कथा बड़ी साधुवन्दना 2



बड़ी साधुवन्दना - 11

मुनि बल हरिकेशी, चित्त मुनिश्वर सार,
शुद्ध संयम पाली, पहोच्या भवजल पार। 14।

नीच गोत्र में उतपन्न होकर भी उत्कृष्ट साधना कर स्वकल्याण कर सकते है इसके लिए हरिकेशी बल मुनि जैसा ही एक अन्य द्रष्टान्त चित्त मुनीश्वर ।

चित्त संभूति बन्धु युगल
पिछले 5 भवो का साथ था इनका। कुल मद के कारण इन दोनो का पांचवा भव भूतदत्त चांडाल के यहां पुत्र रूप में हुआ। नाम थे चित्त व संभूति ।

भूतदत्त राज्य का सेवक था। एक दिन नमुचि नामक मंत्री के घोर अपराध का दंड देने के लिए राजा ने भूतदत्त को नमुचि के वध की आज्ञा दी।
प्राण बचाने की आजिजी करते हुए धूर्त नमुचि को देखकर भूतदत्त ने उससे एक शर्त पर बचाने का वचन दिया। यदि नमुचि चित्त संभूति को पढ़ाये, विद्याओं में निपुण करे तो नमुचि को गुप्त रूप घर मे रखकर उसके प्राण भूतदत्त बचा सकता है। नमुचि मान गया। वह उसके घर रहकर बच्चों को पढ़ाने लगा। समय बीतता गया। बालक मधुर गान आदि में प्रवीण बने। पर नमुचि की वासना ने यहां विकृत स्वरूप दिखलाया। भूतदत्त की पत्नी को शिकार बनाया। अब भूतदत्त द्रोही नमुचि को मारने का निश्चय किया । कृतज्ञता व गुरु उपकार समझ चित्त संभूति ने उसे फिर बचा लिया व वँहा से भगा दिया। संयोगवश वह हस्तिनापुर सनत चक्रवर्ती का मंत्री बन गया।
इधर छुताछुत व जातिवाद के उग्र वातावरण में चित्त संभूति को नगर के किसी उत्सव में जाने गाने की अनुमति नही थी।
दो बार ऐसे करने पर इन्हें नगर निकाला दिया गया।
संयोगों का शिकार बन धृणास्पद जीवन से निराश हुए दोनो भाई जब आत्म हत्या करने जा रहे थे तब निर्ग्रन्थ मुनि के उपदेश से वैराग्य वासित होकर संयम लिया और उत्कृष्ट तपाराधना करने लगे। वर्षो की आराधना से कई लब्धिया भी प्राप्त हुई।
विहार करते करते एक बार हस्तिनापुर आये तब नमुचि ने इन्हें देखा तो उसके गुप्त रहस्य मुनि खोल देंगे यह सोचकर मुनि द्वय को बहुत परेशान किया। चित्त मुनि ने तो समभाव रक्खा पर संभूति ने क्रोधित होकर पूरे नगर को जलाने के लिए तेजोलेश्या फेंकी। पर चित्त मुनि को पता चलते ही उन्होंने समझा कर संभूति मुनि का क्रोध शांत किया व तेजोलेश्या वापिस खिंचवाई। दोनो मुनि ने संथारा ग्रहण कर लिया।और अंतिम आराधना करने लगे।
उस समय सनतजी चक्रवर्ती पटरानी सहित वन्दन को आया। पटरानी के वन्दन करते समय स्निग्ध केशराशि कुछ संभूति मुनि को छू गई। यहां संभूति मुनि का कषाय उदय में आया। हल्का सा निमित्त मिलने पर उन्होंने आज तक किये तप के बदले ऐसे चक्रवर्ती बनने का फल मांग लिया।
यह सोचने जैसी बात, जो तप शास्वत सुख दिला सकता था उससे नश्वर सुख मांगकर तप को निरर्थक कर दिया। चित्त मुनि के समझाने का असर भी नही हुआ।
दो नो काल कर देवलोक में देव बने फिर वँहा से चित्त मुनि एक श्रेष्ठी व संभूति मुनि ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बने।
चित्त मुनि ने समय पर संयम लिया व आराधना में लगे। और ब्रह्मदत्त भोगों में लुप्त हुए।
एकदा जब जातिस्मरण ज्ञान से दोनो को पूर्वभव समझ मे आया तब चित्त मुनि के जीव ने ब्रह्मदत्त को समझाने का बहुत प्रयास किया। पर व्यर्थ। ब्रह्मदत्त मुनि को भोग के लिए समझाते रहे। कोई न माना। ब्रह्मदत्त अत्यंत कषायों में रहते काल कर नरक में गये ।
और उत्कृष्ट आराधना कर चित्त मुनि का जीव सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।

कथा बहुत बड़ी है संक्षिप्त रूप में प्रयास किया।
🙏🙏🙏

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सन्दर्भ : - यह कथा डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।




बड़ी साधुवन्दना 12

वली इक्षुकार राजा घर कमलावती नार,
भग्गु ने जस्सा, तेहना दोय कुमार । 15।
छये छत्ती ऋद्धि छोड़ी लीधो संयम भार,
इण अल्प काल मा, पाम्या मोक्ष नो द्वार।16।

एक प्रज्वलित दिपक दूसरे कई दीपको को प्रज्वलित करता है। एक समकित प्राप्त व्यक्ति अपना ही नही , परन्तु अपने परिवारजनों का किस तरह कल्याण करता है , प्रस्तुत गाथा यह संदेश भी देती है।

इक्षुकार राजा का राजपुरोहित था भृगु ।
 उसकी पत्नी का नाम यशा था । दोनो भरपूर वैभव के बीच भी लंबे समय तक सन्तान सुख न होने का दुख भोग रहे थे। एकदा कोई  मुनि घर आये,  तब उन्होंने भविष्य बतलाया कि आपके घर 2 पुत्र रत्न का जन्म होगा व दोनो बालवय में ही जैन धर्म मे दीक्षित हो कर शाश्वत सुख प्राप्त करेंगे।

