बड़ी साधुवन्दना 3
बड़ी साधुवन्दना - 21
धन्य विजय घोष मुनि, जयघोष बलि जाण,
श्री गर्गाचार्य पहोच्या छे निर्वाण ।25।
वाराणसी नगरी में काश्यप गोत्रीय दो सहोदर थे। जय घोष तथा विजय घोष । दोनो वेद के प्रखर ज्ञाता, कर्म कांडी, यज्ञादि करने करवाने में निपुण 2 ब्राह्मण।
एकदा जयघोष नदी तट पर विचरण कर रहे थे तब उन्होंने एक अजीब दृश्य देखा : - एक मेंढक ने एक कीटक का शिकार किया, अभी वह आधा मुंह से बाहर ही था कि मेंढक एक सर्प द्वारा दबोच लिया गया। सर्प के ऊपर पहले से दृष्टि गढा़ये बैठे ऊपर चील ने भी झटके से सांप को पकड़ लिया और बार बार जमीन पर पटकने लगा।
यह दृश्य देखकर जयघोष सोच में पड़ गए। क्या दुनिया ताक़तवाले की ही है? ( गुजराती में कहावत है बलिया ना बे भाग ) क्या कमजोर का कोई अस्तित्त्व महत्त्व का नही? इस कड़ी पर सोचते सोचते उनका चिंतन वैराग्य तरफ बढ़ा। वंही एक महाव्रत धारी सन्तो का समूह देखा। दर्शन वन्दन के बाद उनसे बोध पाकर जयघोष ने मुनि दीक्षा ग्रहण की। और मासखमन आदि तप करके विचरने लगे।
एकदा मासखमन के पारणे पर वाराणसी में ही भ्राता विजयघोष के यहा गोचरी पधारे। तब वँहा यज्ञ चल रहा था। तब भाई को बोध दिया। विजयघोष ने भी सत्य समझकर संयम स्वीकार किया। और दोनो भाइयों ने आराधना से अपना कल्याण किया।
दूसरी कड़ी विनय का अदभुत सन्देश देती है।
गर्ग गोत्र के एक उच्च आराधक मुनि हो गये। उन्हें गर्गाचार्य के नाम से ज्यादा जाना जाता है। उनके काफी शिष्य भी हुए। परन्तु उन सभी शिष्यों के आचार विपरीत था। कोई स्वाध्याय में प्रमादी, कोई चर्या में, अविनीत तो सभी थे ही, कोई आलसी भी थे ही। गर्गाचार्य उत्कृष्ट संयम के पालक थे। वे बहूत बार शिष्यों को बोध देते। अपनी साधना के साथ शिष्यों के कल्याण का बहुत प्रयत्न किया। परन्तु सब व्यर्थ था। मुनि अब अपनी साधना के विषय मे सोचने लगे।
इस अध्ययन में साधु की 3 अवस्था बताई गई है जब वह एकाकी विचरण कर सकते।
1 जिसने एकल विहारी प्रतिमा स्वीकार की
2 जिनकल्प स्वीकार की हो
3 एक एक मासिकी प्रतिमा स्वीकार की हो।
इस 3 अवस्था मे भी अत्यंत योग्यता की आवश्यकता होती है।
एकल विहारी साधु के लिए कहा गया है कि वे 8 गुणो के धारक होने चाहिए। (कंही यह भी पढ़ा हुआ है :- 8 गुण का धारक मुनि अकेले विचरे या 8 अवगुण का धारक मुनि एकलविहार करते है। ) गर्गाचार्य उत्तम 8 गुणो से युक्त थे। यद्यपि उन्होंने शिष्यों के सुधार का बहुत प्रयास किया पर फिर अपनी आराधना हेतु उन अविनीत शिष्यों को छोड़कर अपनी आराधना करने अलग हुए। व अकेले विचरने लगे। ऐसी उत्कृष्ट साधना से उसी भव निर्वाण पाकर मोक्ष को प्राप्त किया।
यह छोटा सा लगता कथानक वास्तव में साधुजीवन के कई गुणो को कई मर्यादाओं को समझा जाता है। विनय कितना आवश्यक है, गुरु आज्ञा, गुरु का सान्निध्य कितना महत्त्वपूर्ण है। इन सब का संदेश यह कथा देती है। गुरु सही थे तो मोक्ष पा गये शिष्य प्रमादी , अविनीत थे तो भवसागर में झूलते रहे। कहते है जिस प्रकार सड़े कान वाले श्वान को हर जगह से धुत्कार दिया जाता है वैसे ही अविनीत शिष्यों को भी हर जगह तिरस्कार ही मिलता है। विनीत शिष्य 10 प्रकार के अनुशासन सूत्र का यथोचित पालन कर अपनी मंजिल शीघ्र पा लेता है।
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बड़ी साधुवंदना - 22
श्री उत्तराध्ययन माँ , जिनवर कर्या बखाण,
शुद्ध मन से ध्यावो , मन मे धीरज आण ।26।
केवल्यप्राप्ति के बाद तीर्थंकर भगवान उपदेश देते है। उन सभी उपदेश को सूत्रों में पिरोकर गणधर भगवान आगम की रचना करते है।
12 अंग मुख्य
उसके बाद
12 अंगों में कुछ विषयो को ज्यादा उजागर करते हुए 12 उपांग, फिर कुछ बेसिक माहिती को पिरोकर मुलसूत्र , छेद सूत्र आदि की रचना गणधर, स्थविर भगवन्तों द्वारा होती है।
श्वेतांबर की 2 मुख्य परंपराए वर्तमान में उपलब्ध
आगमो के संख्या में कुछ विभिन्नता रखती है।
देरावासी में 11 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्णक , 6 छेद सूत्र, 4 मुलसूत्र , 2 चूलिका यो कुल 45 आगमो का स्वीकार करते है।
यथा स्थानकवासी में 11 अंग , 12 उपांग, 4 छेदसूत्र, 4 मूल सूत्र व 1 आवश्यक सूत्र कुल 32 आगमो को मान्य करते है।
12 वा अंग दृष्टिवाद तीर्थंकर के निर्वाण बाद कुछ समय मे ही विच्छेद जाता है।
कंही पढा है कि दिगंबर परंपरा सारे वर्तमान आगमो को प्रमाणित नही मानते है।
( आगमो की कुछ बाते हम आगे की कथाओं में देखेंगे ।)
उत्तराध्ययन सूत्र
श्वेतांबर की दोनो परंपराए स्थानकवासी व देरावासी, इसे
मूल सूत्र मानते है। यह तीर्थंकर भगवान महावीरस्वामी की अंतिम देशना के रूप में, अनेको चारित्र्य बतलाते हुए, विनय आदि गुणों का महत्त्व बतलाता हुआ एक महत्त्व पूर्ण आगम है।
परंपरा से यह आगम सुधर्मास्वामी द्वारा संकलित है। हमने आज तक यानी 25 वी गाथा तक बड़ी साधुवन्दना के जितने कथानक पढ़े, समझे है, वे सारे उत्तराध्ययन सूत्र से लिये है।
उन चारित्रात्मा के गुणों का वर्णन स्वयं भगवान ने किया है। सोचिए, इन आत्माओ की विशेषता कैसी रही हॉगी। 36 अध्ययनों का यह आगम श्रमणों के लिए अत्यंत पठनीय व समझने लायक है। हमारे लिए अति उपकारी व प्रेरणाजनक है।
इन कथानकों को अध्ययन से समझे तो
8 वे अध्ययन में कपिल मुनि
9 - नमि राजर्षि व इंद्र का संवाद
12 - हरिकेशी मुनि का तप आदि
13 चित्त संभुत्ति मुनि
14 इक्षुकार राजा आदि 6 जीव
18 संयति राजा व चक्रवर्ती बलदेव आदि का कथन
19 मृगापुत्र जी अध्ययन में संयम की दुस्करता
20 - श्रेणिक व अनाथी मुनि का नाथता अनाथता की समझ देता संवाद
21 समुद्रपाल जी
22 नेमप्रभु द्वारा विवाह स्थल छोड़ना, राजिमतीजी रथनेमीजी का प्रसंग
23 केशिकुमार श्रमण व गौतमस्वामी की चर्चा
25 जयघोष विजयघोष जी
27 गर्गाचार्य जी
इत्यादि गहन ज्ञान से भरे अध्ययन इस आगम की महत्ता बतलाते है। अन्य अध्ययन भी उतने ही महत्त्वपूर्ण है।
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बड़ी साधुवंदना - 23
वली खन्धक संन्यासी राख्यो गौतम स्नेह,
महावीर समीपे पंच महाव्रत लेह ।27।
तप कठिन करी ने झोंसी आपणी देह,
गया अच्युत देवलोके, चवी लेशे भव छेह ।28।
भगवान महावीर स्वामी एकबार विहार करते हुए कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलास नामक उद्यान में पधारे ।जनता देशना श्रवण, दर्शन हेतु उमड़ने लगी। तब गौतम स्वामी से प्रभुने कहा कि आज तुम अपने पूर्व परिचित मित्र से मिलोगे।
गौतम स्वामी ने कुछ प्रश्न पूछे कि कौन ऐसे पूर्व परिचित, आदि? तब वीर प्रभु ने उन्हें सब समाधान दिया।
कृतंगला नगरी के पास एक श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल परिव्राजक के शिष्य , वेद आदि के प्रखर ज्ञाता स्कंदक नामक तापस रहते थे। जो गौतमस्वामी के पूर्व जीवन के मित्र थे । उसे ज्ञानी जान पिंगल नामक निर्ग्रन्थ ने 5 प्रश्न पूछे।
1लोक ,2 जीव, 3 सिद्ध, 4 सिद्धि, 4 लोक ये चार सादि सांत है या अनादि अनन्त? और 5 कौन सा मरण संसार बढ़ाता है , कौन सा मरण संसार घटाता है ?
इन प्रश्नों से स्कंदक तापस थोड़ा भ्रमित हो गए । पास की नगरी में वीर प्रभु के आगमन को जानकर उनसे समाधान लेने आये।
वीर प्रभु से यह सब बातें जाने हुए गौतम स्वामी ने उनका स्वागत किया। यहां अन्यमती के सन्मान स्वागत गौतमजी ने कैसे किया यह शंका का भी सुंदर समाधान दिया हुआ है। वीर प्रभुने केवलज्ञान में देखकर भविष्य के संयमी व अत्यंत उग्र तपस्वी जानकर ही गौतमस्वामी ने स्कंदक जी का स्वागत सन्मान किया और उनके मन की बात पहले ही बता दी। यह जानकर स्कंदक जी प्रभावित हुए। वीर प्रभु ने सभी सवालो का द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा संपुर्ण समाधान दिया। फिर प्रभु के बोध से तुष्ट होकर सम्यक्त्व पाये हुए स्कंदक ने संयम स्वीकार कर प्रभुका शरण स्वीकार किया।
संयम की अति उग्र आराधना करने लगे। 1 मासिकी से प्रतिमा से लेकर 7 मासिकी प्रतिमा, गुणरत्नसंवत्सर आदि विभिन्न तप करते हुए शरीर रूपी संयम साधन का उत्कृष्ट उपयोग किया। यहां तक कि अब उठते बैठते उनके शरीर से हड्डियों की कड़कड़ ध्वनि तक सुनाई देने लगी।
अंत मे संलेखना सहित मृत्यु पाकर अच्युत देवलोक में उतपन्न हुए। अगले भवो में मुक्ति प्राप्त करेंगे।
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बड़ी साधुवंदना - 24
वली रुषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार,
शिव राज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।29।
इस गाथा में जिनशासन के 4 उत्तम रत्नों का कथानक है। एक एक कथानक विभिन्न बोध से भरा हुआ है।
पहला कथानक : -
रुषभदत्त जी
ब्राह्मणकुण्ड नगर में वेदों के प्रखर ज्ञाता रुषभदत्त नामक ब्राह्मण रहते थे। पत्नी का नाम था देवानंदाजी । रुषभदत्त वेदपाठी ब्राह्मण होते हुए भी 9 तत्त्वों के ज्ञाता व उनमे श्रद्धांवितथे।
वीर प्रभु विचरण करते हुए एक बार ब्राह्मणकुण्ड नगर के बाहर उद्यान में पधारे । वीर प्रभु का आगमन जान जनता दर्शन वन्दन को आने लगी। तब रुषभदत्त व देवानंदाजी भी प्रभु के दर्शन हेतु पधारे। देवानंदाजी प्रभु को देखते ही जैसे स्तंभित हो गए। अनिमेष दृष्टि से प्रभुको निहारते रहे। उनका रोम रोम पुलकित हो गया। तन मन मे हर्ष की अदभुत लहर दौड़ने लगी । वँहा उपस्थित सभी माता देवानंदा के हर्ष को देखकर अचंभित हो रहे थे । पर माता इन सब से अनभिज्ञ किन्ही भावावेश में बही जा रही थी। यहां तक कि उनकी कंचुकी से वात्सल्य रूप दूध की धारा बहने लगी।
यह सब देख फिर गौतमस्वामी ने प्रभु को देवानंदाजी के अदभुत हर्ष का कारण पूछा तब जो वीर प्रभुजी ने दुनिया से अभी तक अनजान एक सच को उजागर किया।
रुषभदत्त व देवानंदाजी उनके प्रथम माता पिता है। वीर प्रभु दसवें देवलोक से च्यवकर पहले देवानंदा की कुक्षी में आये। प्रथम बार 14 स्वप्न भी देवानंदा जी ने देखे।
पर तीर्थंकर प्रभु का जन्म हमेशा क्षत्रियकुल में ही होता है अन्य कुल में नही। यह सत्त्य जब देवेंद्र ने जाना तब हरिणगमेशी नामक देव को आज्ञा देकर उनके गर्भ का संहरण कर त्रिशलमाता की कुक्षी में स्थापन करवाया । इसी वजह से देवानंदा अनजान पुत्र वात्सल्य में बहकर भावोन्मुक्त हो रही थी। सब यह जानकर आश्चर्य से मन्त्र मुग्ध हो गए।
गर्भ संहरण की यह घटना इस काल मे हुए दस आश्चर्यजनक घटनाओमे से एक है।
पूर्व के मरीचि के भव में वीर प्रभुके जीव ने किए कुल मद का यह परिणाम था। ओर देवानंदा जी के भी पूर्व भव में की हुई छोटी गलती का ही यह फल था कि उनका गर्भ हरण किया गया। एक तीर्थंकर की माता बनने का सौभाग्य मिलकर भी छीन लिया गया। कितना दुखकर होगा वह।
कितना सचोट बताया हमे, की कर्म का भुगतान यहां सभी को करना ही है चाहे तीर्थंकर चाहे चक्रवर्ती। कर्मो की सजा से कोई छूटता नही।
वीर प्रभु से यह सब सुनकर रुषभदत्त व देवानंदाजी वैराग्य वासित बने। उत्कृष्ट संयम आराधना कर मोक्ष को प्राप्त किया। सभी तीर्थंकरों के मातापिता में मोक्षगामी सिर्फ ऋषभदेव की माता मरूदेवा व वीर प्रभु के प्रथम मातापिता हुए।
देवानन्दा जी का वर्णन आगे की गाथा में आता है पर हमने इस कथानक को रुषभदत्त के साथ ही ले लिया है।
इस काल मे जो दस आश्चर्य हुए वो इस प्रकार हुए।
1 तीर्थंकर उपसर्ग
2 तीर्थंकर का गर्भ हरण
3 स्त्री तीर्थंकर
4 अभावित परिषदा
5 2 वासुदेव का मिलन
6 चन्द्र सूर्य अवतरण
7 हरिवंशोत्पत्ति
8 चमरेन्द्र उत्पात
9 अष्ट शत सिद्ध
10 असंयत पूजा
इनमें 1, 2, 4, 6 व 8 वे क्रम का आश्चर्य वीर प्रभु के समय हुआ।
ईन सभी का कथानक फिर कभी देखेंगे।
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 25
वली रुषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार,
शिव राज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।29।
दूसरा कथानक
सेठ सुदर्शन
वीर प्रभुजी एक बार विचरण करते करते शिष्यों समेत वाणिज्य ग्राम के बाहर पधारे व द्युतिपलाश उद्यान में बिराजे। वँहा के अति समृद्ध श्रेष्ठी सुदर्शन भगवान की वंदना हेतु पधारे।
5 अभिगमो का पालनकरते हुए धर्म सभा में देशना सुनी। बाद में अवसर देखकर प्रभु से सुदर्शन श्रेष्ठी ने विनय विधि युक्त होकर काल संबन्धी कुछ प्रश्न पूछे। प्रभु ने सभी सवालो को विस्तृत समाधान दिया। फिर बोध देते हुए उन्हें उनका पूर्वभव वृत्तांत सुनाया।
पूर्वभव
हस्तिनापुर नगर के बलराजा व प्रभावती रानी का पुत्र महाबल।
महाबल राजा के भव में विमलनाथ भगवान की परंपरा के संत धर्मघोष मुनि से बोध पाकर कुमारअवस्था में वैरागी बने। मातापिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। मातापिता ने कुछ समय के लिए राज्यपद भोगकर दीक्षा लेने के लिए आज्ञा दी। कुछ दिन राज्य भोगकर मातापिता व राज्य छोड़ उन्होंने दीक्षा ली व उत्कृष्ट आराधना की। उस आराधना का फल ही था की काल कर वैमानिक देव बने। देव आयु पूर्ण कर आप इस वाणिज्य नगर में श्रेष्ठी बने।
प्रभुजी की वाणी सुनकर सुदर्शन श्रेष्ठी को जाती स्मरण ज्ञान हुआ। उन्हें प्रभुकी वाणी की सत्यता दिखी। विमल नाथ स्वामी के शासन में उन्होंने दीक्षा ली थी ओर अब वीर प्रभु के शासन का समय।
अब उन्हें फिर संयम की उत्कंठा हुई। वीर प्रभु के चरणों में संयम लेकर उत्कृष्ट तप व संयम की आराधना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।
इस प्रकरण में यह बात स्पष्ट की गई है की ,
एक तो धर्ममार्ग में जितना प्रभाव प्रभुजी के सान्निध्य का है उतना ही स्व कल्याण के लिए अपनी तीव्र इच्छा का भी महत्त्व है।
दूसरी बात समाधान लेते समय गुरु या मुनि से कैसा विनय होना चाहिए। वन्दन आदि के बाद अत्यंत नम्रता से जिज्ञासा रखनी चाहिए।
तीसरा यहां मुनि दर्शन जाते हुए पालने आवश्यक 5 अभिगम की है जो हमे भी सीखनी चाहिये।
1 सचेत का त्याग ,
यानी मुनि के पास कोई भी सचेत वस्तु न लेकर जाए। सचेत यानी ज8समय जीव हो वह वस्तु, उन्हें दोष का भागी न बनाये। हरि सब्जियां आदि, आज के समय में खासकर घड़ी, मोबाइल ।
2 अचेत का विवेक
अचेत वस्तु में भी विवेक रखे। जो चीजे मान आदि कषायों का पूरक है या जिससे अशातना का संभव हो ,वे वस्तुए न ले जाए। जैसे राजा का छत्र, पालकी, मुकुट, जूते या संसारी वस्तुए आदि के त्याग करना ।
3 उत्तरासन - मुनि से बात करते हुए मुख वस्त्रिका का प्रयोग अवश्य करना (एक मत उत्तरासन को देह के ऊपर का अंग वस्त्र मानते है । )
4 अंजलीकरण - मुनि को देखते ही यथायोग्य जघन्य से उत्कृष्ट वन्दन करना। जैसे मुनि किसी काम से जा रहे है तो उन्हें रोके बिना जघन्य वन्दन 2 हाथ जोड़ शीश झुककर मत्थेणं वन्दामि करना, या अवसर देखकर मध्यम यानी तिकखुत्तो से 3 पूरी वंदना करना, पर उन्हें व्यवधान न हो इस तरह। ओर इच्छामि खमासमनो के पाठसे 2 उत्कृष्ट वन्दन करना ।
5 एकाग्रता - मुनि हमे जो भी बोध आदिदे उसे एकाग्र चित्त से सुननाव समझने का प्रयास करना।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 26
वली रुषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार,
शिव राज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।29।
शुद्ध संयम पाली पाम्या केवल सार,
ये चारे मुनिवर पहोंचया मोक्ष मझार ।30।
तीसरा कथानक
भगवती सूत्र, ग्यारहवें शतक , नॉवे अध्ययन में शिवराजर्षि का वर्णन आता है।
हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा थे। राजा राजकार्य में निपुण, व्यवहार कुशल , अस्त्रशस्त्र में पारंगत व धर्म वत्सल था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी।
एक बार राजा ने रात्रि में चिंतन किया। अब मेरा आयुकाल बढ़ रहा है। राजकुमार शिवभद्र भी राज्य के योग्य बन चुका है। पूर्व के संचित कर्म के कारण मेने अपूर्व रिद्धि, राज्य परिवार व सब सुख समृद्धि पायी है। अब शरीर मे जब तक जोर है , तब तक मुझे धर्म आराधना कर इस दुर्लभ मनुष्य भव को सार्थक बना लेना चाहिए। राज्य व परिवार के मोह को त्याग साधना कर लेना चाहिए।
हम यहां जरा सोचे : - क्या ऐसा विचार हमे कभी आता है क्या? विचार आया तो उस पर अमल करते है क्या ? या जो दुर्लभ मनुष्य भव की उपलब्धि को हम यूं ही व्यर्थ गंवा देनेवाले है?
राजन का चिंतन आत्मकल्याण की ओर मुड़ा। पर यहां समकित का अभाव था। निर्ग्रन्थ मुनि का शरण शायद मिला नही। पर उनकी भावना अच्छी थी। राज्य व परिवार त्याग का संकल्प श्रेष्ठ था।
राजकुमार शिवभद्र को राजा बनाकर वे गंगा तट पर रहे दिशाप्रोक्षक तापसो के पास आकर मुंडित होकर तापस बन गए। बेले बेले पारणे का उग्र तप करने लगे। देखो समकित का महत्त्व। उनकी सारी क्रियाए, भाव अच्छे थे पर योग्य समझ समकित का अभाव था । तो चाहे कितना तप कर ले। लक्ष्य गलत तो सफर भी गलत।
तप करते करते उन्हें विभंग ज्ञान ( विपरीत अवधिज्ञान ) प्रकट हुआ।
अवधिज्ञान क्या है?
जिस ज्ञान से जीव मन व इंद्रियों की मदद लिए बिना आत्मा से सीधे लोक का मर्यादित से संपूर्ण रूपी पदार्थो को देख सके, जान सके, उस ज्ञान को अवधिज्ञान कहते है।
उस ज्ञान से उन्हें 7 द्वीप व 7 समुद्र देखने लगे। परन्तु यहां सम्यक्त्व नही था। वह ज्ञान सम्यक्त्व के अभाव में विभंग ज्ञान में परिवर्तित हुआ था। विभंग ज्ञान यानी गलत समझयुक्त अवधिज्ञान। विपरीत अवधिज्ञान।
इस विभंग ज्ञान से वे लोक को इतना ही मर्यादित समझने लगे । अपने आपको वे सर्वज्ञ समझ कर हस्तिनापुर में आकर अपनी गलत सर्वज्ञता का प्रचार करने लगे।
तब वँहा के उद्यान में योग से वीर प्रभुका आगमन हुआ। शिव राजर्षि की लोक संबन्धी जानकारी लोगो द्वारा गौतम स्वामी तक पहुंची। गौतमस्वामी ने अपनी जिज्ञासा वीर प्रभु को बताकर पूछा कि क्या यह सत्त्य है?
तब वीर प्रभु ने गौतम स्वामी व वंहा उपस्थित सभाजनोको फरमाया की : - नही , लोक में सिर्फ 7 द्वीप समुद्र नही है। बल्कि असंख्य द्वीप व असंख्य समुद्र है। लोगो को केवली वीर प्रभु के कथन पर श्रद्धा थी । यह सत्त्य उन्होंने शिवराजर्षि को बताया। तब शिव राजर्षि आशंकित हुए। उन्हें भी वीर प्रभु के दर्शन कर अपने ज्ञान की सत्यता जानने की इच्छा हुई। प्रभुजीके ज्ञान पर श्रद्धा हुई। तभी तीर्थंकर पर श्रद्धा के प्रभाव से उनका विभंग ज्ञान अवधिज्ञान में परिवर्तित हुआ। सिर्फ श्रद्धा से ही इतना प्रभाव।
शिवराजर्षि वीर प्रभु के दर्शन करने गए। अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया। वीर प्रभु की देशना सुन शिवराजर्षि ने सही वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा अंगीकार की। उत्कृष्ट संयम आराधना कर मोक्ष पहुंचे।
चौथा कथानक
प्रभु वाणिज्य ग्राम बिराज रहे थे तब पार्श्वनाथ परंपरा के ज्ञानी संत गांगेय मुनि दर्शनार्थ आये। प्रभुजीके सामने कुछ जिज्ञासा रक्खी। उनका समाधान पाते ही चतुर्याम धर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया। उत्कृष्ट आराधना कर के फिर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
ऐसे इस गाथा में वर्णित चारों जीव संयम आराधना कर सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुए।
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बड़ी साधुवंदना - 27
भगवंत नी माता धन्य धन्य सती देवानंदा,
वली सती जयंती छोड़ दियो घर फन्द ।31।
सती मुक्ति पहुंच्या, वली ते वीर नी नन्द,
महासती सुदर्शना घणी सतियोना वृन्द ।32।
जिनशासन में अनंता महान विभूतियां हो गई, उनमे स्त्रियों के नाम भी कम नही। कई स्त्रियों ने उत्कृष्ट आराधना कर या तो मोक्ष पहुंच गए या मोक्ष मार्ग प्रशस्त कर लिया।
इन गाथाओं में उन्हीं महासतीजियो में से कुछ नाम दिए है। जो वीरशासन में उत्कृष्ट धर्म व संयम की आराधना कर अपने कर्म पर विजय पाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गयी।
1 देवानंदाजी : - का कथानक हमने रुषभदत्त जी के साथ देखा।
2 सती जयंती जी - कौशांबी नगरी के राजा शतानीक की बहन, उदयन की भुआ, मृगावतीजी की ननद थी जयंतीजी। उत्कृष्ट श्राविका। इन्हें प्रथम शय्यात्तरी का बिरुद मिला है। यानी कि साधु संतों को स्थान दान देने में सदा तत्पर, यही नही कौशांबी नगरी में साधर्मिको की धर्माराधना में सहायक, तप आदि में उनकी वैयावृत्य में जयंती जी अव्वल थे।
यही नही की तत्त्व ज्ञान में भी उच्च कोटि के थे। एकदा भगवान कौशांबी पधारे तब वीर प्रभु से उन्होंने कई प्रश्न पूछे। जिनका अच्छा विवेचन उपस्थित है।
जैसे जीव सोता हुआ अच्छा या जागता अच्छा?
तब प्रभुजी ने उत्तर दिया था धर्मी जीव जागता भला , अधर्मी सोता भला।
यानी जो धर्म समझता है, वह जागता रह कर अपने मोक्ष मार्ग की साधना करे। जोअधर्मी है वह सोता रहकर पाप से बचा रहे। आदि कई तत्त्वज्ञान के प्रश्नोत्तरी के बाद वीर प्रभु से समाधान कर वैराग्य पाया। उनके पास दीक्षा लेकर संयम की उत्कृष्ट आराधना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनीं।
3 वीर नी नन्द यानी प्रियदर्शना जी
ये वीर प्रभु की पुत्री व जमाली जी की पत्नी थी ।
वीर प्रभु के पास दोनों ने संयम अंगीकार कर विचर रहे थे। एक बार क्रिया हो रही है या हो चुकी है उसे कैसे व्याख्यायित किया जाए उस सवाल पर जमाली जी के मिथ्यात्व का उदय हुआ। और वे वीर संघ से अलग होकर अपने आप को सर्वज्ञ बताकर विचरण करने लगे। इसमें प्रथम तो प्रियदर्शना जी ने पति मुनि का साथ दिया परन्तु ढंक नामक कुम्हार के एक घटना द्वारा सचोट बोध देने पर वे पुनः वीर संघ में मिल गए। उच्च आराधना कर मोक्ष पहुंचे।
4 सुदर्शना जी
ये वीर प्रभु की बहन थे। उन्होंने भी प्रभु के पास बहुत सी स्त्रियों के साथ संयम अंगीकार किया। उत्कृष्ट आराधना से मोक्ष को प्राप्त किया।
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बड़ी साधुवंदना - 28
वली कार्तिक सेठे , पडिमा वही शूरवीर,
जिम्यो मोरा पर ,तापस बलती खीर ।33।
पछि चारित्र लीधु, मित्र एक सहस्त्र आठ धीर,
मरी हुआ शकेन्द्र, चवी लेशे भव तीर।34।
वीर प्रभु विशाखा नगरमे बहुपुष्पिक उद्यान में बिराज रहे थे । तब देवराज शक्र प्रभुजी के दर्शन वन्दन को आया। उनकी विपुल ऋद्धि वैभव देख गौतम स्वामी ने प्रभुसे पूछा: - प्रभु, यह जीव किस कर्म के प्रताप से इतनी ऋद्धि भोग रहा है?
