कथा वज्र स्वामी की



अवंति देश!


भाग 1

तुम्बवन नगर!

उस नगर में धन श्रेष्ठी रहता था। वह अत्यंत ही न्याय प्रिय और पापभीरू था। उस धन श्रेष्ठी के धनगीरी नाम का इकलौता बेटा था।पूर्व भव की आराधना और सुसंस्कारों के फलस्वरुप बाल्यकाल से ही धनगिरी के मन में संसार के प्रति विरक्ति का भाव था। योवन में काम-उन्माद की अधिक संभावना रहती है। बिहावने जंगलों को निर्भयता के पार करने में समर्थ नवयुवक भी योवन के वन में जहां तहां भटक जाते हैं।. . . परंतु विरल आत्माएं ऐसी होती है, जो योवन के प्रांगण में प्रवेश करने पर भी योवन का उन्माद उनके अंतर्मन को छू नहीं पाता है ।

कोयल से भरी कोटरी में प्रवेश करने के बाद बेदाग बाहर निकलना जैसे कठिन है, उसी प्रकार योवन के प्रांगण में प्रवेश करने के बाद भोग सुखो से अलिप्त रहना, अत्यंत ही कठिन है।

धनगिरी अलग ही माटी का इंसान था। उसके दिल में भौतिक सुखों का लेश भी आकर्षण नहीं था. . . उसे वैषयिक सुख अत्यंत ही तुच्छ प्रतीत होते थे ।

उसी नगरी में धनपाल नाम का सेठ रहता था ।उसे आर्यसमीर नाम का पुत्र और सुनंदा नाम की पुत्री थी। योवन के प्रांगण में प्रवेश करने के साथ ही चंद्रमा की सोलह कलाओं की भांति उसका रूप सौंदर्य एकदम खिल उठा था।

सुनंदा ने धनगिरी के बाह्य सौंदर्य को देखा और उसे अपने दिल में बसा दिया ।उसने मनोमन धनगीरी के साथ ही शादी करने का संकल्प कर लिया।

सुनंदा धनगिरी को दिल से चाहती थी। परंतु धनगिरी के मन में सुनंदा के प्रति कुछ भी आकर्षण नहीं था। उसके मन में तो रुप वती रानी भी एक मात्र हाड़-माँस की पुतलियां ही थी। आखिर नारी देह में क्या है? साक्षात रति की अवतार समान लगती विश्व सुंदरी नारी के देह पर से एक चमड़ी को हटा दिया जाय…….तो उस और एक नजर डालने का भी मन नहीं होगा। कितना बिभत्स है नारीदेह! जिसके भीतर हाड़- मांस-चर्बी- मल-मूत्र आदि ही तो रहा हुआ है।


भाग 2


धन गिरी के दिल में नारी देह का कुछ भी आकर्षण नहीं था। उसका मन तो मुक्ति- वधू को पाने के लिए लालयित बना हुआ था। जिस संयम की साधना से मुक्ति-वधू का संगम हो सके, उसे पाने के लिए वह अत्यंत ही आतुर था।

दीक्षा की प्रबल भावना होने पर भी पारिवारिक दबाव के आगे धनगिरी को झुकना पड़ा और अनिच्छा से भी उसे सुनंदा के साथ लग्न-ग्रंथि से जुड़ना पड़ा।

लग्न जीवन की स्वीकृति के बाद भी उसके दिल में संयम का आकर्षण पूर्ववत् बना हुआ था। संयम के लिए सानुकूल संयोगों की प्राप्ति के लिए इंतजार कर रहा था। कुछ समय व्यतीत हुआ……. और सुनंदा गर्भवती बनी।

अष्टापद महातीर्थ की यात्रा करते समय गौतम स्वामी भगवान ने जिस सामानिक देव को प्रतिबोध दिया था……..उस देव का आयुष्य पूरा हो गया।देवायु की समाप्ति के साथ ही उस देव का सुनंदा की कुक्षी में अवतरण हुआ। गर्भ में एक महान आत्मा का अवतरण होने से सुनंदा एक सुंदर स्वप्न देखा। उसका देह हर्ष से रोमांचित हो उठा……… उसका ह्रदय प्रसन्नता से भर आया।

एक महान आत्मा का गर्भ में अवतरण होता है जब चारों और वातावरण में भी प्रसन्नता छा जाती है।

धनगिरी ने सोचा, सुनंदा पुत्र के सहारे अपना जीवन निर्वाह आसानी से कर सकेगी; यह इस प्रकार विचार कर उसने सुनंदा को कहा, प्रिये! मेरा मन तो पहले से ही संयम लक्ष्मी को पाने के लिए अत्यंत ही उत्सुक था . . . यह बात मैंने पहले से ही स्पष्ट कर दी थी. . . अब तूं गर्भवती बन चुकी है, भविष्य में तेरा पुत्र तुझे सहायक बन सकेगा । और तूं मुझे दीक्षा के लिए अनुमति दे दे ।

यद्यपि सुनंदा के लिए पति के प्रेमपाश के बंधन को तोड़ना अत्यंत ही कठिन था. . . परंतु धनगिरी ने लग्न- जीवन की स्वीकृति के पहले ही जब यह बात स्पष्ट कर दी थी . . . अतः उसको बोलने के लिए कोई अवकाश नहीं था। अनिच्छा होते हुए भी उसे मुक सम्मति प्रदान करनी पड़ी ।

. . . बस, सम्मति मिलते ही धनगिरी, सिंहगिरी मुनि के पास पहुँच गया। जर्जरित धागे की भांति मोहपाश के बंधन को तोड़ कर उसने भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली। सुनंदा के भाई आर्यसमिति ने भी सिंहगिरी के पास जाकर दीक्षा ले ली!

भाग 3


वह युग था परमार्थ का; छोटे-छोटे निमित्तों को पाकर अथवा जिनवाणी का अमृत पान करने वाले नव युवा की भौतिक सुखों को तिलांजलि देकर चारित्र धर्म को स्वीकार करने के लिए कटिबद्ध हो जाते थे।

सुनंदा सुखपूर्वक अपना गर्भ वहन करने लगी। गर्भस्थ शिशु को किसी प्रकार की पीड़ा न पहूँचे . . . उसका वह पूरा -पूरा ध्यान रखने लगी । समय व्यतीत हुआ . . . और एक दिन सुनंदा ने अत्यंत ही तेजस्वी पुत्र-रत्न को जन्म दिया। सुनंदा के आनंद का पार न रहा । सुनंदा की सखियों ने आकर उसे पुत्र- जन्म की बधाई दी।

खुशहाली के माहौल में किसी सखी में बात करते हुए कहा, अरे! इस बच्चे के पिता ने दीक्षा नहीं ली होती तो यह पुत्र- जन्मोत्सव और भी अच्छा होता।

नवजात शिशु के कान में यह शब्द गिरे और इन शब्दों ने उसके मन पर जादुई असर किया। इन शब्दों के श्रवण के साथ ही उसकी अन्तश्र्चेतना जागृत हो उठी।

पूर्व के देव भव में गणधर गौतमस्वामी के मुखारविंद से पुण्डरीक-कंडरीक अध्ययन के माध्यम से जिस मोक्ष मार्ग का श्रवण किया था. . . उनके संस्कारों के फलस्वरुप नवजात शिशु के हृदय में वैराग्य भाव का बीजारोपण हो गया और उसके परिणाम स्वरुप वह चरित्र धर्म अंगीकार करने के लिए समुत्सुक बन गया। वह बालक मन ही मन सोचने लगा,अहो! मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे पिता ने भागवती दीक्षा स्वीकार की है। संयम के बिना इस संसार से आत्मा का निस्तार नहीं है . . . अतः मुझे भी यह संयम अवश्य स्वीकार करना चाहियें।

. . . परंतु मैं अपनी मां की इकलौती संतान होने के कारण वह मुझे अनुमति कैसे देगी?

वह छोटा सा बालक चरित्र धर्म की स्वीकृति के लिए अपनी माँ की अनुमति पाने का उपाय सोचने लगा ।आखिर सोचते-सोचते उसे एक उपाय हाथ लग गया।

माँ को मुझसे कंटाला आ जाए तो वह मुझे दीक्षा के लिए अनुमति प्रदान कर सकेगी- इस प्रकार विचार कर उस नवजात शिशु ने माँ को कंटाला पैदा करने के लिए निष्कारण ही जोर से रोना चालू कर दिया। नवजात शिशु के रुदन को जानकर माँ ने उस चुप करने के लिए अनेक उपाय किए. . . परंतु यह कोई वेदना-जन्य रुदन नहीं था. . . यहां तो रोने का मात्र बहाना ही था

भाग4


यदि सकारण रुदन होता तो योग्य समाधान द्वारा उस रुदन को रोका जा सकता।

सोए हुए को जगाया जा सकता है परंतु जो सोने का बहाना कर रहा हो, उसे जगाना शक्य नहीं है।

नवजात शिशु के रुदन के पीछे अन्य कोई शारीरिक पीड़ा तो थी नहीं . . .अतः सुनंदा ज्यों-ज्यों उस शिशु को शांत करने का प्रयास करती,त्यों-त्यों वह शिशु और अधिक रुदन करता। इस प्रकार सतत रुदन के द्वारा वह न तो माता को खाने देता . . . और सोने देता। सुनंदा किसी भी काम से जुड़ी होती, उसी समय वह बालक जोर – जोर से रूदन कर माँ के कार्य में विपक्ष डालने की कोशिश करता। बालक के सतत रुदन के कारण माँ सुनंदा हैरान – परेशान हो गई।

इस प्रकार छः मास का दीर्घ समय व्यतीत हो गया. . . और आचार्य सिंहगिरी अपने परिवार के साथ तुंबवन नगर में पधारे। नगरवासियों ने गुरुदेव का भावभीना स्वागत किया । गोचरी के समय जब धनगिरी मुनि गोचरी के लिए जाने लगे, तब किसी पक्षी के कलरव को सुनकर गुरुदेव ने धनगिरी मुनिवर को कहा, हे मुनिवर! आज गोचरी में सचित या अचित जो भी भिक्षा मिले, उसे ग्रहण कर लेना।

धनगिरी मुनि ने गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य की। यद्यपि जैन मुनि अपनी भिक्षा में अचित व कल्प्य पदार्थ ही बहोरते हैं; फिर भी गुरुदेव ने जब से सचित या अचित कुछ भी लेने को कहा. . . उस समय धनगिरी मुनि ने किसी प्रकार का तर्क नहीं किया। वे जानते है कि गीतार्थ गुरुदेव को कुछ भी आज्ञा देते हैं, उसके पीछे परमार्थ की भावना रही हुई होती है।

अपनें गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर धनगिरी मुनिवर, आर्यसमित मुनि के साथ गोचरी के लिए नगर में निकल पड़े।. . . भीक्षा के लिए आगे बढ़ते हुए वे सुनंदा के भवन में आ गए . . . और उन्होंने जोर से धर्मलाभ कहा ।

भाग 5


धर्म लाभ के आशीष सुनते ही सुनंदा की सखियाँ भी वहां आ गई।

सुनंदा ने कहा; मैं इस पुत्र के रुदन के कारण अत्यंत ही कंटाल गई हूं . . . अतः आप इसे ग्रहण करें । आपके पास रहकर भी यह सुखी रहता हो तो उससे मुझे खुशी होगी।

धनगिरी ने कहा, इस पुत्र को ग्रहण करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है . . . परंतु स्त्रियों के वचन का कोई भरोसा नहीं है। वह जो आज बोलती है . . .कल वापस बदल भी जाती है । अतः इस विवाद का अंत लेने के लिए किसी को साक्षी / गवाही करना जरूरी है।

उसी समय सुनंदा ने कहा, यह आर्यसमिति मुनि और ये मेरी सखियाँ साक्षी रहेगी।

सुनंदा कि इस बात को सुनकर धनगिरी मुनि ने अपनी झोली फैलाई और उसी समय सुनंदा ने अपना पुत्र धनगिरी की झोली में डाल दिया।

धनगिरी ने सोचा, अहो! गुरुदेव कितने ज्ञानी है। सचित भिक्षा के लिए भी जो सम्मति दी, उसका यही रहस्य था कि आज भिक्षा में इस बालक की प्राप्ति होगी।

धनगिरी मुनी अपनी झोली में बालक को उठाकर अपनें गुरुदेव के पास पधारे। बालक के अतिभार को वहन करने के कारण धनगिरी मुनि का हाथ, एकदम नम चूका था . . . भारी वजन को उठाकर आए धनगिरी को देखते ही सिंहगिरी आचार्य शिष्य के सन्मुख गए और उन्होंने अपनें दोनों हाथों से उस झोली को उठा दी।झोली के अतिकार को देखकर गुरुदेव बोले,अहो!यह वज्र की भांति क्या लाए हो?. . . उसी समय गुरुदेव ने अपनें आसन पर से बालक को देखा . . . गुरुदेव के मुख से निकले `वज्र’ नाम के कारण उस बालक का नाम `वज्र’ रखा गया ।

