कुलकारों

***चौदह कुलकारों के नाम ***
(1) श्री प्रतिश्रुति (2) श्री सनमति (3) क्षेमंकर (4) सीमंकर (5) सीमंकर (6) सीमंधर (7) विमल वाहन (8) चक्षुमान (9) यशस्वी (10) अभिचन्द्र (11) चन्द्रप्रभ (12) मरूदेव (13) प्रसेनजित (14) नाभिराजा।
***कुलकरों की पत्नियों के नाम ***
(1) स्वयंप्रभा (2) यशस्वी (3) सुनंदा (4) विमला (5) मनोहरी (6) यशोधरा (7) सुमति (8) धारिणी (9) कांतमाला (10) श्री मती (11) प्रभावती (12) सत्या (13) अभितमति (14) मरूदेवी


*
*🅿️12.विमलवाहन कुलकर की पुर्व भव की पत्नी का नाम क्या था ?*
*🅰प्रियदर्शना।*प्रथम कुलकर विमल वाहन नाम से क्यु प्रसिद्ध हुए ?*

*🅰श्वेत(विमल) रंग के गज की सवारी  करने से।*
*🅿️13.सागरचंद्र का मित्र अशोक दत्त मरकर कहा जन्मा था ?*
*🅰भरत क्षेत्र के दक्षिण खंड में चार दांत वाले हाथी के रूप में।*
*🅿14.हाथी ने पुर्वभव की प्रीति से प्रेरित होकर कौन से युगल को सूंड मे उठा कर अपनी पीठ पर बैठाया ?*
*🅰पुर्वभव के मित्र सागरचंद्र और उसकी युगलिनी।*
*🅿️15.किसने जातीस्मरण  ज्ञान से पूर्वभव मे पालीहुई न्यायनीति जानी थी ?*
*🅰विमल वाहन

** किसी कुलकर ने प्रजा के लिए क्या किया**
1 – पहले कुलकर ने सूर्य चन्द्रोदय से भय मिटाया।
2 – दूसरे कुलकर ने अंधकार तथा तारागण से भय मिटाया।
3 – तीसरे कुलकर ने हिंसक जन्तुओं की संगति त्याग करने का उपदेश दिया।
4 – चैथे कुलकर ने हिंसक जन्तुओं से रक्षण के उपाय बताये।
5 – पांचवे कुलकर ने कल्पवृक्ष की सीमायें बताई।
6 – छठवें कुलकर ने गुच्छादि चिन्हित सीमायें बताई।
7 – सातवें कुलकर ने हाथी आदि की सवारी का उपदेश दिया।
8 – आठवें कुलकर ने बालक के मुखदर्शन का उपदेश दिया।
9 – नौवें कुलकर ने बालक के नामकरण करने का उपदेश दिया।
10 – दसवें कुलकर ने शिशु रोदन निवारण चन्द्रादि दर्शन का उपदेश दिया।
11 – ग्यारवें कुलकर ने शीत आदि से रक्षा के उपाय बताये।
12 – बारहवें कुलकर ने नाव आदि द्वारा गमन करने का उपदेश दिया।
13 – तेरहवें कुलकर ने जरायुपटल को हटाने का उपदेश दिया।
14 – चौदहवें कुलकर ने नाभिनाल कर्तन का उपदेश दिया।







जैन कालचक्र- तीसरे भाग, सुखमा-दुखमा में १४ कुलकर हुए थे।
जैन धर्म में कुलकर उन बुद्धिमान पुरुषों को कहते हैं जिन्होंने लोगों को जीवन निर्वाह के श्रमसाध्य गतिविधियों को करना सिखाया।[1] जैन ग्रन्थों में इन्हें मनु भी कहा गया है। जैन काल चक्र के अनुसार जब अवसर्पिणी काल के तीसरे भाग का अंत होने वाला था तब दस प्रकार के कल्पवृक्ष (ऐसे वृक्ष जो इच्छाएँ पूर्ण करते है) कम होने शुरू हो गए थे,[2] तब १४ महापुरुषों का क्रम क्रम से अंतराल के बाद जन्म हुआ। इनमें अंतिम कुलकर नाभिराज थे, जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता थे।

