पच्चीस बोल की पूरी व्याख्या2
7 aug
Day - 61
*पच्चीस बोल का*
*नौवां बोल है - उपयोग बारह*
*भाग -- 7*
*उपयोग बारह*
*पांच ज्ञान --* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवल ज्ञान।
*तीन अज्ञान --* मतिअज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग अज्ञान।
*चार दर्शन --* चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन।
अभी तक हमने 5 ज्ञान और 3 अज्ञान के बारे में जानने का प्रयास किया था। आइए अब हम दर्शन को जानने का प्रयास करें।
*दर्शन*
दर्शन का सामान्य अर्थ देखना होता है। किंतु जैन दर्शन में अनाकार उपयोग दर्शन कहलाता है। किसी भी वस्तु को जानने के दो रास्ते हैं -- एकरूपता, अनेकरूपता। जब हम एक वस्तु को एक ही रूप से जानते हैं तब हमारा ज्ञान सामान्य-ग्राही होने के कारण सामान्य बोध अर्थात् दर्शन कहलाता है। जब हम एक ही वस्तु को अनेक रुप से भिन्न-भिन्न रूप से जानते हैं तब हमारा वही ज्ञान भिन्न रूपग्राही होने के कारण विशेष बोध अर्थात् ज्ञान कहा जाता है। इन्हें हम भिन्नाकार
प्रतीति और एकाकार प्रतीति भी कह सकते हैं।
दर्शन के चार भेद हैं -- चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।
*(1) चक्षुःदर्शन --* चक्षु:दर्शनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम होने पर चक्षु के द्वारा पदार्थों का जो सामान्य बोध होता है, उसे चक्षु:दर्शन कहते हैं।
*(2) अचक्षुःदर्शन --* अचक्षुःदर्शनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम होने पर चक्षु के सिवाय से स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्रेन्द्रिय तथा मन के द्वारा पदार्थों का जो सामान्य बोध होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं।
*(3) अवधिःदर्शन --* अवधिदर्शनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम होने पर इंद्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी द्रव्य का जो सामान्य बोध होता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं। यह अवधिज्ञान का सहवर्ती है।
*(4) केवलःदर्शन --* केवलदर्शनावरणीय-कर्म का क्षय होने पर आत्मा को जो सर्व पदार्थों का सामान्य बोध होता है, उसे केवलदर्शन कहते हैं। यह केवलज्ञान का सहवर्ती है।
*क्रमशः ......*
Day - 62
*पच्चीस बोल का*
*नौवां बोल है - उपयोग बारह*
*भाग -- 8*
*उपयोग बारह*
*पांच ज्ञान --* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवल ज्ञान।
*तीन अज्ञान --* मतिअज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग अज्ञान।
*चार दर्शन --* चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन।
*अलग-अलग जीवों में उपयोग*
असंज्ञी मनुष्य, 56 अन्तद्वीप और एकेन्द्रिय में -- मति, श्रुत अज्ञान, चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय में चक्षुःदर्शन को छोड़कर पाँच।
चतुरिन्द्रिय में छह -- मतिज्ञान, श्रुत ज्ञान, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन।
असंज्ञी तिर्यंच में छह -- मति, श्रुत ज्ञान, मति, श्रुत अज्ञान, चक्षुः-अचक्षुः दर्शन।
नारकी और देवता में -- केवल ज्ञान। केवल दर्शन मनःपर्यवज्ञान को छोड़कर।
मनुष्य में बारह।
केवली सिद्धों में दो -- केवल ज्ञान, केवल दर्शन।
श्रावक में छह -- प्रथम तीन ज्ञान व तीन दर्शन।
*कौन से उपयोग के जीव कम और कौन से उपयोग की जीव अधिक*
मति-श्रुत अज्ञान, अचक्षु दर्शन वाले जीव सबसे अधिक तथा मनःपर्यवज्ञान वाले जीव सबसे कम।
*चक्षु:दर्शन और अचक्षुःदर्शन न कहकर केवल इंद्रिय-दर्शन कह देते तो एक ही में पांचों इंद्रियों का समावेश हो जाता। यदि यह अभिप्रेत नहीं था तो पांचों इंद्रियों के पांच भेद क्यों नहीं किए गए ?*
दर्शन की व्यवस्था वस्तु के सामान्य और विशेष -- इन दो स्वभावों के आधार पर हुई है। चक्षुःदर्शन यद्यपि सामान्य बोध है फिर भी अन्य इंद्रियों की अपेक्षा वह अधिक विश्वस्त है। इसमें विशेषता की कुछ झलक आ जाती है। उसी को ध्यान में रखकर चक्षु:दर्शन को अन्य इंद्रियों से भिन्न रखा गया है।
*मनःपर्यवज्ञान की भांति मनःपर्यवदर्शन क्यों नहीं ?*
मनःपर्यवज्ञान सिर्फ मनोगत पर्यायों का ही ज्ञान कराता है। उसका विषय मानसिक अवस्थाएं हैं, जो विशेष ही है। अतः सामान्य बोध अर्थात् मनःपर्यवदर्शन नहीं हो सकता।
*क्रमशः ......*
Day - 63
*पच्चीस बोल का*
*नौवां बोल है - उपयोग बारह*
*भाग -- 9*
*उपयोग बारह*
*पांच ज्ञान --* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवल ज्ञान।
*तीन अज्ञान --* मतिअज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग अज्ञान।
*चार दर्शन --* चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन।
*इन्द्रिय ज्ञान, चक्षुः-अचक्षुः-दर्शन, इन्द्रिय पर्याप्ति और इन्द्रियप्राण में अन्तर*
इंद्रियज्ञान दो प्रकार का होता है -- साकार और अनाकार। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह साकार होता है और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जो बोध होता है, वह अनाकार होता है।
पर्याय ( अवस्था ) सहित द्रव्य का जो ज्ञान किया जाता है, वह साकार होता है और पर्याय रहित द्रव्य का जो ज्ञान किया जाता है, वह अनाकार होता है। स्पर्श आदि का विशेष बोध जिससे किया जाता है, वह इंद्रिय विशेष बोध कहलाता है और यह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है। जिससे स्पर्श आदि का सामान्य बोध किया जाता है वह चक्षु:-अचक्षुःदर्शन है और दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम है।
जन्म-धारण के समय जिन पुद्गलों के द्वारा इंद्रियों का आकार बनता है, वह इंद्रिय-पर्याप्ति है और नाम-कर्म का उदय है।
ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति में जैसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय का क्षय-क्षयोपशम अपेक्षित है, वैसे ही अंतराय का क्षय-क्षयोपशम भी अपेक्षित है।
इंद्रिय-प्राण इंद्रिय-ज्ञान की शक्ति है। वह अंतराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है।
*शरीर, स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल और काययोग में अंतर*
शरीर, यह औदारिक आदि वर्गणा से होने वाली पौद्गलिक रचना है और जितना दृश्यमान है उतने स्थान में हैं।
स्पर्शनेन्द्रिय -- इस के दो भेद हैं -- द्रव्य और भाव। द्रव्य-स्पर्शन-इन्द्रिय अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी है और वह नाम कर्म के उदय से होती हैं। भाव- स्पर्शन-इंद्रिय स्पर्शन को जानने की शक्ति है और वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होती है। स्पर्शन-इंद्रिय समूचे शरीर में फैली हुई है। इससे प्राणी को स्पर्श का अनुभव होता है। शरीर का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसमें स्पर्शन-इंद्रिय वर्तमान न हो। शरीर या काय के बिना स्पर्शन-इंद्रिय टिक नहीं सकती। फिर भी शरीर और स्पर्शन-इंद्रिय दो भिन्न वस्तुएं हैं।
कायबल -- यह शरीर को प्रवृत्त करने वाली शक्ति है। यह अंतराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होता है।
काययोग -- यह हलन चलन की क्रिया या प्रवृत्ति है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 64
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 1*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अंतराय।*
जीव चेतनामय अरूपी पदार्थ है। मिथ्यात्व,अविरति, प्रमाद कषाय और योग से जीव कर्म योग्य पुद्गलों को आत्म प्रदेशों के साथ बांध लेता है । आत्म प्रदेशों से बंधे हुए पुद्गल द्रव्य को कर्म कहते हैं। कर्म पुद्गल हैं, जड़ है। कर्म के परमाणुओं को कर्मदल कहते हैं। आत्मा पर रही हुई राग-द्वेष रूपी चिकनाहट और योगरूपी चंचलता के कारण कर्म-परमाणु आत्मा के साथ चिपक जाते हैं। कर्मदल आत्मा के साथ अनादिकाल से चिपके हुए हैं। उनमें से कई अलग होते हैं तो कई नये चिपक जाते हैं। इस प्रकार यह क्रिया बराबर चालू रहती है।
आश्रव के कारण आत्मा कर्म-वर्गणा ग्रहण करती है और यही कर्म है। कर्म-वर्गणा एक प्रकार की अत्यंत सूक्ष्म रज है, जिसे सर्वज्ञ या अवधिज्ञानी ही जान सकते हैं।
*कर्म की परिभाषा*
शुभ एवं अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट और संबंधित होकर जो पुद्गल आत्मा के स्वरूप को आवृत करते हैं, विकृत करते हैं और शुभाशुभ फल के कारण बनते हैं ( शुभाशुभ रूप से उदय में आते हैं ), आत्मा द्वारा गृहीत उन पुद्गलों का नाम है -- कर्म। यद्यपि ये पुद्गल एकरूप है तो भी ये जिस आत्म-गुण को आवृत, विकृत या प्रभावित करते हैं, उसके अनुसार ही उन पुद्गलों का नाम हो जाता है। जैसे जो आत्मा के ज्ञान गुण का घात करते है वह ज्ञानावर्णनीय कर्म, जो आत्मा के दर्शन गुण को ढकते है वह दर्शनावर्णनीय कर्म आदि।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 65
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 2*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्रऔरअंतराय।*
आत्मा के मूलगुण आठ हैं -- *केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक सुख, क्षायक-सम्यक्त्व, अटल अवगाहन, अमूर्तिकपन, अगुरूलघुपन और लब्धि*
आत्मा का पहला गुण है -- *केवलज्ञान*। उसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है -- *ज्ञानावरणीय कर्म* संसार में जितनी आत्माएं हैं, उन सब में अनंतज्ञान विद्यमान हैं, परंतु ज्ञानावरणीय कर्म की विद्यमानता में वह ज्ञान कर्म से आवृत रहता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। यह संपूर्ण शुद्ध ज्ञान है।
आत्मा का दूसरा गुण है -- *केवलदर्शन* यह भी ज्ञान की भांति सब आत्माओं में विद्यमान हैं। इन गुणों को आवृत करने वाले कर्म-पुद्गलों का नाम है -- *दर्शनावरणीय कर्म*। इस कर्म के क्षय होने से ही केवलदर्शन की प्राप्ति होती है।
आत्मा का तीसरा गुण है -- *आत्मिक सुख* इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है -- *वेदनीय कर्म*।
आत्मा का चौथा गुण है -- *सम्यक्-श्रद्धा*। इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है -- *मोहनीय कर्म*।
आत्मा का पांचवा गुण है -- *अटल अवगाहना*। इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है -- *आयुष्य कर्म*।
आत्मा का छठा गुण है -- *अमूर्तिकपन* । इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है -- *नाम कर्म*। नामकर्म के उदय से ही शरीर मिलता है। शरीर-समाविष्ट अमूर्त आत्मा भी मूर्त-सी प्रतीत होती है।
आत्मा का सातवां गुण है -- *अगुरूलघुपन ( न छोटापन, न बड़ापन )* । इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है -- *गोत्र-कर्म*।
आत्मा का आठवां गुण है -- *लब्धि*। इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है -- *अन्तराय-कर्म*।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 66
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 3*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*8 कर्मों की उत्तर प्रकृतियां*
*ज्ञानावरणीय कर्म* आत्मा की ज्ञान चेतना को आवृत करने वाला कर्म ज्ञानावरणीय कर्म है। यह आंख की पट्टी के समान है जिस प्रकार आंख पर पट्टी बांधने से देखने में बाधा पहुंचती है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म जानने में बाधा उत्पन्न करता है। इसकी उत्तर प्रकृतियां पांच है।
1) मति ज्ञानावरणीय-मतिज्ञान को आवृत करने वाला कर्म।
2) श्रुत ज्ञानावरणीय-श्रुतज्ञान को आवृत करने वाला कर्म।
3) अवधि ज्ञानावरणीय अवधिज्ञान को आवृत करने वाला कर्म।
4)मन:पर्यवज्ञानावरणीय-मन:पर्यव ज्ञान को आवृत करने वाला कर्म
5) केवल ज्ञानावरणीय -केवल ज्ञान को आवृत करने वाला कर्म।
*दर्शनावरणीय कर्म*-आत्मा की दर्शन चेतना को आवृत करने वाला कर्म दर्शनावरणीय कर्म है यह प्रतिहारी के समान है। जिस प्रकार प्रतिहारी राजा के दर्शन में रुकावट डालता है उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म देखने में बाधा पहुंचाता है।
इसकी उत्तर प्रक्रिया नौ है-
1) चक्षुदर्शनावरण-आंख से अच्छी तरह चाहते हुए भी ना देख सके।
2)अचक्षुदर्शनावरण-आंख के अतिरिक्त चारों इंद्रियों और मन से अच्छी तरह न देख सके।
3) अवधि दर्शनावरण-अवधि दर्शन की प्राप्ति न हो।
4) केवल दर्शनावरण-केवल दर्शन की प्राप्ति न हो
5) निद्रा- वह नींद जो सुख पूर्वक टूटती है।
6)निद्रा -निद्रा- वह नींद जो कठिनाई से टूटती है।
7) प्रचला -बैठे-बैठे नींद आए।
8) प्रचला -प्रचला -खड़े या चलते-चलते नींद आए।
9)स्त्यानर्द्धि -प्रगाढ़ निद्रा जिसमें व्यक्ति कोई भी कठिन काम निद्रा अवस्था में कर लेता है पर उसे स्वप्न सा आभास होता है।
*वेदनीयकर्म*-जिस कर्म के उदय से संसारी प्राणी सुख या दुख का वेदन करते हैं वह वेदनीय कर्म है ।यह मधुलिप्त तलवार के समान है। जिस प्रकार शहद से लिपटी हुई तलवार की धार को चाटने से अच्छा लगता है और जीभ के कटने से तकलीफ होती है उसी प्रकार सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म है।
वेदनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियां दो है-
1) सातवेदनीय - इसके उदय से शारीरिक और मानसिक सुख की अनुभूति होती है
2)असातवेदनीय- इसके उदय से मानसिक संक्लेश और शारीरिक कष्ट का अनुभव होता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 67
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग --4*
*आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियां*
अभी तक हमने पहले तीन कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के बारे में जाना।
अब हम आगे के कर्मो की उत्तर प्रकृतियों को जानने का प्रयत्न करेंगे।
*मोहनीय कर्म*-मोहनीय कर्म चेतना को विकृत या मूर्च्छित करने वाला कर्म है। यह मद्यपान के समान है जिस प्रकार मद्यपान करने के बाद व्यक्ति को गिरने से सुध बुध नहीं रहती है उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से जीवो की तत्व श्रद्धा विपरीत होती है और विषय भोगों में आसक्ति बनी रहती है। इसकी उत्तर प्रकृतियां 28 है।
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं -दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ।
*दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियां-*
1 सम्यक्त्व मोहनीय
2 मिथ्यात्व मोहनीय
3 मिश्र मोहनीय।
*चारित्र मोहनीय की 25 प्रकृतियां*
कषाय की 16 प्रकृतियां
और नोकषाय की 9 प्रकृतियां।
*कषाय की 16 प्रकृतियां*
1) अनंतानुबंधी- क्रोध ,मान, माया, लोभ।
2) अप्रत्याख्यानी-- क्रोध ,मान, माया, लोभ।
3)प्रत्याख्यानी-- क्रोध ,मान, माया, लोभ।
4) संज्वलन-- क्रोध ,मान, माया, लोभ।
*नोकषाय की 9 प्रकृतियां।*
नोकषाय अर्थात् जो कषायों के सहवर्ती हैं ,कषायों के उत्तेजक हैं एवं हास्य आदि के रूप में जिनका वेदन होता है वह नोकषाय है।
1-हास्य (हंसी मजाक)
2-रति (असंयम में अनुराग)
3-अरति(संयम में उदासीनता)
4-भय(त्रास)
5-शोक(इष्ट वियोग में होने वाला दैन्य भाव)
6-जुगुप्सा (घृणा)
7-स्त्री वेद(पुरुष की अभिलाषा)
8-पुरुष वेद (स्त्री की अभिलाषा)
9-नपुसंक वेद (स्त्री पुरुष दोनों की अभिलाषा)
*आयुष्य कर्म*
किसी एक गति में निश्चित अवधि तक बांधकर रखने वाला कर्म आयुष्य कर्म कहलाता है। यह खोड़े (बेड़ी) के समान है, जिस प्रकार लकड़ी के खोड़े में दिया हुआ आदमी उसको तोड़े बिना निकल नहीं सकता ठीक उसी प्रकार आयुष्य कर्म को पूरा भोगे बिना जीव एक भव से दूसरे भव में नहीं जा सकता और आयुष्य कर्म का क्षय किए बिना मोक्ष भी नहीं पा सकता।
*आयुष्य कर्म की उत्तर प्रकृतियां*
1) नरक आयुष्य
2) तिर्यंच आयुष्य
3)मनुष्य आयुष्य
4) देव आयुष्य।
*क्रमशः .............*
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
🙏🙏
Day - 68
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 5*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*8 कर्मों की उत्तर प्रकृतियां*
अभी तक हमने पांच कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के बारे में जाना अब हम आगे के कर्मो की उत्तर प्रकृतियों को जानने का प्रयास करेंगें।
*नामकर्म* जिस कर्म के उदय से जीव को शरीर,जाति,गति, यश, अपयश आदि पर्यायें प्राप्त होती है उसे नामकर्म कहते हैं। यह चित्रकार के समान है। जिस प्रकार चित्रकार नए-नए चित्रों का निर्माण करता है ठीक उसी प्रकार नामकर्म के उदय से विभिन्न प्रकार के शरीर ,रूप और तरह-तरह के अंगोंपांग का निर्माण होता है।
संक्षेप में नामकर्म के दो प्रकार हैं 1)शुभ नामकर्म
2)अशुभ नामकर्म।
इन दोनों की 42 उत्तर प्रकृतियां बताई गई है।
14-पिंड प्रकृतियां
8- प्रत्येक प्रकृतियां
10-त्रस दशक की प्रकृतियां
10- स्थावर दशक की प्रकृतियां।
*गोत्र कर्म* जीव को अच्छी या बुरी दृष्टि से देखें जाने में निमित बनने वाला कर्म गोत्र कर्म है यह कुंभकार के समान है जिस प्रकार कुंभकार छोटे-बड़े जैसे चाहे वैसे घरों आदि को तैयार करता है वैसे ही गोत्र कर्म के उदय से जीव अच्छी या बुरी दृष्टि से देखे जाने वाले ऊंच-नीच आदि बनते है।
गोत्र कर्म की दो उत्तर प्रकृतियां है
1)उच्चगोत्र
2)नीच गोत्र।
*अंतराय कर्म*
आत्मशक्ति और पौद्गलिक वस्तु की उपलब्धि में बाधा पहुंचाने वाला वीर्य अंतराय कर्म है वह कोषाध्यक्ष (राजा का भंडारी) के समान हैं जिस प्रकार राजा का आदेश होने पर भी भंडारी के दिए बिना वह वस्तु नहीं मिलती वैसे ही अंतराय कर्म के दूर हुए बिना हमें मनचाही वस्तु नहीं मिलती।
इस प्रकार हमने 8 कर्मों की उत्तर प्रकृति को जाना।
*क्रमशः .........*
Day - 69
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 6*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
प्राणियों से संबंध रखने वाले विश्व के समस्त पुद्गलों को दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है --
*(1) अष्ट-स्पर्शी --* वे पुद्गल, जिनमें वर्ण, गन्ध, रस के साथ हल्कापन, भारीपन आदि आठों स्पर्श हों।
*(2) चतुःस्पर्शी --* वे पुद्गल, जिनमें वर्ण, गन्ध, रस तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष -- ये चार स्पर्श हों।
कर्म-वर्गणा के पुद्गल ( कर्म-योग्य पुद्गल ) चतुःस्पर्शी होते हैं, अष्ट स्पर्शी नहीं।
*कर्म के दो वर्ग*
आत्मा के साथ चिपकने वाले कर्म-पुद्गलों को दो भागों में बांटा गया है -- घाति-कर्म और अघाति-कर्म।
*घातिकर्म --* जो कर्म-पुद्गल आत्मा से चिपककर आत्मा के मुख्य या स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं -- उनका हनन करते हैं, उनको घातिकर्म कहते हैं। उन कर्मों का मूलोच्छेद होने से ही आत्मा सर्वज्ञ या सर्वदर्शी बन सकती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय -- ये चार घातिकर्म कहलाते हैं।
*अघातिकर्म --* जो कर्म आत्मा के मुख्य गुणों का घात नहीं करते, उनको हानि नहीं पहुंचाते, वे अघातिकर्म कहलाते हैं। घाति-कर्मों के अभाव में ये कर्म पनपते नहीं, उसी जन्म में शेष हो जाते हैं। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र -- ये चार अघातिकर्म है।
*कर्मों की दृष्टिकोण से सबसे कम और सबसे ज्यादा जीव*
मोहनीय कर्म के जीव सबसे कम है और आयुष्य, वेदनीय, नाम और गोत्र के जीव सबसे ज्यादा है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 70
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 7*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*कर्म-बन्ध के हेतु -- पाँच आश्रव*
मिथ्यात्व,अविरति,प्रमाद, कषाय, योग कर्मबंध के हेतु पांच आश्रव है।
इन कारणों में प्राणियों की समस्त क्रियाओं का वर्गीकरण किया हुआ है । साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति इन्हें यथार्थ रूप में ह्रदयंगम नहीं कर सकते। इसलिए कर्म-बंध के हेतुओं का विस्तृत वर्णन करना आवश्यक है। प्रत्येक कर्म बंध के पृथक पृथक कारण ये हैं-
*ज्ञानावरणीय कर्म बन्ध के कारण*
*1 ज्ञान-प्रत्यनीकता* - ज्ञान या ज्ञानी से प्रतिकूलता रखना।
*2 ज्ञान-निह्नव*- ज्ञान तथा ज्ञानदाता का अपलपन अर्थात् ज्ञानी को कहना कि ज्ञानी नहीं है।
*3 ज्ञानान्तराय*- ज्ञान को प्राप्त करने में अंतराय( विघ्न) डालना।
*4 ज्ञान प्रद्वेष*- ज्ञान या ज्ञानी से द्वेष रखना।
*5 ज्ञान-आशातना*- ज्ञान या ज्ञानी की अवहेलना करना।
*6 ज्ञान-विसंवादन*- ज्ञान या ज्ञानी के वचनों में विसंवाद अर्थात् विरोध दिखाना।
*दर्शनावरणीय कर्म-बन्ध के कारण*
*1 दर्शन-प्रत्यनीकता --*
दर्शन या दर्शनी से प्रतिकूलता रखना।
*2 दर्शन-निह्नव --* दर्शन या दर्शनदाता का अपलपन करना अर्थात् दर्शनी को कहना कि वह दर्शन नहीं है।
*3 दर्शनान्तराय --* दर्शन को प्राप्त करने में अंतराय (विघ्न) डालना।
*4 दर्शन-प्रद्वेष --* दर्शन या दर्शनी से द्वेष रखना।
*5 दर्शन- आशातना --* दर्शन या दर्शनी की अवहेलना करना।
*6 दर्शन-विसंवादन --* दर्शन या दर्शनी के वचनों में विसंवाद अर्थात् विरोध करना।
*क्रमशः*.....
