आचार्य भिक्षु
आचार्य भिक्षु (1726-1803) जैन धर्म के तेरापंथ
आचार्य Bhiksu (उर्फ Bhikhanji) 1726 में राजस्थान में मारवाड़ में पैदा हुआ था वह Bisa ओसवाल नाम के एक व्यापारी वर्ग के थे।
उनका जन्म वि. स. १७८३ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को कंटालिया (मारवाड़) में हुआ। उनके पिता का नाम शाह बल्लुजी तथा माता का नाम दींपा बाई था। उनकी जाति ओसवाल तथा वंच्च सकलेचा था। आचार्य भिक्षु का जन्म-नाम भीखण था।
प्रारंभ से ही वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे। तत्कालीन परंपरा के अनुसार छोटी उम्र में ही उनका सुगनी बाई के साथ
उत्तर भीखणजी की शादी वि स 1798 अक्षय तृतीया,को बगड़ी में
विवाह हो गया। उनके एक पुत्री हुई (भीखण जी) की पुत्रीकानाम पारी बाईथा।औऱ पुत्री की शादी - बाफणा परिवार
कहां - निम्बावास। में हुई।
बल्लूशा का स्वर्गवास - जब भीखणजी की उम्र दस वर्ष की थी।
भिखण जी के औऱ निम्न परिवार के सदस्यो के नाम
1 प्रथम माता (सौतेली मां) - लाछड़दे
2भाई - होलोजी
3भूवा - बगती भूवा
4सबसे बडा भतीजा - फतेहचन्द। थे।
वैवाहिक जीवन से बंधे जाने पर भी उनका जीवन वैराग्य भावना से ओतप्रोत था। धार्मिकता उनकी रगरग में रमी थी। पत्नी भी उन्हें धार्मिक विचारों वाली मिली। पति-पत्नी दोंनो ही दिक्षा लेने के उद्यत हुए, किंतु नियति को शायद यह मान्य नहीं था। कुछ वर्षो के बाद पत्नी का देहावसान हो गया। भीखणजी अकेले ही दीक्षा लेने को उद्यत हुए, पर माता ने दीक्षा की अनुमति नहीं दी।
तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्य श्री रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने कहा - महाराज! मैं इसे दीक्षा की अनुमति कैसे दे सकती हूं क्योंकि जब यह गर्भ में था तब मैंने सिंह का स्वप्न देखा था। उस स्वप्न के अनुसार यह बडा होकर किसी देश का राजा बनेगा। और सिंह जैसा पराक्रमीहोगा। आचार्य रघुनाथ जी ने कहा बाई यह तो बहुत अच्छी बात है। राजा तो एक देश में पुजा जाता है। तेरा बेटा तो साधु बन कर सारे जगत का पुज्य बनेगा। और सिंह कि तरह गुजेगा। इस प्रकार आचार्य रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने सहर्ष दीक्षा की अनुमति दे दी। वि.स. १८०८ मार्गशीर्ष कृष्णा बारस को भीखणजी ने आचार्य रघुनाथजी के पास दीक्षा ग्रहण की।आपने वि. सं. १८०८ मृगसिर कृष्णा १२ (सन् १७५१) को बगड़ी (मारवाड़) में उनके पास दीक्षा ग्रहण की।
संत भीखण जी की दृष्टि पेनि और मेघा सूक्षमग्राही थी। तत्व की गहराई में पैठना उनकी लिए स्वाभाविक बात थी। थोड़े ही वर्षो में वे जैन शास्त्रों के पारगामी पंडित बन गये।
आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी। परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था। उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम तेरापंथ हो ही गया। इसका कारण निम्नोक्त घटना है।
जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले 13 श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे। उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंधी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं। उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमन् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है। वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है। हम भी उनके विचारों से सहमत हैं। इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था। उसने तत्काल 13 की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डाला--
आप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत।
सुणज्यो रे शहर रा लाका, ऐ तेरापंथी तंत॥
बस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी। जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम तेरापंथी पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर भगवान को नमस्कार करते हुए इस शब्द का अर्थ किया -- हे भगवान यह तेरा पंथ है।
हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है। अत: तेरा पंथी है।