चौदह कुलकर

प्रतिश्रुतिसंपादित करें

प्रतिश्रुति पहले कुलकर थे।। उनकी पत्नी का नाम उनका नाम विमल वाहन के नाम सेइसलिये प्रसिद्ध हुए क्योंकि वो सफेद हाथी (वाहन)
पर सवारी करते थे।  सफेदहाथी ने पुर्वभव की प्रीति से प्रेरित होकर इनयुगल को सूंड मे उठा कर अपनी पीठ पर बैठाया ?* जब प्रकाश देने वाले कल्पवृक्षों की आभा कम हो रही थी तब सूर्य और चंद्रमा दिखाई देने लगे थे। जिन्हें पहली बार देख कर लोग चिंतित होने लगे थे। कुलकर प्रतिश्रुति ने अपने अवधिज्ञान से इसका कारण समझ लोगों को समझाया के रोशनी प्रदान करने वाले वृक्षों का प्रकाश इतना अधिक था कि सूर्य और चंद्रमा दिखाई नहीं देते थे, लेकिन अब इन वृक्षों की आभा कम हो रही है। प्रतिश्रुति कुलकर के समय से दिन और रात का भेद माना जाता है।

सन्मतिसंपादित करें

असंख्यत करोडों वर्ष बीतने के बाद दूसरे कुलकर सन्मति हुए थे। उनके समय में प्रकाश प्रदान करने वाले वृक्षों की आभा प्रभावहीन हो गयी थी, जिसके कारण सितारे आकाश में दिखाई देने लगे थे। इस बात का ज्ञान उन्होंने जनता को कराया क्यूँकि वह अवधि ज्ञान के धारी थे।

क्षेमंकरसंपादित करें

असंख्यात करोड़ों वर्ष बीतने के पश्चात क्षेमंकर कुलकर का जन्म हुआ था। इनके समय में जानवरों ने उपद्रव मचाना शुरू कर दिया था। अब तक कल्पवृक्षों ने पुरुषों और जानवरों की आपूर्ति के लिए पर्याप्त भोजन प्रदान किया था लेकिन अब स्थिति बदल रही थी और हर एक को खुद के लिए व्यवस्था करनी थी। घरेलू और जंगली जानवरों का अंतर क्षेमंकर कुलकर के समय से माना जाता है।

क्षेमंधरसंपादित करें

क्षेमंधर चौथे मनु थे। इन्होंने जंगली जानवरों को दूर भगाने के लिए लकड़ी और पत्थर के हथियारों का प्रयोग करना सिखाया।[3] 

सीमंकरसंपादित करें

सीमंकर पाँचवे मनु थे। इनके समय में कल्पवृक्षों को ले कर झगड़े शुरू हो गए थे।[4] इन्हें सीमंकर इसलिए कहा जाता है क्यूँकि उन्होंने सीमाओं का स्वामित्व तय किया था।

सीमन्धरसंपादित करें

सीमन्धर छटे कुलकर थे। इनके समय में कल्पवृक्षों को लेकर झगड़ा अधिक तीव्र हो गया था। उन्होंने प्रति व्यक्ति पेड़ों के स्वामित्व की नींव रखी और निशान भी लगाए।

विमलवाहनसंपादित करें

विमलवाहन सातवें मनु थे। इन्होंने घरेलू पशुओं की सेवाएँ कैसे ली जाए यह बताया। इन्होंने हाथी आदि सवारी योग्य पशुओं को कैसे नियंत्रण में कर उनकी सवारी की जाए, यह सिखाया।

चक्षुमानसंपादित करें

असंख्यात करोड़ों वर्ष बीत जाने पर चक्षुमान कुलकर का जन्म हुआ। इनके समय में भोगभूमि की व्यवस्था बदल गयी था अर्थात अब माता पिता अपने संतान का जन्म देख सकते थे। कुछ लोगों ने चकित हो कर इसका कारण चक्षुमान कुलकर से पूछा, तो उन्होंने उचित रूप से समझाया।

यशस्वान्संपादित करें

जैन ग्रंथों के अनुसार यशस्वान् नौवें कुलकर थे। [5]

अभिचन्द्रसंपादित करें

अभिचन्द्र दसवें मनु थे। इनके समय में पुरानी व्यवस्था में बहुत अधिक परिवर्तन आ गया था। अब लोग अपने बच्चों के साथ खेलने लगे थे। सर्वप्रथम अभिचन्द्र ने चाँदनी में अपने बच्चों के साथ खेल खेला था जिसके कारण उनका यह नाम पड़ा। [5]

चन्द्राभसंपादित करें

चन्द्राभ ग्यारहवें मनु थे जिनके समय में माता पिता बच्चों को आशीर्वाद दे कर बहुत प्रसन्न होते थे।

मरुद्धवसंपादित करें

मरुद्धव बारहवें मनु थे। [5]

प्रसेनजितसंपादित करें

प्रसेनजित तेरहवें कुलकर थे। जैन ग्रंथों के अनुसार इनके समय में बच्चे प्रसेन (भ्रूणावरण या झिल्ली जिसमें एक बच्चे का जन्म होता है) के साथ पैदा होने लगे थे। [6] इनके समय पहले बच्चे  झिल्ली में नहीं लिपटे होते थे। [5]

नाभिरायसंपादित करें

नाभिराय अंतिम कुलकर थे। वह ऋषभदेव के पिता थे। कुलकर नाभिराय ने लोगों को नाभि काटना सिखाया।[5] जैन ग्रंथों के अनुसार इनके समय में घने बादल स्वतंत्र रूप से आकाश में इकट्ठा होने लगे थे।[7]

इस भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी का तृतीय काल चल रहा था। इनमें आयु, अवगाहना, ऋद्धि, बल और तेज घटते-घटते जब इस तृतीय काल में पल्योपम के आठवें भाग मात्र काल शेष रह जाता है तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ होती है।
प्रथम कुलकर का नाम ‘प्रतिश्रुति’ और उनकी देवी का नाम स्वयंप्रभा था। उनके शरीर की ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष और आयु पल्य के दसवें भाग प्रमाण थी। उस समय आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन सायंकाल में भोगभूमियों को पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चन्द्र और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य दिखलाई पड़ा। ‘यह कोई आकस्मिक उत्पात है’ ऐसा समझकर वे लोग भय से व्याकुल हो गये। उस समय वहाँ पर ‘प्रतिश्रुति’ कुलकर सबमें अधिक तेजस्वी और प्रजाजनों के हितकारी तथा जन्मांतर के संस्कार से अवधिज्ञान को धारण किये हुए सभी में उत्कृष्ट बुद्धिमान गिने जाते थे। उन्होंने कहा-हे भद्र पुरुषों! तुम्हें जो ये दिख रहे हैं वे सूर्य-चन्द्र नाम के ग्रह हैं, कालवश अब ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों की किरण समूह मंद पड़ गई हैं अतः इस समय ये दिखने लगे हैं, ये हमेशा ही आकाश में परिभ्रमण करते रहते हैं, अभी तक ज्योतिरंग कल्पवृक्ष से इनकी प्रभा तिरोहित होने से ये नहीं दिखते थे अतः तुम इनसे भयभीत मत होवो। प्रतिश्रुति के वचनों से उन लोगों को आश्वासन प्राप्त हुआ और उन लोगों ने उनके चरण कमलों की पूजा तथा स्तुति की।
प्रतिश्रुति कुलकर के स्वर्ग जाने के पश्चात् पल्य के अस्सीवें भाग अंतराल के व्यतीत हो जाने पर सुवर्ण सदृश कान्ति वाले ‘सन्मति’ नामक द्वितीय कुलकर उत्पन्न हुए। इनके शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष एवं आयु ‘अमम’ के बराबर संख्यात वर्षों की थी। उस समय ज्योतिरंग कल्पवृक्ष नष्टप्रायः हो गये और सूर्य के अस्त होने पर अंधकार तथा तारागणों को देखकर ‘ये अत्यन्त भयानक/अदृष्टपूर्व उत्पात प्रकट हुए हैं’ इस प्रकार सभी मनुष्य व्याकुल होकर कुलकर के निकट आये। तब सन्मति कुलकर ने कहा कि कालवश ज्योतिरंग कल्पवृक्षों की किरणें सर्वथा प्रणष्ट हो जाने से इस समय आकाश में अंधकार और ताराओं का समूह दिख रहा है। तुम लोगों को इनकी ओर से भय का कोई कारण नहीं है। ये तो सदा ही रहते थे किन्तु कल्पवृक्षों की किरणों से प्रकट नहीं दिखते थे। ये ग्रह, तारा और नक्षत्र तथा सूर्य-चन्द्रमा जम्बूद्वीप में नित्य ही सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। तब कुलकर के वचनों से वे सब निर्भय हो गये और उनकी पूजा करके स्तुति करने लगे।
इन कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर इस भरत क्षेत्र में तीसरे कुलकर उत्पन्न हुए। इनका नाम ‘क्षेमंकर’ था, शरीर की ऊँचाई आठ सौ धनुष और आयु ‘अटट’ प्रमाण वर्षों बराबर थी, वर्ण सुवर्ण सदृश और सुनंदा नामक महादेवी थी। उस समय व्याघ्र आदि तिर्यंच जीव व्रूâरता को प्राप्त हो गये थे, तब भोगभूमिज मनुष्य उनसे भयभीत होकर क्षेमंकर मनु के पास पहुँचे और बोले-हे देव! ये सिंह, व्याघ्रादि पशु बहुत शान्त थे, जिन्हें हम लोग अपनी गोद में बिठाकर अपने हाथ से खिलाते थे, वे पशु आज हम लोगों को बिना किसी कारण ही सींगों से मारना चाहते हैं, मुख फाड़कर डरा रहे हैं हम क्या करें? तब कुलकर बोले-हे भद्र पुरुषों! अब तुम्हें इन पर विश्वास नहीं करना चाहिए, इनकी संगति छोड़ देना चाहिए, ये कालदोष से विकार को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार से क्षेमंकर कुलकर के वचनों से उन लोगों ने सींग और दाढ़ वाले पशुओं का संसर्ग छोड़ दिया, केवल निरुपद्रवी गाय, भैंस आदि से संसर्ग रखने लगे।
इनकी आयु पूर्ण होने के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर सज्जनों में अग्रसर ऐसे ‘क्षेमंधर’ नामक चौथे कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘तुटिक’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनका वर्ण स्वर्ण के सदृश और इनकी देवी का नाम विमला था। उस समय क्रूरता को प्राप्त हुए सिंहादि मनुष्यों के मांस को खाने लगे, तब सिंहादि के भय से भयभीत हुए भोगभूमिजों को क्षेमंधर मनु ने उनसे सुरक्षित करने के लिए दण्डादि रखने का उपदेश दिया।
इनके अनंतर असंख्यात करोड़ वर्षों के बीत जाने पर प्रजा के पुण्योदय से ‘सीमंकर’ नाम के पांचवें कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कमल’ प्रमाण वर्षों की एवं शरीर की ऊँचाई सात सौ पचास धनुष की थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश एवं ‘मनोहरी’ नाम की प्रसिद्ध देवी थी। इनके समय कल्पवृक्ष अल्प हो गये और फल भी अल्प देने लगे थे, इस कारण मनुष्यों में अत्यन्त क्षोभ होने लगा था। परस्पर में इन भोगभूमिजों के विसंवाद को देखकर सीमंकर मनु ने कल्पवृक्षों की सीमा नियत करके परस्पर संघर्ष को रोक दिया।

भोगभूमि की दण्ड व्यवस्था

उपर्युक्त प्रतिश्रुति आदि पाँच कुलकरों ने उन भोगभूमिजों के अपराध में ‘हा’/हाय! बुरा कार्य किया, ऐसी दण्ड की व्यवस्था की थी, बस! इतना कहने मात्र से ही प्रजा आगे अपराध नहीं करती थी।
पाँचवें कुलकर के स्वर्ग गमन के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल व्यतीत हो जाने पर ‘सीमंधर’ नामक छठे कुलकर उत्पन्न हुए। ये ‘नलिन’ प्रमाण वर्षों की आयु के धारक और सात सौ पच्चीस धनुष ऊँचे थे, इनकी देवी का नाम ‘यशोधरा’ था। इनके समय में कल्पवृक्ष अत्यन्त थोड़े रह गये और फल भी बहुत कम देने लगे इसीलिए मनुष्यों के बीच नित्य ही कलह होने लगा, तब इन कुलकर ने कल्पवृक्षों की सीमाओं को अन्य अनेक वृक्ष तथा छोटी-छोटी झाड़ियों से चिन्हित कर ॅिदया।
इनके बाद फिर असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘विमलवाहन’ नामक सातवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्म’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ धनुष प्रमाण थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश और ‘सुमति’ नाम की महादेवी थी। इस समय गमनागमन से पीड़ा को प्राप्त हुए भोगभूमिज मनुष्य इन कुलकर के उपदेश से हाथी, घोड़े आदि पर सवारी करने लगे और अंकुश, पलान आदि से उन पर नियंत्रण करने लगे।
सातवें कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘चक्षुष्मान्’ नामक आठवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्मांग’ प्रमाण और ऊँचाई छह सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनकी देवी का नाम ‘धारिणी’ था। इनके समय से पहले के मनुष्य अपनी संतान का मुख नहीं देख पाते थे, उत्पन्न होते ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती थी परन्तु अब वे क्षणभर पुत्र का मुुख देखकर मरने लगे, उनके लिए यह नई बात थी अतएव भयभीत हुए ‘चक्षुष्मान्’ कुलकर के पास आये, तब इन्होंने उपदेश दिया कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री हैं, इनके पूर्ण चन्द्र के समान सुन्दर मुख को देखो। इस प्रकार मनु के उपदेश से स्पष्टरूप से अपने बालकों के मुख को देखकर वे भोगभूमिज तत्काल ही आयु से रहित होकर विलीन हो जाते थे ।
आठवें कुलकर के स्वर्गगमन के पश्चात् करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत होने पर ‘यशस्वान्’ नाम के नौवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘कुमुद’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पचास धनुष की थी, इनके ‘कांतिमाला’ नाम की देवी थी। उस समय ये कुलकर प्रजा को अपनी संतान के नामकरण के उत्सव का उपदेश देते थे। तब भोगभूमिज नामकरण करके आशीर्वाद देकर थोड़े समय रहकर आयु के क्षीण होने पर विलीन हो जाते थे।
नवम कुलकर के स्वर्गस्थ होने पर करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत कर दशवें ‘अभिचन्द्र’ नाम के कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कुमुदांग’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पच्चीस धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘श्रीमती’ था। ये बालकों के रुदन को रोकने के निमित्त उपदेश देते थे कि तुम लोग इन्हें रात्रि में चन्द्रमा को दिखाकर क्रीड़ा करावो और बोलना सिखाओ, यत्नपूर्वक इनकी रक्षा करो। इनके उपदेश से भोगभूमिज अपनी सन्तानों के साथ वैसा ही व्यवहार करके आयु के अन्त में विलीन होते थे।

