कथा 3उदायन राजर्षि, अवंतिसुकुमार
श्री उदायन राजर्षि
क्षमापना किस तरह की होती है, "मिच्छामि दुक्कडम" किस तरह किया जाता है, इसका श्रेष्ठ उदाहरण अर्थात इस काल के अंतिम राजर्षि श्री उदायन राजा।
ये वीतभय नगरी के राजा थे।
इनकी रानी प्रभावती के पास प्रभु वीर की देह प्रमाण, देव कृत प्रतिमा थी। रानी ने जब दीक्षा ली तब ये प्रतिमा दासी को सौंपी थी।
एक बार उज्जैनी नगरी के राजा चंडप्रद्योत, दासी सहित वो जीवित प्रतिमा को ले कर चला गया। इस कारण उदायन राजा ने राजा चंडप्रद्योत के साथ युद्ध किया और उनको युद्ध में हराकर बंदी बनाया।
एक बार संवत्सरी के दिन उदायन राजा ने उपवास किया था। उस दिन राजा चंडप्रद्योत ने भी उपवास किया, और ये बात उदायन राजा को पता चली, और इस तरह उनको साधर्मिक जानकर संवत्सरी के दिन क्षमापना पूर्वक छोड़ दिया।
एक बार इन्होंने मनोरथ किया कि जो प्रभु स्वयं पधारेंगे तो तुरंत ही वो दीक्षा ले लेंगे। और ऐसा ही योग हुआ और प्रभु सुबह ही पधारे। और इन्होंने प्रभु के पास दीक्षा ली।
राज्य नरक का कारण है। यह समझ कर अपने पुत्र को राज्य ना दिया, बल्कि भांजे को राज्य दिया और दीक्षा लेकर विचरने लगे।
एक बार वे पुनः भांजे के शहर में आए। भांजे ने उनकी भक्ति की परंतु राज्य वापस लेने की इच्छा से आए हुए होंगे ऐसा मन में डर था, इस कारण से उसने दही में विष मिला कर खिला दिया। देवों की सहायता से वो दो बार बच गये परंतु तीसरी बार न बच सके। ध्यान में लीन होकर केवल ज्ञान को प्राप्त किया। और आयु समाप्त होने के बाद मोक्ष में गए।
शत्रु के साथ भी मित्र भाव से क्षमापना करने वाले हे राजर्षि, आप धन्य है। आप के चरणों मे वंदना कर के ऐसी क्षमापना का प्रादुर्भाव हमारे हृदय में भी हो ऐसी प्रार्थना करते हैं।🙏
Story#68 अवंतिसुकुमार / Avanti Sukumar
एक भूखी लोमड़ी मध्य रात्रि को एक नवदीक्षित मुनि का पैर खा रही है, फिर भी शरीर के प्रति निस्पृहि महात्मा, पैर को हिलाते तक नहीं, बिलकुल ही व्यथित होने नहीं, एक शब्द भी बोलते नहीं बस ये याद करते हैं के मैने समभाव में रहने के पचक्खान लीये हैं बस यह सोच कर समता से ये तीव्र वेदना को सहन करते हैं।
एक प्रहर में एक पैर गया, दूसरे प्रहार में दूसरा, तीसरे प्रहार में पेट खा लिया गया और मुनि फिर भी निश्चल है, सोचते हैं के ये काया तो नाशवंत है और मैं अविनाशी।
यह स्थिति में यह सब विचार कर रहे थे,
उज्जयिनी नगरी के वासी भद्रशेठ और भद्राशेठानी के संतान, जो 32 पत्नियों के स्वामी थे। अत्यंत श्रीमंत और सुखी।
परंतु ऐसे सद्गुणी महापुरुष, इतने ऐशो आराम में भी जब सहि निमित्त पाते हैं तो एक पल में ही ये सारे सांसारिक सुख का त्याग करने तत्पर हो जाते हैं।
एक बार इन्होंने श्री आर्यसुहस्तिसूरी से 'नलिनीगुल्म' अध्ययन सुना और सुनते ही
जातिस्मरण ज्ञान हुआ। जाना के वो नलिनिगुल्म विमान से आये हैं, और इनकी यात्रा तो कुछ और ही है। संपत्ति सब तुच्छ लगी, माया ममता छोड़ कर तुरंत चारित्र लिया।
स्मशान में कार्योत्सर्गध्यान में खड़े रहे। सुकोमल शरीर की सुगंध से एक पूर्व भव की बैरी लोमड़ी अपने बच्चों के साथ वहां आयी और उनका उपरोक्त हाल किया। काल करके "नलिनीगुल्म" विमान में देव बन उत्पन्न हुए।
