंतःपुर के निकट एक स्थान किरायेसे लेकर एक दुकान लगा ली। उसने श्रेणिकराजाके चित्र को दुकान में अच्छी व दर्शनीय जगह पर लगाया  ताकि सबकी नजर उस पर पड़े। दुकान में समान ऐसा  रखा कि राजमहल की दासियाँ लेने आये। उसने दासियोके लिए मूल्य भी बहुत कम रखा। युक्ति कारगर हुई। दासियो का आवागमन शुरू हुआ और बढ़ा भी। अभयकुमार बार-बार उनके सामने श्रेणिकराजाके चित्र को नमन करता। दासियाँ उसे देखकर पूछने लगी  कि यह चित्र किसका है, तुम क्यों नमन करते हो उन्हें,  आदि।

तब अभयकुमार श्रेणिकराजा के गुणगान करता। उन्हें देवतुल्य बताता। उन्हें मगध का सम्राट बताता। उनकी तस्वीर में भी उनका रूप सुंदर आलेखित कीया था।


ये सब बाते दासियाँ जाकर सुज्येष्ठा को बताने लगी। यह सब सुनकर  सुज्येष्ठा को जिज्ञासा हुई। उसने एक विश्वस्त दासी द्वारा श्रेणिकराजा  का चित्र मंगवाया। अभयकुमार तो यही चाहता था। उसने थोड़ा  ना-नुकुर का अभिनय कर के चित्र भेज दिया। 

सुज्येष्ठा चित्र देखकर मोहित हो गई। बार-बार चित्र देखने के बाद वह श्रेणिकराजा से उन्हें बिना देखे हुए ही प्रीत करने लगी। थोड़े ही समय में वह श्रेणिक को प्राणेश मानने लगी। और उन्हें प्राप्त करने के लिए उस सखी जैसी दासी को पुनः दुकानदार के भेष में रहे अभयकुमार के पास भेजा। उसे कहलवाया  कि तुम श्रेणिकराजा व सुज्येष्ठा का संबन्ध करवा दो।


दासी के संदेश के प्रत्युत्तर में अभयकुमार ने स्वीकृति दी। उसने कहा : - आपकी राजकुमारी का मनोरथ मैं पूरा करूँगा। पर मुझे कुछ दिन लगेंगे।   नगर के बाहर से राजमहल तक एक सुरंग खुदवाऊंगा और उस सुरंग से सम्राट श्रेणिक को लाकर सुज्येष्ठाके साथ करवा दूंगा। सुरंग के बाहर महाराज का रथ खड़ा रहेगा। वे दोनो इस तरह नगर से बाहर जाकर विवाह कर लेंगे।

उसने स्थान, समय आदि निश्चित कर दासी को बता दिया।


दासी ने आकर सुज्येष्ठाको सारा वृतांत सुना दिया। राजकुमारी अब अधीरता से उस समय की राह देखने लगी। ( मोह - एक अत्यधिक भयंकर कषाय, जिसमे फंसा व्यक्ति अपने किन-किन गुणो की घात कर देता है,वह स्वयं नही जानता। अफसोस !)


अभयकुमार का वैशाली का काम पूरा हो गया। उसने दुकान समेट ली। राजगृह आकर श्रेणिकराजा को सारे समाचार देकर तैयार रहने की सूचना दी। श्रेणिक प्रसन्न हुआ। अभयकुमार ने कारीगरों द्वारा सुरंग निर्माण का कार्य शुरू करवा दिया।


निश्चित समय पर श्रेणिकराजा अपने 32 बहादुर सैनिकों के साथ सुरंग से होकर वैशाली के राजमहल तक आ गये। सुज्येष्ठा  वहां उपस्थित ही थी। दोनो एकदूसरे को मिलकर प्रसन्न हुए। 


अब आगे क्या होगा? 


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र


कलका जवाब : वीर शासन की प्रथम साध्वी जी यानी चन्दनबाला जी  चेटकराजा (की पुत्री पद्मावती के पति) के दामाद दधिवाहन की एक अन्य रानी धारिणी की पुत्री थे।


आज का सवाल : - 32 वीर सैनिक किनके पुत्र थे।


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  15


सुरंग के रास्ते महाराज श्रेणिक राजमहल के पास राह देख रही सुज्येष्ठाके पास आये। दोनो एक दूसरे से मिलकर अत्यंत प्रसन्न हुए। दोनो को चित्र से ज्यादा वास्तविक रूप मनोहारिय  रमणीय लगा। सुज्येष्ठा व उसकी छोटी बहन चेल्लना में अत्यंत अनुराग था। सुज्येष्ठा ने चेलना को श्रेणिकराजा के आगमन की सूचना बताई थी। तब चेलना ने कहा  कि वो इस राजमहल में बहन सुज्येष्ठा के बिना नही रह पायेगी। चेलना ने विनती की, कि सुज्येष्ठा उसे भी अपने साथ ले जाये।   इसलिए वह भी द्वार पर साथ आई थी। सुज्येष्ठा ने चेलना का परिचय देते हुए   श्रेणिकको चेलना को साथ ले  चलने की अनुमति मांगी।  श्रेणिकने स्वीकृति दे दी। राजमहल के द्वार ज्यादा खड़े रहने में सैनिकों का डर था। श्रेणिकराजा ने वापिस चलने की शीघ्रता की। अचानक सुज्येष्ठाको याद आया कि वह अपने अत्यंत पसंदीदा गहनोंकी पेटी महल में भूल आई है। वह वापिस महल में लेने जाना पड़ेगा । श्रेणिक ने शीघ्रता से वापिस आने को कहा। सुज्येष्ठा  राजमहल में दौड़ी। पर सुज्येष्ठा को आने में विलंब हुआ। श्रेणिकराजा इतनी देर राह नही देख सकते थे। उन्होंने उस समय चेलना के साथ वहां से चले जाना श्रेयस्कर समझा। वे चेलना  को साथ लेकर निकल गये।


जब सुज्येष्ठा वापिस आई और वहां पर श्रेणिक चेलना को नही देखा तब उसे आघात पहुँचा। श्रेणिक भी नही व  चेलना भी नही थी तब उसने अपने आपको ठगी गई महसूस किया। उसने जोर से आवाज लगाकर सैनिकों को बुला लिया। आवाज सुनकर सैनिक  वहां आ गये। राजकुमारी का अपहरण हो रहा यह समझकर राजा को सूचना दे दी।

बिना समय गंवाए चेटकराजा सुरंग के द्वार आ पंहुचे। राजा चेटक श्रेणिक का पीछा करने लगे तब श्रेणिक के वीर 32 सैनिक ने राजा चेटक को रोक लिया।

युद्ध हुआ। 32 सैनिकों ने चेटकराजाको अच्छी देर तक रोके रखा। तब तक श्रेणिकराजा चेलनाको लेकर बहुत दूर निकल गये। चेटकराजाके हाथों उन 32 वीर सैनिकों की मृत्यु हुई। 32 सपूतों ने राज्यभक्ति दिखाते हुए अपने प्राण त्याग दिए। इतना समय बीत जाने के बाद  चेटकराजा को लगा कि अब श्रेणिकराजा का पीछा करना व्यर्थ है। वे राजमहल वापिस आये।

सुज्येष्ठा को इस घटना के बाद अत्यंत परिताप हुआ। इस परिताप से उसे संसार से विरक्ति हो गई। कुछ समय बाद वे संयम ग्रहण कर अपना मार्ग प्रशस्त करने लगे। उनके साथ एक और घटना क्या घटती है वह आगे देखेंगे।


श्रेणिकके साथ चेलना राजगृही पंहुची। श्रेणिक ने चेलना से धूमधाम से विवाह किया। अपने स्वभाव , व्यवहार से चेलना श्रेणिकराजाकी प्रिय रानी बन गई। चेलना दृढ़ जिनधर्मानुरागी थी। श्रेणिक अन्य मतावलंबी था। धीरे-धीरे चेलना श्रेणिकको सही धर्म, सही तत्त्व क्या है यह समझाने का प्रयास करती रही। श्रेणिकको समकितप्राप्ति अनाथी मुनि से हुई परन्तु उन्हें जैन धर्म की ओर मोड़ने में चेलना का भी अच्छा योगदान रहा।


श्रेणिकके 32 सुभट कौन थे यह आगे देखेंगे।


आज का सवाल : - श्रेणिकराजाको सम्यक्त्व प्राप्ति किस से हुई?


कल का जवाब : - श्रेणिकराजा के 32 वीर सैनिक   राजगृही के नाग रथीक व सुलसा महासतीजी केपुत्र थे।


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।




#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  16


सुलसा श्राविका


श्रेणिकके 32 सुभट कौन थे उसके लिए हम सुलसा श्राविका की कथा संक्षिप्त में देखते है।


जिस तरह इस भरत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणीमें श्रेणिकराजा प्रथम तीर्थंकर बनेंगे उसी तरह सुलसा श्राविका पन्द्रहवें तीर्थंकर निर्मम जी नामसे बनेगी। जिनेश्वर प्रभु में दृढ़ आस्थावान , अतिथि संविभाग व्रत की श्रेष्ठ उपासिका, श्राविका व्रत की उच्च पालक सुलसा जी का संक्षिप्त जीवन चरित्र हम सभी के लिए प्रेरणादायक होगा।


समृद्ध राजगृही नगरी

यहां राज- सारथी नाग व उनकी पत्नी सुलसा रहते थे। वैभव संपन्न , गुण संपन्न राजभक्त परिवार सब तरह से सुखी था। सुलसा जिनेश्वर प्रभु की परम उपासिका थी। उसकी अतिथि भक्ति, साधर्मिक भक्ति नगर में प्रसिद्ध सन्माननीय थी। कोई सुपात्र उसके द्वार से खाली हाथ नही जाता था। नगर में उसकी धर्म निष्ठा तो थी ही बल्कि देवलोक में भी उसके गुणो की प्रसंशा होती थी।

 परंतु किन्हीं कर्मोदय-वश उस परिवार में संतान सुख नही प्राप्त हुआ था। नाग रथीक व सुलसा को विवाह के काफी वर्षों बाद भी संतानसुख नही मिला था। 

 सुलसा धर्म में श्रद्धायुक्त थी , उसने इस दुःख को कर्म विपाक समझ कर समभाव से सह लिया था  परन्तु जब वे पति को उदास देखती तब वे भी खिन्न हो जाती थी। उसने पति को आग्रह भी किया था  कि संतान प्राप्ति के लिए नाग रथीक दूसरा विवाह कर ले। परन्तु नाग रथीक भी उच्च गुणयुक्त श्रावक था। उसने यह मंजूर नही किया। जो भी कर्म फल में होगा वह स्वीकार्य करेगा। सुलसा के अलावा किसी को वह हृदय व जीवन में स्थान नही दे सकेगा। 

 सुलसा ने तब ब्रह्मचर्य युक्त आचाम्ल व्रत की आराधना शुरू की । ऐसे दिन बीतते जा रहे थे।

एक बार किसी प्रसंग पर सौधर्म देवलोक में इंद्र ने ज्ञान में सुलसा के तत्त्व व सत्त्व में , जिनेश्वर प्रभु में सुलसा की दृढ़ निष्ठा देखी तब उसने अपनी सभा में सुलसा के इन गुणो की खुब प्रसंशा की। धन्य है ऐसे महान आत्माये जिनकी प्रसंशा स्वयं देवेंद्र भी करते है। इस प्रसंशा से सभी देवगण आनंदित हुए। पर कुतूहल भी देवता का स्वभाव है। एक देव को विश्वास नही हुआ  कि कोई मनुष्य भी देवता की प्रसंशा के योग्य हो सकता है ?

उसने परीक्षा लेने का निर्णय लिया।

 एक मुनि का भेष धरकर वह सुलसाके यहां आया।  मुनिवर का आगमन देख सुलसा अत्यंत हर्षित होकर 7/8 कदम आगे आकर मुनि को वन्दन कर सन्मान सहित गृह में लाई। मुनिराज ने कहा : - हमारे एक रुग्ण (अस्वस्थ ) मुनि के उपचार के लिए वैद्य ने लक्षपाक तेल का उपचार बताया है। क्या आपके यहां वह प्राप्त होगा ?

 ( लक्षपाक तेल कई मूल्यवान औषधियों से निर्मित होता है। उसके नाम से ही पता चलेगा की यह औषधि के एक घड़े की कीमत एक लाख मुद्रा होती है। )

 सुलसा हर्षित होकर बोली : - जी मुनिराज, मैंने कुछ ही समय पूर्व यह तैयार करवाये है, निर्दोष भी है और सूझते भी रखे है। मेरा सौभाग्य होगा यदि वह औषधि किसी महाव्रतधारी के खप में आये। 

 उसने दासी द्वारा वह कुंभ मंगवाया। देव को तो पता ही था कि उसकी औषध-शाला में यह औषधि है। 

 दासी दवा का कुंभ लेकर आ रही थी कि तभी देव ने अपनी विक्रिया से उस कुंभ को गिरा दिया । एक लाख मुद्रा की ओषधि वाला कुंभ दासी के हाथ से गिर कर टूट गया। सारी औषधि जमीन पर ढलकर व्यर्थ हो गई। दासी डर गई ,अब क्या होगा?


(नेमप्रभु के शासन में भी एक नाग गाथापति एवं सुलसा का वर्णन आता है। देवकी के छह पुत्र अनिकसेन आदि जिनके यहां पले बढ़े व जहां से दीक्षा ली ऐसे वे भद्दीलपुर नगर के निवासी थे। यह वर्णन अंतगड जी सूत्र में वर्णित है । )


कल का जवाब : - श्रेणिकराजा को सम्यक्त्व की प्राप्ति अनाथी मुनि द्वारा हुई।


आजके सवाल : - नाग रथीक के पौत्र का नाम क्या था?


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पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  17


सुलसा श्राविका - अगला भाग


देव ने विक्रिया कर दासी के हाथ से कुंभ गिरा दिया। लाख मुद्रा का तेल व्यर्थ हो गया, यह देखकर मुनिराज के रुप में रहे देव वापिस मुड़ने लगे। तब सुलसा ने बिना खिन्न हुए उन्हें रोका : -  हे मुनिवर, आप क्यों बिना लाभ दिए जा रहे है? यह एक कुंभ टूट गया तो क्या हुआ , अभी और दो कुंभ तेल से भरे हुए है। मैं अभी मंगवाती हूं। कृपा कर के यह लाभ हमे देकर ही जाना। 

सुलसा डरी हुई दासी की तरफ देखकर बोली। तुम क्यों डर रही हो। ऐसी गलतियां हो जाती है। मेरी ओर से तुम निर्भय बनो। और पुनः औषधशाला में जाकर दूसरा कुंभ लेकर आओ। अब थोड़ा संभलकर लाना।


एक लाख मुद्रा की वस्तु का नुकसान होने पर भी सुलसा इतनी शांत थी यह देखकर देव आश्चर्यचकित हुआ। दासी आश्वस्त होकर पुनः कुंभ लेकर आई। फिर से इस बार भी देव द्वारा विक्रिया से वह कुंभ उसके हाथ से फिसलकर गिर गया। फिर सारा तेल व्यर्थ हो गया। सुलसा अभी भी शांत थी। उसकी मुखमुद्रा पर कहीँ कोई क्रोधादि का अंश तक नही था।

उसने मुनिवर से क्षमा मांगते हुए कहा : -  हे मुनि, ऐसे अतिथियों को दान का लाभ यदा-कदा ही मिलता है।  मैं ही अबुध इसके महत्त्व को नही समझी, और खुद जाने की जगह दासी से कुंभ मंगवाया। कोई बात नही , यह कुंभ भी गिर गया। अभी भी एक कुंभ भरा हुआ बचा है। अब  मैं स्वयं वह कुंभ लेकर आती हूं, कृपया आप कुछ पल राह देखे। 

उसने पुनः दासी को आश्वस्त किया। और स्वयं कुंभ लेकर आई। देव ने पुनः विक्रिया की औऱ वह कुंभ भी सुलसा के हाथों से फिसलकर नीचे  गिर गया। टूटकर सारा तेल बह गया। 

ओह्ह! यह देखकर दुःखी, शोक संतप्त हुई सुलसा बोली : - अहो! मैं कितनी अभागिनी हूं! पुण्योदय से एक महाव्रतधारी मुनि को औषधि का दान लाभ मिलने वाला था, पर अब यह अंतिम घड़ा भी टूट गया। मैं इस महालाभ से वंचित रह गई। मुनिवर मुझे क्षमा करे। मुनि के भेष में रहा देव आश्चर्य से उसे देख रहा था।


अब भी सुलसा के मुख पर अफसोस अवश्य था, पर मूल्यवान औषधि व्यर्थ होने का नही , बल्कि मुनि को औषधि न दे पाने का था। वह शोकसंतप्त हो गई। 

अचानक वातावरण बदल गया। वहां मुनि के स्थान पर देव अपने वास्तविक रूप में खड़ा था।

देव ने कहा : - हे धर्म-निष्ठ,अभ्यागतों के लिए शरण रूप महासती ! मैं कोई मुनि नही। प्रथम देवलोक में इंद्र ने भरी सभा में जब तुम्हारी धर्मनिष्ठा, व्रतपालन की प्रसंशा की तो कुतूहल से तुम्हारी परीक्षा लेने आया एक देव हूं। यहां आकर सच में लगा कि जैसे इंद्र ने तुम्हारी प्रसंशा की थी तुम उससे भी बढ़कर हो। मैं तुम्हारी निष्ठा से अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम्हें किसी भी तरह की कोई इच्छा हो तो बताओ , मैं वह इच्छा पूर्ण करूँगा।

सुलसा ने कहा : - देव, मनुष्य के कर्मो के अनुसार जो भी मिलता है वह मुझे भी मिलेगा। मुझे कोई आवश्यकता नही है।

तब देव ने ज्ञान में देखा  कि यह परिवार संतान सुख से वंचित होने का परिताप सहन कर रहा है। उसने सुलसा को इसके लिए पूछा। सुलसा देव से कोई वरदान नही चाहती थी। पर पति का ख्याल आया तब उसने यह स्वीकार किया। देव के आग्रह पर उसने कहा : - यदि संभव हो तो मुझे 32 लक्षणयुक्त पुत्र का वरदान दीजिये। 

देव ने तुरन्त उसे 32 गुटिकाएं दी। औऱ कहा  कि उचित समय के अंतराल से एक-एक करके यह गुटिका लेते रहे। तुम्हे 32 योग्य पुत्रो की प्राप्ति  होगी। और जब भी। उनकी जरूरत हो तब याद करेंगे तो वे देव उपस्थित हो जाएंगे ,

यह कहकर देव चले गये। 

अब आगे क्या?


