राजा कुमारपाल
🅿 *कौन से राजा के मुंह से यदि मैं शब्द का उच्चारण हो जाता तो वे अगले दिन तपस्या करके अपने आप को दंडित करते थे ?*
🅰 राजा कुमारपाल
1🌹कुमारपाल महाराजा का पूर्व भव में क्या नाम था?🅰राजकुमार जयताक
2🌹जयताक के गुरु का नाम क्या था?
🅰यशोभद्रसूरीजी
3🌹जयताक ने कितना धन खर्च करके प्रभु की पुष्प पूजा की ?
🅰5 कोड़ी 4🌹जयताक ने कितने पुष्पो से प्रभु की पूजा की?
🅰18 पुष्पो से
5🌹राजा सिद्धराज का पूर्व भव में क्या नाम था?
🅰धनदत्त सार्थवाह
6🌹कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्रसूरीजी का पूर्व भव में क्या नाम था?
🅰आचार्य यशोभद्रसूरीजी
7🌹कुमारपाल राजा के पिताजी का नाम क्या था?
🅰त्रिभुवनपालजी 8🌹कुमारपाल राजा किस उम्र में राजगद्दी पर बैठे?
🅰50 वर्ष
9🌹उदयन मंत्री के पुत्र का नाम क्या था?
🅰वागभट्ट मंत्री
10🌹कुमारपाल राजा ने तारंगा के पहाड़ पर भव्य मंदिर बनवाया वहा के मुलनायक भगवान कौनसे है?
🅰श्री अजितनाथ भगवान
11🌹 कुमारपाल राजा के पास कितने घोड़े थे?
🅰11 लाख
12🌹कुमारपाल राजा ने स्वद्रव्य से कितने शिखरबंधी जिनालय बमवाये?
🅰1400
13🌹96 क्रोड सोनामहोर खर्च करके कौनसा जिनालय बनवाया?
🅰त्रिभुवनपाल विहार जिनालय 14🌹कुमारपाल राजा ने कितने प्राचीन जिनालायो का जीर्णोद्वार करवाया?
🅰1600
15🌹कुमारपाल महाराजा कौनसे भव में मोक्ष जायेंगे?
🅰तीसरे भव में
16🌹कुमारपाल राजा तीसरे भव में कौनसा पद प्राप्त करेंगे?🅰गणधर
कुमार पाल राजा जिस हाथी के ओहदे पर बैढते
तो पहले क्या करते थे ,
A पुंजनी से पुंज कर बैढते थे
वे अपने जानवरों को कैसा पानी पिलाते
थे
A छनवाकर
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13 - 10 - 2020 (8:30 से 9)
Seema Ji Chordia
Topic -::- कुमारपाल राजा जी
1️⃣ 18 देश के अधिपति का नाम क्या हैं❓
1️⃣🅰️ कुमार पाल राजा जी
2️⃣ कुमार पाल राजा जी का पूर्व भव का क्या नाम है❓
2️⃣🅰️ जयताक जी
3️⃣ कुमार पाल राजा जी का जन्म कब हुआ❓
3️⃣🅰️ वि. स. 1144 और किसी में 1155, भी है
4️⃣ कुमार पाल राजा जी की मृत्यु कब हुई❓
4️⃣🅰️ वि. स. 1230 में
5️⃣ उनकी माता का नाम क्या हैं❓
5️⃣🅰️ काश्मीरा जी
6️⃣ उनके पिता जी का नाम क्या हैं❓
6️⃣🅰️ त्रिभुवन पाल राजा जी
7️⃣ उनके भाई का नाम क्या हैं❓
7️⃣🅰️ महिपाल जी, कीर्ति पाल जी
8️⃣ उनकी पत्नी का नाम क्या हैं❓
8️⃣🅰️ भोपल रानी जी
9️⃣ उनके पुत्र का नाम क्या हैं❓
9️⃣🅰️ राजकुमार नृप सिंह जी
1️⃣0️⃣ उनके। पुत्री का क्या नाम है❓
1️⃣0️⃣🅰️ प्रेमल देवी, देवल देवी
1️⃣1️⃣ उनकी नगरी कोन सी थीं❓
1️⃣1️⃣🅰️ दधिस्थली नगरी
1️⃣2️⃣ कुमार पाल राजा जी के गुरु का संसारी नाम क्या हैं❓
1️⃣2️⃣🅰️ चांग देव जी
1️⃣3️⃣ कुमार पाल राजा जी कोन से गुरू की ओर किस से गुरू पूजा करते थे
1️⃣3️⃣🅰️ हेमचंद्र जी आचार्य जी की प्रतिदिन 108 सुवर्ण कमलों से पूजा करते थे
1️⃣4️⃣ कुमार पाल राजा जी ने कोन सा प्रसिद्ध तीर्थ बनवाया❓
1️⃣4️⃣🅰️ तारंगा जी
1️⃣5️⃣ वह कितने जिनालय के दर्शन के बाद भोजन करते थे❓
1️⃣5️⃣🅰️32 जिनालय जी के
1️⃣6️⃣ वह कितने सेठो के साथ जिनालय जाते थे❓
1️⃣6️⃣🅰️1800 के साथ
1️⃣7️⃣ कुमार पाल राजा जी ने व्याकरण कब पड़ा❓
1️⃣7️⃣🅰️ 60 साल में और किसी में 55 भी हैं
1️⃣8️⃣ मन से पाप होने पर कोन सा तप करते थे❓
1️⃣8️⃣🅰️ उपवास
1️⃣9️⃣ वचन से पाप होने पर कोन सा तप करते थे❓
1️⃣9️⃣🅰️ आयंबिल
2️⃣0️⃣ कुमार पाल राजा जी आवती चोविसि में क्या बनेंगे❓
2️⃣0️⃣🅰️ गनधर भगवंत
2️⃣1️⃣ कुमार पाल राजा जी ने गंधर पद की प्राप्ति केसे की❓
2️⃣1️⃣🅰️ साधर्मिक भक्ति से
2️⃣2️⃣ कुमार पाल राजा जी की मृत्यु केसे हुई❓
2️⃣2️⃣🅰️ उनके भाई ने जहर दिया उससे
कुमारपाल राजा किस प्रकार जिन पूजा करते थे?
a - 62 सामन्तों , 1800 श्रीमंतों , एवम् 72 राजाओ के साथ ।
किसने जीवन के अंतिम 14 वर्षो में 14 करोड़ सुवर्ण मुद्राए साधर्मिक भक्ति में व्यय की।
राजा कुमार पाल
परमार्थ महाराज कुमारपाल १८ देशों के राज्य का भार, सांसारिक तथा व्यहवारिक कार्यों मे व्यस्त रहते हुए भी अपनी दिनचर्या निश्चित की थी |
- सूर्योदय से पहले सुबह ४ बजे नमस्कार महामंत्र का मंत्रोच्चार करते हुए वे उठते थे |
- उसके बाद सामयिक, प्रतिक्रमण करने के बाद श्री योग शास्त्र और वीतराग स्त्रोत का पाठ करते थे |
- उचित काया शुद्धि करके गृह चेत्य में प्रात पूजा (वासक्षेप पूजा) करते थे तत्पश्चात यथा शक्ति पच्छखाण करते थे |
- काया आदि की सर्व शुद्धि करके वे त्रिभुवनपाल विहार में जाकर ७२ सामंतों एवं १८०० कोटियाधिपतियो के साथ अष्टप्रकारी जिन पूजा करते थे |
- प्रतिदिन गुरु पूजा, गुरु वंदन करके पच्छखाण करते एवं प्रतिदिन जिनवाणी श्रवण करते थे |
- अपने स्थान मे आकर लोगों की अरज या फरियादें सुनते थे |
- दोपहर में नैवध्यों की थालीयाँ चैत्यो में चड़ाते थे |
- साधार्मिक बंधुओं की भक्ति, अतिथि संविभाव, अनुकंपा दान देकर ही भोजन करते थे |
- सभा में विधवानों के साथ शास्त्रार्थ, धर्म चर्चा करते थे |
- राज सिंहासन पर विराजमान होकर सामंत, मंत्री, श्रेष्ठीयों को मार्गदर्शन करते थे |
- अष्टमी, चतुर्दशी का पौषध, उपवास और प्रतिदिन रात्रिभोजन का त्याग करते थे |
- शाम को गृह चैत्य की पूजा, आरती, मंगल दीप के बाद प्रतिक्रमण करते थे |
- उपाश्रय में जाकर गुरुमहाराज के साथ प्रतिक्रमण, सामयिक, धर्म चर्चा, शंका समाधान करते थे |
- स्थूलीभद्रादी महापुरुषों का स्मरण, अनित्यादि भावना, विश्वमैित्री, विश्वकल्याण भावना, चार शरण स्वीकार करके नमस्कार मन्त्र का स्मरण करते हुए निद्राधीन बनकर रात गुज़ारते थे |
कुमारपाल राजा की पालनी
- वर्षा ऋतु में जीवों की उत्पति होने के कारण पाटण से बाहर नहीं जाते थे।
- चातुर्मास में प्रतिदिन एकासना करते मात्र आठ द्रव्य ही वापरते थे।
- हर रोज 7 लाख घोड़े, 11 हजार हाथी व 80 हजार गायों को पानी छानकर पिलाते थे।
- जब भी घोड़े पर बैठते तब पूंजनी से साफ़(पूंज) कर बैठते थे।
परिग्रह का परिमाण करने के बाद छूट-
- 11 लाख घोड़े, 11 हजार हाथी, 50 हजार रथ, 80 हजार गायें, 32 हजार मण तेल घी, सोने चांदी के 4 करोड़ सिक्के, 1 हजार तोला मणि-रत्न, घर दुकान जहाज आदि 500 रखने का व्रत लिया था।
- कुमारपाल राजा ने हेमचंद्राचार्य के उपदेश से समूचे पाटण में कत्लखाने बंद करवा दिए, इनके मुख से मारो ऐसा शब्द भी निकल जाता तो उस दिन आयम्बिल अथवा उपवास करते थे।
- एक सेठ ने जूं मार दी इसके दंड स्वरूप यूको विहार नामक जिनालय बनवाया था।
- प्रतिदिन 32 जिनालयों के दर्शन करके भोजन करते थे।
- शत्रुंजय के 7 संघ निकाले जिसमे प्रथम संघ में 9 लाख के 9 रत्नों से पूजा की।(पूजा के बाद 98 लाख धन दान दिया)
- कुमारपाल राजा ने मछीमारों की 1,80,000 जालों को जलाकर उनको अच्छा रोजगार दिया।
- हर रोज योग शास्त्र व वीतराग स्तोत्र का पाठ करने के बाद ही मंजन करते थे।
- अठारह देश में जीवदया का अद्वितीय पालन करवाया।
- सात बड़े ज्ञान मंदिर व 1440 मंदिर बनवाये।
- कुमारपाल राजा ने तारंगा में अद्वितीय जिन मंदिर बनाया।
- चातुर्मास में मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। मन से भी कभी ब्रह्मचर्य का भंग होता तो दूसरे दिन उपवास करते थे।
ऐसा था जीवदया प्रतिपालक महाराज कुमारपाल का जीवन, अपने जीवन में धर्म पथ पर चलते हुए कुमारपाल महाराज ने अनंत पुण्य का बंध किया और आगामी चौविसी के प्रथम तीर्थंकर भगवान पद्मनाभ स्वामी के आप प्रथम गणधर बन मोक्ष को प्राप्त करेंगे !
धन्य धन्य जिनशासन, धन्य हो जीवदया प्रतिपालक
राजधानी गुजरात के अनहिलवाडा (आधुनिक काल में सिद्धपुर पाटण) में थी। कुछ विद्वानों के अनुसार इनका जन्म विक्रम संवत ११४९ में, राज्याभिषेक ११९९ में और मृत्यु १२३० में हुई। ईस्वी संवत के अनुसार उनका राज्य ११३० से ११४० माना जाता है। तदनुसार उनके जन्म का समय ईसा के पश्चात ११४२ से ११७२ तक सिद्ध किया गया है। पालवंश के राजा भारतीय संस्कृति, साहित्य और कला के विकास के लिए जाने जाते हैं।[1] इस परंपरा का पालन करते हुए कुमारपाल ने भी शास्त्रों के उद्वार के लिये अनेक पुस्तक भंडारों की स्थापना की, हजारों मंदिरों का जीर्णोद्धार किया और नये मंदिर बनवाकर भूमि को अलंकृत किया। उसको वीरावल के प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धारकर्ता भी माना गया है। उसने जिन मंदिरों का निर्माण किया उनमें १२२१ में निर्मित गुजरात का तरंगा मंदिर[2], भगवान शांतिनाथ का मंदिर[3] तथा श्री तलज तीर्थ[4] प्रसिद्ध है।