क्षमापना किस तरह की होती है, "मिच्छामि दुक्कडम" किस तरह किया जाता है, इसका श्रेष्ठ उदाहरण अर्थात इस काल के अंतिम राजर्षि श्री उदायन राजा।
ये वीतभय नगरी के राजा थे।
इनकी रानी प्रभावती के पास प्रभु वीर की देह प्रमाण, देव कृत प्रतिमा थी। रानी ने जब दीक्षा ली तब ये प्रतिमा दासी को सौंपी थी।
एक बार उज्जैनी नगरी के राजा चंडप्रद्योत, दासी सहित वो जीवित प्रतिमा को ले कर चला गया। इस कारण उदायन राजा ने राजा चंडप्रद्योत के साथ युद्ध किया और उनको युद्ध में हराकर बंदी बनाया।
एक बार संवत्सरी के दिन उदायन राजा ने उपवास किया था। उस दिन राजा चंडप्रद्योत ने भी उपवास किया, और ये बात उदायन राजा को पता चली, और इस तरह उनको साधर्मिक जानकर संवत्सरी के दिन क्षमापना पूर्वक छोड़ दिया।
एक बार इन्होंने मनोरथ किया कि जो प्रभु स्वयं पधारेंगे तो तुरंत ही वो दीक्षा ले लेंगे। और ऐसा ही योग हुआ और प्रभु सुबह ही पधारे। और इन्होंने प्रभु के पास दीक्षा ली।
राज्य नरक का कारण है। यह समझ कर अपने पुत्र को राज्य ना दिया, बल्कि भांजे को राज्य दिया और दीक्षा लेकर विचरने लगे।
एक बार वे पुनः भांजे के शहर में आए। भांजे ने उनकी भक्ति की परंतु राज्य वापस लेने की इच्छा से आए हुए होंगे ऐसा मन में डर था, इस कारण से उसने दही में विष मिला कर खिला दिया। देवों की सहायता से वो दो बार बच गये परंतु तीसरी बार न बच सके। ध्यान में लीन होकर केवल ज्ञान को प्राप्त किया। और आयु समाप्त होने के बाद मोक्ष में गए।
शत्रु के साथ भी मित्र भाव से क्षमापना करने वाले हे राजर्षि, आप धन्य है। आप के चरणों मे वंदना कर के ऐसी क्षमापना का प्रादुर्भाव हमारे हृदय में भी हो ऐसी प्रार्थना करते हैं।🙏
Story#68 अवंतिसुकुमार / Avanti Sukumar
एक भूखी लोमड़ी मध्य रात्रि को एक नवदीक्षित मुनि का पैर खा रही है, फिर भी शरीर के प्रति निस्पृहि महात्मा, पैर को हिलाते तक नहीं, बिलकुल ही व्यथित होने नहीं, एक शब्द भी बोलते नहीं बस ये याद करते हैं के मैने समभाव में रहने के पचक्खान लीये हैं बस यह सोच कर समता से ये तीव्र वेदना को सहन करते हैं।
एक प्रहर में एक पैर गया, दूसरे प्रहार में दूसरा, तीसरे प्रहार में पेट खा लिया गया और मुनि फिर भी निश्चल है, सोचते हैं के ये काया तो नाशवंत है और मैं अविनाशी।
यह स्थिति में यह सब विचार कर रहे थे,
उज्जयिनी नगरी के वासी भद्रशेठ और भद्राशेठानी के संतान, जो 32 पत्नियों के स्वामी थे। अत्यंत श्रीमंत और सुखी।
परंतु ऐसे सद्गुणी महापुरुष, इतने ऐशो आराम में भी जब सहि निमित्त पाते हैं तो एक पल में ही ये सारे सांसारिक सुख का त्याग करने तत्पर हो जाते हैं।
एक बार इन्होंने श्री आर्यसुहस्तिसूरी से 'नलिनीगुल्म' अध्ययन सुना और सुनते ही
जातिस्मरण ज्ञान हुआ। जाना के वो नलिनिगुल्म विमान से आये हैं, और इनकी यात्रा तो कुछ और ही है। संपत्ति सब तुच्छ लगी, माया ममता छोड़ कर तुरंत चारित्र लिया।
स्मशान में कार्योत्सर्गध्यान में खड़े रहे। सुकोमल शरीर की सुगंध से एक पूर्व भव की बैरी लोमड़ी अपने बच्चों के साथ वहां आयी और उनका उपरोक्त हाल किया। काल करके "नलिनीगुल्म" विमान में देव बन उत्पन्न हुए।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें