कथा साधु वंदना1
बड़ी साधुवन्दना - 1
अनेक शास्त्रों में से नवनीत रूप सार निकाल कर पूज्य जयमल जी महाराजसाहेब ने साधुवन्दना की रचना की। उपकारी तीर्थंकरों से लेकर इतिहास में हुए कई साधु महात्माओको वन्दन कर सके, उनके गुणों की अनुमोदना, अभिनन्दना कर उन गुणो को खुद में स्थापित करने की इच्छा व साधना कर सके, उन उच्च आत्मा ओने बताये रास्ते पर चलने के लिए उनसे हम प्रेरणा प्राप्त कर हमारी साधना में जोश भर सके ऐसा अनन्य उपकार पूज्य जयमलजी ने अपनी इस रचना द्वारा हम पर किया। बड़ी साधुवन्दना यानी रजोहरन की खदान। अनेक साधु जी का परिचय।
प्रथम 2 गाथा
नमु अनंत चोवीसी रुषभादिक महावीर,
इण आर्य क्षेत्र मां घाली धर्म नी सीर ।1।
महा अतुल बली नर शुर - वीर ने धीर,
तीरथ प्रवर्तावी, पहुंच्या भवजल तीर ।2।
नमु - प्रथम शब्द ही विनय का द्योतक,
विनय जो कि धर्म का मूल है।
कहते है कृष्ण वासुदेव ने नेम प्रभुके 18,000 साधुजीको वन्दन कर अपार पुण्योपार्जन किया। फिर धर्म दलाली आदि सुकृत्यों से तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। नमन की महिमा समझने के लिए इससे बड़ा दृष्टांत क्या होगा।
तीर्थकर यानी क्या : -
हमे जो भवजल यानी जन्म मरण से छुटकारा दिलाने में मार्गदर्शक बने , राहबर बने जो मुक्ति दिलाये वह तीर्थ। यानी साधुजी, साध्वीजी, श्रावक, श्राविका
ओर तीर्थ की स्थापना कर समय समय पर धर्म का पुनः स्थापन करे वह तीर्थंकर। पुनः स्थापन यानी जैन धर्म अनादि से है, किसीने स्थापना की ऐसे नही। पर समय के असर से यह दब जाता है तब तीर्थंकर इसे पुनः स्थापित करते है।
एक काल चक्र के आधे हिस्से में एक भरत या एक ऐरावत क्षेत्र में 24 तीर्थंकर होते है। जिन्हें हम चौबीसी कहते है। अतीत से लेकर आज तक ऐसी अनंत चौबीसी हो चुकी है।
हम जिस समय में रह रहे है, जिस भरत क्षेत्र में रहते है, इसमे भी 1 चौबीसी पूर्ण हो चुकी है। जिनमे प्रथम ऋषभदेव से लेकर 24 वे यानी वर्तमान शासन नायक महावीर स्वामी का नाम है।
इन तीर्थंकरों के बल की कल्पना करना भी मुश्किल, इनमें इतना अतुल बल होता है। लोक में सबसे बलशाली इंद्र , ऐसे अनंत इंद्र मिलकर तीर्थंकर प्रभु की छोटी उंगली तक हिला नही सकते। यह मात्र उपमा है।
यह तीर्थंकर अपने क्षेत्र में तीर्थकी स्थापना कर , लोगो मे मार्गदर्शक बनकर फिर भविष्य के लिए संघको तैयार कर स्वयं इस संसार से सदा के लिए मुक्त बन सिद्ध बन जाते है।
19 :7
बड़ी साधुवन्दना - 2
सीमंधर प्रमुख जघन्य तीर्थंकर बीस,
छे अढी द्वीप मा जयवंता जगदीश । 3।
एक सो ने सित्तेर उत्कृष्ट पदे जगीश,
धन्य मोटा प्रभुजी, तेहने नमावु शीश ।4।
मनुष्यलोक यानी अढाई द्वीप में 15 कर्मभुमि में ही तीर्थंकर प्रभु होते है। अढाई द्वीप में अन्य मनुष्य क्षेत्र 86 है भी , पर वह युगल क्षेत्र है। वँहा धर्म नही होता। मात्र पूण्योदय से युगल मनुष्यो को भरपुर सुख मिलता है , वह भोगते है। ना धर्म , ना ही अधर्म। इस विषयक उन्हें कोई समझ नही होती।
15 कर्मभुमि में 5 भरत, 5 ऐरावत व 5 महाविदेह क्षेत्र होते है।
5 महाविदेह क्षेत्र हमेशा कर्मभुमि रहती है , यानी वँहा हमेशा तीर्थंकर होते रहते है। जबकि भरत ऐरावत में कभी कर्म युग होता है , कभी युगलकाल या कभी अत्यन्त दुखद काल। तो भरत ऐरावतमे जब कर्मयुग होता है तब तीर्थंकर होते है। यानी कालचक्र के तीसरे व चौथे आरे में भरत ऐरावत में तीर्थंकर जन्म लेते है। और धर्म की पुनः स्थापना कर फिर मोक्ष जाते है।
1 महाविदेह क्षेत्र में 32 विजय होती है। उनमें किसी भी समय कम से कम किन्ही 4 में तीर्थंकर भगवान होते ही है। ऐसे 5 महाविदेह में कुल 4 × 5 = कम से कम 20 प्रभुजी कभी भी होंगे ही होंगे। इससे कम कभी नही होते। और इससे ज्यादा भी तीर्थंकर यानी सभी 5 × 32 विजय में = 160 तीर्थंकर महाविदेह में हो सकते है।
जैसे जब हमारे यहां अजितनाथजी भगवान थे तब पांचों महाविदेह की 160 विजय में 160 प्रभुजी थे, उस समय 4 अन्य भरत व 5 ऐरावत क्षेत्र में भी तीर्थंकर भगवान बिराज रहे थे। यानी उस समय अढाई द्वीप में कुल 160 + 10 = 170 कुल प्रभुजी विचरण कर रहे थे।
वर्तमान की बात करे तो 5 महाविदेह में 20 तीर्थंकर प्रभुजी ( जैसे ऊपर बताया 1 महाविदेह में 4 कम से कम ) विहरमान है। हमारे जंबुद्वीप के महाविदेह में सीमंधर स्वामी, युगन्धर स्वामी, बाहु स्वामी, सुबाहुस्वामी यह 4 प्रभुजी है।
5 महाविदेह के बीसो भगवान का जन्म एक ही समय मे यानी हमारे यहां जब कुंथुनाथजी का शासन था तब हुआ। मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में उनकी दीक्षा व कैवल्य प्राप्ति हुई तथा जब हमारे यहां आगामी चोबीसी के 7 वे प्रभुजी व 8 वे प्रभुजी के मध्य का समय होगा तब वे निर्वाण प्राप्त करेंगे। तभी कम से कम किन्ही अन्य 20 मुनि कैवल्य पाकर तीर्थंकर पद प्राप्त करेंगे। यह नियमा है।
बड़ी साधुवन्दना - 3
केवली दोय कोड़ी, उत्कृष्टा नव क्रोड,
मुनि दोय सहस्त्र कोड़ी, उत्कृष्टा नव सहस्त्र क्रोड । 5।
विचरे छे विदेहे मोटा तपसी घोर,
भावे करि वन्दू टाले भव नी खोड़ ।6।
प्रस्तुत दो गाथाओमे महाविदेहक्षेत्र में बिराजित विहरमान प्रभुजी के मुनि परिवार की संख्या का उल्लेख कर उन्हें वन्दन कितना उपकारी है यह बताया गया है।
साधु सन्तो को वन्दन हमारी सबसे बड़ी तकलीफ भव भ्रमण रूप खोड़ (कमी, दुख) दूर करने का उपाय है।
एक विहरमान प्रभु के परिवार में दस लाख केवली है।
व 100 क्रोड मुनिराज है।
यानी 20 विहरमान के कुल 2 क्रोड केवलज्ञानी मुनि विचरण कर रहे है।
और सकल मुनिराज की संख्या 2000 क्रोड होती है। यह संख्या अढाई द्वीप में जघन्य मुनिराज की संख्या है। यानी किसी भी समय अढाई द्वीप में कम से कम 2000 क्रोड मुनिराज होते ही है। यदि उत्कृष्ट हो तो 9000 क्रोड मुनिराज भी हो सकते है। वैसे ही जिस तरह जघन्य 2 क्रोड केवली होते है किसी भी समय वे उत्कृष्ट हो तो 9 क्रोड भी हो सकते है।