तब प्रभु ने उसके पूर्वभव बताते हुए कहा : -
यह मुनिसुव्रत स्वामी के समय की कथा है।
हस्तिनापुर नगर में एक विपुल ऋद्धि का स्वामी, अत्यंत शक्ति शाली , 1008 व्यापारियों का अधिपति, जिनवाणी व जिनेश्वर में श्रद्धांवित ऐसा कार्तिक नामक श्रेष्ठी रहता था।
एक बार वँहा एक कुछ लब्धिधारी तपस्वी तापस आया। मासखमन आदि तप करता था उसके तप व कुछ लब्धिया आदि से आकर्षित जनता उसके दर्शन को उमड़ पड़ी। कई भक्त बन गए। राजा भी प्रभावित हो गया। उसने अगले मासखमन के पारणे के लिए राजमहल में आने का न्योता दिया।
अब इस तापस की चर्चा कार्तिक सेठ ने भी सुनी थी, पर उसे कुछ महत्त्वपूर्ण नही लगा। वे दर्शन करने तक नही गया। कुछ विरोधियों ने तापस तक यह बात पहुंचाई।उसे लगा इतना बड़ा श्रेष्ठी दर्शन करने आये तो वह प्रजा में ओर प्रभावी बनेगा। उसने प्रयास किये पर व्यर्थ। कार्तिक को उसपर न राग था न ही द्वेष। पर उसे आकर्षित करने में निष्फल तापस उसका विद्वेषी बना।
पारणे पर उसने राजा के साथ यह शर्त रखी कि वह कार्तिक सेठ की खुली पीठ पर गर्म खीर रखकर उससे ही पारणा करेगा।
राजा उससे अभिभूत था। उसने कार्तिक सेठ को आज्ञा दी।
राजाज्ञा के आगे सेठ विवश बने।
तापस ने 3 - 3 बार खीर गर्म करवाकर उसकी पीठ पर रखवाई। गर्म खीर से कार्तिक सेठ की पीठ जल गई।
कार्तिक सेठ को तापस पर क्रोध तो नही आया, पर इस प्रसंग से वह विरक्त हो गये।
एकबार तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी सहस्राम्र उद्यान में पधारे तब कार्तिक सेठ ने उनके पास दीक्षा लेकर चतुर्याम धर्म स्वीकार किया। उनके 1008 व्यापारियों ने भी उनका अनुसरण किया।
संयम ग्रहण बाद उत्कृष्ट संयम साधना करते हुए 14 पूर्व का अध्ययन किया, 12 वर्ष तक संयम पालकर एक मास के संथारे से युक्त अनशन लेकर आयु पूर्ण की। व प्रथम देवलोक के 32 लाख देवविमान व असंख्य देवो के स्वामी इंद्र रूप में उत्पन्न हुये। उनकी स्थिति 2 सागरोपम प्रमाण है। आगे वह महाविदेह में उत्पन्न होकर आराधना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
इस अध्ययन की कुछ बाते
- देवेंद्र भी प्रभुजीके दर्शन को आते है।
- ज्यादातर संयमी आत्माएं अंतिम समय संलेखना ग्रहण करते है।
- यदि नेता सही हो तो उनकी प्रजा का मार्गदर्शन भी सही होता है। जैसे कार्तिक सेठ ने स्वयं का कल्याण किया उसे देखकर, 1008 साथियों ने भी स्वकल्याण के मार्ग पर कदम बढ़ाये।
इस कथानक में कंही कोई भिन्नता संभव है। यह कथानक आगे से पढ़ा हुआ व निम्न बुक से अभी देखकर लिया है।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 29
वली राय उदायन , दियो भाणेज ने राज,
पोते चारित्र लइ ने , सार्यो आतमकाज ।33।
राय उदायन
एक उद्दात्त चारित्र,
इस गाथा में वीरशासन के एक वीर प्रतापी व क्षमासम्राट की उपमा प्राप्त उदायन राजा का कथानक समाविष्ट है।
यह इतने प्रसंगों से भरी है कि 1/2 पोस्ट में समाविष्ट नही कर सकते । फिर भी संक्षिप्त करने का प्रयास किया है।
वित्तभय नगर के राजा उदायन, राजा चेटक की पुत्री प्रभावती के पति ।
दृढ़ जैन धर्मी व एक कुशल राजा। श्रावक के सभी व्रतों का श्रद्धा से पालन करते। पौषध आदि भी नियमित करते।
चेतक राजा के ही एक अन्य दामाद शिवादेवी के पति उज्जयनी नरेश चण्ड प्रद्योत। काम लोलुप व विकारी राजा थे।
उदायन राजा के यहां एक अति सुंदर दासी थी। उसकी सुंदरता की प्रसंशा सुनकर एक बार चण्डप्रद्योत गुप्त वेश से अपने अनिलवेग हाथी पर आकर उस दासी को उठा ले गया।
यद्यपि उदायन राजा व्यर्थ हिंसा में नही माननेवाले एक व्रती श्रावक थे परंतु यह राज्य की आन बान व शान का प्रश्न था। सेना लेकर वित्तभय नगर से उज्जयनी नगर आकर उस चण्डप्रद्योत को युद्ध मे हराया । चण्डप्रद्योत के ललाट पर दासीपति शब्द छपवा कर बंदी बनाकर उसे साथ लिए अपने राज्य के लिए निकल गए।
जंगल के रास्ते मे ही पहुंचे थे कि चातुर्मास बैठ गया। वर्षा बढ़ गई थी। इतनी बड़ी सेना के गमन से जीवो की हानि भी बहुत तथा सेना को भी पानी मे दिक्कत। रास्ते मे ही पड़ाव डाला और ठहर गये। राजा बंदी चण्डप्रद्योत के साथ भी एक राजा योग्य सन्मान के साथ व्यवहार करता था। दोनो का भोजन साथ मे बनता था।
पर्युषण पर्व आया। जंगल मे भी राजा बराबर श्रावकोचित आराधना कर रहे थे। संवत्सरी का दिन आया। राजा ने पौषध किया। अगले दिन जब सैनिक जब भोजन के आदेश लेने आये थे तब उदायन ने उनके उपवास व पौषध का बताया तथा कहा कि आप चण्डप्रद्योत से पूछकर उन्हें जो खाना हो वह भोजन उनके लिए बनवा दे।
सैनिक चण्डप्रद्योत के पास आये । सब जानकर चण्डप्रद्योत को इस पर शंका हुई , कि सिर्फ मेरे लिए बने भोजन में विष मिलाने का षड्यंत्र तो नही। उसने कह दिया कि आज संवत्सरी का मैं भी उपवास करूँगा।
प्रतिक्रमण के बाद जब राजा ने सर्व जीवो को खमाया तब वे चण्डप्रद्योत के पास भी खमाने के लिए आये। निर्लज्ज चण्डप्रद्योत ने कहा: - राजन , मुझे बंदी बनाकर कैसी क्षमा याचना। यदि सही हृदय से क्षमा मांगने आये होते तो पहले मुझे मुक्त करते, मेरा जीता हुआ राज्य लौटाते। फिर होती क्षमायाचना। उदायन धर्मसंकट में पड़ गए। धर्मी मन चण्डप्रद्योत को मुक्त करने की बात कहता तो राज्य नीति उसे दंडित करने का सुझाव देता। आखिर धर्म संस्कार की जीत हुई। राजा उदायन ने बड़ी उदारता के साथ उसका सर्वस्व लौटकर क्षमादान दिया। आज इसी लिए क्षमादाता का उल्लेख होता है तो उदायन राजा का नाम अवश्य लिया जाता है।
यही उदायन राजा आगे चलकर क्या करते है यह आज की ही दूसरी पोस्ट में पढ़े।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 30
वली राय उदायन , दियो भाणेज ने राज,
पोते चारित्र लइ ने , सार्यो आतमकाज ।33।
चण्डप्रद्योत को क्षमादान देनेवाले, नित्य 3 मनोरथों का चिंतन करते राजा उदायन कालांतर में वैरागी बने। प्रभुजीके आगमन पर उनकी देशना सुनकर प्रवजित होने को तत्पर हुए।
राजमहल में आकर दीक्षा के बाद राज्य की व्यवस्था के लिए सोचने लगे। उनके पुत्र का नाम था अभिची कुमार। परन्तु उनके आचरण को देख राजा को आभास हुआ कि यह राजा बनेगा तो अवश्य भोगादि में डूबकर नरकेश्वरी बनेगा। इससे बेहतर मैं अपने भांजे केशिकुमार को राजा बनाकर निश्चिन्त होकर दीक्षा लूं। केशिकुमार योग्य भी है तथा अभिचिकुमार के बाद उसका हक भी।
अंततः राज्य सिंहासन को केशिकुमार को सौंपकर संयम अंगीकार किया। विहार करते हुते उग्र साधना आराधना करने लगे। इधर राज्य न मिलने पर नाराज हुए अभिचिकुमार कोणिक के साथ चले गए। कोणिक जिनधर्मानुरागी था। उसकी सोबत से कुछ असर अभिचिकुमार पर हुआ। वह भी जिनवाणी पर श्रद्धांवित हुआ। पर पिता के लिए द्वेष का खटका इसके मन मे सदा बना रहा। (यहां तक कि नवकार गिनते हुए - नमो लोए सव्व साहुणं - पर उदायन मुनि को छोड़कर ) . यह वैर की ज्वाला उसे न जाने किस पतन की गर्त में ले गई।
इधर उदायन मुनि विहार करते हुए पुनः वित्तभय नगरी के उद्यान में पधारे। तप व उत्कृष्ट साधना अविरत जारी थी। देह में कुछ अस्वस्थता थी पर मुनि उसके लिए उदासीन थे। मुनि के आने की खबर केशीराजा को हुई। वे दर्शन को आने तत्पर हुए। पर एक विद्वेषी मंत्री ने उन्हें ऐसा भरमाया की राजा की पूरी मति घूम गई। उदायन राजा अपना राज्य वापिस लेने आये है। षड्यंत्र का कुछ जाल मंत्री ने ऐसे बुना की केशिकुमार को मंत्री पर विश्वास हो गया। अब राजा मंत्री दोनो मुनि की हत्या को तत्पर हुये।