इस प्रकार
उन्होंने आध्यात्मिक क्रांति के प्रारंभिक चरण में, वह स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथजी के समूह से बाहर चले गए।
१८१७ चैत्र शुक्ला को बगड़ी में उनसे पृथक् हो गए।
उस समय वह 13 संतों, 13 अनुयायियों और 13 बुनियादी नियम था।
संघबहिष्कार के साथ ही आचार्य भीक्षु पर जैसे विरोधों के पहाड टुट पडे। पर वे लोह पुरूष थे। विरोधे के सामने झुकना उन्होंने सिखा नहीं था। वे सत्य के महान उपासक थे। सत्य के प्राण न्यौछावर करने के लिए वे तत्पर थे। उन्ही के मुख से निकले हुए शब्द आत्मा राकारज सारस्यां मर पुरा देस्यां, सत्य के प्रति आगद्य संपूर्ण के सुचक है। वे महान आत्मबलि वे जीवन में सुध साधुता को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। वि. स. १८१७ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को केलवा(मेवाड़) में बारह साथियों सहित उन्होंने शास्त्र सम्मत दीक्षा ग्रहण की। यही तेरापंथ स्थापना का प्रथम दिन था। इसी दिन आचार्य भीक्षु के नेतृत्व में एक सुसंगठित साधु संघ का सूत्र पात हुआ और वह संघ तेरापंथ के नाम से प्रख्यात हो गया।
विभिन्न विश्वासों और उस समय के धार्मिक आदेशों की शिक्षाओं को बहुत अपनी सोच को प्रभावित किया। उन्होंने अध्ययन किया और जैन धर्म के विभिन्न विषयों का विश्लेषण किया और इस आधार पर वह अपने ही विचारधाराओं और जीवन के जैन जिस तरह के सिद्धांतों संकलित। सिद्धांतों प्रचारित के आधार पर, आचार्य भिक्षु कड़ाई सिद्धांतों का पालन किया। यह जीवन के इस तरह से है कि आचार्य भिक्षु जो Terapanth की नींव सिद्धांत बन द्वारा प्रदर्शन किया गया था। आचार पत्र उसके द्वारा लिखा गया था अभी भी समय और स्थिति के अनुसार मामूली परिवर्तन के साथ सम्मान के साथ एक ही तरीके से पालन किया जाता है। राजस्थानी भाषा में लिखा गया पत्र की मूल प्रति अभी भी उपलब्ध है। उनके अनुयायियों पवित्रता 'स्वामीजी' के रूप में इस साधु के पास भेजा।
योगदान 18 वीं सदी के मध्य में, आचार्य भिक्षु एक सुधारवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। एक दार्शनिक, लेखक, कवि और समाज सुधारक, उन्होंने लिखा 38,000 "श्लोकों", अब के रूप में "भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर" दो खंडों में संकलित। उसका "नव Padarth सद्भाव", जो शोषण से मुक्त समाज की वकालत की है, और एक महत्वपूर्ण दार्शनिक संरचना है कि जैन दर्शन के नौ रत्नों में से विस्तृत रूप से सौदे के रूप में माना जाता है
डाक का टिकट जून, 2004 को 30, उपाध्यक्ष, भैरों सिंह शेखावत "निर्वाण" दो सौ साल के अवसर पर जैन संत आचार्य श्री भिक्षु की स्मृति में एक विशेष स्मारक डाक टिकट जारी किया था। स्टाम्प डाक विभाग द्वारा जारी किए गए रुपये में है। 5 मज़हब। दो विशेष कार्य इस रुपये जारी करने के लिए आयोजित किए गए। 5 / - डाक टिकट। पहले समारोह में भारत के उप-राष्ट्रपति, नई दिल्ली में श्री भैरों सिंह Shekhavat के निवास पर आयोजित किया गया था। दूसरी रिलीज समारोह Siriyari (जिला। पाली, राजस्थान) जहां आचार्य भिक्षु निर्वाण प्राप्त किया था पर आयोजित किया गया था
आपके शासन-काल में ४६ साधु और ५६ साध्वियां दीक्षित हुईं। उनमें आचार्य भारमलजी, मुनिश्री थिरपालजी, फतेहचन्दजी, हरनाथजी, टोकरजी, खेतसीजी, वेणीरामजी, हेमराजजी आदि साधु उल्लेखनीय हैं।
वि. सं. १८६० सिरियारी (मारवाड़) में भाद्रव शुक्ला १३ (सन् १८०३) के दिन सातप्रहर के अनशन में आपकी समाधिपूर्वक मृत्यु हुई। उस समय आपकी आयु ७७ वर्ष की थी।
उ वि स 1860
देवलोकगमन - आचार्य भिक्षु औऱउसी वर्ष
आचार्य जीतमलजी का जन्म हुआ
1 भिक्षु स्वामी जी की पुत्री का क्या नाम था।
2जब बगड़ी से अलग हुए तो कितने साधु थे
3डाक का टिकट जून, 2004 को 30, उपाध्यक्ष, भैरों सिंह शेखावतने किस उपलक्ष में की
आपके शासन-काल में कितने साधु और साध्वियां दीक्षित हुईं।?
4 भिक्षु स्वामी के मुख्य 3 मुनियों के नाम लिखे
5 देवलोकगमन - आचार्य भिक्षु औऱउसी वर्ष किस
आचार्य का जन्म हुआ?
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