शान्ति नाथ जी
शान्ति नाथ जी
K. 1इस अवसर्पिणि काल के 16वें तीर्थंकर कौन हुए?
A 1.श्री शांतिनाथ जी .
K .2.श्री शांतिनाथ जी प्रभु किधर से चय्वन कर के आये?
A. 2 सर्वार्थ सिद्ध विमान से
A 3.श्री शांतिनाथ जी का च्यवन किस तिथि को हुआ?
A .3. भाद्रप्द वदि सप्तमी
K. 4.श्री शांतिनाथ जी पुर्व भव में कोन थे?
A. 4. मेघरथ राजा
K 5.श्री मेघरथ जी किस नगरी के राजा थे?
A . 5. वो पुणड्रिकिणी
नगरी के राजा थे
K.. 6.मेघरथ राजा के भव में किस प्रकार से दया की?
A . 6 तन,मन ओर धन से सभी जीवो पर दया की, ओर
जो कबूतर शरण में आया उस की रक्षाके लिए अपना शरीर भी अर्पित कर दिया
K. 7 मेघरथ जी ने कितने पुत्रों ओर राजाओं के साथ दीक्षा ली?
A 7 .सात सौ पुत्रो ओर चार हजार राजा के साथ.
K .8.. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु ने तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध कैसे किया?
A 8 . मेघरथ मुनि जी के भव में बीस स्थानक तप का आराधन कर के
K. 9. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु ने समकित किस भव में प्राप्त किया?
A ..9.श्रीषेण राजा के भव में
K 10. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु ने समकित भव के बाद कितने भव किये ?
A. 10......12 भव किए
K 11. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु ने समकित भव के बाद कोनसा भव किया ?
A. 11....युगलिक भव
K 12. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का तीसरा भव कौन सा था ?
A. 12..सौधर्म देव लोक में देव
K 13. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु किस भव में चक्रवर्ती बने?
A .13 वज्रायुध जी के 8वे भव में ओर अंतिम भव में
K 14. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का नाम शान्ति कैसे रखा?
A 14. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु के गर्भ में आते ही प्रदेश में फैली
महामारी ( मृगी रोग ) व सभी उपसर्ग शान्त हुए..
K 15. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु की माता ,पिता जी का नाम?
A . 15. अचिरा जी रानी,
विश्वसेन जी राजा
K .16. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु की पटरानी जी कोन थी ?
A 16 .यशोमती जी
K..17. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु की जन्म , दीक्षा नगरी का नाम?
A .17. हस्तिनापुर
K 18. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का वर्ण ओर लक्षण कौन सा?
A 18 . (तपे सोने सा) कंचन वर्ण
लक्षण ..मृग (हिरण)
K .19. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का शरीर प्रमाण कितना ?
A 19.. चालीस धनुष
K 20. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का कुल आयुष्य कितना ?
A 20 एक लाख वर्ष
K 21. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का राज्य काल कितना ?
A .21. ..पचास हजार वर्ष
K. 22. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु की दीक्षा तिथि ?
A . 22..ज्येष्ठ वदि 14
K. 23.श्री शान्ति नाथ जी प्रभु कितनो के साथ दीक्षा ली ?
A . 23. एक हजार के
K . 24. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु कितनो के साथ मोक्ष गए ?
A. 24. .नौ सौ के (900)
K 25K.श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का मोक्ष तप कितना ?
A .. 25..एक मास
K 26. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु किधर से मोक्ष गए ?
A. 26..सम्मेत शिखर से
K 27. श्री शांतिनाथ जी की केवल ज्ञान तिथि ओर नगरी?
A. 27. पोष सुदि 9, हस्तिनापुर
K 28 श्री शांतिनाथ जी का केवल ज्ञान किस वृक्ष के नीचे हुआ ?
A. 28.नन्दी वृक्ष
K .29. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु का छ्द्मस्थ अवस्था पर्याय कितना ?
A 29. 1 वर्ष
K 30. केवल ज्ञान उत्त्पन्न होने के बाद कितने वर्ष तक विचरते रहे?
A. 30.. 24999 वर्ष
K .31. श्री शान्ति नाथ जी प्रभु के माता, पिता किस गति में गए ?
A .31. देव गति (सनत कुमार देवलोक )
भगवान शांतिनाथ के पूर्व भव ( भाग-३)
नारायण के पूर्व भव श्रवण कर समस्त सभा हर्ष विभोर होकर तप के फल की प्रशंसा करने लगी और पोदनपुर का राजा भी अपने महलों में जाकर सुखपूर्वक निवास करने लगा।
उसके पश्चात् एक बार विद्याधर राजा तथा भूमिगोचरी राजा दोनों रथनूपुर नगर के उद्यान में भ्रमण कर रहे थे। वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे उन्होंने ‘‘विपुलमति’’और ‘‘विमलमति’’ नामक दो मुनियों के दर्शन किए, अपने हाथ से तोड़े हुए पुष्पो के द्वारा गुरुचरणों की पूजा करके दोनों राजाओं ने विनयपूर्वक उनसे अपनी आयु के बारे में पूछा। मुनिराज ने कहा कि तुम दोनों की आयु मात्र छत्तीस दिन की है अतः अब शीघ्र ही तुम्हें आत्महित का मार्ग अपनाना चाहिए।
यह सुनकर विद्याधर राजा अमिततेज ने सुतेजस् नामक पुत्र को अपना राज्य सौंप दिया एवं श्रीविजय नामक भूमिगोचरी राजा ने ‘‘श्रीदत्त ’’ पुत्र को राजसिंहासन पर आरूढ़ कर दिया, पुनः दोनों ने ‘‘अभिनन्दन’’आचार्य के पास दीक्षा लेकर सन्यास मरण करके आनत स्वर्ग में ‘‘आदित्यचूल’’ और ‘‘मणिचूल’’ नामक देव का वैभव प्राप्त किया। वहाँ से देवायु पूर्ण कर आदित्यचूल अपराजित बलभद्र हुआ एवं मणिचूल ‘‘अनन्तवीर्य ’’नाम से उसका भाई नारायण हुआ। वहाँ से मरकर अनन्तवीर्य पहले नरक में चला गया था पुनः उसे पूर्व भव के पिता के जीव देव ने जाकर सम्बोधन प्रदान कर सम्यक्त्व ग्रहण कराया जिसके फलस्वरूप नरक से निकल कर विजयार्ध पर्वत के ‘‘गगनबल्लभ’’ नगर में विद्याधर राजा ‘‘मेघवाहन’’ का पुत्र ‘‘मेघनाद’’ हुआ। वहाँ पिता का उत्कृष्ट राज्यपद प्राप्त कर उसने अपने पाँच सौ पुत्रों सहित खूब राजसुख भोगा, तब आदित्यचूल नाम का देव जो आगे जाकर अच्युतेन्द्र बना था, उसने पूर्व भव का सम्बन्ध जानकर मेघनाद को सम्बोधित करते हुए कहा कि- हे राजन् ! हम दोनों के अनेक जन्मों से अच्छे सम्बन्ध चले आ रहे हैं इसीलिए आज परस्पर मे देखकर अत्यन्त प्रीति हुई है। अब आप इन विषय सुखों को छोड़कर वैराग्य मार्ग को अपनाओ तथा जिनदीक्षा धारण कर उत्कृष्ट तप को स्वीकार करो।
इस प्रकार बार-बार सम्बोधन पाकर ‘‘मेघनाद’’ ने विद्याधर के समस्त वैभव को तृण के समान त्याग कर‘‘अभिनन्दन’’ गुरू के पास जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उत्कृष्ट तपस्या में लीन, उपसर्ग विजयी, आगम ज्ञाता मुनि श्री मेघनाद ने उत्तम सल्लेखना विधि से मरण करके उसी अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त कर लिया। वहां अपने उपकारी अच्युतेन्द्र को देखकर वह परम प्रसन्न हुआ और साथ-साथ स्र्विगक सुखों का उपभोग करते हुए जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति में अपने समय का सदुपयोग करने लगा।