( एक मान्यता वर्तमान में एक विहरमान के 100 क्रोड साधुजी व 100 क्रोड साध्वीजी कुल 200 क्रोड ओर बीस विहरमान के कुल साधुसाध्वी जी 4000 क्रोड की भी है। )
इन साधुभगवन्तो मे कई अत्यंत तपस्वी , ज्ञानी , ध्यानी आदि होते है। जिनको किया गया वन्दन हमारे लिए अति श्रेयकर है।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 4
चोबीसे जिन ना , सघला ही गणधार,
चौद सो ने बावन, ते प्रणमु सुखकार ।7।
जिन शासननायक , धन्य श्री वीर जिनन्द,
गौतमादिक गणधर, वर्तायो आनंद ।8।
गणधर : - शब्दशः अर्थ : - गण यानी साधुजी का समूह उस गण के नायक को गणधर कहते है। या हम यह समझे कि तीर्थंकर प्रभु के प्रमुख शिष्यों को गणधर कहते है।
यह एक विशिष्ट पदवी होती है। यहां तीर्थंकरों के वर्णन के बाद तुरन्त गणधर को नमन किया गया इससे हम इस पद का महत्त्व समझ सकते है।
प्रभु के केवलज्ञान के बाद उनकी प्रथम देशना में संघ की स्थापना होती है। तब सन्तो में श्रेष्ठ ज्ञानी को गणधर पद प्रदान किया जाता है। विशिष्ट ज्ञान के कारण इन्हें तीर्थंकर 3 पद - त्रिपदी का संक्षिप्त उपदेश देते है उस 3 पद से वे समस्त ज्ञान को ग्रहण कर लेते है। ( 3 पद - उत्पन्न होता है, नाश होता है, शाश्वत रहता है। )
इन ज्ञान की प्राप्ति के बाद तीर्थंकर अर्थ रूप से सभी को देशना देते है, जो गणधर आने वाले भविष्य के लिए सूत्र रूप में गुंफित करते है। यानी 12 अंग शास्त्रों की रचना कर हम पर असीम उपकार करते है।
वर्त्तमान चौबीसी में हुए 24 प्रभु के विभिन्न संख्या में गणधर हुए । जैसे प्रथम प्रभु के 84 गणधर थे। चौबीसों प्रभु के कुल 1452 गणधर हुए। हमारे शासननायक वीर प्रभु के 11 गणधर हुए।
जिसमे प्रथम गौतमस्वामी थे। इन 11 गणधरों ने 9 गणों के नायक बनकर उनको धर्म पालन की प्रेरणा देते रहे , व उनकी साधना में सहायक बनते रहे। वीर प्रभु के निर्वाण बाद पांचवे गणधर सुधर्मास्वामी हमारे संघ के नायक बने। आज हमारे पास जितने भी अंग उपस्थित है वे सुधर्मास्वामी की जंबुस्वामी को दी हुई वांचना का ही अंश है।
जिनवाणी को हम तक पहुचाने वाले असीम उपकारी गणधर भगवन्तों को हमारा सदाकाल वन्दन हो।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 5
श्री ऋषभदेव ना भरतादिक सो पूत,
वैराग्य मन आणि संयम लियो अदभुत ।9।
केवल उपजाव्यू कर करणी करतूत,
जिनमत दीपावी सघला मोक्ष पहुंत।10।
प्रथम राजा, प्रथम मुनि, प्रथम तीर्थंकर ऐसे श्री ऋषभदेव प्रभु कुल 83 लाख पूर्व संसारिक अवस्था मे रहे। इस दौरान उन्हें कुल भरत बाहुबली आदि100 पुत्र व ब्राह्मी - सुन्दरीजी 2 पुत्रियां हुई।
प्रभु ने दीक्षा पूर्व अपने राज्य को अपने 100 पुत्रों में बाट दिया। व मुनि बन गए।
1000 वर्ष छद्मवस्था बीतने पर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ व तीर्थंकर बन संघ स्थापना की।
इस दौरान,
अब भरत चक्रवर्ती का भावी चक्रवर्ती बनना था उसके आयुधशाला यानी शस्त्रागार में चक्र रत्न उपस्थित हुआ। तब चक्रवर्ती को प्रथम छहो खण्ड के सभी राजाओको जीतना व अपने अधीनस्थ करना आवश्यक था। इस लक्ष्य से उसने अपनी विजय यात्रा प्रारंभ की। अपने 99 भाइयों को भी संदेश पहुंचाया।
तब बाहुबली को छोड़कर 98 भाई एकत्र हुए। हमने अपना राज्य अपने पिता से प्राप्त किया है। हमे उससे ज्यादा की अपेक्षा नही पर हम भरत की महत्त्वाकांक्षा व उसकी अधीनता क्यों माने।
सभी भाई मिलकर प्रभु ऋषभदेव के पास आये। व भरत की शिकायत की।
ऋषभदेव अब इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। जगत व मनुष्य भव का सत्य वे समझ व आत्मसात कर चुके थे। उन्होंने 98 पुत्रो से पूछा कि आपको स्थायी राज्य चाहिए या क्षण भंगुर राज्य। सब भाइयों ने स्थायी तौर पर राज्य की मांग की। तब भगवान ने समझाया कि स्थायी राज्य सिर्फ मोक्ष है। जँहा का राज्य ना कभी पूरा होगा ना ही कभी कोई छीन सकता है ।
प्रथम प्रभु के यह सभी पुत्र रुजू स्वभाव के थे , ओर तीर्थंकर का उपदेश, उन पर जिनवाणी का प्रभाव हुआ और सभी 98 पुत्रो के मन मे वैराग्य उतपन्न हुआ। बोधि दुर्लभ भावना का चिंतन हुआ व सभी पुत्रो ने अपना राज्य भरत को सौंपकर दीक्षा ली। शुद्ध भाव से संयम पालन कर जिनमत को यशस्वी बनाते हुए आत्म कल्याण किया। संयम पालकर सभी पुत्र मोक्ष का स्थायी राज्य प्राप्त किया। ( ऋषभदेव प्रभुके सभी 100 पुत्रो ने मोक्ष प्राप्त किया, 98 की गाथा यहां बतलाई अन्य भरत बाहुबलीजि का कल की गाथाओमे वर्णन का प्रयास 🙏 )
बड़ी साधुवन्दना - 6
श्री ऋषभदेव ना भरतादिक सो पूत,
वैराग्य मन आणि संयम लियो अदभुत ।9।
केवल उपजाव्यू कर करणी करतूत,
जिनमत दीपावी सघला मोक्ष पहुंत।10।
पिछली गाथा का बाकी कथानक
भरत चक्रवर्ती
इस अवसर्पिनी काल के प्रथम चक्रवर्ती, अपार पुण्योदय के धनी, प्रथम तीर्थंकर के पुत्र अत्यंत पराक्रमी होने के साथ ही जिन धर्मानुरागी। इनके जीवन की गाथा लिखने के लिए भी एक अलग से ग्रंथ जितनी सामग्री उपलब्ध है।
पिछली बार हमने देखा कि 98 भाई यो ने भरत की आज्ञा मानने की जगह संयम ग्रहण किया और स्वकल्याण किया। ऐसे ही भरत के भाई बाहुबलीजी ने भी भरत की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया। बाहुबली जी भी अत्यंत बलशाली थे। बाहुबलीजी ने ऋषभदेव को फरियाद करने की जगह युद्ध करना स्वीकार किया। दोनो सगे भाइयों के बीच युद्ध मे हजारों लाखों सैनिकों की हत्या न हो इस हेतु शकेन्द्र ने दखल दिया और दोनो भाइयों को मल्ल युद्ध के लिए समझाया। सिर्फ भाइयों के बीच युद्ध होगा यह तय हुआ। भरत ने चक्र रत्न बाहुबलीजी पर चलाया वह भी सगोत्र यानी एक परिवारजन होने के कारण बाहुबलीजी पर नही चला। फिर दोनो के बीच 5 प्रकार के मल्ल युद्ध हुए। यह एक आश्चर्य समान ही था कि नरदेव अत्यंत बलशाली चक्रवर्ती भी बाहुबलीजी को परास्त कर नही पा रहे थे। फिर बलिंद्र चमरेन्द्र ने बाहुबलीजी को समझाया । चालू युद्ध मे ही बाहुबलीजी के हृदय का परिवर्तन हुआ , वैराग्य की ओर अग्रसर हुआ । जो हाथ भरत को मारने के लिए उठाया था उसी हाथ से अपने बालों का लोच कर संयम ग्रहण के लिए खुद को तैयार कर लिया।