सुख की आशा देख कर भृगु यशा खुश हुए। कालांतर में यशा गर्भवती हुई व 2 सुंदर पुत्रोंको जन्म दिया। मुनि की एक भविष्यवाणी सच होते देख भृगु के मन मे दूसरी चिंता घर कर गई। मुनि ने कहा था दोनो बालक छोटी उम्र में ही जैन दीक्षा ले लेंगे । तो वृद्धावस्था में हमारा कौन?
उसका स्वार्थी मन बिगड़ा।
जैनी व महाव्रत धारी  सन्तो से खुद दूर रहने के साथ परिवार को भी दूर रखने का प्रयास करने लगा।
उसने बड़े हो रहे बालको के कोमल मन मे जैन धर्म व साधु सन्तो के लिए गलत बाते ठूसने का प्रयास किया।
जैसे , उन जैन मुनि के पास कभी जाना नही, वे बालको को उठाकर जंगल मे ले जाते है। चाकू आदि से मार काट कर आभूषण उतार लेते है। फिर जंगल मे फेक देते है। इत्यादि बातों से दोनो बालको को डरा कर रखा कि उनके जैन मुनियों के सत्संग ही न होगा तो दीक्षा कौन लेगा।
एक बार दोनो बालक देवभद्र -  यशोभद्र कंही से खेलकर आ रहे थे तब उन्होंने कुछ मुनियों को आते देखा। डरकर एक पेड़ पर चढ़ गए। वे मुनि गण उसी पेड़ के नीचे आकर स्थान की इर्यासमिति युक्त प्रतिलेखना की । फिर गोचरी वापरने बैठे। यह सब लंबे समय तक पेड़ पर बैठे बालको ने देखा। उन्हें अपनी पिता के कथनों जैसा कुछ नही दिखा मुनियों के पास। मुनियोकी शांत गंभीर उत्साही मुख मुद्रा। चींटियों तक कि दयापालना देखी। ना उनके पास कोई चाकू जैसा शस्त्र दिखा ना कोई लुटे गहने आदि।
दोनो भाई अब चिंतन करने लगे। तब उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ। संयम व जैनधर्म क्या है यह उन्हें याद आ गया।  पूर्वभव में कईबार उन्होंने संयम लिया व ऐसे ही मुनि बने थे। बस , अब वैराग्य की ज्योत पूर्वभव के संस्कारों से जल उठी।
पेड़ से नीचे उतरे व मुनि दर्शन वन्दन किये। मुनि ने बोध दिया।
घर आकर मातापिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी।
यह अत्यंत वैराग्य पूर्ण संवाद है दोनो पुत्र व माता पिता के बीच। पिता एक एक सवाल उन्हें डिगाने के लिए, मोह में फंसाने के लिए करते गए। पूर्व समझ से बालको ने भी अत्यंत उचित उत्तर देकर ना सिर्फ अपनी दीक्षा की अनुमति ली वरन भृगु व यशा भी संयम ग्रहण को ततपर हो गए। अहो कैसा वैराग्य ! कैसी समझ हॉगी ,दोनो बाल की। अदभुत द्रश्य होगा वह। चारो ने संयमग्रहण का निश्चय दृढ़ कर लिया।
पूरा परिवार ही जब दीक्षा ले रहा था तब राज नियम अनुसार उनका वैभव, धनसामग्री राज्य की हुई।
सब धन, वस्तुए  गाड़ियों में भरकर राजमहल को आने लगी।
राजमहल से राजा इक्षुकार यह देख रहा था उसके मुख पर राजमहल आ रहे धन को देखकर लोभ की तृप्ति का आनन्द था । रानी कमलावती को यह पता नही था। जब राजा से पूछने पर ज्ञात हुआ कि एक पूरा परिवार सब धन संपत्ति छोड़कर संयम मार्ग पर जा रहा है व राजा उस छोड़े हुए, वमन किये हुए धन को प्राप्त कर खुश हो रहा है। रानी बड़ी लज्जित हुई, उसके भी वैराग्य काल का परिपाक उदय में आया। उसने राजा को समझाया। यह संवाद भी अत्यंत प्रेरणादायी है। रानी किस तरह इस घटनाक्रम से राजा को सुंदर असरकारक बोध देती है । अंत मे राजा व रानी भी संयम ग्रहण को तैयार होते है। छहो जीव एकसाथ दीक्षा लेकर उत्कृष्ट संयम का पालन कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनते है।

अहो जिनशासन
धन्य है जिनशासन
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।

बड़ी साधुवन्दना 13

वली संयति राजा हिरण आहिड़े जाय,
मुनिवर गर्दभाली आण्यो मारग ठाय ।17।
चारित्र लइ ने भेटया गुरु ना पाय,
क्षत्री राज ऋषीश्वर चर्चा करि चित्त लाय ।18।

धन्य है जिनवाणी,
इन प्रेरक कथानकों के मोती को बड़ी साधुवन्दना नामक माला रूपी पिरोकर एक एक कथानकों से जो उपदेश जयमलजी महाराजसाहेब ने दिया है , सच मे अदभुत व अतुल्य है।
संयति नामक राजा एक बार बड़े पैमाने पर शिकार का प्रोग्राम बनाते है। राजा खुद केसर नामक उद्यान में जाते है। उसकी सेना चारो तरफ के जंगलों से जानवरो को उस उद्यान की तरफ दौड़ाते है और राजा उन भयभीत हिरण ओर अन्य बहुत से जानवरों का शिकार करते है।

अचानक राजा देखते है कि वँहा जंगल मे एक तपस्वी , प्रखर तेज से चमकते मुनि तप में बैठे है। उनका नाम गर्दभाली मुनि था। अत्यधिक प्राणियों के शिकार से ये तपस्वी मुनि कंही नाराज न हो जाये उस डर से राजा अश्व से उतरकर उन्हें वन्दन करते है।
मुनि तो ध्यान में । कोई प्रत्युत्तर न मिलने पर राजा और भयभीत होते है कि कंही मुनि सच मे तो क्रोध में नही, ओर जवाब नही दे रहे। अब राजा को लगा कि ये तपस्वी मुनि कही क्रोध में आकर बड़ा श्राप न दे दे। कंही मुझे, मेरे परिवार को अरे मेरे नगर को ही जला न दे।
बार बार राजा उन मुनि की माफी मांगते है।
अब मुनि ध्यान पारकर उस राजा की ओर देखते है और बोध देते है।
यह बोध जयमल जी उनके द्वारा हम सभी को दे रहे है।
जिस तरह राजा तपस्वी के क्रोध से डरकर मुनि से अपने, अपने परिवार व अपने नगर के लिए मुनि से अभयदान मांगते है । तो है राजा,  तू भी इन हिरणों को अभयदाता बन। में तुम्हे अभयदान देता हूं। तो  उन बेचारों का तेरे आहार या शौक के कारण क्यों वध हो? जबकि तेरे आहार के लिए अन्य सेंकडो वस्तुए उपलब्ध है।
ओर तू खाता कितना है। तुम से एक हिरन का मांस भी नही खाया जाएगा जबकि तुमने इतने सारे हिरण व अन्य प्राणियों का वध कर के भारी पाप कर्म का बन्ध किया ?
किसके लिए? जो अन्य इस मांस को खाएंगे क्या वे तेरे पाप में हिस्सा लेंगे?
नही। एक राई जितना पाप दूसरा नही ले सकता। फिर इतने पाप कर्म बन्ध दुसरो के लिए क्यों?

खूब शांति, सरल शब्दों में दिया गया यह उपदेश प्रभावकारी रहा। राजा संयति ने हमेशा के लिए शिकार तो छोड़ा। पर मुनि के पास दीक्षा लेकर स्वकल्याण मार्ग पर कदम बढ़ा लिए।

शिकार बहुत बड़ा पाप, उसे करनेवाला अत्यंत पापी ऐसा संयति राजा भी यदि सही समझदाता, सही मार्गदर्शक मिल जाये तो भवसागर तक तैर जाते है। इसी लिए यह साधुवन्दना में आरोहित सभी साधुजीको उपकारी मानकर वंदना की जाती है।
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
यंहा तक

बड़ी साधुवन्दना - 14

वली दसे चक्रवर्ती राज्य रमणी छोड़,
दसे मुक्ति पहोंच्या कुल नी शोभा जोड़ ।19।

चक्रवर्ती एक विशिष्ट पद, जिनका समावेश 63 श्लाघनीय पुरुषों में किया गया है। एक कालचक्र में 24 ओर एक अवसर्पिणी या एक उत्सर्पिणी काल मे तीसरे व चौथे आरे में एक क्षेत्र में 12 चक्रवर्ती होते है ।

हमारे भरत क्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी काल के 12 चक्रवर्ती हो चुके है। आगे की गाथा में हमने  हमारे क्षेत्र के प्रथम भरत चक्रवर्ती को थोड़ा समझा था। अब चक्रवर्ती की कुछ विशेषताए।

चक्रवर्ती भी जब नरक या देवगति से गर्भ में आते है तब उनकी माता भी तीर्थंकर की माता की तरह 14 स्वप्न देखते है। ( तीर्थंकर की माता के स्वप्नों की अपेक्षा थोड़े अस्पष्ट )

चक्रवर्ती भव्य जीव, समचतुरस्त्र संस्थान व वज्ररुषभनाराच संहनन वाले व अजर होते है।

इनमें चालीस लाख अष्टापद जितना बल होता है।

5 प्रकार के देव में इन्हें नरदेव कहा जाता है।

इनके पास अति श्रेष्ठ 14 रत्न होते है जिनकी मदद से वे 6 खंडों का राज्य यानी कुल 32000 देश जीतते व उनका स्वामित्त्व भोगते है। इन 14 रत्नों में 7 एकेन्द्रिय व 7 पंचेन्द्रिय रत्न होते है।

इसके उपरांत गंगा व समुद्र के संगम स्थान पर रही 9 उत्तम निधिया इनकी सेवा में आकर रहती है। चक्रवर्ती के आयु पूर्ण होने के बाद वापिस वंही चली जाती है।

यही नही, इनकी भौतिक सुख सुविधा , इनका वैभव अमाप होता है।  हमारी कल्पना से कही ज्यादा होती है जैसे 64000 रानियां, 32000 मुकुट धारी राजा का स्वामित्व, लाखो विविध सैनिक, हाथी, महल,सेवक, आदि।

हमारे प्रथम चक्रवर्ती को 6 खण्ड जितने में 60,000 वर्ष व अंतिम ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति को 16 साल लगे थे।

चक्रवर्ती ज्यादातर दीक्षा लेकर आयु पूर्ण कर देवलोक या मोक्ष जाते है। पर यदि चक्रवर्ती पद पर रहते हुए आयु पूर्ण करे तो निश्चित नरक जाते है।

अढाई द्वीप में किसी भी समय कम से कम 20 चक्रवर्ती होते ही है। (जैसे जघन्य  20 तीर्थंकर  ) उत्कृष्ट हो तो 140/150 भी हो सकते है।

कोई भी जीव अपने पूरे संसारकाल में ज्यादासे ज्यादा 2 बार चक्रवर्ती बन सकता है।

इनका उत्कृष्ट आयु 84 लाख पूर्व का होता है।

ये समकीती हो भी सकते है या नही भी।

यहां कितनी बड़ी बात कह दी। मनुष्यो में जिसके पास अखुट, अतुल्य, अत्यंत वैभव , सुख होते हुए भी ज्यादातर  वे इसका संपूर्ण त्याग कर देते है। ( और आज हमारे पास थोड़े से , या नगण्य परिग्रह में हम कितने आसक्त !!😢  एक सामायिक भी करनी हो तो समय नही )

भरत चक्रवर्ती के जीवन के एक दृष्टांत मे से हमे त्यागी जीवन का  उनके लिए महत्त्व बतातया है।
जब ऋषभदेव को केवल्यप्राप्ति हुई यह समाचार भरतेश्वर को मिला तभी साथ ही चक्रवर्ती का चक्र रत्न का आयुधशाला में उतपन्न होने का तथा पुत्र प्राप्ति का समाचार भी आया। पर भरतेश्वर ने सबसे ज्यादा महत्त्व केवल्यप्राप्ति को दिया और प्रथम उत्सव उसका मनाया।

हमारे 12 चक्रवर्ती में से 10 चक्रवर्ती ने सब कुछ त्याग कर संयम की उत्कृष्ट आराधना कर मोक्ष गये। ( 1 मान्यता 8 मोक्ष 2 देवलोक की भी है। )

2 चक्रवर्ती सुभूम व ब्रह्मदत्त नरक के अधिकारी बने।

1 भरतजी
2 सगरजी
3 मघवा जी
4 सनतजी
5 शान्तिनाथजी
6 कुंथुनाथजी
7 अरनाथ जी
8 सुभूमजी
9 महापदम जी
10 हरिसेन जी
11 जय सेन जी
12 ब्रह्मदत्त जी