अनादिनिधन जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में मंगलावती देश के रत्नसंचय नगर में क्षेमंकर नामक प्रजापति राजा अपने सिंहासन पर आरूढ़ थे। अनेक देव-देवी उनके समक्ष किंकर बनकर खड़े थे और सभासद अपने-अपने स्थानों पर राजसभा में विद्यमान रहकर उनकी शोभा में चार चाँद लगा रहे थे।
प्रातःकाल की मधुरिम बेला में राजा की पट्टरानी कनकचित्रा अपनी नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर सखियों के साथ राजसभा में प्रवेश करती हैं और अपने योग्य आसन को ग्रहण कर वे पतिदेव से निवेदन करती हैं-
‘‘स्वामिन् ! आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने सूर्य, चन्द्रमा, सिंह, हाथी, चक्र और छत्र ये छह स्वप्न देखे हैं। आपके मुख से मैं इनका फल जानना चाहती हूँ। भगवन्! मेरे ये स्वप्न किस भविष्य की सूचना दे रहे हैं।’’
मति, श्रुत, अवधिज्ञान से युक्त राजा क्षेमंकर ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया— ‘‘देवि! तुम्हारे पवित्र गर्भ में एक षट्खंडाधिपती चक्रवर्ती पुत्र अवतीर्ण हुआ है। उसी की वीरता,ऐश्वर्य आदि की मंगल सूचना देने वाले ये तुम्हारे स्वप्न हैं।’’
परम आल्हाद से युक्त, लज्जा एवं शील गुण से विभूषित रानी कनकचित्रा पतिदेव को नमस्कार कर अन्तःपुर में चली गर्इं तथा गर्भावस्था के नव मास उन्होंने जिनेन्द्रपूजा, तीर्थयात्रा, दान, स्वाध्याय आदि में व्यतीत किये। पुनः अत्यन्त पराक्रमी सुन्दर पुत्र को जन्म देकर उन्होंने अपना मातृत्व धन्य कर लिया। पुत्र जन्म का अपूर्व उत्सव मनाकर माता-पिता ने उसका ‘वङ्कायु्रध’ यह नाम रखा। पूर्व कथानक में जिस अच्युतेन्द्र ने मेघनाद के जीव को वैराग्य हेतु सम्बोधन प्रदान किया था वही अच्युतेन्द्र वहाँ से च्युत होकर ‘‘वज्रायुध’’ हुआ है।
अपनी बाललीलाओं से परिवारजनों को प्रसन्न करता हुआ वह बालक सूर्य के समान वृद्धिंगत होने लगा। युवावस्था प्राप्त होने तक उसके रूप-सौन्दर्य, पराक्रम, तेजस्विता की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई, तब माता-पिता ने अपने युवराज पुत्र का विवाह ‘‘लक्ष्मीमती’’नामक एक सुन्दर राजकन्या के साथ कर दिया।
दाम्पत्य सुखों का उपभोग करते हुए वे अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे कि उधर से अच्युत स्वर्ग का प्रतीन्द्र (विद्याधर राजा मेघनाद का जीव) वहाँ से च्युत होकर लक्ष्मीमती के गर्भ में आ गया और ‘‘सहस्रायुध’ नाम के पुत्र रूप में उसका जन्म हुआ। वज्रायुध ने उस समय प्रसन्नतापूर्वक अपना भण्डार खोलकर याचकों के लिए किमिच्छक दान बाँटा और सारी नगरी में बहुत भारी उत्सव मनाया।
पुनः एक बार बसन्त ऋतु के आगमन पर युवराज वज्रायुध अपनी रानियों के साथ वनक्रीड़ा करने देवरमण वन में गया, वहाँ इच्छानुसार जलक्रीड़ा आदि करते हुए उन लोगों ने दीर्घकाल तक विषय सुखों का उपभोग किया। इसी मध्य उसी वन में युवराज को यह क्रीड़ा करते देखकर विद्युद्दंष्ट्र नामक देव ने अपना विमान वहीं लाकर रोक दिया और पूर्वजन्म के वैर का बदला लेने हेतु उस देव ने पहले तो एक बहुत बड़े नागपाश के द्वारा युवराज को बाध दिया, पुनः सरोवर के ऊपर पत्थर की शिला ढक दी ताकि युवराज वहीं मरण को प्राप्त हो जायें किन्तु वज्रायुध तो भावी चक्रवर्ती था, उसने अपने शौर्य पराक्रम से नागपाश को तोड़ डाला एवं शिला को हटाकर बाहर आ गया।
एक मानव की इतनी भारी वीरता देखकर, अवधिज्ञान से उन्हें भावी चक्रवर्ती जानकर वह देव भी डरकर भाग गया, जैसे सूर्य को देखकर अन्धकार भाग जाता है।
युवराज वज्रायुध की यशपताका इस विजय से चारों दिशाओं में लहराने लगी। उन्हें बड़े उत्सवपूर्वक जयजयकारों के साथ नगर में प्रवेश कराया गया तब वज्रायुध ने सर्वप्रथम तीर्थंकर पद धारक अपने पिता श्री क्षेमंकर के चरणों में नमन करके उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया।
किसी समय राजा क्षेमंकर को संसार से वैराग्य हो गया तब लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना,प्रशंसा की और प्रभु ने युवराज वज्रायुध को अपना मुकुट पहनाकर उन्हें राजसिंहासन सौंप दिया। पुनः उसी रत्नसंचय नगर के उद्यान में जाकर उत्तरमुख विराजमान होकर सिद्धों की साक्षीपूर्वक जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
राजा वज्रायुध पिता के सिंहासन पर स्थित होकर अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे। प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करते हुए अपने पुत्र सहस्रायुध को युवराज बनाकर उन्होंने इसका विवाहोत्सव सम्पन्न कर दिया और उससे उत्पन्न ‘‘कनकशान्ति’’ नामक पौत्र के लाड़—प्यार में गृहस्थ जीवन को व्यतीत करने लगे। भगवान् जिनेन्द्र की पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन श्रावक की षट्क्रियाओं का पालन करते हुए सम्यग्दृष्टि वज्रायुध अपने पिता के गुणों का वर्णन प्रायः पुत्र-पौत्रों के मध्य किया करते थे। यह पुण्यकथा सबके हृदय में सम्यक्त्व आलोक के उत्पन्न करने में प्रबल निमित्त थी।
अकस्मात् एक दिन- स्वर्ग में देवों की सभा चल रही थी, वहाँ सम्यक्त्व की चर्चा में ईशानेन्द्र ने राजा वज्रायुध की खूब प्रशंसा की, तब वहाँ से एक देव मनुष्य का रूप धारण कर उनकी परीक्षा करने के लिए मध्यलोक में जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र की रत्नसंचय नगरी में राजमहल में आ गया। द्वारपालों से राजा को ज्ञात हुआ कि कोई विद्वान पण्डित आपसे धर्मचर्चा करने की जिज्ञासावश आपके पास आना चाहते हैं। राजा की स्वीकृति मिलने पर पण्डित का वेश धारण करने वाले उस देव ने राजसभा में प्रवेश किया और योग्य विनय के पश्चात् उसने अपना आसन ग्रहण करके राजा से कहना शुरू किया-
हे राजन् ! आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले प्रमाणों का अभाव होने से आत्मा निरात्मरूप है ऐसा कई महात्माओं ने प्रतिपादन किया है। हे विभो! यह स्पष्ट ही प्रमाण आत्मा को देखने के लिए समर्थ नहीं है क्योंकि परोक्ष आत्मा के देखने में उसकी अप्रत्यक्षता का प्रसंग आता है, इत्यादि अनेक हेतुओं से उसने नैरात्म्यवाद नामक मत की पुष्टि करते हुए वज्रायुध को आत्मतत्व से विमुख करने का बहुत पुरुषार्थ किया किन्तु सम्यग्दृष्टि उस पृथ्वीपति ने उसके सारे हेतुओं का आगम, तर्क एवं दृढ़ श्रद्धान के बल पर खण्डन किया।
अन्त में अपनी पराजय जानकर देव ने राजा की मान्यता को स्वीकार कर लिया और ‘‘राजन्! आपके समान दूसरा सम्यग्दृष्टि नहीं है, ऐसा ईशानेन्द्र का वाक्य बिल्कुल सत्य निकला है ’’ यह कहकर देव वापस स्वर्ग चला गया।
देव के चले जाने पर वहाँ उपस्थित सभासदों ने राजा से पूछा कि यह सब क्या चल रहा था ? वह व्यक्ति कौन था और यहाँ क्यों आया था ?
