कथा साध्वी कलावती

 [ 33 ]🌷🌷🌷 साध्वी कलावती 🌷🌷🌷

उज्जैनी नगरी के शंखराजा की रानी कलावती के जीवन में शीलपालन की महत्ता प्रकट होती है । मालवपति शंखराजा की रानी कलावती गर्भवती हुई और उसके आनंद स्वरुप महल में उत्सव का आयोजन हुआ । इस समय कलावती के पीहर से एक संदूक में भेंट के रुप में अलंकार आये । कलावती के भाई ने ये अलंकार भेजे थे ।इनमें से अँधेरे में उजाला प्रसारित करें ऐसे नगजड़ित कंगन कलावती ने अपने हाथों में पहने । अन्य रानियों को यह देखकर ईर्ष्या हुई । उन्होंने राजा के कान भरें । यह भी कहा कि राजा ने रानियों के बीच में भेदभाव रखा है । ऐसे सुवर्ण के कंगन कहाँ से आये इसका रहस्य स्वयं राजा के मन में भी बार-बार उठता था ।


रानी लीलावती ने शंखराजा से कहा कि वे चोरी-चोरी छिपकर उनकी कलावती के साथ की बातें सुनें । लीलावती ने कलावती से पूछा , तब कलावती ने लाक्षणिक रीति से कहा , " मैं जिनके वहाँ अत्यन्त लाड़ली हूँ उन्होंने ये कंगन भेजे है । मुझे रात-दिन सदैव याद करनेवालों की यह भावभरी भेंट है । "


कलावती ने साफ-साफ यह नही कहा कि ये कंगन तो उसके सगे भाई की भेंट है । यह सुनते ही शंख राजा क्रोधायमान हुए । उन्हें कलावती के शील पर सन्देह हुआ । उसके पूर्व के किसी प्रेमी ने ये कंगन भेंट रुप में दिये होंगे ऐसा माना ।


शंका और क्रोध की कोई सीमा नही होती । राजा ने सोचा कि कंगन सहित कलावती के दोनों हाथ कटवा डालूँ । रथ में बिठाकर गर्भवती कलावती को लेकर चांड़ाल निकल पड़ा । राजा ने कहा कि वे उसे पीहर भेजते है , परंतु उजाड़ भूमि में चांड़ाल ने रथ खड़ा किया । कलावती ने कहा कि यह कोई मेरे पीहर का मार्ग नही है , तब चांडाल ने सच्ची बात बताई । 


कलावती को भारी सदमा पहुँचा । दाहिना हाथ उसने स्वयं काट डाला और बाँया हाथ चांडाल ने काट डाला । कंगन सहित कटे हुए दोनों हाथ लेकर चांडाल राजा के समक्ष उपस्थित हुआ । कंगन पर कलावती के भाई का नाम देखकर राजा को अपने घोर अपराध का विचार आया और मूर्छित हो गये । उन्होंने सोचा कि स्वयं शीलवती नारी पर कितनी बड़ी कुशंका की ? दोनों हाथ काट डालने की निर्दय आज्ञा खुदने क्यों दी ?


पश्चाताप का अनुभव करते हुए राजा चंदनकाष्ठ की चिता रचाकर अग्निस्नान करने को तैयार हुए । प्रजा ने राजा को ऐसा करते हुए रोकने के बहुत प्रयत्न किए । दूसरी ओर जिस समय चांडाल ने कलावती के हाथ काट डाले तभी उसने पुत्र को जन्म दिया । इस विरान भूमि में बालक की कोई देखभाल नहीं हो पायेगी ऐसा सोचकर कलावती विलाप करने लगी । यकायक उजाड़ भूमि में वृक्षों का वन लहरा उठा । सूखी नदी में पानी बहने लगा और कलावती के दोनों हाथ कंगन सहित पूर्ववत हो गये । इस समय एक तपस्वी आया और उसने अकेली कलावती को देखा । तपस्वी कलावती के पिता के परम मित्र थे । कलावती का वृतान्त सुनकर उसमें प्रचंड क्रोध जागा और सोचा कि ऐसा घोर जुल्म करनेवाले शंखराजा के राज्य में उल्कापात मचा दूँ ।


सती कलावती ने तपस्वी से प्रार्थना की कि आप मेरे पिता समान है । कृपया इतने अधिक क्रोधायमान मत होइए । तपस्वी ने कलावती को रहने के लिए और उसके बालक के लालनपालन के लिए विद्याशक्ति से आवास की रचना की । इस समय वन में से जाते हुए लकड़हारे ने यह देखा इसलिए वह राजा को कहने के लिए भागा । अग्निस्नान करने जाते हुए राजा को रोकने के लिए मंत्री ने एक महीनें की अवधि माँगी थी और रानी को खोजकर वापस ले आने को कहा था । राजा को ज्ञात होते ही वे रानी कलावती को लेने आये ।


एक बार धर्मधुरंधर साधु के आने पर कलावती ने अपने जीवन पर आयी हुई आपत्ति की बात बताई । साधु ने कहा कि पूर्वजन्म में वह राजकुमारी थी और उसने अपने तीर से एक पक्षी की पाँखें काट डाली थी । वह पक्षी इस जन्म में राजा बना ।


अपने पूरावभव और कर्म कि ऐसी गति जानकर राजा और रानी दोनों ने निर्मल भाव से संयम का मार्ग अपनाया और साधुता के पवित्र पंथ पर चल पड़े ।


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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा

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