गुरुदेव ने वह बालक साध्वी जी भगवंत को सौंप दिया। साध्वी जी भगवंत ने उपाश्रय में श्राविकाएँ उस बालक का अच्छी तरह लालन- पालन करने लगी । श्राविकाएँ अत्यंत ही प्रेम और वात्सल्य से बालक की अच्छी तरह से संभाल लेने लगी।

रात्रि के समय में जब साध्वी जी भगवंत ग्यारह अंगों का स्वाध्याय करती . . . तब यह बाल वज्र साध्वी जी भगवंत के मुख से स्वाध्याय की उन गाथाओं को अत्यंत ही ध्यान पूर्वक सुनता. . . पूर्व जन्म की आराधना और तीव्र ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम के कारण, बाल वज्र को वे सारी गाथाएँ कंठस्थ हो जाती। इस प्रकार मात्र तीन वर्ष की वय में ही बाल वज्र ग्यारह अंग के ज्ञाता बन गए।

भाग 6


सुनंदा की हार

संसार के संबंध स्वार्थ से भरे हुए है। सांसारिक संबंधों में हमें जहां-तहां स्वार्थ की बदबू दिखाई देती है।

सुनंदा को जब इस बात का पता चला कि उसका बालक साध्वी जी के उपाश्रय में रहा हुआ है और वह एकदम शांत हो चुका है, वह साधु जी के पास आ पहुंची और अपने बालक को ले जाने के लिए आग्रह करने लगी।

जिस सुनंदा ने रोते हुए बालक को स्वेच्छा से त्याग किया था……. आज वही सुनंदा चूप हुए इस बालक वज्र को पुनः अपने अधिकार में लेने के लिए साध्वीजी म. के पास आग्रह करने लगी।

साध्वीजी भगवंत ने कहा, इस बालक पर हमारा कोई अधिकार नहीं है…… यह तो गुरुदेव कि अमानत है। अतः पूज्य गुरुदेव की अनुमति के बिना यह बालक हम तुम्हें सौप नहीं सकते।

कुछ समय आर्य सिंहगिरी अपने परिवार के साथ पुनः उस नगर में पधारे। सुनंदा धनगिरी के पास पहुँच गई और अपने पुत्र को ले जाने के लिए आग्रह करने लगी।

धनगिरी में समझाते हुए कहा, यह बालक मैंने अपनी इच्छा से ग्रहण नहीं किया है; अनेकों की साक्षी में तुमने यह बालक मुझे सौंपा है………….. अतः इसे वापस लेने के लिए आग्रह नहीं करना चाहिए। सज्जन पुरुषों का वचन तो पत्थर की लकीर की भांति होता है।

बहुत कुछ समझाने के बाद भी सुनंदा ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। तत्पश्चात् संघ के अग्रणी श्रावको ने उसे समझाने की कोशिश की………. फिर भी वह नहीं मानी। वह अपनी जीद्द पर अटल रही……..इतना ही नहीं अपने पुत्र को पाने के लिए वह राज दरबार में जा पहुँची। उसने जाकर राजा को शिकायत की।

सुनंदा की बात सुनकर राजा भी अचरज में पड़ गया। वह सोचने लगा, जैन साधु कभी भी अदत्त का ग्रहण नहीं करते है, तो इस घटना के पीछे रहस्य को जानना चाहिए। सुनंदा की शिकायत के बाद धनगिरी आदि मुनि ने भी जाकर राजा को वास्तविकता समझाई। राजा सोच में पड़ गये।

आखिर सोच-विचार कर राजा ने धनगिरी मुनि और सुनन्दा को समाधान देते हुए कहा, कि ‘कल तुम दोनों अपने परिवार के साथ राज सभा में उपस्थित रहना और इस बालक को भी उपस्थित रखना।’

भाग 7


बस दूसरे ही दिन बाल व्रज के न्याय को पाने के लिए सुनंदा अपनी सखियों के साथ बालक के योग्य खिलौने व भोजन सामग्री लेकर राज सभा में उपस्थित हो गई। धनगिरी मुनि भी दूसरे दिन अपने साथी मुनियों के साथ वहां उपस्थित हो गए।

दोनों पक्ष आमने-सामने बैठ गए। न्याय के लिए राजा भी बीच में बैठ गया।

ठीक समय पर राजा ने न्याय करते हुए कहा, इस बाल वज्र को सभा के बीच में उपस्थित किया जाए………. वह जिस ओर जाना चाहे, उस ओर जा सकेगा।

उसी समय सुनंदा ने कहा, ‘यह बालक इन साधु के साथ लंबे समय से परिचित है, अतः इसे पहले मैं बुलाऊंगी।’

राजा ने इस बात मैं अपनी सम्मति प्रदान की। राजा की ओर से सम्मति मिलते ही सुनंदा अपने पुत्र को आकर्षित करने के लिए मिठाई और खिलौने आदि बतलाने लगी…….. परंतु वह व्रज बाल उन खिलौनों तथा खाने-पीने की सामग्रियों से लेश भी नहीं ललचाया।

सुनंदा ने कहा, ‘बेटा! तू मेरे पास आजा। तेरे पिता तो दीक्षा लेकर मुझे छोड़कर चले गए हैं. . . . . . अब तो तूं ही मेरे लिए आधार-स्तंभ है। बेटा! तेरे बिना भविष्य में मेरा कौन सहारा है? मैंने तुझे 9 मास तक गर्भ में वहन किया है, अतः तूं मेरे पास आकर अपने ऋण के भार में से मुक्त बन! में तेरे लिए खाने-पीने-खेलने की खूब सामग्री लेकर आई हूं।