इसके उत्तर में वज्रायुध ने अपने अवधिज्ञान से कहा कि महाबल नामक विद्याधर का जीव पूर्व भवों में दमितारि के साथ युद्ध करते हुए मेरे द्वारा मारा गया था सो संसार में भ्रमण कर देव हुआ और यहाँ मेरे सम्यक्त्व की परीक्षा करने आया था। समस्त सभासद इस तत्त्वचर्चा से बहुत प्रभावित हुए, पुनः जिनधर्म पर दृढ़ श्रद्धान करते हुए सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लिया जो संसार से मोक्ष तक पहुँचाने में प्रथम सोपान है। कहा भी है-
न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनूभृताम्।।
‘रत्नसंचयपुर’ नगर रत्नों की गरिमा से परिपूर्ण है। प्रजा सुख—क्षेमपूर्वक निवास करती हुई अपने राजा वज्रायुधकी प्रशंसा करते नहीं थकती है। पूरे शहर में चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ छाई हैं। तोरण एवं वन्दनवारों की शोभा प्रत्येक यात्री को आर्किषत किये बिना नहीं रहती,ये सभी प्रसन्नताएँ मानो वज्रायुध के चक्रवर्ती पद की भावी सूचना दे रहे हैं।
प्रातःकाल की मंगल बेला में राजसिंहासन पर आरूढ़ राजा वज्रायुध अपनी अप्रतिम आभा एवं मन्द मुस्कानों से राजसभा को आल्हादित कर रहे थे,उसी समय उनके सेनापति ने आकर निवेदन किया-
‘‘हे राजन्! आपकी आयुधशाला में शत्रुओं को नम्रीभूत करने वाला उत्तम चक्ररत्न प्रगट हुआ है।’’
राजा ने हर्षपूर्वक चक्र उत्पत्ति का समाचार श्रवण कर आयुधशाला के अध्यक्ष नन्द को वेशकीमती आभूषण से पुरस्कृत किया पुनः उसके जाते ही किसी भाग्यशाली मनुष्य ने आकर सन्देश दिया कि-
‘‘हे पृथ्वीपते! आपके पिता तीर्थंकर श्री क्षेमंकर ने घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। श्रीनिलय उद्यान में असंख्य भव्य प्राणी उनके समवसरण में दिव्य उपदेश श्रवण करने पहुच रहे हैं।
यह पावन सन्देश पाकर राजा ने आनन्द अश्रुओं से अपने तन—मन को प्रक्षालित कर परोक्ष में ही तीर्थंकर प्रभु को तत्काल नमन किया और उस वनपालक को अपने अनेक रत्नाभूषण उतार कर भेंट कर दिया।
दो समाचार एक साथ सुनकर उन्होंने चिन्तन किया कि छह खंड की सम्पत्ति का मूल तो धर्म ही है अतः मुझे सर्वप्रथम ‘‘धर्म पुरुषार्थ’’ का सेवन करने हेतु भगवान केवली के समवसरण में जाना चाहिए। कुछ क्षणों पश्चात् बड़ी भारी विभूति सहित वे पिताश्री के समवसरण में पहुचे और उनकी उपासना कर दिव्यध्वनि का श्रवण किया पुनः हृदय में केवली के परम ऐश्वर्य का अनुभव करते हुए वापस अपने नगर में आ गए।
वहाँ आकर विधिपूर्वक चक्ररत्न की पूजा कर सेनापति नंद को संतुष्ट किया। वे चक्ररत्न को आगे करके जब छह खण्ड विजय हेतु निकले तब समस्त पृथ्वी के राजा बिना किसी ईष्र्या, द्वेष के उनके समक्ष नम्रीभूत होकर चक्रवर्ती की आधीनता स्वीकार करने लगे । इस प्रकार बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं को वश में करते हुए चक्रवर्ती वज्रायुध ने शीघ्र ही वृषभाचल पर्वत पर अपनी विजयप्रशस्ति लिखकर अपूर्व विभूति के साथ नगर में प्रवेश किया। भव्यत्व गुण के कारण वह सम्राट चौदह रत्नों की अपेक्षा रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ही अपने सुख का साधन मानता था, इस कारण यद्यपि बत्तीस हजार राजा उसकी सेवा करते थे और नौ निधियों का वह स्वामी था, तो भी उसका हृदय विषयों से विरक्त रहता था।
उस विदेह क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर एक ‘‘शिवमन्दिर’’ नाम का नगर है। उसमें विद्याधरों का राजा मेरूमाली निवास करता था। उसकी रानी का नाम था-विमला। उन दोनों के ‘काञ्चनमाला’ नाम की सुन्दर पुत्री थी।
मेरूमाली ने चक्रवर्ती वज्रायुध के पौत्र कनकशान्ति के साथ अपनी कन्या का परिणयोत्सव कर दिया पुनः जयसेन नामक एक पृथुकसार नगर के राजा ने भी अपनी पुत्री बसन्तसेना को कनकशान्ति के लिए सौंप दिया-विवाह कर दिया। बसन्तसेना की बुआ का पुत्र ‘हिमचूल’ विद्याधर था, वह उसे विवाहना चाहता था परन्तु कनकशान्ति के साथ विवाही जाने पर उसका मनोरथ व्यर्थ हो गया अतः वह दुखी होकर कनकशान्ति का उपकार करने की इच्छा से निरन्तर भस्म से ढकी अग्नि के समान क्रोध से युक्त रहने लगा।
एक दिन अपनी दोनों स्त्रियों के साथ कनकशान्ति राजकुमार हिमालय पर्वत पर वनक्रीड़ा करने गया, इच्छानुसार रमण करते हुए वे चिरकाल तक वहाँ के उद्यान, सरोवर आदि का आनन्द प्राप्त करते रहे, पुनः एक दिन उन्हें एक शिला पर विराजमान दिगम्बर मुनिराज के दर्शन हुए। कनकशान्ति ने सपरिवार गुरूदेव के चरणों में जाकर नमन किया और उनसे पूछा-‘‘हे भगवन्! मेरा हित कैसे हो सकता है ?’’
तत्पश्चात् मुनिराज ने परमौषधि रूप अपने वचनों से उसे सम्बोधन प्रदान किया— अविद्यारागसंक्लिष्टो, बंभ्रमीति भवान्तरे।
विद्या वैराग्य संयुक्त:, सिध्दत्यविकलस्थितिः।।१।।
आत्मनीनमतः कार्यं, तत्वावहित चेतसा।
जैनं विश्वजनीनं हि, शासनं दुखःनाशनम्।।२।।
अर्थात् हे भव्य! अज्ञान और राग से संक्लिष्ट रहने वाला प्राणी संसार के भीतर कुटिल रूप धारण करता है और विद्या तथा वैराग्य से युक्त प्राणी अखण्ड मर्यादा का धारी होता हुआ सिद्ध होता है इसीलिए तत्वों में चित्त लगाकर भी आत्महित करना चाहिए क्योंकि जिनेन्द्र भगवान का सर्वजन हितकारी शासन दुःखों का नाश करने वाला है।
कनकशान्ति ने उन तपस्वी मुनिराज से संसार का दु:ख और मोक्ष का सुख जानकर परम वैराग्य को प्राप्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। उसकी दोनों रानियाँ यह दृश्य देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गर्इं पुनः पतिवियोग के दुःख से अतिशय संतप्त होकर आपस में वार्तालाप करती हुई कांचनमाला बसन्तसेना से कहने लगी-‘‘बहन! संसार में सर्वांगीण विषय सुख भी बड़े पुण्य से प्राप्त होते हैं। हम लोगों ने पूर्व जन्म में अवश्य किसी के सुख में विघ्न उपस्थित किया होगा ? उसी के फलस्वरूप यहाँ हमें इस युवावस्था में पतिवियोग का आकस्मिक दुःख सहन करना पड़ रहा है।’’
पुनः बसन्तसेना बोली-दीदी! ऐसा लगता है कि हिमालय की इन पर्वतमालाओं को, सरोवर की अधिष्ठात्री देवी को, उद्यान में पुष्पों का पराग ग्रहण करते भ्रमरों को और इस वन के पशुओ को हमारी क्रीड़ा का सुख सहन नहीं हुआ इसीलिए उन सबने मिलकर पतिदेव का हृदय हम लोगों के राग से विरक्त कर दिया।
हाय, हाय! अब मैं इस संसार में किसके आश्रित रहकर जीवन यापन करूंगी। हे नाथ! यदि इसी प्रकार से तुम्हें वैराग्य धारण करना था तो हमें राग में क्यों फंसाया ?
इस प्रकार बहुत देर विलाप करती हुई दोनों रानियों ने स्वयमेव जब कुछ सन्तोष धारण किया तब वहीं संघ में विराजमान ‘‘सुमति’’ नाम की गणिनी र्आियका माताजी ने उन्हें संसार की असारता का सारर्गिभत उपदेश दिया,जिससे प्रभावित होकर उन लोगो ने सुमति गणिनी के समीप ही र्आियका दीक्षा ग्रहण कर ली।
वास्तव में संसार में वैराग्य की महिमा अपरम्पार है। देखो! जो कुछ क्षण पहले प्रबल रागभाव से अनुरञ्जित थे वही लोग वीतरागी मुनिराज का निमित्त पाकर वीतरागी बनकर तपस्या में लीन हो गए।
कनकशान्ति मुनिराज को एक दिन वन में हिमचूल ने तप करते देखा तो क्रोध से आगबबूला होकर उसने अपनी विद्याओं के बल से भयंकर राक्षस आदि के द्वारा खूब उपसर्ग किया किन्तु एक धरणेन्द्र ने तत्काल उपस्थित होकर हिमचूल को डाँट—फटकार कर भगा दिया और मुनिराज का उपसर्ग दूर किया।
किसी समय एक मास का उपवास कर वे मुनिराज विहार करते हुए एक बार ‘रत्नपुरु’ नगर पहुंचे। वहाँ धृतषेण नामक राजा ने दूध के आहार से उनका पारणा कराया तब उनके घर में देवताओं द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि की गई।
उस नगर के उद्यान में मुनिराज प्रतिमायोग लेकर विराजमान थे तब एक दिन शुक्लध्यान की विशुद्धि द्वारा उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। सम्राट वज्रायुध ने जब अपने पौत्र कनकशान्ति के केवलज्ञान की बात सुनी तो वहाँ भी जाकर श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा, आराधना करके दिव्यध्वनि का पान किया। पुनः हजारों वर्ष तक राजसुखों का उपभोग करते हुए चक्रवर्ती को एक बार संसार,शरीर, भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने अपने पुत्र सहस्रायुध को राज्यभार सौंपकर क्षेमंकर जिनेन्द्र के निकट तीन हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
उन्हें छह खण्ड के भूमण्डल की रक्षा का अभ्यास था इसीलिए मानो वे प्रयत्नपूर्वक छह प्रकार के प्राणि समूह की रक्षा करते थे। बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए महामुनि वज्रायुध एक बार सिद्धिगिरि पर्वत पर एक वर्ष का प्रतिमायोग लेकर खड़े हो गये तब वन लताओं का समूह उनके शरीर पर चढ़ गया,सर्प-बिच्छू आदि जन्तुओं ने वामी बना ली किन्तु मुनिराज की ध्यानलीन अवस्था को देखकर स्वर्ग की अप्सराओं ने आकर वहाँ मुनि के ऊपर उपसर्ग कर रहे पूर्व भव के वैरी देवों को भगाया एवं उनके शरीर से लताओं का वेष्टन दूर किया, इस प्रकार उपसर्ग-परीषहों को सहन करते हुए उन मुनिराज ने एक वर्ष के बाद प्रतिमायोग समाप्त किया।
उसके पश्चात् उनकी आहार-विहार आदि क्रियाएँ हुइ। क्रमशः ये ही वज्रायुध मुनिराज आगे चलकर तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ हुए हैं। इन्होंने पूर्व भव में भगवान् बाहुबली के समान एक वर्ष का ध्यान किया था।
पिता की अत्यन्त कठिन तपस्या को सुनकर उनके गुणों में उत्सुक होते हुए ‘‘सहस्रायुध’’ने भी अपने पुत्र प्रीतिंकर को राज्य सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। वज्रायुध मुनिराज सिद्धगिरि पर्वत पर विधिपूर्वक शरीर का परित्याग कर उपरिमग्रैवेयक में अहमिन्द्र बन गए। इधर सहस्रायुध ने भी चिरकाल तक तपश्चरण करके ईषत्प्राग्भार नामक पर्वत पर सल्लेखना मरण किया जिसके प्रभाव से वे भी अपने पिता के समान ही उपरिम ग्रैवेयक के कान्तप्रभ नामक अहमिन्द्र हो गए।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर स्थित ‘‘पुष्कलावती’’ देश में ‘‘पुण्डरीकिणी’’ नगरी में न्यायप्रिय राजा घनरथ का शासन चल रहा था। ये राजा घनरथ इसी पर्याय से इन्द्रों के द्वारा पंचकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थंकर पद को धारण करने वाले थे अतः स्वभाव से ज्ञान का तेज उनके रोम-रोम से छलकता था। अप्सरा के समान सुन्दर आकृति वाली उनकी ‘‘मनोहर’’ नाम की प्रथम रानी के पवित्र गर्भ में ‘‘अमितविक्रम’’ नाम का अहमिन्द्र (राजा वज्रायुध का जीव) उपरिम ग्रैवेयक से च्युत होकर आ गया और नव माह पश्चात् मेघरथ नाम के पराक्रमी पुत्र के रूप में जन्म लिया। इसी प्रकार राजा घनरथ की दूसरी रानी ने भी दृढ़रथ नाम के पुत्र को जन्म दिया जो ‘‘कान्तप्रभ’’अहमिन्द्र (सहस्रायुध का जीव )था।
पूर्व भवों से चले आ रहे सम्बन्ध के कारण मेघरथ और दृढ़रथ नामक दोनों भाइयों में स्वाभाविक अगाढ़ स्नेह था। दोनों राजपुत्र धीरे-धीरे चन्द्रकलाओं के समान वृद्धि को प्राप्त करते हुए बचपन से युवावस्था में प्रवेश कर गए तब पिता ने सुन्दर कन्याओं के साथ उनका परिणय संस्कार कर दिया। बड़े पुत्र मेघरथ की मनोरमा एवं प्रियंवदा नाम की दो कन्याओं के साथ शादी हुई। छोटे पुत्र दृढ़रथ को सुमति नाम की पत्नी प्राप्त हुई। तब दोनों भाई राजमहल में इन्द्रिय सुखों का अनुभव करते हुए अपने अमूल्य मानव जीवन को व्यतीत करने लगे।
दो मुर्गों का युद्ध राजसभा में-
एक बार राजसभा में विराजमान राजा घनरथ के समक्ष दो मुर्गे उपस्थित होकर युद्ध करने लगे। बहुत देर तक उन दोनों का युद्ध देखते हुए घनरथ ने अपने अवधिज्ञानी पुत्र मेघरथ से कहा-
‘‘हे वत्स! इन पक्षियों के जन्मान्तर से आए हुए वैर को तथा इनके न थकने के कारण को यदि कुछ जानते हो तो बताकर मेरा समाधान करो।’’
मेघरथ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहने लगे-
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में ‘रत्नपुर’ नाम का एक नगर है वहाँ किसी भव में ये दोनों बैलगाड़ी के चालक गाड़ीवान थे, एक बार दोनों की बैलगाड़ियों में टक्कर हो जाने से दोनों ने तीव्र क्रोध से भड़क कर एक-दूसरे को मार डाला। पुनः दोनों हाथी हो गये वहाँ भी शत्रुभाव से मरकर अयोध्या नगरी में मेंढ़ा हुए। मेंढ़ा पर्याय में भी दोनों युद्ध द्वारा एक-दूसरे को मारकर मरे, जिससे अब ये मुर्गे हुए हैं तथा पूर्वभव सम्बन्धी क्रोध के कारण इनके द्वारा इस प्रकार वैर बढ़ाया जा रहा है। हे पिता! इन मुर्गों में इतनी देर तक थकावट नहीं आने का कारण भी बड़ा विचित्र है। किसी भव में जिनका आपके साथ पुत्रत्व सम्बन्ध था ऐसे जयंत और विजय नामक पूर्व जन्म के पुत्रों ने तप करके अब इस भव में विद्याधर राजा का पद प्राप्त किया है। किसी अवधिज्ञानी मुनिराज के मुख से इन्हें ज्ञात हुआ कि पूर्वभव के आपके पिता अभयघोष नामक मुनि हुए थे पुनः अच्युतेन्द्र पद के पश्चात् अब वे राजा घनरथ हुए हैं। अब ये कौतुकवश आपको देखने यहाँ आए और ‘‘आप इन मुर्गों का युद्ध देखना चाहते हैं।’’ यह जानकर वे दोनों विद्याधर अपनी विद्या से इन्हें लड़ा रहे हैं।