 कल का जवाब : - नाग सारथी के पौत्र का नाम वरुण था।


आज का सवाल : - वरुण किस युद्ध में मारा गया, व उसकी गति क्या हुई?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  18


सुलसा श्राविका-  आगे का कथासार


देव सुलसा को 32 गुटिकाएं देकर चले गये।


सुलसा के मन में  दुविधा हो गई। 32 पुत्र?

मैं तो 32 लक्षणों वाला एक ही योग्य पुत्र चाहती हूं। अब ? उसने 32 की जगह एक पुत्र की चाह रखते हुए 32 गुटिका एक साथ ही खा ली । 

समय बीतता गया। सुलसा ने गर्भ धारण किया। कुछ समय के बाद सुलसा को गर्भ में अतिशय पीड़ा होने लगी। वह पीड़ा सुलसा  सह नही पाई । उसने उन देव को याद कर आराधन किया। वे देव प्रकट हुए।

सुलसा ने अपनी पीड़ा उन्हें बतलाई। ज्ञानबल से देखकर  देव ने कहा : - सुलसा, आपने एक अनर्थ कर दिया है। मैने 32 पुत्रो के लिए 32 गुटिका दी थी व उसे एक-एक कर खाने को कहा था। पर तुमने 32 गुटिका एक साथ खा ली। अब तुम्हारे गर्भ में एक नही 32 पुत्र पल रहे है।  मैं तुम्हारा दर्द कम हो तथा पुत्रो का जन्म निर्विघ्न हो जाये ऐसी व्यवस्था कर देता हूँ । सुलसा का दर्द शांत हुआ।  धर्म ध्यान सहित वह गर्भ का पालन करने लगी। गर्भकाल पूरा होते ही उसने 32 सुंदर स्वस्थ पुत्रो को जन्म दिया।

सुलसा व नाग रथीक अत्यंत प्रसन्न हुए।

पुत्रो का जन्मोत्सव मनाया गया। उनका नामकरण संस्कार हुए। धीरे-धीरे पुत्र बड़े हो रहे थे। 32 पुत्रो का अनेक  धायमाताओं द्वारा पालनहोने लगा।

कुछ समय बाद पुत्रो की उचित शिक्षा प्रारंभ हुई। नाग रथीक ने उनके लिए उचित व्यवस्था की। समय जाते देर नही लगती। 32 पुत्र युवान , सर्व विद्या में प्रवीण, बहादुर बने। 

उन सभी 32 की वीरता , युद्ध कौशल्य देखकर श्रेणिकराजा ने उन्हें अपने खास सुभट बनाये। 32 सुंदर कन्याओं के साथ इनका विवाह किया गया। इस तरह संसार का सुख भोगते हुए दिन बीत रहे थे। 

यही वे 32 पुत्र थे जो चेलना-हरण के समय श्रेणिककी रक्षा के लिए चेटकराजा से युद्ध करते हुए , अपनी स्वामिभक्ति दिखाते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए।


चेलना के विवाह बाद श्रेणिकराजा ने स्वयं सुलसा- नाग के घर आकर उन्हें आश्वस्त किया।


सुलसा धर्म में , कर्म में श्रद्धावंत नारी थी। उसने इस दु:ख को भुलाकर धर्म आराधना में मन स्थिर किया। अपने गृहस्थ धर्म का पालन करने लगी। उसके एक पौत्र का वर्णन भी ग्रंथो में आता है वह हम आगे देखेंगे।


दिन, महीने वर्ष बीतने लगे। प्रभु महावीर अब लोक में इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकर बनकर विचरण कर रहे थे। समय के साथ सुलसा औऱ श्रद्धांवन्त बनी थी। उसकी आराधना, दृढ़ विश्वास औऱ अब वीर प्रभु में दृढ़ श्रद्धा उच्च बन गई थी।

एकबार उसकी इस श्रद्धा की भी परीक्षा हुई।

कैसे ??? यह आगे देखेंगे।


 कल का जवाब : - वरुण , हलविहल व चेटकराजा के साथ कोणिक के हुए युद्ध में मारा गया, वह प्रथम स्वर्ग में अरुणाभ विमानमें देव रूप उत्पन्न हुआ। 


आज का सवाल : - सुलसा की परीक्षा कितनी बार हुई व किसने ली?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।




 #मगध_सम्राट_श्रेणिक -  19


सुलसा श्राविका-  आगे का कथासार



सुलसा की जिनेश्वर प्ररूपित धर्म में दृढ़ श्रद्धा की कसौटी ।


चरम तीर्थंकर वीर प्रभु उस समय अरिहंत  अवस्था में इस भूतल पर केवलज्ञान के प्रकाश से  ज्ञान उजियारा फैला रहे थे।


सुलसा धर्मनिष्ठ बनकर अपने उच्च श्राविका नियमरूप धर्म का पालन कर रही थी। 


प्रभु एकबार चंपा नगरी में विराजमान थे। वहां कंपिलपुर नगर का अंबड़ परिव्राजक प्रभु के दर्शन वन्दन करने आया। यह अंबड़ परिव्राजक पहले एक तापस हुआ करता था। बाद में वीर प्रभु के दर्शन, उनकी वाणी श्रवण कर उनका भक्त बन गया था। उसने श्रमण धर्म तो नही, पर श्रमणोपासक बन गया था। एक तापस रहते हुए भी उसने साधुजी के कई नियम स्वीकार किये हुए थे। जैसे बड़ी हिंसा,झूठ अदत्तादान का सर्वथा त्याग , निरंतर छट्ठ का तप करना,  आतापना लेना,  वाहन का त्याग कर सिर्फ पैदल विहार, बिना प्रयोजन नदी तालाब नही उतरना,  हरी वनस्पति का छेदन-भेदन नही करना, गेरुआ चादर के सिवा कोई वस्त्र नही, तुंबा, काष्ठ, मिट्टी के अलावा अन्य धातु के पात्र आदि तक का परिग्रह नही करना, चंदन, केसर आदि का लेप नही, बिना दान में दिया सदोष आहार  या  सचित्त पानी तक ग्रहण नही करना आदि। वह जीवाजीव का ज्ञाता था। 


उसकी उत्कृष्ट साधना के प्रभाव से उसे कई लब्धियाँ भी प्राप्त हुई थी। जैसे एक साथ सौ घरों में पारणा करना, वायु मार्ग से जाने की लब्धि,  वैक्रिय रूप बनाने की लब्धि आदि।


उसके 700 शिष्य भी उसी का अनुसरण करते हुए उग्र आराधना करते थे। एक बार भीषण गर्मी में  विहार के समय जंगल से गुज़रते हुए अचित जल वाला जलाशय होते हुए भी कोई देनेवाला नही था तो जल ग्रहण नही किया। 700 ही साधुओं ने भीषण गर्मी में पिपासा का उग्र उपसर्ग सहते हुए प्राण तक त्याग दिए परन्तु  वे सब ने अदत्त जल  (बिना दानदाता के ) नही लिया।


यह अंबड़ परिव्राजक चंपा नगरी में प्रभु के दर्शन वन्दन पश्चात जब राजगृह जाने के लिए उद्यत हुआ तब , उसके पूछने पर प्रभु ने फरमाया : - राजगृह में सुलसा नामक सम्यक्त्त्वमें दृढ़ ऐसी सुश्राविका सुलसा है। उसे धर्म संदेश कहना।


यह सुनकर अंबड़ अत्यंत आश्चर्यचकित हुआ। प्रभुके मुख से सुलसा के सम्यक्त्त्व की प्रसंशा सुनकर उसे सुलसा की कसौटी लेने का मन हुआ। वह कैसे कसौटी लेगा? यह आगे....



 कल का जवाब : -  सुलसा की परीक्षा 2 बार हुई । एक बार देव ने ली, दूसरी बार उसकी श्रद्धा की परीक्षा अंबड़ नामक परिव्राजक ने ली। 

 


आज का सवाल : - सुलसा जी कौन से क्रम के तीर्थंकर बनेंगे??


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।

#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  20


सुलसा श्राविका-  आगे का कथासार



सुलसा के सम्यक्त्त्व की कसौटी लेने का निर्णय कर अंबड़ श्रावक उड़कर राजगृही आया। उसने वैक्रिय लब्धि से ब्रह्मा का रूप बनाकर उद्यान में ठहरा। चार मुंह, ब्रह्मास्त्र, मुकुट आदि ब्रह्मा के चिह्न सहित रूप धर कर माध्यमो से नगर में सूचना पहुंचाई। उपदेश शुरू हुए। लोग दर्शन करने आने लगे। पूरे नगर में चर्चा फैल गई। साक्षात ब्रह्मा का आगमन सुनकर पूरी नगरी दर्शन करने आई। यह समाचार सुलसा को मिले। सखियां उसे भी दर्शन करवाने बुलाने आई।  पर एकमात्र जिनेश्वर देव में अनुरक्त सुलसा ने अन्य देव के दर्शन करने का इनकार कर दिया। 

अंबड़ ने दूसरे दिन साक्षात विष्णु का रूप धरा। गरुड़ सहित विष्णु के सभी चिह्न धारण किये। नगरजनो का सैलाब फिर दर्शन करने उमड़ा। सुलसा को फिर सखियां बुलाने आई। पर सुलसा सम्यक्त्त्व में दृढ़ रहकर दर्शन करने नही गई। तीसरे दिन अंबड़ ने शंकर का रूप धरा। पर दृढ़  समकिती सुलसा नही गई। चौथे दिन उसने तीर्थंकर का स्वांग रच लिया। भव्य समोवसरण, प्रतिहार्य युक्त रूप लेकर देशना देने लगे। सुलसा को न आया देख अंबड़ ने संदेश भिजवाया  कि अब तो वीतरागी जिनेश्वर 25 वे तीर्थंकर खुद पधारे है। अब तो दर्शन करने जाओ।

तब ज्ञाता  सुलसा ने कहा : - मेरे भगवान 24 वे तीर्थंकर  विरप्रभु तो चंपा नगरी में बिराजमान है। यह 25 वे तीर्थंकर अभी कैसे?  25 वे तीर्थंकर तो कभी होते हीं नहीं । जरूर यह ऐन्द्रजालिक है। जो रोज विविध रूप धरकर लोगो को लुभा रहे है।  मैं ऐसे भोले नगरजनोको ठगने वाले पाखंडी का मुंह देखना भी नही चाहती। उसके पास जाने से उसकी माया, उसके पाखंड को अनुमोदन मिलेगा। मैं दर्शन करने नही जाऊंगी।

यह बात अंबड़ को पता चली। अपनी सारी माया को समेटकर वह अपने मूल रूप एक श्रावक की विधि से नैषधिकी बोलते हुए सुलसा के घर आये। एक साधर्मिक को अतिथि देखकर सुलसा प्रसन्न हुई। उसने एक श्रावक के रूप में अंबड़ का आदर सत्कार किया।

अंबड़ ने पूछा : - आपके नगर में साक्षात ब्रह्मा, विष्णु, महेश आये थे। तुम दर्शन करने क्यों नही गये। 

अंबड़ के सवाल पर सुलसा ने बताया : - मेरी श्रद्धा जिनेश्वर प्रभु के लिए है जो वीतरागी, राग-द्वेष से मुक्त, विषय- विकार से मुक्त , कामभोग से मुक्त  ऐसे तीर्थंकर भगवान को हृदयस्थ कर लेने के बाद अन्यमती के दर्शन की लालसा क्यों ? जब साक्षात भगवान महावीर प्रभु को प्राप्त किया फिर अन्य देवो का मुझे क्या प्रयोजन? 

अंबड़ अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने सारी बात बताते हुए सुलसा को वीर प्रभु का धर्मसन्देश सुनाया। तब सुलसा की प्रसन्नता की सीमा न रही।

अहो! स्वयं वीर प्रभु ने मुझे याद कर धर्म संदेश दिया। इससे बड़े सौभाग्य की क्या बात होगी!!  आज मैं धन्य हो गई।


अंबड़ धन्यवाद देकर चला गया। सुलसा ने अपना शेष जीवन  उत्कृष्ट आराधना करके पूर्ण किया। यह श्राविका इस भरतक्षेत्र में आगामी  चौबीसी में निर्मम जी नामक तीर्थंकर बनकर भव्य जीवो के तारणहार बनकर अंत में सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।


धन्य हैं ऐसी विरल आत्माएं, उन सबको नमन । हमें भी प्रेरणा लेकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए


कल का जवाब : - 

सुलसा जी पंद्रह वे  क्रम के निर्मम जी नामक तीर्थंकर बनेंगे ।

  

आज का सवाल : - आगामी उत्सर्पिणी काल के कौन से आरे में कितने तीर्थंकर बनेंगे??


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  21


सुलसा का संक्षिप्त वर्णन देखने के बाद अब  हम पुनः कथानायक मगध नरेश श्रेणिक के आगे के जीवन प्रसंग देखते है।

चेलना के साथ श्रेणिकराजा ने विवाह किया औऱ सांसारिक सुख भोगने लगे। चेलना एक धर्म-निष्ठ,  पति-परायण, दृढ़ जिनधर्मानुरागी नारी थी। श्रेणिक को अन्य मतावलंबी देखकर उसे अत्यंत दुःख भी हुआ। पर वह समभाव युक्त बनकर पति के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन के साथ ही नियमित जिनेश्वर प्ररूपित धर्म आराधना भी करती थी। वह श्रेणिक को सुदेव सुगुरु सुधर्म की समझ देकर श्रेणिक के कल्याण का शुभ प्रयत्न सदा करती रही। आपके उत्तम साथी आपके इस भव के दुःख दूर करने का प्रयास करते है। पर जो वास्तविक कल्याण साथी होते है  वह आपके भवोभव के कल्याणमित्र होते है। चेलना हमेशा श्रेणिक का  सम्यग् उत्थान का प्रयास करती। उन्हें सम्यक्त्व प्राप्ति हो, इसके लिए कार्यरत रहती।


समय आनंद व भोग में बीतता रहा। कुछ समय बाद चेलना ने गर्भ धारण किया। राजा-रानी प्रसन्न हुए। चेलना ने अब अपना ज्यादा समय धर्मध्यान में बिताने का प्रयास करने लगी ताकि आनेवाले संतान पर धर्म के संस्कार हो।

पर यह क्या?

चेलना को कुछ समय में एक अजीब घातक दोहद उत्पन्न हुआ। (दोहद - गर्भवती स्त्री को उनके स्वभाव से भिन्न इच्छाएं होना ।)   उसे पति श्रेणिक के कलेजे का मांस भुन - भुन कर खाने की तीव्र इच्छा होने लगी। साथ ही मदिरापान करने की तीव्र इच्छा हुई।

धर्मिष्ठा चेलना एकदम घबरा गई। धर्म में अनुरक्त तथा पति परायण सती को ऐसा दोहद ? जो की पूरा करना बिल्कुल असंभव था। 


 उसे यह समझ में आ गया  कि गर्भ में जरुर कोई वैरी जीव आकर उत्पन्न हुआ है। उसी के प्रभाव से ऐसा घातक दोहद उत्पन्न हुआ। वह उस दोहद को दबाने का प्रयास करने लगी। पर यह दोहद को शान्त करना भी उसके लिए मुश्किल हो गया। रह-रह कर उसे यही इच्छाएं होने लगी ।इस चिंता में वह घुलने लगी। एक तो दोहद पूरा न हो पाना औऱ ऐसा दोहद उत्पन्न होने से गर्भस्थ जीव कैसा रहेगा यह चिंता !!!😢

 उसका आहार, श्रृंगार आदि सब छूट गया। सुन्दर मुख म्लान व निस्तेज होने लगा। वह अपने दोहद को किसी को बता भी नही पा रही थी।

कुछ ही समय में चेलना में आये इस बदलाव को देखकर श्रेणिकराजा खेदित हुए। उन्होंने कईबार उससे कारण पूछा तब वह टाल देती। एक दिन जब श्रेणिक ने अत्यंत प्रेम से आग्रह कर पूछा तब चेलना को बताना पडा। गर्भ के 3 मास पूरा होने पर उसे यह दोहद उत्पन्न हुआ है जिसकी पूर्ति न होने से तथा ऐसे दोहद के वजह से वह अस्वस्थ है।


पूरा कारण जानकर श्रेणिकने वह कुछ युक्ति ढूंढते है , कहकर चेलनाको आश्वस्त किया । अभयकुमार को जब यह बात बताई तब उसने पिता को आश्वासन दिया कि छोटी-माता का यह विकट दोहद अभयकुमार अवश्य पूरा करेगा। 


अभयकुमार क्या करेगा ?

ऐसे दोहद क्यों उत्पन्न हुआ?

क्या चेलना के गर्भ में कौन सा वैरी जीव आया?

पूर्वभव में वह कौन था?

यह आगे हम देखेंगे ।


कल का जवाब : -  आगामी उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में 23 व चौथे आरे में 1 तीर्थंकर बनेंगे ।


आज का सवाल : - गर्भधारण के कितने माह बाद चेलना को विकट दोहद उत्पन्न हुआ ?


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखने में आया हो तो मिच्छामी दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।



#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  22



छोटी माता चेलना के विकट दोहद पूर्ति का आश्वासन देकर अभयकुमार  अपने महल में आये। बुद्धि के धनी ऐसे महामंत्री ने कुछ ही पलो में  एक युक्ति सोच ली। और शीघ्र उसकी तैयारी शुरू करवा दी।


उन्होंने एक ताज़ा रक्त झरता हो ऐसे मांस की व्यवस्था करने की युक्ति सोची। श्रेणिकराजा के महल में आये। राजा को योजना समझाई व उन्हें तैयार किया। बाहर से लाये मांस को इस तरह कुशलतापूर्वक श्रेणिकके शरीर की छाती से बांध दिया  कि दूर से देखने से कुछ पता न चले। उन्हें महल में एक ऊंचे स्थान पर स्थित सिंहासन पर बैठाया गया। 

महारानी चेलना को बुलाया गया। अभयकुमार ने उन्हें समझाया  कि अब आपके दोहद की पूर्ति की जाएगी। उनके सामने दूर बैठे श्रेणिककी छाती से अभयकुमार मांस काटने लगे। जैसेकलेजा काट कर निकाला हो वैसे अभिनय के साथ महामंत्री ने चेलना को आभास करवाया : - कि यह श्रेणिकराजा का कलेजा निकाला जा रहा है। थोड़ी देर श्रेणिकराजा कराहते रहे फिर मूर्छित हो गये। उस मांस को पकाकर चेलना को दिया गया। गर्भस्थ जीव के प्रभाव के कारण चेलना ने आतुरता से वह मांस खा लिया। उसका दोहद पूरा हुआ। वह शांत हुई। 

अब कुछ ही पल में उसे पति का  ख्याल आया। उनकी मृत्यु का आभास होते ही वह मूर्छित हो गई। उन्हें भान में लाया गया पर पति वियोग की कल्पनाओं से डरी वह बार-बार मूर्छित होने लगी। तब राजा स्वयं उसके पास आया और उन्हें शांत किया। 

अब रानी स्वस्थ तो हुई पर गर्भस्थ जीव के कारण ऐसे दोहद का उत्पन्न होना उसे बहुत अनिष्टकारी लग रहा था। उसे विश्वास हो गया  कि गर्भ का जीव नक्की हीं श्रेणिक राजा का परमशत्रु है। चेलना ने गर्भ निकाल के प्रयास किये। यानी उसका गर्भ गिर जाए ।  पर वह जीव इतना शक्तिशाली था , कि चेलना के बहुत प्रयासों के बावजूद उसके गर्भ में पलता रहा।


यह गर्भस्थ जीव कौन था? श्रेणिक से इसका क्या वैर था? इसके लिए हम श्रेणिकराजा व गर्भस्थ जीव के पूर्वभव देखते है।


कुछ समय पुर्व की घटना है यह। 

भरतक्षेत्र के बसंतपुरनगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी अमरसुन्दरी नामक पटरानी से एक पुत्र था सुमंगल। राजकुमार सुमंगल के कई मित्रो में एक था मन्त्रिपुत्र सेनक । मित्र तो थे वे परन्तु व्यक्तित्त्व में दोनो बिल्कुल भिन्न थे। राजकुमार अत्यंत कामदेव के समान सुन्दर व रूपवान थे तो मन्त्रिपुत्र सेनक अत्यंत कुरूप देखने में अदर्शनिय था।

राजकुमार जब कभी हीं सेनक को उसकी कुरूपता को देखता तो उसे बहुत चिढ़ाता रहता। सेनक दुःखी रहता। जब उसका दुःख उससे सहा नही गया तब वह विरक्त होकर नगर छोड़कर वन में चला गया। भटकते हुए वह एक तापसो के संघ में जा मिला। कुछ समय बाद उसने तापसदीक्षा ले ली। और उग्र तप आराधना करने लगा।






कल का जवाब : - गर्भधारण के  3 माह बाद चेलना को विकट दोहद उत्पन्न हुआ ।


आज का सवाल : -  सुमंगल के मातापिता का नाम ?

#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  23


मन्त्रिपुत्र सेनक ने तापसी दीक्षा अंगीकार कर ली। वह मासखमण के पारणे मासखमण का उग्र तप करने लगा। समय बीतने लगा। राजकुमार सुमंगल  अब राजा बन गया था। समय के साथ उसमे धार्मिकता, गुणग्राहिता, राज्य संचालन की कुशलता आदि गुण भी वृद्धि हुए थे। उनका परिवार भी बढ़ा। सेनक भी उग्र तपस्वी बन चुका था। वैदिक ज्ञान भी प्राप्त कर रहे थे। परन्तु राजा ने जो मजाक उड़ाया था वह अभी तक कषायवश हृदय से गया नही था।


एक दिन विहार करते हुए सेनक तापस बसंतपुर नगर आया । यहां पुराने परिचित दर्शन करने आये। उन्होंने पूछा  कि तुमने अचानक तापस दीक्षा क्यों ले ली थी? तब उन्होंने उत्तर दिया  कि तुम्हारे अभी के राजा ने मेरी बहुत हंसी उड़ाई थी , इसलिए उदास व विरक्त होकर  मैंने संसार त्याग दिया था। यह बात राजा तक पहुंची। राजा परिवार समेत दर्शन करने आया। आकर उसने अपनी सभी भूलों की सच्चे मन से क्षमापना की। ऋषि ने उन्हें माफ भी किया। 


राजा ने उन्हें राजमहल में आमंत्रित किया। अत्यंत भावपूर्वक अगले मासखमण का पारणा राजमहल में करने की विनती की। सेनक ने आमंत्रण स्वीकार किया। राजा ने परिवार में सभी को यह सूचना दे दी थी।

कुछ ही दिन में पारणे का दिन आया। मुनि राजमहल आये। 

पर योगानुयोग उस दिन सुबह से ही राजा का स्वास्थ बिगड़ गया। सभी दास-दासी व परिवार उनकी सेवा में लग गया था। किसी को तापसके पारणे का ध्यान ही नही रहा। तापस आया , सब को इधर-उधर दौड़ने में व्यस्त  देखा । किसी को उसके आगमन तक में रुचि नही दिखी ।

सेनक चुपचाप वापिस लौट गया। स्वस्थान आकर उसने बिना कोई खेद दूसरा मासखमण स्वीकार कर लिया।


राजा स्वस्थ हुआ। उसे तापस को दिए आमंत्रण का याद आया। किसी ने कहा  कि वे तो आकर बिना पारणा किये चले गये। राजा अत्यंत खेदित हुआ। वह फिर सेनक के पास जाकर माफी मांगने लगे। सेनक ने उदारता से माफ किया। राजा ने जब यह जाना  कि सेनक ने बिना पारणा किये हीं दूसरा मासखमण शुरू कर दिया तब उन्हें ज्यादा दुःख हुआ। खैर , वे भावपूर्वक अगले पारणे के लिए आमंत्रण देकर घर आये।

दूसरे पारणे का दिन आया। संयोगवश दूसरे पारणे पर भी राजा अत्यंत बीमार हो गये। फिर सब तापस को भूल गये। तापस राजमहल आकर फिर खाली लौट गये। अपने स्थान पर जाकर तीसरा मासखमण ले लिया। दिन के अंत में फिर राजा स्वस्थ हुए। पुनः माफी मांगने गये। और अगले पारणे का आमंत्रण देकर आये। सेनक ने अभी तक खुद को संभाल कर रखा था। उसने तीसरे पारणे का आमंत्रण स्वीकार कर एक माह बाद फिर राजमहल आये। पर कुदरत की कैसी लीला। आज भी राजा अस्वस्थ हो गये। तापस राजमहल आया, किसी ने उन्हें देखा तो सोचा  कि इसका आगमन ही अशुभ है। ये जब भी आते है, हमारे राजा बीमार हो जाते है। यह सोचकर उस राजमहल के अधिकारी ने सेनक तापस को अपमानित कर के राजमहल से निकाल दिया।


अब तक पुरानी बातों, पुरानी गलतियों को माफ कर देने वाले सेनक की क्रोधाग्नि अब भडक उठी। उसने सोचा  कि राजा ही कपटी है। वह जानबूझकर बचपन से मुझे अपमानित करता रहा है। इस बार वह माफी का नाटक कर सोचा कि राजा बार-बार मुझे दुःखी कर रहा। उसके कषाय की आग शांत नही हुई । उसके इतने बरसो का ज्ञान , तप आदि भी उसके क्रोध को शान्त नही कर पाये।

वैर बढ़ता गया। उसने अपने आज तक के तप, साधना के फल-स्वरूप "सुमंगल राजा को  मारने वाला बनूँ " यह निदान कर लिया।


बिना आलोचना किये वह मरकर अल्प ऋद्धि वाला देव बना। सुमंगल राजा भी साधना कर देवलोक में देव बने। वहां का आयु पूरा कर प्रसेनजित राजा के यहां पुत्र बने जो हमारे कथानायक श्रेणिक बने। कुछ समय बाद सेनक तापसका जीव भी देवायु पूर्ण कर चेलना की कुक्षी में उत्पन्न हुए। पूर्वभव के वैर के कारण ही चेलना को श्रेणिक का मांस खाने का दोहद हुआ। अब आगे भी यह जीव क्या-क्या करेगा यह हम आगे देखेंगे।


कल का जवाब : -सुमंगल के माता-पिता का नाम राजा जितशत्रु तथा अमरसुन्दरी था।



आज का सवाल : - कोणिक के बाद चेलना ने अन्य किस को जन्म दिया  ?

#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  24


सेनक तापस का जीव श्रेणिकराजा का शत्रु बनकर उसके ही पुत्र रूप चेलना के गर्भ में उत्पन्न हुआ। चेलना इस पुत्र के लक्षण गर्भ में ही समझ गई थी। पिता के लिए घातक सिद्ध होने वाले पुत्र का अंदेशा चेलना को हो गया था। उसने एक कड़ा निर्णय कर लिया।


समय बीतते उसने एक सुंदर स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया। उसके जन्म के तुरन्त बाद एक विश्वासु दासी द्वारा इस पुत्र को उकरडे (कचरे के ढेर ) में फिंकवा दिया।

पर जीव का आयुष्य प्रबल था। श्रेणिकराजा ने उस दासी को देख लिया। और कचरे के ढेर से अपने पुत्र को वापस लेकर आये।


आकर चेलना को उलाहना देकर पुत्र के पालन करने का आदेश दिया। उकरडे पर रहे बालक की उंगली किसी कुक्कुट (मुर्गा) द्वारा थोड़ा अंश में घाव कर दी गई थी। उस उंगली में घाव पक जाने से परु ( पस या पित्त ) हो गया था। श्रेणिक ने स्वयं उसका ध्यान रखा। कोमल बालक की उंगली से सारा परु श्रेणिक ने मुंह से चूस कर निकाल दिया ताकि उस बच्चे को दर्द न हो। श्रेणिक के मन में कोई वैर नही था, न जाग्रत मन में ना ही कोई सुषुप्त वैर। श्रेणिक हमेशा उस बालक को स्नेह करता। चेलना के मन से इस बालक के लक्षण नही गये। वह मन से उसे अपना न सकी। 

उस बालक का नाम कोणिक रखा गया। उसका एक अपरनाम अशोक भी पढ़ने में आया है।

कोणिक बड़ा होने लगा। उसके जन्म के बाद चेलना ने  विह्लल तथा विहास नामक 2 पुत्रो को जन्म दिया।


समय के साथ राजकुमार बड़े होने लगे। 


 श्रेणिकराजा की अन्य रानियां भी थी। उसमे एक श्रेणिक की अतिप्रिय धारिणी नाम की रानी भी थी। 

 एकबार उसने एक विशाल व प्रभावशाली गजराज को आकाश से उतरकर अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा।रानी को प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उसने श्रेणिक के शयनकक्ष  में जाकर उन्हें यह स्वप्न बताया। 

स्वप्न जानकर श्रेणिकराजा भी प्रसन्न हुए। उन्होंने धारिणी को बताया कि तुमने एक उच्च  स्वप्न देखा है। उसके फलस्वरूप तुम्हे एक उत्तम पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।  धारिणी ने गर्भ धारण किया।गर्भधारण से हीं तो स्वप्न देखा ना ।नियमपूर्वक वह गर्भ का पालन करने लगी।

तीसरा माह चल रहा था, कि धारिणी को भी एक दोहद उत्पन्न हुआ। 

बसंत ऋतु में मेघ छाए, बिजलियाँ चमक रही हो, बादलों की गर्जना हो रही हो। छोटे-छोटे बूंदों की बारिश हो रही हो। हरियाली व चारो तरफ पुष्पा से सजी पृथ्वी का सारा वातावरण प्रफुल्लित हो , उस समय राज्य के मुख्य हाथी पर राजा के साथ बैठकर  मैं  धूम-धाम से नगर विहार , वन विहार करू।

ऐसी इच्छा होने पर धारिणी चिंतित हुई।  इस विपरीत-मौसम में बरसात कैसे हो सकती है? मेरा यह दोहद कैसे पूर्ण होगा? वास्तविकता समझकर धारिणी ने दोहद की बात राजा को नही बतलाई। पर उसका असर उसके स्वास्थ पर होने लगा। उसकी सुंदर काया मुरझाने लगी। श्रेणिकराजा ने जब आग्रह से पूछा तब राजा भी यह जानकर सोच में पड़ गये।

अब अभयकुमार को यह बात पता चली।  उसने किसी भी तरह छोटीमाता  का यह दोहद की पूर्ति वह करवाएगा ऐसे वचनों से राजा को आश्वस्त किया।

अब आगे?....




कल का जवाब : - कोणिक के बाद चेलना ने अन्य 2 पुत्रो को जन्म दिया  । विह्लल - विहास ( हम ज्यादातर इन्हें हल-विह्लल के नाम से जानते है।)


आज का सवाल : - कोणिक की पत्नी का नाम क्या था?

#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  25


मेघकुमार


राजा श्रेणिक के चरित्र में आने वाले अन्य किरदार जैसे  कि मेघकुमार आदि की कथा शुरू कर के हम रसभंग न हो इसलिए अंत तक देख लेंगे। जैसेमेघकुमार के जन्म से दीक्षा के बीच में भी श्रेणिकराजा के साथ अन्य घटनाक्रम हुए पर वह मेघकुमार का पूरा कथानक हो जाने के बाद करेंगे। ताकि मेघकुमार की कथा बिना रसभंग पूरी हो ।


छोटीमाता धारिणी के दोहद के लिए पिता को आश्वस्त कर अभयकुमार अपने महल में आये। उन्हें लगा कि अकाल समय में मेघवर्षा करना सामान्य मानव का काम नही है। उन्होंने सोचा यह काम मात्र कोई देव ही कर सकेगा। उन्होंने अट्ठम तप करके एक देव का आराधन किया। देव आया। अभयकुमार ने माता धारिणी के दोहद के विषय में मदद मांगी। देव ने अभयकुमार को मदद के लिए निश्चिन्त किया।

उन्होंने अपनी वेक्रिय शक्ति से बड़े-बड़े मेघ की रचना की। पूरा आकाश बादलों से घिर गया। गर्जना हुई, बिजलियां चमकी,  मंद वायु के साथ हल्की हल्की बारिश होने लगी। धारिणी रानी अपने दोहद की पूर्ति होते देख प्रसन्न होकर सिंचानक हाथी ( यह हाथी भी एक महान आत्मा थी, हम इसकी कथा आगे देखेंगे। ) पर बिराजकर नगरभ्रमण करने लगी। उसके पीछे राजा भी गजारूढ होकर निकले। सवारी नगर में घूमते हुए उपवन में पहुंची । रानी धारिणी का दोहद पूरा हुआ। संतुष्टि के साथ सब वापस राजमहल आये।   धारिणी अब प्रसन्न होकर नियमपूर्वक गर्भपालन करने लगी।


गर्भकाल पूरा होने के बाद रानी ने एक सुंदर स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया। दोहद के अनुसार  उनका नाम मेघकुमार रखा गया। राज्यपरिवार में उत्सव मनाया गया। कई  धायमाताओं द्वारा उनका पालन होने लगा। दिन-महीने-बरसों बीतने लगे। राजकुमार मेघ युवान हुए। पुरुषोचित  सभी कलाओ में प्रवीण हुए। 

श्रेणिकराजा ने 8 सुंदर राजकन्याओ के साथ उनका पाणिग्रहण करवाया। संसार के सुख भोगते हुए दिन बीत रहे थे।


उस काल उस समय में तीर्थंकर भगवान महावीर समस्त लोक में अपने केवलज्ञान के माध्यम से ज्ञान का प्रकाश फैलाते हुए विचरण कर रहे थे।


प्रभु एकबार विहार करते हुए राजगृही नगरी पधारे। राज्यपरिवार तथा नगरजन हर्षित होकर दर्शन वन्दन को उमड़ने लगे । मेघकुमार भी आये। प्रभुकी अदभुत देशना सुनकर भाव विभोर हो गये।  संसार से विरक्ति पाकर संयमग्रहण के लिए तत्पर हो गये। राजमहल आकर माता-पिता से संयम लेने की आज्ञा मांगी। माता-पिता को अनुमत कर भव्य दीक्षा महोत्सव के बाद  उन्होंने वीरप्रभु से 5 महाव्रत अंगीकार किये।


दीक्षा के दिन के बाद संयमग्रहण की प्रथम रात्री का प्रसंग था।  संतो ने रात्री में संतोके सोने के लिए संथारे ( यहां संथारा मतलब बिस्तर) बिछवाये। संयम पर्याय में मेघकुमार सबसे छोटे थे। तो उनका संथारा दरवाजे के पास आये। दीक्षा की प्रथम रात्री थी। मेघकुमार से मेघमुनि बने संत जहाँ सोए थे ,  वहां रात्री में संतो का परठने हेतु ज्यादा आवागमन हुआ। संतो के चलने से रज उड़कर मेघमुनि को परेशान करती रही। मुनियों के ज्यादा आवागमन से भी थोड़े विचलित हुये। पूरी रात सो न सके।


अब वे क्या करेंगे?


कल का जवाब : - कोणिक की पत्नी का नाम पद्मावतीजी


आज का सवाल : - मेघकुमार के पूर्वभव का नाम ?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  26

10 /12/20


मेघकुमार

दीक्षा की प्रथम रात्री सन्तो के आवागमन तथा उनके पांव से उड़ती रज से मेघ मुनि विचलित हो गये। उन्होंने सोचा : - जब तक मैं राजकुमार था, - सभी संत  मेरी बहुत इज्जत करते थे, सब स्नेह से - आदर से बुलाते थे। जैसे ही मैंने दीक्षा ले ली , सब उपेक्षा करने लगे। मुझे सब से अंत में सुलाया। जहाँ सबकी पांवों की धुली से मैं ठीक से सो भी न सका। अब सुबह ही मैं प्रभुको बोलकर यह वेश त्याग कर राजमहल वापस चला जाऊंगा।


प्रातः हुई। मेघमुनि प्रभुके पास आये। सर्वज्ञ प्रभु तो उनके मनोभावों को जान गये थे। उन्होंने मेघमुनि से पूछा : - मेघ,  रात को हुए परिषह से घबराकर तुम श्रमणवेश छोड़ने के उद्देश्य से मेरे पास आये हो?

मेघ मुनि ने कहा : - हा, भंते।

वीरप्रभु ने फिर कहा : - मेघ, तुम इस जरा से परिषह से इतना घबरा गये। तुमने पिछले 2 भवो में कितने भयंकर उपसर्ग सहन किये है।  मैं तुम्हे तुम्हारे पिछले दो भवों  की कथा सुनाता हूँ।


वेताढ़य पर्वत की तलहटी के वन में तुम सुमेरुप्रभ नामक विशालकाय, बलशाली, सुडौल, रूपवान हाथी थे। एक हजार हाथी हथिनियों के तुम नायक थे। वन में अपने समूह के साथ तुम आनंद से अपने दिन गुज़ार रहे थे। 

एकबार ग्रीष्म ऋतु में सूखे लकड़ियों के टकराने से वन में भयानक आग लग गई। सब पशु पंखी इधर-उधर भागने लगे। भयानक लपटों में जंगल घिर गया था। वृक्ष के ऊपर-नीचे सूखे पत्ते, झाड़ियां सब जलकर भष्म होने लगे। कई प्राणी  भी   आग में जल गये। तुम भी भागते-भागते एक सरोवर के समीप पंहुचे। पानी की प्यास बुझाने तुम सरोवर के अंदर जाने लगे। पर प्रारंभ के दलदल में ही तुम फंस गये। जल्दी में बाहर निकलने के प्रयासों से तुम उसमे ज्यादा  धँसते गये।

उसी समय तुमने तुम्हारे समूह से किसी समय निकाले हुए तुम्हारे वैरी गजराज वहां आया। उसने शत्रुतावश अपने दांत से तुम्हें बहुत चोट दी। उस दलदल में फंसे होने से तुम प्रतिकार भी नही कर पाये। आखिर वह तो चला गया। तुम 7 दिन-रात तक अपार वेदना भोगकर अंत में मृत्यु को प्राप्त हुए। वहां से काल कर दक्षिण भरत में गंगा के दक्षिण किनारे एक हथिनी के गर्भ में उत्पन्न हुए। इस बार तुम्हारा नाम मेरुप्रभ था। चार दांत वाले तुम इस बार भी एक विशाल जोरावर हाथी थे।


युवा होने पर अनेक हथिनियों के साथ तुम अपने यूथ में सुखपूर्वक रह रहे थे। एकबार फिर तुमने दावानल का प्रकोप देखा। तब तुम्हे जातिस्मरण ज्ञान हुआ


उस ज्ञान में मेरुप्रभने क्या देखा ?



कल का जवाब : -- मेघकुमार के पूर्वभव का मेरु प्रभ तथा उससे पहले सुमेरूप्रभ

दोनो हाथी के भव


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  27

11:12:20

मेघकुमार


उस जातिस्मरण  ज्ञान में मेरुप्रभने अपना पूर्वभव देखा । उस आग को महसूस किया जिसने सबकुछ जलाकर भस्म कर दिया था।


उस आग को देखकर तुम्हें तुम्हारा पिछला भव याद आ गया। 

बार-बार जंगल में लगती आग से अपने यूथ  को बचाने के लिए तुमने एक मंडल बनाया। उस मंडल से सारे पेड़ पौधे घास सब उखाड़ कर उसे साफ मिट्टी का मैदान बना दिया। जहां आग के समय तुम शरण ले सको।


एक बार जब आग लगी तब सारे पशुपक्षी उस मंडल में आ गये। आग से बचने के लिए एक मंडल में सारे पशु आने से वह मंडल में एक तुस-भर जितनी जगह न बची। सब एक दूसरे से सटकर खड़े थे। बाहर आग जलती रही पर उस मंडल में जलने लायक कुछ नही था , इसलिए सब छोटी सी जगह में बचे हुए थे। तुम भी अपनी हथिनियों के साथ उसी मंडल में थे। एकबार तुमने शरीर खुजाने के लिए पांव उठाया। जब वापिस पांव रखने लगे तब देखा कि एक खरगोश तुम्हारे पांव उठाने से  हुए रिक्त स्थान में आकर बैठ गया। अब यदि तुम पांव नीचे रखते तो वह खरगोश दबकर मृत्यु को प्राप्त करता। पांव रखने की दूसरी जगह थी नही। पर तुमने अनुकंपा दिखाई। अपना पांव अद्धर ही (हवा में झूलते हुए)  रखा। पल, प्रहर, दिन बीते। वह आग करीब अढाई दिन चली। तुमने एक अद्धर पांव के साथ अढाई दिन-रात गुजारे। उस समय तुम्हारे मन में अनुकंपा के शुभ भाव से मनुष्यायु कर्म बन्ध किया। अढाई दिन-रात बाद आग शांत हुई। सब प्राणी मंडल से निकलकर स्वस्थान जाने लगे। खरगोश भी गया तब तुमने पांव नीचे रखा। पर अढाई दिन-रात पांव अद्धर रखने से वह पांव अकड़ गया था। भूख प्यास से अशक्त बने हुए तुम उस समय गिर गये। वहां तुम्हे दाहज्वर हुआ। 3 दिन तक अत्यंत वेदना सहकर सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर तुम मृत्यु को प्राप्त हुए, और श्रेणिकराजा के यहां राजकुमार हुए।

जन्म से ही सुख वैभव को प्राप्त किया। यह था तुम्हारे शुभ भावोंका परिणाम।


तिर्यंच के भव में तुमने पहले कभी न पाया हुआ सम्यक्त्त्वरत्न तुमने प्राप्त किया। उसी के परिणाम स्वरूप तुमने संयम स्वीकार किया। अब जरा से परिषह से डरकर अनमोल संयम छोड़ना चाहते हो???

मेघमुनि को उसी समय जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने दोनो भव देखे। उनका संवेग दुगुना बन गया। 

कुछ समय बाद वे बोले : - अहो भगवन ! मैं भटक गया था। आपने मेरे भव बताकर, सही समझ देकर स्थिर किया। आप मुझे पुनः दीक्षित करे। अब मैं ईर्यासमिति के पालन हेतु यह 2 नेत्र रखकर अपना सारा देह, सारा जीवन संतोकी वैयावच्च के लिए समर्पित करता हूं।


पुनः संयम अंगीकार कर मेघमुनि उत्कृष्ट भाव से वैयावच्च, 12 प्रतिमा, ज्ञानाराधना आदि से संयम पालनकरने लगे।बारह वर्ष की संयम पर्याय बाद अंत में आयुष्य पूर्ण होता देख एक मास की अनशन संलेखना के साथ काल को प्राप्त कर विजय अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए।

वहाँ से आयु पूरा कर महाविदेह में मनुष्यभव में जन्म लेकर संयम आराधना कर मुक्त बन जाएंगे।




कल का जवाब : -- मेघमुनि की संयम पर्याय 12 वर्ष थी


आज का सवाल : मेरुप्रभ हाथी की आयु कितनी थी?

#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  28

12:12:20

श्रेणिक नरेश को सम्यक्त्व यानी सुदेव सुगुरु सुधर्म की सही समझ कब कैसे किससे प्राप्त हुई यह समझने के लिए हम उनका अनाथी मुनि से मिलन का घटनाक्रम देखते है। 

#अनाथी मुनि


एक बार राजगृही के सम्राट , अभी तक जैन धर्म से थोड़े अनजान श्रेणिक राजा भ्रमण करते हुए मंडीकुक्षि उद्यान में जा पहुंचे। उद्यान में एक वृक्ष के नीचे ध्यान अवस्था मे एक  मुनि विराजमान  थे।  अत्यंत सुंदर रूप वाले , शांत व सौम्य व तेजस्वी मुखमुद्रा युक्त  देह वाले युवान को मुनि अवस्था में देखकर वे आश्चर्य चकित हो गये। उन मुनिराज के पास जाकर उन्होंने वन्दन कर पूछा

: - महात्मन, आप इतने रूपवान हो , नवयुवान अवस्था में हो फिर आप साधु क्यों हुए ?


श्रेणिक राजा के पूछने पर  मुनि उत्तर देते है : - राजन,  मैं अनाथ था ।

श्रेणिक राजा मुस्कुराकर कहते है : - बस, इतनी सी बात, मेरे साथ चलो, अब  मैं तुम्हारा नाथ बनूंगा। तुम्हे वे भौतिक सारे सुख साधन दूंगा जिसकी तुम्हे आवश्यकता होगी। मेरी पुत्री से तुम्हारा विवाह करवाकर तुम्हे राज्य भी दूंगा। तुम अनाथ नही रहोगे।  मैं तुम्हे सुखी बना दूंगा।


अनाथी मुनि : - राजन, आप स्वयं अनाथ हो, मेरे नाथ कैसे बनोगे?

श्रेणिक राजा : - आश्चर्य चकित हो गये, और कहने लगे मुनि मैं मगध का सम्राट श्रेणिक, जिसके पास 33,000 हाथी, इतने ही अश्व, उतने ही रथ, 33  करोड़ सैनिकों वाली मेरी सेना, 500 रानियों का स्वामी, करोड़  उपरांत ग्राम में जिसका स्वामित्व, ऐसे मुझे तुम अनाथ कह रहे हो? क्या तुम्हें झूठ का पाप नही लगेगा??


अनाथी मुनि : - राजन, आप नाथ - अनाथ का वास्तविक भेद समझते नही, इसलिए ऐसा कह रहे हो। मेरी कथा आप सुनो।


 मैं कौशांबी नगरी के वैभवी, धनाढ्य सेठ प्रभुत धन का पुत्र हूं। एक बार मेरे शरीर मे अत्यंत पीड़ादायी घोर वेदना उत्पन्न हुई। जैसे इंद्र ने वज्र से मुझ पर प्रहार किया हो।

अनेकों उपाय करने पर भी मेरी वेदना मिटी नही। मेरे दर्द को मिटाने वाले को मेरे पिता ने अपनी संपत्ति देने को तैयार हो गये पर कोई  वैद्यराज मेरा इलाज नही कर पाया। मेरी अर्धांगिनी मेरे  दु:ख में मेरी बहुत सेवा करती रही, मेरे पास बैठकर मेरी वेदना देखकर रोती रही, पर वो भी मेरा दर्द दूर नही कर पाई। मेरे सभी स्वजन मिलकर भी मेरी वेदना दूर नही कर पा रहे थे। सब  वैद्यराज हकीम हार गये। सब स्नेही स्वजन मेरी वेदना के आगे लाचार थे।


सब को त्रस्त देखकर मैने फिर नक्की किया : यदि मेरा दु:ख दूर हो जाये तो सभी को अभयदान देने वाले, क्षान्त दांत ऐसे मुनि पद को मैं ग्रहण करूँगा।

राजन, धर्म के प्रभाव से उसी समय मेरी वेदना अदृश्य हो गई।

आखिर मैंने संयम ग्रहण कर विचरण करता हुआ यहां आया हूं। 

इस जगत में कोई स्नेही स्वजन, कोई धन-वैभव किसी के कर्मोदय में मदद कर शरणरूप  नही बन सकता। एकमात्र शरण धर्म ही होता है।


यह वृतांत सुनकर श्रेणिक राजा सही अनाथीपने का मतलब समझ गये। श्रेणिक राजा इस प्रसंग बाद सम्यक्त्त्व पाकर जैन धर्मानुरागी बनते है। क्रमशः उनके भाव और दृढ़ होते जाते है। वीर प्रभुकी शरण मे आकर दृढ़ बने श्रेणिक राजा ने आगे चलकर धर्म श्रद्धा व उत्कृष्ट धर्म दलाली से तीर्थंकर नाम कर्म का  बंध किया। 



जिनवाणी विपरीत अंशमात्र प्ररूपणा की हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

कल का जवाब : -- मेरुप्रभ हाथी की आयु 100 वर्ष थी


आज का सवाल : श्रेणिक राजा व अनाथीमुनि का मिलन किस उद्यान में हुआ?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -  29

13:12:20

श्रेणिकराजा कई रानियो से पुत्र हुए।  एक अन्य पुत्र थे नंदिसेन कुमार। काली, सुकाली आदि रानी के काल कुमार आदि अनेक पुत्र हुए ।

हम राजकुमार नंदिसेन की कथा देखते है।

पूर्वभव,


प्राचीन समय में एक नगरी में एक ब्राह्मण था।  उस ब्राह्मणने एक बड़ा यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में उसे एक सेवक की आवश्यकता थी । उसने इस कार्य कर लिए एक दास को बुलाया। परिस्थिति से दरिद्र पर स्वभाव से भद्र, धार्मिक वृत्ति वाले  दास ने कहा की वह यज्ञ में उनका सेवक अवश्य बनेगा। उसने ब्राह्मण से एक विनती की कि यज्ञ में आये ब्राह्मणों के भोजन के बाद बचे भोजन को वह ले जाएगा। ब्राह्मण ने हा कर दी। 

बड़े भाव से वह सेवक यज्ञ का काम करता तथा बाद में बचे भोजन को ले जाकर निर्ग्रन्थ मुनियो की गवेषणा करता। कोई मुनि मिल जाए तो उन्हें आहार व्होराकर अत्यंत आनंदित होता। इस तरह भावोल्लास पुर्वक संतोको आहारदान देकर उसने देवायु बन्ध किया। काल कर देव बना । देवायु पूर्ण कर श्रेणिकराजाका नंदिसेन नामक पुत्र बना।

समय बीतते वह युवान बना। 


एक बार श्रेणिकराजा के दरबार में राज्य के एक वन में स्थित ऋषि के आश्रम से एक संदेश आया। उस आश्रम के पास के वन में एक सुंदर बलशाली हाथी है । वह राजा की हस्तिशाला के योग्य हाथी है। सैनिक उस हाथी को लेने के लिए आये।

कौन था यह हाथी?

उसका पूर्वभव 

एक घने जंगल में हाथी का एक समूह रहता था। उस हाथी समूह में एक नायक महाबलशाली हाथी था। उसके समूह में  बहुत सारी हथनियों को अकेला भोगता हुआ वह अकेला हाथी था। उसको इन हथनियों के स्वामित्व की ऐसा आसक्ति हो गई थी की अन्य किसी नर हाथी को समूह में घुसने नही देता था। यही नही पर जो भी हथनिया गर्भवती होती तब वह हथनी मादा को जन्म देती तब उसे कोई तकलीफ नही थी,  पर यदि नर हाथी को जन्म देती तब वह नायक हाथी उस नर बच्चे को उसी समय मार डालता था, ताकि वह हाथी बड़ा होकर इस समूह का नायक न बन जाए। कैसा तीव्र कषाय!😢


उस समूह में एक हथनी गर्भवती बनी। जिस ब्राह्मण ने यज्ञ करवाया था वह जीव अपने भव करते हुए उस हथनी के गर्भ में आया।  उस हथनीने अपने गर्भ को बचाने की युक्ति ढूंढ ली। समूह के निवास से थोड़े दूर जंगल के पास ही  तापसो का रमणीय आश्रम था। घूमते हुए उस गर्भवती हथनी ने जब आश्रम देखा वह स्थान उसे योग्य लगा। 

गर्भ प्रसव का समय  जान कुछ दिन पूर्व  उस हथनी ने लंगड़ाने का नाटक शुरू कर दिया। जब भी वह समूह साथ वनभ्रमण, आहार के लिए चलते तब वह पीछे रह जाती। शुरू में एक प्रहर, फिर 2 प्रहर, 3 प्रहर , फिर 1/2 दिन की देरी से वह अपने स्थान पहुंचती। सब ने समझ लिया थाकी पैर की चोट की वजह से वह देर करती है। नायक भी यह समझकर उसे कुछ नही कहता। ऐसे ही प्रसवकाल नजदीक जानकर वह समूह से अलग होकर आश्रम में चली आई। वहां उसने एक नर हाथी को जन्म देकर कुछ दिन उसकी पालना कर आश्रमवासीयो के भरोसे उस बालक को छोड़कर चली गई।  

आश्रम के तपस्वी उसका पालन करने लगे। वह बाल  हाथी भी धीरे धीरे उन तपस्वियों से घुलमिल गया। क्रीड़ा करता वह अपनी सूंढ़ में पानी भरकर उस आश्रम के पेड़ पौधों से सींचता। तपस्वियों ने यह देख उसका नाम सेंचनक रख दिया।  युवा होते ही वह मदमस्त  , बड़े दंतशूल युक्त, बलशाली गजराज बन गया।




जिनवाणी विपरीत अंशमात्र प्ररूपणा की हो तो मिच्छामी दुक्कडम।



कल का जवाब : -श्रेणिक राजा व अनाथीमुनि का मिलन मण्डिकुक्षि उद्यान में हुआ। 




आज का सवाल : नंदिसेन मुनि से पतित होने के बाद रोज कितने जीवो को प्रतिबोध देते थे?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक -30

14:12:20

तपस्वियों के लाड़-दुलार पूर्ण पालन करने से बाल हाथी अब युवा मदमस्त बलशाली विशाल गजराज सेंचनक बन गया। 

एकबार सेंचनक हाथी नदी पर जल पीने गया तब अपने पिता हाथी व हाथी समूह  को देखा। यूथपति पिता व सेंचनक - दोनो एक दूसरे से भीड़ गये। सेंचनक ने उस युद्ध में पिता को मार डाला। स्वयं उस यूथ का स्वामी बन गया। उसे अपने जन्म का इतिहास पता चला। 

तब उसने सोचा कि जिस तरह मेरी माता ने आश्रम में आकर मुझे जन्म दिया और बाद में मैंनेअपने पिता को मार दिया वैसे मेरी कोई हथिनी इस आश्रम में शरण लेकर मेरे पुत्र को जन्म न दे इसलिए मुझे इससे पहले हीं इस आश्रम को ही नष्ट कर देना चाहिये।

अपने बल से उसने पूरा आश्रम तोड़-फोड़ दिया। सब तपस्वियों को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने श्रेणिकराजा को संदेश पहुंचाया कि इस वन में राज्य की हस्तिशाला के योग्य एक हाथी है। उसे आप मंगवा लीजिए।

श्रेणिकराजा ने सैनिक भेजे।। सेंचनक को बंधन में बांध लिया गया। उन तपस्वियों ने अब हाथी को कहा : -  हे दुष्ट, जिस आश्रम में तू पला, बढ़ा, जिन तपस्वियों के कारण तू जीवित रहा उसी आश्रम व तपस्वियों  को ही तू तकलीफ दे रहा है!! तू सच में बंधन योग्य ही है। 

तपस्वियोंके यह वचन सुनकर वह क्रोधित हुआ। उसने सारे बंधन तोड़ कर सबको भगाने लगा। सैनिकों ने बहुत विविध तरह से उसे वश में करने की कोशिश की पर वह बहुत उत्पात मचाने लगा।

उन सैनिकों के साथ राजकुमार नंदिसेन भी थे। यह नंदीसेन उस यज्ञकर्ता ब्राह्मण के सेवक का जीव था और सेंचनक उस ब्राह्मण का जीव। राजकुमार नंदिसेन को देखते ही सेंचनक के मन में उहापोह हुआ। गंभीर चिंतन से उसको जातिस्मरण ज्ञान हुआ। ब्राह्मण के भव में सेवक का मिलन याद आया। वह शांत हो गया। 

नंदिसेन के मन में भी हाथी के लिए स्नेह जागा । वह हाथी को पुचकारते हुए, स्नेह से उसके दंतशूल पकड़कर उसके ऊपर चढ़ गया। सेंचनक ने कोई विरोध नही किया। राजकुमार के प्रयासों से वह निर्विरोध खूंटे से बंध गया। राज्य में आकर हस्तिशाला में उसे रखा गया। धीरे - धीरे उसके पराक्रम उसका बल देखकर वह श्रेणिकराजाका प्रितिपात्र बन गया।


यह सेंचनक हाथी का आगे क्या होता है वह वृत्तान्त हम कुछ समय बाद प्रसंग पर देखेंगे।


समय बीतता जा रहा था। वीर प्रभु अपने ज्ञान से जगतको आलोकित करते हुए भव्य जीवो को प्रतिबोधित करते हुए एक बार राजगृही पधारे। नगरजनो का दर्शन वन्दन हेतु सैलाब उमड़ पड़ा। राज्यपरिवार के साथ नंदिसेन भी प्रभु दर्शन करने गये। प्रभुकी अलौकिक अदभुत वाणी सुनकर विरक्त बने। माता-पिता से अनुमति लेकर संयम लेने को उत्सुक बन गये। 

तब एक देव ने उन्हें कहा  कि अभी आपके भोगावली कर्म बाकी है। कुछ समय बाद संयम लेना। पर राजकुमार पर निर्वेदभाव चरमसीमा पर था। उन्होंने उस देव वाणी की उपेक्षा कर संयम ग्रहण किया । ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप युक्त उग्र आराधना करने लगे।


अब आगे?



कल का जवाब : -  नंदिसेन मुनि संयम से पतित होने के बाद रोज 10 जीवो को प्रतिबोध देते थे । 




आज का सवाल : यज्ञ कर्ता ब्राह्मण का जीव क्या बना?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 31

15:12:20

नंदिसेन मुनि


संयम लेकर उग्रतप आराधन करने लगे। 

तप के प्रभाव से कई लब्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई। पर वे उसका प्रयोग नही करते थे।

एकबार वे गोचरी हेतु किसी गणिका के घर गए, और धर्मलाभ कहा । तब वहां गणीका ने परिहास किया - मुनिवर, यहां धर्म नही धनलाभ चाहिए। बिना पैसे यहां कुछ नही मिलता। मुनि के भोगावली कर्म उदय में आ रहा था। परिहास से खिन्न मुनि ने अपनी लब्धि से वहां धन की वर्षा कर दी।


बहुत धन देखकर गणिका पिघल गई। उसने मुनिराज को वहीं रोकने के प्रयास किये।  कर्मों का उदय में आना हुआ और , मुनि रुककर संसारी बन गए। गणिका के साथ भोग को तैयार हो गये।

उस गणिका के आवास पर रुककर भोग भोगने लगे।  पर भीतर संयम जाग्रत था। उन्होंने प्रण लिया था : - जब तक  मैं रोज 10 व्यक्तियों को धर्म की प्राप्ति नही करवाऊंगा तब तक भोजन नही करूँगा।

अब गृहस्थावस्था में रहकर भी वे प्रतिदिन 10 व्यक्तियों को धर्म प्राप्ति करवाते थे। उनके बोध से वे संयम ग्रहण कर आराधना करते।

यह सिलसिला करीब 12 वर्ष तक अविरत चला। हजारों व्यक्तियों ने उनसे बोध पाकर संयम ग्रहण किया ।


एक दिन 9 आदमी उनसे धर्म सुनकर संयम स्वीकार करने को तैयार हो गए पर दसवां तैयार नही हो रहा था। नंदिसेन एक आदमी को सही धर्म समझा रहे थे। पर उसे समझने में विलंब हो रहा था। भोजन का समय होने पर गणिका ने बुलाने के लिए दासी को भेजा। पर जब तक 10 वां आदमी संयमी न बने तब तक भोजन नही लेने का नियम था। 2 बार दासी के बुलाने पर जब अधिक विलंब हुआ  तब गणिका स्वयं बुलाने आई। पर नंदिसेन जी ने राह देखने के लिए कहा। 

तब गणिका ने फिर परिहास किया : - दसवें कोई तैयार नही तो तुम हो जाओ। तुम संयमग्रहण कर लो। 

अहो!!!!

दसवां  मैं?

बस यह सुनकर नंदिसेनजी का आतमराम जाग गया। गणिका ने परिहास के लिए क्षमा मांगी पर अब व्यर्थ। मुनि निर्वेद भाव में आ चुके थे। उसी समय गणिका से क्षमा मांगकर वे पुनः संयम की राह पकड़कर प्रायश्चित लिया। शुद्ध होकर आराधना में जुड़ गए। बहुत समय तक उत्कृष्ट संयम पालन करके अंत में काल कर देवलोक  पहुँचे ।



कल का जवाब : -   यज्ञ-कर्ता ब्राह्मण का जीव कुछ भव बाद सेंचनक हाथी बना।




आज का सवाल : नंदिसेन जी मुनि ने संयम से पतन होने बाद  कितने वर्ष बाद पुनः संयमग्रहण किया??


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 32

16:12:20

रानी चेलना पर संदेह


महारानी चेलना में आसक्त होकर श्रेणिक  भोगमय जीवन व्यतीत कर रहा था। 

पौष-माघ महिने की भयंकर शीतऋतु का समय था। उन दिनों शूल के समान छाती में चुभने वाली तीव्र वायु लहर चल रही थी। ऐसे समय में चरम तीर्थंकर भगवान महावीरस्वामी का राजगृही में पदार्पण हुआ। वे नगरी के बाहर स्थित गुणशील उद्यान में बिराजे।

अनाथी मुनि से सम्यक्त्व की प्राप्ति बाद राजा श्रेणिक जिनेश्वर व जिनेश्वर-प्ररूपित मार्ग में अनुरक्त *हुआ था । महारानी चेलना  सहित श्रेणिकराजा प्रभु के दर्शन करने गये। प्रभुके दर्शन वन्दन बाद वापिस राजमहल लौट रहे थे। दिन का तीसरा प्रहर चल रहा था। राह में उन्होंने एक प्रतिमाधारी संत को जलाशय के पास उत्तरीय वस्त्र रहित ध्यानस्थ देखा। राजा- रानी रथ से नीचे उतरे और मुनि को भक्तिपूर्वक वन्दन नमन किया। जलाशय के पास की तीव्र शीतलहर के बीच उनकी साधना देखकर वे नतमस्तक हो गये। प्रसंशा अनुमोदना कर के वे स्वस्थान आये।


रात के समय जब राजा-रानी निंद्राधीन थे, तब महारानी का हाथ नींद में दुशाला से बाहर निकल गया। तब अत्यंत शीत हवा का स्पर्श होने से रानी जाग गई। वे सोचने लगे । कितनी असह्य ठंडी है। उनसे महल में रहकर मात्र हाथ को हवा लगी तो भी नींद खुल गई। चेलना को दिन में दर्शन किये  उन मुनि का स्मरण हो आया। और उनके मुख से शब्द निकले कि ऐसी असह्य ठंडी को वे कैसे सहन करते होंगे। यद्यपि यह वाक्य मुनि के लिए आदर अहोभाव युक्त थे। परन्तु उसी समय जागे श्रेणिकने वह वाक्य सुन लिया। मनुष्य का मन - कितना विचित्र!! गलत बातें जल्दी सोच लेता है। राजा को रानी के शील में संदेह उत्पन्न हो गया। उसने सोचा जरूर रानी अपने पुराने प्रेमी को याद कर रही है। श्रेणिकराजा अब सो न पाये। शक ने उनके मस्तिष्क का चैन छीन लिया। 

रानी निर्दोष थी, वे तो मुनि के लिए अहोभाव युक्त सोच रही थी। रानी सो गई।

पर राजा ने करवटें बदलते रात गुजारी। उन्हें लगा की सारी रानियां दुश्चरित्र है।


सुबह महल से निकलकर राजा ने अभयकुमार को आदेश दे दिया। इस अंतःपुर की सभी रानियां दुराचारिणी है। तुम इस पूरे अंतःपुर में आग लगा दो। 

अभयकुमार ने राजा को समझाने का प्रयास किया परंतु राजा अत्यधिक क्रोध में थे। उन्होंने शीघ्रता से आदेश का पालनकरने का बोला और निकल गये। 

वे प्रभु के दर्शन करने गये। देशना सुनने के बाद श्रेणिकने प्रभु से अपना संदेह व्यक्त करते हुए पूछा : - भगवान, चेलना सिर्फ मुझ में ही अनुरक्त है या अन्य किसी में भी अनुरक्त है?

तब प्रभु ने कहा : - राजन, चेलना सर्व प्रकार से निर्दोष, मात्र तुममें ही अनुरक्त, उच्च चारित्र्य युक्त सती है। तुमने उस पर वृथा संदेह किया। उसकी रात की उक्ति एक प्रतिमाधारी मुनि को लेकर थी। तुम उस पर पूर्ण विश्वास करो।

राजा को विश्वास हो गयाद। पर उन्हें याद आया कि वे तो अभयकुमार को पूरा अंतःपुर जलाने का आदेश देकर आये है। एकदम से उचट गये। कंही आदेश का पालन कर दिया, तो बडा अनर्थ हो जाएगा। निर्दोष को दंडित करने का कलंक लग जाएगा। वे शीघ्रता से महल की और भागे।

अंतःपुर को दूर से देखने पर आग की लपटे व धुंआ दिखने लगा। 

श्रेणिकराजा स्तब्ध हो गये।

अब आगे?



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब : - नंदिसेन जी मुनि ने संयम से पतन होने बाद  12 वर्ष बाद पुनः संयमग्रहण किया ।

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 33

17:12:20

रानी चेलना पर संदेह का निवारण


दूर से अंतःपुर में से आग की लपटें व उड़ते धुँए को देखकर श्रेणिकराजा स्तब्ध रह गये। उन्होंने सोचा अभयकुमार ने आदेश अनुसार आग लगा दी।

तभी रास्ते में अभयकुमार आते हुए दिखाई दिए। उन्होंने अभयकुमार से पूछा - क्या तुमने मेरे आदेश का पालन किया।

अभयकुमार ने जलती आग व धुँए की तरफ इशारा किया। और कहा : - जी महाराज, आपकी आज्ञा का पालन उसी समय कर दिया गया।

श्रेणिक :- अरे अधम, अपनी  माताओं को जलाकर मारते हुए तुम्हें जरा भी संकोच नही हुआ? उन्हें मारने के साथ तूं भी क्यों जलकर नही  मरा ? तूं अभी तक जीवित क्यों है? राजा अत्यंत उद्वेग में थे। 

अभयकुमार : - महाराज, मै जिनेश्वर देवका परम उपासक हूं । भगवंत का उपदेश सुनने वाला आत्मघात कर कभी भी बालमरण नही मरेगा। समय आने पर मैं स्वयं त्यागी बनकर अंतिम साधना करते हुए इस नश्वर शरीर का त्याग करूँगा।


श्रेणिक : - अरे पापी, मेरी आज्ञा का पालन करने से पहले तुने तनिक अपनी बुद्धि से विचार क्यों नही किया।  तूं तो बड़ा समझदार था, फिर तुम्हें तो मेरे आवेश को पहचानकर हीं कार्य करना था। हाय, यह मैंने क्या कर दिया। श्रेणिकराजा शोक के आवेग में वहीँ मूर्छित हो गये।

अभयकुमार ने शीतल जल से उनका उपचार किया। उन्हें होंश आते ही अभयकुमार ने कहा : -  तात, मुझे आपके आदेश पर बहुत आश्चर्य हुआ था, मुझे यह समझ में आ गया था  कि आपको कोई भ्रम हुआ और उसी कारण आपने क्रोध के आवेग में अनर्थकारी आदेश दे दिया। अन्यथा मेरी सभी माताएं शीलवती है।  महाराज , मैने सोचा  कि आपका क्रोध जब शांत होगा तब आपको सत्य समझ में आएगा। तब तक मुझे माताओं की रक्षा करनी होगी। फिर भी मुझे महाराज के आदेश का पालन तो करना ही था। आप जरा वहां देखिए। जो आग की लपटें उठ रही है वह मैने अंतःपुर के पास रही हस्तिशाला की खाली जीर्णशीर्ण कुटिया जलाई है वहां से उठ रही है। धुंआ भी उन कुटियाओं के जलने का है। आपका अंतःपुर व मेरी सभी माताएं सुरक्षित है। आप निश्चिन्त हो जाइये। 

अभयकुमार के शीतल वचनों से श्रेणिकके हृदय को जैसे अमृत का सिंचन हुआ हो वैसा आनंद हुआ। पल भर पहले का शोक दूर हुआ। 

उन्होंने प्रसन्नता से अभयकुमार को गले से लगाकर कहा : - हे पुत्र, मैं तुम्हें पाकर धन्य हो गया। तुम सच में बुद्धिनिधान हो। मेरे आवेश के कारण मेरे मस्तक पर लगने वाले महाकलंक तथा जीवनभर के संताप से तुमने मुझे बचा लिया है।

पुत्र को पुरस्कृत कर राजा राजमहल में आए। चेलना व अन्य रानियोंको सुरक्षित देखकर संतुष्ट हुए।



नोट : - कुछ जगह इस प्रकार का वर्णन भी मिलता है। इस घटना से कुछ समय पहले वीर प्रभु की देशना सुनकर अभयकुमार पिता से संयम ग्रहण करने की अनुमति मांगते है। तब मोहवश श्रेणिकराजा इनकार करते है। अभयकुमार के अति आग्रह-वश श्रेणिक वचन देते है  कि जब कभी  मैं तुम्हे क्रोध करके अत्यंत कटु वचन कहुं तब तुम उस समय दीक्षा ले लेना। उन्हें विश्वास था  कि वे अभयकुमार पर कभी क्रोध नही करेंगे। पर इस घटनाक्रम के बाद श्रेणिकराजा के क्रोध में दिए गये उलाहने से अपने पूर्व वचन को याद कर अभयकुमार उस समय  संयम ग्रहण कर लेते है । ऐसा भी कुछ जगह पढ़ने में आया है। परन्तु "तीर्थंकर चरित्र" पुस्तक के अनुसार उसके कई समय बाद दीक्षा का उल्लेख है। तत्त्व केवली गम्य ।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब : -  राजगृहीके बाहर गुणशील उद्यान में प्रभु बिराजे ।


आज का सवाल : - श्रेणिकराजा का चेलना के प्रति संदेह किसने दूर किया


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 34

18:12:20

चेलना के प्रति रहा संदेह दूर करने के बाद श्रेणिक का चेलना के प्रति मोह व सन्मान और बढ़ गया। उसने अभयकुमार से चेलना के लिए एक भव्य महल बनवाने की सूचना दी।

अभयकुमार ने उसकी तैयारी शुरू करवाई। एक सुथार को उस भवन के लिए उत्तम लकड़ियां लाने जंगल में भेजा। सुथार ने जंगल में एक उच्च वृक्ष को योग्य जानकर उसे भवन निर्माण हेतु काटने का निर्णय लिया। पर उस वृक्ष में यदि किसी देव का आवास हुआ तो? यह सोचकर उसने पहले उस वृक्ष की आराधना की।

उस वृक्ष पर एक व्यन्तर देव का निवास था। बढ़ई का निर्णय जानकर वह स्वयं अभयकुमार के पास आया।

उसने उस वृक्ष को बचाने के लिए अभयकुमार से कहा। बदले में वह देव स्वयं एक सुंदर महल का निर्माण कर देगा यह वचन दिया। अभयकुमार ने उस बढ़ई को वापिस बुलवा लिया।  देव ने अपने वचन अनुसार एक बहुत विशाल रमणीय, मनोहर उद्यान से युक्त, सुंदर वृक्ष लताओं से सजा हुआ, सभी ऋतुओंके फल-फूल हमेशा रहने वाले बगीचे के सहित राजमहल तैयार कर दिया। राजा-रानी उसमे अब प्रसन्नता से रहने लगे।

राजगृही नगरी में एक विद्यासिद्ध मातंग रहता था। एक बार उसकी गर्भवती स्त्री को आम्रफल खाने का दोहद उत्पन्न हुआ। उस स्त्री ने अपने पति से आम्रफल लाने को कहा । तब मातंग सोच में पड़ गया। बिना आम की ऋतु  के आम कहां से लाऊंगा!?

तब उसकी स्त्री ने ही सुझाव दिया : - चेलना रानी के नवनिर्मित भवन के बगीचे में सभी ऋतु के फल-फूल हमेशा उपलब्ध रहते है, वहीं से तोड़ लाओ।

वह बगीचा सघन सुरक्षा युक्त था। फिर भी गर्भवतीपत्नी का दोहद पूरा करने वह विद्याधारी मातंग रात्रि के समय में उद्यान में पहुंच गया। वहां आम से लदे कई वृक्ष थे। पर सभी आम ऊंचाई पर थे। उस ने अवनामिनी विद्या का सहारा लिया और डाली झुका कर आम तोड़ लिए और चला गया ।

सुबह जब रानी उस उपवन में आई तब वहां फल-विहीन डाली देखकर उसे विश्वास हो गया  कि नक्की कोई चोर उपवन में घुसकर आम तोड़ ले गया। पर वह कोई विशिष्ट शक्तिशाली मनुष्य ही होगा क्योंकि इतनी ऊंचाई से आम तोड़ना सरल नही था।

यह बात राजा को पता चली। उसने अभयकुमार को चोर पकड़ने का आदेश दिया। चूंकि राजमहल की सुरक्षा का प्रश्न था। 

अभयकुमार चोर को पकड़ने का प्रयास करने लगे।

क्या करेंगे वह आगे ?




सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब : -  श्रेणिकराजा का चेलना के प्रति संदेह  वीरप्रभुने दूर किया।


आज का सवाल : - ऊंची डालीको मातंग ने किस विद्या से झुकाया ?

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 35

 19:12:20

अभयकुमार आम चोर को पकड़ने का प्रयास करने लगे।

थोड़ा अवलोकन करने, विचार करने के बाद वे एक नाट्यशाला में गये जहाँ लोगो का आवागमन बहुत होता था। नाटक में विलंब हो रहा था।  तब अभयकुमार ने सबको एक सुंदर कहानी सुनाने का प्रस्ताव दिया।

सब राजी हो गये । अभयकुमार ने कहानी सुनाना शुरू किया।


वसंतपुर नामक एक नगर में एक निर्धन व्यक्ति रहता था । उसकी एक युवान रूपवती पुत्री थी। जो योग्य वर प्राप्ति हेतु कामदेव की पूजा किया करती थी।  पूजा के लिए एक उद्यानपालक से बिना पूछे कुछ फूल लेती थी। रोज-रोज फूलों की चोरी होते देख एक दिन उद्यानपालक ने उसे पकड़ लिया। और राजा के सामने ले जाकर दंड दिलाने की धमकी दी। युवती ने जब क्षमा मांगी तब उस पर मोहित हुए माली ने उसके साथ भोग की इच्छा व्यक्त की। 

तब सुंदरी ने कहा  कि अभी वह कुमारिका है। तथा पुरुष स्पर्श के योग्य नही।

तब उद्यानपालक ने उससे वचन ले लिया कि जब भी उसका विवाह होगा तब विवाह की प्रथम रात्री वह माली को आत्मसमर्पण कर देगी। संयोगों का विचार कर उस युवती को माली की शर्त माननी पड़ी। 


कुछ समय बीतने के बाद उसका विवाह हुआ। लग्न की प्रथम रात्री की बेला। सजी-धजी वह युवती अपने कक्ष में बैठी विचार कर रही थी। जब उसका पति कक्ष में आया तब उसने उद्यानपालक की घटना कह सुनाई और अपने वचनपालन के लिए माली के पास जाने की अनुमति मांगी।

पति के लिए यह अत्यंत कठिन था, पर उसने अनुमति दे दी। रात्री के सुनसान अंधेरे में वह पति आज्ञा लेकर माली से मिलने चली।

रास्ते में उसे एक चोर मिला। सद्य परीणीता युवती ने आभूषण पहन रखे थे। चोर ने वह आभूषण मांग लिए। तब युवती ने कहा  कि वह अपने वचनपालन के लिए जा रही है, वापिस आते समय अपने सारे आभूषण चोर को दे देगी। चोर को विश्वास हुआ औऱ उस युवती को जाने दिया।

आगे मार्ग पर एक मनुष्य-भक्षी राक्षस मिला। वह युवती को खाना चाहता था। तब युवती ने उसे भी चोर की तरह वापिस आकर अपनी इच्छा पूरी करने की अनुमति दी। उस राक्षस ने भी स्वीकार किया।

वह उद्यानपालक के पास आई। और अपना वचनपालन की बात सुनाई। तब इतनी रात को अपने एक वचन के लिए आनेवाली युवती को देखकर माली स्तब्ध रह गया। उसने युवती से पूछा  कि वह यहां क्यों आई,  कैसे आई ?  तब अडिगधर्मी युवती ने अपने वचनपालन हेतु , पति की आज्ञा, चोर, राक्षस की घटना कह सुनाई।  उसके धर्म पर अडिग श्रद्धा , वचनपालन की तत्परता देख माली का विवेक जाग उठा। उसने उस युवती का देवी के जैसा सन्मान कर उसे पवित्र रूप से ही लौटा दिया। वह पुनः क्रम से उस राक्षस, चोर के पास आई। सब जानने के बाद उसके व्यक्तित्त्व आदि से प्रभावित होकर पहले राक्षस , फिर चोर ने भी उसे सुरक्षित जाने दिया। उसकी घटना का वृत्तान्त सुनकर उसका पति भी स्वयं को धन्यभाग्य समझने लगा।


कहानी पूर्ण करने के बाद अभयकुमार ने उन दर्शकों से पूछा की उन्हें इन सबमें प्रभावशाली पात्र कौन लगा ?


ज्यादातर वर्ग ने उस युवती के पति को उदार व प्रभावशाली बताया, कुछ लोगो ने राक्षस को, कुछ ने उद्यानपालक को तो चंद लोगो ने उस युवती की निष्ठा की प्रसंशा की।

उनमे से एक व्यक्ति ने चोर की प्रसंशा की। तब अभयकुमार ने उसे पकड़ लिया।

मातंग ने चोरी स्वीकार की। अपनी गर्भवती पत्नी की इच्छानुसार उसने चोरी की यह स्वीकार कर क्षमा मांगी।

क्या अभयकुमार क्षमा देंगे??


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 36

20:12:20

कहानी सुनाकर युक्ति से अभयकुमार ने आम चोर मातंग को पकड़ तो लिया। परन्तु जब उसने पूरी घटना जानी तब उसे मातंग ज्यादा दोषी नही लगा।


उसने मातंग को राजा के सामने उपस्थित किया। सजा देने से पूर्व उससे महाराज को अवनामिनी विद्या सिख लेनी चाहिये। ऐसा अभयकुमार ने सुझाव दिया। राजा को भी यह सुझाव उचित लगा।

मातंग ने स्वीकार किया। वह विद्यामंत्र देने को तैयार हो गया। वह राजा को विद्यामंत्र सिखाने लगा। राजा उसे याद करने लगा।

पर श्रेणिक को विद्या आई ही नही । श्रेणिककी सारी मेहनत व्यर्थ हुई।

तब अभयकुमार ने कहा । उचित विधि से ही गुरु से विद्या ग्रहण की जाती है। 

राजा तो सिँहासन पर थे। और मातंग नीचे बिना आसन खड़ा था। विद्यादाता गुरु नीचे और विद्याभिलाषी सिंहासन पर ?

ऐसे में विद्या कैसे आएगी  ?

अब राजा को एहसास हुआ। उसने मातंग को सिंहासन पर बैठाया। स्वयं नीचे बैठकर विद्या ग्रहण करने लगा। तब उसे विद्या आ गई। मातंग ने उन्नामिनी और अवनामिनी दोनो विद्याएं राजा को सिखाई।


राजा प्रसन्न हुए। अभयकुमार के निवेदन पर विद्यागुरु बने मातंग को दंड से मुक्ति दी। मातंग ख़ुशी खुशी घर लौट गया ।


रानी दुर्गंधा

 

एकबार प्रभु महावीरस्वामी विचरण करते हुए राजगृही पधारे। प्रभुकी दिव्य देशना सुनने, चरम तीर्थंकर के पावन दर्शन करने, वंदनकर शीघ्र कर्म निर्जरा करने हेतु  नगरजनो का आवागमन होने लगा। राजा श्रेणिकभी दर्शन करने निकले।

मार्ग में एक जगह अत्यंत तीव्र बदबू का एहसास हुआ। श्रेणिकने सैनिकों को उस असह्य दुर्गंध का कारण तलाश करने भेजा। 


सैनिकों ने  आकर बताया  कि वहां वृक्ष के नीचे एक नवजात यानी तुरन्त की जन्मी हुई बालिका मिली है। उसके शरीर से तीव्र दुर्गंध फैल रही है। राजा श्रेणिकने अशुचि भावना का चिंतन कर माध्यस्थ भाव रखा। 

प्रभुके दर्शन वंदन व देशना श्रवण बाद श्रेणिकने प्रभु से उस बालिका विषयक जिज्ञासा रखी। किस कर्मोदय से उस बालिका के देह में से इतनी असह्य दुर्गंध फैल रही थी?

तब प्रभु ने बताया  कि यह बालिका पूर्वभव में एक धनाढ्य सेठ की धनश्री नामक रूपवान पुत्री थी। जब उसके भवन में उसके विवाह की तैयारी चल रही थी। तब एक निर्ग्रन्थ मुनि पधारे। पिता ने भाव से धनश्री को मुनि को प्राशुक आहार पानी वहोराने की आज्ञा दी। सदा सुगंधीद्रव्यों से लिप्त रहनेवाली धनश्री जब आहार वहोराने मुनि के समीप आई, तब उत्कृष्ट संयमपालक, मुनि के वस्त्रों में उसे दुर्गंध का अनुभव हुआ। तब उसके मन में तीव्र अरुचि का भाव उठा। संसार में सभी धर्मो में श्रेष्ठ है जिनधर्म। परन्तु इसमे  नियमित स्नान व वस्त्र प्रक्षालन की अनुमति क्यों नही दी गई। ऐसे सोचते हुए उसने तीव्र जुगुप्सा से कर्म बंधन कर लिया। अपने पाप की आलोचना किये बिना आयु पूरी कर वह इस नगर की वैश्या के यहां उत्पन्न हुई। उस वैश्या ने गर्भ गिराने का बहुत प्रयास किया मगर वह असफल रही। जब तीव्र वेदना से उसका जन्म हुआ तब वैश्या ने तुरन्त उसे फिंकवा दिया। 


 हे श्रेणिक ,  तुमने जो देखी वह बालिका ने निर्ग्रंथो के संयम से अरुचि की,  तो बुरा परिणाम भोग रही है। 


उस बालिका का भविष्य के बारे में पूछने पर प्रभुने राजा को चोंका देने वाली बात बताई।


क्या थी वह बात?



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब :  वह युवती वसंतपुर नगर की निवासिनी थी ।


आज का सवाल : - दुर्गन्धा का पूर्वभव में क्या नाम था?

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 37

21:12:20

रानी दुर्गंधा


मार्ग पर देखी बालिका का भविष्य के बारे में पूछने पर प्रभुने राजा को कहा : - राजन, वह बालिका किशोरवय में ही तुम्हारी पट्टरानी बनेगी। और तुम पर सवारी भी करेगी।

एक दुर्गंधमय बालिका मेरी भविष्य की पट्टरानी? और वह मुझ पर सवारी करेगी?

राजा को आश्चर्य हुआ। पर फिर कुछ दिनों में वह बात सब भूल गये।

उस बालिका को एक अहीर की (एक भरवाड़ जैसी कोम)निसंतान स्त्री ले गई। उसका पालनपोषण करने लगी। अशुभ कर्म धीरे-धीरे क्षीण होते-होते नष्ट हो गया, कुछ ही वर्षों में वह बालिका रूप-लावण्य युक्त अनुपम सुंदरी बन गई । 

किशोरावस्था में ही उसके अंग विकसित हो गये और वह युवती दिखने लगी।


एक बार कौमुदी महोत्सव में श्रेणिकराजा ने उसे देखा। राजा उस पर मोहित हो गये। अभयकुमार की मदद लेकर राजा ने उसके साथ विवाह कर लिया। कुछ ही समय में वह राजा की प्रिय पटरानियों में एक बन गई। 

एकबार राजा रानियों के साथ कोई खेल खेल रहे थे। उसमें एक शर्त थी, जो जीतेगा वह हारने वाले की पीठ पर सवारी करेगा।

खेल में हार-जीत सबकी होती रहती है। कभी कोई रानी जीतती तब वह राजा की पीठ पर अपना पल्लू रख देती और शर्त पूरी हुई मान लेती। मर्यादा युक्त वे राजा की पीठ पर सवारी नही करती। पर जब दुर्गंधा जीती तब उसने सच में स्वयं  श्रेणिकराजा की पीठ पर चढ़कर सवारी की। राजा को तब वीरप्रभु की वाणी याद आई। उनके मुंह से निकल गया : - "आखिर है तो वैश्या पुत्री ही !"


रानी ने कहा : - मैं तो अहिरकन्या हूं। वैश्यापुत्री क्यों कहा?

राजा से जब दुर्गंधा ने सारा सत्य जाना , पूर्वजन्म, सन्तो से जुगुप्सा, अपनी विडंबना आदि का वर्णन सुना तब संसार से उसे विरक्ति हो गई। कुछ ही समय में उसने श्रेणिकराजाकी आज्ञा लेकर वीरप्रभु से संयम अंगीकार कर आत्मकल्याण किया। 



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब :- दुर्गन्धा का पूर्वभव में का नाम धनश्री था ।


आज का सवाल : श्रेणिकराजा की रानियो के संयमग्रहण का उल्लेख किस आगम में है?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 38

22:12:20

आर्द्रक कुमार



धर्म के संस्कार यदि एक बार दृढ़ बना लिए है तो अगले भव में भी या अनार्य क्षेत्र में जन्म लेकर भी हम मुक्ति मंजिल प्राप्त कर सकते  हैं । इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है अनार्य क्षेत्र में जन्मे आर्द्रक कुमार।


पूर्व भव में 

आर्द्रककुमार  का जीव सामायिक नामक गृहपति था । बन्धुमती उनकी पत्नी का नाम था। एक बार  दोनो ने  आर्य सुस्थित से धर्मोपदेश सुना। दोनो ने संसार से विरक्त होकर संयम स्वीकार किया ।  कुछ समय बाद योग से विहार करते हुए साधु साध्वी पुनः एक नगर में आये। साध्वी बनी पूर्व पत्नी को देखकर पुरानी वासना जाग्रत हुई। 

धर्म  में दृढ़ साध्वीजी ने अपने तथा पूर्व पति के संयम को बचाने के लिए संथारा लेकर समाधिमरण को चुन लिया। कितना दृढ़ संयम ।

इससे मुनि को आघात लगा और वे भी काल कर गए। काल कर दोनो देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां का आयु पूर्ण कर  मुनि का जीव एक अनार्य देश आर्द्रक देश जो कि समुद्र में एक द्वीप था उसके राजा आर्द्रक के यहां राजकुमार बने। अनार्य देश : - जहां के लोगो को धर्म की समझ नही होती। मोक्ष आदि तत्त्वों की श्रद्धा तो दूर, समझ तक नही होती। राजकुमार आर्द्र बड़े हुए।

मगधराज श्रेणिक के मित्र आर्द्रक राजा के यहां श्रेणिक के कुछ दूत आये । राजदरबार में मगध देश की बाते हुई। राजकुमार अभयकुमार की अदभुत बुद्धि की बात हुई । वहां राजकुमार आर्द्र भी थे। जब दूत वापिस जाने लगे तब राजा ने श्रेणिक राजा के लिए कुछ भेंट दी। राजकुमार आर्द्र ने भी अभयकुमार के लिए  मित्र बनाने के उद्देश्य से कुछ *वस्तुएं* भेंटस्वरूप पहुंचाई। 


यह भेंट जब मगध में राजा व अभयकुमार के पास पहुंची तब अभयकुमार को अनायास लगा कि अवश्य यह कोई भव्य जीव है। अभयकुमार जिनधर्मानुरागी जीव थे ही। उन्होंने अनार्य देश मे जन्मे राजकुमार के उत्थान समझकर, उन्हें प्रेरणा देने के लिए धार्मिक उपकरणों की भेंट भेजी। 

आर्द्र कुमार धार्मिक उपकरणों को देख, उसमे रहे रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि देखकर स्तंभित और फिर मूर्छित हो जाते है। पुनः शुद्धि पर उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त होता है। पूर्व भव में पाले संयम, पत्नी साध्वी जी को देखकर पतन आदि सब वृत्तांत याद आ जाता है। 

अब वे क्या करेंगे?

आगे ...




सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


नॉट : - देरावासी मान्यता में अभयकुमार आर्द्र कुमार को प्रभु की प्रतिमा भेजते है , यह सुना पढा है। तत्त्व केवली गम्यं । जो भी हो पर हमें यही समझना है कि अभयकुमार द्वारा आर्द्र कुमार को मिली भेंट से आर्द्र कुमार को पुनः कल्याण मार्ग का ज्ञान मिला। कोई भी इस मतभेद को मनभेद का मुद्दा न बनाये यह विनती।


कल का जवाब :-  श्रेणिकराजा की रानियो के संयमग्रहण का उल्लेख श्री अंतगडदशा जी सूत्र में है ।


आज का सवाल : आर्द्रक कुमार ने पूर्वभव में किनके पास संयमग्रहण किया था?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 39

23:12:20

आर्द्रक कुमार


अभयकुमार की भेंट देखकर जातिस्मरण ज्ञान से आर्द्र कुमार को सब याद आ जाता है। पूर्वभव में खोए संयम रत्न को पाने को अब उत्सुक बन जाते है। पिता से आज्ञा मांगने पर जैन धर्म के विषयक उनकी अज्ञानता  तथा मोह वश पिता उन्हें दीक्षा तो क्या, मगध जाने की भी अनुमति नही देते। कुमार की दृढ़ता देख उन्हें राजमहल में नजरबंद कर देते है। 500 सैनिकों को उनके चौकीदार नियुक्त करते है। पर अब आर्द्र कुमार को चैन नही। एक दिन योजना बनाकर देखकर वे समुद्र मार्ग से निकल आते है। आर्य देश में आकर पूर्व भव के ज्ञान से स्वयं संयम अंगीकार करते है। तब एक देव वाणी उन्हें रोकती है। अभी आपके भोगावली कर्म बाकी है, अभी आप दीक्षा न ले। परन्तु भविष्य को आगे देखेंगे यह सोचकर वे दीक्षित हो जाते है।

विहार करते हुए एकबार वसंतपुर नामक नगर के बाहर एक जीर्ण मन्दिर में आकर संध्या समय ध्यानस्थ हो जाते है। 

वहां पर कुछ श्रेष्ठि कन्याएँ क्रीड़ा कर रही थी। युवा उम्र की ठिठोली व खेल कूद चल रहा था। अचानक एक खेल में दौड़ती हुई एक श्रेष्ठि कन्या अंधेरे में मुनि को खंभा समझकर उन्हें पकड़ लेती है। और खेल अनुसार कहती है यह मेरे पति है। खंभे की जगह जब मुनि का ख्याल आया तब वह संकुचाई। पर यही भवितव्यता थी। प्रातः मुनि तो वहां से चले गए। पर उस कन्या ने मुँह से निकली बात को पकड़ लिया। अब वे ही मेरे पति।

पिता ने बहुत समझाया। कि एक तो वे चले गए, उन मुनि को ढूंढे कहां और दूसरी बात यह कि अगर ढूंढ भी लिया तो क्या मुनि विवाह करेंगे????

पर कन्या दृढ़ थी।

पिता व कन्या ने मुनि की खोज प्रारंभ की। दानशाला आदि धार्मिक क्रियाएं शुरू की। 

काफी लंबे समय बाद एक दिन योग वश मुनि मिल गए। 

कन्या व पिता ने विवाह के लिए अत्यंत आग्रह किया। कन्या ने आत्महत्या की बात दोहराई। 

इधर भोगावली कर्म भी उदय में आया। मुनि पुनः गृहस्थ बने। विवाह हुआ।

एक पुत्र के पिता भी बन गए। पुत्र थोड़ा बड़ा हुआ तब आर्द्र कुमार ने अब पुनः संयम ग्रहण की आज्ञा मांगी। पर हाय रे मोह!!!

अब मीठा बोलकर ततुलाते नादान बालक ने पिता को रोकने के लिए घर मे से कच्चे सूत के धागे लिए। और मुनि के पांवों पर लपेट दिया। 

और अपनी बालभाषा में रुदन कर रही माता को आश्वश्त किया। कि मैने पिता को बांध दिया है अब वे नही जाएंगे। मोह में आर्द्र कुमार रुक गए। पांव में बंधे धागे देखे तो 12 थे। वे कुछ सोचकर 12 वर्ष के लिए फिर रुक गए।

आख़िर 12 वर्ष बाद पुनः स्वतः संयम अंगीकार कर लिया और घर गांव से विहार कर दिया।  यहां उनकी एक ही इच्छा थी वीर प्रभु के दर्शन।

मार्ग में उन्हें 500 चोर मिले। पहचान बढ़ी तब समझ मे आया कि पिता ने उनके लिए जो 500 चौकीदार रखे थे, आर्द्र कुमार के वहां से निकल जाने के बाद राजा के डर से वे भी आर्य देश मे आ गए, व चोर बन गए थे। आर्द्रकुमार मुनि से प्रतिबोध पाकर वे भी संयम ग्रहण करते है।

मुनि पुनः अपनी वीरप्रभु तरफ की विहार यात्रा शुरू करते है। मार्ग में कई अन्यमती के साधुओं के समूह मिलते है। गोशालक, बौद्ध, हस्ती तापस , एक दंडी आदि परंपरा के । सभी समूहों से शास्त्रार्थ होता है। उन्हें जैन धर्म की सही समझ देते है।

अंत मे वीरप्रभु की शरण प्राप्त करते है। और उत्कृष्ट संयम आराधना कर मुक्ति लक्ष्य को प्राप्त कर लेते है।



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब :-  आर्द्रक कुमार ने पूर्वभव में आर्य सुस्थित के पास संयमग्रहण किया था ।


आज का सवाल : आर्द्रक मुनि ने 

किन-किन से शास्त्रार्थ किया ?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 40

24:12:20

प्रसन्नचन्द्र राजर्षि चरित्र


 श्रेणिकराजा के कथानक में वैसे तो प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का प्रसंग बहुत छोटा है, फिर भी वह घटनाक्रम हम सभीको बहुत ऊंचा संदेश देता है, औऱ प्रसन्नचन्द्र राजा का कथानक भी सुनने योग्य, प्रेरणादायक है। तो हम इस श्रृंखला में उनका भी कथानक पढेंगे ।


पोतनपुर में राजा सोमचन्द्र राज्य करते थे। रानी का नाम धारिणी था।  युवराज प्रसन्न चन्द्र भी एक वीर प्रतापी, नीतिवान किशोर राजकुमार थे। 

एकबार रानी धारिणी पति के मस्तक के बाल संवार रही थी कि उसकी दृष्टि महाराज के सिर में रहे एक सफेद बाल पर पड़ी। उन्होंने कहा : - महाराज दूत आ गया है। 

राजा : - कौन दूत? 

रानी ने वह श्वेत बाल उखाड़कर पति के हाथों में देते हुए कहा : - युवावस्था नष्ट कर वृद्धावस्था के आगमन की सूचना देने वाला दूत है यह।

राजा थोड़ा खेदित हुआ तब धीर-गंभीर बनकर में रानी ने मर्म-सूचक शब्दो में राजा को अब अपने कर्तव्य की याद दिलाते हुए कहा: -  महाराज, खेद करने की आवश्यकता नही। बस इस दूत का संदेश समझकर सावधान होना है।

राजा  : - रानी, मैं खेदित इसलिए नही हुआ कि मैं वृद्ध हो रहा हूं। पर मुझे याद आ रहा है कि मेरे प्रतापी पूर्वज वृद्धावस्था आने से पूर्व ही राज्य व भोगविलास छोड़कर धर्मसाधना में लग जाते थे। और मैं अभी तक राजकाज में , भोग में लगा हूं, पुत्र को अभी नादान समझकर उसके मोह में फंसा हूँ। पर अब नही।

मैं राज्य छोड़कर वन में जाकर धर्माराधना करूँगा। आप पुत्र व राज्य को संभालो।

उच्च आत्माओंके लक्षण देखिए । एक सफेद बाल से ही समझ गये, व दुर्लभ मनुष्यभव को सार्थक बनाने का सोचने लगे। कितनी दूरंदेशी होगी हमारे पूर्वजो में!

जीवनसाथी भी कैसा? धर्म मार्ग, सही क्या है उसकी समझ देनेवाले। न कि स्वार्थवश संसार में रोककर अंतराय रूप बनने वाले। है ना अदभुत!


रानी : - महाराज, जब आप त्यागी बनकर वन में जा रहे है तो मैं पुत्रमोह में मोह रखकर संसार में क्यों रुकू? मैं भी आपके साथ वन में ही चलूंगी। आप पुत्रका राज्याभिषेक कर दीजिये।


पुरानी परंपरा थी, पूर्वजो ने वन में जाकर स्वयं धर्म साधना की तो उसी परंपरा को निभाते हुए राजा-रानी ने पुत्र प्रसन्नचन्द्र का राज्याभिषेक कर एक धात्री (दासी ) को साथ लेकर वन में चले गये। अनुमान से कहे तो तब के समय तक महावीर स्वामी  को केवल्यप्राप्ति नही हुई थी। वे तीर्थंकर रूप से अभी धरती पर विचरण नही कर रहे थे। राजा को जिन-धर्म मार्ग का पता नहीं था । राजा ने दिशा-प्रोक्षक तापस धर्म अंगीकार किया।


वन में एक मढ़ी बनाकर वनवासी का जीवन जीते हुए तपाराधना भी करने लगे। रानी ने वहां एक सुंदर प्रभावशाली बालक  को जन्म दिया।  वस्त्र आदि तो ज्यादा रखते नही। बालक को वृक्ष की छाल में लपेटकर रखते। इसी वजह से उस बालक का नाम वल्कल-चिरी रखा। बालक के जन्म के बाद कुछ ही समय में, पहले रानी धारिणी व कुछ समय बाद उस धात्री का निधन हो गया। अब वन में सिर्फ सोमचन्द्र महाराज साधुता में व वलकलचिरी रह गये। सोमचन्द्र जी ही बालक का ध्यान रखने लगे। समय  बीतने के साथ वह बालक बड़ा होने लगा। वन्य पशुओं के साथ क्रीड़ा करता हुआ, पिता को तपस्या में सहाय करने लायक किशोर हो गया।

सांसारिक वातावरण व दुन्यावि खटपटो से दूर पला-बढ़ा राजकुमार वल्कलचिरी बहुत ही भोला रहा। वन में स्त्रियों आदि या अन्य किसी मनुष्य तक का भी उसे कभी परिचय नही हुआ। उसका विश्व तो सिर्फ पिता व वन्य पशु ही थे। 


इधर महाराज प्रसन्नचन्द्र भी एक गंभीर, प्रतापी सम्राट बन चुके थे। उन्हें वर्षों बाद किसी तरह ज्ञात हुआ  वन में जाने के बाद माता-पिता के एक और संतान की प्राप्ति हुई है। यानी उसके एक छोटा भाई भी है जो किशोर बन चुका है।


अब भाई के लिए राजा क्या सोचेंगे यह आगे....


संदर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब :- आर्द्रक मुनि ने   गोशालक, बौद्ध, हस्ती तापस , एक दंडी आदि परंपरा  समूहों से शास्त्रार्थ किया ।


आज का सवाल : सोमचन्द्र राजा ने कौनसा धर्म अपनाया?

#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 41

28:12:20

प्रसन्नचन्द्र राजा, भाई के अस्तित्त्व का समाचार सुनकर अत्यंत हर्षित हुए। वन में पिता के पास उनके जाने का निषेध था। पर भाई के लिए वे लालायित रहने लगे। किसी चित्रकार को भेजकर दूर से भाई को देखकर उसका चित्र बनवाया। उस चित्र को देखकर वे स्नेह करने लगे। उन्होंने सोचा पिता ने तापसधर्म स्वीकार किया है , लेकिन छोटे भाई ने नही। वह क्यों वन में रहे। परन्तु पिता की आज्ञा से वह लाचार था।

कुछ वर्ष बीते। राजा को लगा, अब मुझे भाई को कैसे भी युक्ति से बुला लेना चाहिए। उन्होंने कुछ गणिकाओं को बुलाया। और कहा : - तुम तपस्विनीयो का भेष बनाकर वन में जाओ और मेरे युवान भाई को कैसे भी मोहपाश में बांधकर यहाँ ले आओ।

भारी पुरस्कार की लालच में वे गणिकाएँ तपस्विनी बनकर वन में गई। वलकलचिरी उन्हें ऋषि समझा । गणिकाओंने अपना परिचय पोतनाश्रम के आश्रम के ऋषिपुत्र के रूप में दिया। उन्हें अपनी वाक पटुता से भ्रमित कर लिया। अब वलकलचिरी उनकी बातों में आकर पोतनाश्रम देखने, वहां जाने को बहुत उत्सुक बन गया। 

गणिकाएँ उन्हें लेकर जा ही रही थी  कि मार्ग में उन्हें एक ऋषि आते दिखाई दिए। गलत काम वे कर ही रही थी, स्वयं ही ऋषि के श्राप से डरकर वे भाग गई।


अब वलकलचिरी को तो पोतनाश्रम जाना ही था। मार्ग में जा रहे एक रथीक ने उसे अपने साथ ले लिया। और पोतनपुर में छोड़ दिया। 

यह नगर वलकलचिरी के लिए नया था, यहां के सारे भवन उसे विविध आश्रम ही लग रहे थे। वह सभी को तात-तात करके ही बुला रहा था। स्त्री-पुरुष का भेद अभी उसके समझ में आया नही था। उसकी भाषा, वेशभूषा आदि देख नगरजन हंसते थे।

दुविधा में पड़ा वलकलचिरी एक भवन को आश्रम समझकर वहां प्रविष्ट हो गया।

संयोग से वह भी एक गणिका का भवन था।


इस भवन की स्वामिनी गणिका को किसी भविष्यवेत्ता ने एक ऋषिपुत्र के आगमन की जानकारी उसे पहले ही दे दी थी। गणिका ने उसका स्वागत किया। उसका भेष , उनका व्यवहार, उनका बाहरी देखाव, उनकी आदतों को सुधारकर उसे गृहस्थ योग्य बनाया।

गणिका ने उससे अपनी पुत्री का विवाह का आयोजन किया। मंगल प्रसंग में उसके भवन में ढोल-नगाड़े बजने लगे।

परन्तु ढ़ोल-नगाड़ों की आवाज सुनकर अचानक राजसैनिक आ धमके।


दरअसल हुआ यह था,  कि वलकलचिरी को लेने गई गणिकाओं ने कुछ समय बाद वापिस वलकलचिरी को ढूंढा तब वे मिले नही। वन में उनके आश्रम में जाकर दूर से देखा तो वलकलचिरी के गुम होने से दुःखी पिता सोमचन्द्र ही दिखाई दिए। वे अत्यंत व्याकुल हो गये थे। पुत्र वियोग में व वृद्धावस्था में उनकी आंखे भी चली गई।



यह सब समाचार आकर राजा प्रसन्नचन्द्र को दिए। राजा को बेहद अफसोस हुआ। पिता को भी पुत्र से अलग किया और  अनुज भाई स्वयं भी मिल नही पाये। वे शोक में डूब गये। उन्होंने नगर में राजशोक का आदेश दिया। 

ऐसे शौक के माहौल में ढ़ोलनगाड़े प्रतिबंधित थे। गणिका के घर से यह आवाज आने पर सैनिक उसे पकड़ने आ गये।

अब क्या होगा?








सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब :-  सोमचन्द्र राजा ने दिशा-प्रोक्षक तापस धर्म अपनाया ।


आज का सवाल : वलकलचिरी को कहां जाने की जल्दी होने लगी?


पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 42

29:12:20

गणिका को राजा के सामने लाया गया।

गणिका ने सारी घटना बताते हुए कहा कि उसने अपनी पुत्री का विवाह एक ऋषिपुत्र से करने के प्रसंग पर ढ़ोलनगाड़े बजवाये थे, उसे राजशोक का संदेश पता ही नही था।

सारी घटना जानकर राजा ने वन में जानेवाली गणिकाओं तथा उस ऋषिपुत्र को बुलवाया। गणिकाओं ने उसे पहचान लिया कि यही राजकुमार है।

राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने भाई का धूमधाम से स्वागत किया। उसका विवाह करवाकर उसे बहुत रिद्धि प्रदान की। वलकलचिरी भूतकाल विस्मृत कर राजभोग में आसक्त हो गया। संसार संबंधी भोग भोगते हुए ऐसे ही बारह वर्ष बीत गये। भोगावली कर्म भुगता जा चुका था। एक मध्यरात्रि  में अचानक वलकलचिरी की आंख खुल गई।

उसे अपना अतीत याद आया। वृद्ध तपस्वी पिता, अपना आश्रम, अपने छोड़े उपकरण याद आने लगे। अपनी साधना याद आई। वर्तमान में हो रहे पाप कर्मो का ख्याल आया। वह उठकर बैठ गया । अब उसे चैन नही था। भवितव्यता जैसे उसे पुनः तपस्वी जीवन के लिए प्रेरित कर रही थी और पिता की याद तथा उनकी अस्वस्थता सोचकर वह विह्वल हो उठे।


पूरी रात उद्वेग में बिताकर सुबह भाई के पास आकर वन जाकर पिता के दर्शन करने की तीव्र इच्छा व्यक्त की। दोनो भाई वन में आये।  

अपना आश्रम, वन्य पशुओं , को देखने के बाद पिता के दर्शन किये। 

उसके आगमन से ही हर्षित पिता की दृष्टि पुनः लौट आई। राजा ने भाई के हरण की घटना के लिए क्षमा मांगी। सोमचन्द्र मुनि भाई के लिए राजा का स्नेह देखकर खुश हुए।

अब वलकलचिरी ने निश्चित कर लिया  कि वह वापिस नगर नही जाएगा। यही पर रहकर अपनी साधना आगे बढ़ाएंगे।


फिर वे अपने कमण्डलु आदि उपकरणों को देखा। समय बीतने से वे भी काले पड़ गये थे। उन्हें साफ करने लगे। उपकरणों की प्रमार्जना करते हुए अतीत को याद करने लगे। भाव ऐसे थे  कि उन्हें इस भव के उपकरण की प्रतिलेखना ही नही पूर्वभव में की हुयी प्रतिलेखना भी याद आ गई। उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्रकट हुआ।  पूर्वके कई भवो में पाले शुद्ध अनगार धर्म दिखाई दिया। संवेग के रंग में ऐसे रंग गये  कि उनके भाव उत्तरोत्तर शुभ से शुक्ल होते गये। भावों की उस श्रेणी चढ़ते हुए घाती कर्मो को नष्ट करते हुए उच्च 13 वे गुणस्थान पंहुचकर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।

यह अन्य तीर्थ से केवल्यप्राप्ति का दृष्टांत है।

अभी   तक उन्होंने चारित्र धर्म अंगीकार नही किया था। केवल्यप्राप्ति के बाद देवो ने आकर उन्हें श्रमणवेश दिया। केवलज्ञानी वलकलचिरी ने राजा व पिता को उपदेश दिया। केवली बनकर वे राजा प्रसन्नचन्द्र ,  ऋषि सोमचन्द्र के साथ पोतनपुर विहार किया। उस समय चरमतीर्थंकर भगवान महावीरस्वामी भी पोतनपुर पधारे। वलकलचिरी जी ने ऋषि सोमचन्द्र को प्रभुपरिवार में समर्पित किया।

राजा प्रसन्नचंद्र भी विरक्त भाव लेकर राजमहल आये।

अब क्या होगा....


कल का जवाब :-  वलकलचिरी को पोतनाश्रम जाने की जल्दी होने लगी।



आज का सवाल :  वलकलचिरी कितने वर्ष गृहस्थ बने रहे?


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 43

30:12:20

भाई के केवल्यप्राप्ति के बाद राजा प्रसन्नचन्द्र विरक्त रहने लगे। एकबार प्रभु महावीर पोतनपुर पधारे। उनकी देशना सुनकर राजा दृढ़ बन गये। उन्होंने अपने किशोर बालक को राजा बनाकर स्वयं चारित्र धर्म स्वीकार किया। संयम ग्रहण कर प्रभु के मुनि परिवार में सम्मिलित होकर उत्कृष्ट धर्माराधना करने लगे।

एकबार वीरप्रभु शिष्य परिवार समेत राजगृही नगरी पधारे।

प्रभु का आगमन सुनकर श्रेणिकराजा सपरिवार व सैन्य सहित दर्शन करने पधारे। उद्यान ने जाते समय मार्ग में उन्हें एक पांव ऊंचा किये, दोनो हाथ ऊपर उठाकर ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र मुनि को देखा। उनकी साधना देखकर राजा ने अहोभाव व्यक्त किया। 

राजा के साथ रहे  2 पदाधिकारी सुमुख व दुर्मुख ने भी उन्हें ध्यानस्थ देखा। उनके पूर्वजीवन को, उनके राज त्याग की कथा जानते हुए सुमुख ने उनके त्याग के भाव की अनुमोदना करते हुए उन्हें धन्य बताया। पर वहीँ दुर्मुख ने उनकी भर्त्सना की। छोटे से बछड़े जैसे बालक को राज्य का कार्यभार देने पर निंदा की। कहा कि यह तो साधु बन गया पर उसके मंत्रीगण षड्यंत्र रचकर उस बालक को राज्यभ्रष्ट कर रहे है। रानियां भी उस बालक को छोड़कर चली गई है। अत्यंत विश्वस्त मंत्री उसके विरोधी बन गये है। ऐसे साधु की अनुमोदना कोई कैसे करे! धिक्कार है इसे!!

यह शब्द ध्यानस्थ मुनि के कानो में भी पड़े। उनकी शुभ भावधारा का परिवर्तन हुआ। मंत्रीगणों व रानियों पर अत्यधिक क्रोध आने लगा। उन्हें लगा  कि वे अभी जाकर उन सभी विश्वास द्रोहियों  को कड़ा दंड दे। मुनि रौद्र ध्यान में आगे बढ़ने लगे। मनोमन वह उन सब से युद्ध करने के ख्याल करने लगे।


ठीक उसी समय श्रेणिकराजा प्रभु के समक्ष पंहुचकर उन्हें वन्दन कर रहे थे। वन्दन करने के पश्चात उन्होंने प्रभु से प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के आराधना की प्रसंशा की। उन्होंने पूछा  कि यदि वे मुनि इस समय काल करे तो कहां उत्पन्न होंगे?

केवलज्ञानी प्रभु ने वहीँ से मुनि के भावों को निहारकर राजा से कहा : - राजन, इस समय मुनि काल करे तो सातवी नरक में उत्पन्न होंगे।

अहो आश्चर्यम!!

श्रेणिकराजा दंग रह गये। ऐसी साधना करने वाले मुनि सातवी नरक!?

उन्हें विश्वास नही हुआ, लगा जैसे उन्हें सुनने में भ्रम हुआ। कुछ समय पश्चात वापिस यही प्रश्न दोहराया।

तब प्रभुने कहा : - सर्वार्थसिद्धि विमान में ।

राजा और दिगमूढ़ हो गये। कुछ पल पहले 7 वी नरक , अब उत्कृष्ट देव विमान?

राजा ने प्रभु से विस्तार से जानने की इच्छा व्यक्त की।

प्रभु ने फरमाया : - हे राजन, जब तुमने पहली बार पूछा तब वह तुम्हारे सैनिकों द्वारा भ्रमित होकर रौद्र ध्यान में आ चुके थे।  अपने मंत्रियों व रानियो को तीव्र दंड देने के लिए मनोमन युद्ध करने लगे थे। उनके वह भाव उन्हें 7 वी नरक का आयुबन्ध करवाने वाले थे।

पर मनोमन युद्ध करते समय वो शत्रुओंको अपने वजनदार सिरस्त्रण उतारकर मारने के लिए उन्होंने अपने सर पर हाथ रखा। तब खाली व मुंडित सिर का अनुभव हुआ। तब उन्हें ख्याल आया  कि वे वर्तमान में कौन है, किस दशा में है। मुनि होते हुए भी वे मन से,  भावों से अतितीव्र रौद्र भावना में बह गये यह सोचकर उन्हें पश्चाताप हुआ। पश्चाताप से उनके अशुभ भाव घटते हुए क्षीण होकर शुभत्व की तरफ बहने लगे। इतने शुद्ध हो गये  कि यदि वे इस समय काल करते तो सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होते। राजन , यह वही समय था जब तुमने मुझे दुबारा प्रश्न किया था।

उसी समय देव दुंदुभी बजने लगी। भगवान ने कहा , श्रेणिक , उनके भाव उत्तरोत्तर बढ़ते हुए उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई है। 4 घनघातीकर्मो को नष्ट कर अब वे इसी भव मोक्ष के अधिकारी बन गये है। देवता जिनके केवल्यप्राप्ति का उत्सव मनाने आ गये है।


सार : - इस प्रसंग से हमे कितना कुछ समझने मिलता है। एक छोटी सी चिनगारी हमारे पतन में कारणरूप बन सकती है। मनुष्य अपने भावों के परिणाम से ही नरक या देवलोक या मोक्ष का सुख प्राप्त कर सकता है। हमे हर समय शुभ भावों में रहने का सुंदर संदेश देती कथा अत्यंत प्रेरणादायक है।


सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब :- वलकलचिरी 12वर्ष गृहस्थ बने रहे ।


आज का सवाल : प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को किस नगर के बाहर केवलज्ञान प्राप्त हुआ? 


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 44


जंबुस्वामी चारित्र -  श्रेणिकराजा से वैसे तो इनका ज्यादा संबन्ध नही है। पर जंबुस्वामी का पूर्व का देवभव देखकर राजाके एक महत्वपूर्ण प्रश्न से संबंधित होने पर , प्रभु द्वारा जंबुस्वामी के पूर्वभव, आगामी भवो की कथा सुनाई गई। उनके पुर्वभव की साधना, उत्कृष्ट त्याग आदि वजह से हमे भी यह कथानक पढ़ना चाहिए। यह कथानक आगे साधुवन्दना की श्रेणी में आ चुका है उसी को यहां दोहराया गया है। जंबुस्वामी व शालीभद्र का कथानक अभी पूरी हुई बडी साधुवन्दना श्रेणी से ही लिया है।



जंबूस्वामी : - यह जिनशासन का एक महत्त्वपूर्ण नाम नही , पर एक अध्याय है। वीर प्रभु के शासन में हुए अंतिम केवली। इनकी गाथा भवोभव की उत्कृष्ट साधना, तप व त्याग बतलाती है।


वीर प्रभुकी केवलीचर्या का करीब मध्यम समय था वह। राजगृही में पधारे हुए प्रभुकी देशना सुनने के लिए देवताओं ने समोवसरण की रचना की।

समोवसरण क्या है? तीर्थंकर प्रभु के केवलज्ञानके बाद प्रथम देशना के लिए तथा बाद में 

जब जिस क्षेत्र में तीर्थंकर प्रभु की देशना सुनने वालों की संख्या बहुतायत में हो, तब देवता उस देशना के लिए भव्यातिभव्य एक सभास्थल या देशना स्थल की रचना करते है। यानी व्याख्यान सुनने की जगह ,जैसे आज महान सन्तो के व्याख्यान मंडप होते है। उसका पूरा विवरण फिर कभी अवसर पर। अभी यह जान ले उस सुवर्णमय, रत्नोसे जड़ित अति ऊंचे भव्यातिभव्य रचना यानी समोवसरण में 3 गति के जीव अपना जातिगत वैर भूलकर देशना सुनते है। 3 गति यानी मनुष्य, तिर्यंच व देव।


राजगृही में रचे गए समोवसरण में अनेक देवता प्रभुकी देशना सुनने आये। राजा श्रेणिकजी भी उपस्थित थे। उन देवो में एक अत्यंत तेजस्वी कांतिमान देव को देखा । उन्होंने देशना के बाद  प्रभु से उस देव के विषय मे जिज्ञासा व्यक्त की। तब केवलज्ञानी प्रभुने उस विद्युन्माली देव के भूतकाल, वर्तमान व भविष्यकाल - तीनो की जानकारी श्रेणिकजी को दी।

राजा यह सुनकर अत्यंत धन्यता का अनुभव करने लगे।

क्या थी वह कथा।


जंबूस्वामी के पूर्वभव - कई समय पहले मगध में सुग्राम नामक ग्राम में दो ब्राह्मण भाई रहते थे। नाम बड़े भाई भवदत्त तथा छोटे भवदेव । युवावस्था में आये भवदत्त ने आचार्य सुस्थित की वाणी से विरक्त होकर संयम अंगीकार किया। और गुरु के साथ विचरने लगे। वर्षो बाद एक बार फिर अपने गांव पधारे। परिवार को धर्म सन्देश देने वह छोटे भाई भवदेव के यहां गये। उसका हाल ही में ब्याह हुआ था। सभी परिवार जनों को धर्म बोध देकर जब मुनि निकले तब छोटे भाई भवदेव भी उन्हें उनके स्थान तक  पहुँचाने आये। 

भवदत्त मुनि ने गुरु को भाई को दीक्षित करने का कहा। 

भवदेव संकोच में पड़ गया। अरे  मैं तो  अभी-अभी विवाहित हुआ हूं, पत्नी नागिला के साथ अभी तो संसार का सुख भोगना बाकी है , ठीक से नागिला को देखा तक नही, अभी से दीक्षा कैसे ले लूँ ? 

पर भाई मुनि का अनादर कैसे  करुँ । संकोचवश वह मौन रहे। उनके मौन को सन्मति समझकर उन्हें दीक्षित किया गया। और मुनियों के साथ विहार कर दिया ।


आगे....




सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब  : प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को राजगृही नगर के बाहर केवलज्ञान प्राप्त हुआ । 


आज का सवाल : - भवदेव भवदत्त किस ग्राम - देश के थे?



पिक प्रतीकात्मक है।


#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 45

31:12:20


भवदेव मुनि ने संयम ग्रहण कर वहां से विहार कर दिया। संयम आराधना कर तो रहे थे। 

परन्तु यह संयम वैराग्य-जनित नही था। अभी भी संसार का मोह पूरी तरह छूटा नही था। नागिला के तरफ का मोह अभी क्षय हुआ नही था। पर भाई मुनि के आगे कुछ बोल नही सकते थे। संयम चर्या के साथ कभी-कभी संसार का मोह जाग उठता था।

कुछ समय बाद भवदत्त मुनि अनशन संलेखना कर कालधर्म को प्राप्त हुए।

भाई मुनि के कालधर्म बाद भवदेव मुनि की संसारिक कामना फिर उद्वेग करने लगी। वर्षो बाद वे फिर सुग्राम आये।


गांव में प्रवेश करते हुए वहां कुएं पर पानी भर रही स्त्री को नागिला के विषय मे पूछा।

वह धर्मनिष्ठ नारी सावध बनी। उसने मुनि को पहचान लिया।

नागिला के विषय मे उसने बताया कि भवदेव की दीक्षा के बाद वह कुछ दिन उदास रही पर, फिर एक साध्वी वृन्द से धर्म की समझ पाकर स्वस्थ हुई। श्राविका के बारह व्रतों का पालन करते हुए तप से देह को सुखाते हुए स्वस्थ रह रही है।

मुनि नागिला की सुंदरता पूछने लगे। अब वह नारी चोंक गई।

 क्योंकि वह स्वयं ही नागिला थी। उसने भवदेव यानी पूर्वपति को पहले हीं पहचान लिया था। उसे एहसास हो गया कि मुनि पत्नी के मोह में महामूल्य संयम से पतित हो रहे है। पर अब नागिला जैन धर्म मे दृढ़ थी। अपने निमित्त से मुनि अपने संयम धर्म से चलित हो यह उसे मंजूर नही था।  

नागिला ने अपनी पहचान उजागर की। और अपनी बुद्धि, श्रद्धा से चलित हो रहे भवदेव मुनि को धर्म मे पुनः दृढ़ किया। भवदेव मुनि भी संभल गये। मूल्यवान संयम की महत्ता समझकर उस गांव से तत्काल विहार कर गए।गुरु के पास जाकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध बने।  

 आयुष्य के शेष वर्ष में उत्कृष्ट संयम पालन कर देवलोक में उत्पन्न हुए। ऐसे भव करते हुए धर्म के प्रभाव से  शिवकुमार नाम के एक राजकुमार बने। फिर संयम का आकर्षण हुआ। एक मुनि से देशना सुनकर विरक्त हुए।

पर किन्हीं अंतराय से मातापिता ने संयम की अनुज्ञा नही दी। तब घर मे ही रहकर धर्म व तप का उत्कृष्ट आराधन किया। वह भी एक दो नही पूरे बारह वर्ष तक।  उसी के प्रभाव से शिवकुमार अत्यंत सुंदर, तेजस्वी यह विद्युन्माली देव बने।

वीर प्रभु विद्युन्माली की कथा सुनाते हुए श्रेणिक राजा को बताया ।

यह उनका पूर्व भव था। जबकि विद्युन्माली वर्तमान भव है।

आगामी भव में वे तुम्हारी ही नगरी में आज से सात दिनों बाद रुषभदत्त नामक श्रेष्ठी की धारिणी नामकी पत्नी की कुक्षी में आएंगे। जंबूस्वामी नामक यह मुनि इस भरत क्षेत्र के अंतिम केवली बनेंगे। इनके निर्वाण बाद इस क्षेत्र में दस वस्तुओं का विच्छेद हो जाएगा।




सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब  : भवदेव भवदत्त मगध देश के सुग्राम  के थे ।


आज का सवाल : - जंबुस्वामी निर्वाण बाद कितनी वस्तुओं का भरतक्षेत्र से विच्छेद होगा ?


पिक प्रतीकात्मक है।


🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻




#मगध_सम्राट_श्रेणिक - 46

1:1:21

जंबुस्वामी


वीरप्रभु ने श्रेणिक राजा को विद्युन्माली देव के पूर्वभवो की व आगामी भव कहां होगा यह कथा सुनाई। उस समय वहां जंबुद्वीप अधिष्ठाता अनाधृत देव उपस्थित थे। उन्होंने अत्यंत हर्ष व्यक्त किया। तब श्रेणिक की जिज्ञासा पर प्रभुने बताया, यह देव पूर्वभव में रुषभदत्त के भाई थे। उनके परिवार में अंतिम केवली जन्म लेंगे यह सोचकर हर्षित हो रहे है।


राजगृही के रुषभदत्त - व धारिणी के यहां विवाह के काफी वर्षो बाद पुत्र का जन्म हुआ। गर्भधारण के समय देखे हुए जंबुवृक्ष की वजह से पुत्र का नाम जंबुकुमार रखा गया।  धनाढ्य श्रेष्ठी के यहां जंबुकुमार पले। 

करीब 16 वर्ष के हुए। राजगृही की 8 सुंदर श्रेष्ठिकन्याओं के साथ पूर्व ऋणानुबन्ध से उनका विवाह करना निश्चय किया गया। उस दौरान वहां वीरप्रभु के प्रथम पट्टधर सुधर्मास्वामी का शिष्यों के साथ पदार्पण हुआ। धर्मानुरागी प्रजा दर्शन वन्दन करने आई। जंबुकुमार भी आये।


भव्य चरमशरीरी जीव तो थे ही । सुधर्मास्वामी की देशना का निमित्त व उपादान भी मिल गया। जिनवाणी सुनकर विरक्त हुए। और संयम दीक्षा मांगी। सुधर्मास्वामी ने मातापिता की अनुमति का कहा। तब वे अपने घर की तरफ आ रहे थे। मन में उत्साह था कि शीघ्र दीक्षा की आज्ञा लेकर संयम स्वीकार करूँगा। 

नगर में प्रवेश करते ही एक ऊंची  जगह रखी हुई बड़ी पत्थर की शिला उनके रथ के आगे बड़े जोर से आ गिरी। रथ व जंबुकुमार जरा से स्थान फेर होने से बच गए।  भवि जीवो का चिंतन भी कैसा होता है यह देखो । उन्होंने सोचा, यदि इस शिला का मेरे ऊपर पात होता तो मैं बिना कोई भी व्रत ग्रहण किये ही काल को प्राप्त होता। मुझे अब विलंब नही करना है। वे पुनः लौटकर सुधर्मास्वामी के पास आये। ब्रह्मचर्य के व्रत ग्रहण किये फिर घर आकर मातापिता से संयम की आज्ञा मांगी।


माता-पिता पर वज्रपात हुआ। माता धारिणी बेहोश होकर गिर पड़ी। होश में आये तब पुनः जंबुकुमार को समझाने लगे। प्रेम की दुहाई, विविध प्रलोभन, कई कर्तव्यों का स्मरण करवा कर उन्हें दीक्षा न लेने को समझाया गया...

आगे ...



सन्दर्भ : - तीर्थंकर चारित्र


कल का जवाब  : जंबुस्वामी निर्वाण बाद दस वस्तुओं का भरतक्षेत्र से विच्छेद होगा ।


आज का सवाल : - जम्बूद्वीप के अधिष्ठायक देव का नाम क्या?


पिक प्रतीकात्मक है।





पिक प्रतीकात्मक है।



पिक प्रतीकात्मक है।




















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