माता के आग्रह भरे इन वचनों को सुनकर बाल वज्र सोचने लगा, अहो! लोक में माता-पिता को तीर्थरूप कहा गया है, यह बात सत्य है, किंतु वह तो इसी लोक में सुख देने वाले हैं। परंतु गुरु और संघ तो परलोक में भी सुखदायी है…….. और यह संघ तो तीर्थंकरो के लिए भी आदर पात्र हैं….. अतः संघ की आराधना में मां की आराधना का समावेश हो ही जाता है…….. भूतकाल में संसार में भटकती हुई आत्मा की अनंत माताएँ हो चुकी है। इस आत्मा ने समुद्र के जल से भी अधिक मां का दूध पिया है…… यह संघ तो मोक्ष सुख प्रदान करने वाला है। अतः उसकी आराधना करूंगा तो अल्पभवो में ही मेरी आत्मा का कल्याण हो सकेगा- इस प्रकार विचार कर बाल वज्र अपने स्थान पर ऐसे ही खड़ा रहा।



भाग 8


कुछ देर बाद धन गिरी मुनि ने राजोहरण बताJते हुए कहा ,हे बाल वज्र! यदि तूं धर्म को भजना चाहता है तो कर्म रूपी रज का मार्जन करने में समर्थ इस रजोहरण को धारण कर ।कर्म के बंधन से ग्रस्त जीव अन्य सामग्री तो हर भव में सुलभ है किंतु कर्म का उच्छेद करने में समर्थ इस धर्म की प्राप्ति अत्यंत ही दुर्लभ है।

अपने उपकारी गुरु भगवंतों के वचनों को सुनकर बाल वज्र एकदम खुश हो गया।

उसी समय संघ ने रजोहरण और मुख वस्त्रिका रखते हुए कहा, है वज्र!यदि तुझे संयम ग्रहण करने की इच्छा हो, तो इस रजोहरण को ग्रहण कर अन्यथा माता ने जो वस्तुएँ प्रदान की है, उसे ग्रहण कर।

वज्र ने सोचा, माता की अपेक्षा श्री संघ मेरे लिए विशेष आदरणीय है। इस प्रकार विचार कर उसने वह रजोहरण अपने हाथ में ले लिया और उसे मस्तक पर धारण कर नाचने लगा।

उसके बाद वह बाल वज्र पिता की गोद में जाकर बैठ गया। उसी समय मंगल वाद्ययंत्रों की ध्वनि से आकाश मंडल गूंज उठा।

राजा ने भी संघ व गुरुजनों का आदर सत्कार किया।

सुनंदा ने सोचा, अहो! मेरा यह पुत्र दीक्षा ले लेगा। पहले भी मेरे भाई वह मेरे पति ने दीक्षा अंगीकार की है, अतः मंं अकेली घर पर रहकर क्या करूंगी . . . मैं भी उसी मार्ग को स्वीकार करती हूं ।इस प्रकार विचार कर उसने सिंहगिरी आचार्य भगवंत के पास जाकर भगवती दीक्षा स्वीकार कर ली।

चरित्र प्रभाव
छः वर्ष की लघवयु में बाल वज्र को भागवती दीक्षा प्रदान की गई। क्रमशः वज्रमुनि आठ वर्ष के हुए।

एक बार वज्रमुनि को साथ में लेकर आचार्य भगवंत ने अवंती की ओर विहार प्रारंभ किया। विहार दरम्यान अचानक वर्षा होने लगी। उस समय सभी साधु यक्षमंडप में आ गए ।उस समय वज्रमुनि के सत्त्व की परीक्षा करने के लिए उनके पूर्वभव का मित्र तिर्यंक् जृम्भक देव वहां पर आ गया आया और उसने सार्थवाह का रूप धारण कर छावनी डाल कर वहां पर रहा।




भाग 9

अपकाय व वायुकाय की विराधना के भय से वे साधु उस यक्ष मंडप में रहकर आराधना करने लगे।

इस बीच उस सार्थवाह ने आकर गुरुदेव को कहा, हे प्रभो! मुझ पर कृपा कर कर आप अपनें साधु को भिक्षा के लिए हमारे तंबू में भेजें।

गुरुदेव ने बाहर नजर की, तब पता चला कि वर्षा बंद हो चूकी है।

आचार्य भगवंत ने वज्रमुनि को भिक्षा के लिए भेजा।

उसी समय वज्रमुनि की परीक्षा के लिए उस देव ने सूक्ष्म जल बूंदों की वृष्टि प्रारंभ की। तत्काल वज्रमुनि वहीं पर रुक गए। कुछ देर बाद उस देव ने जल बिंदुओं का संहारण कर लिया। तत्पश्चात वज्रमुनि तंबू में पधारे।

वज्रमुनि ने अपने श्रुतज्ञान का उपयोग लगाकर द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव का निरीक्षण किया और वे सोचने लगे, अहो! इसके पैर भूमि को स्पर्श नहीं कर रहे हैं. . . इसके नेत्र भी स्थिर है तथा यह जो अन्न बहोरा रहा है, वह अन्न भी इस क्षेत्र में सुलभ नहीं है । इन बातों का विचार करते हुए वज्रमुनि ने निर्णय किया कि सचमुच यह तो देव-पिंड होना चाहिए और देव पिंड साधु के लिए अकल्प्य कहा गया है ।इस प्रकार निर्णय कर वज्रमुनि ने कुछ भी बहोरने से इंकार कर दिया।

बाल वज्रमुनि के इस उत्कृष्ट सत्त्व बल को देखकर वह देव प्रसन्न हो गया । उसने वज्रमुनि को वैक्रियलब्धि प्रदान की।

दूसरी बार पुनः किसी देव ने वज्रमुनि की परीक्षा की।उस परीक्षा में उस देव ने वणिक का रूप किया और घेबर का दान करने का लगा . . . परंतु वज्रमुनि पुनः उस वणिक के देव स्वरूप को पहचान गए।

वज्रमुनि ने वह देव- पिंड लेने से इंकार कर दिया । परिणाम स्वरुप उस देव ने वज्रमुनि को आकाशगामिनी विद्या प्रदान की।

भाग 10

अन्य मुनियों को कहाँ पता था कि ये वज्रमुनि वय में बाल होते हुए भी श्रुत के पारगामी हैं।
. . . . यद्यपि वज्रमुनि अत्यंत ही गंभीर थे, परंतु छोटी सी एक घटना ने गुरुदेव की भ्रांति हटा दी और उन्हें ख्याल आ गया कि वज्रमुनि तो महाज्ञानी है। वह घटना इस प्रकार बनी।

एक बार अन्य सभी मुनि गोचरी के लिए बाहर गए हुए थे और गुरुदेव सिंहगिरी स्थंडिल भूमि पर गए हुए थे । उस समय वसति (बस्ती) में वज्रमुनि अकेले ही थे।