इतनी सारी घटना सुनकर उन दोनों विद्याधर राजाओं ने राजसभा में अपने असली रूप में प्रगट होकर भावी तीर्थंकर एवं पूर्व जन्म के पिता राजा घनरथ की खूब पूजा स्तुति की और मुर्गों ने अपने पूर्व भव सुनकर जन्म जन्मान्तर सम्बन्धी कर्मजन्य वैर को छोड़ दिया और शरीर का परित्याग कर वे ‘भूतरमण’’ नामक अटवी में व्यन्तर देव हो गये।
राजा घनरथ की दीक्षा-कालान्तर में राजा घनरथ को किन्हीं कारणों से राज्यवैभव से वैराग्य हो गया, तब लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए तप का अनुमोदन किया और राजा अपने पुत्र मेघरथ को राजमुकुट बाँधकर स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर घोरातिघोर तपस्या करने लगे।
राजा मेघरथ ने न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करते हुए अपने लघु भ्राता दृढ़रथ को युवराज पद पर आसीन कर दिया और खूब प्रेमपूर्वक दोनों भाई सूरज और चंद्रमा के समान धरती पर अपना प्रकाश फैलाने लगे।
कृतज्ञ व्यंतर देवों ने उपकार का बदला चुकाया-एक बार राजा मेघरथ राजसभा में बैठे थे तभी दो देव आकाशमार्ग से उनके पास आए और हाथ जोड़कर राजा से कहने लगे-
‘‘हे भद्र! आपके उपदेश के प्रभाव से ही हम लोग मुर्गे जैसी तुच्छ पर्याय से छूटकर इस दिव्य शरीर को प्राप्त हुए हैं। हे स्वामी! यद्यपि आपके पास तो सब कुछ विद्यमान है फिर भी हम अपने कर्तव्य का पालन करने हेतु आपकी कुछ सेवा करना चाहते हैं, कृपया हमें अवसर प्रदान करके अनुगृहीत कीजिए।
देवों के इस नम्र निवेदन पर मेघरथ ने उनके कंधे पर बैठकर ढाई द्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना की तथा वापस आकर राजसभा में समस्त प्रजा के समक्ष वहाँ के सौन्दर्य आदि का वर्णन किया। पुनः इन्द्रिय भोगों के फलस्वरूप राजा मेघरथ की पत्नी प्रियमित्रा से एक ‘‘नन्दिवर्धन’’ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ और युवराज दृढ़रथ की रानी सुमति ने भी ‘‘धनसेन’’ नामक पुत्र को जन्म दिया।
अंगूठा दबाकर चलायमान पर्वत को भी स्थिर कर दिया-
जब बसन्तऋतु अपनी मादकता से परिपूर्ण थी तब राजा मेघरथ एक दिन अपनी स्त्रियों के साथ ‘देवरमण’वन के क्रीड़ापर्वत पर क्रीड़ा करने गये थे। वहाँ वे दोनों व्यंतर प्रगट होकर सुन्दर नृत्य-गायन आदि के द्वारा राजा-रानी का मनोरंजन करने लगे। इतने में अचानक वह क्रीड़ा पर्वत हिलने लगा जिससे स्त्रियाँ भयभीत होकर पति के आलिंगन हेतु भागने लगीं। तब राजा मेघरथ ने अपने बाएँ पैर के अंगूठे से दबाकर उस पर्वत को स्थिर कर दिया।
उसी समय पर्वत के नीचे से बड़ी भारी रुदन की आवाज आई और एक विद्याधर देवी आकाश से प्रगट होकर कहने लगी कि हे राजन्! मेरे पति ने अज्ञानतावश पर्वत को चलायमान करने का दुःसाहस किया था किन्तु आप उन्हें क्षमा करके जीवनदान देवें और मेरे सौभाग्य की रक्षा करें यही आपसे मेरी नम्र विनती है।
मेघरथ ने तुरन्त अंगूठे का ढीला कर लिया और विद्याधर राजा को अभयदान देते हुए उन्होंने उसका सारा पूर्व भव जान लिया। पुनः विद्याधर के द्वारा बार-बार पश्चात्ताप करने पर तथा अपनी रानी प्रियमित्रा के द्वारा उसके वैरजन्य पूर्व भव के वृत्तांत पूछने पर मेघरथ अवधिज्ञान से बताने लगे-
भरतक्षेत्र में शंखपुर नगर के राजा उदार का एक अत्यन्त गरीब महावत था, जिसका नाम था-राजगुप्त। उसकी शंखिका नाम की पत्नी थी। एक बार उस महावत ने शंखपर्वत पर सर्वगुप्त मुनिराज का धर्मोपदेश सुनकर ‘‘द्वात्रिंशत् कल्याण’’ नाम का व्रत किया। पुनः उसने मुनि को आहारदान देकर महान् पुण्य अर्जित किया। कुछ दिनों के पश्चात् पति-पत्नी दोनों ने गुरुदेव के पास मुनि-आर्यिका की दीक्षा धारणा कर ली, पुनः समाधिमरण करके महावत का जीव ब्रह्मलोक स्वर्ग में देव हुआ और शंखिका सौधर्म स्वर्ग में देवी हुई।
आगे यही महावत का जीव स्वर्ग से चयकर विजयार्ध पर्वत के राजा विद्युद्रथ की मानसवेगा नामक रानी के गर्भ से यह हेमरथ नाम का पुत्र हुआ एवं शंखिका का जीव स्वर्ग की देवी की आयु समाप्त कर पवनवेगा नाम की इसकी पत्नी हुई है।
यह विद्याधर राजा अमितवाहन की सेवा करके वापस जा रहा था, यहाँ पर इसका विमान रुक गया तो उसने मुझे विमान रोकने में निमित्त समझ कर मान के कारण इस पर्वत को उखाड़ फेकने की भावना से इस पर्वत को चलायमान किया एवं अब अपने कृत्य पर पश्चाताप कर रहा है।
उस विद्याधर राजा ने जब मेघरथ से अपने पूर्व भव सुने तो बहुत प्रसन्न हुआ एवं राजा मेघरथ की महानता,क्षमा और उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा।
इसके पश्चात् थोड़ी देर में ही उन सबको ज्ञात हुआ कि मुनिराज घनरथ ने चार घातिया कर्मों को नाश करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। देवों का आगमन देख वे सभी घनरथ जिनेन्द्र के [[समवसरण]] में पहुँचकर महामहिम पूजा करने लगे। पुनः उन लोगों ने तीर्थंकर की दिव्यध्वनि का पान करके आत्मिक सुख को प्राप्त किया और विद्याधर राजा हेमरथ ने वहीं [[समवसरण]] में जिनदीक्षा धारण कर ली।
उन जिनेन्द्र भगवान् की बारह सभाओं से युक्त [[समवसरण]] की आराधना करके राजा मेघरथ दल बल सहित अपने राजमहल वापस आ गए और श्रावक के कर्तव्यों का पालन करते हुए राज्य संचालन करने लगे।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा मेघरथ के न्यायप्रिय शासन से समस्त प्रजा असीम सुख का अनुभव कर रही है। चारों ओर राजा के गुणों का वर्णन चल रहा है, सदावर्त दान बँट रहा है एवं जिनेन्द्र भगवान की जय-जयकारों से नगरी स्वर्ग के समान प्रतिभासित हो रही है। इस प्रकार कितने ही दिवस, मास और वर्ष व्यतीत हो गए और किसी समय कार्तिक मास का शुक्ल पक्ष आने पर राजा मेघरथ ने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी ‘‘कोई भी मनुष्य किसी जीव की हिंसा नहीं करेगा।’’ और स्वयं भी तेला का नियम लेकर जिनमन्दिर में भक्तजनों के साथ आष्टान्हिक पूजा करने लगे।
एक दिन धर्मसभा में एक कबूतर राजा मेघरथ की शरण में आकर प्राणों की रक्षा हेतु स्पष्ट भाषा में बोलने लगा-हे राजन्! मेरी रक्षा करो,रक्षा करो। उसके पीछे ही एक बाज पक्षी आ पहुचा जो उस कबूतर को मारना चाहता था। वह बाज भी मनुष्य की वाणी में राजा से कहने लगा-
हे नरश्रेष्ठ! आप इस समय प्रत्येक प्राणी पर समताभाव धारण कर जिनपूजा में संलग्न हैं अतः आपको मेरे ऊपर दया करके इस कबूतर को छोड़ देना चाहिए। यह मेरी भूख शान्त करने वाला मेरा भोजन है। यदि आप उसकी रक्षा करेंगे तो क्षुधा से त्रस्त मेरे प्राणों के निकल जाने पर भी तो आपको हिंसा का पाप लगेगा। कृपया आप मेरा भोजन मेरे लिए छोड़ दें अन्यथा मैं शीघ्र ही मर जाऊंगा।
