सीमंकर आदि पाँच कुलकर क्षोभ से आक्रांत उन युगलों के शिक्षण के निमित्त दण्ड के लिए ‘हा’/हाय! बुरा किया। ‘मा’/अब ऐसा मत करना, ऐसे खेद प्रकाशक और निषेधसूचक दो शब्दों का उपयोग करते हैं और इतने मात्र से ही प्रजा अपराध छोड़ देती है।
अभिचन्द्र कुलकर के स्वर्गारोहण के पश्चात् उतना ही अन्तराल व्यतीत होने के बाद ‘चन्द्राभ’ नाम के ग्यारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुत’ प्रमाण वर्षों की और शरीर की अवगाहना छह सौ धनुष प्रमाण थी। इनकी देवी का नाम ‘प्रभावती’ था। इनके समय में अतिशीत, तुषार और अतिवायु चलने लगी थी, शीत वायु से अत्यन्त दुःख पाकर वे भोगभूमिज मनुष्य तुषार से ढके हुए चन्द्र आदि ज्योति समूह को नहीं देख पाते थे। इस कारण इनके भय को दूर करते हुए चन्द्राभ कुलकर ने उपदेश दिया कि भोगभूमि की हानि होने पर अब कर्मभूमि निकट आ गई है। काल के विकार से यह स्वभाव प्रवृत्त हुआ है, अब यह तुषार सूर्य की किरणों से नष्ट होगा, यह सुनकर प्रजाजन सूर्य की किरणों से शैल्य को नष्ट करते हुए कुछ दिनों तक अपनी सन्तान के साथ जीवित रहने लगे।
चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद अपने योग्य अन्तर को व्यतीत कर ‘मरुदेव’ नामक बारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुतांग’ वर्ष प्रमाण और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘सत्या’ था। इनके समय में बिजली युक्त मेघ गरजते हुए बरसने लगे। उस समय पूर्व में कभी नहीं देखी गई कीचड़ युक्त जलप्रवाह वाली नदियों को देखकर अत्यन्त भयभीत हुए भोगभूमिज मनुष्यों को मरुदेव कुलकर काल के विभाग को बतलाते हैं अर्थात् काल के विकार से अब कर्मभूमि तुम्हारे निकट है। अब तुम लोग नदियों में नौका डालकर इन्हें पार करो, पहाड़ों पर सीढ़ियों को बनाकर चढ़ो और वर्षा काल में छत्रादि को धारण करो। उन कुलकर के उपदेश से सभी जन नदियों को पारकर, पहाड़ों पर चढ़कर और वर्षा का निवारण करते हुए पुत्र-कलत्र के साथ जीवित रहने लगे।
(‘‘पहले यहाँ युगल संतान उत्पन्न होती थी परन्तु इसके आगे सन्तान की उत्पत्ति को दूर करने की इच्छा से ही मानों मरुदेव ने ‘प्रसेनजित्’ नाम के पुत्र को उत्पन्न किया था। इसके पूर्व भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में पसीना नहीं आता था परन्तु प्रसेनजित् का शरीर पसीने के कणों से सुशोभित हो उठता था। वीर मरुदेव कुलकर ने अपने पुत्र प्रसेनजित् का विवाह-विधि के द्वारा किसी प्रधान कुल की कन्या से विवाह कराया था। अन्त में मरुदेव पल्य के करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग चले गये। तदनन्तर ये ‘प्रसेनजित्’ तेरहवें कुलकर कहलाये और इन्होंने ‘एक करोड़ पूर्व’ की आयु वाले, जन्म काल में बालकों के नाल काटने की व्यवस्था करने वाले ‘नाभिराज’ नामक चौदहवें कुलकर को उत्पन्न किया था और स्वयं पल्य के दस लाख करोड़वें भाग जीवित रहकर स्वर्गस्थ हो गये थे।’’)
इन बारहवें कुलकर के स्वर्गस्थ होने के बाद समय व्यतीत होने पर जब कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी, तब प्रसेनजित् नाम के तेरहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु एक ‘पूर्व’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचास धनुष की थी। इनके ‘अभिमती’ नाम की देवी थी। इनके समय में बालकों का जन्म जरायु पटल में वेष्टित होने लगा था। ‘यह क्या है’ इस प्रकार के भय से संयुक्त मनुष्यों को इन कुलकर ने जरायु पटल को दूर करने का उपदेश दिया था। उनके उपदेश से सभी भोगभूमिज प्रयत्नपूर्वक उन शिशुओं की रक्षा करने लगे थे।
इनके बाद ही ‘नाभिराज’ नाम के चौदहवें कुलकर उत्पन्न हुए थे। इनकी आयु ‘एक करोड़ पूर्व’ वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष की थी, इनकी ‘मरुदेवी’ नाम की पत्नी थी। इनके समय बालकों का नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा था, इसलिए नाभिराय कुलकर उसके काटने का उपदेश देते हैं और वे भोगभूमिज मनुष्य वैसा ही करते हैं। उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये, बादल गरजने लगे, मेघ बरसने लगे, पृथ्वी पर स्वभाव से ही उत्पन्न हुए अनेकों वनस्पतियाँ-वनस्पतिकायिक, धान्य आदि दिखलाई देने लगे। धीरे-धीरे बिना बोये ही धान्य सब ओर पैदा हो गये। उनके उपयोग को न समझती हुई प्रजा कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से अत्यन्त क्षुधा वेदना से व्याकुल हुई नाभिराज कुलकर की शरण में आकर बोली-हे देव! मन-वांछित फल को देने वाले कल्पवृक्षों के बिना हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार से जीवित रहें? जो रहें? जो ये वृक्ष, शाखा, अंकुर, फल आदि उत्पन्न हुए हैं, इनमें कौन तो खाने योग्य हैं और कौन नहीं है? इनका क्या उपयोग है, यह सब हमें बतलाइये। इस प्रकार के दीन वचनों को सुनकर नाभिराज बोले-हे भद्र पुरुषों! ये वृक्ष तुम्हारे योग्य हैं और ये विषवृक्ष छोड़ने योग्य हैं। तुम लोग इन धान्यों को खाओ, गाय का दूध निकालकर पीयो। ये इक्षु के पेड़ हैं, इन्हें दाँतों से या यंत्रों से पेल कर इनका रस पियो। इस प्रकार से महाराजा नाभिराज ने मनुष्यों की आजीविका के अनेकों उपायों को बताकर उन्हें सुखी किया और हाथी के गंडस्थल पर मिट्टी की थाली आदि अनेक प्रकार के बर्तन बनाकर उन पुरुषों को दिये और बनाने का उपदेश भी दिया। उस समय वहाँ कल्पवृक्षों की समाप्ति हो चुकी थी, प्रजा का हित करने वाले केवल नाभिराज ही उत्पन्न हुए थे इसलिए वे कल्पवृक्ष के समान प्रजा का हित करते थे।
कुलकरों का वर्णन
प्रश्न : कुलकरों की उत्पत्ति कब होती है?
