कथा उदायी नृप का हत्यारा
उदायी नृप का हत्यारा / The murderer of King Udayi.,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,Diviinjainism
पाटलिपुत्र नगर में कोणिक राजा का पुत्र उदायी नाम का राजा राज्य करता था। उदायी राजा ने किसी का राज्य छीन लिया था। इसीलिए उसके वैरी राजा ने एक दिन अपनी सभा में घोषित किया- "जो उदायी राजा को मारकर आयेगा; उसे मैं उसकी इच्छानुसार इनाम दूंगा।" यह सुनकर उस राजा के किसी नोकर ने इस अनिष्टकाम को करने का बीड़ा उठाया वह वहाँ से पाटलिपुत्र आया, और उसने अनेक उपाय किये, परंतु कोई भी उपाय कारगर नहीं हुआ। आखिर उस दुष्ट ने विचार किया 'विश्वास में लिये बिना उदायी राजा को मारा नहीं जा सकता' इसीलिए उसने धर्मगुरु के पास जाकर उनके सामने वैराग्य प्राप्त हो जाने की मीठी-मीठी चिकनी-चुपड़ी बातें करके उनसे मुनि-दीक्षा धारण कर ली। उन आचार्य (गुरु) को उदायी राजा बहुत मानता था उनके पास वह मुनि वेशधारी नोकर अध्ययन करने लगा, वह साधुओं का अत्यन्त विनय व सेवा-शुश्रूषा करने लगा । अतः आचार्य आदि के मन को अपने विनय गुण से वशीभूत कर लिया।
उदायी राजा अष्टमी और चतुर्दशी के दिन, एक अहोरात्र भर का पौषघ करता था । आचार्य उस दिन उसे धर्म-उपदेश देने के लिए रात को अत्यन्त निकटवर्ती उसकी पौषधशाला में जाते थे। एक दिन अष्टमी के दिन गुरु जाने केलिए तेयार हुए, तब उस नव-दीक्षित साधु ने कहा-"स्वामी! आपकी आज्ञा हो तो में भी साथ चलू । गुरु ने उसके हृदय के भावों को जानकर उसे साथ नहीं लिया वह हर बार गुरु के साथ जाने को इस तरह कहता, परन्तु उसे गुरु साथ नाहीं ले जाते । इस तरह बारह वर्ष व्यतीत हो गये एक बार चतुर्दशी के दिन गुरु महाराज उदायी की पौषधशाला में जा रहे थे, उस समय उस कपटी साधु ने कहा- गुरुदेव आपकी आज्ञा हो तो में भी साथ चलु?' भवितव्यता के कारण गुरु महाराज ने कहा-"अच्छा, चलो। बस, फिर क्या था? वह गुरुदेव के साथ पौषधशाला में आया और दंभ से संथारे (आसन) पर बैठा। उदायी राजा ने गुरु को वंदन किया, प्रतिक्रमण किया और बाद में संथारा पौरसी पढकर शयन किया। जब राजा और आचार्य दोनों निद्राधीन हो गये तब उस दुष्ट कुशिष्य ने उठकर पास में गुप्त रूप से रखी हुई कंकजातीय लोहे की छुरी निकाली और राजा के गले पर फेर दी। राजा तत्काल मर गया। वह कुशिष्य हुरी वहीं रखकर भाग गया। बाहर खड़े हुए राजसेवकों (सिपाहियों) ने साधु जानकर उसे नहीं रोका।
इधर राजा के शरीर से इतना खून निकला कि वह गुरु के संथारे तक आ गया। उसके स्पर्श से गुरु महाराज जागे और विचार करने लगे, कि 'यह क्या हुआ? मेरे पास जो शिष्य था वह नहीं दीखता? हो न हो, वही कुशिष्य राजा को मारकर भाग गया है।" यों विचारों उन्होंने चिन्तन किया-'यह तो महान अनर्थ हो गया। प्रात:काल राजा को मृत देखकर लोग कहेंगे-"जैन मुनि इस प्रकार का कुकर्म करते हैं।' इस तरह जैन धर्म की महानिंदा होगी। अतः इस निंदा के निवारण का सच्चा उपाय यही है कि मैं भी अपनी इस महान् भूल का प्रायश्चित करूँ" अतः आचार्य ने तुरंत वही छुरी लेकर अपने गले पर फेर ली। और समाधिपूर्वक थोड़ी ही देर में अपना शरीर छोड़ दिया। आचार्य और राजा दोनों मरकर देव बनें।
वह दुष्टकर्म करने वाला साधु वेष छोड़कर अपने राजा के पास गया, और अपने साहस की सभी बातें उनसे कहीं। राजा ने उसकी सारी बातें ध्यान से सुनीं। राजा के मन में उसके प्रति घृणा हो गयी। उसे फटकारा-"अरे दुष्ट! तूंने राजा को वीरता-पूर्वक नहीं मारा; किन्तु छल से, धर्म का बाना पहनकर मारा है। इसीलिए तूं बड़ा क्रूरकर्मी और महापापी है। अत्त: तूं इनाम के योग्य नहीं, देशनिकाला देने योग्य है।" यह कहकर उसे तिरस्कारपूर्वक देशनिकाला दे दिया ।
इस कथा का सारांश यह है कि ऐसे भारी कर्मी जीव को प्रतिबोध नहीं लगता।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें