कथा साध्वी पुष्पचूला

 [ 34 ]🌹🌹🌹 साध्वी पुष्पचूला 🌹🌹🌹

साध्वी पुष्पचूला का चरित्र गुरुसेवा का अप्रतिम उदाहरण है । पृथ्वीपुर के राजा पुष्पकेतु और रानी पुष्पावती के यहाँ जुड़वाँ पुत्र-पुत्री का जन्म हुआ । पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा । दोनों भाई - बहन के बीच अधिक स्नेह -भाव होने से वे एकदूसरे से क्षणभर का भी वियोग सहन नहीं कर सकते थे । पुत्र -पुत्री जवान होने पर राजा ने उनके विवाह का विचार किया । पर प्रश्न यह खड़ा हुआ कि दोनों क्षणभर के लिए भी अलग नही रह सकते थे , तो फिर किस तरह अन्य के साथ अलग रहकर जीवन बीता सकेंगे ? गहरे विचार के बाद राजा ने विवशता से दोनों को परस्पर के अनुरुप मानकर उनके विवाह की योजना की ।


इस घटना ने रानी पुष्पावती के हृदय में मंथन , वेदना एवं विचार की भीषण आँधी जगाई । रानी को ऐसे अनुराग से भरे हुए संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ । उन्होंने तपश्चर्या की ओर वे स्वर्गलोक की देवी बन गई ।


समय बीतने के पश्चात पृथ्वीपुर की गद्दी पर राजा पुष्पचूल और रानी पुष्पचूला बिराजमान हुए । देवी बनी हुई माता ने अवधिज्ञान से पुत्र और पुत्री के हीन कर्म देखे । व्यथित देवी ने रानी पुष्पचूला को स्वर्ग एवं नरक के स्वप्न बताये । तब रानी पुष्पचूला ने आचार्य अरणिकापुत्र से इन स्वपनों का अर्थसंकेत पूछा । आचार्यश्री ने इन स्वपनों का मर्म उजागर करते हुए कहा कि अच्छे कर्म करनेवाले की आत्मा उसकी मित्र है और दुष्कर्म करने वाले की आत्मा उसकी शत्रु है । रानी पुष्पचूला के हृदय में पश्चाताप का विपुल झरना बहने लगा । आचार्य अरणिकापुत्र की धर्मदेशना ने उसकी आँखों के आगे के मोह एवं अज्ञान के पटल दूर कर दिये । रानी पुष्पचूला ने अपने पति से संयम धारण करने की अनुमति माँगी , राजा ने दीक्षा की संमति दी , पर साथ ही ऐसी शर्त भी रखी कि दीक्षा लेने के पश्चात मुझसे ही गोचरी प्राप्त करना ।


इस समय आचार्य अरणिकापुत्र ने अपने श्रुतज्ञान से भविष्य में आने वाले भीषण दुष्काल को देखा । ऐसा दुःखद भविष्य जानकर उन्होंने अपने शिष्यों को दूर-दूर के प्रदेशों में भेज दिये , किन्तु आचार्यश्री अरणिकापुत्र को वृद्धावस्था के कारण इसी स्थान पर रहना पड़ा । साध्वी पुष्पचूला ने अपार श्रद्धा से गुरुसेवा की । इसके परिणामस्वरुप उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । एक बार बरसती हुई मूसलाधार बरसात में साध्वी पुष्पचूला बाहर से गोचरी लेकर आई । गुरु ने उन्हें इस बारे में पूछा , तब अचेतन वृष्टि में आहार लाने के अपने कार्य की यथार्थता बताई ।


इस समय गुरु को ज्ञात हुआ कि पुष्पचूला तो केवलज्ञान को प्राप्त कर चुकी है । गुरु ने उन्हें केवली जानकर उनकी सेवा लेने के लिए क्षमा माँगी । साध्वी पुष्पचूला तो महान गुरु का उदार भाव देखकर अंतर से धन्य हो गई । क्षमा तो जीवन के आनंद एवं तप का बसंत है । बसंत का आगमन होते ही प्रकृति जिस प्रकार सोलहों कला से खिल उठती है , वैसे ही क्षमा को जीवन में स्थान देनेवाले की आत्मा के गुणों का बसंत खिल उठता है । क्षमा का जन्म होता है हृदय की व्यापकता में से ।उसका विचार उद्भव होता है गुणों की समृद्धि में से और इसके परिणामस्वरुप प्राप्त होती है समतारसभरी चित्तशांति ।


भगवान महावीर के समय में हुई साध्वी पुष्पचूला का चरित्र जीवन में सत्कर्मो के शुभ फल और दुष्कर्मो के कडुए या अशुभ फल दर्शाता है । पुष्पचूला के दुष्कर्मो ने उसे कुमार्ग बताया । माता ने उसे सन्मार्ग बताकर उचित मार्ग पर मोड़ा । साध्वी पुष्पचूला के जीवन में गुरुआज्ञा , गुरुसेवा और गुरुभक्ति की महिमा दृष्टिगोचर होती है । अपनी श्रद्धापूर्वक की सेवा के कारण साध्वी पुष्पचूला को केवलज्ञान प्राप्त होता है । साथ ही जिनशासन में व्याप्त लघुता साधु अरणिकापुत्र की क्षमायाचना में प्रकट होती है । यह लघुता ही प्रभुता बनती है । अपनी क्षति का ध्यान होते ही आचार्य महाराज ने सामने आकर सेविका एवं शिष्या समान साध्वी की क्षमा माँगी । ' क्षमा वीरस्य भूषणम् ' कहलाता है । वीर और व्यापक हृदय धारण करनेवाला ही सच्ची क्षमा माँग सकता और दे सकता है ।


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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा

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