Day - 71
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 8*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*वेदनीय कर्म-बंध के कारण*
*वेदनीय कर्म के दो प्रकार हैं- साता वेदनीय और असातावेदनीय है।*
*सातावेदनीय कर्म-बंध के कारण*
1 प्राण,भूत,जीव, सत्त्वों को अपनी असत् प्रवृत्ति से दु:ख न देना।
2 प्राण, भूत, जीव, सत्वों को हीन न बनाना।
3 प्राण,भूत,जीव, सत्वों के शरीर को हानि पहुंचाने वाला शोक पैदा न करना।
4 प्राण, भूत, जीव, सत्वों को न सताना।
5 प्राण,भूत,जीव सत्वों पर लाठी आदि से प्रहार ने करना।
6 प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों को परितापित न करना।
उक्त कामों के करने से असातावेदनीय कर्म का बंध होता है।
*मोहनीय कर्म-बंध के कारण*
तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ, तीव्र दर्शनमोह, तीव्र चारित्रमोह, तीव्र मिथ्यात्व।
हास्य, रति आदि तीव्र नो-कषाय।
*आयुष्य कर्म-बंध के कारण*
*(क) नरक-आयु बंधने के चार कारण हैं-*
1. महा आरंभ।
2. महा परिग्रह।
3. पंचेन्द्रिय-वध।
4. मांसाहार।
*(ख) तिर्यंच-आयु बंधने के चार कारण हैं-*
1.माया करना।
2.गुढ माया( एक कपट को ढकने के लिए दूसरा छल) करना।
3.असत्य वचन बोलना।
4.कूट तोल माप करना।
*(ग) मनुष्य-आयु बंधने के चार कारण है-*
1 सरल प्रकृति होना।
2.प्रकृति विनीत होना।
3.दया के परिमाण रखना।
4.ईर्ष्या न करना।
*(घ) देव-आयु बंधने के चार कारण है-*
*1. सराग-संयम-* राग युक्त संयम का पालन (आयुष्य का बंध न तो राग से होता है और न संयम से होता है वह तो सरागी संयमी की तपश्चर्या से होता है। अभेदोपचार से उसे सराग संयम कहा गया है)।
*2. संयमासंयम-* श्रावकपन का पालन।
*3 बाल-तपस्या-* मिथ्यात्वी की तपस्या।
*4.अकाम-निर्जरा-* मोक्ष की इच्छा के बिना की जाने वाली तपस्या।
*कुछ महत्वपूर्ण शब्द-*
*प्राण-* दो,तीन और चार इन्द्रिय वाले जीव।
*भूत-* वनस्पति के जीव।
*जीव-* 5 इन्द्रिय वाले सभी प्राणी।
*सत्त्व-* पृथ्वी ,पानी,अग्नि और वायु के जीव।
*क्रमशः*.....
Day - 72
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 9*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*नाम कर्म-बंध के कारण*
*नामकर्म के दो प्रकार हैं- शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म।*
*शुभ नाम कर्म बंध के चार कारण हैं-*
*1. काय-ऋजुता* दूसरों को ठगने वाली शारीरिक चेष्टा न करना।
*2. भाव-ऋजुता-* दूसरे को ठगने वाली मानसिक चेष्टा न करना।
*3. भाषा-ऋजुता-* दूसरे को ठगने वाली वचन की चेष्टा न करना।
*4. अविसंवादन-योग-* कथनी और करनी में विसंवाद न करना।
उक्त कार्यों को करना अशुभ नामकर्म बंधने के कारण हैं।
*गोत्र कर्म बंध के कारण*
*गोत्र कर्म के दो प्रकार है- उच्च गोत्र कर्म और नीच गोत्र कर्म।*
*गोत्र कर्म बंध के आठ कारण-*
*1.जाति 2.कुल 3.बल 4.रूप 5.तपस्या 6.श्रुत (ज्ञान)7. लाभ 8.ऐश्वर्य*- इनका मद अहं न करना *उच्च गोत्र बंध* के कारण हैं और इनका मद अहं करना *नीच गोत्र बंध* के कारण हैं
*अन्तराय कर्म-बंध के कारण*
1.दान 2. लाभ 3.भोग 4.उपभोग 5.वीर्य (उत्साह या सामर्थ्य)- उन सब में बाधा डालना।
*क्रमशः ...............*
Day - 73
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 10*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
पिछे के विवरण में हमनें कर्म-बंध के कारणों को जाना। आज की पोस्ट में कर्मों की अवस्था के बारे में जानने का प्रयास करेंगे। कर्मों की मुख्य दस अवस्थाएं होती है, उनमें से आज प्रथम अवस्था को समझने का प्रयास करेंगे।
*कर्मों की दस मुख्य अवस्थाएं*
1.बंध 2. उद्वर्तन 3.अपवर्तन 4. सत्ता 5.उदय 6. उदीरणा 7. संक्रमण 8.उपशमन 9. निवृत्ति 10.निकाचना।
*1.बन्ध*- जीव के असंख्य प्रदेश है। मिथ्यात्व,अव्रत,प्रमाद,कषाय और योग के निमित्त से जीव के असंख्यात प्रदेशों में कंपन पैदा होता है। इस कम्पन के फलस्वरूप जिस क्षेत्र में आत्म-प्रदेश है उस क्षेत्र में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म -योग्य पुद्गल जीव के एक-एक प्रदेश के साथ चिपक जाते हैं, बंध जाते हैं। जीव प्रदेशों के साथ इन कर्म पुद्गलो का इस प्रकार चिपक जाना (बंध जाना) ही बंध कहलाता है। जीव और कर्म का यह संबंध ठीक है वैसा ही है जैसा दूध और पानी का, अग्नि और तप्त लोह पिंड का। इस प्रकार आत्म प्रदेशों के साथ बंध को प्राप्त कार्मण-वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं। बंध के चार भेद हैं-
*(क) प्रकृति-बंध-* जीव की शुभ प्रवृत्ति के समय ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल शुभ तथा अशुभ प्रवृत्ति के समय ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल अशुभ होते है। कर्म-पुद्गलो का जीव के साथ संबंध होने पर, ज्ञान को रोकने का स्वभाव, दर्शन को रोकने का स्वभाव, इस प्रकार भिन्न भिन्न स्वभाव का होना प्रकृति-बंध कहलाता है।
*(ख )स्तिथि-बन्ध-* जीव के द्वारा जो शुभाशुभ कर्म-पुद्गल ग्रहण किए गए हैं, वे अमुक काल तक अपने स्वभाव को कायम रखते हुए जीव -प्रदेशों के साथ बन्धे रहेंगे, उसके बाद वे शुभ या अशुभ रूप में उदय आएंगे, इस प्रकार से कर्मों का निश्चित काल तक के लिए जीव के साथ बन्ध जाना स्थिति बंन्ध है।
*(ग)अनुभाग-बन्ध (रस बन्ध)-* कुछ कर्म तीव्र रस से बन्धते हैं और कुछेक मन्द रस से। शुभाशुभ कार्य करते समय जीव की जितनी मात्रा में तीव्र या मंद प्रवृत्ति रहती है, उसी के अनुरूप कर्म भी बन्धते हैं और उनमें फल देने की वैसी ही शक्ति होती है।
*(घ) प्रदेश-बंध* भिन्न-भिन्न कर्म-दलों में परमाणुओं की संख्या का न्यूनाधिक होना प्रदेश-बंध है। ग्रहण किए जाने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव में परिणत होने वाली कर्म-पुद्गल-राशि स्वभावानुसार अमुक अमुक परिमाण में बंट जाती है- यह परिमाण विभाग ही प्रदेश-बंध कहलाता है।
जीव संख्यात परमाणुओं से बने हुए कर्म पुद्गलो को ग्रहण नहीं करता, परंतु अनंत परमाणु वाले स्कंध को ग्रहण करता है।
*क्रमशः ...............*
Day - 74
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 11*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
पिछे के विवरण में हमनें कर्मों की दस मुख्य अवस्था मे प्रथम अवस्था *बंध* को जानने का प्रयास किया। आज की पोस्ट से बाकी की 9 अवस्थाओं को समझने का प्रयास करेंगे।
*कर्मों की दस मुख्य अवस्थाएं*
1.बंध 2. उद्वर्तन 3.अपवर्तन 4. सत्ता 5.उदय 6. उदीरणा 7. संक्रमण 8.उपशमन 9. निवृत्ति 10.निकाचना।
*2.उद्वर्तन-* स्थिति-बंध और अनुभाग-बंध के बढ़ने को उद्वर्तना कहते हैं अर्थात् जिस कर्म की जितनी स्थिति बंधी हुई है और उसका जैसा रस है उसे किसी निमित्त से बढ़ा देना उद्वर्तन कहलाता है।
*3.अपवर्तन-* स्थिति-बंध और अनुभाग-बंध के घटने को अपवर्तनां कहते हैं अर्थात् कर्मों की बंधी हुई स्थिति और उसके रस को कम कर देना अपवर्तन है।
उद्वर्वतना और अपवर्तना के कारण कोई कर्म शीर्घ फल देता है और कोई देर में, किसी का फल तीव्र होता है और किसी का मंद।
*4.सत्ता-* बंधने के बाद कर्म का फल तत्काल नहीं मिलता, वह आत्मा के साथ चिपके हुए रहते हैं ।उस समय उनका अस्तित्व तो होता है पर वे सक्रिय नहीं होते हैं। कर्म जब तक फल न देकर अस्तित्व रूप में रहता है तब तक उसे सत्ता कहते हैं।
*5.उदय-* स्थिति-बंध पूर्ण होने पर जब कर्म आत्मा के साथ एकीभूत होकर सक्रिय हो जाते है और शुभ या अशुभ रूप मेें फलदान देते हैं तब उसे उदय कहते हैं। वह (उदय) दो प्रकार का होता है *फलोदय और प्रदेशोदय ।*
जो कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है, उसे फलोदय या विपाकोदय कहते हैं। जो केवल आत्म-प्रदेशों में भोगा जाता है उसे प्रदेशोदय कहते हैं।
*6.उदीरणा -* अबाधा-काल पूर्ण होने पर जो कर्म-दलिक बाद में उदय में आने वाले हैं, उनको पुरुषार्थ द्वारा प्रयत्न - विशेष से खींचकर उदय-प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। उदीरणा के लिए अपवर्तना के द्वारा कर्म की स्थिति को कम कर दिया जाता है।
*7. संक्रमण-* संक्रमण का अर्थ है एक का दूसरे में परिवर्तन। एक ही कर्म की भिन्न-भिन्न प्रकृतियां जब परस्पर संक्रात हो जाती है अर्थात् जिस प्रयत्न से कर्म की उत्तर-प्रकृतियाँ अपनी सजातीय प्रकृतियों में बदल जाती है, उसे संक्रमण कहते हैं। एक कर्म-प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म-प्रकृति में परिवर्तित होना संक्रमण है। क्रोध का मान के रूप में और मान का क्रोध के रूप में बदल जाना संक्रमण है। आयुष्य कर्म का संक्रमण नहीं होता। दर्शन-मोह और चारित्र-मोह का परस्पर संक्रमण नहीं होता।
*8.उपशमन-* 8 कर्मों में मोहनीय कर्म को सबसे अधिक सक्षम माना गया है। इसे दबा देना या मोह-कर्म की सर्वथा अनुदयावस्था को उपशमन कहते हैं। जिस समय मोहनीय-कर्म का प्रदेशोदय और विपाकोदय नहीं रहता, उस अवस्था को उपशमन कहते हैं।
*9.निधत्ति-* आत्मा और कर्म के संबंध को प्रगाढ़ बनाने का नाम निधति है।इसमें उद्वर्तन, अपवर्तन के सिवाय संक्रमण आदि नहीं होता हैं।
*10.निकाचना -* आत्मा और कर्म के संबंध को इतना प्रगाढ़ कर देना कि उन कर्मों का फल निश्चित स्थिति और अनुभाग के आधार पर भोगा जाता है, जिनके विपाक को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता, वे निकाचित-कर्म कहलाते हैं। इनका आत्मा के साथ गाढ़ संबंध होता है। इनके उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा आदि नहीं होते।
जैन सिद्धांत में कर्मवाद का वही स्थान है, जो व्याकरण में कारक का है। संसारी प्राणियों की विविधता का कारण कर्म ही है। कोई विद्वान् है, कोई मूर्ख है, कोई आसक्त है, कोई विरक्त है, किसी का जन्म होता है, किसी की मृत्यु होती है, किसी का संयोग, किसी का वियोग, किसी का सत्कार, किसी का तिरस्कार। विद्वान् धनहीन है और मूर्ख धनी है। कोई लेखक है, कवि नहीं। कोई कवि है, वक्ता नहीं। कोई लेखक है, कवि भी है, वक्ता भी है। कोई योग्यता न रखते हुए भी स्वामी है और योग्यता वाला सेवक है- इत्यादि अगणित
विविधताएं हैं। इनका आंतरिक हेतु कर्म है। परिस्थिति के सहयोग से ये प्रकट होकर जीवन को प्रभावित करते हैं।
*क्रमशः ...............*
Day - 75
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 12*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त। एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दोनों में परस्पर संबंध कैसे?
आइए इसे समझने का एक प्रयास हम भी करें।
*अमूर्त और मूर्त का संबंध कैसे?*
प्रत्येक संसारी आत्मा पर
अनादि काल से कर्म चिपके हुए हैं। कोई भी संसारी आत्मा कर्म के बिना एक क्षण भी संसार में नहीं टिकती। जितने कर्म-पुद्गल आत्मा से चिपकते हैं ,वे सब अवधि-सहित होते हैं। कोई भी एक कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ घुलमिल कर नहीं रह सकता
। फलतः हमें यह कहना होगा कि आत्मा से कर्मों का संबंध प्रवाहरूप से अनादि और भिन्न-भिन्न व्यक्ति रूप से सादि है।
तर्कशास्त्र का यह एक नियम है कि जो अनादि होता है, उसका कभी अंत नहीं होता। यह हम जानते हैं कि आत्माएं अनादिकालीन कर्म-बंधन तोड़ कर मुक्त होती है। इसका समाधान इन शब्दों में हो चुका है कि आत्मा और कर्म का संबंध प्रवाह रूप से अनादि है, व्यक्ति रूप से नहीं।
एक प्रश्न है- अचेतन एवं रूपी कर्म -पुद्गल चेतन एवं अरूपी आत्मा से कैसे संबंध करते हैं। यद्यपि आत्मा स्वरूपतः अमूर्त है, तथापि संसारी आत्मा का स्वरूप कर्मावृत्त होने के कारण पूर्णरूपेण प्रकट नहीं होता। अतएव संसारस्थ आत्माए कथंचित्( किसी दृष्टिकोण से) मूर्त भी मानी जाती है। कर्म का संबंध इस कोटि की आत्माओं से ही होता है। जोआत्माएं सर्वथा अमूर्त-कर्म मुक्त हो जाती है, उनसे फिर कर्म संबंध नहीं कर पाते। इसका सार इतना ही है कि कर्म-युक्त आत्मा के कर्म लगते हैं। कर्म मुक्त आत्मा के नहीं।
यह पूछा जा सकता है कि आत्मा के पहले-पहल कर्म कैसे लगे? पर जब हम आत्मा एवं कर्म की पहल निकाल ही नहीं सकते, क्योंकि उनका प्रारंभ है ही नहीं, तब श्री गणेश कैसे बतलाएं? इसका समुचित उत्तर यही है कि आत्मा और कर्म का संबंध अपश्चानुपूर्वी है अर्थात् वह संबंध न तो पीछे हैं और न पहले ।
यदि कर्मों से पहले आत्मा को माने तो फिर उसके कर्म लगने का कोई कारण ही नहीं बनता। कर्मों को भी आत्मा से पहले नहीं मान सकते क्योंकि वे किए बिना होते नहीं और आत्मा के बिना उनका किया जाना सर्वथा असंभव है। इन दोनों का एक साथ उत्पन्न होना भी अयौक्तिक है। पहले तो उन्हें उत्पन्न करने वाला ही नहीं है। दूसरे में कल्पना करें कि यदि ईश्वर को इनका उत्पादक मान ले तो भी हमारी गुत्थी सुलझती नहीं। प्रत्युत इतनी विकट समस्याएं हमारे सामने आ खड़ी होती है उनका हल नहीं निकाला जा सकता। ईश्वर ने क्या असत् से सत् का निर्माण किया या सत् का परिवर्तन किया? असत् से सत् और सत् से असत् नहीं हो सकता, यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है। सत् का रूपांतरण भी क्यों किया एवं क्या से क्या किया? पहले क्या था और बाद में क्या किया? इनका कोई भी संतोषजनक समाधान नहीं हो सकता। अतः इनका न पहले न बाद में (अपश्चानुपूर्वी) संबंध ही संगत एवं युक्तियुक्त है
*क्रमशः ...............*
Day - 76
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 13*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*प्रश्न-* आत्मा अमूर्त (अरूपी) और कर्म मूर्त (रूपी) है । फिर इन दोनों विरोधी वस्तुओं का संबंध कैसे हो सकता है?