पर वे मुनि थे और वह भी उस राज्य के पूर्व राजा। सीधा हमला नही कर सकते थे। उनके भोजन में विष मिलाकर चुपचाप मारने का षड्यंत्र रचा गया। एक समकीती देव ने यह बात मुनि को बता दी। मुनि 2 बार तो बच गए। पर एकदा मंत्री व राजा ने पुनः प्रयास किया। मुनि औषधि रूप दही ले रहे थे उसमे विष मिला दिया। आखिर विष ने देह पर तो प्रभाव दिखाया। पर वह विष मुनि के आत्मबल से जीत न पाया। मुनि ने अपने भाव अंशमात्र कलुषित न होने दिए। चिंतन को उर्ध्वगामी बनाया। अंतिम क्षणों में केवल्यप्राप्ति कर मोक्ष के निवासी बने।
ऐसे सिद्ध बुद्ध मुक्त आत्माओं को हमारा नित्य वन्दन हो।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
धन्य विजय घोष मुनि, जयघोष बलि जाण,
श्री गर्गाचार्य पहोच्या छे निर्वाण ।25।
वाराणसी नगरी में काश्यप गोत्रीय दो सहोदर थे। जय घोष तथा विजय घोष । दोनो वेद के प्रखर ज्ञाता, कर्म कांडी, यज्ञादि करने करवाने में निपुण 2 ब्राह्मण।
एकदा जयघोष नदी तट पर विचरण कर रहे थे तब उन्होंने एक अजीब दृश्य देखा : - एक मेंढक ने एक कीटक का शिकार किया, अभी वह आधा मुंह से बाहर ही था कि मेंढक एक सर्प द्वारा दबोच लिया गया। सर्प के ऊपर पहले से दृष्टि गढा़ये बैठे ऊपर चील ने भी झटके से सांप को पकड़ लिया और बार बार जमीन पर पटकने लगा।
यह दृश्य देखकर जयघोष सोच में पड़ गए। क्या दुनिया ताक़तवाले की ही है? ( गुजराती में कहावत है बलिया ना बे भाग ) क्या कमजोर का कोई अस्तित्त्व महत्त्व का नही? इस कड़ी पर सोचते सोचते उनका चिंतन वैराग्य तरफ बढ़ा। वंही एक महाव्रत धारी सन्तो का समूह देखा। दर्शन वन्दन के बाद उनसे बोध पाकर जयघोष ने मुनि दीक्षा ग्रहण की। और मासखमन आदि तप करके विचरने लगे।
एकदा मासखमन के पारणे पर वाराणसी में ही भ्राता विजयघोष के यहा गोचरी पधारे। तब वँहा यज्ञ चल रहा था। तब भाई को बोध दिया। विजयघोष ने भी सत्य समझकर संयम स्वीकार किया। और दोनो भाइयों ने आराधना से अपना कल्याण किया।
दूसरी कड़ी विनय का अदभुत सन्देश देती है।
गर्ग गोत्र के एक उच्च आराधक मुनि हो गये। उन्हें गर्गाचार्य के नाम से ज्यादा जाना जाता है। उनके काफी शिष्य भी हुए। परन्तु उन सभी शिष्यों के आचार विपरीत था। कोई स्वाध्याय में प्रमादी, कोई चर्या में, अविनीत तो सभी थे ही, कोई आलसी भी थे ही। गर्गाचार्य उत्कृष्ट संयम के पालक थे। वे बहूत बार शिष्यों को बोध देते। अपनी साधना के साथ शिष्यों के कल्याण का बहुत प्रयत्न किया। परन्तु सब व्यर्थ था। मुनि अब अपनी साधना के विषय मे सोचने लगे।
इस अध्ययन में साधु की 3 अवस्था बताई गई है जब वह एकाकी विचरण कर सकते।
1 जिसने एकल विहारी प्रतिमा स्वीकार की
2 जिनकल्प स्वीकार की हो
3 एक एक मासिकी प्रतिमा स्वीकार की हो।
इस 3 अवस्था मे भी अत्यंत योग्यता की आवश्यकता होती है।
एकल विहारी साधु के लिए कहा गया है कि वे 8 गुणो के धारक होने चाहिए। (कंही यह भी पढ़ा हुआ है :- 8 गुण का धारक मुनि अकेले विचरे या 8 अवगुण का धारक मुनि एकलविहार करते है। ) गर्गाचार्य उत्तम 8 गुणो से युक्त थे। यद्यपि उन्होंने शिष्यों के सुधार का बहुत प्रयास किया पर फिर अपनी आराधना हेतु उन अविनीत शिष्यों को छोड़कर अपनी आराधना करने अलग हुए। व अकेले विचरने लगे। ऐसी उत्कृष्ट साधना से उसी भव निर्वाण पाकर मोक्ष को प्राप्त किया।
यह छोटा सा लगता कथानक वास्तव में साधुजीवन के कई गुणो को कई मर्यादाओं को समझा जाता है। विनय कितना आवश्यक है, गुरु आज्ञा, गुरु का सान्निध्य कितना महत्त्वपूर्ण है। इन सब का संदेश यह कथा देती है। गुरु सही थे तो मोक्ष पा गये शिष्य प्रमादी , अविनीत थे तो भवसागर में झूलते रहे। कहते है जिस प्रकार सड़े कान वाले श्वान को हर जगह से धुत्कार दिया जाता है वैसे ही अविनीत शिष्यों को भी हर जगह तिरस्कार ही मिलता है। विनीत शिष्य 10 प्रकार के अनुशासन सूत्र का यथोचित पालन कर अपनी मंजिल शीघ्र पा लेता है।
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम
बड़ी साधुवंदना - 22
श्री उत्तराध्ययन माँ , जिनवर कर्या बखाण,
शुद्ध मन से ध्यावो , मन मे धीरज आण ।26।
केवल्यप्राप्ति के बाद तीर्थंकर भगवान उपदेश देते है। उन सभी उपदेश को सूत्रों में पिरोकर गणधर भगवान आगम की रचना करते है।
12 अंग मुख्य
उसके बाद
12 अंगों में कुछ विषयो को ज्यादा उजागर करते हुए 12 उपांग, फिर कुछ बेसिक माहिती को पिरोकर मुलसूत्र , छेद सूत्र आदि की रचना गणधर, स्थविर भगवन्तों द्वारा होती है।
श्वेतांबर की 2 मुख्य परंपराए वर्तमान में उपलब्ध
आगमो के संख्या में कुछ विभिन्नता रखती है।
देरावासी में 11 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्णक , 6 छेद सूत्र, 4 मुलसूत्र , 2 चूलिका यो कुल 45 आगमो का स्वीकार करते है।
यथा स्थानकवासी में 11 अंग , 12 उपांग, 4 छेदसूत्र, 4 मूल सूत्र व 1 आवश्यक सूत्र कुल 32 आगमो को मान्य करते है।
12 वा अंग दृष्टिवाद तीर्थंकर के निर्वाण बाद कुछ समय मे ही विच्छेद जाता है।
कंही पढा है कि दिगंबर परंपरा सारे वर्तमान आगमो को प्रमाणित नही मानते है।
( आगमो की कुछ बाते हम आगे की कथाओं में देखेंगे ।)
उत्तराध्ययन सूत्र
श्वेतांबर की दोनो परंपराए स्थानकवासी व देरावासी, इसे
मूल सूत्र मानते है। यह तीर्थंकर भगवान महावीरस्वामी की अंतिम देशना के रूप में, अनेको चारित्र्य बतलाते हुए, विनय आदि गुणों का महत्त्व बतलाता हुआ एक महत्त्व पूर्ण आगम है।
परंपरा से यह आगम सुधर्मास्वामी द्वारा संकलित है। हमने आज तक यानी 25 वी गाथा तक बड़ी साधुवन्दना के जितने कथानक पढ़े, समझे है, वे सारे उत्तराध्ययन सूत्र से लिये है।
उन चारित्रात्मा के गुणों का वर्णन स्वयं भगवान ने किया है। सोचिए, इन आत्माओ की विशेषता कैसी रही हॉगी। 36 अध्ययनों का यह आगम श्रमणों के लिए अत्यंत पठनीय व समझने लायक है। हमारे लिए अति उपकारी व प्रेरणाजनक है।
इन कथानकों को अध्ययन से समझे तो
8 वे अध्ययन में कपिल मुनि
9 - नमि राजर्षि व इंद्र का संवाद
12 - हरिकेशी मुनि का तप आदि
13 चित्त संभुत्ति मुनि
14 इक्षुकार राजा आदि 6 जीव
18 संयति राजा व चक्रवर्ती बलदेव आदि का कथन
19 मृगापुत्र जी अध्ययन में संयम की दुस्करता
20 - श्रेणिक व अनाथी मुनि का नाथता अनाथता की समझ देता संवाद
21 समुद्रपाल जी
22 नेमप्रभु द्वारा विवाह स्थल छोड़ना, राजिमतीजी रथनेमीजी का प्रसंग
23 केशिकुमार श्रमण व गौतमस्वामी की चर्चा
25 जयघोष विजयघोष जी
27 गर्गाचार्य जी
इत्यादि गहन ज्ञान से भरे अध्ययन इस आगम की महत्ता बतलाते है। अन्य अध्ययन भी उतने ही महत्त्वपूर्ण है।
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 23
वली खन्धक संन्यासी राख्यो गौतम स्नेह,
महावीर समीपे पंच महाव्रत लेह ।27।
तप कठिन करी ने झोंसी आपणी देह,
गया अच्युत देवलोके, चवी लेशे भव छेह ।28।
भगवान महावीर स्वामी एकबार विहार करते हुए कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलास नामक उद्यान में पधारे ।जनता देशना श्रवण, दर्शन हेतु उमड़ने लगी। तब गौतम स्वामी से प्रभुने कहा कि आज तुम अपने पूर्व परिचित मित्र से मिलोगे।
गौतम स्वामी ने कुछ प्रश्न पूछे कि कौन ऐसे पूर्व परिचित, आदि? तब वीर प्रभु ने उन्हें सब समाधान दिया।
कृतंगला नगरी के पास एक श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल परिव्राजक के शिष्य , वेद आदि के प्रखर ज्ञाता स्कंदक नामक तापस रहते थे। जो गौतमस्वामी के पूर्व जीवन के मित्र थे । उसे ज्ञानी जान पिंगल नामक निर्ग्रन्थ ने 5 प्रश्न पूछे।
1लोक ,2 जीव, 3 सिद्ध, 4 सिद्धि, 4 लोक ये चार सादि सांत है या अनादि अनन्त? और 5 कौन सा मरण संसार बढ़ाता है , कौन सा मरण संसार घटाता है ?