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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।


बड़ी साधुवन्दना - 15

इण अवसर्पिणी काल मां, आठ राम गया मोक्ष,
बलभद्र मुनीश्वर गया ,पंचमे देवलोक ।20।

चक्रवर्ती की तरह बलदेव वासुदेव एक विशिष्ट पद, जिनका समावेश 63 श्लाघनीय पुरुषों में किया गया है। एक कालचक्र में 18 ओर एक अवसर्पिणी या एक उत्सर्पिणी काल मे तीसरे व चौथे आरे में एक क्षेत्र में 9 बलदेव 9 वासुदेव होते है ।

अब यह गाथा में बलदेव का ही लिखा है पर बलदेव वासुदेव साथ ही रहते है तो इन दोनों की कुछ विशेषताए।

पूर्वभव में अत्यंत उग्र तप कर उसके बदले अत्यंत बल वैभव ऋद्धि पाने का निदान कर जीव वासुदेव बनता है।

बलदेव वासुदेव एक पिता व 2 माताओके पुत्र होते है। इन भाइयों मे बलदेव बड़े व वासुदेव छोटे होते है तथा इन भाइयों में अत्यंत अनुराग होता है।

बलदेव वासुदेव भी जब नरक या देवगति से गर्भ में आते है तब वासुदेव की माता 7 व बलदेव की माता 4 स्वप्न देखते है।

बलदेव वासुदेव भव्य जीव, समचतुरस्त्र संस्थान व वज्ररुषभनाराच संहनन वाले व अजर होते है।

वासुदेव में बीस लाख , बलदेव में दस लाख अष्टापद जितना बल होता है।

वासुदेव के पास 7 रत्न होते है । उनके पहले 3 खण्ड के अधिपति बने प्रतिवासुदेव को मारकर वे त्रिखण्डाधि पति बनते है।

पूर्वकृत निदान के कारण वासुदेव दीक्षा नही ले सकते व निश्चित नरकगामी बनते है।

बलदेव की पदवी अमर कहलाती है। यानी वे उस पद में मृत्यु प्राप्त नही करते। नियमा दीक्षा लेकर आयु पूर्ण कर देवलोक या मोक्ष जाते है। इस अवसर्पिणी काल मे हुए 9 बलदेव में आठवें बलभद्र 5 वे देवलोक गये अन्य सभी 8 बलदेव मोक्ष गये।

अढाई द्वीप में किसी भी समय कम से कम 20 बलदेव , 20 वासुदेव होते ही है। (जघन्य हो तो वे महाविदेह में ही ) उत्कृष्ट हो तो 140/150 भी हो सकते है। यहां यह याद रक्खे की यदि एक क्षेत्र में चक्रवर्ती है,  तो वँहा उस समय बलदेव - वासुदेव नही हो सकते।

कोई भी जीव अपने पूरे संसारकाल में ज्यादासे ज्यादा 3 बार बलदेव वासुदेव बन सकता है।

बलदेव वासुदेव के गाढ़ अनुराग की बात एक ग्रंथ में पढ़ी है। हमेशा वासुदेव की मृत्यु बलदेव से पहले होती है। बलदेव राग वश उनकी मृत्यु स्वीकार नही कर पाते है। और भाई के शब को 6 माह तक कंधे पर लेकर घूमते है। फिर देव द्वारा प्रतिबोध से समझकर वैराग्य पाकर दीक्षा लेते है।

इस काल मे हमारे क्षेत्र में प्रथम वासुदेव वीर प्रभु के जीव त्रिपृष्ठ थे। जिस भव में उन्होंने शय्यापालक के साथ क्रूरता दिखा कर उसके कानों में गर्म शीशा डलवाया था उसी कर्म के कारण वीर प्रभु को कान में कील का दारुण उपसर्ग आया था।

आठवे बलदेव पद्मरथ को हम राम के नाम से ज्यादा जानते है। जिसने जगत में मर्यादा व संस्कार का अप्रतिम उदाहरण दिया।

नॉवे वासुदेव बलदेव कृष्ण व बलभद्र जी हुए। इनका जीवन हम महाभारत से जानते है। अत्यंत पराक्रमी कृष्ण वासुदेव  निश्चित नरकगामी होने के बावजूद अपनी जैन धर्म के प्रति श्रद्धा, अपनी धर्म दलाली, नेम प्रभु के मुनियों को वन्दन के लिए प्रख्यात बने। हमारे 22 वे तीर्थंकर नेमप्रभु उनके संसारिक चचेरे भाई थे । उनके शासन में जैन दीक्षा के लिए उनकी प्रेरणा अदभुत थी। इनकी पूरी जीवनगाथा पराक्रम से भरी हुई रही। माता के लिए स्नेह, भाई गजसुकुमाल का जीवन , पांडवों की मदद, रुक्मिणी आदि का विवाह, द्वारिका आदि के दहन की घटना ऐसे कई घटनाक्रमों में उनका बल, श्रद्धा  झलकती है।

सोचकर देखे की वे स्वयं 1 व्रत भी नही ले सकते थे फिर भी इतनी धर्म दलाली आदि कार्य किये की उत्कृष्ट  तीर्थंकर नामकर्म बांध लिया। अब आगामी चोवीसी में वे तीर्थंकर बनेंगे। कितना प्रेरणास्पद जीवन। खुद के सन्तानो को भी जिनशासन को सौंप ने में कभी विचार नही किया।

नॉवे बलभद्र जी भी अत्यंत पराक्रमी रहे। इनका पिछला जीवन हमे सुपात्रदान की प्रेरणा देता है।
कृष्ण वासुदेव की अंत्येष्टि बाद दीक्षा लेकर बलभद्र मुनि को जब लगा कि उनकी सुंदरता गांवों की नारियों को भृमित कर रही है तब उन्होंने नगर में भिक्षा लेने जाना भी छोड़ दिया। पारणे के समय वन में ही मुसाफिरों से कभी कुछ निर्दोष मिल जाये तो ग्रहण करते अन्यथा तप आगे बढा लेते। ऐसे में एक मृग पूर्वभव के जातिस्मरण ज्ञान से उनकी निर्दोष गोचरी में उन्हें सहयोगी बनता। वन में मुसाफिर घूमते वँहा हिरण मुनि को ले जाता। इसी तरह एकबार वह वन में आये लकड़हारे के पास मुनि को गोचरी के लिए लाया। लकड़हारा भी दृढ़ श्रद्धांवित था। उसके व मृग दोनो के भाव श्रेष्ठ थे। जिस समय ये मुनि लकड़हारे से गोचरी व्होर रहे थे तभी अचानक ऊपर से पेड़ की बड़ी डाली गिरी ओर नीचे रहे तीनो जीव काल कर अपने उच्च भाव मे पांचवे देवलोक पहूंच गये। यह सुपत्रदान का महिमा।