इन कुलकरों की दण्ड- व्यवस्था

सीमंकर आदि पाँच कुलकर क्षोभ से आक्रांत उन युगलों के शिक्षण के निमित्त दण्ड के लिए ‘हा’/हाय! बुरा किया। ‘मा’/अब ऐसा मत करना, ऐसे खेद प्रकाशक और निषेधसूचक दो शब्दों का उपयोग करते हैं और इतने मात्र से ही प्रजा अपराध छोड़ देती है।
अभिचन्द्र कुलकर के स्वर्गारोहण के पश्चात् उतना ही अन्तराल व्यतीत होने के बाद ‘चन्द्राभ’ नाम के ग्यारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुत’ प्रमाण वर्षों की और शरीर की अवगाहना छह सौ धनुष प्रमाण थी। इनकी देवी का नाम ‘प्रभावती’ था। इनके समय में अतिशीत, तुषार और अतिवायु चलने लगी थी, शीत वायु से अत्यन्त दुःख पाकर वे भोगभूमिज मनुष्य तुषार से ढके हुए चन्द्र आदि ज्योति समूह को नहीं देख पाते थे। इस कारण इनके भय को दूर करते हुए चन्द्राभ कुलकर ने उपदेश दिया कि भोगभूमि की हानि होने पर अब कर्मभूमि निकट आ गई है। काल के विकार से यह स्वभाव प्रवृत्त हुआ है, अब यह तुषार सूर्य की किरणों से नष्ट होगा, यह सुनकर प्रजाजन सूर्य की किरणों से शैल्य को नष्ट करते हुए कुछ दिनों तक अपनी सन्तान के साथ जीवित रहने लगे।
चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद अपने योग्य अन्तर को व्यतीत कर ‘मरुदेव’ नामक बारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुतांग’ वर्ष प्रमाण और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘सत्या’ था। इनके समय में बिजली युक्त मेघ गरजते हुए बरसने लगे। उस समय पूर्व में कभी नहीं देखी गई कीचड़ युक्त जलप्रवाह वाली नदियों को देखकर अत्यन्त भयभीत हुए भोगभूमिज मनुष्यों को मरुदेव कुलकर काल के विभाग को बतलाते हैं अर्थात् काल के विकार से अब कर्मभूमि तुम्हारे निकट है। अब तुम लोग नदियों में नौका डालकर इन्हें पार करो, पहाड़ों पर सीढ़ियों को बनाकर चढ़ो और वर्षा काल में छत्रादि को धारण करो। उन कुलकर के उपदेश से सभी जन नदियों को पारकर, पहाड़ों पर चढ़कर और वर्षा का निवारण करते हुए पुत्र-कलत्र के साथ जीवित रहने लगे।
(‘‘पहले यहाँ युगल संतान उत्पन्न होती थी परन्तु इसके आगे सन्तान की उत्पत्ति को दूर करने की इच्छा से ही मानों मरुदेव ने ‘प्रसेनजित्’ नाम के पुत्र को उत्पन्न किया था। इसके पूर्व भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में पसीना नहीं आता था परन्तु प्रसेनजित् का शरीर पसीने के कणों से सुशोभित हो उठता था। वीर मरुदेव कुलकर ने अपने पुत्र प्रसेनजित् का विवाह-विधि के द्वारा किसी प्रधान कुल की कन्या से विवाह कराया था। अन्त में मरुदेव पल्य के करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग चले गये। तदनन्तर ये ‘प्रसेनजित्’ तेरहवें कुलकर कहलाये और इन्होंने ‘एक करोड़ पूर्व’ की आयु वाले, जन्म काल में बालकों के नाल काटने की व्यवस्था करने वाले ‘नाभिराज’ नामक चौदहवें कुलकर को उत्पन्न किया था और स्वयं पल्य के दस लाख करोड़वें भाग जीवित रहकर स्वर्गस्थ हो गये थे।’’)