*उत्तर-* अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का बंधन नहीं हो सकता, परंतु संसारी आत्मा के एक-एक आत्म प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-परमाणु चिपके हुए होते हैं, अतः आत्मा अमूर्त होते हुए भी कार्मण शरीर के संबंध से मूर्तवत् होती है। कार्मण- शरीर प्रवाह रूप से अनादि संबंध वाला है। कार्मण- शरीर की विद्यमानता में ही आत्मा के कर्म-परमाणु चिपकते हैं। जब कार्मण- शरीर का नाश हो जाता है तब आत्मा अमूर्त हो जाती है और ऐसी आत्मा को कर्म भी नहीं पकड़ सकते। तात्पर्य यह है कि जब तक आत्मा में कर्म बन्ध का कारण विद्यमान रहता है। तब तक कार्मण-शरीर के द्वारा कर्म पुद्गल आत्मा के साथ संबंध रख सकते हैं, अन्यथा नहीं। यद्यपि मुक्त आत्माएं भी पुद्गल-व्याप्त आकाश में स्थित है, किंतु उन आत्माओं में कर्म-बंध के कारण अत्यन्ताभाव है,इसलिए पुद्गल वहां रहते हुए भी उन्मुक्त आत्माओं से संबंध नहीं कर सकते और बिना संबंध के वे आत्मा का कुछ भी नहीं कर सकते।
जो पुद्गल आत्म- प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण नहीं किए जाते यूं ही लोक में इधर उधर फैले हुए हैं, उनमें फलदान की शक्ति नहीं होती। संसारी आत्माओं में कर्म-बंध का कारण विद्यमान होता है ,अतः कर्म- पुद्गल आत्मा के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तथा उन पुद्गलों का आत्मा के साथ एकीभाव होने से उनमें फल देने की शक्ति आ जाती है और वे यथा समय अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं। अतः आत्मा और कर्म के संबंध का मुख्य हेतु आत्मा की तदनुकूल प्रवृत्ति ही है।
आत्मा के साथ कर्म का अनादि संबंध प्रवाहरूप से है, व्यक्तिरूप से नहीं, क्योंकि सभी कर्म अवधि-सहित होते हैं। कर्म- पुद्गलों में कोई एक भी ऐसा नहीं जो अनादि काल में आत्मा के साथ लगा हुआ हो सबसे उत्कृष्ट स्थिति मोहनीय कर्म की है। वह भी उत्कृष्ट रूप से 70 क्रोडाक्रोड सागर तक आत्मा के साथ चिपका रह सकता है, उससे अधिक नहीं। इसलिए आत्मा की मुक्ति होने में कोई भी आपत्ति नहीं।
कर्म-बंध सहेतुक है। जब तक कर्म-बन्ध का कारण विद्यमान रहता है कब तक कर्म बंधता जाता है और अपना फल देने की अवधि पूर्ण होने पर उदय में आकर अलग हो जाता है। जब आत्मा कर्म-बंध का द्वार रोक देती है, कर्म बंध के कारणभूत आश्रव का निरोध कर देती है, उस समय कर्म का बंध रुक जाता है और जो कर्म पहले के बंधे हुए होते हैं, उदय में आकर नष्ट हो जाते हैं या उदीरणा से उदय में लाकर नष्ट कर दिए जाते हैं और तब आत्मा कर्म मुक्त हो जाती है।
*क्रमशः ...............*
Day - 77
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 14*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*प्रश्न -* कर्म जड़ है। वे यथोचित फल कैसे दे सकते हैं?
*उत्तर-* यह एकदम सही है कि कर्म- पुद्गल जड़ है और वे यह नहीं जानते कि अमुक आत्मा ने यह काम किया है, अतः उसे यह फल दिया जाए। परंतु आत्मक्रिया के द्वारा जो शुभाशुभ पुद्गल आकृष्ट होते हैं, उनके संयोग से आत्मा की वैसी ही परिणति हो जाती है और आत्मा को उसके अनुसार फल मिल जाता है।
जिस प्रकार शराब को नशा करने की ताकत का अनुभव नहीं होता है और विष ने मारने की बात जानता फिर भी शराब पीने से नशा होता है और विष खाने से मृत्यु। पथ्य भोजन आरोग्य देना नहीं जानता और दवा रोग मिटाना नहीं जानती फिर भी पथ्य भोजन से स्वास्थ्य-लाभ होता है और औषधि सेवन से रोग मिटता है। बाहय रूप से ग्रहण किए हुए पुद्गलों का जब इतना असर होता है तो आंतरिक प्रवृत्ति से गृहीत-कर्म-पुद्गलों को आत्मा पर असर होने में संदेह है कैसा?
उचित साधनों के सहयोग से विष और औषधि की शक्ति में परिवर्तन किया जा सकता है, वैसे ही तपस्या आदि साधनों से कर्म की फल देने की शक्ति में भी परिवर्तन किया जा सकता है। अधिक स्थिति के एवं तीव्र फल देने वाले कर्म में भी उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति में अपर्वतना के द्वारा न्यूनता की जा सकती है।
*प्रश्न* प्रत्येक आत्मा सुख चाहती है, दुख नहीं। तो फिर वह पाप का फल स्वयं क्यों भोगेगी?
*उत्तर-* इस पर इतना कहना काफी होगा कि सुख और दुख आत्मा के पुण्य-पाप के अनुसार मिलते हैं या चाहने के अनुसार?
यदि चाहने के अनुसार मिले तो कर्म का कोई महत्व ही नही होगा जो कुछ इच्छा की, वही मिल गया । ऐसी हालत में तो बस इच्छा ही सब कुछ है चाहे उसे चिंतामणि कहे,चाहे कल्पवृक्ष।
ऐसा होने पर त्याग तपस्या धर्म करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी । संसार में पाप बढ़ जाएंगे। सब उन्मुक्त हो जाएंगे।
यदि कर्म फल को माने तब तो उसके अनुसार ही फल मिलेगा। अच्छे कर्म का अच्छा फल होगा, बुरे कर्म का बुरा।बुद्धि:कर्मानुसारिणी- इस छोटे-से वाक्य से यह विषय और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। जैसा कर्म होता है वैसी ही बुद्धि हो जाती है । जैसी बुद्धि होती है वैसा ही काम किया जाता है और जैसा काम किया जाता है, वैसा ही फल मिलता है। अतएव कर्म का फल भोगने में किसी न्यायधीश की जरूरत नहीं ।एक मनुष्य अपने पूर्व कृत कर्मों के बल पर हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, व्यभिचार दुराचार सेवन करता है। न्यायाधीश का क्या काम बिगड़ता था कि उसे कर्म का फल देने को इन निंदनीय कार्य में प्रवृत्त करना पड़ा। न्यायधीश तो बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए कर्म का फल देता है और फिर हिंसा, चोरी आदि से कर्म-फल भुगतने का तरीका क्यों पसंद किया गया। उस परम दयालु न्यायधीश ईश्वर के द्वारा?
जैन दर्शन के अनुसार यह सृष्टि अनादि और अनंत है। सृष्टि का न कभी आरंभ ही हुआ ह और न कभी अंत ही होगा। इस सृष्टि को उत्पन्न करने वाला कोई नहीं है। अन्य दर्शनों के अनुसार संसार सृष्टि है- एक कार्य है, इसलिए उसका कर्त्ता भी अवश्य है और उसी का नाम ईश्वर है। इस तर्क को मान लेने से कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं । *जैसे-*
यदि प्रत्येक कार्य का संचालक ईश्वर हो तो जीवो को सुख- दुख देने में ईश्वर के ऊपर पक्षपाती होने का दोष लगता है। जो जीव सुखी है उन पर ईश्वर का प्रेम और जो दुखी है उन पर ईश्वर का द्वेष है। ऐसे ईश्वर की आत्मा राग द्वेष से मलिन है, अतः हम ऐसे ईश्वर को परमात्मा कैसे माने?
यदि सृष्टि उत्पन्न करने वाली किसी शक्ति को माने तो उसका कर्त्ता अथवा स्वामी भी किसी को मानना पड़ेगा फिर उसका स्वामी और फिर उसका स्वामी इस तरह एक के बाद कभी ना खत्म होने वाली स्वामियों की कतार-सी लग जाएगी जो अनंत तक चली जाएगी, फिर भी स्वामी का अंत नहीं दिखेगा। ईश्वर को कर्ता मान लेने से पुरुषार्थ के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता । जैसी कर्त्ता
को जची, वैसी सृष्टि कर डाली ।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ही अपने कर्मों की कर्त्ता है और सुख-दुख की भोक्ता है परमात्मा राग द्वेष रहित है , उसको संसार से मतलब ही क्या?
*क्रमशः ...............*
Day - 78
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 15*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*प्रश्न -* परिस्थिति के अनुसार एक साथ लाखों आदमी मर जाते हैं । जो धर्मिष्ट हैं, वे दुःखी देखे जाते हैं ,जो पापी हैं, वे सुखी देखे जाते है, अतः इन सब का कारण परिस्थिति ही है ,कर्म क्यों?
*उत्तर-* युद्ध में जो एक साथ लाखों मनुष्य मरते हैं इसका कारण आयुष्य कर्म की उदीरणा है। उदीरणा का अर्थ है -नियत काल से उदय में आने वाले कर्म को विशेष प्रयत्न के द्वारा उस (नियतकाल) से पूर्व उदय में लाकर भोग लेना। जो-जो आकस्मिक घटनाएं घटती है, उनमें उदीरणा का मुख्य हाथ है। परिस्थिति एक प्रकार से कर्म का फल है। जिसके जैसे कर्म किए हुए होते हैं उसको वैसी ही अवस्था में अपना जीवन बिताना पड़ता है। परिस्थिति का जो परिवर्तन होता है उसका कारण तो कर्म ही है। एक बड़े घराने में जन्म लेकर भी अंतिम समय धूल फांकता हुआ मरता है और एक गरीब घर में जन्म लेने वाला भी आखिर सारे विश्व पर शासन कर सकता है। किसी के जीवन का पूर्वार्द्ध सुखमय है और किसी के जीवन का उतरार्द्ध। कोई धनी देश में भी गरीब है और कोई गरीब देश में भी धन-कुबेर । धन है, पर शरीर स्वस्थ नहीं है। शरीर स्वस्थ है, पर धन नहीं है। इन सब परिस्थितियों का परिवर्तन कर्म से ही होता है। इसीलिए कहा गया *कर्म हंसाए,कर्म रुलाए।* कर्म ही परिस्थिति को बदलने वाला है। कर्म का प्रभाव अचूक है। यदि पूर्व में बुरे कर्म बंधे हैं और वे नियत है, तो वर्तमान में धर्म परायण होने पर भी अपना फल देंगे और यदि अच्छे कर्म बंधे हुए हैं, और नियत है तो वर्तमान में पापी होने पर भी अपना फल देंगे ही। इस प्रसंग में एक बात और समझे -कर्म पर भरोसा रख कर उद्योग को भूल जाने वाली बात जैन दर्शन ने कभी नहीं सिखाई । जैन-दृष्टि में जैसा कर्म है, वैसा ही उद्योग । कर्म की मुख्यता नहीं, उद्योग का विरोध नहीं, किंतु दोनों का समन्वय है। आत्म-विकास के लिए इसमें विशाल क्षेत्र है ।
कर्मवाद का सिद्धांत जीवन में आशा, उत्साह और स्फूर्ति का संचार करता है। उस पर पूर्ण विश्वास होने के बाद निराशा, अनुत्साह और आलस्य तो रह ही नहीं सकते। सुख-दुःख के झोंके आत्मा को विचलित नहीं कर सकते।
कर्म ही आत्मा को जन्म-मरण के चक्कर लगवाता है। हमारी वर्तमान अवस्था हमारे ही पूर्व-कृत कर्मों का फल है। मनुष्य जो कुछ पाता है वह उसी की बोयी हुई खेती है।
हम अपने विचारों और वासनाओं के अनुरूप अपना भाग्य -निर्माण करते हैं। आज हम जो कुछ है वह हमारे ही पूर्व जन्मों का फल है ।हमारी वर्तमान अवस्था के लिए ईश्वर जिम्मेवार नहीं। हम स्वयं अपनी अवस्था के लिए जिम्मेवार हैं। यदि इस तथ्य को, आत्मा के इस गुप्त भेद को हम अच्छी तरह समझ ले और तदानुरूप आचरण करें तो हम अपने भविष्य का ऐसा सुंदर निर्माण कर सकते हैं कि हम कर्मों से हल्के होते जाएंगे और क्रमशः ऊंचे- ऊंचे उठते जाएंगे जब तक कि जीवन के लक्ष्य को प्राप्त न कर ले।
आत्मा किसी रहस्यमय शक्तिशाली व्यक्ति की शक्ति और इच्छा के अधीन नहीं है। उसे अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए शक्तिशाली सत्ता (ईश्वर) का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं है। आत्मोत्थान के लिए या पापों का नाश करने के लिए हमें किसी भी शक्ति के आगे न तो दया की भीख मांगने की जरूरत है और न उसके सामने रोने, गिड़गिड़ाने या मस्तक झुकाने की।
कर्मवाद हमें बताता है कि संसार की सभी आत्माएं एक समान है, सभी में एक सी शक्तियां विद्यमान है ।चेतन जगत् में जो भेदभाव दिखाई पड़ता है, उसका कारण इन आत्मिक शक्तियों का न्यूनाधिक विकास ही है।
कर्मवाद के अनुसार विकास की सर्वोच्च सीमा को प्राप्त व्यक्ति ही ईश्वर है, परमात्मा है। हमारी शक्तियां कर्मों से आवृत है, और अविकसित है, परंतु आत्म-बल के द्वारा कर्म का आवरण दूर हो सकता है और इन शक्तियों का विकास किया जा सकता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर हम परमात्मस्वरुप को भी प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा प्रयत्न-विशेष से परमात्मा बन सकती है । प्रत्येक आत्मा में महावीर बनने की क्षमता है।
*क्रमशः ...............*
[15/08, 1:49 pm] Vikas Sethia M T: Day - 78
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 15*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*प्रश्न -* परिस्थिति के अनुसार एक साथ लाखों आदमी मर जाते हैं । जो धर्मिष्ट हैं, वे दुःखी देखे जाते हैं ,जो पापी हैं, वे सुखी देखे जाते है, अतः इन सब का कारण परिस्थिति ही है ,कर्म क्यों?
*उत्तर-* युद्ध में जो एक साथ लाखों मनुष्य मरते हैं इसका कारण आयुष्य कर्म की उदीरणा है। उदीरणा का अर्थ है -नियत काल से उदय में आने वाले कर्म को विशेष प्रयत्न के द्वारा उस (नियतकाल) से पूर्व उदय में लाकर भोग लेना। जो-जो आकस्मिक घटनाएं घटती है, उनमें उदीरणा का मुख्य हाथ है। परिस्थिति एक प्रकार से कर्म का फल है। जिसके जैसे कर्म किए हुए होते हैं उसको वैसी ही अवस्था में अपना जीवन बिताना पड़ता है। परिस्थिति का जो परिवर्तन होता है उसका कारण तो कर्म ही है। एक बड़े घराने में जन्म लेकर भी अंतिम समय धूल फांकता हुआ मरता है और एक गरीब घर में जन्म लेने वाला भी आखिर सारे विश्व पर शासन कर सकता है। किसी के जीवन का पूर्वार्द्ध सुखमय है और किसी के जीवन का उतरार्द्ध। कोई धनी देश में भी गरीब है और कोई गरीब देश में भी धन-कुबेर । धन है, पर शरीर स्वस्थ नहीं है। शरीर स्वस्थ है, पर धन नहीं है। इन सब परिस्थितियों का परिवर्तन कर्म से ही होता है। इसीलिए कहा गया *कर्म हंसाए,कर्म रुलाए।* कर्म ही परिस्थिति को बदलने वाला है। कर्म का प्रभाव अचूक है। यदि पूर्व में बुरे कर्म बंधे हैं और वे नियत है, तो वर्तमान में धर्म परायण होने पर भी अपना फल देंगे और यदि अच्छे कर्म बंधे हुए हैं, और नियत है तो वर्तमान में पापी होने पर भी अपना फल देंगे ही। इस प्रसंग में एक बात और समझे -कर्म पर भरोसा रख कर उद्योग को भूल जाने वाली बात जैन दर्शन ने कभी नहीं सिखाई । जैन-दृष्टि में जैसा कर्म है, वैसा ही उद्योग । कर्म की मुख्यता नहीं, उद्योग का विरोध नहीं, किंतु दोनों का समन्वय है। आत्म-विकास के लिए इसमें विशाल क्षेत्र है ।
कर्मवाद का सिद्धांत जीवन में आशा, उत्साह और स्फूर्ति का संचार करता है। उस पर पूर्ण विश्वास होने के बाद निराशा, अनुत्साह और आलस्य तो रह ही नहीं सकते। सुख-दुःख के झोंके आत्मा को विचलित नहीं कर सकते।
कर्म ही आत्मा को जन्म-मरण के चक्कर लगवाता है। हमारी वर्तमान अवस्था हमारे ही पूर्व-कृत कर्मों का फल है। मनुष्य जो कुछ पाता है वह उसी की बोयी हुई खेती है।
हम अपने विचारों और वासनाओं के अनुरूप अपना भाग्य -निर्माण करते हैं। आज हम जो कुछ है वह हमारे ही पूर्व जन्मों का फल है ।हमारी वर्तमान अवस्था के लिए ईश्वर जिम्मेवार नहीं। हम स्वयं अपनी अवस्था के लिए जिम्मेवार हैं। यदि इस तथ्य को, आत्मा के इस गुप्त भेद को हम अच्छी तरह समझ ले और तदानुरूप आचरण करें तो हम अपने भविष्य का ऐसा सुंदर निर्माण कर सकते हैं कि हम कर्मों से हल्के होते जाएंगे और क्रमशः ऊंचे- ऊंचे उठते जाएंगे जब तक कि जीवन के लक्ष्य को प्राप्त न कर ले।
आत्मा किसी रहस्यमय शक्तिशाली व्यक्ति की शक्ति और इच्छा के अधीन नहीं है। उसे अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए शक्तिशाली सत्ता (ईश्वर) का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं है। आत्मोत्थान के लिए या पापों का नाश करने के लिए हमें किसी भी शक्ति के आगे न तो दया की भीख मांगने की जरूरत है और न उसके सामने रोने, गिड़गिड़ाने या मस्तक झुकाने की।
कर्मवाद हमें बताता है कि संसार की सभी आत्माएं एक समान है, सभी में एक सी शक्तियां विद्यमान है ।चेतन जगत् में जो भेदभाव दिखाई पड़ता है, उसका कारण इन आत्मिक शक्तियों का न्यूनाधिक विकास ही है।
कर्मवाद के अनुसार विकास की सर्वोच्च सीमा को प्राप्त व्यक्ति ही ईश्वर है, परमात्मा है। हमारी शक्तियां कर्मों से आवृत है, और अविकसित है, परंतु आत्म-बल के द्वारा कर्म का आवरण दूर हो सकता है और इन शक्तियों का विकास किया जा सकता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर हम परमात्मस्वरुप को भी प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा प्रयत्न-विशेष से परमात्मा बन सकती है । प्रत्येक आत्मा में महावीर बनने की क्षमता है।
*क्रमशः ...............*
Day - 79
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 16*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
जैन दर्शन में किसी भी कार्य की उत्पत्ति के लिए कर्म और उद्योग- यह दो ही नहीं, परंतु पांच कारण माने गए हैं *जैसे- काल, स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ और नियति।*
*काल* भाग्य पुरुषार्थ या स्वभाव - कोई भी काल के बिना कार्य नहीं कर सकता। शुभाशुभ कर्मों का फल तुरंत ही नहीं मिलता परंतु कालांतर में नियत समय पर ही मिलता है। एक नवजात शिशु को बोलना या चलना सिखाने के लिए चाहे कितना ही उद्योग और प्रयत्न किया जाए, वह जन्मते ही बोलना चलना नहीं सीख सकता। वह काल या समय पाकर ही सीखेगा दवा पीते ही रोग से आराम नहीं होता ,समय लगता है । आम की गुठली में महा वृक्ष के रूप में परिणत होने तथा हजारों आम उत्पन्न करने का स्वभाव है ,परंतु फिर भी उसे बोने के साथ ही फल नहीं मिलता , समय लगता है।
प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करने वाला, स्थिर करने वाला, संहार करने वाला, संयोग में वियोग और वियोग में संयोग करने वाला काल ही है।
*स्वभाव-* आम की गुठली में अंकुरित होकर वृक्ष बनने का स्वभाव है ,अतः माली का पुरुषार्थ काम आता है ।मालिक का भाग्य फल देता है और काल के बल से अंकुर आदि बनते हैं। हरेक वस्तु का अपना-अपना स्वभाव होता है। बबूल कभी आप उत्पन्न नहीं कर सकता।
*कर्म-* एक ही मां के दो बच्चे हैं- एक सुंदर एवं बुद्धिमान, दूसरा कुरूप एवं मूर्ख। ऐसा क्यों? काल, पुरुषार्थ, स्वभाव - ये दोनों के समान थे फिर अंतर क्यों ?एक ही मां-बाप का रज और वीर्य, एक ही गर्भ से उत्पन्न, एक ही वातावरण, फिर अंतर कैसा? यह सब कर्म का प्रभाव है। जिस जीव ने अपने पूर्व जन्म में अच्छे कर्म किए हैं, उसको अच्छे संयोग प्राप्त हुए और जिस ने बुरे कर्म किए, उसको प्रतिकूल संयोग मिले।
*पुरुषार्थ-* संसार में परिभ्रमण कराने वाला कर्म है, परंतु मुक्त कराने में कर्म की सामर्थ्य नहीं। मुक्ति प्राप्त करने में पुरुषार्थ की सत्ता चलती है। पूर्व जन्म के अच्छे उद्योग और शुभ कर्मों का बंध होने पर भी वर्तमान के उद्योग के बिना पूर्व संचित कर्म भी इष्ट फल नहीं दे सकते। उसके लिए उद्योग जरूरी है। आटा, पानी और आग सब तैयार होने पर भी भाग्य भरोसे बैठे रहने से भोजन नहीं मिलता। परोसी हुई रोटी बिना हाथ चलाए मुंह में नहीं जा सकेगी। वर्तमान में उद्यम किए बिना कोई काम नहीं हो सकता।
नियति को घडनेवाला पुरुषार्थी है। परंतु घडने के बाद वह पूर्ण स्वतंत्र है। फिर पुरुषार्थ का उस पर रत्ती भर भी जोर नहीं चलता।
*क्रमशः ...............*
Day - 80
*पच्चीस बोल का*
*दसवां बोल है - कर्म आठ*
*भाग -- 17*
*कर्म आठ*
*ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय।*
*नियति-* निकाचित बंध वाले कर्मों का समूह नियति कहलाती है। जो कर्म अवश्य भोगना पड़े , जिसकी स्थिति अथवा विपाक में परिवर्तन न हो सके उस कर्म के बंध को निकाचित बंध कहते हैं जिस कार्य का फल तदनुकूल पुरुषार्थ से विपरीत दिशा में जाए, उसको नियति का कार्य मानना चाहिए। पुरुषार्थ सिर्फ नियति के सामने निष्फल होता है।
किसी भी कार्य का फल प्राप्त करने के लिए पांच कारणों की आवश्यकता पड़ती है- पहला काल,दूसरा स्वभाव ,तीसरा कर्म, चौथा पुरुषार्थ और पांचवा नियति। इन्हें हम निम्नं उदाहरण से समझ सकते हैं।
उदाहरणार्थ-
एक विद्यार्थी मैट्रिक परीक्षा पास करना चाहता है।
*काल* उसे पास करने में छह-सात साल (नियत समय)अवश्य लगेंगे।
*स्वभाव -* मन की स्थिरता,पढ़ने की रुचि, एवं शिक्षण-योग्य स्वभाव- इनकी अनुकूलता रहने से ही वह निश्चित अवधि में पास हो सकेगा अन्यथा नहीं।
*कर्म-* तीक्ष्ण बुद्धि एवं स्वस्थ शरीर की जरूरत होगी और ये पूर्व कर्मों के क्षयोपशम या उदय के अनुसार मिलते हैं।
*पुरुषार्थ-* उद्यम करना होगा ।स्कूल जाना तथा पाठ याद करना होगा।
*नियति -* उपरोक्त चारों का शुभ संयोग प्राप्त है, परंतु फिर भी बीच-बीच में विघ्न आ पड़ते है। बीमार हो जाए, शायद डॉक्टर ठीक कर दे और वह पास हो जाए। कभी कभी ऐसे भी विघ्न आ सकते हैं कि लाख चेष्टा करने पर भी वे दूर नहीं हो सकते और विद्यार्थी फेल हो जाता है, यह नियति का ही काम है।
मनुष्य का जीवन विघ्न-बाधा, दुख और विपत्तियों से भरा हुआ है। इसके आने पर वे घबरा जाते है, मन चंचल हो जाता है, बाहरी निमित्त कारणों को वे दुख को प्रधान कारण समझ बैठते हैं। अतएव निमित्त कारणों को वे भला-बुरा कहते हैं और कोसते हैं। ऐसी जटिल परिस्थिति में कर्म वाद का सिद्धांत ही उन्हें सही मार्ग पर ला सकता है।
उसका प्रथम घोष है- आत्मा अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है दुख-सुख उसी के किए हुए कर्मों का फल है। कोई भी बाहरी शक्ति आत्मा को सुख दुख नहीं दे सकती। वह तो सिर्फ निमित्त मात्र बन सकती है। इस विश्वास के दृढ़ होने पर आत्मा दुख और विपत्ति के समय घबराती नहीं। वह दृढ़ता के साथ उन विपत्तियों का धैर्य पूर्वक सामना करती है। अपने दुख के लिए वह निमित्त कारणों को दोष नहीं देती।
इस प्रकार कर्मवाद हमें निराशा से बचाता है, दुख सहने की शक्ति देता है और मन को शांत एवं स्थिर रखकर प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करता है।
*क्रमशः ...............*
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 81
*पच्चीस बोल का*
*ग्यारहवां बोल है - गुणस्थान चौदह*
*भाग -- 1*
*गुणस्थान चौदह-*
1.मिथ्या-दृष्टि 2 सास्वादन-सम्यकदृष्टि 3.मिश्र दृष्टि 4.अविरत-सम्यकदृष्टि 5.देश-विरति 6.प्रमत्त-संयत 7 अप्रमत्त संयत 8.निवृत्तिबादर 9.अनिवृत्तिबादर 10. सूक्ष्म-संपराय 11.उपशांत-मोह 12. क्षीण-मोह 13.सयोगी-केवली 14.अयोगी-केवली
आत्मिक गुणों के अल्पतम विकास से लेकर उसकी संपूर्ण विकास तक की समस्त भूमिकाओं को जैन दर्शन में चौदह भागों में बांटा गया है, जिनको गुणस्थान कहते हैं। यह विभाग कर्म विलय की तरतमता के आधार पर किए गए हैं आत्मा की निर्मलता से गुणस्थान क्रमशः ऊंचे होते हैं और मलिनता से नीचे।
इसमें पहली श्रेणी है मिथ्यादृष्टि गुण स्थान
*1 मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान-*
है पहला स्थान है इसमें मोह कर्म का सबसे कम क्षयोपशम होता है। जो स्वल्पतम क्षयोपशम है उसको मिथ्या दृष्टि कहा जाता है जिसकी तत्व श्रद्धा विपरीत हो वह मिथ्या दृष्टि कहलाता है। उसके गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहा जाता है।
मिथ्यादृष्टि व्यक्ति की क्षायोपशमिक दृष्टि का नाम भी मिथ्यादृष्टि है। उसे भी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहा जा सकता है।
ये दोनों मिथ्या दृष्टि गुणस्थान की परिभाषाएं हैं। पहली परिभाषा में गुणी (व्यक्ति) को लक्ष्य कर उसमें पाए जाने वाले गुण को गुणस्थान कहा है और दूसरी में व्यक्ति को गौण मानकर केवल क्षायोपशमिक दृष्टि को ही गुण स्थान कहा है। इन दोनों का अर्थ एक है। निरूपण के प्रकार दो है। पहली के अनुसार विपरीत दृष्टि वाले पुरुष में जो
क्षायोपशमिक गुण है, वह मिथ्यात्वी पुरुष में होने के कारण मिथ्या दृष्टि गुणस्थान कहलाता है।
*2.सास्वादन-सम्यग्-दृष्टि गुणस्थान -* जिसकी दृष्टि सम्यक्त्व के किंचित स्वाद-सहित होती है, उस व्यक्ति के गुण स्थान को सास्वादन-सम्यग्-दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है।
सम्यग्-दृष्टि व्यक्ति उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर जब तक पहले गुणस्थान को नहीं पहुंच पाता तब तक की उस मध्यवर्ती अवस्था का नाम सास्वादन सम्यग्-दृष्टि गुणस्थान है। फल वृक्ष से गिरता है परंतु पृथ्वी को छू जाने के पहले की अवस्था के समान यह द्वितीय गुण स्थान है।
*3.मिश्र गुणस्थान-* यह आत्मा की संदेह सहित दोलायमान अवस्था है। इसमें विचार-धारा निश्चित नहीं होती है। तत्व के प्रति दृष्टि मिश्रित होती है। सम्यक् है या असम्यक्- इस प्रकार संदेहशील होती है । इस द़ोलायमान अवस्था वाले व्यक्ति का गुण स्थान मिश्र गुणस्थान होता है। पहले गुण स्थान और इस गुणस्थान में यही भिन्नता है कि पहले वाले की दृष्टि तत्व के प्रति एकांत रूप से मिथ्या होती है। और इस गुणस्थान वाले की संदिग्ध होती है।
*4. अविरत-सम्यग्-दृष्टि गुणस्थान-* जिसे सम्यग्-दृष्टि प्राप्त हो किंतु किसी प्रकार का व्रत नहीं हो, उस व्यक्ति के गुणस्थान को अविरत- समग्-दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। यह व्रत रहित सम्यग्- दर्शन की अवस्था है। सत्य के प्रति आस्था हो जाती है, परंतु उसका आचरण करने के लिए स्थिति नहीं बनती ।आत्मा को उसी अवस्था में अपना भान होता है, देह भिन्न है और आत्मा भिन्न- ऐसा विवेक प्राप्त होता है। मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मैं संसार में किस लिए पड़ा हूं? सांसारिक बंधनों से छूटने का उपाय क्या है? इत्यादि बातों पर आत्मा का चिंतन होने लगता है। मोक्ष की ओर अग्रसर होने की चेष्टा होने लगती है । अन्य दर्शन इस अवस्था को आत्म दर्शन या आत्मसाक्षात्कार भी कहते हैं।
*5.देशविरति गुणस्थान-* जिस व्यक्ति के व्रत-अव्रत दोनों हो, पूर्ण व्रत न हो उसके गुण स्थान को देशविरति या विरताविरत गुणस्थान कहा जाता है। उसी देशव्रति, संयतासंयती, व्रताव्रती और धर्माधर्मी गुणस्थान भी कहते हैं। इसमें सत्य का आचरण प्रारंभ हो जाता है।
*क्रमशः ...............*
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 82
*पच्चीस बोल का*
*ग्यारहवां बोल है - गुणस्थान चौदह*
*भाग -- 2*
*गुणस्थान चौदह-*
1.मिथ्या-दृष्टि 2 सास्वादन-सम्यकदृष्टि 3.मिश्र दृष्टि 4.अविरत-सम्यकदृष्टि 5.देश-विरति 6.प्रमत्त-संयत 7 अप्रमत्त संयत 8.निवृत्तिबादर 9.अनिवृत्तिबादर 10. सूक्ष्म-संपराय 11.उपशांत-मोह 12. क्षीण-मोह 13.सयोगी-केवली 14.अयोगी-केवली
*6.प्रमत्त-संयत गुणस्थान-* प्रमादी साधु के गुण स्थान को प्रमत्त संयत गुणस्थान कहा जाता हैं। इसमें प्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम हो जाने से संपूर्ण रुप से व्रती जीवन का क्रम शुरू हो जाता है।इसमें सत्य के आचरण का पूर्ण संकल्प होता है। जीवन त्यागमय, साधनामय बन जाता है अन्य गुणों का विकास होता जाता है।
*7.अप्रमत्त संयत गुणस्थान-* अप्रमादी साधु के गुण स्थान को अप्रमत्त-संयत गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में प्रमाद (अनुत्साह) का अभाव होता है अर्थात् प्रमाद छूट जाता है और प्रत्येक क्षण जागरूकता में व्यतीत होता है ।अतः यह छठी अवस्था से भी अधिक विशुद्ध है।लेकिन यह स्थिति बहुत लंबे समय तक नहीं रहती है। छठे और सातवें में बदलती रहती है।
*8. निवृत्तिबादर-गुणस्थान-*
यह आठवीं श्रेणी है इसमें स्थूल कषाय की निवृत्ति होती है (अर्थात कषाय थोड़ी रूप में उपशांत या क्षीण होता है) उसे निवृत्तिबादर गुणस्थान कहा जाता है । इस अवस्था में आत्मा स्थूल रूप से कषायो (क्रोध, मान, माया, लोभ ) से मुक्त हो जाती है। इस गुण स्थान को अपूर्वकरण भी कहते हैं।
*9.अनिवृत्तिबादर-गुणस्थान-* जिसमें स्थूल कषाय की अनिवृत्ति होती है (अर्थात कषाय थोड़ी मात्रा में रहता है) उसे अनिवृत्तिबादर कहा जाता है। इस अवस्था में आत्मा कषाय में प्राय निवृत हो जाती है। आठवे गुणस्थान में कषाय की निवृत्ति थोड़ी मात्रा में होती है , इसलिए इसे निवृत्ति बादर कहा गया है। नवे गुणस्थान में कषाय थोड़ी मात्रा में शेष रहता है इसलिए उसे अनिवृत्तिबादर कहा गया है । आठवीं गुणस्थान का नाम जो कषाय निवृत हुआ , उसके आधार पर किया गया है । नए गुणस्थान का नाम, जो कषाय निवृत्त नहीं हुआ, उसके आधार पर किया गया है।
*10 सुक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान-* सम्प्रराय का अर्थ है- लोभ -कषाय जिसमें लोभ-कषाय सूक्ष्म अंश में विद्यमान हो, उसके गुणस्थान को सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में क्रोध, मान, माया-ये तीन कषाय उपशांत या क्षीण हो जाते हैं। सिर्फ लोभ-कषाय अल्प मात्रा में रहता है।
*11. उपशांत-मोह गुणस्थान-* जिसका मोह.अंतर्मुहूर्त तक उपशांत हो जाता है ,उसके गुण स्थान को उपशांत- मोह गुण स्थान कहा जाता है। इस अवस्था में अवशिष्ट लोभ का उपशम होता है ,किंतु समूल विच्छेद नहीं। वह राख से ढकी हुई आग की तरह पुनः भभक जाता है।
*क्रमशः ...............*
20 aug 20
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 83
*पच्चीस बोल का*
*ग्यारहवां बोल है - गुणस्थान चौदह*
*भाग -- 3*
*गुणस्थान चौदह-*
1.मिथ्या-दृष्टि 2 सास्वादन-सम्यकदृष्टि 3.मिश्र दृष्टि 4.अविरत-सम्यकदृष्टि 5.देश-विरति 6.प्रमत्त-संयत 7 अप्रमत्त संयत 8.निवृत्तिबादर 9.अनिवृत्तिबादर 10. सूक्ष्म-संपराय 11.उपशांत-मोह 12. क्षीण-मोह 13.सयोगी-केवली 14.अयोगी-केवली
*12.क्षीण-मोह गुणस्थान-* जिसका मोह-कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसके गुण स्थान को क्षीण-मोह गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है । पूर्व अवस्था में संज्वलन लोभ का अस्तित्व नहीं मिटता। इस अवस्था में वह पूर्ण रुप से मिट जाता है। आत्मा पूर्ण वीतराग हो जाती है। इसके बाद जीव नीचे नहीं गिरता और निश्चित रूप से मुक्त होता है।
*13.सयोगी-केवली गुणस्थान-* जो केवली सयोगी होता है अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से युक्त होता है, उसके गुण स्थान को सयोगी-केवली गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय-ये घाति कर्म सर्वथा क्षीण होते हैं । आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अंतराय रहित हो जाती है।
*14.अयोगी-केवली गुणस्थान-* जो केवली अयोगी होता है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से रहित होता है, उसके गुण स्थान को अयोगी केवली गुण स्थान कहा जाता है। इस अवस्था में केवली मन,वाणी और काया की प्रवृत्ति का निरोध कर अयोगी बन जाता है। वह अनादिकालीन कर्म बंधन को तोड़ कर सर्वथा मुक्त और स्वतंत्र हो जाता है। उसका संसारी जीवन समाप्त हो जाता है सिद्ध, मुक्त हो जाता है।
*प्रश्न-* गुणस्थानों के निर्माण का आधार क्या है?
*उत्तर-* आत्मा के पांच प्रकार के मालिन्य हैं। पहला मालिन्य है मिथ्यात्व,जो सम्यक श्रद्धा को आच्छादित कर बुद्धि को विपरीत बनाता है । दूसरा मालिन्य है अविरति, जो आत्मा को आशा-तृष्णा के पाश में डालता है। तीसरा मालिन्य है प्रमाद, जो आत्मा के सतत उत्साह को भंग कर उसे प्रमादी बनाता है। चौथा मालिन्य है कषाय, जो आत्मा को प्रज्वलित करता है। पांचवा मालिन्य है योग, जो आत्मा को चंचल बनाता है । ये मालिन्य जैन परिभाषा में आश्रव कहलाते हैं। इन आश्रवों एवं मोहनीय कर्म की प्रबलता और निर्मलता पर ही जीव की चौदह अवस्थाओं का निर्माण होता है। जितना जितना मालिन्य हटता है, उतनी-उतनी आत्मा विशुद्ध होती है और इसी विशुद्धि का नाम गुणस्थान है।
*क्रमशः ...............*
Day - 84
*पच्चीस बोल का*
*ग्यारहवां बोल है - गुणस्थान चौदह*
*भाग -- 4*
*गुणस्थान चौदह-*
1.मिथ्या-दृष्टि 2 सास्वादन-सम्यकदृष्टि 3.मिश्र दृष्टि 4.अविरत-सम्यकदृष्टि 5.देश-विरति 6.प्रमत्त-संयत 7 अप्रमत्त संयत 8.निवृत्तिबादर 9.अनिवृत्तिबादर 10. सूक्ष्म-संपराय 11.उपशांत-मोह 12. क्षीण-मोह 13.सयोगी-केवली 14.अयोगी-केवली
*गुणस्थानों का विकास-क्रम*
पहली अवस्था में विपरीत बुद्धि बनी की बनी रहती है ।भौतिक को सार और आध्यात्मिक को असार समझने की भावना बलवती रहती है। यह ठीक वस्तुस्थिति को उलटने वाली मनोदशा है। ऐसी परिस्थिति होने पर जो-जो ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षयोपशम (परिमित रूप से अभाव) है वह गुणस्थान है। किंतु जो मिथ्यात्व है, तत्वज्ञान के प्रति विपरीत आस्था है, वह गुण स्थान नहीं है। मिथ्या दृष्टि में समता है, जिसमें वह गुण स्थान का अधिकारी बनता है। मिथ्यादृष्टि में जो यथास्थिति ज्ञान या सम्यक् आचरण होता है वह उसका गुण स्थान है। मिथ्यात्वी गाय को गाय जानता है, भैंस को भैंस जानता है और भी जो-जो वस्तुएं जिस रूप में है, वह उनको वैसे ही जानता है। उसका जानना ठीक है और गुण स्थान है। उसमें तत्व की रूचि नहीं होती, इसी कारण वह मिथ्यात्वी कहलाता है। मिथ्यात्वी का सारा आचरण ही मिथ्या नहीं होता। उसमें मोक्ष-मार्गानुसार आचरण भी होता है। इस अवस्था में अल्प विकास होता है, पर यह विकास क्रम की कोटि में नहीं है।
दूसरी अवस्था आध्यात्मिक विकास- क्रम कि नहीं परंतु आध्यात्मिक विकास के पतन की है। पतन का अंतराल काल दूसरी अवस्था है।
तीसरी अवस्था पर उत्क्रान्ति व अपक्रान्ति करने वाली आत्मा का अधिकार है। उत्क्रान्ति करने वाली आत्मा प्रथम गुणस्थान से और अपक्रान्ति करने वाली आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में चली जाती है।
स्थिति का परिपाक होने पर तथा सारी उपयुक्त सामग्री मिलने पर आत्मा का एक आंतरिक प्रयत्न होता है। उसमें ग्रंथिभेद हो जाता है- मोह की प्रबल गांठ जो पहले कभी नहीं खुली खुल जाती है। सम्यग् दर्शन प्राप्त हो जाता है। यह चतुर्थ भूमिका है। सम्यग्-दृष्टि प्राप्त होने पर संयम का सर्वाधिक (मर्यादित) अभ्यास प्रारंभ होता है। यह पांचवीं भूमिका है। जब वह स्वयं के निरवधिक (अमर्यादित) अभ्यास में प्रवृत्त होती है तब उसकी भूमिका केवल संयम की बन जाती है संसारभिमुखता छूट जाती है। उसे उत्तरोत्तर आनंद का अनुभव होता है। उससे वह सातवींकी अवस्था में चली जाती है। जब उत्साह में कुछ कमी आ जाती है तब सातवीं से छठी आ जाती है फिर उत्कटता आई और सातवीं। सातवीं गई, फिर छठी। सातवीं और छठी अवस्था का यह क्रम बुरा बराबर चालू रहता है।
आठवीं अवस्था में मोहबल को नष्ट करने के लिए अधिक आत्मबल की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में अभूतपूर्व आत्मविशुद्धि होती है अतः इसे अपूर्वकरण भी कहते हैं। इससे दो श्रेणियां निकलती है - उपशम और क्षपक। नौवीं में क्रोध, मान, माया को, दसवीं में लोभ को उपरशात तथा क्षीण कर उपशम श्रेणी वाला ग्यारहवीं में और क्षपक श्रेणी वाला बारहवीं में चला जाता है। ग्यारहवीं अवस्था वाला मोह को दबाता-दबाता बढ़ता है, इसलिए उसके अन्तर्मूहर्त के बाद उस गुणस्थान से उसके नीचे के गुणस्थानो में जाना अवश्यंभावी बन जाता हैं।बारहवीं अवस्था वाला मोह को क्षीण करता हुआ आगे बढ़ता है, अतः वह तेरहवीं अवस्था में संपूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। आत्मा पहले मनोयोग का उसके बाद वाक्योग का और उसके बाद काययोग का निरोध कर चौदहवीं अवस्था को प्राप्त कर लेती है। वह अल्पकालीन है। उसके बाद आत्मा मुक्त हो जाती है।
*क्रमशः ...............*
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 85
*पच्चीस बोल का*
*ग्यारहवां बोल है - गुणस्थान चौदह*
*भाग -- 5*
*गुणस्थान चौदह-*
1.मिथ्या-दृष्टि 2 सास्वादन-सम्यकदृष्टि 3.मिश्र दृष्टि 4.अविरत-सम्यकदृष्टि 5.देश-विरति 6.प्रमत्त-संयत 7 अप्रमत्त संयत 8.निवृत्तिबादर 9.अनिवृत्तिबादर 10. सूक्ष्म-संपराय 11.उपशांत-मोह 12. क्षीण-मोह 13.सयोगी-केवली 14.अयोगी-केवली
*मुक्त आत्मा का उर्ध्वगमन-* शुद्ध चेतना की स्वाभाविक गति उर्ध्व है।अतः मुक्त आत्मा वहां तक चली जाती है जहां तक उसकी गति में धर्मास्तिकाय सहायक रहता है। उसके आगे गति हो नहीं सकती, इसलिए वे शुद्ध आत्मा वही स्थिर हो जाती है।
यह स्थान लोग के अंतिम भाग पर है। इसे सिद्धगति सिद्धशिला, या मोक्ष कहते हैं।
*मुक्त आत्मा की स्थिति-* शरीर का एक तिहाई ( मुख,कान, पेट आदि) पोला होता है और दो तिहाई भाग सघन। आत्मा जिस अंतिम शरीर से मोक्ष प्राप्त करती है उसका दो -तिहाई भाग जो सघन होता है उतने जीवात्मा के प्रदेश सिद्धस्थान में फैल जाती हैं। इसे उस जीवात्मा की अवगाहना कहते हैं। भिन्न-भिन्न सिद्धात्माओं के परस्पर पर अव्याघात रहने से एक दूसरे से टकराते नहीं। प्रत्येक आत्मा अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखती है। एक ही कमरे में हजारों दीपक रहने पर भी उसका प्रकाश एक दूसरे से टकराता नहीं परंतु समूचे कमरे में प्रत्येक दीपक का प्रकाश व्याप्त हो जाता है। ऐसी परम निर्मल आत्माएं वीतराग वीतमोह और वीतद्बेष होती है। अतः उनका इस संसार में पुनरागमन नहीं होता।
*गुणस्थानों का काल मान-* प्रथम गुणस्थान वाली आत्माओं के संसार भ्रमण की कोई सीमा नहीं होती। मोक्ष में नहीं जाने वाले जीवो का यही अक्षय भंडार है। प्रथम गुणस्थान के अतिरिक्त किसी भी अवस्था में जीव अनंत काल तक नहीं रह सकता। इनकी समुंद्र से तुलना होती है और अन्य अवस्थाओं की छोटी जलाशयों के साथ तुलना की जा सकती है। यह अवस्था अभव्य जीवो के लिए अनादि और अनंत है और भव्य मोक्ष जाने वाले जीवो के लिए अनादि और सान्त-अन्त् सहित हैं। जो जीव मिथ्यात्व को त्याग, सम्यक्त्व प्राप्त कर फिर मिथ्यात्वी बन जाते हैं और उसके बाद सम्यक्त्व को पुनः प्राप्त करते हैं ,उनकी अपेक्षा से पहला गुणस्थान आदि-सहित और अंत -सहित है इसके सिवाय सब सादि-सान्त है आदि सहित और अंत सहित है।
*शेष गुणस्थानों का काल मान-* दूसरे गुणस्थान का काल मान छह आवलिका।
चौथे गुणस्थान का काल मान तेतीस सागर से कुछ अधिक।
पांचवे, छठे और तेरहवें गुण स्थान का कालमान कुछ कम करोड़ पूर्व।
चौदहवें गुणस्थान का कालमान पांच हस्वाक्षर-(अ,इ,उ,ऋ,लृ)उच्चारण मात्र।
शेष गुणस्थानों का कालमान अन्तर्मुहूर्त।
*क्रमशः ...............*
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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*lunch ke baad chovihar ya tivihar tyag jarur Kare*
Day - 86
*पच्चीस बोल का*
*बारहवां बोल है - पांच इन्द्रियों के तेईस विषय*
*भाग -- 2*
*शब्द-* शब्द अनंतानन्त पुद्गलो स्कन्धों से उत्पन्न होता है। इसकी उत्पत्ति के दो कारण हैं-संघात और भेद। असंबंधित पुद्गलों का संबंध होने से और संबंधित पुद्गलों का संबंध- विच्छेद होने से शब्द का जन्म होता है। इसके तीन प्रकार है - सचित्त शब्द, अचित्त शब्द और मिश्र शब्द।
जीव के द्वारा जो बोला जाता है, वह है सचित्त शब्द, जैसे मनुष्य का शब्द। अचित्त (जड़) पदार्थ के द्वारा जो शब्द होता है, वह है अचित्त शब्द, जैसे टूटती हुई लकड़ी का शब्द। सचित और अचित्त दोनों के संयोग से जो शब्द होता है, वह है मिश्र शब्द, जैसे बाजे का शब्द शब्द मात्र श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है।
*रूप-* रूप पोद्गलिक है इसके दो अर्थ है- आकार और वर्ण। प्रस्तुत विषय में रूप का अर्थ वर्ण ही ग्राहय है, आकार नहीं। वर्ण स्वयं पुद्गल नहीं, किंतु पुद्गल का गुण है। वर्ण पांच प्रकार का है- कृष्ण, नील, रक्त,पीत और श्वेत सान्निपातिक (मिले हुए) वर्ण और भी अनेक हो सकते हैं, जैसे -एक गुण श्वेत वर्ण के साथ, एक गुण कृष्ण वर्ण का संयोग होने से कापोत वर्ण हो जाता है। रूप मात्र चक्षुःइंद्रिय का विषय है।
*गंध-* गंध भी पोद्गलिक है। इसके दो भेद है- सुगंध और दुर्गंध। सुगंध इष्ट परिमल है। इसमें मन और इंद्रिय प्रसन्न होते हैं। दुर्गंध अनिष्ट परिमल है। इससे मन और इंद्रिय व्याकुल होते हैं गंध मात्र घ्राणेन्द्रिय का विषय है।
*रस-* रस भी पोद्गलिक है। यह पांच प्रकार का है-तिक्त, कटु, कषाय अम्ल और मधुर।
1.सौंठ तिक्त है।
2.नीम का रस कटु होता है।
3.हरड कषैला होता है।
4इमली का रस अम्ल (खट्टा ) होता है।
5चीनी का रस मधुर होता है।
रस मात्र रसनेन्द्रिय का विषय है।
*क्रमशः ...............*
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 88
*पच्चीस बोल का*
*तेरहवां बोल है - दस प्रकार के मिथ्यात्व*
*भाग -- 1*
*दस प्रकार के मिथ्यात्व-*
*1.धर्म को अधर्म समझना*
*2.अधर्म को धर्म समझना*
*3.मार्ग को कुमार्ग समझना*
*4.कुमार्ग को मार्ग क समझना*
*5.जीव को अजीव समझना*
*6.अजीव को जीव समझना*
*7.साधु को असाधु समझना*
*8.असाधु को साधु समझना*
*9 मुक्त को अमुक्त समझना*
*10.अमुक्त को मुक्त समझना*.
विपरीत श्रद्धान रूप जीव के परिमाण को मिथ्यात्व कहते हैं। जो बात जैसी हो वैसी न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है।
वस्तु का स्वरूप लक्षण से जाना जाता है।लक्षण ही वस्तु का विभाग करता है। लक्षण की परिभाषा है-मिली हुई वस्तुओं को अलग अलग करना। इस बोल में आए हुए धर्म, अधर्म, जीव आदि वस्तुओं के लक्षणों का ज्ञान जरूरी है। इनके जानने से ही हम बोल के वास्तविक रहस्य को समझ सकते हैं।
*धर्म-अधर्म*
जिससे आत्म स्वरूप की उन्नति एवं अभ्युदय हो उसे धर्म कहते हैं। आत्म- स्वरूप का पूर्ण उदय मोक्ष है। धर्म दो प्रकार की माने गए हैं-संवर और निर्जरा। संवर का अर्थ है- नई कर्मों के प्रवेश को रोकना और निर्जरा का अर्थ है पहले बंधे हुए कर्मों का नाश करना। संवर से आत्मिक उज्जवलता की रक्षा होती है और निर्जरा से आत्मा उज्जवल होती है। दूसरे शब्दों में संवर है आत्म-संयम और निर्जरा है सत्प्रवृत्ति।
धर्म को अधर्म समझना और अधर्म को धर्म समझना ही मिथ्यात्व है।
*मार्ग-कुमार्ग*
ज्ञान,दर्शन, चरित्र और तप- ये चार मोक्ष के मार्ग हैं, साधन है, उपाय हैं। ज्ञान द्वारा आत्मा पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानती है। दर्शन द्वारा उन पर श्रद्धा करती है। चारित्र द्वारा आत्मा नवीन कर्मों के प्रवेश को रोकती है एवं तप द्वारा पुराने कर्मों का विनाश कर आत्मा शुद्ध होती है, निर्मल होती है। इन चारों को मोक्ष मार्ग न समझना और उनसे भिन्न को मोक्ष का मार्ग समझना मिथ्यात्व है।
*जीव-अजीव*
जैन दर्शन में जीव-अजीव के अंतर को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से बड़ी बारीकी से समझाया गया है।आत्म विकास की ओर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को जीव अजीव के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होना बहुत जरूरी है ।जीव-अजीव का स्वरूप जाने वाला ही संयम का स्वरूप जान सकता है।
जीव का लक्षण है चेतना। चेतना- लक्षण ही जीव को अजीव से, जड़ पदार्थ से अलग करता है। जिसमें चेतनता हो, वह जीव है और जिस में चेतना न हो, वह अजीव है।जीव में अजीव की श्रद्धान करना और अजीव में जीव का विश्वास करना मिथ्यात्व है।
*साधु-असाधु*
साधु का लक्षण है- संपूर्ण रुप से पंच महाव्रत पालन करना। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रत ओं का पालन करने वालों को असाधु और न करने वालों को साधु समझना मिथ्यात्व हैं।
*मुक्त-अमुक्त*
मुक्त आत्मा का लक्षण है- आठ कर्मों से मुक्ति का छुटकारा पाना। मुक्त कर्म- रहित होते हैं। जो कर्म-रहित है उनको कर्म-सहित समझना और जो कर्म- सहित है उनको कर्म-रहित समझना मिथयात्व है।
धर्म ,मार्ग,जीव साधु और मुक्त- यह पांच तत्व आध्यात्मिक भवन के विशाल स्तंभ है। दिव्य आत्मा मूल भित्ति है। धर्म और मार्ग- दोनों उसकी उन्नति के साधन है। साधु आत्मोन्नति का कार्य क्षेत्र है, क्योंकि धर्म या मार्ग की साधना साधु अवस्था में ही सुचारु रुप से संभव है। साधना का अंतिम लक्ष्य या उत्कृष्ट फल मोक्ष है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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18:12:20
Day - 89
*पच्चीस बोल का*
*तेरहवां बोल है - दस प्रकार के मिथ्यात्व*
*भाग -- 2*
*दस प्रकार के मिथ्यात्व-*
*1.धर्म को अधर्म समझना*
*2.अधर्म को धर्म समझना*
*3.मार्ग को कुमार्ग समझना*
*4.कुमार्ग को मार्ग क समझना*
*5.जीव को अजीव समझना*
*6.अजीव को जीव समझना*
*7.साधु को असाधु समझना*
*8.असाधु को साधु समझना*
*9 मुक्त को अमुक्त समझना*
*10.अमुक्त को मुक्त समझना*.
*मिथ्यात्व जीव है या अजीव ?*
मिथ्यात्व जीव है।
*मिथ्यात्व किस कर्म का उदय है ?*
मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है।
*मिथ्यात्व और सम्यक्त्व में मौलिक अन्तर*
मिथ्यात्व उजाड़ एवं भटकाव का मार्ग है। सम्यक्त्व गंतव्य का दिशा बोध है। मिथ्यात्व अनंत भव-भ्रमण का हेतु है। सम्यक्त्व का एक बार स्पर्श हो जाता है तो संसार की सीमा हो जाती है।
*मिथ्यात्व के छह स्थान*
(1) आत्मा नहीं है।
(2) आत्मा नित्य नहीं है।
(3) आत्मा सुख-दुःख का कर्ता नहीं है।
(4) आत्मा कृत्य कर्म का भोक्ता नहीं है।
(5) निर्वाण नहीं है।
(6) निर्वाण का उपाय नहीं है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
🙏🙏
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Day - 90
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
19:12:20
*भाग -- 1*
*नौ तत्त्व के 115 भेद*
*1.जीव तत्त्व के 14 भेद*
*2.अजीव तत्त्व के 14 भेद*
*3. पुण्य तत्त्व के 9 भेद*
*4. पाप तत्त्व के 18 भेद*
*5. आश्रव तत्त्व के 20 भेद*
*6. संवर तत्त्व के 20 भेद*
*7. निर्जरा तत्त्व के 12 भेद*
*8. बंध तत्त्व के चार भेद*
*9. मोक्ष तत्त्व के चार भेद*
*तत्त्व का अर्थ है-* सद्-वस्तु, वह वस्तु जिसका वास्तविक अस्तित्व हो।
*तत्त्व नौ है-*
*1.जीव -* चेतनामय अभिभाज्य असंख्य प्रदेशी पिण्ड।
*2.अजीव-* अचेतन तत्त्व।
*3.पुण्य-* सुख देने वाला उदीयमान शुभ कर्म पुद्गल-समूह।
*4पाप-* दुख देने वाला उदीयमान अशुभ कर्म-पुद्गल समूह।
*5.आश्रव-* कर्म-ग्रहण करने वाली आत्मा की अवस्था।
*6.संवर-* कर्म निरोध करने वाली आत्मा की अवस्था।
*7.निर्जरा-* कर्म तोड़ने वाली आत्मा की अवस्था।
*8.बंध-* आत्मा के साथ दूध पानी की भांति एकीभूत होने वाला कर्म-पुद्गल समूह।
*9मोक्ष-* कर्मों का अत्यंत वियोग, आत्म-स्वरूप का प्रकटीकरण।
*1.जीव-*
इंद्रियों के आधार पर जीव पांच प्रकार के होते हैं।
*एक इंद्रिय वाले जीव दो प्रकार के होते हैं-*
*1. सूक्ष्म-* आंखों से नहीं दिखने वाले जिनका शरीर दृष्टिगोचर ने हो।
*2.बादर-* जिनका शरीर दृष्टिगोचर हो।
एकेंन्द्रिय के सिवाय और कोई जीव सूक्ष्म नहीं होते। सूक्ष्म से हमारा अर्थ उन जीवो से है, जो समूचे लोक में फैले हुए हैं और वे जो इतने सूक्ष्म है कि किसी तरह से स्थूल प्रहार से नहीं मारे जा सकते। अतएव उनके द्वारा कोई भी मनुष्य कायिक-हिंसक नहीं बनता।
बादर एकेंन्द्रिय के भी एक जीव का एक शरीर हमारी दृष्टि का विषय नहीं होता। हम जो देखते हैं, उन असंख्य जीवों के असंख्य शरीरों का एक पिंड होता है। परंतु समुदित अवस्था में देखे जाते हैं।इसलिए वे बादर ही है। एकेंन्द्रिय के सिवाय चार भेद और किसी जाति के होते हैं तो पंचेन्द्रिय के होते हैं। जैसे एकेन्द्रिय जीव की सूक्ष्म और बादर- यह दो श्रेणियां हैं, वैसे ही पाचेन्द्रिय संज्ञी (समनस्क) और असंज्ञी (अमनस्क) इन दो भागों में विभाजित है।
चतुरिन्द्रिय तक के जीवो में मन नहीं होता। इसलिए मन के आधार पर उनके विभाग नहीं किए जाते। पंचेन्द्रिय जीव जो संमूच्र्छन जन्म से उत्पन्न होते हैं उनके मन नहीं होता शेष पंचेन्द्रिय जीवो के मन होता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 91
20:12:20
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
*भाग -- 2*
*आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में पहले तत्त्व जीव तत्त्व के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।*
*जीवों के चौदह भेद हैं --*
1.2. सुक्ष्म एकेंन्द्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त।
3.4.बादर एकेन्द्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त।
5.6.द्वीन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त ।
7.8.त्रीन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त।
9.10.चतुरिन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त।
11.12. असज्ञी पंचेेंन्द्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त।
13.14.संज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त।
उक्त चौदह भेद शरीर धारण करने वाले प्राणियों के है। जीव परिमाण (संख्या) में अनंत है। प्रदेश परिमाण और चेतना लक्षण से जीव समान है, फिर भी कर्मों की विविधता से उनके अनेक भेद हो जाते हैं। जैसे कोई जीव सूक्ष्म शरीर वाला होता है,कोई स्थूल शरीर वाला होता है। कोई एक इंद्रिय वालों कोई दो, तीन, चार और पांच इंद्रियां वाला। कोई संज्ञी (मन-सहित) होता है तो कोई असंज्ञी (मन-रहित) । इनमें कर्म- जनित भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के कारण एक ही स्वरुप वाले जीव अनेक स्वरूप वाले प्रतीत होते हैं।