इन प्रश्नों से स्कंदक तापस थोड़ा भ्रमित हो गए । पास की नगरी में वीर प्रभु के आगमन को जानकर उनसे समाधान लेने आये।
वीर प्रभु से यह सब बातें जाने हुए गौतम स्वामी ने उनका स्वागत किया। यहां अन्यमती के सन्मान स्वागत गौतमजी ने कैसे किया यह शंका का भी सुंदर समाधान दिया हुआ है। वीर प्रभुने केवलज्ञान में देखकर भविष्य के संयमी व अत्यंत उग्र तपस्वी जानकर ही गौतमस्वामी ने स्कंदक जी का स्वागत सन्मान किया और उनके मन की बात पहले ही बता दी। यह जानकर स्कंदक जी प्रभावित हुए। वीर प्रभु ने सभी सवालो का द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा संपुर्ण समाधान दिया। फिर प्रभु के बोध से तुष्ट होकर सम्यक्त्व पाये हुए स्कंदक ने संयम स्वीकार कर प्रभुका शरण स्वीकार किया।
संयम की अति उग्र आराधना करने लगे। 1 मासिकी से प्रतिमा से लेकर 7 मासिकी प्रतिमा, गुणरत्नसंवत्सर आदि विभिन्न तप करते हुए शरीर रूपी संयम साधन का उत्कृष्ट उपयोग किया। यहां तक कि अब उठते बैठते उनके शरीर से हड्डियों की कड़कड़ ध्वनि तक सुनाई देने लगी।
अंत मे संलेखना सहित मृत्यु पाकर अच्युत देवलोक में उतपन्न हुए। अगले भवो में मुक्ति प्राप्त करेंगे।
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 24
वली रुषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार,
शिव राज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।29।
इस गाथा में जिनशासन के 4 उत्तम रत्नों का कथानक है। एक एक कथानक विभिन्न बोध से भरा हुआ है।
पहला कथानक : -
रुषभदत्त जी
ब्राह्मणकुण्ड नगर में वेदों के प्रखर ज्ञाता रुषभदत्त नामक ब्राह्मण रहते थे। पत्नी का नाम था देवानंदाजी । रुषभदत्त वेदपाठी ब्राह्मण होते हुए भी 9 तत्त्वों के ज्ञाता व उनमे श्रद्धांवितथे।
वीर प्रभु विचरण करते हुए एक बार ब्राह्मणकुण्ड नगर के बाहर उद्यान में पधारे । वीर प्रभु का आगमन जान जनता दर्शन वन्दन को आने लगी। तब रुषभदत्त व देवानंदाजी भी प्रभु के दर्शन हेतु पधारे। देवानंदाजी प्रभु को देखते ही जैसे स्तंभित हो गए। अनिमेष दृष्टि से प्रभुको निहारते रहे। उनका रोम रोम पुलकित हो गया। तन मन मे हर्ष की अदभुत लहर दौड़ने लगी । वँहा उपस्थित सभी माता देवानंदा के हर्ष को देखकर अचंभित हो रहे थे । पर माता इन सब से अनभिज्ञ किन्ही भावावेश में बही जा रही थी। यहां तक कि उनकी कंचुकी से वात्सल्य रूप दूध की धारा बहने लगी।
यह सब देख फिर गौतमस्वामी ने प्रभु को देवानंदाजी के अदभुत हर्ष का कारण पूछा तब जो वीर प्रभुजी ने दुनिया से अभी तक अनजान एक सच को उजागर किया।
रुषभदत्त व देवानंदाजी उनके प्रथम माता पिता है। वीर प्रभु दसवें देवलोक से च्यवकर पहले देवानंदा की कुक्षी में आये। प्रथम बार 14 स्वप्न भी देवानंदा जी ने देखे।
पर तीर्थंकर प्रभु का जन्म हमेशा क्षत्रियकुल में ही होता है अन्य कुल में नही। यह सत्त्य जब देवेंद्र ने जाना तब हरिणगमेशी नामक देव को आज्ञा देकर उनके गर्भ का संहरण कर त्रिशलमाता की कुक्षी में स्थापन करवाया । इसी वजह से देवानंदा अनजान पुत्र वात्सल्य में बहकर भावोन्मुक्त हो रही थी। सब यह जानकर आश्चर्य से मन्त्र मुग्ध हो गए।
गर्भ संहरण की यह घटना इस काल मे हुए दस आश्चर्यजनक घटनाओमे से एक है।
पूर्व के मरीचि के भव में वीर प्रभुके जीव ने किए कुल मद का यह परिणाम था। ओर देवानंदा जी के भी पूर्व भव में की हुई छोटी गलती का ही यह फल था कि उनका गर्भ हरण किया गया। एक तीर्थंकर की माता बनने का सौभाग्य मिलकर भी छीन लिया गया। कितना दुखकर होगा वह।
कितना सचोट बताया हमे, की कर्म का भुगतान यहां सभी को करना ही है चाहे तीर्थंकर चाहे चक्रवर्ती। कर्मो की सजा से कोई छूटता नही।
वीर प्रभु से यह सब सुनकर रुषभदत्त व देवानंदाजी वैराग्य वासित बने। उत्कृष्ट संयम आराधना कर मोक्ष को प्राप्त किया। सभी तीर्थंकरों के मातापिता में मोक्षगामी सिर्फ ऋषभदेव की माता मरूदेवा व वीर प्रभु के प्रथम मातापिता हुए।
देवानन्दा जी का वर्णन आगे की गाथा में आता है पर हमने इस कथानक को रुषभदत्त के साथ ही ले लिया है।
इस काल मे जो दस आश्चर्य हुए वो इस प्रकार हुए।
1 तीर्थंकर उपसर्ग
2 तीर्थंकर का गर्भ हरण
3 स्त्री तीर्थंकर
4 अभावित परिषदा
5 2 वासुदेव का मिलन
6 चन्द्र सूर्य अवतरण
7 हरिवंशोत्पत्ति
8 चमरेन्द्र उत्पात
9 अष्ट शत सिद्ध
10 असंयत पूजा
इनमें 1, 2, 4, 6 व 8 वे क्रम का आश्चर्य वीर प्रभु के समय हुआ।
ईन सभी का कथानक फिर कभी देखेंगे।
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बड़ी साधुवंदना - 25
वली रुषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार,
शिव राज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।29।
दूसरा कथानक
सेठ सुदर्शन
वीर प्रभुजी एक बार विचरण करते करते शिष्यों समेत वाणिज्य ग्राम के बाहर पधारे व द्युतिपलाश उद्यान में बिराजे। वँहा के अति समृद्ध श्रेष्ठी सुदर्शन भगवान की वंदना हेतु पधारे।
5 अभिगमो का पालनकरते हुए धर्म सभा में देशना सुनी। बाद में अवसर देखकर प्रभु से सुदर्शन श्रेष्ठी ने विनय विधि युक्त होकर काल संबन्धी कुछ प्रश्न पूछे। प्रभु ने सभी सवालो को विस्तृत समाधान दिया। फिर बोध देते हुए उन्हें उनका पूर्वभव वृत्तांत सुनाया।
पूर्वभव
हस्तिनापुर नगर के बलराजा व प्रभावती रानी का पुत्र महाबल।
महाबल राजा के भव में विमलनाथ भगवान की परंपरा के संत धर्मघोष मुनि से बोध पाकर कुमारअवस्था में वैरागी बने। मातापिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। मातापिता ने कुछ समय के लिए राज्यपद भोगकर दीक्षा लेने के लिए आज्ञा दी। कुछ दिन राज्य भोगकर मातापिता व राज्य छोड़ उन्होंने दीक्षा ली व उत्कृष्ट आराधना की। उस आराधना का फल ही था की काल कर वैमानिक देव बने। देव आयु पूर्ण कर आप इस वाणिज्य नगर में श्रेष्ठी बने।
प्रभुजी की वाणी सुनकर सुदर्शन श्रेष्ठी को जाती स्मरण ज्ञान हुआ। उन्हें प्रभुकी वाणी की सत्यता दिखी। विमल नाथ स्वामी के शासन में उन्होंने दीक्षा ली थी ओर अब वीर प्रभु के शासन का समय।
अब उन्हें फिर संयम की उत्कंठा हुई। वीर प्रभु के चरणों में संयम लेकर उत्कृष्ट तप व संयम की आराधना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।
इस प्रकरण में यह बात स्पष्ट की गई है की ,
एक तो धर्ममार्ग में जितना प्रभाव प्रभुजी के सान्निध्य का है उतना ही स्व कल्याण के लिए अपनी तीव्र इच्छा का भी महत्त्व है।
दूसरी बात समाधान लेते समय गुरु या मुनि से कैसा विनय होना चाहिए। वन्दन आदि के बाद अत्यंत नम्रता से जिज्ञासा रखनी चाहिए।
तीसरा यहां मुनि दर्शन जाते हुए पालने आवश्यक 5 अभिगम की है जो हमे भी सीखनी चाहिये।
1 सचेत का त्याग ,
यानी मुनि के पास कोई भी सचेत वस्तु न लेकर जाए। सचेत यानी ज8समय जीव हो वह वस्तु, उन्हें दोष का भागी न बनाये। हरि सब्जियां आदि, आज के समय में खासकर घड़ी, मोबाइल ।
2 अचेत का विवेक
अचेत वस्तु में भी विवेक रखे। जो चीजे मान आदि कषायों का पूरक है या जिससे अशातना का संभव हो ,वे वस्तुए न ले जाए। जैसे राजा का छत्र, पालकी, मुकुट, जूते या संसारी वस्तुए आदि के त्याग करना ।
3 उत्तरासन - मुनि से बात करते हुए मुख वस्त्रिका का प्रयोग अवश्य करना (एक मत उत्तरासन को देह के ऊपर का अंग वस्त्र मानते है । )
4 अंजलीकरण - मुनि को देखते ही यथायोग्य जघन्य से उत्कृष्ट वन्दन करना। जैसे मुनि किसी काम से जा रहे है तो उन्हें रोके बिना जघन्य वन्दन 2 हाथ जोड़ शीश झुककर मत्थेणं वन्दामि करना, या अवसर देखकर मध्यम यानी तिकखुत्तो से 3 पूरी वंदना करना, पर उन्हें व्यवधान न हो इस तरह। ओर इच्छामि खमासमनो के पाठसे 2 उत्कृष्ट वन्दन करना ।
5 एकाग्रता - मुनि हमे जो भी बोध आदिदे उसे एकाग्र चित्त से सुननाव समझने का प्रयास करना।
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 26
वली रुषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार,
शिव राज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।29।
शुद्ध संयम पाली पाम्या केवल सार,
ये चारे मुनिवर पहोंचया मोक्ष मझार ।30।
तीसरा कथानक
भगवती सूत्र, ग्यारहवें शतक , नॉवे अध्ययन में शिवराजर्षि का वर्णन आता है।
हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा थे। राजा राजकार्य में निपुण, व्यवहार कुशल , अस्त्रशस्त्र में पारंगत व धर्म वत्सल था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी।
एक बार राजा ने रात्रि में चिंतन किया। अब मेरा आयुकाल बढ़ रहा है। राजकुमार शिवभद्र भी राज्य के योग्य बन चुका है। पूर्व के संचित कर्म के कारण मेने अपूर्व रिद्धि, राज्य परिवार व सब सुख समृद्धि पायी है। अब शरीर मे जब तक जोर है , तब तक मुझे धर्म आराधना कर इस दुर्लभ मनुष्य भव को सार्थक बना लेना चाहिए। राज्य व परिवार के मोह को त्याग साधना कर लेना चाहिए।
हम यहां जरा सोचे : - क्या ऐसा विचार हमे कभी आता है क्या? विचार आया तो उस पर अमल करते है क्या ? या जो दुर्लभ मनुष्य भव की उपलब्धि को हम यूं ही व्यर्थ गंवा देनेवाले है?
