कथा लाछीदेवी

 

लाछीदेवी 

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*साधर्मिक भक्ति* की कैसी अपार महिमा है। *तराजू* के एक *पलड़े* में जीवन के समस्त जप-तप तथा धर्मक्रियाएँ रखे और दूसरें पलड़े में धर्ममय अंतःकरण से की हुई एक अकेली *साधर्मिक भक्ति* रखे। तो भी दोनों पलड़े एक समान रहेगे। 

पर्युषण पर्व के *पाँच कर्तव्य* एवं श्रावक के *ग्यारह कर्तव्यों* में भी साधर्मिक भक्ति का अपना अनोखा स्थान है। 

साधर्मिक भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है। 


*लाछीदेवी !*


कर्णावती के शालपति त्रिभुवनसिंह की पत्नी लच्छी अपने दास-दासियों के साथ प्रभुदर्शन के लिए निकली थी । इस समय साबरमती नदी के किनारे पर स्थित ऊँचे शिखर एवं उत्कृष्ट स्थापत्यमय जिनालय में भगवान के दर्शन-चैत्यवंदन करके मारवाड़ का उदा बाहर बैठा था । देरासर की सीढ़ियों से उतरते हुए लाछी ने मैलेकुचैले कपड़ों में बैठे हुए उदा को देखा।

परदेश से आया हुआ कोई साधर्मिक-सधर्मी है। 

ऐसा जानकर लाछीदेवी ने भाव से पूछा भाई इस कर्णावती में तुम किसके मेहमान हो ? 

लाछी के मधुर वचनों में उदा ने आत्मीय स्वजन की मीठी मधुर वाणी सुनी उदा ने कहा बहन  प्रथम बार ही इस प्रदेश में आया हूँ । इस कर्णावती में हम परदेशी को कौन पहचाने ?

तुमने मुझे बुलाया यानी कुछ -अधिक माना तो तुम मेरे परिचित समझे जाओ । इसलिए हम तो तुम्हारें मेहमान है। 


लाछीदेवी ने आनंदविभोर होकर कहा मेरे अपने घर साधर्मिक भाई मेहमान हो यह तो अपना अहोभाग्य समझती हूँ। 

आप हमारे मेहमान अपने परिवार के साथ मेरा आँगन पावन कीजिए। 


मारवाड़ का उदा मेहता अपनी पत्नी सुहादेवी तथा चाहड़ और बाहड़ नामक दो पुत्रों को लेकर लाछी के वहाँ गया उसने बहुत प्रेम से उदा और उसके परिवार को भोजन करवाया।

उदा ने पूछा मुझ पर इतने अधिक प्रेमभाव का कारण ? 


*लाछी ने कहा तुम मेरे साधर्मिक हो साधर्मिक की सेवा यह तो सच्चे जैन का कर्तव्य है।*


मारवाड़ के उदा को लाछी ने रहने के लिए घर दिया। गरीब उदा को तो मानो मकान नही महल मिल गया ! 

नौ खंड की नवाबी-साहबी प्राप्त हुई हो इतना आनंद हुआ। 

समय व्यतीत होने के पश्चात् उदा ने लाछी का वह घर खरीद लिया।कच्चे मकान को ईटों के पक्के मकान में परिवर्तित करने का विचार किया।

उसने जमीन में नींव खुदवाना प्रारंभ किया तो उसमें से *धन के चरु* बाहर निकले।

उसने लाछी को बुलाकर तथा दो हाथ जोड़कर कहा 

बहन  यह अपना धन ले जाओ। 

आपके मकान में से निकला है।इसलिए यह धन आपका है। 


लाछी ने कहा ऐसा नहीं हो सकता घर तुम्हारा जमीन तुम्हारी यानी यह धन भी तुम्हारा। 


उदा ने कहा मेरे लिए तो यह धन बिना हक-अधिकार का गिना जाये। यह मेरे काम का नहीं तुम्हें लेना पड़ेगा। लाछी ने तो उसे छूने तक की ना कही।

आखिर बात महाजन के पास पहुँची।

महाजन भी क्या करे ? दोनों में से कोई भी धन लेने को तैयार न हुआ।इसीसे इसका हल कठिन था। 

बात राजदरबार तक पहुँची। राजा कर्णदेव भी सोच-विचार में पड़ गये 

रानी मीनलदेवी ने दोनों को आधा-आधा भाग देनें का फैसला किया।

लाछीदेवी तथा उदा मेहता इतना भी बिना अधिकार का कैसे लें ? 


*उन्होंने कहा जिसका कोई मालिक नहीं उसका मालिक राज्य।*


आप यह स्वीकार लीजिए । राजा कर्णदेव सोलंकी ने विचार किया कि प्रजा जिसका स्वीकार न करे ऐसे अनाधिकार के धन को वह कैसे ले सके !


अंत में उदा मेहता ने कहा , *जो धन राज्य को भी स्वीकार न हो वह देव को अर्पण हो।*

 इस धन से कर्णावती नगरी में *देरासर* बनवाया गया जो  *उदयन विहार* के रुप में विख्यात हुआ । उदा मेहता कर्णावती के नगरसेठ तत्पश्चात् राजा सिद्धराज के मंत्री और आखिर खंभात के दंडनायक बने , पर जीवनभर अपनी *बहन लाछी* की *साधर्मिक भक्ति* को सदाकाल हृदयपूर्वक *वंदन* करते रहे। 

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