उत्तर : प्रत्येक अवसर्पिणी काल के तृतीय काल ( सुखमा - दुखमा ) में पल्योपम के आठवें भाग मात्र काल शेष रह जाने पर कुलकरों की उत्पत्ति शुरू होती है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के दूसरे काल के अन्त में ये उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न : इन्हें कौन सा ज्ञान होता है?
उत्तर : इनमें से किसी को जाति स्मरण या किसी को अवधिज्ञान होता है।
प्रश्न : तीसरे काल में क्या परिवर्तन होने लगते हैं?
उत्तर : सुखमा - दुखमा नाम के तीसरे काल में प्राकृतिक संपदाओं का अभाव होने लगता है। कल्पवृक्षों के फल मंद या समाप्त होने लगते हैं, जिसके फलस्वरूप सुखोपभोग की सामग्री में कमी आने लगती है।
प्रश्न : कुलकर किसे कहते हैं?
उत्तर : तीसरे काल के समय होने वाले प्राकृतिक परिवर्तन से चकित और चिन्तित मानव समाज को सही परामर्श दे समस्याओं का समाधान बताते हैं, उन्हें कुलकर कहते हैं।
प्रश्न : कुलकर हमें क्या सिखाते हैं?
उत्तर : कुलकर मानव और प्रकृति के संबंधों को उद्घाटित कर मनुष्य को जीने की कला सिखाते हैं। ये कुलकर मनुष्यों को लकड़ी, पत्थर आदि का संघर्षण कर अग्नि उत्पन्न करने की, अन्न पकाने की शिक्षा देते हैं तथा विवाह करके इच्छानुसार सुखोपभोग की प्रेरणा देते हैं।
प्रश्न : इस अवसर्पिणी के कुलकर के नाम बताइए?
उत्तर : इस अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमा - दुषमा नामक तीसरे काल में क्रमशः चौदह कुलकर हुए। उनके नाम निम्न प्रकार है:
1.प्रतिश्रुति, 2.सन्मति, 3.क्षेमकंर, 4.क्षेमन्धर, 5.सीमंकर, 6.सीमन्धर, 7.विमलवाहन, 8.चक्षुष्मान, 9.यशस्वी, 10.अभिचन्द्र, 11.चन्द्राभ, 12.मरुदेव, 13.प्रसेनजित, 14.नाभिराज या नाभिराय।
प्रश्न : उत्सर्पिणी काल में कितने कुलकर होते हैं?
उत्तर : जिस प्रकार अवसर्पिणी काल में चौदह कुलकर होते हैं, उसी प्रकार उत्सर्पिणी काल में भी चौदह कुलकर होते हैं।
प्रश्न : उत्सर्पिणी काल में कुलकरों की उत्पत्ति कब होती है?
उत्तर : उत्सर्पिणी काल में कुलकरों की उत्पत्ति_*" दुषमा "*_ नामक द्वितीय काल के बीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर एक हजार वर्ष की शेष अवधि में होती है।
प्रश्न : उत्सर्पिणी काल के अन्तिम कुलकर के बाद कौन जन्म लेते हैं?
उत्तर : उत्सर्पिणी काल के अन्तिम कुलकर के बाद तीर्थंकर जन्म लेते हैं।
प्रश्न : आगामी उत्सर्पिणी काल के चौदह कुलकरों के नाम बताइए?
उत्तर : _*आगामी उत्सर्पिणी काल के चौदह कुलकरों के नाम निम्नलिखित हैं*_
1.कनक, 2.कनकप्रभ, 3.कनकराज, 4.कनकध्वज, 5.कनकपुंगव, 6.नलिन, 7.नलिनप्रभ, 8.नलिनराज, 9.नलिनध्वज, 10.नलिन पुंगव, 11.पद्मप्रभ, 12.पद्मराज, 13.पद्मध्वज, 14.पद्मपुंगव।
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