राजन का चिंतन आत्मकल्याण की ओर मुड़ा। पर यहां समकित का अभाव था। निर्ग्रन्थ मुनि का शरण शायद मिला नही। पर उनकी भावना अच्छी थी। राज्य व परिवार त्याग का संकल्प श्रेष्ठ था।
राजकुमार शिवभद्र को राजा बनाकर वे गंगा तट पर रहे दिशाप्रोक्षक तापसो के पास आकर मुंडित होकर तापस बन गए। बेले बेले पारणे का उग्र तप करने लगे। देखो समकित का महत्त्व। उनकी सारी क्रियाए, भाव अच्छे थे पर योग्य समझ समकित का अभाव था । तो चाहे कितना तप कर ले। लक्ष्य गलत तो सफर भी गलत।
तप करते करते उन्हें विभंग ज्ञान ( विपरीत अवधिज्ञान ) प्रकट हुआ।
अवधिज्ञान क्या है?
जिस ज्ञान से जीव मन व इंद्रियों की मदद लिए बिना आत्मा से सीधे लोक का मर्यादित से संपूर्ण रूपी पदार्थो को देख सके, जान सके, उस ज्ञान को अवधिज्ञान कहते है।
उस ज्ञान से उन्हें 7 द्वीप व 7 समुद्र देखने लगे। परन्तु यहां सम्यक्त्व नही था। वह ज्ञान सम्यक्त्व के अभाव में विभंग ज्ञान में परिवर्तित हुआ था। विभंग ज्ञान यानी गलत समझयुक्त अवधिज्ञान। विपरीत अवधिज्ञान।
इस विभंग ज्ञान से वे लोक को इतना ही मर्यादित समझने लगे । अपने आपको वे सर्वज्ञ समझ कर हस्तिनापुर में आकर अपनी गलत सर्वज्ञता का प्रचार करने लगे।
तब वँहा के उद्यान में योग से वीर प्रभुका आगमन हुआ। शिव राजर्षि की लोक संबन्धी जानकारी लोगो द्वारा गौतम स्वामी तक पहुंची। गौतमस्वामी ने अपनी जिज्ञासा वीर प्रभु को बताकर पूछा कि क्या यह सत्त्य है?
तब वीर प्रभु ने गौतम स्वामी व वंहा उपस्थित सभाजनोको फरमाया की : - नही , लोक में सिर्फ 7 द्वीप समुद्र नही है। बल्कि असंख्य द्वीप व असंख्य समुद्र है। लोगो को केवली वीर प्रभु के कथन पर श्रद्धा थी । यह सत्त्य उन्होंने शिवराजर्षि को बताया। तब शिव राजर्षि आशंकित हुए। उन्हें भी वीर प्रभु के दर्शन कर अपने ज्ञान की सत्यता जानने की इच्छा हुई। प्रभुजीके ज्ञान पर श्रद्धा हुई। तभी तीर्थंकर पर श्रद्धा के प्रभाव से उनका विभंग ज्ञान अवधिज्ञान में परिवर्तित हुआ। सिर्फ श्रद्धा से ही इतना प्रभाव।
शिवराजर्षि वीर प्रभु के दर्शन करने गए। अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया। वीर प्रभु की देशना सुन शिवराजर्षि ने सही वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा अंगीकार की। उत्कृष्ट संयम आराधना कर मोक्ष पहुंचे।
चौथा कथानक
प्रभु वाणिज्य ग्राम बिराज रहे थे तब पार्श्वनाथ परंपरा के ज्ञानी संत गांगेय मुनि दर्शनार्थ आये। प्रभुजीके सामने कुछ जिज्ञासा रक्खी। उनका समाधान पाते ही चतुर्याम धर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया। उत्कृष्ट आराधना कर के फिर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
ऐसे इस गाथा में वर्णित चारों जीव संयम आराधना कर सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुए।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 27
भगवंत नी माता धन्य धन्य सती देवानंदा,
वली सती जयंती छोड़ दियो घर फन्द ।31।
सती मुक्ति पहुंच्या, वली ते वीर नी नन्द,
महासती सुदर्शना घणी सतियोना वृन्द ।32।
जिनशासन में अनंता महान विभूतियां हो गई, उनमे स्त्रियों के नाम भी कम नही। कई स्त्रियों ने उत्कृष्ट आराधना कर या तो मोक्ष पहुंच गए या मोक्ष मार्ग प्रशस्त कर लिया।
इन गाथाओं में उन्हीं महासतीजियो में से कुछ नाम दिए है। जो वीरशासन में उत्कृष्ट धर्म व संयम की आराधना कर अपने कर्म पर विजय पाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गयी।
1 देवानंदाजी : - का कथानक हमने रुषभदत्त जी के साथ देखा।
2 सती जयंती जी - कौशांबी नगरी के राजा शतानीक की बहन, उदयन की भुआ, मृगावतीजी की ननद थी जयंतीजी। उत्कृष्ट श्राविका। इन्हें प्रथम शय्यात्तरी का बिरुद मिला है। यानी कि साधु संतों को स्थान दान देने में सदा तत्पर, यही नही कौशांबी नगरी में साधर्मिको की धर्माराधना में सहायक, तप आदि में उनकी वैयावृत्य में जयंती जी अव्वल थे।
यही नही की तत्त्व ज्ञान में भी उच्च कोटि के थे। एकदा भगवान कौशांबी पधारे तब वीर प्रभु से उन्होंने कई प्रश्न पूछे। जिनका अच्छा विवेचन उपस्थित है।
जैसे जीव सोता हुआ अच्छा या जागता अच्छा?
तब प्रभुजी ने उत्तर दिया था धर्मी जीव जागता भला , अधर्मी सोता भला।
यानी जो धर्म समझता है, वह जागता रह कर अपने मोक्ष मार्ग की साधना करे। जोअधर्मी है वह सोता रहकर पाप से बचा रहे। आदि कई तत्त्वज्ञान के प्रश्नोत्तरी के बाद वीर प्रभु से समाधान कर वैराग्य पाया। उनके पास दीक्षा लेकर संयम की उत्कृष्ट आराधना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनीं।
3 वीर नी नन्द यानी प्रियदर्शना जी
ये वीर प्रभु की पुत्री व जमाली जी की पत्नी थी ।
वीर प्रभु के पास दोनों ने संयम अंगीकार कर विचर रहे थे। एक बार क्रिया हो रही है या हो चुकी है उसे कैसे व्याख्यायित किया जाए उस सवाल पर जमाली जी के मिथ्यात्व का उदय हुआ। और वे वीर संघ से अलग होकर अपने आप को सर्वज्ञ बताकर विचरण करने लगे। इसमें प्रथम तो प्रियदर्शना जी ने पति मुनि का साथ दिया परन्तु ढंक नामक कुम्हार के एक घटना द्वारा सचोट बोध देने पर वे पुनः वीर संघ में मिल गए। उच्च आराधना कर मोक्ष पहुंचे।
4 सुदर्शना जी
ये वीर प्रभु की बहन थे। उन्होंने भी प्रभु के पास बहुत सी स्त्रियों के साथ संयम अंगीकार किया। उत्कृष्ट आराधना से मोक्ष को प्राप्त किया।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 28
वली कार्तिक सेठे , पडिमा वही शूरवीर,
जिम्यो मोरा पर ,तापस बलती खीर ।33।
पछि चारित्र लीधु, मित्र एक सहस्त्र आठ धीर,
मरी हुआ शकेन्द्र, चवी लेशे भव तीर।34।
वीर प्रभु विशाखा नगरमे बहुपुष्पिक उद्यान में बिराज रहे थे । तब देवराज शक्र प्रभुजी के दर्शन वन्दन को आया। उनकी विपुल ऋद्धि वैभव देख गौतम स्वामी ने प्रभुसे पूछा: - प्रभु, यह जीव किस कर्म के प्रताप से इतनी ऋद्धि भोग रहा है?