हमारे क्षेत्र के इस आरे के 9 बलदेव वासुदेव के नाम
1 अचलजी-  त्रिपृष्ठजी
2  विजयजी - द्विपृष्ठजी
3 भद्र जी - स्वयंभूजी
4 सुप्रभ जी - पुरुषोत्तमजी
5 सुदर्शन जी पुरुषसिंहजी
6 अनन्दजी - पुरुष पुंडरिकजी
7 नन्दन जी - दत्तजी
8 पद्मरथजी- लक्ष्मण जी
9 बलभद्र जी कृष्णजी

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बड़ी साधुवन्दना - 16

वली दर्शाण भद्र राजा वीर वांद्या धरी मान,
पछि इंद्र हटायो दियो छकाय अभयदान ।21।

धर्म का एक अंग है प्रभावना। प्रभावना यानी सही धर्म के लिए सबको सही समझ और प्रेरणा देना। उत्साह जगाना।

प्राचीन समय मे श्रावक, खास कर  जिनेश्वर प्रभु में श्रद्धांवित राजा महाराजा, जब प्रभु दर्शन करने जाते तब बड़े वैभव, लाव लश्कर, चतुरंगिणी सेना, ढोल नगारे आदि के साथ जाते , ऐसे अवसरों का कुछ वर्णन ग्रन्थो, आगम में आया है। ताकि देखने  वाले अन्य जनों को भी जिनधर्म पर अहोभाव हो, फिर वे भी इस सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा पा सके। है तो यह उत्तम उद्देश्य , पर मनुष्य कषायों से घिरा हुआ।
इस वैभव प्रदर्शन आदि में मूल उद्देश्य छूट कर जब हिंसा आदि जुड़ जाए, मान कषाय की वृद्धि हो तो कर्म बन्ध की श्रृंखला शुरू हो जाती है। बड़ा आरंभ यानी पाप का सागर।

ऐसे मौके पर अपने मान कषाय को जीतकर अपने जीवन को सही मार्ग में जोड़ देना, एक बड़ा कार्य। ऐसे ही एक प्रेरणादायी दृष्टांत बताते हुए जयमलजी म. सा . ने दर्शाण भद्र राजा का नाम लिया है।

वीर प्रभु विचरण करते हुए दर्शाण पुर नगर के बाहर के उद्यान में पधारे। संदेशवाहक ने राजा को यह समाचार दिए। जिन धर्मानुरागी राजा ने हर्षित होकर सन्देशवाहक को अपने देह के सारे आभूषण उतारकर दे दिए।

अब उसे प्रभुदर्शन को जाने की तीव्र इच्छा हुई। पर राजा था। अत्यंत वैभव का धनी। मान कषाय ने मति घुमाई या होनहार कुछ और था। राजा ने अत्यंत वैभव के साथ दर्शन करने की तैयारी की। उसे मनमें हुआ कि में प्रभुदर्शन को ऐसे जाऊ की इंद्र को भी मुझसे ईर्ष्या हो।
पूरी चतुरंगिणी सेना, हाथी, घोड़े, रथ, पूरा राजपरिवार,  पूरा अंतःपुर, भरपूर सजावट लिए  वह सजे हुए हाथी पर बैठ कर गर्वोन्मत्त होकर दर्शन को निकला।
यह भाव अवधिज्ञान से शकेन्द्र ने जाने। उसके मन मे भी प्रतिस्पर्धा के भाव जागे या यह भवितव्यता  थी!! इंद्र ने अपनी शक्तियों के प्रयोग से अदभुत रचना की, हजारों हाथियों का एक जुलूस, उसमे सजा सुंदर, ऐरावत उसके गजदंतो पर बावडिया, बावड़ियों में सुंदर कमल, कमलों पर नाचते अप्सराओं का वृन्द। अब देव क्यों बाकी रहे। इस अदभुत रचना के साथ इंद्र दर्शाणभद्र की स्पर्धा करने लगा।
उस इंद्र की रचना देखकर राजा का मानभंग हुआ। पर फिर उसके चिंतन ने सही दिशा पकड़ ली।
मानकषाय के आगे वैराग्य आया। हमेशा के लिए संसार छोड़कर संयम लू, व इंद्र से आगे निकल जाऊ।

 वीर प्रभुजीको वन्दन कर राजा ने संयम स्वीकार किया।
यहां शब्द है
दियो छकाय अभयदान,
यानी जब कोई मुनिदिक्षा स्वीकार करता है तब छहोकाय के जीवों को अपनी ओर से पूर्ण रूप से अभयदान देता है। यानी सूक्ष्म से लेकर त्रस किसी भी जीव की हिंसा नही करना। यही व्रतों में प्रथम व्रत है।

संयमी को तो देव भी झुके।
इंद्र ने अपनी हार स्वीकार की। ओर मुनि राजा को वन्दन किया। राजा ने मुनि बनकर फिर उच्च संयम पालन कर अपना कल्याण किया।

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बड़ी साधुवन्दना - 17

करकण्डु प्रमुख चारे प्रत्येक बुद्ध,
मुनि मुक्ति पहोच्या, जीत्या कर्म महायुद्ध ।20।

बिना किसी के उपदेश दिए कुछ निमित्त मिलते ही जो वैराग्य प्राप्त करते है, ऐसे पिछली गाथाओमे नमी राजा के कथानक में हमने प्रत्येक बुद्ध किसे कहते है यह जाना । ऐसे प्रत्येक बुद्ध 4 हुए। नमिराजा, करकण्डु राजा, द्विमुख राजा , नग्गयी राजा।

नमिराजा ने कंगनों की आवाज के निमित्त से बोध पाकर संयम लिया यह हमने देखा।

चंपा नरेश दधिवाहन - पद्मावती रानी के आत्मज करकण्डु राजा को  एक बार ताजा जन्मा गाय का बच्चा पसन्द आ गया। उन्होंने उसे अपने महल में रखवा लिया। बेहतर खाना, राजमहल का सुख, किसी का डर नही। वो गाय का बच्चा बड़ा होते होते एक भारी डीलडौल वाला जोरावर बैल बन गया। राजा उसे रोज देखते ओर खुश होते। उसकी तंदुरस्ती देखकर खुश होते रहते। वक्त गुजर रहा था।
एक बार राजा युद्ध आदि कुछ कार्यो में ऐसे उलझे , की महीनों तक उस बैल को देख नही पाये। कालांतर बाद जब देखा , तब वह बैल वृद्ध, कृश व कमजोर बन गया था। राजा यह देखकर चिंतित बन गया। काल किसी को नही छोड़ता। एक तंदुरस्त, बलवान , हृष्ट - पुष्ट बैल को कमजोर, निस्तेज व दयनीय बना दिया , तब यह काल मेरे साथ भी यही करेगा। अब जब तक देह में जोर है क्यों न मैं काल को जितने का प्रयास करू? उस सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लु जँहा वृद्धावस्था, जन्म, मृत्यु नही। राजन तुरन्त संभल गया व संयम लेकर उग्र आराधना में लग गया।

ऐसे ही एक निमित्त से कांपिल्य नगरी के राजा जयवर्मा संभल गये। जी हां, मूल नाम जयवर्मा। उनके पास एक सुंदर रत्नमय मुकुट था जिससे दर्शकों व सभाजनोको उनके दो मुख दिखते। इस घटना से उनका मूल नाम जयवर्मा से ज्यादा , लोग द्वीमुख के नाम से जानने लगे।  नगरी में एक उत्सव में एक मानस्तंभ बनाया गया। एक बड़ी लंबी लकड़ी को मणियों, विविध वस्त्रों आदि से खूब सजाया गया। उस मानस्तंभ के नीचे सुंदर उत्सव हुआ, लोगो ने खुशियां मनाई। दूसरे दिन जब राजा की नजर उस मानस्तंभ पर पड़ी तब वह आश्चर्य चकित रह गया। उसकी सारी शोभा गायब थी। लोगो ने जो जवाहरात, मणि, वस्त्र फूल आदि चढ़ाकर उसे सजाया था वह सब वे उत्सव पूरा होते ही लोग ले गए। अब मानस्तंभ लकड़ी का बेजान ठूँठा लग रहा था। इस निमित्त ने राजा को झकझोर दिया। सभी शोभा नश्वर है। आज क्या है कल क्या होगा। वैसे मेरे शरीर की शोभा आज है कल यह शरीर भी नष्ट हो जाएगा। अवसर मिलते ही राजा ने संयम ले लिया।

दृढ़ सिंह राजा के पुत्र सिंहरथ। इनका भी उपनाम नग्गति ज्यादा प्रसिद्ध हुआ। वे  एक बार मनोरंजन हेतु सपरिवार,  सैनिकों के साथ एक वन में गये। वँहा एक सुंदर आम्रवृक्ष को देखा। मंजरियों से भरपूर लदा हुआ वह विशाल वृक्ष अत्यंत शोभित हो रहा था । राजन ने सहज ही एक मंजरी तोड़ी ओर आगे निकले। यह देख कर तब उनके साथ रहे रसाले के सारे सदस्यो ने मंजरी, पत्ते आदि तोड़े। देखते ही देखते एक घटादार वृक्ष ठूंठ बन गया। यह देखकर राजन संभल गये। ऊर्ध्व चिंतन से वैराग्य प्राप्त होकर संयम ग्रहण किया।

चारो प्रत्येक बुद्ध के कथानको के दृष्टांत में मुख्य एक बात छिपी हुई है। यह संसार, यह देह , यह ऊपरी शोभा क्षणिक है नाशवंत है। सुख कब दुख में बदल जायेगा , संयोग कब वियोग में बदल जायेगा कुछ निश्चित नही। समय के रहते जो अच्छे संयोग, देह की स्वस्थता मिली है उसको सदुपयोग में वापरकर भवसागर से छुटनेका प्रयास अवश्य कर लेना चाहिए। 4 प्रत्येक बुद्ध यह समझे , संयम लेकर उग्र आराधना की। तथा कर्मो से महायुद्ध में जीतकर विजय पाई, और सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।

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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से


बड़ी साधुवन्दना - 18

धन्य मोटा मुनिवर , मृगा पुत्र जगीश,
मुनिवर अनाथी, जीत्या राग ने रीस ।23।

प्रस्तुत गाथा में 2 बड़े उपकारी मुनिवरों के महात्म्य का वर्णन किया गया है।
मृगा पुत्र
सुग्रीव नगर के राजा बलभद्र व मृगावती जी रानी के पुत्र, युवराज बलश्री। पर माता के अनेक गुणो से युक्त वह प्रभावी राजकुमार मृगा पुत्र के नाम से ज्यादा जाने गये। अनेक कन्या ओ का पाणि ग्रहण कर वैभव पूर्ण जीवन जी रहे बल श्री ने एकबार झरोखे से मध्याहन की तपती गर्मी में एक सद्य केश लुंचित किये महाव्रत धारी मुनि को बिना पादुका गर्म जमीन पर पैदल जाते हुए देखा। उसे उत्कंठा हुई व मुनि का गमन गौर से देखने लगे। इतनी विकट परिस्थिति में भी मुनि के चेहरे पर फिर भी एक आभा थी। संयमी जीवन की चमक। मुनि को देखते देखते युवराज के चिंतन से उसे जातिस्मरण ज्ञान उतपन्न हुआ। कई बार संयम लिया, उसके प्रभाव से देवलोक के सुख भोगे, नरक तिर्यंच आदि भी कई भव में क्या क्या भोगा वह दिखने लगा।
इस ज्ञान ने उनकी जीवनदिशा पलट कर रख दी।
पूर्व में भोगे सुख व दुख दोनो को देखकर फिर शाश्वत मोक्ष सुख पाने को वे ततपर हो गए।