यही नहीं हथकरघा तथा अन्य हस्तकलाओं का भी कुमारपाल ने बहुत सम्मान और विकास किया। कुमारपाल के प्रयत्नों से पाटण पटोला (रेशम से बुना हुआ विशेष कपड़ा तथा साड़ियाँ) का सबसे बड़ा केन्द्र बना और यह कपड़ा विश्वभर में अपनी रंगीन सुंदरता के कारण जाना गया।[5] अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे गए और गुजरात जैन धर्म, शिक्षा और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बन गया।[6] उसने पशुवध इत्यादि बंद करवा के गुजरात को अहिंसक राज्य घोषित किया। उसकी धर्म परायणता की गाथाएँ आHज भी अनेक जैन-मंदिरों की आरती और मंगलदीवो में आदर के साथ गाई जाती हैं।[7] इन्होंने स्वर्गीय महाराजा सिद्धराज जयसिंह जी द्वारा नाराज राजपुत सरदार जो की आबू नरेश महाराजा विक्रमसिंह परमार के राज में सन 1191 से 1199 राजपुत घाँची जाति ग्रहण किये हुए ठहरे थे, उन सभी सरदारों को सन 1199 में उन्होंने सभी 14 जातियों के सरदारो को अहिलनवाड़ा बुलाकर पुनः लौटने का आग्रह किया गया पर उनमें से कुछ सरदार पुनः अहिलनवाड़ा जाकर अपनी मूल पहचान ग्रहण कर ली व बाकी सरदारो ने क्षत्रिय लाठेचा सरदार राजपुत घाँचीजाति के रूप में राजपुताना में ही रहना स्वीकार किया जब कुमरपाल के राज्य की सीमा जैसलमेर तक लगने लगी तो उन्होंने अपने द्वारा स्थापित क्षत्रिय सरदारो के लिए मारवाड़ रियासत के पाली कस्बे में उन क्षत्रिय लाठेचा सरदारो के लिए इष्टदेव सोमनाथ महादेव मंदिर का निर्माण अपने राजकोषीय व्यय से करवाया ताकि सभी 13 जातियों के सरदार अपने इष्टदेव को राजपुताना में रहते हुए याद कर सके ।
कुमारपाल चरित संग्रह[8] नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि वह अद्वितीय विजेता और वीर राजा था। उनकी आज्ञा उत्तर में तुर्कस्थान, पूर्व में गंगा नदी, दक्षिण में विंद्याचल और पर्श्विम में समुद्र पर्यत के देशों तक थी। राजस्थान इतिहास के लेखक कर्नल टॉड ने लिखा है- 'महाराजा की आज्ञा पृथ्वी के सब राजाओं ने अपने मस्तक पर चढाई।' (वेस्टर्न इण्डिया - टॉड) वह जैन धर्म के प्रसिद्ध आचार्य हेमचंद्र का शिष्य था[9] वह जैन धर्म के प्रति गहरी आस्था रखता था और जीवों के प्रति दयालु तथा सत्यवादी था। इस परंपरा के अनुसार उसने अपनी धर्मपत्नी महारानी मोपलदेवी की मृत्यु के बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया तथा जीवन में कभी भी मद्यपान अथवा मांस का भक्षण नहीं किया। मृत्यु के समय उसकी अवस्था ८० वर्ष थी।
कुमारपाल राजा जन्म से जैन नहीं थे।उन्हें लगभग ५० वर्ष की उम्र तक तो अपने प्राण बचाने के लिए जहाँ-तहाँ घूमना पड़ा था। क्योंकि गुजरात के राजा सिद्धराज का यह फ़रमान था की कुमारपाल को देखते ही ख़त्म कर दिया जाए, क्योंकि वो नहीं चाहता था की कुमारपाल राजा बने।
एक बार कुमारपाल फटेहाल दशा में खम्भात की और आ रहे थे, इस समय उनकी मुलाक़ात आचार्य हेमचंद्रसुरी से हुई। कुमारपाल की हालत अत्यंत ही दयनीय थी।उनके ललाट को देखकर , हेमचंद्रजी ने जान लिया की यह तो भविष्य में जिनशासन का महान प्रभावक बनेगा।दुश्मनों से बचाने के लिए आचार्य ने कुमारपाल को ज्ञानभंडार में छिपा दिया।और उनका रक्षण किया। आगे चलकर सिद्धराज की मृत्यु हुई और कुमारपाल गुजरात के राजा बने और १८ देशों के अधिपति बने।
राज्य प्राप्ति के। आड़ भी वे धर्म को भूले नहीं। हेमचंद्राचार्य के उपदेश से उनके जीवन में अदभुत परिवर्तन आया और वे बारह व्रत धारी श्रावक बने।जीवदया उनके रोम-रोम में बसी हुई थी।
• उन्होंने अपने १८ राज्यों में अहिंसा की घोषणा करवाई थी।कोई भी मनुष्य किसी निरपराध प्राणी को निष्कारण मार नहीं सकता था।
• जीवरक्षा के लिए वे चतुर्मास काल दरम्यान अपनी राजधानी पाटण को छोड़कर अन्य कही नहीं जाते थे।
• एक बार एक व्यापारी ने जान बुझकर एक जूं मार डाली। उसी समय उसको दंडित किया गया और दंड के रूप मेन जो रक़म मिली उससे जिनालय का निर्माण करवाया गाय जो “ यूका विहार “ के नाम से प्रसिद्ध है।
• अपने मुख से “ मार “शब्द निकल जाए तो दूसरे दिन कुमारपाल राजा उपवास करते थे।
• एक बार घेवर खाते समय उन्हें मांस की स्मृति हो आइ।तुरंत उन्होंने खाना छोड़ दिया और गुरुदेव के पास जाकर परायश्चित लिया।
• कुमारपाल राजा एक बार पौषधशाला में पौषध कर रहे थे।अचानक एक मकोड़ा उनके पैर पे चिपक गया।अनेक प्रयत्न करने पर भी मकोड़ा जब नहीं हटा तो उसके प्राण बचाने के लिए कुमारपाल ने चप्पू से आसपास की चमड़ी को काटकर उसे दुर कर दिया। जिससे की उस मकोड़े की हिंसा न हों।
• वे प्रतिदिन योगशास्त्र के १२ प्रकाश औरवितराग स्तोत्र के २० प्रकाश का स्वाध्याय करने के बाद ही आहार पानी लेते थे।
उनके जीवन से हमें महत्वपूर्ण शीख मिलती है- जीवदया की।दया तो जैनो की कलदेवी है। जिस प्रकार मिट्टी से घड़ा बनाना हो तो सर्व प्रथम उस मिट्टी को कोमल बनाना पड़ता है, उसी प्रकार आत्मिक गुणो को पाना हो तो अपने ह्रदय को फ़ुल सा कोमल बनाना आवश्यक है।कोमल ह्रदय से ही जीवदया संभव है।
पूर्व जन्म
राजवी कुमारपाल जी का पूर्व भव:-
वर्तमान जन्म का बहुत बड़ा हिस्सा ज़नज़्ज़ावत में प्रसार हुआ था इसलिए कुमारपाल राजा को स्वयं का पूर्व भव जानने की तीव्र उत्तकंठा जागी। श्री हेमचंद्रसूरीश्वर जी महाराज को उन्होंने विनंती की, कृपालु ! कोई उपाय करो। मुझे मेरा पूर्व भव बताए। इस जन्म में आफतो की झड़ी क्यो आयी इस का समाधान कराइये।
राजन! पूर्व भव जान सकु इतना ज्ञान मेरे पास नही है। आज के इस युग मे किसी के पास नही है। पूर्व भव केवलज्ञान द्वारा या अवधि ज्ञान द्वारा जान सकते है। इन दोनो के अभाव में पूर्व श्रुत का ज्ञान प्रबल मात्रा में प्राप्त किया तो उसके द्वारा जान सकते है । इन तीनो में से 1 भी मेरे पास नही है फिर भी सिद्धचक्र के अधिष्ठायक देव द्वारा आप के पूर्व भव जानने की कोशिश करूंगा।देव स्वयं अगर आप के पूर्व जन्म को मर्यादित अवधि ज्ञान के बल से जान सकेंगे तो मुझे अवश्य कहेंगे।
कुमारपाल को अनहद आनंद हुआ ।उन्हें श्रद्धा थी कि गुरुदेव कैसे भी कर के मेरा पूर्व जन्म अवश्य जान पाएंगे।