इस प्रकरण में जो जीव के चौदह भेद किए गए हैं वे सब उत्पत्ति के समय में मिलने वाली पोद्गलिक रचना पर्याप्ति की दृष्टि से किए गए हैं। पौद्गलिक रचना की योग्यता सब जीवो में समान रूप से नहीं होती। एक इंद्रिय वाले जीव आहार, शरीर, इंद्रिय और श्ववासोच्छ्वास- इन चार पर्याप्ति के अधिकारी होते हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेेंद्रीय तक के जीव मनःपर्याप्ति को छोड़कर शेष पांच पर्याप्तियों के अधिकारी होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव छहों पर्याप्तियों के अधिकारी होते हैं। *जिस जाति के जीव में जितनी पर्याप्तियाँ हो सकती है, उतनी पाए बिना ही जो जीव मर जाते हैं या जब तक पूर्ण नहीं कर पाते तब तक उन्हें अपर्याप्त कहते हैं और जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पा लेते हैं, वे पर्याप्त कहलाते हैं।* पहली तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किए बिना कोई भी जीव मर नहीं सकता। उनकी पूर्ति के बाद भी एक इद्रिय वाले जीव श्वासोच्छवास-पर्याप्ति को जब तक पूर्ण नहीं कर लेते तब तक वे अपर्याप्त होते है और जो पूर्ण कर लेते हैं, वे पर्याप्त। द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव भाषा पर्याप्ति को जब तक पूर्ण नहीं करते तब तक वे अपर्याप्त होते हैं। जो पूर्ण कर लेते हैं वे पर्याप्त कहलाते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मनःपर्याप्ति को जब तक पूर्ण नहीं करते तब तक वे अपर्याप्त होते है और जो पूर्ण कर लेते हैं, वे पर्याप्त।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 92
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
21:12:20
*भाग -- 3*
*आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में दूसरे तत्त्व अजीव तत्त्व के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।*
*अजीव*
*अजीव के मुख्य भेद पांच और गौण भेद चौदह है-*
*१.धर्मास्तिकाय के तीन भेद है-स्कंध, देश, प्रदेश।*
*२. अधर्मास्तिकाय के तीन भेद है- स्कन्ध, देश, प्रदेश।*
*३.आकाशास्तिकाय के तीन भेद है- स्कंध, देश, प्रदेश।*
*४. काल का एक भेद है- काल।*
*५.पुद्गलास्तिकाय के चार भेद हैं- स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु।*
*स्कंध-* जिसमें खंड न हो सर्वथा अविभाज्य हो उसे स्कंध कहा जाता है। कई अलग-अलग अवयव इकट्ठे होकर जो अवयवी अर्थात एक समूह बन जाता है उसे भी स्कंध कहा जाता है। परंतु यहां पहली परिभाषा ही इष्ट है।
स्कंध अनंत और भांति भांति के हैं। जैसे दो परमाणुओं का समुदाय द्वि- प्रदेशी स्कंध, तीन परमाणुओं का समुदाय त्रि-प्रदेशी स्कंध एवं असंख्य अनंत, अनन्तानन्त परमाणुओं का समुदाय क्रमशः असंख्य-प्रदेशी अनंत- प्रदेशी और अनन्तानन्त प्रदेशी स्कंध है।
*स्कंध दो प्रकार की होते हैं-*
*१.स्वाभाविक-स्कंध,* धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय- इनके स्कंध स्वभाविक है। इनका विभाग कदापि नहीं हो सकता ।
*२.वैभाविक-स्कंध-* पुद्गगलों के स्कंध वैभाविक होते है। ये समुदित होते हैं और बिखर जाते हैं।
*देश-* स्कंध का बुद्धि कल्पित अंश देश कहलाता है।
*प्रदेश-* स्कंध का सर्व सूक्ष्म अंश प्रदेश कहलाता है।
*परमाणु-* एक वर्ण,एक गंध, एक रस और दो स्पर्श (शीत और उष्ण में से एक तथा स्निग्ध और रुक्ष में से एक) वाला होता है। प्रदेश व परमाणु एक ही है। परंतु जब तक यह स्कंध के संलग्न रहता है तब तक उसे प्रदेश और जब स्कंध से अलग हो जाता है तब उसे परमाणु कहते हैं।
*१.धर्मास्तिकाय-* जीव और पुद्गलों की गति में और हलन चलन आदि में जो उदासीन सहायक होता है उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। जैसे मछली की गति में पानी सहायक होता है।
*२.अधर्मास्तिकाय-* जीव और पुद्गलों के स्थिर रहने में जो उदासीन सहायक होता है उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं।
*३.आकाशास्तिकाय-* जिसमें जीव और पुद्गल आदि द्रव्यों को रहने के लिए स्थान मिले, अवकाश मिले, आश्रय मिले वह आकाशास्तिकाय है।
*४.काल-* काल काल्पनिक द्रव्य है। सूर्य चंद्रमा की गतिविधि के आधार पर उसकी कल्पना की गई है। उसके स्कंध, देश और प्रदेश यह विभाग नहीं होते । काल का सबसे सूक्ष्म भाग समय है। जो समय उत्पन्न होता है, वह चला जाता है। और जो उत्पन्न होने वाला है वह अनुत्पन्न है अर्थात उत्पन्न नहीं हुआ है और जो वर्तमान है, वह एक है। स्कंध समुदाय से होता है, इसलिए काल का स्कंध नहीं होता। स्कंध के बिना देश भी नहीं होता। काल का आया हुआ समय चला जाता है, नष्ट हो जाता है, अतः काल के प्रदेश भी नहीं होता इसलिए काल का भेद एक केवल काल ही है।
*५.पुद्गलास्तिकाय-* जिसमें वर्ण, गंध,रस और स्पर्श हो उसे पुद्गलास्तिकाय कहा जाता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 93
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
22:12:20
*भाग -- 4*
*आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में तीसरे तत्त्व पुण्य तत्त्व के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।*
*पुण्य - पुण्य शुभ कर्म का उदय है। पहले बंधे हुए शुभ कर्म जब शुभ फल देते हैं। तब वे पुण्य कहलाते हैं। पुण्य के नौ प्रकार हैं-*
*१.अन्न पुण्य २.पान पुण्य ३.स्थान पुण्य ४.शय्या पुण्य ५ वस्त्र पुण्य ६.मन पुण्य ७. वचन पुण्य ८. काय पुण्य ९. नमस्कार पुण्य ।*
यह भेद वास्तव में पुण्य तत्त्व के नहीं, परंतु पुण्य के कारणों के है। कारण भी उपादान नहीं, निमित्त है।
प्रत्येक काम में उपादान निमित्त और कहीं-कहीं निर्वर्तक - इन तीनों कारणों की आवश्यकता होती है। घड़े का उपादान कारण है मिट्टी , निमित्त कारण है चक्र-सूत, प्रमुख सामग्री और निर्वर्तक कारण है कुम्हार। इसी प्रकार पुण्य का उपादान कारण है पुण्य के रूप में परिणत होने वाला पुद्गल समूह, निमित्त कारण है अन्न-पान आदि पदार्थ और निर्वतक (उत्पादक) कारण है शुभ योग की प्रवृत्ति और शुभ-नाम कर्म का उदय अन्न पुण्य का निमित्त कारण है, पानी पुण्य का निमित्त कारण है, वैसे ही स्थान ,शय्या, पाट, बाजोट, वस्त्र आदि सब पुण्य के निमित्त कारण है।
पुण्य के नौ भेद मुनि को लक्ष्य कर किए गए हैं, ऐसा अनुमान किया जाता है । मुनि को अन्न-पान आदि की आवश्यकता होती है, सोना चांदी आदि की नहीं। अतः आवश्यकतानुसार मुनि को अन्न-पान आदि का दान देना, दान देने के संबंध में मन वचन तथा काया की प्रवृत्ति शुद्ध रखना और साधु को नमस्कार करना, यह श्रावक जीवन का अंग है।
पुण्य की उत्पत्ति धार्मिक क्रिया के बिना हो नहीं सकती ।इसलिए उसे धर्म के बिना नहीं हो सकने वाला (धर्माविनाभावी) पुण्यं कहा गया है। जीव की मानसिक वाचिक व कायिक जो शुभ प्रवृत्ति होती है, वह धार्मिक क्रिया है उससे आत्मा विशुद्ध बनती है और उस विशुद्धि के साथ-साथ शुभ कर्म का संचय होता है। उस शुभ कर्म के संचय को बंध या द्रव्य-पुण्य कहा जाता है। पूर्व संचित शुभ कर्म जब उदय में आते हैं, शुभ फल देते हैं तब उनको पुण्य कहा जाता है।
साधारणतया (उपचार से) क्रिया को अर्थात शुभयोग की प्रवृत्ति को भी पुण्य कह देते हैं, किंतु वास्तव में क्रिया पुण्य का कारण है, पुण्य नहीं ।पुण्य तो क्रिया जनित फल है। फल भी मुख्य नहीं, किंतु प्रासंगिक है । मुख्य फल तो निर्जरा (आत्मा की उज्जवलता)है। खेती का मुख्य फल धान होता है, पलाल नहीं। शुभ योग की प्रवृत्ति आत्मा की उज्जवलता के लिए करनी चाहिए पुण्य के लिए नहीं।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 94
23:12:20
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
*भाग -- 5*
*प्रश्न-एक ही शुभ योग की प्रवृत्ति से निर्जरा और शुभ कर्म का संचय यह दो काम कैसे हो सकेंगे?*
*उत्तर-* एक मुख्य फल के साथ-साथ आनुषंगिक फल अनेक होते ही है। धान के लिए की हुई खेती में भी धान के साथ-साथ अनेक प्रकार की दूसरी वस्तुओं की प्राप्ति होती है। मुनि को भी अन्न देने की प्रवृत्ति है, यह शुभ कार्य योग है और वह पुण्य का कारण है तो भी कारण का कार्य में उपचार करके उस अन्न देने की क्रिया को ही पुण्य कह दिया जाता है।
*प्रश्न- धर्म और पुण्य में क्या अंतर है?*
*उत्तर-* साधारण भाषा में धर्म और पुण्य- इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही किया जाता है, किंतु तात्त्विक दृष्टि से धर्म और पुण्य में आकाश पाताल का अंतर है। मिथ्यात्व अव्रत प्रमाद कषाय और योग आश्रव का निरोध करना संवर धर्म है।मन,वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति करना निर्जरा-धर्म है। जिस समय शुभ-योग की प्रवृत्ति होती है उस समय आत्मा के साथ जिन शुभ पुद्गलों का संबंध होता है वह द्रव्य पुण्य या सत्त्कर्म का बंध कहलाता है और जिस समय वे संबंधित कर्म उदय में आकर आत्मा को फल देते हैं उस शुभ कर्म की उदीयमान अवस्था का नाम पुण्य है। धर्म आत्मा का उज्जवल परिणाम है और पुण्य पौद्गलिक है,भौतिक सुख का कारण है।
*प्रश्न -अधर्म और पाप में क्या अंतर है?*
*उत्तर-* मिथ्यात्व आदि चार आश्रव और अशुभ योगमय जो आत्म- परिमाण है वह अधर्म है और इस आत्मीय अवस्था से जो अशुभ पुद्गल आत्मा के साथ संबंधित होते हैं वह अशुभ कर्म का बंध है और वह बंध जब उदीयमान अवस्था को प्राप्त होता है तब वह पाप कहलाता है। अधर्म आत्मा का मलिन परिणाम है, और पाप ज्ञान आदि आत्मा गुणों को आवृत करने वाला तथा दुख देने वाला पुद्गल समूह है।
*प्रश्न- पुण्य की उत्पत्ति स्वतंत्र है या नहीं? धर्म के बिना पुण्य का बंध होता है या नहीं?*
*उतर-* आत्मा की जितनी क्रिया होती है उसके दो प्रकार है- अशुभ एवं शुभ ।अशुभ से पाप कर्म का बंध होता है और शुभ क्रिया से दो कार्य होते हैं- एक मुख्य दूसरा गौण। शुभयोग की प्रवृत्ति में मुख्यतया कर्म निर्जरा होती है और उसके प्रासंगिक फल के रूप में पुण्य बंध होता है। यह पुण्य बंध का स्वरूप है। अब इस विषय में ध्यान देने की बात यह है कि अशुभ प्रवृत्ति से तो पुण्य का बंध होता ही नहीं और जहां कहीं शुभ प्रवृत्ति होगी वहां निर्जरा अवश्य होगी। निर्जरा से आत्मा उज्जवल होती है, अतः वह धर्म है। इसके सिवाय कोई भी ऐसा स्थान नहीं रह जाता जहां धर्म के साहचर्य के बिना पुण्य का बंध होता हो। यह भी निश्चित है कि शुभ या अशुभ प्रवृत्ति के बिना कोई भी काम नहीं हो सकता। अतः धर्म के बिना पुण्य नहीं यह बात सैद्वांतिक एवं तार्किक-उभय दृष्टि से संगत है।
*प्रश्न-कई लोगों की ऐसी मान्यता है कि मिथ्यात्वी धर्म नहीं कर सकता परंतु पुण्य बांधता है इसका समाधान कैसे होगा?*
*उतर-* आत्मा का वह परिणाम धर्म ही है,जो आत्मा को उज्जवल बनाता है। मिथ्यात्वी शुभ क्रिया करता है। उससे कर्म अलग होते हैं। कर्म अलग होने से आत्मा उज्जवल होती है, इसलिए उसकी शुभ क्रिया धर्म है। यदि मिथ्यात्वी के आत्मा की उज्जवलता न मानी जाए तो फिर आत्मा उज्जवल हुए बिना मिथ्यात्वी मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्वी कैसे बन सकता है?
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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*lunch ke baad chovihar ya tivihar tyag jarur Kare*
Day - 95
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
24:12:20
*भाग -- 6*
*पाप-*
पाप अशुभ कर्म का उदय है पहले बंधा हुआ अशुभ कर्म उदय में आकर जब अशुभ फल देता है तब वह पाप कहलाता है पाप अठारह प्रकार का है-
*१. प्राणातिपात-* प्राण वियोजन से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*२. मृषावाद पाप-* झूठ बोलने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह।
*३. अदत्तादान पाप-* चोरी करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*४. मैथुन पाप-* अब्रह्मचर्य सेवन से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*५. परिग्रह पाप-* परिग्रह रखने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*६. क्रोध पाप-* क्रोध करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*७. मान पाप-* मान करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*८. माया पाप-* माया करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह।
*९. लोभ पाप-* लोभ करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*१०. राग पाप-* राग करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*११. द्वेष पाप-* द्वेष करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह।
*१२. कलह पाप-* कलह करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*१३. अभ्याख्यान पाप-* मिथ्या आरोप लगाने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*१४. पैशुन्य पाप-* चुगली करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*१५.पर परिवाद पाप-* निंदा करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*१६. रति अरति पाप-* असंयम में रुचि और संयम में अरुचि रखने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*१७. माया मृषा पाप-* माया सहित झूठ बोलने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
*१८. मिथ्यादर्शनशल्य पाप-* विपरीत श्रद्धारुपी शल्य से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह ।
यह भेद वास्तव में पांच तत्त्व के नहीं किंतु जिन कारणों से पाप कर्म बंधता है, उन कारणों के अनुसार बध्यमान अवस्था की अपेक्षा से पाप को अठारह भागों में विभक्त किया गया है। प्राणों का वियोग करना योग आश्रव कहलाता है और प्राण वियोग करने से जो कर्म बंधता है, वह प्राणातिपात पाप कहलाता है। उस पुद्गल समूह का आत्मा के साथ संबंध होने का हेतु प्राण-वियोजन है ।यदि आत्मा के द्वारा प्राण वियोजन नहीं किया जाता तो वह पुद्गल-समूह में भी आत्मा के साथ संबंध नहीं कर सकता। अतः उस क्रिया से जो कर्म बन्धता है उसी क्रिया के नाम से पुकारा जाता है।
जिस कर्म के उदय से जीव हिंसा करता है असत्य बोलता है तथा उसी प्रकार अन्य पाप करता है उस कर्म को प्राणातिपात पाप-स्थान मृषावाद पाप- स्थान कहा जाता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 98
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
25:12:20
*भाग -- 9*
आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में चौथे तत्त्व पाप तत्त्व के पांचवें भेद परिग्रह पाप और छठे पाप क्रोध पाप के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*पांचवां पाप -- परिग्रह पाप*
*परिग्रह पाप* -- परिग्रह रखने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *इच्छा उ आगाससमा अणंतिया* अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनंत होती है। हमारी दुनिया में सबसे बड़ा कोई पदार्थ है तो वह आकाश है। आकाश से बड़ा कुछ नहीं होता। जो कुछ भी है, वह आकाश में है। जैसे आकाश का कोई ओर-छोर नहीं होता, वैसे ही इच्छाओं का भी अंत नहीं होता है। वे आगे से आगे बढ़ती जाती है, अपार, अनंत, असीम हो जाती है।
अठारह पापों में पांचवा पाप है -- परिग्रह। *मुच्छा परिग्गहो वुत्तो* अर्थात् मूर्छा परिग्रह हैं। पदार्थों का उपयोग करना एक बात है और उसके पति मूर्छा या आसक्ति का होना अलग बात है। वास्तव में पदार्थों के प्रति जो आसक्ति होती है, वह परिग्रह है। मनुष्य पदार्थों के उपभोग की सीमा करे और उससे भी बड़ी बात यह है कि इच्छा का सीमांकन करे, आसक्ति को निर्मूल करने का प्रयास करे। आसक्ति ही परिग्रह का रूप धारण कर लेती है।
इच्छा के संदर्भ में तीन शब्दों का प्रयोग होता है -- महेच्छ, अल्पेच्छ, अनिच्छ। महेच्छ वह होता है जिसमें खूब इच्छाएं होती है, ज्यादा आसक्ति होती है। अल्पेच्छ वह होता है, जिसमें इच्छाएं कम होती है। जो पूर्ण रूप से इच्छा रहित हो, वह अनिच्छ होता है। एक गृहस्थ के लिए अनिच्छ होना बहुत कठिन है, किंतु वह महेच्छ न बने।
*छठा पाप -- क्रोध पाप*
*क्रोध पाप* -- क्रोध करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है *उवसमेण हणे कोहं* अर्थात उपशम के द्वारा क्रोध को जीतो। आदमी में अनेक वृत्तियां होती है। अच्छी वृत्तियां भी होती है और बुरी वृत्तियां भी होती है। उसके भीतर अहिंसा का संस्कार भी होता है और हिंसा का संस्कार भी होता है। सत्संस्कार भी होता है और असत् संस्कार भी होता है। अनादिकाल से राग-द्वेष के संस्कार हैं, इसलिए आदमी कई बार गुस्से में भी आ जाता है, कभी अहंकार में भी आ जाता है, कभी माया में तो कभी लोभ में आ जाता है और पाप का बंध कर लेता है।
अठारह पापों में छठा पाप है -- क्रोध। आदमी अपने भीतर झांके और देखे तो उसे ज्ञात होगा कि मुझे कितना गुस्सा आता है। पारिवारिक जीवन में गुस्सा आ जाता है और सामाजिक जीवन में भी गुस्सा आ जाता है। गुस्सा करने वाला व्यक्ति दूसरों को भी कष्ट में डाल देता है और स्वयं भी उससे संत्रस्त हो जाता है। कई बार गुस्सा करने वाला स्वयं बड़ा दुखी होता है कि मैंने गुस्सा क्यों किया ? उसे पश्चाताप भी होता है। गलत कार्य के लिए पश्चाताप या अनुपात होना अच्छी बात है। कम से कम उसे अपने द्वारा की गई गलत कार्य की अनुभूति तो हो जाती है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 99
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
26:12:20
*भाग -- 10*
आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में चौथे तत्त्व पाप तत्त्व के सातवें पाप मान पाप और आठवें पाप माया पाप के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*सातवां पाप -- मान पाप*
*मान पाप* -- मान करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *माणं मद्दवया जिणे* अर्थात् मृदुता से मान को जीतो। आदमी के भीतर अहंकार की वृत्ति होती है। अहंकार की वृत्ति साधना के क्षेत्र में बाधक होती है। न केवल साधना के क्षेत्र में, व्यवहारिक जगत में भी अहंकार शोभायमान नहीं होता। आदमी दूसरों पर अधिकार जमाना चाहता है। किंतु स्वयं किसी के अधीन रहना नहीं चाहता। इस वृत्ति को कैसे समाप्त किया जाए, यह एक प्रश्न है। शास्त्रकार ने उपाय बताएं कि मार्वद के द्वारा मान को जितना चाहिए। अहंकार विनय का नाश करने वाला होता है तो विनय अहंकार का नाश करने वाला होता है।
अहंकार के मुख्य दो रूप हैं -- मैं और मेरा। जहां मेरापन या अपनापन जुड़ जाता है, वहां दुःख होता है। शास्त्रों में अहंकार के आठ स्थान माने गए हैं -- जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य। किसी को जाति का मद हो सकता है, किसी को अपने रूप का मद हो सकता है तो किसी को ऐश्वर्य आदि का। आदमी इस सच्चाई को जानता है कि यह धन-वैभव आज तक किसी का नहीं बना और न ही किसी के साथ गया, फिर भी इतना मेरापन का भाव जुड़ जाता है कि वह धन के मद में अंधा बना हुआ किसी भी प्रकार का अवांछनीय काम कर सकता है ।
