कथा भीम कुंडलिया
🌷🌷🌷 भीम कुंडलिया 🌷🌷🌷
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भगवान तो भक्त की भावना के भूखें हैं । हृदय में धर्म के सच्चे स्नेह के बिना करोड़ों का दान करनेवाले की तुलना में सच्ची भावना से एक कौड़ी का दान करनेवाला महान हैं । जैनदर्शन ने प्रत्येक धर्माचरण में द्रव्य और भाव इस प्रकार के दो भेद दर्शायें हैं । भावनाशून्य हृदय से की जाती क्रिया द्रव्य हैं । भावनापूर्ण हृदय से की जाती क्रिया भाव हैं । भीम कुंडलिया का जीवन हृदय की सच्ची धर्मभावना का महिमागान करता हैं ।
विक्रम संवत् 1213 में शत्रुंजय तीर्थ के मूल जिनालय का महामात्य वाहड़ ने जिर्णोद्वार करवाया । प्रतिष्ठा का रंग बराबर जमा हुआ था । इस प्रतिष्ठा में टीमणा का अति दरिद्र फटेहाल जैन भीम भी आया था । वह कुंडाओं ( मिट्टी का बड़ा बरतन ) के घी का व्यापारी था । उसने अपने गाँव से छः द्रम ( दिरम , एक प्राचीन मुद्रा ) का घी लाकर संघ में फेरी लगाई । इसके फलस्वरुप उसे एक रुपया और सात द्रम की कमाई हुई । इनमें से एक रुपये के फूल खरीदकर उसने प्रभुपूजा की ।
ऐसा भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव करवानेवाले महामात्य वाहड़ के दर्शन करने की भावना से भीम मंत्रीराज के तंबू के पास आया । निर्धनता से घिरे हुए भीम को मंत्री से मिलने में संकोच हो रहा था । मंत्री मानवपारखी थे । उन्होंने इस गरीब भीम को अपने पास अर्धआसन पर बिठाया । उसके जीवन का इतिहास जान लिया । मंत्री वाहड़ ने प्रेम से कहा , " भीम , तू मेरा सधर्मी भाई हैं । मेरे योग्य कोई काम हो तो अवश्य कहना । "
इस समय तीर्थोद्वार के प्रबंधकर्ता तीर्थोद्वार की धनराशि पूरी करने के लिए चंदादाताओं की सूची बना रहे थे । वे भीम के पास आये । उसके पास सात द्रम थे । वह सारी पूँजी उसने ' टिप ' या चंदे में दे दी । कैसा दुर्लभ त्याग ! कैसी अनुपम भावना ! कैसी भव्य धर्मप्रीति !
महामात्य वाहड़ इस गरीब व्यक्ति के विराट त्याग को देखकर प्रसन्न हो गये । चंदे की यादी में उन्होंने भीम कुंडलिया का नाम प्रथम लिखवाया । साथ ही श्रेष्ठियों को यह भी कहा , " देखो , इसका नाम त्याग ! छः द्रम्म के घी में से एक रुपया और सात द्रम्म की कमाई की । रुपये के पुष्पों से प्रभुपूजा की । बचे हुए सात द्रम्म चंदे में लिखवाये । उसे आज की प्रभुभक्ति में दिलचस्पी हैं । कल की कोई चिन्ता नहीं । धर्मकार्य के प्रति उसका धर्मस्नेह तो देखिए । "
वाहड़ मंत्री ने भीम कुंडलिया को तीन रेशमी वस्त्र और पाँच सौ द्रम्म की भेंट दी । भीम ने हँसकर कहा ,
" मंत्रीश्वर ! यह नाशवंत संपत्ति के लोभ में मैं अपना पुण्य बेच नहीं सकता । तुमनें पूर्वभव में ऐसा पुण्य किया , इसीलिए आज ऐसी स्थिति में हो । तो फिर भला मैं अपना संचित पुण्य कैसे दे सकता हूँ ? यह तो धोखेबाजी करने के समान कहलायेगा । "
मंत्री वाहड़ ऐसे वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने पान का बीड़ा देकर भीम का सन्मान किया । भीम कुंडलिया घर आया , तो रोज उसका हिसाब लेनेवाली कर्कशा नारी ने कुछ न पूछा । हुआ ऐसा कि अपने घर की नाँद या चरनी में गाय बाँधनें का खूँटा निकाल कर ठीक से लगाते हुए उसे चार हजार सोनामोहरें मिली थी । अपनी यह बात उसने अत्यन्त हर्षित होकर भीम कुंडलिया से कहीं । भीम कुंडलिया ने कहा , " यह तो मेरी प्रभुपूजा का फल हैं । यह धन तो हमें तीर्थ में खर्च करना चाहिए । "
दूसरें दिन संघ में आकर मंत्री वाहड़ को यह राशि दी , तो मंत्री ने यह धन लेने का स्पष्ट इन्कार किया । भीम कुंडलिया ने कहा ,
" मंत्रीश्वर ! मेरे पास एक बैल है वह पर्याप्त हैं । यह धन राशि रखकर मैं बिना कारण कोई झंझट लेना नहीं चाहता । " फिर भी मंत्री वाहड़ ने धनराशि का स्वीकार नहीं किया । देर रात तलक दोनों के बीच खींचातानी होती रही । रात को कपर्दी यक्ष ने कहा , " तेरी पुष्पपूजा से प्रसन्न होकर यह धन दिया हैं । उसका अपने लिए और दान के लिए उपयोग करना । अब समृद्धि सदाकाल तेरे साथ रहेगी । "
दूसरे दिन भीम कुंडलिया ने भगवान ऋषभदेव की सुवर्णरत्नों एवं पुष्पों से बहुमूल्य पूजा की । कपर्दो यक्ष की भी पूजा की । उसका भंडार पूर्णतः भरा हुआ रहा । इस भीम कुंडलिया ने श्री शत्रुंजय महातीर्थ पर भीमकुंड बँधवाया ।
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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा
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