कुतुहुल वश वज्रमुनि ने सभी मुनियों की उपाधि मंडलाकार स्थापित कर दी और स्वयं गुरु की भांति (वाचनाचार्य बनकर) बीच में बैठकर ग्यारह अंग के गंभीर सूत्रों पर प्रभावशाली ढंग से वाचना देने लगे। थोड़ी ही देर बाद सिंहगिरी वसति के निकट आ पहुंचे। उन्हें दूर से वज्रमुनि की वाचना के शब्द सुनाई दिए । वे सोचने लगे, अहो! क्या सभी मुनि बाहर से आ गए हैं और वज्र उन्हें वाचना दे रहा हैं? गुरुदेव ने बंद द्वार के छिद्र में से झांककर देखा – उन्होंने अकेले वज्रमुनि को अंग गत पदार्थों पर वाचना देते हुए देखा। उन्हें अत्यंत ही आश्चर्य हुआ। अहो! यह बाल मुनि ग्यारह अंगो का ज्ञाता है ? परंतु आश्चर्य है कि अभी तक इसने अपनें ज्ञान का भी प्रदर्शन नहीं किया। अहो! इसकी गंभीरता कितनी है?

यदि मैं उपाश्रय में अचानक प्रवेश करूंगा तो यह शर्मिंदा हो जाएगा, इस प्रकार विचार कर सिंहगिरी गुरुदेव ने द्वार पर आकर जोर से निसीहि, निसीहि, निसीहि कहां। अपनें गुरुदेव के इन वचनों को सुनकर वज्रमुनि ने गुरुदेव के आगमन को पहिचान लिया। तत्क्षण उसने सारी उपधि नियत स्थान पर रख दी और वे तत्काल गुरुदेव के सम्मुख आकर गुरुदेव की चरणरज दूर करने लगे और उसके बाद गुरुदेव को योग्य आसन पर बिठा उनका पाद प्रक्षालन करने लगे


बाल्यवय में ही वज्रमुनि ग्यारह अंगों के ज्ञाता बने हुए थे। परंतु उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं किया। अन्य किसी भी मुनि को वज्रमुनि की विद्वता का कोई परीचय नहीं था।. . . अतः वज्रमुनि प्राथमिक प्रारंभिक सूत्रों के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान नहीं देते, तब स्थविर मुनि ,वज्रमुनि को अध्ययन करने के लिए प्रेरणा देते। वे कहते, वज्रमुनि! यह लघुवय अध्ययन की वय है । इस वय में अध्ययन करोगे तो तुम्हें विशेष लाभ होगा। इस वय में अध्ययन की उपेक्षा करना उचित नहीं है।


भाग11

ज्ञान के साथ ही वज्रमुनि की गंभीरता देखकर सिंहगिरी गुरुदेव अत्यंत ही प्रसन्न हुए। तत्पश्चात अन्य मुनियों को उनकी ज्ञान की गरिमा का ख्याल कराने के लिए अपने विनीत शिष्यों को बुलाकर कहा, में चार दिन के लिए आस-पास के गांवों में विहार करना चाहता हूँ।

शिष्यों ने कहा , गुरुदेव! हम भी आपके साथ चलेंगे।

गुरुदेव ने कहा, आधा कर्म आदि गोचरी संबंधी दोषों की संभावना होने के कारण सभी को साथ चलना उचित नहीं है।

शिष्यों ने कहा, भगवंत! तो फिर हमें वाचना कौन देगा?

गुरुदेव ने कहा, यह वज्रमुनि तुम्हें वाचना देगा।

शिष्यों ने गुरुदेव के इस वचन को तत्काल तहत्ति कहकर स्वीकार दिया, परंतु उन्होंने लेश भी तर्क नहीं किया कि यह बाल वज्र हमें क्या वाचना देगा।

अहो! ज्ञानी गुरुदेव के वे शिष्य कितने विनीत और समर्पित होंगे। लेश भी तर्क- वितर्क किए बिना उन्होंने गुरुदेव के वचन को तहत्ति कहकर स्वीकार दिया।

सिंहगिरी गुरुदेव के विहार करने के बाद वे सभी मुनिवर बाल वज्रमुनि के पास ग्यारह अंग गत सूत्रों की वाचना लेने लगे। वज्रमुनि अपनी वाक प्रतिभा के द्वारा इस प्रकार सरल विधि से अंगगत पदार्थों को समझाने लगे कि अल्प बुद्धिवाले शिष्य भी अच्छी तरह से सूत्र के रहस्यों को समझने लग गए।

कुछ दिनों के बाद जब गुरुदेव वापस लौटे तब उन्होंने पूछा, अध्ययन कैसे चल रहा है?

सभी मुनियों ने कहा, आपकी कृपा से हमारा अध्ययन अत्यंत ही सुखपूर्वक चल रहा है। अब हमेशा के लिए वज्रमुनि ही हमारे लिए वाचनाचार्य हों।

शिष्य मुनियों के इन शब्दों को सुनकर सिंहगिरी ने कहा, इसकी अद्भुत गुण गरिमा और ज्ञान को बतलाने के लिए ही मैंने यहां से विहार किया था।

उसके बाद वज्रमुनि ने भी तपश्र्चर्यादि विधिपूर्वक गुरुदेव के पास से वाचना ग्रहण की और गुरुदेव के पास जितना ज्ञान था वह ज्ञान ग्रहण किया।


भाग12

महान ज्ञानी

आर्य सिंहगिरी अपने परिवार के साथ विहार करते हुए आगे बढ़ रहे थे।

इधर अवंती नगर में दशपूर्वधर महर्षि भद्रगुप्त सूरी जी म. बिराजमान थे।

आर्य सिंहगिरी ने सोचा, वज्र मुनि के क्षयोपशम अत्यंत ही तीव्र है, यह वज्र पुर्वो का अभ्यास करने में समर्थ है। अवंती में बिराजमान भद्रगुप्त सूरिजी दशपूर्वो के ज्ञाता है। यह वज्र भद्रगुप्त सूरी जी म. के पास ज्ञानार्जन कर सकता है।

इस पर विचार कर आर्य सिंहगिरी ने वज्रमुनि को भद्रगुप्त सूरिजी म. के पास जाकर पूर्वो का अभ्यास करने के लिए आज्ञा प्रदान की।