100
25बोल
*आठवां पाप -- माया पाप*
*माया पाप* -- माया करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *मायं चज्जवभावेण* अर्थात् ऋजुता से माया को जीतो। मनुष्य यदा-कदा माया का प्रयोग भी कर लेता है। आयारो में कहा गया है -- *माई पमाई पुणरेई गब्भं* अर्थात् मायावी और प्रमादी आदमी बार-बार गर्भ ( जन्म ) धारण करता है। आत्मा को मलिन बनाने के लिए माया भी जिम्मेवार तत्त्व है। आचार्य सोमप्रभसूरि ने कहा -- *मायाविश्वास-विलासमंदिरम्* अर्थात् माया अविश्वास के रमण करने का एक स्थान है। जहां छलना है, प्रवंचना है, वहां विश्वास को टिकने में कठिनाई होती है। दसवेआलियं में कहा गया -- *माया मित्ताणि नासेइ* अर्थात् माया मित्रता का नाश करने वाली होती है। जो मायाशील है, उसके ज्यादा मित्र बनने कठिन होते हैं, क्योंकि पता नहीं वह कब धोखा दे दे। वे पुरुष, वे मनुष्य पवित्र होते हैं, जो सरलता और निश्चलता का जीवन जीते हैं।
धर्म के क्षेत्र में सरलता का बड़ा महत्व है। उत्तराध्यनन सूत्र में कहा गया है कि निर्वाण वह प्राप्त करता है, जिसके हृदय में धर्म होता है। धर्म उसके ह्रदय में होता है, जो शुद्ध होता है और शुद्ध वह होता है, जो ऋजु होता है, सरल होता है।
माया और झूठ -- इन दोनों का गठजोड़ है। माया और मृषा -- दोनों मिल जाते हैं तो यों लगता है, जैसे पाप और ज्यादा सघन हो गया हो।
शास्त्रकार ने कहा -- ऋजुता का अभ्यास करके हमें माया को जीतने का प्रयास करना चाहिए।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में चौथे तत्त्व पाप तत्त्व के नौवें पाप लोभ पाप और दसवें पाप राग पाप के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*नौवां पाप -- लोभ पाप*
*लोभ पाप* -- लोभ करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *लोहो सव्वविणासणो* अर्थात् लोभ सर्वनाशक है। विनाश करने वाले अनेक तत्त्व है। क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रों का नाश करती है, किंतु लोभ तो सब कुछ नष्ट करने वाला है। प्रेम, विनय और मित्रता का नाश सभी लोभ के द्वारा हो सकता है।
प्रश्न हुआ कि पाप का बाप कौन ? उत्तर में कहा गया -- लोभ पाप का बाप है। एक लोभ के कारण आदमी कितने-कितने पाप कर लेता है। इसके लिए वह हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है। अनेक पापों का जनक लोभ हैं। हमारे भीतर अनेक दुर्वृत्तियां हैं। उनमें एक हैं लोभ की वृत्ति। जिस आदमी में लोभ प्रबल है, उसमें तनाव ज्यादा हो सकता है। जो लोभमुक्त है, निर्लोभी है, निःस्पृह है, वह व्यक्ति शांत और तनावमुक्त रह सकता है। इच्छा का कोई पार नहीं है।
लोभ को जीतने का उपाय है -- जीवन में संतोष का विकास करना। लोभ से संतोष की ओर आगे बढ़ना महत्वपूर्ण बात है। नैतिकता के द्वारा लोभ की संज्ञा पर चोट पहुंचाई जा सकती है और लोभ को कम भी किया जा सकता है।
*दसवां पाप -- राग पाप*
*राग पाप* -- राग करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *रागो य दोसो वि य कम्मबीयं* अर्थात् कर्म के दो बीज माने गए हैं -- राग और द्वेष। पाप कर्म का जितना भी बंध होता है, उसके जिम्मेदार ये दो ही है। अन्य किसी भी कारण से पाप कर्म का बंध नहीं हो सकता। तात्त्विक भाषा में कहें तो आठ कर्मों में मूल एक मोहनीय कर्म ही ऐसा है, जो पाप कर्म के बंधन के लिए जिम्मेदार है। अन्य किसी भी कर्म के द्वारा पाप कर्म का बंध नहीं हो सकता। अठारह पापों में दसवां पाप है -- राग। राग एक ऐसी वृत्ति है, जिसे छोड़ना ज्यादा कठिन है। द्वेष को छोड़ना कुछ आसान है। द्वेष पर सीधी दृष्टि जाती है, परंतु राग पर नहीं जाती। द्वेष को छोड़ने पर राग रह जाता है। इसलिए वीतराग कहा जाता है, वीतद्वेष नहीं। परिवार के साथ राग हो जाता है, मित्रों के प्रति मोह या राग हो जाता है। एक वस्तु के गुम हो जाने पर आदमी के मन में अगर पीड़ा हो रही है तो मानना चाहिए कि उसके मन में पदार्थ के प्रति मोह है।
व्यक्ति की यह भावना होनी चाहिए कि जब अपने कर्मों के अनुसार फल भोगना है तो परिवार में रहते हुए भी जितना संभव हो सके, निर्लिप्त और अनासक्त रहने का प्रयास करूं। पदार्थों के प्रति हमारे मन में ज्यादा मोह न हो। उनका उपयोग करना होता है, उन्हें काम में लेना होता है, किंतु उनमें अनासक्त रहना चाहिए। यह अमोह की साधना है, राग से मुक्त होने की साधना है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 101
28:12:20
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
*भाग -- 12*
आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में चौथे तत्त्व पाप तत्त्व के ग्यारहवें पाप द्वेष पाप और बारहवें पाप कलह पाप के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*द्वेष पाप* -- द्वेष करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में दो बंधन बताए गए हैं -- *पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहिं-- रागबंधणेणं दोसबंधणेणं।* राग भी एक बंधन है और द्वेष भी एक बंधन है। अध्यात्म की साधना में राग-द्वेष का त्याग करना आवश्यक होता है। आत्मा का साक्षात्कार करने के लिए कौन आदमी कितना राग-द्वेष से मुक्त हुआ है, बस यही कसौटी है। आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम ही परमात्मा है। जैनदर्शन में कहा गया है कि आत्मा साधना के द्वारा परमात्मा पद को प्राप्त हो सकती है। जिस प्रकार सोना प्रारंभिक अवस्था में मिट्टी से मिला-जुला रहता है किंतु जब उससे मिट्टी अलग कर दी जाती है, तब स्वर्ण में निखार आ जाता है। इसी प्रकार आत्मा कर्मों की मिट्टी से आवृत या ढकी हुई है। उन कर्मों को तपस्या, साधना के द्वारा दूर कर दिया जाता है, तब आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है।
राग-द्वेष की तरंगों से जिसका मन तरंगित नहीं होता है, वह व्यक्ति आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। अन्य किसी को साक्षात्कार का योग प्राप्त नहीं हो सकता। एक तालाब में पानी भरा हुआ है। कोई उस तालाब के भीतरी भाग को देखना चाहे तो उसके लिए दो शर्तें है। पहली शर्त तो यह है कि तालाब का पानी स्वच्छ होना चाहिए और दूसरी शर्त है कि तालाब का पानी स्थिर होना चाहिए। तालाब का पानी गंदा है और उसमें तरंगे उठ गई है तो तालाब के तल को नहीं देखा जा सकता है। इसी प्रकार जब राग-द्वेष की तरंगे शांत हो जाएगी और भाव शुद्ध हो जाएंगे, तब आदमी आत्मसाक्षात्कार कर सकेगा।
*कलह पाप* -- कलह करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *कलह विवज्जणा* अर्थात् ऋषियों के लिए, साधुओं के लिए अपेक्षित है कि वह कलह का वर्जन करे। अकेला आदमी होता है, वहां कलह की संभावना नहीं होती। अनेक व्यक्ति जहां साथ में रहते हैं, वहां कलह पैदा हो सकता है। जहां दो है वहां संघर्ष होता हो सकता है। चूड़ियां अनेक थी तो आवाज आ रही थी, संघर्ष हो रहा था। एक ही रह गई तो कोई आवाज नहीं आई। मनुष्य भी अनेक साथ में रहते हैं तो आवाज आ जाती है। सात्त्विक प्रेम की आवाज आए तो दिक्कत नहीं, अपेक्षित आवाज आए तो दिक्कत नहीं, पर कलह की आवाज आने लग जाती है तो कुछ कठिनाई की स्थिति पैदा हो जाती है।
उपशांत कलह की उदीरणा करना, पुरानी बातों को उठाना, पुरानी बातों को याद करके फिर कलह पैदा कर देना अवांछनीय माना गया है । उपशांत कलंक की उदीरणा नहीं होनी चाहिए। झगड़ा होता है तो उसके पीछे कारण भी होता है। अहंकार टकराता है, तो आवेग आ जाता है, या सामने वाला मेरा अहित कर रहा है, ऐसा आभास होता है तो परस्पर कलह भी पैदा हो सकता है।
जहां स्वार्थ प्रभावी होता है, वहां कलह को पैदा होने का मौका मिलता है। स्वार्थ की चेतना कलह उत्पत्ति का स्थान है। परार्थ की कामना हो, परहित की भावना हो तो कलह को पनपने से बचाया भी जा सकता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 102
29:12:20
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
*भाग -- 13*
आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में चौथे तत्त्व पाप तत्त्व के तेरहवें पाप अभ्याख्यान पाप और चौदहवें पाप पैशुन्य पाप के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*तेरहवां पाप -- अभ्याख्यान पाप*
आर्हत वाड्मय में *अब्भक्खाण* शब्द आता है। अठारह पापों में तेरहवां पाप है -- अभ्याख्यान पाप। आचार्य हेमचंद्र ने इसका अर्थ किया है -- *मिथ्याभियोगोऽभ्याख्यानं* अर्थात् झूठा अभियोग लगाना, झूठा आरोप लगाना अभ्याख्यान होता है। वास्तव में गलती हो, दोष हो तो भी बात को फैलाना नहीं चाहिए, किसी को बदनाम करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। गलती है ही नहीं और ऐसे ही किसी निर्दोष आदमी को दोषोरोपित कर देना और झूठा दोष फैला देना बड़ा पाप होता है। दुर्जन आदमी ही ऐसा काम कर सकता है। सज्जन आदमी तो दोष का पता चल जाए तो भी उसे फैलाने का या उस आदमी को बदनाम करने का प्रयास नहीं करता।
*चौदहवां पाप -- पैशुन्य पाप*
आर्हत वाड्मय में पैशुन्य को पाप बताया गया है। जिसका अर्थ चुगली खाना, परोक्ष में दूसरों की बुराई करना, निंदा करना है। संस्कृत कोश में आचार्य हेमचंद्र ने बताया है -- *पृष्ठमांसादनं तद्यत् परोक्षे दोषकीर्तनम्* अर्थात् इसका तात्पर्य है पीठ पीछे किसी की निंदा करना, बुराई करना, चुगली खाना। इस दुर्वृत्ति से हमें बचना चाहिए। कोई बात हो तो उस आदमी को ही बता दें कि तुम्हारी यह गलती हमारे ध्यान में आई है। यदि गलती है तो तुम उस पर ध्यान देना, उसे ठीक कर लेना। यदि तुम्हारी गलती नहीं है, हमारी गलतफहमी है तो हम अपनी धारणा को ठीक कर लें। सामने नहीं कहना, मूल व्यक्ति को नहीं बताना और परोक्ष में निंदा करते रहना, किसी को आपस में भिड़ा देना, किसी के बारे में गलत धारणा बना लेना, यह पापकर्म है। निंदा करना तो बड़ा आसान काम है। लेकिन यह आसान काम इतने पाप कर्मों का बंध करा देता है कि उदय में आने पर उस व्यक्ति के लिए बड़ी कठिनाई हो जाती है।
व्यक्ति आत्मावलोकन करे कि अठारह पापों में से कौन सा पाप मैंने ज्यादा मात्रा में किया है और उसे कम कैसे किया जाए ? पाप जिसने कम होंगे, हमारी आत्मा उतनी ही निर्मल बनेगी। आदमी पवित्र कार्य न कर सके तो कम से कम पापों से तो बचे।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 103
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
30:12:20
*भाग -- 14*
आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में चौथे तत्त्व पाप तत्त्व के पन्द्रहवें पाप परपरिवाद पाप और सौलहवें पाप रति-अरति पाप के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*पन्द्रहवां पाप -- परपरिवाद पाप*
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *समो निंदापसंसासु* अर्थात् निंदा और प्रशंसा में सम रहना। साधक को समता की साधना करनी चाहिए। कोई निंदा करे तो भी सम रहे और प्रशंसा करे तो भी सम रहे। द्वेषयुक्त परनिंदा से बचना चाहिए। बातें करनी है तो अच्छी और सार्थक बात करें, ज्ञान की बात करें, तात्विक चर्चा करें। इधर-उधर की फालतू बातें करने से समय का अपव्यय तो होता ही है, कर्मों का बंध भी होता है।
*अठारह पापों में पन्द्रहवां पाप है -- परपरिवाद अर्थात दूसरों की निंदा करना।* जो दोष दूसरों में है ही नहीं, उसका मिथ्या आरोपण करना। सच्ची बात को सच्ची कहना निंदा नहीं है। किंतु सच्ची बात को भी अवसर देखकर ही कहना चाहिए। बिना अवसर सच्ची बात ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि उस समय मौन रह जाना चाहिए।
दूसरों का दोष देखने से पहले स्वयं को भी आत्मावलोकन करना चाहिए। स्वयं के दोषों और कमजोरियों पर भी दृष्टिपात करना चाहिए।
*सोलहवां पाप -- रति-अरति पाप*
अठारह पापों में सोलहवां पाप है -- रति-अरति। इसमें दो शब्द हैं -- रति और अरति। रति का तात्पर्य है -- रमण करना, अनुरक्त हो जाना, रुचि रखना और अरति का अर्थ है -- अनुराग न रखना, रूचि न रखना, अरुचि रखना। असंयम में रति का होना और संयम में अरुचि या विकर्षण का होना रति-अरति पाप है। होना तो यह चाहिए कि संयम के प्रति आकर्षण हो और असंयम के प्रति अनाकर्षण हो। जितना-जितना आदमी के जीवन में संयम बढ़ता है, त्याग बढ़ता है, उससे धर्म की पुष्टि होती है और जितना जीवन में असंयम बढ़ता है, उससे अधर्म की वृद्धि होती है। गलत कार्यों का त्याग करना धर्म है। भोग में लिप्त होना अधर्म है, पाप है।
जैन वाड्मय में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख है। श्रावक बारह व्रतों को स्वीकार करे तो कुछ अंशों में संयम जीवन में आ जाएगा। कोई अजैन व्यक्ति भी अणुव्रतों को स्वीकार करे तो जीवन में संयम आ जाएगा। जीवन में यदि संयम का थोड़ा अंश भी आता है, तो वह भी कल्याणकारी होता है। गृहस्थ यह सोचे -- मैं हिंसा से कितना बच सकता हूं ? जो अनावश्यक हिंसा है, जिसके बिना अच्छी तरह काम चल सकता है, उस हिंसा से बचने का प्रयास करूं। जमीकंद खाए बिना भी काम चल सकता है तो जमीकंद को छोड़ने का नियम स्वीकार करूं। रात में बिना खाए मेरा काम चल सकता है तो रात्रि भोजन का त्याग करूं। वह भी संयम की साधना होगी।
कषाय मन्दीकरण का अभ्यास करना चाहिए। व्यक्ति को यह संकल्प करना चाहिए कि मैं किसी को कटु जबान न कहूं, मैं किसी का अपमान न करूं, अवहेलना न करूं। यह भी संयम का प्रयोग है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
प्रस्तुतकर्ता :- *विकास सेठिया, तिरुप्पुर m. 9363053274*
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Day - 104
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
31:12:20
*भाग -- 15*
आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में चौथे तत्त्व पाप तत्त्व के सतरहवें पाप मायामृषा पाप और अठारहवें पाप मिथ्यादर्शनशल्य पाप के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*सतरहवां पाप -- मायामृषा पाप*
आर्हत वाड्मय में कहा गया है *अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए* अर्थात् मेधावी पुरुष अणुमात्र यानी थोड़ी-सी भी माया और मृषा का प्रयोग न करे। अठारह पापों में सतरहवां है मायामृषा पाप। इसमें दो पापों का मिश्रण हुआ है माया और मृषा। वैसे तो दोनों पाप अलग-अलग रूप में अठारह पापों में उल्लेखित हो चुके हैं। मृषावाद पाप भी आ चुका है और माया पाप भी आ चुका है, किंतु सतरहवें पाप में दो पापों का मिश्रण बताया गया है, माया युक्त मृषा बोलना। केवल झूठ ही नहीं, साथ में माया का भी प्रयोग करना। सच्चाई-सरलता का मार्ग सीधा-सपाट मार्ग है। मायामृषा का मार्ग उबड़-खाबड़, टेढ़ा-मेढ़ा, कंटकाकीर्ण होता है। फिर भी लोग उस पर चल लेते हैं। वे दीर्घकालिक लाभ की या तो उपेक्षा करते हैं या पहचानते नहीं है और तात्कालिक लाभ के लिए शोर्टकट रास्ता ले लेते हैं।
मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि झूठ-कपट का मार्ग जहां पहुंचाएगा, वह मंजिल दुःखद होगी और सच्चाई-सफलता का मार्ग जहां पहुंचाएगा, वह मंजिल सुखद होगी। सच्चाई के पथ में संकट आ सकते हैं। विकट संकट पैदा हो सकते हैं। उन कठिनाइयों में अगर आदमी मनोबल रख सके तो आगे मंजिल बड़ी सुखद होगी। वह शाश्वत सुख देने वाली हो सकेगी।
*अठारहवां पाप -- मिथ्यादर्शनशल्य पाप*
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि* अर्थात् मैं मिथ्यात्व का परित्याग करता हूं और सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूं। अठारह पापों में अंतिम पाप है मिथ्यादर्शनशल्य पाप। अनेक लोगों का दृष्टिकोण मिथ्या हो सकता है। समग्र जीव जगत की दृष्टि से विचार किया जाए तो अनंत जीव ऐसे हैं, जो मिथ्यात्व से युक्त हैं। जैन धर्म में मिथ्यादृष्टि को त्याज्य माना गया है और सम्यक्त्वी बनने की कामना की गई है। यहां देव, गुरु, धर्म की त्रिपदी है। देव कौन, गुरु कौन और धर्म कौनसा ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया -- जो देव नहीं है, धर्म के क्षेत्र में उसे देव मान लेना। जो सुगुरू नहीं है, उसे गुरु मान लेना और जो धर्म नहीं है, उसको धर्म मान लेना मिथ्यात्व है।
सम्यक्त्व के पांच लक्षण बताए गए हैं। उन लक्षणों से हम अनुमान लगा सकते हैं कि सम्यक्त्व है या नहीं। वे लक्षण ये हैं --
* जिसके क्रोध आदि कषाय शांत होते हैं।
* जिसमें मोक्ष-प्राप्ति की अभिलाषा रहती है।
* जिसमें संसार से विरति होती है।
* जिसमें प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव होता है।
* जिसका आत्मा, कर्म आदि में विश्वास होता है।
सम्यक्त्वी है तो मानना चाहिए की नींव मजबूत है। अंक एक के आगे शून्य लगेंगे तो संख्या बढ़ती जाएगी, लेकिन अंक के बिना लाखों शून्यों का भी कोई महत्व नहीं होता। सम्यक्त्व मूल अंक के समान है। उसके साथ साधनारूपी शून्य उसके महत्व को बढ़ाता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 105
1:1:21
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
*भाग -- 16*
पीछे की पोस्टों के माध्यम से हमने नौ तत्त्वों में पहले चार तत्त्वों के बारे में जानने का प्रयास किया। आज की पोस्ट से नौ तत्त्वों में पांचवें तत्त्व आश्रव तत्त्व के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
*आश्रव-*
कर्म ग्रहण करने वाली आत्मा की अवस्था को आश्रव कहा जाता है यह जीव की अवस्था है, अतः जीव है। आत्मा द्वारा जो कर्म पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं वह अजीव है आश्रव के मुख्य भेद पांच हैं-
*१.मिथ्यात्व आश्रव-* विपरीत श्रद्धान् तत्त्व के प्रति अरुचि।
*२.अव्रत आश्रव-* अत्याग भाव। पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा।
*३.प्रमाद आश्रव-* धर्म के प्रति अनुत्साह। प्रमाद आश्रव की व्याख्या प्रायः निद्रा विकथा आदि पांच प्रमाद के रूप में उपलब्ध होती है और इस परिभाषा से योग आश्रव तथा प्रमाद आश्रव में कोई भेद ही नहीं रहता। आचार्य भिक्षु के अनुसार प्रमाद आश्रव आत्म प्रदेशवर्ती अनुत्साह है ,निद्रा आदि नहीं। निद्रा विकथा आदि मन, वाणी और काययोग के कार्य है। योग जनित कार्यों का समावेश योग आश्रव में ही होता है, अन्यत्र नहीं। प्रमाद और योग आश्रव का भेद स्पष्ट है, जैसै- निद्रा नैरन्तरिक नहीं किंतु प्रमाद आश्रव नैरन्तरिक है, इसलिए उन्होंने लिखा- *तिण सूं लागे निरंतर पापो रे।*