पर हाय रे मान कषाय ,
98 छोटे भाई जो दीक्षित हो चुके थे , अब यदि प्रभु के पास जाये तो उन भाई मुनि को वन्दन करना पड़ता, यह बड़े भाई को मंजूर न हुआ।
वन की ओर चल दिये।
अब संयम स्वयं ग्रहण कर लिया व घोर तप में लीन हो गए। एकदा ऋषभदेव के कहने पर साध्वी बहने ब्राह्मी सुंदरीजी महासतीजी ने आकर जब समझाया तब उन्होंने मान रूपी हाथी से नीचे उतरकर भाई मुनियों को वन्दन करने पांव उठाया। काल के परिपाक था और भाव की उच्चता बढ़ी हुई थी। उसी समय बाहुबलीजी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में आयु पूर्ण कर मोक्ष पधारे।
इधर अंततः भरत ने विजय यात्रा पूर्ण की। 6 खण्ड जितने में उन्हें 60,000 वर्ष लगे। 14 रत्न व 9 निधान के स्वामी बन लंबे समय तक चक्रवर्ती पद को भोगा। पर मन - आत्मा में जिन धर्म व संसार की अनासक्ति को सदा जिंदा रक्खा।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 7
श्री भरतेश्वर ना हुआ पटोधर आठ,
आदित्य जसादिक पहोच्या शिवपुर वाट ।11।
श्री जिन अंतर ना हुआ पाट असंख
मुनि मुक्ति पहोच्या टाली कर्म नो वंक ।12।
पिछली गाथाओमे ऋषभदेव के 99 पुत्रों की केवल्यप्राप्ति की संक्षिप्त गाथा हमने देखी। अब भरत चक्रवर्ती - चक्रवर्ती पद को निरासक्त भाव से लंबे समय तक भोगने के बाद एक बार भरत महाराजा अरिसाभुवन (मेक अप रूम ) में तैयार हो रहे थे। तब अचानक हाथ से पहनी हुई अंगूठी गिर गई , तब अंगुली की शोभा को निस्तेज देख कर अनित्य भावना भाने लगे। एक अंगूठी से उंगली की शोभा चली गई । चिंतन उर्ध्वगामी बना। हृदय की भावना श्रेष्ठ बनते, भावधारा उच्चत्तम होते ही गृहस्थावस्था में ही उन्हें केवल्यप्राप्ति हो गई। देवेन्द्र आये। और उन्हें श्रमण वेश दिया। फिर उन्होंने संयम ग्रहण किया। आयु पूर्ण होते ही मोक्ष प्राप्त किया।
धन्य ऐसे महात्मा , जो इतने भोग वैभव अधिपति होने के बाद भी जरा निमित्त मिलते ही संभल गये। संयम पथ में आरूढ़ होकर स्व परकल्याण किया।
आगे पढ़ें , भरत की राज गादी पर आनेवाले एक नही पर आठ आठ उत्तराधिकारी के साथ यही हुआ। एक के बाद एक उन्होंने लंबे समय राज्य भोगा, ओर अरिसाभुवन में ही केवल्यप्राप्ति कि। सोचिये, कैसे भावों की विशुद्ध धारा रही हॉगी। कैसी निर्लिप्तता हॉगी।
इन 8 पटोधर मे आदित्ययश, जलवीर्य आदि के नाम है।
जीन अंतर
यानी एक तीर्थंकर के निर्वाण बाद से दूसरे तीर्थंकर के केवलज्ञान तक का समय । इसे तीर्थंकरों का अंतराल भी कहते है। ऋषभदेव के निर्वाण से 50 लाख करोड़ सागरोपम बाद अजितनाथ स्वामी हुए।
इन अंतरालों में भी कई घोर तपस्वी, उत्कृष्ट ज्ञानी, उच्च आराधक मुनि हो गए। जिनमे कई आत्माओंने मोक्ष पा लिया।
ऐसे ही ऋषभदेव के बाद जैन संघ के नायक के पद पर असंख्य पट्टधर हुए वे भी उत्कृष्ट संयम आराधना कर मोक्ष गये।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 8
धन्य कपिल मुनिवर ,नमी नमु अणगार,
जेणे तत्क्षण त्याग्यो , सहस्त्र रमणी परिवार ।13।
जहां लाहो तहा लोहो
इस साधुवन्दना मे इतना ज्ञान समाविष्ट किया गया है कि उसकी गणना करना असंभव। एक एक ऐसे पात्रो के नाम लिए गए है कि उनके गुणों का वर्णन, उनको किया गया वन्दन, हमे मनुष्य जीवन के कई सार्थक पहलूओको सरलता से समझा जाते है।
ऐसे ही एक लोभ कषाय की घातकता , उससे बचने का प्रयास, बचकर शीघ्र केवल्यप्राप्ति आदि का श्रेष्ठ उदाहरण कपिल मुनि के जीवन से मिलता है।
काश्यप राजपुरोहित के पुत्र कपिल पिता की मृत्यु के बाद माता की इच्छा से पिता के मित्र के पास ज्ञान प्राप्त करने श्रावस्ती नगरी में आते है। ज्ञान सीखते है । उनकी भोजन की व्यवस्था एक श्रेष्ठी के यहां थी। रोज भोजन करने जाने से वँहा की 1 दासी से परिचय बढ़ा जो प्रणय तक पंहुचा।
दरिद्र कपिल से दासी ने एकबार कुछ वस्तु मांग ली। तब कपिल उसकी इच्छा पूरी करने का उपाय खोजने लगा।
उसे ज्ञात हुआ कि सुबह सवेरे प्रथम मिलने वाले पंडित को राजा 2 माशा सुवर्ण दान करता है। वह प्रथम मिलने की ततपरता में आधी रात को ही महल में पहुच गये।
चोर समझकर पकड़ लिया गया।
सुबह जब राजा के सामने ले जाया गया तब उन्होंने सत्य कह दिया। राजा कपिल की सत्यनिष्ठा पर प्रसन्न हुए। और जो भी इच्छा हो वह मांग लेने को कहा।
इच्छित वस्तु मिल जाएगी यह सोचकर कपिल का लोभ बढ़ गया। 2 माशा स्वर्ण से क्या होगा कुछ ज्यादा मांग लू की ज़िंदगी भर की दरिद्रता टल जाएगी। लोभ बढ़ते बढ़ते राज्य मांग लेने का विचार आया।
अचानक चिंतन का प्रवाह पलटा। सोचने लगा कि में क्या लेने आया था - 2 माशा स्वर्ण, ओर आखिर लोभ में आकर देनेवाले राजा का राज्य ही मांगने का लोभ कर रहा हु।
धिक्कार है मुझे। मन वैराग्य से भर गया। राजा की माफी मांग कर बिना कुछ लिए ही राजमहल से निकल गए। तुरन्त संयम ग्रहण किया। उच्च आराधना से 6 माह में ही केवल्यप्राप्ति कर ली।
उन्होंने 500 चोरों को भी प्रतिबोधित कर संयम मार्ग पर लगाया।
इस तरह अपने लोभ पर विजय पाकर स्व के साथ अन्यो का कल्याण भी किया।
पोस्ट लिखने में शब्द मर्यादित होते है पर यदि भाव समझे तो यह उत्कृष्ट उदाहरण है। किस तरह जीव अपना कल्याण कर सकते है। हमे इन महात्माओं से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सार्थक बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 9
धन्य कपिल मुनिवर ,नमी नमु अणगार,
जेणे तत्क्षण त्याग्यो , सहस्त्र रमणी परिवार ।13।
इस गाथा का दूसरा कथानक..
अपरिग्रह का अर्थ सिर्फ द्रव्य का त्याग ही नही परन्तु मुख्यतः उस परिग्रह में आसक्ति का त्याग, जो भवभ्रमण कि वजह है।
जैन आगमो में बोधि यानी सही समझ प्राप्त कर भवसागर तीर जाने वालो को 3 प्रकार में विभाजित किया गया है।
स्वयंबुद्ध - जो पूर्व के ज्ञान अनुभव आदि स्वतः ही बाधित हो जाते है जैसे तीर्थंकर।
प्रत्येक बुद्ध : - यानी किसी व्यक्ति या वस्तु के निमित्त मिलने पर सही समझ पा लेते है। यह 4 हुए, नमी राजा आदि ..
बुद्ध बोधित : - यानी किसी ज्ञानी द्वारा बोध दिए जाने पर समझ प्राप्त करते है। जैसे वीर प्रभु द्वारा कई आत्माओंको प्राप्य हुआ।
ऐसे प्रत्येक बुद्ध थे मिथिला नरेश नमी राजा । महासतीजी मदनरेखा के पुत्र। जिस महासतीजी ने अपने पर आए उपसर्ग को समभाव से सहा व पति युगबाहु का मृत्यु भी संवार दिया।
1000 रानियों के स्वामी नमी राजा एकबार उग्र दाह से अत्यंत पीड़ित हुए। किसी उपाय से उनके रोग का शमन नही हो रहा था। किसी ने बावना चंदन का उपाय बतलाया। चन्दन लाया गया। हजार रानियां उसे घिसने लगी। रानियों के चंदन घिसते समय उनके कंकणो की आवाज भी बीमार नमी राजा से सही न गई। यह बात पता चलते ही रानियों ने सौभाग्य रूप एक कंगन रखकर बाकी कंगन निकाल दिए। चंदन घिसा जा रहा था पर अब आवाज बिल्कुल बन्ध हो गया। नमी राजा को यह मालूम पड़ा कि एक कंगन पहनकर चंदन घिसा जा रहा है इस लिए आवाज शांत हो गया।
बस निमित्त मिल गया। राजा एकत्व भावना भाने लगे। जँहा में एक हु शुद्ध हु एक से बढ़ा तो तकलीफ प्रारंभ। चिंतन उत्तम बनता गया। वैराग्य ने हृदय में स्थान लिया। स्वस्थ होते ही अब संयम ग्रहण करूँगा यह निश्चय किया।
इस निश्चय के साथ ही पीड़ा शमन हुआ और सो गए। सुबह जब जागे तब अपने आप को स्वस्थ पाया। अब उन्हें ओर श्रद्धा बढ़ गई और संयम ग्रहण को उत्सुक बने।
पूरे नगर में बात फैल गई। देवेंद्र ने जब यह जाना तब ब्राह्मण रूप में आकर उनके वैराग्य की परीक्षा करने के लिए काफी प्रश्न पूछकर डिगाने का प्रयास किया। पर नमी राजा का संयम रंग गाढ़ लग चुका था। देवेंद्र की परीक्षा में वे उत्तीर्ण हुए। देवेंद्र ने भी वंदना की।
1000 रानियों व समृद्ध रानियों का एक झटके में त्याग कर संयम ग्रहण कर निजकल्याण किया।
अहो अहो जिनशासनम।
कैसे कैसे त्यागी पुरुषों ने स्वयं उग्र संयम मार्ग अपनाकर हमे प्रेरणा दी। कि हम भी उनका अनुसरण कर हमारा मार्ग प्रशस्त करे।
ऐसे उपकारी महात्माओको हमारा सदाकाल वन्दन हो।
🙏🙏🙏
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 10
मुनि बल हरिकेशी, चित्त मुनिश्वर सार,
शुद्ध संयम पाली, पहोच्या भवजल पार। 14।
एक नगरी में एक चांडाल के यहां देवलोक का जीव उत्पन्न हुआ।
मनुष्य भव में किये कुल मद का कितना गंभीर परिणाम , की देव भव भोगकर 'बल' चांडाल कुल में उत्पन्न हुआ। उतना ही नही कुरूप, क्लेशमय, काले वर्ण का बना। लोगो के, साथी बालको के धृणा व तिरस्कार का पात्र बना। कोई साथ खेलने खिलाने को तैयार नही पर मार कूट भी करते। इन सब बातों से बालक बल बड़ा होते होते तो और उद्दंड तूफानी विचित्र बनता गया जिससे मा - पिता भी त्रस्त हो गये।
पर था तो यह भव्य जीव।
एक निमित्त मिलते ही संभल गये।
एक बार सब खेल रहे थे तब एक सांप निकला। भयंकर विषधर सर्प को पहचानकर सब ने मिलकर उसे भयानकता से मार डाला। फिर दूसरा सर्प निकला पर वह मारक या जानलेवा नही था तो किसी ने उसे छेड़ा नही।
यह देखकर बल को समझ आया कि मैं जब तक सबको दुख पहुँचाऊँगा तब तक सब मुझे दुख पहुंचाएंगे। मैं सरल बनूंगा तब मुझे कोई तकलीफ नही देगा। भाव शुद्ध हुए। इसी श्रृंखला में उन्हें जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। और पूर्वभव में किये कुलमद आदि पापो का स्मरण हुआ। संयम का महत्त्व समझा। भाव बदलते देर नही लगा।
तुरंत महाव्रत अंगीकार कर उत्कृष्ट तपाराधना करने लगे। मासखमण के पारणे मासखमण जैसी उत्कृष्ट तप। उस तप से देवता आदि भी इन से आकृष्ट होने लगे। इन्हें अब हरिकेशी मुनि के नाम से सब जानने लगे। एक यक्ष भी स्वयं इनकी सेवा में आ गया।
एक दा एक राजकुमारी ने उनकी सूरत व मुनि के मेले वस्त्र देखकर धृणा की तो यक्ष क्रोधित होकर उसके शरीर मे प्रविष्ट हो गया। आखिर यक्ष की शर्त अनुसार राजा भी अपनी पुत्री को मुनि से ब्याहने तैयार हो गया। पर मुनि तो महाव्रत धारी निस्पृहि थे , उन्होंने राजा व राजकुमारी को समझाया ओर यक्ष का उपसर्ग भी दूर करवाया।
एक बार ब्राह्मण समाज के एक यज्ञ प्रसंग में वे गोचरी लेने गए। तब ब्राह्मणों ने उनको धुत्कार दिया पर अंततः वे भी सही तत्त्व व सही यज्ञ को समझे और जिन प्ररूपित धर्म की ओर अग्रसर हुए।
ऐसे उत्कृष्ट धर्म तप संयम आराधना करके हरिकेशी बल मुनि ने स्वकल्याण किया। आयु पूर्ण कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।
इस तरह एक चांडाल कुल में जन्म लेकर इतनी धृणा, दुख आदि सहकर भी जीव धर्माराधन में अडिग रहता है तो निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
हमे अविरत प्रेरणा देनेवाले ऐसे उपकारी महात्माओको हमारा सदाकाल वन्दन हो।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
🙏🙏🙏
अनेक शास्त्रों में से नवनीत रूप सार निकाल कर पूज्य जयमल जी महाराजसाहेब ने साधुवन्दना की रचना की। उपकारी तीर्थंकरों से लेकर इतिहास में हुए कई साधु महात्माओको वन्दन कर सके, उनके गुणों की अनुमोदना, अभिनन्दना कर उन गुणो को खुद में स्थापित करने की इच्छा व साधना कर सके, उन उच्च आत्मा ओने बताये रास्ते पर चलने के लिए उनसे हम प्रेरणा प्राप्त कर हमारी साधना में जोश भर सके ऐसा अनन्य उपकार पूज्य जयमलजी ने अपनी इस रचना द्वारा हम पर किया। बड़ी साधुवन्दना यानी रजोहरन की खदान। अनेक साधु जी का परिचय।