गुरु आज्ञा स्वीकार कर अन्यमुनि के साथ वज्रस्वामी ने अवन्ति देश की और अपनी विहार यात्रा प्रारंभ कर दि।क्रमशः आगे बढ़ते हुए वज्रमुनि उज्जयिनी नगरी के बाहर पहुंच गए।

इधर प्रभात समय मे आचार्य भद्रगुप्त सूरिजी म. अपने शिष्यो को कहने लगे, आज मैंने एक सपना देखा। मेरे हाथों में रहा दूध का पात्र कोई पी गया और उसने तृप्ति का अनुभव किया। इस स्वप्न के आधार पर में अनुमान करता हूँ की आज किसी बुद्धिशाली साधु का आगमन होना चाहिए, जो मेरे पास रहे दशपूर्वो को ग्रहण कर सकेगा। अहो! आज किसी योग्य पात्र की प्राप्ति होगी और मेरे दश पूर्व का संग्रह सफल सार्थक बनेगा।

आचार्य भगवंत अपने शिष्यों के साथ वार्तालाप कर रहे थे तभी वज्रमुनि ने वसति में प्रवेश किया। स्वप्न में द्रष्ट आकृति-प्रकृति के अनुसार ही वज्रस्वामी को देखकर भद्रगुप्त सूरिजी म. एकदम प्रसन्न हो गए।

उसी समय आचार्य भगवंत ने कहा, मुनिवर! तुम कुशल हो न! तुम्हारी विहार यात्रा कुशलतापूर्वक चल रही है न? तुम्हारे गुरुदेव सकुशल है न? इस बार अचानक अवंती नगर में आने का विशेष प्रयोजन?

हे भगवन! आप श्री ने पहले ही कुशलता पूछी…… यह सब आप श्री का प्रसाद है। आपश्री की असीम कृपा से कुशल मंगल है। पूज्यपाद गुरुदेव श्री सकुशल है और उन्होंने दशपूर्वो के अध्ययन के लिए आपके पास भेजा है।


भाग 13


वज्रमुनि की इस बात को सुनकर आचार्य भगवंत एकदम खुश हो गए. . . और उन्होंने शुभदिन शुभमुहूर्त में ज्ञानदान प्रारंभ किया। वज्रमुनि विनय पूर्वक अध्ययन करने लगे. . . इसके परिणाम स्वरुप अल्पकाल में हीं वज्रमुनि दशपूर्वों के ज्ञाता बन गए।

तत्पश्चात भद्रगुप्त सूरी जी म. साहब की आनुज्ञा लेकर वज्रमुनि ने दशपुर नगर की और अपना प्रयाण प्रारंभ किया। क्रमशः आगे बढ़ते हुए वज्रमुनि दशपुर नगर में पहुंचे। वहां पर पूर्व भव के मित्र जृंभक देवताओं ने मिलकर वज्रमुनि के दशपूर्व ज्ञान की प्राप्ति का भव्य महोत्सव कीया। गुरुदेव ने योग्य जान कर उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। तत्पश्चात
सिंहगिरी गुरुदेव ने अनशन व्रत स्वीकार किया और अत्यंत ही समाधिपूर्वक काल धर्म प्राप्त कर स्वर्ग में गए।

रुक्मिणी का प्रतिबोध

पृथ्वी तल पर विचरते हुए वज्रस्वामी अपने प्रवचन लब्धि से भव्य जीवो को प्रतिबोध देने लगे। 500 शिष्यों के गुरु-पद पर प्रतिष्ठित वज्र स्वामी आचार्य भगवंत जहां भी जाते, वहां अद्भुत शासन प्रभावना होती। अनेक भव्यात्माएँ देशविरति ओर सर्वविरति धर्म का स्वीकार करती।

इधर पाटलिपुत्र नगर में धन-धान्य से समृद्ध एक सेठ रहता था, उस सेठ की पुत्री का नाम रुक्मिणी था। उस नगर में वज्र स्वामी साध्वियाँ श्राविकाओं के आगे धर्मोपदेश देती। धर्मोपदेश के अंतर्गत वे वज्रस्वामी के रूप-लावण्य सौभाग्य आदि गुणों का वर्णन करती। वज्र स्वामी के रूप- लावण्य आदि गुणों को सुनकर उस रुक्मिणी ने निश्चय कर लिया कि इस जीवन में वज्रस्वामी के साथ ही विवाह करना है।

रुक्मिणी के इस संकल्प को जानकर साध्वी जी भगवंत ने उसे समझाते हुए कहा, रुक्मिणी! तुम्हारा यह संकल्प उचित नहीं है। जैन मुनि तो स्त्री के सर्वथा त्यागी होते है। उनके साथ पाणी- ग्रहण करने का तेरा संकल्प कभी साकार नहीं हो सकेगा।


 भाग 14


रुक्मिणी ने कहा, मैं अपना प्रयत्न करूंगी। प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिली तो मैं भी दीक्षा अंगीकार कर लूंगी।

वज्रस्वामी अपने विशाल परिवार के साथ विहार करते हुए पाटलिपुत्र नगर में पधारे। वहा के राजा ने भव्य महोत्सव पूर्वक आचार्य भगवन्त का नगर प्रवेश कराया।

अनेक साधुओं के रूप में समानता होने से राजा वज्रस्वामी को पहचान नहीं पाया। अन्य साधुओ के द्वारा वज्रस्वामी का परिचय प्राप्त होने पर राजा ने अत्यंत ही भावपूर्वक वज्रस्वामी को वंदन प्रणाम किया। तत्पश्चात वैराग्यपूर्ण धर्मदेशना दी।

वज्रस्वामी के आगमन को सुनकर रुक्मिणी ने लज्जा का परित्याग कर अपने पिता को कहा, में इस जीवन में एकमात्र व्यक्ति के साथ ही लग्न करना चाहती हूं, यदि मेरी इच्छा पूर्ण नहीं होगी तो मैं मृत्यु को वर लूंगी।

पुत्री की इस बात को सुनकर धन श्रेष्ठी , दिव्य आभरण एवं अलंकारों से अलंकृत अपनी पुत्री को लेकर वज्रस्वामी के पास आया।

लोक मुख से वज्रस्वामी के अद्भुत रूप लावण्य आदि गुणों का वर्णन सुनकर धन श्रेष्ठि अत्यंत ही खुश हो गया। और सोचने लगा, अहो! मेरी पुत्री धन्य है जो इस प्रकार के श्रेष्ठ व रूपवान वर को वरना चाहती है।