उन्होंने माता पिता को आज्ञा लेते समय जो ज्ञान से समझाया है वह अवर्णनीय है। अत्यंत सुंदर , वैराग्य पूर्ण सत्यों से भरा यह संवाद जिज्ञासुओं को पठन योग्य है।
दीक्षा लेकर उच्च संयम पॉलन कर मुनि संसार के बंधनों से मुक्त सिद्धत्त्व प्राप्त हुये।

मुनि अनाथी
हमारे जिनशासन के प्रभावी राजा श्रेणिक को जिनसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, जिनसे बोध पाकर राजा फिर इतना धर्मानुरागी बना की वीर प्रभुजी का श्रेष्ठ भक्त जैसा कहलाया। जिसने उत्कृष्ट धर्मदलाली कर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध भी कर लिया। वैसे श्री अनाथी मुनि।

कौशांबी नगरी के प्रभूत धनसंचय श्रेष्ठी के पुत्र, अपार वैभव के बीच पले बढ़े राजकुमार जैसे युवान को एकबार तीव्र नेत्र ज्वर हो गया। जो किसी तरह शांत होने का नाम नही ले रहा था। पिता ने उनके स्वास्थ्यलाभ हेतु कोई कसर न छोड़ी, माता के वात्सल्य, पत्नी का समर्पण उत्कृष्ट सेवा, लाखो का धन , अनेक वैधों की ओषधि ने कोई असर न दिखाई । तब उस श्रेष्ठी पुत्र को चिंतन हुआ कि अहो इतना लख लूट वैभव, भरा पूरा परिवार भी इस मामूली रोग में कुछ कर नही सकता तो मेरे भवरोग की दवा कैसे करेगा। सच्चा शरण सिर्फ धर्म ही है । यदि में इस रोग से ठीक होता हूं तो तुरन्त संयम अंगीकार करूँगा। ओर उनकी आंख लग गई। रात्रिभर आराम से सोने के बाद सुबह जब उठे तब दाहज्वर नदारद था। बस उनके वैराग्य को पुष्टि मिल गई। धर्म ही सही व एकमात्र शरण है यह श्रद्धा दृढ़ हो गई।
संयम लेकर उग्राराधना करने लगे। विहार करते करते एकबार श्रेणिक राजा की राजगृही में आये और श्रेणिक से मिलन पर उन्हें धर्म की सही समझ दी। उनका प्रथम मिलन का संवाद भी तत्त्व सभर है।

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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।


जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।

बड़ी साधुवन्दना - 19

वली समुद्रपाल मुनि, राजीमती रहनेम,
केशी ने गौतम पाम्या शिव पुर क्षेम ।24।

चंपा नगरी का पालित नामक दृढ़ धर्मी श्रावक। सभी व्रतों की पालन,  मर्यादा से युक्त पालित का व्यापारार्थ देश विदेश जाना होता रहता। एकबार समुद्र पार के देश मे गया तब वँहा संयोग वश एक सुंदर कन्या से विवाह हुआ। वापसी में गर्भवती पत्नी ने समुद्र में एक पुत्र को जन्म दिया। समुद्र में जन्म होने से उसका नाम पालित ने समुद्रपाल रक्खा।
समयांतर में समुद्र पाल बड़ा हुआ। एक बार किसी गुनहगार को सजा के लिए ले जाते हुए राजसैनिको को देखा। तब उसने चिंतन किया कि हर गुनाह के लिए जीव को सजा भुगतनी ही पड़ती है। कर्म किसी को नही छोड़ते। चिंतन ऊर्ध्व बना और समुद्रपाल वैराग्य वासित  बना। उसने संयम ग्रहण कर उग्र आराधना से सभी कर्मो को खपाकर सिद्ध दशा प्राप्त की।

हमारे क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के 22 वे प्रभुजी अरीष्ट नेमीजी के पिता समुद्र विजय जी के अन्य पुत्रो में एक रथनेमीजी भी थे। अरिष्ट नेम प्रभु श्री कृष्ण वासुदेव के चचेरे भाई थे।
नेमप्रभु के विवाह का प्रसंग जीवदया के इतिहास में सुवर्णाक्षरो से लिखित है।
परिवार जन व कृष्ण वासुदेव के अत्यधिक आग्रह पर विरक्त नेम प्रभु विवाह करने को तैयार हुए। मथुरा नरेश उग्रसेनजी की पुत्री राजिंमतीजी से उनका विवाह तय हुआ। शुभ महूर्त में पूर्ण वैभव के साथ रथ आदि में सजधज कर नेम प्रभु की बारात विवाह स्थल के लिए निकली। विवाह स्थल पहुचने से कुछ दूरी पूर्व नेम प्रभु ने कई  पशुओं की करुण चीत्कार सुनी। भावी तीर्थंकर की आत्मा करुणा से कांप उठी। उन्होंने सारथी से पूछा। तब उन्हें बताया गया कि उनके विवाहोत्सव  के  लिए पशुओंको एकत्र कर बांधा गया है। ओहो, जीवदया के महामहिम तीर्थंकर सर से पांव तक सिहर उठे। मेरे विवाह में मेरे निमित्त से इतने सारे पशु को कातिल दर्द। इतना पाप मेरे निमित्त से।
तुरन्त उन्होंने निर्णय ले लिया कि वे विवाह नही करेंगे और बारात उन्होंने मोड़ ली।
सभी ने मोहवश उन्होंने समझाया, पर , सब व्यर्थ। उन्होंने वर्शीदान प्रारंभ किया और एक वर्ष बाद दीक्षा ले ली।
इधर राजीमती जी मन से नेम प्रभु को अपना पति मान चुकी थी। नेमप्रभु के भाई रथनेमीजी भी राजीमति पर मोहित हो चुके थे। उन्होंने नेमप्रभु के विवाह के इनकार के बाद राजीमती जी से विवाह की मांग की। पर राजुलजी अब नेम प्रभु के अलावा किसी के साथ जीवन जोड़ने को उत्सुक नही थी। नेम प्रभु के केवल्यप्राप्ति बाद राजुल जी ने भी दीक्षा ले ली।
रथनेमीजी भी वैराग्य वासित होकर दीक्षित बने।
एक बार रैवतक गिरी पर नेमप्रभु बिराज रहे थे तब अन्य साध्वीजियो के साथ साध्वी राजिमितिजी भी उनके दर्शन के लिए पर्वत पर जाने निकले। रास्ते मे आंधी के साथ बारिश होने लगी तब साध्विजिया बिछड़कर इधर उधर हो गए। बारिश में भीग चुके राजिंमतीजी भी एक गुफा में पहुंच गए। व अंधेरा एकांत देखकर अपने वस्त्र सुखाने लगे। अचानक बिजली की चमकार हुई तब वँहा पहले से स्थित मुनि रथनेमीजी ने सती को देखा। कषाय का क्षणिक उदय हुआ। और मुनि खुद को संभाल न पाए और सती से भोग की मांग की। तब राजीमती जी ने कड़क शब्दो मे रथनेमीजी को बोध दिया। जिस भोग वैभव को तुमने त्याग कर दिया उस वमन किये भोगों के लिए अपनी अमूल्य साधना क्यों बिखेर रहे हो।
साध्वीजी के उच्च बोध से मुनि तुरन्त संभल गये। वह पतन का पल निकल गया। मुनि ने क्षमायाचना की। और कालांतर में दोनो संयम साधना कर मुक्ति के अधिकारी बन मोक्ष गये।