तब प्रभु ने उसके पूर्वभव बताते हुए कहा : -
यह मुनिसुव्रत स्वामी के समय की कथा है।
हस्तिनापुर नगर में एक विपुल ऋद्धि का स्वामी, अत्यंत शक्ति शाली , 1008 व्यापारियों का अधिपति, जिनवाणी व जिनेश्वर में श्रद्धांवित ऐसा कार्तिक नामक श्रेष्ठी रहता था।
एक बार वँहा एक कुछ लब्धिधारी तपस्वी तापस आया। मासखमन आदि तप करता था उसके तप व कुछ लब्धिया आदि से आकर्षित जनता उसके दर्शन को उमड़ पड़ी। कई भक्त बन गए। राजा भी प्रभावित हो गया। उसने अगले मासखमन के पारणे के लिए राजमहल में आने का न्योता दिया।
अब इस तापस की चर्चा कार्तिक सेठ ने भी सुनी थी, पर उसे कुछ महत्त्वपूर्ण नही लगा। वे दर्शन करने तक नही गया। कुछ विरोधियों ने तापस तक यह बात पहुंचाई।उसे लगा इतना बड़ा श्रेष्ठी दर्शन करने आये तो वह प्रजा में ओर प्रभावी बनेगा। उसने प्रयास किये पर व्यर्थ। कार्तिक को उसपर न राग था न ही द्वेष। पर उसे आकर्षित करने में निष्फल तापस उसका विद्वेषी बना।
पारणे पर उसने राजा के साथ यह शर्त रखी कि वह कार्तिक सेठ की खुली पीठ पर गर्म खीर रखकर उससे ही पारणा करेगा।
राजा उससे अभिभूत था। उसने कार्तिक सेठ को आज्ञा दी।
राजाज्ञा के आगे सेठ विवश बने।
तापस ने 3 - 3 बार खीर गर्म करवाकर उसकी पीठ पर रखवाई। गर्म खीर से कार्तिक सेठ की पीठ जल गई।
कार्तिक सेठ को तापस पर क्रोध तो नही आया, पर इस प्रसंग से वह विरक्त हो गये।
एकबार तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी सहस्राम्र उद्यान में पधारे तब कार्तिक सेठ ने उनके पास दीक्षा लेकर चतुर्याम धर्म स्वीकार किया। उनके 1008 व्यापारियों ने भी उनका अनुसरण किया।
संयम ग्रहण बाद उत्कृष्ट संयम साधना करते हुए 14 पूर्व का अध्ययन किया, 12 वर्ष तक संयम पालकर एक मास के संथारे से युक्त अनशन लेकर आयु पूर्ण की। व प्रथम देवलोक के 32 लाख देवविमान व असंख्य देवो के स्वामी इंद्र रूप में उत्पन्न हुये। उनकी स्थिति 2 सागरोपम प्रमाण है। आगे वह महाविदेह में उत्पन्न होकर आराधना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
इस अध्ययन की कुछ बाते
- देवेंद्र भी प्रभुजीके दर्शन को आते है।
- ज्यादातर संयमी आत्माएं अंतिम समय संलेखना ग्रहण करते है।
- यदि नेता सही हो तो उनकी प्रजा का मार्गदर्शन भी सही होता है। जैसे कार्तिक सेठ ने स्वयं का कल्याण किया उसे देखकर, 1008 साथियों ने भी स्वकल्याण के मार्ग पर कदम बढ़ाये।
इस कथानक में कंही कोई भिन्नता संभव है। यह कथानक आगे से पढ़ा हुआ व निम्न बुक से अभी देखकर लिया है।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
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बड़ी साधुवंदना - 29
वली राय उदायन , दियो भाणेज ने राज,
पोते चारित्र लइ ने , सार्यो आतमकाज ।33।
राय उदायन
एक उद्दात्त चारित्र,
इस गाथा में वीरशासन के एक वीर प्रतापी व क्षमासम्राट की उपमा प्राप्त उदायन राजा का कथानक समाविष्ट है।
यह इतने प्रसंगों से भरी है कि 1/2 पोस्ट में समाविष्ट नही कर सकते । फिर भी संक्षिप्त करने का प्रयास किया है।
वित्तभय नगर के राजा उदायन, राजा चेटक की पुत्री प्रभावती के पति ।
दृढ़ जैन धर्मी व एक कुशल राजा। श्रावक के सभी व्रतों का श्रद्धा से पालन करते। पौषध आदि भी नियमित करते।
चेतक राजा के ही एक अन्य दामाद शिवादेवी के पति उज्जयनी नरेश चण्ड प्रद्योत। काम लोलुप व विकारी राजा थे।
उदायन राजा के यहां एक अति सुंदर दासी थी। उसकी सुंदरता की प्रसंशा सुनकर एक बार चण्डप्रद्योत गुप्त वेश से अपने अनिलवेग हाथी पर आकर उस दासी को उठा ले गया।
यद्यपि उदायन राजा व्यर्थ हिंसा में नही माननेवाले एक व्रती श्रावक थे परंतु यह राज्य की आन बान व शान का प्रश्न था। सेना लेकर वित्तभय नगर से उज्जयनी नगर आकर उस चण्डप्रद्योत को युद्ध मे हराया । चण्डप्रद्योत के ललाट पर दासीपति शब्द छपवा कर बंदी बनाकर उसे साथ लिए अपने राज्य के लिए निकल गए।
जंगल के रास्ते मे ही पहुंचे थे कि चातुर्मास बैठ गया। वर्षा बढ़ गई थी। इतनी बड़ी सेना के गमन से जीवो की हानि भी बहुत तथा सेना को भी पानी मे दिक्कत। रास्ते मे ही पड़ाव डाला और ठहर गये। राजा बंदी चण्डप्रद्योत के साथ भी एक राजा योग्य सन्मान के साथ व्यवहार करता था। दोनो का भोजन साथ मे बनता था।
पर्युषण पर्व आया। जंगल मे भी राजा बराबर श्रावकोचित आराधना कर रहे थे। संवत्सरी का दिन आया। राजा ने पौषध किया। अगले दिन जब सैनिक जब भोजन के आदेश लेने आये थे तब उदायन ने उनके उपवास व पौषध का बताया तथा कहा कि आप चण्डप्रद्योत से पूछकर उन्हें जो खाना हो वह भोजन उनके लिए बनवा दे।
सैनिक चण्डप्रद्योत के पास आये । सब जानकर चण्डप्रद्योत को इस पर शंका हुई , कि सिर्फ मेरे लिए बने भोजन में विष मिलाने का षड्यंत्र तो नही। उसने कह दिया कि आज संवत्सरी का मैं भी उपवास करूँगा।
प्रतिक्रमण के बाद जब राजा ने सर्व जीवो को खमाया तब वे चण्डप्रद्योत के पास भी खमाने के लिए आये। निर्लज्ज चण्डप्रद्योत ने कहा: - राजन , मुझे बंदी बनाकर कैसी क्षमा याचना। यदि सही हृदय से क्षमा मांगने आये होते तो पहले मुझे मुक्त करते, मेरा जीता हुआ राज्य लौटाते। फिर होती क्षमायाचना। उदायन धर्मसंकट में पड़ गए। धर्मी मन चण्डप्रद्योत को मुक्त करने की बात कहता तो राज्य नीति उसे दंडित करने का सुझाव देता। आखिर धर्म संस्कार की जीत हुई। राजा उदायन ने बड़ी उदारता के साथ उसका सर्वस्व लौटकर क्षमादान दिया। आज इसी लिए क्षमादाता का उल्लेख होता है तो उदायन राजा का नाम अवश्य लिया जाता है।
यही उदायन राजा आगे चलकर क्या करते है यह आज की ही दूसरी पोस्ट में पढ़े।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 30
वली राय उदायन , दियो भाणेज ने राज,
पोते चारित्र लइ ने , सार्यो आतमकाज ।33।
चण्डप्रद्योत को क्षमादान देनेवाले, नित्य 3 मनोरथों का चिंतन करते राजा उदायन कालांतर में वैरागी बने। प्रभुजीके आगमन पर उनकी देशना सुनकर प्रवजित होने को तत्पर हुए।
राजमहल में आकर दीक्षा के बाद राज्य की व्यवस्था के लिए सोचने लगे। उनके पुत्र का नाम था अभिची कुमार। परन्तु उनके आचरण को देख राजा को आभास हुआ कि यह राजा बनेगा तो अवश्य भोगादि में डूबकर नरकेश्वरी बनेगा। इससे बेहतर मैं अपने भांजे केशिकुमार को राजा बनाकर निश्चिन्त होकर दीक्षा लूं। केशिकुमार योग्य भी है तथा अभिचिकुमार के बाद उसका हक भी।
अंततः राज्य सिंहासन को केशिकुमार को सौंपकर संयम अंगीकार किया। विहार करते हुते उग्र साधना आराधना करने लगे। इधर राज्य न मिलने पर नाराज हुए अभिचिकुमार कोणिक के साथ चले गए। कोणिक जिनधर्मानुरागी था। उसकी सोबत से कुछ असर अभिचिकुमार पर हुआ। वह भी जिनवाणी पर श्रद्धांवित हुआ। पर पिता के लिए द्वेष का खटका इसके मन मे सदा बना रहा। (यहां तक कि नवकार गिनते हुए - नमो लोए सव्व साहुणं - पर उदायन मुनि को छोड़कर ) . यह वैर की ज्वाला उसे न जाने किस पतन की गर्त में ले गई।
इधर उदायन मुनि विहार करते हुए पुनः वित्तभय नगरी के उद्यान में पधारे। तप व उत्कृष्ट साधना अविरत जारी थी। देह में कुछ अस्वस्थता थी पर मुनि उसके लिए उदासीन थे। मुनि के आने की खबर केशीराजा को हुई। वे दर्शन को आने तत्पर हुए। पर एक विद्वेषी मंत्री ने उन्हें ऐसा भरमाया की राजा की पूरी मति घूम गई। उदायन राजा अपना राज्य वापिस लेने आये है। षड्यंत्र का कुछ जाल मंत्री ने ऐसे बुना की केशिकुमार को मंत्री पर विश्वास हो गया। अब राजा मंत्री दोनो मुनि की हत्या को तत्पर हुये।
पर वे मुनि थे और वह भी उस राज्य के पूर्व राजा। सीधा हमला नही कर सकते थे। उनके भोजन में विष मिलाकर चुपचाप मारने का षड्यंत्र रचा गया। एक समकीती देव ने यह बात मुनि को बता दी। मुनि 2 बार तो बच गए। पर एकदा मंत्री व राजा ने पुनः प्रयास किया। मुनि औषधि रूप दही ले रहे थे उसमे विष मिला दिया। आखिर विष ने देह पर तो प्रभाव दिखाया। पर वह विष मुनि के आत्मबल से जीत न पाया। मुनि ने अपने भाव अंशमात्र कलुषित न होने दिए। चिंतन को उर्ध्वगामी बनाया। अंतिम क्षणों में केवल्यप्राप्ति कर मोक्ष के निवासी बने।
ऐसे सिद्ध बुद्ध मुक्त आत्माओं को हमारा नित्य वन्दन हो।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
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