तत्पश्चात धन श्रेष्ठी ने वज्रस्वामी को वंदन किया……….. और धर्मोपदेश सुनने के बाद हाथ जोड़कर विनती करते हुए बोला, मेरी यह पुत्री आप में आसक्त हैं,; अतः इसके साथ पाणिग्रहण कर मुझे कृतार्थ करें। इस कन्या के पाणिग्रहण के प्रसंग में मैं एक करोड़ स्वर्ण प्रदान करूंगा।

धन सेठ के इन शब्दों को सुनकर वज्रस्वामी ने कहा, संसार के भोग सुख नदी के जल तरंग तथा हाथी के कान की भांति अत्यंत ही चपल व चंचल है। संसार के भोग सुख तो पूण्य रूपी लक्ष्मी में रोग पैदा करने वाले हैं। स्त्री और लक्ष्मी का दान तो खूब सोच-विचार कर देना चाहिए। मेरा शरीर तो हाड़-मांस, रुधिर व चरबी आदि से पूरा-पूरा भरा हुआ है उसमे आसक्त होना तो सिर्फ मूर्खता है


भाग 15


यदि तुम्हारी पुत्री योग्य वर को ही वरना चाहती है तो वह संयम रूपी वर के साथ पाणीग्रहण करें, जो देवों को भी दुर्लभ है और जिसके आगे सभी सद्गुण किंकर सामान है। रूप और लक्ष्मी भी जिसकी दासी है…. सभी क्रियाएं भी जिसके आगे तुच्छ है। जिसमें किसी प्रकार का दूषण नहीं है…… और जिसकी भक्ति से मोक्ष भी सुलभता से प्राप्त हो सकता है।

इस संसार में जीवन के साथ मृत्यु का भय जुड़ा हुआ है- योवन के साथ वृद्धावस्था का भय लगा हुआ है। देह के सौंदर्य के साथ रोग का भय जुड़ा हुआ है। अंजलि मे रहा जल जिस प्रकार प्रतिक्षण कम होता जाता है. . . . . . . उसी प्रकार अपना आयुष्य प्रतिक्षण नष्ट होता जाता है।

वज्रस्वामी के वैराग्य सभर उपदेशो को सुनकर रुक्मणी का मोह रूपी ज्वर शांत हो गया और लग्न के लिए आई हुई रुक्मिणी ने भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली।

वज्रस्वामी की वाणी सुनकर अनेक भव्यआत्माएं भी जिनधर्म के प्रति आदर वाली बनी।

वज्रस्वामी ने आचारंग सूत्र के महापरीज्ञा अध्ययन में से आकाशगामिनी विद्या का उद्धार किया। ………….. परंतु भविष्य में सभी प्राणी अल्प सत्त्ववाले होंगे, यह जानकर उन्होंने वह विद्या किसी साधु को प्रदान नहीं की।

एक बार वज्रस्वामी विहार करते हुए उत्तर दिशा की ओर आगे बढ़े। वहां पर भयंकर अकाल पड़ा हुआ था। भयंकर दुष्काल के कारण संघ की स्थिति अत्यंत ही दयनीय थी।

संघ ने वज्रस्वामी को विनती करते हुए कहा, दुष्काल के कारण हमारी स्थिति अत्यंत ही खराब है। दुष्काल के साम्राज्य में पुनः पुनः भोजन करने पर भी तृप्ति नहीं होती है। भिक्षुओ के भय से श्रेष्ठिजन भी अपना द्वार नहीं खोलते हैं। क्रय-विक्रय का व्यवहार भी दुर्लभ हो गया है। विहार करके आये हुए साधुओं के लिए भी शुद्व अन्न की प्राप्ति दुर्लभ हो गई है। इस संघ का उद्धार करने में आप ही समर्थ हो।

संघ की इस दयनीय स्थिति का वर्णन सुनकर वज्रस्वामी ने सोचा सामर्थ्य होने पर भी यदि संघ का रक्षण न किया जाए तो वह व्यक्ति दुर्गतिगामि बनता है; यह संघ तो तीर्थंकरों को भी पूज्य है।


भाग 16


इस प्रकार विचार करते हुए वज्रस्वामी ने अपनी लब्धि के बल से चक्रवर्ती के चर्मरत्न की भांति एक लंबा पट्ट बिछाया और उस पर पूरे संघ को उठाकर आकाशगामिनी विद्या के बल से आकाश में उड़ने लगे। इस बीच कोई शय्यातर किसी काम के लिए अन्यत्र गया हुआ था। वापस लौटते समय वज्रस्वामी को संघ के साथ उड़ते देखकर वह बोला, हे प्रभो! मैं आपका शय्यातर था……. अभी हम साधर्मिक है तो मुझे ऐसा स्थान में अकेले छोड़कर क्यों जाते हो?

इस प्रकार शय्यातर की इस बात को वज्रस्वामी ने सूत्राथ का स्मरण किया……जो साधार्मिक, स्वाध्याय, चरित्र व धर्म की प्रभावना में तत्पर हो उन्हें मुनि अवश्य तारे।

आगम के इस पाठ को याद कर वज्रस्वामी ने श्रावक को भी अपने विद्या पट्ट में ले लिया। उसके बाद वज्रस्वामी सकलसंघ के साथ सुकाल प्रदेश की ओर आगे बढ़ने लगे।

उस पट्ट को लेकर वज्रस्वामी महापुर नगर में पधारे- जहा सुकाल होने से संघ के सभी सदस्य सुखी बने

शाशन प्रभावना

महापुर नगर का राजा और वहां की प्रजा बौद्धधर्मी थी। इस कारण जैन और बौद्धों के बीच परस्पर वाद होता रहता। इस प्रकार जब पर्युषण महापर्व आए, तब प्रजाजनों ने जाकर राजा को निवेदन करते हुए कहा, हे राजन! जैनों का वार्षिक पर्व आया हुआ है, अतः माली लोगों के पास से सभी फूल अपने मंदिर में मंगवा दे। जैनों को फूल नहीं मिलने से उनका अभिमान दूर हो जाएगा।

प्रजाजनों की इस बात को सुनकर राजा ने मालियों को यह आज्ञा कर दी। परिणाम स्वरुप जैनों को प्रभु भक्ति के लिए कुछ भी फुल नहीं मिल पाए।

लोगों ने जाकर वज्रस्वामी को बात करते हुए कहा, तीर्थ कि उन्नति के लिए साधु भी हमेशा प्रयत्नशील होते हैं, अतः आपको भी शासन की उन्नति के लिए कुछ प्रयत्न करना चाहिए।