इन बारहवें कुलकर के स्वर्गस्थ होने के बाद समय व्यतीत होने पर जब कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी, तब प्रसेनजित् नाम के तेरहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु एक ‘पूर्व’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचास धनुष की थी। इनके ‘अभिमती’ नाम की देवी थी। इनके समय में बालकों का जन्म जरायु पटल में वेष्टित होने लगा था। ‘यह क्या है’ इस प्रकार के भय से संयुक्त मनुष्यों को इन कुलकर ने जरायु पटल को दूर करने का उपदेश दिया था। उनके उपदेश से सभी भोगभूमिज प्रयत्नपूर्वक उन शिशुओं की रक्षा करने लगे थे।
इनके बाद ही ‘नाभिराज’ नाम के चौदहवें कुलकर उत्पन्न हुए थे। इनकी आयु ‘एक करोड़ पूर्व’ वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष की थी, इनकी ‘मरुदेवी’ नाम की पत्नी थी। इनके समय बालकों का नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा था, इसलिए नाभिराय कुलकर उसके काटने का उपदेश देते हैं और वे भोगभूमिज मनुष्य वैसा ही करते हैं। उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये, बादल गरजने लगे, मेघ बरसने लगे, पृथ्वी पर स्वभाव से ही उत्पन्न हुए अनेकों वनस्पतियाँ-वनस्पतिकायिक, धान्य आदि दिखलाई देने लगे। धीरे-धीरे बिना बोये ही धान्य सब ओर पैदा हो गये। उनके उपयोग को न समझती हुई प्रजा कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से अत्यन्त क्षुधा वेदना से व्याकुल हुई नाभिराज कुलकर की शरण में आकर बोली-हे देव! मन-वांछित फल को देने वाले कल्पवृक्षों के बिना हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार से जीवित रहें? जो रहें? जो ये वृक्ष, शाखा, अंकुर, फल आदि उत्पन्न हुए हैं, इनमें कौन तो खाने योग्य हैं और कौन नहीं है? इनका क्या उपयोग है, यह सब हमें बतलाइये। इस प्रकार के दीन वचनों को सुनकर नाभिराज बोले-हे भद्र पुरुषों! ये वृक्ष तुम्हारे योग्य हैं और ये विषवृक्ष छोड़ने योग्य हैं। तुम लोग इन धान्यों को खाओ, गाय का दूध निकालकर पीयो। ये इक्षु के पेड़ हैं, इन्हें दाँतों से या यंत्रों से पेल कर इनका रस पियो। इस प्रकार से महाराजा नाभिराज ने मनुष्यों की आजीविका के अनेकों उपायों को बताकर उन्हें सुखी किया और हाथी के गंडस्थल पर मिट्टी की थाली आदि अनेक प्रकार के बर्तन बनाकर उन पुरुषों को दिये और बनाने का उपदेश भी दिया। उस समय वहाँ कल्पवृक्षों की समाप्ति हो चुकी थी, प्रजा का हित करने वाले केवल नाभिराज ही उत्पन्न हुए थे इसलिए वे कल्पवृक्ष के समान प्रजा का हित करते थे।