सिद्धचक्र की उपासना कलिकाल सर्वज्ञश्रीजी लंबे समय से कर रहे थे। शुद्ध परिणाम पूर्वक ओर उत्कट एकाग्रता के साथ सूरिजी ने उपासना की थी,अतः सिद्धचक्र के अधिष्ठायक विमालवाहन यक्ष उन पर प्रसन्न हुए।
आज रात में सूरी मंत्र के जाप कर सूरी जी ने विमल वाहन यक्ष का स्मरण किया। संविग्न गच्छ नायको की सेवा के लिए लालायित रहने वाले यह यक्ष सूरी भगवंत के समक्ष प्रस्तुत हुए। सूरी जी के प्रश्न सुने। स्वयं के निर्मल अवधि ज्ञान का उपयोग रखा। कुमारपाल,सिद्धराज जयसिंह और कलिकाल सर्वज्ञश्रीजी ,तीनो के पूर्व भव जान लिए। आचार्यदेव को सुनाए ।यक्ष ने विदाई ली।सूरी जी की स्मरण शक्ति तीव्र थी।पूर्व जन्मो के वृतांत वे बहुत ही ध्यानपूर्वक सुन याद रखा।
दूसरे दिन कुमारपाल की राजसभा मे आचार्य भगवंत का पदार्पण हुआ। जैन,जैनेतरो से छलकती विशाल पर्षदा समक्ष सूरिजी ने पूर्वजन्मो का प्रकाशन किया।
अरवल्ली गिरिमालाओ के ऊपर के प्रदेश में जयपुर नाम का नगर था। जयकेशी राजा वहाँ राज्य करते थे। *जयताक* उनका पुत्र था। पुत्र क्रमशः बड़ा हुआ।सातो व्यसन में चकचुर बना ।जुगार और वेश्यागमन कर वह राजकुल की अपकीर्ति फैलाने वाला निकला। अंत मे पिता ने उसे देश निकाला दिया।
अरवल्ली की गिरिमालाओ में वह पहुचा। भीलो का साथ मिला।चोरो की पल्ली बना जयताक पल्लीपति बना। लूंटफाट और हिंसा उसके जीवन का रोजिन्दा व्यवसाय बन चुका था।
एक बार नरवीर नाम का सार्थवाह इस प्रदेश में से पसार हुआ। जयताक स्वयं के साथियो के साथ सार्थ को लूटा।सभी प्राणों को हाथ मे ले भाग निकले। चोरो को बहुत धन मिला। नरवीर सार्थ वह गुस्सा होते मालव देश मे पहुँचा।राजा के पास से विशाल सैन्य इक्कठी की,फिर पल्ली के प्रदेश के तरफ आ जयताक की पल्ली पर अचानक हमला किया।
जयताक ने अपने साथियों के साथ मिल कर सामना तो किया किन्तु चोर तो भागने लगे।बचे चोरो के हाथ जो लगा वो ले कर पलायन हो गए।जयताक एकदम अकेला हो गया,इसलिए वो भी जान बचा कर पलायन हो गया। उस के पीछे पीछे जयताक की सगर्भा पत्नी भी दौड़ने लगी।
इस तरफ सार्थवाह के सैनिक पल्ली में जा के लूंटे सभी माल को ले लिया,इसके अलावा भी अनेक धन सम्पत्ति लूंटी।सभी वापस लौटे।सार्थवाह चुनिंदा सुभटो के साथ पल्लीपति का पीछा किया। उस के दिल मे जयताक के लिए द्वेष का दावानल जल रहा था। जयताक को मार डालने की खुन्नस से यह उसके पीछे दौड़ रहा था पर जयताक पकड़ में नही आया,पर उसकी सगर्भा पत्नी को पकड़ उसे जमीन पर पटक पटक कर मार डाला।पत्नी सगर्भा थी ,उसका सगर्भा पुत्र जब माता के उदर से बाहर उछल कर आ गया तब उस सगर्भ शिशु को भी इस पापात्मा सार्थवाह ने परधाम पहुँचा दिया।
यह सब लीला दूर पेड़ के पिछे छुपे जयताक ने नज़रोनज़र देखा।यह द्रवित हो गया।भय ओर आक्रोश उसके अंग अंग में व्यापत हो गया,किन्तु वह असहाय था।इसलिए बदला ले, ऐसी परिस्थिति में नही था।
कितने दिन रोने में और पागलपन में जयताक ने निकाले.... जंगल मे वो भटक रहा था।पत्नी की निर्मम हत्या से उसके मन की शांति बिल्कुल तीतर बितर हो गई थी।शिकार कर वह उदर पूर्ति करता था।इस तरह अशांति,असहायता और असभ्यता में उसके दिन पसार होने लगे।
