भाषा


आइये पहले हम जो शब्द  इनमें प्रयुक्त हुए है , उन्हें समझ  समझ कर फिर आगे बढ़े , कल भाषा की बात आई तो जानें

भाषा ,में प्राकृत भाषा का महत्व

मानव जन्म के साथ भाषा का विस्तार एवं विकास अवश्य ही हुआ है ।

प्राकृत भाषा आर्य परिवार से सम्बन्ध रखती है।

प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति:

प्राक कृत् पद से प्राकृत है। प्राकृत् शब्द का अर्थ पूर्वकृत् लोगों के व्याकरण आदि संस्कार रहित सहज/स्वाभाविक वचन व्यवहार प्रकृति है, इससे उत्पन्न जो है वह प्राकृत है। जो भाषा प्रकृति से, स्वभाव से, स्वयं ही सिद्ध है, उसे प्राकृत कहते हैं।

प्राकृत भाषा की लोकप्रियता केमुख्य तीन  कारण है

1,ध्वन्यात्मकता और व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जन सामान्य के बोल चाल की भाषा रही है। 

2      विशाल जन समूह को मातृभाषा के रूप में प्राकृत ही उपलब्ध हुई ।महावीर, बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर तक के ये  ये सामान्य लोगों की भाषा थी , 

 जिस प्रकार वैदिक भाषा को आर्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा को आगम भाषा एवं आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है।

 वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी। इस लिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्य प्राप्त हुआ।

[३] प्राकृत भाषा के इस जनाकर्ष के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया। अभिज्ञानशाकुन्तलम् की ऋषिकन्या शकुन्तला, नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्त, शुद्रक की नगरवधू वसन्तसेना तथा प्राय: सभी नाटकों के राजा के मित्र, कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जन समुदाय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी


कल एक शब्द आया

आर्ष प्राकृत तो आये और समझे इसका मतलब क्या है

१. आर्ष प्राकृत आर्षका मतलब होता है ऋषि मनिषियों द्वारा लिखा या कहा गया

आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत को ऋषि भाषित कहा है। भगवान् महावीर और बुद्ध के पश्चात् आर्ष पुरुषों, महापुरुषों और ऋषिगणों की जो भाषा थी, वह भाषा आर्ष भाषा है। महावीर और बुद्ध के वचनों को आर्ष वचन भी कहा जाता है क्योंकि उनके द्वारा जन भाषा का आश्रय लेकर लोक कल्याण के लिए उपदेश दिये गये। जिसके अर्थ को उनके शिष्यों के द्वारा सूत्रबद्ध किया गया। आयार्चो, महापुरुषों और काव्य साहित्य में प्रवीण जनों के द्वारा काव्य सृजन करके आर्ष भाषा के विकास में अत्याधिक योगदान दिया। आगमों की भाषा को आर्ष प्राकृत कहना उचित है। आर्ष प्राकृत के तीन प्रकार हैं -

i पालि

ii अर्धमागधी

iii शौरसेनी

i पालि -

भगवान् बुद्ध के वचनों का संग्रह जिन ग्रन्थों में हुआ है, उन्हें त्रिपिटक कहते हैं। इन ग्रन्थों की भाषा को पालि कहा गया है। पालि का अर्थ है, पंक्ति, परिधि या सीमा। यह पालि भाषा आर्ष है। पालि मूलत: मगध की भाषा थी। पालि को प्राकृत भाषा का ही एक प्राचीन रूप स्वीकार किया जाता है। पालि भाषा बुद्ध के उपदेशों तथा तत्सम्बन्धी साहित्य तक ही सीमित हो गयी थी। इसी कारण पालि भाषा का आगे चलकर अन्य भाषाओं की तरह विकास नहीं हुआ, यद्यपि प्राकृत की सन्तति निरंतर बढ़ती रही। पालि का साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। अत: प्राचीन भारतय भषाओं को समझने के लिए पालि भाषा का ज्ञान आवश्यक है।

ii अर्धमागधी -

यह मान्यता है कि महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिये थे।[६] उन उपदेशों को अर्धमागधी और शौरसैनी प्राकृत में संकलित किया गया है।[७] कुछ विद्धान् इस भाषा को अर्धमागधी इसलिये कहते है कि इसमें आधे लक्षण मागधी प्राकृत के और आधे अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं।[८]

iii शौरसैनी -

शूरसेन प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली जनभाषा को शौरसैनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। अशोक के शिलालेखों में भी इसका प्रयोग है। प्राचीन आचार्यों षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना शौसैनी प्राकृत में की है और आगे भी अनेक आचार्योंं ने शताब्दियों तक इस भाषा में ग्रंथ लिखे जाते रहे हैं। नाटकों में पात्र शौरसैनी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसका प्रचार मध्यप्रदेश में अधिक था।

बस ये संक्षिप्त में भाषा की जानकारी थी कल अपन

फिर से शक्र स्तव की औऱ आगे बढ़ेंगे

जय जिनेन्द्र सा

🙏🙏

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