आगे इस गाथा का ही प्रसंग....

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सन्दर्भ : - डॉ पदम् मुनि ग्रंथ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।और  नेम प्रभु की बारात के प्रसंग में पशुओं को आहार हेतु बांधना - इस घटनाक्रम में कंही कंही मान्यताभेद है। सही तत्त्व केवली भगवान के अलावा कोई नही जानता। इस लिए यहां ऐसा मांसाहार का कोई स्पष्टीकरण नही किया। यह ओर रथनेमीजी राजुल जी के प्रसंग लीखनेमें किसी की भावना को ठेस पहुंची हो तो माफी चाहता हूं।


बड़ी साधुवन्दना - 20

वली समुद्रपाल मुनि, राजीमती रहनेम,
केशी ने गौतम पाम्या शिव पुर क्षेम ।24।

इस गाथा की दूसरी कड़ी महत्त्व पूर्ण है।

प्रभु पार्श्व व वीर प्रभु की परंपरा के 2 महान शिष्य का अदभुत मिलन व संगम । सिर्फ शिष्यों के ही नही, वरन इसके साथ ही एक ही मार्ग की 2 परंपराओका संगम व फिर एक का दूसरे में विलीनीकरण।

इस काल के 23 वे प्रभुजी पार्श्वनाथ जी व 24 वे प्रभुजी वीर प्रभु के बीच का समय सभी अंतरालों में कम रहा। 250 वर्ष।

वीर पभु को जब केवल्यप्राप्ति हुई , जब उन्होंने संघ स्थापना की, तब और उसके कई समय बाद तक अलग अलग क्षेत्रो में पार्श्वनाथ प्रभुजीकी परंपरा के कई संत विचर रहे थे। कालस्य वैसी अग्नि पुत्र, गांगेय अणगार आदि। जो वीर प्रभु का मार्ग समझकर फिर उनके संघ में मिलकर विलीन हो गए। इन सभी मे पार्श्वनाथ परंपरा के सबसे बड़े सन्त केशिकुमार श्रमण का नाम अग्रस्थान पर है। इसके साथ ही पार्श्व प्रभु का पूरा संघ वीर प्रभु के संघ में मिल गया।
एकबार श्रावस्ती नगरी के तिन्दूक उद्यान में आर्य केशी व अन्य कोष्ठक उद्यान में आर्य गौतम का अपने शिष्यों समेत पदार्पण हुआ। दोनो परंपराओका लक्ष्य व मार्ग एक ही था  ,  पर लिंग व महाव्रतों आदि में जो थोड़ा सा फर्क था वह लोक में चर्चा का कारण बना। जिस तरह वीर प्रभु ने अपने पूर्वगामी तीर्थंकरों का नाम - अन्य वर्णन अपने शिष्यों को बता दीया था उसी तरह पार्श्व प्रभु ने भी आगामी तीर्थंकर के रूप में महावीरस्वामी का उल्लेख कर ही दिया था। अब संशय मात्र कुछ औपचारिकता का था।
दोनो महाशिष्यो ने इस हेतु मिलन आवश्यक समझा। गौतम स्वामी विनय समझकर स्वयं केशी मुनि से मिलने आये। उन महामुनि का केशी मुनि ने हार्दिक स्वागत किया। और दोनो परंपराओ की भिन्नता की चर्चा की। दोनो परम् ज्ञान के धारक थे। यह चर्चा सभी जिज्ञासु के लिए थी। सिर्फ मनुष्य ही नही इस अदभुत मिलन को निहारने देवलोक से स्वयं देवो का आगमन होता है। कितना अदभुत द्रश्य होगा वह।

मुख्य चर्चा महाव्रत व लिंग संबन्धी थी। पार्श्वनाथ प्रभु ने चतुर्याम धर्म बतलाया था तो वीर प्रभु ने पांच महाव्रत रूप धर्म। पार्श्व परंपरा के साधुजी बहुमूल्य रंग बिरंगे वस्त्र प्रयुक्त करते थे और वीर प्रभु के सन्त कम मूल्य के श्वेत वस्त्र ही धारण करते थे। इस के साथ ही अन्य चर्चाएं हुई। जिसमें गौतम स्वामी ने केशी मुनि के सभी सवालो का सुंदर समाधान दिया।
अंत मे केशिकुमार श्रमण  शिष्यों समेत वीर संघ में सम्मिलित हो गए। चतुर्याम धर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म मे प्रवेश  किया। इस तरह पार्श्वनाथ प्रभु के शासन का विराम हुआ।

इस तरह गाथा में वर्णित 5 जीव मोक्ष गामी बने।

आचार्य भगवान , परम् श्रद्धेय उमेशमुनि जी ने उत्तराध्ययन सूत्र के 23 वे अध्ययन में निहित इस चर्चा के एक एक शब्द का इतना सुंदर विवेचन किया है कि पढ़कर  2 परंपरा अदभुत का संगम, अदभुत ज्ञान का परिचय मिलता है। इस विवेचन का संकलन 3 ग्रंथोमें किया गया है। केशी गौतम 1- 2 - 3 . जिज्ञासु  'नन्दाचार्य साहित्य समिति मेघनगर'  से प्राप्त कर सकते है।

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सन्दर्भ : - डॉ विभिन्न ग्रंथ से

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम














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