दूसरी तरफ नरवीर सार्थवाह मालवती वापस आया।मालव के राजा शील और सदाचार के प्रेमी थे।जब उन्होंने नरवीर के मुख से ही स्त्री और गर्भ की हत्या की बात सुनी तो बहुत गुस्सा हुए। नरवीर को देश निकाला दिया ,उसकी सभी जागीर ले ली गई। नरवीर भी निःसहाय बना।जंगल मे जा कर उसने सन्यास स्वीकार किया।शेष जीवन अज्ञात तप कर पूर्ण किया।मृत्यु प्राप्त कर ,वह नरवीर की आत्मा यहां सिद्धराज जयसिंह बने।
इस तरफ वह दुखियारा जयताक एक दिन जंगल मे आचार्य यशोभद्र सूरिजी को मिला ।जैनाचार्य ने इस दुखियारे पर करुणाभर दृष्टि की। जयताक उनके चरणों मे गिर बहुत रोया। स्वयं के सम्पूर्ण जीवन की किताब सूरी जी के पास खुली रख दी।
आचार्य देव ने उसे भरपूर आश्वासन दिया।हिंसा,चोरी और शिकार का रास्ता छोडवाया।सातो व्यसन छोडवाये।धर्म के प्रति स्नेह पैदा करवाया।
सूरी जी के साथ विहार कर वह तेलंग देश आया। *ओढर श्रावक* के घर घरकाम की नॉकरी मिली। एक बार पर्युषण पर्व आया,तब शेठ ने जयताक को पूजा के वस्त्र दिए।स्वयं के साथ पूजा करने की प्रेरणा की।जयताक ने भी वही किया। शेठ के साथ वह जिनालय में प्रवेश किया।जिन प्रतिमा को देख उसके रोम रोम रोमांचित हो उठे,जिन प्रतिमा के प्रति उसे बहुत स्नेह जागा।
जयताक ने सोचा - शेठ के धन से खरीदे केसर से पूजा करु तो उसमें मुझे क्या लाभ?? नही ! पूजा तो मेरे स्वयं के धन से ही करनी चाहिए । स्वयं की समग्र संपत्ति खर्च कर जयताक ने अट्ठारह फूल खरीदे । उछलते उल्लास के साथ जिनपुजा कि*
संवत्सरी के दिन ओढर श्रावक ने उपवास किया। जयताक ने भी शेठ का अनुकरण किया। दूसरे दिन उसे जो भोजन मिला उसमे से सुपात्रदान किया.... इस तरह जिन पूजा और सुपात्रदान स्वद्रव्य से कर उसने कल्पना बाहर का पुण्य उपार्जन किया।मृत्यु प्राप्त कर वह त्रिभुवनपाल के पुत्र कुमारपाल बने।
ओढर श्रावक की आत्मा आयुष्य पूर्ण कर यही उत्त्पन्न हुए और उदयन मंत्री बने।
राजन! यशोभद्र सूरी जी कालधर्म प्राप्त कर इस जन्म में आप के समक्ष बैठे है वे जैनाचार्य हुए....
राजा कुमारपाल ने विस्मयता का कोई पार न रहा। पूरी सभा एक चित्त से यह वृतांत सुन रहा था।
कुमारपाल राजा ने पूछा - भगवंत ,आप ने जो वृतांत कहा वह सत्य ही है फिर भी इस का कोई प्रत्यक्ष साबीति भी है?
सुरीदेव ने कहा -
हा ,राजन ! उलंगलनगर में (आंध्र प्रदेश का एक शहर) ओढर श्रावक के वारसदार आज भी जीवित है। उनके घर की वृद्ध दासी ओढर श्रावक और जयताक का संबंध जानती है।
कुमारपाल जी ने मंत्रियो को भेजा और पुछपरछ करवाई।बहुत ही जल्द वे मंत्रीगण कलिकाल सर्वज्ञ श्रीजी के कथन सत्य है यह निष्कर्ष ले कर हाज़िर हुए। कुमारपाल जी की गुरुश्रद्धा उस वक्त कई गुना बढ़ गई।
कुमार पाल राजा का जीव अभी कहा है?
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