प्रथम 2 गाथा
नमु अनंत चोवीसी रुषभादिक महावीर,
इण आर्य क्षेत्र मां घाली धर्म नी सीर ।1।
महा अतुल बली नर शुर - वीर ने धीर,
तीरथ प्रवर्तावी, पहुंच्या भवजल तीर ।2।
नमु - प्रथम शब्द ही विनय का द्योतक,
विनय जो कि धर्म का मूल है।
कहते है कृष्ण वासुदेव ने नेम प्रभुके 18,000 साधुजीको वन्दन कर अपार पुण्योपार्जन किया। फिर धर्म दलाली आदि सुकृत्यों से तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। नमन की महिमा समझने के लिए इससे बड़ा दृष्टांत क्या होगा।
तीर्थकर यानी क्या : -
हमे जो भवजल यानी जन्म मरण से छुटकारा दिलाने में मार्गदर्शक बने , राहबर बने जो मुक्ति दिलाये वह तीर्थ। यानी साधुजी, साध्वीजी, श्रावक, श्राविका
ओर तीर्थ की स्थापना कर समय समय पर धर्म का पुनः स्थापन करे वह तीर्थंकर। पुनः स्थापन यानी जैन धर्म अनादि से है, किसीने स्थापना की ऐसे नही। पर समय के असर से यह दब जाता है तब तीर्थंकर इसे पुनः स्थापित करते है।
एक काल चक्र के आधे हिस्से में एक भरत या एक ऐरावत क्षेत्र में 24 तीर्थंकर होते है। जिन्हें हम चौबीसी कहते है। अतीत से लेकर आज तक ऐसी अनंत चौबीसी हो चुकी है।
हम जिस समय में रह रहे है, जिस भरत क्षेत्र में रहते है, इसमे भी 1 चौबीसी पूर्ण हो चुकी है। जिनमे प्रथम ऋषभदेव से लेकर 24 वे यानी वर्तमान शासन नायक महावीर स्वामी का नाम है।
इन तीर्थंकरों के बल की कल्पना करना भी मुश्किल, इनमें इतना अतुल बल होता है। लोक में सबसे बलशाली इंद्र , ऐसे अनंत इंद्र मिलकर तीर्थंकर प्रभु की छोटी उंगली तक हिला नही सकते। यह मात्र उपमा है।
यह तीर्थंकर अपने क्षेत्र में तीर्थकी स्थापना कर , लोगो मे मार्गदर्शक बनकर फिर भविष्य के लिए संघको तैयार कर स्वयं इस संसार से सदा के लिए मुक्त बन सिद्ध बन जाते है।
19 :7
बड़ी साधुवन्दना - 2
सीमंधर प्रमुख जघन्य तीर्थंकर बीस,
छे अढी द्वीप मा जयवंता जगदीश । 3।
एक सो ने सित्तेर उत्कृष्ट पदे जगीश,
धन्य मोटा प्रभुजी, तेहने नमावु शीश ।4।
मनुष्यलोक यानी अढाई द्वीप में 15 कर्मभुमि में ही तीर्थंकर प्रभु होते है। अढाई द्वीप में अन्य मनुष्य क्षेत्र 86 है भी , पर वह युगल क्षेत्र है। वँहा धर्म नही होता। मात्र पूण्योदय से युगल मनुष्यो को भरपुर सुख मिलता है , वह भोगते है। ना धर्म , ना ही अधर्म। इस विषयक उन्हें कोई समझ नही होती।
15 कर्मभुमि में 5 भरत, 5 ऐरावत व 5 महाविदेह क्षेत्र होते है।
5 महाविदेह क्षेत्र हमेशा कर्मभुमि रहती है , यानी वँहा हमेशा तीर्थंकर होते रहते है। जबकि भरत ऐरावत में कभी कर्म युग होता है , कभी युगलकाल या कभी अत्यन्त दुखद काल। तो भरत ऐरावतमे जब कर्मयुग होता है तब तीर्थंकर होते है। यानी कालचक्र के तीसरे व चौथे आरे में भरत ऐरावत में तीर्थंकर जन्म लेते है। और धर्म की पुनः स्थापना कर फिर मोक्ष जाते है।
1 महाविदेह क्षेत्र में 32 विजय होती है। उनमें किसी भी समय कम से कम किन्ही 4 में तीर्थंकर भगवान होते ही है। ऐसे 5 महाविदेह में कुल 4 × 5 = कम से कम 20 प्रभुजी कभी भी होंगे ही होंगे। इससे कम कभी नही होते। और इससे ज्यादा भी तीर्थंकर यानी सभी 5 × 32 विजय में = 160 तीर्थंकर महाविदेह में हो सकते है।
जैसे जब हमारे यहां अजितनाथजी भगवान थे तब पांचों महाविदेह की 160 विजय में 160 प्रभुजी थे, उस समय 4 अन्य भरत व 5 ऐरावत क्षेत्र में भी तीर्थंकर भगवान बिराज रहे थे। यानी उस समय अढाई द्वीप में कुल 160 + 10 = 170 कुल प्रभुजी विचरण कर रहे थे।
वर्तमान की बात करे तो 5 महाविदेह में 20 तीर्थंकर प्रभुजी ( जैसे ऊपर बताया 1 महाविदेह में 4 कम से कम ) विहरमान है। हमारे जंबुद्वीप के महाविदेह में सीमंधर स्वामी, युगन्धर स्वामी, बाहु स्वामी, सुबाहुस्वामी यह 4 प्रभुजी है।
5 महाविदेह के बीसो भगवान का जन्म एक ही समय मे यानी हमारे यहां जब कुंथुनाथजी का शासन था तब हुआ। मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में उनकी दीक्षा व कैवल्य प्राप्ति हुई तथा जब हमारे यहां आगामी चोबीसी के 7 वे प्रभुजी व 8 वे प्रभुजी के मध्य का समय होगा तब वे निर्वाण प्राप्त करेंगे। तभी कम से कम किन्ही अन्य 20 मुनि कैवल्य पाकर तीर्थंकर पद प्राप्त करेंगे। यह नियमा है।
बड़ी साधुवन्दना - 3
केवली दोय कोड़ी, उत्कृष्टा नव क्रोड,
मुनि दोय सहस्त्र कोड़ी, उत्कृष्टा नव सहस्त्र क्रोड । 5।
विचरे छे विदेहे मोटा तपसी घोर,
भावे करि वन्दू टाले भव नी खोड़ ।6।
प्रस्तुत दो गाथाओमे महाविदेहक्षेत्र में बिराजित विहरमान प्रभुजी के मुनि परिवार की संख्या का उल्लेख कर उन्हें वन्दन कितना उपकारी है यह बताया गया है।
साधु सन्तो को वन्दन हमारी सबसे बड़ी तकलीफ भव भ्रमण रूप खोड़ (कमी, दुख) दूर करने का उपाय है।
एक विहरमान प्रभु के परिवार में दस लाख केवली है।
व 100 क्रोड मुनिराज है।
यानी 20 विहरमान के कुल 2 क्रोड केवलज्ञानी मुनि विचरण कर रहे है।
और सकल मुनिराज की संख्या 2000 क्रोड होती है। यह संख्या अढाई द्वीप में जघन्य मुनिराज की संख्या है। यानी किसी भी समय अढाई द्वीप में कम से कम 2000 क्रोड मुनिराज होते ही है। यदि उत्कृष्ट हो तो 9000 क्रोड मुनिराज भी हो सकते है। वैसे ही जिस तरह जघन्य 2 क्रोड केवली होते है किसी भी समय वे उत्कृष्ट हो तो 9 क्रोड भी हो सकते है।
( एक मान्यता वर्तमान में एक विहरमान के 100 क्रोड साधुजी व 100 क्रोड साध्वीजी कुल 200 क्रोड ओर बीस विहरमान के कुल साधुसाध्वी जी 4000 क्रोड की भी है। )
इन साधुभगवन्तो मे कई अत्यंत तपस्वी , ज्ञानी , ध्यानी आदि होते है। जिनको किया गया वन्दन हमारे लिए अति श्रेयकर है।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 4
चोबीसे जिन ना , सघला ही गणधार,
चौद सो ने बावन, ते प्रणमु सुखकार ।7।
जिन शासननायक , धन्य श्री वीर जिनन्द,
गौतमादिक गणधर, वर्तायो आनंद ।8।
गणधर : - शब्दशः अर्थ : - गण यानी साधुजी का समूह उस गण के नायक को गणधर कहते है। या हम यह समझे कि तीर्थंकर प्रभु के प्रमुख शिष्यों को गणधर कहते है।
यह एक विशिष्ट पदवी होती है। यहां तीर्थंकरों के वर्णन के बाद तुरन्त गणधर को नमन किया गया इससे हम इस पद का महत्त्व समझ सकते है।
प्रभु के केवलज्ञान के बाद उनकी प्रथम देशना में संघ की स्थापना होती है। तब सन्तो में श्रेष्ठ ज्ञानी को गणधर पद प्रदान किया जाता है। विशिष्ट ज्ञान के कारण इन्हें तीर्थंकर 3 पद - त्रिपदी का संक्षिप्त उपदेश देते है उस 3 पद से वे समस्त ज्ञान को ग्रहण कर लेते है। ( 3 पद - उत्पन्न होता है, नाश होता है, शाश्वत रहता है। )
इन ज्ञान की प्राप्ति के बाद तीर्थंकर अर्थ रूप से सभी को देशना देते है, जो गणधर आने वाले भविष्य के लिए सूत्र रूप में गुंफित करते है। यानी 12 अंग शास्त्रों की रचना कर हम पर असीम उपकार करते है।
वर्त्तमान चौबीसी में हुए 24 प्रभु के विभिन्न संख्या में गणधर हुए । जैसे प्रथम प्रभु के 84 गणधर थे। चौबीसों प्रभु के कुल 1452 गणधर हुए। हमारे शासननायक वीर प्रभु के 11 गणधर हुए।
जिसमे प्रथम गौतमस्वामी थे। इन 11 गणधरों ने 9 गणों के नायक बनकर उनको धर्म पालन की प्रेरणा देते रहे , व उनकी साधना में सहायक बनते रहे। वीर प्रभु के निर्वाण बाद पांचवे गणधर सुधर्मास्वामी हमारे संघ के नायक बने। आज हमारे पास जितने भी अंग उपस्थित है वे सुधर्मास्वामी की जंबुस्वामी को दी हुई वांचना का ही अंश है।
जिनवाणी को हम तक पहुचाने वाले असीम उपकारी गणधर भगवन्तों को हमारा सदाकाल वन्दन हो।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 5
श्री ऋषभदेव ना भरतादिक सो पूत,
वैराग्य मन आणि संयम लियो अदभुत ।9।
केवल उपजाव्यू कर करणी करतूत,
जिनमत दीपावी सघला मोक्ष पहुंत।10।
प्रथम राजा, प्रथम मुनि, प्रथम तीर्थंकर ऐसे श्री ऋषभदेव प्रभु कुल 83 लाख पूर्व संसारिक अवस्था मे रहे। इस दौरान उन्हें कुल भरत बाहुबली आदि100 पुत्र व ब्राह्मी - सुन्दरीजी 2 पुत्रियां हुई।
प्रभु ने दीक्षा पूर्व अपने राज्य को अपने 100 पुत्रों में बाट दिया। व मुनि बन गए।
1000 वर्ष छद्मवस्था बीतने पर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ व तीर्थंकर बन संघ स्थापना की।
इस दौरान,
अब भरत चक्रवर्ती का भावी चक्रवर्ती बनना था उसके आयुधशाला यानी शस्त्रागार में चक्र रत्न उपस्थित हुआ। तब चक्रवर्ती को प्रथम छहो खण्ड के सभी राजाओको जीतना व अपने अधीनस्थ करना आवश्यक था। इस लक्ष्य से उसने अपनी विजय यात्रा प्रारंभ की। अपने 99 भाइयों को भी संदेश पहुंचाया।
तब बाहुबली को छोड़कर 98 भाई एकत्र हुए। हमने अपना राज्य अपने पिता से प्राप्त किया है। हमे उससे ज्यादा की अपेक्षा नही पर हम भरत की महत्त्वाकांक्षा व उसकी अधीनता क्यों माने।
सभी भाई मिलकर प्रभु ऋषभदेव के पास आये। व भरत की शिकायत की।
ऋषभदेव अब इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। जगत व मनुष्य भव का सत्य वे समझ व आत्मसात कर चुके थे। उन्होंने 98 पुत्रो से पूछा कि आपको स्थायी राज्य चाहिए या क्षण भंगुर राज्य। सब भाइयों ने स्थायी तौर पर राज्य की मांग की। तब भगवान ने समझाया कि स्थायी राज्य सिर्फ मोक्ष है। जँहा का राज्य ना कभी पूरा होगा ना ही कभी कोई छीन सकता है ।
प्रथम प्रभु के यह सभी पुत्र रुजू स्वभाव के थे , ओर तीर्थंकर का उपदेश, उन पर जिनवाणी का प्रभाव हुआ और सभी 98 पुत्रो के मन मे वैराग्य उतपन्न हुआ। बोधि दुर्लभ भावना का चिंतन हुआ व सभी पुत्रो ने अपना राज्य भरत को सौंपकर दीक्षा ली। शुद्ध भाव से संयम पालन कर जिनमत को यशस्वी बनाते हुए आत्म कल्याण किया। संयम पालकर सभी पुत्र मोक्ष का स्थायी राज्य प्राप्त किया। ( ऋषभदेव प्रभुके सभी 100 पुत्रो ने मोक्ष प्राप्त किया, 98 की गाथा यहां बतलाई अन्य भरत बाहुबलीजि का कल की गाथाओमे वर्णन का प्रयास 🙏 )
बड़ी साधुवन्दना - 6
श्री ऋषभदेव ना भरतादिक सो पूत,
वैराग्य मन आणि संयम लियो अदभुत ।9।
केवल उपजाव्यू कर करणी करतूत,
जिनमत दीपावी सघला मोक्ष पहुंत।10।
पिछली गाथा का बाकी कथानक
भरत चक्रवर्ती
इस अवसर्पिनी काल के प्रथम चक्रवर्ती, अपार पुण्योदय के धनी, प्रथम तीर्थंकर के पुत्र अत्यंत पराक्रमी होने के साथ ही जिन धर्मानुरागी। इनके जीवन की गाथा लिखने के लिए भी एक अलग से ग्रंथ जितनी सामग्री उपलब्ध है।
पिछली बार हमने देखा कि 98 भाई यो ने भरत की आज्ञा मानने की जगह संयम ग्रहण किया और स्वकल्याण किया। ऐसे ही भरत के भाई बाहुबलीजी ने भी भरत की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया। बाहुबली जी भी अत्यंत बलशाली थे। बाहुबलीजी ने ऋषभदेव को फरियाद करने की जगह युद्ध करना स्वीकार किया। दोनो सगे भाइयों के बीच युद्ध मे हजारों लाखों सैनिकों की हत्या न हो इस हेतु शकेन्द्र ने दखल दिया और दोनो भाइयों को मल्ल युद्ध के लिए समझाया। सिर्फ भाइयों के बीच युद्ध होगा यह तय हुआ। भरत ने चक्र रत्न बाहुबलीजी पर चलाया वह भी सगोत्र यानी एक परिवारजन होने के कारण बाहुबलीजी पर नही चला। फिर दोनो के बीच 5 प्रकार के मल्ल युद्ध हुए। यह एक आश्चर्य समान ही था कि नरदेव अत्यंत बलशाली चक्रवर्ती भी बाहुबलीजी को परास्त कर नही पा रहे थे। फिर बलिंद्र चमरेन्द्र ने बाहुबलीजी को समझाया । चालू युद्ध मे ही बाहुबलीजी के हृदय का परिवर्तन हुआ , वैराग्य की ओर अग्रसर हुआ । जो हाथ भरत को मारने के लिए उठाया था उसी हाथ से अपने बालों का लोच कर संयम ग्रहण के लिए खुद को तैयार कर लिया।
पर हाय रे मान कषाय ,
98 छोटे भाई जो दीक्षित हो चुके थे , अब यदि प्रभु के पास जाये तो उन भाई मुनि को वन्दन करना पड़ता, यह बड़े भाई को मंजूर न हुआ।
वन की ओर चल दिये।
अब संयम स्वयं ग्रहण कर लिया व घोर तप में लीन हो गए। एकदा ऋषभदेव के कहने पर साध्वी बहने ब्राह्मी सुंदरीजी महासतीजी ने आकर जब समझाया तब उन्होंने मान रूपी हाथी से नीचे उतरकर भाई मुनियों को वन्दन करने पांव उठाया। काल के परिपाक था और भाव की उच्चता बढ़ी हुई थी। उसी समय बाहुबलीजी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में आयु पूर्ण कर मोक्ष पधारे।
इधर अंततः भरत ने विजय यात्रा पूर्ण की। 6 खण्ड जितने में उन्हें 60,000 वर्ष लगे। 14 रत्न व 9 निधान के स्वामी बन लंबे समय तक चक्रवर्ती पद को भोगा। पर मन - आत्मा में जिन धर्म व संसार की अनासक्ति को सदा जिंदा रक्खा।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 7
श्री भरतेश्वर ना हुआ पटोधर आठ,
आदित्य जसादिक पहोच्या शिवपुर वाट ।11।
श्री जिन अंतर ना हुआ पाट असंख
मुनि मुक्ति पहोच्या टाली कर्म नो वंक ।12।
पिछली गाथाओमे ऋषभदेव के 99 पुत्रों की केवल्यप्राप्ति की संक्षिप्त गाथा हमने देखी। अब भरत चक्रवर्ती - चक्रवर्ती पद को निरासक्त भाव से लंबे समय तक भोगने के बाद एक बार भरत महाराजा अरिसाभुवन (मेक अप रूम ) में तैयार हो रहे थे। तब अचानक हाथ से पहनी हुई अंगूठी गिर गई , तब अंगुली की शोभा को निस्तेज देख कर अनित्य भावना भाने लगे। एक अंगूठी से उंगली की शोभा चली गई । चिंतन उर्ध्वगामी बना। हृदय की भावना श्रेष्ठ बनते, भावधारा उच्चत्तम होते ही गृहस्थावस्था में ही उन्हें केवल्यप्राप्ति हो गई। देवेन्द्र आये। और उन्हें श्रमण वेश दिया। फिर उन्होंने संयम ग्रहण किया। आयु पूर्ण होते ही मोक्ष प्राप्त किया।
धन्य ऐसे महात्मा , जो इतने भोग वैभव अधिपति होने के बाद भी जरा निमित्त मिलते ही संभल गये। संयम पथ में आरूढ़ होकर स्व परकल्याण किया।
आगे पढ़ें , भरत की राज गादी पर आनेवाले एक नही पर आठ आठ उत्तराधिकारी के साथ यही हुआ। एक के बाद एक उन्होंने लंबे समय राज्य भोगा, ओर अरिसाभुवन में ही केवल्यप्राप्ति कि। सोचिये, कैसे भावों की विशुद्ध धारा रही हॉगी। कैसी निर्लिप्तता हॉगी।
इन 8 पटोधर मे आदित्ययश, जलवीर्य आदि के नाम है।
जीन अंतर
यानी एक तीर्थंकर के निर्वाण बाद से दूसरे तीर्थंकर के केवलज्ञान तक का समय । इसे तीर्थंकरों का अंतराल भी कहते है। ऋषभदेव के निर्वाण से 50 लाख करोड़ सागरोपम बाद अजितनाथ स्वामी हुए।
इन अंतरालों में भी कई घोर तपस्वी, उत्कृष्ट ज्ञानी, उच्च आराधक मुनि हो गए। जिनमे कई आत्माओंने मोक्ष पा लिया।
ऐसे ही ऋषभदेव के बाद जैन संघ के नायक के पद पर असंख्य पट्टधर हुए वे भी उत्कृष्ट संयम आराधना कर मोक्ष गये।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 8
धन्य कपिल मुनिवर ,नमी नमु अणगार,
जेणे तत्क्षण त्याग्यो , सहस्त्र रमणी परिवार ।13।
जहां लाहो तहा लोहो
इस साधुवन्दना मे इतना ज्ञान समाविष्ट किया गया है कि उसकी गणना करना असंभव। एक एक ऐसे पात्रो के नाम लिए गए है कि उनके गुणों का वर्णन, उनको किया गया वन्दन, हमे मनुष्य जीवन के कई सार्थक पहलूओको सरलता से समझा जाते है।
ऐसे ही एक लोभ कषाय की घातकता , उससे बचने का प्रयास, बचकर शीघ्र केवल्यप्राप्ति आदि का श्रेष्ठ उदाहरण कपिल मुनि के जीवन से मिलता है।
काश्यप राजपुरोहित के पुत्र कपिल पिता की मृत्यु के बाद माता की इच्छा से पिता के मित्र के पास ज्ञान प्राप्त करने श्रावस्ती नगरी में आते है। ज्ञान सीखते है । उनकी भोजन की व्यवस्था एक श्रेष्ठी के यहां थी। रोज भोजन करने जाने से वँहा की 1 दासी से परिचय बढ़ा जो प्रणय तक पंहुचा।
दरिद्र कपिल से दासी ने एकबार कुछ वस्तु मांग ली। तब कपिल उसकी इच्छा पूरी करने का उपाय खोजने लगा।
उसे ज्ञात हुआ कि सुबह सवेरे प्रथम मिलने वाले पंडित को राजा 2 माशा सुवर्ण दान करता है। वह प्रथम मिलने की ततपरता में आधी रात को ही महल में पहुच गये।
चोर समझकर पकड़ लिया गया।
सुबह जब राजा के सामने ले जाया गया तब उन्होंने सत्य कह दिया। राजा कपिल की सत्यनिष्ठा पर प्रसन्न हुए। और जो भी इच्छा हो वह मांग लेने को कहा।
इच्छित वस्तु मिल जाएगी यह सोचकर कपिल का लोभ बढ़ गया। 2 माशा स्वर्ण से क्या होगा कुछ ज्यादा मांग लू की ज़िंदगी भर की दरिद्रता टल जाएगी। लोभ बढ़ते बढ़ते राज्य मांग लेने का विचार आया।
अचानक चिंतन का प्रवाह पलटा। सोचने लगा कि में क्या लेने आया था - 2 माशा स्वर्ण, ओर आखिर लोभ में आकर देनेवाले राजा का राज्य ही मांगने का लोभ कर रहा हु।
धिक्कार है मुझे। मन वैराग्य से भर गया। राजा की माफी मांग कर बिना कुछ लिए ही राजमहल से निकल गए। तुरन्त संयम ग्रहण किया। उच्च आराधना से 6 माह में ही केवल्यप्राप्ति कर ली।
उन्होंने 500 चोरों को भी प्रतिबोधित कर संयम मार्ग पर लगाया।
इस तरह अपने लोभ पर विजय पाकर स्व के साथ अन्यो का कल्याण भी किया।
पोस्ट लिखने में शब्द मर्यादित होते है पर यदि भाव समझे तो यह उत्कृष्ट उदाहरण है। किस तरह जीव अपना कल्याण कर सकते है। हमे इन महात्माओं से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सार्थक बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 9
धन्य कपिल मुनिवर ,नमी नमु अणगार,
जेणे तत्क्षण त्याग्यो , सहस्त्र रमणी परिवार ।13।
इस गाथा का दूसरा कथानक..
अपरिग्रह का अर्थ सिर्फ द्रव्य का त्याग ही नही परन्तु मुख्यतः उस परिग्रह में आसक्ति का त्याग, जो भवभ्रमण कि वजह है।
जैन आगमो में बोधि यानी सही समझ प्राप्त कर भवसागर तीर जाने वालो को 3 प्रकार में विभाजित किया गया है।
स्वयंबुद्ध - जो पूर्व के ज्ञान अनुभव आदि स्वतः ही बाधित हो जाते है जैसे तीर्थंकर।
प्रत्येक बुद्ध : - यानी किसी व्यक्ति या वस्तु के निमित्त मिलने पर सही समझ पा लेते है। यह 4 हुए, नमी राजा आदि ..
बुद्ध बोधित : - यानी किसी ज्ञानी द्वारा बोध दिए जाने पर समझ प्राप्त करते है। जैसे वीर प्रभु द्वारा कई आत्माओंको प्राप्य हुआ।
ऐसे प्रत्येक बुद्ध थे मिथिला नरेश नमी राजा । महासतीजी मदनरेखा के पुत्र। जिस महासतीजी ने अपने पर आए उपसर्ग को समभाव से सहा व पति युगबाहु का मृत्यु भी संवार दिया।
1000 रानियों के स्वामी नमी राजा एकबार उग्र दाह से अत्यंत पीड़ित हुए। किसी उपाय से उनके रोग का शमन नही हो रहा था। किसी ने बावना चंदन का उपाय बतलाया। चन्दन लाया गया। हजार रानियां उसे घिसने लगी। रानियों के चंदन घिसते समय उनके कंकणो की आवाज भी बीमार नमी राजा से सही न गई। यह बात पता चलते ही रानियों ने सौभाग्य रूप एक कंगन रखकर बाकी कंगन निकाल दिए। चंदन घिसा जा रहा था पर अब आवाज बिल्कुल बन्ध हो गया। नमी राजा को यह मालूम पड़ा कि एक कंगन पहनकर चंदन घिसा जा रहा है इस लिए आवाज शांत हो गया।
बस निमित्त मिल गया। राजा एकत्व भावना भाने लगे। जँहा में एक हु शुद्ध हु एक से बढ़ा तो तकलीफ प्रारंभ। चिंतन उत्तम बनता गया। वैराग्य ने हृदय में स्थान लिया। स्वस्थ होते ही अब संयम ग्रहण करूँगा यह निश्चय किया।
इस निश्चय के साथ ही पीड़ा शमन हुआ और सो गए। सुबह जब जागे तब अपने आप को स्वस्थ पाया। अब उन्हें ओर श्रद्धा बढ़ गई और संयम ग्रहण को उत्सुक बने।
पूरे नगर में बात फैल गई। देवेंद्र ने जब यह जाना तब ब्राह्मण रूप में आकर उनके वैराग्य की परीक्षा करने के लिए काफी प्रश्न पूछकर डिगाने का प्रयास किया। पर नमी राजा का संयम रंग गाढ़ लग चुका था। देवेंद्र की परीक्षा में वे उत्तीर्ण हुए। देवेंद्र ने भी वंदना की।
1000 रानियों व समृद्ध रानियों का एक झटके में त्याग कर संयम ग्रहण कर निजकल्याण किया।
अहो अहो जिनशासनम।
कैसे कैसे त्यागी पुरुषों ने स्वयं उग्र संयम मार्ग अपनाकर हमे प्रेरणा दी। कि हम भी उनका अनुसरण कर हमारा मार्ग प्रशस्त करे।
ऐसे उपकारी महात्माओको हमारा सदाकाल वन्दन हो।
🙏🙏🙏
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवन्दना - 10
मुनि बल हरिकेशी, चित्त मुनिश्वर सार,
शुद्ध संयम पाली, पहोच्या भवजल पार। 14।
एक नगरी में एक चांडाल के यहां देवलोक का जीव उत्पन्न हुआ।
मनुष्य भव में किये कुल मद का कितना गंभीर परिणाम , की देव भव भोगकर 'बल' चांडाल कुल में उत्पन्न हुआ। उतना ही नही कुरूप, क्लेशमय, काले वर्ण का बना। लोगो के, साथी बालको के धृणा व तिरस्कार का पात्र बना। कोई साथ खेलने खिलाने को तैयार नही पर मार कूट भी करते। इन सब बातों से बालक बल बड़ा होते होते तो और उद्दंड तूफानी विचित्र बनता गया जिससे मा - पिता भी त्रस्त हो गये।
पर था तो यह भव्य जीव।
एक निमित्त मिलते ही संभल गये।
एक बार सब खेल रहे थे तब एक सांप निकला। भयंकर विषधर सर्प को पहचानकर सब ने मिलकर उसे भयानकता से मार डाला। फिर दूसरा सर्प निकला पर वह मारक या जानलेवा नही था तो किसी ने उसे छेड़ा नही।
यह देखकर बल को समझ आया कि मैं जब तक सबको दुख पहुँचाऊँगा तब तक सब मुझे दुख पहुंचाएंगे। मैं सरल बनूंगा तब मुझे कोई तकलीफ नही देगा। भाव शुद्ध हुए। इसी श्रृंखला में उन्हें जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। और पूर्वभव में किये कुलमद आदि पापो का स्मरण हुआ। संयम का महत्त्व समझा। भाव बदलते देर नही लगा।
तुरंत महाव्रत अंगीकार कर उत्कृष्ट तपाराधना करने लगे। मासखमण के पारणे मासखमण जैसी उत्कृष्ट तप। उस तप से देवता आदि भी इन से आकृष्ट होने लगे। इन्हें अब हरिकेशी मुनि के नाम से सब जानने लगे। एक यक्ष भी स्वयं इनकी सेवा में आ गया।
एक दा एक राजकुमारी ने उनकी सूरत व मुनि के मेले वस्त्र देखकर धृणा की तो यक्ष क्रोधित होकर उसके शरीर मे प्रविष्ट हो गया। आखिर यक्ष की शर्त अनुसार राजा भी अपनी पुत्री को मुनि से ब्याहने तैयार हो गया। पर मुनि तो महाव्रत धारी निस्पृहि थे , उन्होंने राजा व राजकुमारी को समझाया ओर यक्ष का उपसर्ग भी दूर करवाया।
एक बार ब्राह्मण समाज के एक यज्ञ प्रसंग में वे गोचरी लेने गए। तब ब्राह्मणों ने उनको धुत्कार दिया पर अंततः वे भी सही तत्त्व व सही यज्ञ को समझे और जिन प्ररूपित धर्म की ओर अग्रसर हुए।
ऐसे उत्कृष्ट धर्म तप संयम आराधना करके हरिकेशी बल मुनि ने स्वकल्याण किया। आयु पूर्ण कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।
इस तरह एक चांडाल कुल में जन्म लेकर इतनी धृणा, दुख आदि सहकर भी जीव धर्माराधन में अडिग रहता है तो निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
हमे अविरत प्रेरणा देनेवाले ऐसे उपकारी महात्माओको हमारा सदाकाल वन्दन हो।
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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
🙏🙏🙏
Thanks for sharing🙏
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