कुलकरों का वर्णन

प्रश्न : कुलकरों की उत्पत्ति कब होती है?
उत्तर : प्रत्येक अवसर्पिणी काल के तृतीय काल ( सुखमा - दुखमा ) में पल्योपम के आठवें भाग मात्र काल शेष रह जाने पर कुलकरों की उत्पत्ति शुरू होती है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के दूसरे काल के अन्त में ये उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न : इन्हें कौन सा ज्ञान होता है?
उत्तर : इनमें से किसी को जाति स्मरण या किसी को अवधिज्ञान होता है।

प्रश्न : तीसरे काल में क्या परिवर्तन होने लगते हैं?
उत्तर : सुखमा - दुखमा नाम के तीसरे काल में प्राकृतिक संपदाओं का अभाव होने लगता है। कल्पवृक्षों के फल मंद या समाप्त होने लगते हैं, जिसके फलस्वरूप सुखोपभोग की सामग्री में कमी आने लगती है। 

प्रश्न : कुलकर किसे कहते हैं?
उत्तर : तीसरे काल के समय होने वाले प्राकृतिक परिवर्तन से चकित और चिन्तित मानव समाज को सही परामर्श दे समस्याओं का समाधान बताते हैं, उन्हें कुलकर कहते हैं।

प्रश्न : कुलकर हमें क्या सिखाते हैं?
उत्तर : कुलकर मानव और प्रकृति के संबंधों को उद्घाटित कर मनुष्य को जीने की कला सिखाते हैं। ये कुलकर मनुष्यों को लकड़ी, पत्थर आदि का संघर्षण कर अग्नि उत्पन्न करने की, अन्न पकाने की शिक्षा देते हैं तथा विवाह करके इच्छानुसार सुखोपभोग की प्रेरणा देते हैं।

प्रश्न : इस अवसर्पिणी के कुलकर के नाम बताइए?
उत्तर : इस अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमा - दुषमा नामक तीसरे काल में क्रमशः चौदह कुलकर हुए। उनके नाम निम्न प्रकार है: 
1.प्रतिश्रुति, 2.सन्मति, 3.क्षेमकंर, 4.क्षेमन्धर, 5.सीमंकर, 6.सीमन्धर, 7.विमलवाहन, 8.चक्षुष्मान, 9.यशस्वी, 10.अभिचन्द्र, 11.चन्द्राभ, 12.मरुदेव, 13.प्रसेनजित, 14.नाभिराज या नाभिराय।

प्रश्न : उत्सर्पिणी काल में कितने कुलकर होते हैं?
उत्तर : जिस प्रकार अवसर्पिणी काल में चौदह कुलकर होते हैं, उसी प्रकार उत्सर्पिणी काल में भी चौदह कुलकर होते हैं।

प्रश्न : उत्सर्पिणी काल में कुलकरों की उत्पत्ति कब होती है?
उत्तर : उत्सर्पिणी काल में कुलकरों की उत्पत्ति_*" दुषमा "*_ नामक द्वितीय काल के बीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर एक हजार वर्ष की शेष अवधि में होती है।

प्रश्न : उत्सर्पिणी काल के अन्तिम कुलकर के बाद कौन जन्म लेते हैं?
उत्तर : उत्सर्पिणी काल के अन्तिम कुलकर के बाद तीर्थंकर जन्म लेते हैं।

प्रश्न : आगामी उत्सर्पिणी काल के चौदह कुलकरों के नाम बताइए?
उत्तर : _*आगामी उत्सर्पिणी काल के चौदह कुलकरों के नाम निम्नलिखित हैं*_
1.कनक, 2.कनकप्रभ, 3.कनकराज, 4.कनकध्वज, 5.कनकपुंगव, 6.नलिन, 7.नलिनप्रभ, 8.नलिनराज, 9.नलिनध्वज, 10.नलिन पुंगव, 11.पद्मप्रभ, 12.पद्मराज, 13.पद्मध्वज, 14.पद्मपुंगव।

चौदह कुलकर कहाँ से आये थे

प्रतिश्रुति आदि को लेकर नाभिराजपर्यंत ये सब चौदह कुलकर अपने पूर्व भव में विदेह क्षेत्र में महाकुल में राजकुमार थे, उन्होंने उस भव में पुण्य बढ़ाने वाले पात्रदान तथा यथायोग्य व्रताचरणरूपी अनुष्ठानों के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले ही भोगभूमि की मनुष्य आयु बाँध ली थी, बाद में श्री जिनेन्द्र देव के समीप रहने से क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा श्रुतज्ञान की प्राप्ति हुई थी जिसके फलस्वरूप आयु के अंत में मरकर वे इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। इन चौदह कुलकरों में से कितने ही कुलकरों को जातिस्मरण था और कितने ही अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे इसलिए उन्होंने विचार कर प्रजा के लिए ऊपर कहे हुए कार्यों का उपदेश दिया था। ये प्रजा के जीवन को जानने से ‘मनु’ तथा आर्य पुरुषों को कुल की तरह इकट्ठे रहने का उपदेश देने से ‘कुलकर’, अनेकों वंशों को स्थापित करने से ‘कुलंधर’ तथा युग की आदि में होने से ‘युगादि पुरुष’ भी कहे गये थे।



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