भाग 17


लोगों की इस बात को सुनकर आकाशगामिनी विद्या के बल से वज्रस्वामी माहेश्वरी वन में गए। उस वन में धनगिरी का मित्र तडित नाम का माली था। वज्रस्वामी के आगमन को देखकर वह खुश हो गया और बोला, आपके दर्शन कर आज में कृत-कृत्य हो गया हूं……. मेरे योग्य सेवा कार्य फरमाइए।

वज्रस्वामी ने कहा, कल हमारा वार्षिक पर्व है, अतः उसके लिए महापुर नगर में प्रभु-भक्ति के लिए पुष्प चाहिए। यह सुनकर उस माली ने 20 लाख पुष्प प्रदान किए उन्हें लेकर वे लघु हिमवंत पर्वत पर गए और वहां शाश्वत जिन प्रतिमाओं को वंदन कर वहां के देवता के पास से तथा बीच मार्ग में हुताशन क्षय के वन देवता के पास से फूल लिए। इन सब फूलों को लेकर भी महापुर नगर में पधारे और वहाँ पर भव्यातिभव्य प्रभु भक्ति का महोत्सव किया।

वज्रस्वामी के इस प्रभाव को देखकर बौद्धराजा भी अत्यंत ही प्रभावित हुआ। राजा तथा प्रजाजनों ने जैन धर्म का स्वीकार किया। जैन शासन की अद्भुत प्रभावना हुई।

अनशन स्वीकार

अपने चरण कमलों से पृथ्वीतल को पावन करते हुए वज्रस्वामी अपने उपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवो पर उपकार करने लगे। वे वज्रस्वामी क्रमशः विहार करते हुए दक्षिण पथ में पधारें। वहां एक बार उन्हें श्लेष्म की तकलीफ हुई। शिष्यो के आग्रह से उन्होंने औषध के रूप में सूंठ का टुकड़ा कान पर रख दिया। और फिर वे स्वाध्याय में मग्न हो गए। इस कारण वे सूंठ का टुकड़ा वापरना भूल गए। प्रतिक्रमण समय कान की प्रतिलेखना करते समय जब वह सूंठ का टुकड़ा नीचे गिरा-तब वे सोचने लगे, अहो! लगता है अब मेरा आयुष्य स्वल्प ही है।

अपने आयुष की अल्पता जानकर वज्रस्वामी ने अनशन करने का निश्चय किया।

उस समय 12 वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा वज्रस्वामी ने अपने शिष्य वज्रसेन आदि को अन्यत्र विहार की आज्ञा दी। भयंकर दुष्काल के कारण भिक्षा की दुर्लभता देखकर वज्रसेन मुनि ने कहा मैं विद्या के बल से भिक्षा लाकर तुम्हारा पोषण करूँगा। और यदि विद्यापिंड पसंद न हो तो अनशन व्रत स्वीकार करना चाहिए।

एक छोटे से बालमुनि को किसी बहाने से छोड़कर वज्रस्वामी अपने 500 शिष्यो के साथ पर्वत पर चढ़ने लगे। उस समय इस बालमुनि ने सोचा, यदि मैं भी पर्वत पर चढूँगा तो अपने गुरुदेव को अप्रीति होगी, इस प्रकार विचार कर पर्वत के निम्न भाग में ही बालमुनि ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर अनशन व्रत स्वीकार कर लिया। मक्खन के पिंड की तरह बालमुनि का कोमल देह गल गया और समाधि मृत्यु प्राप्त करने देवलोक में चले गए। बालमुनि के अपूर्व सत्त्व से प्रसन्न हुए देवताओं ने आकर उनका महोत्सव किया

भाग18


जब अन्य मुनियों को बालमुनि के अद्भुत पराक्रम का पता चला तो वे और भी अधिक वैराग्य वाले हुए और उन सभी ने अनशन व्रत स्वीकार कर लिया।

वज्रस्वामी को चलित करने के लिए किसी मिथ्यादृष्टि देवी ने आकार उपसर्ग करने प्रारंभ किए। किन्तु वज्रस्वामी लेश भी चलित नही हुए। आखिर देवी की अप्रीति को जानकर वज्रस्वामी अन्य स्थान पर गए और वहां पर क्षेत्र देवता का कार्योत्सर्ग कर अनशन कर लिया। अत्यंत ही समाधि पूर्वक कालधर्म को प्राप्त कर स्वर्ग में गए। इंद्र ने आकर उस स्थान पर तीर्थ की स्थापना की और उसे वंदन किया।

वज्रसेन स्वामी ने अपने शिष्य परिवार के साथ सोपारक नाम के नगर में पधारें। उस नगर में भयंकर दुष्काल के कारण अन्न की प्राप्ति अत्यंत ही दुर्लभ बनी हुई थी।

वज्रसेन स्वामी जिनदत्त श्रेष्ठि के घर पधारे। सेठ और सेठानी ने गुरु भगवंत को भावपूर्वक वंदना की। वज्रसेन स्वामी ने सेठ को विष घोटते हुए देखकर पूछा, यह क्या कर रहे हो?

सेठ ने कहा 12 वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा हुआ है; धन देने पर भी थोड़ा भी अनाज नहीं मिल पा रहा है। एक लाख द्रव्य देकर इतना सा धान्य मिला है। अतः इस धान में विष मिलाकर परिवार सहित प्राण त्याग करने की इच्छा है।

गुरुदेव ने कहा, तुम्हें प्राण त्याग करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कल ही अनाज से भरे हुए वहान आ जाएंगे।

सेठ ने कहा, आपकी बात सत्य होगी तो मेरे चारों पुत्र दीक्षा अंगीकार कर लेंगे।

बस दूसरे ही दिन अन्न से भरे वाहनों के आगमन के समाचार मिल गए। प्राण बचने से सेठ बड़ा खुश हो गया। बाद में सेठ ने अपने चारों पुत्रों के साथ भागवती दीक्षा अंगीकार कर दी। आगे चल कर चारो पुत्र शास्त्र पारगामी बने। वे चारों नागेंद्र चंद्र, विद्याधर और निवृत्ति आचार्य बने। नागेंद्र आदि आचार्य से चार शाखाएं निकली। आज भी सोपरक नगर में उन चारों की मूर्तियां विद्यमान है।

भाग 19





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