*४.कषाय आश्रव-* आत्म प्रदेशों में क्रोध आदि चार कषायों की उत्पत्ति। मुख की लालिमा, भृकुटी आदि जो दृश्यमान विकार है, वह योग आश्रव है, कषाय आश्रव नहीं। कषाय आश्रव तो आत्मा की आंतरिक तृप्ति है।
*५.योग आश्रव-* मन,वचन और काया की प्रवृत्ति इसके दो भेद है- शुभ योग आश्रव और अशुभ योग आश्रव।
शुभ योग से निर्जरा होती है इस अपेक्षा से वह शुभ योग आश्रव नहीं किंतु वह शुभ कर्म के बंध का कारण भी है इसलिए वह शुभ योग आश्रव है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 106
2:1:21
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
*भाग -- 17*
*प्रश्न- शुभ योग आश्रव क्यों?*
*उत्तर-* शुभ-योग से दो कार्य होते हैं- शुभ कर्म का बंध और अशुभ कर्म की निर्जरा। शुभ कर्म का बंध होता है, इसलिए वह शुभ योग आश्रव कहलाता है। और कर्मों का क्षय होता है, इसलिए उसे निर्जरा कहा जाता है। वस्तुस्थिति ही ऐसी है कि शुभ-योग अथवा शुभ-अध्यवसाय इसके बिना निर्जरा भी नहीं हो सकती और पुण्य का बंध भी नहीं हो सकता।
*आत्मा की प्रवृति दो प्रकार की होती है-* बाह्य और आभ्यांतर। जो बाह्य प्रवृत्ति होती है, उसे योग कहते हैं और जो आभ्यांतर प्रवृत्ति होती है, उसे अध्यवसाय कहते हैं। योग तथा अध्यवसाय -- ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं- *शुभ और अशुभ।* इनकी अशुभ प्रवृत्ति से पाप कर्म बंधता है और आत्मा मलिन होती है तथा शुभ प्रवृत्ति से निर्जरा होती है, आत्मा उज्जवल होती है और पुण्य कर्म बन्धता है।
एक ही कारण से दो काम कैसे हो सकते हैं, इसका शास्त्रीय न्याय यह है कि शुभ योग मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से तथा शुभ-नाम-कर्म के उदय से निष्पन्न होता है। शुभ योग क्षय, क्षयोपशम या उपशम से निष्पन्न होता है, इसलिए उस (शुभ योग )से निर्जरा होती है और वह उदय से भी निष्पन्न होता है, इसलिए उससे शुभ कर्म बंधते हैं, अतः निर्जरा और पुन्य बंध का कारण जो व्यावहारिक दृष्टि से एक ही जान पड़ता है, तात्त्विक दृष्टि से एक नहीं है। निर्जरा का कारण शुभ-योग का क्षायिक, क्षायोपशमिक या औपशमिक स्वभाव है और पुण्य बंध का कारण औदयिक स्वभाव है। इसे इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक ही शुभ योग दो स्वभाव वाला है और उसके दो स्वभावो से ही दो काम होते हैं, एक स्वभाव से नहीं। जैसे एक ही सूर्य अपने दो स्वभावों से ही दो काम करता है - प्रकाश करता है और गर्मी बढ़ाता है। दीपक जलता है, उससे प्रकाश होता है और काजल भी बनता है, स्थूल-दृष्टि से यही जाना जाता है कि दीपक के एक ही स्वभाव से प्रकाश होता है और काजल बनता है, किंतु वास्तव में जो तेजोमय अग्नि है उस कारण से प्रकाश होता है और तेल-बत्ती जलती है उस कारण से कार्बन (कोयले का अंश) जमा होकर काजल बनता है। गेहूँ बोने से गेहूँ निपजता है परंतु साथ में तुड़ी भी होती है। शुभ योग रूपी गेहूँ से निर्जरा रूपी गेहूँ उपजता है, परंतु पुण्य रूपी तूड़ी से रहित नहीं उपज सकता, क्योंकि शुभ योग की वैसी स्थिति कहीं भी नहीं होती जहां नाम-कर्म का उदय न रहे, इसलिए जहां शुभ योग से निर्जरा होती है। वहां पुण्य अवश्य बन्धता है। इस विषय में एक बात और ध्यान रखने की है कि निर्जरा शुभ योग से होती है न की शुभ योग आश्रव से।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 107
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
3:1:21
*भाग -- 18*
*प्रश्न- शुभ योग से निर्जरा होती है और निर्जरा से मुक्ति होती है, परंतु शुभ योग के साथ-साथ शुभ कर्मों का बंध भी चालू रहता है तब मुक्ति कैसे हो सकती है?*
*उत्तर-* आत्मा कर्म से इतनी आवृत है कि एक साथ उसकी मुक्ति नहीं होती। क्रमशः प्रत्यन करते-करते जैसे-जैसे निर्जरा बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आत्मा विशुद्ध बनती जाती है। आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं का संबंध मुख्यतः कषाय एवं योग की सहायता से होता है। जब कषाय प्रबल होता है तभी कर्म परमाणु आत्मा के साथ अधिक संख्या में चिपकते हैं, अधिक काल तक रह सकते हैं और तीव्र फल देते हैं। जब कषाय निर्बल हो जाता है तब उसका बंधन भी बलवान नहीं होता।
*प्रश्न-शुभ योग मुक्ति का साधन है या बाधक?*
*उत्तर -* वह साधक भी है और बाधक भी।शुभ योग से निर्जरा होती है, अतः मुक्ति का साधक है और शुभ योग से पुण्य बंधता है, अतः मुक्ति का बाधक है।
इंधन जितना आद्र (गीला) होता है उतना ही प्रकाश के साथ-साथ धुआं भी रहता है। ठीक उसी तरह जब तक आत्मा के कषाय और योग आश्रव प्रबल होते है तब तक कर्म का बंध भी प्रबल होता है।जब कषाय का नाश हो जाता है तब अशुभ कर्म का बंधन तो बिल्कुल ही रुक जाता है और जो शुभ कर्म बंधता है वह भी इतनी कम स्थिति का बंधता है कि पहले समय में बंधता है, दूसरे समय उदय में आ जाता है और तीसरे समय में नष्ट हो जाता है। इसलिए आत्मा की मुक्ति में कोई बाधा नहीं आती।
*आत्मा की मुक्ति होने में दो बाधाएं हैं-*
*१. कर्म का बंध होते रहना।*
*२. बंधे हुए कर्मों का क्षय नहीं होना।*
बारहवें गुणस्थान में चार आश्रव तथा अशुभ योग आश्रव का निरोध हो जाता है, पाप कर्म का बंध होना रुक जाता है। केवल शुभ कर्म का बंध रहता है वह भी अति अल्पस्थिति का (दो समय की स्थिति का) होता है। चौदहवें गुणस्थान में योग का भी सर्वथा निरोध हो जाता है।योग का निरोध होने से शुभ कर्म का बंध भी रुक जाता है, अवशिष्ट कर्म क्षीण हो जाते हैं और आत्मा मुक्त हो जाती है।
योग आश्रव स्वतंत्र भी है और पूर्ववर्ती चार आश्रवों का बाह्य रूप में प्रदर्शन भी करता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 108
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
4:1:21
*भाग -- 19*
आश्रव के पांच मुख्य भेदों का यह संक्षिप्त विवरण है। योग आश्रव के गौण (अवांतर) भेद पन्द्रह है। इनका विवरण इस प्रकार है-
*१ प्राणातिपाप आश्रव-* प्राणों का अतिपात-वियोजन करना,जीव वध करना।
*२ मृषावाद आश्रव-* झूठ बोलना।
*३अदत्तादान आश्रव-* चोरी करना।
*४ मैथुन आश्रव-* अब्रह्मचर्य सेवन करना।
*५ परिग्रह आश्रव-* धन,धान्य, मकान आदि पर ममत्व रखना।
*६श्रोत्रेन्द्रिय आश्रव-* श्रोत्रेन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति।
*७ चक्षुःइन्द्रिय आश्रव-* चक्षुरिन्द्रय राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति ।
*८ घ्राणेन्द्रिय आश्रव-* घ्राणेन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति।
*९ रसनेन्द्रिय आश्रव-* रसनेन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति।
*१०स्पर्शनेन्द्रिय आश्रव-* स्पर्शनेन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति।
*११ मन आश्रव-* मन की प्रवृत्ति।
*१२ वचन आश्रव-* वचन की प्रवृत्ति।
*१३ काया आश्रव-* काया की प्रवृत्ति।
*१४ भण्डोपकरण आश्रव-* भण्ड-पात्र, उपकरण वस्त्र आदि को यतना पूर्वक न रखना।
*१५ सुचि-कुशाग्र मात्र आश्रव-* किंचित मात्र भी पापयुक्त प्रवृत्ति।
मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग आश्रव से अशुभ कर्मो का बंध होता है। शुभ योग की प्रवृत्ति से शुभ कर्म का बंध होता है। उस शुभ कर्म के बंध की अपेक्षा से शुभ योग आश्रव की कोटि में आता है। वह शुभयोग आश्रव कहलाता है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 109
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
5:1:21
*भाग -- 20*
*6.संवर*
कर्म का निरोध करने वाली आत्मा की अवस्था का नाम संवर है। संवर आश्रव का विरोधी तत्व है। आश्रव कर्म-ग्राहक अवस्था है और संवर कर्म-निरोधक। आश्रव की भेद-संख्या बीस है और संवर की भी भेद-संख्या बीस है। प्रत्येक आश्रव का एक-एक संवर प्रति पक्षी है, जैसे मिथ्यात्व आश्रव का प्रति पक्षी सम्यक्त्व संवर है। अव्रत आश्रव का प्रतिपक्ष व्रत संवर है। प्रमाद आश्रव का प्रतिपक्षी अप्रमाद संवर है। कषाय आश्रव का प्रतिपक्षी अकषाय संवर और योग आश्रव का प्रतिपक्षी अयोग संवर है।इसी प्रकार प्राणातिपात आदि पन्द्रह आश्रवों के अप्राणातिपात आदि पन्द्रह संवर प्रतिपक्षी है।
*१.सम्यक्त्व संवर-* विपरीत श्रद्धान का त्याग करना सम्यक्त्व संवर है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी त्याग किए बिना सम्यक्त्व संवर नहीं हो सकता। अनंतानुबंधी चतुष्टय- क्रोध, मान,माया लोभ के उपशम से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और संवर अप्रत्याख्यानीय चतुष्टय के क्षयोपशम से होता है।
*२. व्रत संवर -* व्यक्त और अव्यक्त आशा का परित्याग करना व्रत संवर है। जो पदार्थ न तो कभी काम में लाए गए और न कभी उनका नाम ही सुना गया तो भी उनकी आशा,उनको भोगने की लालसा जो बनी रहती है उसका कारण अव्यक्त आशा ही है।
सम्यक्त्व संवर और व्रत संवर यह दोनों संवर त्याग करने से होते हैं, अन्यथा नहीं।
*३.अप्रमाद संवर-* आत्म प्रदेश स्थित अनुत्साह का क्षय हो जाना अप्रमाद संवर है।
*४.अकषाय संवर-* आत्म प्रदेश स्थित कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) का क्षय हो जाना अकषाय संवर है।
*५.अयोग संवर-* योग का निरोध होना अयोग संवर है।
*अप्रमाद, अकषाय, अयोग-* यह तीन संवर परित्याग करने से नहीं होते, किंतु तपस्या आदि साधनों के द्वारा आत्मिक उज्जवलता से ही होते हैं।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
प्रस्तुतकर्ता :- *विकास सेठिया, तिरुप्पुर m. 9363053274*
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Day - 110
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
6: 1 :21
*भाग -- 21*
*6.संवर*
*सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद,अकषाय और अयोग-* इन पांच संवरों के अतिरिक्त जो पन्द्रह भेद हैं,वे व्रत संवर के ही है। उन पन्द्रह भेदो में त्याग की अपेक्षा रहती है। सावद्य योग का त्याग करने से ही वे संवर होते हैं। शेष पन्द्रह भेद ये है-
*१.प्राणातिपात-विरमण संवर*
*२.मृषावाद -विरमण संवर*
*३.अदत्तादान-विरमण संवर*
*४.अब्रह्मचर्य-विरमण संवर*
*५. परिग्रह-विरमण संवर*
*६.श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह संवर*
*७.चक्षुः इन्द्रिय निग्रह संवर*
*८.घ्राणेन्द्रिय-निग्रह संवर*
*९.रसनेन्द्रिय-निग्रह संवर*
*१०.स्पर्शनेन्द्रिय-निग्रह संवर*
*११.मनो-निग्रह संवर*
*१२.वचन निग्रह संवर*
*१३.काय निग्रह संवर*
*१४.भण्डोपकरण रखने में अयतना न करना*
*१५.सुचि कुशाग्रमात्रदोष सेवन न करना*
*प्रश्न-* प्राणातिपाप आदि पन्द्रह आश्रव योग आश्रव के भेद हैं तो फिर प्राणातिपाप-विरमण आदि पन्द्रह संवर अयोग संवर के भेद न होकर व्रत संवर के भेद क्यों?
*उत्तर-* अव्रत आश्रव का कारण सावद्य योग की प्रवृत्ति है अर्थात प्राणातिपात आदि पन्द्रह आश्रव है प्राणातिपात आदि पन्द्रह पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग नहीं, यह अव्रत आश्रव है और यह पन्द्रह आश्रव प्रवृत्ति रूप है। मन,वचन और शरीर की असत् प्रवृत्ति से ही हिंसा आदि किए जाते हैं। प्रवृत्ति करना योग आश्रव है,अतएव वे सब उसी (योग आश्रव) के अंतर्गत होते हैं। उन पन्द्रह आश्रवो का प्रत्याख्यान करने से अत्याग-भावना रूप अव्रत आश्रम का निरोध हो जाता है, व्रत संवर हो जाता है । उनके प्रत्याख्यान से अयोग संवर नहीं होता, इसका कारण यह है कि यौगिक प्रवृत्ति दो प्रकार की है- शुभ और अशुभ।अयोग संवर इन दोनों का सर्वथा निरोध करने से होता है। अशुभ प्रवृत्तियों का आंशिक प्रत्याख्यान पांचवे गुणस्थान में और पूर्ण प्रत्याख्यान छठे गुणस्थान में होता है। लेकिन शुभ प्रवृत्ति तेरहवें गुण स्थान तक चालू रहती है, उनका पूर्ण निरोध मुक्त होने से पूर्व चौदहवें गुणस्थान में ही होता है। अतः प्राणातिपात आदि सावद्य.प्रवृत्तियों के प्रत्याख्यान में प्रधानतया व्रत संवर ही होता है। योग पर उसका असर सिर्फ इतना ही होता है कि मन,वाणी और शरीर की प्रवृत्ति अशुभ नहीं होती। उपेक्षादृष्टि से आंशिक रूप में अयोग संवर हो भी सकता है पर वह अयोग संवर का अंश कहलाता है, अयोग संवर नहीं।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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Day - 111
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
7:1:21
*भाग -- 22*
*७.निर्जरा*
*शुभ योग की प्रवृत्ति से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्जवलता को निर्जरा कहते हैं।*
निर्जरा एक ही है फिर भी कारण को कार्य मानकर उसके बारह भेद किए गए हैं।जिस प्रकार एक ही स्वरूप वाली अग्नि,काठ,पाषाण, गोमय तथा तृणादि रूप कारणों के भेद से अनेक प्रकार की कही जाती है, वैसे ही तपस्याओं के भेद से निर्जरा भी बारह प्रकार की कही गई है। परंतु स्वरूप की दृष्टि से वह एक ही प्रकार की है।
*निर्जरा के बारह भेद है-*
*१. अनशन-* तीन या चार आहारो का त्याग करना अनशन है। यह कम से कम एक दिन रात का और ज्यादा से ज्यादा छह मास तक का होता है।
*२. ऊनोदरी-* जितनी मात्रा में भोजन करने की रुचि है, उससे कम खाना,पेट को कुछ भूखा रखना ऊनोदरी है।
*३. भिक्षाचरी- वृत्तिह्मास-अभिग्रह करना-* जैसे साधु अभिग्रह करता है कि इतने घरों से अधिक मैं आज भिक्षा ग्रहण नहीं करूंगा,आज यदि भिक्षा में अमुक पदार्थ न मिला तो भोजन नहीं करूंगा आदि।
*४. रस परित्याग-* विगय (दूध, दही, मक्खन) आदि का परित्याग करना।
*५. कायक्लेश-* आसन आदि करना तथा शरीर के ममत्व का त्याग करना।
*६. प्रतिसंनिलता-* इंद्रियों को अपने-अपने विषयों से दूर रखना।
*यह छह भेद बाहय तपस्या के है।ये*
*आत्म शुद्धि के बहिरंग कारण है। ये प्रायः बाहय शरीर को तपाने वाले हैं, अतः इसे बाहय-तप कहा गया है।*
*७.प्रायश्चित-* जो काम आचरण के योग्य नहीं है, वैसा काम हो जाने पर उसकी विशुद्धि के लिए यथोचित अनुष्ठान करना अर्थात् अनुचित कार्य से मलीन आत्मा को शुद्ध प्रवृत्ति के द्वारा विशुद्ध करना।
*८.विनय-विनम्रता-* मानसिक वाचिक और कायिक अभिमान का परित्याग करना।
*९.वैयावृत्ति-* आचार्य आदि की सेवा करना।
*१०.स्वाध्याय-* काल आदि की मर्यादा से आत्मोन्नति-कारक अध्ययन करना।
*११.ध्यान-* चित्त को अशुभ प्रवृत्ति से हटाकर शुभ प्रवृत्ति में एकाग्र करना।
*१२.व्युत्सर्ग-* काया की प्रवृत्ति (हलन चलन आदि) तथा क्रोध आदि को छोड़ना।
*ये छह भेद अंतरंग तपस्या के हैं। ये आत्म शुद्धि के अंतरंग कारण हैं। ये आत्मा की आंतरिक प्रवृत्तियों को तपाने वाले हैं, अतः इन्हें अभ्यांतर तप कहा गया है।*
संवर का हेतु निरोध है। निर्जरा का हेतु प्रवृत्ति है।संवर के साथ निर्जरा अवश्य होती है। निर्जरा संवर के बिना भी होती है। उपवास में आहार करने का जो त्याग किया जाता है वह संवर है। उपवास में शारीरिक कष्ट होता है, शुद्ध भावना होती है, शुभ प्रवृत्ति होती है, उससे कर्म-निर्जरण होता है। उससे आत्मा उज्जवल होती है, अतःयह निर्जरा है। संवर के साथ होने वाली निर्जरा है। एक व्यक्ति भोजन करने का त्याग किए बिना ही आत्म शुद्धि के लिए भूखा रहता है, वह संवर रहित निर्जरा है। तात्पर्य इतना है कि निर्जरा शुभ-प्रवृत्ति जन्य है, चाहे संवर के साथ हो या उसके बिना हो।
*निर्जरा के दो प्रकार है-सकाम और अकाम-*
आत्म-विशुद्धि के लक्ष्य से की जानेवाली निर्जरा सकाम निर्जरा है और आत्म-विशुद्धि के लक्ष्य के बिना की जाने वाली निर्जरा अकाम निर्जरा है।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
Day - 112
8:1:21
*पच्चीस बोल का*
*चौदहवां बोल है - नौ तत्त्व के 115 भेद*
*भाग -- 23*
*८.बंध*
*बंध शब्द का अर्थ है बंधन में लेना* इस शब्द के साथ सम् उपसर्ग जोड़ दिया जाए तो इसका अर्थ हो जाता है संबंधित होना या मिलना। आत्मा के संदर्भ में बंध शब्द का प्रयोग आत्मा और कर्मपुद्गलों की संबंध-योजना का वाचक है। इस संबंध में आत्मा और कर्म की सत्ता अलग-अलग नहीं रहती वह इस प्रकार एकीभूत हो जाते हैं, जैसे तिलों में तेल होता है, दूध में घी होता है। आत्मा और कर्मों का यह संबंध प्रवाह रुप से अनादि है। संसारी जीव के सामने ऐसा समय कभी नहीं आता जब वह कर्मों के बंधन से मुक्त रहता हो।
*बंध चार प्रकार का होता है- प्रकृति बंध, स्थिति बंध,अनुभाग बंध और प्रदेश बंध।*
इन चारों प्रकारों में मूल बंध है *प्रदेश बंध* बाकी के बंध तो इसके साथ साथ होते हैं।
*प्रदेश बंध-* कर्म वर्गणा का आत्म- प्रदेशों के साथ संबंध होना प्रदेश बंध है।
*प्रकृति बंध-* आत्मा से सम्बद्ध होने वाले कर्मों में किस कर्म का क्या स्वभाव है;वह आत्मा के किस गुण को प्रभावित करेगा;इस प्रकार के वर्गीकरण का नाम प्रकृति बंध है।
*स्थिति बंध-* कौन कर्म कितने समय तक आत्मा से सम्बद्ध रहेगा; किस अवधि के बाद वह अपना फल देगा: ऐसी व्यवस्था का नाम स्थिति बंध है।
*अनुभाग बंध-* किस कर्म का बंध तीव्र परिणामों से हुआ है; किस कर्म का बंध मंद परिणामों से हुआ है; कौन कर्म तीव्र विपाकी होगा और कौन कर्म मंद विपाकी; ऐसी समायोजना का नाम अनुभाग बंध है।
जिस समय प्रदेश बंध होता है उसके साथ साथ ही शेष तीनों बंध हो जाते हैं कर्म बंधन या उसके फल भोग में किसी भी अदृश्य शक्ति का योग नहीं है। आत्मा के अपने पुरुषार्थ और कर्मों के परिणमन की विचित्रता से सारी प्रक्रिया अपने आप संपादित हो जाती है।
बंध शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है।
*प्रश्न- बंध और पुण्य पाप में क्या अंतर है?*
*उत्तर- पुण्य-पाप शुभ अशुभ कर्म की उदीयमान अवस्था है और बंध पुण्य-पाप की बध्यमान अवस्था है*।
जब तक कर्म पुद्गल आत्मा के साथ बंधे हुए हैं, सत्ता रूप में विद्यमान रहते हैं तब तक आत्मा को सुख दुख नहीं होता।जब शुभ कर्म उदय में आते हैं तब आत्मा को सुख मिलता है और कर्मों की यही उदयावस्था पुण्य है। जब अशुभ कर्म उदय में आते तब आत्मा को दुख होता है और कर्मों की यही उदयावस्था पाप है। जब तक कर्म बंधे रहते हैं तब तक बंध है और जब उन बंधे हुए कर्मों का शुभाशुभ उदय होता है तब शुभ उदय को पुण्य और अशुभ उदय को पाप कहते हैं।
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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