इस प्रकार कहता हुआ वह बाज पक्षी राजा की गोद में छिपे हुए उस कबूतर को क्रोध से देख रहा था कि उसी क्षण मेघरथ उन दोनों के पूर्वभव सम्बन्धी वैर अपने अवधिज्ञान से जान गये और सच्चे अहिंसा धर्म का उपदेश देते हुए बाजपक्षी से कहने लगे-
हे भव्य प्राणी! वैर की परम्परा जन्म-जन्मान्तर में आत्मा को दुःख देने वाली है अतः इसे छोड़कर मैत्री भाव को धारण करो एवं जिनधर्म की शरण प्राप्त कर उच्चगति प्राप्त करो।
पुनः उसका क्रोध शान्त न होता देखकर उन्होंने दोनों का पूर्वभव कहना शुरू किया-
इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में ‘‘पद्मिनीखेट’’ नाम का एक बड़ा नगर है वहाँ ‘सागरसेन’ नामक एक वैश्य रहा करता था। उसकी ‘‘अमितमति’’ नाम की पत्नी ने कालक्रमानुसार दत्त और नन्दिषेण नाम के दो पुत्रों को जन्म दिया था। वे दोनों पुत्र लाड़—प्यार में बिगड़कर अनर्थकारी अवगुणों में निष्णात हो गये। पिता के स्वर्गवासी होने के पश्चात् दोनों भाइयों ने शीघ्र ही सारा धन नष्ट कर दिया और निर्धनता से व्याकुल होकर वे इधर-उधर घूमने लगे।
एक बार उन लोगों ने व्यापार करने के उद्देश्य से पिता के एक मित्र के पास कुछ धन मांगा और ‘‘नागपुर’’ शहर की ओर प्रस्थान कर दिया। काफी दिनों के बाद दोनों इच्छानुसार धन कमाकर अपने नगर की ओर लौट रहे थे, तभी शंख नदी के तट पर विश्राम हेतु लेटे हुए बड़े भाई दत्त को मारने का विचार छोटे भाई के मन में आ गया। उसने ज्यों ही तलवार का एक वार भाई पर किया, वह उठकर खड़ा हो गया और क्रोध के आवेश में छोटे भाई को मारने लगा। परस्पर में लड़ते-लड़ते वे दोनों घायल होकर एक सरोवर में गिरकर मर गये। उनमें से बड़ा भाई दत्त तो उसी नगर के उपवन में कबूतर हुआ जो मेरी शरण में प्राणरक्षा की भिक्षा मांग रहा है और नन्दिषेण नामक छोटा भाई तू बाज पक्षी के रूप में जन्मा है। पूर्व जन्म का वैर ही तुम दोनों को इस जन्म में भी एक—दूसरे को मारने का भाव उत्पन्न कर रहा है।
यह सब कथानक सुनकर दोनों पक्षियों को जातिस्मरण हो गया जिससे उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो पड़ी। वे दोनों भाई-भाई के समान ही प्रेम का प्रदर्शन करते हुए एक—दूसरे का आलिंगन करने लगे।
पुनः राजा मेघरथ से भाई दृढ़रथ पूछने लगे कि ये पक्षी मनुष्य की भाषा में स्पष्ट कैसे बोल रहे हैं। इसके उत्तर में मेघरथ ने बताया कि-
एक बार संजय नामक एक विद्याधर मेरे द्वारा युद्धक्षेत्र में मरण को प्राप्त होकर मनुष्य हुआ और वहाँ मिथ्या तापस के रूप में तपस्या करके मरा तो ऐशान स्वर्ग में सुरूप नामक देव हो गया। स्वर्ग में इन्द्र द्वारा प्राणिरक्षा के विषय में मेरी प्रशंसा सुनकर वह देव यहाँ मेरी परीक्षा लेने के अभिप्राय से आया है जो इन पक्षियों के शरीर में प्रविष्ट होकर मनुष्य की भाषा में इन्हें बोलने को प्रेरित कर रहा है।
यह सुनकर वह देव भी वहाँ प्रगट होकर राजा मेघरथ की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा और उनकी स्तुति-पूजा करके अपने स्थान पर चला गया। कालान्तर में वे दोनों पक्षी शान्त भाव से मरकर भवनवासी देव हो गये।
राजा मेघरथ आष्टान्हिक व्रत के पश्चात् अपने महल में आ गये और धर्मध्यानपूर्वक पुनः राज्य का सुचारू संचालन करने लगे। एक दिन धर्मधर नामक तपस्वी मुनिराज राजभवन में आहारचर्या हेतु पधारे। राजा ने विधिपूर्वक उनको आहार कराया, पुनः उनके महल में पंचाश्चर्यवृष्टि होने लगी। यह सब वैभव आहारदान के पुण्य प्रभाव से राजा मेघरथ को प्राप्त हुआ था।
एक बार मेघरथ को श्मशान भूमि में प्रतिमायोगपूर्वक ध्यानस्थ देखकर स्वर्ग से ईशानेन्द्र ने उन्हें नमस्कार किया। उसे देखकर स्वर्ग की अप्सराएं मेघरथ को ध्यान से विचलित करने हेतु प्रगट हो गइ। श्रृंगार रस से सुशोभित वचन और चेष्टा के द्वारा भी वे देवांगनाएं राजा मेघरथ के मन में क्षोभ उत्पन्न न कर सकीं। तब श्रद्धा से उन्हें नमस्कार करके अपने स्थान पर चली गइ। राजा मेघरथ गृहस्थ में रहते हुए भी कई बार इस प्रकार प्रतिमायोग धारकर मुनिपद का अभ्यास किया करते थे, जो उनके कर्मक्षय में प्रबल निमित्त बनकर खड्ग का कार्य करता था।
रानी के रूप की परीक्षा-एक बार कोई दो सुन्दर स्त्रियाँ मेघरथ की पत्नी परमसुन्दरी ‘‘प्रियमित्रा’’ के पास पहुची। रानी को योग्य भेंट आदि देकर जब वे समुचित स्थान पर बैठ गइ तो प्रियमित्रा ने उनसे पूछा कि आप लोग किसलिए मेरे पास आई हैं ?
उन्होने कहा-
हे देवि! हम लोग कौतूहलवश आपके सौन्दर्य को देखने के लिए आई हैं।
प्रियमित्रा उन देवांगनाओं से बोली-
अभी कुछ देर बाद मैं स्नानादि से निवृत्त होकर विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित होकर बैठूंगी तब आप लोग मेरे असली सौन्दर्य को देखिएगा,तब तक विश्रामकक्ष में आप विश्राम कीजिए ।
थोड़ी देर बाद जब रानी अपनी राजसी वेश-भूषा में उपस्थित हुई, तब देवियों ने पुनः प्रकट होकर कहा कि हे साम्राज्ञी! आपका रूप पहले की अपेक्षा इस समय बहुत क्षीण हो गया है। मनुष्यों की कान्ति नश्वर तथा निःसार होती ही है, उसकी तुलना देवोपुनीत शरीर से कथमपि नहीं की जा सकती है। हे रानी! यद्यपि आपका लावण्य ढलती हुई जवानी से युक्त है तो भी यह स्थाई यौवन से सुशोभित अप्सराओं के भी रूप को जीतने में समर्थ हैं। इन्द्र ने स्वर्ग में आपके रूप की जैसी प्रशंसा की थी आप सचमुच में वैसी हैं, यह कहकर दोनों देवांगनाएं तिरोहित हो गइ।
तदनन्तर रूप के ह्रास की बात सुनकर जिसे अत्यधिक वैराग्य उत्पन्न हो गया था ऐसी रानी प्रियमित्रा ने अपने पतिदेव राजा मेघरथ से देवियों की सारी बात कह सुनाई। राजा तो स्वयं वैराग्य भावों से युक्त थे अतः उन्होंने रानी को शरीर की निःसारता का विस्तार से वर्णन सुनाया। चारों गतियों में अनादिकाल से पंचपरिवर्तन कर रहे इस अनमोल चैतन्य आत्मा का स्वरूप बताया और कहने लगे कि देवी! संसार में तप के समान आत्मा का दूसरा कोई हितकारी बन्धु नहीं है इसलिए भव्य जीवों को शक्ति के अनुसार सदा तपस्या में प्रवृत्ति करनी चाहिए।
इस प्रकार उत्कृष्ट बुद्धि के धारक मेघरथ सभा के बीच में रानी के लिए हित का उपदेश देकर स्वयं भी उस समय राज्य भोगों को छोड़ने के लिए इच्छुक हो गये। उनके इस उपदेश से युवराज एवं लघु भ्राता दृढ़रथ को भी वैराग्य हो गया तब मेघरथ ने अपने पुत्र नन्दिवर्धन को राजनीति का उपदेश देकर उसका राज्याभिषेक कर अपने पिता घनरथ तीर्थंकर के पास जाकर भाई के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली एवं रानी प्रियमित्रा भी सुव्रता आर्यिका के समीप दीक्षित होकर आत्मकल्याण करने लगीं।
महामुनि मेघरथ उग्रोग्र तपस्या करते हुए तीर्थंकर के पादमूल में दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन करने लगे तथा आयु के अन्त में उन्होंने एक मास तक प्रायोपगमन सन्यास धारण कर वीरमरण करके सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त कर लिया।
इसी प्रकार दृढ़रथ ने भी घोर तपस्या का आश्रय लेकर समाधिमरण के द्वारा उसी सर्वार्थसिद्धी विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। वहां दोनों भाई अवधिज्ञान से एक—दूसरे के पूर्व भव जानकर अहमिन्द्र पद की निर्मल संपदा का उपभोग करने लगे।
जम्बूद्वीप में सुशोभित भरतक्षेत्र में अत्यन्त शोभा को प्राप्त कुरुदेश में हस्तिनापुर नाम की नगरी है। उस हस्तिनापुर नगरी में राजा विश्वसेन अपनीr महारानी ऐरादेवी के साथ निवास करते थे। राजा विश्वसेन जब कुरुदेश का शासन कर रहे थे तब उत्तम ऋद्धियों का धारक राजा मेघरथ का जीव,जो सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग विमान में सुख भोग रहा था वह पृथ्वीतल पर आने का इच्छुक हुआ,उसके गर्भ में आने के छः महिने पहले से ही कुबेर ने सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से माता के आंगन में रत्नों की वर्षा शुरू कर दी। दिक्कुमारी देवियों से सेवा को प्राप्त माता ऐरादेवी ने रात्रि के पिछले प्रहर में सुन्दर-सुन्दर सोलह स्वप्न देखे ।
प्रातःकाल मंगलमय कार्यों को सम्पन्न कर रानी ऐरादेवी अपनी सखियों के साथ राजदरबार में पहुचीं, वहाँ सभा में बैठे हुए राजा विश्वसेन को स्वप्नों के बारे में बताया। उन स्वप्नों को सुनकर अत्यन्त हर्ष से भरे हुए राजा विश्वसेन ने उनको स्वप्नों का यथायोग्य फल कहा, पुनः राजा बोले कि प्राणवल्लभे! तुमने स्वप्नों के अन्त में जो अपने मुखकमल में प्रवेश करता हुआ ऐरावत हाथी देखा उसका तात्पर्य यह है कि तुम्हारे पवित्र गर्भ में तीर्थंकर पुत्र अवतीर्ण हो चुका है यह सुनकर माता ऐरादेवी हर्ष से रोमांचित हो उठीं ।
इस प्रकार भाद्रपद शुक्ला सप्तमी की रात्रि में जब चन्द्रमा भरणी नक्षत्र पर स्थित था तब मेघरथ का जीव सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर माता के गर्भ में प्रविष्ट हुआ। तत्क्षण देवों ने अपने इन्द्र परिकर के साथ उस नगरी में आकर पुष्पवृष्टि,रत्नवृष्टि आदि करते हुए अन्त में माता ऐरादेवी की पूजा की और अपने-अपने स्थान पर चले गये ।
अथानन्तर माता के पवित्र गर्भ से वे त्रिलोकीनाथ ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल की मंगल बेला में भरणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए। उन महाप्रतापी जिनेन्द्र भगवान के उत्पन्न होने पर इन्द्रों के सिंहासन सहसा ही कंपित हो उठे। समस्त देव इन्द्रादि स्वर्ग से चलने के लिए उद्यत हुए पुनः हस्तिनापुर पहुंचकर इन्द्रादिक देवों ने दूर से ही वाहनों से उतरकर तथा राजा को अपना परिचय देकर मरुतुल्य राजभवन में प्रवेश किया। जिनेन्द्र जन्मगृह को देखकर उनके मुकुट श्रद्धा से झुक गए तथा मुख स्तोत्रों से शब्दायमान हो उठे, पुनः उन देवों ने उस जन्मगृह की तीन प्रदक्षिणा देकर पश्चात् गृह में प्रवेश किया ।
तदनन्तर शचि इन्द्राणी ने माता के आगे मायामयी बालक रखकर उन जिनराज को उठा लिया तथा सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी के सुन्दर स्कन्ध पर उन जिनेन्द्र को विराजमान कर आकाश मार्ग से मेरू की ओर चला। उस समय ऐशानेन्द्र ने जिनराज के ऊपर वह सफेद छत्र लगा रखा था जिसे देव लोग उनके जन्माभिषेक के लिए आए हुए क्षीरसमुद्र की आशंका से देख रहे थे। इन्द्राणियाँ उन इन्द्रों के आगे हस्तिनियों पर सवार होकर जा रही थीं।
वहाँ पहुचकर इन्द्रों ने सुमेरू पर्वत की ईशान दिशा में स्थित चन्द्रकला के आकार वाली पाण्डुक नामक शिला के सिंहासन पर उन जिनराज को श्रद्धापूर्वक विराजमान किया तथा रत्नमय कलशों को धारण करके समस्त इन्द्र मेरू पर्वत से लेकर क्षीरसमुद्र तक पंक्तिरूप से खड़े हो गए, पुनः इन्द्रों ने क्रम-क्रम से क्षीर-समुद्र के जल से भरे हजार कलशों को अपनी हजार भुजाओं से लेकर जिनबालक का जन्माभिषेक किया,पश्चात् इन्द्रों ने जिनबालक की अनेक प्रकार से पूजा और स्तुति की, पश्चात् वापस नगर की ओर प्रस्थान किया। नगर प्रवेश की सूचना मिलते ही राजा विश्वसेन ने भी मांगलिक द्रव्यों को हाथ में लेने वाले राजाओं के साथ क्रम से सात कक्षाएँ पारकर प्रभु की अगवानी की और भीतर ले जाकर इन्द्राणी ने जिनबालक को माता को सौंप दिया, पुन: ‘‘इनका नाम शान्ति है’’ ऐसा इन्द्र ने सूचित कर सभी देवों के साथ इन्द्रलोक को प्रस्थान कर दिया।
चक्ररत्न की उत्पत्ति—अथानन्तर दस अतिशयों से युक्त ऐसे शान्ति जिनेन्द्र भव्य जीवों के मनोरथों के साथ बढ़ने लगे। इसी शृंखला में दृढ़रथ का जीव,जो सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह भी उन्हीं विश्वसेन राजा की यशस्वती रानी से चक्रायुध नाम का यशस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। दोनों ही महापुण्यवान् बालक साथ-साथ विचरते थे। इस पृथिवी के होते हुए भी देवोपुनीत भोगों को भोगते हुए भगवान शान्तिनाथ के २५ हजार वर्ष व्यतीत हो गए । अथानन्तर किसी दिन शान्तिनाथ भगवान सभा के मध्य स्थित थे उसी समय शस्त्रों के अध्यक्ष अर्थात् सेनापति ने भगवान को नमस्कार कर सूचना दी कि हे प्रभो! आपकी आयुधशाला में ‘‘चक्ररत्न’’ उत्पन्न हुआ है। ऐसा सुनकर शान्ति जिनेन्द्र ने पहले उसे इच्छित पुरस्कार देकर पश्चात् भाई चक्रायुध के साथ जाकर चक्ररत्न की पूजा की । तदनन्तर उनके पीछे आकर चक्र ने रत्नों और निधियों के साथ तीन प्रदक्षिणा देकर शान्तिजिनेन्द्र को समीप से नमस्कार किया। इस महिमाशाली दृश्य को देखकर देवों ने आकाश में प्रगट होकर आश्चर्य किया कि अधिकांशतः सब चक्रवर्ती चक्ररत्न को नमस्कार करते हैं परन्तु यह चक्ररत्न ही शान्तिजिनेन्द्र को नमन कर रहा है।
छह खण्डों पर दिग्विजय—पुनः एक दिन मंत्री और सेनापति ने विनयपूर्वक शान्तिनाथ जिनेन्द्र से निवेदन किया कि हे प्रभो! इस भरतक्षेत्र में भरत आदि चार चक्रवर्ती हो चुके हैं उन्होंने चक्र के रहते हुए भी कठिनाई से ही सबको वश में किया था परन्तु आप तो उस धर्मचक्र के नेता हैं जिसका प्रभाव षट्खण्ड में ही नही अपितु तीनों लोकों में ही अस्खलित है अतः इस चक्ररत्न के उपरोध से ही आपको चक्रर्वितयों का क्रम जो दिग्विजय आदि है वह करना चाहिए। इस प्रकार प्रभु से निवेदन कर तथा उनकी आज्ञा पाकर मंत्री और सेनापति ने दिग्विजय के लिए जोर से भेरी बजवा दी। तदनन्तर जिनके आगे-आगे चक्र चल रहा था ऐसे प्रभु ने गजराज पर आरूढ़ हो नगर से निकलकर सर्वप्रथम पूर्व दिशा के उपवन में प्रस्थान किया वहाँ उन्होंने रत्न और लकड़ी से र्निमित महल में निवास किया। वहाँ सभा मे बैठे हुए धीर—वीर भगवान यद्यपि तीन ज्ञान के धारक थे तो भी वृद्धजनों से पूर्व चक्रर्वितयों की कथा को सुनते हुए साधारण जन के समान आनन्द लेते रहे, तदनन्तर दिन समाप्त होने पर वे बाह्य सभा को छोड़कर अभ्यन्तर सभा में प्रविष्ट हुए वहाँ उन्होंने प्रकरण के अनुरूप मन्त्री और सेनापति से वार्तालाप कर पश्चात् उन्हें विदाकर रात्रि का प्रारभ्भ भाग सघन होने पर निवासगृह में प्रवेश किया, पुनः रात्रि के तीन प्रहर बीतने पर शंखनाद हुआ तब शान्ति जिनेन्द्र ने यथायोग्य सत्कारों से राजाओं का सम्मान कर तथा जयपर्वत नामक हाथी पर सवार हो दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। शान्ति जिनेन्द्र पूर्व,पश्चिम आदि खण्डों पर क्रम-क्रम से विजय को प्राप्त करते हुए मध्यम खण्ड की ओर गए, तदनन्तर वहाँ के राजाओं के नायक आवर्त और चिलात ने मेघमुख देवों के साथ आकर प्रभु को नमस्कार किया, पुनः जिनके आगे-आगे चक्ररत्न चल रहा था ऐसे शान्तिप्रभु ने अग्रभाग में वनपुष्प मञ्जरियों को बिखेरने वाले प्रसन्न व्यन्तरों के साथ वृषभाचल की ओर प्रयाण किया और वहाँ ‘‘ऐरा और विश्वसेन का पुत्र कौरववंशी, काश्यप गोत्री शान्तिनाथ तीर्थंकर और चक्रवर्ती हुआ’’ इस प्रकार राजराजेश्वर शान्तिजिनेन्द्र ने पूर्व परम्परा से चला आया प्रशस्ति लेख अपने हाथ से लिखा सो ठीक है क्योंकि महापुरुषों का धन यश ही होता है।
इस प्रकार चक्ररत्न के द्वारा समस्त पृथ्वी को जीतकर शान्तिनाथ जिनेन्द्र्र ने देवों सहित बड़ी विभूति के साथ नगर में प्रवेश किया। भव्य जीवों ने उन शान्तिप्रभु की वर्तमान में छद्मस्थ होने पर भी आगे प्रगट होने वाले अरहन्त के गुणों की कल्पना कर स्तुति की। इस प्रकार चक्रवर्ती के सुखों का उपभोग करते हुए छियानवे हजार रानियो के साथ उन शान्तिनाथ भगवान के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गए, तत्पश्चात् किसी समय भगवान को वैरागी जानकर सारस्वतादिक लौकान्तिक देवों के समूह ने आकर उन प्रभु को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया तथा उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की। जिनकी कीर्ति रूपी निधि लोक के अन्त तक विद्यमान थी ऐसे शान्तिनाथ भगवान लौकान्तिक देवों को विदाकर नारायण नामक पुत्र पर अपनी वंशलक्ष्मी का भार सर्मिपत कर तप की इच्छा से उस पालकी पर आरूढ़ हुए जो सौधर्म आदि इन्द्रों के द्वारा धारण की गई थी। आकाश को तेजोमय करते हुए शान्तिजिनेन्द्र हस्तिनापुर के सहस्राम्रवन में पहुचे, वहाँ इन्द्रों के द्वारा उठाई गई पालकी से उतरकर शान्तिप्रभु ने नन्दीवृक्ष के नीचे बैठकर शुद्ध बुद्धि से सिद्धो को नमस्कार किया, पुनः ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन जबकि चन्द्रमा भरणी नक्षत्र पर स्थित था, अपरान्ह समय में दो दिन के उपवास का नियम लेकर निष्ठापूर्वक जैनेश्वरी दीक्षा धारण की । भगवान के द्वारा केशलोंच किए गए केशों को इन्द्र ने पिटारे में क्षीरसमुद्र में क्षेप दिया। उन शान्तिजिनेन्द्र को दीक्षा लेते ही सात ऋद्धियों के साथ मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया पुनः तीसरे दिन भगवान ने आहार प्राप्ति के लिए मन्दिर नामक नगर में प्रवेश किया, वहाँ के राजा सुमित्र ने उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक खीर का आहार दिया, उसी समय राजा के यहाँ देवों द्वारा पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई। सामायिक की विशुद्धि से सहित भगवान ने सोलह वर्ष तक उत्कृष्ट तप करते हुए तदनन्तर सहस्राम्रवन में नन्दिवृक्ष के नीचे ही शुद्ध शिला पर आरूढ़ होकर घातिया कर्मों का क्षय करने वाले शुक्लध्यान को धारण किया, पुनः पौष शुक्ला दशमी के दिन अपरान्ह समय में भरणी नक्षत्र के उदयकाल में केवलज्ञान वैभव को प्राप्त कर लिया।
तदनन्तर इन्द्रों के द्वारा र्निमित समवशरण के मध्य गंधकुटी में भगवान शान्तिनाथ पूर्वाभिमुख होकर विराजमान हुए और उन्हें घेरकर प्रदक्षिणा रूप में बारह सभाएँ बनी हुई थीं। जिसमें गणधर आदि बैठते थे, पुनः इन्द्र ने भगवान से अनेक प्रश्न पूछे तब भगवान ने दिव्यध्वनि रूप से द्रव्यों के लक्षण के साथ-साथ छह द्रव्यों के स्वरूप का क्रम से कथन किया, जिससे वह समवशरण सभा श्रद्धा से संयुक्त हो गई। अथानन्तर शान्तिजिनेन्द्र भव्य जीवों के पुण्यास्रव के लिए आस्रव तत्व का कथन करने को उद्यत हुए फिर गुणस्थान, मार्गणा, गुप्ति, समिति आदि का यथार्थ उपदेश दिया पुनः ‘‘इच्छा से रहित शान्तिजिनेन्द्र विहार कर रहे हैं इसलिए समस्त लोक में शान्ति प्रवर्तमान हो’’ इस प्रकार सर्व दिशाओं में प्रस्थानकालिक नगाड़ा शब्द करने लगा। क्रम-क्रम से विहार करते हुए उन शान्तिनाथ भगवान ने तपश्चरण के सोलह वर्ष सहित कुछ कम बीस हजार वर्ष तक भव्य जीवों को सम्बोधित करने के लिए विहार किया। अन्त में जहाँ अजितनाथ आदि तीर्थंकर ने निर्वाण प्राप्त किया था ऐसे सम्मेदाचल पर्वत पर जाकर प्राणिसमूह के मध्य समीचीन धर्म का सार स्थापित करके एक मास का योग धारण किया।
तत्पश्चात् श्रेष्ठ गुणों से सहित कृतकृत्य शान्तिजिनेन्द्र ने ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रदोष समय के व्यतीत हो जाने पर भरणी नक्षत्र के योग में समस्त कर्मसमूह का क्षयकर शान्तभाव से लक्ष्मी नाम से प्रसिद्ध उत्कृष्ट सिद्धपद प्राप्त किया। तत्क्षण इन्द्रादिक देव निर्वाणकल्याणक की पूजा के लिए उस श्रेष्ठ सम्मेदाचल पर आ गए। यद्यपि भगवान का शरीर बिजली के समान तत्काल विलीन हो गया था तथापि अग्निकुमार देवों ने उनके शरीर का प्रतिनिधि बनाकर अग्निशिखा की ज्वाला रूप लाल कमलों के द्वारा उसकी पूजा की।
इस प्रकार पंचकल्याणक विभूति से सम्पन्न सोलहवें तीर्थंकर, पंचम चक्रवर्ती, बारहवें कामदेव श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र के पावन चरण कमलों में शत्—शत् नमन करते हुए मैं उनका संक्षिप्त जीवनवृत्त यहीं समाप्त करता हूँ।
जैनम् जयतु शासनम्
वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
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