कथा अरणिक साध्वी भद्रामा

 [ 36 ] 🌹🌹🌹 साध्वी भद्रामा 🌹🌹🌹

धन्य हे भद्रामाता को और धन्य हे अरणिक मुनि को ! पुत्र की आध्यात्मिक प्रगति चाहती और उसे भवभ्रमण में से मुक्त करवाना चाहती माता की उदात्त महत्ता के दर्शन भद्रामाता के चरित्र में होते है । अरणिक के माता पिता ने भगवान की वाणी सुनकर दीक्षा का निर्णय किया । माता -पिता दोनों ने दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पुत्र अरणिक को दीक्षा दी । बाल अरणिक मुनि बना , परंतु उसके पिता ही संथार बिछाने या गोचरी माँग लाने का काम करते थे । उन्होंने संसार का त्याग किया था , पर पुत्रमोह का त्याग नही कर पाये थे । थोड़े समय में पिता मुनि का स्वर्गवास होते ही अरणिक मुनि के सिर पर गोचरी ले आने और अन्य धर्मकार्य का उत्तरदायित्व आया । साधु जीवन की कठनाई का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगा ।


एक समय गरमी के दिनों में भयानक धूप में नंगे पाँव अरणिक मुनि जा रहे थे । धरती आग उगल रही थी । इसलिए मुनि कुछ विश्राम लेने के लिए एक हवेली के झरोखे के नीचे शीतल छाया देखकर खड़े रहे । मन-ही-मन साधु जीवन की कठोर स्थिति का विचार करने लगे । ऐसा भी लग रहा था कि क्या ऐसा कठोर मुनिजीवन निभा पाऊँगा ।


इस समय हवेली के झरोखें में खड़ी हुई मानुनी ने मुनिराज को देखा । मुनि की सुहावनी काया , तेजस्वी चेहरा और गठा हुआ सशक्त व्यक्तित्व देखकर उस मानुनी के चित्त में मोहविकार जागा । उसकी जवानी का रंग इस मुनि का संग चाहने लगा । मानुनी ने दासी को बुलाकर मुनि को अपना आँगन पावन करने की बिनती करने को कहा । उसने कहा , " मुनिराज , मेरी हवेली में पधारिए और मोदक ( लड्डू ) ग्रहण कीजिए । " मुनि अरणिक थके हुए थे । कड़ाके का ताप शरीर को जलाता था । संयम ऐसा भारी बोझ नहीं खीच पायेंगे , ऐसा सोचते थे । ऐसे में यह निमंत्रण आया देखकर इच्छा के अनुकूल ही प्राप्त होने जैसा हुआ । सुदंरी ने घी में तराबोर मोदकों का भोजन करवाया । मुनि मोहबंधन में फँसा और उसके आवास में ही रह गया । दीक्षा का महाव्रत त्यागकर मुनि संसारी बन गया ।


जीवन में चारों ओर भोगविलास की भरमार थी । अरणिक की आँखें और मन उनसे घिर गये । दूसरी ओर दीक्षा धारण करनेवाली अरणिक की माता साध्वी भद्रा को यह आघातमय समाचार मिले , तब उनके हृदय में आक्रंद का सागर उमड़ पड़ा । अपना पुत्र संयम की साधना से सभर मार्ग त्यागकर मोह की महा गर्त में डूब जाये यह भला माता का हृदय कैसे बरदाश्त कर सके ? इसलिए साध्वी भद्रा अरणिक को खोजने निकलती है । नगर-नगर और गाँव-गाँव घूमती है । भटकती है , चिखती-चिल्लाती है , " ओ मेरे अरणिक ! तू कहाँ है ? किस कारण तूने दीक्षा छोड़ दी ? ऐसा तो क्या हुआ कि तूने मेरी कोख को लजाया । "


इस प्रकार जगह-जगह घूमकर चीखती -चिल्लाती वृद्ध साध्वी को पागल समझकर लोगों का समूह उसके पीछे भागने लगा । कोई उसे कंकड़-पत्थर मारे , तो कोई उसका हँसी-मजाक उड़ाये । एक दिन झरोखें में खड़े अरणिक ने वृद्ध माता की आर्त पुकारें सुनीं और उसका हृदय पिघल गया । हवेली में से दौड़ कर अरणिक नीचे आकर माता के चरणों पर गिरा । माता ने कहा , " अरे बेटा ! तेरी यह दशा ! तूने मेरी कोख को लजाया ।! दीक्षा का त्याग करके संसार में फँसा ! किसने तूझे ललचाया ?


अरणिक ने कहा , " माता ! यह साधना की राह अति कठिन है ! तलवार की धार पर जीवन बिताने जैसा है । ऐसा संयम मैं पाल नहीं सकता । "


साध्वी भद्रा ने समझाया कि अनेक भवों के जन्म-मरण के भ्रमण-चक्कर से छूटनें के लिए यही एक मात्र मार्ग है । भवसागर को तैरने का यही सच्चा उपाय है । अतः पुनः संयम धारण करके तेजस्वी साधुता का पालन कर दिखा । 


अरणिक ने कहा कि वह एक ही शर्त पर दीक्षा लेने को तैयार है और वह यह कि दीक्षा लेने के पश्चात् अनशन करके प्राण त्याग करेगा । माता के लिए पुत्र के प्राणत्याग से अन्य कोई वज्राघात हो सकता है ? साध्वी भद्रा के लिए प्राणत्याग से भी दीक्षात्याग अधिक अनिष्टकर था । अतः माता ने कहा ' " संसार का भोग करके प्रत्येक भव में तेरी आत्मा नीच गति में जाये , उसके बदले तो तू दीक्षा लेकर प्राणत्याग करे यह अधिक उचित है । " 


अरणिक ने पुनः दीक्षा ली । अनशन करके साधु अरणिक प्राणत्याग करने के बाद कालक्रमानुसार केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हुए ।


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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा

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